हिंदी आलेख संग्रह (4) : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
Hindi Articles (4) : Praful Singh "Bechain Kalam"
व्यक्तित्व : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
व्यक्तित्व की भी अपनी वाणी होती है, जो बिन शब्दों के ही अंतर्मन को छू जाती है। हम सब एक दूसरे से भिन्न हैं, तन और मन दोनो से हर व्यक्ति में अंतर होता है सभी में कुछ खूबियां और खामियां दोनो ही होती हैं। बात तो सिर्फ उन्हें पहचानने और अच्छे गुणों को आत्मसात करने और बुरे गुणों को त्याग करने की है।
हर व्यक्ति का अपना - अपना व्यक्तित्व होता है जिसके वजह से वह भीड़ मे भी अपनी अलग छवि के कारण पहचान लिया जाता हैं।
जीवन में व्यक्तित्व का विशेष महत्व होता है सूरत कैसी भी हो, लेकिन सीरत अच्छी होनी चाहिए क्योंकि सीरत ही हमारे व्यक्तित्व को दर्शाती है।
हमारे इर्द - गिर्द बहुत से खूबसूरत चेहरे रहते हैं जो हमारी आँखों को तो भाते हैं पर मन को नही लुभा पाते कुछ लोग बहुत सुंदर दिखते है, लेकिन संयोग से कभी हम किसी ऐसे शख़्स से मिलते हैं जो दिखने मे एकदम साधारण सा लगता हैं लेकिन उसका व्यक्तित्व हमे लुभाता हैं। हमारे मन पर गहरी छाप छोड़ देता है।
जो दिखने मे तो साधारण है पर स्वयं मे असाधारण हैं बिलक्षण प्रतिभा का स्वामी हैं उसके चेहरे पर छायी मधुर मुस्कान, उसके व्यवहार में शिष्टाचार और बातचीत करने का सलीका इत्यादि हमारे दिलो - दिमाग में एक खास पहचान बना लेता है और हम उससे प्रभावित हो जाते है।
किसी का व्यक्तित्व उसके केवल एक गुण के कारण नहीं बनता, बल्कि इसमें उसकी संपूर्ण छवियां जैसे - ज्ञान, अभिव्यक्ति, सहनशीलता, गम्भीरता, प्रस्तुतीकरण, मधुर व्यवहार आदि होती है। यदि हमारी सोंच हमारी छवि सकारात्मक होती हैं तो हम दूसरो के सामने प्रशंसा के पात्र बनते है।
इसीलिये सदैव सकारात्मक विचार रखें और हमेशा सृजनात्मक कार्य करें, अपनी छवि को सदैव उज्जवल रखें। सूरत से नही बल्कि सीरत से क्यूकिं हमारा व्यक्तित्व ही हमे समाज मे स्थापित करता हैं दूसरो मे अवगुण देखने की बजाय उनके गुणों का अनुसरण करे, अनुशासित और मर्यादित जीवन जीने के लिए प्रतिबद्ध रहे क्यूकिं व्यक्ति की सम्पूर्ण छवि का नाम ही व्यक्तित्व है। जो वह दूसरों के सामने बनाता है ।
भीड़ का हिस्सा नही भीड़ मे भी पहचान बने अपने व्यक्तित्व का निर्माण करें, विषय नहीं अपितु विशेष बने जिससे हर कोई प्रभावित हो आपका अनुसरण करे।
उम्मीद पर सब कायम : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
कभी खुशी तो कभी गम,कभी होठों पर हंसी तो कभी आंखें नम, यही है जिंदगी की हकीकत। एक कभी ना बदलने वाली,कभी न खत्म होने वाली हकीकत। ठहाकों की महफिल वीरानगी में बदल जाती है, जिंदगी में मायूसी घर कर जाती है, तब जिंदगी बद् से बद्तर हो जाती है, इस मायूसी से बाहर निकलना जरूरी हो जाता है।
उम्मीद ही वो रास्ता है जो जिंदगी को जीने के काबिल बनाता है। जहां दुख ने डेरा जमाया है,वहां उसे बसना नहीं होता है। सुख-दुख, यह तो बंजारे हैं, कभी आते हैं तो फिर कहीं दूर चले जाते हैं। जब तक जिंदगी में इंसान के दिल में उम्मीद का चिराग जलता है, तब तक वह जिंदा रहता है।जब तक वह खुश रहता है, जिंदगी को जीता है। जिंदा रहने और जिंदगी को जीने में फर्क है। जिंदा रहना महज़ साँसों और जिस्म के ताल्लुक की बात है, मगर जिंदगी को जीना इंसान की जिंदादिली से, उसके जीने के ढंग से ताल्लुक रखती है। खुदा ने जिस खूबसूरत जिन्दगी का तोहफा में दिया है उसे संभालना, सलामत रखना हमारा फर्ज है। उम्मीद और जिंदादिली का दामन इस तरह थाम लो की उदासी अपना रुख बदल ले।
जिंदगी की हकीकत से टकराते टकराते, कभी-कभी ऐसा भी होता है कि इंसान बस जिंदा रह जाता है, पर जीना भूल जाता है। उम्मीद को कभी दिल से जुदा ना करो उम्मीदें पैदा करो, जीने का मकसद खोजो।
उम्मीद खुदा का वो फरिश्ता है जो उम्र भर इंसान का साथ निभाता है। उसे जिंदगी से बेज़ार होने से बचाता है। जब सारी दुनिया अपने पराए सब अजनबी बन जाते हैं,तब भी उम्मीद दामन छुड़ा कर दूर नहीं जाती। एक मद्म से रोशनी की तरह घुप अंधेरे में टिमटिमाती है। अंधेरों को चीर कर सारे माहौल को रोशन कर देने का जज्बा रखती है। जब इंसान दुख के समंदर में डूब जाता है, तब उम्मीद की मौज उसे खुशियों की जमीन पर छोड़ दिया करती, उसके जज्बातों को ताउम्र महफूज रखती हैं-उम्मीद, उसे जिंदा रखती है-उम्मीदें।
जिन्दगी को मकसद देती है, खुशगवार बनाए रखती है। अपनी उदासी से निकलकर उम्मीद का दामन थाम लो मुस्कुराओ और खुश रहो, खुशियां दो, खुशी और गम के साथ-साथ उम्मीद भी हकीकत है।
आज के दौर में इस तेज रफ्तार जिंदगी में जीवन में मानसिक तनाव ने जगह लेनी शुरू कर दी है। क्यों?? हमारे बड़ों से हमें सीखना चाहिए किस तरह हर कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए उन्होंने उम्मीद का साथ ना छोड़ते हुए, यह जीवन पार किया। हमारे प्रेरणा स्रोत है वे, हमें अपने अंदर परिस्थितियों से जूझने का साहस और ईश्वर के प्रति प्रबल विश्वास का भाव पैदा करना चाहिए।
विश्वास : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
दुनिया का सबसे गहरा रंग विश्वास का रंग जो ना ही आसानी से चढ़ता है और ना ही उतरता है आत्मा एक बार जिसके विश्वास के रंग मे रंग जाती है बस उसी की होकर रह जाती है।
अगर किसी के आत्मा पर आपके विश्वास का रंग चढ़ा हो कोई उस रंग से सजा, संवरा हो तो कोशिश करियेगा की उसका वो रुप रंग कभी फीका न पड़े क्यूकि ये रंग जब उतरता है तो जिंदगी बेरंग हो जाती है जीने की चाह मिट जाती है जिस किसी के लिए आप महत्वपूर्ण और विश्वसनीय हो तो कभी भी अपने महत्व को उसकी नजरो मे कम मत होने दीजियेगा।
क्यूकि किसी के रंग मे रंगने के लिए अपना असतीत्व खोना पड़ता है ऐसे लोग बहुत दुर्लभ होते है जो विश्वास के रंग मे रंगते है आप पर यकीन करते है खुद से ज्यादा, खुद को भुला देते है आपके लिए ऐसे लोगो का प्यार, विश्वास और सम्मान ही ईमान होता है।
जिसने भी आपके लिए सम्मान से अपने दिल का दरवाजा खोल रखा हो और आप विश्वास रूपी मेहमान बनकर उसके दिल मे दाखिल हुए हो और उसने पूरी आत्मियता से आपका स्वागत किया हो तो सर्वदा उसके स्वागत सत्कार का मान करियेगा आप भी उन्हे वही सम्मान दीजियेगा जो उन्होने आपको दिया। आप भी उसी तरह उनके विश्वास का मान रखियेगा जिस तरह उन्होने आपका सम्मान से रखा..!!
जिंदगी धूप छाँव सी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
कई बार जीवन में बहुत कुछ अनापेक्षित ही मिल या घट जाता हैं जिसकी हम कभी कल्पना भी नही किये होते हैं पर शायद इसी का नाम जिन्दगी हैं धूप- छावं सी जिस पर हम चाहकर भी प्रतिबंध नही लगा सकते उसे घटित होने से नही रोक सकते हैं।
कई बार ये परिवर्तन सुखदायी और कई बार अत्यंत पीड़ा दायक और कष्टकारी होता हैं असहनीय हो जाता हैं जिसे सह पाना नामुमकिन सा लगने लगता हैं जीने की आकांक्षा ही मिट जाती हैं हम स्वयं में ही हम टूट से जाते हैं वक्त वही ठहर जाता है ।
यूँ लगता हैं अब सबकुछ खत्म हो गया कुछ नही बचा क्यूकिं मन का टूटना, दुनिया की हर चीज़ के टूटने से ज्यादा दु:खदायी होता है और विश्वास का टूटना, मनुष्यता का विनष्ट होना है हम सोंचते है हमे दु:ख हमारी गलतियों की वजह से मिला हमने गलत राह चुन ली पर यथार्थ बिल्कुल विपरीत ही होता है हम रास्ते नही चुनते, रास्ते चुनते हैं हमें ।
परिस्थितियां कुछ यूँ बन जाती है कि हमें आभास भी नही होता ना ही एहसास की क्या सही और क्या गलत कठपुतली की तरह नियति के हाथो नाचते रहते है हर एहसासों को भोगने के लिए नियति बार बार हमे ले जाती है असह्य पीड़ा अपरिमित प्रतीक्षाओं की ओर..
शायद, अपने ही कर्मों के अनुबंध से बंधे होते हैं रास्ते खुशियों के और गमों के संघर्षों और पीड़ाओं असहनीय यातनाओं के इसीलिये स्वयं को दोषी मानकर जो हो रहा हैं स्वीकार कर ठहरे नही अपितु बढ़ते रहे अपनी सोंच को सकारात्मक रखे सब कुछ कभी नष्ट नही होता कुछ न कुछ अवश्य रह जाता है जैसे- लकड़ी जल जाने के बाद राख बची रह जाती है ।
वैसे ही मन टूटने के बाद भी कही न कही इच्छा शक्ति शेष रह जाती है जिसकी वजह से आप खुद को टूटा महसूस कर रहे थे उसी को जीने की वजह बना लीजिये जीने के लिए वही पर्याप्त हैं बस अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत हैं।
कहना बस इतना ही हैं कि जीवन बहुत मूल्यवान है इसे यूँ ही नष्ट नही करना चाहिए जहां भी लगे अंत हैं वही से शुरू करें। रास्ते चाहे जितने भी अनजाने क्यूँ न हो खत्म तो कही न कही होगें ही। अनजानी डगर की भी मंजिल होती है हताश या निराश होकर लौटने की बजाय उसी पर निरन्तर आगे बढ़ते रहे एक दिन आप स्वयं देखेंगें कि आप ने वो पा लिया जो असम्भव था।
सार्थक मृत्यु : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
आज की सुबह की शुरुआत बहुत अच्छी थी। मन में बहुत से विचार टहल रहे थे। सोचा था कुछ लिखूंगा। मगर तभी एक करीबी की आत्महत्या की खबर मिली। वो मुझसे उम्र में छोटा था। उसकी जिंदगी मुझसे कहीं बेहतर थी। बस एक कठिन दौर और उसने ज़िंदगी का हाथ छोड़ दिया। जब भी कोई ऐसे अचानक मरता है तो मुझे ऐसा लगता है जैसे वो मुझे धिक्कार रहा हो। जैसे कह रहा हो कि देखो मुझे मैंने सहने की जगह मुक्ति चुनी। और एक तुम हो जो इस बदतर ज़िन्दगी को ढोये जा रही हो। आखिर तुम्हें ज़िंदगी से इतना लगाव क्यों है। तुम डरपोक हो, जब एक झटके में अपनी तकलीफों से मुक्ति मिल सकती है तो क्यों सहते हो?
