हिंदी आलेख संग्रह (2) : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
Hindi Articles (2) : Praful Singh "Bechain Kalam"
एक भावनात्मक रिश्ता : सूखा पेड़ और मैं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
मुझे वो पेड़ उस पार्क में सबसे खूबसूरत चीजो में से एक लगता है। बहुत सारी टहनियां निकली हुई है जिसे पार्क वालो ने एक अच्छा आकार दे दिया है। पतों ने कब का साथ छोड़ दिया है उस बेचारे का। देखने में वो बिल्कुल उम्र के आखिरी पड़ाव में लगता है। नीचे से बिल्कुल फैला हुआ और टूट टूट कर झड़ते उसके अपने ही अंग के मलबे बिखरे पड़े से है। इतने टूटने के बाद भी उसका अभिमान अभी भी जीवित जान पड़ता है। आस पास के हरे भरे पेड़ और उनके पास लगने वाले लोगो और चिड़ियों के हुजूम को देख कर भी ये कभी अपनी ब्यथा पर नहीं रोता है। तभी तो बिना रख रखाव और बिना महफ़िलो के भी अकेले तन कर खड़ा हुआ है। हाँ नीचे जमीन पर कुछ हरे भरे घास की संगत पाकर और उन्हें देखकर, ये भी कभी कभी अपनी बालपन से हो आता है। बगल में एक लाइट लगी हुई है जो अँधेरा होते ही इसे अपने बाहों में जकड लेती है और इसके खूबसूरती को एक नया आयाम देती है। ठीक जमीन से जहाँ इसका मिलन हुआ है वहाँ इसके चारों तरफ की गोलाकार जमीन पर मिट्टी का बसेरा है जो आँधियों से संघर्ष कर कही दूर चली गयी है और जमीन भी बिलकुल चिकनी शांत जान पड़ती है जिसमे कोई हलचल नहीं। यानी की पास की जमीन भी उस सूखे पेड़ के पडोसी होने का पूरा फर्ज अदा करती है। हाँ एक गिलहरी आती है उस जमीन से होते हुए उस सूखे पेड़ से मुलाकात करने और थोड़ी शरारत कर चली जाती है। बगल के घास को मिली हुई पानी का कुछ कतरा उस जमीन से होकर सूखे पेड़ से मिलना चाहता है पर जमीन कमबख्त बिच की दिवार जो उस पानी को बार बार सोख लेती है और पानी के उस कतरा और उस तन्हा पेड़ का मिलन तड़प बन कर दम घोट देता है। अरे ये क्या एक पतंग कब से इस पेड़ के टहनियों पर झूल रहा है। उसके भी चिथड़े हो गए है वो भी किसी काम का न रहा तभी तो उसके खोज में कोई टोली नहीं आई। हो सकता उसपर भी इस पेड़ के ही संगत का असर हो गया हो। या फिर पेड़ के तन्हाई के किस्से सुनकर वो पतंग बिखर गया हो और खुद को उसके हवाले सौप दिया हो। हवा चल तो रही है पर उस हवा के चलने का एहसास इस पेड़ के नीचे भला कहा होगा। बारिश आती है तो उनके बून्द को भी थोड़े देर के लिए कैद नहीं कर पाता। चाहता है बूंदों को समेटना पर उसके सूखे टहनियों से फिसल जाती है हर बार। कभी कोई इश्क़ करने वाले जोड़े भी नहीं आते क्योंकि छाँव भी नहीं देता न उन्हें। हो सकता है इश्क़ को समझ गया हो, इस वजह से ऐसे जोड़ो को पनाह नहीं देता हो। बगल से ही करीब 10 फ़ीट दूर से एक पगडण्डी गुजरती है जिसपर लोग अक्सर टहलते रहते है। हर कोई उस पगडण्डी से तेजी से निकल जाता है। कभी कभी कोई देख भी ले पर किसी को इस सूखे पेड़ से हमदर्दी नहीं होती और कोई भी अपना थोड़ा समय भी उस पेड़ के नाम नहीं करना चाहता।
मैं अक्सर हर दिन उसी पेड़ के नीचे बैठ जाता हूँ। पेड़ के नीचे ही चार पत्थरो के बेंच लगे हुए है। जो अक्सर खाली रहते है। शाम को मेरे बैठने से ही शायद उसकी तन्हाइयो में खलल पड़ता है। हाँ कभी कभी कुछ दादाजी लोग बैठ कर माहौल को गुलजार कर देते है। अपने तोतले आवाजो से तो ताश के पतों के साजो से। मैं भी अक्सर बैठ कर घूरता रहता हूं उसे। शाम ढलने पर कुछ पंछी के जोड़े उस सूखे पेड़ से दिल लगाने की गुस्ताखी कर लेते है। पर वो भी कब तक, दूर दिख रही ढेर सारे हरे पेड़ और उनके संगीत उन पंछी जोड़ो को अपने तरफ आकर्षित कर लेते है। और वो परदेसी दो पलो में ही उड़ जाते है। सुखा पेड़ तब भी कुछ नहीं बोलता। हाँ मेरा घूरना शायद उसे अजीब लगता हो। तभी तो कभी कभी मुझसे सवाल कर बैठता है कि मेरे पास अच्छा वक़्त नही बिताने को जो उसके तन्हाईयो को बाँट रहा हूँ। मैं कुछ नहीं बोल पाता । वो मुझे घूरता है मैं उसे। वक़्त कमबख्त वक़्त शायद उसे तो रुकना आता ही नहीं, तभी तो मुझपर बार बार चिल्ला रहा है। फिर क्या सारी भावनाओ को समेट अपने आशियाने की तरफ चल ही देते है। पर एक तार और है जो मुझे रोक रहा है जाने से जो मेरे और उस पेड़ के भावनाओ का तार है। पर नियति को कौन टाल सकता है। मैं दिल पर पत्थर रख चल ही देता हूं, खुद को समझाते हुए की कल फिर से रूबरू होना ही है। मैं उस पेड़ से पार्क के दरवाजे तक सिर्फ पेड़ को देखते रहा और वो मुझे। जाना मैं भी नहीं चाहता था और पेड़ भी मुझे नहीं जाने देना चाहता था पर जुबान पर दोनों के ताले लगे थे। और इसी ख़ामोशी से हम दोनों एक दूसरे से दूर होते गए। दुरी बढ़ती गयी, सन्नाटा बढ़ते रहा, तस्वीर धुंधली होती गयी और जुदाई का बोझ। काश वो पेड़ मेरा आशियाना होता या मेरा कमरा वो पार्क।
एक अन्जान, बेमेल, सच्चा, पवित्र और बहुत गहरा रिश्ता है ये। शायद हमारे आज के समाज में हमारे बुजुर्गों के हालात भी बिल्कुल उस सूखे पेड़ की तरह ही हो गए है, जिनके आखिरी पड़ाव में कोई साथ नहीं होता।
निद्रा से स्वप्न तक की यात्रा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
निद्रा और स्वप्न का ज्ञान बड़ा रोचक है। हम रोज़ाना सोते हैं, पर हम कभी अपनी निद्रा को नहीं समझ पाते, उसे जान नहीं पाते, यह बड़ी विडंबना की बात है। यह ऐसे ही है जैसे किसी व्यक्ति के पास लाखों करोड़ों रुपये हों पर उसे उन्हें खर्च न करना आता हो और जो बड़ी दरिद्रता में अपना जीवन व्यतीत कर दे। अथवा जैसे किसी व्यक्ति के सामने छप्पन भोग हो पर उसे यह समझ ही न हो की वह भोजन है और उसे कैसे खाते हैं, और वह भूख से मरा जा रहा हो।
ऐसा ही हमारे जीवन के साथ है, हम सोते हैं पर हम निद्रा को नहीं जान पाते हैं। हम स्वप्न देखते हैं परन्तु स्वप्न क्या है, इसकी हमें कोई समझ नहीं होती है। यदि हम एक भी चीज को पकड़ कर बैठेंगे तो हम सो नहीं सकते। हमारी सभी पहचान, पुरुष-महिला, अमीरी-ग़रीबी, बुद्धिमानी-बेवकूफी, सब कुछ नींद में छूट जाती है। गहरी नींद में अमीर-गरीब, महिला-पुरुष का कोई अंतर नहीं रहता, हम अपनी सभी पहचान छोड़ देते हैं। हमारी सभी पसंद-नापसंद भी निद्रा में छूट जाती है। हम नींद में किसी को साथ भी नहीं ले जा सकते चाहे कोई हमारा कितना भी प्रिय क्यों न हो।
निद्रा में तुम अपनी सभी पहचान, राग-द्वेष, पसंद-नापसंद से परे होते हो, तुम्हें उन सभी को छोड़ना ही पड़ता है। जैसे तुम सब कुछ छोड़कर निद्रा में कुछ भी नहीं करते, केवल विश्राम करते हो, वैसे ही ध्यान में भी तुम सब क्रिया कलाप छोड़कर, पूर्ण विश्राम करते हो।
ईश्वर के लिए और अपने स्वयं के भले के लिए हम ध्यान में कुछ भी नहीं करते हैं। ध्यान में भी निद्रा के जैसे ही सब छोड़ देने से समाधि घटती है। अज्ञानी लोग अपने स्वप्न को यथार्थ में बदलना चाहते हैं परन्तु आत्मज्ञानी इस संसार की वास्तविकता को भी स्वप्न जैसे ही जानते हैं। स्वप्नों की विवेचना(विचार-विमर्श) करना बहुत बड़ा अज्ञान है, इस जीते जागते संसार का स्वप्न मात्र होने का एहसास ही आत्मज्ञान है।
स्वप्न का ज्ञान और सत्य के प्रति जागरूकता
