हिंदी आलेख संग्रह (5) : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

Hindi Articles (5) : Praful Singh "Bechain Kalam"

अपेक्षा से उत्पन्न होता है दुःख : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

व्यक्ति की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि वह जब किसी के लिए कोई कार्य या भलाई करता है तो उससे अपेक्षा करने लगता है कि बदले में वह भी उसके लिए कुछ करे और जब उसकी यह अपेक्षा पूरी नहीं होती है तो वह दुखी होने लगता है। किसी ने अपने पुत्र के लिए अपना जीवन दाव पर लगा दिया लेकिन बुढ़ापे में वह उसकी लाठी नहीं बना। पत्नी के लिए सुख-सुविधा के तमाम साधन जुटाए, लेकिन उसने साथ नहीं दिया। मित्रों के लिए बहुत कुछ किया लेकिन जब जरूरत पड़ी तो सबने दगा दे दिया। इस तरह की तमाम बातें व्यक्ति के साथ होती रहती हैं और वह दूसरे लोगों और नाते.रिश्तेदारों से अपनी अपेक्षाएं पूरी नहीं होने पर दुखी होता रहता है लेकिन वह पंचतंत्र की कहानियों. पौराणिक ग्रंथों और कहावतों के रूप में पूर्वजों की ज्ञान की थाती का अवलोकन करे तो उसे जीवन का मर्म समझाने और दिशा देने वाले ऐसे बहुत से अमूल्य नीति वचन और सूत्रवाक्य मिल सकते हैं जिनसे उसका मार्गदर्शन हो सकता है।

एक कहावत है ' नेकी कर दरिया में डाल यानी भलाई करो और इस बात की बिल्कुल अपेक्षा मत करो कि सामने वाला उसके बदले में तुम्हें भी कुछ देगा। इस बात को जिस भी व्यक्ति ने अपने जीवन में उतार लिया. तय मानिए कि वह संसार का सबसे सुखी व्यक्ति है। हालांकि यह आसान नहीं है कि किसी की मदद करो. सेवा करो और वह दगा दे जाए तो भी उसे विराट् मन से क्षमा कर दो लेकिन यह लाख टके की बात है कि मदद करने के बाद उसे भूलने की आदत जितनी विकसित होती जाएगी. मनुष्य उतना ही सुखी रहेगा।

कल्पना कीजिए कि यदि अनन्य रामभक्त हनुमान को यह शिकायत हो जाती कि उन्होंने भगवान् राम के लिए कितना कुछ किया लेकिन उन्हें क्या मिला । पर हनुमान किसी भी तरह की अपेक्षा से रहित होकर बस अपना कर्तव्य करते रहे और प्रभुभक्ति में लीन रहे।

व्यक्ति को कोशिश करनी चाहिए कि पुष्प की तरह सुगंध बांटना ही उसका धर्म बने और इसके बदले उसके मन में कोई अपेक्षा नहीं हो। इस जगत में यदि आपने'नेकी कर दरिया में डाल' का सही मर्म समझ लिया तो संसाररूपी भवसागर को पार करने में बहुत आसानी होगी।

आत्मा का अस्तित्व एवं रहस्य : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हमारा शरीर पंच तत्वों यानी जल, आकाश, वायु, अग्नि और पृथ्वी से मिलकर बना है। जब किसी की मृत्यु होती है, तो शरीर इन्हीं पंचतत्वों में विलीन हो जाता है और आत्मा अदृश्य रूप में मौजूद रहती है। यदि मर चुके व्यक्ति ने जिंदगी भर अच्छे कर्म किए हैं, तो वैदिक ग्रंथों के अनुसार उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। तब आत्मा जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर आत्मा परमात्मा में विलीन हो जाती है।

श्रीमद्भागवत् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि ‘आत्मा कभी नहीं मरती’। आत्मा अमर है, आत्मा ना जन्म लेती है ना मरती है। आत्मा एक ऐसी ऊर्जा है, जो एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करती है और समय आने पर उस शरीर को छोड़कर चली जाती है और तब तक किसी नए शरीर में प्रवेश नहीं करती जब तक ईश्वरीय आदेश ना हो।

आत्मा का कोई धर्म नहीं, ना ही वह पुरुष है और न ही वह स्त्री, वह तो परमात्मा का अंश मात्र है। परमात्मा न हिंदू है, ना मुस्लिम है, ना सिख, ना ईसाई है ना ही यहुदी और ना ही बौद्ध, परमात्मा से सारा संसार जन्म लेता है। आत्मा एक ऐसी जीवन-शक्‍ति है, जिसके कारण हमारा शरीर जिंदा रहता है। यह एक दैवीय शक्ति है, यह कोई व्यक्ति नहीं है। इस जीवन-शक्ति के बिना हमारे प्राण छूट जाते हैं और हम मिट्टी में फिर मिल जाते हैं। जब शरीर से आत्मा या जीवन-शक्ति निकलती है, तो शरीर मर जाता है और वहीं लौट जाता है, जहां से वह निकला था यानी पृथ्वी के पंचतत्वों में। उसी तरह जीवन-शक्ति भी वहीं लौट जाती है, जहां से वह आई थी यानी परमात्मा के पास।

महाभारत युद्ध के पहले जब अर्जुन हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से कहते हैं कि, ‘मैं अपने सामने खड़े पितामह, गुरु, चाचा, ताऊ, भाई को नहीं मारूंगा। तब अर्जुन को यूं शोक करते देख कर श्रीकृष्ण ने समझाया कि इस संसार में कोई शोक करने योग्य नहीं है, क्योंकि यहां कोई मरता ही नहीं है। सभी आत्माएं हैं और आत्मा कभी नहीं मरती।

जब अर्जुन ने श्रीकृष्ण से फिर पूछा, ‘वह कौन है जो अमर आत्मा और नश्वर शरीर का बार-बार संयोग करवाता है?’ तब श्रीकृष्ण बोले, ‘एक और शरीर है, जो आत्मा के लिए भीतर का वस्त्र है। वह है सूक्ष्म शरीर। उसे अंत:वस्त्र भी कह सकते हैं। वह शरीर एक प्रकार के विद्युत कणों से ही निर्मित है। वह मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार से बना है। इसे ‘कारण शरीर’ या जीवात्माभी कहते हैं। यह शरीर पिछले जन्म से साथ आता है। स्थूल शरीर मिलता है माता-पिता से, सूक्ष्म शरीर मिलता है पूर्वजन्म से, लेकिन आत्मा तो सदा शाश्वत ही है। सूक्ष्म शरीर न हो, तो स्थूल शरीर ग्रहण नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म शरीर छूटने का अर्थ है ‘मोक्ष’। सारी साधनाएं इस सूक्ष्म शरीर को छोड़ने के लिए, इससे मुक्ति के लिए ही की जाती हैं।’

आधुनिक समय में ऐसे कई प्रयोग किए गए, जिनसे यह पुष्टि हो सके कि आत्मा का अस्तित्व सचमुच है। ऐसा ही एक प्रयोग किया था फ्रांस के डॉक्टर हेनरी बारादुक ने उन्होंने एक विशेष कैमरा बनवाया और मृत्यु के बाद निकलने वाली आत्मा की फोटो लेने की तैयारी की। संयोग से एक बार उनका लड़का बहुत बीमार हुआ। उसके बचने के कोई लक्षण दिखाई न दिए तो इस वैज्ञानिक ने परीक्षण करने का मन बनाया। वैज्ञानिक ने इससे पहले अपनी पत्नी पर यह प्रयोग आजमाया था। लेकिन उस समय सिर्फ प्रकाश किरणों की ही पुष्टि वह कर पाए थे।

कैलीफोर्निया के वैज्ञानिक ने तो इस तरह का एक सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया, जिसमें उन्होंने अखबार के रिपोर्टर को बुलाया। उन्होंने वहां साधारण कैमरों से कुछ रहस्यमय किरणों के चित्र लिए थे। इस प्रयोग के बाद अमूमन वैज्ञानिकों ने यह माना कि मनुष्य शरीर में कोई चैतन्य तत्व, कुछ रहस्यमय किरणें, कोई विलक्षण तत्व और प्रकाश है अवश्य पर उसका रहस्य वे नहीं जान पाए।

एक अकेले में भी है दम : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

इस धरती पर साँस लेने वाले हर आदमी ने फुरसत के क्षणों में एक बार तो यह अवश्य सोचा होगा कि आखिर इस धरती पर उसका क्या महत्व है? क्या उसके होने न होने से इस संसार में कोई अंतर आएगा? आखिर इस धरती पर वह क्यों आया? किसलिए आया? किसके लिए आया? ये सभी क्या, क्यों, कैसे, किसलिए के प्रश्जाल में एक बार तो व्यक्ति अवश्य उलझा होगा। हो सकता है कभी ये प्रश् उसके मन में निराशा लाते हों और उसमें जीवन के प्रति हताशा के भाव भरते हों, किंतु ये भी हो सकता है कि ये ही प्रश् उसके मन में कभी आशा का संचार भी करते हों। यदि सचमुच आशा का स्रोत फूटता है, तो यह दार्शनिकता व्यक्ति के जीवित होने का संकेत है, उसके जीवन जीने का संकेत है और यदि इसके विपरित केवल निराशा ही घेरे रहती है, तो यह मात्र उसके जिंदा रहने का ही संकेत है, जो कि पूर्ण रूप से गलत है। इसलिए अपने आप से वादा करें कि आप अपने आपको कभी अकेला महसूस कर अपने महत्व को भूलाएँगे नहीं। यह सच है कि एक अकेले व्यक्ति का प्रत्यक्ष रूप से संसार में कोई महत्व नहीं होता, किंतु वह अप्रत्यक्ष रूप से संसार का एक हिस्सा है। संसार के लिए भले ही उसका महत्व न हो, किंतु जिन लोगों से वह जुड़ा हुआ है, उनके लिए तो उसका विशेष महत्व है।

एकांत में अपने भीतर सकारात्मक विचारों को पैदा करना ही एक बड़ी उपलब्धि है। याद रखें जो व्यक्ति ये समझता है कि मैं खूब महत्व का हूँ, वही व्यक्ति दूसरों के लिए महत्व का बन सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि आप अपने आपके लिए कितने महत्व के हैं? प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना चाहिए कि उसके भीतर ऐसा कुछ है, जिसके दम पर वह इस दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है। यदि आप स्वयं ही अपने महत्व को नहीं समझेंगे, तो कोई दूसरा आपके महत्व को कैसे जानेगा और क्यों कर जानेगा?

इस दुनिया को महान व्यक्तियों की जरूरत होती है, लीडरों की जरूरत होती है। उसके पीछे चलने वालों की कमी नहीं है। इस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना काम अकेले ही शुरू किया था, तब उन्होंने ये नहीं सोचा था कि उन्हें महान व्यक्ति का दर्जा मिल जाएगा। बस उन्हें अपने आप पर विश्वास था कि वे कुछ ऐसा कर पाएँगे, जिसकी इस दुनिया को जरूरत है और उनका यह विश्वास जीत गया। इस जीते हुए विश्वास ने ही उन्हें महानता दिलवाई। इतिहास गवाह है कि विश्व के जितने भी महान पुरूष हुए हैं, वे सभी शुरूआत में बहुत ही साधारण थे। ये सभी अपने कार्यो से एवं महेनत से महान बने हैं।

कोई रातोंरात कुछ नहीं मिल जाता। भाग्य के पौधे को अपनी मेहनत के पसीने से सींचा जाता है, तभी उस पर सफलता का फूल खिलता है। आप अपने आपको बदल दें, फिर पूरी दुनिया अपने आप ही बदल जाएगी। प्राय: लोगों की मानसिकता यह होती है कि वे सोचते हैं कि कोई नई शुरूआत करे, तो हम उससे जुड़ जाए, किंतु वे ऐसा नहीं सोचते कि वे स्वयं शुरूआत करें और लोग उनसे जुड जाए। ऐसा विचार करने वाले बहुत कम लोग होते हैं। यह मनुष्य को खुद को तय करना होता है कि उसे क्या करना है, लोगों से जुड़ना है या लोगों को अपने साथ जोड़ना है। किसी का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ना है या खुद ऐसी राहों पर आगे बढ़ना है, जहाँ लोग उसका अनुसरण करे। ऐसा फैसला जब व्यक्ति कर लेता है, तभी उसके महान और साधारण होने की शुरूआत हो जाती है।

याद रखो, जिस पेड़ पर लोग पत्थर मारते हैं, वे केवल कुछ फल ही प्राप्त कर पाते हैं, पूरा पेड़ उनका कभी नहीं हो सकता। पर जो दृढ़ निश्चयी औरर् कत्तव्यपरायण होते हैं, वे पूरे पेड़ के हकदार होते हैं, पर यह अधिकार उन्हें तभी मिलेगा, जब वे पेड़ की तरह सोचें। पेड़ कभी भी अपने लिए नहीं सोचता, वह महत्वपूर्ण है, जब तक वह अपने को महत्व देता रहेगा, तब तक वह अपने परिवार, समाज, राज्य, देश और विश्व के लिए महत्वपूर्ण होगा। एक दियासलाई से कई दीप जलाए जा सकते हैं। आप ऐसा ही एक दीप बनें, जिससे अज्ञानता का अंधकार दूर हो, परिश्रम की उजास सामने आए। इस संबंध में कविवर गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा है 'जदि तोमार डाक सुने केऊ न आसबे, तो एकला चलो' याने यदि तुम्हारी पुकार सुनकर कोई तुम्हारे पास न आए,तो अकेले ही चलने का संकल्प लो, अकेले ही चलते चलो। सही है भीड़ उन्हीं के पीछे होती है, जिनका सफर अकेले ही शुरू हुआ था।