मेरे पास इन प्रश्नों का कोई जवाब नही होता। मौत के बारे में जितना मैं सोचता हूँ, शायद ही कोई इतना सोचता होगा। मुझें मौत से डर नही लगता ये उतना ही सच है जितना कि दिन और रात। एक बार किसी खास ने मुझसे कहा था कि "अगर तू मर गया होते तो अब तक हम सब तुझे भूल गये होते"। बस यही मैं नही होने देना चाहता। मैं मरने से नहीं डरता मैं भुलाए जाने से डरता हूँ। लोग अपनी ज़िंदगी को लेकर जितने कल्पनाएं करते हैं न उतनी कल्पनाएं मैं अपनी मौत को लेकर करता हूँ। मैं ऐसे ज़िंदगी से हारकर नही मर सकता। ज़िंदगी भले ही साधारण हो मगर मुझे मौत साधारण नही चाहिए। एक सार्थक मृत्यु मेरा सपना है। मैं नहीं चाहता कि मेरी मौत के बाद लोग चंद आँसू बहाकर मुझे भूल जाएं । मैं चाहता हूँ कि मेरी मौत उनके दिलों में क़भी न मिटने वाला खालीपन छोड़ जाए।
हाँ माना कि ज़िंदगी बहुत हठी है, ये हमेशा कोशिश करती हैं मेरी मुस्कुराहटें छीनने की। मगर मेरी उम्मीदें और भी ज्यादा ज़िद्दी हैं। लोग उम्मीदों का दामन थामते है, मगर उम्मीदों ने मुझे अपनी बाहों में थाम रखा है। इतनी मजबूती से कि कोई भी तूफ़ान मुझे गिरा नही सकता। मैं दुनिया में बेशक ख़ाली हाथ आया हूँ, मगर मैं ख़ाली हाथ इस दुनिया से जाऊँगा नही। मुझे प्रेम कमाना है और प्रेम लुटाना है।
किस्मत की सौदेबाजी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
किसी भी प्रकार की जंग हो, जब हम कहतें हैं कि किस्मत से ज्यादा न किसी को मिला है न मिलेगा ,तब आधी से ज्यादा जंग हम उसी पल हार जाते हैं। हाँ किस्मत सौदेबाज़ हो सकती है तो सौदा करिए उससे, और सौदेबाजी में आप जीतें इसके लिए आपको करना होगा अथक परिश्रम और दृंढ़ निश्चय।
हाँ किस्मत भी चाहती है कि आप बहुत मेहनत करें और यह कुछ गलत भी नहीं, जब हम विद्यालय में पढ़ने जाते थे तब हमारी टीचर्स भी तो यही कहती थीं कि मेहनत करने पर ही नंबर मिलेंगे, तो बस जब शुरू से यही सीखा है हमने तो मेहनत से क्या घबराना??
कभी -कभी यह भी होता है कि जिस चीज के लिए हम प्रयत्न करते ,हैं उसमें जीत हासिल नहीं होती पर जिसको प्रयत्न और परिश्रम की आदत पड़ गई वह जीवन में कुछ बेहतर हासिल कर ही लेगा। तो किस्मत हमें कामयाब बनाए न बनाए, लेकिन बहुत कुछ सिखा देती है।
बहुत बार लोग अपनी किस्मत को बेहतर बनाने के लिए अंधविश्वास की चपेट में आ जाते हैं और अपनी संपूर्ण शक्ति ,उसी में व्यर्थ कर देते हैं। यह गलत है, हमें इससे बचना चाहिए। किस्मत को कोसने की बजाए, उससे सीख लीजिए। अपनी संपूर्ण शक्ति अपने लक्ष्य की प्राप्ति में लगा दें, और डटे रहें ।
कैद में पड़ी बातें : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
जी हां कुछ बातें हमेशा कैद में पड़ी रहती है। वे जन्म लेती है हृदय में भावों की गहराई से और वहीं अपना जीवन गुजार देती है। उन्हें मिली कैद का भी कारण होता है, उन्हें शांति बिगाड़ने की शंका में मिलती है कैद। क्योंकि हृदय भयभीत होता है, कि यदि इन्हें आज़ाद कर दिया तो सब बदल जाएगा। हो सकता है कि बदलाव सकारात्मक हो परन्तु नकारात्मक का संदेह सदैव अधिक ही रहता है। इसलिए हृदय बचता है जोखिम मोल लेने से और ये बातें कैद में पड़ी रहती है। पर ये बातें सदैव चाहती है स्वतंत्रता ,चाहती है होंठों में घूमते हुए बाहर जाना,हवा में बहना, जहां कोई इन्हें सुन सकें। और कभी कभी ये आज़ादी इसे नसीब भी हो जाती है। परंतु इसके भी केवल दो मार्ग हैं पहला हृदय को सकारात्मक बदलाव का आश्वासन या कम से कम जोखिम का वादा, हालांकि इसके लिए लंबी पेशी होती है हृदय व मस्तिष्क के बीच, पर यह तब भी बेहतर मार्ग होता है पूरी तरह वैधानिक और वैधानिक प्रक्रियाओं की ही तरह अत्यंत धीमा। और दुसरा मार्ग होता है जो अचानक खुलता है भावनाओं के अत्यधिक दबाव के बीच जब होंठों के सारे ताले टूट जाते हैं , मस्तिष्क का नियंत्रण छूट जाता है तब ये बातें हो जाती है आज़ाद, पूर्णतः अनियंत्रित और भयावह रूप से।
पर मैं इन बातों को ना तो पेशी में जीता पाया ना कभी मस्तिष्क का कड़ा पहरा कमजोर हुआ। इसलिए मैंने एक सुरंग बनाई जो हाथों की मदद से इन्हें कागज पर उतार देती है। जहां ये प्रतीक्षा में रहते हैं कि कोई इन्हें पढ़कर आजाद कर दे।
बारिश की पहली बूंद : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
कभी महसूस किया है बारिश की पहली बूंद को जब वो धीरे से आपकी आंखों को छूती है मानों लगता है कि कोई अर्से बाद दिल पर दस्तक़ देने को तैयार खड़ा है वो भी बिना कोई पहचान बताये..
बारिश की हर बूंद मानो कह रही हो कि देखो अब ये उदासी छोड़ दो की तुम्हारे चेहरे पर बस मुस्कान अच्छी लगती है कि अब मैं आ गयी हूं तुम्हें इस दुनियां से दूर कहीं ले जाने के लिए ऐसी जगह जहां तुम मुझे महसूस कर पाओगे, मुझमें अपने सपनों के रंगों को घोल पाओगे, और तुम्हें तुम्हारें रंगीन सपनों को सच करने की हिम्मत मिलेगी।
हर बारिश की बूंद अपने आप मे बहुत कुछ समेटे हुए है मानो ये आंखमिचौली खेलती हो खुद से ही कि कोई गहरे राज़ ग़लती से भी ज़ाहिर ना हो पाए...
ये बारिश की बूंदें ही तो है जो सिखा जाती है अक्सर आकर की ग़म को कैसे छिपाना है,, कैसे अपना ग़म भुलकर दूसरों के चहेरे की मुस्कान बन जाना है..कि कैसे बिखरकर भी सबको समेटना है,कि कैसे मिट्टी पे पड़कर उसको ज़िंदा कर देना है, हमें अक्सर ये छोटी-छोटी बारिश की बूंदे ही तो सिखाती हैं।
हां फ़र्क सिर्फ इतना सा है, कोई इनके जज़्बातों को समझ लेता है और कोई सिर्फ पानी का नाम देकर किनारा कर जाता है, पर यकीं कीजिये मेरा किसी रोज़ जब आप इनके जज़्बातों को समझेंगे तो महसूस कर पायेंगे वो सब जो अब तक अनदेखा,अनसुना और अनजाना सा रह गया है..!!
ज्ञान की बेड़ियां : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
समय की रफ़्तार पहेली बन गई है इन दिनों। ऐसा लगता है, बहुत धीमे चल रहा है। फिर किसी दिन तारीख़ सुनकर चौंक जाता हूं। इतना समय कब बीत गया! ये सारा समय एक साथ तो नहीं बीता होगा। उसे तो उन्हीं बंधे-बंधाए बराबर टुकड़ों में बहना चाहिए था। समय ने अपनी रीत निभाई ही होगी। मैं ही मौजूद नहीं था, उसे गुज़रता देखने के लिए।
कुछ कहते न बनेगा, अगर कोई पूछ ले कि कहां व्यस्त रहे। कहीं भी तो नहीं! बेसुध होना अलग बात है, व्यस्त होना और। जैसे कोई आंख खोले सो रहा हो। कौन सी आवाज़ कानों में पड़ी, पता नहीं। क्या देखा आंखों ने, याद नहीं। विचारमग्न भी तो नहीं रहा। कुछ चिंतन करके नए विश्वास ही गढ़ लिए होते, वह भी तो नहीं हो सका।
एक परिधि बन गई है मन के गिर्द, जिसके भीतर कुछ नहीं पहुंचता। न कलरव, न रूदन; न उम्मीद, न निराशा। याद भी नहीं, पछतावा भी नहीं। शायद यह भी पूरी तरह सच नहीं है। भावशून्यता का आभास भी तो एक भाव ही है। हर सांझ देहरी पर एक चिट्ठी मिलती है, जिसमें लिखा होता है कि आज कोई चिट्ठी नहीं आई।
ज्ञान की उपयोगिता को लेकर भी मन में कई संदेह पनप रहे हैं। इधर पाता हूं कि अध्ययन जितना बढ़ रहा है, उतनी ही वैचारिक दरिद्रता का आभास हो रहा है। किसी विषय पर टिप्पणी करना, पक्ष-विपक्ष चुनना कठिन हो रहा है। सत्य-असत्य का भेद धुंधलाने लगा है।
देखता हूं कि पीछे बहुत अवसरों पर मेरी जो प्रतिक्रिया रही थी, वह विषय के किसी एक पक्ष के अध्ययन-चिंतन से ही आई थी। फिर पूछता हूं कि अपना पक्ष रखने की जल्दी क्यों थी? जवाब मिलता है, बौद्धिक सुख की क्षुधापूर्ति के लिए। यह बताने के लिए, कि मैं भी जानता हूं।
ऐसा लग रहा है कि अब तक जितनी भी बातें कहता आया हूं, वह मेरी अपनी नहीं थीं। जिन विचारों को मैं अपना कहता रहा, वे मेरे भीतर से नहीं उपजे थे। मेरी कही हुई हर परिभाषा दूसरों के शब्दों की खोल ओढ़े हुए थीं। जिन बातों को अनेक बार दुहराकर भ्रम पाला कि इनमें मेरा दृष्टिकोण है, उन पर किसी अन्य के सिद्धांत की छाप थी।
कुछ दिन हुए, मैंने लिखा था कि ज्ञान अहंकार को जन्म देता है। कई लोगों को यह बात अनुचित लगी। मेरा तात्पर्य उस ज्ञान से था, जो हमने बाहर से उधार लेकर अपने अंदर भर लिया होता है। और अहंकार के भी अर्थ पर मैंने विस्तार से नहीं लिखा था, सो लोगों को बात तर्कयुक्त नहीं लगी।
किताबों से इकट्ठा कर लिया गया ज्ञान बड़बोला होता है। जिन तथ्यों को हमने अपनी याददाश्त में भर लिया, उनसे जुड़ी कोई बहस हो रही हो तो तुरंत ही बीच में कूदने को तैयार। यह आतुरता ही अहंकार है। तर्कपूर्ण और बौद्धिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार किए जाने की कामना को मैं अहंकार ही कहूंगा। कितना ही प्रयास करें, एक सूक्ष्म रूप में वह बना ही रहेगा। यह मेरे अंदर भी है, आपके अंदर भी।
'अहम्' का भाव छोड़ पाना आसान भी नहीं होता। हमारा पूरा जीवन एक ही स्तंभ पर खड़ा है- 'मैं'। मेरा जीवन, मेरी बुद्धि, मेरा प्रेम, मेरा दुख, मेरा विचार। अपनी महत्ता सिद्ध हो सके, इसी के लिए सारा प्रबंध है। पढ़ भी रहे हैं तो इसलिए नहीं ताकि सत्य के निकट पहुंचें, बल्कि इसलिए ताकि अच्छा लिख सकें। अच्छे श्रोता बनने का प्रयास भी इसलिए ताकि कुशल वक्ता बन सकें।
हम इतिहास के पन्ने पलटकर आदमी की महत्वाकांक्षाओं के परिणाम पर चिंतन नहीं करते, बल्कि तारीखें और वंशावलियां याद करने में लग जाते हैं। प्रयोजन यही है कि किसी प्रतियोगिता में बोलना पड़े तो ज्ञान का प्रदर्शन कर सकें। शास्त्र पढ़कर अपने चित्त की दशा का ठीक-ठीक आकलन करने की बजाए शब्दों को रट लेने पर ध्यान लगाते हैं। किसी को उपदेश दें तो लगे कि कोई बुद्ध पुरूष बोल रहा है।
इसी अहंकार की तुष्टि के लिए हम रास्ते में मिलने वाला हर तरह का ज्ञान उठाकर अपने बस्ते में भरते जा रहे हैं। उसे देखने का या उस पर विचार करने का समय नहीं है। यह जानना आवश्यक नहीं लगता कि उस बात को हमारी बुद्धि मानती है या नहीं। तथ्यों का संग्रह केवल इसलिए करते जा रहे हैं कि इनसे हमारे पक्ष को दृढ़ता मिलेगी।
ऐसी ही दुविधाओं में घिरा पाता हूं ख़ुद को। कोई भी एक वाक्य कहने के पहले देर तक यही विचार होता रहता है कि इस बात पर मुझे पूरा भरोसा है या नहीं। इसलिए जितना सोचता हूं, उससे कम ही कहता हूं। कोई बात अनुचित लगती है तो भी प्रतिक्रिया नहीं करता। डर रहता है कि कोई ऐसी बात न कह दूं, जिस पर बाद में पछतावा हो। बिल्कुल संभव है कि आज जिस बात पर भरोसा है, कल न रहे। अभी सबकुछ अनिश्चित और अस्थायी है। फिर नाहक क्यों किसी से झगड़ा करना!
