असत्यम् ! अशिवम् !! असुन्दरम् !!! (व्यंग्यात्मक उपन्यास) : यशवंत कोठारी
Asatyam Ashivam Asundaram (Hindi Satirical Novel) : Yashvant Kothari
समर्पण
अपने लाखों पाठकों को, सादर । सस्नेह।।
1
इस बार महाशिवरात्री और वेलेन्टाइन-डे लगभग साथ-साथ आ गये। युवा लोगों ने वेलेन्टाइन-डे मनाया। कुछ लड़कियों ने मनाने वालों की धज्जियां उड़ा दी और बुजुर्गों व घरेलू महिलाओं ने शिवरात्री का व्रत किया और रात्रि को बच्चों के सो जाने के बाद व्रत खोला।
इधर मौसम में कभी गर्मी, कभी सर्दी, कभी बरसात, कभी ठण्डी हवा, कभी ओस, कभी कोहरा और कभी न जाने क्या-क्या चल पड़ा हैं। राजनीति में तूफान और तूफान की राजनीति चलती हैं। कुछ चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पाते, भटकते हुए भी कुछ नहीं होता। शिक्षा व कैरियर और प्यार के बीच लटकते लड़के-लड़कियां................।
मोबाइल, बाइक, गर्ल-फ्रेण्ड और बाँयफ्रेण्ड के बीच भटकता समाज..........।
जमाने की हवा ने बड़े-बूढ़ों को नहीं छोड़ा। तीन-तीन बच्चों की मांएं प्रेमियों के साथ भाग रही है और कभी-कभी बूढ़े प्रोफेसर जवान रिसर्च स्कालर को ऐसी रिसर्च करा रहे है कि बच्चे तक शरमा जाते हैं। गठबंधन सरकारों के इस विघटन के युग में पुराने गांवनुमा कस्बे और कस्बेनुमा शहरों की यह दास्तान प्रस्तुत करते हुए दुःख, क्षोभ, संयोग-वियोग सब एक साथ हो रहा हैं।
सरकारे किसी पुराने स्कूटर की तरह सड़क पर धुंआ देती हुई चल रही हैं। मार-काट मची हुई है, हर गली-चौराहें पर शराब की दुकानें खुल चुकी हैं। मध्यमवर्गीय परिवारों की लड़कियां भी अधनंगी होना ही फैशन समझ रही हैं।
गली-गली प्यार के नाम पर नंगई-नाच रही है। टीवी चैनलों पर अश्लीलता के पक्ष में दलीले दी जा रही हैं। न्यूज पेपर्स, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। चारों तरफ पैसों का युद्ध चल रहा है। सोवियत संघ विघटित हो चुका हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद (जो आर्थिक है) छाया हुआ है। सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है। ऐसी स्थिति की कहानी कहने की इजाजत चाहता हूँ ।
कहानीकार बेचारे क्या करे । महिला लेखन के नाम पर अश्लील लेखन चल रहा हैं। देहधर्मिता के सामने सब धर्म फीके पड़ गये हैं।
हां तो पाठकान! इन्हीं विकट परिस्थितियों में उपन्यास का नायक-नुमा खलनायक या खलनायक नुमा-नायक मंच पर अवरतित होने की इजाजत चाहता हैं।
ये साँहबान एक आलीशान कार में है। इनके पास ही एक स्कूल टीचर बैठी है, शराब है, महंगी गिफ्ट है, और प्यार के नाम पर चल रही अश्लील सी.डी. है।
अचानक कार एक गरीब रिक्शा चालक को टक्कर मार दे देती है। युवती उतरकर भाग जाती है, युवक को पुलिस पकड़ने का प्रयास करती है,मगर अफसोस युवक आई.जी. का लड़का है। पुलिस मन मसोस कर रह जाती हैं। युवक कार में बैठकर नई युवती की तलाश में चल पड़ता है। ऐसा ही चलता रहता है.
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वह घर है या मकान या खण्डहर या तीनों का मिलाजुला संस्करण। घर के मुखिया इसे अपनी पुश्तैनी जायदाद समझकर वापरते थे मगर नई पीढ़ी इस खण्डहर में रह कर चेनलों के सहारे अरबपति बनने के सपने देखती थी।
इस कस्बेनुमा शहर या शहरनुमा कस्बे की अपनी कहानी है। हर-दो नागरिकों में तीन नेता। किसी के भी पास करने को कोई काम नहीं है। अतः दिनभर इधर उधर मारे-मारे फिरते है। कभी चाय की दुकान पर बैठे है, कभी नुक्कड़ वाले पान की दुकान पर बतिया रहे है और कभी गली के नुक्कड़ पर खड़े-खड़े जांघें खुजलाते है, हर आती जाती लड़की, महिला को घूर घूरकर अपनी दिली तमन्नाएं पूरी करने की सोचते रहते हैं।
जिस घर की चर्चा ऊपर की गई है उसका एक मात्र कुलदीपक अपनी तरफ से कोई काम नहीं करता। पढ़ाई-लिखाई का समय निकल चुका है पिताजी ने अवकाश ले लिया है और कुलदीपकजी के भरोसे शेष जीवन पूरा करना चाहते है। इसी घर में एक मजबूरी ओर रहती है जिसका नाम यशोधरा है वो पढ़ना चाहती है। बाहर निकलना चाहती है मगर घर की मध्यमवर्गीय मानसिकता के चलते उसे यह सब संभव नहीं लगता। अचानक एक दिन सायंकालीन भोजन के बाद यशोधरा ने नुक्कड़ वाली दुकान पर कम्प्यूटर सीखने की घोषणा कर दी। घर में भूचाल आ गया। मां ने तुरन्त शादी करने की कहीं। पिताजी चुप लगा गये और कुलदीपक स्लीपर फड़फड़ाते हुए बाहर चले गये।
यशोधरा की इस घोषणा से घर में तूफान थमने के बजाय और बढ़ गया। पिताजी को एक अच्छे वर के पिता का पत्र मिला। लड़की सुन्दर-सुशील और कामकाजी-नौकरी करती हो तो रिश्ता हो सकता है।
पिताजी ने मरे मन से ही कम्प्यूटर सीखने की स्वीकृति प्रदान कर दी। यशोधरा ने फीस भरी और काम सीखने लगी। टाईपिंग, ई-मेल से चलकर वह सी प्लस प्लस तक पहुंच गई। कुलदीपक जी ने कई परीक्षाएं दी मगर वहीं ढाक के तीन पात।
मां-बाप बुढ़ापे के सहारे जी रहे थे या जी-जी कर मर रहे थे। यह सोचने की फुरसत किसे थी?
जीना-मरना ईश्वर के हाथ में है। इस सनातन ज्ञान के बाद भी कुलदीपकजी के पिता लगातार यशोधरा के ब्याह की चिन्ता में मरे जा रहें थे। मां की चिन्ता समाज को लेकर ज्यादा थी। कब क्या हो जाये ? कुछ कहा नहीं जा सकता। वो अक्सर बड़बड़ाती रहती। नाश हो इस मुंऐ बुद्धु बक्से का, चैनलों का,मोबइलोंका, जिस पर चौबीसों घन्टे फैशन, हत्या, बलात्कार, अश्लीलता परोसी जाती है व लड़कियां भी क्या करे, जो देखेगी वो ही तो सिखेगीं। समाज पता नहीं कहां जा रहा है। बापू इस सनातन संस्कृति के मारे घर के बाहर निकलने में भी डरते हैं।
इधर यशोधरा ने कम्प्यूटर पर डी.टी.पी. के सहारे एक जगह फार्म भर दिया था। किस्मत की बात या लड़की की जात उसे अखबार में ऑपरेटर की नौकरी मिल गई मां-बापू ने हल्ला मचाया मगर पांच हजार रूपये वेतन सुनकर मां-बापू चुप लगा गये। पेशंन के पैसों से क्या होना जाना था। कुलदीपकजी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी। बहरहाल उनके चेहरे पर जरूर कष्ट के चिन्ह दिखे। मगर पहली पगार से जब उनहें कड़कड़ाते सौ के कुछ नोट मिले पाँकेट मनी के रूप में तो उनहोने यशोधरा की चोटी खींचने का कार्य स्थगित कर दिया।
अब घर में बड़ी और कमाऊं बिटिया की बात ध्यान से सुनी जाने लगी थी यहां तक कि मां सब्जी भी उसकी पसंद की बनाने लग गई थी। बापू अब गली, मौहल्ले में गर्व से सीना-ताने निकलते थे। मगर यह मर्दानगी ज्यादा दिन तक न चली। एक रोज बिटिया घर देर से आई। फिर यह सिलसिला बन गया। बिटिया की देरी का कारण चर्चा का विषय बन गया। उसकी चाल, ढाल, हाव-भाव, नखरे बढ़ने के समाचारनुमा अफवाहें या अफवाहनुमा समाचार सुनाई देने लगे। बापू ने वापस वर के लिए दौड़ धूप शुरू कर दी, मगर हुआ कुछ नहीं।
खानदान में पहली बार किसी लड़की के कारण परेशानी खड़ी होने की संभावना लग रही थी। पिछली पीढ़ी में बुआ, बहन या बड़ी बुआ का जमाना सबको याद आ रहा था। मगर सबके सब चुप थे। आखिर एक दिन लड़की ने मुंह खोला।
"बापू। क्या बात है क्या आपको मेरी नौकरी पसन्द नहीं।"
"नही बेटे।" बापू अचकचा कर बोले। "ऐसी बात नहीं है।"
"तो फिर क्या बात है।"
"वो.............वो..................तेरी...................मां कह रही थी कि....................?"
"क्या कह रही थी। मैं...................जरा मैं भी तो सुनू।"
"वो तुम्हारी शादी की बात..............।"
"शादी की बात भूल जाईये, बापू जी।"
"शादी मैं अपनी मरजी से जब चाहूंगी तब करूंगी और यही सबके लिए ठीक रहेगा।"
यह सुनकर मां बड़बड़ाती हुई रसोई घर में चली गयी। बापू जी ने रामायण खोल ली। कुलदीपकजी साइकिल के सहारे शहर की सड़क नापने चल दिये।
इसी खण्डहरनुमा मकान या घर या ठीये के पास ही एक नई आलीशान बिल्डिंग में, बड़े आलीशान फ्लेट बन रहे थे। इस बिल्डिंग के कुछ हिस्से आबाद हो गये थे। एक सम्पूर्ण टाउनशिप। इसमें जिम थे। टेनिसकोर्ट थे। बच्चों के लिए पार्क थे। छोटे बच्चों के लिए क्रेश थे। चौड़ी चिकनी सड़क थी। सुन्दर, खूबसूरत पेड़-पौधे झाडियां थी। सब था। हर फ्लेट में पति-पत्नी थे और दोनों कमाते थे। बच्चे या तो नहीं थे या फिर एक-एक था। फ्लेट-संस्कृति के फैलते पांवों ने शहर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था। कुलदीपकजी इन फ्लेटो को हसरतों से निहार रहे थे। कभी मेरा भी फ्लेट होगा। इसी तमन्ना के साथ वे साइकिल पर पैडल मारे जा रहे थे कि अचानक उनकी साइकिल एक रिक्शे से जा भिड़ी। रिक्शे वाले ने एक भद्दी गाली दी। कस्बे के नियमानुसार कुलदीपकजी ने गाली का जवाब गाली से दिया और आगे बढ़ गये। लेकिन गाली तो बस नाम की थी। बाकी सब ठीक-ठाक था।
शहर में उग आये सीमेंट, कंकरीट के जंगल से गुजर कर कुलदीपकजी ने साइकिल अपने पुराने गावनुमा शहर की संकड़ी गलियों की ओर मोड़ दी। हर मोड़ पर मुस्तेद खड़े थे नवयुवक जो स्कूल जाने वाली बालिकाओं, काँलेज जाने वाले नवयोवनाओं तथा दूध साग-सब्जी लाने वाली भाभियों, चाचियों, मामियों का इन्तजार कर रहे थे। कुछ प्रौढ़ अपने चश्मे के सहारे मन्दिर जाने वाली प्रौढाओं को टटोल रहे थे। कुल मिलाकर बड़ी ही रोमांटीक सुबह थी।
कुलदीपकजी ने साइकिल अपने प्रिय पान वाले की दुकान के सहारे खड़ी की। एक रूपये का गुटका मुंह में दबाया और जुगाली करने लगे। अपने परम प्रिय मित्र झपकलाल को आते देख उनकी बांछे खिल गई। झपकलाल सुबह की चाय पीकर घर से इस उम्मीद से चल पड़े थे कि दोपहर के खाने तक अब घर में कोई काम नहीं था। इधर कुलदीपकजी भी ठाले थे। दो ठाले मिलकर जो काम कर सकते थे, वहीं काम दोनों ने मिलकर पान की दुकान के सहारे शुरू कर दिया। हर आने-जाने वाली लड़की, युवती, महिला, युवा, काकी, मासी, भाभी के इतिहास और भूगोल की जानकारी एक-दूसरे को देने लगे। इधर पान वाला भी उनका स्थायी श्रोता था तथा पान गुटका लगाते-लगाते अपनी बहुमूल्य राय से उन्हें अवगत कराता रहता था।
"सुनो जी कुछ सुना क्या ?"
"क्या हुआ भाई जरा हमें भी सुनाओं ।" झपकलाल बोल पड़े।
"अरे मियां कल का ही किस्सा है ये जो नुक्कड वाली ब्यूटी पार्लर है उसके यहां बडा गुल-गपाड़ा मचा।"
"क्यो................क्या हुआ।" कुलदीपक जी ने अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ पूछ डाला।
"क्या बताये भगवन।" सवेरे-सवेरे ही वहां पर कुछ लड़कियां आई थी, फैसिशियल, मेनीक्योर, पेडीक्योर करवाने।"
"तो इसमें क्या खास बात है ?" कुलदीपक बोले।
"अरे धीरज धर। सब्र का फल मीठा होता है। झपकलाल बोले।
"हां तो भई ये हम बता रहे थे कि लड़कियां अन्दर अपना काम करवा रही थी और बाहर उनका कुछ लड़के अपनी मोटर साइकिल पर बैठे-बैठे इन्तजार कर रहे थे।"
"सो कौनसी नई बात है ? कुलदीपक ने अपनी टांग फिर अड़ाई।
"अरे भईये, जब काफी देर तक लड़कियां बाहर नही आई तो दोनों लड़के अन्दर चले गये। अब लगी चीख पुकार मचने। मगर चीख पुकार से क्या होता है। दोनो लड़कों ने लड़कियों को जबरदस्ती बाहर निकाला, मोटर साइकिल पर बैठाया, और फुर्र हो गये।"
"अरे भाई ऐसा हुआ क्या।"
"और नहीं तो क्या।"
"इस सभ्य और शालीन समाज में ऐसा ही हुआ।"
"लेकिन पुलिस-पड़ोसी..................सब क्या कर रहे थे।"
"अरे भाई मियां बीबी राजी तो क्या करे काजी।" हम तो चुपचाप तमाशा देखते रहे।
"लेकिन ये सब तो गलत है।" कुलदीपक बोले।
"प्रजातन्त्र में ऐसी गलतियां होती ही रहती है। सुना नहीं कल ही प्रधानमंत्री बोले थे कि हर जगह सुरक्षा संभव नहीं और एक राज्य के मुख्यमंत्री ने तो साफ कह दिया जनता अपनी रक्षा खुद करे।" झपकलाल ने बहस को एक नया मोड़ देने की कोशिश की।
"मारों गोली राजनीति को फिर क्या हुआ ?"
"होना-जाना क्या था। सायंकाल लड़कियां अपने घर पहुँच गई। खेल खत्म पैसा हजम...…........है............है...............है..................।"
कुलदीपकजी का गुटका खत्म हो चुका था। झपकलाल को चाय की तलब लग रही थी। दोनों कालेज के सामने वाली थड़ी पर जाकर बैठ गये। वहां पर चाय के साथ गपशप का नाश्ता करने लगे।
कुलदीपकजी को बापू प्यार से आर्यपुत्र कहते थे। वो अक्सर कहते "कहो आर्यपुत्र कैसे हो ?" "आज जल्दी कैसे उठ गये।" "आपके दर्शन हो गये। " वगैरह-वगैरह। कुलदीपकजी को बाप की बात पर गुस्सा तो बहुत आता मगर पिताजी को पिताजी मानने की भारतीय मानसिकता के कारण कुलदीपकजी मनमसोस कर रह जाते। इधर कुलदीपकजी यह सब सोच ही रहे थे कि झपकलाल ने सामने की ओर इशारा किया।
सामने कालेज के गेट से लड़कियों का एक झुण्ड आ रहा था। खिलखिलाती। झूमती। नाचती। गाती। इस झुण्ड के दर्शन मात्र से ही कुलदीपकजी अपनी पिताजी वाली पीड़ा भूल गये। सबसे सुन्दर और सबसे आगे अपने वाली कन्या का कुलदीपकजी ने सूक्ष्म निरीक्षण करना शुरू कर दिया। एक्स-रे,एम.आर.आई, सी.टी.स्केन, अल्ट्रा सोनाग्राफी के साथ-साथ कुलदीपकजी ने ई.सी.जी. और ई.ई.जी. भी एक साथ कर डाले ? उनका खुद का ई.सी.जी. गड़बड़ाने लगा था। झपकलाल ने अपने ज्ञान का निचोड़ प्रस्तुत करते हुए कहा-
""भाई मेरे यह जो मोहतरमा नाभिदर्शना जींस में सबसे आगे और सबसे खूबसूरत है वो बड़ी तेज तर्रार भी है। छोटी-मोटी बात पर ही लड़कों का सेण्डलीकरण और चप्पलीकरण कर देती है। संभल कर रहिये।""
कुलदीपकजी इस बकवास को सुनने के लिए कतई तैयार नहीं थे। उन्हों ने अपने आपसे कहा-
""काश मैं कुछ समय पूर्व पैदा होता। कालेज में होता तो बस मजा आ जाता।""
"भाई मेरे कालेज में घुसने के लिए कई परीक्षाएं पास करनी पड़ती है। " झपकलाल ने फिर कहा-
"परीक्षाओं का क्या है ? कभी भी पास कर लें गे ? अभी तो पास से गुजर जाने दो, इस बहार को।" वे कसमसाते हुए बोल पड़े।
वास्तव में कुलदीपक जी कस्बे की लड़कियों की चलती फिरती डायेरक्टरी थे। कौन कहाँ रहती है। कहाँ पढ़ती है। क्या करती है, से लगाकर शरीर के हिस्सों पर विस्तार से प्रकाश डाल सकते थे। मगर अभी अवसर अनुकूल नहीं था।
कुलदीपकजी का जीवन एक अजीब पहेली की तरह है। पढ़ाई अधूरी है, जीवन अधूरा है। हर तरफ इकतरफा प्यार करते रहते है और प्यार भी अधूरा ही रहता है। कई वार पिट चुके है, मगर मरम्मत भी अधूरी ही रही है। वे सुबह कवि बनने का सपना देखते हैं। दोपहर में किसी दफ्तर में बाबू बनकर जीवन बिताने की सोचते है और शाम होते-होते शहर की बदनाम बस्तियों में विचरण करने का प्रयास करने लगते है। मगर बावजूद इसके कुलदीपकजी एक निहायत ही शरीफ जिन्दगी जीना चाहते है। लेकिन शरीफों को जीने कौन देता है।
शहर रात में कैसा लगता है। यह जानने के लिए कुलदीपकजी झपकलाल के साथ शहर रात की बाहों में देखने निकल पड़े।
कभी "मुम्बई रात की बाहों में " की बड़ी चर्चा होती थी। आजकल हर शहर रात की बाहों में है और चर्चित है। इस मेगा शहर की रातें भी जवान, रंगीन, खुशबूदार और मांसल हो गई है।
शहर को आप दो तरह से देख सकते है। एक अमीर शहर और एक गरीब शहर। गरीब शहर की रातें फुटपाथ पर कचरा बीनते बीत जाती है और अमीर शहर की रातों का क्या कहना। होटल, पब, डिस्को, बार, केसिनो, जुआ घर, क्लब आदि में लेट नाइट डिनर, उम्दा विदेशी शराब की चुस्कियां और बेहतरीन खाना साथ में सुन्दर, नाजुक कामिनियां, दामनियां, कुलवधुएं, नगर वधुएं।
शहर के इस अमीर हिस्से की रातें भी बहारों से भरपूर होती है। कभी चांदपोल में गाना सुनने के लिए शहर के रईस, रंगीन तबीयत के लोग सांझ ढले इकट्ठे होते थे। कोठे पर गाना, बजाना, नाचना, चलता था। ठुमरी, दादरा, गजल, शेरों -शायरी के इस दौर में जो गरीब कोठे की सीढ़ियां नही चढ़ पाते थे वे नीचे बरामदे में खड़े होकर गाने का लुत्फ उठाते थे, मगर वे रंगीन महफिले कहीं खो गई। ठुमरी, दादरा, गजल के चाहने वाले चले बसे। अब तो डीजे का कानफोडू संगीत, रिमिक्स और सस्ते अश्लील, हाव-भाव वाले नाच-गाने चलते है। कथक, शास्त्रीय संगीत देखने समझने वाले ही नहीं रहे तो कौन किसके लिए गाये बजाये।
पूरा शहर रंगीन रोशनियों में नहाता रहता है। शहर के बाहर चौड़ी-चिकनी सड़कों पर सरपट भागती कारें या मोबाइक्स। इन कारों में कुलवधुएं, गर्लफ्रेन्डस, बाँयफ्रेन्डस, सब भाग रहे है, एक के पीछे एक...........। समझ नहीं आता ये सब कहाँ जा रहे हैं?
आजकल नई पीढ़ी शाम के पाँच बजे घर से चल देती है। रात को दो-तीन बजे तक पी खाकर या खा पीकर लौटती है। और शहर को रात की बाहों में समेटकर सो जाती है। इनकी सुबह बारह बजे होती है।
गरीब शहर में रात एक उदासी के साथ उतरती है। सर्दी के दिनों में रेन बसेरों में जगह ढूढ़ता फिरता है रिक्शा वाला, गरीब मजूदर, काम की तलाश में आया ग्रामीण अक्षय कलेवा का भोजन मिल जाये तो रात आराम से कट जाती है।
बड़े होटलों में डिस्को करते युवा, हसीन जोड़े शहर की रातों का भरपूर आनन्द उठाते है। उनके पास कई पीढ़ियां खाये जितनी सम्पत्ति जमा है।
शहर में रात चोरों, उचक्कों, डाकुओं, गिरहकटो आदि के लिए भी सौगाते लेकर आती है। अकेलेपन से ऊबे हुए बुजुर्ग दम्पत्तियों को शहर रात की बाहों में ले लेता है और चोर-उचक्कों की मौज हो जाती है।
रात की मस्ती, रंगीनी का पूरा इन्तजाम शहर में है। हर तरफ खुली शराब की दुकानें एक पेग अवश्य पीजिये और दबे छुपे सेक्स व्यापार के व्यापारी ओर ग्राहक सब ठिकाने जानते है या ढूढ़ लेते है। शहर में हर तरफ अमीरी की मौज मस्ती देखिये। दक्षिण के बड़े-बड़े माल, रेस्टांरेन्ट, होटल्स, लगता ही नहीं कि शहर उदास है। इनकी खोखली हंसी के पीछे छिपी पीड़ा को पहचानने की कोशिश कीजिये। मगर हुजूर छोडिये इस उदासी को।
निकल पड़िये शहर को रात में देखने। मैं अक्सर मौसम ठीक होने पर शहर को रात में देखने निकल पड़ता हूं। कभी चौपड़ को पढ़ने की कोशिश करता हूं, कभी शहर की सड़कों को पढ़ता हूं, कभी चार-दिवारी के बाहर के शहर को पढ़ता हूं और कभी अपने आप को पढ़ने की कोशिश करता हूं। रात में शहर सुन्दर लगता है। मेले, ठेले, चित्रकारियां, सुन्दर ललनाएं और रात के पहले दूसरे प्रहर में होने वाले नाटक, सम्मेलन, संगीत-संध्याएं सब अच्छी लगती है। मगर दूसरे और तीसरे प्रहर में चोर, उच्चके, नकबजनों से कौन बचाये। पुलिस का नारा है "हमारे भरोसे मत रहना"। कुलदीपक ने मन में कहा।
पुलिस को छोड़ो आजकल भाई-भाई को काटने पर उतारू है। रात को ये काम और भी आसान हो जाता है। शहर में हर तरफ सितारों की छितराई रोशनी में अपराध पनपते रहते हैं और अपराधी रात की बाहों में समा जाते है। शहर की रंगीनी देखने के लिए सत्ताईस डालर का चश्मा चाहिये। कुलदीपक ने अपने आप से कहा।
रात्रि के अन्तिम प्रहर में दूध वाले, अखबार वाले, स्कूली बच्चे, काम वाली बाईयों के आने-जाने से शहर की नींद टूटती है और शहर धीरे-धीरे रात की बाँहों से बाहर निकलकर अलसाया सा पड़ा रहता है। शहर चाय पीता है और काम पर चल देता है।¬
कुलदीपक जी रात ढलते घर पहुँचे। बापूजी सो गये थे ? लेकिन मां जाग रही थी। खाने के लिए मना करने के बावजूद मां ने जिद करके कुछ खिला दिया।
रात में कुलदीपकजी जल्दी सो गये। सपनों के सुनहरे संसार में खो गये। लेकिन सपने तो बस सपने ही होते है उन्हें हकीकत बनाने के लिए चाहिये बाईक, मोबाईल, जीन्स और पोकेट मनी। कुलदीपक जी के सपनों में इन चीजों ने आग लगा दीथी.
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जैसा कि अखबारों की दुनिया में होता रहता है, वैसा ही यशोधरा के साथ भी हुआ। अखबार छोटा था मगर काम बड़ा था। धीरे-धीरे स्थानीय मीडिया में अखबार की पहचान बनने लगी थी। शुरू-शुरू में अखबार एक ऐसी जगह से छपता था जहां पर कई अखबार एक साथ छपते थे। इन अखबारों में मैटर एक जैसा होता था। शीर्षक, मास्टहेड, अखबार का नाम तथा सम्पादक, प्रकाशक, मुद्रक के नाम बदल जाया करते थे। कुछ अखबार वर्षों से ऐसे ही छप रहे थे। कुछ दैनिक से साप्ताहिक, साप्ताहिक से पाक्षिक एवं पाक्षिक से मासिक होते हुए काल के गाल में समा गये थे। कुछ तेज तर्रार सम्पादकों ने अपने अखबार बन्द कर दिये थे। और बड़े अखबारों में नौकरियां शुरू कर दी थी। कुछ केवल फाइल कापी छापकर विज्ञापन बटोर रहे थे। कुछ अखबार पीत पत्रकारिता के सहारे घर-परिवार पाल रहे थे। कुछ इलेक्ट्रोनिक मीडिया में घुसपैठ कर रहे थे। एक नेतानुमा सम्पादक विधायक बन गये थे।
एक अन्य सम्पादक नगर परिषद में घुस गये। एक और पत्रकार ने क्राईम रिपोटिंग के नाम पर कोठी खड़ी कर ली थी। एक नाजुक पत्रकार ने अपनी बीट के अफसरों की सूची बनाकर नियमित हफ्ता वसूलने का काम शुरू कर दिया था। एक सज्जन पत्रकार ने मालिक के चरण चिन्हों पर चलते हुए अपना प्रेस खोल लिया था। मगर ये सब काम प्रेस की आजादी, विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर हो रहे हैं। समाचारों का बीजारोपण प्लाटेशन ऑफ न्यूज पिछले कुछ वर्षों में एक बड़ा उद्योग बनकर उभरा था, मगर इस सम्पूर्ण क्रम में फायदा किसका हो रहा था इस पर कोई विचार करने के लिए तैयार नहीं था कभी-कदा कोई नेता-मंत्री कहता प्रेस की स्वतन्त्रता का मतलब लेखक या पत्रकार की स्वतन्त्रता। मालिक भी स्वतन्त्रता का कोई मतलब नहीं है।
अखबार इस आवाज पर चुप लगा जाते। कई बडे़ अखबारों के स्वामी अपने अखबार का उपयोग अपने अन्य उधोग-धन्धे विकसित करने में लग रहे थे और समाज, सरकार, मीडिया देखकर भी अनदेखा कर जाते थे। पत्रकार मंत्री के कमीशन एजेन्ट बनकर रह गये। वे सी.पी. (चैम्बर प्रेक्टिस करने लग गये) बहुत सारे पत्रकार तो राजनीतिक दलों की विज्ञप्तियां छापने में ही शान समझने लगे। दलों की हालत ये कि अपना पत्रकार डेस्क पर नहीं हो तो विज्ञप्ति भेजते ही नहीं। एक सम्पादक नेता ने अपने मीडिया हाऊस से संसद की सीढ़िया चढ़ ली। दूसरा क्यों पीछे रहता उसने खेल जगत पर कब्जा कर लिया। तीसरे ने विकास प्राधिकरण से प्लाट लेकर माल बना लिया। कलम का ऐसा चमत्कार। एक प्रदेश के मुख्यमंत्री बोले-
""हर चीज की कीमत होती है। मैं कीमत लेकर काम कर देता हूं। पचासों पत्रकार उद्योगपतियों से पगार पाते है।लोग इनको पत्तलकारकहने लग गए हैं.
मीडिया ने फिर चुपी साध ली। एक अखबार ने लाभ कमाने वाले पत्रकारों के नाम और राशि छाप दी। बेचारे मुंह छिपाते फिर रहे है। कुछ ने कहा-थोडे बहुत गलत आदमी सब जगहों पर है।
मगर यारां यहां तो पूरी खान में ही नमक है। बड़ों की बात बड़ी। बड़े पत्रकारों को जाने दीजिये। अपन अपनी छोटी दुनिया में लौटते है।
जिस खण्डहरनुमा जगह में यशोधरा सपरिवार रह रही थी उसी के पास वाली बड़ी बिल्डिंग के एक फ्लेट में सम्पादक जी रहने आ गये। उसके अखबार के सम्पादक जी ठेके पर आ गये। ठेके का मकान। ठेके की कार। ठेके की कलम..............सब कुछ ठेके पर। आते-जाते दुआ सलाम हो गई। सम्पादकजी ने पूछा।
"तुम यही रहती हो।"
"जी हां।"
"अच्छा।"
"और घर में कौन-कौन है।"
"माँ -बापू, भाई...............।"
"ठीक है।"
"कोई काम हो तो बताना।"
"जी, अच्छा.................।"
यह औपचारिक सी मुलाकात यशोधरा को भारी पड़ गई। कुछ ही दिनों में उसे दफ्तर के आपरेटर सेल से हटाकर सम्पादक जी के निजि स्टाफ में तैनात कर दिया गया। काम वहीं टाईपिंग। मगर धीरे-धीरे यशोधरा ने अखबारी दुनिया के गुर सीखने शुरू कर दिये थे। उसे समाचारों के चयन से लेकर प्लांटेशन तक की जानकारी रहने लगी थी। कुछ बड़े समाचारों के खेल में सम्पादक, मालिक और राजनेता भी शामिल रहते थे। बात साफ थी। खेलो। खाओ। कमाओ। क्यों कि प्रजातन्त्र का चौथा स्तम्भ था मीडिया। खोजी पत्रकारिता, स्टिंग ऑपरेशन के नाम पर नित नये नाटक। यहां तक कि सत्यांश जीरो होने पर भी समाचार का पूरे दिन प्रसारण। एक मीडिया ने अध्यापिका के स्टिंग ऑपरेशन के नाम जो किया उसे देख-सुनकर तो रोंगटे खड़े हो गये। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण क्या कुछ नहीं किया जा सकता।
वो जल्दी से इस दुनिया के बाहर की दुनिया के बारे में सोचने लगी। मगर विधना को कुछ और ही मंजूर था।
ये उत्सवों के दिन। त्यौहारों के दिन। मुस्लिम भाईयों के रोजे और ईद के दिन। हिन्दुओं के लिए नवरात्री, दशहरा, पूजा, दुर्गा, दिवाली के दिन। और दिसम्बर आते-आते ईसाईयों के बड़े दिन क्रिसमिस। नववर्ष । सब लगातार। साथ-साथ।
इन उत्सवी दिनों में मनमयूर की तरह या जिस तरह का भी वो होता है नाचने लग जाता है। शहरों -गांवों-कस्बों में सब तरफ आजकल डाण्डियां-डिस्कों का क्रेज चल पड़ा है। तरह-तरह के डांडियां और ड्रेसज। युगल। कपल। विवाहित। अविवाहित जोड़े। मस्ती में झूमते-झामते नव धनाढ्य। देखते, इतराते मंगतेर। नाचते गाते लोग। कौन कहता है भारत गरीब है ? देखो इस डिस्को-डांडियां को देखो। मां की पूजा अर्चना का तो बस नाम ही रह गया है।
ऐसे खूबसूरत मन्जर में कुलदीपकजी ने सुबह उठकर अपना चेहरा आईने में देखा तो अफसोस में मुंह कुछ अजीब सा लगा। अफसोसी नेत्रों में कुलदीपकजी को भी नई फिजा का ध्यान आया। टी.वी, अखबार, चैनल सब उत्सवी सजधजके साथ तैयार खड़े थे। रोकड़ा हो तो परण जाये, डोकरा की तर्ज पर कुलदीपकजी मस्त-मस्त होना चाहते थे। क्रिकेट और फिल्मी नायकों के मायाजाल से स्वयं को मुक्त करने के लिए कुलदीपकजी ने भरपूर अंगडाई ली और अपनी कमाऊ बहिन को मिलने वाले वेतन का इन्तजार करने लगे। इधर उनका मन रोमांटिक हो रहा था और तन की तो पूछो ही मत बस धन की कमी थी। क्या कर सकते थे कुलदीपकजी। उन्हों ने सब छोड़-छाड़कर अपनी पुरानी रोमांटिक कविताओं वाली डायरी को पढ़ना शुरू कर दिया। डायरी में खास था भी नहीं । असत्य के साथ उनके प्रयोगों का विस्तृत वर्णन था। गान्धीवाद से चलकर गान्धीगिरी तक पहूँचने के प्रयास जारी थे। मगर फिलहाल बात उनकी रोमांटिक कविताओं की।
जैसा कि आप भी जानते है कि जीवन के एक दौर में हर आदमी कवि हो जाता है। वो जहां पर भी रहता है बस कवियाने लग जाता है। आकाश, नदी, पक्षी, चिड़िया, खेत, पेड़, प्रेमिका, समुद्र, प्यार, इजहार, मान, मुनव्वल, टेरेस, आत्मा शरीर, जैसे शब्द उसे बार-बार याद आते है। वो सोचता कुछ ओर है और करता कुछ ओर है। कुलदीपकजी ने खालिस कविताएं नहीं लिखी। कवि सम्मेलनों में भी नहीं सुनाई। प्रकाशनार्थ भी नहीं भेजी लेकिन लिखी खूब। पूरी डायरी भर गई। कविताओं से भी और प्रेरणाओं से भी।
वे हर सुबह शहर कि किसी न किसी प्रेरणा के नाम से एक-दो कविता लिख मारते। सायंकाल तक उसे गुनगुनाते। रात को प्रेरणा और कविता के सपने देखते, अधूरे सपने, अधूरी प्रेरणाएं कभी सफल नहीं होते। ये सोच-सोचकर वे दूसरे दिन एक नई प्रेरणा को ढूँढते। मन ही मन उससे प्रेम करते। कविता लिखते। कभी मिलने पर सुनाने की सोचते। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होती। कुछ प्रेरणाओं की शादी हो गई। उनके बच्चे हो गये। उन्हों ने ऐसी कविताओं को फाड़कर फेंक दिया।
पूरे कस्बे की प्रेरणाओं पर उन्होने कविताएं लिखी। खण्डकाव्य लिखे। प्रेम के विषयों पर महाकाब्य लिखने की सोची, मगर तब तक प्रेरणाएं, शहर छोड़कर प्रियतम के साथ चली गई।
हालत ये हो गई कि कई डायरियां भर गई, मगर कुलदीपकजी की असली प्रेरणा तक कविता नहीं पहुँच पाई। कविता का लेखा-जोखा और एक बैचेनी सी जरूर उनके मन मस्तिष्क में बन गई।
कविता बनाने का यदि कोई सरकारी टेण्डर निकले तो कुलदीपकजी अवश्य सफल हो मगर सरकार को कविता से क्या मतलब। सरकार को तो सड़कों, नालियों और मच्छरों को मारने के टेण्ड से ही फुरसत नहीं। कुलदीपकजी की डायरी के कुछ पृषठों पर नजर दौड़ाने पर स्पष्ट हो जाता है कि कविता कितना दुरूह कार्य है।
सोमवार-समय प्रातः 9 बजे वो नहाकर छत पर आई। मैंने नयन भर देखा और कविता हो गई।
मंगलवार-समय दोपहर वे असमय बाजार में दिखी और कविता हो गई।
बुधवार-समय सायं प्रेरणा नं 102 मन्दिर के बाहर दिख गई। कविता हो गई।
गुरूवार-सुबह से ही प्रेरणा नं. 105 की तलाश में घूम रहा हूं। पार्क में दिखी और कविता हो गई।
शुक्रवार-प्रेरणा नं. 110 बुरके में थी, मगर मेरी पैनी निगाहें से कुछ भी नहीं छुप सका और कविता हो गई।
शनिवार-पूरा दिन प्रेरणा नं. 220 को ढूँढता रहा चर्च के बाहर दिख गई और कविता हो गई।
रविवार-अवकाश के बावजूद प्रेरणा नं. 300 पर कविता कर दी।
कुलदीपकजी को कविता और प्रेरणा में अन्तर करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वे सम्पूर्ण पुरुष जगत को कवि और नारी जगत को प्रेरणा मानते है। उम्र जाति, रंग, रिश्ते आदि के सांसारिक बंधनों को वे नहीं मानते और इसीलिए वे हर प्रेरणा पर एक कविता कर सकते थे। न प्रेरणाओं की कमी थी और न ही कविताओं की। क्योंकि ये सब इक तरफा व्यापार था। लेकिन इस प्रणय-व्यापार में भी कुलदीपकजी धोखा ही धोखा खा रहे थे। उनकी प्रेरणा और सृजन के बीच अद्भुत साम्य था जो उनके अंधकारमय भविष्य की ओर इंगित करता था। कुलदीपकजी कस्बे के साहित्य संस्कृति और कला के क्षेत्र में भी अपनी टांग अड़ाना चाहते थे। मगर सीट पर कुछ ऐसे मठाधीश थे जो मंच छेककर बैठे थे। कुलदीपकजी हिम्मत हारने वालों में नहीं थे। मगर अभी माईक लाने या जाजम बिछाने के अतिरिक्त कोई महत्वपूर्ण योगदान वे नहीं कर पाये थे। कुछ सेठाश्रयी लोगों से भी उन्हों ने दुआ-सलाम की कोशिश की। मगर उन्हों ने इस कविनुमा प्रजाति को चारा डालने से इन्कार कर दिया।
कुलदीपकजी ने अपने अभिन्न मित्र झपकलाल से पूछा-
"यार इस साहित्य के क्षेत्र में कुछ नया करना चाहता हूं।"
"नया करना चाहते हो ?"
"हां।"
"तो फिर इस क्षेत्र में घास खोदना शुरू कर दो?"
"तुम मजाक कर रहे हो।"
"मजाक की बात नहीं है यार। यहां पर महान प्रतिभा को भी सौ-पचास साल इन्तजार करना पड़ता है।"
"क्यो।"
यार इस क्षेत्र में आदमी को गम्भीर ही पचास की उम्र के बाद माना जाता है।
"और जो प्रतिभाएं तब तक दम तोड़ देती है उनका क्या।"
उनकी लाशों पर ही नवोंदितों के सपनों के महल खड़े होते हैं।
"ऐसा क्यों ?"
"यही रीति सदा चली आई है।"
कुलदीपकजी इस बहस से कतई हताश, निराश दुःखी नहीं हुए। वे जानते थे कि प्रतिभा का सूर्य बादलों से कभी भी निकल सकता था। कुलदीपकजी ने एक नये क्षेत्र में हाथ आजमाने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी बहिन के अखबार में फिल्मी समीक्षा का कालम पकड़ने का निश्चय कर लिया। इस निश्चय को हवा दी शहर की बिगड़ती फिल्मी दुनिया ने। कुलदीपकजी को फिल्मों का ज्ञान इतना ही था कि वे फिल्मों के शौकीन थे और मुफ्त में फिल्म देखने के लिए यह एक स्वर्णिम प्रयास था। लेकिन सब कुछ इतना आसान नहीं था।
अब जरा इस कस्बे की बात। शहर-शहर होता है, गांव-गांव होता है लेकिन कस्बा शहर भी होता है और गांव भी। कस्बा छोटा हो या बड़ा उसकी कुछ विशेषताएं होती है। इस कस्बे की भी है। कस्बे के बीचों-बीच एक झील है जो कस्बे को दो भागों में बांटती है। कस्बे में अमीर, गरीब नवधनाढ्य झुग्गी, झोपड़ी वाले सभी रहते है।
कस्बा है तो जातियां भी है और जातियां है तो जातिवाद भी है, आरक्षण की आग यदा-कदा सुलगती रहती है जो कस्बे के सौहार्द को कुछ समय के लिए बिगाड़ती है। कस्बे में पहले तांगे और हाथ ठेले चलते थे। फिर साइकिल रिक्शा आये और अब टेम्पो का जमाना है। कस्बे के बाहरी तरफ स्कूल है, लड़कियों का स्कूल है। मन्दिर है, मस्जिद है और एक चर्च भी है। लोग लड़ते है, झगड़ते है। मार-पीट करते है। बलात्कार करते है। कभी-कभी हत्या भी कर देते है। मगर कस्बे की सेहत पर इन सबका कोई असर नहीं पड़ता। लोग जीये चले जाते है। मौत-मरण, मांद-हाज पर एक-दूसरे को सान्त्वना देने का रिवाज है।
कस्बे के दूसरे हिस्से में बस स्टेण्ड है। बस स्टेण्ड पुराना है। ठसाठस भरी धूल उड़ाती बसे आती जाती रहती है। सरकारी बस स्टेण्ड के पास ही प्राइवेट बस स्टेण्ड है, वहीं पर टेम्पो व आटो स्टेण्ड भी है। टीनशेड के नीचे थड़ियां है। जहां पर ताजा चाय, काफी, दूध, पानी, गन्ने का जूस, नमकीन मिलते है। एक कचौड़े वाला भी बैठता है। जो सुबह के बने कचौड़े देर रात तक बेचता है। इन सब खाद्य पदार्थो पर मक्खियों के अलावा धूल भी जमी रहती है। स्थानीय वैद्यजी के अनुसार धूल पेट को साफ रखती है, वैसे भी इन चीजों को खाने से किसी गम्भीर बीमारी के होने की संभावना नहीं रहती है।
बस स्टेण्ड के आस पास आवारा गायें, बैल, भैसे, सूअर, कुत्ते, मुर्गे आदि पूरी आजादी से घूमते रहते है। आवारा साण्डों की लड़ाई का मजा भी मुफ्त में लिया जा सकता है। कुत्ते और मुर्गियों की आपसी दौड़ भी देखी जा सकती है।
बस स्टेण्ड पर छाया का एकमात्र स्थान टिकट खिड़की के पास वाला शेड है। सुबह-सुबह आसपास के गांवों में नौकरी करने वाली मास्टरनियां, नर्से, बाबू, स्थानीय झोलाझाप डाँक्टर यहां पर खड़े मिल जाते है। बसे आते ही ये लोग उसमें ठुंस जाते है। रोज की सवारियां टिकट के चक्कर में नहीं पड़ती । कण्डक्टर और इनके बीच एक अलिखित समझौता होता है। टिकट मत मांगो। आधा किराया लगेगा। इस नियम का पालन बड़ी सावधानी से किया जाता है। इस ऊपरी कमाई का एक हिस्सा ड्राइवर तक भी पहुंचता है।
अब भाईसाहब बस स्टेण्ड है तो यहां पर भिखारियों का होना भी आवश्यक है। भारतीय प्रजातन्त्र का असली मजा ही तब आता है जब सब तालमेल एक साथ हो। लूले, लंगड़े, अन्धे, काणे, कोढ़ी, अपाहिज, विकलांग और महिला भिखारी सब एक साथ सुबह होते ही ड्यूटी पर उपस्थित हो जाते है। एक पुश्तेनी भिखारी सपरिवार भीख मांगता है। एक बूढ़ा भिखारी अपने पोते को भीख मांगने की ट्रेनिंग यही पर देता है। सब साथ-साथ चल रहा है।
सरकारी बसें सर्दियों में धक्के से चलती है। प्राइवेट बसें मालिक के इशारे पर चलती है। मालिक स्थानीय विधायक के इशारे पर चलता है क्योंकि विधायक का फोटो लगाने पर टेक्स माफ हो जाता है और यही असली कमाई है वरना बसों के धन्धे में रखा ही क्या है।
बस स्टेण्ड पर प्याऊ है, हैण्डपम्प है जिसमें पानी कभी-कभी ही आता है। बस स्टेण्ड पर ड्यूटी पर रोडवेज का ठेके का बाबू, एक होमगार्ड और एक पुलिसवाला ड्यूटी पर रहता है, मगर लड़ाई-झगड़े के समय पुलिस वाला और होमगार्ड वाला दिखाई नहीं देता। चोर-उचक्के, चैन खींचने वाले, ड्राइवर, क्लीनर भी बस स्टेण्ड पर चक्कर लगाते रहते है।
अब बस स्टेण्ड के सात किलोमीटर की दूरी पर रेलवे स्टेशन है जो कस्बे के नाम का ही है क्योंकि रेलवे स्टेशन से कस्बे में आना-जाना बड़ा मुश्किल है। कस्बे के विकास के साथ बसों का भी बड़ा विकास हुआ है और इस कारण रेलवे स्टेशन आना-जाना घाटे का सौदा हो गया है।
बस स्टेण्ड के दूसरे सिरे पर एक आटा चक्की है और उससे लगती हुई दुकान में ब्यूटी पार्लर चलता है। ब्यूटी पार्लर के सामने ही पान की दुकान है, जिस पर इस वक्त झपकलाल खड़े-खड़े जांघे खुजा रहे है क्योंकि शाम की लोकल बस से कुछ स्थानीय अध्यापिकाएं उतरकर घर की ओर जा रही है। झपकलाल अपने दैनिक कर्म में व्यस्त थे तभी उन्होंने देखा एक कुत्ता कीचड़ में सना भगा-भगा आया। कुत्ता फड़फड़ाया और इस फड़फड़ाहट के छीटें झपकलाल पर पड़े। उन्होंेने कुत्ते की मां के साथ निकट के सम्बन्ध स्थापित किये। मगर कुत्ते ने इस ओर ध्यान नही दिया। वो एक तरफ भाग गया। ठीक इसी समय एक उठाईगीर ने एक महिला की चेन पर हाथ साफ कर दिया। महिला चिल्लाई, झपकलाल ने यह स्वर्णिम अवसर हाथ से नही जाने दिया और चेन चोर को दौड़कर पकड़ लिया। दो झापट मारकर चेन वापस ले ली। महिला ने धन्यवाद के साथ कहा................."माफ करना भाई साहब आपने बेकार ही तकलीफ की। यह चैन तो नकली है। बीस पैसे के सिक्के से बनवाई थी।"
झपकलालजी को ऐसी चोट की उम्मीद नही थी। महिला को प्रभावित करने का स्वर्णिम अवसर हाथ से निकल गया था। मन ही मन दुःखी होकर एक मूंगफली के ठेले वाले से मूंगफली ली और टूंगने लगे। उन्हें ठेले पर खड़े देखकर एक साण्ड ने उन्हें अपनी सींग के जौहर दिखाये। झपकलाल भागकर शेड पर चढ़ गये। लेकिन साण्ड भी खानदानी था। झपकलाल को चौराहे तक दौड़ा ले गया। इस दौड़ को देखकर बस स्टेण्ड पर खड़ी जनानी सवारियां हंसने लगी।
इधर एक कुत्ता कहीं से एक हड्डी का टुकड़ा ढूंढ लाया था। वो उसे उसी तरह चूस रहा था जैसे नेता देश को चूस रहे है। एक मुर्गा भी दाने की तलाश में भटक रहा था। वह मुद्दाविहीन नेता की तरह कसमसा रहा था।
इसी बीच एक प्राइवेट बस को चेक करने के लिए आर.टी.ओ. वाले आये। बस के कण्डक्टर ने आर.टी.ओ. के ठेके के कर्मचारी की बात नेताजी से करवा दी। नेताजी की डांट खाकर कर्मचारी ने कण्डक्टर से चाय-पानी ली और उस प्रकार चल दिया जिस प्रकार गठबन्धन सरकारें चल रही है। राजधर्म का निर्वाह करने के चक्कर में गठबन्धन धर्म को भी निभाना ही पड़ता है।
बस स्टेण्ड का रात्रिकालीन दृश्य अत्यन्त मनमोहक होता है। आसपास की दुकानें रोशनी से सज जाती है। देशी दारु की थैलियां, विदेशी शराब की बोतलें बीयर की बोतलें, अण्डे की भुज्जी, आमलेट, मछली, मीट की खुशबू और इन सबके बीच से गुजरती-तैरती सवारियां।
रात्रि के दूसरे और तीसरे प्रहर में रिक्शा, आटो में "खून" करने वाली सवारियां, दलाल, दल्लें, देह व्यापार के सरगना भी बस स्टेण्ड की शोभा बढ़ाने लग जाते है। सुबह का प्रथम प्रहर आते ही सब कुछ शान्त, सुन्दर लगने लगता है।
कस्बे के बीचों-बीच जो झीलनुमा तालाब था उसका अपना महत्व था दिनभर भैंसे उसमें पड़ी रहती थी। सूअर पड़े रहते थे। दूसरे घाट पर स्नान किया जाता था। सभी प्रकार की रद्दी, कूड़ा, करकट, मालाएं, मूर्तियां, ताजिया आदि विसर्जन का भी यह एकमात्र स्थान था। पूरा दिन गंधाती थी झील। झील के एक ओर विराना था। जंगल था। जंगल में बकरियां चरती थी। गाये-बैल, भैसें चरती थी। गडरिये घूमते थे और इनकी नजरे बचाकर मनमौजी लोग गांजा, सुलफा की चिलमें लगाते थे। कच्ची दारू खींचते थे। थोड़ा घना जंगल होने पर किसी पेड़ के नीचे बतियाते अधनंगे प्यार करने वाले जोड़े भी दिख जाते थे। कहां करे प्यार इस कस्बे की शाश्वत समस्या थी और नये-नये प्रशिक्षु पत्रकार अक्सर इस पावन विषय पर कलम चलाकर धन्य होते थे।
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झील के घाट पर एक प्राचीन मन्दिर था। क्योंकि यहां पर, जल, मन्दिर और सुविधाएं थी सो श्मशान भी यहीं पर था। झील में वर्षा का पानी आता है। गर्मियों में झील सूखने के कगार पर होती थी तो शहर के भू-माफिया की नजर इस लम्बे चौड़े विशाल भू-भाग पर पड़ती थी। उनकी आंखों में एक विशाल माँल, शापिंग काँम्पलैक्स या टाऊनशिप का सपना तैरने लगता था। मगर वर्षा के पानी के साथ-साथ आंखों के सपने भी बह जाते थे। झील में मछलियां पकड़ने का धन्धा भी वर्षा के बाद चल पड़ता था। जो पूरी सर्दी-सर्दी चलता रहता था।
स्थानीय निकाय ने झील के किनारे-किनारे एक वाकिंग ट्रेक बना दिया था जिस पर सुबह-शाम बूढ़े, वरिष्ठ नागरिक, दमा, डायबीटीज, ब्लड प्रेशर, हृदयरोगी आदि घूमने आते थे। बड़े लोग कार या स्कूटर से आते, घूमते और कार में बैठकर वापस चले जाते। मनचले अपनी बाईक पर आते। घूमते। खाते। पीते। पीते। खाते। और देर रात गये घर वापस चले जाते।
झील से थोड़ा आगे जाये तो कस्बा समाप्त हो जाता है। खेत-खलिहाल शुरू हो जाते। मगर कुछ ही दूरी पर नेशनल हाईवे शुरू हो जाता। प्रधानमंत्री योजना के अनुसार विकास के दर्शन होने लग जाते। ग्रामीण रोजगार योजना के चक्कर में लोग सड़क खोद-खोद कर मिट्टी उठाकर देश के विकास में अपना योगदान करते।
इसी सड़क पर हुआ था आई.जी के लड़के की कार का एक्सीडेंट मगर सब ठीक-ठाक से निपट गया था। लड़का काफी समय से वापस नहीं दिखा था। लड़की अध्यापिका थी। पुलिस की कृपा उस पर बनी रही। वो कहां गई कुछ पता नहीं चला। क्योंकि भीड़ की याददाश्त बहुत कमजोर होती है। अचानक बस स्टेण्ड की ओर से वही कार आती दिखी। इस बार कार वह अध्यापिका चला रही थी। एक अन्य युवक उसके पास बैठा था। कार की गति कम हुई। युवती ने कार रोकी ओर युवक को नीचे उतारा। युवक कुछ कहता उसके पहले ही कार तेजी से मुड़कर हाईवे पर दौड़ गई। युवक बेचारा क्या करता। युवक बस स्टेण्ड पर आकर खड़ा हो गया। यह पूरा नजारा कुलदीपकजी ने स्वयं अपनी नंगी आंखों से देखा था। उसने युवक को सिर से पैर तक देखा और कहा-
"कहो गुरु कहां से.................कहां तक....................का सफर तय कर लिया।"
"तुम्हे मतलब.......................।" युवक ने चिढ़कर कहा।
"अरे भाई हमें क्या करना है मगर जिस कार से तुम उतरे हो उसे एक केस में पुलिस ढूंढ रही है। "कहो तो पुलिस को खबर करे।" पुलिस के नाम से युवक परेशान हो उठा।
"अब मुझे क्या पता। मुझे तो हाईवे पर लिफ्ट मिली। मैं आ गया। बस..........।"
"...............छोड़ो यार...............। वो मास्टरनी कई चूजे खा चुकी है।"
"होगा....................मुझे क्या ?
"सुनो प्यारे चाहो तो इस कामधेनु को दुह लो।"
"नही भाई मुझे क्या करना है ?"
"शायद ये कार उसी लड़के ने मुंह बन्द करने के लिए गिफ्ट की है।"
"हो सकता है।" युवक सामने से आती हुई बस में चढ़ गया।"
***
कुलदीपकजी अभी-अभी अखबार के दफ्तर में अपनी फिल्मी समीक्षा देकर आये थे। पिछली समीक्षा के छपने पर बड़ा गुल-गुपाडा मचा था। पूरी समीक्षा में केवल नाम-नाम उनका था उनकी लिखी समीक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन कर दिया गया था। उपसम्पादक ने स्पष्ट कह दिया यह सब ऊपर के आदेश से हुआ था। कुलदीपकजी खून का घूंट पीकर रह गये। न उगलते बन रहा था और न निगलते। उपसम्पादक को उनकी औकात का पता था। सम्पादकजी की पी.ए. का भाई यही उनकी एकमात्र योग्यता थी, इधर उपसम्पादक को पूर परिवार के लिए फिल्म के पास और शानदार डिनर मिल चुका था। अतः वहीं समीक्षा छपी जो ऐसे अवसर पर छपनी चाहिये थी।
लेकिन इस बार कोई गड़बड़ नहीं हो इस खातिर कुलदीपकजी ने पूरी समीक्षा सीधे सम्पादक को दिखाकर टाइप सेटिंग के लिए दे दी साथ में दर्शक-उवाच भी लिखकर दे दिया। एक महिलादर्शक की प्रतिक्रिया भी सचित्र चिपका दी। उन्हें पूरी आशा थी कि इस बार पहले की तरह नहीं होगा।
कुलदीपकजी बस स्टेण्ड का जायजा ले रहे थे कि उन्हें प्रेरणा-संख्या 303 दिख गई। उन्हें पुरानी कविता की बड़ी याद आई, अभी डायरी होती तो वे तुरन्त कविता करते, कविता सुनाते, कविता गुनगुनाते मगर अफसोस इस समीक्षा के चक्कर में डायरी और कविता कहीं पीछे छूट गई थी।
कुलदीपक ने प्रेरणा संख्या 303 का पीछा किया। उसे गली के मोड़ तक छोड़कर आये और ठण्डी आहें भरते रहे। उन्हें अपना जीवन बेकार लगने लगा। वे झील के किनारे उदास बैठे रहे। उधर से एक पागल की हंसी सुनकर उनका ध्यान टूटा। वे उठे और उदास कदमों से घर की ओर चल पड़े। घर तक आने में उन्हें काफी समय और श्रम लगा। बस स्टेण्ड वीरान था। केवल कुछ कुत्ते भौंक रहे थे। रात्रिकालीन वीडियों कोचेज का आना-जाना शुरू होने वाला था। एक पगली इधर से उधर भाग रही थी।
पगली को देख कर उन्हें कुछ याद आया। मगर वे रूके नही, घर पहुंचकर ठण्डी रोटी खाकर सो गये।
कस्बे और झील के सहारे ही एक पुराना महलनुमा रावरा था। राजा-रजवाड़े, राणा, रावरा राव, उमराव तो रहे नही। गोलियां, दावड़िया, दासियां, पड़दायते भी नहीं रही। मगर ये खण्डहर उस अतीत के वैभव के मूक साक्षी है। इस महलनुमा किले में दरबार-ए-खास, दरबार-ए-आम, जनानी ड्योढी, कंगूरे, गोखड़े, बरामदे, बारादरियां, टांके, कुंए अभी भी है जो पुरानी यादों को ताजा करते है। प्रजातन्त्र के बाद ये सब सरकारी हो गये। सरकार भी समझदार थी। इस किले में सभी स्थानीय सरकारी दफ्तर स्थानान्तरित कर दिये। अब यहां पर कोर्ट है। कचहरी है। तहसील है। पुलिस थाना है। एक कोने में एक छोटी सी डिस्पेन्सरी भी है। तहसील में तहसीलदार, नायब, पटवारी, हेणा, चपरासी, मजिस्ट्रेट सभी बैठते है। फरीकों को सरकारी फार्म बांटने वाले एक-दो स्टाँफ वेन्डर भी बैठे रहते है। काम अधिक होने तथा जगह कम होने के कारण पटवारी अपनी मिसलों के साथ बाहर बैठे रहते है। इतना सरकारी अमला होने के कारण चाय, पान, गुटका, तम्बाकू की दुकानें भी है और वकीलों का हजूम तो है ही।
सूचना का अधिकार मिल जाने के कारण एक-दो स्वयंसेवी संगठनों के कार्यकर्ता भी यही पर विचरते रहते है, जरा खबर लगी नही कि अधिकार का उपयोग करते हुए प्रार्थना-पत्र लगा देते है। लेकिन अभी भी नकल प्राप्त करने में समय लग जाता है। चाय की थड़ी के पास ही एक पगला, अधनंगा पागलनुमा व्यक्ति लम्बे समय से अपनी जमीन का टुकड़ा अपने खाते में कराने के लिए प्रयासरत है।
मगर पटवारी, नायब, तहसीलदार, वकील, स्वयंसेवी संगठन के कर्ता-धर्ता कोई भी उसके काम को पूरा कराने में असमर्थ रहे है। कारण स्पष्ट है कि वह गान्धीवादी तरीके से खातेदारी नकल पाना चाहता है, जो संभव नही है। गान्धीगिरी से भी काम नही चल रहा है। रेवेन्यू विभाग में लगान माफ कराना आसान है। खातेदारी बदलवाना बहुत मुश्किल है।
इसी तहसील रूपी किले को भेदने में कभी कुलदीपकजी के बापू को भी पसीने आ गये थे। काम छोटा था, मगर दाम बड़ा था। बापू ने दिन-रात एक करके एक जमीन के टुकड़े पर एक कमरा बना लिया था। सरकार ने इसे कृषिभूमि घोषित कर रखा था यह ग्रीन बैल्ट था। बापू का कमरा तोड़ने के लिए नोटिस चस्पा हो चुका था। बापू तहसील में चक्कर लगाते-लगाते थक चुके थे। तभी एक स्थानीय वकील ने बड़ी नेक सलाह दी, तहसील के बजाय ग्राम पंचायत से पट्टा ले लो। सरपंच ने अपनी कीमत लेकर एक पुराना पट्टा जारी कर दिया, जो आज तक काम आ रहा है। और बापू, मां, यशोधरा और कुलदीपकजी आराम से रह रहे है। अतिक्रमण का यह खतरा बाद में स्वतः समाप्त हो गया। नई बनी सरकार ने सभी बने हुए मकानों का नियमन कर दिया। यहां तक की पार्टी फण्ड में मोटी रकम देने वालों को रिहायशी इलाके में दुकानें तक लगाने की मंजूरी दे दी।
तहसील में वैसे भी गहमागहमी रहती है और यदि इजलास पर कोई सख्त अफसर हो तो और भी मजा आ जाता है। इधर कस्बे के आसपास के मंगरो, डूंगरो पर पत्थर निकालने के ठेकों में भारी गड़बड़ियों के समाचार छपने मात्र से ही गरीब मजूदरों की मजदूरी बन्द हो गई थी। आज ऐसी ही एक मजदूर टोली का प्रदर्शन तहसील पर था। तहसीलदार ने ज्ञापन लेने के लिए अपने नायब को भेज दिया था। उत्तेजित भीड़ ने नायब से घक्का-मुक्की कर दी थी, फलस्वरूप तहसील कार्यालय के आसपास धारा एक सौ चवालीस लगा दी गई थी। पुलिस प्रशासन ने एकाध बार लाठी भांज दी, कुछ घायल भी हुए थे।
इसी तहसील से सटा हुआ एक अस्पताल भी था। अस्पताल में एक डाँक्टर, एक नर्स, एक चतुर्थ श्रेणी अधिकारी थे, जो बारी-बारी से शहर से ड्यूटी पर आते थे। सोमवार को डाँक्टर आता था। मंगलवार को नर्स और बुधवार को चपरासी, गुरूवार अघोषित अवकाश था। शुक्रवार को वापस डाँक्टर ही आते थे और यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता था। दवाओं के नाम पर पट्टी बांधने के सामान के अलावा कुछ नही था। समान्यतया रोगी को बड़े अस्पताल रेफर करने का चलन था। मलेरिया के दिनों में मलेरिया, गरमी में उल्टी-दस्त आदि के रोगी अपने आप आते और दवा के नाम पर आश्वासन लेकर चले जाते।
कस्बे के ज्यादातर रोगी एक पुराने निजि अस्पताल में जाते जहां का डाँक्टर आयुर्वेद होम्योपैथी, एलोपैथी, झाड़ाफूंक, तंत्र, मंत्र, इन्जेक्शन आदि सभी प्रकार का इलाज एक साथ करता था। मामूली फीस लेता था। उसने अपनी दुकान पर एक एक्स-रे देखने का बक्सा ओर एक माइक्रोस्कोप भी रख छोड़ा था। लेकिन उसने आज तक कोई टेस्ट नहीं किया था। रोगी सामान्यतया भगवान भरोसे ही ठीक हो जाते थे। जो ठीक नहीं होेते वे बड़े अस्पताल चले जाते और जो और भी ज्यादा गम्भीर होते थे वे सबसे बड़े अस्पताल की राह पकड़ लेते। डाँक्टर भगवान का रूप होता है, ऐसी मान्यता थी, मगर चिकित्सा शास्त्र में वैद्यों को यमराज का सहोदर कहा गया है और इस सत्य से कौन इन्कार कर सकता है।
कस्बे की डिस्पेसंरी में आज डाँक्टर का दिन था। वे ही नर्स चपरासी का काम भी देख रहे थे। ऐसा सहकार सरकारी कार्यालयों में दिखना बड़ा अद्भुत होता है। पास ही उनका अलेशेशियन भी बैठा था जिसे वे शहर से अपने साथ ही लाते-ले जाते है।
ठीक इसी समय मंच पर झपकलालजी अवतरित हुए। डाँक्टर ने उनको देखकर अनदेखा किया। सुबह से वो बीस मरीजों में सिर खपा चुके थे। बारह बज चुके थे। एक बजे की बस से उन्हें वापस जाना था। ऐसे नाजुक समय पर झपकलाल जी कराहते हुए आये तो डाँक्टर ने स्पष्ट कह दिया।
"अस्पताल का समय समाप्त हो चुका है, आप कल आईये।"
"अरे भईया डिस्पेसंरी खुली है और आप समय समाप्ति का रोना हो रहे है।""
डाँक्टर को गुस्सा आना ही था सो आ गया। उन्होंने झपकलाल को देखा एक गोली दी और शून्य की ओर देखने लगे।
झपकलाल ने गोली वहीं कूड़ेदान में फेंकी, हवा में कुछ गालियां उछाली और बस स्टेण्ड की ओर चल दिये। डाँक्टर ने चैन की सांस ली क्योंकि झपकलाल डाँक्टर के बजाय डाँक्टर के कुत्ते से ज्यादा डर गये थे।
बस स्टेण्ड पर एक शानदार नजारा था। एक सेल्स टेक्स इन्सपेक्टर, एक दुकानदार से टेक्स नही देने के कारणों की विस्तृत जांच रिपोर्ट ले रहा था। झपकलाल उसे तुरन्त पहचान गये। वह कस्बे का ढग था, उन्हें देखते ही ढग ने अपना परचम लहराया। हाय हलो किया और बचाने की गुहार मचाई। झपकलाल खुद कड़के थे, कण्डक्टर को तो समझा सकते थे, मगर सेल्स टेक्स वाला साहब नया-नया आया था। अचानक झपकलाल ने ढग को आंख मारी ढग समझ गया और बेहोश होकर गिर पड़ा। बस फिर क्या था पूरा बस स्टेण्ड इन्सपेक्टर के गले पड़ गया। जान छुड़ाना मुश्किल हो गया। झपकलाल ने इस्पेक्टर से दवा-दारु के नाम पर सौ रूपया ले लिया। भविष्य में नहीं छेड़ने की हिदायत के साथ इन्सपेक्टर को जाने की मौन स्वीकृति प्रदान की। उसके जाते ही ढग ओर झपकलाल ने रूपये आधे-आधे आपस में बांट लिये।
डाँक्टर, इन्सपेक्टर से लड़ने से झपकलाल का मूड ऑफ हो गया था। वे झील के किनारे-किनारे टहलने लगे। ठीक इसी समय सामने से उन्हें वे तीनों आती दिखाई दी। वे तीनों यानि मास्टरनीजी, नर्सजी और आंगनबाड़ी की बहिनजी।
उन्हें एक साथ देखकर उन्हें खुशी और आश्चर्य दोनों हुए। वे जानते थे, ये बेचारी सरकार में ठेके की नौकरी करती थी, यदि इमानदारी से टिकट खरीदे और नौकरी पर जाये तो पूरी तनखा जो मुश्किल से हजार रूपया थी, बसों के किराये और चायपानी में ही खर्चे हो जाती। सो तीनों चूंकि एक ही गांव में स्थापित थी, अतः बारी-बारी से जाती, सरकारी काम को गैर सरकारी तरीके से पूरा करती। सरपंच जी, प्रधानजी, जिला प्रमुखजी, ग्राम सचिव जी, बी.डी.यो. आदि की हाजरी बजाती और वापस आ जाती। वैसे भी अल्प वेतन भोगी सरकारी कर्मचारी होने के कारण तथा महिला होने के कारण वे सुरक्षित थी।
आज तीनों एक साथ कैसे ? इस गहन गम्भीर प्रश्न पर झपकलाल का दिमाग चलने लगा । मन भटकने लगा। तब तक तीनों मोहतरमाएं उनके पास तक आ गई थी।
झपकलाल इस स्वर्णिम अवसर को चूंकना नहीं चाहते थे। उन्होंने आंगनबाड़ी वाली बहिन जी को आपादमस्तक निहारा और पूछ बैठे-
"आज सब एक साथ खैरियत तो है।"
"खेरियत की मत पूछो।" हम बस परेशान है क्योंकि आज सेलेरी डे था और सेलेरी नहीं मिली।"
"क्यों। क्यों।"
"बस सरकारी की मर्जी और क्या।"
"आज केशियर ने छुट्टी ले ली।"
"तो क्या हुआ सरकार को कोई व्यवस्था करनी चाहिये थी। झपकलाल ने सहानुभूति दिखाते हुए कहा।"
"सरकार के बाप का क्या जाता है।" बच्चे तो हमारे भूख से बिलबिला रहे है।" नर्स बोली।
"और मेरे वो तो बस सुनने के बजाय ऐसी पूजा करेंगे कि कई दिनों तक कमर चटकेगी," मास्टरनीजी बोली।
"हड्डिया चटकाने में तो मेरे वो भी कुछ कम नहीं है।" आंगनबाड़ी बहिन जी ने अपना दुखड़ा रोया।
झपकलालजी द्रवित हो गये। काश उनके पास सेलेरी दिलाने की पावर होती तो वे अवश्य यह नेक काम कर इनका दुःख दूर करते। मगर उनके पास ऐसी कोई सरकारी शक्ति नहीं थी। वे बोले-
"जो काम करना चाहते है उनके पास पावर नही और जिनके पास पावर है वे कुछ करना नहीं चाहते। अजीब प्रजातन्त्र है इस देश में।"
तीनों महिलाओं को देश की प्रजातन्त्र में कुछ खास रूचि नहीं थी, उन्हें तो घर में गठबन्धन धर्म निभाना था और देहधर्म के अलावा वे क्या कर सकती थी। उन्हें जाते हुए उदास निगाहों से झपकलाल देर तक देखते रहे। उन्होंने झील में कुछ कंकड़ फेंके। कुछ लहरें उठी। फिर सब शान्त हो गया।
***
कस्बा मोहल्लों में बंटा हुआ है। कस्बे के शुरुआती दिनों में मोहल्लें जातियों के आधार पर बने थे। मगर समय के साथ, आधुनिक जीवन के कारण, नौकरी पेशा लोगों के आने के कारण जातिवादी मोहल्ले कमजोर जरूर पड़े मगर समाप्त नहीं हुए। आज भी किसी भी मोहल्ले में नया आने वाला मकान मालिक या किरायेदार सबसे पहले अपने जात वालों को ढूंढ़ता है। फिर गौत्र वालों से मेल मुलाकात करता है, दुआ सलाम रखता है। जरूरत पड़ने पर रोटी-बेटी का व्यवहार भी कर लेता है। मुस्लिम मौहल्ले की भी यही स्थिति है जो गरीब हिन्दू इसाई धर्म की शरण में चले गये वे अवसर की नजाकत को समझकर इधर-उधर हो जाते है।
चुनाव के दिनों में जाति में वोटों के लिये बंटने वाले कम्बल, शराब, मुफ्त का खाना-पीना आदि सभी उम्मीदवारों से जाति के नेता लेकर बांट-चूंटकर खा जाते है। कभी बूथ छापने का ठेका भी ले लिया जाता है। मगर यह सब दबे-के रूप में ही चलता है। खुले आम प्रजातन्त्र की रक्षा की कसमें खाई जाती है।
मोहल्लेदारी जरूर कमजोर हुई है, मगर अभी भी भुवा, काकी, दादी, नानी, मासी, भाभी आदि के रिश्ते जिंदा है। बूढे-बुजर्ग मोहल्ले के नुक्कड पर चौपड़, ताश, शतरंज खेलते है। हुक्का-बीड़ी, सिगरेट, खैनी, तम्बाकू का शौक फरमाते है और आने जाने वालों पर निगाह रखते है। मजाल है जो कोई बाहरी परिंदा पर भी मार जाये।
इसी प्रकार के माहौल में कुलदीपकजी के घर के पास में नये किरायेदार के रूप में शुक्लाजी आये। शुक्लाजी स्थानीय जूनियर काँलेज में अध्यापक होकर आये थे। मगर उन्हें प्रोफेसर कहना ही आज के युग का यथार्थ होगा। जाति बिरादरी का होने के कारण मां बापूजी ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। शुक्लाजी मुश्किल से तीस वर्ष के थे। शुक्लाइन की गोद में एक बच्चा था। गोरा चिट्टा, मुलायम, सुन्दर, प्यारा। इसी की वजह से दोनो परिवार एकाकार होने की कगार पर आ गये।
शुक्लाईन दिन भर खाली ही रहती थी। मां को उसने सास मां बना लिया फिर क्या था। बापू ससुर का दर्जा पा गये। कुलदीपकजी देवर हो गये और यशोधरा दीदी। दीदी का रोबदाब अब दोनों घरों में चल निकला था। वे अपनी नौकरी से खुश थी। घरवाले उसकी पगार से खुश थे। सम्पादकजी महिला सहकर्मी के साहचर्य से खुश थे। कुलदीपकजी अपनी समीक्षा लेखन से खुश थे। उनकी दूसरी फिल्मी समीक्षा जब छपकर आई तो सब कुछ ठीक था बस दर्शक उवाच महिला दर्शक के चित्र के साथ छप गया था और महिला दर्शक के स्थान पर एक पुरूष दर्शक का चित्र छप गया था। कुलदीपकजी इस बात को पी गये। उन्हें समीक्षाओं के खतरों का आभास होने लगा था। कभी-कभी तो वे समीक्षा के स्थान पर वापस काव्य जगत में लौटने की सोचते मगर कविताओं का प्रकाशन बहुत तकलीफदेह था। इधर पिछली समीक्षा का पारिश्रमिक "पचास रुपये" पाकर कुलभूषणजी सब अवसाद भूल गये और इस पारिश्रमिक को सेलीब्रेट करने के लिये झपकलाल को साथ लेकर बस स्टेण्ड की ओर चल पड़े।
सायं सांझ धीरे-धीरे उतर रही थी। बस स्टेण्ड पर रेलमपेल मची हुई थी। कुलदीपकजी ने एक थड़ी के पिछवाड़े जाकर सायंकालीन आचमन का पहला घूंट भरा ही था कि झाड़ियों में कुछ सरसराहट हुई। सरसराहट की तरह ध्यान देने के बजाय झपकलाल ने आचमन की ओर ध्यान देना शुरू किया। मगर सरसराहट फुसफसाहट और फुसफुसाहट बाद में चिल्लाहट में बदल गई। अब एक जागरूक शहरी नागरिक होने के नाते इस पर ध्यान दिया जाना जरूरी था। कुछ सरूर का असर, कुछ शाम का अन्धेरा, उन्हें कुछ साफ दिखाई नहीं दे रहा था, मगर कुछ ही देर में सब कुछ साफ हो गया।
बस स्टेण्ड के पास नियमित घूमने वाली पगली बदहवास सी भाग निकली और उसके पीछे-पीछे कुछ आवारा लड़के, आवारा कुत्तों की तरह भागे। इस भागदौड़ में पगली बेचारी और भी नंगी हो गई। इस नंगी और नपुंसक दौड़ को देख-देखकर बस स्टेण्ड की भीड़ हंसने लगी। लड़के शहर वाली साइड में भाग गये। आचमन का कार्य पूर्ण करके कुलदीपकजी ने एक लम्बी डकार ली और कहा-
"इस देश का क्या होगा ?"
"देश का कुछ नहीं होगा। यह महान देश हमारे-तुम्हारे सहारे जिन्दा नहीं है। ये कहो कि हमारा-तुम्हारा, इस पीढी का क्या होगा।"
"पीढी का क्या होना-जाना है। खाओ-पीओ। बच्चे जनो। परिवार नियोजन का काम करो और मर जाओ यही हर एक की नियति है।
4
कस्बे के बाजार के बीचों-बीच के ढीये पर कल्लू मोची बैठता था। उसके पहले उसका बाप भी इसी जगह पर बैठकर अपनी रोजी कमाता था। कल्लू मोची के पास ही गली का आवारा कुत्ता जबरा बैठता था। दोनों में पक्की दोस्ती थी। जबरा कुत्ता कस्बे के सभी कुत्तों का नेता था और बिरादरी में उसकी बड़ी इज्जत थी। हर प्रकार के झगड़े वो ही निपटाता था। कल्लू मोची सुबह घर से चलते समय अपने लिए जो रोटी लाता था उसका एक हिस्सा नियमित रूप से जबरे कुत्ते को देता था।
दिन में एक बार कल्लू उसे चाय पिलाता था। सायंकालीन डिनर का ठेका झबरे कुत्ते ने पास वाले हलवाई को स्थायी रूप से दे दिया था। रात को नौ बजे से बारह बजे तक जबरे कुत्ते का डिनर हलवाई के बर्तनों में चलता रहता था। कल्लू मोची के पास लोग-बाग केवल अपने जूतों-चप्पलों की मरम्मत के लिए ही आते हो, ऐसी बात नहीं थी। कल्लू की जाति के लोग, सड़क के आवारा लोग, भिखारी, पागल आदि भी कल्लू के आसपास मण्डराते रहते थे। आज कल्लू के पास के गांव का उसकी जात का चौधरी आया हुआ था। जबरा कुत्ता भी उनकी बातों में हुंकारा भर रहा था।
चौधरी बोला-अब बता कल्लू क्या करें। गांव में बड़ी किरकिरी हो रही है। भतीजा रहा नही। भतीजे की बहू के एक लड़की है और भतीजे के मरते समय से ही वह पेट से है................। "कैसे सुधरे यह सब।"
"अब इसमें चौधरी साफ बात है। छोरी का नाता कर दो।"
"यह क्या इतना आसान है। एक लड़की है और एक ओर बच्चा होगा...........।"
"अरे तो इसमें क्या खास बात है। नाते में जो मिले उसे छोरी के नाम से बैंक में डाल दो। दादा-दादी इसी बहाने पाल लेंगे। और जो पेट में है उसकी सफाई करा दो।"
"राम........राम..........। कैसी बाते करते हो।"
"भईया यहीं व्यवहारिक है। लड़की अभी जवान है, सुन्दर है, घर का काम-काज आसानी से कर लेती है। कोई भी बिरादरी का आदमी आसानी से नाता जोड़ लेगा। सब ठीक हो जायेगा। रामजी सबकी भली करते है।
"कहते तो ठीक हो............मगर....................।
"अब अगर............मगर छोड़ों। कहो तो बात चलाऊं।"
"कहाँ।"
"यही पास के गांव में एक विधुर है।"
"यह ठीक होगा।"
"तो क्या तुम पूरी जिन्दगी उस लड़की की रखवाली कर सकोगे। जमाना बड़ा खराब है।"
""हां ये तो है।"
"तो फिर..............।"
"सोचकर..........घर में बात कर के बता देना।"
"या फिर पंच बिठाकर फैसला कर लो।"
"अन्त में शायद यही होना है।"
कल्लू ने चाय मंगाई। जबरे के लिए एक कप चाय पास के पत्थर पर डाली। जबरे ने चांटी। और चौधरी ने चाय सुड़क ली। तम्बाकू बनाई खाई और चौधरी चला गया। कल्लू अपना काम शुरू करता उससे पहले ही बाजार में हल्ला मच गया। जबरा दौड़कर चला गया। वहां बाजार में कुत्तों के दो झुण्ड एक कुतिया के पीछे दौड़ रहे थे। जबरे ने उन्हें ललकारा, झुण्ड चले गये। झबरा वापस कल्लू के पास आया और बची हुई चाय चाटने लगा। जबरा कुत्ता किसी से नहीं डरता था। डाँक्टर का अलेशेशियन कुत्ता भी उसे देखकर भोंकना बन्द कर देता था। जबरे का गुर्राना डाँक्टर को पसन्द नहीं आता था, मगर उसे क्या करना था। कुत्तों के बीच की यारी-दुश्मनी से उसे क्या मतलब था। कुत्तों की कुत्ता-संस्कृति पूरे कस्बे की संस्कृति का ही हिस्सा थी।
कुछ कुत्ते आदमियों की तरह थे और कुछ आदमी कुत्तों की तरह थे। कस्बे में रामलीला भी चलती थी और कुत्तालीला भी। कुत्ते संस्कृति के रक्षक भी थे और भक्षक भी। कुत्ते बुद्धिजीवी भी थे और नेता भी। कुछ कुत्ते तो स्वर्ग से उतरे थे और वापस स्वर्ग में जाना चाहते थे।
कल्लू मोची जूतों-चप्पलों की मरम्मत के अलावा मोहल्ले समाज, बाजार, मंहगाई, चोरी, बेईमानी, रिश्वत आदि की भी मरम्मत करता रहता था। उसका एक मामला कोर्ट में था, उसको लेकर वह वकीलों, अदालतों और मुकदमों पर एकदम मौलिक चिन्तन रखता था, कभी-कभी गुस्से में जबरे कुत्ते को सुना-सुना कर अपना दिल का दुःख हल्का कर लेता था। लेकिन जबरे कुत्ते के अपने दुःख दर्द थे जो केवल कल्लू जानता था। वह जबरे को लकी कुत्ता मानता था। क्योंकि जबरे के बैठने से ही उसका व्यापार ठीक चलता था। कुत्ता के पास कुत्तागिरी थी और कल्लू के पास गान्धीगिरी।
कल्लू मोची और पास वाले हलवाई के बीच-बीच तू-तू, मैं-मैं चलती ही रहती थी। हलवाई उसे हटवाना चाहता था और कल्लू की इस लड़ाई के बावजूद झबरे कुत्ते का डिनर बाकायदा यथावत चलता रहता था। लड़ाई कल्लू से थी जबरे कुत्ते से नहीं।
*****
मोहल्ले की प्रोढवय की महिलाओं ने शुक्वाईन के चाल-चलन, व्यवहार, खानदान आदि पर शोधकार्य शुरू कर दिये थे। अभी तक शोधपत्र प्रकाशित नहीं हुए थे, मगर शोध सारांश धीरे-धीरे इधर-उधर डाक के माध्यम से आने-जाने लगे थे। मुंह से ये जनानियां शोध लोकप्रियता का दर्जा प्राप्त कर रहे थे। शोधपत्रों के सारांश में से एक सारांश का सार ये था कि शुक्लाइन वो नही है जो दिखती है, एक अन्य शोधकर्ती ने उन्हें बुद्धिमान मानने से ही इन्कार कर दिया था। आखिर एक अन्य शोधपत्र तो सीधा मौहल्ले में प्रकाशित हो गया। इस शोधपत्र के अनुसार शुक्लाईन शुक्लाजी के साथ ही पढ़ती थी। पढ़ते-पढ़ते लव हो गया। शादी हो गई। बच्चा हो गया। वैसे भी शक्ल सूरत से देहाती लगती है।
इसके ठेठ विपरीत एक अन्य शोध छात्र का निष्कर्ष कुछ ज्यादा महत्वपूर्ण था। उनके अनुसार शादी जो थी वो आर्य समाज की विधि से हुई थी और बच्चा जो है पहले से ही पेट में था। इस शोध का आधार क्या था, यह किसी को भी पता नहीं था। आखिर मोहल्ले की महिलाओं ने एक दिन सामूहिक रूप से शुक्ला परिवार के घर पर धावा बोलने का निश्चय किया।
दोपहर का समय। शुक्लाईन बच्चें को सुलाकर खुद भी आराम के मूड में थी। काल बेल बजी। अभी उनके आने का समय तो हुआ नही था। ऐसे में कौन हो सकता है शुक्लाईन यह सब सोचते-सोचते आई और गेट खोला। गेट पर मोहल्ले की प्रोढ़ाओं को देखकर सूखी हंसी के साथ स्वागत करती हुई बोली।
"आईये। आईये। धन्य भाग मेरे।"
हां बेटी तुम नई हो सो सोचा परिचय कर ले। किसी चीज की जरूरत हो तो बताना बेटी। चाची बोली।
चाची को चुप करते हुए मोहल्ले की भाभी बोली।
"तुम्हारे वो तो रोज जल्दी आ जाते है क्या बात है। बहुत प्रेम है क्या ?"