पतंग से सीखें अनुशासन : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

आकाश में तैरती रंग-बिरंगी पतंगें भला किसे अच्छी नहीं लगती? एक डोर से बँधी हवा में हिचकोले खाती हुई पतंग कई अर्थों में हमें अनुशासन सिखाती हैं, जरा उसकी हरकतों पर ध्यान तो दीजिए, फिर समझ जाएँगे कि मात्र एक डोर से वह किस तरह से हमें अनुशासन सिखाती है।

अनुशासन कई लोगों को एक बंधन लग सकता है। निश्चित ही एकबारगी यह सभी को बंधन ही लगता है, पर सच यह है कि यह अपने आप में एक मुक्त व्यवस्था है, जो जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अतिआवश्यक है। आप याद करें, बरसों बाद जब माँ पुत्र से मिलती है, तब उसे वह कसकर अपनी बाहों में भींच लेती है। क्या थोड़े ही पलों का वह बंधन सचमुच बंधन है? क्या आप बार-बार इस बंधन में नहीं बँधना चाहेंगे? यहाँ यह कहा जा सकता है कि बंधन में भी सुख है। यही है अनुशासन।

अनुशासन को यदि दूसरे ढंग से समझना हो, तो हमारे सामने पतंग का उदाहरण है। पतंग काफी ऊपर होती है, उसे डोर ही होती है, जो संभालती है। बच्चा यदि पिता से कहे कि यह पतंग तो डोर से बंधी हुई है, तब यह कैसे मुक्त आकाश में विचर सकती है? तब यदि पिता उस डोर को ही काट दें, तो बच्चा कुछ देर बाद पतंग को जमीन पर पाता है। बच्चा जिस डोर को पतंग के लिए बंधन समझ रहा था, वह बंधन ही था, जो पतंग को ऊपर उड़ा रहा था। वही बंधन ही है अनुशासन। अनुशासन ही होते हैं, जिससे मानव आधार प्राप्त करता है।

कभी पतंग को आपने आकाश में मुक्त रूप से उड़ान भरते देखा है! क्या कभी सोचा है कि इससे जीवन जीने की कला सीखी जा सकती है। गुजरात और राजस्थान में मकर संक्रांति के अवसर पर पतंग उड़ाने की परंपरा है। इस दिन लोग पूरे दिन अपनी छत पर रहकर पतंग उड़ाते हैं। क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या महिलाएँ, क्या युवतियाँ सभी जोश में होते हैं, फिर युवाओं की बात ही क्या? पतंग का यह त्योहार अपनी संस्कृति की विशेषता ही नहीं, परंतु आदर्श व्यक्तित्व का संदेश भी देता है। आइए जानें पतंग से जीवन जीने की कला किस तरह सीखी जा सकती है-

पतंग का आशय है अपार संतुलन, नियमबध्द नियंत्रण, सफल होने का आक्रामक जोश और परिस्थितियों के अनुकूल होने का अद्भुत समन्वय। वास्तव में देखा जाए तो तीव्र स्पर्धा के इस युग में पतंग जैसा व्यक्तित्व उपयोगी बन सकता है। पतंग का ही दूसरा नाम है, मुक्त आकाश में विचरने की मानव की सुसुप्त इच्छाओं का प्रतीक। परंतु पतंग आक्रामक एवं जोशीले व्यक्तित्व की भी प्रतीक है। पतंग का कन्ना संतुलन की कला सिखाते हैं। कन्ना बाँधने में थोड़ी-सी भी लापरवाही होने पर पतंग यहाँ-वहाँ डोलती है। याने सही संतुलन नहीं रह पाता। इसी तरह हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन न होने पर जीवन गोते खाने लगता है। हमारे व्यक्तित्व में भी संतुलन होना आवश्यक है। आज के इस तेजी से बदलते आधुनिक परिवेश में प्रगति करनी हो, तो काम के प्रति समर्पण भावना आवश्यक है। इसके साथ ही परिवार के प्रति अपनी जवाबदारी भी निभाना भी अनिवार्य है। इन परिस्थितियों में नौकरी-व्यवसाय और पारिवारिक जीवन के बीच संतुलन रखना अतिआवश्यक हो जाता है, इसमें हुई थोड़ी-सी लापरवाही जिंदगी की पतंग को असंतुलित कर देती है।

पतंग से सीखने लायक दूसरा गुण है नियंत्रण। खुले आकाश में उड़ने वाली पतंग को देखकर लगता है कि वह अपने-आप ही उड़ रही है। लेकिन उसका नियंत्रण डोर के माध्यम से उड़ाने वाले के हाथ में होता है। डोर का नियंत्रण ही पतंग को भटकने से रोकता है। हमारे व्यक्तित्व के लिए भी एक ऐसी ही लगाम की आवश्यकता है। निश्चित लक्ष्य से दूर ले जाने वाले अनेक प्रलोभनरूपी व्यवधान हमारे सामने आते हैं। इस समय स्वेच्छिक नियंत्रण और अनुशासन ही हमारी पतंग को निरंकुश बनने से रोक सकता है। पतंग की उड़ान भी तभी सफल होती है, जब प्रतिस्पर्धा में दूसरी पतंग के साथ उसके पेंच लड़ाए जाते हैं। पतंग के पेंच में हार-जीत की जो भावना देखने में आती है, वह शायद ही कहीं और देखने को मिले। पतंग किसी की भी कटे, खुशी दोनों को ही होती है। जिसकी पतंग कटती है, वह भी अपना ंगम भुलकर दूसरी पतंग का कन्ना बाँधने में लग जाता है। यही व्यावहारिकता जीवन में भी होनी चाहिए। अपना ंगम भुलकर दूसरों की खुशियों में शामिल होना और एक नए संकल्प के साथ जीवन की राहों पर चल निकलना ही इंसानियत है।

पतंग का आकार भी उसे एक अलग ही महत्व देता है। हवा को तिरछा काटने वाली पतंग हवा के रुख के अनुसार अपने आपको संभालती है। आकाश में अपनी उड़ान को कायम रखने के लिए सतत प्रयत्नशील रहने वाली पतंग हवा की गति के साथ मुड़ने में ंजरा भी देर नहीं करती। हवा की दिशा बदलते ही वह भी अपनी दिशा तुरंत बदल देती है। इसी तरह मनुष्य को परिस्थितियों के अनुसार ढलना आना चाहिए। जो अपने आप को हालात के अनुसार नहीं ढाल पाते, वे 'आऊट डेटेड' बन जाते हैं और हमेशा गतिशील रहने वाले 'एवरग्रीन' होते हैं। यह सीख हमें पतंग से ही मिलती है।

पतंग उड़ाने में सिध्दहस्त व्यक्ति यदि जीवन को भी उसी अंदाज में ले, तो वह भी जीवन की राहों में सदैव अग्रसर होता जाएगा। बस थोड़ा-सा सँभलने की बात है, जीवन की डोर यदि थोड़ी कमजोर हुई, तो जीवन ही जोखिम में पड़ जाता है। इसीलिए पतंग उड़ाने वाले हमेशा खराब माँजे को अलग कर देते हैं, जिसका उपयोग कन्ना बाँधने में किया जाता है। उस धागे से पेंच नहीं लड़ाया जा सकता। ठीक उसी तरह जीवन में भी उसी पर विश्वास किया जा सकता है, जो सबल हो, जिस पर जीवन के अनुभवों का माँजा लगा हो, वही व्यक्ति हमारे काम आ सकता है।

धागों में कहीं भी अवरोध या गठान का होना भी पतंगबाजों को शोभा नहीं देता। क्योंकि यदि पेंच लड़ाते समय यदि प्रतिद्वंद्वी का धागा उस गठान के पास आकर अटक गया, तो समझो कट गई पतंग। क्योंकि पतंग का धागा वहीं रगड़ खाएगा और डोर का काट देगा। जीवन भी यही कहता है। जीवन में मोहरूपी अवरोध आते ही रहते हैं, परंतु सही इंसान इस मोह के पडाव पर नहीं ठहरता, वह सदैव मंजिल की ओर ही बढ़ता रहता है। 'चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी' यही मूलवाक्य होना चाहिए। पचीस या पचास पैसे से शुरू होकर पतंग हजारों रुपयों में भी मिलती है। इसी तरह जीवन के अनुभव भी हमें कहीं भी किसी भी रूप में मिल सकते हैं। छोटे से बच्चे भी प्रेरणा के स्रोत बन सकते हैं, तो झुर्रीदार चेहरा भी हमें अनुभवों के मोती बाँटता मिलेगा। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम किस तरह से अनुभवों की मोतियों को समेटते हैं।

सकारात्मक या नकारात्मक : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हमारी जिंदगी में नजरिया (attitude) बहुत ज्यादा मायने रखता है। हमारा नजरिया बचपन में ही बन जाता है। हम कैसे विचार करते हैं ये हमारे नजरिए पर निर्भर करता है। अगर हमारी सोच अक्सर सकारात्मक होती है तो हमारा नजरिया सकारात्मक होता है। अन्यथा हमारा नजरिया नकारात्मक होता है। कुछ लोग जरा सी परेशानी आयी औऱ घबराने लगते हैं । उन्हें हमेशा लगता है कि यह मुसीबत हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी। एक के बाद दूसरी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। इनका कोई अंत नहीं है। यह सोचकर वे ज्यादा परेशान हो जाते हैं। उनका नजरिया ही नकारात्मक बन जाता है। वे हर सफल व्यक्ति में केवल बुराइयाँ ही तलाशते हैं। उन्हें लोगों की अच्छाइयां कभी दिखाई नहीं देती हैं। वे लोगों में केवल नकारात्मक विचारों को फैलाते हैं। न कभी खुश रहते हैं और ना किसी को रहने देते हैं। हमेशा नकारात्मक बातों को करते रहते हैं। जीवनभर अपना नजरिया बदल नहीं पाते हैं।

इस वजह से जीवन में सदा असफल रहते हैं। अपनी असफलता का कारण दूसरों को मानते हैं। वे यह समझ नहीं पाते हैं कि उनकी असफलता की असली वजह उनका नकारात्मक नजरिया है। वे अपने आपमें कभी सुधार नहीं करते हैं। सदा दुखी और असन्तुष्ट रहते हैं। इन लोगों से मिलकर लोग अप्रसन्न हो जाते हैं। ये लोग दूसरों की परवाह नहीं करते हैं।

दूसरी तरफ सकारात्मक नजरिया वाले लोग आत्मविश्वास से भरे रहते हैं। वे जो काम करते हैं उसमें उन्हें सफलता मिलती है। अगर कभी असफल भी होते हैं तो उसका कारण तलाशते हैं और उस कमी को दूर करते हैं। वे दूसरों पर दोषारोपण नहीं करते हैं। ऐसे लोगों से मिलकर लोग खुश हो जाते हैं क्योंकि वे अच्छे विचार फैलाते हैं। ऐसे लोग बुराई में अच्छाई तलाशते हैं। उनका यह नजरिया ही उन्हें सफलता के करीब ले जाता है। वे दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करते हैं। ऐसे लोगों के बहुत मित्र बन जाते हैं। वे दूसरों में आशा की किरण जगाते हैं तथा लोगों को सदा प्रोत्साहित करते रहते हैं। स्वयं भी सकारात्मक रहते हैं और सकारात्मक ऊर्जा लोगों में फैलाते हैं।

जीवन में सकारात्मक औऱ नकारात्मक विचारों का अपना ही महत्व है। सकारात्मक सोच आगे बढ़ने में सहायता करती है तो नकारात्मक सोच किसी काम में आनेवाली चुनोतियों का एहसास कराती है । हमें दोनों का उचित संतुलन बनाकर अपना काम करना चाहिए। जैसे–सकारात्मक सोच वालों ने हवाई जहाज बनाया लेकिन नकारात्मक सोच वालों ने पैराशूट बनाया। हवाई जहाज बनाने वाले ने सोचा लोग हवा में उड़ सकेंगे तो नकारात्मक विचारों वालों ने सोचा अगर हवाई जहाज गिर गया तो लोग कैसे बचेंगे इसलिए उन्होंने पैराशूट बनाया जिससे लोग बच सकें।