कुल बातों का मर्म यही कि जो ज्ञान हमें मुखर होने को उत्तेजित करता हो, बेहतर और कमतर के गणित में उलझाता हो, दूसरों को पराजित करने का भाव पैदा करता हो, उस पर पुनर्विचार करना चाहिए और हो सके तो उसका त्याग कर देना चाहिए। ज्ञान वही उपयोगी है, जो निज के लिए दर्पण बन जाए। विचार वही सार्थक है, जो स्वबोध की हवा के लिए बुद्धि का किवाड़ खोल दे।
अपनी कमियां और खोखलापन देख लेने के बाद तर्क-वितर्क में हम दूसरों के प्रति भी सदाशयता रखेंगे। असहमति द्वेष का कारण नहीं बनेगी। शब्दों और व्यवहार से हिंसक होने के अपराध का बोझ मन पर नहीं आएगा। एक हल्का मन ही सुख की सीढ़ी का पहला पायदान बन सकता है।
प्रेम प्रकृति का अमूल्य उपहार : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
प्रेम अंतर्मन की एक भावना है। प्रेम एक अभिव्यक्ति है, जो एक जीवात्मा को दूसरे जीवात्मा से जोड़ती है। आसान शब्दों में कहें तो प्रेम ही वह धागा है जो इस संपूर्ण जगत को आपस में जोड़ कर रखता है।प्यार ईश्वर का एक वरदान है जो उन्होंने अपने पुत्र स्वरूप सभी जीवो को प्रेम स्वरूप भेंट किया है। या यूं कहे कि प्रेम ही ईश्वर का स्वरूप है, अर्थात प्रेम के रूप में ईश्वर ही सभी प्राणियों के हृदय में निवास करते हैं, ताकि सृष्टि का सृजन और पोषण अनवरत चलता रहे।
प्रेम का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ईश्वर का जगत के प्रति प्रेम है। ईश्वर ने हम सभी जीवो को लाखों प्रकार के पेड़-पौधे फल-फूल और खाद्य सामग्री दी है। हमारे जरूरत की प्रत्येक वस्तु दी है ताकि हम सुख पूर्वक अपना जीवन व्यतीत कर सके। यह ईश्वर का प्रेम ही है, ईश्वर हमारी छोटी बड़ी गलतीयों को माफ कर देते हैं और हमें सही मार्ग दिखाते हैं। हमें हर मुश्किल से निकालते हैं। यह ईश्वर का निस्वार्थ प्रेम ही है जिसे हम करुणा कहते है। इसी प्रेम के प्रभाव से सृष्टि के दो विपरीत लिंग वाले प्राणियों का शारीरिक संबंध स्थापित होता है। जिसके फलस्वरूप एक नए जीव का जन्म होता है। प्रेम के इस प्राकृतिक प्रक्रिया के द्वारा ईश्वर सृष्टि का सृजन करते हैं। एक मां अपने बच्चे को निस्वार्थ भाव से स्तनपान कराती है जिसे हम ममता कहते हैं। एक शिष्य अपने गुरु की निस्वार्थ भाव से सेवा करता है इस प्रेम को हम श्रद्धा कहते हैं।
प्रेम के प्रभाव से ही सृष्टि के सभी मनुष्य एक दूसरे की सहायता करते हैं, एक दूसरे के जीवन में सहयोग करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रेम के और भी कई सारे रूप होते हैं, जैसे पति-पत्नी का प्रेम भाई-बहन का प्रेम, मित्र-मित्र का प्रेम या प्रेमी-प्रेमिका का प्रेम, परंतु इन सभी प्रेमों में जगह और वक्त के अनुसार से प्रेम का स्तर बदलता रहता है। हालांकि प्रेम तो वही रहता है बस उसके मायने बदल जाते हैं। परंतु निस्वार्थ प्रेम जहां रहता है वहां आनंद ही आनंद देता है। प्रेम के बिना जीवन का अस्तित्व ही निरस और अधूरा है।
जरा एक बार कल्पना कीजिए, क्या प्रेम के बिना जीवन संभव है, कदापि नहीं। इसलिए कहा जाता है कि प्रेम ही जीवन है। श्रद्धा, भक्ति, ममता, करुणा, और स्नेह ये सब प्रेम के वास्तविक स्वरूप है। और एक बात हमेशा याद रखें : वास्तविक प्रेम हमेशा निस्वार्थ होता है, स्वार्थ तो लोग उसमें जोड़ देते हैं। जो इस निस्वार्थ प्रेम को विकृत बना देता है।
अब हम विकृत प्रेम के बारे में समझते हैं। जिसका निर्माण मनुष्य के अज्ञान और स्वार्थ के द्वारा होता है। इस प्रेम का नाम है वासना। वासना प्रेम का विकृत स्वरूप है, इसलिए इस प्रेम से कामना, क्रोध दुख और निराशा उत्पन्न होते हैं। फिर इन्हीं भावनाओं के दुष्प्रभाव से अपराध और अधर्म का जन्म होता है जो मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है। आज हमारे दुनिया में जो मानवीय भावनाओं का असंतुलन पैदा हो रहा है। उसका कारण है, निस्वार्थ प्रेम की कमी। समाजिक रिश्तो की तो बात ही छोड़िए, आजकल पिता-पुत्र में प्रेम की कमी है, भाई-बहन में प्रेम की कमी है, पति-पत्नी में प्रेम की कमी है, जो इस निस्वार्थ प्रेम की कमी का संकेत है। जो बचा-खुचा प्रेम है वह भी मनुष्य के स्वार्थ का शिकार हो गया है।
इसलिए आजकल हर जगह प्रेम में भ्रांतियां सुनने को मिलती है। कुछ लोगों को तो प्रेम के नाम से ही नफरत है, क्योंकि प्रेम का सही अर्थ तो किसी ने समझा ही नहीं है। प्रेम का सही अर्थ है निस्वार्थ भाव से किसी के प्रति अपना सर्वस्य समर्पित कर देना। अपने प्रेमी के हित और खुशी के लिए अपनी खुशियों का खुशी-खुशी त्याग कर देना। प्रेम जीवन देता है जीवन लेता नहीं है। प्रेम तो परमात्मा के समतुल्य पवित्र और महान है परंतु मनुष्य ने इस पवित्र और महान प्रेम को उसके स्तर से गिरा कर कामना और वासना तक ही सीमित कर दिया है। इसलिए आज यह स्वार्थी प्रेम हत्या और आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण बन गया है। जिस तरह इस स्वार्थी प्रेम का दुष्प्रभाव हमारे समाज में दिन- प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है, वह निश्चित ही सृष्टि के विनाश का सूचक है। इसलिए अगर प्रेम करें तो निस्वार्थ प्रेम करें अन्यथा इस पवित्र प्रेम को दूषित ना करें।
रिश्तों में उलझन या कशमकश : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
रिश्तों में किसी भी उलझन या कशमकश का होना, उस रिश्ते की खूबसूरती के लिए अभिशाप है। किसी भी रिश्ते में कोई भी उम्मीद या उलझन रखना, उस रिश्ते की खूबसूरती को ख़त्म करने जैसा हैं। हम अपने जीवन में कितने ही ऐसे लोगों से मिलते हैं जिनकी सूरत हमें भा जाती हैं या फिर किसी की बातें दिल को छू जाती हैं, हर कोई किसी ना किसी रूप में हमें अच्छा लगने लगता है.. अब अगर इस खूबसूरत से अहसास को उम्मीदों और इच्छाओं की अग्नि में जला दिया जाये, तो आगे कभी भी कोई भी रिश्ता उतना खूबसूरत नहीं रह जायेगा जैसा वो पहले पहल के अहसास में था। रिश्तों में कोई उलझन नहीं होनी चाहिए.. अगर ऐसा हो तो या तो खुद को इतना परिपक्व करो की वो रिश्ता जैसा हो वैसा ही स्वीकार किया जाये, या फिर अपना व्यक्तित्व ऐसा रखो की किसी के भी लिए मन में कोई भाव ही ना आने दो। इतना उलझोगे खुद में और किसी के अस्तित्व में तो ना तो खुद के साथ रह पाओगे ना ही किसी भी रिश्ते की ख़ूबसूरती को समझ पाओगे..!!
अंजान शख़्स : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
बचपन में सुना करता था कि कभी-क़भी जब कुछ भी आपकी जिंदगी में अच्छा नहीं हो रहा हो, तब उस एक पल आपकी ज़िंदगी मे किसी ऐसे शख़्स का आना होता है जिसका आना कभी आपने सोचा भी नहीं होता...जो बिना उम्मीद आपकी उलझनों को सुलझाता है,जो आंखों से आंसू चुरा लेता हो,जो आपकी एक मुस्कान के लिए खुद से भी लड़ सकता है..जिसे आपसे कुछ नही चाहिए लेकिन अपना सब कुछ आपके नाम कर जाए.. जिसे खुद की परेशानियों का पता हो ना हो पर आपकी सारी परेशनियां अपने नाम कर ले...एक ऐसा शख़्स जो आपकी कल्पनाओं को कहीं ना कहीं सच कर दे।जब आप ऐसे किसी शख़्स से मिलते हो हकीक़त में तो आप समझ नहीं पाते कि ये काल्पनिक है या वास्तिवक... अक्सर जब आप अकेले बैठकर उस एक शख़्स के बारे में सोचते हो तो आपको महसूस होता है कि वो जिसने आपकी सारी परेशानी को पल भर में ख़त्म कर दिया वो शख़्स आपमें ही कही है..जिसे आप खुद में हर पल महसूस कर सकते हो जो गलत,सही की सभी खोखली सम्भावनाओं से कहीं ऊपर है किसी देव दूत की तरह कि जिसे पाया नहीं जा सकता ना ही जिसके बिना रहा जा सकता है..बस उसे हर पल खुद में कहीं महसूस किया जा सकता औऱ दुआ में सिर्फ उसका कल्पिनक साथ मांगा जा सकता है क्यों वास्तविकता में ये आपकी कल्पना भी हो सकती है जिससे आप कभी मिले ही नहीं....तो जब भी मिले आप ऐसे किसी शख़्स से तो उसे पाने की बजाय ख़ुद में सिर्फ महसूस करने की कोशिश करें क्यों कि कहीं ना कहीं कल्पनाएं आत्मा से जन्म लेती है..!!
भौतिक प्रेम और अध्यात्मिक प्रेम : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
कृष्ण अपने शिष्य अर्जुन से कहते हैं, कि “केवल वासना ही है… जो सब कुछ खा जाने वाली, संसार की पापमयी शत्रु है.” वैदिक भाषा में भौतिकवादी “प्रेम” के लिए कोई शब्द नहीं है, जैसा कि हम वर्तमान समय में कहते हैं. काम शब्द वासना या भौतिक इच्छा का वर्णन करता है, न कि प्रेम का, लेकिन वास्तविक प्रेम के लिए वेदों में जो शब्द हमें मिलता है, वह प्रेम है, जिसका अर्थ है ईश्वर का प्रेम. भगवान के इतर प्रेम की कोई संभावना नहीं है. बल्कि, केवल वासना है. तत्व के इस वातावरण में, मानव के कर्मों की संपूर्ण श्रंखला-और केवल मानव की ही सभी गतिविधियाँ नहीं बल्कि सभी प्राणियों के कर्म-काम वासना, पुरुष और स्त्री के आकर्षण, पर आधारित हैं, प्रोत्साहित हैं और प्रदूषित हैं. उसी यौन जीवन के लिए, पूरा ब्रह्मांड चारों ओर घूम रहा है- और दुख उठा रहा है! वह कठोर सत्य है. यहाँ तथाकथित प्रेम का अर्थ है कि “तुम मेरी इंद्रियों को तृप्त करते हो, मैं तुम्हारी इंद्रियों को तृप्त करूंगा,” और जैसे ही वह संतुष्टि बंद हो जाती है, तुरंत तलाक, अलगाव, झगड़ा और घृणा होने लगती है. प्रेम की इस झूठी अवधारणा के तहत बहुत सी बातें चल रही हैं. वास्तविक प्रेम का अर्थ है भगवान, कृष्ण का प्रेम।
हर व्यक्ति किसी ऐसे पात्र में अपनी प्रेममयी प्रवृत्ति को स्थापित करना चाहता है जिसे वह अपने योग्य समझता है. लेकिन प्रश्न केवल अज्ञानता का है, क्योंकि लोगों को इस बारे में कम ज्ञान है कि उस परम प्रेम पात्र को कहाँ खोजा जाए जो स्वीकार करने योग्य हो और उनके प्रेम का उत्तर देता हो. लोगों को बस पता नहीं होता. कोई भी उचित जानकारी नहीं है. जैसे ही आपको किसी भौतिक वस्तु से लगाव हो जाता है, वह आपको आघात पहुँचाती है, आपका क्षरण करती है, और निराश करती है. आपको अंसुष्ट और निराश करना ही उसकी नियति है।
भौतिक चेतना में हम उसे प्रेम करने का प्रयास करते हैं जो प्रेम करने योग्य है ही नहीं. हम कुत्तों और बिल्लियों को प्रेम देते हैं, जिससे जोखिम रहता है कि मृत्यु के समय हम शायद उनके बारे में सोचें और परिणामस्वरूप बिल्लियों या कुत्तों के परिवार में जन्म लें. इस प्रकार जिस प्रेम में कृष्ण नहीं है नीचे की ओर ले जाता है. ऐसा नहीं है कि कृष्ण या भगवान कोई अस्पष्ट वस्तु या कुछ ऐसा है जिसे केवल कुछ चुने हुए लोग ही प्राप्त कर सकते हैं. चैतन्य महाप्रभु हमें सूचित करते हैं कि प्रत्येक देश में और प्रत्येक शास्त्र में भगवान के प्रेम के कुछ संकेत मिलते हैं. दर्भाग्य से कोई भी यह नहीं जानता कि भगवान का प्रेम वास्तव में क्या है. हालाँकि, वैदिक शास्त्र इससे अलग हैं क्योंकि वे व्यक्ति को भगवान से प्रेम करने का उचित ढंग बताते हैं. अन्य शास्त्र इस बात की जानकारी नहीं देते हैं कि कोई व्यक्ति भगवान से किस प्रकार प्रेम कर सकता है, और न ही वे वास्तव में परिभाषित करते हैं या वर्णन करते हैं कि वास्तव में भगवान क्या है या कौन हैं. हालाँकि वे आधिकारिक रूप से भगवान के प्रेम को बढ़ावा देते हैं, लेकिन उन्हें यह ज्ञान नहीं है कि इसे क्रियान्वित कैसे किया जाए।