"प्रेम की बात नहीं है, भाभी काँलेज में काम ही कम होता है। अपनी क्लास लो और बस काम खत्म।"
"अच्छा। ऐसा होता है क्या भई हम तो काँलेज गई ही नही। हमारे वो तो देर रात गये आते है।"
"अपनी-अपनी किस्मत।" चाची ने भाभी को नीचा दिखाने के लिए कहा।
शुक्लाइन चाचियों, भाभियों को चाय पिलाकर चलता करना चहाती थी कि मुन्ना जग गया। शुक्लाइन ने उसे फिर सुलाया, इस बार चुलबुली दीदी ने पूछा।
"भाभी लव मैरिज थी या अरेन्जड ?"
"अरे भाई क्या लव और क्या अरेन्ज। वास्तव में लव पहले हो गया और मैरिज बाद में हुई।"
"भई हमारे जमाने में तो ये सब चोंचले नहीं चलते थे।" चाची फिर बोल पड़ी। "सीधा ब्याह होता था जिस खूंटी पर बांध देते, बंध जाते।"
"अब बाकी ये तो सब तो चलता है।" दीदी ने कहा और बात खत्म की।
शुक्लाईन इन महानारियों से उब चुकी थी। चाय, शाय हुई और उन्हें चलता किया। बाहर जाकर औरतों ने अपने-अपने शोधपत्रों में अपेक्षित सुधार किये और प्रकाशनार्थ इधर-उधर चल दी। यह शोध अनवरत जारी है।
*****
कल्लू मोची और उसके जबरे कुत्ते की कसम खाकर यह किस्सा-ए-अलिफ लैला या दास्तान, ए लैला मंजनू अर्ज करने की इजाजत चाहता हूं। खलक खुदा का और मुलक बादशाह का। यह न तो कोई फसाना है और न ही अफसाना, मगर हकीकत का भी बयां किया जाना बेहद जरूरी है।
जिस प्रोफेसर और प्रोफेसराइन की चर्चा, कुचर्चा, तर्क, कुतर्क, वितर्क कर करके मौहल्लेवालियां हलकान हुई जा रही है उसे तफसील से बताना है तो गैर जरूरी होगा मगर किस्सा गोई के सिद्धान्तों के अनुसार जरूरी बातें अर्ज करता हूं।
प्रोफेसर शुक्ला जिस हाई स्कूल रूपी काँलेज में पढ़ाने आये थे, वो अभी भी हाई स्कूल के स्तर से ऊपर नहीं उठा था। हैडमास्टर साहब को हैडमास्टर ही कहा जाता था और प्रिंसिपल का पद भी इसी में समाहित था। काँलेज में सहशिक्षा थी। यौन शिक्षा थी। पास में ही सरकार का शिक्षा संकुल था। राजनीति थी। फैशन थी। अक्सर फैशन परेडे होती रहती थी। किसी भी बहाने नाचने-गाने के कार्यक्रम होते रहते थे। डाण्डिया, दिवाली, वार्षिक उत्सव, परीक्षा, फ्रेशर्स पार्टी, वन दिवस, वर्षा दिवस, सूखा दिवस, आदि दिवसों पर लड़के-लड़कियां नाचते थे। गाते थे। साथ-साथ घूमते थे। मौसम की मार से बेखबर हर समय वसन्त मनाते थे। मां-बाप की काली-सफेद लक्ष्मी के सहारे इश्क के पेंच लड़ाते थे और सरस्वती को प्राप्त करने के लिए नकल करने का स्थायी रिवाज था। जो लोग नकल नहीं कर सकते थे वे विश्वविद्यालय के बाबू से परीक्षक का नाम, पता, सुविधा शुल्क देकर ले आते थे और पास हो जाते थे।
प्रायोगिक परीक्षाओं में पास होने का सीधा अंकगणित था। बाह्य परीक्षक को टी.ए., डी.ए. का नकद भुगतान छात्र चन्दे से कर देते थे। कोई-कोई अड़ियल परीक्षक टी.ए., डी.ए. के अलावा टाँप कराने का शुल्क अतिरिक्त मांगते थे और एक बार दो छात्रों को टाँप करना पड़ा, क्योंकि दोनों ने अतिरिक्त शुल्क आन्तरिक परीक्षक को जमा करा दिया था। वास्तव में सच ये है कि शिक्षा, पद्धति जबरे कुत्ते की रखैल थी। जिसे हर कोई छेड़ सकता था। नोंच सकता था। उसके साथ बलात्कार कर सकता था और प्रजातन्त्र की तरह प्रौढ़ा शिक्षा पद्धति की कही कोई सुनवाई नहीं थी।
ऐसे खुशनुमा वातावरण में शुक्लाजी पढ़ाते थे या पढ़ाने का ढोंग करते थे। कक्षा और उनके बीच की केमेस्ट्री बहुत शानदार थी, जैसे दो प्यार करने वालों के बीच होती है। लेकिन इस काँलेज के चक्कर में असली किस्सा तो छूटा ही जा रहा है।
शुक्लाजी इस महान काँलेज में आने से पहले राज्य के कुख्यात विश्वविद्यालय में शोधरत थे। अक्सर वे विश्वविद्यालय के सामने की टी-स्टाल पर बैठकर अपने गाईड को गालियां देते रहते थे। उदासी के क्षणों में वे नीम पागल की तरह विश्वविद्यालय की सीढ़ियों पर पड़े पाये जाते थे। आते-जाते एक दिन उन्होंने देखा कि विभाग की एक कुंवारी कन्या उन्हें देख-देखकर हंस रही है। वो शोध छात्रा थी। दोनों के टाँपिक एक से थे। सिनोप्सिस विश्वविद्यालय में जमा हो गये थे। विश्वविद्यालय के शोध बाबू ने शोध सारांश के पास हाने की कच्ची रसीद शुल्क लेकर दे दी थी। अर्थात सब तरफ मंगल ही मंगल होने वाला था।
शुक्लाजी ने भावी शुक्लाईन का अच्छी तरह मुआईना किया। साथ मरने जीने की कस्में खाई। तो शोध छात्रा ने पूछा।
"आपने गाईड को कैसे पटाया।"
"पटाने को उस बूढ़े खूंसट में है ही क्या, मैंने उसके नाम से एक लेख लिखकर छपा दिया। अपना फोटो-लेख छपा देख वह बूढ़ा खुश हो गया। एक सायंकाल घर पर जाकर गुरुआईनजी को भी खुश कर आया। उस समय गाईड जी कहीं दोस्तों के साथ ताशपत्ती खेल रहे थे। रात भर घर नहीं आये।
"वे रात भर ताशपत्ती नहीं खेल रहे थे भई, वे मेरी सिनोप्सिस लिख रहे थे, रजाई में बैठकर.............।"
"अच्छा तो फिर तुम्हारी सिनोप्सिस भी पास हो गई।"
"वो तो होनी ही थी। इस कुरबानी के साथ तो डिग्री मुफ्त मिलती है।"
दोनो शोधकर्ता अपनी-अपनी जमीन पर नंगे थे। दोनों के सूत्र मिलते थे। गाईड एक थे। सब कुछ एकाकार होना चाहता था। सो आर्य समाज में दहेज, जाति, वर्ण रहित शादी सम्पन्न हो गई और छात्रा जो किसी गांव से शहर आई थी अब श्रीमती शुक्लाइन बन गई थी।
काँलेज में पढ़ाने के बाद शुक्लाजी घर की तरफ आ रहे थे, सोचा कुछ सौदा लेते चले। नये खुले माँल में घुस गये। वहां देखा, काँलेज के छात्र चारों तरफ जमा थे। शुक्लाजी वापस उल्टे पैरों आये। उनके कानों में कुछ वाक्यांश पड़े।
"यार शुक्ला बड़ा तेज है।"
"सुना है शहर से ही चांद का टुकड़ा मार लाया है।"
"एक बच्चा भी है।"
"पता नहीं, किसका है ?"
"दोनों के गाईड का लगता है।"
"हे भगवान अब ये क्या पढ़ायेंगे ?"
"बेचारा शुक्ला, बेचारी शुक्लाईन।"
"जैसी भगवान की मर्जी और क्या ?"
*****
शुक्लाजी जब घर पहुंचे तो भरे हुए थे। शुक्लाइन का भेजा फ्राई हो रहा था। शुक्लाजी जीवन की परेशानियों से परिचित थे। सोचते थे जीवन है तो परेशानियां है। मगर इस तरह की गलीज परेशानियों की तो उन्होंने कल्पना ही नही की थी। उनके स्वीकृत मानदण्डों में ये सब ठीक नहीं हो रहा था। वे प्रगतिशील विश्वविद्यालय से पढ़कर निकले थे। इस प्रकार की लफ्फाजी के आदि नही थे। वे सभ्य संसार की अन्दरुनी हालत जानते थे। समझते थे। मगर ये सब..............।
इधर शुक्लाईन मौहल्ले की महानारियों के बाणों से त्रस्त थी। उनकी बातों के वाणों के साथ तीखे नयनों की मार भी वो अभी-अभी भी झेल चुकी थी। जाहिर था इस सम्पूर्ण रामायण पर एक महाभारत जरूरी था। वही हुआ।
शुक्लाजी घर में घुसे तो आंधी की तरह शुक्लाईन उन पर छा गई। धूल की तरह जम गई। शुक्लाईन कद-काठी से शुक्लाजी से सवायी डेढ़ी थी, भरी हुई थी, हर तरह से जली-भुनी थी, बोल पड़ी।
"तुम्हें कुछ पता भी है, मोहल्ले में क्या हो रहा है ?"
"मोहल्ले को मारो गोली। हम तो किरायेदार है। आज नहीं तो कल इस असार मोहल्ले को छोड़कर कहीं और बसेरा कर लेंगे।"
"लेकिन बदनामी वहां भी पीछा नहीं छोड़ेगी।"
"न छोड़े बदनामी के डर से जीना तो बंद नहीं कर सकते।"
"तुम नहीं समझोगे। नहीं सुधेरोगे।"
"मैं समझता भी हूं और सुधर भी गया हूं।"
"अरे वाह। हमारी बिल्ली हमीं को आंखे दिखाये।"
"मैं आंखें नहीं दिखा रहा हूं। कानों से जो सुना है, उसे ही पचाने की कोशिश कर रहा हूं।"
अब तुम्हारे कानों में क्या गरम सीसा पड़ गया।"
"हां वही, समझो, आज सोदा खरीदते समय कुछ लोण्डे कुछ अण्ट-सण्ट बक रहे थे।"
"क्या बक रहे थे। मैं भी सुनूं।"
"अब तुम जानकर क्या करोगी.........। ये सब गंवार, जंगली, जाहिल लोग है।"
"अरे तो हम सुनेंगे क्यों ?"
"सुनना और सहना ही मनुष्य की नियति है। तुम चाय बनाओ। छोड़ो ये पचड़ा।"
नहीं तुम्हें मेरी कसम बताओ।"
शुक्लाजी ने जो सुना था, दोहरा दिया।
शुक्लाईन सन्न रह गई। उसे भी यह खटका था।
उदास सांझ में उदासी के साथ दोनों ने चाय ली। खाना खाया और सो गये। बाहर गली में कुत्ते भौंक रहे थे और जबरा कुत्ता उन्हें चुप रहने के आदेश दे रहा था। कुछ समय में जबरे कुत्ते के आदेशों की पालना हुई क्योंकि अब केवल एक कुतिया ही रो रही थी।
प्रजातंत्र का सबसे बड़ा आराम ये है कि कोई भी किसी को भी गाली दे सकता है। सरकार, मंत्री, अफसर की ऐसी तेसी कर सकता है। गली-मोहल्ले से लगाकर देश के उच्च पदों पर बैठने वालों की बखियां उधेड़ सकता है। लेकिन क्या प्रजातंत्र झरोखे, गोखड़े, खिड़की, दरवाजे पर खड़े रहकर देखने मात्र की चीज है, या प्रजातंत्र को भोगना पड़ता है। सहना पड़ता है। उसकी अच्छाईयों-बुराइयों पर विचार करना पड़ता है। शुक्लाजी स्टाँफ रूम के बाहर के लोन में खड़े-खड़े यही सब सोच रहे थे। प्रजातंत्र राजतंत्र और तानाशाही के त्रिकोण में फंसा संसार उन्हें एक मायाजाल की तरह लगता था। वे इसी उधेड़-बुन में थे कि इतिहास की अध्यापिका भी वही आ गईं। वे शुक्लाजी से कुछ वर्ष वरिष्ठ थी और उड़ती हुई खबरें उन तक भी पहुंची थी। लेकिन शालीनता के कारण कुछ नहीं बोल पाती थी।
"क्या बात है आप कुछ उदास है ?"
"उदासी नही बेबसी है। हम चाहकर भी व्यवस्था को नहीं सुधार सकते।"
"आप बिलकुल ठीक कहते हैं। इस सड़ी-गली व्यवस्था से कुछ भी अच्छें की उम्मीद करना बेमानी है।"
"वो तो ठीक है मगर व्यवस्था सभी को नाकारा, नपुसंक, नंगा और भ्रष्ट क्यों समझती है।"
"क्योंकि यही व्यवस्था का चरित्र है।" सत्ता का मुखौटा और चरित्र एक जैसा होता है लेकिन बिग बदल जाती है। गंजे सिर पर लगी बिग या पार्टी की टोपी ही सब कुछ तय करती है और मुखौटा तथा बिग बदलने में कितना समय लगता है ?
ठीक कहती है, आप इतिहासज्ञ है, इतिहास के आईने में सूरते बदलती रहती है और हम सब देखते रह जाते है।
"राजनीति इसी का नाम है। जब भी किसी के साथ अन्याय की बात आती है तो सर्वप्रथम राजनीतिक बातें ही उठती है। अपना कस्बा छोटा है और काँलेज तो और भी छोटा है मगर राजनीति बड़ी है।"
अब देखो न शुक्लाजी आपके आने से पहले यहां पर आपके पद पर वर्माजी थे। बेचारे बड़े सीधे-सादे। अपने काम से काम। न किसी के लेने में और न किसी के देने में। मगर हैडमास्टर साहब ने उन्हें एक परीक्षा हाँल में मैनेजमेंट ट्रस्टी के लड़के को नकल नहीं कराने की ऐसी सजा दिलवाई की बस मत पूछो।
"क्यों क्या किया हैडमास्टर साहब ने।"
"ये पूछो कि क्या नहीं किया।"
"पहले आरोप। फिर आरोप-पत्र। फिर लड़कों द्वारा अश्लील पोस्टर लगवाये। नारे लगवाये। सड़कों पर नारे लिखवाये। उन्हें जलील किया। बेइज्जत किया। यहां तक कि पत्नी को अपहरण कराने की धमकी दी।"
"अच्छा। फिर..............।"
"फिर क्या, पूरे शहर में बदनामी की हवा फैली। हैडमास्टर को आगे कुछ नहीं करना पड़ा। वर्माजी एक रात बोरियां-बिस्तर लेकर गये सो आज तक वापस नहीं आये। बेचारे...........।"
लेकिन अन्याय का प्रतिकार किया जाना चाहिये था.......।
"ये सिद्धान्त की बातें सुनने और बोलने में अच्छी लगती है शुक्लाजी। लेकिन जब बीतती है तो सिर छुपाने को जगह नहीं मिलती। यह कहकर इतिहास की राघवन मैडम चल दी।"
शुक्लाजी फिर सोचने लगे। वे अपने और शुक्लाईन के भविष्य को लेकर आश्वस्त होना चाहते थे। इस निजि काँलेज की राजनीति से बचना चाहते थे, मगर राजनीति उनसे बचना नहीं चाहती थी। तभी चपरासी ने आकर बताया कि हैडमास्टर साहब याद कर रहे है। शुक्लाजी हैडमास्टर साहब के कक्ष की ओर चल दिये।
अधेड़ उम्र के हैडमास्टर को हर कोई टकला ही कहता था, मगर रोबदाब ऐसा कि मत पूछो। शुक्लाजी कक्ष में घुसकर बैठने के आदेश का इन्तजार करने लगे। काफी समय व्यस्तता का बहाना करके हैडमास्टरजी ने उन्हें बैठने को कहा।
"शुक्लाजी सुना है आप की कक्षा में अनुशासन कुछ कमजोर है, पढ़ाने की और ध्यान दे..........।"
"जी ऐसी तो कोई बात नहीं है, मगर फिर भी मैं ध्यान रखूंगा।"
"मैं चलूं सर।" मगर अनुमति नही मिली।
"सुनो हिन्दी की मैडम कुछ समय के लिए मेटरनिटी लीव पर जा रही है कोई पढ़ाने वाली ध्यान में हो तो बताना। "
हैडमास्टर साहब ने मछली को चारा फेंक दिया था। शुक्लाजी को पता था कि उन्हें कुछ समय के लिए ऐवजी मास्टरनी की जरूरत है। अतः हैडमास्टर साहब के प्रस्ताव पर तुरन्त उनके ध्यान में शुक्लाइन का चेहरा आ गया। मगर छोटे बच्चे की सोच चुप लगा गये, फिर सोचकर बोल पड़े।
"सर मेरी मिसेज भी क्वालिफाइड है। आप उचित समझे तो.........."शुक्लीजी ने जान बूझकर बात अधूरी छोड़ दी।
5
हैडमास्टर साहब का काम पूरा हो चुका था। उन्होंने देखेंगे का भाव चेहरे पर चिपकाया ओर शुक्लाजी ने कक्ष से बाहर आकर पसीना पोंछा।
हैडमास्टर साहब शिक्षा के मामले में बहुत कोरे थे। वे तो अपने निजि सम्बन्धों के सहारे जी रहे थे, मैनेजमेंट, पार्टी पोलिटिक्स ट्रस्ट, अध्यापक, छात्र, छात्राओं आदि की आपसी राजनीति उनके प्रिय शगल थे। विद्यालय में किसी प्रिन्सिपल की नियुक्ति की अफवाहों से वे बड़े विचलित थे। इस विचलन को ठीक करने का एक ही रास्ता था। मैनेजमेंट के मुख्य ट्रस्टी को अपनी ओर मिलाये रखना। मुख्य ट्रस्टी शहर के व्यापारी थे। उनके पास कई काम थे। उन्होंने काँलेज का काम-काज अपनी पत्नी माधुरी के जिम्मे कर दिया था। माधुरी कभी-कदा काँलेज आती। संभालती। एक-दो को डाँट-डपट करती। निलम्बन की धमकी देती और चली जाती। वो पढ़ी-लिखी ज्यादा नही थी मगर सेठानी थी और पैसा ही उसकी योग्यता थी।
हैडमास्टरजी उससे खोंफ खाते थे, कारण स्पष्ट था। सेठजी खुश तो हैडमास्टरी चलती रहती और नाराज तो हैडमास्टर चले जाते। शिक्षा की दुर्गति ही थी एम.ए., बी.एड., एम.एड., पी.एच.डी. जैसी डिग्रियों के धारक सेठानी की आवाज पर चुप लगा जाते। स्थानीय अध्यापकों का गुट अलग था, जो हमेशा से ही मैनेजमेंट का गुट कहलाता था और बाह्य अध्यापकों को कभी भी कान पकड़कर निकाला जा सकता था।
पढ़ाई लिखाई के अलावा ज्यादा काम काँलेज में दूसरे होते थे। सर्दियों में अवकाश के दौरान सेठजी अपनी दुकान का सामान भी काँलेज में रखवा देते थे। काँलेज में पिछवाड़े सेठजी की गायें, भैंसें बंधती थी और काँलेज के चपरासी उनकी अनवरत सेवा सुश्रुषा, टहल करने पर ही नौकरी पर चलते थे। काँलेज में मौज-मस्ती, फैशन, करने के लिए पूरे शहर के लौण्डे-लौण्डियां आते थे। नाभिदर्शना-लो-हिप जीन्स और लोकट टाँप के सहारे लड़कियां काँलेज लाइफ के मजे ले रही थी और लड़के गुरूओंं से ज्यादा लवगुरूओं के पास मंडराते थे।
माधुरी इस हाईस्कूल को कभी निजी विश्वविद्यालय बनाने के सपने देखती थी। ऐसा सपना उन्हें हैडमास्टर साहब दिखाते थे। माधुरी का मानना था कि एक बार उन्हेंं विधानसभा का टिकट मिल जाये बस यह स्कूल राज्य का विश्वविद्यालय बनकर रहेगा और वे इसकी आजीवन कुलपति रहेगी।
प्रदेश को स्वर्ग बनाने की घोषणाऐं अक्सर होती रहती थी और इन घोषणाओं की अध्यापक बड़ी मजाक बनाते थे। प्रदेश स्वर्ग होगा और प्रदेशवासी स्वर्गवासी, जैंसे जुमले अक्सर स्टाफरूम में सुनने को मिलते थे। दूसरा अध्यापक तुरन्त बोल पड़ता, आप स्वर्ग जाकर क्या करेंगे माटसाब आपके तो सभी रिश्तेदार नरक में मिलेंगे। सभी मिलकर अट्टहास करते। वैसे प्राइवेट काँलेज में पूरे वेतन की मांग करने वाले ज्यादा दिन नहीं टिक सकते थे। पूरे वेतन पर हस्ताक्षर, शेष वेतन का मैनेजमेंट के नाम पर अग्रिम चैक और बकाया का नकद भुगतान। इसी फण्डे पर काँलेज चल रहे थे। माधुरी भी इसी फण्डे पर काँलेज, काँलेज की राजनीति को चला रही थी और एक दिन इस चार कमरे के काँलेज को विश्वविद्यालय बनाने के सपने को साकार करने में लगी हुई थी। बस एक टिकट का सवाल था जिसे हल करना बड़ा मुश्किल था।
शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब के चारे पर घर आकर शुक्लाइन से विचार-विमर्श किया। शुक्लाईन को मामला जम गया। वैसे भी घर में बैठकर बोर हाने से यह अच्छा था। शुक्लाजी ने हैडमास्टर साहब का दामन पकड़ा, हैडमास्टरजी ने माधुरी को कहा, माधुरी ने शुक्लाइन को घर पर साक्षात्कार के लिए बुलाया और इस प्रकार शुक्लाइन भी हाईस्कूल में प्रोफेसराईन हो गयी। मगर माधुरी ने कच्ची गोलियां नही खेली थी, वे शुक्लाईन के सहारे राजनीति की सीढ़ी चढ़ना चाहती थी।
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उत्तर आधुनिकता की इस आंधी में वैश्विक समानीकरण की दौड़ में जब स्वतन्त्र अर्थ व्यवस्था और विश्व एक गांव की अवधरणा का तड़का लग जाता है तो देश प्रदेश की जो स्थिति होती है, वही इस समय पूरे देश की हो रही है। गरीब और गरीब हो रहा है, अमीर और अमीर हो रहा है। ऐसा लगता है कि शेयर बाजार ही देश है, शेयर बाजार में मामूली उठापटक से सरकारों की चूले हिलने लग जाती हैं। कुलदीपकजी यही सब सोच रहे थे। देखते-देखते धर्मयुग, सारिका, पराग, दिनमान रविवार, सण्डेमेल, सण्डे ओब्जवर, इतवारी पत्रिका और सैकड़ों लघु पत्रिकाएं काल के गाल में समा गई थी। साहित्य पहले हाशिये पर आया, फिर गायब ही हो गया। कुछ सिरफिरे अभी भी साहित्य की वापसी का इन्तजार करते करते हथेली पर सरसों उगाने का असफल प्रयास कर रहे है। लघु पत्रिका का भारी उद्योग अब इन्टरनेट और ब्लागों की दुनियां में चल निकला था। छोटे-बड़े अखबार अब प्रादेशिक होकर पचासों संस्करणों में छप रहे थे। विज्ञापनों की आय बढ़ रही थी, सेठों के पेट भर रहे थे। अखबारों के पेट भर रहे थे, मगर पत्रकारिता, साहित्य और रचनात्मक मिशनरी लेखन भूखे मरने की कगार तक पहुंच गया था।
ऐसे में कुलदीपकजी को सम्पादक ने बुलाया और कहा।
"लेखक की दुम तुम्हारी समीक्षाओं से न तो फिल्मों का भला हो रहा है और न ही हमारा। बताओं क्या करें।"
"जैसा भी आपका आदेश होगा, वैसी पालना कर दूंगा।" कुलदीपकजी ने कहा आप कहे तो कविता लिखने लगूं।
"कविता-सविता का नाम मत लो। उसे कौन पढ़ता है। कौन समझता है। कहानी उपन्यास मर चुके है ऐसी घोषणाऐं उत्तर आधुनिक काल के शुरू में पश्चिम में हो चुकी है।"
कुलदीपकजी चुप ही रहे। आखिर सम्पादक उनका बोस था। और वे जानते थे नेता, अफसर और सम्पादक जब तक कुर्सी पर होते है किसी को कुछ नहीं समझते और कुर्सी से उतरने के बाद उन्हें कोई कुछ नहीं समझता। अभी सम्पादक कुर्सी पर था। समीक्षाएं छप रही थी और सायंकालीन आचमन हेतु कुछ राशि नियमित रूप से हस्तगत हो रही थी। कुलदीपकजी इसी से खुश थे। सन्तुष्ट थे।
सम्पादकजी आगे बोले
"यार आजकल टी.वी. चैनलों पर लाफ्टर शोज का बड़ा हंगामा है, तुम ऐसा करो एक हास्या-व्यंग्य कालम लिखना शुरू कर दो। समीक्षा को मारो गोली...............।"
कुलदीपकजी की बांछे खिल गई। वे मन ही मन बड़े खुश हुए। चलो कालम मिला। अब वे पुराने शत्रुओं से गिनगिन कर बदला ले सकेंगे। मगर अभी रोटी एक तरफ से सिकी थी। सम्पादक ने आगे कहा।
"लेकिन तुम्हें कालम लेखन का कुछ ज्ञान है क्या। लेकिन ज्ञान का क्या है। तुम लिख देना, मैं छाप दूंगा। करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।"
इस प्रकार एक हास्यास्पद रस के कवि हास्य के चलते इस व्यंग्य के स्तम्भ लेखन की पटरी पर दौड़ने लगे।
सायंकाल जब वे घर पहुंचे उन्हें असली ज्ञान मिला। जब मां ने बताया कि यशोधरा ने सम्पादकजी से आर्य समाज में शादी रचा ली थी और यह खम्भ-लेखन उन्हें इसी उपहार में मिला था।
रोने-धोने के बाद मां, बाऊजी ने बेटी को विदा कर दिया। मोहल्ले पड़ोस को एक पार्टी दी और बिटिया इस एक कमरे के महल को छोड़कर पासवाली बड़ी बिल्डिंग के तीसरे माले पर सम्पादकजी के फ्लेट पर रहने चली गई।
उत्तर आधुनिक साहित्य में ऐसी घटनाएं या दुर्घटनाएं जो भी आप कहना चाहे अक्सर घटती रहती है, जिन्हें सोच समझ कर कहानी या उपन्यास में ढाला जा सकता है। आखिर टी.वी. चैनलों के सास बहू मार्का धारावाहिकों का कुछ असर तो समाज पर भी होना ही चाहिये। अच्छी बात ये रही कि यशोधरा ने नौकरी छोड़कर घर-बार संभाल लिया। कुलदीपकजी का काम अब और भी कठिन हो गया था, मगर नियमित लेखन की आमदनी और बापू की पेंशन से आराम से गुजारा हो रहा था। मगर ऊपर वाले से किसी का भी सुख लम्बे समय तक देखा नहीं जाता।
रात का दूसरा प्रहर। कुलदीपकजी प्रेस से निकलना चाहते थे कि सूचना आई। बाबूजी का स्वास्थ्य अचानक गड़बड़ा गया है। कुलदीपकजी घर की और दौड़ पड़े। बापू को श्वास की पुरानी बीमारी थी, मगर अभी शायद हृदयाघात हुआ था। सब तेजी से बापू को लेकर रावरे की डिस्पेन्सरी तक ले गये। वहां पर नर्स थी, सौभाग्य से डाँक्टर भी था, मगर आपातकालीन दवायें नही थी। सघन चिकित्सा इकाई नहीं थी। डाँक्टर ने बापू को देखा। समझा। समझ गया। सौरी बोला। मगर तब तक कुलदीपकजी ने पास पड़ोस के कुछ लड़के इकट्ठे कर लिये, जो ऐसे शुभ-अशुभ अवसरों पर वहीं सब करते थे जो करना उन्हें उचित लगता था। उन्होंने डाँक्टर से गाली-गलोच की, नर्स के कपड़े फाड़े, चपरासी की पिटाई की। अस्पताल में तोडफोड़ की, हल्ला मचाया। यहां तक तो सहनीय था, मगर जब लड़कों ने, नर्स और डाँक्टर को एक साथ पीटना शुरू किया तो डाँक्टर ने पुलिस को फोन कर दिया।
भारतीय पुलिस नियमानुसार घटना घटने के बाद पहुंचती है।। दोनों पक्षों को समझाने का असफल प्रयास पुलिस ने किया। दरोगा ने नर्स-डाँक्टर और लड़को को रातभर थाने में बंद कर दिया और बोला।
"सुबह देखेंगे।" "यह हत्या थी, आत्महत्या थी या प्राकृतिक मृत्यु।" इस वाक्य से दोनों पक्ष सहम गये। मगर पुलिस तो पुलिस थी। रातभर बापू की लाश अस्पताल के बरामदे में पड़ी रही।
पास में ही जबरा कुत्ता पहरेदारी कर रहा था। काफी रात गये तक कुत्ता भौंकता रहा मगर प्रजातन्त्र के कानों तक उसकी बात नहीं पहुंची।
सुबह होते-होते दोनों पक्षों ने सम्पादक की सलाह पर केस उठा लिए और बापू के क्रियाकर्म के पैसे डाँक्टर, नर्स, चपरासी से वसूल पाये।
जैसा कि सौन्दर्यवान महिलाएं और बुद्धिमान पुरूष जानते है अस्पताल वह स्थान है जहां पर आदमी जिंदा जाता तो है, मगर उसका वहां से जिन्दा आना बहुत मुश्किल काम है। डाँक्टर मरीज के बच जाने पर खुद को शाबाशी देता है और मर जाने पर ईश्वर को दोष देकर अलग हो जाता है। ज्यादा होशियार डाँक्टर साफ कह देते हैं कि मैं इलाज करता हूं, मरना-जीना तो ईश्वर के हाथ में है। वास्तव में ईश्वर और किस्मत दो ऐसी चीजें है जिन पर कोई भी दोष, अपराध आसानी से मढ़ा जा सकता है और मजा ये यारों कि ये दोनों शिकायत करने कभी नहीं आते। सब संकट झेल जाते हैं।
डाँक्टर और नर्स ईलाज में लापरवाही के आरोप से तो बच गये मगर जो कुछ हुआ उससे डाँक्टर और नर्स की बड़ी सार्वजनिक बेइज्जती हुई थी, डाँक्टर परेशान, दुःखी था। नर्स अवसाद में थी, और चपरासी ने अस्पताल आना बन्द कर दिया था। डाँक्टर अपना स्थानान्तरण चाहता था। नर्स भी इसी फिराक में थी, मगर ये सब इतना आसान नहीं था। आज अस्पताल में नर्स की ड्यूटी थी, डाँक्टर शहर से ही नही आया था, उसका कुत्ता बीमार था और उसे पशु चिकित्सक को दिखाना आवश्यक था।
नर्स अस्पताल में अकेली बैठी-बैठी बोर हो रही थी। ठीक इसी समय झपकलाल ने मंच पर प्रवेश किया। झपकलाल को देखते ही नर्स पहचान गई। वो चिल्लाना चाहती थी, मगर दिन का समय, सरकारी कार्यालय और सिस्टर के पवित्र कार्य को ध्यान में रखकर क्राइस्ट का क्रास बनाकर चुप रह गई। झपकलाल भी आज ठीक-ठाक मूड में थे। आते ही वो बोल पड़े ।
"सारी नर्स उस दिन हम लोग नशे में कुछ अण्ड-बण्ड बक गये। साँरी....वेरी साँरी।"
नर्स क्या कहती। शिष्टाचार के नाते चुप रही। झपकलाल फिर बोल पड़े।
"यह डाँक्टर महाहरामी है। महीने में एकाध दिन आता है और तुम को मरने के लिए यहां छोड़ा जाता है।"
नर्स फिर चुप रही। अब झपकलाल से सहन नही हुआ।
"अरे चुपचाप सूजा हुआ मुंह लेकर कब तक बैठी रहोगी।" आज शाम को कुलदीपक के बाप की बैठक है। चली आना। "सब ठीक हो जायेगा।"
झपकलाल बैठक की सूचना देने ही आया था। सूचना देकर चला गया। बैठक की सूचना अखबार में भी छप गई थी। विज्ञापन के पैसे भी नहीं लगे थे।
शाम का समय। बैठक का समय। घर के सामने ही दरियां बिछा दी गई थी। बापू की एक पुरानी फोटो लगाकर उस पर माला चढ़ा कर अगरबत्ती लगा दी गई थी। पण्डित जी आ गये थे। धीरे-धीरे लोग बाग भी आ रहे थे। कुछ पास पड़ोस की महिलाएं और रिश्तेदारी की अधेड़ चाचियां, मामियां, काकियां, भुवाएं आदि भी धीरे-धीरे आ रही थी। नर्स बहिन जी भी आ गई थी। गीता रहस्य पढ़ा जा रहा था।
लोग-बाग आपस में अपनी-अपनी चर्चा कर रहे थे। कुछ महिलाएं एक-दूसरे की साड़ियोंं पर ध्यान दे रही थी। कुछ अपने आभूषणों की चिंता में व्यस्त थी। मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए पाठ जारी था। पुरूष लोगों को अपने उतारे हुए जूतों और वाहनों की चिन्ता थी। कुछ दूर जाने की चिंता कर रहे थे। मृतक की आत्मा अब शान्त थी। राम-राम करके पाठ पूरा हुआ। पुष्पाजंलि हुई। तुलसी बांटी गई। और बैठक शिव मन्दिर में जाकर पूरी हुई। कुलदीपक ने सबको नमस्कार किया। सबने उन्हें और रिश्तेदारों को प्रणाम किया। लोग-बाग धीरे-धीरे घर गृहस्थी की चर्चा करते-करते चले गये।
महिलाएं मृतक की पत्नी को सांत्वना देकर आंसू पौंछती चली गई। रह गया केवल शून्य। सन्नाटा। घर में उदासी। कुलदीपक के मन में भविष्य की चिन्ता। यशोधरा ने सब संभाल रखा था। मां को भी। कुलदीपक ने झपकलाल की मदद से दरियां समेटी। पण्डित जी को दक्षिणा सहित विदा किया और मां के पास आकर बैठ गये।
"मां।"
"हा।"
"अब आगे क्या।"
"मेरे से क्या पूछता है बेटा अब तू ही घर का बड़ा है। जो ठीक समझे कर।"
"मगर फिर भी तू बता।"
"श्राद्ध तेरहवीं की तैयारी तो करनी पड़ेगी। बापू के बैंक में कुछ है ले आना।"
"अच्छा मां।"
धीरे-धीरे दिन बीते। दुःख घटे। अवसाद कम हुए। कुलदीपकजी वापस दैनिक कार्यक्रमों में रमने लगे। बापू नित्यलीला में चले गये। मां और भी ज्यादा बुढ़ा गई। यशोधरा का आना-जाना लगा रहा। कुलदीपकजी अपना खटकर्म करते रहे।
मां को एक बहू चाहिये थी। मगर इधर समाज में लड़कियों की संख्या निरन्तर गिर रही थी। और अच्छी, खानदानी लड़कियों की तो और कमी थी। कोई रिश्ता आता ही नहीं था। आता तो दायें-बायें देखने लायक। कन्या भू्रण हत्याओं के चलते नर: नारी का अनुपात अपना असर दिखाने लग गया था।
मां की चिन्ता वाजिब थी। मगर क्या करती। कूलभूषण जहां कभी पूरे गांव शहर की लड़कियों से इकतरफा प्यार करते थे, एक प्रेमिका, पत्नी के लिए तरस गये।
शाम का जुटपुटा था। बाहर रोशनी हो रही थी मगर कुलभूषण के अन्दर अन्धकार था। वे आप्पदीपों भव की भी सोच रहे थे। तमसो मां ज्योतिर्गमय उवाच रहे थे। मगर इनसे क्या होना जाना था। किसी के जाने से जीवन ठहर तो नहीं जाता।
कल्लू मोची जिस ठीये पर बैठकर जूतों की मरम्मत का काम करता था। उसके पास की एक गन्दा नाला था, जो चौबीसों घन्टे बहता रहता था। नाला खुला था। इसकी बदबू पूरे शहर का वातावरण, पर्यावरण, प्रदूषण आदि से जुड़ी संस्थाओं को रोजी-रोटी देती थी। वास्तव में स्वयं सेवी संस्था का मतलब खुद की सेवा करने वाली संस्था होता है। कल्लू मोची को इस नाले से बड़ा डर था। नाला आगे जाकर झील में गिरता था। नाले के किनारे पर खुली हवा में संडास की सार्वजनिक व्यवस्था थी। अक्सर मुंह अन्धरे से ही लोग-बाग इस नाले को पवित्र करने का राष्ट्रीय कर्मकाण्ड प्रारम्भ कर देते थे। नाल में मल, मूत्र, गन्दगी, एमसी के कपड़े आदि अनवरत गिरते बहते रहते थे। शहर के बच्चे यहां पर लगातार मल-मूत्र का विसर्जन करते रहते थे। साथ में हवा में प्राणवायु का भी संचार करते रहते थे।
सभी रात का खाया सुबह इस नाले में प्रवाहित करते थे। महिलाएं भी मुंह अन्धेरे इस दैनिक कर्म को निपटा देती थी। सरकारी शौचलाय नहीं था। सुलभ वाले दुर्लभ थे और सबसे बड़ी बात नाले की सुविधा निःशुल्क, निर्वाध थी, जो हर किसी को रास आती थी। नाले के और भी बहुत सारे उपयोग थे।
सुबह-सवेरे नाले के किनारे पर बड़ी भीड़ थी। कल्लू मोची, उसका जबरा कुत्ता, और सैकड़ों की भीड़ वहां खड़ी थी। नाले के अन्दर एक कन्या भू्रण पड़ी थी। झबरे कुत्ते की बड़ी इच्छा थी कि नाले में कूदे और भू्रण का भक्षण करे। मगर नाले की गहराई देखकर हिम्मत नहीं हो रही थी। भीड़ तरह-तरह के कयास लगा रही थी। घोर कलियुग की घोषणा करते हुए एक पण्डितजी ने राम-राम करके सबको पुलिस को सूचना देने का आदेश दिया। मगर पुलिस के लफड़े में कौन पड़े।
मगर पुलिस बिना बुलाये ही आ गई। भीड़ छट गई। पुलिस ने सबसे पूछा और भू्रण को कब्जे में किया। पंचनामा बनाया, अस्पताल में भू्रण को रखवाया और एक दरोगा को इन्क्वायरी आफिसर नियुक्त कर दिया। ये सब कार्यवाही करके पुलिस ने अपनी पीठ थपथपाते हुए मीडिया को सूचित किया कि शीध्र ही ये पता लगा लिया जायेगा कि कन्या भू्रण की हत्या कब कहां कैसे हुई और हत्यारे या भू्रण के माता पिता को शीघ्र ही ढूंढ़ निकाला जायेगा।
पुलिस के अनुसार इस जघन्य अपराध के लिए किसी को भी बख्शा नहीं जायेगा। पुलिस ने जांच शुरू कर दी और सबसे पहले कल्लू मोची को ही थाणे में बुला भेजा।
कल्लू मोची हाँफता-काँपता थाने पहुँचा, उसकी समझ में ये नहीं आया की उसका कसूर क्या है? मगर कसूरवार को थाणे में कौन बुलाता है। अपराधी तक तो थानेदार खुद जाता है। गरीब, असहाय निरपराधी को थाणे बुलाने का पुराना रिवाज चला आ रहा है और थानेदार की निगाह में घटना स्थल पर सबसे नजदीक कल्लू ही था।
थानेदार ने डण्डा दिखाते हुए पूछा,
"क्यों बे तूने किसी को नाले में भू्रण फेंकते देखा था। या ये पाप साले तेरा ही है।"
"हजूर मांई बाप है, जो चाहे कहे मगर न तो मैने किसी को भू्रण फेंकते देखा और नही ये पाप मेरा है।"
"तेरा नही है ये तो मान लिया। क्योंकि इस उम्र में तेरे से ये सब नहीं होगा। मगर तू साला मरदूद सुबह से शाम तक वहां पर रहता है तो किसी को आते-जाते देखा होगा।"
"आते-जाते तो सैकड़ों लोग है, आधा शहर यही पर मल-मूत्र का त्याग करता है, मगर ये भ्रूण का मामला मेरी समझ के बाहर है।"
थानेदार ने कल्लू को एक तड़ी देकर जाने का कहा और जाते-जाते कहा।
"देख बे कल्लू कोई ऐसी वैसी बात सुनाई पड़े तो मुझे तुरन्त खबर करना। तुझे सरकारी मुखबिर बनाकर बचा लूंगा।
कालू चुपचाप अपनी किस्मत को रोता हुआ चला गया।
इधर स्थानीय पत्रकारों, चैनल वालों ने मीडिया में इस कन्या भू्रण हत्या की बात का बतंगड़ बना दिया, राई से पहाड़ का, निर्माण कर न्यूज कैपसूल सुबह पाँच बजे से निरन्तर दिखाये गये। ऐसा शानदार मसालेदार, समाचार स्थानीय चैनलों से लेकर नेशनल चैनल तक दिखाये जाने लगे। मीडिया के अलावा स्वय सेवी संगठन, छुटभैये नेता, महिला संगठनों के पदाधिकारी और प्रगतिशील बुद्धिजीवियों ने हंगामा खड़ा कर दिया।
पुलिस भी कुछ कम न थी। उन्होंने धीरे-धीरे खोजबीन करके एक वेश्या से यह कबूल करवा लिया कि भू्रण मेरा था मैंने फिकवा दिया। मगर लाख टके का सवाल ये था कि भू्रण का बाप कौन था। वेश्या से बाप का नाम उगलवाना आसान न था, मगर वो किस-किस का नाम लेती। सो कन्या भू्रण हत्या का यह मामला धीरे-धीरे अन्य मामलों की तरह ही मर गया। दो-चार दिन समाचार पत्रों में पहले पन्ने पर फिर तीसरे-चौथे पन्ने पर फिर धीरे-धीरे समाचार अपनी मौत मर गया। समाज में यह सब चलता ही रहता है, ऐसा सोचकर भीड़ ने अपना ध्यान अन्यत्र लगाना शुरू कर दिया, वैसे भी भीड़ की स्मरण शक्ति बड़ी कमजोर होती है।
कन्या भू्रण हत्या का मामला निपटा ही था कि कल्लू पर एक और मुसीबत आई। उसका जबरा कुत्ता कहीं भाग गया था। कल्लू ने इधर-उधर दौड़ धूप की और कुछ दिनों के बाद झबरा कुत्ता वापस तो आया, मगर उसके साथ कुतिया भी थी। कल्लू अब घर से दो रोटियां लाने लगा। दोपहर में उन दोनों को चाय पिलाने लगा और सामने वाले हलवाई के यहां सर कड़ाई में डाल दोनों एक साथ डिनर करने लगे। कुतिया पेट से थी। उसने अपने पिल्लों की भू्रण हत्या नहीं करके उन्हें जन्म दिया।
कल्लू के ठीये के पास के पेड़ के नीचे कुतिया अपने पिल्लों को दूध पिलाती, चाटती, उनसे खेलती, खुश रहती, मगर नगरपालिका वालों से यह सुख देखा नहीं गया वे कुतिया और उसके पिल्लों को पकड़कर ले गये और जंगल में छोड़ आये। कल्लू का जबरा कुत्ता फिर अकेला हो गया।
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वर्षा समाप्त हो चुकी थी। खेतों में धान पक रहे थे। किसान-मजदूर निम्न मध्यवर्गीय समाज के पास काम की कमी थी, ऐसी स्थिति में धर्म, अध्यात्म, प्राणायाम, योग, कथावाचन आदि कार्यक्रमों को कराने वाले सक्रिय हो उठते है।
धर्म कथाओं का प्रवचन पारायण शहर में शुरू कर दिये गये। हर तरफ माहोल धार्मिक हो गया। ऐसे में एक दिन एक धर्मगुरु के आश्रम में एक महिला की लाश मिली। सनसनी फैली और फैलती ही चली गयी। जिन परिवारों से महिलाएं नियमित उक्त बाबाजी के आश्रम में जा रही थी, उन घरों में शान्ति भंग हो गई। उनके दाम्पत्य जीवन खतरे में पड़ गये। एक बार तो ऐसा लगा कि दिव्य और भव्य पुत्र की आस वाली बांझ स्त्रियों को पुत्र-प्राप्ति ऐसे ही स्थानों से होती है। मगर बाबा आखिर बाबा थे उन्होंने अपना अपराध कबूला और जेल का रास्ता नापा। असुन्दर का यह ऐसा सुन्दर उदाहरण था कि मत पूछो।
कल्लू के ठीये पर चौराहे की तरह लोग आते-जाते थे। गांव के भी, शहर के भी और बाजार के भी। सभी इस नई घटना पर अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त करना चाहते थे, मगर श्रोताओं की तलाश में भटक रहे थे। ऐसी गम्भीर स्थिति में कुलदीपक, झपकलाल और कल्लू मिल गये।
कुलदीपक ने जूता पालिश के लिए दिया और कहा।
"और कल्लू सुना शहर के क्या हाल है।"
"बाबू शहर के हाल कोई तुमसे छिपे है। तुम शहर के जाने-माने पत्रकार। मैं अनपढ़ गंवार।"
"अरे यार मस्का छोड़ कुछ नया बता।"
"अब क्या बताऊं, कहता आंखन देखी और सच बात तो ये है कि बाबूजी वो जो कन्या भू्रण नाले में मिला था वो किसी बाबा का कृपा-प्रसाद ही था।"
"अच्छा।" लेकिन वो औरत.....।"
"पुलिस किसी से भी कुछ भी उगलवा सकती है पण्डित जी। मुझे भी थाने में बुलाया था।"
"फिर।" झपकलाल उवाच ।
"फिर क्या। मुझे तो छोड़ दिया और पुलिस ने एक नई कहानी गढ़ डाली। पुलिस की झूठी कहानी भी सच्ची कहानी होती है क्योंकि वो डण्डे के जोर से लिखी जाती है।" भू्रण हत्या का मामला अदालत में नही गया। मीडिया और पुलिस से ही काम चल गया। शहर आये बाबा का अस्थायी आश्रम यथासमय बिना संकट के विदा हो गया। बचे हुए गृहस्थ दम्पत्ति अब स्वयं योग, प्राणायाम, व्यायाम आदि सीख चुके थे और उनसे अपना काम चला रहे थे।
कुलदीपक पत्रकारिता के खम्भे पर चढ़ने के असफल प्रयास निरन्तर कर रहे थे, वे जितना चढ़ते उतना ही वापस उतर जाते। उधर उन्होंने एक भूतपूर्व लेखक, असफल सम्पादक जो अब प्रकाशक बन गया था को अपनी कविताओं की पाण्डुलिपि पकड़ा दी थी। आज वे उसकी दुकान पर जमे हुए थे। बाजार में यह इकलौती दुकान थी, जिस पर प्रकाशन, स्टेशनरी, बोर्ड की पुस्तकें, सब एक साथ बिकते थे। प्रकाशक को सबसे ज्यादा प्यार सबमिशन नामक शब्द से था। यह शब्द सुनकर ही वह उछल पड़ता था। आज कहां सबमिशन की सूचना मिल सकती है, सबमिशन के लिए किस अधिकारी से सम्पर्क करना है, कमीशन रिश्वत की दरें क्या है, कौनसी पुस्तक सबमिट करने में फायदा हो सकता है, वह सुबह से लेकर शाम तक इसी गुन्ताणें में व्यस्त रहता था। ऐसे अवसर पर एक कवि का आना उसे बड़ा नागवार गुजरा मगर कुलदीपकजी के सम्पादक जीजा ने एक बार उसकी बड़ी मदद की थी, बोर्ड में एक पुस्तक लगवाने के लिए एक सरस समाचार का प्रकाशन अपने पत्र के विशेष संवाददाता के हवाले से कर दिया था, तब से ही प्रकाशक कुलदीपक जी के कविता संग्रह से जुड़ गया था।
प्रकाशक ने कुलदीपक के नमस्कार का जवाब देने के बजाय उन्हें बिठा दिया और अपने कार्य में व्यस्त हो गया। काफी समय तक कुलदीपक इधर-उधर पड़ी पुस्तकों का मुआईना करता रहा, बोर होकर प्रकाशक की ओर देखता, प्रकाशक व्यस्तता का बहाना करता नोकर पानी पिला चुका था। अन्ततः कुलदीपकजी बोले।
"भाई साहब मेरा कविता संग्रह कब तक आयेगा ?"
"अरे यार इस कविता-सविता का चक्कर छोड़ो, कुछ शाश्वत, सुन्दर, आकर्षक लिखो। तुम एक उपन्यास लिख लाओ। तुरन्त छापूंगा।"
"लेकिन मैं तो कवि हूं।"
"अरे कवि की असली पहचान तो गद्य-लेखन में ही होती है।"
"वो तो ठीक है पर.........।"
ठीक इसी समय प्रकाशक की दुकान पर एक स्थानीय पुस्तकालयाध्यक्ष आये। प्रकाशक ने कुलदीपक को उठने का इशारा किया। कुर्सी साफ की, खीसें निपोरी और पुस्तकालयाध्यक्ष की ओर देखकर कहा।
"क्या आदेश है?"
"काहे का आदेश, यार।" तुम बड़े बदमाश हो।"
"क्यों क्या हुआ।" पिछली बार तुमने पुराने संस्करण की पुस्तकें टिका थी। तुम्हारा बिल रूक गया है।
"यह सुनकर प्रकाशक गिडगिड़ाने लगा। कुलदीपक को एक तरफ करके प्रकाशक ने पुस्तकालध्यक्ष से अलग जाकर रास्ता पूछा।"
"रास्ता सीधा है। अग्रिम कमीशन दो।"
प्रकाशक जी ने तुरन्त आज्ञा का पालन किया। ठण्डा मंगवाया। पिलाया। कुलदीपकजी से पूछा तक नही। लाइब्रेरियन चला गया। प्रकाशकजी ने अब कुलदीपक से कहा।
"यार तुम्हारा काव्य, संकलन छाप दूंगा, यार चिन्ता मत करो।
"लेकिन कब तक......। दो वर्षों से पड़ा है।"
"पड़ा रहने के लिए नहीं लिया है, मगर क्या करूं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता, कविता बिकती कहां है ?"
"नहीं, बिकती है तो फिर इतनी छपती कैसे है ?"
"वो तो लेखकों के पैसे छपती है। लेखक अपने मित्रों में बांट देता है और तीन सौ प्रतियां खप जाती है बस.......।"
"लेकिन मैं तो पैसे नहीं दूगा।"
"तुमसे पैसे कौन मांग रहा है ? "यथासमय छाप दूगा।" "तुम निश्चिन्त रहो।"
कुलदीपक जानता था कि ये प्रकाशक भी चालू चीज हे। जब जैसा समय हो वैसा काम करता है, जनता साहित्य छापते समय जनवादी, प्रगतिशील साहित्य छापते समय प्रगतिशील तथा भगवा सरकार के समय भगवा हो जाता है। इसी चातुर्य के कारण धीरे-धीरे वह अच्छा प्रकाशक बनने के कगार पर आ गया था।
इधर देश-विदेश में सबमिशन के चलते उसे थोक विक्रय का लाभ भी मिलने लग गया था। कुल मिलाकर प्रकाशक, लेखकों से घृणा करता था क्योंकि वे रायल्टी मांगते थे, और रायल्टी तो सब रिश्वत में देनी पड़ती थी।
प्रकाशक का फण्डा बिल्कुल स्पष्ट था, रायल्टी को रिश्वत में दे दो। उन लेखकों को छापों जो रायल्टी मांगने के बजाय पुस्तक बिकवाने में समर्थ हो। वे लेखक काम के होते है जो पुस्तक क्रय समिति के सदस्य होते है। बोर्ड आफ स्टडीज या शिक्षा बोर्ड में घुसपैठ रखते है। कुलदीपक में फिलहाल यह योग्यता नहीं थी लेकिन प्रकाशक के मनमुताबिक करने को तैयार जरूर थे। वो काव्य संकलन स्वयं छापने के बारे में भी पच्चीसों बार सोच चुके थे, मगर एक पुराने कवि के घर पर स्वयं द्वारा प्रकाशित पुस्तकें देखकर मन-मसोसकर रह जाते थे। इन प्रकाशित पुस्तकों के कागज गल चुके थे। दीमक रोज लंच, डिनर करती थी और कवि-पत्नी कवि महाराज को रोज गरियाती थी क्योंकि इस महान काव्य पुस्तक के प्रकाशन में उनके गहनों का अमूल्य योगदान था जो आज तक वापस नहीं आये थे। इस महान भूतपूर्व कवि को उनके बच्चे भी नापसन्द करते थे क्योंकि कवि के दादाजी द्वारा प्रदत्त पुश्तैनी मकान कब का बिक चुका था और कवि महाराज अब मंच पर जोर आजमा रहे थे जहां से कुछ प्राप्त हो जाने पर घर-गृहस्थी की गाड़ी धक्के से खिंच जाती थी।
कुलदीपक ने अपनी काव्य-प्रेरणाओं से भी सम्पर्क साधने की असफल कोशिश की थी, अब अधिकांश प्रेरणाएं, शहर, छोड़ चुकी थी, सभी अपने बच्चों को कुलदीपक का परिचय मामा, चाचा, ताऊ के रूप में कराती थी और गृहस्थी के मकड़जाल में सब कुछ भूल चुकी थी।
कविताओं के सहारे जिन्दगी नही चलती। साहित्य से रोटी पाना बड़ी टेड़ी खीर थी। ये सब बातें कुलदीपकजी बापू की मृत्यु के बाद समझ गये थे। मां-बापू की पारिवारिक पेंशन और कुलदीपक जी की पत्रकारिता के सहारे घर को खींच रही थी यशोधरा का आना-जाना न बराबर हो गया था। कभी कदा दबी जबान से मां कुलदीपक की शादी की बात उठाती थी मगर सब कुछ मन के माफिक कब होता है। जब मन के माफिक नही तो समझो कि भगवान के मन के माफिक होता है और ये ही सोचकर मां चुप लगा जाती थी।
इधर शहर का विकास बड़ी तेजी से हो रहा था। शहर के विकास के साथ-साथ विनाश के स्वरूप भी दिखाई देने लग गये थे। बड़ी-बडी बिल्डिंगों में बड़े-बड़े लोग, शोपिंग माँल और टावर्स और घूमने फिरने को डिस्को, होटल्स, रेस्ट्रा, चमचमाती गाड़ियां, चमचमाती सड़कें, चमचमाती हँसी, नगर वधुओं, कुलवधुओं के अन्तर को पहचानना मुश्किल। एक अमीर शानदार भारत, शेयर बाजार की ऊंचाईयां और झोपडपट्टियां, मगर इन सब में गायब मानवता कराहती गरीबी, मजबूर मजदूर।
पुलिस वाले अफसर के लड़के ने दो-चार दुर्घटनाओं से बचने के बाद समझ लिया कि पापा ज्यादा समय तक उसे नही बचा पायेंगे, उसने डिग्री हासिल की। एम.बी.ए., प्रशासनिक सेवाओं के फार्म भरे। परीक्षाएं दी, पापा ने जोर लगाया, मगर अच्छे काँलेजों को अच्छे लड़कों की तलाश थी। उनमें उसका प्रवेश नहीं हुआ।
राजनीति के फटे में उसने टांग अड़ाई, पुराने खबीड़ नेताओं ने तुरन्त टांगे हाथ में दे दी। थक हारकर पापा के सहारे, पुलिस के रोबदाब की मदद से पुलिस अफसर के सुपुत्र ने एक निर्माण कम्पनी का कामकाज शुरू किया। पापा की कृपा और पापा की कमायी काली लक्ष्मी के सहारे उसने विवादास्पद जमीनों को सस्ते दामों पर खरीदने का काम शुरू किया और एकाध जमीन ऊंची होटल बनाने के लिए बेच दी। काम चल निकला। कारें बदल ली। और कारों की तरह ही लड़कियां भी बदल दी। मगर वह अध्यापिका जो प्रारम्भ में उसके साथ थी, अब भूखी शेरनी थी, उसे अपनी जिंदगी को नष्ट करने वाले इस लड़के के नाम और काम से नफरत होने लगी। उसने शहर में उसे एक बार में जा पकड़ा।
"कौन हो तुम।"
"तुम मुझे नहीं जानते।"
नही.......।
"मैं तुम्हारी जान...........। तुमने मेरे साथ जीने मरने की कसमें खाई थी।"
ऐसी कसमों में क्या रखा है.....।" छोड़ों बोलो क्या चाहती हो।"
"एक सुकून भरी जिन्दगी।"
"तो ऐसा करो शहर में एक फ्लेट दिला देता हूं, शादी कर लो और मुझे बक्शों।"
"ठीक है.....।"
लड़की ने उससे हमेशा के लिए नाता तोड़ा, फ्लेट और पति से नाता जोड़ा। आप ये मत पूछियेगा कि पति कहां से आया। कब आया। पति की कहानी क्या थी। ये सब ऐसे ही चलता है। समाज है तो ये सब भी है।
महाभारत का उदाहरण लीजिये। विचित्र वीर्य की मृत्यु के बाद वंश चलाने के लिए माता सत्यवती ने अपने पूर्व प्रेमी के द्वारा उत्पन्न जारज सुपुत्र कृष्ण द्वैपायन व्यास को बुलाकर अपनी बहुओं से नियोग द्वारा संयोग कराकर प्रसंग से पुत्र उत्पन्न किये और कौरवों-पाण्डवों का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया अनादि काल से चली आ रही है, चलती रहती है और चलती रहेगी।
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कल्लू मोची जिस ठिये पर बैठता है, धीरे-धीरे इस जगह ने एक चौराहे, चौपाटी या चौपड़ का रूप-अख्तियार कर लिया था। चौराहा होने के कारण चर्चा के लिए यह स्थान सबसे मौजूं रहता था। सायंकाल यहां पर दिनभर के थके हारे मजदूर, ठेले वाले, रिक्शे वाले, कनमैलिये, मालिशिये, इकटठे हो जाते है। चौपड़ पर एक तरफ फूल वाली भी बैठती है और मालण भी। चाराहे के चारों ओर हर तरफ रेलमपेल मची रहती है।
कान साफ करने वाले कान साफ करते है, मालिश करने वाले दिन भर की थकान दूर करने क नाम पर मालिश करते है। आने-जाने वाले टाइम पास के लिए मूंगफली टूंगते रहते है। शाम के समय मौसम में गर्मी हो या सर्दी थोड़ी मस्ती छा जाती हे। कुछ पुराने लोग भांग का शौक फरमाते है तो नई पीढ़ी बीयर, थैली से लेकर महंगी शराब के साथ चौपड़ पर विचरती है।
ऐसे ही खुशनुमा माहौल में चौराहा कभी कभी खुद ही समाज देश, व्यक्ति को पढ़ने की कोशिश करता है। उसे अपने आप पर हंसी आती है। क्योंकि पढ़ते-पढ़ते उसे अक्सर लगता है कि मैं चौराहा होकर भी मस्त हूं, मगर समाज कितना दुःखी, कमीना और कमजर्फ है। चौराहे पर राहगीर आते। बतियाते । सुस्ताते है। काम पर चल देते थे। मगर ये सब देखने, सुनने, समझने, पढ़ने की फुरसत उन्हें नही थी। चौराहा अपने आप में उदास रहता था। कभी खुश होकर खिलखिलाता था। कभी मंद-मंद मुस्कराता था। चौराह अपने आप में एक सम्पूर्ण इकाई था। कभी-कभी दहाई ओर दंगे में सैकड़ा भी हो जाता था।
चौराहे पर इस समय कुलदीपक, झपकलाल, कल्लू मोची और कुछ रिक्शा वाले खड़े थे। वे एक दूसरे के परिचित थे मगर फिर भी अपरिचित थे। परिचित इसलिए कि रोज एक ही ठीये पर खड़े होते थे और अपरिचिय का विध्यांचल टूटने का नाम ही नही लेता था। चौराहा अपनी रो में बहता जा रहा था। चौराहे पर सुख-दुःख की बातों का सिलसिला चला। इस गरज से कल्लू ने अपने कुत्ते को पुचकारा। जवाब में कुत्ता फड़फड़ाया और एक तरफ दौड पड़ा। उसे हड्डी का एक टुकड़ा दिख गया था। मांस का एक लौथड़ा भी दूर पड़ा था। तभी कुत्ते ने एक मुर्गे को देखा। मुर्गा घूरे पर दाना बीन रहा था और भारतीय बुद्धिजीवियों की तरह दाना खा के बांग देने की तैयारी कर रहा था वैसे भी पेट भरा होता है तो बांग देना अच्छा लगता है।
कुलदीपक ने झपकलाल की ओर देखा। झपकलाल ने आसमान की ओर देखा। दोनों ने कल्लू की ओर देखा। फिर तीनों ने मिलकर सडक को घूरा। सड़क बेचारी क्या करती। उसे हर कोई आता, रोदंता, मसलता और चला जाता। चौराहा ये सब रोज भुगतता था।
झपकलाल ने इस बार चुप्पी तोड़ने की गरज से पूछा।
"अच्छा बताओ प्रदेश की सरकार रहेगी या जायेगी।"
"रहे चाहे जाये अपने को क्या करना है।"
"करना क्यों नहीं अपन इस देश के जागरूक नागरिक है जो सरकारों को बनाते-बिगाड़ते है।"
"गठबन्धन सरकारों का क्या है। पांच-दस एम.एल.ए. इधर-उधर हुए, घोड़ा खरीद हुई और बेचारी सरकार राम-नाम सत्य हो जाती है।"
"लेकिन सत्य बोलने से भी गत नही बनती है।"
"ठीक है, लेकिन ये सरकार जाये न जाये मुख्यमंत्री कभी भी जा सकते है।"
"मुख्यमंत्री बेचारा है ही क्या। हर विधायक उसे ब्लेकमेल करता है। चारों तरफ अराजकता है। सरकार नाम की चीज है ही कहां।
"हां देखो, मुख्यमंत्री की गाय तक को सरकारी डाँक्टर ने बीमार घोषित कर दिया।"
"डाँक्टर की हिम्मत तो देखो।"
"वो तो भला हो गाय का जो जल्दी स्वर्ग सिधार गई और सरकार बच गई।"
इसी बीच कल्लू का कुत्ता वापस आ गया था और पूंछ हिला रहा था। कल्लू अपने काम में व्यस्त होने का बहाना बना रहा था। अचानक बोल पड़ा।
"बाबूजी मेरी तहसील वाली अर्जी पास हो गई है अब मुझे सूचना के अधिकार के तहत कागजात मिल जायेंगे।"
"कागज को क्या शहद लगाकर चाटोगें ? या अचार डालोगे।"
बाबूजी अचार-वचार मैं नहीं जानता बस एक बार कागज हाथ लग जाये फिर मैं जमीन अपने नाम करा लूंगा।
"तेरा बाप भी ऐसे ही अदालतों के चक्कर काटते-काटते मर गया........तू भी एक दिन ऐसे ही चला जायेगा।"
"ऐसा नही है बाबूजी, भगवान के घर देर है, पर अन्धेर नही।" कल्लू बोला और चुपचाप शून्य में देखता रहा।
तभी उधर से एक धार्मिक जुलूस आता दिखा। माथे पर छोटे-छोटे कलश एक जैसी साड़ियों में दुल्हनों की तरह सजी-धजी महिलाएं, झण्डे, रथ ध्वजाएं.....पीछे बेन्ड वाले। नाचते-गाते लोग।
"ये धर्म भी अजीब चीज है यार।" झपकलाल बोला।
"कितनों की रोजी-रोटी चलती है इससे। पदयात्राओं के नाम पर, कावड़ यात्राओं के नाम पर, मन्दिरों के जीर्णोद्धार के नाम पर सरकारी अनुदान पाने के ये ही रास्ते है।" कुलदीपक बोल पड़ा ओेर जुलूस में आगे आ रही महिलाओं का आंखों के माइक्रोस्कोप से सूक्ष्म निरीक्षण करने लगा। उसे अपनी पुरानी रोमांटिक कविताओं के दिन याद आ गये है, मगर उसका सपना-सपना ही रह गया। एक पुलिसवाले ने सबको धकिया कर एक तरफ किया। जुलूस आगे बढ़ गया। ये लोग ताकते रह गये।
कुलदीपक को सपनों की बड़ी याद आती है। चौराहे पर बिखरे सपने। सुन्दर और हसीन सपने। स्वस्थ प्रजातन्त्र के सपने। चिकनी साफ सड़कों के सपने। आकाशवाणी, दूरदर्शन के सपने। भ्रष्टाचार के सपने। शुद्ध हवा-पानी के सपने। अच्छे कार्यक्रमों के सपने। बड़े-बड़े सपने। अमीर बनने के सपने। साफ-सुथरे अस्पतालों के सपने, सरकारी स्कूलों के पब्लिक स्कूल बनने के सपने। हर मुंह को रोटी और हर हाथ को काम के सपने। सपने ही सपने। मगर सपने तो हमेशा से ही टूटने, अधूरे रह जाने के लिए ही देखे जाते है।
कुलदीपक, झपकलाल दोनों ही सपनों के अधूरेपन से ज्यादा खुद के अधूरेपन से परेशान, दुःखी, संतप्त थे। अवसाद में थे। अवसाद को अक्सर वे आचमन में डुबो देते थे। आज भी उन्होंने कल्लू से एक देशी थैली मंगाई, गटकी और चौराहे को अपनी हालत पर छोड़कर घर की ओर चल पड़े। कुछ दूरी तक कल्लू और उसके कुत्ते ने भी साथ दिया।
हलवाई की दुकान आने पर कुत्ते ने डिनर करने के लिए उनका साथ छोड़ दिया। कल्लू अपनी गवाड़ी की ओर चल दिया। झपकलाल और कुलदीपक रात के अंधेरे को पीते रहे और तमसो मा ज्योर्तिगमय कहते रहे।
जैसा कि राजनीति के जानकार बताते हैं, राजनीति में महिलाओं की सफलता का रास्ता बेडरूम से होकर गुजरता है। कोर्पोरेट क्षेत्रों में भी बोर्डरूम का रास्ता बेड़रूम से ही निकलता है। माधुरी इस को समझती थी। उसके लिए सफलता का रास्ता ही सब कुछ था। वो एम.एल.ए. की कुर्सी पाने में दिलचस्पी नहीं रखती थी, उसे तो अपने चार कमरों के काँलेज को विश्वविद्यालय बनाना था और चारे के रूप में उसने लक्ष्मी याने शुकलाइन रूपी मछली को फांस लिया था। मछली कभी-कभी फड़फड़ा तो सकती है मगर उड़ नहीं सकती। और बिना पानी मछली जीवित नहीं रह सकती। माधुरी के पास पानी था। जिसकी मछली को बड़ी आवश्यकता थी। मछली रूपी लक्ष्मी का उपयोग करना माधुरी को आता था।
लक्ष्मी शुक्लाइन को स्कूल में पढ़ाने का काम दिया गया। उसका मुख्य लक्ष्य प्रशासन की सहायता करना था। सरकार में अनुदान की जो फाइलें कागज अटक जाते थे उसे निकलवाने के लिए लक्ष्मी तथा काली लक्ष्मी का उपयोग किया जाने लगा। माधुरी के पिता बड़े व्यवसायी थे, घर पर अक्सर सेल्सटेक्स, इनकमटेक्स, वेट वाले, शोप इन्सपेक्टर आदि का जमावड़ा रहता था और माधुरी की मां और बाद में माधुरी इन लोगों से अपने काम निकलवा लेती थीं। माधुरी को जीवन का यह अनुभव यहां भी काम आने लगा। सड़ी-गली शिक्षा व्यवस्था में पढ़ने पढ़ाने का काम छोटे-मोटे अध्यापक-अध्यापिकाएं करती थी और माधुरी विश्वविद्यालय के सपनों को साकार करना चाहती थी।
वे पढ़ी लिखी कम थी, मगर दुनियादारी में गुणी बहुत ज्यादा थी। लेकिन वह कुपढ़ लोगों से परेशान रहती थी। स्कूल में भी कुछ कुपढ़ घुस आये थे, वो चाहकर भी उन्हें नही निकाल पा रही थी। ऐसे ही एक सज्जन थे अंग्रेजी के मास्टर श्रीवास्तवजी। श्रीवास्तवजी को अंग्रेजी की डिक्शनरी याद थी और अक्सर वे ऐसे वाक्य, शब्द आदि का प्रयोग करते थे कि माधुरी, लक्ष्मी और हेडमास्टर सब मिलकर भी उन शब्दों, वाक्यों का मतलब नहीं समझ पाते थे। माधुरी ने एक दिन स्कूल समय के बाद श्रीवास्तवजी को बुलाया।
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"श्रीवास्तवजी आजकल मैं यह क्या सुन रही हूं।"
"क्या सुना-जरा मैं भी सुनूं।"
"यही कि आप कक्षा में छात्रों को प्रेम कविताएं बहुत रस ले लेकर पढ़ा रहे है। छात्राएं बेचारी शर्म से गड़ जाती है।
"ऐसी कोई बात नहीं है, मैडमजी।" सन्दर्भ विषय के आधार पर मैं अपना लेक्चर तैयार करता हूं।
"नही, भाई ये छोटा कस्बा है। यहां पर ये सब नहीं चलेगा।"
"लेकिन मैडम पढ़ाना मुझे आता है।"
"लेकिन आप समझते नही है। माधुरी बोली।"
"मैं सब समझ रहा हूं। शायद स्कूल को मेरी आवश्यकता नहीं है।"
"नही.......नही, मास्टरजी ऐसी बात नहीं है, बस आप थोड़ा ध्यान दीजिये और कभी घर पर लालू को भी देख लीजियेगा......।"
"तो ये कहिये न मैं हर रविवार को एक घन्टा दे दूंगा।"
मास्टरजी बाहर आये। ओर सोचने लगे इस वज्र मूर्ख लालू को अंग्रेजी पढ़ाने के बजाय तो कोई दूसरा स्कूल ढूंढना ठीक रहेगा। मगर मास्टरजी ने काम जारी रखा। बेचारे मास्टरजी जानते थे सरकारी स्कूलों की ओर भी बुरी हालत है।
तबादलों का चक्कर, टीकाकरण, पशुगणना, मतदाता सूचियां बनाना, सुधारना, चुनाव कराना, पंचायतों में हाजरी बजाना जैसे सैकड़ो काम करने के बाद मिड डे मील पकाना, खिलाना, उसका हिसाब रखना, सस्पेंड होना, जैसे सैकड़ों जलालत भरे काम के बजाय एक सेठानी के बुद्धु बच्चे कोे, पढ़ाना ठीक था। वे इसे इज्जत की मौत कहते थे जो जलालत की जिन्दगी से अच्छी थी। मास्टर श्रीवास्तवजी स्कूल के अन्य कामों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। पढ़ाया और चल दिये। जो मिला उस पर सब की तरह अंगूठा लगाते और स्वयं पढ़ने में लगे रहते। धीरे-धीरे कस्बे में उनका एक व्यक्तित्व विकसित होने लगा था। जिसे वे बचा-बचा कर खर्च करते थे।
लक्ष्मी और माधुरी धीरे-धीरे सहेलियां हो गयी। सहेलियां जो एक दूसरे की राजदार हो जाती है। एक दूसरे के काम आती है। गोपनीयता बनाये रखती है और एक दूसरे कोे समझती है।
माधुरी के सेठजी व्यस्त थे, उन्होेने उसे दो बच्चे दे दिये थे। बस। माधुरी को स्कूल खुलवा दिया था। उनके शब्दों में स्कूल एक ठीया था जहां पर माधुरी अपना शगल पूरा करती थी। सेठजी ने स्कूल में पैसा डाला था। जमीन उनकी थी। माधुरी जब चाहती स्टाफ से काम करवा लेती।
लक्ष्मी ये सब जानती थीं। समझती थीं। शुक्लाजी की नौकरी को भी अच्छी तरह समझ रही थी। उसके अपने स्वार्थ थे, और माधुरी के अपने, लक्ष्मी सोचती यदि हेडमास्टर को चलता किया जा सके तो शुक्ला को हेडमास्टर बनवाया जा सकता है। माधुरी सोचती थी लक्ष्मी की मदद से राजनीति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती हैं। ऐसी ही मानसिकता के चलते वे दोनो घर के लाँन में टहल रही थी कि माधुरी बोली।
"एक वर्ष में चुनाव होने वाले है।" "मैं भी खड़ी होना चाहती हूं।"
"पर तुम्हें टिकट कौन देगा।"
"टिकट कोई देता नही खरीदना पड़ता है। आजकल पार्टियों को पैसा दो, टिकट लो। अपने पैसे से चुनाव लड़ों, जीत जाओ तो ठीक है वरना पैसा डूबा।"
"लेकिन तुम क्यों अपना पैसा डुबोना चाहती हो।"
"डुबोना कौन चाहता है और डूबेगा भी नहीं। यह तो निवेश है, निवेश का फल मीठा होता है।"
"निवेश कैसे।"
"वो ऐसे समझो कि मैं अगर पैसा लगाने के बाद भी हार गई तो भी मेरी राजनीति में एक पहचान बन जायेगी, एम.एल.ए. अफसर मुझे जानने लग जायेंगे और इस जान पहचान से जो भी शिक्षामंत्री बनेगा उससे निजि विश्वविद्यालय की मांग कर दूंगी।"
"लेकिन क्या ये इतना आसान हैं ?"
"आसान तो कुछ भी नहीं है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है और अपने पास पैसा ही है जिसे खोकर कुछ पाया जा सकता है।"
"एक ओर चीज है जिसे खोया जा सकता है।"
"वो भी चलती है।" सच बात तो ये हैं लक्ष्मी की महत्वाकांक्षी औरत को एक अतिमहत्वाकांक्षी पुरुषरूपी घोड़े पर चढ़कर वल्गाएं अपने हाथ में ले लेनी चाहिये, जब भी चाबुक मारो, पुरुष की महत्वाकांक्षाएं दौडेगी और ऐड़ लगाने पर और भी ज्यादा तेज दोड़ेगी।"
"लेकिन ऐसा महत्वकांक्षी घोड़ा है कहां ?
"राजनीति में घोड़े, गधे-खच्चर, हाथी बैल सब मिलते हैं। बस पाररवी नजरें होनी चाहिये।"
"तो तुम्हारे पास ऐसी पाररवी नजरें है।"
नजरें भी है और घोड़ा भी ढूंढ रखा है, मगर वल्गाएं मेरे हाथ में आ जाये बस।
"कौन है वो घोड़ा ?"
"अभी जानकर क्या करोगी।"
"तुम तो मेरा साथ देती जाओ।"
मुझे क्या मिलेगा ?
तुम्हें क्या चाहिये। पति-पत्नी दोनों कमा रहे हो। एक बच्चा है और मध्यवर्गीय मानसिकता वाले को क्या चाहिये ?
"तो क्या मेरा शोषण मुफ्त में होगा।"
"शोषण शब्द का नाम न लो। हर युग में नारी शोषित, वंचित रही है।"
"मगर ये तो नारी सशक्तिकरण का जमाना है।"
"वूमन लिब तक फेल हो गया। "
"अब तो इस हाथ दो, उस हाथ लो। और सशक्त हो जाओ।"
इस पूरे खेल में जीवन का रस कहां है?
"रस ढूंढती रह जाओगी तो सफलता हाथ से निकल जायेगी और सफलता ही सब कुछ होती है। मेरी राजनीतिक शतरंज पर तुम्हें भी मौका मिलेगा।"
"लेकिन.....।"
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। तुम्हारे शुक्लाजी को भी तो प्रिन्सिपल बनना है। बेचारा सुन्दर, पढ़ा-लिखा, स्मार्ट और सक्रिय है।"
लक्ष्मी ये सुन कर ही कृतार्थ हो गई। उसे अच्छा लगा कि माधुरी बिना कहे ही उसकी बात समझ गयी। माधुरी ने उसकी कमर में हाथ डालकर उसे अपने स्नेह से सराबोर कर दिया।
तभी बंगले पर एक गाड़ी आई। एक नेताजी उतरे। माधुरी ने उनकी अगवानी की। नेताजी ने लक्ष्मी को ध्यान से देखा ऊपर से नीचे तक निरीक्षण किया। मन ही मन खुश हुए और प्रकट में बोले।
"माधुरी ये कौन है ?"
