आत्मशक्ति (कहानी) : सविता मिश्रा 'अक्षजा'
Atmashakti (Hindi Story) : Savita Mishra Akshaja
“...मम्मा, मम्मा! निक्की स्कूल से आते ही पुकारती हुई रसोईघर में पहुँची थी। माँ के गले से लिपटकर ...ऊँ हूँ हुँ ऊँ हूँ करके रोने लगी।
“क्यों रो जा रही, क्या बात है बिटिया? अरे बताओ तो...!” माँ ने सशंकित होकर पूछा।
निक्की बिलखते हुए बोली- “मम्मा, आज फिर उस लफंगे ने मुझको छेड़ा।”
“कौन, कहाँ…? ये सब बातें तूने मुझसे पहले क्यों नहीं बताई? चुप हो जा अब और चल मेरे साथ, अभी बताता हूँ उस हरामखोर को!” बहन की बात सुनते ही बड़ा भाई रोहित आगबबूला हो गया।
“सुन रोहित…, अरे सुन तो बेटा, रुक जा बेटा...। मारपीट से कुछ हासिल होगा क्या?” घर के बाहर निकलने से पहले ही दरवाजे पर रोहित को पकड़कर माँ समझाने लगी।
“तो मैं क्या करूँ, तुम्हीं बताओ मम्मी? वह बदमाश रोज-रोज छेड़ रहा है निक्की को, चार दोस्त मिलकर एक बार पीट आते हैं साले को, फिर नजर उठाने की भी कभी हिम्मत नहीं करेगा।”
रोहित को पानी का गिलास पकड़ाकर माँ संयमित रहने का पाठ पढ़ाने लगी। लेकिन युवावस्था का क्रोध पानी के घूँट से ठंडा होने वाला कहाँ था। वह फिर से बिफरा, “आदर्श, तू क्या चुपचाप बैठा है, चल मेरे साथ तू भी। तुझे क्रोध नहीं आ रहा है यह सब सुनकर ?”
“भैया, क्रोध से आग भड़केगी, शांत तो नहीं होगी न। तुम आज चार लोग मिलकर उसे पीटोगे, कल वो आठ मिलकर हम दोनों को पीटेंगे। ऊपर से दीदी को भी चैन से जीने नहीं देंगे। चलो न, पुलिस में रिपोर्ट करवा आते हैं।”
“नहीं, नहीं, इससे बदनामी होगी। लोग निक्की को ही बुरा-भला कहेंगे। आगे चलकर इसकी शादी में दिक्कत आयेगी। शांत बैठो दोनों भाई। कल पापा आयेंगे, फिर देखते हैं कि वे क्या कहते हैं इस मामले में।”
“पापा आयेंगे, फिर देखेंगे। हुँह...! कुछ भी हो बस हाथ पर हाथ धरे पापा के आने का वेट करो। आए पापा?” कल का दबा क्रोध जैसे उबलकर पुनः बाहर आ गया था।
“कुछ काम आ गया होगा। आज परमिशन लेकर, आने वाले थे!”