वृंदावन में कृष्ण और गोपियों के बीच के प्रेम प्रसंग भी पारलौकिक हैं. वे इस भौतिक संसार के साधारण प्रसंगों के जैसे ही दिखाई देते हैं, लेकिन उनमें बहुत बड़ा अंतर है. भौतिक संसार में वासना का अस्थायी जागरण हो सकता है, लेकिन तथाकथित संतुष्टि के बाद वह गायब हो जाती है. आध्यात्मिक संसार में गोपियों और कृष्ण के बीच प्रेम लगातार बढ़ रहा है. यही पारलौकिक प्रेम और भौतिक वासना के बीच का अंतर है. इस शरीर से उत्पन्न वासना, या तथाकथित प्रेम, शरीर के समान ही अस्थायी है, लेकिन आध्यात्मिक संसार में अनन्त आत्मा से उत्पन्न होने वाला प्रेम आध्यात्मिक स्तर पर होता है, और यह प्रेम शाश्वत भी है. इसलिए कृष्ण को सदाबहार कामदेव भी कहा गया है।
मोबाइल, मैसेज और डिप्रेशन की शिकार युवापीढ़ी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
बीप... बीप... बीप... मोबाइल पर मेसेज का सिगनल आया और मोबाइलधारी जो कुछ समय पहले बाहरी दुनिया से जुड़ा हुआ था, वह एकदम से उससे कट गया और पहुँच गया मोबाइल से जुड़ी एक छोटी सी दुनिया में। मोबाइल की दुनिया छोटी इसलिए कि जैसे-जैसे विज्ञान उन्नति करता जा रहा है, लोगों से हमारा जुडाव कम से कमतर हाो चला जा रहा है। एक समय था, जब हमारे पास अपने स्नेहीजनों से मिलने के लिए सशरीर उनके पास पहुँचने के सिवाय और कोई उपाय न था। लोग तीज-त्योहार पर ही नहीं यूँ ही इच्छा होने पर एक-दूसरे के हालचाल जानने के लिए समय निकाल कर घर मिलने के लिए जाते थे। घंटों साथ बैठकर दु:ख-सुख की बातें करते थे। गप्पों की थाली में अपने अनुभवों की वानगी एक-दूसरे को परोसते थे। फिर समय ने करवट ली और पत्र लिखने का दौर आया। अब जब मिलने जाना संभव न होता, तो लोग लम्बे-लम्बे पत्रों के माध्यम से अपने दिल का हाल सामने वाले को सुनाते थे और उसकी खैर-खबर पूछते थे। स्नेह की पाती पर अपनेपन के उभरे हुए अक्षर और अंत में स्वयं के स्वर्णिम हस्ताक्षर से पत्र जब अपनों के द्वार पर पहुँचता था, तो ऑंखों में दूरी का भीगापन भी होता था और दूर होकर भी पास होने की चमक भी झलक आती थी।
पत्रों की यह दुनिया अपनी धीमी रफ्तार से आगे बढ़ ही रही थी कि विकास का एक और साधन हमारे घर की शोभा बन गया। टेलिफोन ने घर-घर में अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया। अब लोगों को एक-दूसरे के हालचाल पूछने के लिए मिलने जाने या पत्र लिखने की आवश्यकता नहीं थी। फोन के माध्यम से ही वे एक-दूसरे से बातें कर लिया करते थे। स्वजनों से मिलने का सिलसिला कम होता चला गया। पत्र लिखना तो मानों छूट ही गया। जबकि पत्र अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सशक्त माध्यम है। पत्र में जिस तरह से अपनी भावनाओं को उँडेला जा सकता है, वह फोन में संभव नहीं है। पत्र को लम्बे समय तक सहेजकर रखा जा सकता है। पत्र में लिखे गए अक्षर व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। लोगों ने इस बात को महसूस भी किया, किंतु समय की कमी और व्यस्तता के बीच इस प्रगति को स्वीकार करना ही विवशता थी।
आज भी फोन का अपना महत्व है। फोन से लाभ है, तो नुकसान भी। फोन पर की जानेवाली बातचीत में आमने-सामने मिलने जैसी आत्मीयता नहीं होती, किंतु उसके बाद भी ध्वनि के माध्यम से एक-दूसरे की भावनाओं को समझा जा सकता है। अपनी खिलखिलाहट से खुशी जाहिर की जा सकती है, तो सिसकियों के द्वारा अपने दु:ख को भी महसूस करवाया जा सकता है। फोन के माध्यम से अपनेपन को बाँटा जा सकता है, किंतु इससे मिलने वाली खुशी को देखा नहीं जा सकता।
आज है एसएमएस का जमाना। संदेश संप्रेषण का सबसे आधुनिक माध्यम- मोबाइल द्वारा एसएमएस करना और अपनी बात सामने वाले तक पहुँचाना। बात पहुँचने के बाद उस पर उसकी क्या प्रतिकि्रया हुई इस बात से बिलकुल अनजान रहना। क्योंकि यह संप्रेषण का एकतरफा माध्यम है। मोबाइल द्वारा एसएमएस भेजना भावनाओं को व्यक्त करने के बजाए उन्हें छुपाना है। किसी को सॉरी कहने के लिए उसे महसूस करने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, मैसेज बॉक्स में सौरी लिखा और भेज दिया। एक सेकन्ड में यह मैसेज सामने वाले तक पहुँच जाएगा। मैसेज का आदान-प्रदान वन-वे ट ्रेफिक है। आप सामने वाले को आघात तो पहुँचा सकते हैं, पर उसके प्रत्याघात से बचा जा सकता है। एसएमएस के माध्यम से किसी का दिल एक पल में तोड़ा जा सकता है, किंतु उसके टूटने की आवाज को सुना नहीं जा सकता।
एसएमएस का फैशन जिस तेजी से बढ़ रहा है, उतनी ही तेजी से आत्मीयता खत्म होती जा रही है। मोबाइल के द्वारा एसएमएस से विवाह हो रहे हैं, तो एक ही क्षण में तलाक भी लिए जा रहे हैं। एसएमएस की आकर्षक दुनिया लोगों को करीब ला रही है, तो उनके बीच दूरियाँ भी बढ़ा रही है। हॉलीवुड अदाकारा ब्रिटनी ने मोबाइल मैसेज के माध्यम से एक तरफ मोबाइल का महत्व बढ़ा दिया, तो दूसरी ओर वैवाहिक जीवन के महत्व को भी क्षण भर में कम कर दिया। टेक्स्ट मैसेज का उपयोग बातचीत करने के लिए कम और बातचीत टालने के लिए अधिक किया जाता है। कॉलेज के युवा तो अपने मित्राें से केवल एसएमएस के माध्यम से ही बातें करते हैं। भावनाओं की अभिव्यक्ति को इसने बिलकुल निष्प्राण बना दिया है। आपको आश्चर्य होगा, किंतु सच यह है कि आज की युवापीढ़ी को भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रति रूचि भी नहीं है। वे इसे समय बरबाद करने के अलावा और कुछ नहीं मानती।
इस व्यस्त दिनचर्या और एसएमएस में सिमटी दुनिया युवापीढ़ी को मानसिक रूप से बीमार बना रही है। मोबाइल से भेजे जानेवाले एसएमएस इतने छोटे होते हैं कि उसमें भाषा की दरिद्रता साफ झलकती है। साथ ही विचारों और भावनाओं की दरिद्रता भी छुप नहीं सकती। इसे न तो प्रिंट के माध्यम से अपने पास फाइल में सुरक्षित रखा जा सकता है न ही मैसेज बॉक्स में लंबे समय तक स्टोर किया जा सकता है।
आज के आधुनिक उपकरण मानवीय शक्तियों को बढ़ा रहे हैं, किंतु साथ ही उसकी भावनाओं को कुंठित कर रहे हैं। एक-दूसरे को यूं तो मोबाइल के माध्यम से कुछ सेकन्ड में ही सुन सकते हैं, मैसेज के माध्यम से वैचारिक रूप से मिल भी सकते हैं, किंतु अपनेपन की खुशी या गम बाँटने में ये माध्यम बिलकुल निरर्थक है।
क्रांतिकारी अविष्कार ने युवाओं को अकेलेपन का ऐसा साम्राय दिया है कि उसके मालिक वे स्वयं हैं। इसकी खुशी बाँटने के लिए भी आसपास कोई नहीं है। नीरवता का यह संसार उन्हें लगातार डिप्रेशन की ओर ले जा रहा है। तनाव का दलदल उन्हें अपनी ओर खींच रहा है और युवापीढ़ी है कि मानसिक रोगी बनने के कगार पर पहुँचने के बाद भी हथेली में सिमटी इस दुनिया से बाहर ही नहीं आना चाहती। बीप..बीप.. की यह ध्वनि भविष्य की पदचाप को अनसुना कर रही हैं। फिर भी युवा है कि इस बात से अनजान अपनेआप में ही मस्त है। समाज में बढ़ते इन मानसिक रोगियों के लिए कौन जवाबदार है वैज्ञानिक या स्वयं ये मानसिक रोगी बनाम आज की युवापीढ़ी? जवाब हमें ही ढूँढ़ना होगा।
खुशियों को गले लगाएँ : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
इंसान को हर क्षण जिसकी तलाश होती है, वह उसे पाना चाहता है, पर उसे मिलती नहीं, उसे पाने के लिए इंसान एड़ी-चोटी का जोर लगा देता है, पर उसके हिस्से में वह चीज कम ही आ पाती है. जानते हैं क्या है वह चीज, वह अदृश्य चीज हे खुशी. होती तो यह हमारे भीतर ही है, पर हम उसे तलाशते रहते हैं वहाँ, जहाँ वह होती ही नहीं. बल्कि उसे तो हमारे भीतर ही पाया जा सकता है.
खुशी एक अहसास है, एक ऐसा अहसास जिसे केवल महसूस किया जा सकता है, इसे दिखाया नहीं जा सकता क्योंकि जो दिखाया जाता है, वह केवल उसका बनावटीपन ही होता है. प्रदर्शन में खुशी अपनी मौलिकता खो देती है. लेकिन फिर भी यह जीवन की रीत है कि इंसान की खुशी भी उसके स्वभाव में झलकती है और उसका गम भी छुपाए नहीं छुपता।
आखिर यह खुशी है क्या? इसे बाजार में तो बिकते नहीं देखा? न किराने की दुकान, न सुपर मार्केट और न ही इंटरनेट कैफे पर यह मुँहमाँगी कीमत पर भी देखने को नसीब हुई. फिर आखिर इसे हम लाएँ कहाँ से? बड़ी सीधी और सच्ची बात है, यह जो दो अक्षर की छोटी-सी खुशी है, वह न तो सुपर मार्केट की शोभा है और न ही इंटरनेट पर क्रेडिट कार्ड पर बिकने वाला खुबसूरत उपहार. यह तो मनुष्य के मन के भीतर की आवाज है, एक गुनगुनाहट है, सुर है, ताल है और झंकार है. खुशी बाहर ढूंढ़ने से नहीं मिलती. यह कस्तूरी मृग की तरह मन के भीतर छुपी होती है. इसकी सुगंध जब बिखरती है, तो पूरा जीवन महक उठता है. खुशी एक कुदरती शक्ति है, जो जीवन को सबल बनाती है।
कई बार ऐसा होता है कि मनुष्य जीवन के कुएँ को आंसुओं से लबालब देखकर दु:खी हो जाता है, हताश हो कर वह कुछ भी नहीं सोच पाता किंतु इसी कुएँ के जगत के पास उग आई छोटी सी दूब को देखोगे, तब उसे एक बार अपने हाथों से छूकर देखने की कोशिश करना, कितना मुलायम सा अहसास होगा. यही है खुशी. अब इसी दूब को प्यार से सहलाओ, तब आपको लगेगा कि अरे! इसे ही तो मैं ढूँढ़ रहा था. काश पहले ही कुएँ के बजाए इसे देख लेता, तो हताशा ही फटक नहीं पाती.
खुशी और गम एक सिक्के के दो पहलू हैं, इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता. जीवन के तराजू में हम खुशी और गम के बीच लटक रहे हैं. कभी खुशी का पलड़ा भारी होता है, तो कभी गम का, लेकिन दोनों ही हालात में हमारा लटकना तय है. हम जिस छोटे से मिट्टी के गमले में फूल उगाकर उसकी महक से खुश होते हैं वही गमला कभी कुम्हार की भट्टी में तपकर गम के अहसास को छूकर पकता है और हमें इस सुगंध का हकदार बनाता है. बंसी की जो धुन मन को मोह लेती है, हमें आत्मिक सुख या खुशी देती है, उसी बंसी को अपनी छाती में तेज धारदार चाकू का प्रहार झेलना पड़ता है. पीड़ा की यही छटपटाहट ही बाद में कोमल संगीत पैदा करती है. जब यही बंसी किसी दु:खी इंसान के होठों से लगती है, तो दर्द की रागिनी छेड़ती है।
आशय यह है कि हम केवल परिणाम को ही देखते हैं. सृजन के पीछे की पीड़ा हम देखना ही नहीं चाहते या देखकर भी अनदेखा कर जाते हैं. ये सच्चाई हमारी ईमानदारी पर चोट करती है, नतीजा यह कि हम न तो पूरी तरह से खुश हो पाते हैं और न ही पूरी तरह से दु:खी.
कहते है कि स्त्री धरती की तरह होती है, किंतु केवल स्त्री को ही नहीं इस पूरे मानव समुदाय को धरती की तरह होना चाहिए. धरती जो अपनी छाती पर हल की नोक से एक टीस के साथ पीड़ा झेलती है, इसके परिणाम में वह हल चलाने वाले को देती है एक लहलहाता विश्वास. उसी तरह इंसान को भी अपना दु:ख-दर्द छुपाकर हमेशा खुशियों को बिखेरने वाला होना चाहिए. खुशी को जितना बाँटोगे, वह दोगुनी हो कर हमारे पास आएगी.