"अरे ये हमारे स्कूल में नई आई है, बेचारी मिलने चली आई।
अच्छा.........अच्छा......।" नेताजी माधुरी के साथ अन्दर गये। माधुरी ने लक्ष्मी को भी बुला लिया। सेठजी बाहर गये हुए थे। माधुरी और लक्ष्मी ने मिलकर कुछ जरूरी फाइलों की चर्चा नेताजी से की। नेताजी ने फाइलें निकलवाने का वादा किया, थकान मिटाई और चले गये।
माधुरी ने लक्ष्मी को भी इस वादे के साथ बिदा किया कि शीध्र ही हेडमास्टर को चलता कर शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने का प्रस्ताव मैनेजमेंट में ले जायेगी।
लक्ष्मी जब घर पहुंची तो शुक्लाजी घर पर ही बच्चें को क्रेश से ले आये थे और उसके साथ खेल रहे थे। शुक्लाजी की नजरें बचाकर लक्ष्मी बाथरूम में घुस गई। तरो ताजा होकर आई तो शुक्लाजी चाय लेकर तैयार खडे़ थे।
शुक्लाईन को खुश देखकर शुक्लाजी भी खुश हुए। मुन्ना मन्द-मन्द मुस्करा रहा था। दोनों पति-पत्नी देर रात तक बच्चे के साथ खेलते रहे। न शुक्लाजी ने कुछ पूछा न शुक्लाइन ने कुछ बताया।
***
बड़े लोगों की बड़ी बीमारियां, बड़े डाँक्टर, बड़े अस्पताल, बडे टेस्ट, बड़ी जांचें और बड़ी दवाईयां। माधुरी को भी बड़ी बीमारियां हुई। पैसे के चलते खैराती अस्पताल नहीं गये। बड़े शहर के बड़े फाइवस्टार अस्पताल में गई। बड़ी जांचें हुई और बड़े परिणाम आये। लेकिन माधुरी घबराई नही। सेठजी भी नहीं घबराये। वास्तव में पैसा और खासकर काली कमाई का काला पैसा आदमी, परिवार को बड़ा आत्मविश्वास देता है।
हुआ यूं कि माधुरी के पेट में तेज दर्द हुआ। स्थानीय ईलाज, हकीम, वैद्य, होम्योपैथी से कुछ नहीं हुआ तो शहर में बड़े फीजिशियन को दिखाया। फिजिशियन ने डाइबिटालोजिस्ट को रेफर किया। डायाबिटोलाजिस्ट ने यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। यूरोलोजिस्ट ने नेफ्रोलोजिस्ट को, तथा नेफ्रोलोजिस्ट ने न्यूरोलोजिस्ट को रेफर किया। न्यूरोलोजिस्ट ने कारडियोलोजिस्ट तक पहुंचाया। कारडियालोजिस्ट ने साइक्याट्रिस्ट को दिखाने की सलाह दी। साइक्याट्रिस्ट ने भी सभी पूववर्ती जांचें वापस कराई और अन्त में पुनः वे लोग एक पुरूष गाइनेकोलोस्टि की शरण में गये। अब तक नुस्खे, जांचे, रिपोर्टो का एक पुलिन्दा बन गया था। जिसे एक थिसिस का रूप दिया जा सकता था। डाँक्टर ने पूरी जांच-पड़ताल की। मगर रोग हाथ में नहीं आया। डाँक्टर ने उन्हें डी.एन.सी. की सलाह दे डाली। नई सोनोग्राफी से भी रोग का पता नही चला। अन्त में चलकर हुआ ये कि डाँक्टर ने साइक्याट्रिस्ट वाली दवाएं चालू रखने की सलाह दी। माधुरी डाँक्टरों से उबकर अब तंत्र, मंत्र, फकीरों, औझाओं, बाबाओं की शरण में जाना चाहती थी मगर घर वाले नहीं मानते थे। आखिर में ये तय हुआ कि माधुरी को बिना किसी दवा के कुछ दिन रखा जाये। महान आश्चर्य ये हुआ कि माधुरी ठीक होकर सामान्य रूप से अपना काम काज करने लगी।
लक्ष्मी और माधुरी ने मिलकर वापस स्कूल का कामकाज संभाल लिया। लक्ष्मी शुक्लाईन शुक्लाजी को प्रिन्सिपिल बनाने की फिराक में थी और माधुरी वापस निजि विश्वविद्यालय के मिशन ओर चल पड़ी। इस पूरी भागदौड़ में लक्ष्मी माधुरी के साथ थी। राजधानी के चक्कर, नेताओं के चक्कर, राजनैतिक पार्टियों के चक्कर और स्कूल का कामकाज सब काम माधुरी-लक्ष्मी को पूरा करना पड़ता था। माधुरी उम्र में बड़ी थी। बीमारी से उठी थी, मगर दिमाग से तेज थी। जागरूक थी। उसे मछली को चारा डालना आ गया था। मछली जाल में थी। बस उसका उपयोग करना था।
माधुरी के स्कूल में स्टाफ के नाम पर कुल दस थे। मगर सब मिलकर छप्पन का काम करते थे। मिसेज राघवन भी उनमें से एक थी। स्कूल की सबसे पुरानी अध्यापिका। सबसे नम्र और सबसे धूर्त। धूर्तता में नम्रता का ऐसा घालमेल था कि व्यक्ति चाहकर भी कुछ नहीं कर पाता।
मिसेज राघवन विधवा थी। उसने अपने एकमात्र पुत्र को भी इसी स्कूल में फिट करने का प्रयास किया था। मगर बात बनी नहीं। वो खार खाये बैठी थी। मगर अत्यन्त विनम्रता से सब कुछ देख-सुन समझ रही थी। वो हेडमास्टर के पास गई और बोली।
"प्रिन्सिपल साहब आपके दिन तो अब लद गये लगते है।
"क्यों भाई अभी-अभी तो स्थायी हुआ हूं। मेरी सेवानिवृत्ति भी दूर है।"
"सेवा से निवृत्ति दूर तभी तक है जब तक मेडम माधुरी नही कहती।"
"वो तो मेरे से खुश है।"
"वो आप सोचते है।"
"मैने तो सुना है कि शुक्लाजी को जल्दी ही प्रिन्सिपल बनाया जाने वाला है।"
"क्या बकती हो तुम।"
"मै बकती नही, कानो सुनी और आंखों देखी कहती हूं।"
"लक्ष्मी बहिनजी ने माधुरी मेम को पटा लिया है और कभी भी आपका पत्ता साफ हो सकता है। संभलकर रहना, फिर न कहना मैम ने चेताया नहीं।" यह कहकर मिसेज राघवन ने हेड मास्टर को चिन्ता में डाला और खुद खिसक कर आ गई।
हेडमास्टर साहब को भी कुछ-कुछ भनक लग रही थी, मगर अब तो स्टाफरूम से भी अफवाहें आ रही थी। जो कभी भी सच हो सकती हैं।
हेडमास्टर साहब कर भी क्या सकते थे। मैनेजर से पंगा लेना उनके बस का नहीं था। मगर घर पर बैठी दो कुंवारी कन्याओं की चिन्ता उन्हें खाने लगी।
वे जल्दी घर आ गये। पण्डिताईन ने पूछा कुछ न बोले बस सरदर्द का बहाना बना कर लेट गये। सायंकाल भोजन के समय बताया शायद नया हेडमास्टर बनेगा। पण्डिताईन ने बिना चिन्ता जवाब दिया।
"जिसने चोंच दी है वो चुग्गा भी देगा।"
हेडमास्टर साहब को अच्छा लगा। बेटियों को पढ़ाकर सो गये।
माधुरी अपनी बीमारी से उबरकर नयी सज-धज के साथ स्कूल आई। हेडमास्टर से हिसाब की किताबें मांगी उसके बाद अनियमितताओं की चर्चा की ओर स्पष्ट कह दिया। ऑडिट रिपोर्ट बहुत खराब आई है। स्कूल की ग्रान्ट रूक जायेगी। सचिवालय में बहुत बदनामी फेल रही है। आपको निलम्बित करने के लिए बड़ा दवाब है।
"क्यों मेरा क्या कसूर है। स्कूल के कोषाध्यक्ष ने किया है गबन।"
"लेकिन सभी वाउचर्स पर आपके हस्ताक्षर है।"
"लेकिन.......लेकिन...........।" हेडमास्टर हकला गया।
माधुरी ने तुरूप का पत्ता फेंका।
"देखो मास्टरजी ये दुनिया, बड़ी खराब है, आपकी बदनामी, हमारी बदनामी, ऐसा करो कि आप स्तीफा दे दे, मैं मैनेजमेंट से मंजूर करवा दूंगी। आपको पेंशन के लाभ भी दिलवा दूंगी।"
"लेकिन.....।"
"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं। जेल जाने से तो यही ठीक रहेगा। आप एक-दो दिन सोच लीजिये। तब तक मैं भी चुप रहूंगी।" ये कहकर माधुरी चली गई।
हेडमाटर साहब के पैरों से जमीन खिसक गई थी, वे चाहकर भी कुछ नही कर सकते थे। गबनकर्ता मैनेजमेंट का ट्रस्टी था, उनके तो केवल हस्ताक्षर थे, मगर वे जानते थे कि कोर्ट, कचहरी, थाना, पुलिस, मुकदमेंबाजी में भी वे ही हारेंगे, उचित यही होगा कि स्तीफा दे और कोई अन्य रास्ता जीने का खोजे। वे माधुरी के हरामीपने से पहली बार परिचित हुए थे। मगर समरथ को नहीं दोष गुंर्साइं। यही सोचकर उन्होंने स्तीफा लिखा । बाबू को दिया और घर की ओर भारी कदमों से चल पड़े। आज रास्ता काटे नहीं कर रहा था। हर युग में ईमानदार, स्वच्छ, कर्तव्यपरायण, अध्यापकों के साथ ऐसा ही हुआ है मास्टरजी ने सोचा और दो बूंद आंसू पोंछ डाले।
माधुरी ने बिना मैनेजमेंट को बताये लक्ष्मी के पति शुक्लाजी को कार्यवाहक प्रिंसिपल बना दिया। शुक्लाजी को बुलाकर स्पष्ट कहा।
"मेरी कृपा समझिये शुक्लाजी नहीं तो आप जैसे नौसिखिये को प्राचार्य पद.........असंभव।"
शुक्लाजी बेचारे क्या बोलते। वे अपने पत्नी की सहेली के अहसानों के तले वैसे ही दबे थे। शक्लाइन घर पर शेरनी की तरह दहाड़ती थी। उसके किसी भी कामकाज में हस्तक्षेप का मतलब था घर-गृहस्थी में घमासान होना। शुक्लाजी को धीरे-धीरे अपनी औकात समझ में आ रही थी, माधुरी आगे बोली।
"पण्डितजी.......स्थायी होने के लिए लगातार मेहनत करो। मैंनेजमेंट की मीटिंग भी मैं शीघ्र बुला दूंगी।"
"जी अच्छा मैडम।" शुक्लाजी ने कहा और बाहर आकर पसीना पोंछा। शुक्लाजी जब पहली बार हेडमास्टर की कुर्सी पर बैठे तो बस मजा आ गया। वे अपने आपको महान समझने लगे।
उन्होंने सोचा जिस किसी ने भी कुर्सी का आविष्कार किया है, बड़ा महान कार्य किया है। चार पायों वाली यह छोटी सी लकड़ी की कुर्सी हर ऐरे गेरे नथ्थू खैरें, नूरे, जमाले फकीरे को आकर्षित करती है। हर कुर्सी की मर्यादा होती है। शुक्लाजी की कुर्सी की मर्यादा शुक्लाईन के मार्फत माधुरी की थी। तभी उन्होंने सोचा यदि यह चार कमरों का काँलेज रूपी स्कूल कभी निजि विश्वविद्यालय बना तो वे भी कुछ बन जायेंगे। डीन एकेडिमिक, रजिस्ट्रार, परीक्षा नियंत्रक जैसे पदों की गरिमा,........ शुक्लाजी कल्पना लोक में खो गये।
अचानक फोन की घंटी ने उनकी तन्द्रा को तोड़ा। शुक्लाईन बधाई दे रही थी और घर जल्दी आने की ताकीद की।
घर पर शुक्लाईन बोली।
"तुम्हारा स्थायी होना मैनेजमेंट के नहीं शहर के एम.एल.ए. के हाथ में है। वो चाहेंगे तभी सब ठीक-ठाक होगा।"
"तो हमें क्या करना होगा।"
"करना क्या है, सायंकाल उनके घर जाकर धन्यवाद देना है। फिर माधुरी मेम के घर जाकर चरण स्पर्श करने है।"
शुक्लाजी सब समझकर भी नासमझ बने रहे।
***
राज्य सरकार ने राज्य की साहित्य कला और संस्कृति से सम्बन्धित अकादमियों में अध्यक्षों के पद हेतु राजनैतिक नियुक्तियों को करने का मानस बनाया। पर पता नहीं, कैसे समाचार लीक हो गये। और मीडियावाले राजनैतिक नियुक्तियों के नाम उछालने लगे। एक चैनल ने तो बाकायदा पार्टी अध्यक्ष द्वारा जारी सूची को ही प्रसारित कर दिया। नियुक्तियों का मामला खटाई में पड़ गया। प्रदेश की अकादमियां सनाथ होते-होते रह गई। सरकार ने प्रशासक नियुक्त कर दिये। बुद्धिजीवी चिल्लाने लगे। कपड़े फाड़ने लगे। मगर सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंगी। इसी उठापटक में कुलदीपक ने अपने कविता संग्रह पर अकादमी से आर्थिक सहयोग मांग लिया। अकादमी के अधिकारियों ने तू-तू में-में से बचने के लिए आर्थिक अनुदान सभी मांगने वालों को बराबर-बराबर दे दिया। कोई असंतुष्ट नहीं बचा।
ललिता कला अकादमी वालों ने सभी कलाकृतियों को पुरस्कृत कर दिया। संगीत-नाटक अकादमी ने सभी कलाकारों को कुछ न कुछ दिया। विद्रोह असंतोष केवल हवा में रह गया। सर्वोच्च पुरस्कार के लिए एक महिला को चुन लिया गया। महिला वर्ग के कारण सब चुप हो गये। सरकार ने अपने गाल स्वयं ही बजाना शुरू कर दिया।
अकादमियों के अध्यक्ष बनने के इच्छुक लोगों ने एक बार फिर प्रयास किये मुख्यमंत्री ने मामला शिक्षामंत्री पर छोड़ दिया। शिक्षामंत्री समझदार थे उन्होंने राज्यमंत्री को कार्यभार दे दिया। राज्यमंत्री ने पार्टी के अध्यक्ष को मामला सौंपा और पार्टी अध्यक्ष ने अगले चुनाव के बाद ही विचार करेंगे, ऐसी घोषणा कर दी।
राजनैतिक नियुक्तियों के मामलों में सरकारें पहले भी संकट में आ चुकी थी। नियुक्तियां हो जाने पर यदि सरकार चल बसे तो बेचारे नियुक्त पदाधिकारियों की बड़ी छिछालेदर होती थी। कई निलम्बित हो जाते थे। कई बरखास्त और कई कोर्ट कचहरी के चक्कर लगा-लगाकर थक जाते थे। कई बार नई सरकार धमकाकर स्तीफा लिखवा लेती थी। कुल मिलाकर प्रजातन्त्र के सीने पर विचित्र केनवास बन जाते थे। कवि कविता छोड़कर फाइलों के हल जोतने लग जाते थे और संगीतकार तानुपरा छोड़कर सरकार के पांव दबाने लग जाते थे।
इन्हीं विचित्र परिस्थितियों में कुलदीपक झपकलाल को लेकर प्रकाशक के अड्डे पर चढ़े। आज प्रकाशक ने कुलदीपक का तपाक से स्वागत किया। उसे विश्वस्त सूत्रों से पता लग गया था कि कुलदीपक को प्रकाशन सहायता मिल गई है और अब कविता संग्रह छापना घाटे का सौदा नहीं था।
"आईये। आईये कुलदीपकजी। कहिए कैसे है। आज तो बड़े दिनों के बाद दर्शन दिये। क्या लेंगे चाय या काफी।"
झपकलाल और कुलदीपक को बड़ा आश्चर्य हुआ। बाहर ध्यान से देखा, कहीं सूर्य पश्चिम से तो नही निकला था। मगर सब ठीक-ठाक था।
"मैं अपने कविता संगह के प्रकाशन के सिलसिले में निवेदन करने आया हूं।"
"अरे यार। ऐसी जल्दी क्या है। पहले कचौडी खाईये। फिर चाय पीजिये, पान खाईये फिर प्रकाशन की चर्चा।" यह कहकर प्रकाशक ने अपने इकलौते मैनेजर कम अकाउटेंट कम प्रूफरीडर कम सम्पादक को चाय-नाश्ता लाने भेज दिया।
"और सुनाईये। क्या हाल है। "झपकलाल ने पूछा।""
"सब ठीक-ठाक है, आप तो जानते ही है प्रकाशन का धन्धा तो बेहद घाटे का काम हैं, जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ।"
"अरे सेठजी आपने अभी-अभी पचास लाख की नई प्रेस लगाई हैं।"
"है.....है......है.......वो तो लोन लिया है।"
चाय हुई। नाश्ता हुआ। पान के बीडे़ हुए। और मदनमस्त माहौल में कुलदीपक के कविता संकलन के अनुदान का बंटवारा आधा-आधा हुआ। आधा अनुदान कुलदीपक को रायल्टी के रूपमें मिलना तय हुआ और आधा-अनुदान प्रकाशकीय सहयोग के रूप में प्रकाशक को मिला एवज में प्रकाशक ने उन्हेंं पचास प्रतियां निःशुल्क दे देने की मौखिक स्वीकृति प्रदान की।
पुस्तक यथा समय छपी। अकादमी तक प्रकाशक ने पहुंचाई और कुलदीपक को प्रतियां मिली। बस यही गड़बड़ हुई। प्रकाशक ने कुलदीपक को प्रतियां देर से दी। कुलदीपक नाराज हुए मगर प्रकाशक ने एक समीक्षा गोष्ठी रखवा दी। जिसकी रपट प्रकाशक ने छपवा दी। कविताएं तो नहीं बिकी मगर कुलदीपक जी शहर के नामी कवियों में शामिल हो गये। जैसे उनके दिन फिरे, सभी के फिरे।
8
एक उदास सांझ। सांझ कभी-कभी बहुत उदास होती है। सांझ चाहे गर्मी की हो चाहे सर्दी की या चाहे बारिश की हो। उदासी है कि दूर ही नहीं होती।
ऐसी ही उदास सांझ ढले मां घर के ओेसारे में बैठी हुई थी। पुराने अच्छे दिनों की याद में उसकी आंखोंे में आंसू आ गये थे। उसी के मौहल्ले में कुछ मांए ऐसी भी थी कि दुःख ही दुःख। उसने सोचा एक मां पांच-पांच बेटों को पालती हैं और पांच बेटे मिलकर मां को नहीं पाल पाते। कैसा निष्ठुर है समय। बेटे अमावस से पूनम तक मां को इधर-उधर करते रहते और एकम हो जाने पर गरियाते। मगर मां का क्या है। वह तो मां ही रहती है।
ओसारे में अन्धेरे में उसे कुलदीपक आता दिखा। पांव लड़खड़ा रहे थे, उसे कुछ बुरा लगा। मगर कुलदीपक ही मां का एकमात्र सहारा था।
झपकलाल कोे डांटना आसान था, मां ने उससे ही कहा
"अरे झपक ये सब क्या करते हो तुम लोग ?"
क्या करें मां ये सब तो इसकी पुस्तक छपने पर हुआ है।
"कविता की पुस्तक बिकती नहीं और तुम लोग कुछ का कुछ कर डालते हो।"
"मां मैं........बड़ा कवि हूं।
"बड़ा कवि है मेरी जूती।"
रोटी खा और सो जा।
मां ने आंसू पोंछते हुए कुलदीपक को सुला दिया।
मां फिर पुराने दिनों में खो गई। बापू की यादें। घर की यादें। मां बाप की यादें। बापू की अच्छी नौकरी की यादें। यशोधरा की यादें। यादें और बस यादें। मां फिर फफक पड़ी मगर अन्धेरी रात में काले साये ही उसके साथ थे। मां मन ही मन खूब रो चुकी थी। प्रकट में भी रो चुकी थी। उसे केवल कुलदीपक की शादी की चिंता थी। एक बहू हो तो घर में रौनक हो और कामकाज आसान हो।
दामाद की खोज उसे नहीं करनी पड़ी थी, मगर बहू की खोज में वो दुबली हो जा रही थी। समय ने उसके चेहरे पर अपने हस्ताक्षर कर दिये थे। वो रोज कई बरस बुढ़ा जाती थी। बापू के जाने के बाद अकेलेपन के कारण उसे जल्दी से जल्दी दुनिया छोड़ने की इच्छा थी मगर राम बुलाये तो जाये या बहूं आ जाये तो जाऊं, यही सोचते-सोचते बूढ़ी मां की आंख लग गई।
कुलदीपक रात में उठे तो देखा मां सोई पड़ी है। उन्होंने मां को कम्बल ओढ़ाया खुद भी कथरी ली और सो गये। बाहर कहीं कुत्ते भौंक रहे थे, मगर कुलदीपक घोड़े-गधे सभी बेचकर सो रहे थे।
सुबह चेत होने पर मां ने कुलदीपक को प्रेम से उठाया। उनका सर भन्ना रहा था। धीरे-धीरे ठीक हुआ। मां ने चाय के साथ नाश्ते में बहू का राग अलापा।
कुलदीपक इस आलाप से दुःखी थे। प्रलाप की तरह समझते थे और आत्मालाप करना चाहते थे, सो बोल पडे़।
"मां अभी तो मुझे आगे बढ़ना है। कुछ नया अच्छा करना है।"
"वो सब पूरी जिन्दगी भर चलता रहेगा।"
"अभी नही मां। शीघ्र ही चुनाव होंगे उसके बाद देखेंगे।"
"चुनाव से तुझे क्या लेना-देना है। बहू का चुनाव से क्या सम्बन्ध है।"
"कभी-कभी सम्बन्ध हो जाता है मां। पीढ़ियों का अन्तराल है मां, तुम नहीं समझोगी।" ये कहकर कुलदीपक ने अखबार में आंखे गड़ा ली।
मां बड़बड़ाती हुई अन्दर चली गई।
कुलदीपक खुद शादी के लिए तैयार थे। मां तैयार थी, रिश्ते में दूर के मामाजी को भी कुलदीपक ने आचमन के सहारे पटा लिया था। मगर कमी थी तो बस एक अदद लड़की की। एकाध जगह मामाजी ने बात चलाई पर कुलदीपक के लक्षण देखकर लड़की वाले बिदक गये। एक अन्य लड़की वालों ने स्पष्ट कह दिया लड़की के नाम पर एफ.डी. कराओ। कुलदीपक की स्थिति एफ.डी. की नहीं थी, मामू की हालत और भी पतली थी। मां की जमा पूंजी से निरन्तर खरच होता रहता था।
अखबार में लिखने से जो आता उससे कुलदीपक के खुद के खर्च ही पूरे नहीं पड़ते थे। कुलदीपक की बहन यशोधरा का आना-जाना लगभग बन्द था। उसके पति ने एक नये खबरियां चैनल में घुसने का जुगाड़ बिठा लिया था। इस समाचार से कुलदीपक की स्थिति और बिगड़ गयी। समीक्षा का कालम साप्ताहिक से मासिक हो गया। हास्य-व्यंग्य की जगह लतीफों ने ले ली।
कुलदीपक लगभग बेकार की स्थिति को प्राप्त हो गये। ऐसे दुरभि संधिकाल में कुलदीपक मकड़जाल की तरह फंसे हुए थे। क्या करूं, क्या न करूं के मायामोह में उलझे कुलदीपक के भाग्य से तभी छीकां टूटा।
मामू ने पड़ोस के एक गांव की एक सधःविधवा से बात चलाई। और बात चल पड़ी।
***
यशोधरा के पति-सम्पादक अविनाश जिस खबरिया चैनल में घुसने में सफल हो गये थे उसकी अपनी राम कहानी थी। सेठजी पुराने व्यापारी थे, खबरिया चैनल के सहारे उनके कई धन्धे चलते थे। सरकार कोई सी भी आये वे देख-संभलकर चलते थे। चैनल की टी.आर.पी. बनाये रखने के हथकड़ों के वे गहरे जानकार थे। टीम भी चुन-चुनकर रखते थे। प्रतिद्वन्दी की टीम के चुनिन्दा पत्रकारों को उच्च वेतन पर तोड़कर बाजीगरी दिखाते रहते थे। कभी-कभी उनके चैनल के पत्रकार भी भाग जाते थे, मगर वे पहले से ही ज्यादा स्टाफ रखते थे। भागने वाले पत्रकार को थोड़े दिनों के बाद दूसरी जगह से भी निकलवाने के तरीके वे जानते थे।
इन परिस्थितियों में अवनिाश को अपना प्रिंट मीडिया का अनुभव काम में लेते हुए अपना वर्चस्व सिद्ध करना था। अविनाश ने एक शानदार न्यूजस्टोरी बनाने के लिए कन्या भू्रण हत्याओं का मामला हाथ में लिया। अविनाश अपने साथ एक विश्वस्त कैमरामेन लेकर शहर-दर-शहर निजि नर्सिगहोमों में जाने लगा। धीरे-धीरे उसे पता चलने लगा कि पर्दे के पीछे क्या खेल है। अक्सर गर्भवती महिलाएं, उनके पति व घर वाले सोनोग्राफी कराते, कन्या होने पर भू्रण नष्ट करने के बारे में कहते। डाँक्टर शुरू में मना कर देती, मगर उच्च कीमत पर सब कुछ करने को तैयार हो जाती। डाँक्टरों का एक पूरा समूह इस काम में हर शहर में लगा हुआ था। अविनाश ने छोटे शहरों को पकड़ा। आश्चर्य कि वहां पर भी यह गौरखधन्धा खूब चल रहा था। खूब फल-फूल रहा था।
अविनाश ने नर्सिग होमों में कैमरे के सामने डाँक्टरों को पकड़ने के प्रयास शुरू किये। स्टींग ऑपरेशन किये। एक महिला को गर्भवती बताकर उसके बारे में बातचीत डाँक्टरों से की। रिकार्डिंग की। सोनोग्राफी वाली दुकान पर भी रिकार्डिंग की ओर एक पूरी न्यूज स्टोरी बनाई जिसमें लगभग बीस केसेज थे। फुटेज को देखकर चैनल सम्पादक प्रसन्न हुआ। उसे जारी करने का अन्तिम फैसला सेठजी को करना था। सेठजी ने स्वयं फुटेज देखे। एक डाँक्टर उनकी रिश्तेदार थी। उसका फुटेज रोक दिया गया। शेष न्यूज स्टोरी यथावत हुई। पूरे देश में धमाका सा हुआ। मेडिकल काउन्सिल ने कुछ समय बाद डाँक्टरों का पंजीकरण रद्द कर दिया। केस चला। डाँक्टर गिरफ्तार हुए। मगर सब बेकार क्योंकि कुछ समय बाद मेडिकल काउन्सिल ने पंजीकरण रद्द करने का प्रस्ताव वापस ले लिया।
अविनाश बड़ा निराश हुआ। पहले प्रिन्ट मीडिया में भी गुर्दे बेचने के प्रकरणो में मीडिया को अपेक्षित सहयोग नही मिला था। इस संताप के चलते अविनाश कुछ दिनों से उदास था। घर पर ही था। उसे दुःखी देख यशोधरा ने पूछा।
"क्या बात है ?"
"देखो कितनी मेहनत से और कितना समय लगाकर हम लोगों ने कन्या भू्रण हत्याओं पर यह कथा तैयार की थी और हमें सफलता भी मिली थी। मगर सब गुड़ गोबर हो गया।"
"अब नियमों के सामने कोई क्या कर सकता है।"
"नियमों का बड़ा सीधा-सा गणित है आप व्यक्ति बताइये मैं नियम बता दूंगा। हर व्यक्ति के लिए अलग नियम होते है। प्रभावशाली व्यक्ति के लिए नियम अलग और गरीब, मजलूम, लाचार, मोहताज के लिए अलग नियम।"
"अब ये सब तो चलता ही रहता है।"
"लेकिन कब तक...........कब तक.........ये सब ऐसे ही चलता रहेगा।"
"अविनाश ये प्रजातन्त्र की आवश्यक बुराईयां है। हमें प्रजातन्त्र चाहिये तो इन बुराईयों को भी सहन करना होगा।"
"मगर इन सबसे प्रजातन्त्र की जड़ें खोखली हो रही है।"
"ऐसा नही है, इस महान देश की महान परम्पराओं में प्रजातन्त्र बहुत गहरे तक बैठा हुआ है।"
"लेकिन व्यवस्था में सुधार कब होगा।"
""व्यवस्था जैसी भी है हमारी अपनी तो है। पास-पड़ोस के देश को देखो उनसे तो बेहतर है हम।"
"हाँ यहाँ मैं तुमसे सहमत हूं।"
अविनाश काम पर जाना ही नहीं चाहता था। मगर काल ड्यूटी पर उसे जाना पड़ा। यशोधरा ने उसे भेजा और अविनाश को एक नये काम में जोत दिया गया। अविनाश इस त्रासदायक स्थिति में भी अपना संतुलन बनाये रखना चाहता था सो उसने एक नई बीट पर काम करना शुरू कर दिया।
यशोधरा को बहुत दिनों के बाद मां की याद आई। उसने मां से फोन पर बात की।
"कैसी हो मां।"
तुम तो हमें भूल ही गई। तेरे बापू के जाने के बाद हमारी स्थिति ठीक नहीं है बेटी। कुलदीपक कुछ करता-धरता नहीं कविता से रोटी मिलती नही।
"ऐसी बात नहीं है मां सब ठीक हो जायेगा, तुम अपनी सेहत का ध्यान रखना। मैं किसी दिन इनको लेकर मिलने आऊंगी। यशोधरा ने फोन रख दिया।
अविनाश के सेठजी राज्यसभा में घुस गये थे। एक अन्य पत्रकार मित्र ने रक्षा मंत्रालय में व्याप्त भ्रष्टाचार पर एक कथा शुरू की थी, उसे एक बड़े चैनल को देकर सेठजी विपक्ष की सीट पर राज्यसभा में घुस गये थे। अविनाश का मन वितृष्णा से भर गया था। मगर हर क्षेत्र में अच्छे और बुरे लोग है ऐसा सोचकर मन मसोसकर रह गया। अविनाश को भी लगता खबरिया चैनल से प्रिंट मीडिया अच्छा है, कभी लगता खबरिया चैनल में जो रोबदाब है वो वहां-कहां। इधर इन्टरनेट पर भी चैनल चलने लगे थे।
ऐसे ही एक इन्टरनेट साइट "पर्दाफाश डाँट काम" पर नियमित रूप से अच्छी सामग्री आ रही थी, अतिरिक्त आय के साधन से रूप में अविनाश ने इस साइट पर सामग्री देना शुरू किया। इन्टरनेट पर तहलका से सभी परिचित थे। रक्षा मंत्रालय के सौदों में व्याप्त अनाचार की रपटों ने एक पूरी केन्द्रीय सरकार को लील लिया थ। पर्दाफाश डाँट काम इतनी कामयाब नहीं थी मगर इन्टरनेट पर मशहूर थी। अविनाश अपने काम से खुश तो रहता मगर इतने दवाबों के कारण मनमर्जी का लिखना पढ़ना मुश्किल था, उसे कभी-कभी अपनी स्थिति पर बेहद दुःख होता। दुःखी अविनाश यशोधरा को अपने मन की बात बताता और हल्का हो जाता।
यशोधरा उसे लाड लड़ाती और वो दुगुने उत्साह से काम में लग जाता। उसके सेठजी ने एक शाँपिग माल बनाने का निश्चय किया, शहरी विकास प्राधिकरण से सब कामकाज निकलवाने में अविनाश की कथा का बड़ा योगदान रहा, माल बना। खूब बना। शानदार बना। अविनाश की प्रोन्नति हुई, मगर उसे यह रिश्वत का ही एक प्रकार लगा। यशोधरा भी उससे सहमत थी। मगर वे चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते थे। ईमानदारी से सिर्फ रोटी खाई जा सकती है, भौतिक समृद्धि के लिए नियमों में ऊंच-नीच आवश्यक है। अविनाश को ये सब समझ में आ गया था।
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आजादी के बाद प्रजातन्त्र के नारों के बीच एक बड़ा नारा उभर कर ये आया कि भविष्य का युग गठबन्धन सरकारों का युग है। नेहरू, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी का करिश्माई युग समाप्त हो गया और गठबन्धन के सहारे सरकारें घिसटने लगी। घिसटने वाली ये सरकारें बड़ी नाजुक चीज होती है। कोई भी चाबुक मारे तो चलने का नाटक करती है, वरना सत्ता की सड़क पर खड़ी-खड़ी धुंआ देती रहती है।
एक बार तो एक ऐसी गठबन्धन सरकार बनी जिसके एक और वामपन्थी बैठते थे और दूसरी और धु्रव दक्षिणपन्थी। गठबन्धन सरकारों का जीवन अल्प होता है, मगर अकड़ भंयकर होती है। एक दल ने तीन बार सरकारें बनाई मगर कामयाबी नही मिली। दो-दो प्रधानमंत्री ऐसे बने जिन्होंने संसद का चेहरा तक नहीं देखा।
आजकल भी ऐसी ही एक गठबन्धन सरकार का जमाना है। सरकार के बायें हाथ में हर समय दर्द रहता है। कभी-कभी यह दर्द पूरी सरकार के शरीर में हो जाता है। कभी सरकार गिरने का नाटक करती है और कभी सरकार को गिराने का नाटक किया जाता है। कभी हनीमून खत्म का राग तो कभी तलाक की धमकी।
सरकार को बाहर से समर्थन अन्दर से भभकी। तुम चलो एक कदम। पीछे आओ दो कदम। सरकार की कदमताल से जनता हैरान। परेशान। दुःखी।
पानी, बिजली, सड़क, स्वास्थ्य, आतंकवाद सभी पर सरकार का एक जैसा जवाब अकेली सरकार क्या-क्या करें। कितना करे। सरकार के बस में सब कुछ नहीं। मन्दिर-मस्जिद पर हमला। सरकार का स्पष्ट जवाब सब जगह सुरक्षा नहीं की जा सकती । अल्पसंख्यकों पर अत्याचार, हत्या, सरकार का जवाब जनता अपनी सुरक्षा स्वयं करें।
गठबन्धन सरकारों की नियति है सड़क पर धुआं देना। अपनी साख देश-विदेश में बिगाड़ना। नई अर्थव्यवस्था के नाम पर गठबन्धन सरकारों ने ऐसे ताव खाये कि पूछो मत। हत्यारें तक मंत्री बन जाते है और मुखिया कुछ नहीं कर पाते। ले-देकर एकाध ईमानदार आदमी को कुर्सी पर बिठा दिया जाता है वो निहायत शरीफ व्यक्तित्व होता है। उसको चलाने वाले दूसरे होते है, ये दूसरे संगठन-सत्ता, समाज सब पर काबिज रहते है। ईमानदार शरीफ सरकार का मुखिया बेईमानी पर चुप्पी साध लेता है और अपराधी को बचाने की अन्तिम कोशिश में लगा रहता है, सरकार जो चलानी है। मुखिया की केबिनेट में किसे रखना है ये सहयोगी दल तय करता है। घोषणा कर देते है और मुखिया को मानना पड़ता है।
राज्य सरकारों की स्थिति तो और भी दयनीय है। वहां पर हर काम के लिए केन्द्र का मुंह ताकना पड़ता है। कई गठबन्धन सरकारें तो एक सप्ताह भी नहीं चली। प्रजातंत्र के मुखिया के रूप में एक बार एक राज्य में कुछ दिनों तक दो-दो मुख्यमंत्री रहे। जो हारा उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया।
प्रजातन्त्र में जनता की कौन सुनता है आजकल चुनाव जीतने के नये-नये हथकण्डे आ गये है और जीतने के बाद जनता के दरबार में जाने की परम्परा समाप्त हो गई है।
ऐसी ही स्थिति में चुनाव आये। राज्यों के चुनावों से ठीक पहले साम्प्रदायिक दंगों पर एक चैनल ने जोरदार ढंग से स्टिंग ऑपरेशन किये। व्यक्ताओं ने जोर-शोर से आतंक के जौहर दिखाये। गर्भवती महिलाओं के पेट चीरने की घटना का सगर्व बखान किया गया। चुनावी दावपेंच में मानवता खो गई। जमीन और आसमान को शरम आने लगी मगर कलंक नहीं धुले।
चुनाव आयोग नमक संस्था का राजनीतिकरण कर दिया गया। संविधानिक संस्थाओं का भंयकर विघटन शुरू हो गया। प्रेस मीडिया पर हमला आम बात हो गयी। मीडिया को मैनेज करने वाले स्वयं की मार्केटिंग करने लगे।
माधुरी को अपने स्कूल के मैनेजमेंट की मिटिंग बुलानी थी। शुक्लाजी को स्थायी प्राचार्य बनाना था। शुक्लाईन से राजनीति की सीढ़ी चढ़नी थी।
उसने अपने कमेटी की मिटिंग बुलाने के लिए शुक्लाईन से बात की।
"बोलो तुम क्या कहती हो ?"
"मै क्या कहूं। मैं तो आपके साथ हूं। शुक्लाजी को पक्का करना है।"
"वो तो ठीक है मगर स्कूल में काफी गड़बड़िया है।"
"वो पुरानी है। शुक्लाजी धीरे-धीरे सब ठीक कर देगें।"
"मगर एम.एल.ए. भी तो सदस्य हैै।"
"उन्हें तो आप ही मना-समझा सकती है।"
"मै अकेली क्या-क्या करूं?"
"फिर आपको टिकट भी तो लेना है। चुनाव आ रहे है।"
"हां यही चिन्ता तो खाये जा रही है?"
"आप एक काम करे। शाम को मीटिंग से पहले नेताजी से मिल ले?"
"उससे क्या होगा। मेरे अकेले मिलने से कुछ नहीं होगा।"
"पार्टी फण्ड में पैसा दे देना।"
"वो तो मैं पहले ही कर चुकी हूं।"
"फिर डर किस बात का है ?"
डर है कि नेताजी किसी अपने आदमी को फिट करने को न कहे।
"हाय राम। ऐसा हुआ तो मैं तो बेमौत मर जाऊंगी। शुक्लाजी का क्या होगा।"
"यही तो मैं भी सोच रही हूं। ऐसा करो चाय पीकर अपन नेताजी के बंगले पर चलते है। वो ही कोई रास्ता निकालेंगे।"
"ठीक है।"
माधुरी और शुक्लाईन नेताजी के बंगले पर पहुंची। शाम गहरा रही थी। नेताजी सरूर में थे। घर में सन्नाटा था। यह बंगला शहर से कुछ दूरी पर एक फार्म हाऊस पर था।
"कहो भाई कैसे आई आज दो-दो चांद एक साथ..........।" हो-हो कर नेताजी हंसे।
दोनो चुप रही। शर्माई।
नेताजी फिर बोले। "जरूर कोई बात है। ठीक है बताओ।"
माधुरी ने मैनेजमेंट की मीटिंग और शुक्लाजी को प्रिन्सिपल बनाने की बात की।
नेताजी बोले। "बस इतनी सी बात.........ठीक है। मैं मीटिंग में नहीं आऊंगा। तुम शुक्लाजी का प्रस्ताव पास कर देना।"
"हां यही ठीक रहेगा। मगर आप नाराज तो नहीं होंगे।"
"इसमें नाराजगी की क्या बात है। आपने पार्टी फण्ड दिया है। अगला चुनाव सिर पर है। हमें भी वोट चाहिये। और फिर शुक्लाजी भी तो हमारे ही आदमी है। मुझे अपने किसी आदमी को फिट नहीं करना है।" नेताजी ने कुटिलता के साथ शुक्लाइन को देखते हुए कहा।
शुक्लाइन कांप गई। माधुरी ने उसका हाथ दबाकर चुप रहने का इशारा किया। शुक्लाइन चुप ही रही।
चुप्पी का लाभ भी उसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था। शुक्लाजी को प्रिन्सिपल की स्थायी पोस्ट। माधुरी को टिकट और कुछ वर्षों में एक अदना स्कूल, एक निजि विश्वविद्यालय। ये सपने माधुरी भी देख रही थी। शुक्लाईन भी देख रही थी। सपनों को हकीकत में बदलने के लिए नेताजी की जरूरत थी। नेताजी को शुक्लाईन की जरूरत थी। माधुरी उसे छोड़ कर गई। वापसी में सुबह शुक्लाईन जब नेताजी की कार में लुटी-पिटी लौट रही थी तो उसने देखा कि मंत्री की कार से नेताजी की धर्मपत्नी भी लगभग वैसी ही स्थिति में उतर रही थी। उसे देखकर शुक्लाईन के चेहरे पर मुस्कान थी। दोनों की आंखे मिली। और कार आगे बढ़ गई।
मैनेजमेंट की मिटिंग हुई। शुक्लाजी प्रिंसिपल हुए। शुक्लाईन स्थायी टीचर बन गई। मगर चुनावों के दौर में माधरी को टिकट विपक्षी पार्टी से लेना पड़ा वो तो बाद में पता चला कि विपक्षी पार्टी से भी टिकट तो नेताजी ने ही दिलवाया था। माधुरी ने चुनाव में ज्यादा खर्चा नहीं किया। जो पक्के वोट थे। वो आये। वो हार गई। मगर इस हार में भी उसकी जीत थी।
9
कुलदीपक और झपकलाल हिन्दी के परम श्रद्धेय मठाधीश आचार्य के आवास पर विराजमान थे। आचार्यश्री आलोचक, सम्पादक, प्रोफेसर थे। छात्राओं में कन्हैया थे और छात्रों में गोपियों के प्रसंग से कक्षा लेते थे। अक्सर वे कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते थे। कई कुलपतियों को भगाने का अनुभव था उनको। ऐसे विकट विरल आचार्य के शानदार कक्ष में ढाई आखर फिल्मों के पर चर्चा चल निकली।
आचार्य बोले।
"आजकल कि फिल्मों को क्या हो गया है। न कहानी, न गीत, न अभिनय।"
"सर इन सब के तालमेल का नाम ही फिल्म है। और मनोरंजन के नाम पर देह-दर्शन ही सब कुछ है।" झपकलाल बोले।
"सर वास्तव में देखा जाये तो या तो अश्लीलता बिकती है या फिर आध्यात्मिकता।"
"तुम ठीक कह रहे हो।"साहित्य में भी यही स्थिति है। अश्लील साहित्य धडल्ले से बिकता है या फिर आध्यात्मिक साहित्य। वैसे भी इहलोक और परलोक दोनों सुधारने का इससे बेहतर रास्ता नहीं है। आचार्य ने अनुशासन दिया।
मगर कुलदीपक कब मानने वाले थे। इधर ओम शान्ति ओम और सांवरिया फिल्मों के प्रोमो और विज्ञापन बजट देख, सुनकर उनके दिमाग में फिल्मी समीक्षा का कीड़ा फिर कुलबुलाने लगा था। बोले पड़े।
"सर कल तक फिल्मों में अमिताभ बिकते थे। आज शाहरूख का जमाना है।"
"यह अफलातून हीरो आज की पीढ़ी का आदर्श है।" झपकलाल बोले।
"मगर देवदास में तो फ्लोप रहा।"
"देवदास की बात कौन करता है। दिलीप कुमार के बाद वैसी एक्टिंग संभव भी नहीं है।" न भूतो न भविष्यति। वो तो ट्रेजेडी किंग था, है और रहेगा। आचार्य ने फिर छौंक लगाया।
आचार्य के ज्ञान के छौंक से दोनों युवा त्रस्त हो गये थे। फिल्मी ज्ञान के मामले में कुलदीपक अपने आपको विश्व प्रसिद्ध समीक्षक समझते थे। मगर इन दिनों उनका फिल्मी समीक्षा का कालम बन्द पड़ा था। फिर भी वे फिल्मों के फटे में अपनी टांग अड़ाया करते थे। शहर में वैसे भी फिल्मों, माँडलों, संगीत, लाफ्टर चैलेज जैसे मनोरंजक कार्यक्रमों में मुफ्त पास के चलते वे अक्सर नजर आते थे। आचार्यजी के पास केवल सैद्धान्तिक ज्ञान था प्रायोगिक कार्य वे पी.एच.डी. की शोध छात्राओं का मार्ग निर्देशन करके करते थे। बोले।
"कभी मधुबाला, बाद में हेमा, माधुरी दीक्षित, मीना कुमारी और श्रीदेवी जैसी हिरोईने थी।"
"मगर आज कल वो बात कहां.........।
अब फिल्मों में आर्ट वर्क नहीं रहा। कल्चर नही रहा। अब तो सब तकनीक का कमाल है।
"जी सर और तकनीक में कम्प्यूटरों के विशेष प्रभावों से मिलकर फिल्म बन जाती है अब फिल्मी गानों की हालत ये है कि एक गायक अपनी लाइन गाकर आ जाता है और दूसरा गायक अपनी सुविधा से बाद में गाकर कम्प्यूटर की मदद से सम्पादक द्वारा गाना पूरा हो जाता है।
और यही स्थिति अभिनय की है। कुलदीपक ने टांका भिड़ाया।
आचार्यजी फिल्मों के शौकीन तो थे, मगर सामाजिकता के कारण घर पर ही सब देख लेते थे। श्रीमती आचार्य वैसे भी उनके व्यवहार और क्रियाकलापों से बहुत दुःखी, परेशान रहती थी, मगर बड़ी होती बच्चियों की खाातिर सब सहन कर जाती थी।
झपकलाल भी बेकार थे और कुलदीपक भी। दोनों आचार्य की सेवा में काम की तलाश में आये थे।
इधर आचार्य जी विश्वविद्यालय की कई कमेटियों के सदस्य थे। हर कमेटी को दुधारू गाय समझते थे। अक्सर अपनी पुस्तक, लेख, कविता, कहानी, नाटक आदि को कोर्स में घुसाने में लगे रहते थे। वैसे भी विश्वविद्यालय में प्रसिद्ध था कि आचार्यजी कक्षा के अलावा सर्वत्र पाये जाते है। कुलदीपक ने बात छेड़ी।
"सर सुना है इस बार आपकी पुस्तक र्कोर्स में लगेगी।"
"तो इसमें क्या खास बात है। पुस्तक अच्छी है। मैरिट में है। प्रकाशक अच्छा है और प्रकाशक ने थैली का मुंह खोल दिया है।"
"लेकिन सर सुना है दूसरा प्रकाशक भांजी मारने को तैयार बैठा है।"
"सब अपनी-अपनी कोशिश करते है। सफलता किसे मिलती है यह भाग्य का नही कुलपति से जान-पहचान का खेल है। वर्तमान कुलपति हमारी जाति का है, हमारे क्षेत्र का है और मेरे उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे है। और वैसे भी सबसे बड़ी रिसर्च यही है कि चांसलर आपको व्यक्तिगत रूप से जानता है या नहीं। पेपर लिखने में क्या रखा है।
"हां सर।"
पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ पण्डित भया न खोय,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पण्डित होय।
सब हो-हो कर हंस पड़े। मगर कुलदीपक का काम अभी हुआ नही था। बोला।
"सर कुछ लिखने-पढ़ने का काम हो तो बताईये।"
"हां है, एक प्रकाशक कुंजी लिखवाना चाहता है, पचास रूपये पेज देगा। मेरे नाम से छप जायेगी।
"आपके नाम से।"
क्यों क्या हुआ। सांप क्यों सूंघ गया।"
"नही सर। लेकिन कुल कितने पेज का काम है।"
"यही कोई तीन सौ पृष्ठ ।"
"अच्छा आपकी दक्षिणा क्या होगी।" झपकलाल ने स्पष्ट पूछ लिया।
"मैं कोई दक्षिणा-दक्षिणा नही लूंगा। स्काच हो तो ठीक है वरना कौन धर्म भ्रष्ट करें।
दोनो समझ गये। सांयकालीन आचमन आचार्यजी के प्रकाशक के कार्यालय में सम्पन्न हुआ। कुंजी लिखी गयी। आचार्यजी के नाम से छपी। कुलदीपक, झपकलाल को प्रकाशक ने पारिश्रमिक दिया। जिसे प्रकाशक ने पुरस्कार कहा और दोनों लेखकों ने मजदूरी। इस मजदूरी की बदौलत कुलदीपक कई दिनों तक मस्त रहे।
अचानक एक रोज मामू आ धमके। मामू पास के गांव में ही रहते थे और कुलदीपक के विवाह चर्चा में अक्सर भाग लेने के लिए बिना टिकट आते-जाते रहते थे। वापसी का इन्तजाम कुलदीपक के जिम्मे था। आज भी मामू ने कहा।
"प्यारे भानजे। तुम्हारी सगई का राष्ट्रीय कार्यक्रम अब सम्पन्न होने ही वाला है। मैंने लड़की के घर वालों से सब बातचीत कर ली है। बस एक अड़चन है।"
"क्या।"
"लड़की विधवा तो है ही, लेने-देने को भी कुछ नही है।"
"अब मामू लेने-देने की बात छोड़ो जमाना कहां से कहां चला गया है। जैसे-तैसे घर बस जाये बस। मां बेचारी कही बहू की शक्ल देखे बिना स्वर्ग नही सिधार जाये।
"मां को स्वर्ग जाने की इजाजत ही तब मिलेगी जब तुम्हारे हाथ पीले हो जायेंगे बच्चू।"
"मामू अब अधिक ना सताओ। हमारा ब्याह कराओ।" कुलदीपक ने लाड़ से कहा। मगर मामू पर इन सबका कोई असर नहीं हुआ।
मामू चुपचाप घर की ओर चल पड़े। मां से बातचीत की। गली-मोहल्ले में दुआ-सलाम की ओर ओसारे में बैठकर मां से बतियाने लगे।
"छुटकी अब समय बदल गया है कुलदीपक का ब्याह उसी छोटी से करना पड़ेगा।"
"तुम उसको छोटी बोलते हो। वह कुलदीपक से उम्र में बड़ी है।"
"उससे क्या फर्क पड़ता है बहना बड़ी बहू बड़ा भाग।"
"लेकिन विधवा भी तो है।"
"वो तो मैंने तुमसे पहले ही कह दिया था।"
"अब जैसा हमारा भाग्य भैया तुम डोल जमाओ।"
"बहना डोल जमाने के लिए कुछ चाहिये।" मां से हजार रूपये खींचकर मामू लौटती रेल से भावी बहू के घर गये। मामला फिट फाट कर वापस आये तो खुश थे।
मगर कुलदीपक के मन में फांस थी। वे मजबूर थे। मजबूत बनना चाहते थे। मां भी खुश न थी । लेकिन सब ठीक-ठाक करनेका ठेका भी मामू के पास नहीं था।
एक रोज अच्छी साइत देखकर मामू, झपकलाल, कुलदीपक और एक-दो बिरादरी वालों के साथ जाकर उस विधवा का उद्धार कर कुलदीपक अपने कस्ब में लौट आये। हनीमून के चक्कर में पड़ने के बजाय वे नून तेल लकडी़ के चक्कर में फंस गये। यथासमय मां बहू का मुंह देखकर स्वर्ग सिधार गई। प्रगतिशील जनवादी कुलदीपक ने सिर मुंडवां कर मां का पूरा विधि विधान से श्राद्ध किया ताकि मां और बाबूजी की आत्मा को एक साथ शान्ति मिले।
शान्ति मिली या नही, यह कुलदीपक नही जान सके।
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कल्लू मोची अपने ठिये पर बैठा था। तथा जबरा कुत्ता चाय की आस लिये पास में कूं-कूं कर रहा था। इसी समय पास की बिल्डिंग में रहने वाली सेठानी अपनी चप्पले ठीक कराने के लिए आई।
कल्लू मोची ने पहले तो सेठानी का मुआईना किया। फिर टूटी चप्पलों को निहारा और हाथ से उसके टूटे हिस्से को झटका दिया। फलस्वरूप चप्पल का तला और टूट गया। सेठानी ने मरम्मत के दाम पूछे।
"कितने लोगे।"
"पांच रूपये लगेंगे।"
एक मामूली सिलाई के पांच रूपये।
"आप इसे मामूली कहती है देखिये। यह कहकर कल्लू ने चप्पल को जोर से मरोड़ा चप्पल चरमरा गई।
"सेठानी बोली ये तुमने क्या किया। मेरी अच्छी भली चप्पल तोड़ दी।"
"अच्छी थी तो मरम्मत के लिए क्यों लाई थी।"
"अरे भाई मामूली काम था, तुमने तो काम ही बढ़ा दिया।"
"अब सेठानी जी कभी-कभी गरीबों को भी बख्क्षो। आज मुझे भी कमा लेने दो।"
"तुम लोगों में यही तो खराबी है। एक दिन में लखपति बनना चाहते हो।"
"आजकल लखपतियों को कौन पूछता है सब खोखापति बनना चाहते है।"
"ये खोखापति क्या है।"
"खोखा याने करोड़पति।"
सेठानी कल्लू के ज्ञान से प्रभावित हुई। मरम्मत कर चप्पल बंगले पर पहुंचाने का हुक्म देकर चली गयी।
कल्लू ने दो चाय मंगवाई। एक झबरे कुत्ते को पिलाई एक खुद पी।
ठीक इसी समय कल्लू के चौराहे पर झपकलाल और कुलदीपक आये। वो आचार्यश्री के व्याख्यान से दुःखी थे। दाम कुछ मिले थे। कुलदीपक ने कल्लू मोची से पूछा।
"और सुनाओ प्यारे शहर के क्या हाल-चाल है।
"शहर की स्थिति दयनीय है। चुनाव हुए है माधुरी चुनाव हार गई है और आजकल अपने स्कूल को काँलेज बनाने के पुण्य कार्य में लगी हुई है।"
"हूँ।" कुलदीपक बोले।
और कुछ। झपकलाल बोले।
"ताजा समाचार ये है कि शहर में गुर्दे बेचने वालों का एक गिरोह पकड़ा गया है। कल के अखबारों में छपेगा। शायद जल्दी ही कुछ लोग जेल में होंगे।"
"यार ये डाँक्टर भी पता नही क्या-क्या करते रहते है। इतने पवित्र पेशे मे ऐसे राक्षस।"
"भैया सबसे बड़ा रूपैया।" कल्लू बोला। झबरे कुत्ते ने कूं....कूं कर सहमति प्रकट की।
वास्तव में मुद्राराक्षस के सामने सब फीके है। हर काम में सुविधा शुल्क हर काम में कमीशन। रिश्वत। डाँली। शगुन। कट। उपहार। भेंट। नकद। कुछ भी बस। मुद्रा का राक्षस सबसे बड़ा है भईया। झपकलाल उवाचे।
कल्लू ने फिर कहा।
"कुछ केवल भोंकते है। कुछ केवल गुर्राते है। कुछ भौंकते भी है और गुर्राते भी है। प्रजातन्त्र में यही सब चलता रहता है। अब इन चप्पलों वाली सेठानी को ही देखो। हर साल छापा पड़ता है मगर गुर्राती रहती है। चप्पलों की मरम्मत के पैसे देने में जान जाती है, वैसे सौ तौला सोना लाद के चलती है। पति अक्सर विदेश जाता रहता है।
"विदेश.........?" कुलदीपक ने पूछा।"
"अरे भाई साहब विदेश मतलब जेल। गैर कानूनी कार्य करेगा टेक्स चोरी करेगा तो विदेश तो जायेगा ही ना और ये लोग विदेश के नाम पर समाज में अपनी कटी नाक बचाने के प्रयास करते है। कल्लू उवाचा।
झबरे कुत्ते को कहीं पर मांस के टुकड़े की गन्ध आई, वो उस दिशा में दौड़ पड़ा। थोड़ी देर बाद वापस आया तो उसके मुंह में एक मांस का टुकड़ा था। वो उसे चगल रहा था। झपकलाल, कुलदीपक, कल्लू मोची सभी चौराहे की सांझ का आनन्द ले रहे थे कि चौपड़ पर कुछ लोगों ने धमाल मचाना शुरू किया। वे किसी भी प्रकार की बदमाशी के लिए तैयार थे, मगर कोई अवसर नही मिल रहा था।
कल्लू मोची अपने ठीये के पास रखी पेटी में अपना सामान समेटकर रख रहा था। जबरे कुत्ते के डिनर में अभी काफी देर थी। वो इधर-उधर टहलने लग गया।
बाजार में रौनक शुरू हो गई थी। कल्लू अपने ठीये से उठा और घर की और चल पड़ा। कुलदीपक और झपकलाल ने ठेले पर खड़े-खड़े ही आचमन का पूर्वाभ्यास किया और चल पड़े।
कुलदीक ने कुंजी लेखन के कार्य को हल्के रूप में नहीं लिया था। वो जानते थे कि एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक को निचोड़ो तो एक-दो कुन्जियां अवश्य निकल आती है। इन कुंजियों की शिंकजी बनाकर पी जा सकती है। यही ज्ञान जब उन्होंने झपकलाल को दिया तो झपकलाल ने भी इस ज्ञान को विस्तारित किया।
अध्यापक को निचोड़ने पर कुंजी निकलती है और पत्रकार को निचोड़ने पर ससुर की पुस्तकों की रायल्टी निकलती है।
"वो कैसे ?"
"वो ऐसे जैसा कि इस कथा में है। हमारे एक पुराने मित्र लेखक थे। लिखते-लिखते मर गये। वास्तव में भूखे मरते-मरते मर गये लेकिन लिखा छोड़ गये। उनकें एक कन्या थी। कन्या ने एक पत्रकार से शादी की। शादी के बाद पत्रकारिता तो चली नही, मगर अनुभव काम आया और ससुर की पुस्तकों के सम्पादक-प्रकाशक- रायल्टी धारक बन गये। बरसों वे यही खेल खेलते रहे। खेल-खेल में उन्होंने लाखोंं बनाये। कन्या यानि पत्नी से पिण्ड छुड़ाया और जीवन के आनन्द लेने लगे।"
"मगर अध्यापक की कुंजी...?"
"अरे बेचारे अध्यापक का क्या है। या तो ट्यशन या कुंजी लेखन। अब कुंजियां तो तुम भी लिख रहे हो। बल्कि घोस्ट बनकर लिख रहे हो।"
"इसमें बुरा क्या है।"
"बुरा कुछ भी नहीं है। लेकिन तुम्हारे नाम से कुछ छपता नहीं।"
"अब क्या करें। वैसे भी रोज हजारों शब्द घोस्ट राइटिंग के नाम से नहीं छप रहे है क्या।"
"और हर भाषा में।"
"हां यह सत्य है।"
"नही, यह अर्धसत्य है।"
"पूर्ण सत्य ये है कि मजबूरी का नाम महात्मा गांधी।"
नहीं, मजूबरी का नाम गान्धिगिरी, चलो गान्धिगिरी करते है।
अब गान्धी का नाम क्यों बदनाम करते हो। चलो रात गहरा गई है।
दोनों एक थड़ी में जाकर आचमन करने लगे।
झबरा कुत्ता भी डिनर में व्यस्त था। आज उसकी कड़ाही में भी खुरचन ज्यादा थी। वो खा पीकर भट्टी की गरमी में सो गया।
रात्रि का दूसरा प्रहर। झबरा कुत्ता सोया पड़ा था। राख ठण्डी हो चुकी थी। चारों तरफ सन्नाटा था। गल्ली-मोहल्लों में शान्ति पसरी पड़ी थी।
मगर कुछ हिस्से आबाद थे। झबरे की नींद खुली। वो भौंका। गुर्राया। खुरखुराया। और एक तरफ दौड़ पड़ा। उसकी आवाज सुनकर पूरे इलाके के कुत्ते भौंकने लगे। गुर्राने लगे। खुरखुराने लगे। इस समवेत कोरस गान को सुनने के बाद सभी कुत्ते हलवाई की दुकान के सामने एकत्रित हो गये। इस सभा के स्थायी सभापति का कार्यभार झबरे कुत्ते ने संभाल लिया। वो बोलना चाहता था। मगर चुप था। दूसरे कुत्ते आपस में फुसफुसा रहे थे मगर जोर से बोलने की हिम्मत किसी की भी नही हो रही थी। कुत्तों के इस हजूम में कुछ कुतियाएं भी थी। वे भी हिनहिना रही थी। कुछ युवा कुत्ते उनकी ओर देखकर आंखों में आंखें में डाल रहे थे। मगर कुत्तियाएं देखकर भी अनजान बनी हुइ थी। वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रही थे। बुजुर्ग कुत्ते उन पर निगाह रखे हुए थे।
जबरे कुत्ते ने आसमान की ओर मुंह करके जोर से दहाड़ मारी, सभी कुत्तों-कुत्तियाओं ने उसका अनुसरण किया।
कुछ कुत्ते इधर-उधर खाने का सामान ढूंढने लगे। धीरे-धीरे झबरा कुत्ता एक ओर खिसक गया। कुत्तों का यह उपवेशन बिना किसी एजेन्डे के, बिना किसी निर्णय के समाप्त हो गया। प्रजातन्त्र में ऐसा होता रहता है। कुत्तों ने सोचा और सुबह होने का इन्तजार करने लगे।मगर सुबह क्या ऐसी आसानी से और इतनी जल्दी होती है। कुत्ते बेचारे इसको क्या समझे, वे तो घूरे पर खाने का सामान ढूंढते रहते है और मौका मिलने पर भौंकनें या गुर्राने या गिड़गिड़ाने का काम करने लग जाते है।
मुर्गो और कुत्तों की यह नियति होती है, बांग दो और घूरे पर मिले दाने खाओ।
***
कल्लू मोची नगरपालिका के कार्यालय में था। जबरा कुत्ता भी उसके साथ था। उसे अपने मरे हुए बाप का मृत्यु प्रमाण-पत्र बनवाना था। मामला पुराना था, मगर कल्लू मोची को न जाने क्यों अपने आप पर विश्वास था कि वो यह काम आसानी से करा लेगा। उसने स्वागतकर्ता से पूछा उसने टका सा जवाब दिया।
"आगे जाओ।"
कल्लू मोची आगे गया। उसे एक बड़े हाल में कुछ अहलकार बैठे दिख गये। वो उनके पास गया एक अहलकार की तरफ देखकर उसने पूछा।
"मृत्यु प्रमाण-पत्र कहाँ बनता है।"
अहलकार ने चश्में के पीछे की आंखंो को सिकोड़ा और कोई जवाब नहीं दिया। कल्लू ने फिर पूछा।
"मृत्यु प्रमाण-पत्र वाले कहां मिलेंगे।"
"मत्यु प्रमाण-पत्र वाला बाबू आज नहीं आया है।"
"तो उनका काम कौन करेगा।"
"कोई नहीं करेगा। सरकार में जिसका काम उसी को साजे बाकी करे तो मूरख बाजे।" बाबू ने चश्मे के पीछे से घूर कर जवाब दिया।
कल्लू दुःखी होकर एक तीसरे बाबू की शरण में गया। कहा ।
"बाबूजी मुझे मेरे मृत बाप का प्रमाण-पत्र बनवाना है।"
"तो बनवाओ न कौन मना करता है।"
"मगर कौन बनाता है?"
"मैं तो नहीं बनाता हूं। मेरा काम जन्म प्रमाण-पत्र बनाना है। मृत्यु प्रमाण-पत्र नहीं।"
"तो मृत्यु प्रमाण-पत्र कौन बनाता है।"
"ये तो लाख टके का सवाल है। वैसे कभी-कभी मैं बना देता हूँ।"
"कब बना देते है आप ?"
"जब सरकार चाहे या अफसर कहे।"
"अफसर कब कहते है।"
"जब ऊपर से दबाब हो या फिर दरख्वास्त पर वजन हो।"
"प्रार्थना-पत्र तो मैं साथ लाया हूं।" "आप इसे लेकर बना दें।"
"क्या बना दूं।"
"मृत्यु प्रमाण पत्र।"
"मगर ये काम मेरा नही है।"
"अच्छा, बाबूजी आप तो मेरा प्रार्थना-पत्र ले ले।"
"प्रार्थना-पत्र अफसर की चिड़िया बैठेगी तभी तो लिया जा सकता है।"
"चिड़िया कब और कैसे बैठती है।"
"वो उस चतुर्थ श्रेणी व्यक्ति से पूछो।"
कल्लू स्टूल पर बैठे चतुर्थ श्रेणी अधिकारी के पास गया। वो खैनी मल कर खा रहा था। पिच्च से थूका और शून्य में देखने लगा। कल्लू ने उससे कहा।
"मुझे दरख्वास्त पर साहब की सही करानी है।"
"तो करा लो न कौन मना करता है।" ये कहकर वो फिर थूकने चला गया।
"मगर साहब तो है नही।"
"इसमें मैं क्या कर सकता हूं ?" चपरासी फिर बोला।
"लेकिन मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र लेना है।"
"अरे तो ये बोलो न।"
"वही तो कह रहा हूं।"
"ऐसा करो तुम बाबूलाल से मिल लो।"
"ये बाबूलाल कौन है।"
"अरे वहीं जो कौने में बैठे हैं।"
"उनसे तो मिल चुका हूं।"
एक बार फिर मिल लो।
कल्लू प्रार्थना-पत्र लेकिर फिर बाबूलाल के पास आ गया। बाबूलाल ने कोई ध्यान नहीं दिया। कल्लू परेशान हो गया। उसने बाबूलाल का ध्यान अपनी ओर खींचने का पूरा प्रयास किया। असफल रहा। बाबूलाल ने पान की पीक छोड़ी। महिला सहकर्मी की ओर देखा। कल्लू का धैर्य जवाब दे रहा था। फिर भी हिम्मत कर कहा।
"बाबूजी मेरा प्रार्थना-पत्र ले लीजिये।"
"मगर तुम तो साहब के पास गये थे न। क्या हुआ।"
"साहब नहीं है।" कल्लू ने मासूम-सा उत्तर दिया।"
"तो मैं क्या कर सकता हूं। बताओं मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं ?"
"आप मुझे मृत्यु प्रमाण पत्र बनवा दे। तहसील में जमा होना है।"
"अच्छा। तहसील के लिए चाहिये। तब तो बहुत मुश्किल है।"
"आप ही कोई रास्ता दिखाईये।" कल्लू ने फिर कहा।
"ऐसा करो तुम सोमवार को आ जाओ। तब तक मृत्यु प्रमाण पत्र वाला बाबू भी छुट्टी से वापस आ जायेगा।"
"लेकिन तब तक मेरा केस ही बिगड़ जायेगा।"
"इसमें तो मैं क्या कर सकता हूं ?"
"बाबूलाल ने यह कहकर फाइल पर नजरें गड़ा दी।"
कल्लू थक हार गया था। उसे सूचना के अधिकार का तो पता था मगर ये मृत्यु प्रमाण पत्र...........। कल्लू ने अन्तिम प्रयास के रूप में कहा।
"बाबूजी कुछ करिये। मेरे बच्चे आपको दुआ देंगे।"
"अरे भाई हमारे भी तो बाल-बच्चे है।"
"बताईये क्या करूं।"
"करना क्या है। इस प्रार्थना पत्र पर चांदी का वजन रखो।"
"कितना।"
"पचास रूपये।"
फिर हो जायेगा।
"हां।"
"लेकिन वो बाबू तो छुट्टी पर है।"
"होगा। सरकार थोड़े ही छुट्टी पर है।"
"अफसर भी नहीं है।"
10
"तुम नेतागिरी तो छांट़ो मत। काम कराना हो तो पचास का नोट इधर करो।" और तीन बजे आकर मृत्यु प्रमाण पत्र ले जाओ।"
कल्लू ने अपने मृत पिता का मृत्यु प्रमाण पत्र उसी रोज तीन बजे पचास रूपये में प्राप्त कर लिया।
सरकार कभी भी छुट्टी पर नहीं रहती और यदि सुविधा शुल्क हो तो अफसर भी लपकर कर कागज निकाल देते है।
कल्लू जब प्रमाण पत्र लेकर वापस आया तो जबरा कुत्ता वहां पर एक टांग ऊंची करके पेशाब की धार मार रहा था।
शाम को ठीये पर कल्लू ने यह सब जानकारी झबरे की मौजदूगी में कुलदीपकजी को दी। कुलदीपकजी ने कहा।
"यार ये सुविधा हमारे यहां ही है। काम कितनी आसानी से हो गया। किसी का अहसान नहीं लेना पड़ा। चांदी का जूता मुंह पर मारने मात्र से काम हो गया। तेरे बाप की आत्मा स्वर्ग में यह सब देख, सुनकर शान्ति से होगी कि उसके बेटे ने मृत्यु प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया है। अब खातेदारी में सफलता मिलकर रहेगी।"
कल्लू कुछ न बोला बस शून्य में ताकता रहा।
प्रिय पाठकों एवं पाठिकाओं, उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर जिस नायकनुमा खलनायक या खलनायकनुमा नायक से आपकी मुलाकात हुई थी और जिसने आगे जाकर अपने उस मामले को रफा-दफा करने की खातिर अपनी महिला मित्र को कार-फोन, फ्लैट और एक अदद पति उपहार में दिया था, वो आजकल बड़ा दुःखी, परेशान और हैरान था। अवसाद में था। पिताश्री चल बसे थे। इसके साथ ही उसका पुलिसिया रोब-दाब भी चल बसा था। बाजार की हालत उसके हिसाब से खराब थी। एक-दो विवादस्पद जमीनों में पूंजी फंस गई थी। ऊपर से उसने अपनी फर्म को प्राइवेट लिमिटेड बना दिया था।
डायरेक्टर के रूप में स्वयं, अपनी पत्नी और एक साले को रख लिया था। उसकी निजि सगी पत्नी एक स्वर्गीय या नरकीय आई.ए.एस. की सन्तान थी। पहले प्यार हुआ फिर विवाह हो गया सो यह एक लव-कम-अरेन्ज मैरिज हो गई। लेकिन मैडम का रोब-दाब एक बड़े आई.सी.एस अफसर की पुत्री जैसा ही था।
सुबह-सुबह ही वह अपने प्रोपर्टी डीलर कम्पनी के एम.डी. कम चैयरमेन पति पर चिल्ला रही थी।
"आखिर ये सब क्या हो रहा है ?"
"कहो। क्या हो रहा है ? कुछ भी तो नहीं। सब ठीक-ठाक तो है।"
"क्या खाक ठीक-ठाक है। तुम घर से बाहर कुछ भी करो। मुझे कोई मतलब नहीं। मगर मेरे घर में मेरी नजरों के सामने यह सब नहीं चलेगा।"
"क्या ? क्या नहीं चलेगा ?"
"वही सब जो तुमने रात को किया।"
"क्यों ! क्या किया।"
"रात भर ताशपत्ती, शराब, जुआं और......बाहर के गेस्टरूम में लड़कियां। ये....ये सब मैं नहीं होने दूंगी।"
"क्यों ? क्यों ? तुम क्या कर लोगी।"
"मैं इस घर की मालकिन हूं। और घर में वहीं होगा जो मैं चाहूंगी।"
"देखो डार्लिंग। ये सब व्यवसाय का हिस्सा है।"
"क्या व्यवसाय का हिस्सा है। मैं भी तो सुनूं।"
"मैडम इट इज ए पार्ट ऑफ दी गेम।"
"व्हाट ? व्हाट इज दी पार्ट ऑफ दी गेम।"
"आई डू नाट एग्री।" आई.ए.एस. पुत्री ने गुस्से में पैर पटकते हुए कहा।
"तुम भी सब जानती और समझती हो।" जिस नई जमीन का सौदा हम कर रहे है, उसे सरकार से नियमित कराने के लिए रात को पार्टी थी। तुम्हारा मूड नही था तो तुम्हें नहीं बुलाया। वैसे भी ऐसी पार्टियों में घरेलू महिलाओ को कोई रोल नही होता है।"
"तो तुम ये सब कर्म-काण्ड बाहर क्यों नहीं करते।"
"बाहर ही करता हूं। इस बार भी बाहर का ही विचार था मगर कमिश्नर अड़ गया, वेन्यू घर पर रखो। क्या करता मेरे करोड़ रूपये अटक गये थे।"
"लेकिन ये सब घर में ही.......बच्चे नहीं है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि तुम बिलकुल बेलगाम हो जाओ।"
"मैं तो बेलगाम नहीं हूँ । मैडम केवल धन्धे के कारण ये सब हुुआ। अब गुस्सा छोड़ो। सब ठीक हो जायेगा।"
"आइन्दा घ्यान रखना। ऐसी लड़कियों को घर लाए तो ठीक नहीं होगा।"
आखिर प्रोपर्टी डीलर ने कान पकड़े, नाक रगड़ी। भविष्य में ऐसा नही करने की कसम खाई तब जाकर मैडम के मूड में उपेक्षित सुधार हुआ।
मौसम ठीक हो गया। अब गरजने-बरसने की कोई संभावना नहीं है, यह देखकर प्रोपर्टी डीलर ने अपना जाल फेंका।
"डार्लिग जो जमीन इस बार ले रहे है वो तुम्हारे पिता के फार्म फाऊस के पास ही है, यदि मम्मीजी भी पार्टनर बन जाये तो पूरी टाउनशिप विकसित हो सकती है यह प्रोजेक्ट पांच सौ करोड़ तक जा सकता है।
"चुप रहो। तुम्हें शरम नहीं आती तुम्हें, मेरे मम्मीजी की जमीन पर आंखें गड़ाते हो। आंखें निकलवा दूंगी।"
"इतना नाराज क्यों होती हो। मम्मीजी से एक बार बात करके तो देखो।"
"मम्मीजी पहले ही भाई को बेदखल कर चुकी है।"
"वो अलग मामला था। तुम्हारा आवारा भाई सब खा-पीकर नष्ट कर देता।"
"मैं इस सम्बन्ध में मम्मीजी से कुछ नहीं कह सकती हूं। तुम खुद बात कर लेना।"
"मैरे मैं इतनी हिम्मत कहां है।"
"क्यों रात को तो कमरे में बहुत हिम्मत दिखा रहे थे। आवाजे बाहर तक आ रही थी।"
"अरे वो दूसरी बात है। वैसी भी ये बाहरी चालू लड़कियो के चोंचलें होते है। उनसे अपना काम निकल गया। पैमेन्ट कर दिया। बस। बात खत्म।"
"तो मैरे से भी काम निकालना है।"
"नहीं मेरी जान। मेरी मलिका। मेरी बहारों की रानी। तुम तो कम्पनी की मालकिन हो। चाहो तो मुझे सजा दे सकती हो।"
"सजा तो तुम काट चुके हो। तुम्हारे घर में ही तो पुलिस ने अवैध हथियार बरामद किये थे। वो तो मेर पापा तब पावर में थे। गृह सचिव थे। सब मामला रफा-दफा करवा दिया। नहीं तो अभी भी संजय दत्त की तरह चक्की फीस रहे होते।"
"अरे मेरी जान, अब माफ भी करो। क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रही हो।"
"उखाड़ने को अब बचा ही क्या है। उस फार्म में जो मर्डर हुआ था उसका क्या।"
"अरे वो तो कभी का रफा-दफा हो गया मैडम।"
"बस तुम ऐसे ही किसी दिन ऐसे फंसोंगे कि निकल नही पाओंगे और मैं तुम्हारे नाम को रोती रहूंगी।"
"नहीं मैडम ऐसा नही होगा। अब हम भाले से बांटियां सेंकते है। कामकाज के लिए कारिंदे है। अक्सर उनके हस्ताक्षरों और मेरे फोन से काम हो जाते है। मेरे अब फंसने के अवसर नहीं है। किस्मत भी मेरे साथ है।"
"अब क्या आदेश है?"
"क्या एक कप चाय मिलेगी।"
"चाय तो नौकरानी भी बना देगी।"
"मुझे तो तुम्हारे हाथों से पीनी है।"
"ठीक है, मगर आज से रात को दस बजे घर आ जाओगे। ये चोंचलें घर से बाहर।"
"जोे आज्ञा मेम साहब।"
"एक कप चाय का सवाल है भाई।"
स्त्री पुरूष सम्बन्धों की हजारों विवेचनाएं की गई है। और की जाती रहेगी। आधुनिक नारी सशक्तिकरण के इस उत्तर आधुनिक काल में नारी जागरण के नित नये आयाम दिखाई दे रहे है। प्रापर्टी डीलर तथा पत्नी संघर्ष का भी यही निष्कर्ष निकलता है कि नारी घी से भरा हुआ घड़ा है और नर जलता हुआ अंगारा। दोनों के संयोग वियोग से पुरूष और प्रकृति दोनों प्रभावित होते है। दोनों का सम्बन्ध अभिन्न, अखण्ड, अनादि, अविस्मरणीय है। नारी पुरूष के जीवन को हर क्षेत्र में सहयोग देती है। भारतीय नारीत्व को गौरवान्वित करती है नारी का सहयोग।
समाज की सारी मान्यताएं, मर्यादाएं, नारी स्वयं में रक्षित करती है और पुरूष को बांधे रखने में सफल होती है। मगर यह खुली अर्थव्यवस्था, विश्व एक गांव की अवधारणा तथा तेजी से कम से कम समय में अधिक से अधिक पैसा कमाने की लालसा आदमी को नीच कर्मो की ओर प्रवृत्त करती हैं।
प्रोपर्टी कम्पनी के एम.डी. के रूप में विशाल ने पूरे शहर में अपना दबदबा कायम कर लिया था। मगर बड़े शहरों से आने वाली नित नई कम्पनियों के सामने उसका ठहरना मुश्किल हो रहा था।
उसकी पत्नी ममता भी यह सब समझती थी, मगर बड़े अफसर की पु़त्री होने के नाते पति को दबा कर रखने के हैसियत थी उसकी। वो चाहती वहीं करती। वह विशाल को एक अति महत्वाकांक्षी घोड़ा समझती थी और इस घोड़े की स्वयं सवारी पूरे एशो आराम के साथ करना चाहती थी। इस मामलें में उसे कोई अन्य भागीदार मंजूर नहीं था। पुराने किस्से उसे भी याद थे। मगर अंगारों की राख उड़ाकर वह स्वयं दग्ध नहीं होना चाहती थी। माननीय स्वभाव के अनुसार उसमें भी उतार-चढ़ाव आते रहते थे।
जिस जमीन पर विशाल ने गिद्ध दृष्टि डाली थी, वो पहले कभी शहर से दूर रिसोर्ट था। मगर शहर के विकास के साथ-साथ रिसोर्ट-फार्महाऊस के रूप में शहर के नजदीक आ गया था। धनी-मानी लोग मौज-शोक के लिए आते थे। चारों तरफ खाली जमीन थी और विशाल एक विशाल टाऊनशिप के सपने देखने लगा था। पांच सौ करोड़ रूपयों की टाऊनशिप.....। एक सपना.......।
जो यदि साकार हो जाये तो उसकी कम्पनी भी टक्कर की कम्पनी बन जाये। मगर सब कुछ इतना आसान नहीं था। ममता के पिताजी की जमीन को हासिल करना ही सबसे टेढी खीर थी। विशाल इन सभी उलझनों में उलझा था। जमीनों के मकड़जाल में एक ओर चीज की जरूरत थी, एक प्रभावशाली राजनेता की। उसे राजनेता तो नहीं मिला मगर माधुरी से उसकी मुलाकात हो गयी। और माधुरी ने उसे नेताजी के बंगले पर चलने का न्यौता दिया।
वास्तव में माधुरी को अपने काँलेज के लिए नई भूमि की तलाश थी, विशाल के पास भूमि थी। टाऊनशिप की योजना थी और क्रियान्वयन के लिए नेताजी की तलाश थी। माधुरी के पास कामचलाऊ राजनैतिक ज्ञान था। नेताजी से दुआ सलाम थी। थोड़ा बहुत पैसा भी था और महत्वाकांक्षी घोड़ो पर सवारी करने में उसे भी मजा आता था। अब उसके पास दो घोड़े थे। विशाल और नेताजी। उसने इन दोनों घोड़ों पर सवारी करने का निश्चय किया। उसने विशाल को नेताजी तक पहुंचाया। नेताजी को हलाल के लिए मुर्गे की तलाश थी। विशाल मोटा-ताजा मुर्गा था। नेताजी के बंगले पर तीनों मिले। विशाल, माधुरी और नेताजी।
विशाल ने अपनी टाउनशिप योजना नेताजी को समझाई। नेताजी ने बात समझने की कोशिश ही नहीं की। वे जानते थे कि इस टाऊनशिप को पूरा कराने में ऊंची राजनैतिक पहुंच की आवश्यकता है और ये विशाल या माधुरी के पास नहीं है। बात यहीं तक होती तो भी ठीक था। विशाल के बारे में उन्होंने अपनी ओर से भी खोजबीन कर ली थी। उन्हें पता चल गया था कि आई.ए.एस ससुराल से उसे कुछ मिलने वाला नहीं है।
माधुरी ने स्पष्ट कहा।
टाऊनशिप में स्कूल, काँलेज या विश्वविद्यालय के लिये जो जमीन आरक्षित होगी वह उसकी होगी। उसके ऐवज में वो विशाल के सरकार में फंसे पड़े काम-काज निपटाने में मदद देगी। विशाल इस बात से केवल आंशिक सहमत था। बोला।
"मैडम टाऊनशिप में केवल स्कूल के लिए जमीन है।"
"वो मैं नही जानती, यदि मेरा निजि विश्वविद्यालय बना तो उसी टाऊनशिप में बनेगा।"
"तो फिर स्कूल नहीं बनेगा।"
"स्कूल तो आवश्यक है, नेताजी ने कहा।"
ऐसा करते है कि स्कूल खोलने के लिए जमीन आरक्षित कर देते है और यदि विश्वविद्यालय का एक्ट बन जायेगा तो स्कूल को ही विश्वविद्यालय का दर्जा दे देंगे। नेताजी ने समझौते के रूप में निर्णय दिया। विशाल और माधुरी सहमत हो गये।
अब मामला नेताजी की हिस्सेदारी पर आकर अटक गया। इस मामला में माधुरी ने पहल की। नेताजी की तरफ से बोली।
"बोलो विशाल। इस विकास योजना में नेताजी का हिस्सा क्या होगा।"
"मुनाफे में दस फीसदी।" विकास ने सोच-समझकर मोल-भाव शुरू किया।
"हिस्सा दे रहे हों या भीख। नेताजी ने गुस्से में कहा।"
विशाल चुप रहा। माधुरी ने बात संभाली।
"सर। आप गुस्सा मत होईये। मुनाफे में पच्चीस प्रतिशत हिस्सेदारी आपकी रहेगी। ये सब कुछ बेनामी रहेगा। आप कहीं भी पिक्चर में नहीं आयेंगे।
"पिक्चर में आने से मैं डरता नहीं हूं।"
"वो तो ठीक है सर। पर..............।" विशाल ने बात जान-बूझकर अधूरी छोड़ दी।
"फिर आपके अगले चुनाव का खर्चा भी विशाल की कम्पनी ही उठायेगी। माधुरी ने ब्रह्मास्त्र फेंका यह टाऊनशिप आपके क्षेत्र में ही होगी।"
"हां ये तो ठीक है।" "नेताजी ने सहमति प्रकट कर दी।"
तो क्या सहमति-पत्र पर हस्ताक्षर कर दें। नेताजी बोले।"
"नेकी और पूछ-पूछ......।" विशाल ने कहा।"
माधुरी ने तीन गिलास भरे।
"चीयर्स।"
नई टाऊनशिप के नाम पर तीनों ने चीयर्स कहा।
माधुरी के मौहल्ले वाले स्कूल कम जूनियर काँलेज के प्रिन्सिपल हांफ्ते हुए माधुरी के बंगले पर प्रकट हुए। शुक्लाजी की सांस फूलती देखकर माधुरी ने उन्हें बैठने को कहा।
"मैडम गजब हो गया।"
"क्यों ? क्यों ? क्या हो गया।"
"एक सवर्ण लड़के ने एक दलित को मार दिया। उसके कपड़े फाड़ दिये। जातिसूचक बातें कही।"
"अच्छा फिर क्या हुआ।"
"दलित छात्र ने पुलिस में रपट लिखा दी। पुलिस आई है मेरे भी बयान लेने को कह रही है।"
"अच्छा और।"
"और ये कि काँलेज में दो गुट बन गये है। एक दलित और दूसरा सवर्ण। कभी भी विस्फोट हो सकता है।"
"तुमने क्या कार्यवाही की।"
"मैं क्या कार्यवाही करता। सीधा-सीधा आपकी सेवामें सूचना देने आ गया हूं।"
"शुक्लाजी आप भी बस........। आपसे तो लक्ष्मी मैडम ठीक है। वो सब संभाल लेती।"
"अब मुझे क्या करना चाहिये।"
आप कुछ मत कीजिये। दोनों छात्रों को मेरे पास भेज दीजिए।
"जो आज्ञा।" शुक्लाजी हांफ्ते-कांपते चले गये। थोड़ी देर बाद दोनों छात्र माधुरी के बंगले पर हाजिर थे।
माधुरी ने दोनों को प्यार से समझाया। बिठाया। नाश्ता कराया। पूछा।
"तुम्हें कौन भड़का रहा है ?"
दोनों छात्र चुप रहे। माधुरी ने फिर दलित से पूछा।
"तुम्हारे साथ क्या हुआ ?"
"इसने मुझे मारा। कपड़े फाड़ दिये। गाली दी।"
"और तुमने क्या किया ?"