तुम्हारा मन अधिकतर सपने में ही तो रहता है, या तो गहरी निद्रा में सो जाता है या स्वप्नावस्था में रहता है। कभी दिन में सपने देखता है कभी रात में, हवा में महल बनाता और बिखेरता रहता है, यही सिलसिला अधिकतर चलता रहता है। पर जिस भी क्षण तुम यह जान लेते हो कि अरे! यह तो सपना है। उसी क्षण एक सजगता आ जाती है, उसी क्षण ही तुम पूरी तरह से जीवंत होते हो, जागे हुए होते हो। बाकी समय निद्रा जैसी अवस्था बनी रहती है परंतु जैसे ही यह जाग्रति आ जाए कि अरे मैं तो गहरी नींद में था, तुम जाग उठते हो।
पतंजलि इस सूत्र में बड़ी सुंदरता से कहते हैं कि निद्रा का ज्ञान होते ही तुम जाग जाते हो। जब भी कोई सो रहा होता है, उसे यह पता ही नहीं होता कि वह सो रहा है, जिस क्षण में वह जानते हैं कि यह निद्रा थी, वो सो रहे थे, उसी क्षण वह जाग चुके होते हैं। जैसे कोई व्यक्ति दिन में सपने देखते हो, तब उन्हें पता नहीं होता की वह दिन में सपने देखते हैं। जैसे ही उन्हें यह पता चलता है की अरे मैं तो सपने देख रहा था, तुरंत उसी क्षण में वो जाग चुके होते है।
बादलों को भी धरती का आसरा है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
कृष्ण जब जन्मे तब रात अँधेरी थी लेकिन आकाश जलभरे बादलों से भरा हुआ था। काले-काले मेघों की पंचायत जुटी थी और काला अँधेरा उनसे मिल कर कृष्ण का सृजन कर रहा था। राधा उनकी वर्षा बनीं और कृष्ण बरस कर रिक्त हो गए। राधा भी बरस कर रिक्त हो गईं। काले मेघों की उज्जवल वर्षा ने बरस-बरस कर पृथ्वी को उर्वर बना कर रस से भर दिया।
मेघ हैं तो जल है। जल है तो जीवन है। जीवन है तो रस है। यह रस सूख रहा है इसलिए सब व्याकुल हैं। नदियों ने महान संस्कृतियों को जन्म दिया और संस्कृति-पुत्रों ने नदियों की धाराएँ मोड़कर, उन पर बाँध बना कर, उन्हें नहरों में बाँट कर उन्हें ऐसा निर्जल कर दिया कि अर्घ्य देने के लिए भी जल नहीं बचा! बनारस के दशाश्वमेघ घाट पर गंगा के भरे हुए जल को देखिए तो, संस्कृति की शव-यात्रा निकलती हुई दिखाई देती है। मथुरा-वृंदावन में राधा-कृष्ण की जमुना में आचमन के लिए भी जल नहीं है। महेश्वर में नर्मदा पर डूबता हुआ सूरज और पिघलती हुई शाम उदास कर देती है। नदियों को काट कर नहरें तो निकाल दी गईं लेकिन हम क्या किसी नदी को भी जन्म दे सकते हैं?
पहाड़ टूटे, जंगल कटे, नदियाँ बँटी और धीरे-धीरे सब सूखने लगा। वर्षा का वह नौसर्गिक संगीत जो पूरे भारत के जीवन में बजता और बहता था, धीरे-धीरे मौन होने लगा। लोग आबे-जमजम के पास पहुँच कर भी प्यास से मरने लगे। शब्द, जो सर्ग और निसर्ग की गाँठें खोलकर, हमारी जीवन-नौका पर पाल की तरह तन कर उसे बहाते थे और हवा की मार से हमें बचाते थे - उनके भीतर का जल भी सूखने लगा। प्रवाह रुक गया और नौका बालू में फँस कर रुक गई। जब प्रवाह रुकता है तो सब कुछ दृश्य बन जाता है। शब्द भी दृश्य बन गए। उन्हें देखकर जब आँखें भर जाती थीं तब वे रुक कर आँसू सूखने की प्रतीक्षा करते थे। दृश्य किसी की प्रतीक्षा नहीं करता, आगे बढ़ जाता है। सब कुछ दृश्य हो गया और अदृश्य के अस्तित्व पर संदेह होने लगा। सब मिटने लगा - गीत, नृत्य संगीत, साहित्य, संस्कृति और वह सब - जो जीवन की आपाधापी में हमें रस देता था, सांत्वना देता था, शक्ति देता था और वेदना-संवेदना और प्रार्थना से जोड़ता था इसलिए नदियाँ कंकाल होती गईं, जल के स्रोत सूखने लगे और पानी पर भी बाजार का कब्जा हो गया।
लोगों को दृश्य बनना था इसलिए अब मेघों की जरूरत नहीं रही। मेघ भी सूखने लगे। नीति-अनीत, राग-विराग सर्ग-निसर्ग सब बाजार के हवाले हो गए। जब जल सूखता है तो धरती भी बँटने लगती है। भाषा, क्षेत्र जाति, संप्रदाय के नाम सब कुछ बँटने लगा। मेघ जब उदास होते हैं तो कृष्ण का अंधकार और राधा का प्रकाश भी प्रवाह से दृश्य बन जाता है। तब भक्त तो विभक्त होते ही हैं, प्रकाश और अंधकार भी बँट जाते हैं।
मेघों से टूट रहा है हमारा संवाद। बँटे हुए जन-मन पर वे अब भी बरसते हैं लेकिन सातत्य के साथ नहीं, रुक-रुक कर। कहीं बाढ़ आकर सब बहा ले जा रही है, कहीं लोग प्यास से मर रहे हैं। अतिवृष्टि और अनावृष्टि - दोनों ओर प्रलय - मृत्यु-राग, बजा रहे हैं वही मेघ। उनके जल को ग्रहण करने के लिए हमारे पास जगह ही कहाँ है? अँजुरी भी कहाँ खाली है कि वे बरसें और सारे भेद मिटा कर सब एक कर दें।
थोड़ी जगह दें बादलों को उतरने के लिए। नहीं देंगे तो जल जीवन नहीं; जहर बनकर हमको मारेगा और बाढ़ बन कर हमारी बस्तियाँ बहा देगा। जगह देंगें तो बौछार, झड़ी और रिमझिम बन कर आस्था के कुंभ को भरता रहेगा।।
सभी भाषाओं की जननी है देवभाषा संस्कृत : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
“संस्कृत की उत्पत्ति और शुद्धता संस्कृत भाषा को देव – वाणी देव देवता वाणी भाषा कहा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इसे ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न किया गया था, जिन्होंने इसे आकाशीय निवास में रहने वाले ऋषियों ( ऋषियों ) को दिया था, जिन्होंने तब इसका संचार किया था “
हिंदू धर्म में संस्कृत को प्राचीन भाषा के रूप में माना जाता है, जहां इसका उपयोग हिंदू आकाशीय देवताओं और फिर भारत-आर्यों द्वारा संचार और संवाद के साधन के रूप में किया जाता था। जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म में भी संस्कृत का व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है। संस्कृत एक ऐसी भाषा है, जो इंडो आर्यन समूह की है और सभी भारतीय भाषाओं की नहीं बल्कि कई की जड़ है।
संस्कृत विश्व की सबसे प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण में विश्वभर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है। उसके व्याकरण को देखकर ही अन्य भाषाओं के व्याकरण विकसित हुए हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार यह भाषा कम्प्यूटर के उपयोग के लिए सर्वोत्तम भाषा है, लेकिन इस भाषा को वे कभी भी कम्प्यूटर की भाषा नहीं बनने देंगे।
आदिकाल में भाषा नहीं थी, ध्वनि संकेत थे। ध्वनि संकेतों से मानव समझता था कि कोई व्यक्ति क्या कहना चाहता है। फिर चित्रलिपियों का प्रयोग किया जाने लगा। प्रारंभिक मनुष्यों ने भाषा की रचना अपनी विशेष बौद्धिक प्रतिभा के बल पर नहीं की। उन्होंने अपने-अपने ध्वनि संकेतों को चित्र रूप और फिर विशेष आकृति के रूप देना शुरू किया । इस तरह भाषा का क्रमश – विकास हुआ । इसमें किसी भी प्रकार की बौद्धिक और वैज्ञानिक क्षमता का उपयोग नहीं किया गया।
संस्कृत ऐसी भाषा नहीं है जिसकी रचना की गई हो। इस भाषा की खोज की गई है। भारत में पहली बार उन लोगों ने सोचा-समझा और जाना कि मानव के पास अपनी कोई एक लिपियुक्त और मुकम्मल भाषा होना चाहिए जिसके माध्यम से वह संप्रेषण और विचार-विमर्श ही नहीं कर सके बल्कि जिसका कोई वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक आधार भी हो। ये वे लोग थे, जो हिमालय के आसपास रहते थे।
संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है जो पूर्ण हो और संस्कृत अपने आप में परिपूर्ण भाषा है। विश्व की सब से प्राचीन भाषा होने के साथ साथ संस्कृत समस्त भारतीय भाषाओं की जननी भी है। संस्कृत पूर्णतया वैज्ञानिक तथा सक्षम भाषा है जिसके व्याकरण में कोई भी त्रुटि नहीं है। संस्कृत भाषा के व्याकरण में विश्व भर के भाषा विशेषज्ञों का ध्यानाकर्षण किया है तथा उन के मतानुसार भी यह भाषा कम्प्युटर के उपयोग के लिये सर्वोत्तम भाषा है। संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है। इस भाषा को ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना कि लिये चुना क्योंकि इस भाषा के शब्दों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली हैं। इसी भाषा में वेद प्रगट हुये, तथा उपनिष्दों, रामायण महाभारत और पुराणों की रचना की गयी।