खुशी वहीं हैं, जहाँ हमारी इच्छाएँ हैं, हमारे सपने हैं यानि कि हमारे मन में, हमारी ऑंखों में, विचारों में, व्यवहार में, पल-पल बीतते पलों में और लम्हों में. बस जरुरत है चिंताओं की लकीरों को कुरेद कर इस खुशी को नया आकार देने की. हमारे आसपास का वातावरण जो हमें उदासी या गम देता है, कई बार उसी वातावरण में पूरी तरह से डूब जाने पर, उसके प्रति स्नेह जगाने पर हमें उसी गम में बेपनाह खुशी महसूस होती है।
अवसर को पहचानें और इतिहास रचें : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
समय को बहुत बड़ा डॉक्टर कहा गया है. यह हर तरह के घाव को भर देता है. समय में एक बात तो है कि वह हर वक्त चलता ही रहता है. यह उसका स्वभाव है, लक्ष्मी और पानी का स्वभाव भी चंचल होता है, गतिमान रहना इनका स्वभाव है. पानी ठहर जाए, तो वह दुर्गंध देने लगता है, बहना इसकी पकृति है, इसे बहते रहने देना चाहिए. समय का एक रूप अवसर है, जो हर इंसान के सामने अपनी सेवा देने के लिए प्रस्तुत होता है, पर इसका रूप ऐसा होता है कि इंसान उसे अनदेखा कर देता है, उसे नोटिस में नहीं लेता, जो इसे पहचानने की दृष्टि रखते हैं, वह उस अवसर को हाथ से नहीं जाने देते. उसे पहचानने के लिए अंतर्दृष्टि याने भीतर की ऑंखें. जिसने भी अपनी इन ऑंखों से समय या अवसर को पहचाना, सफलता ने आगे बढ़कर उसके कदम चूमे।
किसी चित्रकार ने समय का चित्र बनाया है, जिसमें एक साधारण व्यक्ति को बताया गया है. उसके पंख हैं और वह उड़ रहा है, बालों से उसका चेहरा ढँका हुआ है, याने उसे कोई देख नहीं सकता, पंख से उसके सदैव गतिमान होने को दर्शाया गया है. चेहरा ढाँककर यही बताने की कोशिश की गई है कि समय को देखा तो नहीं जा सकता, पर पहचाना अवश्य जा सकता है. अवसर को गँवाने का दु:ख सबको होता है, सभी कभी न कभी यह अवश्य स्वीकार करते हैं कि हम चूक गए. हमसे गलती हो गई, हम अवसर को पहचान नहीं पाए, हमारे हाथ से एक अच्छा अवसर निकल गया. हमारी थोड़ी-सी लापरवाही ने हमें कहीं का नहीं रखा. उस वक्त ऐसा कर लिया होता, तो आज यह वक्त नहीं देखना पड़ता. ये सारे जुमले उन लोगों के हैं, जिन्होंने अवसर को पहचानने में भूल की या देर की. इतना तो तय है कि अवसर रूप बदलकर ही सही, हम सबके सामने आया, याने समय ने हमें आगे बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी, अब यह बात अलग है कि हम उसे पहचान नहीं पाए।
ईश्वर ने जब हम सभी को भेजा है, तो कुछ अच्छा काम करने के लिए ही भेजा है. नाकाम वही होते हैं, जिनके पास बहाने होते हैं, जिस क्षण बहाने नहीं होंगे, सफलता सामने होगी. बहाने का सीधा-सादा गणित है कि काम न करने की इच्छा. ये बहाने तो वे बादल होते हैं, जो व्यक्ति और सफलता के बीच अवरोध का काम करते हैं. बहाने हटे कि सफलता सामने. मेहनती इंसान से सफलता अधिक दूर नहीं होती. कभी-कभी बहाने रूपी बादल सफलता को इंसान की ऑंखों से ओझल कर देते हैं।
कोई भी अनुभव कभी बेकार नहीं जाता. सफर के दौरान दो व्यक्तियों के बातें भी हमारे ज्ञान के खजाने में एक मोती की वृद्धि कर सकती है. उस समय हमें स्वयं को एक अच्छा श्रोता साबित करना होगा, संभव वही समय का रूप हो. उनकी बातें और हमारा ज्ञान दोनों मिलकर एक अनुभव को जन्म दें, बस हमें मिल सकता है, एक उन्मुक्त आकाश. जहाँ हम उड़ सकते हैं, अपने तरीके से. अंत में एक छोटी सी बात, निर्माण सदैव विध्वंस के रास्ते आता है।
पहली बार में यह वाक्य आपको सोचने को विवश कर देगा. पर आप ही सोचें कि किसी खंडहर के स्थान पर कोई मकान बनाना है, तो उस खंडहर को तोड़े बिना क्या नया मकान बन सकता है? जब तक हम पुराने विचारों को त्यागेंगे नहीं, तब तक नए विचारों के लिए जगह कहाँ से बनेगी? जगह एक समय की तरह तय है. हमें अच्छे विचारों को समय की तरह पकड़ना है, तो क्यों न दिमाग का कचरा फेंक दिया जाए. कचरे का फेंका जाना ही विध्वंस है और नए विचारों का आना कहलाता है निर्माण. विध्वंस के बाद ही जापान निर्माण के रास्ते पर कितना आगे बढ़ गया! पुराने जमाने की हवेली, इमारत विध्वंस से ही गुजरकर आज आलीशान इमारतों की जगह ले रही है. काम-धंधे में पुत्र इसीलिए पिता से आगे बढ़ जाता है, क्योंकि पुत्र जमाने के अनुसार अपने काम में बदलाव लाता जाता है. उसका पुत्र और भी आगे बढ़ जाता है. क्योंकि वह आगे बढ़ने के गुण अपने पिता और दादा से पाता है. यदि वह समय के अनुसार नहीं चल पाता, तो पिछड़ भी जाता है. ऐसा अक्सर तीसरी पीढ़ी के साथ होता है. या तो धंधा बिलकुल चौपट हो जाता है, या फिर धंधा खूब चल निकलता है. तीसरी पीढ़ी या तो इतिहास रचती है, या फिर पूरा धंधा चौपट करके रख देती है. अतिहास सदैव नए विचारों, नए निर्माण, नए सपने, नया विश्वास और नई उमंगों के साथ रचा जाता है.
तो आइए, एक नया इतिहास रचने की दिशा में एक कदम ईमानदारी के साथ उठाएँ, मेरा विश्वास है कि कुछ समय बाद आप स्वयं को दस कदम आगे पाएँगे।
मानवीय संवेदनाओं का मापदंड : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं, जिसकी पहचान विविधता से होती है। विविधता प्राकृतिक देन है जो हमारे समाज के सौहार्द को प्रतिबिंबित करती है, परंतु जब विविधता को सही ढंग से संजोने का अभाव हो तो वही तमाम तरह की सामाजिक समस्याओं के पनपने का मार्ग भी प्रशस्त करती है।
एक व्यक्ति के तौर पर ही देखें तो हम कितने तरह के सामाजिक पहचान लिए जी रहे हैं – जाति, धर्म, लिंग, क्षेत्र, भाषा, वर्ण, व्यावसायिक समूह इत्यादि; पहचान के ये समस्त मानक हमारी जीवन-प्रकृति का अंग बन चुके हैं और हमने धीरे-धीरे मनुष्य के रूप में अपनी पहचान खो दी है। जैसे ही हम ऐसे विभाजनकारी मानकों में अपनी पहचान खोजते हैं तो संगठित समाज को ‘अपने’ और ‘पराये’ में बंटा हुआ प्रत्यक्षित करने लगते हैं। एक सौहार्दपूर्ण समाज का इस तरह अपने और पराये में विभाजन हर परिप्रेक्ष्य में सामाजिक पतन के रूप में परिणत होता है। यह एक तरफ तो सामाजिक कुरीतियों जैसे- ऊंच-नीच, पक्षपात, पूर्वाग्रह, भय-उन्माद, ईर्ष्या-द्वेष, अनैतिकता व अन्याय आदि को पोषित करता है तो वहीं सामाजिक सौहार्द के स्तंभों और मानवीय मूल्यों की खुली अवहेलना को बल प्रदान करता है। यहीं से सामाजिक विभेद, संघर्ष और सामाजिक हिंसा का बिगुल बजता है जो हमारे समाज की मानवीय संवेदना को कुचलता जा रहा है। ये सभी चीजें लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर डालती हैं और उन्हें प्रत्येक रूप से असुरक्षित कर देती हैं।
मानवीय संवेदना एक ऐसा सार्वभौमिक परंतु व्यक्तिनिष्ठ मनोभाव है जिसका उद्देश्य केवल मनुष्य समाज का ही नहीं, अपितु समस्त जीवों का हित है और जिसकी मूल भावना ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की व्यावहारिक जीवंतता है। मानवीय संवेदना भौतिकवादी समाज की स्वार्थपरक पहुंच से मीलों दूर, व्यक्ति की मार्मिकता, परानुभूति और प्रत्येक मानवीय मूल्य में समाहित ऐसा मूल तत्व है, जिसकी अभिव्यक्ति हमारे भाव, भाषा, धारणा, प्रेरणा, आचरण और व्यवहार में होती है। हम एक ऐसे समाज का हिस्सा हैं जहां सामाजिक और मानवीय मूल्यों की नींव रखी गई थी और जहां हमारे आचरण और कर्म उत्कृष्ट मानवीय संवेदनाओं और जीवन मूल्यों को सहेज कर रखते थे। क्या आज हम अपने व्यवहार और आचरण में उन आदर्शों का पालन कर पा रहे हैं? समाज में घट रही घटनाएं और विकृत होती मानव प्रवृत्ति हमारे समाज की वास्तविकता को बयां करती है। चाहे गरीबों व मजदूरों के पेट न भर पाने से हुई मृत्यु की खबर हो, जाति और धर्म के आधार पर बर्बरतापूर्ण पीटे जा रहे किसी भी धर्म के अनुयायियों की घटनाएं हों, पुलिस तंत्र का अनैतिक बल प्रयोग और पक्षपातपूर्ण कार्यवाही हो, डॉक्टरों द्वारा पैसे की कमी के चलते गंभीर मरीजों के इलाज से इंकार किया जाना हो, परिवार के सदस्यों द्वारा ही बच्चियों-महिलाओं के साथ हो रही बर्बरता हो, समाज के महत्वपूर्ण स्तंभ किसान और मजदूर के बुरे सामाजिक-आर्थिक स्थिति का विषय हो, पोषण, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मूलभूत आवश्यकताओं में हो रहे भ्रष्टाचार के विषय हों, और इन चीजों पर सरकार और तंत्र की निष्क्रियता; जैसी सैकड़ों घटनाएं प्रतिदिन के हिसाब से घटना कैसे प्रभावित लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को सुदृढ़ रखेगा? समय के साथ समाज का बड़ा हिस्सा प्रभावितों की श्रेणी में आता जा रहा है। हम मानवीय संवेदना के मामले में व्यक्तिगत, सामाजिक और तंत्र तीनों स्तर पर विफल होते जा रहे हैं। स्वयं की भौतिकता विस्तार में न तो हमारे पास इन विषयों पर सोचने का वक्त है, न ही मानवता के रास्ते से भटकते जा रहे हमारे आचरण-व्यवहार को सही करने की इच्छाशक्ति ही।
मानवीय संवेदनाओं से विमुख और उस पर गहरी चोट करती ऐसी सभी सामाजिक घटनाएं समाज को सम्पूर्ण रूप में तो प्रभावित करती ही हैं, व्यक्तिगत रूप में भी लोगों की भावनाओं और व्यवहार में बड़े बदलाव लाती हैं। ये सभी चीजें हमें मनोवैज्ञानिक अस्थिरता की तरफ धकेल रही हैं, जहां न हमारा चित्त शांत है, न हमारे संवेग। दिन पर दिन संवेगों की नकारात्मकता की तरफ बढ़ता झुकाव और अएकाग्रचित मन हमारे निर्णय प्रक्रिया को भी कमजोर करता जा रहा है। परिणामस्वरूप आज हम मानवीय संवेदना जैसे विषयों पर न तो संजीदा हैं और न ही आत्मचिंतन करने की स्थिति में खुद को सबल पाते हैं।
अगर अपने समाज को एक सभ्य समाज के रूप में परिणत करना है तो हमें हर एक स्तर पर आत्म-विश्लेषण करना पड़ेगा, पर उन सब में सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावकारी कदम हमें एक मनुष्य के रूप में लेना पड़ेगा। ऐसा कदम, जिसमें अपने सामाजिक मूल्यों को वरीयता देनी पड़ेगी और आने वाली पीढ़ी में मानवीय संवेदना और मूल्यों की सजीवता संपूर्णता लिए हुए रहे, उनके समाजीकरण में इस बात पर बल देना पड़ेगा। हमारा समाज एक ऐसी विरासत लिए हुए है जहां हम सबको पता है ‘अच्छाई क्या है’। हम सब ने देखा, सुना और महसूस किया है, फिर भी अब हम उसे अपने आचरण और कर्म में नहीं ला पा रहे हैं। यह सब आत्म-अन्वेषण का विषय है।
मानव जीवन में अध्यात्म का गूढ़ रहस्य : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
राष्ट्र, समाज और घर-परिवार की व्यवस्थाओं को इनके दुर्गुणों के साथ अपनाना जीवन का अस्वाभाविक पक्ष है। ममत्व, अपनत्व तथा संवेदनशील मनुष्य जीवन के इस पक्ष को हृदय से स्वीकार नहीं करता। विवशता में वह ऐसी जीवन पद्वति का अंग भले बना रहे, परंतु आत्मिक रूप से वह इससे बाहर आने को छटपटाता रहता है। इसी स्थिति में आध्यात्मिक भावना का विकास होता है।
जब हम अस्वाभाविक अथवा अप्राकृतिक जीवन में अध्यात्म की बातें करते हैं तो यह अध्यात्म प्रवृत्ति के साथ अन्याय करने जैसा होता है। क्योंकि आध्यात्मिकता मनुष्य में भौतिक जगत से अलगाव के बाद ही उपजती है। अध्यात्म का अर्थ कोई सीखने-सिखाने का विषय नहीं। सभी में यह प्राकृतिक रूप से विद्यमान है।
मनुष्य जब हर प्रभाव से मुक्त होकर अपनी आत्मिक शक्ति से संचालित होता है तो वह आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रविष्ट होता है। यह लगन मनुष्य में प्राकृतिक उपक्रम से उत्पन्न होती है जिसका अस्तित्व और संचालन कृत्रिम न होकर पूर्णत: प्रकृति प्रदत्त होता है। इस दुनिया की सभी नकारात्मक शक्तियां मनुष्यजनित ही हैं। यदि मनुष्य प्रलोभनों, लोभ व स्वार्थ के अंधेरों में न भटकता तो उसे कृत्रिमता पर आधारित जीवन नहीं अपनाना पड़ता। इसी व्यवहार के कारण मानव और प्रकृति के बीच का तारतम्य टूट गया। परिणामस्वरूप मानवीय विचार, भावनाएं तथा ज्ञान पारदर्शी न रहकर द्वंद्वात्मक हो गए। यह इसलिए हुआ क्योंकि मानव जीवन में आत्म-व्यवहार होना बंद हो गया।