“मम्मी, तुम कब तक दिवा स्वप्न देखती रहोगी। मौके से उन्हें अपनी नौकरी से कब फुर्सत मिली! याद करके बताइए तो?” थोड़ी देर शांत रहकर जैसे अपने गुस्से को पीना चाहता था, किन्तु बहन की इज्जत का सवाल था। आखिर हर बार की तरह इस बार भी वह कैसे चुप लगा जाता। तिलमिलाहट में फिर से बोला, “साल भर से आज आऊँगा, कल आऊँगा कहके नहीं आते हैं। कोई न कोई काम निकल आने का बहाना बना देते हैं। इन्तजार करवा-करवाकर उन्होंने आपको संतोष बनाए रखने में प्रवीण कर दिया है। आपको अच्छी तरह पता है कि उनको अपना काम सबसे अधिक प्यारा है। आपसे क्या, अपने बच्चों से भी अधिक।”
बेटा अपनी कुंठा उगलकर जा चुका था, किन्तु उसके द्वारा कही गयी हर बात दिमाग में भूचाल मचाए थीं। वह बुदबुदाई, ‘कुछ गलत तो नहीं कह रहा है रोहित। आखिर कुछ दिनों पहले उसने आशीष से छुट्टी लेने की जिद की थी तो उन्होंने कटु शब्दों में उत्तर दिया था, ‘तुम तो चाहती हो कि मैं नौकरी छोड़कर तुम्हारी गुलामी करूँ’। ‘मैं ऐसा कब चाहती हूँ?’ कहते ही उन्होंने तपाक से कहा था, ‘नहीं चाहती तुम, तो फिर छुट्टी लेकर आने का हठ क्यों करती हो। जानती हो, छुट्टी माँगते ही अधिकारी व्यंग्यात्मक रूप से कहते हैं कि ‘जब- तब छुट्टी ही चाहिए तो फिर इस नौकरी में क्यों हो, छोड़कर घर बैठो’। तुम बताओ कि यदि नौकरी छोड़कर घर बैठ जाऊँगा तो खाओगी क्या, अपने बच्चों को क्या खिलाओगी! खुले हाथ से जो खर्च चल रहा है, वो कैसे चलेगा’? कॉल कटते ही उसने मोबाइल को उस दिन स्विच ऑफ करना ही उचित समझा था।’
हफ्ते भर बाद ही बिना किसी सूचना के आशीष आ गये थे। उन्हें अचानक देखकर सबको जैसे साँप सूँघ गया।
सुषमा ने चाय पकड़ाते हुए पूछा, “छुट्टी मिल गयी क्या, हमें तो बताया नहीं था आपने?”
“नहीं, छुट्टी मिलना इतना आसान थोड़ी है। त्योहारों का सीजन भी चल रहा है। बस एक दिन की परमिशन लेकर आया हूँ।”
दोपहर में पिता की उपस्थिति में खाना-पीना शांति से निपट गया। खाते समय कोई भी एक शब्द भी नहीं बोला था। सभी को यूँ चुपचाप खाना खाकर उठते देख आशीष ही बोल पड़े, “अरे, तुम सब बहुत शांत बैठे हो! क्या बात है, कोई अनहोनी हो गयी है क्या?”
माँ-बेटी डायनिंग-टेबल से बर्तन समेट रसोई की ओर जाने लगीं। तभी रोहित की तरफ तिरछी निगाह डालते हुए आशीष का कड़क स्वर गूँजा-
“क्यों रोहित, हमेशा की तरह कहीं से लड़कर तो नहीं आए हो?”
रोहित के अंदर सुलगती आग जैसे भड़क उठी, “नहीं पापा, लड़कर तो नहीं आया। परन्तु लड़ना चाहता था। बस मन मसोसकर रह गया हूँ। मम्मी और इस आदर्श ने मुझे कुछ करने नहीं दिया।”
“क्या हो गया ऐसा...?”
“मम्मी ने रोक लिया। आपके आने का इन्तजार था। फोन पर बताने को कहा था तो कहने लगीं कि आप आ जाएँगे तो सामने बैठकर यथास्थिति से अवगत कराएँगी। अब आप आ गये हैं, आप ही बताइए, कोई समाधान निकालिए! निक्की को महीने भर से एक लड़का परेशान कर रहा है। हमें क्या करना चाहिए? आप कहिए तो कल ही दस-पाँच लात-घूसे मारकर उसे ठीक कर आऊँ।” गुस्से में भरा रोहित मम्मी के रसोई से आने तक का सब्र नहीं रख पाया।
“निक्की, निक्की..!” तमतमाये हुए आशीष ने बेटी को पुकारा।
“बुलाओ उसे, कहाँ गयी?” क्रोध से पत्नी की ओर देखते हुए चीखे।
निक्की डर से थरथर काँपती हुई सामने आकर खड़ी हो गयी। भय ने उसके शरीर को पूरी तरह से जकड़ लिया था। आँखों की पुतलियों पर पलकों ने घेरा डाल दिया था। होंठ रह-रहकर फड़फड़ाते फिर एक दूसरे से चिपक के रह जाते थे। स्वर भिंचे हुए होंठों से बाहर निकल नहीं पा रहा था, शब्द अंदर ही अंदर दम तोड़ दे रहे थे।
“कौन है वह लड़का, क्या तुम्हारा दोस्त है, बोलती क्यों नहीं?” बादल जैसे गरजे थे।
पिता की कड़कती वाणी से वह सहमकर बोली, “जी, जी पापा। पर मेरा...”