मानव इतिहास में संस्कृत का साहित्य सब से अधिक समृद्ध और सम्पन्न है। प्रत्येक व्यक्ति, जाति तथा राष्ट की पहचान उस की वाणी से होती है। आज संसार में इंग्लैण्ड जैसे छोटे से देश की पहचान एक साम्राज्य वादी शक्ति की तरह है तो वह अंग्रेजी भाषा की बदौलत है जिसे उधार ली भाषा होने के बावजूद अंग्रेज़ जाति ने राजनैतिक शक्ति का प्रयोग कर के विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित कर रखा है।
इसकी तुलना में इच्छा शक्ति और आत्म सम्मान की कमी के कारण संसार की एक तिहाई जनसंख्या होने के बावजूद भी भारतवासी अपनी तथाकथित ‘राष्ट्रभाषा’ हिन्दी को विश्व में तो दर अपने ही देश दूर में ही स्थापित नहीं कर सके हैं। हमारे पूर्वजों ने तो हमें बहुत कुछ सम्मानजनक विरासत में दिया था परन्तु यह एक शर्मनाक सच्चाई है कि हमारी वर्तमान पीढियाँ पूर्वजों दूारा अर्जित गौरव को सम्भाल पाने में असमर्थ रही हैं। उसी गौरव की एक उपलब्द्धी संस्कृत भाषा है जिस की आज भारत में ही उपेक्षा की जा रही है।
हम मुफ्त में अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है।
हमारे देश में तो इंग्लिश बोलना शान की बात मानी जाती है। इंग्लिश नहीं आने पर लोग आत्मग्लानि का अनुभव करते है और यही कारण है की आज हमारे देश के छोटे से छोटे शहर में भी जगह जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स के संस्थान चल रहे हैं।
भारत की सरकार और लोगों को भी अब जागना चाहिए और अंग्रेजी की गुलामी से बाहर निकाल कर अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। भारत सरकार को भी ‘संस्कृत’ को नर्सरी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करके देववाणी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहिए। केवल संस्कृत ही भारत के प्राचीन इतिहास तथा विज्ञान को वर्तमान से जोड़ने में सक्षम है। यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने समूल को स्वयं ही नष्ट कर देंगे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कड़ी है।
यदि आज हमने इस विषय पर ध्यान नहीं दिया तो वो दिन दूर नहीं जब हमे संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पड़ेगा।
अध्यात्म मंजिल नहीं बल्कि यात्रा है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
अध्यात्म बड़ा सहज है। फिर भी लोग मन में कई भ्रांतियां पाल लेते हैं कि कहीं आध्यात्मिक होने पर घर छोड़कर संन्यास लेना पड़ जाए, कहीं बैरागी न हो जाऊं, कहीं गृहस्थ धर्म न छोड़ दूं। अध्यात्म तो हमें जीवन जीना सिखाता है। जैसे कोई भी मशीन खरीदने पर उसके साथ एक मैन्युअल बुक आती है, ऐसे ही तन-मन को चलाने के लिए मैन्युअल बुक गीता आदि आध्यात्मिक शास्त्र और गुरु होते हैं जो हमें शरीर, इंद्रियों, मन, बुद्धि अहंकार का प्रयोग करना सिखाते हैं। घर-गृहस्थी में तालमेल बिठाना सिखाते हैं, समाज में आदर्श के रूप में रहना सिखाते हैं, मन को सुलझाना सिखाते हैं। अत: धर्म कोई भी हो, लेकिन सभी को आध्यात्मिक अवश्य होना चाहिए।
अब प्रश्र उठता है कि अध्यात्म का लक्ष्य क्या है? यह समझो जैसे आप कभी पहाडिय़ों पर घूमने जाते हैं। पहाडिय़ों पर मंजिल भी वैसी ही होती है, जैसा रास्ता। फिर आप रास्ते के साइड सीन का आनंद लेते हैं, हर सीन को देखकर प्रसन्न होते हैं, उसका मजा लेते हैं। फिर अंत में जहां पहुंचते हैं, वहां भी वही दृश्य पाते हैं। अत: रास्ते का ही मजा है। लॉन्ग ड्राइव में आप रास्ते का ही आनंद लेते हैं। अध्यात्म की यात्रा भी ऐसी ही होती है जिसमें रास्ते का ही सुख है।
अध्यात्म कहता है कि बीतते हुए हर पल का आनंद लो, उस पल में रहो, हर पल को खुशी के साथ जियो। हर परिस्थिति, सुख-दुख, मान-सम्मान, लाभ-हानि से गुजरते हुए अपने में मस्त रहो। द्वंद्वों में सम्भाव में रहो क्योंकि मुक्ति मरने के बाद नहीं, जीते जी की अवस्था है। जब हम अपने स्वरूप के साथ जुड़कर हर पल को जीते हैं, तब वह जीते जी मुक्त भाव में ही बना रहता है। अध्यात्म कोई मंजिल नहीं, बल्कि यात्रा है। इसमें जीवन भर चलते रहना है। यह यात्रा हमें वर्तमान में रहना और अभी में आनंद लेना सिखाती है।
यदि ‘अभी में’ रहकर उस आनंद भाव में नहीं आए तो कभी हम आनंद में नहीं आ पाएंगे और जब भी आएंगे, उस समय भी अभी ही होगा। वैसे हम पूरा जीवन अभी-अभी की शृंखला में जीते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक अभी-अभी-अभी में ही जीते हैं। फिर भी मन भूतकाल या भविष्य में ही बना रहता है और भूतकाल का दुख या भविष्य का डर या लालच में ही मन घूमता रहता है लेकिन जब हम अभी में आते हैं, उसी समय से हमारे जीवन में अध्यात्म का प्रारम्भ होता है और फिर हम इस अभी-अभी की कड़ी को पकड़ कर रखते हैं। इसलिए मुक्ति अभी में है, भविष्य में नहीं। अत: यदि हम जीवन भर अभी को पकड़ कर रखें फिर हम जहां हैं जैसे हैं, वहीं आध्यात्मिक हो सकते हैं।
अतीत और भविष्य के बीच वर्तमान का उपहार : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
("आज को न जीते हुए भविष्य की कल्पना से डरना और बीते हुए कल के बारे में दुखी रहना वास्तव में किसी के भविष्य को खराब कर सकता है। विद्यार्थियों को हमेशा वर्तमान पर फोकस रहना चाहिए")
वैज्ञानिक कथन है कि कल से सीखो, आज के लिए जीओ, कल के लिए सपने देखो और सबसे जरूरी बात कभी भी रुको मत। सचमुच सभी छात्र-छात्राओं का समय सपने देखने और उनको सच करने के क्रम में कल, आज और कल के बीच से गुजरता है। जो विद्यार्थी समय की कमी और बेहतर परफॉर्म न कर पाने की बात करते हैं, उनके लिए एक नुस्खा बताता हूं। आप सिर्फ एक हफ्ते तक रोजाना रात में सोने से पहले एक नोट पैड पर लिखें कि आपने कितने घंटे अतीत की दुखभरी बातों को याद करने में बिताए, भविष्य से चिंताग्रस्त रहे और कितने घंटे वाकई तन्मयता से अध्ययन में बिताए। सामान्यत: यह बात साफ तौर पर सामने आती है कि पास्ट और फ्यूचर की बातों में उनका ज्यादातर समय गुजर जाता है और उन्हें पता भी नहीं चलता। परिणाम स्वरुप अपने लक्ष्य के अनुरूप सकारात्मक सोच के साथ आज को जीने के लिए उनके पास समय कम पड़ जाता है।
हां, यह सही है कि किसी भी विद्यार्थी के लिए शायद ही संभव होगा कि वह दिनभर में कभी भी अतीत या भविष्य में विचरण न करें, लेकिन क्या यह मुनासिब नहीं है कि एक बार ठीक से अतीत और भविष्य यानी दोनों कल के विषय में अपना माइंड क्लियर कर लें? चलिए, अभी कुछ सोच-विचार कर लेते हैं। मजेदार बात है कि एक दिन पहले के आज को बीता हुआ कल है और एक दिन बाद आनेवाले आज को भी कल ही कहते है, लेकिन मतलब भविष्य होता है। यही न। तो साफ है कि दोनों कल वाकई आज ही था या होगा समय के एक अंतराल के बीच। महात्मा बुद्ध का कहना है कि मन और शरीर दोनों के लिए स्वास्थ्य का रहस्य यह है कि अतीत पर शोक मत करो और ना ही भविष्य की चिंता करो, बल्कि बुद्धिमानी तथा ईमानदारी से वर्तमान में जीओ।