हमें यह विचार करना चाहिए कि इस संसार में न तो हमारे जन्म से पूर्व हमें अपने भौतिक अस्तित्व का ज्ञान था और न ही हमारी मृत्यु के उपरांत हमें अपने भौतिक शरीर का भान होगा। तब क्यों हम अपनी स्वाभाविक वृत्ति आध्यात्मिकता से अलग हो जाते हैं/ आत्मचिंतन से हमें जगत के गूढ़ रहस्यों का आभास होने लगता है। हमारा जीवन भी एक प्रकार से गूढ़ रहस्य ही है। यह अलग बात है कि भौतिक सुख-सुविधाओं अथवा दुख-दुविधाओं को भोगते हुए हमें यह अंतर्ज्ञान नहीं होता। परंतु हमारी वास्तविक प्रवृत्ति एक न एक दिन हमें अपनी ओर आकर्षित अवश्य करती है।
प्राकृतिक घटनाओं के प्रति ध्यानमग्न होकर अपनी अंतर्चेतना को उन्हीं जैसा बनाना अध्यात्म का प्रथम शिक्षण कार्य है। इस आध्यात्मिक अभ्यास में जीवनभर रमण करते रहने से हमें मात्र जीवन की नकारात्मक व्याधियों से ही छुटकारा नहीं मिलता, अपितु जीवन-मृत्यु के गूढ़ रहस्य को सुलझाने का एक आध्यात्मिक सूत्र भी हमारे हाथ लग सकता है। इसके बाद हम संसार के लिए कल्याणकारी कार्यों को करने का एक महान स्रोत बन जाते हैं।
व्यक्ति स्वयं पर अनुशासन कर लेता है तो उसे नि:संदेह आत्मानुभूति होती है। यह जागृत आत्मानुभूति ही अध्यात्म है। कहा जाता है कि जीवन का दूसरा नाम ही अध्यात्म है। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में जैसे मुख्य सिद्धांत है- जनता के लिए, जनता के द्वारा, जनता का शासन ठीक उसी प्रकार अध्यात्म व्यवस्था के लिए स्वयं के द्वारा, स्वयं का अनुशासन होता है।
व्यक्ति स्वयं पर अनुशासन कर लेता है तो उसे नि:संदेह आत्मानुभूति होती है। यह जागृत आत्मानुभूति ही अध्यात्म है। इस अनुभूति से व्यक्ति की चेतना अविकार एवं आनन्दमय बनती है।
आज के दौर में अध्यात्म परम्परा को पुन: जागृत कर व्यक्ति जीवन में अध्यात्म साधना की अनुभूति करें, तभी जीवन में अमूल्य निधि का वरण किया जा सकता है।
मनुष्य जीवन में विभिन्न द्वंद्व व्याप्त हैं। इन द्वंद्वों से मुक्त होने का एकमात्र रास्ता अध्यात्म ही है। अध्यात्म की शरण में जाए बिना व्यक्ति जीवन में फैले अंधकार और अनैतिकता के द्वंद्व को नहीं मिटा सकता।
अध्यात्म का शतांश पालन करने वाला व्यक्ति भी जीवन में मुक्ति का मार्ग खोज सकता है। नीतिहीनता के घोर अंधेरे में अध्यात्म ही ऐसा दीपक है जिसके सहारे जीवन के पथ को आलोकित किया जा सकता है।
अध्यात्म का पर्याय अनुशासन है। अनुशासन के बिना न तो साधना के क्षेत्र में प्रवेश किया जा सकता है ओर न ही जीवन में व्याप्त समस्याओं का समाधान खोजा जा सकता है। जीवन की जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान अध्यात्म में निहित है।
अध्यात्म के गूढ रहस्यों को समझकर ही व्यक्ति आत्म साक्षात्कार कर सकता है। अध्यात्म साधना के बिना साधक की सभ्यता, कला, ज्ञान आदि विकसित नहीं हो सकते।
अध्यात्म के अभाव में इन सबमें विकास की संभावना नहीं की जा सकती। साधक जीवन में अध्यात्म के सोपान को छूने, इसके लिए आवश्यक है सत्य और अहिंसा का पालन। बिना सत्य और अहिंसा के अध्यात्म के शिखर पर नहीं पहुंचा जा सकता।
कोई भी व्यक्ति अध्यात्म को विस्मृत कर विकास के सोपान नहीं छू सकता। अध्यात्म का प्रयोग करके ही व्यक्ति अपने जीवन में व्याप्त वृतियों को शांत कर सकता है। अध्यात्म के बल पर ही व्यक्ति अपनी कार्यक्षमता का विकास कर सकता है।
अध्ययन से अध्यात्म तक की यात्रा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
अध्यात्म ज्ञान मै स्वयं के द्वारा मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रिया, जीव, आत्मा और परमात्मा का अध्यन ही अध्यात्म है मैं स्वयं के द्वारा आत्मा का प्रयोगशाला ही अध्यात्म है इस सम्पूर्ण विश्व मे रहने वाला मनुष्य किसी न किसी प्रकार से दुःख में जी रहे हैं ऐसे बहुत कम ही मनुष्य है जो सम्पूर्ण आनंद में स्थिर है और जीवन में आनंद नही होने के कारण मन में घबराहट उत्पन्न होता है यही घबराहट मन का बंधन है और मन में भाव उत्त्पन होते है जिससे सही या गलत को जान नही पाते और इस जगत में विचरते रहते है।
मनुष्य का मन ही बंधन और मुक्ति का कारण हैं अतः यह समझा जा सकता है कि यदि मन व्यवस्थित किया जा सकता है तो आत्मा और परमात्मा की सारी समस्याओ का समाधान हो सकता है। मनुष्य की बुद्धि प्रकृति का वरदान है जिसकी योग्यता मनुष्य को सृस्टि मे श्रेष्ठ वाना देता है यह मानना होगा की मनुष्य को भी सृस्टि की सीमा मे रह कर नियमो द्वारा निर्धरित क्रमवद्ध प्राणी-धर्म निभाना होता है। जन्म, मृत्यु, वृद्धि व्याधि, जरा,की प्रक्रिया निर्दिष्ट है इन घटनाओ का हम स्वेच्छा से चयन नहीं कर सकते। हम शेष सिमित क्षेत्र मे जीवन और उसकी घटनाओ को संवार सकते हैं, उसी ओर हमारा ध्यान और प्रयास अपेक्षित हैं। स्वीकार्य भाव जो क्षेत्र हमारे सीमा से बाहर है जिन घटनाओ जैसे आती है, उसे वैसे ही स्वीकार करना है उसके प्रति मन के स्तर पर प्रोत्साहन स्वीकार्य भाव जागृत करना होगा।
इन सब समाधानों की पुष्टि अध्यत्म है स्वयं का अध्ययन, अर्थात आत्मा का अनुसन्धान। मै "स्वयं" जगत और उसके नियंता की जिज्ञासा, जीवन जीने की कला जीवन्मुक्ति एव मोक्ष है, मोक्ष क्या है, उसके साधन क्या है, मृत्यु की समझ आदि इस मार्ग पर चलते-चलते हमारे लिए सुगम हो जाता है। आत्म-तत्व अथवा आत्मा और परमात्मा से सम्वद्ध अध्यात्म है।आत्मैवेदं सर्वम् अर्थात सब कुछ आत्मा ही आत्मा है और इसको जाने बिना मुक्त जीवन संभव नहीं है।
आत्मा को जान कर ही मृत्यु से पार जा सकते है अन्य कोई मार्ग नहीं है। यह सब जानते है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, चिंता, भय , ईर्ष्या, आदि प्रवृतिया हमारे मुक्त जीवन के मार्ग को रोके रहती है इन सब के मूल ने इच्छा अथवा कामना के भाव ही है। मै स्वयं का भाव होने पर ही कामना ना संकल्प उत्पन्न करती है अपूर्ण होने पर अथवा प्रतिकूल होने पर भाव उत्पन्न होता है और अधिक की भोग इच्छा लोभ उत्पन्न करती है|इच्छित फल प्राप्ति से मोह उत्पन्न हो जाता हैं, जो मेरे की भावना सुदृढ़ करता है। उसके समाप्त होने की चिंता भय उत्पन्न करती है इच्छित वस्तु अन्य को प्राप्त होने से भय ईर्ष्या का उत्पन्न होती है। स्वयं का विचार ही सर्वोपरि है "मै" नहीं तो काम कौन करेगा, मृत्यु का भय भी "मै" के कारण ही होता है। "मै "का संसार से सम्बन्ध नहीं रहता तो जीना कौन चाहेगा !
कर्म के माध्यम से मै आत्मा से परमात्मा तत्व को महसूस किया जाता है कि कर्म मार्ग को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गृहस्थ व्यक्ति के लिए कर्म अधिक उपयुक्त है। हम में से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी काम में लगे हुए हैं, और यह शरीर प्रकृति का भाग है इस लिये हम कर्म के रहस्य को नहीं जानते हैं। लेकिन उसके द्वारा किया गया कर्म भी प्रकृति के नियंता के लिये हैं समर्पण भाव कर्म फल से भी मेरा कोई लेना देना नहीं, यही कर्म योग कहलाता हैं। जब मै कर्ता नहीं तो भोक्ता कैसे ? फिर कर्म फल का प्रश्न ही नहीं उठता। यही जीवन्मुक्ति की अवस्था हैं अहं की भावना से किया गया पाप कर्म या पूर्ण कर्म बुरा या अच्छा प्रभाव पड़ता हैं निःस्वार्थ भाव से किया गया कर्म निष्काम कर्म ही हैं |कर्म तो होंगे, लेकिन यह भी सच है कि दुख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है। कर्म करो, निष्काम कर्म करो। कर्मयोगी इस कारण से काम करता है कि कर्म करना अच्छा है और इसके पीछे कोई उद्देश्य नहीं है। कर्मयोगी कर्मों का त्याग नहीं करता और कर्मों को दुखों से मुक्त किया जाता है। और वह कभी भी कुछ पाने के लिए चिंतित नहीं होता है वह जानता है कि परमात्मा दे रहा है और बदले में कुछ भी नहीं मांग रहा है और यही कारण है कि वह दु:ख की स्थिति में नहीं आता है। वह जानता है कि दुःख का बन्धन 'मै ' स्वयं का परिणाम है। कर्म मार्ग को बहुत महत्व दिया गया है। भारतीय दर्शन में कर्म को बंधन का कारण माना जाता है। लेकिन कर्म मार्ग में, कर्म का जो रूप तैयार किया गया है, वह बंधन का कारण नहीं है। जब तक शरीर हैं तब तक किस भाव से कर्म किया जा रहा है।
कर्म सिद्धांत का यह सामान्य नियम है कि हमें वही फल मिलते हैं जो हम करते हैं। इस नियम के अनुसार, शुभ कर्मों का फल अच्छे और बुरे कर्मों के प्रभाव के लिए अशुभ होता है। इसी प्रकार सुख और दुख को भी क्रमशः हमारे शुभ और अशुभ कार्यों का फल माना जाता है। जो ऐसे कार्यों से युक्त होते हैं, अब प्रश्न यह है कि कौन से कर्म बंधन उत्पन्न करते हैं और कौन सा नहीं? कर्म परमात्मा के लिए होता हैं, तो वे बंधन उत्पन्न नहीं करते हैं। और पूर्ण परमानन्द को प्राप्त करने में सहायक हैं। इस प्रकार, परमात्मा के लिए कर्म करना, वास्तव में कर्म योग है और इसके अनुसरण से मनुष्य को मुक्ति प्राप्त होता है ज्ञान मार्ग, भक्ति मार्ग और कर्म मार्ग मेँ कर्म मार्ग को अधिक श्रेष्ठ माना गया हैं। कर्म करने ही हैं जब तक शरीर हैं किस भाव से कर्म किया जा रहा हैं केवल कर्म को छोड़ने के कारण, मनुष्य को सिद्धि या परमान्द नहीं प्राप्त होती है। मनुष्य एक क्षण भी कुछ किए बिना नहीं रहता। फिर भी वे कर्म में लगे हुए हैं।
यदि वे कार्य नहीं करते हैं, तो व्यक्ति को मिथ्या आचरण करने वाला कहाँ गया हैं। कर्म करना मनुष्य को कहाँ गया हैं यह लोगों की स्थिति के लिए अनिवार्य हैं जिसके बिना शरीर का निर्वाह संभव नहीं है अज्ञानी मनुष्य फल की आकांक्षा से कर्म करता है उसी प्रकार आत्मज्ञानी मनुष्य को लोकहित के लिए आसक्ति रहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न मनुष्य ही, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता।
जीवन अपना है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
हम स्वभावत: उसकी नकल करते हैं जो हमें अच्छा लगता है। उसके व्यक्तित्व से हम इतना प्रभावित रहते हैं कि उसकी जीवन शैली को अपना आदर्श बना लेते हैं। इसी के चलते हम अपनी रुचि को भी उसी के ऊपर थोप देते हैं।
ऐसा करने में हम यह भूल जाते हैं कि उसकी और हमारी शारीरिक और मानसिक क्षमता अलग - अलग है। हमें अपना जीवन अपनी सामर्थ्य के अनुसार जीना चाहिए। भोजन और वस्त्र क्या, हमारे अपने शरीर की मांग अपनी रुचि और अपनी पाचन शक्ति के अनुसार होना चाहिए।
यह ठीक है कि हम तभी सुंदर होंगे जब हम दूसरों को सुंदर लगेंगे। हमारे वस्त्र, हमारा आचरण कैसा लग रहा है - सुंदर है या असुंदर, यह दूसरे ही बता सकते हैं लेकिन हमें समयानुसार अपने को कैसे ढालना है यह हमारे ऊपर निर्भर होना चाहिए। दूसरों की दृष्टि महत्व पूर्ण होती है। परंतु अपनी रुचि भी कम नहीं होती। हम अपनी रुचि की उपेक्षा करके दूसरों की रुचि के अनुसार कैसे रह सकते हैं। इसके अलावा भी, हमें अपनी परिस्थिति देखनी पड़ती है। हमें अपने पैर अपनी चादर के अनुसार फैलाने चाहिए। यदि चादर थोड़ी कम लंबी है तो पैरों को थोड़ा सा समेटना आवश्यक होता है । दूसरों की मर्जी से तो उधार की जिंदगी जी जाती हैं।
अधिकतर ऐसा होता है कि हम दूसरों द्वारा निर्धारित मानकों के अनुसार जीने की कोशिश करते हैं। अपनी रुचि और स्वभाव को नजर अंदाज कर देते हैं। हमें दूसरों के विचारों का स्वागत करना चाहिए लेकिन अपनी जिंदगी को पराया बना कर नहीं। जब अपनी जिंदगी से हम ही खुश नहीं रहेंगे तो दूसरे कैसे खुश रह सकते हैं? इसलिए हमें जो रुचिकर लगे करना चाहिए, लेकिन अनुचित करने से बचना चाहिए।
जिंदगी हमारी है, इसे सुंदर कैसा बनाना है यह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। सभी लोग जानते है कि दूसरों की भलाई, दूसरों से प्रेम और सौहार्द और सहयोग अच्छा होता है। पर, दूसरे तो तब आते हैं जब हम अपनों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हों। अपने परिवार को यथोचित प्यार नदेकर यदि हम प्यार बाटतें फिरे तो लोग क्या कहेंगे। यह कैसा लगेगा कि हम अपने परिवार को भूखा छोड़कर दूसरों की भूख मिटाते फिर रहे हैं। क्या हमें अपनी अंर्तात्मा क्षमा करेगी?