"मैं क्या करता पुलिस में चला गया।"
"इससे पहले तुम्हें प्रिन्सिपल से मिलना था। मुझसे मिलते। हम कुछ करते। मगर तुमने मौका ही नहीं दिया।"
लड़का चुप रहा।
"और तुम....स्कूल में पढ़ने आते हो या लड़ाई-झगड़े करने। तुम्हारे कारण हमारी कितनी बदनामी हो रही है।"
सवर्ण भी चुप रहा।
"मैं चाहूं तो तुम दोनों को स्कूल से निकाल बाहर कर दूं। मगर तुम बच्चे हो। तुम दोनों एक-दूसरे से माफी मांगो।" माधुरी ने दोनों को एक-दूसरे से माफी मंगवाई। लिखित में समझौता कराया। प्रिन्सिपल शुक्ला से अग्रेषित करा पुलिस में दिया पुलिस की भेंट पूजा के बाद मामला शान्त हुआ। दलित छात्र की फीस माफ कर दी गई। सवर्ण छात्र के पिता ने स्कूल में डोनेशन दिया। सब कुछ शान्ति से चलने लगा।
माधुरी, विशाल और नेताजी अपनी टाऊनशिप के सिलसिले में राजधानी आये हुए थे। राजधानी में नेताओं के लिए ठीये तय थे। तीनों एक सरकारी डाक बंग्लों में रूके। राजधानी तो राजधानी। यहां की राजनीति के क्या कहने ? बड़े अफसरों के क्या कहने। सचिवालय, पार्टी दफ्तरों की चमाचम। चौड़ी खूबसूरत सड़कें। बड़ी-बड़ी कम्पनियों के बड़े-बड़े दफ्तर। राजधानी की चमक-दमक देखकर माधुरी दंग रह गयी। विशाल ये सब देखता समझता था। उसे अपने काम से मतलब था। पैसा खर्च करना उसे आता था। माधुरी को काम निकलवाना आता था। नेताजी रूपी घोड़े की लगाम माधुरी ने अपने हाथ में ले ली और राजधानी की सड़कों पर तेजी से दौड़ने लगी। राजधानी रात में किसी दुल्हन की तरह लगती थी।
राजधानी आकर ही व्यक्ति को अपनी औकात का पता लगता है। कस्बे की राजनीति और कार्यप्रणाली में तथा राजधानी की राजनीति और कार्यप्रणाली में जमीन-आसमान का अन्तर होता है। व्यक्ति यहां की भीड़ में खो जाता है। आदमी का वजूद खत्म हो जाता है। राजधानी में राजनीति भी बड़ी होती है। बड़ी तेजी से हर कोई कहीं भी भाग रहा है। राजधानी में क्या नहीं है। साड़िया है। सलवार-सूट है। जीन्स है। पेंट है। टाँपलेस बाटम है। बाटमलेस टाप है। यहां पर सूट है। टाई है। जाँकेट है। धोती-कुर्ता है। टोपियां है। विग है। मुखौटे है। खेलापोलमपुर है। कहीं-कहीं पोपाबाई का राज है। राजधानी में बड़ी बातें है। लहरदार बातें। हवाई बातें। राजधानी ही प्रदेश है। यहां पर पत्रकार है। इलेक्ट्रानिक मीडिया है। बार है। बार गर्ल है। राजधानी में हर तरफ दौड़ती भागती जिन्दगी है। हर तरफ हर कोई भाग रहा है। किसी के पास भी टाइम नहीं है। टाइम इज मनी यहीं आकर पता चलता है। यहां प्रेम है। घृणा है। सब कुछ है। षडयंत्र है। सब तुच्छ है। शक्ति है। शक्तिशाली है। पुरूषों के चेहरे रंगे हुए है। कई चेहरों के रंग उड़ गये है। क्योंकि राजनीति में चेहरे के रंग बदलते रहते है। राजधानी में कच्ची बस्तियां है। भव्य अटटालिकाएं है। अलकापुरी से दृश्य है। गरीब,भीख, मांगती जनता है।, मगर राजधानी का दिल बहुत बड़ा है। वो हर एक को पनाह देती है। शरण देती है। सब के लिए कुछ न कुछ जुगाड़ करती है।
राजधानी के अस्पताल क्या कहने। फाइल स्टार, होटलों को मात करते है। राजधानी के काँलेज, स्कूल, विश्वविद्यालय, लगता है पूरी दुनियां में श्रेष्ठ है। विधानसभा भवन जिस पर नजरें नहीं ठहरे।
शानदार माँल, मल्टीप्लेक्सोंं की दुनिया और चौराहे-चौराहे भीख मांगती मानवता। है। राजधानी का उसूल चढ़ते सूरज को सलाम। आने वाले का बोल-बाला। जाने वाले तेरा मुंह काला।
ऐसे ही माहौल में विशाल, माधुरी ओर नेताजी सचिवालय की सीढ़ियां चढ़कर मंत्रीजी के कक्ष तक पहुंचे क्योंकि सचिवालय की एक लिफ्ट खराब थी और दूसरी आरक्षित थी। मंत्री से मिलने से पहले पी.ए. से मिलो। फिर पी.एस. को काम समझाओं। फिर कुछ बात बने। मगर मंत्रीजी ने तुरन्त कह दिया।
"यार कल सुबह बंगले पर आ जाना। अभी तो मंत्रीमण्डल की मिटिंग में जा रहा हूं।"
पहला दिन बेकार ही रहा। यह सोचकर तीनों वापस ठीये पर आ गये।
राजधानी के क्या कहने। राजधानी में राजनीति दूषित। हवा दूषित। पानी दूषित। कोढ़ में खाज ये कि दूषित पेयजल की आपूर्ति से कच्ची बस्ती में सैकड़ों बच्चे, बड़ों और बूढ़ों को उल्टी दस्त हो गये। दो बच्चों की मौत ने हंगाम बरपा कर दिया।
अफसरों अहलकाहरों का दौरा हुआ। विपक्षी दलों ने सरकार के खिलाफ नारे लगाये। जुलूस निकाले। मृत बच्चों की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना सभाएं हुई। ज्यादा उत्साही नवयुवा नेताओं ने पेयजल की आपूर्ति के लिए अपने खजाने खोल दिये। सत्ताधारी पार्टी, नेता अपनी सरकार का कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा होने का जश्न मनाने लगे। इस जश्न की व्यस्तता के चलते सरकार का ध्यान पेयजल, बिजली, स्वास्थ्य जैसी छोटी-मोटी समस्याओं पर नहीं गया।
पेयजल से हुई मौतों पर अखबारों में अलग-अलग बयान छपे। बयानों की सच्चाई का पता लगाने की कोशिश किसी ने भी नहीं की। स्वास्थ्य मंत्री ने मौत का कारण दूषित पेयजल बताया जबकि जलदाय मंत्री ने मृतक का कारण इलाज में लापरवाही बताया। दोनों मंत्री एक ही सरकार में थे, मगर अलग-अलग गुटों में थे, इस कारण राजनीति करने से बाज नहीं आये। विपक्ष के नेता के बयान पर एक सत्ताधारी पक्ष ने स्पष्ट कर दिया कि विपक्ष लाशों की राजनीति कर रहा है। लेकिन विपक्ष ने पीड़ित, दुःखी जनों को, आर्थिक सहायोग देकर जनता की सहानुभूति इसलिए जीत ली कि अगले चुनावों में यह सब सहानुभूति की लहर बनकर उन्हें सत्ता के द्वार तक पहुंचा देगी।
11
सुबह के अखबारों का पारायण करने के बाद माधुरी, विशाल और नेताजी अपने टाऊनशिप के मिशन पर चले। नेताजी जब मंत्रीजी के दरबार में हाजरी लगा रहे थे तो वहां पर दूषित पेयजल की समस्या छाई हुई थी। नेताजी सीधे मंत्रीजी के कक्ष में घुस गये। पीछे-पीछे माधुरी और दबे कदमों से विशाल।
मंत्रीजी ने माधुरी व विशाल के अभिवादन का जवाब देना भी उचित नहीं समझा और नेताजी को लेकर मंत्रणा कक्ष में घुस गये। आधे घंटे की बातचीत के बाद नेताजी ने विशाल और माधुरी को भी अन्दर बुला दिया। विशाल ने स्कीम का प्रेजेन्टेशन शुरू किया मगर नेताजी उन्हें सब समझा चुके थे। अतः बातचीत व्यापारिक स्तर पर शुरू हुई।
"आपकी इस सेजनुमा टाऊनशिप से किसे लाभ होगा।"
"सभी का लाभ है सर। जनता को सस्ते दामों में फ्लैट, कम्पनियों को ऑफिस खोलने की जगह और लोगों को रोजगार मिलेगा।"
"कितने लोगों को।"
"शुरू में दस हजार बाद में यह संख्या बढ़कर पच्चीस हजार तक हो जायेगी।"
"सरकार से क्या चाहते है आप?"
इस पर माधुरी बोली।
"सरकार हमें जो सब्सिडी देगी उसी से हम और ज्यादा विकास करेंगे।"
"बिजली, सड़क, पानी की सुविधाएं कैसी होगी ?"
"वो हम कर लेंगे सर। बिजली और सड़क हम बनायेंगे। पानी की व्यवस्था भी हम ही कर लेंगे। बस सरकार अनुमति दे दे।"
"मैं कोशिश करूंगा। मामला बड़ा है केबिनेट में जायेगा ?"
"सर। आपका आर्शीवाद मिल जाये तो.............।" विशाल बोल पड़ा।
"आर्शीवाद की कीमत क्या है।" मंत्री ने पूछा।
"सर जो आपका आदेश हो।"
"आदेशों की चिन्ता मत करो। इतने आदेश दे दूंगा कि बोलती बन्द हो जायेगी।" नेताजी ने कहा।
"सर आप कहे।"
ठीक है, दस प्रतिशत फ्लैट, दस प्रतिशत विकसित कारपोरेट लैण्ड मेरा होगा।
"सर ये तो बहुत ज्यादा है, हम केवल तीस प्रतिशत जमीन ही काम में लेंगे, बाकी जमीन तो ग्रीन रहेगी।"
"तो तुम तीस के बजाय चालीस प्रतिशत जमीन को काम में लेना। मैं सब ठीक कर लूंगा। ठीक है।"
"हां, सर ठीक है।"
और सुनो कल के सभी अखबारों में एक पूरे पृष्ठ का रंगीन विज्ञापन डाल दो। कल ही बुकिंग भी शुरू कर सकते हो।"
"जी अच्छा।" नेताजी, माधुरी और विशाल सभी ने एक स्वर में खुशी जाहिर की।
मंत्रीजी कक्ष से वापसी में सभी के चेहरे खुश थे। अन्दर मंत्री जी दूषित पेयजल से हुई मौतों पर मीडिया के सामने अफसोस जाहिर कर रहे थे।
मंत्रीजी के बंगले के बाहर ही मिनरल वाटर की बोतलें लेकर माधुरी कार में बैठ गई। विशाल ने कार चलाई और नेताजी ने कार के शीशे चढ़ा दिये। वे वापस कस्बे की और लौट चले।
कस्बा यथावत था। सब कुछ सामान्य।
शुक्लाजी आज घर जल्दी आ गये। श्रीमती शुक्ला याने शुक्लाइन को यह सुविधा थी कि वो मध्यान्तर से पूर्व अपनी कक्षाएँ ले ले और मध्यान्तर के बाद घर आकर गृहस्थी का कामकाज संभाल ले। यह सुविधा शुक्लाजी के प्राचार्य होने के कारण नहीं थी बल्कि माधुरी की कृपा का प्रसाद था या मित्रता का लाभ था। आज के इस अति आधुनिक कलिकाल में मित्रता की परिभाषा ही यहीं थी कि स्वार्थ पूरे हो तो मित्रता और यदि स्वार्थों की पूर्ति में कमी आ जाये तो शत्रुता। माधुरी, शुक्लाईन से अपनी शर्तों पर काम करवा लेती थी। शुक्लाइन ने पति को प्रिन्सिपल स्वयं को स्थायी अध्यापक बनवा लिया था। दोनों हाथ साथ-साथ धुल रहे थे। मौजां ही मौजां।
शुक्लाजी का बच्चा भी अब बड़ा हो गया था। तुतलाकर बोल-बोल कर सबको मोहित कर देता था। शुक्लाईन घर पर बच्चे की आसानी से देखभाल कर लेती थी।
शुक्लाजी ने आते ही कहा।
"राज्य सरकार की तरफ से अपने काँलेज को कम्प्यूटर की निःशुल्क शिक्षा के लिए चुना गया है। मैं चाहता हूं कि अध्यापिका के बजाय तुम कम्प्यूटर लेब का काम संभाल लो।"
"आपके चाहने से क्या होता है ? और फिर मुझे कम्प्यूटर के बारे में कुछ भी मालूम नहीं है।"
"कौन मां के पेट से सीख कर आता है।" "मुझे विश्वास है तुम सब संभाल लोगी।"
"इस विश्वास का कारण।" लक्ष्मी ने अर्थपूर्ण नजरों से देखते हुए कहा।
"विश्वास इसलिए तुम सुन्दर ही नही, होशियार, चतुर, चालाक और इन्टेलिजेंट भी हो।"
"इतने विशेषण एक साथ। क्या बात है आज सब ठीक-ठाक तो है।"
"हां-हां सब ठीक-ठाक है। माधुरी मैडम राजधानी से आ गई है और काँलेज में कम्प्यूटर लेब खोलने के लिए मुझ घर पर बुलाया है।"
"तो चले जाओ।"
तुम भी चलती तो...।" शुक्लाजी ने कहा।
लक्ष्मी ने जान-बूझकर कोई उत्तर नहीं दिया।
शुक्लाजी लक्ष्मी को मना कर अपने साथ माधुरी के यहां ले गये। उन्हें एक साथ देखकर माधुरी बोली।
"कहो भाई। क्या हाल-चाल है ? सब ठीक-ठाक तो है।"
"हां मेम सब ठीक है।"
माधुरी शीघ्र ही कम्प्यूटर साक्षरता कार्यक्रम पर आ गई । बोली।
"भविष्य का युग कम्प्यूटर का युग है। हमें अभी से इस ओर प्रयास करने चाहिये। मैं चाहती हूं कि जब काँलेज विश्वविद्यालय बने तो हम कम्प्यूटर कोर्सेज शुरू कर सके। हमें अभी से पूरी तैयारी से जुट जाना होगा। अब बड़ी-बड़ी कम्पनियां प्रदेश में आयेगी और हमारे यहां के लड़कों को काम पर रखेगी।"
"वो तो ठीक है मैडम मगर कम्प्यूटर के क्षेत्र में मानव-शक्ति का अभाव है।"
"इसलिए तो हमारी दाल गल जायेगी। यदि विशेषज्ञ उपलब्ध हो जायेंगे तो हमें कौन पूछेगा।"
"मेम कम्प्यूटर लेब के लिए एक इन्चार्ज भी चाहिये।"
"वो सब शुक्लाजी आप जाने। नया स्टाँफ रखना अभी सम्भव नहीं है। जो है उनसे ही काम चलाये।"
"फिर आप उचित समझे तो लक्ष्मी को कम्प्यूटर लेब इन्चार्ज बना दे।"
"ठीक है किसी न किसी को तो बनाना ही है। फिर लक्ष्मी को क्यों नहीं।"
"मैडम कुछ कम्प्यूटर भी क्रय करने है।"
"वो सब आप छोड़ो। मैने राजधानी से दस कम्प्यूटर व अन्य सामान मंगवा लिये है। आप कक्षों की व्यवस्था कर दे। और काम शुरू करें।
"जी अच्छा।" शुक्लाजी तो लक्ष्मी के इन्चार्ज बनने मात्र से ही खुश थे। वे ज्यादा बहस नहीं करना चाहते थे। फिर भी बोले।
"मैडम कम्प्यूटर साक्षरता के लिए शायद राज्य सरकार किसी बड़ी कम्पनी से संविदा करेगी और वे ही यहां पर आकर काम देखेंगे।"
"इसलिए तो लक्ष्मी ठीक रहेगी। वो हमारी और से काम देखेंगी।"
"हां-हां ये ठीक रहेगा।"
"और देखो शुक्लाजी मैंने विश्वविद्यालय के लिए जमीन देख ली है।"
"अच्छा। बहुत अच्छा।"
"लेकिन अभी एक्ट बनवाना बहुत मुश्किल है।"
"जब जमीन हो गई तो बाकी के काम भी हो जायेंगे।" लक्ष्मी बोली।
"सब मिलकर ही विकास कर सकते है ये तो खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व है।"
"हम भी बहती गंगा में हाथ धो रहे है बस।" यह कहकर माधुरी ने उन्हें विदा किया।
घर आकर लक्ष्मी और शुक्लाजी ने बच्चे को प्यार किया वे सोच रहे थे विश्वविद्यालय बने तो उसमें भी अपने लिए जगह बना लेंगे।
विश्वविद्यालय की गन्दी राजनीति का वृहद अनुभव उन्होंने अपने शोधकार्य के दौरान कर लिया था और उसका लाभ वे ले सकेंगे। इधर लक्ष्मी लेब इन्चार्ज के बाद डीन बनने के सपने बुनने लग गयी थी। सपनों के संसार में हर किसी को आने की इजाजत नहीं होती, शुक्लाजी को भी नहीं, यहीं सोचकर लक्ष्मी बच्चें को छाती से चिपकाकर सो गई।
शुक्लाजी अध्यापन में ज्यादा रूचि नहीं रखते थे। मगर पढ़ने के शौकीन थे। स्कूल-काँलेज के जमाने से ही विभिन्न पुस्तकों को पढ़ने-संग्रह करने में उन्हेंं आनन्द आता था। घर पर ही छोटी-मोटी लाइब्रेरी थी। सुबह जल्दी उठ जाते तो पढ़ने लग जाते।
आज भी सुबह उनकी आंख जल्दी खुल गयी। इधर-उधर घूमने के बाद वे पुस्तकों की अलमारी के पास आ गये। सीमोन द बोउवार की पुस्तक स्त्री उपेक्षिता खोलकर पढ़ने लग गये।
लक्ष्मी उठी। चाय लेकर आई। सुबह के अखबार आ गये थे। लक्ष्मी ने देखा। शुक्लाजी का मन पुस्तक में है। वो भी स्त्री उपेक्षिता पढ़ चुकी थी। उसे स्त्री हमेशा से ही उपेक्षिता, वंचिता, शोषिता लगी थी। उसकी खुद के बारे में भी ऐसी ही राय थी। वो इस सोच से चाहकर भी बाहर नहीं निकल पाती थी। उसे प्रेम, वासना, प्यार, घृणा, भोग विलास सभी कुछ नापसन्द थे, मगर जिदंगी एक व्यापार है, यदि यह मान लिया जाये तो इस व्यापार में जायज-नाजायज सब करना ही पड़ता है। भोग का हिस्सा है प्यार, या प्यार का व्यापार। ढाई आखर प्यार के और ढाई आखर ही घृणा के...। उसने अपने आप से कहा। बच्चा जगने के लिए कुनमुना रहा था। उसे उसने वापस थपका दिया। बच्चा सो गया।
शुक्लाजी ने मां के प्यार को देखा और महसूस किया। वे सोचने लगे।
प्रेम के बारें में हम क्या जानते है ? प्रेम एक महत्वपूर्ण भावनात्मक घटना हैं। प्रेम को वैज्ञानिक अध्ययन से अलग समझा जाता हैं। कोई भी शब्द इतना नहीं पढ़ा जाता है, जितना प्रेम, प्यार, इश्क, मुहब्बत। हम नहीं जानते कि हम प्रेम कैसे करते है। क्यों करते है। प्रेम एक जटिल विषय हैं। जिसने मनुष्य को आदि काल से प्रभावित किया है। प्रेम और प्रेम प्रसंग मनुष्य कि चिरस्थायी पहेली है। प्रेम जो गली मोहल्लों से लगाकर समाज में तथा गलियों में गूंजता रहता है। प्रेम के स्वरूप और वास्तविक अर्थ के बारें में उलझनें ही उलझनें है। प्रेम मूलतः अज्ञात और अज्ञेय है। प्रेम का यह स्वरूप मानव की समझ से दूर हैै। प्रेम के बारें में कोंई जानकारी नहीं हो पाती है प्रेम पर उपलब्ध सामग्री कथात्मक, मानवतावादी तथा साहित्यिक है या अश्लील है या कामुक है और प्रेम का वर्णन एक आवेशपूर्ण अनुभव के रूप में किया जाता है अधिकांश साहित्य प्रेम कैसे करें? का निरूपण करता है। प्रेम के गंभीर सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अध्ययन के प्रयास देर से शुरू हुए। प्रेम एक आदर्शीकृत आवेश है जो सेक्स की विफलता से विकसित होता है। या फिर सेक्स के बाद प्रेम विकसित होता है। परन्तु सेक्स प्रेम से अलग भी प्रेम होता है प्रेम को शुद्धतः आत्मिक चरित्र भी माना गया है। प्रेम और सेक्स की अलग अलग व्याख्याएं संभव है। परिभाषाएं संभव हें प्रेम एक जटिल मनोग्रन्थि हे। प्रेम एक संकल्प हैं। जिसके अर्थ अलग अलग व्यक्तियों कि लिए अलग अलग हो सकता है। यदि प्रेम का समनवय शरीर से है तो उद्दीपन ही सेक्स जनित प्रेम है, यदि ऐसा नहीं है तो यह एक असंगत प्रेम है।
प्रेम संवेगों का उदगम क्या है? प्रेम भावना क्या है? व्यक्ति के उदगम अलग अलग क्यों होतें है। देहिक ओर रूहानी प्रेम क्या है? प्रेम का प्रारम्भ कहां से होता है और अंत कहां पर होता है। प्रेम में पुरस्कार स्वरूप माथे पर एक चुम्बन दिया जाना काफी होता था, मगर धीरे धीरे शारिरिक किस को महत्व दिया जाने लगा ओर सम्बन्ध बनने लग गये। प्रत्येक मनुष्य में जन्म के समय से ही प्रेम का गुण होता है तथा प्रेम की क्षमता होती है।
प्रेम वास्तव में मनुष्य का वह फोकस है जो सेक्स से कुछ अधिक प्राप्त करना चाहता है। जब किसी के लिए दूसरे की तुष्टि अथवा सुरक्षा उतनी महत्वपूर्ण बन जाती हैं। जितनी स्वयं की तो प्रेम अस्तित्व में आता है। प्रेम का अर्थ अधिकार नहीं समर्पण और पूर्णरूप से स्वीकार करना होता है। दो मनुष्योें के बीच आत्मीयता की अभिव्यक्ति ही प्रेम है। प्रेम से अभिप्राय उस अतः प्रेरणा के संवेगों से होता है जो व्यक्ति के साथ व्यक्तिगत संपर्क से प्राप्त होती है। रोमांटिक प्रेम वास्तव में सामान्य प्रेम की गहन अभिव्यक्ति होता है। जिसमें एन्द्रिय तथा रोमांटिक प्रेम का अस्तित्व हमेशा से ही रहता है।
प्रेम के चार मुख्य घटक संभव है परमार्थ प्रेम, सहचरी प्रेम, सेक्स प्रेम, और रोमांटिक प्रेम। शुक्लाजी ने प्रेम का वर्गीकरण करने का प्रयास किया।
प्रेम उभयमानी होता है वास्तव में प्रेम घनात्मक एवं ़़ऋणात्मक धु्रर्वो की तरह ही होता हैं एक ही मन उर्जा के दो विपरीत घुर्वो की तरह है।
प्रेम के पात्र के साथ तादात्मय स्थापित करना ही प्रेम में सर्वोंच्य लक्ष्य हो जाता है। महिला के लिए प्रेम ही धर्म बन जाता है। संसार में प्रेम के अलावा कुछ भी वास्वविक नहीं है। व्यक्ति प्रेम से कभी भी थकता नहीं है। प्रेम जीवन की प्रमुख अभिव्यक्तियों का श्रोत है। प्रेम ही एक ऐसी चीज है जो सर्वाधिक सार्थक है। प्रेम करने वाला कष्ट ओर विपत्तियों का सामना करता है। ओर प्रेम को वरदान मानता है। सुख का कोई भी श्रोत उतना सच्चा नहीं जितना प्रेम है। प्रेम सहनशील बनाता है। समझदार बनाता है। ओर अच्छा बनाता है। हम अधिक उद्दात्त बन जाते है। शुक्लाजी का सोच आगे बढ़ता रहा।
व्यक्ति का जन्म प्रेम ओर मित्रता करने के लिए होता है। प्रेम के अमूल्य विकास में बाधा डालने वाली प्रत्येक चीज का विरोध किया जाना चाहिये। प्रेम का उन्मुक्त विकास होना चाहिये। अपने रूप को बनाये रखकर दूसरे को ऊर्जान्वित करने को ही प्रेम कहा जाना चाहिये। प्रेम से सुरक्षा की भावना बढ़ती है। प्रेम करने वाले को अपने प्रेम के पात्र के कल्याण ओर विकास में ही दिलचस्पी रहती है। प्रेमकरने वाला अपने साधन अपने पात्र को उपलब्ध कराता है। इससे उसे सुख मिलता है।
प्रेम सबसे सहजता से ओर परिवार की परिधी में उत्पन्न होता है। आगे जाकर पूरी मानवता को इस में शामिल किया जा सकता है। प्रेम का भाव प्रेम के पात्र तक ही सीमित नहीं रहता है। बल्कि प्रेम करने वालें के सुख तथा विकास को भी बढ़ाता है।
प्रेम पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं रहता, प्रेम की गली अति संकरी या में दो ना समाये, ढ़ाई आखर प्रेम का पढ़े सौ पण्डित होय। शुक्लाजी को अपने जीवन की स्मृतियां याद आई। वे फिर सोचने लगे।
प्रेम का रास्ता तलवार की धार पर चलने का रास्ता हैं। विश्व की महान उपलब्ध्यिों के लिए प्रेरणा स्त्री के प्रेम से प्राप्त होती है। कालिदास, नेपोलियन, माइकल फैराडे के जीवन में प्रेम ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। ऐन्द्रिय उल्लास प्रेम का फल होता है। प्रेम व्यक्ति का जीवन हो जाता है, ओर जीविका भी। प्रेम आवश्यक रूप से पसन्द या रूचियों पर निर्भर नहीं करता है। प्रेम अति भाव भी जाग्रत करता है। प्रेम एक ऐसा संवेग है जो आवेग ओर आवेश के बढ़ जाने के बाद बना रहता हैै। प्रेम केवल एक रोमांटिक भावना नहीं है। प्रेम के अधारभूत अनुभव की जड़े व्यक्तियों की आवश्यकताओं में होती है। सूत्र रूप में हम प्रेम की कल्पना एक संवेंगात्मक रूप में कर सकते है। वास्तव में प्रेम वैयक्तिक ओर सामाजिक दोनो प्रकार के कल्याण तथा सुख के लिए आवश्यक है। प्रेम की जटिलता को समझना आसान नहीं होता है। प्रेम के विषमलिंगी व्यक्तियों में अनुराग, लगाव रूचि ओर भावावेश होता है। ओर अन्य व्यक्ति इस क्रिया को अपने ढ़ंग से देखने के लिए स्वतंत्र होता है। शुक्लाजी ने स्त्री-पुरूष सम्बन्धों पर पुनर्विचार किया। प्राचीन भारतीय स्त्री में भी पुरूष की अपेक्षा प्रेम का गुण कहीं अधिक पाया जाता है। प्रेम को उसके अधिक उद्दात्त अर्थ में समझना स्त्री के लिए ही संभव है संपूर्ण प्रेम की और स्त्री का झुकाव ज्यादा पाया जाता है। शरीर गौण हो जाता है। निष्काम प्रेम की कल्पना ही सहज रूप में संभव है।
शुक्लाजी सोचते-सोचते परेशान हो गये।
लक्ष्मी उन्हें विचार मग्न देखकर अपने काम में लग गई। छुट्टी का दिन था। सब कुछ आराम से किया जा सकता है। शुक्लाजी ने उसे अपने पास बिठाया। बोले।
"प्रेम के बारे में तुम क्या सोचती हो?"
"स्त्री बेचारी क्या सोचे। उसे कौन पूछता है। बचपन में बाप की छाया, जवानी में पति की शरण और बुढापे में पुत्र और बाद में नाती-पोते। हर कोई उसे अपना एक खिलोना समझता है या काम करने वाली मशीन या फिर जवानी में बच्चे पैदा करने वाली मशीन बस।"
"लेकिन स्त्री का मन......।" शुक्लाजी ने टोका।
"काहे का मन और काहे की आत्मा। सब कहने की बात है। एक संतान हो तो लड़का चाहिये। चीन की हालत देखो बहुत खुश होकर एक-एक संतान का नारा दिया गया। अब आज...। और हमारे देश में भी एक-या दो-या तीन लड़कियों के बाद भी एक लड़के की इच्छा।"
"लेकिन तुम्हारे तो लड़का है।"
"व्यक्तिगत बातचीत से क्या फायदा। समाज का सोच क्या है?"
"समाज का सोच। हमारे हाथ में नहीं है।"
"फिर पूछते क्यों हो ?"
"देखो ये सब समस्याएं हमारी अकेले की नहीं है।"
"वो तो मैं भी जानती हूं। प्रेम एक व्यापार की तरह है। और इस घोर कलियुग में तो इस हाथ दे उस हाथ ले...।"
"शायद तुम सही हो।"
"लेकिन यह तो वासना का व्यापार है।"
"यही तो त्रासद व्यंग्य है श्रीमान।"
"इस युग में और हर युग में इस व्यापार का अन्तिम सिरा वासना के हाथ में ही रहा है। प्रेम के घटकों को एक साथ कौन समझना चाहता है।"
"और कौन समझ सकता है। प्रेम गली अति सांकडी या में दो ना समाये। प्रेम करना तलवार की धार पर चलना है।"
"नही प्रेम एक व्यापार है और इसे इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिये।" शुक्लाजी ने निर्णायक अंदाज में कहा।
"चलो छोड़ो सुबह खूबसूरत है। नहाने के बाद तुम और भी खूबसूरत लगती हो। तुम किसी अप्सरा की तरह लगती हो।"
"छोड़ो ये चोंचले। मुझे मालूम है जन्नत की हकीकत। यदि विश्वविद्यालय से तुम्हारी प्रिन्सिपली तक की सफलता बयां करने लगूं तो महाभारत के कई सीन हो जाये।"
"लेकिन ये सब इक तरफा तो न था........।"
"सवाल ये नहीं है, सवाल ये है कि क्या ये व्यापार नहीं है, यदि व्यापार है तो प्रेम नहीं है। घृणा नहीं है। विनिमय है, और विनिमय की शर्तें हमेशा से ही कठोर होती है। हमें इन शर्तों को मानना पड़ता है।"
"शर्तें मानने से हमारे सम्बन्धों पर क्या असर होता है।"
"होता है। असर होता है। एक कसक हमेशा कलेजे में रहती है। एक टीस है जो कभी खत्म नहीं होती।"
"लक्ष्मी मानव भी एक जीव है, क्लास मेमेलिया का गया मुख्य चरित्र ही पोलिगेमी है और इससे कोई बच नहीं सकता।"
"न बचे मगर क्या मनुष्य जानवर है ?"
"समाज तो ऐसा नहीं मानता।"
"तब फिर हम ये सब क्यों करते है ? या क्यों करने को मजबूर करते है। इसका जवाब कोई नहीं दे सकता।"
"दे सकता है। हर पीड़ित, शोषित, वंचित को इन बातों का जवाब पता है। प्रेम ही वासना है। वासना ही व्यापार है।"
शुक्लाजी चुपचाप शून्य में देखते रहे। वे चाहकर भी शुक्लाइन से आंखे नहीं मिला सके। शुक्लाईन बच्चे को दूध पिलाने में व्यस्त हो गई। उसे प्रेम का शाश्वस्त स्वरूप वात्सल्य ही लगा। बाकी सब वासना, व्यापार, अश्लीलता। पोलिगेमी आदि। वह स्वर्ग सा सुख पा गई।
शुक्लाजी भी इस वात्सल्य सुख को देख-देख कर अनिर्वचनीय आनन्द की अनुभूति करने लगे।
शुक्लाईन बच्चे के तोतले मुंह से वाणी सुनकर निहाल हो गई। उसने प्यार से बच्चें को चूम लिया। शुक्लाजी ने भी बच्चे के गाल पर स्नेह-चिन्ह का अंकन किया। मगर शुक्लाजी शुक्लाईन से आंखें नहीं मिला पाये। उन्हें जीवन में त्रासद व्यंग्य की फिर अनुभूति हुई।
12
दिल्ली का बहादुरशाह जफर मार्ग। भव्य अट्टालिकाएं। इन भवनों में प्रिंट मीडिया के दफ्तर। इन दफ्तरोंं में बड़े-बड़े सम्पादक। पत्रकार। लेखक। दिल्ली के बुद्धिजीवी। देशभर के बुद्धिजीवी यहां पर चक्कर लगाते रहते है। थोड़ी दूर पर ही दरियागंज, पुरानी दिल्ली। जामामस्जिद। लाल किला। कश्मीरी गेट। दिल्ली के क्या कहने। हर व्यक्ति दिल्ली में बसना चाहता है। हर फूल दिल्लीमुखी। दिल्ली को ही ओढ़ना, बिछाना चाहता है। कनाट प्लेस दिल्ली का दिल। चाणक्यपुरी दिल्ली का राजनयिक परिसर। राष्ट्रपति भवन। प्रधानमंत्री कार्यालय। नार्थ ब्लाक। साउथ ब्लाक। केन्द्रीय सचिवालय। पार्टियों के दफ्तर। पूरे देश की नब्ज पहचानती है दिल्ली। चपरासी की दिल्ली, दिल्ली के चपरासी तक। मंत्री की दिल्ली, दिल्ली के मंत्री तक। साहित्यकार की दिल्ली साहित्य अकादमी। कलाकार की दिल्ली, ललित कला अकादमी। संगीतकार की दिल्ली, संगीत नाटक अकादमी। सब व्यस्त। सब अस्त। सब अस्त-व्यस्त। भागम-भाग। एक के पीछे एक। अब मेट्रो रेल में भागती दिल्ली। मशहूर और मारूफ दिल्ली। कई बार बसी। कई बार उजड़ी दिल्ली। खाण्डवप्रथ से इन्द्रप्रस्थ। अंग्रेजों की दिल्ली। बाहदुशाह जफर की दिल्ली। मेरी आपकी सबकी दिल्ली। दिल्ली दिल है भारत का। कुछ के लिए काला है यह दिल मगर दिल्ली का दिल दरिया है...।
इसी दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर एक नये खुले खबरिया चैनल के दफ्तर में तेजी से अविनाश जा रहा है। उसे इस सीमेंट कंकरीट के जंगल में आदमी का वजूद कहीं नजर नहीं आ रहा था। चारों तरफ लोग कबूतरों की तरह भरे पड़े थे और फ्लैटों में ठुंसे पड़े थे। वो इस भीड़ में था। भीड़ का एक हिस्सा। मगर भीड़ से अलग दिखने के प्रयास में भी लगा हुआ था।
अविनाश अपनी सहयोगी ऋतु से मुखातिब था।
"आज की ताजा खबर।"
"यही की सब ठीक-ठाक है। तुम्हारा न्यूज कैपसूल जारी है।"
"और वो मंत्री के भ्रष्टाचार वाला मामला।"
"आजकल भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार है।"
"लेकिन ये तो बहुत बड़ा मामला है।"
"अविनाश भाई हर मामला बड़ा है और वैसे भी इस मंत्री कोे भ्रष्ट कहना उसका अपमान है। वे तो भ्रष्टों में श्रेष्ठ है। बल्कि श्रेष्ठतम है।" ऋतु ने अपना गुबार निकाला।
अविनाश चुप रहा। बोलने को था ही क्या।
"सुना है सेठजी आजकल कोई नया चैनल लांच करने वाले हैं।"
"हो सकता है, हमें तो अपना काम करना है।"
"हां अपना-अपना काम खत्म करो और घर जाओ वैसे भी इस नई तकनोलोजी में मानव का वजूद ही कहां है। हम सब मशीनें हैं। मशीन की तरह अपना काम करो और यदि एक पुर्जा बेकार है तो उसे बदल दो।"
"सेठजी के नये चैनल में क्या-क्या होगा।"
"शायद पूर्ण रूप से मनोरंजन। विदेशी फिल्में। इसे एडल्ट चैनल कहो तो बेहतर होगा।"
"एडल्ट चैनल।"
ये तो बिल्कुल नया नाम है।
"नया है लेकिन जब छोटे-छोटे कस्बों में ऐसे कार्यक्रम चल रहे है तो एक बड़े चैनल को चलाने में क्या परेशानी है।"
"परेशानी तो जनता या सरकार को होगी।"
"सरकार तो हमारे सेठजी की जेब में रहती है। साल भर बाद चुनाव आने वाले है। चुनावों में आजकल इलेक्ट्रोनिक मीडिया का बड़ा महत्व है।"
"है लेकिन प्रिंट मीडिया की विश्वसनीयता ज्यादा है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया की उम्र बहुत कम है। प्रिंट मीडिया कम से कम चौबीस घन्टे तो जिंदा रहता है। इलेक्ट्रोनिक मीडिया तो बस देखा, दिखाया और खत्म।"
"सुनो। तुम्हें कल का एक किस्सा सुनाती हूं।"
"जरूर। जरा ये काम देख लूं।"
अविनाश ने अपना काम जल्दी खत्म किया। ऋतु ने कहा।
"कल मैं एक काम से एक ऑपरेशन के सिलसिले में एक स्थानीय निकाय के कार्यालय में गई। मैंने अपनी पहचान छुपा कर काम कराने की कोशिश की।" अफसर ने कहा।
"मैडम अभी तो देश की हालत ये है कि यदि महात्मा गांधी भी काम कराने के लिए आये तो बिना लिये-दिये कुछ नहीं होगा।"
अविनाश उस अफसर की बात मुझे छू गई।
"क्या व्यवस्था वास्तव में इतनी बिगड़ी गई है, और क्या हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।"
"शायद तुम ठीक कह रही हो हम एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे है।" अविनाश बोला।
ऋतु अपने काम में व्यस्त हो गई। अविनाश वापस शीघ्र जाना चाहता था।
लगभग हर खबरिया चैनल पर एक जैसा राग अलापा जा रहा था। सब कुछ एक जैसा। सब कुछ व्यवस्था के विरूद्ध लेकिन चैनल के स्वार्थों के अनुकूल।
जिन उद्धेश्यों तथा एथिक्स की कसमें खाई जाती है वो कहां है। कहां है।
अविनाश खुद को कोई जवाब नहीं दे सका।
काश महत्वाकांक्षा की इस अंधी दौड में वो शामिल नहीं होता। मगर इस मकड़जाल में घुसना जितना मुश्किल था, निकलना उससे भी ज्यादा मुश्किल। अन्धेरे में उजाले की एक किरण के रूप में कभी-कभी वो साहित्य की ओर लौटने की सोचता मगर अब बहुत देर हो चुकी थी। अविनाश मनमसोस कर रह गया। इन भव्य भवनों के पीछे की गन्दी जिन्दगी की सड़ान्ध से उसे उबकाई आती। मगर अब तो यह उसका जीवन था क्योंकि घर था। परिवार था। बच्चे थे। आवश्यकताएं थी। किश्तें थी। फ्लेट था। कार थी। और किश्ते देने के लिए जमीर की नहीं खबरों को तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी। उसे याद आया एक प्रसिद्ध चैनल का मुख्य कार्यकारी मर गया तो चैनल ने उसकी मृत्यु का समाचार तक नहीं दिया। एक अन्य चैनल के संवाददाता की पिटाई के दृश्य राजनैतिक दवाब के कारण तुरन्त हटा लिये गये। एक महिला पत्रकार के यौन शौषण के मामले को दबा दिया गया। चैनलों की आपसी स्पर्धा में व्यक्ति का वजूद खो सा गया है।
सेठों, बनियों, उद्योगपतियों, अफसरों, नेताओं और पार्टियों के मीडिया मैनेजरों की आंख का इशारा समझने वाला चैनल और पत्रकार ही जिंदा रह सकता है। वैसे भी एक नेता ने स्पष्ट कहा "मीडिया इज कम्पलीटली मैनेजेबल।" और वास्तव में यही स्थिति है मीडिया ही नहीं सब कुछ मैनेजेबल है। सत्ता, संगठन, सरकार, समाज, पार्टी, सब कुछ। खरीदने की ताकत होनी चाहिये बस।
अविनाश सोच-सोच कर परेशान होता रहा। ऋतु काफी लाई। अविनाश और ऋतु काफी पीने लगे।
"यशोधरा कैसी है ?"
"वो एकदम ठीक है। तुम्हें याद करती है।"
"कभी आऊंगी। फुरसत निकाल कर।"
"बच्चा कैसा है।"
"वो भी एकदम ठीक है। अब तो खड़ा होकर चलने लग गया है।"
"चलो यशोधरा का टाइमपास हो जाता होगा।"
"हां ये तो ठीक है। कभी-कभी सोचता हूं उसने काम-काज छोड़ दिया अच्छा किया।"
"अब अच्छा क्या और बुरा क्या।" ऋतु बोली।
"फिर भी तुम भी तो छोड़ना चाहती हो।"
"इतना आसान है क्या छोड़ना। घर वाले तो सोने के अण्डे देने वाली मुर्गी समझते है मुझे। डालर बहू न सही रूपया बहू तो हूं न मै...।
"हां...हां...क्या बात है।"
चलो कुछ काम करते है।
ये ठण्ड के दिन। ठण्डे, उदास और बासी दिन। इन दिनों सूरज भी अफसर हो जाता है। सुबह देर से आता है और शाम को जल्दी चला जाता है। बादल, हवा, वर्षा, शीत लहर सब एक के बाद एक आते चले जाते है। सर्दी अमीरों की और गर्मी गरीबों की। सर्दी में ओढ़ना, बिछाना भी एक समस्या। खाने-पीने के मजे भी केवल अमीरों के। सरदी के दिन। कब कौन चला जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। ठण्ड के दिन। ताव के दिन। सूरज और धूप को तलाशने के दिन। दिन सरकता है और दिल दरकता है। बड़े-बूढ़े सूरज की धूप के साथ सरकते रहते है। धीरे-धीरे जिन्दगी धूप के बावजूद, ठण्डी, बेजान और बेस्वाद हो जाती है।
ऐसे ही ठण्डे दिनों में अविनाश को आदेश मिला कि कवरेज के लिए राजस्थान के एक गांव में जाना है। वो हवाई यात्रा से जाना चाहता था, मगर अफसोस निकटतम हवाई अड्डा काफी दूर था। सेठजी ने ट्रेन से जाने के आदेश दिये। अविनाश को मानने पड़े। अविनाश ने साथी टीम को भी अपने साथ ही प्रथम ए.सी. में बिठा लिया। इलेक्ट्रोनिक मीडिया के पत्रकार होने के नाते इतना हक तो उनका बनता ही था। वैसे भी टेªेन इस ठण्ड में बिल्कुल खाली थी। ट्रेन एक जगह रूकी। अविनाश ने चाय के लिए बाहर देखा कुछ नहीं सूझा। तभी चाय-चाय की आवाजें लगाता एक वेटर अन्दर ही आ गया। सभी चाय की चुस्कियों में लगे थे कि वेटर ने बताया।
"सर आप लोग मीडिया से है, इसलिए बताता हूं, इस ट्रेन में कुछ गड़बड़ है।"
"क्या गड़बड़ है।"
"वो तो मैं अभी निश्चित रूप से नहीं कह सकता मगर...।" वेटर का वाक्य अधूरा ही रह गया। एक तेज धमाका हुआ। अविनाश के कोच से दूर इन्जन के पास वाले कोच के परखचे उड़ गये थे, अपना राजस्थान का पूर्व निर्धारित काम छोड़कर अविनाश की टीम ने इस धमाके को कवर करना शुरू किया।
वे घटना स्थल पर पहुँचने वाले पहले पत्रकार थे। मोबाइल के जरिये उन्होंने तेजी से सूचनाएं अपने कार्यालय में देनी शुरू की।
ठण्डी रात। अन्धकार के बावजूद अविनाश की टीम ने शानदार काम किया। वे लगातार देश-दुनिया को इस दुर्घटना की जानकारी देने में लगे रहे।
मगर जल्दी ही मीडिया के भारी भरकम लवाजमें आ गये। प्रशासन पुलिस ने सब संभाल लिया। सरकारी मीडिया की सूचनाएं सही मान ली गई। कितने मरे। कितने घायल हुए। इस मामले में अविनाश की टीम के आंकडों को कयास बताया गया। असली आंकड़े छुपाये गये। लाशों को चुपचाप इधर-उधर कर दिया गया। घायलों को जल्दी से जल्दी अस्पतालों से छुट्टी देने के प्रयास किये गये। वे लोग चाहकर भी हकीकत नहीं बता सके। उनकी बतायी बातों को हकीकत से दूर माना गया। कलक्टर ने साफ कहा।
"वहीं दिखाईये जो हम कहते है।"
ए.सी.पी. एक कदम आगे बोले ?
"वही लिखिये जो हम कहते है। हम बोलते है। अपनी मन-मर्जी की बकवास मत छापिये, मत लिखिये, मत दिखाईये।"
"क्या सब कुछ गलत ही है। सही कुछ भी नहीं है।" और ऊंचे अधिकारियों के विचार और भी ऊंचे थे, वे पत्रकारों से बच-बच कर चल रहे थे।
"आखिर इस विस्फोट का कारण क्या था।"
"कारण पता चलते ही सबसे पहले आपको सूचित करेंगे। फिलहाल आप हटिये और हमें हमारा काम करने दीजिये।" एस.पी. बोले।
"हम भी तो हमारा ही काम कर रहे है।" अविनाश ने कहा।
"आपका तो बस एक ही काम है। हमें उलझाना...।"
अविनाश और साथी पत्रकार क्या बोलते। तभी विस्फोट की जिम्मेदारी एक आतंकवादी संगठन ने ले ली। अविनाश ने यह खबर मीडिया को दी।
मगर आतंकवाद के समाचारों के दौरान ही अविनाश को एक ओर समाचार मिला। उसके घर पर भी आतंकी हमला हुआ था। मगर शुक्र है यशोधरा-बच्चा सुरक्षित थे। वो सोचने लगा।
"क्या सब कुछ खतरे में है ? क्या सब कुछ गलत हाथों में है ? क्या कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है ? क्या मानवता यूं ही कराहती रहेंगी ? निर्दोष मारे जाते रहेंगे। क्या यही प्रजातन्त्र, स्वतन्त्रता का असली चेहरा है ?" अविनाश की आंखों के सामने अंधकार छा गया। वो वापस दिल्ली जाना चाहता था। उसने ऋतु से बात की। ऋतु ने आफिस में सब ठीक-ठाक कर उसे और उसकी टीम को वापस बुला लिया। राजस्थान के गांव का कवरेज इस बार नहीं हो सका, अवनिाश को इस बात का दुःख था। मगर दुःखी होने से क्या हो जाता है। अविनाश ने एक माह की छुट्टी मांगी, दस दिन की मिली। वो पत्नी और बच्चे को लेकर वापस अपने कस्बे में लौट आया। शान्ति, सुकून की तलाश में।
अविनाश वापस उस लक-दक शहर में नहीं जाना चाहता था। लक-दक, चमकती नौकरी के अन्दर का अन्धकार उसे वापस जाने से रोक रहा था। वो अपने पुराने प्रिंट मीडिया में आने को आतुर था। इन्टरनेट से भी उसका मोह भंग हो चुका था। मगर प्रिंट मीडिया में नये लड़के-लड़कियों की बहार थी। वो डिग्रीधारी थे। होशियार थे। स्मार्ट थे। व्यवस्था के नट बोल्ट को कसना और ढीला करना जानते थे। अविनाश ने फिलहाल कुछ कालम लिखना शुरू किये। एक फीचर एजेन्सी शुरू की, मगर बात नहीं बनी। उदासी के इस दौर में पत्नी और बच्चें का ही सहारा था।
कोरपोरेट में करप्शन एक बड़ी बीमारी के रूप में उभर कर सामने आ रहा था। निजि क्षेत्र में रोज नई कम्पनियां, रोज नये शेयर, रोज नये बाजार और इन सबके बीच तेजी से उभरता नवधनाढ्य वर्ग, कम्पनियों के पंजीकरण के नये क्षितिज, नये आंकड़े बन गये। शेयर बाजार कहां से कहां पहुंच गया।
इतनी तेजी से बढ़ा शेयर बाजार कि सेन्सेक्स को समझने में ही आम आदमी को परेशानी होने लगी। कोरपोरेट घरानों की यारी-दुश्मनी के किस्से अखबारों में, पत्रिकाओं में तथा इलेक्ट्रोनिक मीडिया में उछलने लगे। इस दाल में कुछ काला है यह मुहावरा पुराना पड़ गया, अब तो दाल ही काली है। कोरपोरेट घरानों में आपसी स्पर्धा, घृणा में बदल गई। हर बड़ी मछली छोटी मछली को निगलने को आतुर। सफलता ही सब कुछ। कुछ बड़े मगरमच्छ जो पुश्तों से कारपोरेट दुनियां पर राज कर रहे थे, पीछे खिसक गये और पहली पीढ़ी के बहुत बड़े नये कारेपोरेट विकसित हो गये। नैतिकता, ईमानदारी, स्वच्छता, जनता के प्रति प्रतिबद्धता आदि शब्दों को हटाकर व्यापारिक लाभ, शुद्ध लाभ, की और ही नजरें गड़ा दी गई।
एक व्यापारिक घराने ने दूसरे घराने में लड़ाई करवा दी। भाईयों में मनमुटाव इतना बढ़ गया कि एक भाई ने दूसरे को बेदखल कर दिया। भाई ने मां का सहारा लिया और हिस्सेदारी के लिए परिवार के गुरू की शरण ली।
अपनी कम्पनी और ज्यादा ऊंची करने के लिए एक व्यापारिक घराने ने दूसरे की फेक्ट्री पर छापा डलवाया। ताले डलवाये। शेयर बाजार से सब शेयर खरीद लिए। दूसरा घराना घबराया नहीं सीधा वित्तमंत्री के पास गया। वित्तमंत्री ने पहले घराने पर आयकर, सर्विसकर, एक्साइज आदि के ऐसे फंदे डलवाये कि घराने की महिलाएं तक जेल हो आई।
वैसे भी वित्तमंत्री का सीधा-सादा जवाब होता है ये सब विदेशी ताकते करवा रही है। आतंकवादयिों का पैसा शेयर बाजार में लग रहा है। हम स्थिति पर नजर रखे हुए है। हम कठोर कार्यवाही करेंगे। नियमों का पालन सख्ती से किया जायेगा। आदि जुमलें हर समय हवा में तथा अखबारों में उछलते रहते हैं।
कारपोरेट घरानों का एक और शौक है तीसरे पेज पर दिखाई देना। इस घटिया मगर आवश्यक कार्य हेतु कारपोरेट घराने अलग-अलग अखबारों व चैनलों के अन्दर अपने आदमी रखते है, उन्हें भुगतान करते है और समय आने पर आवश्यकतानुसार उनका उपयोग प्रचार, प्रसार, प्रसिद्धि के लिए करते है। पेज तीन पर छपने वालेे इन पार्टी समाचारों में चित्र भी अधनंगे ही होते है। अच्छी पार्टी के लिए यही सबसे बड़ी बात होती है कि कितने खरबपति या उनके परिवार वाले इस पार्टी में आये।
ऐसी ही एक पार्टी में रात के तीन बजे एक आलीशान कार में नशे में धुत्त दो युवक आये और पार्टी में शामिल बारटेण्डर लड़की से शराब की मांग की।
"साकी और पिलाओ।"
"सर आप पहले ही ओवर है।"
"ओह। शट आप। तुम्हारी ये हिम्मत। यार जरा इस लड़की की औकात तो देखो। मुझे मना कर रही है...मुझे।"
"सर...आप... समझिये। बार बन्द हो चुका है।"
"बन्द हो...चुका है तो खोल डालो। नहीं तो तुम्हारी खोपड़ी खोल डालूंगा।"
लड़की कुछ कहती तब तक नशे में चूर लड़के के पिस्तोल से गोली चली और लड़की वहीं ढेर हो गई।
पार्टी में भगदड़ मच गई। सब रईसजादे भग गये। कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकले। बड़ा हो-हल्ला मचा। मगर चश्मदीद गवाह गायब हो गये। कोई आगे नहीं आया। पेज तीन पर सन्नाटा छा गया। कारपोरेट घराने चुप हो गये। मगर थोड़े ही दिनों के बाद सब कुछ शान्त। वापस जीवन पटरी पर आ गया। लड़की की हत्या का मुकदमा मंथर गति से चलता रहा।
कारपोरेट घरानों में सफलता के लिए ही होती है ये पार्टियां। शराब, शवाब, बिजनिस डील, बिजनिस लंच, बिजनिस डिनर, बिजनिस नाईट सब कुछ सब बिजनिस।
कारपोरेट घरानों के सम्बन्ध सीधे राजनीति की दुनिया से होते है। राजनीतिक दलों को चंदा, हेलीकाँप्टर, चार्टर हवाई जहाज चाहिये और कारपोरेट घरानों को व्यापार की सुविधा। प्रगतिशील सरकारें तक सेज, उद्योग, फेक्ट्री के नाम पर किसानों की उपजाऊ जमीन इन्हें देकर अपना समय काटती है, समय काटने के लिए कारपोरेट घराने एक दूसरे का गला तक काट देते है। सब कुछ व्यापार के नाम पर। काली लक्ष्मी, सफेद लक्ष्मी। व्यापारे वसति लक्ष्मी। जैसे बेद वाक्यों से चलते है व्यापारिक घरानें।
सब कुछ निकृष्ट ही हो ऐसा नही है। वे समाज सेवा भी करते है तो व्यापारिक दृष्टिकोण के साथ। किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार करके आसपास की जमीन पर कब्जा करना, ऑफिस खोलना, संस्थाएं खोलना आदि।
नई पीढ़ी धनवान तो है ही...कुशल भी बहुत है। बड़ी तेजी से भारत के और स्वयं के नव निर्माण में लगी हुई है। यहां पर रिश्ते भी पैसे के हिसाब से बदलते है। बोर्डरूम में जाने के लिए बेड़रूम में जाना आवश्यक है। कानूने के पचड़े में फंसने पर सेठ किसी उपाध्यक्ष, किसी चेयनमैन, किसी डायरेक्टर, किसी मैनेजर, किसी लेखाधिकारी की गर्दन फंसा देता है, खुद नहीं फंसता।
एक घराने के व्यक्ति को कोर्ट ने सजा दी, मगर सजा काटी, एक गरीब मजूदर ने। हां सेठजी ने उस मजदूर के घर वालों का पूरा ध्यान रखा। बाहर आने पर उसे काम दिया। रूपये दिये। आखिर वो सेठ के बजाय जेल में जो रहा था।
पेज तीन में ग्लेमर, गोली और गाली सब थे। बड़े शहरों की यह बीमारी अब छोटे शहरों, कस्बों में आ गई थी। पार्टी देना-लेना एक सामाजिक आवश्यकता बन गयी थी। सम्बन्ध बनाना और सम्बन्धों को केश करना और जो सम्बन्ध केश नहीं हो सके उन्हें क्रेश कर देना एक उच्चवर्गीय मानासिकता बन गई थी। समाज में सोशलाइट होना सम्मान की बात हो गई थी। सोसाइटी गर्ल, कारपोरेट घरानों की आवश्यकता बन गई थी। वे कुछ नहीं करती मगर सब कुछ करती, उच्च वेतन पर रखी जाती। जनसम्पर्क तथा लाइजनिंग के कार्यों हेतु पेज तीन का महत्व निरन्तर बढ़ रहा था।
अविनाश नये स्थायी काम की तलाश में भटक रहा था। फिलहाल उसने यही काम पकड़ा। पेज तीन की पार्टियों में घुसपैठ बनाना। समाचार बनाना। समाचार बिगाड़ना। फैशन माँडलों के सचित्र समाचारों को लिखना। छपाना। छपे हुए को बड़े लोगों को दिखाना और रोटी चलाना। समाचारों की इस विकट दुनिया में आम आदमी की तलाश लगभग बेकार थी। कभी-कदा किसी ठण्ड से मरते हुए या अस्पताल में इलाज के लिए तड़पते हुए या रैन बसरे में कम्बलों में छुपे हुए गरीब, गुरबों, भिखारियों के समाचार भी लगा दिये जाते। इधर एक नई विधा का विकास हुआ था। बड़े-बड़े चित्र छोटे-छोटे समचार। सचित्र। लड़कियां, महिलाओं के नाचते गाते, गुनगुनाते फोटो। अर्धनग्न हो तो क्या कहने। पत्रकार। उपसम्पादक की बांछे खिल जाती। हर अखबार में चित्र ही चित्र। जो जगह बच जाती उसमें समाचार के नाम पर नवधनाढ्य वर्ग की सूचनाएं।
अविनाश ये सब करने लगा। पक्की नौकरी अखबार में वापस प्राप्त करना मुश्किल काम था। पेज तीन पर राजनेताओं का भी बोलबाला था। उद्योगपतियों का तो साम्राज्य था। कभी-कभी अफसर और अफसरों की पत्नियों, पुत्रियों, प्रेमिकाओं, सालियों, महिला मित्रों के भी दर्शन पाठकों को हो जाते। पाठक धन्य हो जाते।
इस मारामारी में एथिक्स, पत्रकारिता के नैतिक मूल्य, जीवन व समाज की बातें करना बेवकूफी समझी जाने लगी।
कभी-कभी सड़क, पानी, बिजली और स्वास्थ्य की स्थायी समस्याओं पर लिख दिया जाता। पत्रकारों और मालिकों की कई पीढ़ियां, बिजली, पानी और सड़कों पर गढ्ढों के सहारे अपना जीवन-यापन कर रही थी। ये समस्याएं शाश्वत थीं और अविनाश जैसे लोगों के लिए इन पर लिखना भी आवश्यक था। खुद का और समाचार पत्र तथा सेठजी का पेट जो भरना था।
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पेज तीन पर माडल थे। चैनलों में काम करने वाले थे। फैशन था। रेम्प था और स्थानीय चैनलों के एंकर थे। एफ.एम. के जोकी थे, कुल मिलाकर एक ऐसा कोलाज था जिसका कैनवास तो बहुत बड़ा था, मगर रंग फीके थे। विचार नदारद थे। चिन्तन ढूंढ़े नहीं मिलता था। मन्थन की बात करना बेमानी था। अविनाश और उसके जैसे पच्चीसों लोगों की ये मजबूरियां थी। हर शहर की तरह इस शहर में भी धारावारिक बनाने वाले पैदा हो गये थे। ये लोग अपने फार्म हाऊसों पर स्क्रीन टेस्ट के नाम पर स्किनटैस्ट करते। झूठा-सच्चा धारावाहिक बनाते। पैसे के बलबूते पर दूरदर्शन या चैनलों पर प्रसारित करते, कराते। विज्ञापन बटोरते और ये सब सूचनाएं पेज तीन पर डाल देते या डलवा देते।
पिछले दिनों ऐसे ही धारावाहिकों के निर्माता के साथ कुछ दूरदर्शी अधिकारी अदूरदर्शिता के कारण रंगे हाथों पकड़े गये। जेल गये। मगर सत्ता बदलते ही छूट कर और भी ऊंचे अफसर बनकर लौटे।
अविनाश क्या कर सकता था। उसे अपना घर-परिवार चलाना था। एक बार विचार किया अपना अखबार निकालू, मगर खर्चें का हिसाब किताब देखकर चुप लगा गया। सब कपड़े तक बिक जाते और शायद अखबार फिर भी नहीं चलता। उसने कुछ काम भी अन्य नाम से शुरू कर दिये। गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी। इसी बीच उसकी मुलाकात अपने साले कुलदीपक और झपकलाल से हुई। तीनो कल्लू के ठीये पर मिले।
कुलदीपक भी ठाला था। झपकलाल भी ठाला बैठा था। बैठे ढाले अविनाश मिल गया था। कालू के ढीये पर बैठने को कुछ नहीं था, मगर सोचने को बहुत कुछ था। कालू बोला।
"साब हमारे गांव का एक सैनिक शहीद हुआ है।"
"कब।"
पिछली बार जब संसद पर आतंकवादी हमला हुआ था, तब।"
"अच्छा फिर उसके घर वालों को कुछ मिला।"
"कहां साहब। सरकार ने घोषणाएं तो बड़ी-बड़ी की, मगर हुआ कुछ नहीं।"
"क्यों।" अविनाश की पत्रकारिता जागी।
"क्या-क्या बताये साहब। उसकी विधवा बेचारी गांव में स्मारक बनाना चाहती थी। मगर वो भी नहीं हुआ। मूर्ति तो बन गई। लग भी गई। मगर उसके अनावरण के लिए खर्चा कौन दे। मंत्री आयेंगे।"
"तो क्या ग्राम-पंचायत या गांव वाले कुछ नहीं करते।"
"वे बेचारे क्या करें। और क्यों करे। सब कुछ उस विधवा के माथे ही है।"
"ये तो सरासर गलत है।"
"क्या गलत और क्या सही बाबूजी। मगर उसी विधवा को जो पैसे मिले वहीं सब झगड़े की जड़ है। घर के लोग भी उस पर आंखें गड़ाये बैठे हैं।"
"लेकिन पैसा तो उसके खाते में होगा।"
"खाते मेंं होने से क्या होता है। आखिर रहना तो घर में ही पड़ता है।"
"और पेट्रोल पम्प।"
"पेट्रोल पम्प की मत पूछो बाबूजी।"
"क्यों क्या हुआ।"
"वो भी नहीं मिला।"
"क्यों-क्यों नहीं मिला।"
"क्योंकि जमीन नहीं मिली।"
"जमीन क्यों नहीं मिली।"
"अफसरों ने आंवटन नहीं किया।"
"क्यों नहीं किया?"
"क्योंकि रिश्वत नहीं दी गई।"
"तो क्या इस शहीदी काम के लिए भी रिश्वत मांगी जा रही हैं ?"
"हां, भाई हां।" कल्लू ने जल्लाकर जवाब दिया।
"आप लोग इस मामले को उठाते क्यों नहीं।" अविनाश बोल पड़ा।
"क्यों उठाये भाई। सब कुछ कमीशन-कट-रिश्वत का मामला है।" झपकलाल बोल पड़ा।
"और फिर मीडिया खेल बिगाड़ तो सकता है, बना नहीं सकता।" कुलदीपक बोला।
"नहीं ऐसी बात नहीं है। हम सब मिलकर इस मामलें को हाथ में लेते है।"
"क्या करोंगे हाथ में लेकर आतंकी घटना की बरसी के जो विज्ञापन छपे है। " उनमें शहीदों के नाम तक गलत छपे हैं, सरकार ने शुद्धि़करण हेतु विज्ञापन दिये है।
"कैसी सरकार ?"
"कैसी व्यवस्था ?"
"कैसे अफसर ?"
"शहीद-शहीद में फर्क।"
और इन नेताओं-अफसरों के आतंक से कैसे बचे। मगर अविनाश व उसके मित्रों ने हिम्मत नहीं हारी। पूरा मामला राष्ट्रीय स्तर पर मीडिया में उठाया गया।
शहीद की विधवा को न्याय मिला, मगर इस न्याय का उपभोग करने के लिए शहीद के मां-बाप जीवित नहीं रहे, वे यह लड़ाई लड़ते-लड़ते स्वर्गवासी हो गये।
शहीद की मूर्ति का अनावरण मुख्यमंत्री ने किया। सब ताम-झाम, खर्चें सरकारी हो गये। शहीद की विधवा की आंखें भर आई। मुख्यमंत्री ने उसे गले लगाया। उसके बेटे को नौकरी का आश्वासन मिला। मगर नौकरी नहीं मिली।
***
विशाल जो कल तक मामूली प्रोपर्टी डीलर था, आज एक बड़ा विख्यात या कुख्यात बिल्डर हो गया। इस नई टाऊनशिप के लिए उसने जो अलिखित समझौता उच्च स्तर पर किया था उसमें माधुरी का रोल बहुत बड़ा था। स्थानीय नेताओं से लगाकर राजधानी तक उसके रिश्तों की डोर बन्धी हुई थी। विशाल इस डोर के महत्व को समझता था। उसका उपभोग कर रहा था।
माधुरी के स्कूल-काँलेज या निजि विश्वविद्यालय के लिए उसने टाऊनशिप का एक ऐसा भू-भाग चुना जो अपेक्षाकृत हल्का था, जहां पर टाऊनशिप के विकास के लिए उसे कुछ ज्यादा नहीं करना था। मगर माधुरी को यह सब मंजूर न था। उसने विशाल को अपनी शर्तों की याद दिलाई। इधर नेताजी भी माधुरी के साथ थे। टाऊनशिप के कार्य का शुभारंभ हो एतदर्थ विशाल ने सड़क के किनारे से जमीन तक एक बड़ा गेट बना दिया। एक मोर्रम की सड़क बनवाई और बड़े-बड़े होर्डिग लगवा दिये। अखबारों में पूरे पृष्ठों के विज्ञापन दे दिये। बुकिंग शुरू कर दी। शुरूआती दौर में कन्सेशन,फ्री-गिफ्ट, गिफ्ट वाउचर, सस्ती दरें आदि के सब्जबाग दिखाये गये। बड़े-बड़े बैकों से लोन की सुविधाओं के वायदे किये गये और डाउन पेमेन्ट के साथ में भूखण्डों, फ्लैटों, कारपोरेट ऑफिसों, माँलों मल्टी फैक्सों के नाम पर बड़ी-बड़ी राशियां वसूल कर ली गई। मगर अभी तक जमीन का कहीं भी अता पता नहीं था जो गेट लगाये गये थे, उन्हें गांव वाले उखाड़ कर ले गये।
जिन लोगों ने बुकिंग कराई थी, वे पैसे वापस मांगने लगे। कम्पनी ने उनकी साख बचाने के नाम पर रिफण्ड चैक काटने शुरू किये। रिफण्ड में पच्चीस प्रतिशत राशि काट ली गई। लेकिन ये चैक भी बैंकों से अनादरित होकर वापस आ गये। बुकिंग कराने वाले कम्पनी के कार्यालयों में गये। कुछ नहीं हुआ। मामला मीडिया में उछला। मीडिया से पुलिस और कोर्ट में मुकदमें हुए।
विशाल इस सम्पूर्ण घटनाक्रम से घबरा गया। पुलिस कभी भी उस तक पहुुंच सकती थी। वह माधुरी को लेकर नेताजी के पास आया।
"सर। ये तो सब मामला ही गड़बड़ हो रहा है।"
"हां, मैने भी पढ़ा है।"
"अब क्या करें।"
"अरे भाई जब जमीन ही नहीं थी तो ये बुकिंग...शुकिंग क्यों ?"
"सर आपने कहां था सब ठीक हो जायेगा।"
"कहा था लेकिन ये थोड़े ही कहा था कि यदि जमीन किसान की है तो उसे हड़प जाओ। तुमने तो जमीन खरीदी ही नहीं और हड़प जाने की बात करने लगे। किसान नाराज हो गये। अब वे जमीन क्यों देंगे?"
"सर। कोई रास्ता निकालिये।" माधुरी बोली।
"अब तो रास्ता यहीं है कि जो बुकिंग की है उसे लौटाओ।"
"सर मैं...बरबाद हो जाऊंगा।"
"तो मैं क्या कर सकता हूूं।"
"सर आप किसानों की भूमि अवाप्त करवा दे और फिर उसे विकास हेतु हमें दिलवा दे। मंत्री से बात अपनी हो ही चुकी है।"
"ठीक है कुछ करते है।" यह कह कर नेताजी चले गये। माधुरी और विशाल वापस आ गये। विशाल का दफ्तर सीज हो चुका था। मामला पुलिस में था।
***
कड़क सर्दी की कड़कड़ाती रात। कल्लू मोची के ठीये के पास झबरा कुत्ता चारों तरफ से सिमट-सिमटा कर सो रहा था। काफी समय से वो अकेला था। किसी काम में मन नहीं लग रहा था, इधर रोज रात को हलवाई के यहां डिनर पर उसकी मुलाकात एक सफेद कुतिया से होने लगी थी। आज की रात तेज ठण्ड देखकर सफेदी उसके पास ही बैठी रह गई थी। रात बीतती जाती, वे बातें करते जाते। समय धीरे-धीरे खिसकने लगा। रात का दूसरा प्रहर बीता। झबरे कुत्ते की आंखें नींद से बोझिल होने लगी, मगर उसका ध्यान सफेदी की ओर गया। बाल ऐसे जैसे किसी फिल्मी तारिका की त्वचा। आंखों जैसे एक गहरी झील, सुतवा नाक, पतले होठ और जब वो सांस खीचती तो लगता मानों कोई मधुर संगीत बजा है। उसके पांवों की आहट ही झबरे को मदमस्त कर देने को शायद पर्याप्त थी। झबरे से रहा न गया। बोल पड़ा।
"आखिर इस आदमी नामक जानवर को क्या हो गया है?"
"क्यों क्या हुआ।"
"देखती नहीं चारों तरफ कैसी आग लग रही है साम्प्रदायकिता, आतंकवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, हथियारों की तस्कारी, देसी कट्टे, विदेशी राईफलें और...।और इस युवा वर्ग को देखो या तो बेरोजगार है और या फिर पैसे के पीछे पागल होकर भाग रहा है। हर गली, मोहल्ले में डिग्री देने की दुकानें खुल गई है। पैसे जमा कराओ, डिग्री ले जाओ।"
"और फिर उस डिग्री का क्या करें ?" सफेदी ने पूछा।
"कुछ भी करें। हमें, क्या। देने वाले को क्या। वो तो डिग्री बांटते है, ज्ञान थोडें़ ही बांटते है।" झबरा क्रोध में बोल पड़ा।
"मगर ये सब गलत है ?"
हां, गलत है, मगर क्या-हम तुम इसे ठीक कर सकते है ?"
भई हम तो कुत्ते है। हम कैसे ठीक कर सकते है।
"जब आदमी ही कुछ नहीं कर पा रहा है तो हम क्या कर लेंगे?"
"ठण्ड बहुत बढ़ गई है।"
"हां, ये तो है। कहीं रेन बसेरे में चले।"
"रेन बसेरे में हमें कौन घुसने देगा। वहां पहले ही आदमियों की भारी भीड़ है। वहां भी उत्कोच से प्रवेश मिलता है।"
"हमारे पास उत्कोच कहां ?"
"वहीं तो। वहीं तो। हमारी किस्मत में तो यही भट्टी के पास बैठकर रात बिताना लिखा है।"
एक तरफ आहट हुई। आहट की और देखकर झबरा भोंका, सफेदी गुराई। एक पागल सड़क के उस पास से इस पार आ रहा था।
झबरा बोला।
"अरे ये तो वहीं पागल है जो बस स्टेण्ड पर डोलता है। बेचारा ठण्ड में मर जायेगा।"
"मर जायेगा तो हम क्या करें। हम तो खुद ही मर रहे है।"
पागल पास आकर बैठ गया और लुढ़क गया। सफेदी ने उसे सूंघा, झबरे ने भी सूंघा। फिर सूं-सूं करके उसके पास घेरा डाल कर बैठ गये। पागल को कुछ गरमी आई। उसने आंखें खोली। दोनों कुत्तों को देखकर फिर आंखें बन्द कर ली। सफेदी फिर बोली। "रात कट जाये। क्या करें...।"
झबरा मौन। चुपचाप उसे सुनना चाहता था। झबरे ने अपने विचारों को गति दी। उसे चुप देख कर सफेदी बोली।
"क्यों-क्या बात है आज बहुत उदास हो। रात काटे नहीं कर रही है।"
"सर्दी तेज है। ये सर्दी के दिन। उदासी के दिन। ये प्रजातन्त्र के दिन।"
सड़क पर लैम्प पोस्ट पर ट्यूब लपक-झपक कर रही थी। सड़क पर विरानी छाई हुई थी। आसपास अन्धेरा था। झबरे के मन में भी अन्धकार था। सफेदी के दिल में नन्हीं आशा का दीप टिमटिमा रहा था। इसी आशा के साथ वो रात को व्यतीत कर रही थी।
"कहो मन क्या कहता है।"
"मन बेचारा क्या कहे। मन तो उड़ता है।"
"राधा ने उद्धव से कहा था, उद्धव मन नाही, दस बीस एक था जो गया श्याम संग।"
"मेरी कुतिया, दर्शन मत बगार। तू कुतिया है और कुतियों की तरह ही सोच।"
"मै कुतिया हूं लेकिन सोंचने-पढ़ने-लिखने और बोलने की आजादी वाली हूं।"
"ये आजादी...।"
"तुम तो जानते हो। पहली आजादी आई। फिर दूसरी आजादी आई। फिर ये आर्थिक स्वतन्त्रता का दौर...।"
"तो इससे अपने को क्या ?"
"क्यों अपन भी तो आजादी का सुख भोग रहे है।"
"आजादी के सुख-दुःख छोड़ो।"
"आज कुछ गाओ?"
दोनों ने समवेत स्वरों में राग उगेरा। पड़ोस की गलियों से और भी कुत्ते आ गये। सब समवेत स्वरों में गाने लगे। आज का गीत।
रात का गीत।
मन का गीत।
खुशी में उदासी का गीत।
दूर कहीं, कुछ सियार भी हुआं, हुआं करने लगे।
इस समवेत कौरस को सुनकर पागल की नींद उड़ गई। वो चिल्लाया।
"साले कुत्तें कहीं के।"
सफेदी ने जवाब में कहा
"साला आदमी कहीं का।"
"सियार भी चिल्लाया।"
"साला आदमी की औलाद कुत्ता।"
झबरा चिल्लाया।
"आदमी की मां की आंख...।"
कुत्तों की इस क्रांफेस के कारण सड़क पर खड़ी पुलिस पेट्रोलिंग की कार को धक्का मारते पुलिस के जवानों को बड़ा गुस्सा आया। एक ने पत्थर उठाकर कुत्तों पर मारा, मगर दुर्भाग्य से पत्थर कुत्तें को नहीं पागल को लगा। पागल चिल्लाया।
"साले। कुत्ते। साले कुत्ते कहीं के।"
पागल एक और तेजी से भागा।
पुलिसमेन उसका पीछा करता, मगर नींद में ड्राइवर गाफिल था।
पूरब दिशा में धीरे-धीरे भगवान भास्कर के स्वागत में उषा की लालिमा दिखाई देने लगी थी। सफेदी ने प्यार से झबरे के नथुने में अपना नथुना लगाया और आंखें बन्द कर ली।
सफेदी ने आंखें खोली। मिचमिचा कर देखा। सूरज पूर्व दिशा में ऊगना ही चाहता था। झबरा अलसाया सा पड़ा था। पागल कहीं दूर चला गया था। अभी सड़क पर सन्नाटा था। सफेदी को झबरे पर लाड़ आया। धीरे से कूं-कूं करती हुई अपनी कुत्तागिरी से कुत्ती भाषा में उससे पूछने लगी।
"तुम कब से अकेले हो?"
"बस यही कुछ छः मास हुए है। एक कुतिया मेरे साथ रोज रात को डिनर करती थी, नगरपालिका वालों से सहन नहीं हुआ, उसे उठाकर ले गये। भगवान जाने उसके बाद उसका क्या हुआ ?" झबरे ने झबरन रूलाई रोकते हुए कहा।
"ये साले आदमी होते ही ऐसे है और यदि सरकारी साण्ड बन जाये तो कहना ही क्या।" सफेदी ने सहानुभूति जताते हुए कहा।
झबरा कुछ न बोला। बस मौन पड़ा रहा। सफेदी ने फिर पूछा।
"वो कैसी थी?"
"कौन?"
"वो ही पहले वाली।""
"पहले वाली। अच्छी थी। सुन्दर थी।"
"मेरे से भी ज्यादा।"
"अब सुन्दरता का कुत्ता-पैमाना एक जैसा तो होता नहीं है। कुत्तों का सौन्दर्य बोध और सौन्दर्य शास्त्र मैंने पढ़ा नहीं है, लेकिन मेरे मन में उसकी सुन्दरता की याद ताजा है।"
सफेदी कुछ उदास हो गयी। मगर फिर बोल पड़ी।
"जो गया सो तो गया ही। उसके पीछे जीना तो नहीं छोड़ सकते।"
"तुम ठीक कहती हो सफेदी। मैंने जीना नहीं छोड़ा है। जैसे-तैसे जी ही रहा हूं। जीवन है तो हजारों परेशानियां भी है।"
"तुम ठीक कहते हो। परेशानियों का दूसरा नाम ही जीवन है। मृत्यु के बाद कोई परेशानी नही होती है। मृत्यु तो शाश्वत, सत्य, सुन्दर, शान्त, सौम्य और शीतल होती है।"
"तुमने फिर दर्शन बघारा।" झबरा गुर्राया।
सफेदी ने मौन धारण कर लिया।
झबरा बोल पड़ा।
"उसने दो प्यारे-प्यारे छोटे-छोटे बच्चे भी जने थे। उनको दूध पिलाती थी। प्यार करती थी। उनके लिए इधर-उधर से मांस या अण्डे की सफेदी ढूंढ़ कर लाती थी। सब खत्म हो गया। सब कुछ नष्ट हो गया।"
सफेदी ने उसके दुःख में दुःख जताया।"
"लेकिन ताकवर पर किसकी चलती है, नगरपालिका वाले उसे ले गये।"
ये साला आदमी कुत्ते से भी गया बीता है।" सफेदी ने कहा। बात का रूख पलटने के लिए पूछा।
"उसके बाल कैसे थे?"
"सुनहरे।"
"और होंठ?"
"जैसे गुलाब ?"