“हम तुम्हें कॉलेज में पढ़ने भेजते हैं, याकि ऐसे सड़क-छाप लड़कों से दोस्ती-यारी करने?”
“अरे सुनो तो जी!” माँ आगे होकर बेटी की ढाल बनने की कोशिश की।
“तुम चुप रहो, सब तुम्हारे ही लाड़-प्यार का नतीजा है। यह रोहित अवारा बना घूम रहा है। अठ्ठाइस वर्ष का हो गया, पर अभी तक इसके कैरियर का कोई अता-पता नहीं है। और दूसरे ये छोटे मियाँ हैं, हर तीसरे साल फेल होते रहते हैं। और तुम्हारी लाड़ली है कि लफंगे दोस्त बनाती फिर रही हैं।” आशीष के क्रोध का घड़ा पत्नी के सिर पर फूट गया।
अग्नि बरसाती आँखों से पत्नी को घूरते हुए आशीष फिर शुरू हो गए, “तुम घर में बैठे-बैठे न जाने क्या करती रहती हो? इन सब को ठीक ढंग से संभाल भी नहीं पायी। तुम सही परवरिश देती तो ये ऐसे कतई नहीं होते, जैसे हैं। मैं अपनी नौकरी करूँ या इन सबको सम्भालूँ!
सुमेर सिंह के बेटे को देखो! वह 'आई.ए.एस.' हो गया। उनकी भी बिटिया इसी के कॉलेज से तो पढ़कर निकली है। उसे तो कभी किसी ने नहीं छेड़ा! आज वह भी सुमेर द्वारा ढूढ़े हुए लड़के से शादी करके खुशहाल जीवन जी रही है।”
“आप सहजता से कोई भी बात सुनते तो हैं नहीं, बस एक सिरे से अपराधी की तरह हम सबको एक लाइन में खड़ाकर सजा सुनाने लगते हैं। बच्चों के सामने मुझे भी डपटते रहते हैं। उनकी नजरों में तो आपने मुझे अनपढ़-गंवार ही साबित कर दिया है। और हाँ, सुमेर सिंह के बच्चों को देखने से पहले यह क्यों नहीं देखते हैं कि वह आपकी तरह नहीं हैं। वह नौकरी के साथ-साथ अपने बच्चों का भी पूरा ख्याल रखते हैं। नौकरी से ज्यादा उन्हें अपना परिवार प्यारा है।
‘आई.ए.एस.’ हो गया... हुँह! आई.ए.एस. ऐसे ही जादू से नहीं हो गया। उन्होंने अपने कंधो को हमेशा अपने बच्चों के लिए मजबूत रखा। और आप, आप समाज को मजबूत करने में अपना कंधा घिसते रहे। बच्चों के लिए तो उनके बचपने में भी आपका कंधा नसीब नहीं हुआ।”
“तुम क्या चाहती हो, रिजाइन करके घर पर बैठ जाऊँ?”