तो छात्र-छात्राएं सर्वप्रथम यह संकल्प करें कि अभी से वे वर्तमान यानी प्रेजेंट में जीयेंगे। प्रेजेंट का एक अर्थ उपहार भी है और शायद इसी को रेखांकित करता है आज का समय। जो वाकई एक अमूल्य उपहार है। हां, इस संकल्प को हमेशा याद रखना है और मन ही मन दोहराना भी है। ऐसा इसलिए कि जब भी मन अतीत या भविष्य में जाए और निगेटिविटी के जाल में फंसने लगे तो वे प्रेजेंट में तुरंत लौट सकें। यहां इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि अतीत का पूरा समय बीते हुए वर्तमान का कुल योग होता है और भूतकाल के इस बड़े काल खंड में सभी विद्यार्थियों ने अनेक काम किए हैं और बहुत-सा अच्छा-बुरा अनुभव प्राप्त किया है। ये अनुभव उनके धरोहर हैं और आगे बहुत काम आने वाले हैं। अगर वे इनसे मिले सबक और सीख को वर्तमान में अर्थात आज उपयोग में ला सकें। अतीत की असफलताओं और गलतियों को सिर्फ याद कर निराश और दुखी होने का कोई फायदा नहीं। आगे वही गलती न करें तो कुछ बात बने।
दूसरा, अतीत की जो सफलताएं या अच्छी यादें आपके स्मृति में हैं, उन्हें अच्छी तरह संजो कर रखें। उन्हें जीवंत बनाए रखना आपको अच्छे कार्य में संलग्न रहने को उत्प्रेरित करता रहेगा। तीसरा यह कि भविष्य के लिए जो सपने देखें हैं या जहां पहुंचना चाहते हैं, उसके लिए एक प्रैक्टिकल और फुलप्रूफ कार्ययोजना तैयार करके चलें। यकीनन, इन्हें साधने के साथ-साथ छात्र-छात्राओं को आज पर पूरा फोकस करना होगा क्योंकि वे आज जो कुछ करते हैं, वही हकीकत है और सबसे अधिक अहम। महात्मा गांधी भी कहते हैं कि हमारा भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि हम आज क्या करते हैं। आपने यह भी सुना ही है कि काल करो सो आज कर, आज करो सो अभी। तो बस इस सिद्धांत को दृढ़ता से अपनाकर हर दिन को एक महत्वपूर्ण दिन मानें और फिर आज यानी वर्तमान के अच्छे कार्य व प्रयास को खूब एन्जॉय करते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में बढ़ते चलें। निसंदेह, सफलता और खुशी दोनों मिलेगी।
वर्तमान साहित्य में राष्ट्रीय सृजन : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
प्रत्येक देश का साहित्य अपने देश की भौगोलिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिस्थिति से संबद्ध होता है। साहित्यकार अपने देश की अतीत से प्राप्त विरासत पर गर्व करता है, वर्तमान का मूल्यांकन करता है और भविष्य के लिए सपने बुनता है और इस प्रकार कहा जा सकता है कि वह राष्ट्रीय आकांक्षाओं से परिचालित होता है।
राष्ट्रीयता को अंतरराष्ट्रीयता के परिप्रेक्ष्य में रखकर देखने की कोशिश की जानी चाहिए। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की मान्यता के आधार पर कहें तो साहित्य मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडलों से ऊपर उठाकर लोक सामान्य की भावभूमि पर ले जाता है, जहां जगत की विभिन्न गतियों के मार्मिक स्वरूप का साक्षात्कार और शुद्ध अनुभूतियों का संचार होता है।
भारत जैसे देशों के संदर्भ में राष्ट्रीयता के संदर्भ में कुछ दुविधाएं और हैं। भारत मिश्रित संस्कृतियों का संघ है अथवा यह भी कह सकते हैं कि वह कई राष्ट्रीयताओं का संघीकृत राज्य है। उपर्युक्त संदर्भ को भारत की आंतरिक समाज व्यवस्था पर घटाने का प्रयास करें तो भी स्थिति कुछ सहज नहीं होगी।
साहित्य अब सामाजिक सक्रियता की ओर बढ़ना चाहता है। परिवर्तन की अदम्य चाह में कवि ‘एक्टिविस्ट’ के तौर पर ‘कलम की ताकत’ को नई भूमिका में 21वीं सदी में प्रस्तुत कर रहा है। आज का समय उस दौर का साक्षी है, जहां मनुष्य के अमानवीकरण की गति में तीव्रता आई है। वैचारिक दृष्टि से समाजवाद का स्वप्न ध्वस्त हुआ है, तो यांत्रिक सभ्यता का कहर भी विद्यमान है। मानवता को खूंटियों पर टांग देने का प्रयास हो रहा हो। आज साहित्यकार को न केवल आक्रोश व्यक्त करना होता है, बल्कि वह उस विचारहीनता को चुनौती दे रहा है।
राष्ट्रीयता साहित्य सर्जना का महत्वपूर्ण पड़ाव है, पर आज राष्ट्रीयता को एक संकीर्ण अवधारणा के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है, विशेषकर उन पश्चिमी शिक्षा प्राप्त बुद्धिजीवियों द्वारा, जो औपनिवेशिक दासता को पीठ पर लादकर प्रसन्न हैं तथा राष्ट्र एवं राष्ट्रीयता के राजनीतिक आयाम को ही देखने के लिए अभिशप्त हैं। उत्तरदायित्वहीन हिंसा के स्वत:स्फूर्त क्रांति या साहसिकता को मूल्य नहीं देता है।
सभ्यताओं को जब ‘धर्म’ का पर्याय बनाकर प्रस्तुत किया गया है, तब अंधश्रद्धा ने मानवीय कटुता को जन्म दे दिया। कभी अत्यधिक मांग ने किसी का हक छीना तो ‘नक्सली’चिंताओं ने समाज की व्यवस्था पर प्रश्नचिह्न लगा दिए। जातीय उन्माद, प्रतिहिंसा के भाव और प्रतिशोध की चिंगारी लिए इस नई सदी का प्रवेश हुआ। आज का साहित्यकार आक्रोश का सर्जक होने के बावजूद अराजकतावादी मूल्यों का विरोधी है। वह संगठित व सुसंबद्ध सामाजिक क्रांति का समर्थक है।
विचारधारा का जितना तरल इस्तेमाल साहित्य में होगा, साहित्य उतना ही विशिष्ट होगा अन्यथा उसके प्रचार सामग्री बनने की भी संभावना बनी रहती है। रचनाकार राष्ट्रीयता को साहित्य-सृजन के लिए उपजीव्य के रूप में ग्रहण करता है तो यह कार्य स्तुत्य है। इस राष्ट्रीयता का अधिष्ठान सांस्कृतिक है, राजनीतिक नहीं।
वर्तमान कई साहित्यकारों ने देश के स्वरूप का मनोरम चित्र उपस्थित किया। किसी ने उसकी महिमा का गायन किया। अनेक रचनाओं में भारत के अतीत का गौरव और वर्तमान स्थिति की दुरावस्था का मार्मिक चित्र है। अनेक कविताओं में चुनौती, ललकार और गर्जना के साथ बलिदान की मानसिकता भी उभरी है। इन अनेक प्रकार की रचनाओं को राष्ट्रीय चेतना का मानने में कोई समस्या नहीं है। समस्या आजादी के वास्तविक सरोकारों की खोज करने वाली रचनाओं के साथ है।
राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने में आधुनिक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है। राष्ट्रवाद से सामुदायिक भावना का विकास होता है और लोकतांत्रिक भावना भी राष्ट्रवाद से समृद्ध होती है। देश की रक्षा, हित, संगठन, एक समाज के जातीय स्वरूप के विकास की आकांक्षा, कोशिश राष्ट्रीय चेतना का अविभाज्य अंग है।
यदि वर्तमान में हमने कुछ खोया है तो वह है- रिश्तों की बुनियाद। दरकते रिश्ते, कम होती स्निग्धता, प्रेम और आत्मीयता इतिहास की वस्तु बनते जा रहे हैं। राष्ट्रीयता का एक पक्ष है अपने अतीत की स्मृति। अतीत की स्मृति आत्मस्मृति है। विगत के प्रति सम्मोहन उसी समय होता है, जब हम परंपरा से विगलित हो जाते हैं... परंपरा का रिश्ता स्मृति से है, सम्मोहन से नहीं।
अपनी संस्कृति के प्रति गौरव-बोध वस्तुत: राष्ट्रीय अस्मिता का हिस्सा है और राष्ट्रीय अस्मिता राष्ट्रबोध का अभिन्न हिस्सा है। अज्ञेय का यह कथन युक्तियुक्त है- 'संस्कृतियों का संबंध अपनी देशभूमि से होता है।'
प्रगति, विकास, संस्कृति, इतिहास-भूगोल आदि की जड़ भाषा होती है और भाषा को समृद्ध साहित्य करता है और साहित्य प्रत्येक वर्तमान को कलात्मक एवं यथार्थ रूप में समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। मनुष्य चाहे जितनी प्रगति कर ले, विकास की डींगें हांक ले, सभ्यता का दंभ भरे, पर जब तक वह भीतर से सभ्य नहीं होता, तब तक मनुष्य की सही मायने में प्रगति नहीं हो सकती। बाहरी सभ्यता भौतिक प्रगति को दर्शाती है, तो भीतरी सभ्यता मानवता को, मानवीय मूल्यों के आदर्शों को परिलक्षित करती है।