इंसान की वैल्यू : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हम अक्सर सुनते हैं कि इंसान अमूल्य है, मतलब इंसान की वैल्यू को पैसों में नहीं मापा जा सकता है, मतलब इंसान अरबों-खरबों रुपयों से भी ज्यादा कीमती है। लेकिन सब झूठ बोलते हैं। इंसान कोई अमूल्य नहीं होता है। इंसान की कोई वैल्यू ही नहीं होती है, इसका मतलब है प्रत्येक इंसान की वैल्यू केवल जीरो होती है। अब आप मुझसे पूछेगे कि एक बेरोजगार युवक और एक सरकारी नौकरी करने वाले व्यक्ति, क्या दोनों की वैल्यू समान है? और मेरा उत्तर होगा– हाँ भाई दोनों की वैल्यू जीरो ही है। आप मेरा उत्तर सुनकर चिढ़ जायेगें और मुझे भला-बुरा कहने लगेगें बिना ये सोचे कि मैंने क्यों दुनिया के प्रत्येक इंसान की वैल्यू जीरो बतायी है।

“इंसान की वैल्यू केवल उसके द्वारा किये गए कार्य पर निर्भर करती है, मतलब एक इंसान राष्ट्रपति है तो उसकी वैल्यू सर्वाधिक होगी या एक इंसान इंजीनियर है तो उसकी वैल्यू अधिक होगी, मेरा कहने का मतलब यह है कि इंसान की वैल्यू काम पर निर्भर करती है। अगर काम नहीं तो इंसान की वैल्यू भी नहीं होती है। अगर देखा जाये तो ये जो वैल्यू होती है वो सिर्फ आपके द्वारा किए गए काम की है, मतलब पहले भी आपकी वैल्यू जीरो थी और आज भी आपकी वैल्यू जीरो है।”

“मान लो एक युवक की नौकरी लग जाती है तो सभी उसे पूछने लगते हैं पहले जो इंसान मजाक उड़ाते थे वे आज आपकी तारीफ करने लगते हैं, इससे इंसान को लगता है कि उसकी वैल्यू बढ़ गयी है, इसी से ये भ्रम उत्पन्न होता है कि हमारी वैल्यू बढ़ गई है जबकि ये वैल्यू सिर्फ आपके काम की है, आपकी नहीं। आपकी वैल्यू पहले भी जीरो थी अब भी जीरो ही है।”

मन को समझो तो जाने : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

आखिर हमारा मन भीतर ही भीतर क्या क्या समेटे रहता है.. दो अक्षर के इस मन में दुनिया जहान की सारी बातें होती हैं। गागर में सागर समाने की बात मन के मामले में सौ प्रतिशत सच साबित होती है। मोर जब खुश होता है, तो पंख फैलाकर अपनी खुशी जाहिर करता है और दूसरे ही क्षण स्वयं के पैर देखकर दुखी हो जाता है। मानव मन भी एक पल में खुश हो नाचना चाहता है और दूसरे ही पल दुखी हो उठता है।

विचारों के समंदर में डुबकी लगाता है। प्रत्येक लहर के साथ जीवन के अनुभव लेने को तैयार हो जाता है। ले‍किन कुछ मामलों में बड़े नखरे करता है। उसे मनाना हमारा काम है और वह मान भी जाता है, बिल्कुल उस कोमल पंखुड़ी की भांति, जिसने अभी-अभी बारिश की बूंदों का स्पर्श किया हो। प्रत्येक व्यक्ति की सोच का अपना दायरा होता है। मन, नकारात्मक तथा सकारात्मक दोनों ही तरह से विचार करता है। इसको समझ पाना बड़ा ही कठिन है।

हम जिंदगी भर इसके ताने-बाने में उलझे ही रहते है। ऋषि-महर्षि से लेकर वैज्ञानिक और दर्शनशास्त्रियों तक ने इस पर टीका-टिप्पणी की, फिर भी मन को समझ नहीं पाए हैं। रेत के ढेर की भांति मन काम करता है.... कभी तो रुकना चाहता है, कभी नदी के जल की भांति बहना चाहता है। रुकना मन की नियति नहीं है, वह तो हर क्षण चलना चाहता है, उथल-पुथल करता है। ठीक उस जिद्दी बच्चे की तरह, जिसे जोर से डांट लगाने पर वह थोड़ी देर तो चुप हो जाता है, लेकिन फिर अपनी बात मनवाने के लिए जिद करने लगता है।

हां, मन भी तो यही करता है। हम लाख समझाएं, फिर भी नहीं मानता...। आखि‍र हारकर हम वही करते हैं, जो हमारा मन चाहता है। कर्म करते हैं, क्योंकि हम मन से असीम प्रेम करते है। मन प्रेम के मामले में बड़े असमंजस में डालता है। कभी तो इसे एक पल में कोई अच्छा लगने लगता है....प्यारा लगने लगता है, लेकिन यह क्या उस प्रिय व्यक्ति ने समय पर फोन नहीं किया तो मन बड़े -बड़े प्रश्न कई संदेह पैदा कर देता है। प्रेम के रास्ते में ब्रेक लगाता है, फिर बात की गहराई को खत्म होते देर नहीं लगती। मन बीते लम्हों को यादगार बनाना चाहता है, इसीलिए तो कल्पना से खुश हो हम दिन, महीने, और साल गुजार देते है।

इसी ऊहापोह में मन फिर चंचल हो जाता है..। वह अपना काम करने लगता है। मन यथार्थ को पहचानता है। इस कड़वे सच के साथ वह स्वप्नलोक की सैर करना नहीं भूलता। शायद यही मन की खुराक है, जिससे वह खुद तंदुरस्त रखता है। बुरे समय में मन ही तो आशा के बीज बोता है...। कहता है, हिम्मत न हार, अच्छा समय अभी आने वाला है। दिमाग कह उठता है - मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

झूठ सिर्फ झूठ हो सकता है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

झूठ ! झूठ एक ऐसी चीज़ है जिसके बारे में हमें बचपन से यही सिखाया जाता है की कभी भी झूठ नहीं बोलना चाहिए. मुझे याद है मेरी बचपन की किसी हिंदी या नैतिक शिक्षा की किताब में एक अलग पाठ था, जो ये शिक्षा देता था क इंसान को कभी झूठ नहीं बोलना चाहिए. और तो और एक कविता भी थी, “गडरिये और भेड़” वाली, जिसमें वो गडरिया हमेशा झूठ बोलकर गांववालों को परेशान करता रहता है और एक दिन सच में भेड़िया आकर उसकी भेड़ ले जाता है और उसकी मदद को कोई नहीं आता क्यूकी सब सोचते हैं की वो फिर से झूठ बोल रहा है…..ये कविता तो मुझे आज भी याद है और बहुत अच्छी भी लगती है. हम इसे छोटे बच्चों को सिखाते भी हैं, जिससे की वो लोग कभी झूठ न बोलें..!!

पर मुद्दा यहाँ ये नहीं है की बचपन में हमने कितने पाठ और कवितायेँ पढ़ीं हैं झूठ न बोलने के बारे में. सोचना तो ये है की जो बात हम लोगों को बचपन से हमेशा सिखाई गयी उसका अनुसरण हम अपने जीवन में कितना करते हैं? अरे हाँ हम तो भूल ही गए थे जब थोड़े बड़े हुए, शायद क्लास 6th में, एक और बात सिखाई गयी की झूठ अगर किसी की भलाई के लिए बोला जाये तो वो सच से बढ़कर होता है. हाँ अब उस भलाई में किस किस तरह की भलाई शामिल है वो शायद नहीं बताया गया था।

शिक्षा का मुख्या उद्देश्य होता है की बच्चा जीवन में गलत सही का अर्थ समझ सके, सभ्य बने, और उसे ज्ञान दिया जाये, और वो उस ज्ञान का प्रयोग अपने जीवन में कर सके. हम लोग शायद अपनी डिग्री का प्रयोग करना तो सीख जाते हैं पर ज्ञान का प्रयोग करना ज़रूरी नहीं समझते. कम से कम उस ज्ञान का तो नहीं जिससे हमें जॉब में promotion नहीं मिलने वाला और जिससे हमारी salary नहीं बढ़ने वाली. मेरा मतलब यहाँ नैतिक शिक्षा की छोटी छोटी बातों से है – जिसमे झूठ न बोलना भी शामिल है।

लोग अक्सर ही अपने रोज़मर्रा के जीवन में झूठ का सहारा लेते हैं, कभी खुद की भलाई के लिए और कभी दूसरों की ! मेरा मतलब कभी खुद को बचाने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी दूसरों को, कभी खुद को सही साबित करने के लिए झूठ बोलते हैं और कभी अपने दोस्तों को सही साबित करने के लिए, कुछ नहीं तो मज़ाक में तो झूठ चलता ही है, कुछ भी बोलो और फिर कह दो “अरे यार मैं तो मज़ाक कर रहा था..!

झूठ भी सिर्फ झूठ नहीं होता, इसके भी कई रूप होते हैं. झूठ किसी ने अपने फायदे के लिए बोला और आपने समझ लिया तो वो इंसान स्वार्थी नज़र आता है. किसी ने झूठ अपने किसी दोस्त को मुश्किल से बहार निकालने के लिए बोला तो वो परोपकारी नज़र आता है. और झूठ अगर मज़ाक में बोला गया हो तो उसका तो कोई अर्थ ही नहीं, अरे वो तो मज़ाक था, तो वो इंसान भी बड़ा मजाकिया किस्म का नज़र आता है! (हालांकि मुझे विश्वास नहीं की वो मज़ाक ही होता है या कुछ और?)

इस तरह झूठ हमारे जीवन का एक अहम् हिस्सा बनता जाता है और बिना इसके जीवन ही बड़ा मुश्किल नज़र आता है. और बचपन का सिखाया गया पथ वहीँ बचपन की किताबों में रहता है जिसे अब दुसरे बच्चे पढ़ रहे हैं. पर वो भी सीख नहीं रहे होंगे क्यूंकि जब हमने ही नहीं सीखा तो हमारे आने वाली पीढ़ी के बच्चे कैसे सीखेंगे. और याद रखिये की पाठ पढने और सीखने में बहुत अंतर होता है. और सीखे गए पाठ को अपने जीवन में उतारना तो बिलकुल ही अलग काम है और शायद कई गुना कठिन भी...!!

प्रवचन से व्यक्तित्व का विकास : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

किसी भी काम की शुरुआत आपके प्रभाव से ही होती है, किसी भी काम की सफलता भी बहुत कुछ आपके प्रस्तुतीकरण पर ही निर्भर करती है. अतः जरूरी है की आप अपने व्यक्तित्त्व को संवारें जो की आपके साथ आपके द्वारा किये जाने वाले काम को भी प्रभावशाली बनाये।

कुछ लोग कहते हैं की हम उस जैसे नहीं बन सकते जो सफल है, यहाँ ये स्पष्ट कर देना जरूरी है की हमारा उद्देश्य आपको किसी के जैसा बनाना कतई नहीं है, प्रकृति ने हर व्यक्ति के अंदर कुछ विशेष गुण दिए हैं आवश्यकता उनकी पहचान करने और उनका बेहतर उपयोग करने की क्षमता की है. जब हम महिलाओं के बीच काम कर रहे हों और जन समुदाय को बेहतर सोच और समाज के निर्माण के लिए प्रेरित कर रहे हों तो हमारा अपना व्यक्तित्व इस कार्य में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. जैसे की हम देखते हैं की कोई मूर्तिकार एक मूर्ती बनाते समय किसी बेडौल पत्थर को लेता है और उसके निरर्थक भाग को छील कर अलग कर देता है जिससे उस बेडौल पत्थर का आकार सुन्दर हो जाता है, बिलकुल ठीक इसी तरह हमारी कुछ बुराइयां अलग होते ही हमारे व्यक्तित्व की असली चमक सामने आती हैं।

प्रायः हम देखते है की कुछ लोग किसी को भी जल्दी ही प्रभावित कर लेते है और उनसे एक बेहतर तालमेल और सम्बन्ध कायम कर लेते है, ये सब संभव है अपनी कुछ आधार भूत आदतों को समझने की और उन्हें अपने जीवन में उतरने की. नीचे कुछ बातें दी जा रही हैं जिनकी सहायता से हम अपने व्यक्तित्व का विकास करके अपने व्यक्तित्त्व को प्रभावशाली कैसे बना सकते हैं।

सबसे जरूरी है दूसरों के प्रति हमारा व्यवहार, हमारा व्यवहार हमारे आसपास के वातावरण को बनाता है या बिगता है, उचित होगा की हमारा व्यवहार संयमित हो जिससे माहौल भी संयमित रहे. अपने व्यवहार से हम कभी भी किसी को अपमानित न करें और न ही कभी दूसरों की शिकायत करें। महिलाओं से संवाद स्थापित करते समय इस बात का अच्छा खासा ख्याल रखें।

दूसरों में जो भी अच्छे गुण हैं उनकी ईमानदारी के साथ दिल खोल कर प्रशंसा करें। यदि आप किसी की प्रशंसा नहीं कर सकते तो कम से कम दूसरों की निन्दा कभी भी न करें। किसी की निन्दा करके आपको कभी भी किसी प्रकार का लाभ नहीं मिल सकता। अगर किसी के काम की आलोचना करना हो तो प्रयास रहे की वह कहीं व्यक्तिगत न हो जाए, इस कार्य में लहजा और तथ्य आपकी मदद कर सकते है।

