असलियत ने खोली आँखें (कहानी) : आचार्य मायाराम पतंग
Asliat Ne Kholi Aankhein (Hindi Story) : Acharya Mayaram Patang
मैं लक्ष्मी जनरल स्टोर का मालिक हूँ ।मेरे पास चार नौकर सेल्समैन के नाते काम करते हैं । एक चौकीदार है । मैंने बी. कॉम. दिल्ली विश्वविद्यालय से पास किया है । मैं किसी बड़ी फर्ममें नौकरी की तलाश में था । साल भर भागदौड़ करके थक गया तो पिताजी ने कहा, “बेटा, क्यों परेशान होते हो, यह स्टोर भी तो तुम्हारा ही है । कलसे तुम इसकी गद्दी को सँभालो ।वैसे भी मैं अब ७० से ऊपर का हो गया हूँ । एक-दो महीने मैं भी तुम्हारे साथ बैठूँगा ।जब तुम ठीकसे सँभाल लोगे तो मैं घर ही रहा करूँगा ।” पिताजीकी बात आसानीसे समझमें आगई । मुझे अगर नौकरी मिलभी जाती तो नौकर ही तो कहलाता । अब मैं मालिक हूँ । नौकर मेरे आदेशका पालन करते हैं । बार-बार मुझे मालिक और सर कहते हैं । ग्राहक मुझे लालाजी कहते हैं ।अब तो मैं कहता हूँ, ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है ।मुझे नौकरी नहीं मिली तो ठीक ही हुआ । किसी की जी-हुजूरी करता ।सारे दिन काम करता और महीने भर वेतन का इंतजार करता । अब मैं मालिक हूँ । काम वे करते हैं । मैं आदेश देता हूँ । महीने भर का लेखा-जोखा भी मुनीम करता है ।सब काम करने वालों का वेतन देकर भी बहुत बचता है ।
एक पढ़ी लिखी लड़की से मेरे पिताजीने मेरा विवाह कर दिया । लड़की वालों से मेरे पिताजी ने कोई दान-दहेज नहीं माँगा । यद्यपि मैं चाहता था कि एकबार ही तो विवाह होना है, जो शान से हो ।ससुराल से भी कुछ याद रखने योग्य मिले । परंतु पिताजी ने ही मना करदिया तो मैं क्या करता ।विवाह हो गया । पत्नी सुंदर थी । सब शिकायत मिट गई ।थोड़ी खर्चीली भी थी, कोई बात नहीं । मेरी आमदनी भी कम नहीं थी । उसके फैशन के खर्चे झेलने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई ।
दो वर्ष बाद मेरी पत्नी ने एक पुत्रको जन्म दिया । मेरे पिताजी ने खुशी मनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी । मैंने अपने दोस्तों, रिश्तेदारों तथा पड़ोसियों की दावत की । ससुराल से भी सब आए । खूब नाच-गाना हुआ । बेटे का नाम सुरेश रखा गया । रमेश का बेटा सुरेश नाम जँचता है । सुरेश को सभी प्यार करते थे । मेरे पिताजी तो दिन-रात उसे खिलाने में लगे रहते थे ।अब तो स्टोर पर जाने का नाम भी नहीं लेते थे ।मेरी पत्नी से भी अधिक सुरेश की पालना पिताजी ही करते थे । उसे दूध पिलाना, फल, मीठा खिलाना, उँगली पकड़कर चलना, लोरी सुनाकर सुलाना, सब कुछ पिताजी करते ।
मुझे याद नहीं, मेरी माँ कब रामजी को प्यारी हुई थीं । उनका नाम था लक्ष्मी । लक्ष्मी जनरल स्टोर दुकानका नाम उन्हीं के नाम पर था । उनकी एक फोटो फ्रेम में मढ़ी हुई कमरे की दीवार पर टँगी थी । पिताजी कभी-कभी उस तसवीर के सामने खड़े होकर मौन देखते रहते । कभी-कभी मैं भी माँ की तसवीर को श्रद्धापूर्वक देखता ।