जीवन सफल तभी होता है जब हम अपने परिवार को पूरी तरह संतुष्ट रखें। हमारे बारे में दूसरों की राय हमारे परिवार से बड़ी नहीं होती। श्रवण कुमार ने अपने माता - पिता को काँवर में बैठा कर तीर्थाटन कराने गए थे। उन्होंने दूसरों की हँसी या उनकी राय की परवाह नहीं की। इसलिए अपनी जिंदगी अपनी इच्छा के बिना किसी टकराव या तनाव के जीवन - यापन करिए , लेकिन इसके लिए किसी की ईच्छा को कुचलिए नहीं।
महिला सशक्तिकरण : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
स्त्री सशक्तिकरण को लेकर लंबे समय से बहस चल रही है। इसके लिए अनेक अभियान, जन-जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए गए। तमाम बहसों, गोष्ठियों में महिला और पुरुष में बराबरी के तर्क दिए जाते हैं। मगर हकीकत यह है कि महिलाओं के प्रति समाज के नजरिए में बहुत बदलाव नहीं आया है। उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता, घर की चारदीवारी में कैद करने का प्रयास किया जाता, लड़के और लड़की की परवरिश में भेदभाव किया जाता है। इसी तरह साहित्य और कलाओं में उसके सौंदर्य को ही मुख्य विषय बनाया जाता है, उसकी मेधा को नहीं। स्त्री का सबसे खराब पक्ष विज्ञापन और सिनेमा की दुनिया में देखा जाता है।
जब एक लड़की जन्म लेती है, तो भविष्य की एक मां, एक बहन और एक पत्नी जन्म लेती है। वह चिंता की तरह क्यों आए, चेतना की तरह क्यों नहीं? भारतीय समाज तो लड़की के जन्म को लक्ष्मी या सरस्वती का जन्म कहते हैं, वही लक्ष्मी, सरस्वती आगे चलकर परिवार में बोझ की तरह क्यों देखी जाती है? उसे हमारे बौद्धिक विमर्शों में समानता के नाम पर पुरुष-छवि देने की कोशिश की जाती है। पर वह पुरुष क्यों बने, प्रति-पुरुष क्यों नहीं, पुरुष से बेहतर क्यों नहीं? उसकी छवि को आंसुओं के आईने में ही क्यों देखा जाए, अग्नि-धर्मा के अग्नि-चैतन्य रूप में क्यों नहीं? कवि-लेखक उसका नख-शिख वर्णन ही क्यों करें, उसकी मानवीय संवेदना का क्यों नहीं। उसके अंदर के उस मर्म का क्यों नहीं, जो अपने पति या पिता को भी मातृत्व-भाव से देखती है, निस्वार्थ सेवा करती है। उसे कोई भी अंकशायिनी बना कर आनंदित या गर्वित क्यों होता है, उसे प्राणदायिनी या वीर-प्रसूता क्यों नहीं माना जाता? सच पूछा जाए तो वह सृष्टि है, सृष्टि पर कुदृष्टि का कोप क्यों, जबकि स्त्री पुरुष से अधिक मानवीय है।
एक लड़की परिवार में जैसे-जैसे बड़ी होती है, उसे संस्कार-दीक्षा दी जाती है। उसे एक अच्छी बेटी, अच्छी बहन, अच्छी पत्नी बनने के कई मंत्र दिए जाते हैं। यहां तक कि उसे पिता और पति के परिवार में एक निर्विरोध और आज्ञाकारी सेविका बनने की भी हिदायतें और मर्यादाएं सिखाई जाती हैं। मगर वह एक स्वतंत्र, स्वायत्त, स्वावलंबी, स्वाभिमानी और वक्त आने पर निर्भीकता पूर्वक अपनी आत्मरक्षा की शक्ति बनने की कोई शिक्षा नहीं दी जाती। एक लड़की को हम परिवार में शक्तिरूपा न मान कर, पराया धन मानते हैं और पति के परिवार के लिए तो वह मानवीय-धन भी न होकर दहेज-धन हो जाती है। कितनी मानसिक यंत्रणाओं और वर्जनाओं में जीना होता है एक लड़की, स्त्री या पत्नी, मां, बहन को! अगर वह नौकरी करती है तो नौकरी के संदेहों और लांछनों में भी क्या यही नारी का ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यंते’ रूप है? अगर उसकी पूजा में देवता का निवास है, तो पुरुष उसे पूजा का देवता बनने के बजाय उसका शोषक क्यों बन जाता है? वह देह से शोषित होती है, मन से शोषित होती है और अगर कमाती है तो कमाई से या दहेज से शोषित होती है। इतने शोषणों में जीते हुए स्त्री समाज की बनाई गुलामी की जटिल रस्सी से मुक्त हो तो कैसे! उसके लिए हर दिशा का दरवाजा या तो बंद है या वहां समाज का तथाकथित पहरेदार सिपाही बैठा है।
कितनी बड़ी विडंबना है कि स्त्रियों को लेकर एक ओर समानता और सशक्तिकरण पर राष्ट्रीय से लेकर अंतरराष्ट्रीय मंचों तक उत्तेजित और आक्रोशभरी बहसें होती हैं, जिनमें पढ़ी-लिखी, सजी-धजी, ऊंचे ओहदे या स्वदेशी-विदेशी संगठनों से जुड़ी विदुषियां शमिल होती हैं। कम्प्यूटर पर प्रेजेंटेशन बड़ी चमक-दमक के साथ दिए जाते हैं। स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक के पाठ्यक्रमों में स्त्री सशक्तिकरण के विषय शामिल किए जाते हैं। वे सब दिखावटी काम केवल ऐसी स्त्रियों के हैं, जो शहरी, संभ्रांत और अन्य मध्यवर्गीय जीवन जीती हैं और उनमें ऐसे पुरुष भी शरीक होते हैं, जो एनजीओ और तथाकथित प्रतिष्ठा-प्राप्त संस्थाओं के पदों पर रह कर दफ्तर में स्त्री का कभी अपमान करते हैं, तो कभी स्त्री के कथित यौन शोषण के आरोप से देश भर के मीडिया और सोशल मीडिया में रोचक समाचार बन जाते हैं। उनका बिगड़ता कुछ नहीं, स्त्री को ही बिगड़ने और बिगाड़ने का दोषी मान लिया जाता है।
स्त्री की शक्ति स्त्री के अपने होने में है। वह मां है तो उसके पास मां की ताकत है, वह बहन है तो बहन की ताकत है, जहां भी जो भी है वहां उसकी वही ताकत है। कमी है तो यह कि स्त्री इन ताकतों का सही समय और अवसर पर प्रयोग नहीं कर पाती या पुरुष वर्चस्व के समक्ष झुक जाती है। स्त्री उस पर पहनाए गए फैशनदार शब्दों के वस्त्र उतार फेंके और अपने मूल रूप में अपने अस्तित्व की पहचान के साथ खड़ी हो, पुरुष से अपने आर्थिक आधार का आधा हक छीन ले और शिक्षा में जितना शील और शालीनता का पाठ पढ़ती है उससे समाज में प्रचलित अश्लीलता और हिंसा को पराजित कर दे, घर से बाहर तक वह इस्पात की स्नायुओं के साथ खड़ी हो और पुरुष से डरने के बजाय अपने नैतिक बल से पुरुष को डरा सके, तभी स्त्री सशक्त भी होगी, स्वतंत्र भी और उसके स्त्रीत्व का स्वाभिमान भी जाग्रत होगा। स्त्री अपने स्त्री रूप में पुरुष से अधिक सशक्त है, नैतिक रूप से भी और मानसिक रूप से भी। वह सशक्तीकरण के नाम की दया पर जीने के बजाय स्वयं शक्ति बन कर खड़ी होगी, तो कभी अशक्त नहीं रहेगी।
विफलता से ही सफलता की राह : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
आप को हर समय सफलता की उम्मीद होना निराशा का एक बड़ा कारण है। आप जो नौकरी में, रिश्तों में, आश्वासनों में, निश्चितता चाहते हैं, असफलता उसका एक आयाम है। जैसे सफलता याद रखने चाहते हैं, वैसे ही आप को कुछ असफलताओं को भी याद रखना चाहिए।
जीवन में असफलता, हमें सफलता से ज़यादा मिलती है। कौन ऐसा 'सफल' व्यक्ति है जिसने असफलता और तिरस्कार नहीं झेला होगा! जिनको हम दुनिया के सफल व्यक्ति मानते हैं, उनकी कहानी भी रिजेक्शन और असफल प्रयास की बुनियाद पर खड़ी होती है। फिल्म इंडस्ट्रीज से लेकर प्रशासनिक सेवा में सफल रहे लोगों ने असफ़लता का सामना किया है।
हमें जब भी कोई बड़ी निराशा होती है, हम सोचते हैं ऐसा हमारे ही साथ हुआ है, जबकि ऐसी बात नहीं है। आप लोगों के जीवन में झांक कर देखें, जो लोग आपको ज़्यादा खुश दिखते हैं, उनसे बात कर के हमको पता चलेगा, उन्होंने कितने पापड़ बेले हैं! तो ये रिजेक्शन, हम को और रचनात्मक होने, ऊर्जावान होने और बड़े कैनवास पर, काम करने के लिए प्रेरित करता है। जिसने असफलता को महूसस किया है, जो रिजेक्शन को याद रखता है, वो अक्सर दूसरों की इज्जत और मदद ज्यादा करता है। दूसरों को अपना दुःख बताने की बजाए, उनकी बातें सुनता है, हौसला देता है कि- 'सब ठीक हो जायेगा'! हर एक चीज में कुछ सकारात्मक ढूंढने से नकारत्मकता से बचा जा सकता है।
असफलता से लोग गंभीर निराशा में चले जाते हैं। सफल लोगों की असफलता और रिजेक्शन की कहानी, दूसरों के लिए एक प्रेरणा बन सकती है। एक ऐसे समय में जब कॉलेज और यूनिवर्सिटी के छात्र, अपनी एक असफलता और असफल होने की अशंका मात्र से हताशा के शिकार हो रहे हैं उनके शिक्षक उनके लिए प्रेरणा बन सकतें हैं। इससे दूसरों को निराशा से उबरने में मदद मिलेगी।
तो चलिए, अपनी कुछ असफलता को जग ज़ाहिर करें, दूसरे युवा लोग, जो आप को सफल समझते हैं, उनको लड़ने और संघर्ष करने की प्रेरणा मिलेगी। रिजेक्शन को स्वीकार करें, गले लगाएँ क्योंकि सफलता के शिखर पर भी कुछ कमी रह जाती है और एक असफलता भी जीवन को कुछ कदम आगे बढ़ा देती है। दुनिया में ऐसे उदहारण भरे पड़े हैं जिन्होंने, कुछ असफलताओं के बावजूद, बुलंदियों को छुआ है। आप भी मुट्ठी तान के खड़े हो जाइये, दुनिया आप का लोहा मानेगी।
भारतीय संस्कृति की मान्यताएं एवं नैतिक मूल्य : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
स्वभाव की गंभीरता, मन की समता, संस्कृति के अंतिम पाठों में से एक है और यह समस्त विश्व को वश में करने वाली शक्ति में पूर्ण विश्वास से उत्पन्न होती है।
अगर भारत के संदर्भ में बात की जाए तो भारत एक विविध संस्कृति वाला देश है, एक तथ्य कि यहाँ यह बात इसके लोगों, संस्कृति और मौसम में भी प्रमुखता से दिखाई देती है। हिमालय की अनश्वर बर्फ से लेकर दक्षिण के दूर दराज में खेतों तक, पश्चिम के रेगिस्तान से पूर्व के नम डेल्टा तक, सूखी गर्मी से लेकर पहाड़ियों की तराई के मध्य पठार की ठंडक तक, भारतीय जीवनशैलियाँ इसके भूगोल की भव्यता स्पष्ट रूप से दर्शाती है। एक भारतीय के परिधान, योजना और आदतें इसके उद्भव के स्थान के अनुसार अलग-अलग होते हैं।
भारती संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग-अलग है। यहाँ के लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं, अलग-अलग तरह के कपडे़ पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं किंतु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। चाहे कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं। एक त्यौहार या एक आयोजन किसी घर या परिवार के लिये समिति नहीं है। पूरा समुदाय या आस-पड़ोस एक अवसर पर खुशियाँ मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेल-जोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर और वधु बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे उनकी संस्कृति या फिर धर्म का मामला क्यों न हो। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस-पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निंरतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयेाग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप-महाद्वीप में प्रचलित ये, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौथी सहस्राब्दि बी.सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