दूसरों को सुनने और समझने में रुचि लें। यदि आप दूसरों में रुचि लेंगे तो दूसरे भी अवश्य ही आप में रुचि लेंगे।
अच्छे श्रोता बनें और दूसरों को उनके विषय में बताने के लिये प्रोत्साहित करें। एक प्रेरक के तौर पर बात करते समय ध्यान रखें की आपके विचार यहाँ महत्त्वपूर्ण नहीं हैं, दूसरों की रुचि और आवश्यकता को ही महत्त्व दें, याद रखें अआपकी भूमिका सिर्फ एक मददगार की है अतः उनपर अपने विचार न थोपें. दूसरों के महत्व को स्वीकारें तथा उनकी भावनाओं का आदर करें।

बात करते समय अक्सर हमारे हमारे भाव भंगिमाए चर्चा के अनुकूल नहीं होती है जिससे प्रभाव पैदा नहीं हो पाटा है अतः कोशिश रहे की हमारी मुखाकृति, हाथ, आवाज का उतार चढाव और वेश भूषा हमेशा अनुकूल ही रहे. जो व्यक्तित्व के प्रभाव को बढ़ाने के साथ ही हमारे विचारों को भी वजन प्रदान करती है।

तर्क का अंत नहीं होता। निरर्थक बहस करने की अपेक्षा सार्थक बहस अधिक उपयुक्त है। दूसरों की राय को सम्मान दें। ‘आप गलत हैं’ कभी भी न कहें। यदि आप गलत हैं तो सबसे पहले अपनी गलती को स्वीकारें। दूसरों को अपनी बात रखने का पूर्ण अवसर दें इससे वे अनुभव करेंगे कि आपकी नजर में उनकी बातों का पूरा पूरा महत्व है।

किसी भी घटनाक्रम को दूसरों की दृष्टि से देखने का ईमानदारी से प्रयास करें। इससे ये साबित होगा की आपका दूसरों की इच्छाओं तथा विचारों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया है । साधारण तया हम बातचीत के दौरान उत्तेजित होकर दूसरों को चुनौती देने लगते है जो की सार्थक चर्चा के लिए उचित नहीं है. अपने तथ्य रखें और फिर चर्चा होने दें सभी को अपने तथ्यों से सहमत करने का प्रयास करें। हमारे ये प्रयास सहभागी चर्चा और निर्णय की नींव को मजबूत ही करेंगे।

खुद का ईमानदार मूल्यांकन अत्यंत आवश्यक है. अपने विचारों के बारे में और कार्य प्रणाली के बारे में हमेशा सोचें, और अपनी कमियों के बारे में अपने मित्रों से चर्चा करें इससे आपको अपने अंदर सुधार लाने के साथ साथ वह क्षमता भी हासिल होगी जिससे आप अपने बारे में भी विश्लेषण कर सकें।

साधारणतया हमारा व्यक्तित्व छोटी छोटी बातों से प्रभावित हो जाता है कई बार हम किसी मुसीबत में भी फंस जाते है. अगर हम इन छोटी बातों का ध्यान रखें तो कुछ फायदा तो हो ही सकता है. बाकी और भी प्रयासों की जरूरत है।

खुशी और सफलता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

खुशी की परिभाषा बताना या कहना बहुत ही जटिल और कठिन है , क्योंकि हर व्यक्ति के लिए खुशी अलग-अलग होती है । कोई अपना मन पसन्द भोजन करके खुश हो जाता है , तो कोई सुखी रोटी खाकर भी खुश रहता है । क्योंकि खुशी सही मायनों में हमारी परिस्थितियों पर निर्भर हैं । खुशी के लिए सफल होना या पैसा होना जरूरी नहीं है । लेकिन सफल होने के लिए बहुत सी चीजो की जरूरत पड़ती है । साधारण भाषा मे कहे तो खुशी का अर्थ है । खुशी यानी प्रसन्नता जैसे बच्चे की जिद पूरी होने पर वो खुश हो जाता है। खुशी चीजो और व्यक्तियों पर निर्भर है। और हम सभी मानव जाति के लोग सुख और दुख को महसूस किये हैं और करते हैं ।।

हर किसी की खुशी का दायरा अलग होता है। किसी कार्य को करने से मन को सकून मिले वो भी एक खुशी है। इंसान जब चाहें वह खुश हो सकता है ये उनके ऊपर निर्भर है । लेकिन सफल इंसान बनने के लिए बहुत मेहनत करनी होती हैं । लेकिन क्या खुशी और सफलता एक समान है । सफलता हमेशा खुशी नही देती है , लेकिन खुशी से किया गया हर कार्य हमे सफलता दिलाती हैं । खुशी और सफलता दोनों एक दुसरे पूरक हैं । क्योंकि खुशी का राज सफलता नहीं है किंतु सफलता का राज खुशी है । इन दोनों में काफी हद तक संबंध है । खुश तो हर दिन हो सकते है हर दिन खुशियों को मना सकते हैं । लेकिन सफल हम तभी होंगे जब मेहनत करेंगे अपनी मंजिल को पाना ही सफलता है । जैसे हर इंसान अपनी क्षमता के अनुसार अपना एक लक्ष्य निर्धारित करते हैं । जब वो उस लक्ष्य को पा लेते हैं । तब उसे सफलता या सफल व्यक्ति कहते हैं । सबसे पहले हमारी मुस्कान , हमारा अच्छा स्वास्थ्य हमारी सफलता हैं । कुछ लोग का मानना है कि एक सफल व्यक्ति हमेशा खुश रहता है । क्या यह वाकई में ऐसा है । नहीं है आईये कुछ उदाहरण के द्वारा आप सभी को बताती हूँ । जब एक इंसान अपनी मंजिल को पा लेता है । उसे डॉक्टर या शिक्षक जो भी हो अपने जीवन मे बन जाता है । वो कुछ पल के लिये खुश हो जाता हैं लेकिन वो हमेशा दुखी रहता है । किसी न किसी कारणवश परेशान रहता है ।

दूसरी बात ये है कि कभी-कभी जीवन मे हम दुनिया के लिए एक सफल इंसान बन जाते हैं । लेकिन हम खुद के लिए कभी खुश नही होते हैं । क्योंकि एक इंसान को कवि बनता होता है या गायक बनता होता है , और वह परिवार के दवाब में आकर उनके इच्छा के लिए जीवन यापन के लिए वो एक सर्वश्रेष्ठ वकील या इंजीनियर बन जाता है । लेकिन वो सफल तो हो जाता है । उसके पास किसी की कमी नहीं होती है । फिर भी वो जब कार्य करता है जिसमे उसकी रुचि नहीं होती है । तो वह हमेशा दुखी रहता है । इसीलिए हम सभी सफल व्यक्ति को खुश नही कह सकते हैं । उसी तरह सफलता हमारे जीवन मे बहुत की मायने रखती हैं । लेकिन खुशी भी सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं । सफलता किसी भी चीज़ को पाने की वह संतुष्टि है जिसके लिए हम सभी को कई जरूरी कदमों का सहारा लेना पड़ता है। जिस तरह हमे सही से जीने के लिए हमारे शरीर के अंग साथ देते हैं जैसे आँखे दुनिया को देखने के लिए । कान सूनने के लिए उसी तरह खुशी भी सफल होने के लिए साथ देती है । क्योंकि कोई भी काम हम कितना भी करे जिसमे मेरी रुचि न हो खुशी न हो तो हम उस काम मे कभी सफल नही हो पाएंगे । लेकिन वही काम अगर हम खुशी से करे तो सफलता हमारी कदम चूमेंगी । कहा जाता है खुश होने के लिए पैसे जिम्मेदार है लेकिन वास्तविकता कुछ और हैं क्योंकि एक गरीब भी खुश उतना होता जब वो मिट्टी पे सोता है लेकिन एक अमीर मखमली बिस्तर पर भी खुशी से नही सो पाता है । इसीलिए खुशी के लिए पैसा जरुरी नहीं है । हमारा व्यक्तित्व बताता है हम कैसे खुश हैं । क्योंकि खुशी तो इंसान पल-पल में पा लेता जैसे बिद्यार्थी अपने रिजल्ट आने पर खुश हो जाते हैं , कोई सैलेरी आने पर खुश होता है । तो कोई अपने दोस्तों से मिलकर खुश हो जाता है । लेकिन सफलता से इंसान कभी भी संतुष्ट नहीं हो पाता है क्योंकि जब कोई नौकरी पा लेता तो उसकी इच्छा आगे की पदवी के लिये होता उसके लिए मेहनत करता है । या बच्चा अच्छे मार्क्स लाने के बाद उससे भी अच्छे मार्क्स लाने के लिए मेहनत करता है । और यह प्रक्रिया सबके साथ निरंतर चलती रहती है । आगे की चाह असंतुष्टि भी कभी -कभी सफलता में खुशी के जगह तनाव और दुख लेके आती है । अतः इसी तरह खुशी और सफलता दोनों अलग है । हमे खुश होने के लिए सफलता प्राप्त करना जरूरी नही है । हम हर क्षण में खुश रहेंगे क्योंकि यह हमारे ऊपर निर्भर हैं ।।

भावनात्मक संवेदनाओं की अभिव्यक्ति : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

अभिव्यक्ति, विचारों की और आपकी भावनाओं की, हम अभिव्यक्ति के जरिए प्रेरणा, डर , निवारण, उकसाना, संतुष्टि, आघात, निराशा, साहस, शिक्षा, कलंक, विचारों का आदान-प्रदान, उदासी, सिद्धांत, साहस और क्षमायाचना को नया आयाम दे सकते हैं. याद कीजिये आपने अपने शब्दों के इस्तेमाल से पहले कितने बार उसे इस्तेमाल करने के बारे में विचार किया है , शायद कम ही निकलेगा, यह एक सामान्य मानव व्यव्हार है, घटिया और सुंदर शब्द के बीच कुछ इस तरह का अंतर होता है जैसा बिजली की कौंध और जुगनू के बीच होता है। शब्दों का चयन यहाँ महत्त्व पूर्ण नहीं है महत्त्व पूर्ण है उसकी अभिव्यक्ति, चूंकि अभिव्यक्ति का एक साधन शब्द भी हैं लेकिन प्रभाव पैदा करने के लिए अन्य कारक भी महत्त्वपूर्ण हैं. जैसे बोलते समय आपकी मनोदशा, आपकी भाव भंगिमाएं, आपकी आवाज का उतार चढाव, आदि..!!

आप जब कुछ कह रहे होते हैं तब आप इस बात को लेकर सतर्क रहते हैं कि मेरी अभिव्यक्ति का क्या प्रभाव हो रहा है या फिर आप उसका इस्तेमाल किस तरीके से कर सकेंगे? आप अपनी बात रखने से पूर्व यह जानने की कोशिश कर सकते हैं कि हमारे शब्द किस तरह घृणा, प्रेम, प्रेरणा, स्वीकृति, क्रोध, दयालुता, आदर, तल्खी और बुद्धि जैसे आयामों को अभिव्यक्ति दे सकते हैं।

सोचिये आपकी अभिव्यक्ति वरदान किस तरह साबित हो सकती है? क्या आप शब्दों के जरिए चुटकुले, कहकहे, आंसू, कविता पाठ और उम्मीद जैसे भावों को जगा सकते हैं? यदि मैं आपसे पूछूँ कि क्या आप कभी किसी की टिप्पणी से दुखी हुए हैं? सभी का एक ही जवाब होगा कि कई बार। इसी लिए तो कहा गया है कि शरीर के जख्म का दाग तो मिट भी जाता है लेकिन जबान से पैदा हुए जख्म को भर पाना मुश्किल होता है। शब्दों से किसी के मन के जख्म को भरा जा सकता है। शब्दों के बढ़िया इस्तेमाल से किसी को ऊपर उठाया जा सकता है और किसी को समर्थन दिया जा सकता है।किसी के जीवन को संवारा जा सकता है या कि ख़त्म किया जा सकता है।

यह सोचना और भी जरूरी हो जाता है जब कि आप लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने के मिशन मैं लगे हों, अभिव्यक्ति के प्रदर्शन से पहले उसके प्रभाव के बारे मैं अवश्य सोचें, लेकिन सबसे ऊपर अपने लक्ष्य को ही रखें । सबसे बड़ी सफलता है कि आपके साथ काम करने वाले लोग कितने उत्साहित है कभी आपने सोचा है कि उनका उत्साह कैसे बढे और उनमें काम के प्रति अपनत्व का भाव कैसे पैदा हो, लोगों को उत्साहित करना इसका एक ताकतवर माध्यम हो सकता है, कल्पना कीजिए कि आप हर रोज दो लोगों को उत्साहित करते हैं और यदि आप उन दोनों व्यक्तियों को इस बात के लिए भी तैयार कर पाते हैं कि वे दोनों कल दो और लोगों को प्रेरित कर सकें यह आपके लक्ष्यों कि पूर्ती मैं सबसे बड़ा सहारा बनेगा और स्थाई विकास कि नीव भी रखेगा । जब हम महिलाओं के सशक्तिकरण कि प्रक्रिया में भागीदार है तो हमारी जिम्मेदारी और भी बढ़ जाती है, क्योंकि जहाँ हमें महिलाओं को इसके लिए सशक्त करना है वहीँ दूसरी और समाज को भी इसमें सहयोग के लिए तैयार करना है। तो पहचानिए अपनी अभिव्यक्ति कि ताकत और कोशिश कीजिये लोगों का प्रेरणा स्त्रोत होने का । बस इतना कीजिये।