"और आंखें।"
"जैसे शराब के कटोरे।"
"तुम्हे बहुत पसन्द थी।क्या वो मेरे से भी बहुत ज्यादा अच्छी थी।"
हां अच्छी तो थी। मेरा खूब ख्याल भी रखती थी। झबरे ने एक ठण्डी सांस भरी। सफेदी दूर शून्य में देखती रही।
तभी कल्लू मोची अपने ठिये पर पहुंचा। उसने अपने बक्से को खोला। दुकान सजा ली। दुकान के नाम पर पालिश का सामान। जूतों की मरम्मत का सामान। हथोड़ी, कीले, खुरतालें, पुराने सोल, टायर की चप्पलें, लैसे, एक-दो पुरानी चप्पलें। पुराने जूते। पुराने सैण्डल। कुल मिलाकर यही उसकी पूंजी थी। इसी के सहारे वो दुनियां को जीतने के सपने बुनता था।
उसने पढ़ रखा था कि सपने बुनने से कभी-कभी चादर, शाल, रजाई, अंगोछा आदि बन जाते है। वैसे भी सपने देखना-बुनना इस देश में बिल्कुल निःशुल्क था। सरकार चाहकर भी इन सपनों पर टेक्स नहीं लगा पा रही थी। सरकार का ध्यान आते ही कल्लू को अपने पिता के मृत्यु-प्रमाण-पत्र को प्राप्त करने में जो परेशानी आई थी, उसे सोच-सोचकर उसने झबरे से कहा।
"देखा सरकार को मेरे मरे बाप का प्रमाण-पत्र देने में भी मौत आ गई।"
झबरा क्या जवाब देता। सफेदी कही रोटी, मांस के टुकड़े के लिए भटक रही थी। झबरा चुपचाप बैठा था।
कल्लू ने चाय मंगवाई। हलवाई ने पुराने पैसे का तकादा किया। कल्लू ने मन ही मन हलवाई को गाली दी। प्रकट में बोला।
"सुबह-सुबह क्यों खून पी रहा है। आने दो कोई ग्राहक सबसे पहले तेरा हिसाब...।"
चाय आई। कल्लू ने पी। झबरे ने पी। सफेदी भी आ गई। झबरे के साथ उसने भी पी।
चायोत्सव के बाद झबरा गली में निकल गया। सफेदी धूप सेकनें लगी।
कल्लू सुबह से ही बोहनी की बांट जोह रहा था। मगर धीरे-धीरे सूरज के चढ़ने के साथ ही सड़क और बाजार में चहल-पहल शुरू हो गई थी।
एक-दो पालिश वाले ग्राहक आये। कल्लू ने कहा।
"बाबूजी महंगाई कितनी बढ़ गई। आज से पालिश की भी रेट बढ़ा दी है।"
ग्राहक चिल्लाया।
"क्या महंगाई तेरे लिए ही बढ़ी है। पुरानी रेट पर करता है तो कर।"
"बाबूजी जितना बड़ा जूता होता है उतनी ही ज्यादा पालिश लगती है। आपका जूता भी बड़ा है।"
"अब ज्यादा चिल्ला मत। काम कर।"
कल्लू चुपचाप काम में लग गया।
हलवाई की उधारी चुका दी।
वो मन ही मन जूता और पालिश में सम्बन्ध स्थापित करने लगा। बड़ा जूता ज्यादा पालिश। बड़ा जूता बड़ा आदमी। बड़ा जूता बड़े सम्बन्ध। बड़ा जूता बड़ी खोपड़ी। बड़ा जूता बड़ा पैसा। बड़ा जूता बड़ी लड़ाई। बड़ा जूता बड़ा प्यार। बड़ा जूता बड़ी घृणा। बड़ा जूता बड़ी राजनीति। बड़ा जूता बड़ा पद। बड़ा जूता बड़ा कद। बड़ा जूता बड़ा दुःख। बड़ा जूता बड़ा सुख। बड़ा जूता बड़ी कविता। बड़ा जूता बड़ा साहित्य। बड़ा जूता बड़ी पत्रकारिता। बड़ा जूता बड़ी खबरें। बड़ा जूता सब कुछ बड़ा। बस पालिश छोटी। नालिश बड़ी। बड़ा जूता गरीब का छोटा पेट। आधा भूखा आधा नंगा। बड़ा जूता नपुसंक-नंगा जूता।
उसने बीड़ी सुलगाई और व्यवस्था को एक भद्दी गाली दी।
14
व्यवस्था कैसी भी हो। प्रजातन्त्र हो। राजशाही हो। तानाशाही हो। सैनिक शासन हो। स्वेच्छाचारिता हमेशा स्वतन्त्रता पर हावी हो जाती है। सामान्तवादी संस्कार समाज में समान रूप से उपस्थित रहते है। कामरेड हो या कांग्रेसी कामरेड हो या केसरिया कामरेड या रूसी कामरेड या चीनी कामरेड या स्थानीय कामरेड सब व्यवस्था के सामने बौने हो जाते है। सब व्यवस्था रूपी कामधेनु को दुहने में लग जाते है। राजनीति में किसकी चण्डी में किसका हाथ, हमाम में सब नंगे। हमाम भी नंगा।
स्थानीय नेताजी का भी छोटा, मोटा दरबार उनके दीवान-ए-आम में लगता था। दीवाने-आम के पास ही एक छोटे मंत्रणा कक्ष को जानकार लोग दीवाने-ए, खास बोलते थे। नेताजी इसी मंत्रणा कक्ष में अपने हल्के के फैसले करते थे।
अफसरो, छटभैयों से मिलते थे। दीवान-ए-खास के अन्दर ही एक कक्ष उनकी आरामगाह था। जहां पर प्रवेश वर्जित था। उसमें ऐशो आराम के सब सामान थे। आप कहेंगे ये सामान कहां से आये है। प्रयोगशाला कहां से आती है। तो इसका सीधा सपाट जवाब ये है कि क्यों नहीं आपको एक झापड़ मार दिया जाये ताकि आप और आप जैसे दूसरे लोग इस तरह के सवाल बूझना बन्द कर दे और अपने काम से काम रखे। अरे भाई नेता है तो क्या उनका निजि जीवन नहीं हो सकता और यदि निजि जीवन है तो आप उसमें ताका झाकी करने का क्या अधिकार रखते है। तांक-झांक का काम मीडिया वालों को सौंप दीजिये और निश्ंिचत होकर नेताजी के सामन्ती संस्कारों की पालना में चरण छुइये। पांव लांगी कीजिये। भेंट-पूजा रखिये। यदि याराना है तो एक-आधा धोप-धप्पा खाईये और नेताजी की शान में नित नये कसींदे गढ़कर सुनाईये। हमेशा चारणीय जय-जयकार कीजिये या फिर अपना रास्ता नापिये।
इस वक्त नेताजी शहर के बुद्धिजीवियों, कवियों, पत्रकारों से घिरे बैठे है। बाहर चांदनी छिटकी है और बु़िद्धजीवी बार-बार चिन्तन-मनन कर रहा है। चिन्तकों की सबसे बड़ी बीमारी चिन्तन, मनन, मंथन ही है। कवि की सबसे बड़ी बीमारी कविता है। वो कविता न कर सके, कोई बात नहीं। मगर स्वयं को राजकवि, राष्ट्रकवि, संतकवि, अन्तराष्ट्रीय कवि तो घोषित कर ही सकता है। इसी प्रकार पत्रकार जो है वो स्वयं को नीति-पथ प्रदर्शक समाज की नब्ज पर हाथ रखने वाला समझता है वो अक्सर कहता है।
"नेताजी देश आपसे जानना चाहता है कि....।"
नेताजी तुरन्त सुधार करते है-
"...देश नहीं आपके पाठक...। आपके पाठक देश नहीं है।"
"देश नहीं है लेकिन देश का हिस्सा तो है।" पत्रकार स्वयं को आहत महसूस करते हुए कहते है।
वास्तव में जनता को सभी अन्धों का हाथी समझते है और जनता इन लोगों को सफेद हाथी समझती है। व्यवस्था में कुछ हाथी रंग-रंगीले भी होेते है। कभी-कभी गरीब के घर में भी व्यवस्था का हाथी पूरी साज-सज्जा के साथ घुस जाता है और गरीब बेचारा टापरे के बाहर खड़ा होकर हाथी को टापता रह जाता है।
इस समय नेताजी के कक्ष में उपस्थित बुद्धिजीवी एक-दूसरे को नीचा दिखाने के महान प्रयास में प्रयासरत है। चिन्तक नेताजी को अपनी और खींच रहा था तो कवि नेताजी को कविता के नये सोपानों में उलझाये रखना चाहता था। पत्रकार कल लगने वाली लीड खबर की चिन्ता में मगन था। चिन्तक बोला।
"सर विपक्षी का वक्तव्य तो एकदम लच्र और कमजोर था।"
"हूं।" नेता उवाच।"
दूसरा चिंतक कैसे पीछे रहता।"
"सर ये वक्तत्य तो गैर जिम्मेदाराना था।"
"हूं।" नेता उवाच।"
लेकिन सर आपका स्टेटमेंट मिल जाये तो कल लीड़ लगा दूं। पत्रकार कम सम्पादक कम अखबार मालिक बोल पड़े।
"हूं।" नेता उवाच।
इस हूं...हूं को सुनकर तीनों बुद्धिजीवी थक गये थे। मगर क्या करते।
"देखिये सर।" कवि बोल पड़ा जो स्वयं को राजकवि राष्ट्रकवि और अन्तरराष्ट्रीय कवि समझता था आगे बोला।
"कविता समाज में समरसता पैदा करती है। वो एक बेहतर इंसान बनाती है।"
"ठीक है कवि महाराज मगर ये जो हास्यास्पदरस की कविता, तुम गाते हो उसे आलोचक क्यों नही पहचानते।" सम्पादक बोल पड़े।
कवि को यह अनुचित लगा। मगर सम्पादक से वैर मौल लेने पर कविता का प्रकाशन बन्द हो जाता। सो चुप रहे। वे मन ही मन कविता करने लगे।
"लेकिन कविता से चुनाव नहीं जीता जा सकता। विकास, भारत उदय, इण्डिया शाहिनिंग, चार कदम सूरज की और जैसा चिन्तन चाहिये।"
"इस खण्ड-खण्ड विकास के पाखण्ड पर्व से क्या होता है।" जनता की नब्ज की पहचान जरूरी है। सम्पादक-पत्रकार फिर बोल पडे।
अब नेताजी ने अपना मौन तोड़ा।
"तुम लोग अपना-अपना काम करो। चुनाव की चिन्ता छोड़ो। वो मेरे पर छोड़ो। मैं जानता हूं चुनाव कैसे, कब जीता जा सकता है। चुनाव आयेंगे तो देखेंगे।
चिन्तक कम बुद्धिजीवी, कविकर्म में निष्णात अन्तरराष्ट्रीय कवि और सम्पादक-मालिक-विशेष संवाददाता-पत्रकार सभी ने मंत्री जी की ध्वनि को पत्थर की लकीर मान लिया।
ठीक इसी समय मंच पर सुकवि कुलदीपकजी अवतरित भये। वे जानते थे कि आजकल नेपथ्य में संभावनाएं ज्यादा है और मंच पर कम।
वे आते ही नेताजी के चरणों में लौट गये और बोले...।
"इस बार तो अकादमी पुरस्कार दिलवा दीजिये भगवन।"
नेताजी फिर चुप रहे। राष्ट्रकवि ने क्रोधित नजरों से कुलदीपक को देखा।
सम्पादकजी शून्य में देखने लग गये। चिन्तक ने चिन्ता करना शुरू कर दिया। नेताजी बोले।
"तुम्हें और अकादमी पुरस्कार। बाकी सब मर गये है क्या।"
"मरे तो नहीं, मगर मुझे पुरस्कार मिलते ही मर जायेंगे।"
तो इन हत्याओं का पाप मैं अपने सिर पर क्यों लूं?
"वो इसलिए सर कि इस बार प्राथमिक चयन में मेरी पुस्तक ही आपके हल्के से आई है।
"अकादमी का अध्यक्ष आपके क्षेत्र तथा जाति का है।"
"हां वो तो है, मैनें ही उसे बनवाया है।"
"फिर झगड़ा किस बात का है सर। मुझे केवल पुरस्कार चाहिये। पुरस्कार राशि मैं आपके श्री चरणों में सादर समर्पित कर दूंगा।"
"और निर्णायकों का क्या होगा ?"
"उनके सायंकालीन आचमन की व्यवस्था भी मैं ही कर दूंगा।"
"फिर तुम्हारे पास क्या बचेगा।"
"मुझे पुरस्कार का प्रमाण-पत्र, माला और शाल मिल जायेगी। जो पर्याप्त है। वैसे भी एक बड़े फाउण्डेशन का पुरस्कार कवि तथा निर्णायकों मे बराबर-बराबर बंट गया था।
यह सुनकर राष्ट्रकवि नाराज होकर चले गये। चिन्तक ने मौन साध लिया और नेताजी ने सब तरफ देखकर कुलदीपक की सिफारिश कर दी। समय पर कुलदीपकजी को पुरस्कार मिला। पुरस्कार राशि नेताजी को मिली। अकादमी अध्यक्ष को समय-वृद्धि मिली। चिन्तक अकादमी के सदस्य हो गये। कवि फिर कवियाने लगे। चिड़ियाएं चहकने लगी। कौए गाने लगे और कोयलों ने मौन साध ली।
नेताजी ने अपान वायु का विसर्जन प्राणवायु में किया। प्रातःकालीन समीर ने इसे सहर्ष स्वीकारा। आज नेताजी परम प्रसन्न मुद्रा में अपने दीवाने-आम में खास तरह से विराजे हुए थे, अर्थात् मात्र लुंगी और बनियान की राष्ट्रीय पौशाक में सौफे पर पड़े थे। रात्रिकालीन विभिन्न चर्याओं के कारण वे अभी भी अलसा रहे थे, अपने विश्वस्त नौकर के माध्यम से उन्होंने अपने पुराने, चहेते मालिशिये रामू को बुलवा भेजा था। रामू नेताजी का मुंह लगा मालिशिया था, उसे अपनी औकात का पता था और नेताजी के विभिन्न राजो का भी पता था। नेताजी उसे प्यार भी करते थे, घृणा भी करते थे और उससे डरते भी थे। मगर ये किस्सा बाद में। सर्वप्रथम आप नेताजी के मानस में प्रस्फुटित हो रहे विभिन्न विचारों से दो-चार होईये।
नेताजी को आज जाने क्यों वे पुरानी यादें याद हो आई। अकाल हो तो अकालोत्सव, बाढ़ हो तो बाढ़ोत्सव, भूकम्प आये तो भूकम्पोत्सव, विकास के नाम पर विकासोत्सव, सुनामी आये तो सुनाम्योत्सव। उत्सव ही उत्सव। भूख के नाम पर भूखोत्सव तो रोजाना ही चलता है। कितने मजे है। पिछली बार इलाके में बाढ़ आई तो मुख्यमंत्री के हेलीकोप्टर में वे भी साथ थे। चारों तरफ पानी...सैलाब...पानी और पानी।
भूखी प्यासी गरीब जनता हेलीकोप्टर को निहार रही थी। उन्हें दया आई और कुछ ब्रेड के पैकेटस नीचे गिरा दिये। चील-कोवों की तरह जनता उन पैकेटों पर टूट पड़ी। छीना-छपटी हुई। एकाध कुचला गया। जो पा गये वे घर की और दौड़ पड़े। जिन्हें नहीं मिली वो उनके पीछे दौड़ पड़े। एक ऐसा दृश्य जो उन्हें आनन्दित कर गया। उन्होंने मुख्यमंत्री की और देखा और मुस्करा दिये। बाढ़ में ही वे अपने अफसरों के साथ दौरा करते है। दौरे में भी अनन्त आनन्द आता है। पत्नी, बच्चों की भी पिकनिक हो जाती है। पिछली बार अकाल के दौरान ऐसे ही एक पिकनिक में जानवरों की हड्डियों के ढेर के पास किया गया केम्प फायर डिनर उन्हें अभी भी याद है। इस डिनर की तस्वीरें भी अखबारों में छपी थी। मगर उससे क्या ?
बाढ हो या अकाल या सुनामी, गरीब का चेहरा एक जैसा होता है। सच पूछा जाये तो गरीबी का एक निश्चित आकार, एक निश्चित मुखौटा होता है, जिसे हर गरीब हर समय पहने रहता है। पिछली बार की घटना उन्हें फिर याद आई। वे बाढ़गस्त क्षेत्रों का जमीनी दौरा कर रहे थे।
एक गांव के किनारे एक गरीब विधवा अपनी इकलौती बच्ची के भोजन के लिए अपनी अस्मत का सौदा कर रही थी। वे क्या कर सकते थे। इस देश में लाखों औरतें रोज इसी तरह मर-मर कर जीती है। सच में वे कुछ भी करने में असमर्थ थे। दौरे किये, अफसरों ने टी.ए. बिल बनाये, अनुदान लिये, कमीशन लिया-दिया। बस हो गई अकाल राहत सेवा। बाढ़ पीडित सेवा। सबकुछ-कुछ दिनों में सामान्य हो जाता है। इस गरीब भोली-भाली जनता की स्मरण शक्ति कितनी कमजोर है। उन्होंने सोचा ये लोग शंखपुष्पी या स्मरणशक्ति के लिए दवा क्यों नहीं खाते। सोचते-सोचते नेताजी उनीन्दे से हो गये। ये रामू अभी तक मरा क्यों नहीं।
तभी रामू आया। नेताजी ने उसे आग्नेय नेत्रों से घूरा। रामू सहम गया। चुपचाप अपने काम में लग गया। उसने मालिश का तेल गरम किया। उसमेंं कुछ दिव्य-भव्य औषाधियां मिलाई। नेताजी के लिए एक चादर बिछाई। नेताजी लेटे। उसने नेताजी के पांव-हांथ-छाती-पीठ-सिर-गर्दन-कन्धे-टखने-अंगुलिया आदि पर धीरे-धीरे मालिश शुरू की। गरम तेल से नेताजी को मजा आने लगा। शरीर में कुछ देर स्फूर्ति का संचार होने लगा। नेताजी...रामू...संवाद कुछ इस प्रकार शुरू हुआ।
"नेताजी"- और क्यों बे रामू शहर के क्या हाल है....।
"रामू-शहर की कुछ न पूछो बाबूजी। सब सत्ताधारी पार्टी से खार गये बैठे है। "
नेताजी-क्यो। क्यों ?
रामू-अब का बताये बाबूजी, सर्वत्र अनाचार, अराजकता हो कोई भी काम बिना सुविधा शुल्क के नहीं होता है।
नेताजी-अब काम कराने में शर्म नहीं तो सुविधा शुल्क देने में कैसी शर्म।
रामू-सवाल सुविधा शुल्क का नहीं। उसकी मात्रा और प्रकार का है।
रामू ने जांघों पर तेजी से हाथ मारते हुए कहा। इस तेजी के कारण रामू का हाथ नेताजी के अण्डरवियर में दूर तक चला गया था। नेताजी चिल्लाना चाहते थे, मगर चुप रहे। कुछ देर के मौन के बाद रामू फिर बोला।
"बाबूजी आजकल उत्कोच के बाजार में उत्कोच के नये-नये तरीके विकसित हो गये है।"
नेताजी "वो क्या।"
"बाबूजी उत्कोच भेंट में आजकल केश से ज्यादा काइण्ड चल रहा है। नकदी में फंसने का डर है। अतः उत्कोच में कार्य को सम्पन्न करने वाला, बार गर्ल, शराब, डिनर, डिस्को के टिकट, विदेश यात्रा, मनोरंजन आदि की मांग करता है जैसा काम वैसा दाम।"
नेताजी "वो तो ठीक है। काम के दाम है और गरीबों की बस्ती के क्या हाल है?"
रामू "गरीबों के क्या हाल और क्या चाल। बेचारा झोपड़पट्टी में जन्मता है ओर झोपड़ीपट्टी में ही मर जाता है।"
नेताजी "उसे तो मरना ही है। भूख से नहीं मरेगा तो किसी ट्रक के नीचे आकर मरेगा। ये तो साले पैदा ही मरने के लिए होते है।"
रामू "मरना तो सबको है बाबूजी।" यह कहकर रामू ने सिर की चम्पी शुरू की। नेताजी को मजा आने लगा। रामू की चम्पी के साथ वे भी सिर हिलाने लगे। मालिश का प्रातःकालीन सत्र पूरा हुआ। नेताजी नहाने चले गये।
नेताजी नहा धोकर बाहर निकले तो दीवाने-आम में विशाल और माधुरी को प्रतीक्षारत पाया। आज माधुरी किसी अप्सरा की सी सजी-धजी थी। नेताजी समझ गये आज कोई विशेष समस्या है और समाधान भी विशेष ही करना होगा। माधुरी की मीठी मुस्कान और विशाल के चरण स्पर्श से नेताजी मुलकने लगे। थिरकने लगे।
माधुरी ने चरणों में स्पर्श किया तो नेताजी ने उसकी पीठ पर इस तरह आर्शीवाद स्वरूप हाथ रखा कि अंगुलियां सीधी जा के ब्रा के हुक पर पड़ी। माधुरी ने कटाक्ष किया, मगर नेताजी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। मालिशिये के जाने के बाद यह अवसर नेताजी के लिए आनन्द लेकर आया था।
विशाल बोल पड़ा।
"सर। दफ्तर तो खुल गया है मगर अभी तक बैंक से काम-काज शुरू नहीं हो सका है।"
"वो कैसे होगा, तुमने जो चैक किसानों को दिये थे वे वापस हो गये है।"
विशाल चुप रहा। माधुरी बोली।
"चैक सिकर सकते है यदि जमीन पर कब्जा मिल जाये।"
"कब्जा मिल सकता है, यदि चैक सिकर जाये।" नेताजी ने उसी भाषा में जवाब दिया।
माधुरी चुप रह गई। अभी भी उसकी पीठ में चीटियां रेंग रही थी।
विशाल बोल पड़ा।
"सर कुछ किसान नेताओं को आप सुलटाये। बाकी मैं देख लूंगा।"
"लेकिन उस टाऊनशिप वाली जमीन के पास वाली जमीन जो तुम्हारे ससुराल की है उसका क्या?"
"सर। उस जमीन के मालिकाना हक बेनामी है। सास के पास कागज है, ससुर की मृत्यु के बाद सब कुछ गड़बड़ा गया है।"
"तो उस जमीन को भी इसमें जोड़कर काम शुरू कर दो। काम शुरू होते ही किसान भी अपनी जमीन दे देंगे।"
"लेकिन वे काफी ज्यादा मांग कर रहे हैं।"
"मांग तो आपूर्ति पर आधारित है और तुम जानते हो जमीन का उत्पादन नहीं किया जा सकता। उसे रबर की तरह खींचकर बढ़ाया भी नहीं जा सकता।"
"वो तो ठीक है सर...।" विशाल चुप हो गया।
"ऐसा करो विशाल तुम सास को पार्टनर बनाकर अवाप्त भूमि पर काम शुरू कर दो। सेम्पल फ्लेट बनाओ। फ्लेटों की बुकिंग कर लो। जो पैसा आये उससे किसानों को संतुष्ट करो। मैं भी सरकार में तुम्हारे लिए केबिनेट में लडूंगा।"
"और मेरे विश्वविद्यालय की जमीन का क्या होगा।" माधुरी बोली।
"वो भी मिलेगी। पहले पूरी जमीन तो मिल जाये।"
"सर एक और आईडिया है। काफी वर्षों से शहर की झील का हिस्सा सूखा पड़ा है, इसे रिसोर्ट के रूप में विकसित कराया जा सकता है। मैंने प्रस्तुतिकरण तैयार कर लिया है।"
"लेकिन सरकार इस झील को नहीं देगी।"
"सर आप चाहे तो...।" विशाल बोला।
"झील वैसे भी बेकार पड़ी है, पशु-पक्षी आते है और कुछ देखने वाले बस। वर्षा होती नहीं, झील भरती नहीं। ऐसी स्थिति में झील के एक किनारे पर दीवार बनाकर झील को रिसोर्ट बनाया जा सकता है।"
"मैं तो केवल लीज पर लूंगा। बाकि स्वामित्व तो सरकार का ही रहेगा।"
"बात तो ठीक है मगर ये मीडिया वाले। ये एन.जी.ओ वाले। ये सूचना के अधिकार वाले। सब हाथ-मुंह धोकर हमारे पीछे पड़ जायेंगे।"
"अब इस डर से काम तो बन्द नहीं कर सकते। आप निर्देश दे तो मैं प्रस्तुतीकरण के लिए विकास प्राधिकरण मे बात करूं।"
"ये काम कौन देखता है।"
"कमिश्नर साहब।"
"वो तो ईमानदार है।"
"ईमानदार इतने ही है कि पैसे के खुद हाथ नहीं लगाते। इस रिसोर्ट मैं उनका भी हिस्सा रहेगा।"
"मतलब तुम सब तय कर चुके हो।"
विशाल चुप रहा मगर उसकी आंखों ने सब कुछ धूर्तता के साथ कह दिया। शहर के एक हिस्से में विशाल की टाउनशिप और दूसरे छोर पर रिसोर्ट। पूरब से पश्चिम तक सब मंगल ही मंगल।
नेताजी खुश। माधुरी खुश। विशाल खुश। किसान नेता खुश।
छोटा किसान दुःखी। पक्षी दुःखी। झील दुःखी। पक्षी-प्रेमी दुःखी। इस दुःख में आप भी दुःखी होईये।
***
अविनाश, यशोधरा, कुलदीपक और झपकलाल चारों नव वर्ष की पूर्व संध्या पर कस्बे की झील के किनारे रात्रि में टहलने का उपक्रम कर रहे थे, वे चारों जीवन के अन्धियारे में भटक रहे थे। अविनाश को स्थायी काम की तलाश थी मगर अपनी शर्तों पर। यशोधरा बच्चे के बड़े होने के बाद खाली थी और इस खालीपन को भरने तथा गृहस्थी की गाड़ी को खींचने में मदद देना चाहती थी। मगर गाड़ी थी कि खिंचती ही नहीं थी। मिट्टी की इस गाड़ी को स्वर्णाभूषणों से लादने की तमन्ना थी यशोधराकी। कुलदीपक बापू की मृत्यु के बाद पारिवारिक पेंशन तथा पुश्तेनी मकान के सहारे कविता के मलखम्भ पर चढ़ते उतरते रहते थे। कभी एक पांव चढ़ते तो कोई आलोचक या सम-सामायिक कवि उन्हें नीचे खींच लेता। अक्सर कुलदीपक सोचता कि जो असफल रह जाते है उनका सीधा और बड़ा काम यही रह जाता है कि सफल व्यक्ति की धोती खोले। उसकी लंगोट खोलो। उसकी चड्डी उतारो। उसे ऐसी लंगड़ी-टंगडी मारो कि सीधा नीचे गिरे और यदि ज्यादा ऊंचाई से गिरे तो मजा आ जाये। झपकलाल कस्बे के स्थायी बेरोजगार थे और इस मण्डली में वे एक स्वीकृत विदूषक की हैसियत रखते थे। खाने-कमाने की चिन्ता उन्होंने कभी नहीं की क्योंकि कछ करने में धीरे-धीरे पास होने के बजाय फेल होने का खतरा ज्यादा था।
झील शान्त थी। कस्बों में दूर नववर्ष की धिगांमस्ती चहक रही थी। कस्बें में बारों में, होटलों में, रिर्सोटों में, फार्म हाऊसों में और ऐसे तमाम स्थानों पर वह सब हो रहा था, जिसके लिए नया साल कुख्यात या विख्यात था। इन चारों के पास साधनों का अभाव था। अतः झील के किनारे बैठकर नववर्ष का स्वागत करना चाहते थे, मगर नववर्ष को इनकी चिन्ता नहीं थी, वो अपनी गति से चपला लक्ष्मी की तरह भागा जा रहा था।
यशोधरा बोल पड़ी।
"देखो नई पीढ़ी कहां से कहां जा रही है ? हमारी संस्कृति। हमारी सभ्यता। हामरी परम्परा। हमारे सामाजिक सरोकार।"
"ये सब बेकार की बातें है। संस्कृति को ओढ़ो, बिछाओं। परम्पराओं का ढोल मत पीटो। कुलदीपक बोला।"
"मगर क्या हम भी अपने जीवन को ऐसे ही नहीं जी सकते या नहीं जीना चाहते।" झपकलाल बोला।
"चाहने से क्या होता है ? मनुष्य बहुत कुछ चाहता है, मगर ईश्वर कुछ और चाहता है।" अविनाश बोले।
"ईश्वर को बीच में क्यों पटकते हो ? वो तो सभी का भला चाहता है।" यशोधरा बोली।
"अगर ईश्वर सभी का भला चाहता है तो हमने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है।" झपकलाल बोल पड़ा।
"सवाल ये नहीं कि आपने ईश्वर का क्या बिगाड़ा है। सवाल ये कि आप स्वयं अपने लिए क्या कर रहे है ? समाज के लिए क्या करे हैं ? देश के लिए क्या कर रहे है? अविनाश उवाचा।
"अब यार, ये आदर्श और प्रवचन तो तुम रहने ही दो।" उपदेश के तथा आदर्शों के लिए इस देश में इतने भगवान, साधु, सन्त, महात्मा, योगाचार्यजी, ऋषि, मुनि है कि अब और ज्यादा आवश्यकता नहीं है।" यशोधरा बोल पड़ी।
और इतने लोगो के बावजूद भी समाज में भय, आतंक, डर, बदमाशियां बढ़ती ही जा रही है। रूकने का नाम ही नहीं लेती। इनमें जातिवाद, साम्प्रदायिकता और कट्टरवाद के जहर और मिला दो। झपकलाल ने जोड़ा।
"इतने भगवान। मगर शान्ति नहीं । है भगवान, कितने भगवान।" अविनाश बोला।
झील में कहीं से एक कंकड़ गिरा। लंहरे उठी। एक जलपक्षी चीखता हुआ उड़ गया। रात गहरा रही थी। बच्चा यशोधरा के कंधे पर ही सो गया था।
वे चारों झील के किनारे बनी बेंच पर बैठ गये। बातचीत मुड़कर राजनीति की तरफ आ गयी।
"साठ वर्षों के प्रजातन्त्र ने हमें क्या दिया।"
"लेकिन प्रजातन्त्र ने आपसे लिया भी क्या?"
"हर तरफ असुरक्षा, आतंक, अविश्वास, आर्थिक साम्राज्यवाद आदि का बोलबाला।" ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार।
"ठीक है सब, मगर आलोचना का यह अधिकार भी तो प्रजातन्त्र की ही देन है। यदि प्रजातन्त्र नहीं होता तो क्या हमें बोलने, लिखने और पढ़ने की आजादी होती।" कुलदीपक बोला।
"स्वतन्त्रता का मतलब स्वच्छन्दता तो नही होता है।" अविनाश फिर बोला।
"प्यारे ये क्रान्ति भूखे पेट ही अच्छी लगती है। जब तुम्हारा पेट भरा हो तो उबकाई आती है, उल्टी होती है। व्यवस्था पर वमन करते हो और शत्तुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपा कर तूफान के गुजर जाने का इन्तजार करते हो।
15
कोई कुछ नहीं बोला।
सन्नाटा बोलता रहा।
झिगुंर बोलते रहे।
मकड़ियों ने संगीत के सुर छेड़े।
रात थोड़े और गहराई।
यशोधरा बोली।
"आज मेरी काम वाली ने बताया कि कल और परसों की छुट्टी करेंगी। जब पूछा क्यों तो बताया नया साल है, मैं...मेरे मां-बाप और भाई-बहन सब नया साल मनायेंगे। छुट्टी लेंगे। शहर घूमेंगे, बाहर खाना खायेंगे। और लगातार दो दिन यही करेंगे।"
"तो इसमें नया क्या है।" झपकलाल बोला।
"उन्हें भी अपना जीवन जीने का हक है।"
"जीवन जीने का हक !"
"क्या तो वे और क्या उनका जीवन।"
"फिर एक नई कविता लिखना चाहता हूं बात बन नही रही।"
"जब बात बन नही रही तो क्यों लिखना चाहते हो।" यशोधरा ने टोका।
"लिखे बिना रहा नहीं जाता।" कुलदीपक बोला।
"ठीक है लिखना, मगर सुनाना मत। सुनने का बिलकुल मूड़ नही है।" झपकलाल भी बोला।
कुलदीपक मन-मसोसता रहा।
रात फिर बीती। बारह बजे का घन्टा निनाद हुआ। पूरे शहर में पटाखों का दौर शुरू हुआ। कारों, स्कूटरों, मोटर-साइकिलों पर युवा वर्ग निकल पड़ा। हैप्पी न्यू ईयर। चिल्लाने वाली भीड़ झील के किनारों पर बढ़ने लगी। वे चारों बस्ती की तरह चल पड़े।
बच्चा नींद में कुनमुनाया माने कह रहा हो।
"हैप्पी न्यू ईयर।"
नव वर्ष के उत्सव का उत्साह, उमंग, उल्लास का रंग या हुड़दंग का असर। कस्बे के एक हिस्से में स्थित होटल से रात को बाहर निकल रही कुछ युवतियों तथा उनके मित्रों को भीड़ ने घेर लिया। उत्सव का आक्रामक असर इस हद तक रहा कि कोई कुछ समझे तब तक भीड़ ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया। मद्यपान के बाद की उत्तेजना, युवतियों का भीड़ में गिर जाना। अर्द्धरात्रि पश्चात का समय। सब कुछ एक असभ्य, लज्जाजनक स्थिति के लिए पर्याप्त। युवतियां संख्या में ज्यादा नहीं थी, मगर उनके मित्रों को भीड़ ने दबोच लिया। पटक दिया। मारा। वे कुछ करते तब तक भीड़ ने युवतियों के कपड़े फाड़ दिये। नोंचा, खसोंटा, बदतमीजी से बातें की, अनर्गल प्रलाप किया। भीड़ थी सो कोई क्या कर सकता था। नव वर्ष की इस उपसंस्कृति में टी.वी. की अधनंगी संस्कृति मिल गई थी। गाली गलोच अश्लील हरकत है।
दो युवतियों तथा उनके मित्रों ने थोड़ी हिम्मत दिखाई। मोबाइल से भीड़ के फोटों ले लिये। पुलिस को बुलाया गया। धीरे-धीरे पुलिस भी आई। समय की खुमारी के साथ पुलिस ने दोनों युवतियों और उनके मित्रों को थाने में बुलाया। भीड़ से भी दो-चार चेहरे लिए और अपनी घिसीपिटी रफ्तार से कार्रवाही शुरू की।
"हां तो मेडमजी ये बताओ कि तुम आधी रात को होटल में क्या कर रही थी।"
युवती बेचारी सकपकाई, मगर फिर हिम्मत बांधकर बोली।
"सर मैं अपनी सहेली और मित्र के साथ पार्टी कर रही थी।"
"पार्टी। हूं। पार्टी ? तुम्हें यही समय मिला पार्टी का।"
"मगर इसमें गलत क्या था।" पुरूष मित्र बोला।
"तू चुप रह। मैं तेरे से पूछूं तब बोलना।" बेचारा युवक सकपका गया।
पुलिस ने अपनी कार्यवाही जारी रखी।
"हां तो तुम वहां पार्टी कर रहे थे। अब पार्टी थी तो शराब भी पी होगी।"
"नहीं जी हम दोनों ने तो नहीं ली।" युवती फिर बोली।
"और तुम्हारे साथियों ने।"
"हां वे ले चुके थे।"
"तो मेडमजी तुम्हारे साथी नशे में थे। भीड़ को अंट-शंट बक रहे थे, ऐसी स्थिति में भीड़ क्या करती।"
"क्या करती। बोलो मेडमजी।" पुलिस अफसर चिल्लाया।
बेचारी लड़किया फिर डर गई।
"तो मेडमजी ऐसी मस्ती के माहौल में भीड़ ने जो कुछ भी किया ठीक ही किया है। मेरी सलाह है कि इस मामले को रफा-दफा समझो। घर जाओ और आगे से आधी रात की पार्टी घर पर ही कर लिया करो।"
युवक कसमसा रहा था। मगर पुलिस के सामने क्या कर लेता। ऐसी स्थिति में नव घनाढ्यों को दो-चार होना ही नहीं पड़ता है। फिर भी हिम्मत कर बोला।
"मगर आप हमारी रिपोर्ट तो लिखिये।"
"रिपोर्ट। दिमाग खराब हो गया है तेरा। ऐसी छोटी-मोटी बातें तो होती ही रहती है और अगर तेरे में हिम्मत थी, मर्द था, तो लड़ मरता भीड़ से। फिर बनता केस तो। इस छेड़छाड़ का कोई केस नहीं बनता।"
"लेकिन मीडिया वालों ने कुछ फोटो ले लिये है।" दूसरा युवक बोला।
"अरे छोड़ इस मीडिया-शिडिया को।"
"घर जा। आराम से सो।" अफसर ने फिर समझाया।
मगर युवती अड़ गई। मीडिया का हवाला। पुलिस ने रिपोर्ट लिखी। अज्ञात लोगों के खिलाफ। पुलिस ने रिपोर्ट कर्ताओं को भी शराब के नशे में होना बताया। रोजनामचे की रिपोर्ट के आधार पर भीड़ से कुछ लोग पकड़े भी गये।
अखबारों में, टी.वी. चैनलों में खूब रंग जमा। मंत्रीजी ने स्पष्ट कह दिया। ऐसे हादसे तो होते ही रहते है। हर जगह सुरक्षा संभव नहीं। बेचारे क्या करते।
थाना तो थाना। वो भी पुलिस थाना। एक को मारते तो दस डरते। दस को गरियाते तो पचास को लतियाते। युवाओं का नव वर्ष का नशा उतर चुका था। वे पुलिस थाने से बाहर आये। लेकिन नव वर्ष एक टीस दिल में हमेशा के लिए छोड़ गया। पुलिस के भरोसे किसी को भी नहीं रहना चाहिये, यही सोचकर रह गये।
वैसे पुलिस और कोर्ट में छेड़छाड़, बलात्कार आदि के मामलों में, जो जिरह होती है, जिस मानसिक यंत्रणा से गुजरना पड़ता है उसका ऐसा भयावह चित्र अफसर ने खींचा की बस मत पूछो। लिखते रूहे कांपती है। चाहकर भी कुछ नहीं कर सकते।
इस बीच नववर्ष का आगाज शहर के एक घर में आंसुओं से हुआ। रात को तेज गाड़ी चलाते युवक गाड़ी सहित झील में डूब गये। पांच की जल समाधि हो गई।
ये सब कैसे हो रहा है ? क्यों हो रहा है कि चिंता, किसी को नहीं, सब कुछ अविश्वसनीय, मगर सच। कोरा सच।
समाज में सब कुछ क्या इसी तरह चलता रहेगा ? क्या आमोद, प्रमोद के नाम पर बलियां होती रहेगी। नई पीढ़ी के पास क्या यही सब है और कुछ नहीं, एक युवक ने कहा भी था। आज को जी लो। मना लो। ऐश कर लो। कल हो ना हो। कल किसने देखा है ?
***
कस्बे का बाजार। अभी सन्नाटा है। सुबह हुई नहीं है। पो फटने वाली है। अखबार वाले, दूध वाले, काम वाली बाईयों ने आना-जाना शुरू कर दिया है। अन्धेरा अभी पूरी तरह दूर नहीं हुआ है। भगवान भास्कर ने अपने साम्राज्य का विस्तार अभी शुरू नहीं किया है।
ब्राह्म मुहूर्त कभी का हो चुका है। पुरानी पीढ़ी के बूढ़े, खूसंट, बुजुर्ग खांस-खाँस कर वातावरण को हल्का कर रहे है। नई पीढ़ी रात की खुमारी में सो रही है।
सुबह होने की खबर के साथ ही बाजार में सोये पड़े कुत्ते इधर-उधर मुंह मारने लग गये है। कुत्तों की सामूहिक सभा रात को ही चुनावी सभा के बाद सम्पन्न हो चुकी है। इस सामूहिक सभा के पश्चात झबरे कुत्ते ने सभी को सावधान कर दिया था, चुनावों में कभी भी हिंसा हो सकती है। कुत्तें अपनी हिफाजत स्वयं करें। सरकार, व्यवस्था, पुलिस, आर.ए.सी. सेना, कट्टर पंथियों, जातिवादी नेताओं के भरोसे न रहे क्योंकि इस प्रकार की चुनावी हिंसा चुनावों में एक हथियार के रूप में प्रयुक्त की जाती है। पूर्व के चुनावों में भी एक पूर्व प्रधानमंत्री की हत्या हो गई थी। पिछले दिनों ही पड़ोस के देश में चुनावी हिंसा ने अपना ताण्डव दिखलाया था। एक ओर पूर्व प्रधानमंत्री हिंसा का निशाना बन गई थी।
कस्बे के बाजार में धीरे-धीरे दुकानें खुलने लग गई थी। डर के बावजूद रोजमर्रा का कामकाज सामान्य चल रहा था। मजदूर, किसान, रोजाना की खरीद फरोख्त करने वाले छोटे व्यापारी धीरे-धीरे बाजार में आ रहे थे। सुबह-सुबह बोहनी बट्टा के इन्तजार में दुकानों पर व्यापारी बैठे थे। कुछ दुकानों पर व्यापारी सामान सजा रहे थे। कल्लू मोची भी बाजार में आ गया था। उसने अपने साथी झबरे को पुचकारा। प्रेम किया। झबरे ने स्नेह से पूंछ हिलाई।
ठीक इसी समय बाजार में दो लघु व्यापारियों ने एक-दूसरे के व्यापार में दखल देने के लिए एक-दूसरे की दुकान को गाली-गलोच से नवाजा। बात धीरे-धीरे बढ़ने लगी। राहगीरों को मजा आने लगा। एक राहगीर बोला।
"ये तो रोज का झगड़ा है। आपस में लड़ते रहते है और ग्राहक को ढगने की कोशिश में लगे रहते है।"
"हां भाई सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे है।"
"अब देखो साला कैसे गाली दे रहा है ?"
"अरे गालियों और लड़ाई से व्यापार में बरकत होती है।"
"लेकिन ये ससुरे चुप क्यों नहीं होते ?"
"व्यापारी तभी चुप होता है जब ग्राहक दुकान पर चढ़ता है।"
"तुम ठीक कहते हो।"
राहगीरों ने अपनी राह पकड़ी। कल्लू बोला।
"साले नोटंकी करते रहते है।"
"रोज नया नुक्कड़ नाटक। बस पात्र पुराने होते है।"
तक तक कुलदीपकजी ने भी सीन पर पर्दापण कर लिया था। वे उवाचे।
"क्यों कल्लू क्या बात है ?"
"बात नहीं है यही तो रोना है। ग्राहक की तलाश है। जब से कस्बे में माँल खुला है। सब ग्राहक वहां जाते हैं। अब खरबपति मेवा फरोश की वातानुकूलित दुकान में जाने वाला ग्राहक यहां क्यों आयेगा ?"
"वो तो ठीक है पर झ़गड़े का कारण ?"
"कम पूंजी का व्यापारी ऐसे ही छाती कूटता रहता है बस।"
"हूं।" कुलदीपकजी चुप हो गये।
सोचा। इस नई पूंजी वाली अर्थव्यवस्था से क्या छोटे व्यापारी, छोटे कामगार नष्ट हो जायेंगे। यदि ऐसा हुआ तो बहुत बुरा होगा।
कुलदीपक को चाय की तलब थी, उन्होंने कल्लू से कहकर तीन चाय मंगवाई।
एक खुद पी। एक कल्लू ने सुड़की और एक झबरे ने चाटी।
चायोत्सव के कारण कुलदीपक में कुछ ताजगी आई। उन्होंने एक भरपूर अंगडाई ली और बस स्टेण्ड का मुआईना करने निकल गये। बस स्टेण्ड अभी भी उनीन्दा सा था। उन्होंने बसों का पढ़ा। सवारियों को पढ़ा। महिला सवारियों का सूक्ष्म निरीक्षण किया। प्रतिदिन कौन देवी कौनसी बस से जाती है और कौनसी आयेगी आदि जानकारी का टाइमटेबल संशोधित किया। कुछ स्थानीय लोगों से दुआ सलाम की। मगर फिर भी अभी भी अकेलापन उन्हें काट रहा था, उन्होंने पास की बेंच पर आसन जमाया और एक कण्डक्टर तथा एक ड्राईवर से गप्प लगाना शुरू किया। ड्राईवर को आंख मारते हुए बोले।
"भगवन। आज ड्यूटी बदल गई है क्या ?"
"क्या करें जी, एक साहब की भुवाजी को लेने गांव तक बस दौड़ानी है। एक भी सवारी नहीं। मगर भुवाजी को लाना आवश्यक। रोड़वेज का घाटा भुवाजी के खाते में।" अब सरकारी अफसरों के यही मजे है। जब चाहे अपने रिश्तेदारों की मदद कर दें।
"अफसरों के नही प्रजातन्त्र के मजे है सर।" कण्डकटर बोला। सिटी बजाई। ड्राईवर ने बस आगे बढ़ाई। खाली बस भुवाजी को लेने गई।
कुलदीपक ने कुछ देर इन्तजार किया। अपरिचितों की भीड़ में कहीं कोई नहीं दिखा। कुलदीपक फिर कल्लू के पास जाना चाहता था कि उसे अविनाश दिखाई दिया। अविनाश को भी साथी की तलाश थी।
अविनाश और कुलदीपक मिलकर शहर के इकलौते बाजार में भटकने लगे। भटकाव जिन्दगी के लिए आवश्यक है। मृत्यु में कोई भटकाव नहीं होता किसी शायर ने शायद ठीक ही लिखा है कि मौत तो महबूबा है साथ लेकर जायेगी और जिन्दगी बेवफा है। जिन्दगी की इस बेवफाई से कुलदीपक दुःखी थे। अविनाश इस छोटे कस्बे में दुःखी थे। दोनों की पत्नियां भी दुःखी थी। कुलदीपक ने आज अपने मन की बात अविनाश से करी।
"यार क्या करूं, कुछ समझ में नहीं आता। मां के जाने के बाद घर अस्त-व्यस्त हो गया है। मैं परेशान हूं। कमाई का कोई जरिया नहीं है।"
"यही हालत मेरे साथ है। हम दोनों मुफलिसी में दिन गुजार रहे है और देखो चारों तरफ लोग कमा-खा-अघा रहे है।
"क्या करें। अपन तो शब्दों के व्यापारी है। शब्द बेचने के अलावा अपन को और कोई दूसरा काम नहीं आता है।"
"यहीं तो मुसीबत है यार। काश हमें आलू-प्याज बेचना आता।"
"जो कविता रूपया नहीं बन सकती । उस कविता का क्या करे, ओढ़े, बिछाये, चाटे।" आक्रोश पूर्ण स्वर में कुलदीपक चिल्लाया।
"चिल्लाने से क्या होने जाने वाला है कोई जुगत करनी चाहिये। सुना है माधुरी मेम का स्कूल शीध्र ही निजि विश्वविद्यालय बनने वाला है।"
"अरे। वाह। अपने कस्बे में युनिवरसिटी।"
"अब तो हर गली, मोहल्ले में काँलेज और विश्वविद्यालय खुलने का जमाना है।"
"कोशिश करो यार कहीं घुस जाये।"
"अब अपनी स्थिति से सब वाकिफ है। सब जानते है इस बिमारी को अपने यहां रखने से परेशानी बढ़ेगी।" अविनाश बोला।
"लेकिन अपन कोशिश तो कर सकते है।"
झपकलाल भी काम की तलाश में भटक रहा है। वो बोला।
"क्या करें।" अविनाश बोला।
"अपन तीनों मिलकर नेताजी के दरबार में हाजिरी देते है। शायद बात बन जायें।"
अविनाश ने झपकलाल को भी बुलवा लिया। तीनों ने ग्रामीण रोजगार योजना बनाई और उसे साकार करने चल दिये।
नेताजी का दरबार सजा हुआ था। वे प्रातःकालीन कार्यक्रमों से निवृत्त होकर मालिश का आनन्द ले रहे थे। उनके स्थायी मालिशिये रामू के अलावा दरबार में माधुरी भी बैठी थी।
माधुरी अपने विश्वविद्यालय के सपने को साकार होते देख खुश थी। इस निजि विश्वविद्यालय में वही, सर्वेसर्वा होगी, इस कल्पना मात्र से उसे असीम आनन्द का अनुभव हो रहा था। वहीं कुलपति, वहीं कुलाधिपति, वहीं वित्तपोषक, वहीं रजिस्ट्रार, वहीं डीन और बाकी सब उसके अमचे-चमचे, दीन-हीन अध्यापक, कामचोर बाबू, जी हजूरी करते अफसर चारों तरफ बस वही-वही।
एक्ट पास कराने में उसे ज्यादा जोर नहीं आया। नेताजी की कृपा और काली लक्ष्मी के सफेद जूते से सब कुछ आसान हो गया था। जमीन उसने विशाल के टाऊनशिप में दाब ली थी। दाब ली थी इसलिए लिखा कि विशाल की मदद के लिए उसे कुछ तो मिलना ही था, उसने जमीन पर विश्वविद्यालय का शानदार बोर्ड बनवा कर टकवा दिया था। "माधुरी विश्वविद्यालय।"
माधुरी विचारों में मग्न थी, मंद-मंद मुस्करा रही थी कि कक्ष में अविनाश, कुलदीपक और झपकलाल अवतरित हुए।
माधुरी ने उन्हें देखकर भी अनदेखा कर दिया। सुबह-सुबह उसे कवाब में हड्डिया अच्छी नहीं लगी, मगर नेताजी को शायद वे लोग पसन्द थे। तीनों ने आकर नेताजी के श्रीचरणों में दण्डवत की। आज्ञा पाकर माधुरी जी को वन्दन प्रणाम किया। माधुरी को मुस्करा कर उचित प्रत्युत्तर देना पड़ा।
नेताजी उवाचे।
"आज प्रातःकाल कवि, पत्रकारों ने कैसे गरीब खाना पवित्र किया ?"
अविनाश ने सोचा अगर ये गरीब खाना है तो ईश्वर ऐसी गरीबी सबको दें। प्रकट में बोला।
"सर अब जीवन में सैटल होना चाहता हूं।"
"तो हो जाओ सैटल कौन मना करता है। शादी हो ही चुकी है। बच्चा भी है। अब सैटल होने में क्या कसर बाकी है।"
"सर मेरा मतलब था कोई स्थायी काम, नौकरी या धन्धा हम तीनों इसी आशा से आये है कि आप हमें इस निजि विश्वविद्यालय में सैट कर दें।"
अब माधुरी को खटका हुआ। यदि ये बीमारियां विश्वविद्यालय में घुस गई तो चल चुका विश्वविद्यालय। लेकिन वो चुप रही।
नेताजी ने बात संभाली।
"भैया विश्वविद्यालय निजि है। सरकार का इसमें कुछ भी दखल नहीं है। ये तो स्वायत्तशासी संस्थान है।"
"वो तो ठीक है पर आपका आर्शीवाद मिल जाये तो...।" कुलदीपक ने कहा।
"और फिर आपकी कृपा से एक पुराने विश्वविद्यालय में एक बाबू लग गया था। कुछ समय बाद रजिस्ट्रार बन गया अभी तक राज कर रहा है।"
नेताजी ने जान बूझकार चुप्पी साध ली। वे जानते थे कि एक विश्वविद्यालय में उन्होंने एक बाबू को जन सम्पर्क के काम में लगाया और वो अपनी प्रतिभा के बल पर रजिस्ट्रार बन गया था। प्रजातन्त्र में यह सब चलता ही रहता है।
कुछ देर की चुप्पी के बाद नेताजी पुनः बोले।
"भईयां अभी गांव बसा नहीं और भिखारी कटोरा लेकर आ गये।"
इस टिप्पणी से तीनों दुःखी तो हुए मगर अपमान को पीते हुए झपकलाल बोला।
"सर पिछले चुनाव में मैंने एक साथ तीन बूथ छापे थे तभी आपकी सीट निकल पाई थी।"
"ठीक है, उसका तुम्हें पूरा आर्थिक लाभ दे दिया गया था।"
झपकलाल क्या बोलता। चुप रहा।
कुलदीपक ने बात संभाली।
"सर नई-नई युनिवर्सिटी है, सबके लिए जगह है।"
"नहीं मेरे विश्वविद्यालय में होशियार, उच्च स्तर के विद्वान आयेंगे। कुलपति, रजिस्ट्रार सभी बहुत ऊंचे दर्जे के होंगे। चयन समिति सब तय करेंगी।"
"ठीक है माधुरी जी, जब तक गठन हो ", "चयन समिति बने", "सिन्डीकेंट बनें " तब तक कृपा करके इन लोगों को कहीं घुसा लें।"
"नही सर। ऐसा करने से बदनामी होगी।"
"काहे की बदनामी। तुम ऐसा करो कुलदीपक कवि है, इसे हिन्दी मेंं अस्थायी अध्यापक बना दो। अविनाश को जनसम्पर्क विभाग का काम दे दों और झपकलाल को अस्थायी बाबू बना दो। वेतन भी तुम ही तय करना।"
माधुरी क्या बोलती।
तो देखा आपने माधुरी विश्वविद्यालय में तीन व्यक्तियों का स्टाफ नियुक्त हो गया। माधुरी तो खैर कुलपति बन ही चुकी है।
नेताजी ने मिटिंग समाप्त की। वे अन्दर चले गये। माधुरी ने तीनों को कुछ दिन बाद मिलने को कहा तब तक विश्वविद्यालय के लिए स्थान का भी प्रबन्ध करना था वैसे फिलहाल विश्वविद्यालय उसके स्कूल के पीछे के कमरों में शुरू कर दिया गया था। कुल चार का स्टाफ माधुरी, अविनाश, झपकलाल और कवि कुलदीपक।
आप सोच रहे होंगे कि लेखक शुक्लाजी और शुक्लाइन को भूल ही गया मगर वास्तव में ऐसा नहीं है। शुक्लाजी को भूला जा सकता है। मगर शुक्लाइन को कौन, कैसे भूल सकता है। वैसे भी शुक्लाजी के विकास में शुक्लाइन का योगदान अभूतपूर्व है। इसके अलावा शुक्लाइन की मदद ने बिना माधुरी विश्वविद्यालय की कथा अधूरी ही रह जायेगी। कथा की एक प्रमुख किरदार है शुक्लाइन।
ज्योंहि शुक्लाइन को पता चला कि माधुरी विश्वविद्यालय को जगह मिल गई है। कुछ अस्थायी नियुक्तियां भी हो गई है, तो वे तुरन्त शुक्लाजी को बोली।
"कुछ ध्यान भी है तुम्हें या खाली प्रिन्सिपली कर-कर के ही महान बन रहे हो ?"
"क्यों क्या हुआ।"
अरे माधुरी मैडम ने विश्वविद्यालय बना लिया है खुद कुलपति है और हिन्दी विभाग में कुलदीपक, जन सम्पर्क हेतु अविनाश को लगा दिया है।"
"तो अपन तो इन पदों के लिए है भी नहीं।"
"अरे पदों को मारो गोली। विश्वविद्यालय में घुसना ही महत्वपूर्ण है। हर विश्वविद्यालय वास्तव में ऐसा अभयारण्य होता है जहां पर हर कोई चर सकता है। सबै भूमि गोपाल की।"
"लेकिन विश्वविद्यालयों में घुसना भी मुश्किल, वहां की राजनीति भी मुश्किल और निकलना तो और भी मुश्किल।"
"अरे तो निकलना कौन चाहता है। रही बात राजनीति कि तो राजनीति कहां नहीं है। घर से लगाकर संसद तक हर तरफ राजनीति ही राजनीति है।"
"तो अब क्या करें ?" शुक्लाजी ने परेशान होकर पूछा।
"करना क्या है ?" चलो माधुरी के पास चलते है। हो सकेगा तो तुम रजिस्ट्रार या डीन एकेडेमिक और मैं हिन्दी की विभागाध्यक्ष।
"क्या ये इतना आसान है।"
"आखिर अपना दोनों का पुराना अनुभव कब काम आयेगा और नेताजी की मदद भी ली जा सकती है।"
"लेकिन अपन जो शान्ति और सकून की जिन्दगी जी रहे है वो खत्म हो जायेगी।"
16
"जिन्दगी जीने के लिए है और विश्वविद्यालय में तो मजे ही मजे। मौजां ही मौजां। याद है अपन जब विश्वविद्यालय में पढ़ते थे तो एक प्रोफेसर ने क्या लिखा था सरस्वती के मन्दिर में ध्वज भंग। कैसा मजा आया। पूरी यूनिवरसिटी हिल गई। सबकी जड़ें हिल गई। सबकी शान्ति भंग हो गई। चांसलर, वाईस चांसलर तक बगले झांकने लगे।
"फिर वे प्रोफेसर निलम्बित हो गये।"
"तो क्या उसके बाद बहाल होकर पूरी पेंशन, पी.एफ लेकर घर गये।"
"लेकिन अब ये सब करने को जी नहीं चाहता।"
"इस श्मशानी वैराग्य को छोड़ो महाराज। उठो। धनुष बाण और कलम रूपी हथियार पकड़ों और सीधे माधुरी मेम के घर चलो। पड़ोसी के फैरे हो और घर के पूत कंवारें डोले। ये मैं नहीं होने दूंगी।"
"तो फिर क्या करना है ?" शुक्लाजी बोले।
"करना क्या है ?" चलो।
दोनो सीधे माधुरी के बंगले पर हाजिर हो गये।
माधुरी पूजा-पाठ-कर्म-काण्ड-धर्म चर्चा से उठी थी। प्रसन्न थी। शुक्ला-दम्पत्ति (जो पति का दम निकाल दे उसे दम्पत्ति कहते है) को प्रतीक्षारत पाकर बोल पड़ी।
"आज सुबह-सुबह कैसे। स्कूल का कार्य-व्यापार तो ठीक चल रहा है न।"
"स्कूल का क्या है, शुक्लाजी ने सब ठीक से जमा दिया है।" शुक्लाइन बोली।
"हां वो तो है शुक्लाजी स्कूल की जान है। और सुनाओ।" माधुरी बोल पड़ी।
"मैडम ये हम क्या सुन रहे है ?"
"विश्वविद्यालय में धड़ाधड़ नियुक्तियां हो रही है।"
"धड़ाधड़ कहां, केवल तीन वो भी अस्थायी। बाकी तो सब एक्ट के अनुसार करना पड़ेगा।"
"एक्ट तो बन गया है न।"
"हां एक्ट तो बन गया मगर शासी निकाय, वित्त समिति, एक्जुकेटिव कमेटी, परीक्षा समिति कई काम होने है।"
"ये सब काम तो होते रहेंगे मैडम। शुक्लाजी को भी अस्थायी रजिस्ट्रार बना दे तो ठीक रहेगा।" शुक्लाइन स्पष्ट बोल पड़ी।
माधुरी से कोई जवाब देते नहीं बन पड़ा। शुक्लाजी भी बोल पड़े।
"आपको तो सब मालूम ही हैं।"
"कहे तो नेताजी से फोन कराये, शुक्लाइन ने तिरछी नजर से माधुरी को देखते हुए कहा।
माधुरी क्या बोलती। हमाम में सब नंगे। माधुरी-शुक्लाइन के आपसी रिश्ते वे दोनों ही बेहतर जानती थीं। माधुरी को शुक्लाइन के अहसान और मदद की याद थी। सो जल्दी में कुछ कह न सकी। मगर शुक्लाइन समझ गई। लोहा गरम है, केवल एक-दो चोट से बात बन जायेगी।
"मैडम शुक्लाजी को कार्यवाहक रजिस्ट्रार बना दे।"
"और शुक्लाइन को डीन-एकेडेमिक।"
"नही सब एक ही घर के हो जायेंगे तो विश्वविद्यालय का भट्टा ही बैठ जायेगा।"
माधुरी ने आंखें तरेरी।
मगर शुक्ला दम्पत्ति कब मानने वाले थे।
बातचीत गलत दिशा में मुड़ सकती थी सो माधुरी पुनः बोली।
"ऐसा करते है कि शुक्लाजी को अस्थायी रजिस्ट्रार एक तदर्थ समिति के माध्यम से बनवा देते है।"
"श्रीमती शुक्ला का क्या ?" शुक्लाजी ने कठोरता से कहा। वे अपनी पत्नी की कुरबानी से परिचित थे।
"और पूरी बात तो सुनो।"
"क्या सुनूं। मैडम, पूरी जवानी आपके नाम कर दी। आपने मेरा क्या-क्या दुरूपयोग नही किया। कस्बे से राजधानी तक सब जगह...," शुक्लाइन ने गुस्से में कहा। माधुरी विश्वविद्यालय के शुरूआत में ही ये सब नही चाहती थी अतः बोल पड़ी।
"ठीक है, तुम्हें स्कूल का प्रिंसिपल बना देती हूं। फिलहाल कार्यवाहक बाद में समिति के द्वारा स्थायी भी करवा दूंगी।"
ये सौदेबाजी ठीक थी। माधुरी तथा शुक्ला दम्पत्ति ने खुशी-खुशी इस व्यापार को मंजूर कर लिया।
जाने से पहले माधुरी ने श्रीमती शुक्ला को एक तरफ ले जाकर कहा।
"शाम को नेताजी से मिल लेना।"
शुक्लाइन ने हामीं भरी और शुक्लाजी को लेकर कक्ष से बाहर चली गई।
जहां कल्लू मोची बैठता है, उसी स्थान के पास एक छोटी दुकान में एक पुरानी चक्की की दुकान है। आजकल अनाज पिसवाने कौन आता है, मगर चक्की कस्बे के लोगों के लिए कभी-कभी आवश्यक हो जाती है। लोग चक्की पर आटा पिसवाने कम आते है क्योंकि अब आटा मिलों से थैलियों में बंद होकर माँलों में बिकता है। आटे के स्थान पर लोग दलियां, बेसन, थूली, मिर्च-मसालें पिसवाने आते है। पहले कभी चक्की इंजन से चलती थी, तब उसकी आवाज दूरदराज तक गूंजती थी और गांवों से लोग-बाग पिसाई कराने आते थे, मगर बिजली की मार। इंजन बंद हुए। बिजली आई। चक्की चले तो तभी जब बिजली आये। बिजली कब आये। कब जाये। कौन बताये। चक्की मालिक ने धंधे में मंदी देख चक्की अपने ही नौकर को लीज पर दे दी। नौकर भी पूरा चालू। बिजली का बिल ही समय पर नहीं जमा करा पाता। केवल ये लाभ कि जो लोग शाम तक अपनी पिसाई नहीं ले जाये उसके पीपे से एक-आधा किलो आटा लेकर रोटी बना ले। खा ले। चक्की का किवाड़ बन्द कर वहीं सो जाये। सुबह कल्लू के पास वाले नाले पर फारिग हो ले और चक्की की झाड़ पोंछ करके अगरबत्ती जला दे। वापस बैठकर ग्राहकों का इन्तजार कर ले। बिजली आ जाये तो पीस दे नहीं तो पुराना फिल्मी अखबार पढ़े।
सुबह का वक्त। बिजली गुल। एक ग्राहक आया। उसे अभी आटा चाहिये। चक्की वाला इस पहले ग्राहक को जाने नहीं देना चाहता सो बोला।
"भाईजान। चाहो तो अपना दागीना रख जाओ। लाइट आने पर पीस दूंगा।"
"लेकिन सुबह क्या खायेंगे ?"
"उसका भी इलाज है मेरे पास।"
"क्या ?"
"तुम्हें अभी के लिए कुछ आटा उधार दे देता हूं। बाद में तुम्हारे आटे में से काट लूंगा।"
"लेकिन मेरा गेहूं अच्छा है।"
"क्या अच्छा और क्या बुरा। पेट भर जाये तो सब अच्छा।"
मरता क्या नही करता। ग्राहक ने अपना दागीना रखा और उधारी का आटा लेकर चला गया। चक्की पर अब कल्लू भी आ गया।
"और सुनाओ प्यारे क्या हो रहा है ?"
"होना-जाना क्या है यार। लाइट आये तो कुछ धन्धा हो।"
"लाईट अपने यहां कैसे आये। वो तो मंत्रियों, अफसरों के बंगलो को रोशन कर रही है। व्यापारियों की फेक्ट्रियों को चला रही है।"
"बिजली आम आदमी को क्यों नहीं मिलती है ?"
"मिलती है आम आदमी को भी मिलती है। चुनाव आने दो। कुछ समय के लिए भरपूर बिजली मिलेगी।" कल्लू बोला।
"लेकिन मेरी चक्की को रोज बिजली चाहिये ?"
"अब यार रोज बिजली तो जनरेटर से ही मिल सकती है।"
"जनरेटर लगाने की औकात होती तो चक्की ही क्यूं चलाता।"
"इसी बात का तो रोना है कि हमें अपनी औकात पता है। अपनी औकात बढ़ाने के रास्ते नहीं मालूम।"
"देखो नये-नये पावर हाऊस बन रहे है।"
"लेकिन वे आम आदमी के लिए नही है।"
"तो फिर किसके लिए है।"
"ये सब तो बड़े उद्योगों के लिए है।"
"जमीन बड़े उद्योगों के लिए।"
"बिजली बड़े उद्योगों के लिए।"
"पानी बड़े उद्योगों के लिए।"
"सरकार-अफसर बड़े उद्योगों के लिए।"
"तो फिर हमारे लिए क्या ?" चक्की वाला बोल पड़ा।
"तुम्हारे लिए ठन-ठन पाल मदन गोपाल।"
"लेकिन यार ये बड़े लोग इतने पैसे का क्या करते है ?"
"वे पैसे से और पैसा कमाते है और एक दिन कमाते-कमाते मर जाते है।"
"जब मरना ही है तो पैसों का क्या ?"
"मृत्यु के लिए सब बराबर। कोई अमीर नहीं कोई गरीब नहीं।"
तभी बिजली आ गई। चक्की धड़-धड़ चालू हुई। आटा हवा में उड़ने लगा।
कालू वापस अपने ठीये पर आ गया।
एक ग्राहक आया। कल्लू ने पालिश के ही पांच रूपये बता दिये। ग्राहक चालू था उसने पालिश के साथ ही एक टांका लगाने को भी कह दिया।
कल्लू ने मन मार कर काम कर दिया।
ग्राहक जा चुका था। झबरा कुत्ता अपनी पूंछ दबाकर कल्लू की पेटी की छाया के सहारे सुस्ता रहा था। कल्लू ने एक लम्बी अंगडाई ली और टांगे पसारकर सुस्ताने लगा।
तभी झबरा कुत्ता भों-भों कर एक और भागा। कल्लू ने आंखें खोली। मगर उसे कुछ समझ नही आया। थोड़ी देर में झबरा कुत्ता वापस आकर सुस्ताने लगा।
आसमान में धूप की तेजी थी। आग सी बरस रही थी। मगर आमदरफ्त जारी थी।
चक्की की आवाज अभी भी सन्नाटे को तोड़ रही थी।
चक्की के पास ही गुलकी बन्नों की थड़ी थी। वो सुबह शाम लोगों को चाय पिलाती। अदरक की चाय के मारे या चाय में शायद अफीम की मार जो गुलकी की चाय पी लेते वो सही समय पर सही चाय की तलाश में गुलकी के यहां आ जाते।
वैसे गुलकी सत्तर वर्ष की थी। खण्डहर बताते है कि कभी इमारत बुलन्द थी। वैसे भी कद काठी अभी भी ठोस थी। शोरबे के रस से बनी थी गुलकी।
पिछले दंगों में पति खरच हो गये थे। एक लड़की थी जिसने स्वयं निकाह कर उसका बोझ हल्का कर दिया था। गुलकी अब हर तरह से आजाद थी। कभी कदा चक्की वाला या कल्लू से हंसी-ठट्टा हो जाता था। बाकी सब वैसा ही था जैसा होना चाहिये था। गुलकी की चाय की थड़ी को कभी-कभी पास वाला हलवाई धमकाता था।
"अगले दंगों में तुझे और इस चाय की थड़ी को आग लगा दूंगा।"
गुलकी हंसती, फिर कहती।
"नये पैदा होंगे अब मेरी थड़ी को आग लगाने वाले। मर गये पिछले दंगों में नहीं तो अब तक तुझे ही नही पूरे खानदान को आग लगा देते।"
इस तुर्की ब तुर्की जबाव से आस-पास वालों का मनोरंजन भी होता था और दंगों की असलियत का भी पता चल जाता था।
गुलकी की मुर्गी किसी पड़ोसी हिन्दू के परिवार में घुस जाती तो पड़ोसी कहता...
"देख तेरी मुर्गी मेरे घर में।"
"अरे जानवर है घुस गया, मैं तो नहीं घुसी तेरे घर में।"
पड़ोसी क्या जबाब देता। चुप लगा जाता। गुलकी फिर कहती।
"जानवरों, परिन्दों का कोई मजहब नहीं होता जहां भी मुंह उठाते चल देते है। देखों सफेद कबूतर कभी मन्दिर के कंगूरे पर बैठता है और कभी मस्जिद पर।"
बात गम्भीरता से कही जाती। गुलकी चाय पकड़ाते हुए फिर बोलती।
"ये सियासतदां अपने स्वार्थ के लिए हम गरीबों को क्यों तबाह करते है ? बेचारी बेनजीर मारी गई। भुट्टों को फांसी हुई। महात्मा गांधी, इन्दिरा गांधी, राजीव गांधी तक को नहीं बख्सा इन नासपीटों ने।" वो फिर रोने लग जाती। लोग-बाग दिलासा देते।
गुलकी की एक ओर विशेषता थी, कभी किसी से पैसे नहीं मांगती, न हिसाब, किताब ही करती। मगर आश्चर्य ये कि उसका पैसा कोई मारता भी नहीं।
गुलकी के सहारे यहां पर सुबह-शाम रौनक हो जाती। आज भी थी। क्रिकेट का बुखार जोरों पर था। सर्दी भी थी। गुलकी के घुटने में दर्द था।
दो राहगीर चाय की तलब के मारे आये। गुलकी ने चाय दी। वे बतियाने लगे।
"ये साले विदेशी अम्पायर। हर तरह से मारते है।"
"अब क्या करें हमें तो तेरह खिलाड़ियों से खेलना पड़ता है।"
"तेरह ही नहीं और भी ज्यादा।"
"लेकिन ये अम्पायर निर्णायक, रेफरी, जजेज ये सब गलत काम ही क्यों करते हैं।"
"गलत नही यार देशभक्ती कहो।" वे तो बेचारे देश-भक्ति के मारे अपने देश के हित में निर्णय देते है।"
"देशहित ?"
"खेल को खेल की भावना से खेलो।"
"अरे नहीं भाई खेल को राजनीतिक भावना से खेलो। और फिर ये अम्पायर तो वैसे भी दुःखी प्राणी होता है। "
"जो सबको दुःखी देखकर सुखी हो जाता है।" गुलकी बोल पड़ी।
"अम्पायरों को दोजख में भी जगह नहीं मिले।"
"आमीन।
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ग्ुलकी बन्नो परम प्रसन्न थी । आज उसकी लड़की और दामाद आये थे । लड़की शादी के बाद पहली बार घर आई थी । घर को झाड़ा-पोंछा-फटका लगाया । नई चद्दर बिछाई । अपने इकलौते दोहिते के लिए मिठाई,टॅाफी,बिस्कुटो का इन्तजाम किया । जवाई बाबू केलिए सैवईयां बनाई । गुलकी की खुशी देखकर उसकी बेटी भी खुश हो गई । लम्बा समय बीत गया था बेटी से मिले । गुलकी मिली और बहुत प्रेम से मिली । माँ-बेटी का मिलन चाय की थड़ी पर ही हो गया । फिर वे अपनी खोली में चली गई। जवाई बाबू के लिए चाय चढ़ाते हुए गुलकी बोली ।
"और सुना कैसा चल रहा है शहर में ।"
" शहर तो अम्मा शहर है,सब कुछ बेगाना सा । यहाँ जैसा अपनापन कहाँ।"
"हाँ वो तो है,मगर जहाँ पर अन्न-जल मिले वहाँ पर जाना हीं पड़ता है ।
"सो तो है अम्मा । "
ेजर्वाइं बाबू क्या -क्या करते है ? "
व्ो तो एक सरकारी संस्था में बाबू लग गये है ।
" अच्छा । " कितनी पगार है ?
पगार भी ठीक-ठाक है । खिच जाती है गृहस्थी की गाड़ी ।
तब तो ठीक है ।
लेकिन तुम्हारा दुख देखा नहीं जाता । तुम कैसे ब्याह करती । ये जवान मुझे जम गया । मैं इसे जम गई । निकाह पढ़वा लिया । अब सरकारी बाबू की कोई मामूली हस्ती तो होती नहीं है । "
हां ये भी ठीक किया तूने । "
लेकिन बता कर जाती तो .....गुलकी ने जान बूझ कर बात अधूरी छोड़ दी ।
लड़की भी कुछ न बोली । दोनो चुप थे । मगर सीने में समन्दर थे । गुलकी फिर काम में लग गई ।
बच्चा खा पी कर सो गया । जवाई गांव धूम कर आ गया था ।
तीनो ने खाना खाया और सो गये ।
गुलकी ने रात सपना देखा कि बेटी-जवाई उसे बुढापे में सहारा दे रहे हैं। बेटी ने सपना देखा कि अम्मा विदाई में रो रही है । जवाईं ने सपना देखा कि वापस जाने की तैयारी करनी है । बच्चा कुनमुना कर उठा । सुबह हो गई थी । एक नई सुबह। गुलकी ने चाय की दुकान सजा ली । बेटी जवाई ने शहर की राह पकड़ी ।
शहर क्या था। कस्बा था। गुलकी के जवाई बाबू एक राजकीय चिकित्सालय में चतुर्थ श्रेणी अधिकारी भर्ती हो गये थे । गली-मैाहल्ले में ड़ाक्टर के रूप में जाने जाते थे । कभी-कभी दवा दारू भी कर देते थे । पूरा नाम कोई नहीं जानता था। जरूरत भी क्या थी । उनकी पहचान ड़ाक्टर-वैध-हकीम के रूप में थी तथा उनकी पत्नी भी ड़क्टरनी वैदाणी या हकीमनजी के रूप में चिन्हित की जाती थी । कभी-कभी आउटडोर से कुछ दवा -दारू चुराकर ले आते थे आस पास के पड़ोसियों में बांट देते थे । फलस्वरूप उनकी प्रतिप्ठा कुछ दिनोे के लिए ही सही बढ़ जाती थी ।
मोहल्लेेके सरकारी बाबूओं,चपरासियों को जब भी फर्जी मेडिकल प्रमाण पत्र की आवश्यकता पड़ती थी,जवाईं बाबू की शरण में आ जाते थे । प्रमाण पत्र की रेट तय थी । इसे प्रति दिन के हिसाब से वसूला जाता था । इन दिनो यह दर एक सप्ताह के लिए सौ रूपया थी । ज्यादा लम्बा प्रमाण पत्र देने में ज्यादा लम्बी जोखिम होती थी, इस कारण राजकीय अस्पताल जिसे खैराती अस्पताल भी कहा जाता था के ड़ाक्टर सोच-समझकर,देख भाल कर ही निर्णय करते थे । शकील भाई ""हमारे जवाई बाबू "" इस सम्पूर्ण प्रकरण में दफतर ओर प्रमाण पत्र लेने वाले के बीच की कड़ी थे । वे अपना उल्लू भी सीधा कर लेते थे । आखिर वे अस्पताल में चपरासी-कम बाबू,कम वार्ड़ बाय थे।
अस्पताल कभी दोनो समय खुलता था । कभी सुबह खुलता था शाम को बंद रहता था । कभी शाम को खुलता था सुबह बंद रहता था । मगर कस्बे की भोली जनता शिकायतों के पचड़े में नही पड़ती थी । पानी में रहकर मगर से बैर लेने का रिवाज नहीं था ।
शकील अपनी पत्नी के साथ अस्पताल के पास की एक कालोनी में रहता था। जिन्दगी की गाड़ी मजे से चल रही थी, मगर वो जिन्दगी ही क्या जो मजे से चलती चली जाये ।
अस्पताल में एक कैम्प लगा । कैम्प में बाहर के ड़ाक्टर,अफसर,नेता आये । सबने मिलकर कैम्प चलाया । मगर हिसाब किताब की किसी ने परवाह नहीं की ।
अॅाड़िट ने पकड़ा और शकील को धर दबोचा । प्रभारी चिकित्सक ने अपनी जान बचाने के लिए शकील को ढा़ल बना कर निलम्बन की सिफारिश कर दी । अफसरों ने तनिक भी देर नहीं लगाई और शकील भाई की हंसती -मुस्कराती गृहस्थी को नजर लग गई । खबर गुलकी बन्नो तक पहुँची । गुलकी रोती -कलपती आई । सारा माजरा समझा,और जैसा कि रिवाज है घुटने पैट की ओर ही मुड़ते है,एक जातिवादी नेता की शरण में आ गई । कभी नेता जी अपनी जवानी के दिनो में गुलकी बन्नों से इक तरफा प्यार कर चुके थे, अतः मामले को हाथो हाथ रफादफा कराने में जुट गये । मगर मामला ज्यादा गम्भीर निकला । आडिटवालों ने मामला उपर पहुँचा दिया । उूपर से मामला लोक लेखा समिति के चंगुल में फंस गया,साथ में चिकित्सक ओर शकील की गर्दन भी फंस गई । आखिर चिकित्सक ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली । शकील आज भी दर-दर की ठोकरे खा रहा है और गुलकी बनेाँ स्वर्ग सिधार चुकी है ।
शकील कस्बे में इधर -उधर मारा -मारा फिरता था । मगर जातिवादी नेता जी ने उसे चिकित्सालय से मुक्त करा कर अपने मित्र हकीम जी के दवाखाने में दवा बनाने में लगवा दिया । हकीम जी के पास कुछ अच्छे पौरूपीय नुस्खे थे जिन की बदौलत उनकी चिकित्सा ठीक-ठाक चलती थी । शकील ने भी ये नुस्खे सीख लिए ।और गृहस्थी की गाड़ी को फिर पटरी पर लाकर हरी झंड़ी दिखा दी । गुलकी की चाय की दुकान बेच -बाच कर जो पैसा आया उससे उसने अपने लिए शहर में एक कोठरी ले ली ।
गुलकी की बेटी अब अपने बच्चे के साथ इस कोठरी में रहती है लोग-बाग बकते रहते है कि हकीम सा. कभी-कभी कोठरी में आते है ।मगर लोगों का क्या ?
लोगों के डर से क्या आदमी जीना छोड़ दे ।
इधर महगांई,परमाणु संधि,अविश्वास प्रस्ताव, सरकार का बहुमत और बहुमत की सरकार जैसे शब्द हवा में उछलने लग गये थे। सरकार कभी चुनावों का डर दिखाती कभी डर कर चुनावों से मुंह मोड़ लेती । आंतकी घटनाऐं,बैंक लूटने की वारदातें,जातीवादी आन्दोलन कुल मिलाकर अराजकता की स्थिति । वस्तु स्थिति देखने - समझने की फुरसत किसे । चुनाव होगें या नहीं।होगें तो कब होगें । कौन -जीतेगा जैसे नश्वर प्रश्नों का क्या? वे तो हर तरफ हर समय हवा में तैरते रहते है । श्राद्ध पक्षो की तरह चुनावी पक्ष आते और जाते । गठ बन्धन सरकारों के धर्म शुद्ध राज धर्म नहीं हो सकते । गठबन्धन का पहला धर्म स्वयं को तथा सरकार को जिन्दा रखने का है । हम ही नहीं होगे तो सरकार या देश के होने का क्या फायदा प्यारे । पहले खुद और सरकार को बचाओं । जान है तो जहान है । सरकार है तो सब कुछ है मंत्री प्यादे,धोड़े, रानी,उूंट,हाथी,महल,दफतर,हवाई जहाज, सब कुछ यदि सरकार नहीं तो कुछ भी नहीं मेरे सरकार । गान्धी हो या गोडसे क्या फर्क पड़ता है । सामन्ती लिबास में कामरेड और कामरेडी लिबास में समाजवादी,समाजवादी कुर्ते में अम्बेड़करवादी और अम्बेड़कर की टोली में सोशल इन्जीनियरिगं का कमाल । ये ही राजनीति है मरी जान ......। ये ही सरकार है ....। ये ही गठबन्धन है । और ये ही धर्म संकट है ।
सरकार है, लोमड़िया है । कैावे है । कांव कांव करता मीड़िया है । असफल नेता है और आत्मकथा की धमकी देते मंत्री है। मुझे कुछ दे नहीं तो किताब लिख दूगां । किताब का ऐसा सदुपयोग .......।
जो कभी क्रान्ति के कौवे उड़ाया करते थे,वे आजकल कनकवे उड़ा उड़ा कर टिकट का जुगाड़ कर रहे है । टिकट की भली कही । सेवानिवृत्त भ्रष्ट अफसर,चाटुकार पुलिस वाले,अपराधी, स्मगलर, सुपारी किलर,समाजसेवी, सेविकाएँ,सब टिकटों की बन्दर बांट के लिए पार्टी-दफतरों में चक्कर लगाने लग गये और ये बेचारे कार्यर्कता ढपोरशंख ही रह गये । टिकट किसे नहीं चाहिये । सरकार में घुसने का नायाब मैाका है टिकट। यदि टिकट मिल जाये तो सत्ता के शीर्प पर या शीर्प से एक-आध सीढ़ी नीचे पहुँचने में क्या दिक्कत है ।
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इन्हीं विकट परिस्थितियों में नेता जी अपने महल नुमा - डाईगं रूम में मालिश वाले का इन्तजार कर रहे थे । वे आज गम्भीर तो थे,मगर आश्वत भी ।
मालिशिये के आने की आहट से उनकी तन्द्रा टूटी । मालिशिये ने अपना काम शुरू किया । टिकट के आकांक्षी आने लगे । कोठी के बाहर -भीतर धीरे-धीरे मजमा जमने लगा । एक टिकिट के दावेदार ने नेताजी के चरण स्पर्श किये । नेताजी ने कोई नहीं ध्यान दिया । वे बोले बता कैसे आया । "
"बस वैसे ही । "
"बस वैसे ही तो तू आने वाला नहीं है । "
" नहीं सर । बस दर्शन करने चला आया । "
दर्शनों से क्या होता है यार साफ बता । "
" बस टिकट चुनाव होने की संभावना है । "
" तेरे इलाके से टिकट उूपर से तय होगा ? "
"क्यों सर !
" तेरी बहुत सी शिकायते है । "
" शिकायतों से क्या होता है "" हजूर ! मेरे लिए तो आप ही माई -बाप है । "
"माई-बाप कहने से भी क्या होता है ? "
"अब तो लाज आपके हाथ में है । "
" लाज -लज्जा का राजनीति में क्या काम । "
"सर कुछ करिये । "
"क्या करूं बता तू ही बता । "
" सर बस इस बार टिकट मिल जाये सब ठीक हो जायेगा । "
" टिकट ही तो मुश्किल है मेरे भाई । "
" फिर क्या करू निर्दलीय लड़ू । "
" जीत सकता है तो लड ़ले । "
"जीतना तो मुश्किल है । "
"फिर क्यों अपने पैरो पर कुल्हाड़ी मारता है । "
" फिर क्या करू । "
"तेल देख -तेल की धार देख । ये कहकर नेताजी ने मालिशिये की और देखा । मालिशिया तेल का काम पूरा कर चुका था । नेताजी अन्दर नहाने चले गये । बाहर लाँन में एक कुत्ते ने फड़फड़ा कर अंगड़ाई ली । समवेत स्वरों में श्वान समूह ने अपना राग गाया । लाँन में दो छुट भैये नेता सरकार के भविप्य पर चितिंत थे । चिन्तन कर रहे थे । एक बोला " यह सरकार रहेगी या जायेगी । "
ये प्रधान मंत्री रहेगें या जायेगें ?