समाज की आंतरिक और बाह्य प्रगति के लिए साहित्य हमेशा कल्पवृक्ष बना हुआ है। साहित्य की परिधि समाज का प्रत्येक हिस्सा रहा है। यहां किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहा है। जो अन्याय व अत्याचार का शिकार हुआ, साहित्य ने खड़े होकर पीड़ित के आंसू भी पोंछे हैं। साहित्य यही करता है।
साहित्य मनुष्य को बाहर और भीतर से सभ्य बनने में मदद करता है। वास्तव में वह तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है। जो साहित्य तन और मन की सभ्यता प्रदान करता है, वह शाश्वत साहित्य होता है। वर्तमान साहित्य प्रकृति एवं राष्ट्रीयता का मानवीकरण नहीं करता बल्कि प्रकृति, समाज एवं राष्ट्र को उसके ठोस सामाजिक संदर्भ के साथ रेखांकित करता है।
लेखन मात्र कमाई का जरिया नहीं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
अब जब नोटफ्री आंदोलन के ज़रिये इस विषय पर ज़ोरदार चर्चा छिड़ चुकी है और आंदोलन के समर्थकों द्वारा बहुत आक्रामक और उपहासपूर्ण स्वर में इस विषय में तर्क दिए जा रहे हैं तो इसके कुछ और केंद्रीय आयामों पर बात कर लेना चाहिए। यहाँ पर सबसे बुनियादी प्रश्न यह है कि लेखक क्यों लिखता है? क्या वह आजीविका के लिए लिखता है? मान लीजिये कोई व्यक्ति आजीविका के लिए कोई कार्य करता है। वह एक दुकान लगाता है। उससे अगर कोई भलामानुष पूछे कि यह कार्य क्यों करते हो, तिस पर वह जवाब देगा- रोज़ी-रोटी के लिए। अगर उससे कहा जाए कि तुम्हें जितनी आमदनी होती है, वह मुझसे ले लो, लेकिन यह दुकान मत लगाओ- तब वह क्या करेगा? सम्भव है वह पैसा ले ले और दुकान ना लगाए। किंतु अगर लेखक से कहा जाए कि फलां पुस्तक के प्रकाशन से तुम्हें जितनी आमदनी होगी, वह पैसा मुझसे ले लो किंतु पुस्तक मत लिखो- तब क्या लेखक पुस्तक नहीं लिखेगा? अगर वह पुस्तक पैसों के लिए ही लिखी जा रही है, तो सम्भव है वो पैसा ले ले और एक अरुचिकर कार्य करने से अपनी जान छुड़ाए। पर उसके बाद यह भी सम्भव है कि वह अपने समय और परिश्रम का उपयोग वह लिखने में करे, जो वह वास्तव में लिखना चाहता है। इस दृष्टान्त से हमें यह भेद दिखलाई देता है कि लेखन और आजीविका में कार्य-कारण का सीधा सम्बंध नहीं है, भले लेखन से आजीविका मिल सकती हो। किंतु लेखन की तुलना आजीविका के दूसरे साधनों से इसलिए नहीं की जा सकती, क्योंकि जहाँ वो दूसरे साधन विशुद्ध रूप से आजीविका के लिए होते हैं, वहीं लेखन किसी और वस्तु के लिए भी होता है।
मूलतः मक़सद यह स्पष्ट करना है कि लेखक का प्राथमिक दायित्व क्या है। लेखक का प्राथमिक दायित्व है लिखना और अपने लिखे को पाठकों तक पहुँचाना। एक बार यह दायित्व पूरा हो जाए, उसके बाद उसे अपने लेखन से जो धन, मान-सम्मान, सुख-सुविधा, उपहार आदि मिलते हैं, वो अतिरिक्त है, बोनस है। किंतु लेखक जब कोरे काग़ज़ का सामना करता है तब उसके सामने यह प्रश्न नहीं होता कि लिखने से कितना धन-मान मिलेगा, बशर्ते वो बाज़ारू लेखक ना हो। उसके सामने एक ही संघर्ष होता है और वो यह कि जो मेरे भीतर है- विचार, कल्पना या कहानी- उसे कैसे काग़ज़ पर उतारूं कि उसमें मेरा सत्य भी रूपायित हो जाए और पाठक तक भी वह बात किसी ना किसी स्तर पर सम्प्रेषित हो जाए।
यह कल्पना करना ही कठिन है कि आज से बीस साल पहले तक लेखक के लिए प्रकाशन कितना दुष्कर था। वास्तव में इंटरनेट के उदय से पहले लेखन का इतिहास अप्रकाशित पाण्डुलिपियों के ज़ख़ीरे से भरा हुआ है। आज लिखने की सुविधा हर किसी को प्राप्त है- पुस्तक ना सही तो पोस्ट ही सही, किसी पोस्ट पर कमेंट ही सही- किंतु आज से बीस साल पहले प्रकाशित लेखन एक लगभग एक्सक्लूसिव परिघटना थी। तब लेखन का सबसे प्रचलित माध्यम चिटि्ठयाँ ही थीं और लोग बड़े मनोयोग से पत्र लिखते थे। कोई लेख, कविता या कहानी लिखी तो उसे किसी पत्रिका या समाचार-पत्र को भेजते थे, उसे प्रकाशित करने का निर्णय सम्पादक के पास सुरक्षित रहता था। कोई पुस्तक लिखी तो उसकी पाण्डुलिपि भेजते थे, जिसके प्रकाशन का निर्णय प्रकाशक के पास सुरक्षित था। सम्पादक और प्रकाशक का वर्चस्व था, लगभग एकाधिकार था- इस प्रक्रिया में बहुत कम चीज़ें ही प्रकाशित हो पाती थीं। अख़बार में पाठकों के पत्र स्तम्भ में प्रकाशित होना भी तब बड़ी बात होती थी। आज जब सोशल मीडिया ने लेखक के लिए प्रकाशन सर्वसुलभ बना दिया है, उसे अपने लिखे पर तत्काल पाठक मिलते हैं और पाठकों की बड़ी संख्या उसकी पुस्तकों के प्रकाशन का पथ-प्रशस्त करती है- तब लेखक के अस्तित्व का प्राथमिक प्रयोजन- यानी अच्छे से अच्छा लिखना और अधिक से अधिक पाठकों तक पहुँचना- कहीं सरलता से सध जा रहा है। इसके लिए उसके मन में कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। तब लेखक का यह कहना कि इसके लिए मुझको पैसा चाहिए, इसीलिए एक अर्धसत्य है क्योंकि इसमें यहाँ पर वह इस बात को छुपा ले जा रहा है कि उसके लिए प्रकाशित होना और पाठकों तक पहुँचना कितना बड़ा सौभाग्य है। और अगर यह ना होता तो वह अपनी रचना को लिए भीतर ही भीतर घुटता रहता।
लेखन की प्रकृति ऐसी है कि उसे दूसरी लोकप्रिय कलाओं- जैसे सिनेमा, रंगमंच, नृत्य या संगीत- की तुलना में कम प्रसार मिलेगा। शेखर एक जीवनी पढ़ने और सराहने के लिए एक विशेष प्रकार की शैक्षिक पृष्ठभूमि की आवश्यकता है, जो कोई नाच-तमाशा देखने, गाने-बजाने का आनंद लेने के लिए ज़रूरी नहीं। एक चलताऊ उपन्यास तक पाठक को खींचकर लाना भी एक सामान्य दर्शक को सिनेमाघर में ले जाने की तुलना में कहीं अधिक दुष्कर है। एक लेखक अपनी कला से कभी भी उतना सफल और धनाढ्य नहीं हो सकता, जितना कि एक फ़िल्म अभिनेता, खिलाड़ी, संगीतकार या नर्तक हो सकता है, बशर्ते देशकाल-परिस्थितियां उसके पक्ष में हों।
नोटफ्री आंदोलन के कर्णधार इन तमाम तर्कों और तथ्यों को नज़रंदाज़ कर देते हैं। इतना ही नहीं, वो यह कहकर परिप्रेक्ष्यों को विकृत भी करते हैं कि लेखक जब किसी कार्यक्रम में जा रहा है तो वो अपना समय दे रहा है, जिसकी क़ीमत उसे मिलना चाहिए। जैसे कि जो आयोजक वह कार्यक्रम कर रहा है, उसके समय का कोई मूल्य नहीं है, या वह निठल्ला है? लेखक यह जतलाता है कि आयोजक को उसकी ज़रूरत है, पर वो यह छुपा जाता है कि उसे भी आयोजक की उतनी ही ज़रूरत है! उसे भी मंच चाहिए, विज़िबिलिटी चाहिए, नए पाठक और नए प्रशंसक चाहिए, उसे भी महत्व चाहिए, जो उस कार्यक्रम से उसे मिल रहा है। यह कार्यालय में काम करने जैसा नीरस नहीं है, जो लेखक यह तर्क देता है कि वह कार्यालय से छुट्टी लेकर आ रहा है, इसलिए उसे इसके ऐवज़ में पैसा चाहिए। लेखक को वैसे कार्यक्रमों में जो मान-सम्मान, महत्व-प्रचार मिलता है, उसे हासिल करना आज लाखों का सपना है (और जब लेखक युवा था और अख़बारों में अपनी कविताएं प्रकाशित करने भेजता था और उनके छपने की प्रतीक्षा करता था, तब यह उसका भी सपना हुआ करता था), लेकिन इस सपने को जीने का अवसर जब उसे मिलता है, तो लेखक यह जतलाता है मानो इसका कोई मूल्य ही ना हो, जैसे इसके लिए उसे स्वयं कुछ ना चुकाना हो, उलटे उसे इसके बदले में पैसा चाहिए?