निंदा व आलोचना में मतभेद : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

निंदा व आलोचना ये दो ऐसे शब्द हैं जिनमे एकबारगी कोई अंतर मालूम नही पड़ता, दरअसल यह भेद इतना सूक्ष्म है कि जिसके जिसके कारण हम अक्सर आलोचना को भी निंदा ही समझते हैं किंतु इन दोनों में बहुत नजदीक का रिश्ता है। इनका रंग रूप एक जैसा है किंतु प्रकृति व आत्मा एकदम भिन्न भिन्न है।

निंदक कोई भी हो सकता है पर आलोचक सम्भवतः वही होगा जिसके हृदय में हमारे लिए कुछ करुणा, स्नेह व मैत्री का भाव विद्यमान होगा क्योंकि आलोचना का जन्म करुणा के द्वारा होता है व निंदा का घृणा के द्वारा। आलोचना होती है जगाने के लिए, निंदा होती है हमारे आत्मबल को सुलाने के लिए। आलोचना का लक्ष्य होता है केवल शुद्धिकरण करना, सत्य को खोजना व मार्गदर्शन करना किंतु निंदा का लक्ष्य होता है हमारी आत्मा पर घाव करना, धूल धूसरित करना व पैरो से कुचल डालना। आलोचना कितनी भी कठोर हो किंतु उसमे मैत्री की सुगंध है जबकि निंदा में दुर्भावना की दुर्गंध है। आलोचना का जन्म ही सदभावना से होता है जिसका उद्देश्य हमें मार्गनिर्देशित करना हो सकता है जबकि निंदा अहंकार से जन्म लेती है जिसका भाव हमे नीचा दिखाना, छोटा साबित करना व आत्मविश्वास को गिराना होता है। आलोचना इस बात का अन्वेषण है कि सत्य क्या है ? सत्य कैसा है ? व सत्य के पालन में त्रुटियां कहां हुईं। सच्चे आलोचक न केवल हमारे शुभचिंतक होते हैं वरन यही राष्ट्र के जिम्मेदार नागरिक भी हैं।

अपने दोषों को देखने से अविवेक नष्ट होता है और केवल दूसरों के दोष देखने से व्यक्ति का अपना अहंकार पुष्ट होता है, बढ़ता है। अहंकारी के स्वभाव में स्वाभाविक रूप से तानाशाही का पुट आ ही जाता है। अहंकारी को, तानाशाह को किसी भी प्रकार का परामर्श-सलाह तक नागावार गुजरती है, क्योंकि उसे लगता है कि सलाह देकर उसे नीचा और अज्ञानी दिखाये जाने का प्रयास किया जा रहा है। अहंकारी और तानाशाह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ, ज्ञानी और सर्वज्ञ समझने का भ्रम पाले रहता है। उसे लगता है कि वह सब कुछ जानता है, जो वह नहीं जानता उसे संसार में अन्य कोई भी जानता हो, यह असंभव है। जिस अहंकारी का सोच ऐसा हो, जो परामर्श दिये जाने को अपना अपमान मानता हो, वह आलोचना को कैसे स्वीकार कर सकता है और निंदा तो उसके लिए असहनीय ही होती है। ऐसा व्यक्ति आलोचना और निंदा में अंतर नहीं मानता है क्योंकि उसका अहंकार आलोचना और निंदा में भेद करने में विश्वास नहीं रखता है।

अहंकारी व्यक्ति अथवा सत्ता के आदेशों, निर्देशों को साक्षात ईश्वर की आज्ञा मानने वाले विवेक शून्य बैल मरखने होकर इस उस को सींग मारकर चलने के आदी हो जाते हैं। इन बेचारों को नहीं पता कि बिना विवेक, बिना जिज्ञासा के अंधानुकरण करने वाले न अनुयायी होते हैं, न भक्त-वे तो केवल गुलाम हो सकते हैं। आंखों पर अंधौरा लगाये एक छोटे से दायरे में घूमते कोल्हू के बैल की तरह तमाम लोग भी एक ही वैचारिक सर्किल में टहल रहे हैं और समझ रहे हैं- ‘मालिक ने तो हमें पूरी दुनिया घुमा दी। घोड़े पर बैठा सवार एक डंडे में गाजर बांधकर उसे घोड़े के मुंह के आगे लटका देता है। घोड़ा कभी न मिल सकने वाली गाजर के लालच में चलता चला जाता है और घुड़सवार अपना लक्ष्य साध लेता है। वह ऐसे ही घोड़े का मूर्ख बनाकर उसकी सवारी गांठता रहता है।

बात निंदा और आलोचना की, जिसमें ज्यादातर लोग भेद नहीं करते हैं जबकि इन दोनों के बीच बड़ा भेद है। आलोचना एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित करती है और आदर्शों के अनुरूप होती है जबकि निंदा दिशाहीन है और अपमान व तिरस्कार के भाव से होती है।

आलोचना और निंदा में सूक्ष्म भेद है। कभी-कभी निंदा आलोचना जैसी लगती है और कभी आलोचना निंदा जैसी। बहुत करीब का रिश्ता-नाता है। उनका रंग रूप एक जैसा है, मगर आत्मा बड़ी भिन्न है। आलोचना होती है करुणा से, निंदा होती है घृणा से। आलोचना होती है जगाने के लिए निंदा होती है मिटाने के लिए। आलोचना का लक्ष्य होता है सत्य का आविष्कार, निंदा का लक्ष्य होता है असत्य का पोषण।’

आलोचना अत्यन्त मैत्रीपूर्ण है, चाहे कितनी भी कठोर क्यों न हो, फिर भी उसमें मैत्री है और निंदा चाहे कितनी भी मधुर क्यों न हो, उसमें जहर है। जैसे जहर ही शक्कर में लपेटकर दिया जा रहा है। निंदा उठती है अहंकार-भाव से… मैं तुमसे बड़ा, तुम्हें छोटा करके दिखाऊंगा। आलोचना का संबंध अहंकार से नहीं है। आलोचना इस बात का अन्वेषण है कि सत्य क्या है, सत्य कैसा है? आलोचना बहुत कठोर हो सकती है, क्योंकि कभी-कभी असत्य को काटने के लिए कृपाण का उपयोग करना होता है। असत्य की चट्टानें हैं तो सत्य के हथौड़े और छैनियां बनानी पड़ती हैं।

आज तो आलोचना को भी निंदा मानने का ऐसा दौर चल पड़ा है, जिसमें सवाल पूछने वालों को बुरा नहीं बहुत बुरा समझा और साबित करने की कोशिश हो रही है। कोई नहीं समझना चाहता कि आलोचना विकास की असली पथ प्रदर्शक होती है। अहंकार इस कालावधि पर हावी है वह अहंकार जो कभी किसी का रहा नहीं और आदतन कभी किसी का रहेगा भी नहीं। अंत में यही कि आलोचना को अपमान न मानकर सम्मान देंगे जो जीवन में बहुत कुछ अच्छा घटित होगा। हां-यह भी कि निंदा न किसी की करें और न किसी की सुनें। बाकी आपकी मर्जी।
अतः सच्चे आलोचक बने दुर्भावना व दुराग्रह से ग्रसित निंदक नहीं।

स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

स्वाभिमान क्या होता हैं ? स्वाभिमान शब्द आत्मगौरव और आत्मसम्मान के लिए प्रयुक्त होता है। स्वाभिमान का सामान्य अर्थ पाठशाला में ही संधि विच्छेद में पढ़ा था कि स्व का अभिमान मतलब स्वाभिमान, स्व मतलब खुद, आप स्वयं।

यह ऐसा शब्द है जो हमें जाग्रत करता है, प्रेरित करता है और हमें कर्तव्य के प्रति आगे बढ़ने के लिए ललकारता है। स्वाभिमान हमारे अपने विश्वास को जाग्रत करता है। हमें जीवन मूल्यों के प्रति, अपने देश के प्रति, अपनी संस्कृति, अपने समाज और अपने कुल के प्रति स्वाभिमानी बनने की प्रेरणा देता है। मानव तीन ऋणों को लेकर जन्मता है। पहला-पितृ ऋण। दूसरा ऋण है-सामाजिक ऋण। हम जिस समाज में है, उस समाज को अपने कौशल और विवेक-बुद्धि से समाज-सेवा करने में स्वाभिमान की पवित्र भावना रखें। हमारे ऊपर तीसरा ऋण है-राष्ट्र ऋण। हम अपने राष्ट्र में रहकर उसके अन्न-जल से पोषण प्राप्त करके अपना, अपने परिवार और अपने समाज के विकास में सहयोगी बनते हैं। इसलिए उस राष्ट्राभिमान को जाग्रत रखना चाहिए। राष्ट्र पर किसी भी प्रकार की आपदा या परतंत्रता आए तो राष्ट्र को स्वतंत्र कराने के लिए अनेक राष्ट्रभक्तों व विवेकी पुरुषों ने स्वाराष्ट्राभिमान के वशीभूत होकर अपने को उत्सर्ग कर दिया। ऐसा स्वाभिमान हमारे विवेक को प्रकाशित करता है।

स्वाभिमान इन्सान की श्रेष्ठता से समाज में होने वाली पहचान होती है। समाज में स्वाभिमानी इंसानों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त होता है तथा समाज में स्वाभिमानी इंसानों की पूर्ण विश्वसनीयता भी कायम होती है।

जो इन्सान समाज में अपनी सम्पत्ति एवं धन या पद के आधार पर खुद को महत्वपूर्ण समझ कर अभिमान करते हैं वास्तव में वह उनका अहंकार होता है। अभिमानी तथा स्वाभिमानी होने में बहुत अंतर होता है। स्वाभिमानी को समाज महत्वपूर्ण समझता है परन्तु अभिमानी खुद को महत्वपूर्ण समझता है। स्वाभिमानी समाज में सम्मानित माना जाता है परन्तु अभिमानी खुद को सम्मानित मान लेता है। अभिमानी इन्सान को यह समझता आवश्यक होता है कि समाज किसी की सम्पत्ति, धन या पद का सम्मान नहीं करता समाज इन्सान के कर्म, व्यवहार एवं आचरण की श्रेष्ठता का सम्मान करता है। स्वाभिमानी इन्सान सत्य से प्रेम करता है तथा अभिमानी इन्सान सत्य से दूर भागता है इसलिए जब सत्य से प्रेम होने लगे तो समझ लेना चाहिए कि वह भी स्वाभिमानी हो रहा है।

स्वाभिमान की श्रेष्ठता को ईमान कहा जाता है। इन्सान जब सत्य एवं निष्ठा से अपने कार्यों को परिणाम देता है तथा अपने सभी कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा से करता है तब वह ईमानदार कहलाता है। स्वाभिमान की श्रेष्ठता पर जब ईमानदारी की छाप लग जाती है तो ऐसे इन्सान को समाज में विशेष स्थान प्राप्त हो जाता है। किसी ईमानदार इन्सान को समाज से पूर्ण सहयोग एवं समय पर जितना धन चाहिए उधार के रूप में प्राप्त हो जाता है। किसी धनी इन्सान को यदि समाज में ईमानदार होने का विश्वास प्राप्त नहीं होता तो उसे भी उधार लेने में असुविधा होती है क्योंकि विश्वास धन से नहीं ईमानदारी के आधार पर होता है। ऐसे कारण प्रमाणित करते हैं कि संसार में इन्सान अपने स्वाभिमान के कारण कितना अधिक श्रेष्ठ बन सकता है जिससे उसका जीवन सम्मानित एवं आनन्दित बन जाता है।

स्वाभिमान व्यक्ति को स्वावलम्बी बनता है जबकि अभिमानी हमेशा दूसरों पर आश्रित रहना चाहता है। स्वाभिमान एवं अभिमान के बीच बहुत पतला भेद है। इन दोनों का मिश्रण व्यक्तित्व को बहुत जटिल बना देता है।

अपने कार्यों का प्रतिफल सभी अन्य लोगों की सहायता मानता है उसका स्वाभिमान अभिमान में परिवर्तित नहीं होता है तथा उसके अंदर स्वाभिमान और अभिमान को परखने की प्रवृति जाग्रत होती है।

लघुत्व से महत्व की और बढ़ना स्वाभिमान होने की निशानी है जबकि महत्व मिलने पर दूसरों को लघु समझना अभिमानी होने का प्रमाण है। अभिमान में व्यक्ति अपना प्रदर्शन कर दूसरों को नीचे दिखने की कोशिश करता है इसलिए लोग उससे दूर रहना चाहते हैं सिर्फ चाटुकार लोग ही अपने स्वार्थ के कारण उसकी वह वाही करते हैं इसके विपरीत स्वाभिमानी व्यक्ति दूसरों के विचारों को महत्व देता है इसलिए लोग उसके प्रशंसक होते हैं।