“कुछ कहो तो ले देके बस एक यही धमकी रहती है आपके पास। आपके इसी व्यवहार के कारण सारे बच्चे नालायक निकल गए, लेकिन सिर्फ आपकी नजर में। वरना मेरी नजर में मेरे बच्चों से ज्यादा लायक पूरे मोहल्ले में किसी के बच्चे नहीं हैं। और सुनिए! आप अपनी नौकरी की तरह इन्हें भी अगर प्यार-दुलार दिए होते न, तो ये दिन हमें नहीं देखने पड़ते।” गुस्से और अपमान से तमतमाई सुषमा बादल-सी फट पड़ी थी।
रोहित जो अब तक शांत बैठा था, अचानक भड़क उठा, “आप दोनों आपस में ही लड़ लीजिये। मैं नौकरी नहीं पा रहा हूँ, क्योंकि आपने मुझे सही लाइन को पकड़ने के लिए गाइड नहीं किया। जिस पथ पर चलने की योग्यता मुझमें थी, उस रास्ते को मुझे किसी ने दिखाया ही नहीं। माँ ने अनभिज्ञ होने का बहाना बना लिया और आपने अपनी नौकरी का। आपकी इस नौकरी से हमें क्या मिला? आप देख ही रहे हैं। अब तो इज्जत भी जाने को है। अभी निक्की ने डरते हुए मुझसे कहा कि वह नालायक इसे उठा ले जाने की धमकी देकर गया है।”
“है कौन वह लड़का, क्या नाम है उसका?” आशीष की जुबान में अब थोड़ी नरमी आ गयी थी।
“वह इस आदर्श का दोस्त है।” रोहित ने आदर्श की तरफ इशारा करके कहा।
“चटाक” थप्पड़ की झन्नाटेदार आवाज कमरे में गूँज उठी। आर्दश भयभीत हो नील पड़े अपने गाल को सहलाता रह गया। बिजली की तरह कड़ककर पिता उसे डपटने लगे थे, “ऐसे नालायक दोस्त हैं तेरे, तभी फेल हो रहा है। सुधर जा और अपनी संगत सुधार ले, संगत का असर बहुत ज्यादा पड़ता है। तू चन्दन का पेड़ नहीं है जो साँप तुझे घेरे रहें और तू विषहीन बना रहेगा।”
क्रोध की बिजली निक्की को छूकर निकलती हुई आदर्श पर गिर पड़ी थी। आदर्श जैसे काठ हो गया था। माँ अब तक ठगी-सी खड़ी सब कुछ देख रही थी। जवान बेटे के गाल पर पड़े थप्पड़ की गूँज उसे अंदर तक हिला गयी। उसे लगा कि एक पिता के सामने उसके बच्चे नहीं खड़े हैं, बल्कि एक पुलिस ऑफिसर के सामने अपराधी खड़े हैं और वह तिलमिलाया हुआ पिता उनको थर्ड डिग्री देने को उद्धत है। वह अपनी पूरी हिम्मत को समेटती हुई आगे बढ़ी और फोन उठाकर उसने '१०९८' नम्बर डायल कर दिया। उधर से 'हैल्लो' बोला गया तो सुषमा बोली, “हेल्लो सर! मेरी बेटी निक्की को उसके स्कूल छूटने के बाद, रास्ते में कुछ बदमाश लड़के अक्सर छेड़ते हैं। तकरीबन दस दिन से वे बहुत ज्यादा परेशान कर रहे हैं। अब तो उठा लेने धमकी भी देने लगे हैं। कृपा करके आप कुछ कीजिए। इन बढ़ती घटनाओं में कहीं आपके लिए यह भी बस एक घटना न बनकर रह जाए। आखिर ये आपके ही विभाग के परिवार की नाक का सवाल है और साथ में पूरी खाकी के साख का भी।”
फोन काटते ही आशीष आग बबूला हो उठा, “यह क्या किया तुमने? ये खबर उड़ते ही पत्रकार लोग कीचड़ उछालने लगेंगे मुझपर और पूरे डिपार्टमेंट पर भी।”
“तो क्या करती? उस उछलने वाले कीचड़ के डर से चुप रह जाती। आखिर मेरी बेटी का सवाल है। कीचड़ में मैं और मेरी बेटी की गर्दन पूरी तरह डूब जाय, इससे अच्छा है कि उसके पहले ही मैं बचाओ-बचाओ की आवाज लगाऊँ। कीचड़ के छीटें मंजूर हैं, पर कीचड़ में डूबना बिलकुल भी मंजूर नहीं है मुझे।”
“क्या तुम जानती नहीं हो कि ये पत्रकार लोग वर्दी वालों पर कीचड़ उछालने के फिराक में रहते हैं, और तुमने उन्हें वह मौका अपने हाथों से ही दे दिया। उन्हें तो मसाला चाहिए। खाकी-खादी वालों के घर के मसाले से ही तो इनकी टीआरपी की रेसिपी बनती-बिगड़ती है। ब्रेकिंग न्यूज के नाम पर कल को यही जज, यही वकील बनकर बिटिया पर तरह-तरह के सवाल दागेंगे! चटखारे लेते हुए टीवी में तिल का ताड़ बनाकर उसे पेश करेंगे। क्या सुन पाओगी तुम, सह पाओगी, बताओ तो जरा?”