जब लेखक यह कहता है कि मैं पैसा लिए बिना किसी कार्यक्रम में नहीं जाऊंगा तो वह मन ही मन यह रूपरेखा भी बनाता ही होगा कि कितना पैसा? वह अपना एक रेट तय करता होगा। एक बार यह रेट तय होते ही यह निश्चित हो जाता होगा कि कुछ ही आयोजक उसे अफ़ोर्ड कर सकेंगे। किंतु ये जो आयोजक उसे अफ़ोर्ड करेंगे, वो लेखक में निवेश की गई राशि का रिटर्न कैसे पाएँगे (क्योंकि कोई भी लन्च फ्री में नहीं मिलता, यह नोटफ्री आंदोलन के कर्णधारों का प्रिय वाक्य है)। क्या कोई पूँजीपति अपनी जेब से पैसा लगाकर लेखक को एक दिन की वह सितारा-हैसियत दिलाएगा, या वह किन्हीं प्रायोजकों की मदद लेगा? ये प्रायोजक तब उस कार्यक्रम को कैसे प्रभावित करेंगे? क्या लेखक कविता या कहानी-पाठ के बीच में रुककर किसी प्रायोजक के उत्पाद (गुटखा या जूते?) का विज्ञापन भी करेगा? क्योंकि जब पैसे को ही सबकुछ मान लिया तो शर्म-लिहाज़ कैसी? जो आयोजक लन्च दे रहा है, होटल में रूम बुक कर रहा है, हवाई जहाज़ का टिकट दे रहा है, प्रोग्राम के लिए ऑडिटोरियम बुक कर रहा है और आपको लिफ़ाफ़ा भी दे रहा है- वो ख़ुद क्या यह सब फ्री में करेगा, क्या नोटफ्री में उसका स्वयं का विश्वास नहीं होगा?
मैं देख रहा हूँ कि नोटफ्री आंदोलन युवाओं में विशेषकर लोकप्रिय हो रहा है, क्योंकि ये पीढ़ी ही येन-केन-प्रकारेण सफलता की भाषा में सोचती है। किंतु दौर बदलने से दस्तूर नहीं बदल जाता। लेखक क्यों लिखता है, किसके लिए लिखता है, लेखक लेखन से क्या चाहता है- ये बुनियादी प्रश्न अपनी जगह पर तब भी क़ायम रहते हैं- इन्हें कोई बदल नहीं सकता।
मेरी पुस्तक बिके और मुझे उसका पैसा मिले- यह एक बात है- और मेरी पुस्तक कितनी बिकी, उससे मुझे कितना पैसा मिला, यही मैं रात-दिन सोचता रहूँ और पैसा कमाने के लिए ही लिखूँ- ये एक नितांत ही दूसरी बात है।
कोई आयोजक मुझे बुलाए, मान-सम्मान-मंच प्रदान करे और चलते-चलते अपनी सामर्थ्य से मुझे कुछ पैसा भी दे दे- यह एक बात है- किंतु मुझे पैसा दिया जाएगा तो ही मैं आऊँगा, यह भी नहीं देखूँगा कि मुझे बुलाने वाला कौन है, उसकी क्या क्षमता है, उसकी क्या प्रतिष्ठा है, उसके पास कितने उच्चकोटि के निष्ठावान श्रोता हैं- यह एक दूसरी ही बात है। और इन दोनों बातों में ज़मीन-आसमान, आकाश-पाताल का भेद है!
जिस लेखक में इन दोनों में अंतर करने का विवेक नहीं, वो समाज को क्या मूल्य देगा? उसको तब कोई दुकान ही लगा लेना चाहिए, लेखन वग़ैरा उसके बस का रोग नहीं।
सत्कर्म का आचरण : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
अनासक्त होकर कर्म करने वाला ईश्वरार्थ कर्म करता है। श्रेष्ठ मनुष्य जो-जो कर्म करते है, दूसरे लोग उसका अनुसरण करते है। ईश्वर को कोई भी कर्म नहीं करना पड़ता। क्योंकि उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है। तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्म नहीं है। फिर भी, लोक को लोक स्थिति में रखने के लिए परमात्मा कर्म का बर्ताव करते है।
इसे अपने जीवन में उतार लेना जीवन को ईश्वर के लिए अर्पित करना है। जीवन में हम पुण्य की लालसा लेकर दान करते हैं। जबकि दान हमेशा ईश्वर को समर्पित होना चाहिए। दान हमेशा यदि सुपात्र को दिया जाय तो दान ईश्वर तक अवश्य पहुंचता है। दान करने वाले के लिए दान करने के दो ही कारण है। पहला श्रद्धा और दूसरा शक्ति। दान के प्रति श्रद्धा और दान के लिए सामर्थ्य के अभाव में दान नहीं हो सकता है। श्रद्धा से दिया गया दान ही फलदायी होता है। यदि कोई व्यक्ति लालच या दबाव में दान करता है तो उसे उसका पुण्य नहीं मिलता है। ठीक उसी प्रकार शक्ति भी है, शक्ति का अर्थ यहाँ सामर्थ्य से है। सामर्थ्य के अनुसार यानी कुटुंब के भरण-पोषण से जो बचे उसे ही दान में देना चाहिए। अपनी जरुरतों की पूर्ति न हो रही हो और कोई दान करता है, तो ऐसा दान व्यर्थ ही है। शास्त्रों में किसी दबाव या लालच में दान देने को वर्जित किया गया है। इतना ही नहीं उसी धन को दान दिया जा सकता है, जिसे किसी को सताकर न प्राप्त किया गया हो। किसी कामना की इच्छा न रखकर सुपात्र को दिया गया दान धर्मदान कहलाता है। दान लेने वाले व्यक्ति का भी मान रखना चाहिए। उसकी आत्मा का भी मान है। उसको दीन-हीन समझकर व्यवहार में अभिमान लेकर किया गया दान पाप ही है, दरअसल सोच यह है कि दान लेने वाले व्यक्ति ने यदि दान स्वीकार कर लिया तो दान देने वाले को पुण्य की प्राप्ति होती है। दान लेने वाले ने दान स्वीकार कर कृपा ही की है। जो हमारे पर्यावरण, समाज और देश को पुष्ट करने वाला हो, वह दान ख्यातिलब्ध दान कहा जाता है।
यज्ञ द्वारा प्राप्त स्त्री, पशु, पुत्र आदि देवों द्वारा प्राप्त भोगों को परमात्मा को समर्पित न कर अर्थात् उनका ऋण न चुकाकर, जो अपनी ही तृप्ति करता है, वह पाप खाता है। यह देवताओं के स्वत्व का हरण करने वाला है। यज्ञ शिष्ट अन्न का सेवन करने वाले श्रेष्ठ कहे गए हैं। यह कुछ इस तरह है कि उदर परायण लोग केवल अपने लिए ही अन्न पकाते हैं, वे स्वयं पापी हैं और वे पाप ही खाते है। ऐसे में हमें यह तो सोचना ही चाहिए कि पाप काहे को खाना। अधिकार प्राप्त व्यक्ति को कर्म करते रहना चाहिए। क्योंकि कर्म जगत् चक्र की प्रवृत्ति का कारण है। मनु स्मृति में इस संबंध में कहा गया है कि अग्नि में विधिपूर्वक दी हुई आहुति सूर्य में स्थित होती है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न उत्पन्न होता है, और अन्न से प्रजा उत्पन्न होती है। क्रिया रुप कर्म वेदरुप ब्रह्म से उत्पन्न होता है। इस प्रकार कर्म की उत्पति का कारण वेद है। वेद रुप ब्रह्म सभी अर्थों को प्रकाशित करने वाला है। इसीलिए यह सर्वगत है। यज्ञ विधि में वेद की प्रधानता होने के कारण यह सर्वगत होता हुआ सदा यज्ञ में ही स्थित होता है। आत्मा को जान लेने के बाद सारा मिथ्या ज्ञान नष्ट हो जाता है। अब केवल आत्मा से ही प्रेम रह जाता है। जो आत्मा से ही तृप्त होने वाला है। उसकी तृप्ति अन्न रसादि से नहीं होती है। यह तृप्ति तृष्णा को सदा के लिए दूर कर देती है। परमात्मा से यह प्रीति संसार में कर्म करने के सारे प्रयोजनों को समाप्त कर देती है। किसी फल के लिए प्राणि विशेष का प्रयोजन सिद्ध करना पड़ता है। इससे फलासिक्त कर्म का आरम्भ होता है। यह यथार्थ ज्ञान से दूर करने वाला है।
ईश्वर के कर्मों का अभाव होने पर सब लोक नष्ट हो जाएंगे। यह ईश्वर के अनुरुप नहीं है। ऐसे में यही ठीक है कि हमें ईश्वरार्थ कर्म करना चाहिए। अपने कर्तव्य का अभाव होने पर हमें केवल दूसरों के अनुग्रह के लिए कर्म करना चाहिए।