अच्छा श्रोता होना स्वाभिमान का लक्षण है क्योंकि वह सोचता की मुझे लोगों से बहुत कुछ ग्रहण करना है। प्रत्येक उपलब्धि के नीचे अहंकार का सर्प होता है उसके प्रति सदैव सावधान रहकर ही आप उसके दंश से बच सकते हैं। स्वाभिमान हमेशा स्वतंत्र का पक्षधर रहता है इसलिए स्वाभिमानी स्वतंत्रता के लिए लड़ते हैं जबकि अभिमानी अपने को स्वतंत्र रख कर दूसरों की गुलामी का पक्षधर है

कोई इन्सान जब किसी भी प्रकार की बेईमानी करता है तो उसे सर्वप्रथम अपने स्वाभिमान का अंत करना पड़ता है अथवा वह स्वाभिमानी नहीं होता क्योंकि बेईमानी जब प्रमाणित होती है तो अपमान भी भरपूर होता है। स्वाभिमान इन्सान की श्रेष्ठता एवं शुभ कर्मों की पहचान है। जीवन में बेईमान से स्वाभिमान इन्सान समृद्धि में पिछड़ अवश्य सकता है परन्तु समाज में सदैव अग्रणी रहता है।

स्वाभिमानी इन्सान को प्रयासों से ही सही परन्तु सफलता अवश्य प्राप्त होती है क्योंकि समाज उसका साथ अवश्य देता है। बेईमान इन्सान का कोई बेईमान अथवा लोभी या स्वार्थी इन्सान कुछ समय के लिए साथ अवश्य दे सकता है परन्तु ऐसे इन्सान किसी भी समय धोखा दे देते हैं। बेईमान अथवा साधारण इन्सान की मृत्यु के साथ ही पहचान समाप्त हो जाती है परन्तु स्वाभिमानी एवं ईमानदार इंसानों को समाज सदैव स्मरण रखता है तथा समय-समय पर उनकी व्याख्या भी करता रहता है।

संसार में अपनी पहचान स्थापित करनी हो तो इन्सान को स्वाभिमानी होना आवश्यक है जिसके लिए अपने कर्मों, व्यवहार एवं आचरण में श्रेष्ठता उत्पन्न करना आवश्यक होता है। इन्सान यदि किसी प्रकार का अनुचित कार्य करता है तो वह अपना सम्मान स्वयं भी नहीं कर सकता क्योंकि उसे पता होता है कि वह गुनाहगार है। जो इन्सान अपना सम्मान स्वयं भी नहीं कर सकता उसे दूसरों से सम्मान की अपेक्षा करना नादानी होती है। इन्सान को यदि सम्मान की अपेक्षा हो तो सर्वप्रथम खुद अपना सम्मान करना सीखना चाहिए और अपना सम्मान सिर्फ स्वाभिमानी इन्सान ही कर सकता है।

दूसरों को कमतर आँकना एवं स्वयं को बड़ा समझना अभिमान है।एवं अपने मूलभूत आदर्शों पर बगैर किसी को चोट पहुंचाए बिना अटल रहना स्वाभिमान है। अभिमानी व्यक्ति अपने आपको स्वाभिमानी कहता है किन्तु उसके आचरण,व्यवहार एवं शब्दों से दूसरे लोग आहत होते हैं। अभिमानी अन्याय करता है और स्वाभिमानी उसका विरोध। स्वाभिमानी दूसरों का अधिपत्य खत्म करता है जबकि अभिमानी अपना अधिपत्य स्थापित करता है। रावण अभिमानी था क्योंकि वह सब पर अधिकार जमाना चाहता था ,कंस अभिमानी था क्योंकि वह आतंक के बल पर राज करना चाहता था। राम ने रावण के अधिपत्य को समाप्त किया तथा कृष्ण ने कंस के आतंक को ,इसलिए राम और कृष्ण दोनों स्वाभिमानी थे।

देश की अस्मिता की रक्षा के लिए हजारों ललनाओं ने जौहर की आग में कूदकर अपने स्वाभिमान की रक्षा की। अपने स्वाभिमान के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने फिरंगियों से युद्ध करते हुए अपना जीवन राष्ट्र के लिए बलिदान कर दिया। यह स्वाभिमान ही है, जो हमें हमारे निश्चय से डिगा नहीं सकता। स्वाभिमान हमारे डिगते कदमों को को ऊर्जावान कर उनमें दृढ़ता प्रदान करता है। कठिन परिस्थितियों और विपन्नावस्था में भी स्वाभिमान हमें डिगने नहीं देता।

प्लास्टिक अपने कफन में दफन करके ही दम लेगा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

"प्लास्टिक प्रदूषण से उठो युद्ध करो, कुछ भी न प्रकृति देवी के विरूद्ध करो, मानवता का अस्तित्व बचाने के लिए, संसार के पर्यावरण को शुद्ध करो।"विज्ञान ने ऐसी बहुत सी खोज की है जो जो अभिशाप बन गई है। ऐसा ही एक अभिशाप है प्लास्टिक। प्लास्टिक शब्द लेटिन भाषा के प्लास्टिक्स तथा ग्रीक भाषा के शब्द प्लास्टीकोस से लिया गया है।दिन की शुरूआत से लेकर रात में बिस्तर में जाने तक अगर ध्यान से गौर किया जाए तो आप पाएंगे कि प्लास्टिक ने किसी न किसी रूप में आपके हर पल पर कब्जा कर रखा है। पूरे विश्व में प्लास्टिक का उपयोग इस कदर बढ़ चुका है और हर साल पूरे विश्व में इतना प्लास्टिक फेंका जाता है कि इससे पूरी पृथ्वी के चार घेरे बन जाएं। हमारे भारत देश में 2016 की एक रिपोर्ट के मुताबिक प्रतिदिन 15000 टन प्लास्टिक अपशिष्ट निकलता है। जो कि दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। जबकि अगर निर्माण की बात करे तो भारत में प्रतिवर्ष लगभग 500 मीट्रिक टन पॉलीथिन का निर्माण होता है, लेकिन इसके एक प्रतिशत से भी कम की रीसाइक्लिंग हो पाती है। वैसे इस समय विश्व में प्रतिवर्ष प्लास्टिक का उत्पादन 10 करोड़ टन के लगभग है और इसमें प्रतिवर्ष उसे 4 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। इन आंकड़ों से प्लास्टिक से भविष्य में होने वाले प्रभावों का आकलन किया जा सकता हैं।

प्लास्टिक जिसने पूरी दुनियां के नाक में दम कर रखा है, एक ऐसा कार्बनिक योगिक है जो एक विशिष्ट श्रृंखला से बनता है। यह एक सिंथेटिक पॉलिमर है। पॉलिमर यह अणुओं का भार है जो कई मोनोमर के शृंखला से बना हुआ हैं । पॉलिमर को दो प्रकार में वर्गीकृत किया गया है। नैसर्गिक प्रकार के प्लास्टिक होते हैं।आकार यांत्रिक बल और गर्मी के प्रभाव से प्लास्टिक को एक वांछित आकार में बनाया जा सकता है। कोयला, पेट्रोलियम, सेल्यूलोज, नमक, सल्फर जैसे प्लास्टिक के कच्चे माल के निर्माण में, चूना पत्थर, हवा, पानी आदि का उपयोग किया जाता है। प्लास्टिक के प्रकार में थर्माप्लास्टिक औऱ थर्मोसेटिंग प्लास्टिक आते है। इसके आलावे प्लास्टिक के मिश्रण को विभिन्न के मिश्रण के रूप में परिभाषित किया जा सकता है - प्लास्टिसाइज़र, एक्सटेंडर के भराव, लुब्रिकेंट, थर्माप्लास्टिक और पिगमेंट जैसी सामग्री थर्मोसेटिंग रेजिन उनके उपयोगी गुणों जैसे ताकत, टिकाऊ आदि को बढ़ाने के लिए करता है।

हानिकारक प्लास्टिक की चीजों का जीवन में बेतहाशा उपयोग हमारे शरीर के आंतरिक अंगों पर जानलेवा प्रभाव डालता है और कैंसर का एक प्रमुख कारण बनता है। घर के फर्नीचर, रसोई के बरतन, कप, प्याली, गिलास, थालियों, पानी के घड़ों और पानी की बोतलों से लेकर, दवाओं सी शीशियां सब कुछ में हम प्लास्टिक के विकल्प अपनाते हैं और कभी सोचते नहीं कि अनजाने में हमारे पेट में, फेफड़ों में, किडनी तक में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण कितनी बड़ी मात्रा में पहुंच रहे हैं। प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण हमारे शरीर के लिए धीमे जहर की तरह हैं।

रोजमर्रा की जिंदगी में हम जो प्लास्टिक काम में लाते हैं वह बहुत खतरनाक किस्म का रसायन पोली विनायल क्लोराइड है। इसे रसायनों के रक्त में घुल जाने से अनेक बीमारी की आशंका बढ़ जाती है और गर्भ में पल रहा बच्चा भी अनेक रोगों के गिरफ्त में आ सकता है । प्लास्टिक की थैली भी बहुत खतरनाक है । प्लास्टिक नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल होता है। नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल ऐसे पदार्थ होते हैं जो बैक्टीरिया के द्वारा ऐसी अवस्था में नहीं पहुंच पाते जिससे पर्यावरण को कोई नुकसान न हो। कचरे की रीसाइक्लिंग बेहद जरूरी है क्योंकि प्लास्टिक की एक छोटी सी पोलिथिन को भी पूरी तरह से छोटे पार्टिकल्स में तब्दील होने में हजारों सालों का समय लगता है और इतने ही साल लगते हैं प्लास्टिक की एक छोटी सी पोलिथिन को गायब होने में।

हर साल जो झुगियां जलकर राख हो जाती है उसमें पीवीसी का बड़ा हाथ होता है। यह बेहद निचले दर्जे का प्लास्टिक होता है, जो आग जल्दी पकड़ता है वह बुझने में घंटो लग जाता है।शोधकर्ताओं ने अपने अध्‍ययन में पाया है कि तकरीबन नौ तरह की प्लास्टिक के कण खाने-पीने एवं अन्य तरीकों से इंसान के पेट में पहुंच रहे हैं। प्लास्टिक के ये कण लसीका तंत्र और लीवर तक पहुंच कर इंसान की रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रभावित कर सकते हैं।अध्ययन में पाया गया है कि हर इंसान एक हफ्ते में औसतन पांच ग्राम प्लास्टिक निगल रहा है।

समुद्र में लगभग 1950 से 2016 के बीच के 66 वर्षों में जितना प्लास्टिक जमा हुआ है, उतना अगले केवल एक दशक में जमा हो जाएगा। इससे महासागरों में प्लास्टिक कचरा 30 करोड़ टन तक पहुंच सकता है। यही नहीं हर साल उत्पादित होने वाले कुल प्लास्टिक में से महज 20 फीसद ही रिसाइकिल हो पाता है। 39 फीसदी प्‍लास्टिक कचरा जमीन के अंदर दबाकर नष्ट किया जाता है और 15 फीसदी जला दिया जाता है। 1950 में दुनिया-भर में प्लास्टिक उत्पादन 1.5 मिलियन टन था। 2015 आते-आते यह 322 million टन हो गया। यह हर साल औसतन 8.6% की दर से बढ़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों में जैसे-जैसे प्लास्टिक का प्रयोग बढ़ा है, वैसे-वैसे इसकी वजह से दिक्कतें भी बढ़ी हैं।

प्लास्टिक के हजारों सालों तक खराब नहीं होने के कारण यह महासागरों में पड़ा रहता है प्लास्टिक से धीरे धीरे जहरीले पदार्थ निकलते रहते हैं जो कि जल में घुल जाते हैं और उसे प्रदूषित कर देते हैं। जिससे समुद्री जीवो के लिये एक गंभीर संकट उत्पन्न हो जाता है, क्योकि निरीह जीवो द्वारा इन प्लास्टिको को अपना भोजन समझकर खा लिया जाता है। जिससे मछलियों, कछुओं और अन्य समुद्री जीवो के स्वास्थ्य पर गंभीर संकट उत्पन्न हो जाता है। प्रतिवर्ष कई समुद्री जीव प्लास्टिक प्रदूषण की समस्या इस से अपनी जान गवा बैठते है और शोधकर्ताओं का दावा है कि आने वाले समय में इस संख्या में और इजाफा होने वाला है।

वर्तमान में प्लास्टिक के दुष्परिणामों से बचने के लिए कुछ विकसित देशों में प्लास्टिक के रूप में निकला कचरा फेंकने के लिए खास केन जगह जगह रखी जाती हैं। इन केन में नॉन-बॉयोडिग्रेडेबल कचरा ही डाला जाता है। असलियत में छोटे से छोटा प्लास्टिक भले ही वह चॉकलेट का कवर ही क्यों न हो बहुत सावधानी से फेंका जाना चाहिए। क्योंकि प्लास्टिक को फेंकना और जलाना दोनों ही समान रूप से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। प्लास्टिक जलाने पर भारी मात्रा में केमिकल उत्सर्जन होता है जो सांस लेने पर शरीर में प्रवेश कर श्वसन प्रक्रिया पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। इसे जमीन में फेंका जाए या गाड़ दिया जाए या पानी में फेंक दिया जाए, इसके हानिकारक प्रभाव कम नहीं होते।