" ये गठबन्धन टूटेगा क्या चलेगा । "
ये सब कब तक ऐसे ही चलेगा । "
ष् " सरकार का क्या है । कम्यूनिस्टो के समर्थन से चल रही है,जब जाजम खींची,सरकार गिरी । "
" अरे यार ऐसे कैसे गिर जायेगी । कम्यूनिस्टों ने जाजम खिंची तो समाज वादियों की दरियां बिछ जायेगी । सब वापस बैठ जायेगें ।
" ये कम्यूनिस्ट भी क्या है ? कभी गुर्राते है,कभी भोंकते है । कभी धमकाते है बस काटते नहीं। "
"काटने के लिए दांत मजबूत चाहिये । ये तो विपहीन फन वाले है ।
हां ये ठीक उक्ति दी तुमने ।
"सरकार अपना कार्य काल पूरा करेंगी । "
" करना ही चाहिये ! अभी चुनाव हो गये तो सब बंटाढार । समझो गई भैस पानी में ।" "चुनाव की भैस तो पानी में नहीं कीचड़ में जाती है यार । "
"क्या पानी और क्या कीचड़ और क्या कीचड़ में कमल । "
"अच्छा बताओं यदि चुनाव हुए तो प्रधानमंत्री कैौन बनेगा । "
"तुम ही बन जाना यार ।"
" मुझे तो टाइम ही नहीं है । "
"मजाक बन्द । सीरियसली जवाब दो । "
"देखो भाई पिछली बार राप्टपति के चुनाव में तय हुआ था कि तुम हमारे आदमी को राप्टपति बनाओं हम तुम्हारे आदमी को प्रधानमंत्री बनवा देगें । "
" अच्छा फिर क्या हुआ । "
"होना क्या था ? दोनों ही हार गये । न राप्टपति बना न ही प्रधानमंत्री । "
" लेकिन भावी प्रधानमंत्री । "
" भावी की खूब कहीं । एक पार्टी ने अपना प्रधानमंत्री घोषित कर रखा है,एक पार्टी में युवराज राज्यभिपेक के लिए तैयार है,एक पार्टी में सभी क्षत्रप अपने आप को प्रधानमंत्री मानते है और भीप्म पितामह तो शरशैया पर लेट कर ही प्रधानमंत्री की शपथ लेने को तैयार है । "
" आखिर कोइ तो बनेगा । "
" हां तब तो वर्तमान क्या बुरे है ।"
दोनों छुट भैया नेता कोठी से बाहर आये । और ठण्ड़ी चाय की दुकान पर चले गये । प्रान्तीय सरकार का भला हो जिसने हर-गली,मौहल्ले नुक्कड़ पर ठण्ड़ी चाय की दुकाने खोल दी थी, और सेल्स मेन जबरदस्ती पिलाते थे । पिलवाते थे । मारपीट करते थे। सरकार को तो बस रेवेन्यू से मतलब था । मगर सरकार बेचारी क्या करे । सरकार चलाने के लिए रेवेन्यू चाहिये,रेवेन्यू का आसान रास्ता कर लगाना । कर लगाने के लिए शराब बेचना ।शराब माफिया से बचने के लिए सरकार ने प्रत्येक दुकान दार को लाइसेंस देना शुरू कर दिया, परिणाम स्वरूप हर व्यक्ति ने शराब की दुकान के लिए लाइसेंस की कोशिश करना शुरू कर दी,और ज्यादा भ्रष्टाचार ।
जनता की भागीदारी बढ़ी शराब की खपत बढ़ी सरकार की रेवेन्यू बढ़ी ।ये है प्रजातन्त्र के मजे ।
छुट भैया नेता देश की राजनीति से निपट कर प्रदेश की राजनीति पर उतर आये थे,अर्थात विदेशी शराब के बाद देशी ठर्रे तक आ गये थे । वे मोहल्ले स्तर की राजनीति पर उतरना चाहते थे,अर्थत आपस में जूतम पैजार करना चाहते थे,मगर कोई दिख नहीं रहा था । ऐसी ही स्थिति में वे सामने कल्लू मोाची के ठीये पर पहुँच गये । कल्लू मोाची अपने काम में व्यस्त था । लेकिन इन निठल्लों को इधर आते देख कर चौकन्ना हो गया । उसने जबरे को आवाज दी । जवाब में जबरा जोर से भोंका ।
छुट भैये नेता ने कल्लू की ओर पांव कर कहा,
"जरा पालिश मार दे । "
" पांच रूपये लगेगें । "
""क्या कहा ! पांच रूपये । यहाँ पर बैठने का लाइसेंस है तेरे पास । "
" कल्लू चुप रहा । दूसरा छुटभैया बोल पड़ा । "
"नगरपालिका को कह कर बोरिया बिस्तर गोल करवा दूंगा साले का । चुपचाप पालिश मार ।
यह कह कर उसने भी जूते कल्लू के सामने रख दिये । मरता क्या न करता । कल्लू ने सोचा कौन इन उठाईगिरो के मुंह लगे । चुपचाप पालिश ब्रश,कपड़ा,रंग लेकर काम में लग गया । काम खतम कर जूते वापस किये तो नेता ने दोनो जोड़ियों के लिए एक पांच का सिक्का पकड़ा दिया । कल्लू ने चुप रहने में ही भलाई समझी ।
कल्लू ने चाय मंगवाई उसने पी और जबरे ने चाटी ।शाम का समय हो आया था ।
अब न तो गांव गांव रहे न शहर शहर रहे । न महानगर महानगर रहे। कल्लू सोचने लगा । कहाँ प्रेम चन्द के उपन्यासों के गांव, कहां हरिशंकर परसाई की रचनाओं के ग्रामीण परिवेश और कहां श्री लाल श्ुक्ल के रागदरबारी के गांवों की राजनीति । सब बीत गये । सब रीत गये । इतने लोग मिलकर गांवों की आचंलिकता की अाँच पर अपनी रचनाओं की रोटी सेक रहे है और आचं है कि भड़कती ही चली जा रही है। एक अकेला रागदरबारी सब पर भारी पड़ जाता है । एक मैला आचंल सब की चादर मैली कर जाता है। कल्लू के विचार उत्तम है, मगर कौन सुनता है ।
कल्लू ने दुकान समेटी और घर की राह पकड़ी । झबरा हलवाई की दुकान के बाहर बैठ कर अपने डिनर का इन्तजार करने लगा ।
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विश्वविधालय । माधुरी विश्वविधालय । शानदार भवन । शानदार लाँन । शानदार प्रयोगशालाएँं । जानदार कार्यालय । कार्यालय में पसरा सन्नाटा । माधुरी विश्वविधलय का कुलपति कक्ष । कुलपति की शान के क्या कहने । शिक्षामंत्री का कक्ष भी फीका । स्वादहीन ।
माधुरी अपनी शानदार,जानदार,असरदार कुर्सी पर आसीन । वे विश्वविधालय की एक मात्र स्थायी पदधारी । उनको और उनके पद को कोई खतरा नहीं ।
वे विश्वविधालय की प्रथम अनोपचारिक उपवेशन की प्रथम महिला अध्यक्ष । गर्व से उनका माथा उूंचा हो गया ।
कक्ष में प्रथम चक्र में रखी कुर्सियों पर विश्वविधालय के अधिकारियों,अध्यापकों के रूप में अविनाश, हिन्दी टीचर कुलदीपक, बाबू झपकलाल, रजिस्टार शुक्लाजी, विराजमान थे । मेडम ने अपनी सहयोगी -स्टेनो के रूप में अपने ही स्कूल की प्रिन्सिपल शुक्लाइन को भी बुलवा लिया था । अस्थायी विश्वविधालय में अस्थायी समिति का अस्थायी कोरम पूरा हो गया था । कुछ और नियुक्तियों की चर्चा होनी थी। माधुरी मेडम प्रशासन -राजनीति -कूटनीति - नैाकरशाही आदि के गुर सीख रही थी । उसे किसी को जवाब नही देना था । वो सर्वेसर्वा थी ।
विश्वविधालय के आथर््िाक पक्ष को भी मजबूत करना था । फीस- अनुदान -एन.आर.आई. कोटा आदि से ही धन सुगमता से आ सकता था। इसके लिए विश्वविधालय की साख को जमाना था । माधुरी ने इस अनौपचारिक मीटिगं की औपचारिक शुरूआत की । वे बोली
""जैसा कि आप सब जानते है, माधुरी विश्वविधालय इस क्षेत्र का एक मात्र निजि विश्वविधालय है और इसे बड़ी मुश्किल से मैं स्थापित कर पाई हूँ ताकि इस क्षेत्र में शिक्षा,तकनीकि शिक्षा, मेडिकल शिक्षा का विकास हो तथा इस क्षेत्र के बच्चे भी देश -प्रदेश के विकास में अपना योगदान दे सके ।
सर्व प्रथम हमे एक प्रख्यात शिक्षा विद चाहिये जो पूरी युनिवरसिटी के शैक्षणिक कार्यकलापों का ध्यान रख सके तथा विश्वविधालय को सम्पूर्ण शिक्षा जगत में मान दिलवा सकै ।
फिल हाल वित्त समिति तथा शासी निकाय की स्थापना एक्ट के अनुसार की जानी है । शासी निकाम हमारी सर्वोच्च संस्था है तथा मैं इसकी अध्यक्ष रहूंगी वित्त समिति में रजिस्टार,लेखाधिकारी तथा डीन एकेडेमिक रहेगे । " नियुक्ति समिति में विभागाध्यक्ष, रजिस्टार तथा विषय के दो विशेषज्ञ रहेगें । चयन समिति की सिफारिश पर कुलपति नियुक्ती देंगी । मगर चयन समिति की सिफारिश मानने के लिये मैं बाद्ध नहीं हूँ ।
लेकिन मैडम ......अविनाश ने टोंका । "
"चुप रहिये ।"काम होने दीजिये । नियमो में संशोधन होते रहेगें ।
वित्त समिति सरकार से अनुदान, विदेशो से सहायता,एन.आर.आई फण्ड आदि से धन प्राप्त करने के लिए प्रयास करे ।
" लेकिन .....इस बार शुक्लाजी बोल पड़े । "
"शुक्ला जी आपकी -हमारी बातें तो होती रहेगी । " आपका हमारा साथ तो चोली -दामन की तरह है। फिलहाल आप विश्वविधालय की प्रथम मीटिंग के मिनिटस टाइप कराये । मेरे से अनुमोदन करा ले । हां एक बात ओर । कृपा करके एक क्लाज तदर्थ नियुक्ति का डाल कर सभी उपस्थित अधिकारी,कर्मचारी, विश्वविधालय में तदर्थ नियुक्ति पर लग जाये । वेतन -भत्ते मैं तय कर दूंगी । ""
मिटिंग सधन्यवाद समाप्त की जाती है। चाय - रसगुल्लों का स्वाद ले । एक दूसरे को बधाई दें । "
पाठको इस प्रकार विश्वविधालय की प्रथम स्वादिप्ट व सफल बैठक सम्पन्न हुई ।
बैठक का विवरण मिडिया में विशेषकर र्प्रिंट मीडिया में देने के खातिर भूतपूर्व कवि और विश्वविधालय के वर्तमान अस्थायी संविदा जनसम्पर्क अधिकारी इकलोते स्थानीय अखबार के कार्यालय में पहुँंचे । सम्पादकजी किसी फोटो जर्नलिस्ट को पत्रकारिता की बारीकियां समझा रहे थे ।
" कल तुमने ताजा टिण्ड़े का बासी फोटो लगा दिया गया था ।"
"तो क्या सर । टिण्ड़े तो थे । टिण्डेों के स्थान पर भिण्डी तो नहीं थी ।"
"ठीक है -मगर आगे से ध्यान रखना । "
तभी अविनाशजी ने संपादक के कक्ष में प्रवेश किया ।
"और सुनाईयें संपादक जी क्या हाल -चाल है ? सम्पादक जी ने कोई जवाब नहीं दिया । अपनी आंखे कम्प्यूटर पर गड़ा ली । वे समझ गये ये ऐसे पीछा छोड़ने वाला नहीं है । वे एक स्थनीय समाचार का शीर्पक बदलनें में व्यस्त हो गये । एक दो काँलम के समाचार को एक काँलम का कर दिया । इसी बीच अविनाश ने अपनी विज्ञप्ति आगे बढा़ई ।
"ये क्या है ?"
" विज्ञप्ति है । सादर प्रकायानार्थ ।""
" लेकिन इसमें समाचार कहाँ है ?""
" समाचार तो छपने पर अपने आप बन जायेगा । "
" लेकिन कुछ तो विवरण हो । तथ्य हो । सत्य तो हो । समाज के लिए संदेश हो । " सम्पादक जी भापण देने पर उतारू थे ।
अविनाश ने धीरे से कहा
"शाम को प्रेस क्लब में मिलते है ।
सम्पादक जी ने विज्ञप्ति को छपने भेज दिया ।
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इधर जश्न-ए आजादी का दिन आ गया । आजादी साठ वर्प की हो गई । विश्वविधालय में झण्ड़ा रोहण का कार्यक्रम रखा गया । नये नियमों के अनुसार झण्ड़े को कोई भी फहरा सकता था । इस साठवीं आजादी में सब कुछ बाजार हो गया । दायित्व सब भूल गये । अधिकार,मांगे, याद रह गये । गान्धी जी ने नारा दिया था अंग्रेजों भारत छोड़ों,अब हालत ये है कि ईमानदारी, नैतिकता, शुद्धता,असली चीजे,सब भारत छोड़ने को उतारू हो गये । तथा रह गये झूठ,बेईमानी, मक्कारी,झूठे वादे,गलत बयानी और चाटुकारिता । लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री को सुनते हुए भी कोफत होती है । क्योंकि कहते कुछ है करते कुछ है सरकार बचाने में होर्स टेडिगं होती है । सौदे बाजी होती है और सभी गलत कार्यो के लिए सब के दरवाजे,खिड़कियां और छते खुली हुई है ।
लाल किले की प्राचीरे सैकड़ो वर्षों से गवाही देती आ रही है । कई प्रधानमंत्रियों को इन प्राचीरों ने सुना है,समझा है । ये इतिहास की मूक-गवाह है । सब कुछ जानती है। समझती है । फिर भी चुप रहती है । जैसे भारतीय जनता । मगर चुप्पी, मौन की भी तो एक दहाड़ होती है ।
माधुरी विश्वविधालय में झण्ड़ा रोहण हुआ । शानदार हुआ । मिठाईयां बाटी और इस पावन अवसर पर माधुरी ने अपने पति सेठजी को विश्वविधालय का कुलाधिपति नियुक्त कर दिया । शिक्षा व्यवस्था पर आजादी के दिन एक जोर दार शानदार -तमाचा । एक अन्य विश्वविधालय के कुलपति पद पर एक बड़े नौकरशाह को बिठा दिया । अकादमी पर एक वैधराज काबिज हो गये । एक चिकित्सा विश्वविधालय काे मजदूर नेता चलाने लगा । सचमुच आजादी । सबको आजादी ।
माध्ुरी ने विश्वविधालय के कर्मचारियों को स्थायी करने की घोपणा की । तालियां बजी । खुशियां मनाई गई । छात्रों ने जन-गण-मन गाया । भारत माता की जय बोली गई । आजादी मनाई गई । माधुरी ने एक टीवी चैनल पर भी यह कार्यक्रम दिखवा दिया । पूरे शहर में वाह-वाह हो गई । क्या कहने । सब कुछ असरदार ।
माधुरी ने कर्मचारियों को बोनस भी बंटवा दिया । अब कौन बोलता । माधुरी के पति सेठ रण छोड दास स्थायी कुलाधिपति हो गये । लेकिन ईमानदारी देखिये केवल एक रूपये प्रतिमाह के वेतन पर ।
कुलदीपक जी कवि थे । लेखक थे । साहित्यिक पत्रकार थे । मंच पर गलेबाजी कर लेते थे। विश्वविधालय में इकलौते हिन्दी प्राध्यापक थे । हेड थे । अपने आप को प्रोफेसर और बाकी सभी लोगो को हेडलेस चूजे समझते थे । मगर चूजे कभी कभी ज्यादा खतरनाक साबित हो जाते थे । इधर कुलदीपक जी ने एक राप्टीय सेमिनार-कम कांफ्रेस कम वर्कशाप कम सिम्पोजियम की योजना का निर्माण कर विश्वविधालय की कुलपति की सेवा में प्रेपित कर दिया । माधुरी ने कुलनति कक्ष में कुलदीपक जी को तलब किया ।
" ये क्या बिमारी है ?
"मेम ये बिमारी नहीं एक राप्टीय सेमिनार का प्रोजेक्ट है । जिसे आप विश्वविधालय ग्रान्ट कमीशन को अग्रेपित कर दे ।
" उससे क्या होगा ?
मैं अपने सूत्रों से इसे पास करा लूगां ।
तीन दिवसीय सेमिनार में देश के हिन्दी विद्वान भाग लेगें । अपने विश्वविधालय का नाम होगा । बड़े -बड़े लोग आयेगें । अखबारों मीडिया में कवरेज आयेगा । आपके विजुलस, बाइट्स दिखेगें । छपेंगे ।
"लेकिन ये क्या विषय चुना हैं आपने ?
" विषय तो ठीक ही है ।
"महिला सशक्तीकरण -स्त्री विमर्श । ये भी कोई विषय है भला । "
" विषय बिलकुल ज्वलन्त है । पूरी दुनिया में इस विषय पर काम हो रहा है, हिन्दी जगत में खास कर साहित्य की दुनिया में तो घमासान मचा हुआ है । हर बड़े,पत्र,पत्रिका में इस विषय पर आलेख, परिचर्चाएँ, लेख,कविताएं छप रहीं है ।
" उससे क्या ?
" मेडम नया -ज्वलन्त विषय लेने से सेमिनार की स्वीकृति आसानी से मिल जाती है। तीन दिवसीय सेमिनार की रूपरेखा के बाद मैंने तीस लाख का बजट प्रस्तावित किया है। सब कुछ ठीक -ठाक रहा तो स्वीकृति मिल ही जायेगी । फिर एक स्मारिका छाप लेंगे । उससे भी आय हो जायेगी । प्राप्त शोध पत्रों व साराशों को पुस्तकाकार छाप कर बेंच देगें । मजे ही मजे । आपका नाम मुख्य सम्पादक -चेयरमेन आदि के रूप में जायेगा ।
लेकिन ये विषय कुछ अजीब है ?
" अजी अजब -गजब विषय ही चलते है ।
ऐसे ही विषयों पर लिखा जा रहा है । सोंचा जा रहा है । छापा जा रहा है ।
" लेकिन क्या यू.जी.सी. मान जायेगी ।
" ये आप मुझपर छोड़ दीजिये । यू.जी.सी. के अलावा अन्य स्थानों से भी धन प्राप्त करने की कोशिश करूगां ।
" देख लीजिये । मैं पैसा देने की स्थिति में नहीं हूँ ।
" आप से पैसे नहीं चाहिये । आप केवल स्वीकृति की अनुशंसा के साथ प्रोजेक्ट को यू.जी.सी. को भिजवा दे ।
हां एक बात ओर ।
क्या ?
इस सेमिनार से पूर्व मेरा प्रोफेसर पद पर स्थायी होना जरूरी है । कुलदीपक ने पूरी ध्ृाप्टता से धूर्तता पूर्वक कहां ताकि आयोजन समिति ठीक से बने ।
" माधुरी की त्योंरियां चढ़ गई । मगर सेमिनार में उसे अपना भी लाभ दिखाई दे रहा था ।
" लेकिन उसकेेलिए चयन समिति का होना जरूरी है ।
" उसमें क्या परेशानी है। एक विश्वविधालय के कुलपति आपकी वी.सी. सर्च कमेटी में रह चुके है, उन्हे बुलाकर अनुग्रहीत कर देंगे । एक अन्य विश्वविधालय में मैने एक व्यक्ति को पी.एच.डी. में मदद की है, उसे विषय -विशेषज्ञ के रूप में बुला लेते हैं। आप स्वयं चेयर परसन चयन समिति है ।
" लेकिन वेू वी.सी. बड़े खतरनाक है ?
"खतरनाक वी.सी. को राजभवन से फोन करवा दिया है । सब ठीक हो जायेगा ।
" तो आप ने सब व्यवस्था करली है ।
हैं ! हैं ! .....हैं ।
ठीक है । इस सेमिनार के कागजों को ठीक से बनाले । दीपावली के बाद की तारीख रखले । तब तक आपके चयन के लिए भी कुछ करेंगे ।
" साक्षात्कार श्राद्धों से पहले और नियुक्ति आदेश नवरात्री तक हो जाये मेडम ।
" बड़े धूर्त हो ।
चलो कुछ करते हैं ।
कुुलदीपक प्रसन्न मुद्रा में बाहर आ गये ।
कुलदीपक के जाने के तुरन्त बाद अविनाश मेडम माधुरी से मिलने पहुँंचें । उन्हें यह ज्ञात हो चुका था कि कुलदीपक किसी राप्टीय सेमिनार के सिल सिले में आये थे। कुलदीपक के प्रभाव को कम करना आवश्यक था । वे भी पुराने खिलाड़ी और पुराने शिकारी थे ।शैक्षणिक
राजनीति उन्हें भी आती थी । वे पहुँचे । माधुरी की व्यस्तता की चिन्ता करने के बजाय वे सीधे मुद्दे पर आ गये ।
" गृह मंत्रालय से एक सरकुलर आया है । गृहमंत्रालय ने पदम पुरस्कारों के लिए प्रविप्ठियां आमन्त्रित की है ।
ये सुनते ही माधुरी के कान खड़े हो गये । दिमाग काम करने लग गया ।
" अच्छा क्या लिखा है सरकुलर में ।
" सरकुलर में गृहमंत्रालय ने विभिन पदम पुरस्कारों यथा भारतरत्न,पदम विभूषण, पदम भूषण, पदम श्री आदि के लिए योग्य लोगों के आवेदन भेजने को कहा है। और इस विश्वविधालय में आप से ज्यादा योग्य कौन है ।
" तो अब हमें क्या करना चाहिये ।
क्रना क्या है आपका और मेरा बायोडेटा तैयार करवा कर भिजवाना है । लेकिन अपने को पदम पुरस्कार कौन और क्यों देगा ?
" अरे मेडम । जब अपराधियों,स्मगलरों,उठाईगिरों, भ्रष्ट नौकरशाहों तथा चवन्नी छाप राजनेताओं को पदम पुरस्कार मिल रहे है तो आप तो कुलपति है ।
" और तुम्हारा क्या होगा रे अविनाश ।"
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"मेरा क्या हैं मेडम । आपके पीछे -पीछे चल रहा हूँ । कहीं तो पहुँच ही जाउूगा ।
" लेकिन पदम पुरस्कारों के लिए उच्च स्तर की सेंिटगं चाहिये ।
"सेटिगं न होगी तो अगले साल फिर कोशिश कर लेंगे । अपने बाप का क्या जाता है? माधुरी के मौन को स्वीकृति समझ अविनाश ने बायोडेटा की प्रति आगे बढ़ा दी । बायोडेटा देखकर माधुरी स्वयं आश्चर्य में पड़ गई । क्या वे वास्तव में प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री, समाजसेवी, कुलपति, दानदाता, महिला हितेपी, राज्यहितकारिणी, ख्यातिप्राप्त शोधकर्ता, लेखक, समाज विज्ञानी थी ।ओर अविनाश के बायोडेटा से भी ऐसी ही शब्दावली की बू आ रही थी ।
मधुरी ने सोच समझकर बायोडेटा को कुलाधिपति की पत्रावली में रखवा दिया । अविनाश धूर्तता से मुस्कराते हुए बाहर आ गये ।
कुलाधिपति सेठ जी ने बायोडेटा देखा । देख कर हॅसें । और माधुरी से बोले ।
" मेडम माधुरी जी क्या यह पदमपुरस्कार आपसे पहले मुझे नहीं मिलना चाहिये, और अविनाश क्या बिमारी है, केवल मेरा नौकर ।
" ते क्या करें ? माधुरी ने पूछा ।
" करना क्या है केवल तुम्हारा और मेरा बायोडेटा जायेगा । शिक्षाके व साहित्य के कोलम से । अपने को मिल जायेगा तो फिर -दूसरों के बारे में सोचेंगे ।
मधुरी को बात समझ में आ गई । सेठानी जी उर्फ माधुरी मेडम सेठजी उर्फ कुलाधिपति व कुलपति के बायोडेटा पदम पुरस्कारों हेतु भेज दिये गये । इतिशुभम् ।
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इधर माधुरी के स्कूल की कम्यूंटर लेब में नित नये खेल होने लगे । ब्राड़ बेन्ड सुविधा के कारण छात्रो, अध्यापकों,कर्मचारियों ने अपने कई-कई ई-मेल आई डी बना लिये कुछ लोंगो ने अपने -अपने ब्लाँग बना लिये और ब्लाँगों पर कुछ -न कुछ लिखने लगे । मुफत कि सुविधा अर्थात फोकट का चन्दन घिस मेरे नन्दन । हल्दी - लगे ना फिटकरी रंग चोखा का चोखा ।
इन्टरनेट पर हजारों - लाखों साइटें । हर साइट के अलग नजारे । पढ़ाई -लिखाई से लगाकर मनोरंजन,फिल्में,गाने, प्यार,सहजीवन की साईटे । हर साइट का अलग मजा । लेकिन खतरे भी बहुत । हर मेल बोक्स में जंक मेल । कभी अफ्रीका से कभी अन्य कहीं से । कभी लाखों को बटोरने का लालच । कभी फंसने का डर । कोई करे तो क्या करे ।
ऐसा ही एक वाकया स्कूल के एक ही अध्यापक के साथ हो गया । किसी जानकार व्यक्ति ने उनका ई मेल आईडी हेंक कर दिया । इस मेल से सभी को सूचना दे दी ।
" मैं एक जगह फंस गया हूँ । लुट गया हूँ । कृपया मेरी मदद करें । "
सभी जगहों से अध्यापक जी के पास मेल आने लगे । साइबर क्राइम की शुरूआत हो गयी । बड़ी मुश्किल से साइट का पेज बन्द किया । सभी को अपने राजी -खुशी होने की जानकारी मेल टेलीफोन एस.एम.एस. चिठ्ठी से दी गई ।
मगर इन्टरनेट टेक्नोलोजी के कारण सुविधाएँ बढ़ी तो समस्याएँ भी बढ़ी । इन्टरनेट पर आन लाइन बेकिंग से भी परेशानियाँं बढ़ी ।
माधुरी -शुक्ला मेडम व अन्य तकनीकी जान कार लोग सब जानते थे मगर मजबूर थे । वाइरस की समस्या अलग परेशान करती थी ।
बड़ी -बड़ी कप्यूंटर कम्पनियां आपस में लड़ती थी एक दूसरे की वेबसाइटस को हेंक कर लेती थी । खामियाजा सामान्य जनता को भुगतना था । वैसे निशुल्क सुविधा का इन्टरनेट पर जवाब नहीं । करोड़ो चिठ्ठियां इधर -उधर क्षणो में चली जाती और वो भी निशुल्क,बिना किसी गलती के । क्या भारतीय ड़ाक -तार विभाग या कूरियर वाले यह कमाल दिखा सकते है । कभी नहीं ।
इन्टरनेट पर चेटिंग और ब्लाँगिग के दीवाने तो माधुरी -विश्वविधालय में भी अनेक थे । सुविधा ये हुई कि अब हिन्दी व भारतीय भापाओं में भी काम होने लग गया । नये -नये लेखक,कवि,व्यंगकार,आ गये,जो कहीं नहीं छपते वे इन्टरनेट पर छपने -खपने लग गये । चेटिंग के माध्यम से मित्र लोग अपनी बात कहने लग गये । ब्लाँंगो पर लम्बी-चौड़ी बहसे होने लग गई ।
माधुरी ने शुक्ला मेडम की मदद से उच्च शिक्षा पर एक सार्थक बहस शुरू करने के लिए ब्लाँग बनाया । अपनी बात कहने का प्रयास किया । लेकिन शीघ्र ही रोज नये -नये लोगों ने नये-नये सवाल उठाने शुरू कर दिये । कुछ सवाल विश्वविधालय की स्थापना,निजि जीवन,सेठजी,नेताजी के बारें में भी आने लगे । माधुरी ने ब्लाँग लेखन बन्द कर दिया । हां फिर भी ब्लाँगों को वो प्रेम से पढती । अमिताभ बच्चन,का ब्लाँग,शाहरूखखान,आमिरखान,सलमान खान के ब्लाँगों को पढ़कर मजा आने लगा । बड़े -बड़े लोगो के छोटे -छोटे दिल । छोटी -छोटी बातों के बड़े - बड़े फसाने ।
हिन्दी भापा के ब्लॅाग । कुंठाओं अवसाद से भरे हुए । शुक्लाजी ने भी अपनी कुछ कविताएँ ब्लाँग पर डाली । सर्दियों के दिन थे । पदम पुरस्कारों के दिन मगर माधुरी का कहीं नाम नहीं था । शायद अभी प्रजातन्त्र में कहीं कुछ नैतिकता जिंदा थी सब कुछ समाप्त नहीं हुआ था। आशा की कोई किरण अभी रास्ता दिखा रहीं थी ।
कल्लू मोची अपने ठीये पर बैठ कर सुबह का अखबार पढ़ रहा था । वो अखबार खरीदता नहीं था, सामने वाले हलवाई से मांगकर पढ़ता था । हलवाई खीजता था मगर अखबार दे देता था । कल्लू का मन अखबार में छपी खबरे देख देखकर दुखी होता था । सोचता था आजकल अखबारों में आता ही क्या है ? खूब सारे फोटो । सुन्दर लड़कियों के फोटो । अनंर्गल समाचार । कुछ अफवाहें और अखबार के मालिको केलेख, मालकिनों कि कविताएं,राजनैतिक पार्टियों के रोपित समाचार । विज्ञप्तियां आदि ।
कल्लू किसी समाचार को पढ़ कर बड़बड़ा रहा था ।
क्या हो गया है, शहर को । बुजुर्ग दम्पति की हत्या । एक अन्य बुजुर्ग लूट लिया । चेन तोड़ी । तलाक।,बलात्कार । पुलिस की नाके बन्दी । बैंक लूट बस यही सब रह गया है आजकल । लगता है सरकार नाम की कोई चीज कहीं है ही नहीं ।
कल्लू की बड़बड़ाहट सुन कर झबरा कुत्ता चौकन्ना हो गया । वो कल्लू की हां में हां मिलाने के लिए पूंछ हिलाने लगा । कल्लू मोची ने चाय की आवाज लगाई । हलवाई की चाय आधी कल्लू ने पी और आधी कुत्ते ने चाटी । कल्लू बेकार बैठा था । सोच रहा था । बारिश के मौसम मे ग्राहकी भी कमजोर पड़ जाती है लेकिन खर्चे कमजोर नहीं पड़ते । उसे तीन -चार लोग आते दिखाई दिये । धन्धे की कुछ आस बंधी लेकिन वे लोग किसी का पता पूछ रहे थे,कल्लू ने पता बताया फिर वहीं उदासी । वही उदास समाचार । कल्लू ने जबरे की ओर देखा । जबरा भी उसे टुकुर -टुकुर ताक रहा था । कल्लू फिर बोल पड़ा ।
" यार कल्लू जमाने को क्या हो गया है ? कोई भी सब्जी पचास रूपये से कम नहीं । गेहूँ पन्द्रह रूपये किलो । तेल सौ रूपये किलो । और सरकार कहती है कि मंहगाई कम हो रही है । विकास दर बढ़ रही है । देश तेजी से तरक्की कर रहा है । सब कुछ तो बाजार हो गया है । बाजार में क्रयशक्ति वाला ही खड़ा रह सकता है । अर्थशास्त्र के अनुसार गरीबी का कारण क्रयशक्ति का अभाव है, वरना सामानों से तो बाजार अटा पड़ा है । भूख मरी का कारण अनाज की कमी नहीं खरीदने की शक्ति की कमी है । कल्लू को यह अर्थशास्त्र कभी समझ में नहीं आता था।
झबरे कुत्ते की रूचि अर्थशास्त्र से ज्यादा हड्ड़ी के टुकड़े या -चाय - चाटने में थी। कल्लू गरीबी से दुखी था,कुत्ता अर्थशास्त्र से दुखी था लेकिन दोनों असहाय थे । कल्लू ने फिर सोचा । आखिर सरकार के कदम महंगाई को क्यों रोक नही पाते। एक प्रधानमंत्री ने तो स्पप्ट कह दिया, महंगाई दूसरे मुल्कों की नीतियों के कारण बढ़ रही है । इट इज ए ग्लोबल फिनोमेना ।
हूँ । क्या सरकार चाहे तो कुछ आवश्यक वस्तुओं के दाम कम नहीं कर सकती । गरीब को कार, ए.सीए शेयर बाजार, माँल,मल्टी प्लेक्स, फलेट, टीवी, कम्ंयूटर नहीं चाहिये । केवल दोजरव को भरने के लिए दो जून रोटी चाहिये । मगर सरकार सुने तब न .........।
शाम हो चली थी । कल्लू ने सामान समेटा । घर को चल दिया । आज भी शायद धर पर पकाने को कुछ न हो । जबरा कुत्ता उसके पाँवों में लौट गया । उसने उसे पुचकारा और उदास मन से घर की और बढ़ गया ।
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अविनाश, कुलदीपक माधुरी विश्वविधालय के स्टाफ रूम में गप-शप कर रहे थे । अविनाश वैसे तो जनसम्पर्क का काम देखते थे, मगर वे स्वयं की मार्केटिंग में भी माहिर थे । कुलदीपक पिछली बार चयन समिति से तो चयनित हो गये थे, मगर राज भवन ने अड़गां लगा दिया था । राज भवन के प्रतिनिधि के अभाव में चयन समिति की -संवैधानिकता पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया था । वे चयनित थे, मगर आदेश रूक गये थे । वे कोर्ट में जाना चाहते थे, मगर माधुरी ने रोक दिया था । कहा था । समय आने पर सब ठीक हो जायेगा । कुलदीपक मन मसोस कर रह गये थे, मगर सेमिनार में लग गये । क्योंकि सेमिनार का बजट आ गया था । बजट को मार्च के पहले निपटाना था । मगर कुलदीपक जी उूंचे खिलाड़ी थे, उन्होने झपकलाल को सेमिनार का काम काज संभलवा दिया था । समितियां बना दी गई थी । बजट की बंदर बांट जारी थी । कहीं कहीं विल्लियों की लड़ाई में बजट बन्दर ही खा जाने को उतावले थे ।
रजिस्टार शुक्लाजी अलग अपना अपना राग अलापते रहते थे, उन्होने ठेके पर एक सेवानिवृत्त लेखाकार को लेखाधिकारी के रूप में लगा दिया था बेचारा लेखाकार रजिस्टार के आदेशों की पालना में सभी गलत -सही कागजों पर सही बैठा देता था । कभी किसी कागज पर आक्षेप लगाता तो शुक्ला जी उसे बुलाते,चाय पिलाते,प्यार से समझाते और कहते "बाबूजी ! ये निजि विश्वविधालय है । यहाँ पर सब कुछ मेडम की मर्जी से चलता है । हर कागज पर वे हीं निर्णय लेती है । आप अपने सरकारी आक्षेपो के त्रिशूल नही गाड़े नहीं तो मेडम नाराज हो जायेगी । आपकी नौकरी तो जायेगी ही मेरी भी जारन सांसत में पड़ जायेगी ।
धीरे धीरे विश्वविधालय अपना आकार ले रहा था । वहाँ पर मुखौटे थे, हाथी थे ।मगर मच्छ थे । छिपकलियां थी । चूहे थे । सब धीरे धीरे इस अरण्य में विचरण कर रहे थे । विश्वविधालय धीरे धीरे एक समन्दर का रूप ले रहा था । विज्ञापनों के कारण छात्र-छात्राएँं भी आने लगे थे । तकनीकि संस्थान हो जाने से फीस भी मोटी और उूॅची हो गई थी । सरकारी अनुदान भी मिलने लग गया था । विदेशों से भी पैसा आने लगा था । भव्य भवन के निर्माण में रजिस्टार साहब की कोठी भी बन गई थी । कहने को इन्जीनियर्स भी थे, मगर रजिस्टार शुक्लाजी बड़े चालू चीज थे । वे सभी को चूरा देते और लड्डू खुद हजम कर जाते । पढ़ने-लिखने के शौक के कारण अध्यापको से बहस कर जाते और पद की गरिमा के कारण उन्हे चुपकर देते । वैसे अध्यापक बेचारा सबसे गरीब डरपोक,कामचोर,कायर जीव होता है, जिससे अध्यापन के अलावा पचास काम कराये जा सकते है । कुलदीपक जी उन्हीं पचास कार्यो में से एक सेमिनार में लगे थे । सेमिनार के उद्धघाटन में वे तसलीमा नसरीन,मैत्रेयी देवी महाश्वेता देवी या अरून्धती राय को बुलाना चाहते थे मगर माधुरी मेडम व कुलाधिपति महोदयो ने शिक्षामंत्री से पूर्व में ही समय ले लिया था । इस कारण स्त्री विमर्श व वूमेन लिब के अन्य जानकार सेमिनार में केवल भापण देने में ही व्यस्त रहे ।
शिक्षामंत्री के आने से विश्वविधालय का बड़ा भला हुआ । उसे स्थायी मान्यता मिल गई ।
कुलदीपक सेमिनार की सफलता से खुश थे । माधुरी विश्वविधालय के स्थायी करण से खशु थी । रणछोड़ दास जी महाराज अख्रबारो में फोटो टीवी पर शकल दिखने से खुश थे । अविनाश,झपकलाल रजिस्टार आदि चूरे से खुश थे । सेमिनार के बजट से कुछ राशि बच गई थी,एक दिन पूरे विश्वविधालय स्टाफ और छात्र-छात्राओं ने शानदार पिकनिक मनाकर बजट को संम्पूर्ण कर दिया ।
ऐसे विश्वविधालयों की हर राज्य में बाढ़ सी आ गई । तकनीकि संस्थानों की भी बाढ़ आ गई । सब कुछ शिक्षा के नाम पर जिसके लिए किसी ने लिखा कि शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी वह कुतिया है जिस पर हर कोई एक लात मार देता है ।
सरकार के मुखिया ने अचानक यह इच्छा जाहिर की िक वे राज्य केलेखकों,बुद्धजीवियों से मिलेगे । लेखक तलाशेजाने लगें । कई लेखकों से सम्पर्क करने के प्रयास किये गये । मगर कई नकचढ़े लेखकों ने नवरत्नो में शामिल होने से मना कर दिया । कई लेखकों ने छुट भैये पत्रकारों,कवियों के नाम सुझा दिये । कारिन्दों ने विपक्षी नेताओं से भी नाम मांगे, मगर इस बुद्धिजीवी मीट के लिए उन्होने अपने आदमियों को भेजना गंवारा न किया । कारिन्दों को बड़ा आश्चर्य हुआ । अच्छा खाना -नाश्ता, ए.सी. हाल में मुख्यमंत्री से मुलाकात का अवसर । मगर अच्छे लोग मिल नहीं रहे । जो मिल रहे थे उन्हे सरकार बड़ा उूॅचा लेखक -कलाकार मानने को तैयार नहीं । और पत्रकारों का क्या भरोसा,कब क्या लिख बैठे । बड़ी परेशानी थी । मुख्यमंत्री के निजिसचिव ने जन सम्पर्क सचिव को तलब किया ।
ल्ोखको की सूची बन गई क्या ?
" सर ! सूची कई बार बनी । कई बार बिगड़ी । अन्तिम सूची तो मुख्यमंत्री ही बनायेगें न । "
" तो क्या ? एक टेन्टेटिव सूची तो प्रस्तुत करो ।
" सर इन लोगो का कोई भरोसा नहीं । कब कौन क्या बोल बैठे और फिर हमे सी .एम. के सामने नीचा देखना पड़े ।
" क्यों ? हम किसी को ज्यादा बोलने का अवसर ही नहीं देगे ।
सवाल अवसर का नहीं है श्री मान् । ये बुद्धिजीवी बड़ी खफती कौम होती है । ऐसा चूटयां भरती है कि सत्ता को बरसो याद रहता है ।
आपको याद है न एक पूर्व मुख्यमंत्री ने महादेवी वर्मा के बारे में क्या कह दिया था और जवाब में मुख्यमंत्री जी को कुर्सी छोड़नी पड़ी थी और आज तक वे राजनैतिक वनवास से वापस सत्ता की कुर्सी पर नहीं आये ।
" छोड़ो यार ये पुराने किस्से । तुम तो ऐसा करो राजधानी के मठाधीपों को छोड़ो और छोटी जगहों के दस-बीस कवियों,साहित्यकार को बुला लो । दो -चार चाटुकार साहित्यकार जो सत्ता के नगाड़े बजाते रहते है, उन्हे भी बुलाओ । अच्छा खाना । अच्छा कार्यक्रम बस । सी.एम. खुश हो जाये । ये चुनावो का पूर्वाभ्यास है।
ठीक है सर मै काशिश करता हूँ । वैसे कुल कितने लोग चाहिये ।
यही कोई बीस -तीस लोग । प्रारम्भ में सी.एम. का उद्धवोधन ! फिर एक दो को बोलने का मौका फिर भोजन विसर्जन बस ।
" ये जो बोलने का अवसर है यहीं खतरा है ।
" मैं सब संभाल लूगां । आप तो व्यवस्था करें । अकादमियों के सचिवो -अध्यक्षों को भी बुला ले ।
" कई अकादमियां तो खाली पड़ी है ।
" जो है उन्हे तो बुलाओ यार ।
जो हुकम सर ।
जनसम्पर्क सचिव ने बाहर आकर पसीना पोंछा । मुख्यमंत्री कीे लेखकों, बुद्धिजीवियों की मिटिंग में माधुरी विश्वविधालय की ओर से श्ुक्ला जी व समाज सेवी के रूप में श्री मती शुक्ला जी ने स्वयं का नामाकंन करा लिया । अविनाश कुलदीपक टापते रह गये ।
मिटिंग साजधानी में थी । यथा समय मुख्यमंत्री सचिवालय मे एक बड़े हाल में सब व्यवस्थाएं की गई । कवि -लेखको को बिठाने के बाद निजि सचिव ने मुख्यमंत्री को सूचना दी । मुख्यमंत्री ने कुछ समय इन्तजार करा या । फिर आये । सभी को खड़ा होना था,मगर कुछ व्यक्ति बैठे ही रह गये । मुख्यमंत्री ने अग्रिम पक्ति में बैठे व्यक्तियों से हाथ मिलाया । अभिवादन किया । मंच पर पहुँचकर सभी और हाथ जोड़ नमस्कार किया । आसन पर बैठे । यह प्रेसवार्ता नहीं थी,मिलन समारोह था ।
निजि सचिव ने एक पूर्व लिखित भापण मुख्यमंत्री की ओर बढ़ाया मगर मुख्यमंत्री जी ने अपना उदबोधन अलग से दिया ।
" मेरी सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में प्रदेश का कायाकल्प कर दिया है । सड़क,शिक्षा,स्वास्थ्य,ग्रामीणरोजगार पर हमने बहुत खर्च किया है । आगे भी ये योजनाएं जारी रहेगी । आपलोगों से भी सहयोग चाहिये ताकि पूरा प्रदेश तेजीसे आगे बढ़ सके । अब आप लोग संक्षेप में अपनी बात कहे । मैं नोट करूगा । उन्होने निजि सचिव को इशारा किया ।
शुक्लाजी अग्रिम पंक्ति में बैठे थे । खड़े हो गये । "श्री मान् ! उच्चशिक्षा की स्थिति ठीक नहीं है । सर्वत्र शैक्षणिक भ्रष्टाचार का राज हो गया है। शिक्षा का सीधा मतलब डिग्री से हो गया है और डिग्री के लिए भारी फीस । फीस दो डिग्री लो ।
म्ुख्यमंत्री ने टोका " इसमे गलत क्या है ? आपका विश्वविधालय भी भारी फीस लेकर डि िग्रयां दे रहा है ।मुझे सब पता है ।
शुक्लाजी बैठ गये । आपा खोते हुए श्री मती शुक्ला बोल पड़ी ।
प्रदेश में महिलाओं की स्थ्तिि खराब है । ग्रामीण रोजगार योजना में उन्हे पूरी मजदूरी नहीं मिलती । सूचना के अधिकार के तहत जानकारी नहीं मिलती ।
ऐसी सामान्य बातों से कुछ नहीं होगा । आप कोई केस बताईयें । मुख्यमंत्री ने फिर टोंका ।
" केस ही केस है सर । आप ध्यान तो दीजिये ।
" ठीक है आज बैठ जाईये । श्री मती शुक्ला बैठ गई ।
एक कलाकार नुमा पुराने बुजुर्ग खड़े हुए "सर ! आजादी के दिनों में हमने क्या क्या सपने देखे थे । मगर सब कुछ बाजार हो गया है । साहित्य,कला,संस्कृति, हस्तशिल्प,कुटीर उधोग सब कुछ बाजार हो गया है ।
" बाजार होने से ही तो कीमत और मांग बढ़ती है । देखिये हमारा माल किस कीमत पर जा रहा है । तथा कलाकारों,दस्तकारों की माली हालत कैसे सुधर रही है । "एक सचिव ने टोंका । मुख्यमंत्री ने सचिव को चुप रहने का इसारा किया । कलाकार फिर बोला ।
अकादमियों में काम काज ठप्प है। बजट केवल वेतन के लिए मिल रहा है । अकादमी -सचिव नौकरशाहों की तरह व्यवहार कर रहे है । वहाँ कलाकारों की कोई इज्जत नहीं ह। सचिव सर्वेसर्वा हो गये है।
तो भई अकादमी के रोजमर्रा के काम तो सचिव ही करेंगे । मुख्यमंत्री बोले
" वो ठीक हें सर ! मगर कलाकार केवल सम्मान चाहता है ।
" सम्मान भी मिलेगा । हम शाघ्र ही नये अध्यक्षों की घोपणा करेंगे ।
एक सेवा निवृत अध्यापक जो लिखने का शौक रखेते थे बोल पड़े ।
"सर ! शिक्षा विभाग की स्थिति दिनो दिन गिरती जा रही है । हर योजना असफल हो जाती है । योजनाओं में दोप नहीं होता मगर क्रियान्वयन में गलती होती है ।
" आप जब शिक्षा विभाग में थे,सुधारने के क्या उपाय किये ।
" अध्यापक जी चुप लगा गये । मुख्यमंत्री व कारिंन्दे मन्द -मन्द मुस्काराने लगे ।
एक अन्य बुद्धिजीवी ने मंहगाई की बात उठाई लेकिन उनकी आवाज को नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह किसी ने भी सुनना उचित नहीं समझा ।
एक हारी हुई महिला ने टिकटों के बंटवारे में महिलाओं के आरक्षण की बात की । मुख्यमंत्री ने पचास प्रतिशत आरक्षण की घोपणा की और साथ ही कहा - महिलाओं के जीतने के बाद उनके पतियों को काम -काज में दखल नहीं देना चाहिये । चारो तरफ सरपंच पति, पार्पद पति,प्रधान पति व जिला प्रमुख पति,जैसे पद सृजित हो गये है । इस प्रवृत्ति को रोका जाना चाहिये । मुख्यमंत्री बोले जहां तक स्वास्थ्य,ग्रामीण रोजगार,गन्दापानी,मौसमी बीमारियां आदि के मामले है, ये सब अपने आप धीरे -धीरे ठीक हो जायेगें । मुख्यमंत्री ने उपवेशन की समाप्ति की धोपणा की ।
" आईये भोजन करते हैं। इसे वेद वाक्य से सभी आमन्त्रित बड़े प्रसन्न हुए । स्वादिप्ट - सफल कार्यक्रम की अखबारों में सरकारी तंत्र ने खुल कर प्रचार -प्रसार किया ताकि आगामी चुनावों में सरकारी पक्ष को लाभ मिले । मगर विपक्षी दल भी सत्ता में आने के लिए ऐडी चोटी का जोर लगा रहा था ।
19
शुक्लाजी व श्री मती शुक्ला टेन से वापस आ रहे थे । मुख्यमंत्री की मिटिंग का गहरा असर था । ये बात अलग कि उन्हें मिला कुछ नहीं । वादों, घोपणाओं से किसका पेट भरता है । टेन में भंयकर भीड़ थी। राजनैतिक रैली के कारण हर ड़िब्बे में बिना टिकट कार्यकर्ता सवार थे । टी. टी. रेलवे पुलिस, स्टेशन कर्मचारी,अधिकारी सब घायब थे । रेली सत्ताधारी पार्टी की थी । सभी का मूक सहयोग था । शहर में भी पुलिस,अर्ध सैनिक बल, अन्य सुरक्षा एजेन्सी सभी मिल कर रैली को सफल बनाने में जुटे थे । टेन में आरक्षित ड़िब्बों की भी हालत खराब थी आरक्षण टिकट वाले खड़े थे । राजनैतिक पार्टियों के कार्यकर्ता सीटों पर जमें पड़े थे । ऐसे माहोल में एक छुटभैये नेताजी चिरौरी करके ड़िब्बे में घुस गये ।शुक्ला जी व शुक्लाइन जी एक बर्थ में घुस गये । नेताजी ने अपनी रेली की सफलता और व्यवस्था की पूरी जानकारी दी ।
प्ूारी रेली में हम लोग छाये रहे । शाम को मंत्री जी के धर पर भोज था । दाल -बाटी,चूरमा ! पड़ोस के मंत्री जी के यहां पर गुलाब जामुन पुडी,कचौड़ी जिसे जहां ठीक लगा खाया । कुछ लोग बांध कर भी ले आये । रास्ते में काम आयेगा ।
शुक्लाजी क्या बोलते । नेताजी आगे बोले ।
" लगे हाथ पार्टी के मुख्यालय भी हो आये ।
भईया ! का बताये ! पूरा दफतर दुल्हन की तरह सजा -धजा था । पार्टी कार्यालय तो महल है महल । बड़े -बड़े कक्ष । ए.सी. । कारे । टेलीफोन । फेक्स । फोटो स्टेट मशीने । इन्टरनेट । नेता ही नेता । अध्यक्ष जी का कमरा । क्या कहने । साथ में एक मंत्रणा-कक्ष । एक पी.ए. कक्ष । एक वेटिंग रूम । हर तरफ सत्ता की चकाचौध । आंखे चौधियां गई भईया हमारी तो ।
" अच्छा ! शुक्लाजी ने हुंकारा भरा नेताजी ने प्रवचन जारी रखा ।
" कहाँ गान्धी, नेहरू की राजनीति और कहां ये फाइवस्टार पोलिटिक्स ।
हमने गांधी को मारा,इन्दरागान्धी की हत्या की । राजीव भी चले गये । मगर ससुरा ये देश नहीं सुधरा ।
क्यों ? श्री मती शुक्ला बोल पड़ी,
अब आप ही देखिये । क्या गरीब वोटर इस पार्टी - दफतर में जा सकता है ? क्या कोई उसकी बात सुनेगा ?
पार्टी में रिटायर्ड़ आई .ए . एस . एस . आई . पी. . एस ., हाइकोर्ट के जज, सचिव, राजनायिको, विशेषज्ञों के मेले लगते है । मेले ! हर रोज किसी न किसी क्षेत्र विशेष की मीटींग । एक रोज वकील,एक रोज
इन्जीनियर, एक रोज ड़ाक्टर, एक रोज हकीम -वैध, एक रोज अध्यापक, एक रोज पुलिस वाले, एक रोज अफसर, भईया ऐसे मैं गरीब किसान,मजदूर को कौन अन्दर घुसने देता है !!
" मगर असली वोटर तो वो ही है । ""
हां है, वोट के समय उसे खिला- पिला कर तैयार कर वोट की मशीन के सामने खड़ा कर देते है । बेचारा बटन दबा देता है । मगर उूपर के पदों तक नहीं पहुँंचता ।
" शुक्लाजी चुपचांप सुन रहे थे । कोई स्टेंशन आ गया था । यहाँ से रेल की भीड़ और बढ़ गई थी ।
डिब्बे में भीड़ थी । अन्धेरा हो चला था । शुक्लाजी - श्क्लाइन जी ने नेताजी के नाश्ते में से नाश्ता किया । अध्यापकों का हम बहुत सम्मान करता हूँ । नेता जी बोल पड़े थे । मगर शुक्लाइन चुप ही रही । वो जानती थी सरकारी अध्यापक बेचारा क्या क्या करता है । दोपहर का खाना बनाना, बांटना, जानवरों की गिनती करना,पल्स पोलियों, चुनाव, मतदाता सूची,टी . वी . मलेरिया की दवा बांटना, आदि सैकडा़े काम केवल पढ़ाने के काम के अलावा सव । हर काम का अलग अफसर । सरपंच की चमचागिरी अलग । तहसीलदार की सेवा उूपर से । फिर भी स्थानान्तरण, निलम्बन, बरखास्तगी का डर । साल में एक माह का वेतन इन लोगों को समर्पित करने पर ही गांव में रहना संभव । शुक्लाईन ये सब कभी भुगत चुकी थी । शुक्लाजी रजिस्टार बनने से पहले ये सब देख-सुन-भुगत चुके थे । रात गहरा रहीं थी । टेन अन्धेरे को चीरती हुई जा रही थी ।
माधुरी विश्वविधालय सहित सभी निजि विश्वविधालयों को राज भवन से नोटिस मिल गये ।,प्रवेश प्रक्रिया, फीस, डिग्री, केपिटेशन, अध्यापक, कर्मचारियों के बारें में जानकारियां मांगी गई । एक -एक प्रोफेसर ने तीन तीन विश्वविधालयों में अपना नाम फेकल्टी के रूप में लिखा रखा था । एक ही समय वो प्रदेश के तीन अलग -अलग स्थनों पर कैसे पढ़ा सकते है । कैसे शोध करा सकते थे । कुछ प्रोफेसर तो सरकारी सेवाओं से निवृत्त हो कर पेंशन भी ले रहे थे । ऐसे ही एक मामले में एक वरिप्ठ शिक्षक जांच में दोपी पाये गये, उन्हें तीनो जगहो से त्यागपत्र देना पड़ा । पेंशन के लिए जो कागज वे अपने विभाग में देते थे, उसकी भी जांच हो गई । एक अन्य संस्था के निदेशक की जांच में पाया गया कि उनकी डिग्री ही फर्जी है । पी . एचड़ी जहां से की गई थी, वहाँ पर संस्था ही नहीं थी । एक अन्य अध्यापक के शोध पत्र पूर्व प्रकाशित शोध पत्रों की नकल पाये गये । एक अन्य सेवा निवृत अध्यापक ने जो किताब लिखी वो एक अन्य भापा की प्रकाशित पुस्तक का अनुवाद पाया गया ।
सेन्टल बोर्ड ने सभी विश्वविधालयों, संस्थाओं से फेकल्टी के नाम,पते, फोटो,परिचय, सम्पूर्ण विवरण मंगवा लिए । राज भवन के निर्देशों की पालना में जाचें शुरू हुई । मगर शैक्षणिक भ्रष्टाचार की गंगोत्री में सभी नहा रहे थे । हमाम में सभी नंगे थे । सभी नपुसंक थे । सभी राजा को नंगा साबित करने के प्रयास में लग गये । राज भवन की जांच समितियों की रपटे आने में ही काफी समय लग गया । कुछ संस्थाओं ने आयु सीमा बासंठ,पैसंठ,सत्तर वर्प कर दी । सेवानिवृत्त अध्यापकों के मजे हो गये । पेंशन,दो -दो सस्थाओं से प्रोफेसरी के वेतन - भत्ते और अन्य लाभ ।
आखिर कुछ पकड़े गये । जेल किसी को नहीं हुई । सेवायें समाप्ति ही कार्यवाही के रूप में मान्य कर दी गई ।
माधुरी विश्वविधालय की कुलपति भी इन सभी समस्याओं से झूंझ रही थी । उसके विश्वविधालय के भवन में सुबह एम. बी . ए. सायंकाल इन्जीनियरिंग और रात को फारमेसी की कक्षाएं लग रही थी । बी.एड़ कराने का अलग लफड़ा पाल रखा था । अध्यापकों की बेहद कमी थी । सरकारी जांच से जो अध्यापक खाना-पूरी कर रहे थे वे भी भाग बये । कुछ ने पकड़े जाने और पेंशन बन्द हो जाने के डर से आना बन्द कर दिया ।
वास्तव में शिक्षा के तीन रूप हो गये । एक थड़ी वाली शिक्षा की दुकानें,दूसरे कुछ बड़े शोरूम और सबसे बड़े शोपिंग माल्स । विश्वविधालयों संस्थाओं,तकनीकी सस्ंथाओं का ऐसा जाल फैला कि प्रदेश के हर गली - मोहल्लें में शिक्षा देने और फीस,केंपिटेशन लेने वालों के बड़े -बड़े शोरूम हो गये । मेडिकल,तकनीकि,फारमेसी, आदि में तो और भी बुरा हाल हो गया । लड़के - लड़कियां ड़ाक्टर,वैध, हकीम, कम्पाउड़र, फारमेसिस्ट बन गये, मगर कालेज की शकल ष् नहीं देखी । जमकर दुकान दारी हाने लगी ।
प्रदेश के मंत्री असहाय । मुख्यमंत्री चुप । राज भवन की जांचे चलती रही । शिक्ष की गाड़ी में टेक्टर के पहिये लग गये । माधुरी ये सब जानबूझ कर भी अपनी दुकान चलाती रही । उसे कोई खतरा नहीं था ।
- शुक्लाजी और माधुरी अपने विश्वविधालय के प्रशासनिक भवन में जमे हुए थे । शुक्लाजी ने राजधानी में मुख्यमंत्री की मिटींग के बारे में बताया था ।
" वो तो ठीक है शुक्लाजी । मगर ये राज भवन का नोटिस ।
" नोटिस का क्या है ? आते रहते हैं । वैसे भी हमारा विश्वविधालय आर्थिक भ्रष्टाचार की श्रेणी में ही नहीं आता है ।
" लेकिन हमारे पास अध्यापकों की कमी है ।
" हां कुछ अध्यापकों को हम ओवर टाइम देकर ड़बल काम करा रहे है ।
" लेकिन ये गलत है ।
" इसमें कुछ भी गलत नहीं है ।
" अरे भाई फार्मेंसी कालेज में गणित वाले क्या कर रहे है ।
" पढ़ा रहे है,और क्या ?
और इन्जिनियरिंग कालेज में तो कोई है ही नहीं ।
" है कैसे नहीं,एक सीविल के रिटायर्ड प्रोफेसर सब कक्षाएं संभाल रहे है ।
" मगर हमारे यहाँ तो कम्यूंटर चलता है ।
" कम्यूंटर हर विधा में काम आता है ।
देख लीजिये कहीं विश्वविधालय को खतरा नहीं है । आप और मैं दोनों ही फंस जायेगे ।
" आप बेफिक्र रहे । ये कह कर शुक्लाजी माधुरी के केबिन से बाहर आ गये ।
विश्वविधालय में कई मुरारी हीरो बनने के लिए आते है और कई हीरो मुरारी बनने के लिए । ऐसे ही एक हीरो पी. एच. डी. के ड़ाक्टर बनने के लिए झपकलाल के सामने दीन - हीन दशा में सुदामा की भापा में चाटुकारिता का पाठ पढ़ रहे थे । झपकलाल के काम के करने के फण्ड़े बिलकुल पण्ड़ों की तरह साफ सुथरे थे। जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होता है नाम के कहावत वे अक्सर गुन गुनाते रहते थे । उन्होने शोधार्थी जी को समझाया कि आपकी थीसीस तब तक जमा नहीं हो सकती जब तक कि गाइड पैनल .........नहीं भेज देते ।
" मगर गाइड ने तो पैनल भेज दिया था । "
" भाईजान उस पैनल में वी . सी . मेडम के आदमी का नाम नहीं था, अतः पैनल मैंने ही अपने स्तर पर रिजेक्ट कर दिया ।
" आपको यह अधिकार किसने दिया ।
" जाकर रजिस्टार या वी . सी . से माथा मारो । यह कह कर झपकलाल ने एक अन्य शोध छाात्रा की थ्सििस की फाइल आगे कर दी । फाइल पर प्रसाद का स्पप्ट प्रभाव दिखाई दे रहा था । शोध छात्र ने प्रत्रावली पर प्रसाद चढ़ाया । नेग - चार किया । और झपकलाल ने सिद्धान्तों से समझोता नहीं करते हुए शोध छात्र को समझाया।
" वी . सी . का पैनल ही अन्तिम होगा । अपने गाइड को समझाओ। नया पैनल बनवा कर कागज सीधे मेरे पास ले आओ । आवक -जावक शाखा में दिया तो पी . ए .चड़ी . अगले जनम में मिलेगी । समझे।
जी समझ गया ।
अचानक झपकलाल ने उसे वापस बुलाया और कहा । "
यार इस पैनल वाले कागज में तुम अपने हाथ से एक लखनउू वाले का नाम जोड़ दो । मैं फाइल आगे बढ़ा देता हूँ । कौन देखता है ।
" लेकिन उस परीक्षक से गाइड का झगडा़ है ।
वहीं तो । मैं सब समझ रहा हूँ । तुम्हारे गाइड का वी. सी. से झगड़ा है । वी. सी. उसे परीक्षक को बुलाना चाहती है और तुम्हारा गाइड ये नाम मरे ही नहीं लिखेगा । मगर तुम्हे डिग्री लेनी है, हमें देनी है,विश्वविधालय को फीस व अाँकड़े चाहिये । ऐसी स्थिति में वही करो वत्स जो मैं कहता हूँ । एक नाम अपने हाथ से टांक दो । मरता क्या न करता । मुरारी नामक शोध छात्र ने लखनउू वाले परीक्ष्क का नाम गाइड के कागज पर लिख ड़ाला । फाइल आगे चली । वी. सी. ने लखनउू वाले परीक्षक को ही मौखिक परीक्षा के लिए हवाई यात्रा की स्वीकृति प्रदान की।
म्ुरारी के गाइड यह सब देख कर शरम से गड़ गये मगर गधा पहलवान तो साहब को मेहरबान होना पड़ता है । मुरारी ने बाह्य परीक्षक की हवाई यात्रा, होटल, घूमने -फिरने को ए. सी. टेक्सी, शराब,
शबाब, मुर्गा सब व्यवस्था की । गाइड टापते रहे और माधुरी मेडम की कृपा से लखनउू वाले परीक्षक की चरण वंदना से मुरारी विश्वविधालय से पी. एच. ड़ी. वाले ड़ाक्टर हो गये । जानना चाहेंगे मुरारी की थिसिस किसने लिखी थी, डेटा कहां से आये थे । ये मूर्खतापूर्ण प्रश्न आपको शोभा नहीं देते । मगर आपके ज्ञान वर्धन हेतु बता देता हूू कि ये सभी काम शोध छात्र ने धुर दक्षिण की एक युनिवरसिटी से चुरा कर तैयार किये थे । गाइड ने उस काम में पूरा सहयोग किया था । गाइड के डर को मुरारी ने निर्मूल कर दिया और माधुरी विश्वविधालय के पहले ड़ाक्टर घोषित हो गये । गाइड के दुश्मनों ने विश्वविधालय में इस थिसिस की धज्जियां उड़ाने की कोशिश की मगर हमाम में सब नंगे ।
यही कहानी हर विश्वविधालय के हर विभाग की हर पी. एच. डी. में थोड़े बहुत फेर बदल के साथ दौहराई जाती है । दोहराई जाती रहेगी ।
बुद्धिजीवियों की लड़ाईयाँं भी देखने में बड़ी बौधक होती है । बड़ी नजर आती है,मगर अन्दर से छोटी घटिया और कमजोर होती है । बड़े लोगों के दिल बड़े छोटे होते है । छोटी -छोटी बातों से शुरू होकर ये लड़ाईयां अहम् अहंकार और धमण्ड की लड़ाईयां हो जाती है । जिसे बुद्धिजीवी स्वाभिमान की लड़ाई कहते है । ऐसे ही दो बुद्धिजीवी माधुरी विश्वविधालय के एक ही विभाग में प्रोफेसर भये । इन प्रोफेसरों का सीधा हिसाब था मेरा छात्र दूसरे प्रोफेसर को नमस्ते तक नहीं कर सकता । यदि नमस्ते कर दिया तो डिग्री से वंचित । दोनों के अपने अपने गुट थे । अपने अपने गुर्गे थे । अपने अपने गुण्डे थे । अपने अपने सामाजिक सरोकार थे । सामान्यतया दोनो एक दूसरे के सामने नहीं पडते थे । एक सुबह के समय आते । काम - काज निपटाते । चले जाते । दूसरे लंच के बाद आते । सुबह वाले को गरियाते । अपना काम- काज सलटाते । वी. सी. रजिस्टार के दफतर में हाजरी लगाते । चुगली खाते और चले जाते । विभाग में अघोषित युद्धविराम चलता रहता । कभी -कदा कोई बात होती तो दोनो एक दूसरे की अनुपस्थ्तिि में आपकी भड़ास निकालते और फिर शान्त हो जाते । लेकिन आज के दिन शायद विश्वविधालय के नक्षत्र ठीक नहीं थे । दोनो प्रोफेसरों के भी चन्द्रमा नीच के थे । सो दोनो आमने -सामने पड़ गये ।
प्रोफेसर क्रम संख्या एक जो माधुरी विश्वविधालय में आने से पहले एक राजनैतिक दल के निजि कालेज में शिक्षक थे । अपने आपको दल का नेता भी समझते थे नमस्ते करना गवारां नहीं किया ।
इधर प्रोफेसर क्रम संख्या दो जो एक अन्य विचारधारा के थे,ने एक पोथी मांडकर यह पद हथियाया था अब कैसे चुप रहते ।
"" क्या भाई नमस्ते से भी गये ? ""
क्यो नमस्ते ! नमस्कार ! सतश्रीआकाल ! गुड मार्निगं ! सलाम ! ""
"" ये नमस्कार कर रहे हो या पत्थर फेंक रहे हो ।
" पत्थर तो आप फेंक रहे हैं ?
" आप गुर्रा क्यों रहे हैं ।
अब दूसरे प्रोफेसर कैसे चुप रहते ।
तुम भेाँको और मैं गुर्राउूं भी नहीं ये कैसे हो सकता है । " "
बस फिर क्या था । बरामदे शैक्षणिक व्यभिचार,अनाचार,ब्लेक मेलिगं,आदि नारों से गूजने लगे । विभाग के छात्र,छात्राएं,कर्मचारियों,अन्य अध्यापको की भीड़ लग गई ।
प्रोफेसर एक दूसरे का कालर पकड़ना चाहते थे । मगर यह संभव न था । धीरे धीरे वार्ता गरम हो रही थी । वे एक दूसरे के इतिहास को दोहराने लगे थे ।
" तुम राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेते हो ।
" तुम पार्टी के दफतर में क्यों जाते हो । "
" कब गया । "
" पिछले माह "
" वो तो एक राजनैतिक नियुक्ति का मामला था । "
" सो जब तुम जा सकते हो तो मैं क्यों नहीं । "
" तुम वहाँ पर चाटुकारिता करते हो । "
" नहीं मैं वहाँ पर चुनाव धोपणा पत्र में मदद के लिए गया था । "
ये तुम्हारा काम नहीं । वैसे भी पिछली बार तुमने पार्टी की लुटिया डुबोदी थी । "
ओर तुम्हारी साली की जमानत जब्त हो गई थी । "
उससे तुम्हें क्या ?
ओर तुम्हारी पी. एच. डी. की डिग्री फर्जी है ।
डिग्री असली है संस्था के बारे में थोड़ा कन्फूजन है । लेकिन तुमने तो पूरी की पूरी थिसिस की नकल मार ली ।
" ये सब पूरी दुनिया में चलता है । "
तुम चुप रहो ।
तुम चुप रहो ।
पाठको ! जोश और क्रोध में बुद्धिजीवी अंगेजी बोलता है, ज्यादा क्रोध में गलत अंग्रेजी बोलता है । सो दोनो बोल पड़े ।
शट अप ।
यू शट अप ।
यू रासकल ।
यू गेट लोस्ट ।
यू गेट लोस्ट । दोनो गेट लोस्ट हो गये ।
अब कहने को क्या बचता है । ऐसा हर विश्वविससलय में साल में एक - दो बार हर विभाग में होता है । कर्मचारी इसे शैक्षणिक दुनियां का नाटक कहते हैं ।
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श्री मान् ! मैं आपके विचार, चिंतन, मनन, मंथन या जो भी आप के दिमाग से हो सकता है उसे आमत्रिंत करता हूँ । कृपया मुझे, देश, समाज को बताये कि व्यक्ति स्वयं भ्रष्ट होता है या परिस्थितियां उसे भ्रष्टाचारी बनाती है । वे कौन सी स्थितियां परिस्थितियां वगैरह होती है जो व्यक्ति को भ्रष्टाचार की और प्रवृत्त करती है । एक सीधा साधा गउू जैसा व्यक्ति कब ओर क्यों एक धूर्त,पाजी,बदमाश, मक्कार, बन जाता है । मैं आपके इस चिन्तन को भी धार देना चाहूंगा सर कि ईमानदारी की परिभाप क्या है । असली,खालिस,शुद्ध ईमानदारी क्या होती है? कैसी होती है? और ये कि क्यों होती है । आदमी मजबूरी में ईमानदार बना रहता है और मौका लगते ही बेइमानी पर उतर आता है । ऐसा क्यों होता है । ईमानदारी की परिभापा अपने आप में एक शोध का विषय है । इस असार संसार में पैसे लेकर काम कर देने वाला ईमानदार कहलाता है । इसी प्रकार काम नहीं होने पर पैसा वापस लौटा देने वाला भी ईमानदार कहलाता है । कुछ लोग सीमित ईमानदारी की वकालत करते है । इसी प्रकार क्या पुलिस में ईमानदारी की परिभापा शिक्षा विभाग के अध्यापक की ईमानदारी की परिभापा से मेल खा सकती है ।
क्या आयकर विभाग की ईमानदारी की तुलना हम किसी शिक्षक की ईमानदारी से कर सकते है ।
क्या पचास - सौ साल पहले ईमानदारी की परिभापा थी वो आज भी चलन में हैं।
ईमानदारी का नाटक और नाटक में ईमानदारी कैसे सम्भव है ।
ये कैसी विडम्बना है कि बेइमानी के काम में ही सबसे ज्यादा ईमानदारी रखी जाती है ।
श्री मान् ! आप इस लम्बी भूमिका से थक गये होंगे । लेकिन गुलकी बन्नों का दोहिंता,शुक्ला जी का बच्चा, नेताजी के सुपुत्र और कल्लू मोची का इकलोता लड़का ये सभी इसी महत्वपूर्ण प्रश्न पर सेमिनार कर रहे है । ये बच्चे अब किशोर हो गये है। दुनियादारी की समझ रखने लगे है। पोनी बना कर,जींस पहन कर, बेल्ट, जूते,चश्मा, और मोबाइल रखते है । किसी एक की बाईक पर चारों पूरे शहर में धमा चौकड़ी मचाते है । अभी किसी में भी अपराधी प्रवृत्ति का विकास नहीं हुआ है । मगर समय के साथ सब आ जायेगा । हाल फिलहाल ये चारों माधुरी विश्वविधालय के होनहार छात्र है और एक बाबू की सेवा में सौ का नोट टिकाकर अपनी उपस्थिति पूरी कराना चाहते है बाबू काफी समय से अपनी ईमानदारी का रोना रो रहा था । मगर इन युवको का दिल नहीं पसीज रहा था । वो प्रति छात्र सौ रूपये मांग रहा था । नेता पुत्र ने अपना अस्त्र निकाला " करना हो तो सौ रूपये में काम करदो वरना ....! ये भी नहीं मिलेगे । पापा काम करा देगे । इधर शुक्ला पुत्र भी गरजे "
पापा को अगर पता लग गया तो तुम्हारी खैर नहीं है ।
कल्लू पुत्र ने तुरन्त अपना एस. सी. होने का लाभ उठाया,बोला " यदि मैंने शिकायत कर दी की तुम छुआ-छूत करते हो तो पण्ड़ित जी अन्दर हो जाओगे । "
बताईये सर ऐसी स्थिति में विश्वविधालय के बाबू का क्या कर्तव्य बनता है ?
बेताल ने विक्रमादित्य का यह प्रश्न सुना तो विक्रमादित्य से चुप नहीं रहा गया बोल पड़ा ।
" ऐसी सिथति में भागते भूत की लंगोटी ले लेनी चाहिये, अर्थात बाबू को सौ रूपये लेकर उपस्थिति पूरी कर देनी चाहीये । विक्रमादित्य का मौन टूटते ही बेताल फिर जाकर भ्रष्टाचार के पेड़ पर उल्टा लटक गया।
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चारों बच्चों की उपस्थिति बाबू ने पूरी की । डीन एकेडेमिक ने स्वीकार की । बच्चें परीक्षा में बैढे ।
विश्वविधालय में नये सत्र की शुरूआत थी । छात्र चुनाव चाहते थे । प्रशासन सर्वसम्मत्ति से मेधावी छात्र को अध्यक्ष बनाना चाहता था कि रेगिंग के एक मामले में उक्त चारों होनहार छात्रों को पुलिस ढूढने आ पहुँची । ईमानदारी की पुलिसिया परिभापा भी कुछ काम नहीं आई क्योंकि मामला एक कन्या की रेगिंग से सम्बधित था ।
हुआ यो कि माधुरी विश्वविधालय जो कभी टीन-टप्पर की छोटी सी थड़ी हुआ करती थी,अब एक आलीशान सौ एकड ़का परिसर बन गई थी । नित नये कोर्स,नित नये दिमाग वाले प्रोफेसर,नित नये फैशन वाले छात्र और ग्लेमर,फैशन, माडल को अपनाने वाली नित नई छात्राएं ।
नये छात्र-छात्राओं की रैगिंग एक सामान्य प्रक्रिया की तरह देश-विदेश के कालेजों,विश्वविधालयों में एक नियमित अतिरिक्त क्रिया कलाप की तरह चलती थी, सो इस विश्वविधालय में भी चलती थी । लेकिन लम्बे चौड़े परिसर में लम्बे चौड़े लान थे । केन्द्रीय पुस्तकालय को छात्र आपस में सी . एल . याने लव पोइन्ट कहते थे । इस के आस पास सन्नाटा सा रहता था । पढ़ाकू- किताबी कीड़े साझ होते होते पुस्तकालय को छोड़ छाड़ कर चले जाते थे । साझ के झुरमुट में हास्टॅल में रहने वाले छात्र - छात्राएं विश्वविधालय के विशाल परिसर में घूमते - घामते मस्ती मारते रहते थे । जो भी नया छात्र - छात्रा नजर आ जाता उसे " बाँस को सलाम करो । " के आदेश दिये जाते थे । ऐसी एक छात्रों के झुण्ड़ ने नई आई छात्रा को दूर से ही भांपा और कहा।
" ए छिपकली ! क्या अनारकली की तरह मटक - मटक कर चल रही है । " दीवार में चुनवा देगें ।
लड़की देखने में भोली - भाली थी,मगर विश्वविधालयों के माहोल से शायद परिचित थी । बोल पड़ी ।
हे मेरे सलीम ! जरा अपने अब्बा हजूर शहशाहं अकबर से तो इजजत ले लेते । "
ये सुनना था कि लड़को को रेगिंग के सभी सूत्र याद हो गये । वे सूत्रों का मन ही मन पारायण करते हुए बोले - अब तुझे भगवान भी नहीं बचा सकता ।
लड़की को इस बात का गुमान भी नहीं था कि मजाक में कहीं गई यह बात गम्भीर हो जायेगी । मगर अब क्या हो सकता था सो चुप रहीं । परिस्थ्तिि को वह समझ गई थी । रेगिंग का फण्ड़ा ही डराने से शुरू होता था । सो लडको ने उसे डराने,धमकाने का काम शुरू कर दिया । उसे नाचने - गाने को कहा गया । लड़की ने कर दिया । उससे उल्टे - सीधे सवाल किये गये । लड़की ने सहन कर लिये । अब लड़कों को और भी ज्यादा गुस्सा आया । शाम का समय था । बीयर पेट में थी । लड़की अकेली थी । विश्वविधालय में सन्नाटा था । हर तरफ से माहोल लड़को के लिए अनुकूल था । वे जो चाहे कर सकते थे । लड़की सकते में थी । चाह कर भी भाग नहीं सकती थी । चिल्लाने का कोई फायदा नहीं था ।
समय बीतता - जा रहा था । परिस्थितियां और बिगड़ रही थी । अचानक बीयर के बोझ तले दबे लड़के ने लड़की का हाथ पकड़ लिया और एक जोर दार झटका दिया ।
लड़की के मुख से चीख निकल गई । लड़के ने पकड़ और मजबूत कर दी । लड़की र्दद से दोहरी हो गई । अब तक लड़की टूट चुकी थी । उसे अपनी गलती का अहसास हो गया था । वो माफी मांग रही थी । वे पानी भी देने को तैयार न थे । बात बिगडी तो बिगडती चली गई । लड़को ने लड़की के कपड़े फाड़ दिये । बलात्कार के प्रयास किये और रेगिंग के नाम पर परिचय के नाम पर घिनोना खेल खेल गये ।
लड़की कि किस्मत में कुछ सुधार आया कि उधर से एक स्थानीय चैनल की कैमरा टीम निकली । मामले को भाँपते में एक मिनट लगा । टीम ने लड़को के विजुलस ले लिये । लड़की की बदहवास शकल कैमरे में कैद कर ली । और ब्रेकिंग न्यूज देने स्टुडियो में चले गये । चलते कार्य क्रम को रोक कर यह न्यूज दिखाई गई । फिर तो सभी चैनलों ने न्यूज - कैपसूल बनाकर पूरे एक सप्ताह तक राग अलापा । लड़की इस चैनल - चर्चा से ज्यादा धबरा गई और हास्टल के कमरे में दुपट्टे से फंदे में झूल गई । अब मामला चैनलों के हाथ से खिसक कर पुलिस - प्रशासन के हाथ में आ गया था । लड़को की शिनाख्त हो गई थी । ये लड़के वही थे जिम की उपस्थिति कम थी याने कल्लू मोची का लड़का,रजिस्टार शुक्ला जी के सुपुत्र, नेताजी के कपूत तथा गुलकी बन्नों के दोहित्र ।
अब पुलिस इन को ढूँढने के प्रयास करने लग गई । लड़के भूमि गत हो गये । इनके बापों ने दौड़ भाग शुरू की । लेकिन लड़के पुलिस के हत्थे चढ़ गये । शाम को चारों बापो की मीटिगं शुक्ला जी के यहां पर शुरू हुई । उन्होंने बचाव के प्रयास शुरू किये । लेकिन बात बनी नहीं ।
क्योंकि सभी जानते थे कि न्यायपालिका इन्साफ का मन्दिर है और न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बन्धी हुई है । अर्थात न्याय कुछ देख नहीं सकता है । वैसे भी नैसर्गिक न्याय का नियम है कि हजारो दोपी छूट जाये मगर किसी निर्दोप को सजा नहीं दी जानी चाहिये । वैसे भी मुकदमे बाजी एक महामारी की तरह है और यह एक राप्टीय शौक है जो कालान्तर में जाकर शोक हो जाता है । अदालते, जज,इजलास,वकील,गवाह,पेशकार,रीडर,पक्षकार,विपक्षी,मुद्धई आदि सैकड़ो शब्द रोज हवा में घुलते रहते हैं ।
लाल फीतो में बंधी फाइले,दस्तावेज,दिवानी,फौजदारी, कागज, रसीद बयाने,मसौदा,नकल,स्टांम्प,पाइप पेपर,वकालतनामा,सम्मान,कुर्की,रजिस्टी,पुर्जा,सुलहनामा मिसल,रजिस्टार,पटवारी,पंच आदि शब्दों के मकड़ जाल में न्याय फंस जाता है । ऐसे ही निरीह स्थिति में पुलिस की ओर से पब्लिक - प्रोसीक्यूटर ने चारों किशोरों को आत्महत्या के लिए उकसाने, रेगिंग करने तथा बलात्कार के प्रयास की विभिन्न धाराओं के साथ चारों को कोर्ट में पेश कर दिया ।
पुलिस ने स्पप्ट कह दिया अभी इन युवाओं से और भी राज उगलवाये जाने है अतः इन्हे पुलिस रिमाण्ड दिया जाये । पुलिस रिमाण्ड के नाम से ही लड़कों की हवा खिसक गई । लड़कों के बापों ने अपने वकील की ओर देखा मगर वकील नीची गरदन किये चुपचाप बैठा रहा । सरकारी पक्ष को पूरा सुनने के बाद ही जज ने लड़कों की ओर देखा और बचाव पक्ष के वकील को बोलने का अवसर दिया ।
हजूर ! मी लार्ड ! ये बच्चे है । नादान है । अभी पढ़ते है । इन्हें क्षमादान दिया जाये । वैसे भी उस लड़की ने आत्महत्या की थी,जिसका कारण मीडिया में बदनामी थी ।
" सर ये सही नहीं है । लड़की इन लड़को की रेगिंग से तंग हो गई थी । इसी कारण उसने यह कठोर कदम उठाया । सरकारी वकील ने दलील दी । न्यायाधीश चुप रहे । फिर बोले "
" इन चारों को एक सप्ताह के लिए न्यायिक हिरासत में रखा जावे ।
शुक्लाजी,कल्लू,कम्पाउण्डर और नेताजी कुछ न कर सके ।
साँयकाल शुक्लाजी अपनी मेडम के साथ नेताजी से मिलने पहुँंचे । वहीं कम्पाउण्डर और कल्लू भी मिल गये । गम्भीर परिस्थिति में गम्भीर चिन्तन - विचार होते है । इधर नेताजी ने अपने सुपुत्र को बचाने के प्रयास तेज कर दिये । शुक्लाजी को देखकर बोले -
यार तुम्हे युनिवरसिटी में इसलिए लगवाया था कि हमारे ही बेटे को फंसवा दिया ।
" मैं क्या करता सर ! मुझे तो सूचना ही देरी से मिली । मेरा बेटा भी तो फंस गया है ।
" और फिर ये कम्पाउण्डर साहब के सपूत । ये वहां क्या कर रहे थे ? और कल्लू - तेरी ये हिम्मत ।
" हजूर माई बाप है । सौ जूते मार ले । मगर मेरे बेटे को कैसे भी बचा ले ।
" ठीक है कुछ करते है ?
तभी शुक्लाइन बोल पड़ी
" ओर ये आजकल की लड़किया । इन्हें पता नहीं क्या हो गया है । वो शाम को वहाँ क्या रोने गई थी ?
इस फैशन और टीवी चैनलों से सब कबाड़ा कर दिया है। हर चैनल पर इस मुकदमे के समाचार - विचार - वार्ता - गोप्ठियां,विश्लेपण आ रहे है ।
" इन पत्रकारों का कोई दीन,ईमान ही नहीं होता । सब कुछ सच-सच दिखा डालते है । शुक्लाजी बोले ।
" शुक्ला तुम चुप रहो । कुछ सोचने दो ।
" थोड़ी देर की चुप्पी के बाद नेताजी बोले -
इस लड़की के मां बाप को पकडो और उन्हे दे-दिलाकर मामला सुलटाओ । उससे कहों देखो लड़की तो वापस आयेगी नहीं पांच -दस लाख में काम हो सकता है ।
लेकिन क्या लड़की का बाप मान जायेगा ।
मानेगा क्यों नहीं गरीब है,लड़की मर गई है । चश्मदीद गवाह है नहीं । पुलिस - प्रोसीक्यूटर को भी समझा देंगे । और क्या ?
" यदि ऐसा हो जाये तो ठीक ही रहेगा ।
" शुक्ला तुम लड़की के बाप के पास जाओ । कम्पाउण्डर को भी साथ ले जाना । हाथ पैर जोड़ना । साम -दाम - दण्ड - भेद से उसे मनाने की कोशिश करना । "
जी अच्छा ! " और सुनो । कैसे भी कोर्ट से केस वापस लेले ।
अदालत के बाहर समझोता ही विकल्प है ।
कल्लू अब तक चुप था ।
हजुर मेरी हैसियत कुछ देने की नहीं है ।
तो चुप तो रह सकता है । तुम बस चुप रहो । बाकी हम देख लेंगे ।
अगली पेशी पर लड़की के बाप ने पुलिस के मार्फत केस उठा लिया । अदालत को ज्यादा परेशानी नहीं हुई । मुकदमा खतम । लड़के न्यायिक हिरासत से वापस आ गये । और उछलने -कूदने - खेलने लग गये । इस बार नेताजी ने भी काफी सावधानी से दांव खेला था,क्योकि चुनाव सर पर थे । कल्लू जैसा कार्यकर्ता मिल गया । मुसलमानों के वोट के लिए कम्पाउण्डर फिर फिट था और शुक्लाजी ब्राहमणों के वोट दिलाने में माहिर थें,नेताजी जीत के प्रति आश्वास्त थे, मगर नियति को कुछ और ही मंजूर था ।
अचानक नेताजी को राजधानी से बुलावा आ गया । गठबन्धन सरकारों का यही दुर्भाग्य होता है,उन्हें स्वयं पता नहीं चलता कि यह विकलांग गठबन्धन कब तक चलेगा । जैसा कि नियम है सिजारे की हांडी हमेशा चौराहे पर फूटती है, और नेताजी राजधानी पहुँचे तब तक हांडी फूट चुकी थी । जूतों में दाल बंट चुकी थी और सरकार अल्पमत में आ गई थी । सदन के अध्यक्ष ने बहुमत सिद्ध करने के निर्देश मुख्यमंत्री को दिये । मुुख्यमंत्री जानते थे कि बहुमत है ही नहीं तो सिद्ध कैसे करेंगे । तमाम जोड़ - तोड़ - अंकगणित और संख्या बल के सामने वे नतमस्तक थे । उन्हें आजकल में स्तीफा देना था,मगर कोशिश करने में क्या हर्ज है,अतः केबिनेट की बैठक बुलवा कर विधान सभा का आपातकालीन सत्र बुलाने का निर्णय ले लिया गया । हमारे कस्बे वाले नेताजी का उपयोग कुछ एम. एल. ए. को तोड़ने में किया जाना था । नेताजी ने अपने संभाग के एस. सी. एस. टी. ओ.बी. सी. व महिला एम. एल. ए. की एक मिटिंग बुलाई । पांच सितारा होटल में सर्वसुविधा युक्त इस मिटिंग के बाद सभी विधायको को एक रिसोर्ट में नजरबन्द कर दिया गया ताकि कोई इधर -उधर न हो । मगर विधायकों कौ कोन रोक सकता था। विपक्षी पार्टी ने मीडिया में हल्ला मचाया । विधायको को छोड़ा गया। खाने - पीने -उपहार आदि में लाखों का खर्चा आया । लेकिन एक फायदा हुआ जो कीमती नकद उपहार दिये गये उन्हे कैमरे में कैदकर लिया गया । इस सीडी के उपयोग से मुख्यमंत्री जी ने विधायको को बलेक मेल किया और सदन में विश्वास मत पर बड़े आत्मविश्वास के साथ भापण दिया । कुछ भापण का प्रभाव कुछ नेताजी की करामात सरकार एक वोट से बच गई । विधानसभा अध्यक्ष का यह वोट सरकार को बचा गया । मुख्यमंत्री ने नेताजी की पीठ थपथपाई । नेताजी ने अपना टिकट का रोना रोया ।
" सर ! मेरा क्षेत्र तो परिसीमन में आ गया है ?अब मेरा क्या होगा ।
" होना - जाना क्या है ? किसी दूसरे क्षेत्र से प्रयास करना । "
" अन्य क्षेत्र से जीतना मुश्किल है । "
" जीत हार तो जीवन में लगी ही रहती है ?