लोक के रक्षार्थ किया जाने वाला कर्म आत्मज्ञानी का कर्म है। कार्य का नाम आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी तथा शब्द, स्पर्श, रस, रुप, गंध है, जबकि मन, बुद्धि और अहंकार तथा श्रोत्र, त्वचा, रसना, नेत्र, घ्राण, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा करण है। सत्व, रज और तम् इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का जो रुप प्रकट है उसी का नाम प्रकृति है। इसी प्रकृति की प्रधानता के कारण कार्य और करण के हेतु सभी कर्म किए जाते है। कार्य और करण के संघात से शरीर की प्रतीति होती है। इसी प्रतीति का नाम अहंकार है। देहाभिमानी अज्ञानता के कारण प्रकृति के कर्मों को अपना मान बैठता है। वह उन कर्मों का खुद को कर्ता मानने में ही सुख समझता है। यह सुख नहीं बल्कि ईश्वरार्थ किए जाने वाले कर्म से दूरी को बढ़ाने वाला है। इसलिए गुण रुपी कर्म में आसक्त हुए बगैर ईश्वरार्थ कर्म का आचरण करना चाहिए।
कल्पनाएँ ही दुःख का कारण : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
किसी वस्तु की कल्पना में जो सुख है, वह उस वस्तु की प्राप्ति में नहीं। यही बात दु:ख के संबंध में भी लागू होती है। आज मानव सुख की कल्पना तो कर ही नहीं पाता, हाँ दु:ख की कल्पना कर अपने वर्तमान को दु:खी अवश्य करता है। वह या तो अतीत में जीता है, या भविष्य में। वर्तमान में जीना वह भूलता जा रहा है। यही कारण है कि वह दु:ख आने से पहले ही दु:ख का अनुभव करने लगता है।
दु:ख की खोज में यदि आप निकलेंगे तो आपको तीन प्रकार के दु:ख मिलेंगे- स्वजनित दु:ख, परजनित दु:ख और कर्मजनित दु:ख। व्यक्ति दु:ख का अनुभव करता है, किंतु उसके निवारण का उपाय कदाचित ही कर पाता है, क्योंकि दु:ख उसके ऊपर इतना अधिक हावी हो जाता है कि वह उससे बचाव का उपाय ही नहीं सोच पाता है। हमारे कितने ही दु:ख भयजनित होते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि हकीकत में उसके सामने वह दु:ख नहीं होता, किंतु उस दु:ख से जुड़ी भविष्य की कल्पना ही उसे अधिक दु:खी कर देती है।
ऊँचे पद पर आसीन व्यक्ति को कोई चुनौती नहीं होती, किंतु उसके बाद भी पद छीन जाने का विचार ही उसे दिन-रात बेचैन किए रहता है। वह इस काल्पनिक दु:ख में ही दु:खी रहता है कि यदि उससे यह सम्मानजनक पद छीन लिया गया, तो क्या होगा? विचारों की यह तरंगे ही उसे दु:ख के सागर में डूबो देती है। वृध्द व्यक्ति को हमेशा अपनी मृत्यु का भय सताता है। कब, किस समय, किन परिस्थितियों में और कैसे मृत्यु उसे अपने पाशमें लेगी यही भय उसे दिन-रात लगा रहता है। अपनी असली मृत्यु आने के पूर्व वह कई बार मौत को पा लेता है। शरीर मृत्यु से कोसों दूर रहता है, किंतु मन उसे मृत्यु के नजदीक ले जाता है। केवल कोरी कल्पनाओं के द्वारा ही वह सांध्यबेला में कई-कई बार मृत्यु के मुख में जाता है। उसमें भी अपने किसी प्रिय की मृत्यु का समाचार या नजरों के सामने उसकी मौत उसे अपनी मौत के करीब ले जाती है।
देखा जाए तो मौत एक ऐसी सच्चाई है, जिसे हर कोई समझकर भी समझना नहीं चाहता। जो पैदा होगा, वह मौत को प्राप्त होगा, यह एक शाश्वत सत्य है, लेकिन इंसान अपनी मौत को पीछे धकेलने के लिए क्या-क्या करता नहीं दिखता। यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ आदि सब मौत को झुठलाने के उपाय ही हैं। जिन्हें मौत का भय नहीं, वे तो कई मुसीबतों का सामना ऐसे ही कर लेते हैं। जिन्हें अपने साहसिक कार्यों से सफलता मिली है, उन सभी ने कहीं न कहीं मौत को अपने करीब पाया है और वे उससे नहीं डरे, इसलिए सफलता उन्हें प्राप्त हो गई। जिनके भीतर मौत का भय होता है, वे कोई भी काम साहस के साथ नहीं कर पाते। हमारे बीच ऐसे बहुत से लोग मिल जाएँगे, जिन्होंने अपना जीवन तो जिया ही नहीं, वे लगातार मौत के साये में रहकर जीवन को दु:खमय बनाते रहे हैं।
व्यक्ति के दु:ख का कारण सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति है। इस समय इंसान एक शुतुरमुर्ग की तरह होता है, जिसकी प्रवृत्ति होती है कि मुसीबत के समय वह अपना सर रेत में छिपा लेता है, इसके पीछे यही सोच होती है कि कोई उसे नहीं देख रहा है। वास्तविकता इसके विपरीत होती है। यही है सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति। इस प्रवृत्ति के इंसान अपने आसपास एक वायवीय संसार का सृजन कर लेते हैं। सब कुछ उनकी कल्पना में ही होता रहता है। इसे सही साबित करने के लिए उसके पास इसी तरह की कपोल-कल्पित मान्यताएँ भी होती हैं, वह उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। उसका एक अपना रचना संसार होता है, जिसमें वह जीना चाहता है। पर यह स्थिति उसे सच से इतना दूर ले जाती है कि सच उसे एक मजाक लगता है, वह उसका सामना ही नहीं कर पाता।
एक और दु:ख का कारण है, अतीत का बोझ अपने पर लादे रहना। हमारे समाज में कई ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपने अतीत में ही जीते हैं। वे वर्तमान की बातों को भी अपने अतीत से तौलते नजर आते हैं। उन्हें अपना अतीत इतना प्यारा लगता है कि वे उससे अलग होना ही नहीं चाहते। वर्तमान की उपेक्षा ही उनके दु:ख का कारण होती है, क्योंकि अतीत में वे अकेले ही जीते हैं। वर्तमान में रहने वाले लोग उनके अतीत के सहभागी नहीं होते, इसलिए वे वर्तमान की उपेक्षा करने लगते हैं। अतीत को अपने सर पर लादे हुए लोग कभी भी सुखी नहीं हो सकते। इसके लिए उन्हें अतीत के भूत को अपने सर से उतारना होगा, तभी स्थिति सँभल सकती है।
आज का इंसान इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से पूरम्पूर है। जीवन एक ऐसा अस्पताल बन गया है, जहाँ मरीज को हमेशा दूसरे का बिस्तर ही अच्छा लगता है। वह यही देखता है कि सामने वाले के पास क्या-क्या है और उसके पास क्या-क्या नहीं है। उसके पास क्या नहीं है, यह चिंता उसे हमेशा सताती रहती है। जो उसके पास है, उसका उसे सुख नहीं है, बल्कि जो उसके पास नहीं है, उसका ही उसे सबसे अधिक दु:ख है। आज यही दुःख का मूल कारण है। इसके अलावा एक बात और है, वह यह कि आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग? लोगों को आज अपने आप पर इतना भी विश्वास नहीं रहा कि वे अपनी बात को दृढ़ता से रख सकें, उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि उनकी इस हरकत से लोग क्या कहेंगे। कई बार अमीर बेटा अपने गरीब बाप को सबके सामने केवल इसीलिए गले नहीं लगा सकता, क्योंकि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। इस चक्कर में वह अपने पिता का सच्चा प्यार भी नहीं पा सकता और न ही सुपुत्र होने का सुबूत ही दे सकता है।
इंसान केवल इतना जान ले कि हमारी अतृप्त कल्पनाएँ ही दु:ख का कारण है। दु:ख कहीं बाहर से नहीं आता, वह हमारी कल्पना से ही उपजता है। दु:ख को यदि किसी से डर लगता है, तो वह है हँसी। जहाँ हँसी का साम्राज्य है, वहाँ दु:ख फटक भी नहीं पाता। हँसी के सामने दु:ख कभी टिक नहीं पाया। जो दु:ख में भी हँस लेता है, वह सीधे ईश्वर से जुड़ जाता है, ईश्वर भी उनकी इस महानता के सामने नत हो जाते हैं। जो है, उसी में संतुष्ट हो जाएँ, यही वह मूल मंत्र है, जिसके आगे बड़ी से बड़ी शक्तियाँ पराजित हो जाती हैं। जो अपने पास है, उसकी खुशियाँ मनाएँ, यही एक सत्य है, जिसे हमें समझना है बस..!!