भारत सरकार के पर्यावरण और वन मंत्रालय ने भी प्रयास किया है। इसके रीसाइकिल लिए रि-साइकिल्ड प्लास्टिक मैन्यूफैक्चर एंड यूसेज़ रूल्स-1999 जारी किया था। इसे 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम-1968 के तहत संशोधित किया गया है, ताकि प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबंधन सही तरीक़े से किया जा सके। भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) ने धरती में घुलनशील प्लास्टिक के 10 मानकों के बारे में अधिसूचना जारी की थी, मगर इसके बावजूद हालात वही 'ढाक के तीन पात' वाले ही हैं। इसका सकारात्मक प्रभाव अब भी नहीं दिख रहा है।

हालांकि विशेषज्ञों का मानना यह भी है की रि-साइक्लिंग की प्रक्रिया भी प्रदूषण को बढ़ाती है। रि-साइकिल किए गए या रंगीन प्लास्टिक थैलों में ऐसे रसायन होते हैं, जो ज़मीन में पहुंच जाते हैं और इससे मिट्टी और भूगर्भीय जल विषैला बन सकता है। जिन उद्योगों में पर्यावरण की दृष्टि से बेहतर तकनीक वाली रि-साइकिलिंग इकाइयां नहीं लगी होतीं उनमें रि-साइकिलिंग के दौरान पैदा होने वाले विषैले धुएं से वायु प्रदूषण फैलता है। प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है, जो सहज रूप से मिट्टी में घुल-मिल नहीं सकता। इसे अगर मिट्टी में छोड़ दिया जाए, तो भूगर्भीय जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इसके अलावा प्लास्टिक उत्पादों के गुणों के सुधार के लिए और उनको मिट्टी से घुलनशील बनाने के इरादे से जो रासायनिक पदार्थ और रंग आदि उनमें आमतौर पर मिलाए जाते हैं, वे भी अमूमन सेहत पर बुरा असर डालते हैं।

प्लास्टिक के उपयोग को हम अचानक तो नहीं खत्म कर सकते लेकिन उससे बचने की शुरुआत तो कर ही सकते है।प्लास्टिक के उपयोग में कम से कम अपने घर के अंदर खाने-पीने की चीजों को हम प्लास्टिक से मुक्त रखें। एक रिसर्च के अनुसार बोतलों में रखा पानी अपने अंदर कुछ न कुछ मात्रा में प्लास्टिक की विषाक्तता समा ही लेता है। फिर वह पानी के साथ हमारे शरीर में पहुंचता है। जहां संभव हो वहां बोतलबंद पानी पीने से बचना चाहिए। कुछ भी उठाकर मुंह में डाल लेने वाले बहुत छोटी आयु के बच्चों को हानिकारक प्लास्टिक या रबड़ के खिलौनें न दें। टिफिन, लंच, नाश्ते आदि प्लास्टिक के डब्बों या प्लास्टिक के टिफिन बॉक्स में पैक न करें। प्लास्टिक की थैलियों में मिलने वाले दूध और डेयरी उत्पादों को घर लाकर तुरंत किसी स्टेनलेस स्टील या कांच के बरतन में रखें।

देश के अधिकतर राज्यों ने हानिकारक प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाए हैं, लेकिन कानून के पालन में लापरवाही के कारण इनका उपयोग जारी है। हमें खुद जागरुक होना चाहिए और दुकानदार से इनकी मांग नहीं करनी चाहिए। इनके स्थान पर दुकानदारों को कागज के थैलों में सामान देने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इन थैलों में भरे समान रखने के लिए हम घर से कपड़े या जूट के झोले या बैग ले जाएं, जैसा कि पहले हुआ करता था।

भगवान बुद्ध ने कहा था कि इस सृष्टि में एक दिन ऐसा आएगा जब 12 कोस पर एक दीपक जलेगा । ऐसे में यह जल्द ही सच का जामा पहनता नजर आ रहा है। हमने अपनी मौत का साजो सामान खुद ही चारों तरफ सजा लिया है। प्लास्टिक की तुलना उस रक्तबीज दानवों से की जा सकती है , जिसकी एक बूंद रक्त के भूमि पर गिरते ही एक नया दानव अवस्थित में आ जाता है । प्लास्टिक रक्तबीज दानवों की तरह नष्ट नहीं होता है।वैसे भी हमने पर्यावरण को बर्बाद करने वाले सभी तौर तरीकों को अपना लिया है । चाहे वह जंगल काटने का मसला हो या खाद्य पदार्थ में कीटनाशकों और उर्वरकों का घुलता जहर। प्लास्टिक भी हमारे जीवन के किसी भी हिस्से से अछूता नहीं है। हम कुदरत द्वारा दिए गए संसाधनों को दरकिनार कर प्लास्टिक या इसके जैसे अन्य उत्पादों को अपने जीवन का अंग बनाते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब हम खुद को प्लास्टिक के कफन दफन कर लेंगे।

खुशी की उम्र चार दिन : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

खुशी की उम्र चार दिन की होती है, नकली खुशी की चार घण्टे की भी नहीं। जल्द ही मुखौटा उतर जाता है। यह एक लगभग झूठी बात है कि खुश रहना एक निर्णय है, और इसी तरह यह बात भी कि खुशी ढूँढी जा सकती है। दरअस्ल, खुशी स्थिति है, प्रक्रिया नहीं। मगर खुशी एक बार छिन जाए तो यह ग़म को ज़रूर एक प्रक्रिया बना सकती है, प्रक्रिया भी ऐसी अन्तहीन प्रक्रिया, जो अन्त में कुछ निर्मित नहीं करती।

खुद को व्यस्त रखना खुश रहने का एक तरीका बताया जाता है, मगर व्यस्तता, खुशी नहीं। ज्यादा से ज्यादा यह दुःख की अनुपस्थिति है, मगर खुशी नहीं। व्यस्तता, दुःखों से पलायन का एक रास्ता है। दुःखों की अनुपस्थिति खुशी की प्रत्याभूति नहीं है।

'हँसी-खुशी', शब्दयुग्म अक्सर प्रयोग में लाया जाता है, मगर दोनों में पर्याप्त अंतर है। आप, हँस तब भी सकते हैं जब आप खुश न हों। आप किसी को बहलाने के लिए हँस सकते हैं, झुठलाने के लिए हँस सकते हैं, चिढ़ाने के लिए हँस सकते हैं, अस्ल में हँसी आने पर भी हँस सकते हैं। पर इस सबका खुशी से कोई सीधा ताल्लुक नहीं। बल्कि, आपके हँस चुकने के बाद, मूल खुशी की रिक्तता दुगुनी तीव्रता के साथ आपको ग़मगीन बना देती है। और, फिर मुमकिन है कि रोते रोते आप एक बार फिर से हँस पड़ें। मगर ये खुशी नहीं है। 'हँसी' और 'खुशी' दोनों की यात्राएँ एकदम विपरीत भी हो सकती हैं।

"दूसरों की खुशी में खुश होना", ये बात भी एक भ्रम है। दूसरों की खुशी में खुश नहीं हुआ जाता बल्कि अपने ग़म के विरेचन की तलाश की जाती है। औरों की खुशी आपको चिढ़ दे सकती है, तसल्ली दे सकती है, शैथिल्य दे सकती है, उम्मीद दे सकती है, मगर खुशी नहीं दे सकती।

'खुशी की रिक्तता', 'ग़म के भराव' से ज्यादा दुःखदायी होती है। ग़म के साथ, उदासी के साथ जीना फिर भी स्वीकार किया जा सकता है, मगर खुशी के बगैर जीना इंसान कभी स्वीकार नहीं कर पाता। उस खुशी का ख़ालीपन किसी भी चीज़ से खुद को भरने की अनुमति नहीं देता, किसी दूसरी ख़ुशी से भी नहीं। यह रिक्तता सुईं की तरह चुभती रहती है, कभी खंजर की तरह गड़ती रहती है।

खुशी की उम्र चार दिन की होती है, पर खुशी की रिक्तता की उम्र बहुत लम्बी हो सकती है।

रूखा सूखा आषाढ़ : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

रूखा सूखा आषाढ़ आज बिना पदचाप छोड़े धीरे धीरे बिना आहट के रवाना हो रहा। और सन्नाटा बुनता आकाश फेंक रहा है चिलचिलाती धूप। मौसमी ऋतु को चिढ़ाती बेदर्द-बेरहम हवाएं सीने पर अपने तीखे तपे तीर बरसा रहीं हैं लेकिन मेघों का यहाँ कहीं अता पता ही नहीं! आदमियों की तरह बादलों ने भी आजकल अपना मिजाज़ कुछ बदल लिया है। उनकी चिर परिचित और परम्परित छवि लगता है पालिश उतरे बासन सी विरूप हो गई है। हाँ, कभी-कभी वो लुकाछिपी करते दिखे तो अवश्य थे लेकिन इन्द्रजाल की तरह। जिस आषाढ़ के आगाज मात्र से किसानों, प्रेमियों, कवियों एवं साहित्यकारों के तन-मन रोमांच और पुलक से पूरित हो माटी की मादक सोंधी गंध से बहकने लगते थे, लगता है ये सब अब हवा हवाई और बीती बातें हो गईं । अपराध बोध से भरा मेघ अपना मुंह छिपाकर धरती की अतृप्त बेचैनी को रह-रह कर बढ़ा रहा। आधे नभ में आषाढ़ मेघ हौले से उतर कर हमसे रूठकर न जाने किस दूर देश में पानी भरने चले गए..!

मेघ किसका प्रिय नहीं है? वह तो सर्वप्रिय है और यदि प्रिय ही धोखा दे जाय तो क्या बीतती है कौन नहीं जानता? अब मेघ संदेश तो लाते हैं लेकिन विरही यक्ष का नहीं। विनाश, प्रलयंकारी बाढ़ अथवा धरती के अघाने का। अब मेघगर्जन सुन नृत्य करते हुये न तो केकी रव सुनाई देता न पपीहे की आर्त पुकार और न ही बलाहकमालाओं के नयनाभिराम दृश्य। दादुरों की रटन और झिल्लियों की झनकार तो ईमान की तरह मानो गायब ही हैं। मेघों ने भी समय के साथ अपने तेवर बदले हैं। वे अब रिमझिम फुहार नहीं करते। हरे हरे पत्तों में उसकी हर बूँद नव बिम्ब नहीं रचती। कहीं शंपाएं भीषणता के साथ लरजतीं तो क्रोधावेष्टित मेघ कहीं अपनी जल गगरी फोड़ विनाश लीला का तांडव रचता और कहीं धरती को बाँझ बनाता।

बादलों के छा जाने मात्र से जनमानस में रस फुहार की आस जगने लगती है लेकिन ये काजरकारे, धूमधुआंरे वंचक मेघ लगता है मानी होकर कहीं छिप गए जहां वे अपनी अवधि ही बिसार बैठे हैं। ऊर्ध्वनयना धरती प्रतीक्षारत है, बरसो बरसो रे मेघ। पारिस्थितिकी संतुलन का संदेश देता ये मेघ कभी तो ऐसी रिमझिम फुहारें बरसायेगा जिसमें सद्यः स्नाता धरती की चूनर रस से सराबोर होगी, गूंजेंगे फिर कजरी गीत, फिर सुनाई देगीं धान रोपाई की मधुरिम पंक्तियाँ और फिर रोम रोम से पुलकाकुल वसुधा ऋतुमती होगी। नीलांजन मेघ से ऋतुदान माँग रसवंती होगी। किंतु कोई बात नहीं!! तुम और तुम्हारा पुलक स्पर्श आज भी मेरी कल्पनाओं में सांस लेता हुआ जिंदा है जहाँ आषाढ़ सावन की धारासार वर्षा और रिमझिम फुहारें पत्तों पर गिरतीं सुहावन संगीत रचती हैं। हे मेघ! तुम्हारी अभ्यर्थना में बस इतना ही कह सकता हूँ कि अब तो अपना सौम्य और सज्जनता भरा रूप प्रकट करो और हरो तपती धरती की पीर। देखो ये धरती कितना सहती है!!