" कोई और रास्ता बताईये । देखिये सरकार बचाने में मेरे लोगों के लाखों रूपये खर्च हो गये ।
" तो क्या हुआ शराब लाबी और भूमाफियाओं ने आपके माध्यम से सरकार को करोड़ो का चूना लगाया है ।
" सर ! लेकिन मेरे राजनीतिक जीवन के लिए कुछ तो करें । मैं क्षेत्र में जाकर क्या मुंह दिखाउूंगाा ।
"क्षेत्र तो परिसीमन में चला गया है। तुम एक काम करो ।
" कहिये ।
यदि अगले चुनाव में भी हम जीते तो तुम्हें राज्यसभा में भेजने की कोशिश करेगें । तब तक तुम संगठन में काम करो ।
" संगठन में तो पहले ही दूसरे गुट का कब्जा है ।
ते उस गुट को उखाडने की कोशिश करो । देखो हर पार्टी के अ्रन्दर कई पार्टियां होती है और ये कई पार्टियां मिलकर सत्ता या सगंठन को आपस में बांट लेती है ।
" मैं समझा नहीं ।
देखो इस राजनैतिक कूटनीति का बड़ा महत्व है । कांग्रेस में कई कंग्रेस भाजपा में कई भाजपा,कम्यूनिस्टो में कई पार्टियां,ये सब सत्ता और सगंठन के खेल है । इन्हे ख्ोलो । आनन्द करो मैं पार्टी अध्यक्ष व हाइकमाण्ड से बात करके तुम्हे पार्टी में कोई पद दिला दूगां । चुनाव का समय है सगंठन में अच्छे आदमियों की बड़ी जरूरत है ।
जैसा आप ठीक समझे । मगर बुर्जुग नेताओं के सामने मेरी क्या चलेगी ।
" चलेगी । हम नये,युवा,उत्साही लोगो को टिकट देने के प्रयास करेंगे । हम कोशिश करेंगे कि सत्तर पार के शिखर टूट जाये ।
" लेकिन ये लोग पार्टी को डुबा देने की हैसियत रखते हैं ।
" प्रजातन्त्र में जीत - हार चलती रहती है ।
न्ोताजी ने मुख्यमंत्री जी के चरण स्पर्श किये । अन्दर जाकर भैाजी को प्रणाम किया और पारिश्रमिक स्वरूप अटैची लेकर वापस कस्बें में लौट आये । कस्बे में कल्लू मोची के लड़के ने चुनावी बिगुल परिसीमन के आधार पर बजा दिया था । उसे माधुरी विश्वविधालय के छात्रों,कर्मचारियों,अध्यापको,व जातिवादी समर्थन प्राप्त था । यह देख सुन कर नेताजी के पांव तले की जमीन खिसक गई ।
कल्लू पुत्र राजनीति में नया नया था । मगर युवा था । जोश था । तकरीर करने लग गया था । सुबह समाचार पत्र,सम्पादकीय व राजनीतिक विश्लेपण पढ़ कर बहस कर लेता था । पार्टी कार्यालय में चक्कर लगाता रहता था । पार्टी के स्थानीय अध्यक्ष की गोद में बैठने को तैयार था । विपक्षी दलों के वक्तव्यों के खिलाफ अपने वक्तव्य छपवाने लग गया था । सुबह समाचार पत्र में छपे वक्तव्य पढता,दोपहर में प्रेस नोट तैयार कर शाम को छपने दे आओ । प्रेस - विज्ञप्ति के सहारे नेता बनना आसान था, कभी कदा कोई छोटा अखबार फोटो भी छाप देता था । कल्लू पुत्र राजनीति के दांव पेंच सीख रहा था । नेता पुत्र अब उसका अनुगामी बनने को तैयार था । नेताजी रूपी सूर्य अस्ताचल को जा रहा था । शुक्ला जी का बेटा नाकारा था और लड़की के काण्ड़ में शहीद हो गया था । कम्पाउण्ड़र का मुस्लिम बेटा अपने बाप के ठीये पर जमकर बैठने लग गया था ।
चुनाव के चक्कर और चुनावी चकत्लस शुरू हो गई थी । कई राजनैतिक पार्टियों को उम्मीदवार नहीं मिल रहे थे । अन्य र्र्पिाटयों के पास एक - एक पद हेतु कई - कई उम्मीदवार थे । कुछ धूर्त उम्मीदवारो ने कई र्पािर्टयों से सम्पर्क साध रखा था । कांग्रेस से टिकट नहीं मिले तो भाजपा सेले लेगे । दोनो मना कर दे तो तीसरे मोर्चे की शरण में जाने को तैयार बैठे थे । कुल मिलाकर टिकट प्राप्त करना ही सिद्धान्त था । यहीं सिद्धान्तवादी राजनीति थी । सब तरफ से निराश,हताश कमजोर उम्मीदवार निर्दलीय चुनाव लड़ने को तैयार थे, ताकि कुछ चन्दा कर अगले चुनाव तक का चणा -चबैणा इकठ्ठा कर सके । चारों तरफ चुनावी बादल मण्डरा रहे थे । मानसून तो बिना बरसे चला गया था,मगर चुनावी मानसून की वर्पा होने की पूरी संभावना थी और राजनीति के नदी,नाले,तालाब,पोखर,झीलें,कुए,बावड़ियो के भरने की संभावना उज्जवल थी।
समझदार बूढे राजनेता तेल और तेल की धार देख रहे थे । युवा उत्साही नेता सीधे लाल पट्टी व लाल बत्ती वाली गाड़ी देख रहे थे । सब सपने देख रहे थे । सपनों को पूरा करने के लिए रात रात भर जाग रहे थे । चुनावी बाढ़ की आंशकाएं बढ़ गई थी ।
ऐसे ही अवसर पर कल्लू पुत्र ने कुछ आर्थिक संयोजन हेतु एक विराट - विशाल पुस्तक मेले का आयोजन एक स्थानीय अखबार को मीडिया पार्टनर बनाकर कर डाला । एक स्थानीय चेनल को चेनल पार्टनर बना दिया । कल्लू पुत्र का किताबों से कोई लगाव नहीं था । स्मारिका, स्टाल,बेच बाच कर राशि एकत्रित करना ही उसका उधेश्य था । उसने स्टाल बेचे । खाने -पीने के स्टाल्स सबसे पहले और सबसे मंहगे बिके । पुस्तक प्रकाशकों,विक्रेताओं ने ज्यादा रूचि नहीं ली । मगर स्थानीय पुस्तकालयों द्वारा थोक खरीद की संभावना दिखने पर वे भी आये । स्टाल लग गये । निर्धारित समय पर पुस्तक मेला खुल गया । बुद्धिजीवियों ने भी मेले में आने में कमी नहीं रखी । पुस्तके खूब थी । मगर पुस्तको के विषय अलग थे। साहित्य के बजाय केरियर,कुकरी,प्रबन्धन,कम्यूटर आदि से बाजार अटा पड़ा था । कुछ स्टाल्स पापड़,बड़ी,मंगोड़ी,अचार,चाय,नमकीन,तिलपट्टी आदि की थी,और उनपर बड़ी भारी भीड़ थी । लोग बाग घर जाते समय पुस्तकों के बजाय ये ही चीजे खरीद रहे थे । खाने पीने के स्टालो पर भी बड़ी भारी भीड़ थी । पानी पूरी,दहीबड़े,कचौडी,छोले - भटूरे के बीच बेचारी किताब को कौन पूछता ?
पुस्तके न के बराबर बिकी । बहुत सारे प्रकाशक घाटे में रहे । जो गोप्ठियाँं,सेमिनार,आदि हुए उनमें से गजल,पुस्तकों की फैशन परेड़ आदि में बड़ी धूम रहीं । ड़ाँस कार्यक्रमों से पुस्तक मेले की सफलता आंकी गई । पुस्तकों के संसार में समोसो, दहीबड़ो का योग दान अविस्मरणीय रहा । मगर कल्लू पुत्र कमजोर नहीं था । वो भावी नेता था । नेताजी का रोंद कर आगे जाना चाहता था । अतः उसने सरकारी खरीद की घोपणा करवा दी । प्रकाशकों,विक्रेताओं की बांछे खिल गई । एक ही पुस्तक कई प्रकाशको -विक्रेताओं ने सबमिट कर दी । निर्णय लेना मुश्किल हो गया । जो पुस्तक मेले में दस प्रतिशत कमीशन पर मिल रही थी वो ही पुस्तक बाहर बाजार में पचास प्रतिशत कमीशन पर उपलब्ध थी । कुछ बड़े प्रकाशक अधिकतम् मूल्य पर पुस्तक बेचना चाहते थे, सरकारी खरीद में घोटालों की संभावनाएं बहुत बढ़ गई थी ।
पुस्तक क्रय समिति और पुस्तक चयन समिति बनी,मगर निर्णय लेने में सफल नहीं हुई । लेकिन आखिरी दिन सब ठीक - ठाक हो गया क्योंकि सभी पुस्तक विक्रताओं के यहाँ से सरकार ने कम से कम एक पुस्तक अवश्य खरीद ली । विरोध की गुंजाईश ही समाप्त हो गई । सब खुश । सब का खर्चा - पानी निकल गया । पुस्तक लेखक खुश । प्रकाशक खुश । पुस्तकालय - अध्यक्ष खुश । क्रय समिति खुश । पुस्तक चयन समिति खुश क्योंकि सब का मुंह बन्द । लेकिन जिन लेखकों की कम पुस्तके क्रय हुई वे भला कैसे चुप रहते, लेखक संगठनो के नाम पर अखबार बाजी हुई । इसी प्रकार जिन प्रकाशकों को ज्यादा लाभ मिला,छोटे प्रकाशको ने उन्हें लपेटा,लेकिन धीरे धीरे सब शान्त हो गया । लोग सब भूल गये उन्हे केवल फैशन परेड में पुस्तक हाथ में लेकर रैम्प पर चलती कन्याओं के ठुमके याद रहे ।
पुस्तक संस्कृति का शायद यह अन्तिम अध्याय था ।
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पुस्तके जीवन है । पुस्तके मशाल है । हर पुस्तक कुछ कहती है । हर पुस्तक जीवन जीने की कला सिखाती है । पुस्तक प्रेम जीवन से प्रेम है । जैसे नारे जो सैकड़ो वर्षोंं से हवा में पुस्तक मेले में तैरते रहते थे वे सब हवा हो गये । उूपर से चैनल,टी. वी. इन्टरनेट कम्यूटर आदि ने पाठको का समय छीन लिया । चैन छीन लिया ।
पुस्तको में समोसे,दहीबड़े,और पानी पुरी घुस गई । साहित्य के बजाय कुकरी,फिटनेस,कताई - बुनाई साहित्य, सेक्स,हिन्सा,आदि की पुस्तको ने बाजार को ढ़क लिया ।
सब कुछ बदल गया । पुस्तक क्रान्ति एक भ्रान्ति बन गई । सरकारी खरीद के कारण पुस्तक प्रकाशको के गौदाम से निकल कर सरकार के गौदामों में बंद हो गई और पाठक तरसते रहे ।
शहर को आंतकवादियों ने अपनी हिट सूची में शामिल कर लिया था । समाचार पत्रों, ईमेल आदि के द्वारा आंतकवादियों ने खुले आम धमकियां देना शुरू कर दिया गया था । पुस्तक मेले में भी एक लावारिस बेग एक साइकल पर पड़ा मिला था । जिसे पुलिस ने कब्जे में कर लिया था ।
पिछले दिनों जयपुर, बेंगलौर, हैदराबाद, अहमदाबाद, सूरत, बड़ौदा में भी आंतकी कार्यवाहियां हुई थी । पुलिस, प्रशासन, सी. बी. आई. आई. बी. आदि सरकारी एजेन्सियां नाकारा साबित हो रही थी । सरकार के रटे रटाये वक्तव्य जारी हो रहे थे । दोषियों को बख्शा नहीं जायेगा । दोषियों को पकड़ा जायेगा । मीडिया सरकार की जबरदस्त खिचांई करता,दूसरे दिन जीवन वापस उसी पुराने ढर्रे पर चल पड़ता । मीड़िया जनता की सहनशीलता की तारीफ करता मगर इस तारीफ से क्या हो ? जिस परिवार ने अपना खोया है उससे पूछो दर्द क्या होता है ? आंतक क्या होता है?खून क्या होता है ? कुछ दिनो में सरकार चेक बांट देती । चेक बांटते नेताओं के समाचार -चित्र चैनलों,समाचार पत्रों में छप जाते और बस हो गया आंतकवाद से मुकाबला । फिर वहीं सरकार की,नौकरशाही की राजनीति की बेढगी चाल । एक तरफ चुनाव में टिकटों की मारामारी और दूसरी तरफ आंतक की निशाने बाजी ।
- बेचारे शुक्लाजी की कार ऐसे ही माहोल में चौराहे पर खड़ी थी,वे पास में खड़े थे कि एक भयकंर विस्फोट हुआ । रजिस्टार साहब और उनकी कार के परखचे उड़ गये । दूर दूर तक खून केवल लाल खून ....। एक के बाद एक शहर में धमाके ........। चीख पुकार .....। घायल .....। अफवाहे .....। समाचार .........। शहर कांप उठा । सरकारी कर्मकाण्ड । पुलिस की घेरा बन्दी । मृतकों को मुआवजा । घायलों का ईलाज । स्वयंसेवी सस्थाओं का योगदान ......। शुक्लाजी के नाम पर विश्वविधालय में शोक । शोकसभा । वक्ताओं ने अपनी अपनी बात कहीं । दर्द की सबसे बड़ी चट्टान शुक्लाईन की छाती पर आई । लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी । आंतक के साये में जीना क्या और मरना क्या ? हर तरफ एक अपना वीराना । कल तक जो चाटुकार थे । धर के बाहर हाथ बांधे खड़े रहते थे,वे ही नजरे फेर गये । अविश्वास का अन्धेरा छा गया । मगर आशा की डोर नहीं छोड़ी । शुक्लाईन कर्मकाण्ड़ से निपट कर कार्यालय जाने लग गई । बेटा अलग फंसा हुआ था । लेकिन जीवन तो जीना था । जीवन है तो परेशानियां भी है । उसने सोचा विधवा जीवन की यहीं कहानी,सूनी कोख और आंखो में पानी । "
ऐसे ही दुरूह समय में शुक्लाईन को ड़ाक से एक पुस्तक मिली । जिसे पढ़कर उन्हें अच्छा लगा । पुस्तक आनन्द का सागर थी । पुस्तक एक विधवा की इच्छाओं पर आधारित वृहद उपन्यास की शक्ल में थी ।
श्री मती शुक्ला ने सोचा ईश्वर क्या हैं ? भगवान कौन हैं ? साधु - सन्त,सन्यासी,ऋपि,मुनि,महाराज,कथा- वाचक,प्रवचनकार,र्कीतनकार सब कौन है और क्या चाहते है । सब शायद अपनी अधूरी इच्छाओं की पूर्ति के लिए धर्म - अध्यात्म का मार्ग ढूढते है । यह मार्ग भी भौतिकता से भरा पड़ा है । इसमें भी कुकर्मी है और सब कुछ छोड़ - छाड़ कर सन्त - महात्मा बनने वालों में भी धन -ऐपणा,यश - ऐपणा और पुत्र -ऐपणा किसी न किसी रूप में जीवित है । इन्ही " ऐपणाओं की पूर्ति के लिए वे जगत में नाना छल,प्रपन्च करते है । करते रहेंगे । करते थे ।
श्री मती शुक्ला ने फिर सोचा छोटी छोटी इच्छाएं,छोटी छोटी कामनाएं,छोटी छोटी बाते मगर जीवन को ये कितना बड़ा बना देती है ।
साझ उदास थी । श्री मती शुक्ला उदास थी । बेटा सांयकाल चला जाता । रात को तीन - चार बजे खा पीकर या पी खाकर आता और बाहर वाले कमरे में सो जाता । नौकरी वे छोड़ चुकी थी । अकेला पन । उदासी । और एकान्त में पुराने दिनों की यादों को ताजा करना । वे खिड़की से उठकर अपनी टेबल पर आ गई । अचानक ख्याल आया जीवन के बचे हुए समय में मुझे क्या करना चाहिये । यही सब सोचकर उन्होने एक कागज पर अपनी छोटी छोटी अपूर्ण इच्छाओं को लिखना शुरू किया । प्रारभिक जीवन में जो कुछ छूट गया था उसे पकड़ने की कोशिश की । उसे पूरा करने की एक जिद श्री मती शुक्ला में दिखाई दी । उन्होने लिखा -
1 . एक शानदार जूतों की जोड़ी खरीदनी हैं ।
2 . कढ़ाई,बुनाई,सिलाई जो बचपन में नही सीख सकी उसे शीघ्र सीखने की कोशिश करूंगी ।
3 . किसी स्वयं सेवी सस्ंथा,स्कूल के बच्चों के साथ दोपहर का भोज और बच्चों की भोज में सहायता करना चाहूँगी ।
4 . जीवन के बारे में एक अच्छी बात को खोज करने का प्रयास करूगी ।
5 . जीवन में हॅंसने के क्षणों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करूँगी ।
6 . गाना गाने का प्रयास फिर से करूँगी एक नृत्य सीखने का प्रयास भी करूँगी ।
7. एक पियानो खरीद कर गाने - नाचने का अभ्यास करूँगी ।
8. बहुत अधिक यात्राएं करूँगी मगर धार्मिक यात्राओं से बचने का प्रयास करूँगी ।
9. किसी पार्क में जाकर ढ़लते हुए सांयकालीन सूर्य को तब तक निहारूँगी जब तक वो अस्त नहीं हो जाता ।
10. प्रेमचन्द का सम्पूर्ण साहित्य पुनः पढूंगी ।
11. जूड़ो - कराटे सिखूगीं । योगाभ्यास करूँगी अपना वजन नहीं बढ़ने दूगी ।
12. शेप भौतिक जीवन आनन्द से गुजारूगी ।
श्री मती शुक्ला ने ये इच्छाएं कागज पर उतार ली । उन्हें बार बार पढ़ने लगी । उन्हें लगा कि जीवन कितना ही छोटा हो, व्यक्ति उससे बहुत कुछ प्राप्त कर सकता है । हर दिन किसी कोने में छुपा बैठा अन्तर्मन उसे कोई न कोई प्रेरणा अवश्य देता रहता है । उन्हें बेटे की कोई फिकर नहीं थी । जवान है । पैसा है । कुछ भी करो । वैसे भी नई पीढी को क्या चाहिये । ऐश । उन्होनें फिर मन में कहा बेटे डू ऐश बट डुनोट विकम ऐश .............। श्री मती श्ुक्ला ने विचारो को मोड़ा । साझ गहरा गई थी । सर्दी बढ़ने लग गई थी । वे कमरे में आ गई । तभी टेलीफोन की घंटी बजी
" हेलो ।"
" हेलो । मैं अस्पताल से बोल रहा हूँ । आपक बेटा दुर्धटना में घायल हो गया है । हालत नाजुक है । आप जल्दी आये ।
श्री मती शुक्ला के हाथ - पांव फूल गये । वे अस्पताल भागी । लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी,शुक्ला जी की तरह उनका बेटा भी उन्हें अकेला छोड़ कर चला गया था । वो रोई । पीटी । लेकिन सब सामाजिक दायित्व निभाये ।
श्री मती शुक्ला इस दोहरे दुख से अन्दर तक टूट गई थी । मगर हिम्मत रखी । वे फिर उसी खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई ।
उदास साँझ । उदासी से भरपूर बादल । सूर्य अस्त हो रहा था । क्षितिज पर उदासी थी । श्री मती शुक्ला ने आंखों में घिर आये आंसूओं को पोंछा ओर टेबल पर फड़ फड़ते कागज को पुनः पढ़ा । उनकी अधूरी इच्छाओं का कागज लगातार फड़फड़ा रहा था ।
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विशाल का प्रापर्टी बेचने - खरीदने का दफतर । दफतर में कर्मचारी । सब खुश । मानव संसाधन विभाग ने एक ई -चिठृठी भेजी,कल कार्यालय में आधा दिन का अवकाश । लंच के बाद पार्टी । पार्टी में सब का आना-होना आवश्यक । सब लंच यहीं करेगें । ई चिठ्ठी ने सब को खुश कर दिया । मस्ती का माहौल हो गया । लेकिन ऐसा क्यों हो रहा है,सब यह जानने को बैचेन थे, मानव संसाधन विभाग भी बेताब था ।
आखिर में विशाल की निजि सचिव ने रहस्य खोला - अपनी कम्पनी के दस वर्प पूरे हो गये है । पिछली बार आयकर विभाग ने जो सर्वे किया था उसमें भी कम्पनी को क्लीन -चिट मिल गई है ।
" मेडम क्लीन चिट दिलाने में लेखाधिकारी का भी तो योगदान रहा होगा ।
" हां हां बिलकुल " सब की मेहनत से सब ठीक ठाक हो गया है । विशाल सर ने वित्त मंत्रालय,दिल्ली तथा कम्पनी मंत्रालय के उच्च अधिकारियों से बात की । "
" अच्छा फिर "
" फिर क्या । मंत्रालय के उच्च अधिकारियों के सामने स्थानीय आयकर वाला क्या बोलते । बेचारे चुप लगा गये । "
" लेकिन इस चमत्कार में कम्पनी का काफी पैसा खरच हो गया होगा ।
" हां हां क्यों नहीं । पैसा कम्पनी के हाथ का मेल है । "
" मैडम इस शुभ समाचार में क्या " कम्पनी अपने कर्मचारियों के लिए भी कुछ करेंगी । "
" क्यों नहीं कम्पनी अपने वफादार कर्मचारियों को कैसे भूल सकती है । " कर्मचारियों को अतिरिक्त कृपा - राशि का भुगतान किया जायेगा ।
" और । "
" ओर । और जिन लोगो ने कम्पनी के खाते बनाये । लेखा,आडिट सीए. आदि को अतिरिक्त वेतन व वृद्धि दी जायगी । हर -एक को कुछ न कुछ मिलेगा । विशाल सर पार्टी में घोपणा करेंगे ।
पार्टी का दिन आ गया । सब सजे - धजे दफतर में पहुँच गये । लंच के पहले भी कोई काम- धाम नहीं हुआ । बादमें तो पार्टी थी ही । कर्मचारी विशेष कर महिला कर्मचारी बहुत खुश थी, कुछ तो अपने लाड़ले बच्चों को भी पार्टी में ले आई थी । पार्टी शुरू होने के ऐन पहले विशाल सर शानदार सूट में अवतरित हुए । कर्मचारियों ने तालिया बजाकर उनका स्वागत किया । स्वागत भापण में विशाल ने कहा -
मित्रों " आज से ठीक दस वर्प पहले मैं गांव से यहां आया था । छोटी - मोटी दलाली का काम करता था । ईश्वर पर मुझे अटूट विश्वास था । मैंने जमीनो के धन्धे में हाथ डा़ला । भगवान ने मेरा हाथ पकड़ा । मैंने स्थानीय नेताओं की मदद से पहली टाउन शिप बनाई । बेची । विकास प्राधिकरण, शहरी विकास विभाग, नगर निगम सभी को यथा योग्य नेगचार दिया । भेंट पूजा चढ़ाई,प्रसाद बांटा । हर पत्रावली पर,पेपर वेट रखा । चान्दी के पहिये लगवाये और आज इस कम्पनी का यह स्वरूप आप देख रहे है ।
एक ओर खुशखबरी आप सभी को देना चाहता हूँ " सेज का जो प्रोजेक्ट हमने भेजा था उसे पर्यावरण मंत्रालय से अनापत्ति प्रमाण पत्र मिल गया है । शीघ्र ही आगे की कार्यवाही होगी । सभी ने फिर तालियां बजाई । विशाल ने फिर घोपणा की
" कम्पनी के सभी व्यक्तियो को अतिरिक्त बोनस के रूप में राशि मिलेगी । सब अपने चेक ले । पार्टी का आनन्द ले ।
पार्टी की बहार हो गई । कर्मचारियों की मौज हो गई ऐसे में कर्मचारियों में खुसर - पुसर शुरू हुई ।
" अरे इस विशाल से क्या होता जाता हैं? सब ससुराल वालो की कृपा है ।
" पूरा घर जमाई है । "
लेकिन खूब पैसा बना रहा है ।
ब्ोचारे कर्मचारियों को मामूली बोनस। क्या करे । अपनी अपनी किस्मत लेकिन दस वर्प में फर्श से अर्श तक सफर तय करना आसान नहीं ।
" सर पर नेता और अफसर हो तो सब कुछ आसान हो जाता है ।
लेकिन देखो कम्पनी की जनसम्पर्क अधिकारी को कितनी लिफट दे रखी है ।
" बेचारी चारों तरफ सम्बन्ध बनाये रखती है । सुना है आयकर वाले मामले में भी बड़ी दौड़ भाग की थी ।
" हां हमने तो ये भी सुना हैकि सारा लेन - देन इसी ने किया । "
" तो बीच में .......।
अब थोड़ा बहुत तो हर जगह चलता है । कम्पनी को करोड़ों की बचत -लाखों का खरचा । सब ठीक ही है । "
" और फिर हमें क्या ? हम कम्पनी के मामूली कर्मचारी है । समय से काम समय से दाम । लेकिन सेज तो दस हजार करोड़ का प्रोजेक्ट होगा ।
" हां इतना तो होगा हीं ।
फिर तो कम्पनी स्टाक मार्केट में जायेगी ।
" और भी अच्छी बात है ।
चलो पार्टी में खाते है ।
कर्मचारियो की चकचक चलती रहती है । पार्टी भी चलती रहती है।
" ये लड़कियां काम तो कुछ करती नहीं हैं ।
" खूब काम करती है भाई,लेकिन दफतर में चहकती रहती है । अच्छे कपड़े पहन कर आती है,इस कारण हम सभी भी स्मार्ट बन कर आते है । ये काम क्या कम है? और महिलाएं .............पार्टी में उन से ही रौनक होती है । एक अन्य कौने वे भी खिलखिला रही है । बतियां रही है । फैशन,माडल, फिल्म,ज्वेलरी,कपडों,सिरियलो पर अत्यन्त गम्भीर चर्चा कर रही है । म्यूजिक बजा । पांव थिरके । डा़स हुए । पार्टी देर रात तक चलती रही ।
विशाल जल्दी चला गया था मगर उसका दिल बैचेन था । ये सफलताएं किस कीमत पर ? ये सब क्यों ? शीर्प पर रह कर अकेलापन । उदासी । वह सोचता सोचता कब सो गया उसे खुद पता नहीं ।
कस्बे के छोटे अखबार कभी कभी बड़ा काम कर देते थे ।इन अखबारों को सामान्यतौर पर लीथडे - चीथड़े पेम्फलेट,दुपन्नीया,चौपन्नीया कहने वाले पाठक भी जब कभी कुछ अच्छा पढ़ लेते तो कृताथर््ा हो जाते । पत्रकार - सम्पादक स्वयं को दैनिक,साप्ताहिक,पाक्षिक या मासिक का मालिक सम्पादक बनाते और सफेद झक्क कपड़ो में रहते । डनहिल सिगरेट पीते,महंगे होटलों में महगी शराब और महंगे डीनर करते । गम उनको भी बहुत होते थे मगर आराम के साथ । प्रजातन्त्र व अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का असली मजा तो कस्बाई अखबार ही लेते थे ।
एक ही प्रेस से छपते पच्चीसों दैनिक,साप्ताहिक,पाक्षिक एक - दो पन्नों के ये अखबार स्थानीय नेताओं,अफसरों,व्यापारियों,उधोगपतियों आदि का भविप्य,भूत,वर्तमान बनाने - बिगाड़ने - संवारने का महता काम करते थे । एक मित्र सम्पादक ने राज की बात खोली ।
" यार मेरा तो साप्ताहिक पत्र है। कस्बे के बावन बड़े, प्रतिप्ठित,इज्जतदार लोगों की सूची बना रखी है, रविवार सुबह किसी एक को फोन करता हूँ,और कहता हूँ, मेरा खरचा इतना है और अखबार का इतना । सोमवार सुबह या अधिक से अधिक शाम तक सारी राशी मुझे मिल जाती है । अखबार और घर का काम चलता रहता है । मैं सोमवार का व्रत रखता हूँ । पीने - खाने,शबाब से परहेज करता हूँ,मगर व्रत पानी से तोड़ता हूँ । सब ठीक - चलता रहता है । सम्पादकजी ने आगे कहा "-यार साल में एक व्यक्ति का नम्बर एक बार आता है,कोई मना नही करता । इस प्रकार मै काली लक्ष्मी का सदुपयोग कर लेता हूँ । वैसे भी मीडिया इज कम्पलीटली मैनेजेबल । कह कर सम्पादक जी ने अपना गिलास खाली कर दिया ।
इस सप्ताह के लिए सम्पादकजी ने विशाल को फोन किया था,मगर किसी कारण वश या अहंकार वश या इमानदारी के चलते विशाल सोमवार शाम तक सम्पादकजी की सेवा करने में असमर्थ रहा । अगला अंक जो छपा वो विशाल के सेज प्रोजक्ट के कारण किसानो में आक्रोश पर केन्द्रित था । वैसे किसानों में आन्दोलन,आक्रोश नहीं था, मगर सम्पादक जी ने अपने तथा अन्य पत्रों में इस समस्या को इतना बढ़ा -चढ़ाकर बताया कि सेज में निवेश को आतुर उधोगपति पीछे हट गये । एक कम्पनी ने तो अपना उधोग अन्यत्र लगाने की घोपणा कर दी ।
एक किसान ने अपनी जमीन जबरन ग्रहण करने पर आत्महत्या की धमकी दी । छुट भैया नेता अपनी फसल काटने लगे । ़ं मीडिया ने मामला स्थानीय,से प्रादेशिक और प्रादेशिक से राप्टीय कर दिया ।विशालको अपनी गलती का अहसास हुआ । मगर अब क्या हो सकता था ।
ऐसी पवित्र स्थिति में कुछ अपवित्र कार्य करने पड़ते है । विशाल पत्नी के साथ नेताजी के बंगले पर हाजरी बजाने पहुँचा । नेताजी ने मिलने से मना कर दिया, विशाल के पांव तले की जमीन खिसक गई । इधर निवेशकों के भाग जाने से विशाल की हालत खराब हो गई । विशाल ने राजधानी के अपने तारों को हिलाया । परखा । जांचा । कुछ ने आश्वासन दिया । कुछने वायदे किये । कुछ ने अपनी कीमते बताई । कीमंत सुन कर विशाल फिर गच्चा खा गया । स्थ्तिियां इतनी बिगड़ जायेगी ऐसा विशाल को पता न था । उसने फिर माधुरी की सेवा में हाजरी दी । माधुरी ने भी आश्वासन ही दिये । उसे भी जो जमीन मिली थी वो वादे के अनुरूप नहीं थी । लेकिन मुसीबत में पड़े विशाल के प्रति कुछ दया भाव कुछ ममता और कुछ भविप्य को ध्यान में रखकर वे विशाल को लेकर नेताजी की कोठी पर हाजिर हुई ।
न्ोताजी मिले । मगर विशाल की तरफ नहीं देखा । विशाल ने चरण छू लिये । नेताजी का दिल पसीजा ।
" सर मुझे इस मुसीबत से बचाईये ।
" ये तुम्हारा खुदका किया - धरा है । अरे तुम्हारी कम्पनी इतना कमा करी रही है । कुछ दान,पुण्य,भेंट,नेग -चार,प्रसाद बांटा करो । बेकार में तुमने एक बुजुर्ग, वयोवृद्ध सम्पादक को नाराज कर दिया । मुझे सब पता है । तुम ने गलती की है ।
विशाल ने चुप रहने में ही बहादुरी समझी ।
माधुरी ने भी उसे चुप रहने का ही संकेत किया ।
" अब क्या होगा ! " सर ?"
" होगा मेरा सिर ! "
" किसी छोटे किसान से यह वक्तव्य दिलाओं कि सेज में मेरे दो लड़को को नौकरी मिली थी, यदि सेज चला गया तो मैं ओर मेरे जैसे सैंकउ़ो लोग बर्बाद हो जायेंगे । भूखे मर जायेंगे । मुआवजा कितने दिन चलेगा । " "
और ! ......
और क्या ऐसे सौ -पचास लोगो को एकत्रित करके जुलुस निकलवाओ,धरना दो, प्रदर्शन करो । मीडिया - अखबारो में अपनी बात पहुँचाओं । " "
धीरे धीरे समाज की समझ में आना चाहिये की सेज आवश्यक है, यदि ये बात समझ में आ गयी तो सेज को सरकार भी पुनः समर्थन पर विचार करेगी ।
हां ये कोशिश मैं कर लूंगा । विशाल बोला,मगर माधुरी ने कहा "
" ये सब आसान नहीं है सर ।"
ये बात भी फैलाओं कि सेज से एक लाख रोजगार मिलेंगे । सड़क,भवन,गार्डन,माल,मल्टीपलेक्स बनेगे । जीवन स्तर उूंचा उठेगा । ""
लेकिन ये राजनैतिक पार्टियों के वक्तव्य ?
" ये सब ऐसे ही चलता रहेगा ।
तुम पार्टी फण्ड में पैसा जमा करा कर मुझसे बाद में मिलना । तब तक मेरे बताये अनुसार काम करते रहना । "
ये कहकर नेता जी चले गये । माधुरी और विशाल बाहर आये ।
कार में माधुरी ने भी अपनी कीमत मांग ली सेज के आ.ई टी. सेक्टर में एक विकसित क्षेत्र । विशाल ने हां भरी ।
विशाल ने माधुरी को छोड़ा । कम्पनी आया और छोटे किसानो को मीडिया के सामने पेश किया ।
मीडिया के दोनों हाथें में लड्डू हो गये ।
22
कभी जहाँ पर कल्लू मोची का ठीया था और सामने हलवाई की दुकान थी ठीक उस दुकान की जगह पर कुछ अतिक्रमण करके कल्लू मोची के नेता पुत्र ने एक छोटा शापिंग माँल बनाकर फटा फट बेच दिया । नगर पालिका सरकार,शहरी विकास विभाग,जिलाधीश,क्षेत्र के पटवारी,तहसीलदार,थनेदार,बी. डी. ओ.,आदि टापते रह गयें आंखे बन्द कर के बैठे रहे । कौन क्या कहता । कौन सुनता । जिसकी जमीन थी उसे खरीद लिया गया । काम्पलेक्स में एक शोरूम अताः फरमाया गया । सब जल्दी से ठीक -ठाक निपट गया ।
कल्लू का ठीया वैसा ही सड़क के इस पार पड़ा था । जबरा कुत्ता स्वर्ग सिधार गया था । कल्लू के ठीये पर एक नाई ने कब्जा जमा लिया । एक पुराना ध्ाँुधला कांच, एक टूटी हुई कुर्सी,एक उस्तरा और ऐसे ही कुछ और सामान .......। दुकान नहीं हो कर भी दुकान थी । ठीये पर दिन भर में पांच - दस लोग दाढ़ी, हजामत के लिए आते । कुछ लोग वैसे ही आस -पास खड़े हो जाते । ठीया एक चौगटी का रूप ले लेता । सुबह-शाम मजदूर कारीगर,बेलदार,हलवाई का काम करने वाले पुड़िया बेलने वाली औरते सब सुबह शाम इसी ठीये के आस पास विचरण करते रहते । शाम होते होते नाई का धन्धा लगभग बन्द हो जाता क्योंकि अन्धेरे में उस्तरा चलाना खतरनाक था । सुबह दस बजे से पांच -छः बजे तक कुछ ग्राहक आ जाते । आज ठीये पर विशेष रूप से एक राजनैतिक दल का युवक काय्रकर्ता जनता की नब्ज टटोलने के नाम पर नाई की कुसी्र पर जम गया था । नाई ने पूछा -
सर ! दाढ़ी बनवायेंगे या कटिंग । युवानेता ने धुधले कांच में निहारा और बोला कांच तो अच्छा लगा । अबे साले चुप । हम तेरे से काम कराएंगे ।
तुम इस देश के भाग्य विधाता हो । वोटर हो । कर्ण धार हो । हम तो तुम्हें सरकार बनाने के लिए बुलाने आये है ।
" सर ! क्यो मजाक करते है । मैं एक गरीब आदमी हूँ । लोंगो की दाढ़ी मूण्ड कर अपना गुजारा करता हूँ । हुजूर की दाढ़ी शानदार क्रीम से,नई ब्लेड से बना दूगां ।
" अरे छोड़ तू दाढ़ी का चक्कर । ये बता हवा किस ओर बह रही है ।
" हजूर कौन सी हवा,किसकी हवा ......।
" अबे इतना भोला मत बन । इच्छा तो तुम्हें झापड़ मारने की हो रही है,मगर ये साले चुनाव के दिन । ......। अच्छा बता इस बार कौन जीतेगा ।
" अब तक नाई समझ चुका था कि आज के दिन बोहनी होना मुश्किल है । नेताजी को नाराज करने पर पिटने का डर था । वे नगरपालिका को कह कर उसका सामान जब्त करवा सकते थे । अतः बोला
"सर ! आप किस की तरफ है ? "
मैं तो जीतने वाले की तरफ हूँ ।
" सर तो हवा भी जीतने वाले की ही बह रही है । " जिसकी हवा वो ही जीतेगें ।
युवा नेता ने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा । उसने दाढ़ी से एक सफेद बाल खीचां और कुछ प्रश्न हवा में उछाले । दाढ़ी और मूंछो में प्रश्नों के पेड़ लगे हुए थे ।
लेकिन सरकार किसकी बनेगी ?
कौन बनेगा मुख्यमंत्री ।
" अब सर इतनी बड़ी बात मैं क्या जानू ।
" अच्छा चल बता किसको वोट देगा । "
वो तो बिरादरी की पंचायत बैठेगी । वो ही तय करेगंी और सभी एक साथ वोट छाप देंगे ।
बेवकूफ ! अब छापने के दिन गये अब तो नई बिजली की मशीन में सिर्फ बटन दबाना पड़ता है ।
तो बटन दबा देगें । हजूर ! नाई नम्रता की प्रतिमूर्ति बना हुआ था । उसे भी मजा आ रहा था । युवा नेता भी भविप्य में किसी राजनैतिक नियुक्ति के सपने देख रहा था ।
" अच्छा चल तेरी दुकान पे इतनी देर बैठा बोल क्या करेगा । चल दाढ़ी बना दे ।
नाई ने युवा नेता की दाढ़ी खुरची,पैसे लिये और देश का भविप्य दूसरी ओर चल दिया ।
नाई थोड़ी देर ठाला बैठा रहा । बतकही करने के लिए आसपास लोग खड़े थे । बातचीत के विषय बदलते रहते थे, लेकिन कनकही के सहारे नई - नई बातें हवा में उड़ती रहती थी । र्नाई ने नाले के पास अपनी अपनी दाढ़ी का गन्दा पानी खाली किया और प्रवाह मान नाले में प्रदूषण बढ़ाया । उसे याद आया सरकार प्रदूषण से चिन्तित थी और समाज सरकार में घुले प्रदूषण से चिंतित थी । इन दोनों चिन्ताओं पर चिन्तन करने वाले चिन्तक इस बात से चिन्तित थे कि विषयों,समाचारों और विश्लेपणों का अकाल कब समाप्त होगा । अफवाहों की दुनिया में रह रह कर लहरें उठती थी और हिलोरे लेती थी ।
प्रदूषण प्रेमी एक सज्जन बोल पड़े " अब सरकार पर्यावरण सुधार योजना के अन्तर्गत अपने कस्बे की हवा पानी भी सुधारेगी ।
" क्या खाक सुधारेगी सरकार का खुद का पर्यावरण बिगड़ा हुआ है । एक अन्य सज्जन ने बीड़ी का सुट्टा लगाते हुए कहा
" और फिर पर्यावरण - प्रदूषण कोई एक ही तरह का है क्या ? सरकार क्या क्या सुधारेंगी? हर तरफ रोज नया प्रदूषण,हवा प्रदूषण,ण्वनि प्रदूषण,ओजोन प्रदूषण,साहित्यिक प्रदूषण सांस्क्रतिक प्रदूषण, राजनैतिक प्रदूषण, अफसरी प्रदूषण और सबसे उूपर भ्रष्टाचारी प्रदूषण । सरकार सफाई अभियान शुरू करती है और गन्दगी प्रसार योजना लागू हो जाती है । बेचारी सरकार क्या करे ।
" तो फिर प्रजा ही क्या करे ? ""
पूरे कुँए में ही भंग पड़ी हुई है ।
अरे नहीं यह पूरी दाल ही काली है ।
" देखो अब अपने इस नाले को ही लो । कई बार इसको ढ़कने के टेण्डर हो गये । कागजों में ढ़क भी गया लेकिन नाला ऐसे ही बदबू दे रहा है ।
नाले को पाट कर दुकाने बनायेंगे ।
" लेकिन ये सब कब होगा । "
" जब सतयुग आयेगा ।"
" लोग नाले पर अतिक्रमण कर रहे है । "
" अतिक्रमण को संवैधानिक मान्यता दी जानी चाहिये । नाई ने बड़ी देर बाद अपनी चुप्पी तोड़ी ।
नाई बोला - अब इस कस्बे को देखो । चारों तरफ गंदगी ही गंदगी । प्रदूषण ही प्रदूषण । अतिक्रमण ही अतिक्रमण । हर तरफ जीन्स,बेल्ट पहने नई पीढ़ी । लड़के ही लड़के । छोटे बच्चे नाले पर गंदगी फैला रहे है । उनकी पसलियां शरीर से बाहर निकल रही है । पेट बढ़े हुए है । कुपोपण के शिकार है ।
लड़को से बचो तो भिखारी । अब पांच - दस पैसे कोई नहीं मांगता । रोटी खिला दे । चाय पिला दे । आटा दिला दे । आज अमावस है । व्रत है । कुछ सैगारी दिला दे । बाबा । धरम होगा । तेरे बेटे -पोते जियेंगे । और यदि भीख नहीं मिले तो सब अपशब्दो पर उतर आते है ।
हां यार खवासजी ये तुमने ठीक कही । कल ही एक भिखारिन मेरे पीछे पड़ गई । नास्ता करा दो । मैंने ठेले से उसे नाश्ते के लिए ठेले वाले को पैसे दिये और कुछ ही देर बाद ठेले वाले ने अपना कमीशन काटकर नकद राशि भिखारिन को लौटा दी । देखो कैसा धोर कलियुग ।
हां तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो । सरकार को भीख - प्रदूषण पर भी ध्यान देना चाहिये ।
" अब देखो मन्दिर में दोपहर के दर्शन को सभी सासे,प्रोढ़ाएं आती है और पूरे रास्ते अपनी बहुओं के गीत गाती चलती है । बहुएं भी कम नहीं है, सासों के बाहर जाते ही कालोनी में सासों के खिलाफ बहू - सम्मेलन शुरू हो जाते है । सब जानती है सास अब दो घन्टे में आयेगी । बिल्ली बाहर तो चूहे मस्त वाली बात ।
" हा ओर सांयकाल के दर्शनो में बूढे,सेवा निवृत्त,ससुर खूब नजर आते है ।
" बेचारे क्या करे । घर से चाय पीकर निकलते है और रात के खाने पर पहुँच जाते है । तब तक फ्री है, गार्ड़न,मन्दिर में घूमते है । अपने बेटे - बहुओं से परेशान आत्माएं ऐसे ही विचरण करती रहती है ।
" और इनके बातचीत के विषय भी ऐसे ही होते है ।
" बेटा,लड़की सास, ससुर,देवरानी,जिठानी,कंवर साहब,पोता,दाहिती आदि ............।
नाई अभी तक एक ग्राहक की हजामत में व्यस्त था । काम पूरा कर बोला अब हालत ये है भाई साहब कि यदि कोई मर भी जाता है तो शव -वाहन मंगवाना पड़ता है, कंधे पर जाने के दिन अब नहीं रहे । इस वाक्य के बाद एक दार्शनिक चुप्पी छा गई । और सभा को विसर्जित धोपित कर दिया गया ।
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इधर कुछ सिर फिरे लोग शहर में नये मुहावरे की खोज में निकल पड़े थे । वे पुराने मुहावरों पर मुलम्मा चढ़ाते, उन्हें चमकाते और अपना नया मुहावरा घोषित कर देते । इस नई घोपणा के बाद वे लोग साहित्य,संस्कृति,कला,विज्ञान, आदि क्षेत्रों के चकलाधरों में घूमते - घामते स्वयं को बुर्जुआ कामरेड या कामरेडी बुर्जुआ धोपित करते रहते । कुछ लोग बहस को और चोड़ी करने के लिए फटी जीन्स पर महंगा कुर्ता पहन लेते । कुछ लोग वाईंस डालर का विदेशी चश्मा लगाकर कार्ल मार्क्स पर अपनी पुरानी मान्यताएँं पुनः पुनः दोहराते । समय अपनी गति से चलता । सुबह होती तो वे कहते सुबह हो गई मामू । शाम होती तो कहते शाम- ए - अवध का क्या कहना । इसी खीचांतानी समय में अचानक अमेरिकी बाजार में भयंकर मंदी छा गई । कई बैंक डूब गये । वित्तीय संस्थानों ने अपनी दुकाने बन्द कर दी । इस मंदी का असर देश,प्रदेश में भी पड़ रहा था । चारों तरफ जो विकास की गंगा दिखाई दे रही थी,वह धीरे धीरे गटर गंगा बन रहीं थी जो लोग विकास की गंगा में नहा रहे थे, उनका जीवनरस गंगा की बदबू से दुखी,परेशान,हैरान और अवसाद में था ।
मंदी की मार को मंहगाई की मार की हवा भी लग रहीं थी । शहर के बीचों - बीच नाई की थड़ी के पास ही लोग बाग जमा थे । पास ही एक ए. टी. एम. पर भयंकर भीड़ थी,यह अफवाह उड़ चुकी थी बैंक दिवालिया हो चुका है । सभी जल्दी से जल्दी अपना पैसा निकालना चाहते थे । इसी मारामारी में धक्कामुक्की हो रहीं थी ।
लोगो को कुछ समझ में नहीं आ रहा था । क्या करें । क्या न करें । अफवाहों,अटकलों को बाजार गरम था । लोगों को अफ्रीका,नाइजीरिया,रूस के किस्से याद आ रहे थे ।
वित्तीय संकट के इस दौर में भी नाई,कल्लू मोची जैसे लोगों को कोई परेशानी नहीं थी क्योकि उनके पास खोने को कुछ भी नहीं था । बैंक खातो की चिन्ता भी तभी तक करते जब तक ग्रामीण रोजगार योजना के पैसे जमा होते । पैसे निकाले । काम खतम । अगली बार रोजगार मिलेगा तो सोचेगें ।
नाले के उपर कुछ कच्ची - पक्की झोपड़ पट्टियां उग आई थी । ये गरीब लोग जिन्हें कुछ लोग बिहारी,कुछ बंगाली और कुछ बगंलादेशी कहते थे । धीरे - धीरे शहर की धारा में अपनी जगह बना रहे थे । औरते घरो में झाडू़,बुहारी,पौंचा,बर्तन,भाण्डे करती ओर मरद रिक्शा चलाते । मजदूरी करते । शराब पीते । अपनी ओरतों और बच्चों को पीटते और खाली समय में आवारागिरी करते । ताश खेलते । आपस में लड़ते - झगड़ते और फिर एक हो जाते । झोपड़ पट्टियों में गरीबी थी मगर जीवन था । जिन्दगी थी । यदा - कदा वे सब मिलकर त्योहार मनाते । खुश होते रात -भर नाचते -गाते । मस्ती करते और दूसरे दिन काम पर नहीं जाते । औरते भी उस दिन छुट्टी कर लेती । दूसरे दिन पूरा परिवार नहा - धोकर रिक्शे में बैठ कर शहर घूमता -खाता -पीता मस्ती करता । कभी कभी पुलिस का डण्डा भी खाता । इन झोपडपट्टी वालों का उपयोग चुनाव के दिनों में खूब होता हर नेता चाहता कि ये वोट हमारे हो जाये । चुनाव के दिनों में रैलियों में, जुलूसों में, पोस्टर चिपकाने में ऐसे कई कामों में ये गरीब बड़े काम के आदमी सिद्ध होते । कई पढ़े लिख्रे मजदूरों ने अपने राशन कार्ड व वाटर कार्ड बनवा लिये थे,इस कारण वे बाकायदा इस देश के वाशिंदे बन गये थे । एक मुश्त वोटो की ऐसी फसल के लिए पार्टियां उनसे एक मुश्त सौदा कर लेती थी । सौदों के लिए बस्ती में ही छुट भैये नेता को कल्लू पुत्र भावी चुनाव के सिलेसिले में पटा रहा था।
कल्लू पुत्र - " और यार सुना ....क्या हाल चाल है । "
" सब ठीक है सर । "
क्या सर - सर लगा रखी है ।
" इस बार वोट कहाँ । "
" जहाँ आप कहे सरकार । "
" क्या रेट चल रहीं है । "
रेट कहाँ साहब ! दो जून रोटी मिल जाये बस ।
" अब एक चुनाव से जिन्दगी की रोटी तो चल नहीं सकती । "
" फिर "
" फिर क्या । "
-बोल इस बार की रेट ........।
हजार रू. प्रति वोटर ।
" ये तो बहुत ज्यादा है । "
" तो जाने दे साहब । "
" वैसे तेरे पास कितने वोट है । "
" बिरादरी के ही पांच सौ है । "
और ........।
ये पूरी वार्ता बस्ती के बाहर ही सम्पन्न हो रही थी कि अचानक बस्ती में एक विस्फोट हुआ । किसी का गैस सिलेण्डर फट गया था । मानो बम फट गया । चारों तरफ चीख - पुकार । फायर ब्रिगेड, पुलिस, प्रशासन,ने जाने कौन - कौन । कल्लू पुत्र ने मौके का नकदीकरण करने में जरा भी देर नहीं की । तुरन्त घायलों की सेवा में अपनी टीम लगा दी । बस्ती वाले उसके गुलाम हो गये । प्रशासन से मुआवजा दिलवा दिया । वोट और भी पक्के हो गये । लेकिन कल्लू पुत्र जानता था कि एक छोटी बस्ती के सहारे विधान - सभा में नहीं पहुँचा जा सकता । उसने अपने प्रयास जारी रखे ।
महत्वाकांक्षा की मार बुरी होती है । महत्वाकांक्षा का मारा कल्लू पु.त्र नेताजी को नीचा दिखाने के लिए राजनीति के गलियारों में, सत्ता के केन्द्रों में तथा संगठन के मन्दिरो में धूमता रहता था । उसने अपने सभी धोड़े खोल दिये थे, ये घोड़े उसे भी दौड़ाते थे । वो दौड़ता भी था, मगर बलगाएं किसी और के हाथ में होती थी । दिशाएँं कोई ओर तय करता था ।
इसी महत्वाकांक्षा का मारा कल्लू पुत्र राजधानी आया । संगठन के दफतर के बाहर जब वह रिक्शे से उतरा तो उसके सामने संगठन का विशाल भवन था । चौकीदार - सिक्यूरिटी ने उसे बाहर ही रोक दिया । वो पार्टी कार्यालय में धुसने के रास्ते ढूंढ रहा था, मगर रास्ते इतनी आसानी से कैसे और किसे मिलते है । पास ही एक शापिंग माल के सिक्यूरिटी गार्ड से उसने परिचय बढ़ाया, उसने पार्टी कार्यालय के बाहर झण्डो, बैनरों को बेचने वाले से मिलाया । झण्डे बैनर वाले ने उसे सिक्यूरिटी गार्ड से परिचित करवा दिया । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में सांझ हो गयी । पार्टी कार्यालय में आब गहमागहमी बढ़ गई थी । उूचे कद के बड़े नेता, नेत्रियाँं, बड़े सरकारी अफसर, बड़े ब्यापारी, उधोगपति सब मिल कर पार्टी को अगले चुनाव में जिताने का वादा एक दूसरे से कर रहे थे । कल्लू पुत्र मौका पाकर मिडिया के नाम पर अध्यक्ष के कक्ष में घुस गया था । अध्यक्ष जी मंत्रणा कक्ष में थे।
कल्लू ने अध्यक्ष के पी. ए. से बात कर ली ।
" भाई साहब विराट नगर से टिकट किसे मिलेगा । "
" अरे विराट नगर के नेताजी की संभावना हे। "
लेकिन वे सीट नहीं निकाल सकेंगे ।
" यह सब तो चलता रहता है । "
मैंने भी आवेदन किया है । "
" अध्यक्ष जी से बात कर लेना । "
" तभी कक्ष में किसी क्षेत्र के समर्थक और विरोधी एक साथ घुस गये थे। हो हल्ला मच गया । बड़ी मुश्किल से भीड़ को बाहर निकाला गया। " कल्लू पुत्र ने अध्यक्ष जी के पांव छुएं, अपनी बात कहीं " सर विराट नगर से टिकट चाहिये । युवा हूँ । लीडर हूँ । तथा एस. सी . से हूँ । दूसरे उम्मीदवार बूढ़े है ।
" उनके अनुभव का लाभ लेंगे । "
" ठीक हे सर क्या मुुझे आशा रखनी चाहिए । "
" आशा अमर धन है । "
कल्लू पुत्र बाहर आया । रात बढ़ गई थी । उसने पार्टी के हाइ-फाइ-फाइवस्टार दफतर को निहारा और ठण्ड़ी सांस भर कर अपने शहर चल पड़ा ।
शहर आकर कल्लू पुत्र ने अपनी टीम को एकत्रित किया । चुनाव में टिकट मिलने की संभावना को बताया और प्रचार में जुट जाने की बात कहीं । मगर मामला धन की व्यवस्था पर आकर अटक गया । नेता पुत्र ने भी अपना विरोध दर्ज कराया ।
कल्लू ने पुत्र ने अपने स्तर पर चन्दा करने के बजाय पार्टी से उम्मीदवारी का ऐलान होने का इन्तजार करना बेहतर समझाा । यदि पार्टी टिकट देती है तो फण्ड भी देंगी । प्रचार, प्रसार का काम अब हर पार्टी में विज्ञापन कम्पनियां करने लग गई थी । टी . वी . रेडियो, कम्ंयूटर, इन्टरनेट, एस. एम. एस. प्रिंट मीडिया, होर्डिंग सभी स्थानों पर विज्ञापन - एजेन्सीज के माध्यम से प्रचार होगा । करोड़ो रूपये खर्च होने का अनुमान लगाया जा रहा था । पार्टियो के दफतरों में हर तरफ महाभारत मचा हुआ था । हर पार्टी की स्थ्तिि एक जैसी थी । हर पार्टी जीत के प्रति आश्वस्त थी । हर पार्टी अपने आपको सरकार बनाने में सक्षम मानती थी । हर पार्टी में आन्तरिक घमासान मचा हुआ था । युद्ध स्तर पर चुनावी युद्ध जीतने के लिए पैतरे बाजी थी ।
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शुक्ला जी के पुत्र के असामयिक निधन के बाद श्री मती शुक्ला ने सब छोड़ छाड़ दिया था । वे एक लम्बी यात्रा पर निकलना चाहती थी, उन्होने एक टेवल एजेन्ट के माध्यम से अपनी यात्रा का प्रारूप हिमालय की तरफ का बनाया । सौभाग्य से टेवल एजेन्ट ने एक अच्छी मिनी बस से यह यात्रा एक महिला समूह के साथ तय कर दी । बस में कुल दस महिलाएँं थी । बाकी स्टाफ आदि थे । इस यात्रा में श्री मती शुक्ला ने अपनी इच्छाओं पर पुनर्विचार किया । उसे एक पूर्व में पढ़ी पुस्तक भी याद आई, जिसमे अरबपति नायक सब कुछ कुछ बेच - बाच कर हिमालय चला गया था । वापसी पर वह दुनिया को शान्ति का सन्देश देने विश्व भ्रमण पर निकल गया । मगर उसकी शान्ति की आवाज आंतकवाद के धमाको में डूब गई और एक दिन वो वापस अपने धर लौट आया कुछ दिनों बाद उस सन्त का अवसान हो गया । श्री मती शुक्ला ने कुछ अधूरी इच्छाएँं तो पूरी करली थी और कुछ बाकी थी ।
जीवन के बारे में वो जितना सोचती, उतना ही उसे अधूरापन लगता । जीवन को सांचे या बन्धी बन्धायी लीक पर चलाना उसे मुश्किल लग रहा था ।
यात्रा प्रारम्भ हुई । एक प्राथमिक परिचय हुआ । सभी प्रोढ़ वय की महिलाएं थी केवल दो कालेज स्तर की कन्याएँं थी । श्री मती शुक्ला को समूह - लीडर बना दिया गया । उसे अपने लायक काम भी मिल गया था । श्री मती शुक्ला ने सर्व प्रथम अपने समूह को अपनी आप बीति सुनाई्र । सभी उसके दुख से दुखी हुए । मगर श्री मती शुक्ला बोल पड़ी
" जीवन तो चलने का नाम है । जीवन नहीं है । पानी है । वेग है । प्रकृति है । "
हमें मिल जुल कर अच्छी - बुरी सभी बातों को सहन करना पड़ता है । आईये अगले पड़ाव पर चलते है।
यात्रा फिर शुरू हुई ।
तुम्हारी क्या कथा हैं ?बच्चियोंं श्री मती शुक्ला ने दोनो बच्चियों से यात्रा की वापस शुरूआत पर पूछ ही लिया । वैसे उसे लग रहा था कि बच्चियां नहीं किशोरियां है, युवतियां है ओर चेहरे और आंखो में जमाने का दर्द भरा हुआ है ।
कुछ देर बस में चुप्पी छाई रहीं । केवल इंजन की आवाज बोलती रही । लड़कियों के जेहन में समन्दर तैर रहे थे । लहरे उठ रही थी । वो चुप थी मगर बोल रही थी । इस अजीब खामोशी के बर्फ को तोडा़ उम्र में कुछ बड़ी लड़की ने -आन्टी हम दोनो विदेयाो में पली बढ़ी है । वहाँ की सभ्यता - संस्कृति में जो कुछ होता है हमने भी वही सब देखा और भोगा है । हमारे माँं बाप ने हमें अपने देश की जमीन,जड़े, देखने भेजा है । हम खुश है । कि कभी हमारे पूर्वज भी इस देश के बाशिंदे थे । आंटी हमारे दादाजी फलोरिडा चले गये । वहीं बस गये । पिताजी का जन्म भी वहीं हुआ, फिर हम आये । हमारी माँं का देहान्त हो गया । पिताजी ने दूसरी शादी कर ली । उससे उन्हें कोई बच्चा नहीं हुआ । बस हम दो बहने । धीरे धीरे पिताजी बूढ़े होते गये । नई मां चली गई नया धर बसाने । पिताजी हिन्दुस्तान लौटना चाहते थे मगर आना मुश्किल था ।
" और तुम्हारे शादी विवाह । एक सह यात्रीणी ने पूछा "
" आन्टी ! वहाँ पर ये सब बेकार की बाते है । सह - जीवन । रोज बदलते बाय फ्रेण्ड व गर्ल फ्रेण्ड । खाना,पीना, एश......। मौज मस्ती ।
" हाँ भाई तुम्हारे तो मजे ही मजे । एक हम है कि एक ही के सहारे जीवन ही नहीं सात जनम काटने का वादा करते है । "
" हिन्दुस्तान के बाद कहाँ जाओगी । "
" आन्टी यह देश बहुत प्यारा है यहाँ के लोग भी अच्छे है । इच्छा तो ये हो रही है कि यही शादी करके घर बसा लूॅ । यहीं रह जाउूं । छोटी लड़की ने चहकते हुए कहा ।
लेकिन क्या यह इतना आसान है । बड़ी लड़की ने कहा । पापा वहां अकेले है ।
वे तो ठीक है ........मगर ओर हम कर भी क्या सकते है ।
" वैसे तुम कितनी पढ़ी लिखी हो । "
ळम ने एम. बी. ए. किया है । नौकरी भी की थी । मगर पापा का काम संभाल ने के लिए सब छोड़ छाड़ दिया फिर घूमने फिरने निकल गई ।
बस हरिद्वार से आगे बढ़ रही थी । ऋषिकेश के किनारे लग गई थी । श्री मती शुक्ला ने आपरेटर को कह कर बस रूकवाई । सभी ने गंगा स्नान किया । शाम को हरिद्वार में आरती के दर्शन किये । तभी रात में श्री मती शुक्ला ने अपने पास लेटी महीला से उसकी जीवन - यात्रा के बारे में पूछा ।
महिला चुपचाप रही । आंखों में पानी आंचल में दूध की कहानी फिर दोहराई गई । बच्चे उसे वृन्दावन में छोड़ गये थे । मन नही लगा । यात्रा पर निकल पड़ी । रात में श्री मती शुक्ला ने एक उदास गीत छेड दिया । सभी उसी में समवेत स्वरों में गाने लगी ।
जीवन की यात्रा और यात्रा का जीवन कब क्या मोड़ लेले कोई नहीं जानता ।
दूसरे दिन सुबह नाश्ते के बाद यात्रा फिर शुरू हुई ।
एक अन्य महिला ने श्री मती शुक्ला की मौन सहमति के साथ अपनी कहानी बयान की ।
दुख, अपमान, अवसाद, कप्ट,मार - पीट, गाली - गलोच और घृणा से भरपूर जीवन की यह कहानी एक पूर्व पत्रकार की थी । पिता की मरजी के खिलाफ शादी, शादी के बाद पति का अन्यत्र प्रेम .........। दुख ........अपमान ......। सब सहते सहते इस किनारे आ लगी ।
पाठको । यह सब असुन्दर । अशिव है लेकिन एक सच्चाई है जिसे हर कदम पर यथार्थ के धरातल पर देखा जाना चाहिये । अखबार में पढ़कर या समाचारों में देखकर भूल जाना अलग बात है और वास्तव में भोकना अलग बात है ।
व्यक्ति के जीवन में यात्रा चलती रहती है । किसी देश के जीवन में पच्चीस वर्प ज्यादा नहीं होते मगर व्यक्ति के जीवन में पच्चीस वर्प बहुत होते है ।
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अब वापस कस्बें में लौट कर आते है जहाँ पर टूटी सड़के, गन्दा पानी,बन्द बिजली, खराब स्वास्थ, नये मल्टीफेक्स, टटपूजिये नेता, भावी समाज हमारा इन्तजार कर रहा है ।
समाज में बदलाव, हवा - पानी में बदलाव, राजनीति में बदलाव,जातियों और समूहो में बदलाव, जैसे कि बदलाव ही जीवन है । बदलाव में भटकाव । व्यक्ति भाग रहा है । मगर क्या दिशा सही है ? या उसका लक्ष्य क्या है । उसके लिए श्रेप्ठ क्या है । वह भी उसे नहीं मालूम । वह दूसरों को श्रेप्ठ की सलाह देता है, मगर उसे खुद नही मालूम कि उसके लिए तथा दूसरो के लिए श्रेप्ठ क्या है ? वह स्वयं को श्रेप्ठ समझता है । दूसरो को हीन समझता है, मगर उसके अन्दर हीन - भावना है जिसे वह नहीं पहचान पाता । हीनता और श्रेप्ठता के बीच झूझता आज का आदमी सरपट दौड़ रहा है । पिछले वर्षों में देश में आंतक वाद ने बड़ी तेजी से पांव पसारे । राजीवजी की जान ले लि । इसके पहले श्री मती गान्धी की नृशसं हत्या हो गई थी और इसके पहले महात्मा गान्धी को मौत के घाट उतार दिया गया था ।
महत्वपूर्ण व्यक्ति भी असुरक्षित । अविश्वसनीयता का एक वातावरण । सब एक दूसरे से डरे डरे । खौफ खाये हुए । विश्वास की डोर टूट गई । अविश्वास, असुरक्षा, आंतक, अन्धा युग सब पर हावी - भारी हो गया ।
ऐसे समय में कस्बे की राजनीति में घृणा पसर गई । सम्प्रदायवाद हावी हो गया । जीवन के मूल्यों में तेजी से हृास हो रहा है । मानव मूल्य कहीं खो गये है । मानवता ढूंढे नहीं मिलती । राजनीति की रोटी सब को चाहिये । विकास के नाम पर काम काम के नाम पर विकास । दोनो के नाम पर वोट सब कुछ राजनीतिमय । घरों तक में हिंसा और राजनीति । महिला सशक्ती करण के नाम पर कुछ का कुछ .......। सब कुछ । .......कुछ भी नहीं । तन्दूर में जलती लड़की ....। हर कोख में मरती लड़की । मातृ - शिशु मृत्युदर में वृद्धि । कोई सुनवाई नहीं । ऐसी स्थिति में कोई किसी को क्या दोप दे । शेयर बाजार में उछाल .....गिरावट । नौकरियों में कटौती । कम्पनियों तक की विश्वसनीयता समाप्त । कल तक जो नौकरी पर था उसे शाम को पिंक स्लिप । या घर पर नोटिस । कहीं कोई स्थायित्व .....ठहराव नही । हर तरफ अनिश्चितता का माहौल ।
कोई चाहकर भी कुछ नही कर सकता । सरकार भी असमर्थ । कम्पनियां भी असफल । बाजार की सिट्टी पिट्टी कब गुम हो जाये कोई नहीं जानता । कब अच्छा भला खाता पीता परिवार किसी शेयर किसी बाजार, किसी बैंक की भेटं चढ़ जाये, कब कोई भ्रूण हत्या हो जाये । कब कोई ड़ाक्टर, किसी की किडनी निकाल दे । कब कोई आतंकी बम फट जाये । कब कोई बुरा समाचार आ जायें कब कोई सरकार गिर जाये, कब कोइ्र अफसर उूपर वालों की गलती से मारा जाये । कब कोई चपरासा नौकरी से हाथ धो बैठे । कोई नहीं जानता । कस्बा हो या गांव या शहर या महानगर सब की स्थिति अत्यन्त विचित्र । अत्यन्त दयनीय । अत्यन्त निराशाजनक ।
मगर नहीं अन्धों के इस युग में भी रोशनी की किरण कहीं न कहीं है । वो राजनीति हो या साहित्य या कला या संस्कृति । सब तरफ से अन्धकार में भी उजासा आता है ।
श्री मती शुक्ला यात्रा करके आ गई थी । कस्बे के अपने मकान में उदास बैठी यात्रा की यादे ताजा कर रही थी ।
उसे बार बार पुराने अच्छे दिन याद आ रहे थे । शुक्ला जी के वर्चस्व के दिन । अपने पुत्र के बचपन के दिन । खुद की नौकरी के दिन । सब चले गये । उसे अकेला छोड़ कर ।
मगर अपनी कुछ छोटी छोटी इच्छाओं की पूर्ति के लिए शुक्लाइन जीवित थी । उसने एक पियानो खरीद लिया था । सुबह शाम उस पर रियाज करती थी । पास के स्कूल के बच्चों को इन्टरवेल में देखती थी। हॅंसते - खिलखिलाते बच्चें । दौड़ते बच्चें । मुस्कराते बच्चें । अपने नन्हें हाथें से टिफिन खोलकर खाते बच्चें । कपड़े गन्दे करते बच्चे । ऐक दूसरे से लड़ते बच्चें । लड़कर मिल जाते बच्चें । गाते - नाचते बच्चें । कभी कभी वह स्कूल के अन्दर रिसेस में चली जाती । किसी बच्चें को खाना खाने में मदद करती । उसे खुशी मिलती । उस खुशी के सहारे उसका दिन कट जाता ।
स्कूली बच्चों की जीवन चर्या उसे प्रेरणा देती । वह बच्चों की सहायता के लिए स्कूल जाती । स्वंय सेवीसंस्था के माध्यम से बच्चों के दोपहर का भोजन बनवाती । बंटवाती । मगर कभी कभी खाने की गुणवत्ता से परेशान हो जाती । चावलों में इल्लियां, गेहूँ सड़ा हुआ, सब्जी पुरानी बासी मगर ऐसा कभी कभार ही होता । सामान्यतया दोपहा का खाना बच्चों में बंटवाने में उसे मजा आता । सुख मिलता । संतोप, मिलता । आनन्द मिलता । आनन्द संतोप में वह अपना दुख भूल जाती ।
शुक्लाईन ने अपने मकान में एक स्कूल अध्यापक - दम्पत्ति को रख लिया । इससे उसके सूने धर में रौनक हो गई । मगर पड़ोस के लोगों को ये सब कैसे सुहाता । पड़ोसियों ने पड़ोस - धर्म का निर्वाह करते हुए दम्पत्ति को भडकाने का शुभ काम आरम्भ कर दिया । श्री मती शुक्ला के बरसों पुराने किस्से उन्हे सुनाये जाने लगे । बेचारे अध्यापक दम्पत्ति जल्दी ही किनारा कर गये ।
श्री मती शुक्ला फिर अकेली रह गई ।
उसे फिर जीवन की नीरसता की याद आई । मगर जीवन को तो जीना ही है ।
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कस्बे का एक पार्क । पार्क की बेंच पर लिखा था -
सत्यमेव जयते ।
किसी ने काट कर लिख दिया ।
असत्यमेव जयते ।
बेशर्म मेव जयते ।।
दूसरे किनारे पर लिखा था ।
अहिंसा परमो धर्म: ।
किसी ने काट कर लिख दिया ।
हिंसा परमो धर्म: ।
एक तरफ गान्धीजी की मूर्ति खड़ी थी और सब कुछ देख समझ रही थी । मगर मूक थी ।
मूर्ति चारों दिशाओं से आने वाली आहटों को सुन् समझ रही थीं । मगर कुछ भी करने में असमर्थ थी । मूर्ति के पास ही कल्लू का युवा बेटा भावी नेता अपने आपको चिन्तन में दिखा रहा था । उसे गान्धी, नेहरू, अम्बेडकर, और आजादी के पूर्व के दीवानों की कथाएँं याद आ रही थी । उसने देखा कि एक पक्षी गान्धी जी की मूर्ति पर बैठ कर चिल्ला रहा था, मगर पार्क में चारों तरफ शोर था । किसी का भी ध्यान पक्षी की आवाज की ओर नहीं गया । पक्षी चारों तरफ देखकर प्रकृति के सौन्दर्य को जी रहा था । कुछ ही देर में पक्षी फड़ फड़ाकर उड़ गया । कल्लू - पुत्र मानव और उसके आस -पास के परिवेश पर सोच रहा था । गरीबी, बेकारी, मजबूरी, मजलूमी, कहीं कोई सरोकार नहीं था ।
तकदीर, तदबीर और तकरीर के सहारे ही प्रगति की सीढ़िया चढ़ी जा सकती है वो, महत्वाकांक्षा का मारा था । राजनीति में नया था, मगर जोश और जुनून था । उसे टिकट मिलने की पूरी संभावना थी ।
वह सोच रहा था, मनुप्य क्या है ? क्यों होता है नीच । क्यों करता है समझौते । मानव की आत्मा को देखो। खोल को हटाओ । एक दम नीचे कहीं आत्मा होती है । मगर आत्मा की आवाज कौन सुनता है । उसने राजनीति के कीचड़ में कमल भी देखा । कीचड़ भी देखा । संड़ान्ध भी देखी । गिर गिट भी देखे । रंग बदलते, खोल बदलते गिरगिट देखे । मगरमच्छ देखे । हाथी देखे शेर की खाल में सियार देखे ओर शहर में रंगे सियार देखे ।
क्या हमारे नेताओ ने आदमी में उग आई झूठी, निर्भम, मक्कार, स्वार्थी और व्यक्ति वादी सोच की कल्पना की थी । कहाँ है देश की प्रगति और फिक्र करने वाली निस्वार्थ पीढ़ी के लोग । सब कहाँ चले गये । समुद्र की लहरों की तरह नये, उंचे महत्वाकांक्षी लोग सब तरफ हावी हो गये । वो स्वयं श्ी तो उन्हीं में से एक हैं। उसे पुराने, बुजुर्ग, वयोवृद्ध नेताजी को पटकनी देने का काम सौंपा जा रहा है और वो मानसिक, शारिरिक और आर्थिक रूप से स्वयं को इसके लिए तैयार कर रहा है ।
सब एक दूसरे को जानते है, मगर अजनवी है । सब अपरिचित । सब एक दूसरे का गला काटने को तत्पर । सब अनैतिक मगर सब स्वच्छ लिबासी । विलासी । व्यवसायी ।
अजीब विरोधाभास । अजीब अकर्मण्यता । सत्य अप्रिय, कठोर मगर यथार्थ । यथार्थ को समझने की कोशिश सत्य को सत्य, सुन्दर को सुन्दर और शिव को शिव बनाने का कोई प्रयास नहीं । सब कुछ गलत हाथेाँ में । सब कुछ रेत की तरह मुठ्ठी से फिसलता हुआ ।
सर्वत्र अशान्ति । हाहाकार । चुनाव । सरकार । गठ बन्धन । गिरती सरकार । बचती सरकार । कल्लू को याद आया कल ही प्रान्तीय सरकार केवल इसलिए गिर गई की मुख्यमंत्री एक बलात्कारी मंत्री - पुत्र को सजा दिलाना चाहते थे । मंत्री ने पुत्र को बचाने के लिए सरकार ही होम कर दी । एक अन्य प्रदेश में सरकार एक जाति विरोध के धर्म स्थलों को बचाने के लिए होम कर दी गई । एक प्रान्तीय सरकार तो गठ बन्धन धर्म को भूल गई और स्वाहा हो गई । कल्लू -पुत्र सोच रहा था ये कब तक । कैसे । लेकिन उसे एक और चीज याद आई, इस देश की जनता राजा को नहीं सन्त, साधु, महात्मा को याद करती है । पूजा करती है । महात्मा गान्धी, जयप्रकाश नारायण का सम्मान राजाओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों, राप्टपतियों से ज्यादा है क्यों ?क्या जबाब दिया जा सकता है इस क्यों का ।
कल्लू पुत्र महात्मा जी की मूर्ति से उठा । सूरज चढ़ रहा था । चारों तरफ उजासा था । सड़को पर कोलाहल था । शहर जाग चुका था । भाग रहा था । दौड़ रहा था । कल्लू ने मन ही मन महात्मा जी से देश सेवा का आशीर्वाद लिया । क्या पता महात्मा जी ने क्या कहा, मगर कल्लू खुशी - खुशी एक ओर चल दिया ।
कल्लू पुत्र के मन में खुशी के लड्डू फूट रहे थे । टिकट मिलने की देर है । जीवन की समस्त लालसाएँं पूरी हो जायेगी । परिसीमन का असली मजा आने वाला था । उसकी व्यस्तता बढने वाली थी । उसने पार्टी के घोपणापत्र पर ध्यान केद्रित किया । इसी के सहारे आगे चला जा सकता है । प्रजातन्त्र में यहीं तो सुख है राजा रंक और रंक राजा । मजदूर - किसान गरीब बेटा श्ी सत्ता के शीर्प तक पहुँंचने का प्रयास कर सकता है । सफल हो सकता है । मन में कहीं तृप्ति नहीं । कहीं संतोप नहीं । कहीं सुख नहीं बस भूख ही भूख रोटी की भूख । सत्ता की भूख । शक्ति की भूख । सम्मान की भूख । कुरसी की भूख । राजनीति की भूख । विरोधी को धूल चटाने की भूख । प्यार की भूख । तन की भूख । मन की भूख । धन की भूख । बस भूख ओर भूखा व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । साँपिंन तो अपने बच्चों तक को खा जाती है । कुतिया श्ी अपने बच्चों को खा जाती है । और मानव समाज की तो चर्चा करना ही व्यर्थ है ।
इन वर्षोंं में देश -दुनिया ने बड़ा शरी सफर तय कर लिया है । समय बदल गया है । पंचशील, समाजवाद से चलकर खुली अर्थ व्यवस्था, तक आ गया है देश । पूरा विश्व एक गांव बन गया है और अपना गांव और गांववाले खो गये है । कल्लू पुत्र रोज देखता था बड़े घरों के एक कोने में अपने लेपटाप पर कैनेडा, अमेरिका से अपने बच्चों से चेटिंग करते, विडियो क्राफेंसिंग करते लोग और अपने पड़ोस से अनजान लोग । एक ही बिल्ड़िगं में रहने वाले एक दूसरे को नहीं पहचानते । नहीं पहचानना चाहते । समय सर्प की तरह चलता है । निःशब्द । आकाश । हवा । पानी । मौसम सब बदलते रहते है । मानव श्ी बदलता रहता है । कल्लू पुत्र सड़क किनारे के काफी हाउस में आ गया । कभी यह गुलजार रहता था । बुद्धिजीवी, लेखक, कवि, आकाशवाणी, दूरदर्शन के कलाकार, शवी राजनेता सब आते थे, मगर धीरे धीरे शहर के विस्तार के साथ साथ यहाँ की रौनक भी कम हो गई थी । कल्लू पुत्र ने एक डोसा व काफी ली । अखबार चाटें ओर धर की ओर चल पड़ा ।
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प्रजातन्त्र, राजनीति, कुर्सी, दल, विपक्ष, मत मतपत्र, मतदाता, तानाशाही, राजशाही, लोकशाही, और ऐसे अनेको शब्द हवा में उछलने लग गये । जिसे आम आदमी प्रजातन्त्र समझता था वो अन्त में जाकर सामन्तशाही और तानाशाही ही हो जाता था । हर दल में आन्तरिक अनुशासन के नाम पर तानाशाही थी, लोकतन्त्र के नाम पर सामन्तशाही थी ।
इन्ही विपरीत परिस्थितियों में हमारे कस्बे के नेताजी अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे, वे राजनीति के तो माहिर खिलाडी थे मगर इस नई, उभरती हुई युवा पीढी के नये नेता कल्लू - पुत्र से पार पाना आसान नहीं था । उन्हें इन्हीं सब बातों के साथ - साथ पुरानी अपने जमाने की राजनीति की याद आ रही थी । चरखा, सूत, गांधी जी की नौआरवाली यात्रा, नेहरू जी का समाजवाद और पंचशील के सिद्धान्त । शान्ती के कबूतर । चीन का हमला । तब राजनीति शालीन थी । निजि आक्रमण नहीं थे । अब तो बस हर किसी को नीचा दिखाने के लिए कुछ भी किया या कराया जा सकता था । गांव हो या कस्बा या महानगर राजनीति एक क्रूर मजाक बन गई थी ।
नेताजी एकान्त के क्षणो में आत्मावलोकन, आत्म निरीक्षण करते थे । आज भी वे अपने एकान्त कक्ष में यही सब कर रहे थे । राजनीति में जिंदा रहने के लिये कितनो की हत्याऐं की । कितनी बार चाकू, छूरे, गोलियां चलवाई । कितने लोगो को राजनीति से सन्यास दिलवाया । कितने अफसरों को तबादले, निलम्बन, आदि के भय दिखाये । कहीं कोई लेखा - जोखा भी नहीं । लेकिन शायद उपर वाले के, कम्यूटर में सब डेटा, सूचनाएँं अवश्य होगी । उन्होनें सोचा । एक बार मन किया सब छोड़ छाड़ कर सन्यास ले ले । चले जाये हिमालय ऋपिकेश के किसी बाबा की शरण में । मगर ये सब इतना आसान भी नहीं था । अपने पापों की सोच सोच कर उन्हें स्वयं अपने पर ग्लानि होती । यदि वे स्वयं की आत्मा को अपनी खुद की अदालत में खड़ा करे तो उन्हें शायद कई प्रकार की सजाएं मिलेगी और इन सजाओं की कुल लम्बाई भी शायद कई जन्मों के बराबर होगी । व्यक्ति का सोच उसकी मजबूरियों और मजबूतियों के सहारे चलता है नेताजी ने अपने आप को संभाला । कल्लू -पुत्र से ऐसे हार मानना ठीक नही होगा । उन्हें संधर्प करना होगा । आखिर पूरी उमर उन्होने संघर्प ही तो किया था । फिर आज ये केसे विचार । उन्हें गीता और कृप्ण के उपदेश याद आये । वे स्वयं अर्जुन ओर यह चुनावी महाभारत नजर आने लगा । चुनावों में हार जीत की चिन्ता करना उन्हें अच्छा नहीं लगा । खूब राज किया । खूब ठाठ - बाट से जीवन बिताया । फिर किस बात का गम। किस बात का डर । कल तक जो छुटभैये पांव छूते थे वे ही आज कन्नी काट कर निकल रहे है, निकल जाने दो सालो को । कौन परवाह करता है । नये लड़के आयेंगे । नयी राह बनायेंगे । ये सब सोच साच कर नेताजी ने स्थानीय ब्लाक स्तर के अपने कार्यकर्ताओं को अपने महलनुमा भवन में सांयकालीन भोज हेतु आमन्त्रित किया कुछ अन्य लोगो को भी बुलवा भेजा । कुछ पत्रकार भी आ गये । नेताजी ने भोजन से पूर्व ही मिटींग ले ली । बोले
भाईयों । बहनो । प्रजातन्त्रका उत्सव आ गया है । हमें अपनी स्थिति को मजबूत करना है । विरोधी पक्ष खेल बिगाड़ सकता है । खेल बना नहीं सकता । खेल केवल हमारी पार्टी बना सकती है । मुझे आप सभी का सहयोग चाहिये ।
" हम तो वर्षों से आप के साथ है । "
" "हां वो तो ठीक है मगर इस बार मामला थोड़ा गम्भीर है । "
न्ोताजी आप तो मीडिया को मैनेज कर लो । जमीन से जुड़ने की चिन्ता छोड़ो । एक मुंह लगे पत्रकार बोल पड़े ।
नेताजी ने कुछ जवाब नहीं दिया । वे बोलते गये । प्रदेश और अपने क्षेत्र के विकास के लिए हमें आला कमान के हाथ मजबूत करने है और उसके लिए इस क्षेत्र की जिमेदारी मेरी है ।
" वो तो ठीक है, मगर आपने कभी भी द्वितीय स्तर का नेतृत्व विकसित नहीं होने दिया । - एक युवा नेता बोल पड़ा ।
" अरे भाई कौन मना करता है । आओ । काम करो । काम करने से ही नेतृत्व का विकास होगा । इतने वर्षोंसे कार्यकर्ता कार्यकर्ता ही रह गया । "
" हां भाई हां । सब को अवसर मिलेगा । ""
नेताजी ने ठण्डे छीटे दिये ।
धीरे धीरे विरोध शान्त हो गया । भोजन हुआ । अखबारों नें फोटो छापे । स्थानीय चेनल पर समाचार आये । नेताजी में नया आत्मविश्वास आया । वे पूरे जोश जुनून से काम में लग गये । मगर कल्लू पुत्र भी कमजोर नहीं था । उसने एक नया पांसा फेंका । उसे कहीं से यह जानकारी मिली कि नेताजी के चारो तरफ जो लोग है वे भ्रष्ट, निकम्मे और आलसी है । उन्हें आसानी से बरगलाया जा सकता है । मौका आने पर उन्हें तोड़ा और अपने से जोड़ा जा सकता है । पैसा फेंक तमाशा देख कार्यक्रम शुरू करवाया जा सकता है । अभी चुनाव की आचारसंहिता दूर थी ।कुछ पांसे फेंके सकते थें जुआं खेली जा सकती थी और किसी द्रोपदी का चीर हरण करवाया जा सकता थां कल्लू पुत्र ने अपनी एक विश्वसनीय प्रेस पर नेताजी के चरित्र से सम्बन्धित पोस्टर छपवाये और एक काली रात में, शहर में ये पोस्टर लग गये । एक छुट भैये सम्पादक - प्रकाशक -पत्रकार ने अपने समाचार पत्र में पूरा पोस्टर ओर विवरण, अफवाह या समाचार जो भी आप कहना चाहे छाप दिया । नेताजी सुबह उठे तब तक हाहाकार मच चुका था । धर के बाहर ही जिन्दावाद के स्थान पर मुर्दाबाद के नारे लगाने वाले, थू - थू करने वाले एकत्रित हो कर चिल्ला रहे थे । मगर नेताजी धबराये नहीं उन्हें यह सब एक पडयन्त्र की तरह लग रहा था । सो उन्होने तसल्ली से पूरी बात अपने विश्वस्त मालिसिये की जबानी सुनी और समझी । समझ कर वे मन ही मन मुस्काये और नहाने चले गये । भीड़ धीरे धीरे छंट चुकी थी । कुछ गिने - चुने लोगों को सुरक्षा कर्मियों ने निकाल दिया था ।
न्ोताजी नहा - धोकर बैठक में आये । पोस्टर को पुनः पूरा पढ़ा । अखबार भी पढ़ा, और चेले से बोले
" प्यारे ये सब क्या है ?