“सब कुछ सुन लूँगी और सह भी लूँगी जी। बेटी पर आँच आये तो माँ क्या ही नहीं कर सकती है। कहने को भी बहुत कुछ कह और लड़ भी सकती है। क्या उनके घर बेटियाँ नहीं होती हैं, जो वे मेरी बात नहीं समझना चाहेंगे?”
सुषमा के तेवर देखकर बच्चे भी उसके साथ खड़े हो गए थे। आशीष सिर को पकड़े सोफे पर गड़े बस अब सुन रहे थे। उन्हें उनकी प्रतिष्ठा धूमिल होती दिखने लगी थी। बेटी को तो वह येन-केन-प्रकारेण बचा लेते, भले ही उसके लिए उन्हें पुलिसिया हथकंडे का इस्तेमाल करना पड़ता। परन्तु अपने आँखों से खाकी की इज्जत धूमिल होते कैसे देख सकते थे। उनकी आवाज की ठसक में अब बेचारगी उतर आई थी।
सुषमा ने कमर पर साड़ी का पल्लू बाँधते हुए घायल शेरनी-सी हुँकार भरी, “अब आप इत्मीनान से अपनी नौकरी करिए, मैं देख लूँगी। हिम्मत हो तो वे लफंगें, बिटिया को अब छेड़कर दिखाए?”
“तो अब तक क्यों चुप थी? उनके सामने तुम्हारी जुबान तब क्यों नहीं खुली?” मौका मिलते ही आशीष ने फुँफकारा। उसे लगा वह व्यंग्य तीर छोड़कर अपने घाव पर फाहा रख लेगा।
लेकिन... खिसियाई सुषमा ने दुगनी वेग से पलटवार किया, “अब तक आपके भरोसे थी। मेरे आगे आने पर, कोई आप पर उँगली न उठाए, इस बात का ध्यान रख रही थी। पर आपने तो मेरी ममता, मेरे अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया। कल ही बताती हूँ, अब आप देखिएगा मेरे स्त्रीत्व की ताकत!”
“जब स्वयं इतनी हिम्मती थी तो फिर चिंघाड़ी क्यों मूरख?”
“गलती हो गयी, अब एक स्त्री की हुँकार देखना आप भी और आपके पुलिस वाले साथी भी।”
पूरी शाम, फिर रात को सोने जाने तक घर में गर्मागर्मी का माहौल घने बादल-सा छाया रहा। जब तक आशीष दूसरे दिन सुबह-सबेरे ड्यूटी के लिए निकल नहीं गए, तब तक बिजली अब कड़की कि तब कड़की का डर बना हुआ ही था। उनके जाते ही मोहल्ले के लोगों के बीच सुषमा ने पूरी बात रखते हुए मदद की गुहार लगाई। स्त्री अस्मिता की दुहाई देकर सबको समझाने का प्रयास किया। मनोविज्ञान में ली गयी उसकी डिग्री यहाँ उसके खूब काम आई। कई बेटियों के माँ-बाप आए दिन बेटियों के साथ होती छेड़खानी से पीड़ित थे, अतः उसके समझाने पर साथ देने वालों की अच्छी-खासी संख्या जमा हो गयी। दोपहर तक नारों से पूरा मोहल्ला गूँज रहा था। ऐसी महिलाओं-लड़कियों की भी भारी तादाद जमा हो गयी थी, जो घर घुसुरु थीं। अग्रणी पंक्ति में सुषमा के साथ चलती सभी महिलाएँ नारा लगाती हुई उस मोहल्ले की ओर बढ़ने लगी थीं, जहाँ शोहदों के घर थे।
“अब न सहेंगे हम नारी का अपमान लेकर रहेंगे हम अब अपना सम्मान...।”