एक दिन मेरी पत्नी बोली, “क्यों जी, अब तो स्टोर के मालिक आप हैं । जब मालिक पिताजी थे तो स्टोर का नाम लक्ष्मी स्टोर था । उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर यह नाम रखा था । अब आप मालिक हैं तो दुकान का नाम मीना रख लो ।” मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । मैं बोला, “ये नाम यों ही नहीं रखे जाते । कई शुभ-अशुभ विचार किए जाते हैं । फिर लक्ष्मी मेरी भी तो माँ थी । मैं उनका नाम क्यों बदलूँ ?” मीना बोली, “मैं तुम्हारी कुछ नहीं लगती क्या ? मीना नाम भी कोई बुरा तो नहीं है ।” मैं बोला, “बाजार में ऐसी दुकानें हैं, जिनके नाम उनके दादा के नाम पर हैं । उसी नाम से फर्म चल रही है ।मालिक तीसरी पीढ़ी में आ गए, परंतु दुकान उसी नाम से चल रही है । कई बार नाम बदलने से काम बढ़ने की जगह ठप भी हो जाता है ।” मीना नहीं मानी, बोली, “एक बार पिताजी से बात करके देखो, शायद उन्हें कोई एतराज ही न हो ।” परंतु सच बात यह है कि मेरी हिम्मत ही नहीं हुई । हो सकता है, वह मान ही जाते, परंतु मैं चलते नाम और चलते काम में बाधा डालना नहीं चाहता था ।
अब तो मीना पिताजी पर रोज कोई-न-कोई आरोप लगाने लगी । कभी कहती, पता नहीं कहाँ चले गए ? घर में इतने काम हैं । कम-से-कम बाजार के काम तो कर ही सकते हैं । एक दिन जब रात का खाना खाने बैठे तो सब्जी ही नहीं थी । केवल दाल थी । मैं रात को दाल-चावल नहीं खाता । रात को तो कोई बढ़िया सब्जी होनी ही चाहिए । मीना ने बिना मेरे पूछे ही कहा, “पिताजी ने सब्जी लाकर ही नहीं दी । सब्जी लाने को जो रुपए ले गए थे, उससे किसी बच्चे की सहायता कर आए । उन्हें अपना घर तो दिखता नहीं है । सहायता करने वाले महान्संत बन जाते हैं ।अभी अगले महीने सुरेश का जन्मदिन आ रहा है । बच्चा पाँचवें वर्ष में लगेगा ।जन्मदिन अच्छे से मनाना पड़ेगा । फिर वह स्कूल जाने लगेगा । फीस और ड्रेस का खर्च बढ़ेगा ।पिताजी दान-पुण्य करने में लगे हैं ।” मीना बहुत देर तक जाने क्या-क्या कहती रही, मुझे याद नहीं । परंतु अपना घर न देखकर दान-पुण्य करने की बात मुझे भी ठीक नहीं लगी । मैंने भी पिताजी से कहा, “बुढ़ापे में दान करने की भावना जग रही है । सारे दिन खाली पड़े रहते हो । कुछ देर को दुकान पर ही आ जाया करो, ताकि मुझे भी आराम मिल जाए ।सुबह का गया अब रात को घर आया हूँ । ठीक से स्वादिष्ट खाना भी न मिले तो कितना मन दुःखी होता है ।
एक दिन की बात है, रात को जब मैं खाने बैठा तो मीना पिताजीकी अच्छाइयों को बुराई के नमक-मिर्च लगाकर सुनाती रहती । मुझे सुनने से ज्यादा वह जोर से बोलकर पिताजी को सुना रही होती ।एक दिन पिताजी ने एक थैले में माताजी की तसवीर रखी और बोले, “बेटा, मैं आप लोगों को कोई सुख नहीं दे पाया । रोज-रोज जाने-अनजाने मुझसे कोई गलती हो जाती है । बहू तुम्हें सुनाती है । फिर तुम्हें भी कष्ट होता है ।अतः मैं अब तुम लोगों को और कष्ट नहीं देना चाहता । आज दुकान की छुट्टी है । चल सको तो मुझे नोएडा सेक्टर ५५ तक छोड़ आओ । वहाँ एकवृद्ध आश्रम है ।अब मैं वही रहूँगा ।” मैं कहने वाला था कि घर में जी नहीं लगता तो मंदिर चले जाया करो । दुकानपर आ बैठा करो, परंतु मेरे बोलने से पूर्व ही मीना बोली, “पिताजी का निर्णय ठीक ही है । सारा दिन अकेले पलंग तोड़ने से तो यही अच्छा है । वहाँ बराबर के साथी होंगे । इनका भी मन लगा रहेगा और दान-पुण्य के चक्कर में घर का कोई नुकसान भी नहीं करेंगे ।” पिताजी फिर बोले, “यदि तुम्हें फुरसत नहीं है तो मैं स्वयं ही बस से चला जाऊँगा । वैसे तो बरसों से बस में नहीं चढ़ा हूँ । भय लगता है । कहीं चढ़ने-उतरने के चक्कर में गिर न जाऊँ ?”