सर । ये तो विपक्षी पार्टी का स्थायी खटराग है । इससे पता चलता है कि उन्होने चुनाव से पहले ही हार मान ली है । .....खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे ।
" कभी ये कल्लू ओर उसका ये लोण्डा मेरे चरणों में पड़ा रहता था । दिन भर में तीन बार चरण छूता था । घुटनो के ढोक देता था और आज । "
" जाने दीजिये सर । ये तो सब खानदानी हरामी है जो अब जाकर राजनीति में आये है । "
" मेरे चरित्र पर अंगुली उठाता है । " इसे मैं बताउगा । साला कहता है कि चाहो तो डी. एन. ए. टेस्ट करालो । नेताजी की आशिकी की पोल खुल जायेगी । अब उस बेचारी का क्या होगा? मेरा तो क्या है ?
"सर । सुना है कोई सी. डी. भी बनवाली है ।
" सीडी - वीडी से क्या होना है । नेताजी ने कहां मगर मन ही मन डर गये थे नेताजी । कहीं सीडी आलाकमान तक पहुँच गई तो क्या होगा ?
न्ोताजी सोच में पड़ गये । काफी सोच विचार के बाद उन्होनें एक जबावी पासा फेंकने का तय किया । उन्होने एक प्रेसकान्फ्रेस बुलाई और कल्लू पुत्र के विश्कविधालय के दिनों का कच्चा चिठ्ठा खोला । इस कच्चे चिठ्ठे में लड़की की हत्या का आरोप भी नेताजी ने स्वयं ही लगाया हालाकि वे जानते थे कि इस आरोप से कल्लू पुत्र बरी हो चुका था । मगर पूरी पत्रावली और केस को पुनः खुलवाने की धोपणा उन्होने कर दी । अखबारों में सुर्खियां लग गई कल्लू पुत्र के हाथ - पावं फूल गये । दोनो पक्षों ने एक दूसरे की कमजोर नस पकड़ ली थी ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र के सहारे तथा अपने बाप की मदद से नेताजी के पास संदेसा भिजवाया ।
हजूर । माई बाप । गलती हुई । भविप्य में ध्यान रखूगां ।
इधर नेताजी ने कल्लू को कहा " उसे समझा देना मेरे चरित्र पर कीचड़ नहीं उछाले । चुपचाप चुनाव लड़े । जो जीतेगा वो ही सिकन्दर कहलायेगा ।" बस शालीनता से प्रजातन्त्र के नियमों की पालना करें ।
बेचारा कल्लू न तीन में न तेरह में, कल्लू पुत्र का जोश पार्टी के कारण बरकरार था । दोनों पक्षों ने व्यक्तिगत छीटाकंशी से किनारा कर लिया । चुनावों की माया अभी दूर थी ।
पार्टियों को जनाधार - धनाधार, तथा बाहुबली आधार की तलाश थी । कल्लू पुत्र ने इस घटनाक्रम से सबक सीखा कि राजनीति में कोई सगा नहीं और नेताजी ने सबक सीखा आस्तीन का साँंप कब डस जाये कुछ पता नहीं ।
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राजनीति हो या अफसरशाही सब ज्योतिप, ज्योतिपियों,ग्रह, नक्षत्रों, के चक्कर में पड़ते रहते है । शुभ मुहूर्त शुभ फल, शुभ नग, शुभ ग्रह, शुभ समय कब और कैसे आयेगा, इसे हर कोई जानना चाहता है । बुध पुप्य नक्षत्र आ गया है । चले, बाजार । सोमवती अमावस्या चलो नहाने । सोम पुप्य चले सेवा करने । ज्योतिप का जंजाल धीरे धीरे फैलता ही जा रहा है । कभी केवल जन्म और शदी के समय ग्रह, कुण्डली, दशा, महादशा, आदि पर विचार होता था । आजकल हर काम में ज्योतिपी की सलाह काम आती है । नेस्त्रेदेम्स ने जो अमर भविप्य वाणियां कर रखी है उससे आगे क्या है ? कीरो ने जो हस्तरेखा विज्ञान लिख दिया वो सबको नचाता है । हर बस, टेन, मोहल्ले में ऐसे स्वनामधन्य ज्योतिपी मिल जाते है जो आप को भवसागर की सैर करा सकते है । इधर मीडिया ने भी बहती गंगा में हाथ धोने के बहाने सभी प्रकार के ज्योतिपियों को छोटे पर्दे और मुद्रित माध्यम में उतार दिया है । दैनिक भविप्य फल, साप्ताहिक भविप्यफल, मासिक भविप्य, वार्पिक भविप्य, राशि के अनुसार भविप्य, टेरो कार्ड के अनुसार भविप्य, अंक ज्योतिप के अनुसार भविप्य, हस्तरेखा के अनुसार भविप्य । रत्नों, उपरत्नों, महारत्नों, अंगुठियों पर टिका है स्वयं ज्योतिपियों का भविप्य । ऐसे ही एक स्वनामधन्य पण्डित जी को नेताजी ने अपने आवास पर बुलाया " पण्डित जी चुनाव का ज्योतिप क्या कहता है ?
" महाराज समय बडा़ बलवान है । आप अपने जीवन के स्वर्णिम काल का उपभोग कर चुके है ? ""
" तो क्या मैं चुनाव हार जाउगा । ""
" ऐसा तो मैंने नहीं कहां सर । "
" तो फिर ........। "
" फिर ये महाराज की इस बार आपके बड़े क्रूर ग्रह है और सामने एक नये जमाने का नया लड़का । "
" तो क्या मेरा अनुभव कुछ नहीं .......।"
" सवाल अनुभव का नहीं " सवाल ये है कि उस कल्लू पुत्र के ग्रह उच्च के है ? हो न हो वह किसी सवर्ण की सन्तान है ..... । "
" ये तुम्हे कैसे पता । नेताजी की जुगुप्सा जागी । "
" अब सूर्य की गति को कौन टार सकता है । कल्लू की बीबी तो चली गयी यह संसार छोड़ कर । लेकिन ऐसा उन्नत उर्वरा मस्तिप्क, विशाल अजान बाहू, गौर वर्ण क्या कभी किसी नीची जात में देखा है ।"
" नेताजी गम्भीर हो गये । "
" तो पण्डित जी कोई उपाय । "
है महाराज एक उपाय है, आप चुनाव में अपने कपूत बेटे को खड़ा कर दो ।
" मगर वह तो पहले से ही मेरे खिलाफ है । कल्लू पुत्र के गलबहि़यां डाल कर घूमता है। "
" अब ये आप जानो महाराज । आप बुढा गये है । आपके ग्रह भी बूढ़ा गये है और आप का चुनाव जीतना भी मुश्किल है । आप चाहे तो अपने अनुभव का लाभ बच्चे को दे । आलाकमान भी शायद आपको यहीं सलाह देगी । वैसे भी आप अस्सी पार कर चुके है । "
" ये सब मुझे मत समझाओ पण्ड़ित । नेताजी क्रोध में भर गये । "
पण्डित जी ने अपना पोथी, पथरा समेटा और बाहर आ गये । दक्षिणा में मिले नाश्ते की डकार आई मगर यह खट्टी ड़कार थी ।
नेताजी सोच -विचार में डूब उतर गये । चारों तरफ अन्धकार । पुत्र तक साथ छोड़गया । निराशा में उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था । राजनीति की शतरंज पर वे हार मानने को तैयार न थे ।
ज्योतिपी यहां से निपट कर सीधा कल्लू पुत्र के आवास पर गया । वहां उसने कल्लू पुत्र के विजय तिलक किया । आशीर्वाद दिया । और बोला ..........
बेटे आज मैं भगवान शिव, गणेशजी और हनुमानज सभी की आराधना कर आया हूँ और नेताजी को स्पप्ट कह आया हूँ कि आप की जीत संभव नही है ।
हे कल्लू पुत्र विजयी भव ।
कल्लू ने आशीर्वाद लिया । पण्डितजी को भेंट चढ़ाई और बोला ।
" पण्डित जी अगर मैं जीत गया तो आपको किसी राजनीतिक कुर्सी पर बिठा दूगां ।
" वो क्या होती है ? "
" पार्टी अपने कार्यर्कताओं, दानदाताओं को छोटी - छोटी कुर्सियां बांटती है, एक आपको भी दिला दूगां । "
" पण्डित जी ने तथास्तु कहा ओर चल दिये ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र को फोन लगाया । मगर नेतापुत्र अभी प्रातः कालीन क्रिया कलापो में व्यस्त थे । कल्लू पुत्र ने लम्बी सांस ली और चुनाव चकलस हेतु चेनलो की उलट - फेर शुरू की । हर चेनल पर चुनावी विज्ञापन, नीचे भी उम्मीदवार का प्रचार । विशेषज्ञों की बकबक । नेताओ प्रवक्ताओं की झांय झांय । बीच बीच में विज्ञापन । या फिर अन्य कार्यक्रमों के प्रोमो । राखीसावन्त, और इस प्रकार की सैकड़ो अन्य कन्याओं के नृत्य, अभिनय, संवाद । कल्लू पुत्र ने सोचा चैनलो के मामले में हमने विदेशियों को भी पीछे छोड़ दिया ।
कल्लू पुत्र स्वयं के बारे में सोचने लगा । उसे सम्पूर्ण भारत में अपने जैसे करोड़ो किरदार दिखने लगे । भारत मे रेलवे स्टेशन, बस स्टेएड, झूगी झाोपड़ियों में हर रहने वाला हर चेहरा उसका अपना चेहरा है । मजदूर, किसान, गरीब का चेहरा उसका चेहरा है । ज्योतिपी कुछ भी कहे संक्रमण के इस काल में भारतीय समाज खासकर निम्न मध्यवर्गीय भारतीय समाज की कहानी एक जैसी है । प्रत्येक समाज ओर प्रत्येक वक्यित आपस में जुड़कर सच्चाई का सामना करे तभी जीत हो सकती है । इस श्रेणीके लोगो में आदर्श, उत्साह, उमंग का मिश्रण है । धर्म, अध्यात्म, जाति, सम्प्रदाय सभी मिलकर ही जीवन की समस्याओं को हल कर सकते है । आम आदमी की इच्छा उसे बेहतर जीवन की ओर ले जा सकती है ।
वर्तमान युग की त्रासदी ही ये है कि जीवन विसंगतियों, विद्रूपताओं, कशमकश, कदाचार, रहस्य, रोंमाच से भरा हुआ है । हर व्यक्ति इस व्यवस्था से इस अराजकता से लाचार है । अराजक अव्यवस्था कहीं सब को लील न ले । चुनाव तो एक बहाना है प्रजातन्त्र को सही दिशा में ले जाने का । मगर कदम बहक क्यों जाते है कल्लू ने फिर नेता पुत्र को फोन मिलाया ।
कल्लू पुत्र ने नेता पुत्र की टेलीफोन की धंटी क्या बजाई, जैसे खुदकी घंटी बज गई । कल तक जो नेतापुत्र अपने पिता को गाली देकर उसकी गोद में बैठा रहता था वो ही आज कड़क आवाज में बोल पड़ा
" क्या है यार । सोने भी नहीं देता । सुबह से तू तीन बार धंटी बजा चुका है । और कोई काम - धाम नहीं है क्या ? नेता पुत्र उवाच " काम का क्या है प्यारे । चुनाव के दिन है । काम ही काम है । बिनाहाथ - पैर - लाठी, बंदूक चलाये बिना बूथ छापे कोई काम होता है क्या ?तेरा भेजा कैसे फ्राई हो रहा है ? कल्लू पुत्र उवाच ।
" भेजा फ्राई नहीं अब ध्यान से सुन । डेड का टिकट केंसिल । अब मेरा नाम चल रहा है ।"
तो अब तू लड़ेगा मेरे से तू । मच्छर .............। जो मेरे टुकड़ो पर पल रहा है और मेरी राजनैतिक सीढ़ी के सहारे चढ़ रहा है । मैंने तेरे से वादा किया था तुझे कहीं किसी छोटी कुर्सी पर चिपका दूगां ।
" अब तू क्या चिपकायेगा । मुझे यदि टिकट मिल गया तो तेरी तो जमानत भी गयी । "
" ये मुंह और मसूर की दाल ।
त्ूा भी अपना मुंह अच्छे साबुन से धो कर रखना तभी विधान सभा का मुंह देख पायेगा ।
क्यो मजाक करता है ? तेरी पार्टी में यदि तेरे बाप को टिकट नहीं भी मिलता है तो ओर पच्चासों है क्या पूरे गांव के सारे मर गये जो तेरा नम्बर आ रहा है । ....
मरे नहीं है, मगर बापू भी कम नहीं है मैं नहीं तो मेरा बेटा और बेटा नहीं तो कोई नही ।
" ये कैसी राजनीति है भाई ।
ये राजनीति - कूटनीति नहीं । राजनैतिक प्रपन्च है, गुण्ड़ा गर्दी है ।
" तो क्या तू वास्तव में मेरे खिलाफ लडेगा । "
" अब ये तो विचारधारा पार्टी और प्रजातन्त्र की लड़ाई है । इसमें मित्रता - भाई बन्दी के लिए जगह नही होती । वैसे तुम मेरे विरोधी पार्टी में मित्र हो और मैं तुम्हारे हितों की रक्षा मेरी पार्टी में करूगां । "
" ठीक है । "
" हां ठीक है, मगर एक बात ओर चुनाव प्रचार में व्यक्तिगत या चारित्रिक आक्षेप नहीं लगायेगें।"
" ओ . के . डन. प्रोमिस । " ये कह कर उसने फोन रख दिया ।
राजनीति के इस परिदृश्य को आप क्या कहेगें श्री मान् ।
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चुनाव होगे तो चुनाव प्रचार भी होगा । चुनाव प्रचार होगा तो प्रचार में नित नये नये तरीके भी होगे । इस बार चुनाव प्रचार के लिए पार्टी के केन्द्रीय बोर्ड ने एक विज्ञापन एजेन्सी को अनुबंधित कर उसे चुनाव प्रचार की बागडोर सौंप दी । आश्चर्य की बात ये कि इसी विज्ञापन एजेन्सी ने पिछले चुनाव में विरोधी पार्टी का प्रचार किया था और उसे सत्ता में पहुँंचा दिया था । एक अन्य राज्य में यहीं विज्ञापन एजेन्सी एक अन्य विरोधी पार्टी का प्रचार कर रही थी । पिछले चुनाव में इस विज्ञापन एजेन्सी ने उस राज्य में भी ऐसा धुआधांर प्रचार किया था कि सत्ता - धारी पार्टी की लुटिया डूब गई थी ।
वास्तव में विज्ञापन एजेन्सी को तो अपने व्यापार से मतलब है । पार्टी, विचार धारा, सिद्धान्त, समीकरण, गठबन्धन आदि से उसे क्या करना धरना है ।
एक विज्ञापन गुरू इस प्रकार के कार्यो में बहुत सिद्धहस्त थे उनहोने पार्टी की आलाकमान को प्रस्तुतिकरण देकर विज्ञापन का ठेका प्राप्त कर लिया । कभी एड गुरू के पिता एक धार्मिक पत्रिका चलाते थे, लेकिन पिता के जाने के बाद अब वे एक बडी विज्ञापन एजेन्सी चलाते है ।
विज्ञापन गुरू अक्सर सांय काल इधर उधर मिल जाते थे । प्रेसक्लब में दिन भर की थकान उतारते हुए बोले
" यार पूरी जिन्दगी गुजर गई । विज्ञापनो से तेल - साबुन बेचते बेचते। लोगो की संवेदनाओं से खेलते हुए । "
" मगर एक बार मैं एक कैंसर पीड़ित बच्ची की संवेदना नहीं बेच सका । "
" क्यों ? "
मैंने पूरा प्रयास किया कि इस बीमार लड़की की मदद करूं । पैसा जुटा के मैंने विज्ञापन बनाया । दूरदर्शन, मुद्रित माध्यम में दिखाया मगर लोगों की संवेदनाओं को नहीं उभार सका । मुझे इस का दुख ताजिन्दगी रहेगा ।
" लेकिन आप जेसा महान विज्ञापन बाज असफल कैसे हो गया । "
बस हो गया । पप्पू पास हो गया । कुछ मीठा हो जाये जैसे विज्ञापन बेचना आसान है एक बीमार, विकलांग को बचाने का विज्ञापन बेचना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है ।
लाइफबाय है जहां तन्दुरूस्ती है वहां केलेखक को कौन जानता है । " "
सब विज्ञापनों की आंधी में उड़ जाता है । एड गुरू ने शून्य में देखा । चश्मा साफ किया । दाढी़ पर हाथ फेरा। गिलास में पानी मिलाया । गटक गये ।
विज्ञापन की इस रंगीन, खूबसूरत, जवां दुनिया का अन्धेरा और दुख उनके चेहरे पर साफ साफ पढ़ा जा सकता है ।
चमचा पत्रकार विज्ञापन गुरू के पैसे से पी रहा था । पूछ बैठा
" इस बार का कैम्पेन कैसा होगा । "
" कैम्पेन तो शानदार ही होगा । " शानदार फिल्मी सितारे । शानदार विज्ञापन । जानदार भाव । आक्रामक तेवर । साम्प्रदायिक उन्माद । सब कुछ । ........कुल मिला कर हमारा ग्राहक ही जीतेगां ।
" च्ुनाव में केवल प्रचार के बल से नहीं जीत सकते सर । "
" च्ुप रहो । चुनावों में एक दो प्रतिशत वोटो को इधर - उधर करवा देना ही प्रचार का खेल है और इसी से सीटो में दस - पन्द्रह प्रतिशत का फरक पड़ जाता है । "
"और वैसे भी चुनावी सर्वेक्षणों पर रोक लगा दी गई है । "
" हां ये तो है । "
" तभी तो हमारा महत्व ओर बढ़ गया है । "
" सर । विपक्षी ग्राहक ने भी कोई बड़ी विज्ञापन एजेन्सी पकड़ी है। "
" हर एक को प्रयास करने का अधिकार है । अपन तो व्यापारी है । वे भी व्यापारी है । व्यापारी, व्यापारी आपस में लड़ते नहीं है । ""
" हां आप ठीक कहते है । "
" ओर सुनाओं पत्रकारजी जनताकी नब्ज क्या कहती है ।
" सोलिड ओर फिप्टी - फिप्टी । "
" क्या मतलब ? "
" सर । कुछ जगहो पर हमारी पोजीशन सोलिड है और बाकी स्थानों पर फिप्टी, फिप्टी ।
" ये फिप्टी फिप्टी क्या बला है ?
सीधा सा मतलब है इन स्थानों पर कांटे का मुकाबला है ।
बस इन्ही स्थानों पर चुनावी - प्रचार से स्थिति हमारे ग्राहक के पक्ष में हो जायेगी ।
यदि पार्टी सत्ता में आई तो आप को क्या लाभ मिलेगा ?
" हमें लाभ तो पहले ही मिल जायेगा । इस विज्ञापन - प्रचार का ठेका करोड़ो का है । "
म्ुद्रित माध्यम और दृश्य - श्रव्यमाध्यम में सब पैसा हमें ही बांटना है ।
" वाह गुरू वाह ।
अबे साले चुप । चुपचाप पी ......खा और जा ।
पत्रकार ने मन ही मन एड- एजेन्सी के मालिक और एड गुरू को एक भद्दी गाली दी । अपनी दुकान समेटी और चला गया । विज्ञापन गुरू पीछे से चिल्लाया " ईश्वर इसे सद्बुद्धि दे या सद्गति । "
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विज्ञापन एजेन्सी के कर्ता - धर्ता उर्फ मुख्यकार्यकारी अधीकारी के दादा जी गांव में ब्याज का छोटा मौटा धन्धा करते थे । आसामी थे । बोरगत थी । दादाजी चल बसे । ब्याज का धन्धा डूब गया । पैसा डूब गया । मा - बेटा जमा पूंजी लेकर शहर आ गये । मां ने कठिनाई से पाल पोस कर बड़ा किया । बेटे ने भी मेहनत की । पहले एक छोटे अखबार में विज्ञापन लाने - ले जाने - देने का काम काज शुरू किया । अपने तेज दिमाग के कारण जल्दी ही इस लधु समाचार के कुख्यात सम्पादक - प्रकाशक, मुद्रक सेठजी की नजरों में चढ़ गया । सेठजी ने उसे अधिक कमीशन पर विज्ञापन का काम सोंपा । लड़का तेजी से सीढ़िया चढ़ गया और स्वयं की एजेन्सी लगा ली । पिछले चुनाव से भी उसने सबक सीखा और इस बार भी जीतने वाली पार्टी का प्रचार काम पकड़ लिया । अब बड़ा दफतर था । स्टाफ था । बड़े अखबार लघु समाचार पत्र तथा चैनलों के विज्ञापन मैनेजर उसके चक्कर लगाते थे कि उनके अखबार, चैनलो को विज्ञापन मिले । समय पर भुगतान मिले । अच्छा कमीशन मिले । मगर विज्ञापन गुरू भी कुछ कम न थे । वे सबसे पहले अपना स्वार्थ - अपना हित चिन्तन करते थे, जो स्वाभाविक भी था । पिछली सरकार की जीत की कृपा का प्रसाद उन्होने भी जी भरकर जीमा था । प्रसाद स्वरूप उन्होने खेल परिपद पर कब्जा किया था । एक बड़ी निर्माण कम्पनी को अत्यन्त महंगी जमीन सस्ती दरों पर उपलब्ध कर वादी थी । और सबसे उपर एक पार्टी - कार्यकर्ता को एक राजनीतिक कुर्सी दिलाने के लिए उसके बेहद आलीशान मकान की रजिस्टी अपने परिजन के नाम करवा दी थी ओर ये सब सत्ता के शीर्प पर बैठे बैठे । इस समय एड- गुरू अपने भव्य कार्यालय के दिव्य कक्ष में बैठे थे ।
उनके प्रबन्धक उन्हें मिलने आये ।
" शुभ प्रभात सर । "
" हूँ । शुभ प्रभात । बोलो क्या काम है ?"
" सर ये कुछ विज्ञापन बनवाये है । देख ले ।
" दिखाओं । "
" सर ये इस नई पार्टी के पक्ष में है । "
" लेकिन ये तो पुरानी पार्टी का विज्ञापन है । "
" इसे ही अब नई पार्टी के लिए भी बनाया है । "
" नहीं । नहीं ऐसे नहीं चलेगा । चार कदम सूरज की ओर । सुशासन । भूख । भय । गरीबी। के दिन गये । कुछ नया लाओ । "
" सर आप बताये नया क्या ? "
" अरे सब मुझे ही करना है तो इस फौज की जरूरत ही क्या है । "
" मैनेजर ने चुप रहने में ही भलाई समझी ।
सुनो । इस बार बेरोजगारी और आंतकवाद पर फोकस करो । "
" जी अच्छा । " लेकिन ये तो राजस्तरीय चुनाव है ।
लेकिन रोटी -कपड़ा -मकान, सबको चाहिये । नई सरकार सबको रोटी -कपड़ा -मकान देगीं ।
" ऐसे लुभावने विज्ञापन बनाओं । "
" जी अच्छा । "
ओर कुछ अच्छे गीत बताओ । विकास के गीत । प्रगति के गीत । नई अर्थव्यवस्था के गीत । उनका फिल्मी करण कराओ और स्थनीय चैनलो पर जारी करवा दो । एक मास में सभी अखबारो, चैनलो पर हमारी पार्टी के कैसेट, झिगंल्स, । शुरू करवा दो ।
प्रिन्ट मीडिया में आकंडो की खेती शुरू करवा दो । आज का वोटर पढ़ा लिखा समझदार है उसे शब्दो के मायाजाल में उलझा दो । "
जी सर ।
और सुनो । ये जो लड़किया रखी है ये क्या काम करती है । केवल दफतर में चीयर गर्ल ही है न ये सब ।
जी नहीं इनसे भी काम ले रहे है । डोर- टू डोर व माउथ पब्लिसिटी में ये बड़ी काम आ रही है । गांवो में भीड़ इकठ्ठा करने में भी ये सहयोग दे रही है । बडे नेताओ की मिटींग से पहले इनके डांस, लटके, झटके, गाने, गीत, हाव-भाव बडे काम आ रहे है । सब खुश है । ""
" अच्छा । लेकिन खर्चा बहुत है । बदनामी भी हो सकती है ।
नहीं सर अपन तो व्यापारी है । अपन अपनी कमाई पर ही ध्यान दे रहे है ।
" यदि जरूरी हो तो मुम्बई से आर्टिस्ट बुक कर लो । किसी भी कीमत पर पार्टी - प्रचार में कमी नहीं रहने पाये । सामने वाली राजनैतिक पार्टी ने भी काफी बडी एड कम्पनी को बुक किया है ।
" अच्छा । सर । किसे । "
" तुम अपने काम पर ध्यान दो ।
" जी अच्छा । "
और सुनो । किसी भी लड़की के साथ कोई एसी वैसी घटना नहीं धटे । ओर जो भी हो आपसी सहमति और सांमजस्य से हो । कास्टिगं काउच के झझाँल से बच के रहना - खुद भी ओर कम्पनी को भी बचाये रखना ।
" आप बेफिक्र रहे सर । "
मैनजर ने बाहर आकर कापी राईटर को बुलाया । प्रिन्ट मीडिया में नये विज्ञापन बनाने को कहा । एक गीतकार से पार्टी के विकास पर गीत बनवाये । गीत संगीत - विजुल्स बनाने के निर्देश दिये ।
चीयर गर्ल्स को बुलाकर पार्टी मीटिंग से पहले भीड़ जमा करने के नुस्खे बताये ।
चुनावी चकल्लस धीरे धीरे बढ़ने लगी थी । दोनो प्रमुख र्पािर्टयां चुनावी महाभारत में उतर चुकी थी । अन्धे धृतराप्ट ओर कलयुगी कृप्ण सब देख समझ रहे थे ।
चुनाव की चर्चा हर गली मोहल्ले में थी । छुट भैये नेता और कार्यकर्ता पार्टी के टिकट धारियो से मोल भाव कर रहे थे । कुछ नखरे कर रहे थे । कुछ ने प्रचार के बाद की सौदे बाजी करना शुरू कर दिया था । पार्टियां अपनी जीत के प्रति आश्वस्त न थी मगर उपर से आत्मविश्वास से लवरेज दिखती थी । खूब पैसा था । खूब ऐशो आराम थे । कार्यकर्ताओं केमजे थे । वे चाहते सोे पाते । चुनाव का अर्थशास्त्र भी उनके पक्ष में था । चुनाव आयोग की आर्थिक खर्च की सीमा को कोई नहीं मानता था । सब खर्चे पेटियों सेचल कर खोकों तक पहुँच गये थे । खोके के खर्चे के बाद भी जीत सुनिश्चित नहीं थी । जीत जाये तो निवेश हार जाये तो बरबादी मगर राजनीति तो एक नशा है जो शराब, भांग, चाय, काफी, डग्स, की तरह चढ़ता है और चुनाव के समय तो यह नशा अपने चरम पर रहता है ।
चुनावी चकल्लस से सब व्यस्त थे । हालत ये थी कि यदि एक पार्टी से टिकट न मिले तो बन्दा तुरन्त दूसरी पार्टी के कार्यालय की ओर जेट-गती से दौड़ पड़ता था । दूसरी पार्टी से निराशा हाथ लगने पर तीसरी पार्टी में प्रयास करता थां और अन्त में अपनी नाक बचाने के लिए निर्दलीय तक लड़ने को तैयार हो जाता था । आखिर जो काली लक्ष्मी बन्दे ने इकठ्ठी कर रखी है उसका कोई तो सदुपयोग हो । चुनाव लड़ने का एक फायदा ये भी है कि यकायक कोई सरकारी अधिकारी हाथ नहीं लगाता अपने व्यवसायिक हितों के लिए भी चुनावों में खड़े होने की परम्परा रही है । एक प्रसिद्ध उधोगपति तो हमेशा चुनाव में कुछ राशि खर्च करके आयकर के करोड़ो रूप्ये बचा लेते है और एक अन्य व्यवसायी का पूरा ब्यापार ही चुनावों पर आधारित था । वे चुनाव - सामग्री का ठेका लेते है । हर पार्टी की चुनाव सामग्री तैयार और उचित दर पर जरूरत पड़ने पर उधार भी । चुनाव के दिनो के क्या कहने । चुनावी कार्यकर्ता के क्या कहने । चुनाव मनोरंजन भी करता है और गली - मौहलें को व्यस्त भी रखता है ।
च्ुनाव एक नशे की तरह छा गया है । सत्ता की चाँदनी के सब दीवाने । सत्ता का चांद सबको चाहिये । चुनाव के दिन । रूठने मनाने के दिन । चुनाव के दिन । टिकट के दिन । आश्वासनों के दिन । वादेों के दिन । चुनाव के दिन हॅंसने - मुस्कुराने के दिन । झूठ बोलने के दिन । वादे करके भूल जाने के दिन । पार्टी मुख्यालय में चक्कर लगाने के दिन । पैसा पानी की तरह बहाने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं के मनुहार के दिन । चुनाव के दिन विरोधी की धोती खोलने के दिन । चुनाव के दिन । जूतम पैजार के दिन । चुनाव के दिन लत्ती लगाने के दिन । चुनाव के दिन । धोती फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन चोराहों पर कपड़े फाड़ने के दिन । चुनाव के दिन मतदाताओं को सामूहिक शेज देने के दिन । चुनाव के दिन पत्रकारों को पटाने के दिन । चुनाव के दिन विरोधियों को हराने के दिन । चुनाव के दिन खुशी, अाँसू, उदासी - के दिन । चुनाव के दिन पोस्टरों, झण्ड़ों, बैनरो के दिन । चुनाव के दिन जुलूसों, रेलियों, सभाओं के दिन । चुनाव के दिन हाथी के दांतो के दिन - दिखाने के और खाने के ओर । चुनाव के दिन गिरगिट की तरह रंग बदलने के दिन । सियार द्वाराशेर की खाल पहनने के दिन । चुनाव के दिन शिखण्डी बनने के दिन । निर्दलीय बनकर पार्टी फण्ड खाने के दिन । चुनाव के दिन मान - मनुहार - अपमान के दिन । चुनाव के दिन सब को रिझाने के दिन । चुनाव के दिन आंधी - तूफान, लहर, हवा के दिन । हर पार्टी अपनी लहर बताती है। चुनाव के दिन कर्मचारियों - अधिकारियों के लिए मुसीबत के दिन चुनाव के दिन चुनाव आयोग की परेशानी के दिन । पुलिस - प्रशासन के खटने के दिन । लाल बत्ती और लाल पट्टी वालो के लिए चुनाव के दिन याने दुख के दिन । कल तक जो मजे कर रहे थे, उनके धूल खाने के दिन । चुनाव के दिन कुर्सी के दिन । धरती चूमने के दिन । आसमान पर उठने के दिन । चुनाव के दिन । गुट बनाने के दिन । लंगर चलाने के दिन । जातिवाद के दिन ।
चुनाव के दिनो के क्या कहने । हर एक की जेब में एक आश्वासन एक वादा एक वचन एक वरदान । बोलो क्या चाहते हो । राजनीतिक पार्टीयों के पास जाने से ही आदमी स्वयं को महफूज समझने लगता है । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के दिन । चुनाव के दिन मखमली कालीनों के दिन । टाट के दिन । ठाट के दिन । सुबह सुहानी शाम मस्तानी । चुनाव के दिनो में दिन ही नहीं चुनाव की राते राते नहीं सुहाग का सिदूंर है । चुनावी काम देव किसे वरण करेगा । किसे श्स्म कर देगा ये सब तो चुनावी दिन ही तय करेगा । चुनाव है तो प्रजातन्त्र है । ये उत्सव के दिन । उल्लास के दिन । नारे लगाने और नारे गढने के दिन ।
च्ुनाव के दिन रूठी जनता रूपी प्रेमिका को मनाने के दिन । चुनाव के दिन झूठ, बेईमानी, मक्कारी, काला बाजारी के दिन । नलों में पानी, तारों में बिजली आने के दिन । सड़क बनाने के दिन । चुनाव के दिन डीजल, पेटोल फूकने के दिन । धूआं उड़ाने के दिन । चुनाव के दिन कमजोर उम्मीदवार को अपने पक्ष में बिठाने के दिन । चुनाव के दिन अन्धों का हाथी बनने के दिन । चुनाव के दिन चिन्ता, चिन्तन, मनन करने के दिन । चुनाव के दिन चैनलों, अखबारों के दिन । चुनाव के दिन सम्पादकों, संवाददाताओं के दिन । चुनाव के दिन बस चुनाव के दिन । ये दिन ठीक ठाक निकल जाये फिर सब को देख लेंगे ।
च्ुनाव के दिन अपराधियों, उठाईगिरों, स्मगलरों के दिन । जेल से छूटकर आये हिस्टीशीटरों के दिन । नारों के दिन। हवाओं में जहर घोलने के दिन । चुनाव के दिन अच्छी श्ूगोल और खराब इतिहास की बालाओं के दिन । चुनाव के दिन गोली, लाठी, तलवार चलाने के दिन । चुनाव के दिन प्रजातन्त्र की जय बोलने के दिन । चुनाव के दिन हंसने खिलखिलाने - मुस्कुराने के दिन । जीतने - हारने जमानत जब्त कराने के दिन । चुनाव के दिन चुल्लू श्र पानी में डूब मरने के दिन । चुनाव के दिन स्वस्थ मनोरंजन के दिन । सच में चुनाव के दिन याने प्रजातन्त्र रूपी कामदेव के वाण चलाने के दिन । चुनाव के दिन घात, प्रतिघात, शोपण, अन्याय के दिन । चुनाव के दिन मस्त मस्त दिन । मौजा ही मौजा । खाने - खिलाने के दिन । कम्बल, रोटी, कपड़ा बांटने के दिन । चुनाव के दिन हारकर जीतने के दिन । जीत कर हारने के दिन । चुनाव के दिन सब मिलकर प्रजातन्त्र को सफल बनाने के असफल दिन ।
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चुनाव हुए और खूब हुए । हमारे बूढे नेताजी की नाव डूब गई । कल्लू मोची का लड़का जीत गया । नेताजी के खेमे में उदासी, खामोशी तारी हो गई । कल्लू माची एम.एल.ए. का बाप बन गया । सरकार बनी मगर कल्लू मोची के लड़के का नम्बर मंत्रि पद पर नहीं आया । वैसे भी पहली बार एम.एल.ए. बना था । उसे विधानसभा, पार्टी के तौर तरीके सीखने थे । चमचे उसे धीरे धीरे सब सिखा रहे थे । वो सीख रहा था । राजनीति, कूटनीति, घूसनीति । अफसरों से बात करने के तौर-तरीके । विधानसभा में भापण देने, प्रश्न पूछने की व्यवस्थाएँं । धीरे धीरे उसने अंग्रेजी बोलने का अभ्यास भी शुरू कर दिया था । एक अंग्रेजी का मास्टर भी रख लिया था जो उसे अंग्रेजी बोलना सिखा रहा था । कल्लू मोची की बीरादरी व गांव में पैठ जम गई थी वह सबसे बड़ा लीडर बन गया था । बिरादरी में उसे हर तरह से मान सम्मान मिलने लग गया था ।
कल्लू पहली बार राजधानी आया । लड़के की बड़ी सारी कोठी नौकर-चाकर देख कर उसका दिल बरबस लड़के के ममत्व में पगा गया । सब उसे अच्छा लग रहा था । गाड़ी बंगला, टेलीफोन, नौकर -चाकर, चमचे, छुटभैया, अफसर सब उसे सलाम ठोकते थे । वो सब को जैरामजी की करता था । धीरे धीरे उसे सब समझ आ रहा था । गांव में नेताजी के दरबार में जमीन पर बैठने वाला कल्लू यहाँ पर सर्वे सर्वा था । हर कोई उसकी सिफारिश चाहता था । मगर अभी कल्लू का लड़का जिसे सब एम.एल.ए. साहब कहते थे राजनीति में रमा नहीं था । वो महत्वाकांक्षी था । उसे उपर जाने की इच्छा थी । अब पांच साल गांव से क्या काम था । अगला - चुनाव आयेगा तब देखेंगे । तब तक राजधानी में जमे रहो । राजधानी को भोगो । पार्टी कार्यालय भी अब कोई नहीं जाता था । सब अगले विधानसभा चुनाव तक मस्त थे । एम.एल.ए. साहब व्यस्त थे । बाकी गांव में सब अस्त - व्यस्त थे, कल्लू जानता था कि गांव में बिरादरी के काम करने से ही अगले चुनाव में साख जमी रह सकती थी । इसी बीच गांव में राप्टीय ग्रामीण रोजगार योजना शुरू हुई । एम .एल. ए. साहब ने कल्लू को इस योजना का स्थानीय कर्ता धर्ता बनवा दिया । कल्लू गांव लौट आया और पूरी योजना में अपनी जाती - बिरादरी के आदमियों और लुगाईयों - छोरे छोरियों को भर दिया । सब खुश । बिना काम के वेतन । साल में सौ दिन की मजदूरी । एक जाओ । चार के नाम लिखाओं । तीन का पैसा पाओ । एक का पैसा खर्चे - पानी में लग जाता था । मगर किसी को शिकायत नहीं थी । गांव के सवर्ण चुप रहने में ही अपनी भलाइ्र समझते थे, वैसे भी हारे को हरिनाम । नेताजी चुप थे । उनके चमचे अब कल्लू के इजलास में हाजरी बजाते थे । तहसीलदार बीडिओ, सरपंच, ग्रामसेवक, पटवारी, इन्सपेक्टर,मास्टर, मास्टरनियां, नर्स - कम्पाउण्डर, वैध, हकीम, सब कल्लू मोची की सेवा में बिना नागा उपस्थित होते थें गांव के बनिये, ब्राहमण, राजपूत, सब एम. एल ए. साहब की चौखट चूमते थे ।
ऐसे ही माहोल में गांव के अन्दर एक टयूबवेल में एक बच्चा गिर गया । बच्चें को बचाने के सभी उपाय असफल रहे । बच्चे को बचाने के समाचार सभी चैनलो पर छा गये । बच्चा सवर्ण था और कुंआ एक निम्न जाती के किसान के खेत में खुद रहा था । सब हैरान परेशान । चैनलो - समाचार पत्रों में खूब छपा । प्रसारित हुआ । बच्चा जिंदा नहीं बचाया जा सका ।
एम. एल. ए. साहब पहुँचे । बच्चे के माँ बाप के घर । खूब रोना-धोना मचा । मुआवजा मिला । सब शान्त हो गया । एम.एल.ए. साहब राजधानी चले गये । गांव में पूरे वक्त सब तरफ शान्ती छाई रहीं । मगर नेताजी के खेमेेमे इस धटना को खूब उछाला ओर अगले चुनाव तक इस धटना को जनता के जेहन में जिंदा रखने के लिए एक दिन का अनशन भी किया । नेताजी ने अपने स्तर पर मामले को पार्टी के मुखिया तक पहुँचाया । विधान सभा में भी हो हल्ला मचवाया, मगर दलित को बचाने के लिए सभी दलो के दलित एक हो गये । विधावसभा का सत्र पहले स्थ्गित हुआ फिर सत्रावसान कर दिया गया ।
एम.एल.ए. साहब इस धटना से अन्दर ही अन्दर दुखी थे । मुआवजा बांटने वे स्वयं गये । फिर सब शान्त हो गया । लेकिन एम.एल.ए. साहब यह समझ गये कि राजनीति तलवार की धार है और उस पर सफलता पूर्वक चलना आसान नहीं । वे एक कुशल राजनेता बनना चाहते थे । मगर आज की भारतीय राजनीति के कीचड़ में खिलना या खिल खिलाना क्या इतना आसान था । राजनीति के दल दल में दल दल ही दलदल था । कीचड़ ही कीचड़ था । हाथ पकड़ कर खींचने वाले लगभग नहीं थे, सब कुछ अनिश्चित था मगर एम.एल.ए. साहब के भाग्य का छींका कभी भी टूट सकता था और कहते है न कि भगवान देता है तो छप्पर फाड़कर देता है ओर कई बार यह फटा हुआ छप्पर लगातार कुछ न कुछ देता रहता है । साहब मेहरबान तो गधा पहलवान या यों भी कहा जा सकता है कि गधा पहलवान तो साहब को मेहरबान होना पड़ता है । ऐसी ही कुछ हमारे कल्लू पुत्र एम.एल.ए. साहब के साथ हुआ । उन्हें साहित्य का कुछ भी अता पता नहीं था और उन्हे चुप करने के लिए प्रान्तीय साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बना दिया गया । पहली बार कल्लू पुत्र को अपने नाम की सार्थकता नजर आई अब एम.एल.ए. साहब मोहनलाल असीम अध्यक्ष साहित्य अकादमी थे । उन्होने साहित्य के पुरोधाओं की किताबों के नाम रट लिए और उन्हें इधर उधर मंच पर उच्चारण के साथ बोलने लगे । कबीर,तुलसी, मीरा, रैदास से लगाकर चन्द्रकुमार वरठे तक की दलित कविताएं बोलने लगे । अकादमी का कार्य भार ग्रहण करने के बाद वे स्वयं उच्च कोटि के साहित्यकार मान लिए गये । साहित्य के उद्भव, विकास, इतिहास, भूगोल के झरने उनके श्री मुख से अविरल बहने लगे । लेकिन एम.एल.ए. साहब को साहित्य रास नहीं आया । कुल बजट पच्चीस लाख का । वेतन भत्तो को बांटने के बाद बची हुई योजना मद की राशि की बंदर बांट में लेखकों, कवियों के बीच रोज फजीहत होने लगी । हर लेखक के पास अखबार - पत्रिका थी, वे रोज कीचड़ उछालने लगे । कीचड़ ूसे एम.एल.ए. साहब अपनी जेब भरने के प्रयास में असफल हो ्रगये । बदनामी हुई सो अलग । उन्होने साहित्य का दामन छोड़ना ही उचित समझा, मगर जिस तरह रीछ और कम्बल का किस्सा है उसी तरह इस बार साहित्य ने एम.एल.ए. साहब को छोड़ना उचित नहीं समझाा । एक जांच हमेशा के लिए उनके पीछे लग गई जो स्तीफे के बावजूद नहीं सुलझी । इस जांच के कारण विधानसभा में बड़ी किरकिरी हुर्इ्र । यें तो भला हो विधानसभा अध्यक्ष का जिन्होने सब ठीक-ठाक करवा दिया । कल्लू पुत्र ने साहित्य से हमेशा के लिए तोबा कर ली । साहित्य राजनीति में से एक चुनने का अवसर आये तो आदमी को क्या चुनना चाहिये ये गम्भीर बहस का विषय है ।
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भोर भई । मुर्गे ने बांग दी । मुद्दे अब कहाँ, मगर मुर्गो की क्या कमी । राजनीति से लगाकर साहित्य, संस्कृति, कला, पत्रकारिता, टीवी चैनल सब जगह मुर्गे बांग दे रहे है । राजनीति में मुर्गे मुद्दे तलाश रहे है । बुद्धिजीवी धूरे पर जाकर दाने तलाश रहे है । दाना मिला खाया फिर कूडे के ढेर में दाना तलाशने लग गये । फिर बांग देने लग गये ।
मुर्गे कभी अकेले बांग नहीं देते । वे मुर्गियों को भी साथ रखते है । मुर्गियां अण्डे भी देती है और मुर्गे के साथ बांग भी देती है । बांग देना और भोंकना भारतीयता की निशानी है । जो ये सब नहीं करता उसे अन्यत्र जगह तलाशनी चाहिये ।
भोर भई । दूधवाले, अखबार वाले, कामवाली बाईया सब काम पर आने लगे । कालोनी में जाग हो गई ।
माध्ुरी विश्वविधालय की स्थायी कुलपति के आवास पर काम वाली बाई धुसी तो कुत्ता जोर से भोंका । काम वाली बाई ने कुत्ते को एक भद्दी अश्लील अकम्पोजनीय गाली दी और धंटी बजाई । अन्दर से कोई आवाज नहीं आई । माधुरी मेमसाहब धोडे बेचकर सो रही थी । धर पर एक नौकरानी और थी, उसने धीरे धीरे आकर दरवाजा खोला । कामवाली बाई ने बिना कुछ बोले अपना काम-काज सम्भाल लिया । सबसे पहले उसने फ्रिज से दूध निकाला और खुद के लिए चाय बनाई,नौकरानी को भी चाय का आधा कप दिया । चाय पीकर उसने पल्ला कमर में खौंसा और साफ सफाई में लग गई । बाहर लाँन में कुत्ता फिर भोंका मगर किसी ने ध्यान नहीं दिया ।
माध्ुरी इस कुत्ते की आवाज से जाग गई । उसने एक जिमहाई ली । अंगडाई तोडी और बाथरूम में धुस गई । उसे तभी याद आया कि आज शहर के नामी गिरामी परिवारों की महिलाओं की एक किट्टी पार्टी उसके आवास पर है । उसने बाथरूम से ही चिल्लाकर आवाज दी ।
" अरे सुगनी । सुन । आज मेरी किट्टी है । डाईंग रूम खूब अच्छे से साफ करना । "
" जी बीबी जी । "
ओर सुन । किचन में देख ले करीब दस महिलाएँं खाना खायेगी ।
" क्या बनेगा बीबी जी । "
" अरे वही जो हर किट्टी में बनता है । एक मिठाई, नमकीन, पूरी सब्जी, दाल, चावल, रायता बस ओर क्या ?"
" और आते ही ""
" हां आते ही कोल्ड डिक ।"
माधुरी बाथरूम से बाहर आई । सधःस्नाता माधुरी अभी भी आकर्पक थी । लम्बे गाउन में उसका गदराया बदन गजब ढा रहा था । उसने स्वयं को आईने में देखा ओर खुद से बोली -
माधुरी इस उमर में इतना सुन्दर दिखने का तुम्हे कोई अधिकार नहीं है । स्वयं को बचाकर रखो । ये पूंजी ज्यादा दिनो तक नहीं रहेगी । वो खुद ही शरमा गई । उसने चाय पी । स्वयं को संवारा । कपड़े बदले । धीरे धीरे ग्यारह बज गये । किट्टी की सदस्याओं का आना शरू हो गया ।
सर्व प्रथम माधुरी की पुरानी साथिन श्री मती शुक्ला आ गई । एड एजेन्सी की मालकिन भी पहॅंच गई ।
हिन्दी के विभागाध्यक्ष की पत्नी भी जल्दी ही आ गई । उसे काम काज में हाथ बंटाना था । विश्वविधालय के मुख्य लेखाधिकारी जी की पत्नी, एस.पी. साहब की पत्नी और जिलाधीश की पत्नी पूरे रोब दाब के साथ सरकारी लाल बत्ती की गाड़ी में आई । माधुरी ने सबको अपनी विशाल बैठक में बिठाया ।
ठीक बारह बजे किट्टी पार्टी की शुरूआत हो गई । ये सभी सौभाग्यशाली महिलाएँं थी । सभी सुन्दर, स्वस्थ, सॅभ्रान्त और प्रभावशाली थी । सब अपने अपने पति के पद, प्रतिप्ठा को समझती थी ओर भुनाती रहती थी । कुछ महिलाएं व्यापारिक घरानों से बात चीत शुरू करती थी । शेयर मार्केट, मनीमार्केट, कारोबार पर चर्चा करते करते फिल्म,टेलीविजन के धारावाहिक पर उतर आती थी । उन्हें कौन किस का पति है और कौन कब नई शादी करने वाला है जैसे वर्णनों में बड़ा मजा आता था । इन महिलाओं का ज्यादा तर समय सौन्दर्य प्रसाधनो पर चर्चा में बीतता था । दिन उगने के साथ ही वे स्वयं को सजाने संवारने में लग जाती थी । इन्हें काम की जरूरत नहीं थी मगर समय काटने के लिए समाज सेवा, स्वयं सेवी संस्था आदि में धुसपैठ करती रहती थी । ये महिलाएं देशी अंग्रेजी लेखकों के उपन्यास अपने पर्स में रखती थी ओर बिना पढ़े ही उस पर चर्चा करने की सामर्थ्य रखती थी । अधिकांश के पतियों के पास गांव में भी एक पुरानी पत्नी थी मगर वो सोसायटी के लायक नहीं थी सो उन्होंने इनसे शदी कर ली । कुछ महिलाएं उम्र में कम थी मगर व्यापक अनुभवों के संसार में विचरण कर चुकी थी । एक-दो ने छोटी मोटी विदेश यात्राएं भी करली थी और गाहे व गाहे अपना विदेशी - बाजा बजाती रहती थी । अन्य महिलाएं इन कइ बार सुने जा चुके किस्सों को मुंह बनाकर सुनती थी । वे सब समझती थी । कुछ महिलाओं का शगाल ही शापिंग था । कौन से माँल में नया माल आया है इसकी पूरी जानकारी उन्हें हर समय रहती थी । वे डायमण्ड, कुन्दन, पुखराज, ज्यूलरी और ब्यूटी पार्लर का अभिन्न हिस्सा थीं । वे ब्यूटी पार्लर में ही खपजाने को तैयार रहती थी । समय मिलने पर किसी गरीब को खाना भी खिला देती थी । कभी किसी गरीब बच्चे के स्कूल की फीस या उसे डेस या कापी किताबे भी दिला देती थी और ये सब करते हुए के फोटो वे अखबार के तीसरे या किसी भी पेज पर छपवाने की ताकत रखती थी । वे पत्रकारो की सेवाएं लेने की भी विशेषज्ञ थी ।
ये स्त्रियाँं स्त्री-मुक्ति, स्त्री विमर्श, स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री के शोपण और इसी तरह की सेमिनारों में अक्सर पाई जाती थी ।
किट्टी शुरू हो चुकी थी । ठण्डे पेय को पिया जा चुका था । पेट में कुछ जाते ही इन की वाचालता मुखर होने लगी थी । उच्चतम पद के कारण श्री मती जिलाधीश बौस थी मगर मेजबान और एक विश्वविधालय की कुलपति होने के कारण माधुरी स्वयं को सर्वेसर्वा समझ रही थी । और थी भी ।
" ताश की बाजी जम चुकी थी । नाश्ते की टे लेकर नौकरानियां इधर - उधर दौड़ रही थी । तभी पत्ता फेंकते हुए माधुरी बोल पड़ी -
" इस देश का क्या होगा ? हम कहाँ जा रहे हैं । देश में छापों का डर विदेशों में एडस का डर । आखिर हम औरते कहाँ जाये । क्या करे ? "
डरने की क्या बात है ? एडस के लिए विदेश जाने की जरूरत नहीं है । हमारे देश में ही एडस बिखरा पड़ा है । जिलाधीश पत्नी बोल पड़ी ।
लेकिन आखिर पुरूप चाहता क्या है ? वो कभी ये क्यों नहीं सोचता की स्त्री क्या चाहती है ? उसने आगे कहा
" वे फिर बोली ।
" पुरूप का सोच कभी भी नारी के सोच के समकक्ष नहीं आ सकता है । नारी का सोच विस्तृत और अनुभव सिद्ध होता है । "
" मगर पुरूप प्रधान समाज में नारी को पूछता कौन है । श्री मती हिन्दी विभागाध्यक्ष बोल पड़ी ।
" क्यों ? क्यों ? कौन नहीं पूछता । सब पूछते है और पूजतें है, पुजवाने बाला चाहिये । एड एजेन्सी की मालकिन ने शीतल पेय का घ्ाँूट भरते हुए कहां ।
" इतना आसान कहां है भई । ठण्डे स्वर में माधुरी बोल पड़ी ।
" तुम्हारी बात अलग है । हम सब अपनी अपनी नियति से बंधे है । खूंटा और गाय का सम्बन्ध है हमारा इस समाज में । " श्री मती शुक्ला ने अपने अनुभवों का निचोड़ प्रस्तुत किया ।
लेकिन हमारा मूल प्रश्न यथावत है । हम क्या चाहते है और पुरूप क्या चाहता है । आज यही बहस का विषय है । श्री मती शुक्ला ने पत्ता फंकते हुए कहा ।
देखिये मेडम इस विषय पर हजारों बारा सोचा-विचारा जा चुका है । अन्तिम निर्णय न कभी आया है और न कभी आयेगा ।आखिर ज्यादातर पुरूप क्यों नहीं समझते की स्त्री क्या चाहती है । वे कहते है कि स्त्रियां उन्हे गुमराह कर देती है । महिलाओं को समझना मुश्किल ही नही नामुमकिन है । यह बहस अनन्त है । इसका कोई अन्तिम परिणाम नहीं आ सकता है । मुझे मेरे मित्रों ने बताया है कि यदि महिलाएं ये बता दे कि वो वास्तव में क्या चाहती है तो जीवन सुखी, संतुप्ट और आनन्दमय हो सकता है, मगर पुरूप के अनुसार स्त्री स्वयं नहीं जानती की वो पुरूप से आखिर चाहती क्या है ?
" और इसका उल्टा भी सत्य है कि पुरूप नही जानते कि स्त्री उनसे क्या चाहती है यदि पुरूप बतादे कि वे वास्तव में क्या चाहते है तो पारिवारिक जीवन स्वर्ग हो जाये । "
" हां ओर परिवार के सदस्य स्वर्गवासी । "
सबने मिल कर अट्टहास किया ।
बात को अब तक हवा में उड़ जाना चाहिये था । मगर श्री मती शुक्ला हाल में पढ़ी एक पुस्तक से अपना ज्ञान बधारना चाहती थी सो बोल पड़ी
स्त्री को खुश करना आसान है । उसे समझना कठिन ।
इसलिए सभी पुरूप स्त्री को खुश रखने के आसान रास्ते ढूढते रहते है । और भटक जाते है ।
" भटकाव के बाद भी शाम को या रात के वापस धर ही आते है । "
" और कहां जायेगा बेचारा खूंटे और गाय और बैल के सम्बन्ध जो है हमारे । कभी कभी महिला झूठ भी सुनना पसन्द करती है, उसे केवल शरीर नहीं समझ भी चाहिये । परपुरूप की प्रशन्सा किसी भी पुरूप को अच्छी नहीं लगती ओर पर स्त्री की प्रशन्सा किसी भी स्त्री को अच्छी नहीं लगती । प्यार के आगे -पीछे भी जीवन है जिसे जीने की तमन्ना हर स्त्री-पुरूप की रहती है । " जिलाधीश पत्नी ने आत्रेय अनुशासन दिया ।
" लेकिन जब पति शाम को थका, हारा धर आता है तो उसे भी तो शिकायतों का पुलिन्दा नहीं चाहिये।
" तो फिर किसे सुनाये दिन भर की रामायण ।
ल्ोकन रामायण सुनाने के लिए महाभारत की क्या जरूरत है ।
ये आप नहीं समझेंगी, अकेली जो रहती है ।
" चलो छोड़ो ये सब । चलते है । खाना खाते है । खाने के बाद काफी पर फिर चर्चा करेंगे ।
खाने की मेज पर सबसे खाने के विभिन्न व्यजनों के साथ खूब न्याय किया । खूब तारीफ हुई माधुरी की पाक-कला की । घर के सुगढ़ नौकरों की ।
काँफी के समय माधुरी ने फिर कहा -
" अगली दीपावली पर क्या कार्य क्रम है ।
कर्यक्रमो का क्या है । दीपावली मिलन। चाहो तो कुछ और कार्यक्रम रख लो ।
" सुनो एक आइडिया आया है ?
क्या
हम अगली दीपावली पर इस लेडीज क्लब में पति प्रदर्शनी प्रतियोगिता करेंगे । सब अपने अपने पतियों को नहला -धुला कर तैयार कर के लाये जिसका पति सबसे अच्छा दिखेगा उसे पुरस्कार दिया जायेगा । एड एजेन्सी की स्वामिनी बोल पड़ी
" वाह क्या आइड़िया हे मजा आजायेगा । और जिसके पति नही है वो क्या करे ।
" करे क्या चाहे तो प्रियतम, प्रेमी, मित्र किसी को भी धो, पोंछ,मांझ, तैयार करके ले आये हम क्या मना करते है । बूट - प्रणाली भी चलाई जा सकती है । मुस्कुराते हुए जिलाधीश पत्नी बोली ।
" भई वाह ! इस कार्यक्रम में तो मजा आ जायेगा, मगर क्या हमारे पति मान जायेंगे ।
" अगर तुम इतना भी नहीं कर सकती तो किस मुंह से पति को उगलियों पर नचाने की बात करती हों सीधे मर्म पर चोट की गई थी । कैसे बर्दास्त किया जाता । सो सब मान गई । मगर ये विचार पतियों ने सिरे से खारिज कर दिया ।
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दीपावली आई चली गई, मौसम बदले । हवा बदली । फिजा बदली । फूल मुस्कुराये । इसी बीच एक दिन माधुरी के पुराने स्कूल में एक अघटनीय धटना धट गई । माधुरी के स्कूल की प्राचार्या ने अध्यापक अभिभावक उपवेशन आहूत किया । इसमे सभी अध्यापकों, अध्यापिकाओं, अभिभावकों का आना आवश्यक था । स्कूल के कुछ बाबू भी काम में लगे थे । एक बड़े हाल में सब व्यवस्थाऐं की गई थी । लम्बा चौडा़ पाण्डाल लगा था, अभिभवको के साथ उनके बच्चे भी थे । चाय-पानी-बिस्कुट की माकूल व्यवस्था थी, मगर अघ्यापकों, कर्मचारियों को निर्देश थे कि उन्हे खाना नही केवल खिलाना था मनुहार करनी थी । कार्यक्रम सुचारू रूप से चल रहा था, कि दुर्धटना धट गई । एक बाबू ने अपने एक परिचित के साथ चाय ले ली । प्राचार्य ने देख लिया । बाबू से पहले से ही नाराज थी । ये अवसर अनुकूल था । उन्होने बाबू से कुछ नहीं कहा अनुशासन हीनता की रिपोर्ट बनाकर माधुरी से अनुमोदित कराकर बाबू को निलम्बित कर दिया । बाबू और अन्य कर्मचारी बेचारे सकपका गये । स्तब्ध रह गये । बाबू को गलती तो समझ में आ गई, मगर इस गलती का परिमार्जन समझ में नही आ रहा था । प्राचार्य तथा माधुरी ने बाबू से मिलने से मना कर दिया था । निजि स्कूलो में कर्मचारी संगठन या तो होते ही नही या फिर कमजोर या प्रबन्धन के अनुकूलं निलम्बित बाबू संगठन की सेवा में गया । मगर संगठन क्या करता । एक कप चाय पीने की इतनी बड़ी सजा । जो पत्र उसे दिया गया था उसमें कई तरह के आरोप लगाये गये थे । कुछ प्रमुख आरोप इस प्रकार थे -
1 . आप समय पर नही आते ।
2. समय समाप्त होने से पहले ही चले जाते है ।
3. कार्यलय में आप का कार्य संतोप प्रद नही है ।
4. आपने लेखाशाखा, प्रतिप्ठापनशाखा तथा गोपनीयशाखा का काम ठीक से नही किया ।
और अन्त में एक गम्भीर आथर््िक आरोप लगाया गया था, जिसका कारण बाबू की समझ में नही आया था । बाबू आधे वेतन के लिए भी भटक रहा था । अचानक संगठन के अध्यक्ष ने उसे बुलाया और प्राचार्य के कक्ष में ले गये ।
बाबू के नमस्कार का कोई प्रत्युतर प्राचार्य ने नही दिया । कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष ने कहा -
" मेडम बाबू ने आरोप पत्र का जवाब देते हुए आप से रहम की भीख मांगी है ।
" रहम ! किस बात का रहम । ये काम चोर, मक्कार, आदमी है, कोई काम ठीक से नही करता ।
" मगर मेडम ये अपनी जाति का है । अपन ब्राहमण, मैं भी ब्राहमण ये भी ब्राहमण । ब्रहमहत्या का पाप अपने सिर पर क्यों लेती है आप ।
" देखो ज्यादा से जादा ये कर सकती हूं कि इसे बरखास्त करने के बजाय इसका त्यागपत्र मंजूर करवा दूं ।
" बरखास्त होने पर तो ये बेचारा मर ही जायगा । इसे प्रबन्धन से कुछ भी नही मिलेगा ।
" वही तो मैं कह रही हूं । ये सेवा से त्यागपत्र दे दे ।
" लेकिन मेडम अभी तो मेरी काफी सर्विस बाकी है । बच्चे छोटे छोटे है ।
" तो मैं क्या करू ?
कर्मचारी संगठन के अध्यक्ष ने उसे समझाया । बाहर लाया और त्यागपत्र के लिए राजी किया । मरता क्या नही करता । बाबू ने अपने पैसे प्रबन्धन से लिए और सदगति पाई ।
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माधुरी को सम्पूर्ण प्रकरण की जानकारी थी । मगर इस तरह के हल्के-फुल्के मामलों की वो जरा भी परवाह नही करती थी । वैसे भी संस्था के विभिन्न दैनिक कार्यक्रमों में वो दखल नही देती थी । अनुशासन के नाम पर तानाशाही चलती थी मगर वो मजबूर थी । माधुरी अपना ज्यादा ध्यान विश्वविधालय में लगाती थी । विश्वविधालय तथा इससे सम्बन्धित महाविधालयों की राजनीति ही उसे रास आती थी । नेताजी का सूर्य अस्त होने के बाद उसने कल्लूपुत्र को साधने के लिए कल्लू मोची को विश्वविधालय की प्रबन्धन -समिति में अनुसूचित जनजाति के प्रतिनिधि के रूप में शामिल कर लिया था । कल्लू मोची कभी किसी उपवेशन में नही आया था, मगर बैठक भत्ता, यात्रा व्यय, लंच आदि के रूप में एक निश्चित राशि भेजने की परम्परा का निर्वहन किया जाने लगा था । बड़े बड़े बुद्धिजीवी प्रोफेसर, डीन, प्राचार्य, निर्देशक किस्म के प्राणी उसकी चौखट पर आ कर हाजरी देते थे । जो नही आते उन्हे दूसरे लिवा लाते थे । कल्लू पुत्र जो अब एम.एल.ए. साहब थे इस प्रक्रिया से परम प्रसन्न थे । वे स्वयं भी अमचो, चमचो से गिरे रहते थे, उनकी बैठक अरजी, गरजी और दरजी किस्म के लोगों से भरी रहती थी । आप पूछोंगे ये अरजी, गरजी,दरजी, क्या बला है तो उत्तर सीधा सपाट है श्री मान् जो अरज करे सो अरजी, गरज करे सो गरजी और पैबन्द लगाये, सिलाई करे, चुगली खाये वो दरजी ।
अभी भी एम.एल.ए. साहब अरजी-गरजी-दरजी किस्म के लोगों से गिरे हुए थे ।
ये लोग हर नेता, अभिनेता, मंत्री, संत्री की चौखट चूमते रहते थे । अपना काम करवा लेना ही इनका सिद्धान्त था । एम.एल.ए. साहब भी यह सब समझते थे । आज के दरबार में उपस्थित एक मुंह लगे चमचे ने कहा
" सर अपने इलाके में एस.पी. एक महिला को लगा या जा रहा है ।
" हां तो ठीक है महिलाओं के सशक्तीकरण का दौर है ।
" लेकिन सर ! कानून-व्यवस्था का क्या होगा ।"
" कानून-प्रशासन नर-मादा में भेद नही करता । " फिर एस.पी. साहब को कौन सा क्षेत्र में जाना है, उनका मुख्य काम प्रशासनिक है । "
" वो तो ठीक है पर ....सर ! अगले चुनाव में हमारे गुट को परेशानी हो सकती है । सुना है बहुत कठोर है ।
अभी चुनाव बहुत दूर है । उसे गृह मंत्रालय ने एक विशेष काम से भेजा है । प्रदेश में हमारी सरकार है और मुख्य मंत्री चाहते है कि इस क्षेत्र में कानुन-व्यवस्था का कठोरता से पालन हो ।
" लेकिन सर यदि ऐसा हुआ तो हमारे अपराधी मित्रों का क्या होगा ? "
" वे सब बच जायेगें इसलिए तो इन्हे लगाया गया है भाई । " जरा समझा करो ।
" ठीक है सर !"
इतनी ही देर में एक ग्रामीण अध्यापिका एम.एल.ए. साहब से डिजायर लिखवाने हेतु एक प्रार्थनापत्र लेकर आई । एम.एल.ए. साहब ने उसे सिर से पैर तक देखा-पढ़ा-समझा । कागज देखे । कागजों के मध्य में एक लिफाफा था । लिफाफे में पांच सौ का एक नोट था, नेताजी ने तुरन्त डिजायर लिखकर दे दी । लिफाफा रख लिया । महिला अध्यापिका धन्यवाद देकर चली गई । लेकिन एम.एल.ए. साहब ने उसे वापस बुलाया ।
बहिन जी स्थानन्तरण की अर्जी पर मैंने डिजायर लिख दी है यदि आप वास्तव में काम करना चाहती है तो राजधानी चली जाईये । अभी स्थानान्तरण खुले हुए है पता नहीं कब बन्द हो जाये ।
" बहिनजी रूक गई । एम.एल.ए. साहब को ध्यान से देखा फिर धीरे से बोली
" सर ! क्या ये काम आप नहीं करवा सकते । आखिर मैं आपके क्षेत्र की मतदाता हूं ।
" हां हां क्यों नही मगर मेरी फीस है । राजधानी आने - जाने का खर्चा, वहां का व्यय सब कुछ आप लोगों को ही वहन करना पड़ेगां ।"
" कितना ! महिला अध्यापिका ने स्पप्ट पूछा ।
" अब ये तो काम पर निर्भर है । वैसे आप कोई रिक्त स्थान पर स्थानान्तरण करा ले तो व्यय कम आयेगा । किसी को हटाने में खतरे बहुत है ।
हटाना तो मैं भी नही चाहती । पर यदि जिला मुख्यालय के आस पास स्थानान्तरण हो जाये तो बच्चों की पढ़ाई ठीक से हो जाये । पति भी यहीं काम करते है । "
तो ठीक है आप मेरे बाबू से बात करले । आपकी परेशानी मेरी परेशानी । सब ठीक हो जायेगा ।
" सब राशी अग्रिम लगेगी । बहिनजी ने फिर पूछा ।
" अब ये तो सब आप भी समझती है काम होने के बाद कौन फीस देता है । "
" फिर फीस जमा करा दूं । "
" हां हां अगले सप्ताह में मैं जा रहा हूँ । आप कागज मेरे लिपिक को दे दे । सब हो जायेगा ।
म्हिला अध्यापिका ने अपने स्थानान्तरण के कागज और एक वजनी लिफाफा लिपिक को थमा दिया ।
एक अन्य दरजी नुमा व्यक्ति भी खड़ा था । महिला के जाने के बाद बोला -
" "सर ये बड़ी वो .....है । पिछले कई दिनो से विरोधियों के यहां चक्कर लगा रही थी ।
" होगा उससे अपने को क्या ? अपने देवरे में भेंट चढ़ा दी है तो काम करना अपना धर्म है । भेंट - पूजा मिलने के बाद तो देवता भी प्रसन्न हो जाते है । "
" हां सर ये तो है । सभी अरजी - गरजी -दरजी हंस पड़े । "
एम.एल.ए. साहब ने लिपिक को बुलाया ।
" आज के लिफाफे खोले गये । कुल मिलाकर दस स्थानान्तरण के काम थे । राशि भी अच्छी खासी एकत्रित हो गई थी ।
प्रसाद बाटंने के बाद एम.एल.ए. साहब को एक पेटी माल मिल गया था । वे इसी दर से भविप्य के सपने बुनने लग गये । जैसे उनके दिन फिरे वैसे सबके फिरे ।
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और अन्त में !
र्धम का गठबन्धन !
गठबन्धन का र्धम !
गठबन्धन का कर्म !
सी. डी. नाम सत्य है।
आतकवाद नाम सत्य है।
चुनाव मे अश्वेत राप्टपति का बनना भी राजनीति में एक इतिहास हैं।
काशी हो या काबा, कविता हो या शायरी।
हिन्दी में साहित्य-कविता से रोटी। क्यों मजाक करते हो भाई ।
मसिजीवी की चर्चा । मुगालतें में मत करना । भूखोंमर जाओगे । साहित्य की सीढी पर चढ़कर किसी कुर्सी पर बैठ जाओं या फिर एक छोटी-मोटी नौकरी पकड लो । भव सागर तर जा ओगे ।
इस लेस्वियन मौसम में कुछ भी ठीक-ठाक नहीं है। सीडी देखे गत है।
सब तरफ छा गये है । उटपटांग नजारे । उटपटांग किस्से। उटपटाँग गप्पे । उटपटांग अफवाहे । अफवाहों को समाचार बनते क्या देर लगती है। और छपने-प्रसारित होने वाले अधिकोश समाचार अफवाहे ही तो है।
कुत्तो, गधो, मुर्गो, मतदाताओं के दिन । कब तक चलेगे । आखिर तो सरकार ही चलेगी । गठबन्धन की सरकार । धमाधम । धडा़म । जोर से हुई आवाज । कौन बनेगा मंत्री । कौन बनेगा संत्री । सब तरफ बस त्राहि त्राहि ।
जीतने वाले भी हारे और हारने वाले भी जीते ।
ऐसे अजीबो गरीब माहोल में मित्रों इस व्यंग्य उपन्यास का यह अन्तिम अध्याय अन्तिम सांसे ले रहा है।
न सत्य है, न शिव है और न सुन्दर है ।
गान्धी से चले । गान्धी तक पहुँचे । अहिंसा से चला देश आंतकवाद तक पहुँचा । आंतकवाद से कहाँ जायेगे । कोई नहीं जानता । सच पूछो तो हम कहां जा रहे है ये कोई नहीं जानता ।
किस्सा तोता मैना की तरह हर तरफ अजीबो गरीब किस्से, गप्पे,अफवाहे । समाचार, विचार बस सब तरफ लतरांनी ही लतरांनी । लफफाजी ही लफफाजी ।
सरकारों का क्या है ? उनका चरित्र एक जैसा होता है। उनके मुखौटे बदलते रहते है । कभी किसी का मुखौटा कभी किसी का ।
अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी राजनैतिक हत्या को तैयार बड़े नेता । साहित्यक हत्या को आतुर आलोचक महाराज सामाजिक हत्या को निपटाते समाज के ठेके दार । धार्मिक हत्या को अंजाम देते धार्मिक साधु, सन्त, सन्यासी, ऋपि, मुनि, आचार्य, पूज्यपाद आदि ।
इन्हीं सब तानो बानो में फंसी कविता, कहानी, उपन्यास । एक फतवा जारी हुआ उपन्यास की मौत का । दूसरा फतवा जारी हुआ कविता की वापसी का । तीसरा फतवा जारी हुआ व्यंग्य साहित्य का पत्रकारिता बन जाने का । यारो साहित्य एक ललित कला है और पत्रकारिता एक व्यंवसाय । कला में वयवसाय तो ठीक है मगर कला को व्यवसाय घोषित करना अपने आप में व्यंग्य है ।
खबरिया चैनल तक समाचारों के लिए तरस रहे है । राजनीतिक समाचारों के अलावा कुछ भी नहीं सूझ रहा है सब तरफ अन्धकार । अन्धकार में एक प्रकाश, एक किरण की तलाश है साहित्य, कला, संस्कृति ।
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एम. एल. ऐ. साहब का दरबार लगा हुआ है । बडे़ बड़े भूतपूर्व महारथी इस दरबार में हाजरी दे रहे है । नये चुनावों में जीति एक निर्दलीय महिला पार्टी में शामिल होना चाहती है कारण ये कि जिस जाति प्रमाणपत्र के सहारे जीत कर आई थी विवादास्पद हो गया । वह जन जाति में है या अनुसूचित जनजाति में यह बहस मीडिया ने शुरू कर दी । हवा दी हारे हुए उम्मीदवारों ने । बात बढ़ गई । अब रास्ता ये निकला कि विजयी महिला किसी बड़ी पार्टी में मिल जाये तो बेड़ा पार हो जाये । विजयी पार्टी को भी ऐसे चेहरो की आवश्यकता रहती हैं । सो विजयी जनजाति की महिला ने पार्टी सदस्यता हेतु के दरबार में हाजरी दी । नेताजी ने पूछा
क्यो क्या बात हो गई ?
मैंने जाति प्रमाण पत्र में पिताजी की जाति लिखी ।
तो क्या हुआ ?
उसे मान लिया गया ।
फिर ।
मैं चुनाव जीत गई । तो विपक्षी चिल्लाने लगे ।
" अब क्या । "
अब मुझे पार्टी की शरण में ले लीजिये । वैसे भी पार्टी को जरूरत है ।
" हां जरूरत तो है । "
ठीक है तुम्हें पार्टी की प्राथमिक सदस्यता दे देते है । कोई पद नहीं मिलेगा ।
पद तो मेरे पास विधायक का हैं बस सदस्यता चाहिये ।
ठीक है । महिला ने पार्टी का फार्म भरा । और विरोध दब गया । सरकार बन गई । महिला मंत्री पद पा गई ।
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कल्लू मोची के दरबार में अविनाश, कुलदीपक, सब आये हुए थें सब इस दरबार में नियमित हाजरी बजाते थे ।
इन सब लोगों के अपने अपने दुख । अपने अपने सुख । अपने अपने सपने । और सपनो को हकीकत में बदलने के अपने अपने तौरतरिके । देखते देखते खादी, की राजनीति, चमड़ी और दमड़ी की राजनीति बन गई । समाज का सोच आर्थिक बन गया । एक खोके से कम में चुनाव जीतना एक सपना बन गया । निर्दलीय हो या दलीय सब खोके पर बैठ कर वैतरणीय पार करने में लग गये ।
कुलदीपक बोला -
" कल्लू जी इस बार मैंने करीब चालीस-पचास क्षेत्रो का दोरा किया । हर तरफ पैसा पानी की तरह बह रहा था । दलों ने भी खूब पैसा बहाया । हर क्षेत्र मे स्थानीय नेता ओर जाति वाद हावी था ।
जातिवाद हर युग में रहा है । गरीबी हर युग में रहीं है । अविनाश ने कहा ।
लेकिन मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री तक जाति के आधार पर बनेगे तो प्रजातन्त्र का क्या होगा ?
प्रजातन्त्र का कुछ नहीं होगा वो तुम्हारे भरोसे नही है । एक छुटभैये नेता ने कहा ।
" तो क्या जातिवाद प्रजातन्त्र पर हावी हो जायेगा । "
" नहीं ऐसा नहीं होगा मगर जिताउ उम्मीदवार तय करते समय ये सब देखना पड़ता है । कल्लू बोला । "
" ठीक हे । हार जीत चुनावों में चलती रहती है । "
और सुनाओ, तुम्हारे विश्वविधालय में क्या हो रहा है ।
" सब ठीक चल रहा है ।, माधुरी विश्वविधालय में एक बडी गैर सरकारी संस्था एक बडा आयोजन करना चाहती है । करोड़ो का बजट है । "
" अच्छा फिर । "
बस छोरो ने फच्चर फंसा दिया है ।
क्या किया ?
वे अपना वेतन बढ़ाने की मांग कर रहे है ।
तो फिर ।
प्रिन्सिपल ने मना कर दिया ।
लड़कों ने हड़ताल कर दी । अखबारों में प्रिन्सिपल, विश्वविधालय के खिलाफ चिल्लाने लगे । दिल्ली से भी अफसर आ गये है ।
" अच्छा मामला इतना आगे बढ़ गया है । "
" हां नहीं तो क्या । हो सकता सेमिनार रूक जाये या स्थगित हो जाये । या डीन-एकेडेमिक को हटाना पडे । "
बेचारा डीन क्या करे । उसके हाथ में क्या है ।
आखिर किसी की तो बली लेनी ही पडती है न । हडताल भवानी का अवतार है बिना बली लिए मानेगी नहीं ।
और क्या क्या हुआ ।
छात्र तोड़ फोड़ पर उतर आये । गाली - गलोच तो नियमित त्रिकाल संध्या की तरह होता है ।
अच्छा । ये तो ठीक नहीं है ।
अधिकारियों की कारों को नुकसान । कार्यालय को नुकसान कुल मिलाकर प्रिन्सिपल का धन्धा चौपट ।
माधुरी क्या कर रही हे । कल्लू ने पूछा ।
माधुरी मामले को दूर से देख रही है । मजे ले रही है । यदि आवश्यक हुआ तो कार्यवाही करेगी ।
कब करेगी कार्यवाही ।
यह तो वो ही जाने ।
नई सरकार का निजि विश्वविधालयों में कोई हस्तक्षेप नहीं है ।
तो फिर ।
बस माधुरी सर्वेसर्वा है ।
सेमिनार का सचिव बदल दो ।
सब गड़बड़ हो जायेगा । करोड़ो का बजट-खाने-पीने की सुविधा-सब गुड़ गोबर हो जायेगा ।
" तो फिर कैसे चलेगा । "
प्रजातन्त्र तो ऐसे ही चलेगा । हम सब कहां जा रहे है ?
हम सब जहन्नुम में जा रहे है ।
कोई रोक सके तो रोक कर दिखाये ।
हर कोई मदारी है ै हर कोई बन्दर है । हर कोई डुगडुगी बजा रहा है । हर कोई भोंक रहा है हर कोई बारा मन की धोबन को देख रहा है । हर कोई हाथी दांत की मीनार पर चढ़ा हुआ है । हर कोई भाग रहा है । कहीं न कहीं जा रहा है । मगर दिशाहीन भागना भी क्या और दौड़ना भी क्या ।
ऐसी विकट परिस्थिति में कुत्ते ने मुर्गे से पूछा इस देश का क्या होगा यार ।
देश की चिन्ता छोड़ो । खुद की चिन्ता करो । घूरे पर दाने बीनों, यही तुम्हारी नियति है।
मगर मैं बुद्धिजीवी हूँ ।
तो क्या भूखो मर सकते हो ।
नहीं ।
तो फिर जाओं कहीं से हड्डी लाओ । हर कुर्सी एक हड्डी है । चूसो और फेंक दो ।
यार मंहगाई से चले मंदी तक पहुँचे । शेयर - सेन्सेक्स धडाम ।
ब्याज दरे धडाम ।
रूपया धडाम ।
बड़े माँल धड़ाम ।
बड़े उधोग धड़ाम ।
बस धड़ाम ही धड़ाम ।
पत्रकारिता धड़ाम । राजनीति धड़ाम । कूटनीति धड़ाम ।
सत्य । धड़ाम ।
शिवम् धड़ाम।
सुन्दरम् । धड़ाम ।
कलयुग शरणम् गच्छामि । चलो प्रजातन्त्र बचाने की कसमे खाते है।