संस्कृति के शब्दिक अर्थ की बात की जाए तो संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है। अत: संस्कृति का साधारण अर्थ होता है- संस्कार, सुधार, परिवार, शुद्धि, सजावट आदि। वर्तमान समय में सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे का पयार्य माना जाने लगा है लेकिन वास्तव में संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग होती है। सभ्यता में मनुष्य के राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, प्रौद्योगिकीय व दृश्य कला रूपों का प्रदर्शन होता है जो जीवन को सुखमय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जबकि संस्कृति में कला, विज्ञान, संगीत, नृत्य और मानव जीवन की उच्चतम उपलब्धियाँ सम्मिलित है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है जिसमें बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। इसके साथ ही यह अपने-आप को बदलते समय के ढालती भी आई है।
अगर भारतीय संस्कृति के समन्वित रूप पर विचार करें तो इसमें विभिन्न विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। भारतीय संस्कृति में अध्यात्म एवं भौतिकता’ में समन्वय नजर आता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल में मनुष्य के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्ध, काम, मोटर्स एवं चार आश्रमों- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास का उल्लेख है, जो आध्यात्मिकता एवं भौतिक पक्ष में समन्वय लाने का प्रयास है। उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति ने अनेक जातियों के श्रेष्ठ विचारों को अपने में समेट लिया है। भारतीय संस्कृति में यहां के मूल निवासियों के समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण भी यहां की संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। अरबों, तुर्कों और मुगलों के माध्यम से यहाँ इस्लामी संस्कृति का आगमन हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति ने अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखा और नवागत संस्कृतियों की अच्छी बातों को उदारतापूर्वक ग्रहण किया। आज हम भाषा, खानपान, पहनावे, कला, संगीत आदि हर तरह से गंगा-जमुनी तहजीब या यूँ कहें कि वैश्विक संस्कृति के नमूने हैं। कौन कहेगा कि सलवार-सूट ईरानी पहनावा है या हलवा, कबाब, पराठे, ‘शुद्ध भारतीय व्यंजन नहीं हैं।
भारतीयों ने गणित व खगोल विज्ञान पर प्रामाणिक व आधारभूत खोज की। शून्य का आविष्कार, पाई का शुद्धतम मान, सौरमंडल पर सटीक विवरण आदि का आधार भारत में ही तैयार हुआ। तात्कालिक कुछ नकारात्मक घटनाओं व प्रभावों ने जो धुंध हमारी सांस्कृतिक जीवन-शैली पर आरोपित की है, उसे सावधानी पूर्वक हटाना होगा। आज आवश्यकता है कि हम अतीत की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजें और सवारें तथा उसकी मजबूत आधारशिला पर खडे़ होकर नए मूल्यों व नई संस्कृति को निर्मित एवं विकसित करें।
उचित मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्रतिभा को निखारता है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
जब विद्यार्थी सफलता का मुकाम हासिल करना चाहता है, या अपने जीवन को सफल करने के लिए जो उड़ान भरना चाहता है। उससे पूर्व अभिभावक व शिक्षक उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन उसके प्रतिभा को अवश्य ही निखारता है।
अभिभावक व शिक्षक छात्रों के सुनहरे भविष्य के लिए उचित मार्गदर्शन दे सकते हैं। जिससे छात्रों के शरीर के अंदर, ऊर्जा उत्साह, जोश, एवं जुनून का संचार उत्पन्न होता है। जिससे विद्यार्थी जीवन में सफलता प्राप्त होता है।
हमेशा से ही देखा गया है कि छात्रों को विषय का चुनाव सही ढंग से नहीं कर पाते। कई छात्र-छात्राओं को देखा गया है कि बिना सोचे समझे विषय का चुनाव कर लेते हैं। बहुत सारे विद्यार्थी अपने दोस्तों, रिश्तेदार, भाई बहन को देखकर विषयों का चुनाव करते हैं। फिर बाद में उनको समझ आता है कि विषय का चुनाव गलत हो गया। बहुत से छात्र अपने अभिभावक या माता-पिता के दबाव में आकर विषय का चुनाव करते हैं। जिसके फलस्वरूप छात्रों को आगे चलकर वह विषय बोझिल या उबाऊ लगने लगता है। कई छात्र-छात्राओं एक दूसरे के देखा देखी में विषयों का चुनाव करते हैं। जिस कारण उनको आगे समझ में नहीं आता या समझना मुश्किल हो जाता है।
जिस विद्यार्थी ने अपने विषय का चुनाव सोच समझ कर लिया है या उस विषय में वह ज्ञान या रूचि रखता है, तो वह विद्यार्थी हमेशा ही सफल होगा।
अभिभावक एवं शिक्षक को छात्रों एवं विद्यार्थियों को बीच-बीच में उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन देते रहें, ताकि अभिभावक एवं शिक्षक को यह पता चलता रहे, कि विद्यार्थी लक्ष्य प्राप्त करने में सक्षम है या नहीं। अगर नहीं, तो विद्यार्थी को उचित मार्गदर्शन करने की जरूरत होता है। ताकि उचित मार्गदर्शन से छात्र अपने जीवन में लक्ष्य की प्राप्ति कर सके।
हमारे समझ से उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन अपने बच्चों को शुरुआती दिनों यानी 3 से 5 वर्ष के उम्र में ही शुरू करना चाहिए ताकि आगे अपने जीवन में हमेशा ही सफलता के मुकाम को हासिल कर सके।
लेकिन एक और बात यह है कि कोई जरूरी नहीं है कि 3 से 5 वर्ष के उम्र ही हो। आप जब चाहे तब से ही अपने बच्चों या छात्रों को उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। वहां मैं कम उम्र इसलिए कहा कि बच्चें को शुरुआत से ही उचित मार्गदर्शन देते रहे तो अपने जीवन में हर समय क्रियाशील रहेंगे।
अधिकांशतः विद्यार्थी 10वीं परीक्षा के बाद ही अपने लक्ष्य या सफलता को लेकर चिंतित रहते हैं। इस समय अभिभावक एवं शिक्षक को मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन नितांत ही आवश्यक है और समय उचित सलाह देना जरूरी होता है, क्योंकि बहुत सारे विद्यार्थी को उचित मार्गदर्शन प्राप्त न होने के बावजूद वह गलत रास्ते पर चल पड़ते हैं तथा विद्यार्थी अपने नैतिक पतन की ओर चल देते हैं। वे अपने जीवन जीने के लिए गलत तरीकों को अपनाते चले जाते हैं। इससे अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं। इसलिए ऐसे समय में हर अभिभावक एवं शिक्षक को बच्चों एवं छात्रों को उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन देना अति आवश्यक है।
उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्रतिभा को निखारता है। हमें अपने बच्चे एवं विद्यार्थी को बचपन से ही उचित मार्गदर्शन देना चाहिए। ताकि भविष्य में अपने जीवन को उस ऊंचाई पर ले जा सके। जहां से पीछे दिखने पर सभी छोटे या बौने रूपी दिखें। शिक्षक का कार्य केवल यह नहीं है कि शिक्षा देना, अपितु विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास हो। अगर विद्यार्थी का सर्वांगीण विकास होगा। तब विद्यार्थी का जीवन सफल होता है। उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्रतिभा को निखारता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि उचित मार्गदर्शन एवं प्रोत्साहन प्रतिभा को निखारता है। यह निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
आलस्य एक अभिशाप : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
किसी कार्य को करने की आवश्यकता होने पर तथा उस कार्य को करने में सक्षम होने के बावजूद भी यदि कोई इन्सान उस कार्य को करने के स्थान पर अलग अलग प्रकार के बहाने बना कर उस कार्य को टालना चाहता है। तो वह उसका आलस्य होता है।
आलस्य इंसान के जीवन का ऐसा विकार है। जिसे इंसान जानते हुए भी कि उसके सभी कार्यों के सर्वनाश का कारण उसका आलस्य है।फिर भी अपने आलस्य का त्याग नहीं करता। आलस्य करने से सबसे अधिक नुकसान इंसान का अपना खुद का होता है। क्योंकि समय किसी का इंतजार नहीं करता है। वही आलस्य से समय व्यतीत होने का ही नुकसान होता है।
कभी-कभी आलस्य इंसान के जीवन का कलंक बनकर रह जाता है। कोई ऐसा कार्य जिससे उसे जीवन में भरपूर सुख एंव वैभव प्राप्त हो सकता था। उसका सम्पूर्ण जीवन खुशियों से भर जाता है। वह उसके आलसीपन की वजह से होने वाली देरी के कारण सम्पन्न ना हो सका हो।वह दुःख आलसी इंसान को जीवन भर पछताने के लिए छोड़ देता है। इंसान के जीवन में आलस्य से होने वाले नुकसानों में सबसे पहला नुकसान उसके शिक्षा ग्रहण के समय किया गया आलस्य होता है। क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही सम्पूर्ण जीवन की प्रगति का आधार होता है। इंसान जितना अधिक शिक्षित होता है। वह जीवन में उतनी ही बुलंदियां प्राप्त कर सकता है। यदि वह अपने आलस्य के कारण शिक्षा का अनादर करता है, तो उसके जीवन में प्रगति के सभी रास्ते बंद होते जाते हैं। इससे उसका जीवन अभाव पूर्ण एंव कठनाइयों से व्यतीत होता है।
कार्य सेवा अथवा व्यापर करते समय आलस्य इन्सान को पतन की ओर ले जाता है। क्योंकि व्यापर में ग्राहक किसी व्यापारी का इंतजार नहीं करता व्यापारी को ग्राहक का इंतजार करना पड़ता है। आलस्य में व्यापर चौपट होना अथवा उसमे हानि होना तय होता है। आलसी को कार्य सेवा से कार्य प्रबन्धक या मालिक निकाल बाहर करते हैं। क्योंकि पगार के बदले में उन्हें अपना कार्य सम्पन्न चाहिए किसी के आलस्य से उनका कोई लेना देना नहीं होता।आलस्य किसी भी प्रकार का हो वह सिर्फ हानिकारक ही होता है। परिवार के कार्यों एंव सदस्यों के प्रति आलस्य के कारण उदासीनता से परिवार के सदस्य धीरे धीरे साथ छोड़ने लगते हैं। इंसान के मित्र सम्बन्धी एंव रिश्तेदार भी मेल मिलाप तथा उनके कार्यों के प्रति जागरूक होने पर ही सम्बन्ध रखते हैं। रिश्तों में आलस्य खटास उत्पन्न करता है तथा रिश्ते टूटने की कगार पर पहुंच जाते हैं। पड़ोसी व समाज के प्रति उदासीनता से सम्बन्ध समाप्त होना स्वभाविक प्रकिर्या है क्योंकि किसी भी प्रकार के सम्बन्ध को बनाए रखने के लिए उसमे गर्मजोशी रखना आवश्यक है। स्वास्थ्य के प्रति आलस्य से बीमारियां स्वयं आकर शरीर को पकड़ लेती हैं। जो जीवन भर साथ निभाती हैं। वही मृत्यु होने तक पीछा नहीं छोडती,सिर्फ जागरूक इन्सान ही स्वास्थ्य पूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं। क्योंकि आलसी इंसानों का जीवन दवाइयों के सहारे व्यतीत होता है।
इंसान के आलस्य का सबसे बड़ा कारण उसके मन की कमजोरी है। जो अपने भविष्य को अनदेखा करके अपने आप से शत्रुता करता हो, वह संसार का सबसे बड़ा मूर्ख होता है। इंसान कार्य करने से नहीं थकता बल्कि मन से थकता है।मन का थका संसार का सबसे बड़ा आलसी होता है। जो इन्सान अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता है। वह जीवन की मुश्किलों से कैसे लड सकता है। अपने मन पर अधिकार करके दृढ इच्छा शक्ति से संसार पर विजय प्राप्त की जा सकती है। जिसे संसार के अनेकों इंसानों ने प्रमाणित किया है। समय की गति बहुत तीव्र है। जो समय का सम्मान नहीं करता है। वह अभाव पूर्ण एंव संघर्ष पूर्ण जीवन व्यतीत करता है। समय का सम्मान करने से समय इंसान का सम्मान खंडित नहीं होने देने के साथ ही उसे प्रगति प्रदान करता है ।