मीना फिर बोली, “ठीक तो कह रहे हैं, आप जाकर छोड़ आओ न । और यह थैले में क्या लेजा रहे हो ?” कहते-कहते मीनाने थैला स्वयं उठाकर देख लिया । सास का फोटो देखकर बोली, “अच्छा, ठीक ही किया । इसे देखकर सुरेश पूछता, अम्मा का फोटो यहाँ है तो बाबा कहाँ हैं ? अब वह न देखेगा, न पूछेगा । जाओ जी छोड़ आओ न, मैं तब तक खाना बना लूँगी ।सुरेश को भी तो स्कूल से लेते आना ।”
मैं चुपचाप खड़ा हो गया । अपनी समझ ने तो काम करना ही बंद कर दिया ।पत्नी का आदेश समझकर उठा । गाड़ी की चाबी ली और बोला, “चलो, मैं गाड़ी निकालता हूँ ।” गाड़ी निकाली ही थी कि मीना की आवाज आई, पिताजी से कह देना, सुरेश के जन्म दिन पर भी न आएँ । हम जन्मदिन पर कोई पार्टी नहीं करेंगे । सुरेश को साथ ले जाकर वहीं मिला लाएँगे ।पिताजी गाड़ी का दरवाजा खोलकर पीछे की सीट पर बैठ गए थे ।मैं अपनी सीट पर बैठा और गाड़ी स्टार्ट कर दी । मीना देखती रही ।सेक्टर ५५ के वृद्धाश्रम पहुँचे तो पता चला, यहाँ बच्चे भी हैं । एक सुरक्षाकर्मी से पूछा, यहाँ बच्चे भी दिखाई पड़ रहे हैं । सुरक्षाकर्मी ने कहा, बाबूजी एक ही भवन में बाई ओर वृद्धाश्रम है तथा दाएँ ओर के पाँच कमरे मातृ छाया के हैं । मैंने पूछा, वहाँ माताएँ रहती हैं क्या ? सुरक्षाकर्मी बोला, नहीं, वहाँ नवजात शिशु से ५ वर्ष तक के बच्चे पाले जाते हैं । यहीं से लोग इन्हें गोद ले जाते हैं। सुरक्षाकर्मी से संकेत पाकर हम कार्यालय में पहुँच गए ।मैंने पिताजी के पंजीकरण का फॉर्म भरा और कार्यालय में जमा करवाया । पिताजी तब तक एक सज्जन से घुल-मिलकर बातें करने लगे । मैंने कार्यालय में बैठे सचिव से पूछा, यह सज्जन कौन हैं, जो मेरे पिताजी से वार्त्तालाप कर रहे हैं ? तो उन्होंने बताया कि वे इस संस्था के मुख्य प्रबंधक हैं । स्थापना के समय से ही इसकी देखरेख यही कर रहे हैं ।
फार्म जमा करके बाहर निकला तो प्रबंधक महोदय भी बाहर निकले । मैंने उनसे पूछा, “आप मेरे पिताजी से बड़े घुल-मिलकर बातें कर रहे थे, क्या आप उनसे पहले भी मिले हैं ?” प्रबंधक महोदय बोले, “बेटा! मैं इन्हें ३० वर्ष से जानता हूँ । इनके कोई संतान नहीं थी । तब ये यहीं से एक बच्चे को गोद ले कर गए थे । वह तुम्हीं हो ।” प्रबंधक शायद आगे भी कुछ कहता, परंतु मैं कुछ भी न सुन सका । गाड़ी में बैठते ही स्टार्ट की और घर जा पहुँचा । दरवाजा खोलते ही मीना ने पूछा, “छोड़ आए?” और मैं कुछ कहने की जगह रो पड़ा । मीना बोली, “क्यों, क्या हुआ? पिताजी की याद आ रही है क्या ?” मैं और जोर से रोने लगा । मीना बोली, “कुछ तो बताओ, क्या हुआ?” तब मैंने कहा, “मीना, आज असलियत आई सामने । मुझे भी पिताजी अनाथालय से लाए थे । मुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया । अपनी दुकान, मकान, धन-संपत्ति, सिर उठाकर जीने लायक बनाया । परंतु कभी नहीं पता लगने दिया कि मैं उनका असली पुत्र नहीं हूँ । यहाँ तक कि हमें सुखी करने के लिए स्वयं वृद्धाश्रम चले गए और हम उन्हें सम्मान पूर्वक दो रोटी नहीं दे सके । हमने कितना बड़ा पाप कर दिया ।” मीना को भी असलियत जानकर सचमुच दुःख हुआ । उसने बताया कि पिताजी की शिकायत वह बढ़ा-चढ़ाकर करती रही है । उन्हें सुनाकर कहती रही, फिर भी उन्होंने मुझे झूठ सिद्ध करने का कभी प्रयत्न नहीं किया । फिर बोली, “सुरेश का स्कूल से लाने का समय हो गया, जाओ उसे ले आओ ।”
मैं स्कूल पहुँचा, सुरेश को लिया । उसने पूछा, “आज बाबा क्यों नहीं आए ?” मैं चुपचाप आश्रम की ओर मुड़ गया । वहाँ जाकर पिताजी के पैरों में गिरकर क्षमा माँगी और उन्हें वापस घर ले आया । घर पहुँचे तो मीना ने भी पैर पकड़ कर क्षमा-याचना की । फिर हमने एक निश्चित राशि पिताजी को हर महीने देनी निश्चित की, जिससे वे पुण्य-दान कर सकें ।अब माताजी की तसवीर फिर वहीं टाँग दी गई ।