कदमताल के साथ नारों के स्वर में भी रोष भरता जा रहा था। उस लड़के के घर के सामने जाकर भीड़ थम गयी थी लेकिन रोष..., वो भला कहाँ थमने वाला था। खटकाने पर जब उसकी माँ ने दरवाजा खोला तो सुषमा शेरनी की तरह दहाड़ उठी। सुषमा की दहाड़ को सुनकर वह गीदड़ यानी निहाल अंदर ही दुबका रहा। माँ को उसके बेटे की करतूत बताते हुए सुषमा क्रोध से काँप रही थी। स्थिति की भयावहता देखते हुए निहाल की माँ ने सुषमा से क्षमा माँगी और बोली, “बहिन जी, आइन्दा से मेरा बेटा निहाल आपकी बेटी ही नहीं, बल्कि किसी भी लड़की को कभी नहीं छेड़ेगा, इसकी गारंटी मैं लेती हूँ। यदि कभी ऐसा हुआ! तो मैं खुद ही इसे पुलिस के हवाले कर दूँगी। यदि नहीं करूँ, तो आपके जो मन आए, इसके साथ वही करियेगा, मैं इसका बचाव नहीं करूँगी।” क्षमा की मुद्रा में निहाल की माँ भीड़ के सामने अपराधी-सी खड़ी हुई थी। सभी आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे कि पुलिस आ गयी। दरोगा जी ने भीड़ से पूछताछ की और उनकी राय भी ली। निहाल के खिलाफ पहली कम्पेलन होने के कारण उसे दो-चार थप्पड़ लगाकर वार्निंग देकर छोड़ दिया गया। फिर दरोगा जी ने सुषमा से उनकी हिम्मत की तारीफ करते हुए बोले, “आप जैसी महिलाएँ आगे बढ़ें, तो ऐसी घटनाएँ उजागर हों और शोहदों का मनोबल बढ़ने ही न पाए।”
उसके अगले दिन ही सुषमा अखबारों की सुर्खियों में थी। हर तरफ उसकी वाह-वाही हो रही थी। उसकी सूझबूझ और हिम्मत की कहानियों से समाचार पत्र का सिटी समाचार वाला पन्ना भरा हुआ था। दुनिया नामक समाचार-पत्र की हेडलाइन्स थी-
‘अदम्य साहस दिखाते हुए महिला ने अपनी बेटी की एक सिरफिरे से की रक्षा’
समाचार-पत्र पढ़कर रोहित गद्गद् हो गया था। अगले ही पल एक दूसरे समाचार पत्र की खबर पर उसकी नजर गयी। ‘एक पुलिस वाला ही शोहदों से अपनी बेटी की रक्षा करने में असमर्थ रहा’ तो वह क्रोध से बड़बड़ाया, साले मसाला ढूढ़ ही लेंगे, लेकिन अगले ही पल उसे माँ की दी सीख याद आ गयी। उसने अपने क्रोध पर काबू करके समाचार पत्र को मोड़कर मेज पर रख दिया। थोड़ी देर बाद वह रसोई में जाकर माँ को समाचार की सुर्खियों से अवगत कराता रहा। और माँ जल्दी-जल्दी पराठा बेलते हुए सब सुनकर मुस्कराती रही।
रसोई में आलू के परांठे बनाती हुई माँ के गले में बाहें डालकर रोहित बोला, “माँ, आपका स्वाभिमान यूँ ही बना रहेगा। कराटे की कक्षाएँ कहाँ चलती हैं, मैं कल ही पता करके निक्की का नाम उसमें लिखवा दूँगा। ताकि यह आत्मरक्षा के गुर सीख सके।” निक्की जो पराठे सेंकने में माँ की मदद कर रही थी, खुशी से उछलती हुई बोली “हाँ भैया! ये ठीक रहेगा। मुझे भी अपने को मजबूत बनाना है, ताकि लफंगों से मैं खुद की और लोगों की भी रक्षा कर सकूँ।”
तीनों बच्चे बारी-बारी से अपनी माँ के गले लग अपने-अपने कमरे में पढ़ने चले गये। इस प्रण के साथ कि आगे से हम तीनों कभी भी अपना और अपने माता-पिता का सिर नीचा नहीं होने देंगे और न ही आज के बाद से अपनी माँ को पापा के सामने कमजोर साबित होने देंगे। बच्चों का इतना कहना भर था कि माँ का चेहरा सूरज-सा दमक उठा।