गुरु बनने से शिष्य बनना अधिक महत्वपूर्ण : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

युग परिवर्तन केवल जल प्रलय से नहीं होता। युद्ध भी एक कारक होता है। महाभारत ऐसा ही युद्ध था।

युद्ध मातृसत्ताक और पितृसत्ताक दो महापुरुषों व्यास और भीष्म की संततियों का आपसी संघर्ष था जिसमें बृहत्तर भारत सम्मिलित ही नहीं नष्ट हो गया। सभ्यता और संस्कृति का यह भयंकर विनाश था। वैदिक परंपरा की श्रौत परंपरा के अधिकांश आचार्य समाप्त हो गये। निर्वाक थे सत्यवतीपुत्र व्यास और शांतनुपुत्र भीष्म जो मातृपक्षसे सौतेले भाई थे। भीष्म को शरशय्या मिली कृष्णद्वैपायन को विरक्ति।

प्रश्न था ज्ञान की मौखिक वैदिक परंपरा के संरक्षण और लोक में पुनर्प्रतिष्ठा की। व्यास ने संग्रहण, संरक्षण एवं लिपिबद्ध कराने का कार्य किया। वेदों की श्रौत परंपरा की आक्षरिक संरचना हुयी उनका विभाजन हुआ। वेद अब संरक्षित थे। संहिताबद्ध हो गये पर तीनों वेदों का तत्त्व कैसे जानें। आचार्य तो रहे नहीं। व्यास ने मूल तत्वों को सूत्र रूप दिया। ब्रह्म सूत्र रचा।

ब्रह्मसूत्र वेद तक ले जाते हैं पर वेद लोक तक कैसे आयें।वेद तक जाने वाले तो विरल होते हैं। ज्ञान का सनातन स्रोत लोक तक पहुँचे।

व्यास की लेखनी रुकी नहीं। वे कथाओं को विस्तार देते गये। भक्ति का ऋजुमार्ग, अवतारों और अवांतर कथाओं का विपुल साहित्य उनकी लेखनी से निकला। वेदों के प्राकृतिक तत्व अब कथाओं में समाहित हो गये अग्नि, वायु, सूर्य चंद्र पूरे देश में विभिन्न क्षेत्रों में देवता के रूप प्रतिष्ठित शिव, स्कंद, नृसिंह, सब एकात्म हो गये। अवतारवाद की इस भव्य परिकल्पना में सब लोकदेवता हो गये उनमें विभेद नहीं रहा और तब व्यास ने युगदेवता कृष्ण को केंद्र में रखकर ऐसे ग्रथ की रचना की जिसमें बौद्ध, जैन, शैव, वैष्णव, षट्दर्शन के आचार्य सब आ गये ।

भागवतपुराण आराध्यों का नहीं आराधकों का आश्रय है, यह लोकपुराण है जिसमें देवता नहीं भावना का विस्तार है। व्यास का भागवत लोक में वेद की प्रतिष्ठा है ।वेदों की महाभारत के कारण लुप्त होती परंपरा अब लोक में प्रतिष्ठित थी। वैदिक संस्कृति आरण्यक से लोकसंस्कृति में रूपांतरित हो गयी।

व्यास निश्चिंत थे। वे जानते थे युद्ध राजा को नष्ट कर सकते हैं, प्रजा का क्षय हो सकता है पर लोक नहीं मरता, वह अक्षर है अमर है।

लुप्त होती ज्ञान परंपरा को नवनवोन्मेष देने वाले कृष्णद्वैपायन की पहचान यह व्यासपूर्णिमा ही आज की गुरुपूर्णिमा है। उन्हें सादर नमन करते हुए प्रार्थना है कि वे सूत जैसा शिष्य बनने की पात्रता दें। गुरु बनने से शिष्य बनना अधिक महत्वपूर्ण है।

मन न पाए ठहराव : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

मन स्थिर कैसे हो सकता है! जो एक है तो उसी का कोई पारावार नहीं। ठहरता ही नहीं। उसकी गति के आगे प्रकाश भी धीमा है। प्रकाश तो आद्योपान्त है किन्तु मन स्मृतियों का अमिट छाप। व्यक्ति के जनमते ही चुपचाप कुण्डली मारे बैठा रहता है और समय आते ही उछलकर कस लेता है। भींच लेता है। उसकी जकड़न से बचने का सामान्यतः तो कोई उपाय नहीं।

किन्तु गोपियों के लिए मन दस-बीस हों तो भी क्या! वे दस-बीस भी एक ही में रह जाते। मन तो मनन है। सतत् है। और जब यह एक ही मनन में उतर जाय तो पुनः और क्या बचेगा! दस-बीस भी एक ही के हो जाते। ज्यों अनेकानेक नदियाँ बस उसी एक सागर की हो जाती हैं।

गोपियाँ मन के भरोसे तो हैं भी नहीं। कहती भले हैं। क्योंकि उद्धव मन की ही बात कहने जो आये हैं। गोपियाँ तो हृदय वाली हैं। मन के भी पार। बस उद्धव को मन कहकर समझा देती हैं। मन तो तर्कगामी है। होना भी चाहिए उसे। उसका यही स्वभाव है। किन्तु हृदय--वह तो मन के ऊपर की छलांग है। एक सहज अतिक्रमण। भेद भले बहुत सूक्ष्म हो किन्तु अन्तर बहुत गहरा व बड़ा है।

गोपियाँ हृदय की बात जानती हैं। वे अपनी इसी समझ में सन्तुष्ट हैं। उन्हें ज्ञान से क्या अभिप्राय। उन्हें मुक्ति से क्या प्रयोजन! उन्हें आत्मा के रस से क्या सरोकार। उन्हें ब्रह्म का अन्वेषण ही क्यों करना। वे तो सहज संगति हैं। कृष्ण की संगति। वे चित्त की अन्तिम अवधान हैं। पुनः अन्तर क्या कि कृष्ण परमात्मा हैं कि नहीं। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में इसलिए थोड़े न हैं कि कृष्ण कोई अवतारी पुरुष हैं। कि कृष्ण प्रायः चमत्कृत करते हैं। अपितु बात बस इतनी है कि गोपियों को चमत्कार व अवतार में कोई रस है ही नहीं। कोई गोपी तो कृष्ण की माँ है। कोई सखी। कोई प्रेमिका। सबकी अपनी अपनी निर्मिति। कृष्ण से निर्मिति।

कृष्ण इन सभी नामों से सन्तुष्ट हैं। वे अपनीओर से कोई अड़चन देते ही नहीं। गोपियाँ कृष्ण के प्रेम में बस इसलिए हैं कि उन्होंने चुनाव की प्रक्रिया को नहीं चुना। वे बस हो गयीं। तब कृष्ण यदि चोरी भी करें तो भी प्रिय। चमत्कार दिखाएँ तो भी प्रिय। छोड़ जाँय तो भी प्रिय। उनकी उलाहना भी बस उनकी है। किसी दूसरे के लिए उसमें रत्ती भर अवकाश नहीं। गोपियों के लिए कृष्ण कोई सामूहिक उत्सव हैं। उनमें आपसमें कोई प्रतिस्पर्धा नहीं। एक दूसरे से कोई इर्ष्या नहीं। कृष्ण उनके अपने हैं। और जब अपने हो ही गये तो किसी दूसरे के भी होंगे, इस बात की भी उन्हें कोई परवाह नहीं। अतएव कृष्ण जैसे भी हैं, आपन्न हैं। कृष्ण तो गोपियों के अन्तर्वैश्विक हैं।

कृष्ण आये। गोपियों के हो गये। कृष्ण गोपियों की चेतना में बस गये। उनकी आत्मा में रह गये। उनकी स्वास में बस कृष्ण की धौकनी चलती रही। उनके हृदय में कृष्ण की छवि छप गयी। उनके मन में कृष्ण का ही चिन्तन रहा। और उनकी देह...! वह तो कबकी छूट गयी। कोई देह के तल पर गोपी हो ही नहीं सकता।

गोपी का एक अर्थ छिपाने वाली भी होता है। गोपियों ने सच में कृष्ण को छुपा लिया। एक गोपी दूसरे से पूछ लेती है-- कान्हा दिखा क्या? दूसरी कहती है कि उधर ही तो जा रहा था अभी। गाय पर तनकर चढ़ रहा था। गिरा भी। पहली कहती है कि अरे! कान्हा ठीक तो है न! कुछ हुआ तो नहीं उसे। दूसरी कहती जो ठीक न होता तो तू अभीतक यहाँ रह जाती!

कृष्ण जागतिक उत्सव हुए। गोपियों ने उन्हें असीसा भी। पुचकारा भी। छेड़ा भी। अँकवार भी दिया। उनकी चोटी भी पकड़ी। वे रोयी भी। टूटीं भी। कृष्ण जाकर भी नहीं गये।

कृष्ण जो आ जाँय तो जाते नहीं! उनके प्रत्यक्ष होने, न होने में कोई अन्तर नहीं। सम्भवतः गोपियाँ ही मीरा की मार्ग हैं। और कोई एक गोपी महागोपी हो जाती है। वह राधा होती है।

मन के अनेकपद हैं। किन्तु कृष्ण गोपियों के मन हैं। पुनः आश्चर्य नहीं कि गोपियाँ बस एक ही मन की हो गईं। और कृष्ण उनके ध्यामन्।

राष्ट्र!!

राष्ट्र किसी व्यक्ति विशेष की धरोहर नहीं है।

राष्ट्र से व्यक्ति है, व्यक्ति से राष्ट्र है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। राष्ट्र मात्र एक भौगोलिक इकाई नहीं; समरूप, समकक्ष, एक समान दिखने वाले कुछ जीवों का संगठन मात्र नहीं; अन्य प्रकार के इंसानों से द्वेष/प्रतिद्वंदिता/शत्रुता रखने वालों का समुदाय नहीं; वस्तुतः, राष्ट्र एक भावना है जो भिन्न परिस्थितियों में समयानुसार गोचर होती रही है।

तथापि, अलग-अलग लोगों ने निज-मतानुसार राष्ट्र को परिभाषित किया है। किसी के लिए प्रकृति प्रदत्त उपहार वर्गीकरण का आधार बने तो किसी के लिए समस्त सजीव समुदाय; किसी ने मानव मात्र को प्रधान माना तो किसी ने जड़-चेतन को एक सूत्र में पिरोया; किसी ने समर्थवान का सान्निध्य चाहा तो किसी ने पीड़ित की संवेदना से साम्य स्थापित किया। समय के धरातल पर भिन्न-भिन्न मत विकसित हुए और लोगों ने (परिस्थिति की गहनता के वशीभूत) एकमत होकर राष्ट्र को विभिन्न रूपों को तत्कालीन परिवेश में स्वीकार किया। अद्य, एक आम इंसान अपनी जन्मभूमि को राष्ट्र के नाम से संबोधित करता है।

अन्य कहीं की नागरिकता लेने की बात और है, किंतु आजीविका अर्जन हेतु अपने राष्ट्र (जन्मभूमि) को त्यागकर परदेश में रहने वाले की धड़कनें चंद क्षणों के लिए तीव्र हो जाती हैं, जब वह विदेश में किसी परदेशी से अपनी जन्मभूमि की प्रशंसा सुनता है।

कुछेक दशकों पहले परदेश में भारत भूमि की अनुशंसा करने वाला कदाचित ही कोई इक्का-दुक्का मिल पाता था, वह भी चंद यादों के सहारे भारत के बारे में कुछ शब्द कह दे वही बहुत होता था। वर्तमान में भारत भूमि की महत्ता किसी भी देशी-विदेशी भूखंड पर किसी परिचय के लिए अवलंबित नहीं है।

भारतीयता की चिरपरिचित सुगंध चहुँओर फैल रही है। नव भारत के पुनरोद्भव के कारकों यथा राजनैतिक/कूटनीतिक सक्षमता; स्पष्टवादिता; कर्मठता; शैलेय संकल्प इत्यादि सर्वत्र विदित हैं। अपने ऐतिहासिक धरोहरों पर विश्वास करके व अपनी जड़ों को पुनः टटोलकर भारत पुनः अपने नवीनीकरण के दौर से गुजर रहा है। पुनरुत्थान की यह संजीवनी किसी भूधर से नहीं आई है, न ही किसी अन्य ग्रह/उपग्रह इसे से लाया गया है, अपितु भारतीय जनमानस ने दशक पूर्व चुनाव कर इसे अपने प्रारब्ध में प्रतिरोपित किया था।

प्रजातंत्र का महत्व इसके परिवर्तन की प्रवृत्ति के कारण है। परिवर्तन उचित हो तो पीढ़ियाँ सँवर जाती हैं, अनुचित परिवर्तन सत्यानाश का कारण बनता है। भारतभूमि प्रजातंत्र की जननी है। ‘जनपदों’ ‘महाजनपदों’ के दौर में तरुणाई को प्राप्त भारतीय प्रजातंत्र के अंकुरण के प्रमाण सहस्राब्दियों पूर्व ‘सैंधव समाज’ में भी स्पष्टतः दिखाई देते हैं। आर्यों ने वर्ण व्यवस्था के सामाजिक नियमों द्वारा इसे एक मानक स्वरूप प्रदान किया। समयरेखा पर कभी मद्धिम तो कभी प्रखर रूप में अंकित प्रजातंत्र के विभिन्न चित्र सदा-सर्वदा से भारतीय जनगण को एकात्म करने के सर्वाधिक महत्वपूर्ण, चर्चित और प्रभावी उपकरण रहे हैं। प्रजातंत्र को उद्भूत करने वाली भारत भूमि ‘राष्ट्र’ को सर्वाधिक मान्य एवं लोकप्रिय रूप में परिभाषित करती है। कालांतर में अनेक कवियों और रचनाकारों ने कालांतर में अपनी क्षमतानुसार भारत भूमि का वंदन किया है। ये गौरवान्वित होने का विषय है कि हमसब भारतीय हैं।

  • प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम" : हिंदी उपन्यास और आलेख
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