अंतर्मन चेतना को पहचानें : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
हमारे जीवन में आने वाले उतार-चढाव भी उतने ही स्वाभाविक हैं, जितना कि मौसम का बदलना, पेड-पौधों का मुरझाना और दोबारा उन पर नई कोपलें फूटना। जो व्यक्ति इस प्रक्रिया को सहजता से स्वीकारता है, वह सुख-दुख दोनों ही स्थितियों में संतुलित और समभाव रहता है पर कुछ लोग ऐसी मुश्किलों से बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। उनका आत्मबल कमजोर पडऩे लगता है। विधाता ने हम सभी को विपरीत परिस्थितियों से जूझने की शक्ति समान रूप से दी है पर कुछ लोग अपने अंतर्मन की इस ताकत को पहचान नहीं पाते और ऐसे ही लोग राह में आने वाली छोटी-छोटी बाधाओं से बहुत जल्दी घबरा जाते हैं। अपने अंतर्मन की ताकत को पहचानने वाले लोग हर हाल में शांत और संयमित रहते हैं।
अपने मन को हर हाल में संयमित रखना मनुष्य के लिए सबसे बडी चुनौती है। यह सच है कि मानव मन बेहद चंचल है। इसकी गति बिजली से भी तेज है। तभी तो श्रीमद्भगवदगीता जी में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-'इंद्रियां बलवान हैं, इंद्रियों से बलवान मन है और मन से भी ज्य़ादा शक्तिशाली है बुद्धि।' आम बोलचाल की भाषा में जब हम मनोबल बढाने की बात करते हैं तो हमें उसके शाब्दिक अर्थ को ग्रहण नहीं करना चाहिए। मनोबल बढाने का वास्तविक अर्थ अपनी बुद्धि-विवेक को बलवान बनाने से है। मन को अगर कोई काबू कर सकता है तो वह है बुद्धि। मन में अलग-अलग भाव उत्पन्न होते हैं। कुछ अच्छे तो कुछ खराब। भय, क्रोध, चिंता इत्यादि बुरे भाव हैं। प्रेम, सेवा, भक्ति, दान और निर्भयता अच्छे भाव हैं, जो हमेशा सद्बुद्धि से ही आते हैं। इसके लिए सबसे पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि मन के अवगुणों को दूर कर अच्छे गुणों को कैसे उत्पन्न किया जाए। घर-गृहस्थी, व्यापार, कार्यालय में कई बार मनुष्य का मनोबल कमजोर पड जाता है।
डर के कारण वह अपने जीवन के उस लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाता, जहां पहुंचना उसका उद्देश्य था। यहां हम मुख्यत: चार बिंदुओं पर बात करेंगे, जिससे मन के अवगुणों को दूर कर सद्गुणों को बढाया जा सके। जैसे ही आपके सद्गुणों की वृद्धि होगी, आप बडे से बडे संकटों से जूझने में सक्षम हो जाएंगे पर इसके लिए व्यक्ति के मन में धैर्य का होना बहुत जरूरी है। ज्ञान एक साधना है, जिसे जीवन भर ऐसे ही अंगीकार करना पडता है जैसे कि स्वस्थ शरीर पाने के लिए हम नियमित व्यायाम और योगाभ्यास को अपनाते हैं। ठीक उसी तरह मानसिक शांति के लिए हमें अध्यात्म को भी अपनी जीवनशैली में प्रमुखता से शामिल करना चाहिए। वैराग्य है मार्गदर्शक आत्मबल बढाने के लिए सबसे जरूरी है-वैराग्य। यहां वैराग्य का तात्पर्य गृहस्थ जीवन को त्यागने से नहीं है, बल्कि परिवार में रहते हुए भी संतों जैसा आचरण अपनाने से है लेकिन हम दूसरों की सेवा और सहायता भी तभी कर सकते हैं, जब हमारे भीतर यह सब करने की शक्ति और योग्यता हो।
इसलिए सबसे जरूरी है कि हम पहले स्वयं को समर्थ बनाएं। विमान यात्रा के दौरान आपने भी देखा होगा कि सुरक्षा सूचना के समय यह बताया जाता है कि आकस्मिक स्थिति में जब हवा का दबाव कम हो तो सबसे पहले आप अपना ऑक्सीजन मास्क पहनें। उसके बाद ही दूसरे की सहायता के बारे में सोचें। आपने भी कुछ ऐसे लोगों को देखा होगा, जो दुर्घटना या किसी भी प्रतिकूल स्थिति में दूसरों को देखकर बहुत ज्य़ादा दुखी होते हैं पर खुद उनकी मदद नहीं कर पाते। ऐसा तभी होता है, जब व्यक्ति के मन में वैराग्य न हो। अतीत से सीखें सच तो यह है कि कमजोर मनोबल बाहरी मुश्किलों से भी ज्य़ादा नुकसानदेह होता है। जरा अपने अतीत में झांक कर देखें कि इससे पहले भी जब कभी आपके जीवन में कोई परेशानी आई तो क्या आप उस समस्या से बाहर नहीं निकले? पिछले कुछ वर्षों में आने वाले दुखों को तो आप याद रखते हैं पर अनगिनत सुखों को भुला देते हैं। आज हमारे जीवन में जो भी हो रहा है, वह कुछ दिनों के बाद अतीत का हिस्सा हो जाएगा।
इसलिए मुश्किल हालात में भी हमें यही सोचना चाहिए कि आज हमारे साथ जो भी हो रहा है उसमें भी भविष्य के लिए कोई न कोई अच्छाई ही छिपी होगी। करें खुद का सम्मान आत्मसम्मान के साथ जीने की कला हमारी बुद्धि को प्रबल बनाती है। बुरे से बुरे वक्त में भी आप दूसरों से दया पाने की उम्मीद कभी न रखें। हम सब एक ही परमेश्वर की संतान हैं। हम अंश हैं उस अमृत के, जो पूरी सृष्टि का आधार है। अमृत का अंश भी अमृत ही हुआ लेकिन इस बात को पूरी तरह अपने अंतर्मन में उतारने से पहले ईमानदारी के साथ विचारों और ज्ञान का गहन आत्ममंथन करना अति आवश्यक है।
जिस तरह किसी भी वस्तु का मंथन करने पर उसमें मौजूद नुकसानदेह तत्व विष की तरह बाहर निकल आते हैं, ठीक उसी तरह अपने मन में मौजूद भावनाओं का मंथन करने के बाद उनमें से कुछ नकारात्मक बातें भी बाहर निकल आती हैं, जो व्यक्ति का मनोबल कमजोर कर सकती हैं। इसीलिए कहा जाता है कि हमें अपने सभी अवगुण प्रभु को अर्पित कर देने चाहिए। इसी से बाद हमारी बुद्धि विकसित होगी। चाहे घर-परिवार हो या दफ्तर, हर जगह अपनी जिम्मेदारियों और संबंधों का निर्वाह करते हुए हमारे मन में हमेशा यही भाव होना चाहिए कि यह मैं स्वयं नहीं कर रहा, प्रकृति ने मुझे इस कार्य के निमित्त बनाया है। कर्म जब प्रभु के लिए किया जाएगा तो मनोबल कैसे कम होगा? इसके विपरीत जब केवल निजी स्वार्थ के लिए ही कर्म किया जाएगा तो मनोबल कैसे बढेगा? कुरुक्षेत्र है जीवन यह जीवन एक ऐसी रणभूमि है, जहां प्रतिदिन युद्ध हो रहा है। बाहरी युद्ध में तो हमें अपने शत्रुओं का पता होता है लेकिन इस युद्ध में तो असली शत्रु हमारा मन ही है।
वास्तव में हम धर्म-क्षेत्र में थे परंतु मोह के कारण ही वह कुरुक्षेत्र बन गया। अब सवाल यह उठता है कि ऐसे युद्ध में हम जीतें कैसे? अंत:करण में भी वैसा ही बर्ताव करना पडेगा जैसे कि बाहरी युद्ध के लिए हम खुद को हथियारों से लैस करते हैं। उसी तरह मन के भीतर चलने वाले युद्ध में हमें वैराग्य का कवच पहनना पडेगा। लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी कोई रणनीति बनानी होगी। हम सब अभिमन्यु की तरह हैं। हम इस संसार के चक्रव्यूह के भीतर तो घुस आते हैं पर उससे बाहर निकलने का रास्ता हमें नहीं मालूम। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही हमें इससे बाहर निकाल सकता है। शास्त्र ही वो शस्त्र हैं, जो मन के अवगुणों को निर्मूल करके हमारा मनोबल बढा सकते हैं। आज के जीवन में ऑफिस और घर-परिवार ही हमारा कर्म क्षेत्र है।
अगर हम अपने कर्म क्षेत्र में निर्भय होकर दायित्वों का निर्वाह करें तो इससे न केवल हमारा आत्मबल बढेगा बल्कि हमारे जीवन से अज्ञान का अंधकार हमेशा के लिए दूर हो जाएगा।
मेरा दोहरा व्यक्तित्व : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
मेरे अंदर का दूसरा आदमी मेरे अंदर का दूसरा मेरा रुप है। वर्तमान परिदृश्य का सच्चा स्वरूप है जिस समय मैं रात में सो रहा होता हूं उसी समय मेरे अंदर का दूसरा आदमी अस्पताल के आईसीयू के बाहर ईश्वर से विनती कर रहा होता है। जब मैं रोटी के टुकड़े खा रहा होता हूं तो मेरा दूसरा आदमी किसी रेस्टोरेंट में बिरयानी के स्वाद में तल्लीन हो रहा होता है। जब मैं मॉ की दवाई खरीद रहा होता हूं तो मेरे अंदर का दूसरा आदमी अपनी प्रेमिका को पत्र लिख रहा होता है। और जब मैं अपने विचारों के आकाशगंगा में गोता लगा रहा होता हूं तो मेरे अंदर का दूसरा आदमी टेलीविजन पर रिमोट की बटन बदल रहा होता है।। मैं और मेरा दूसरा आदमी दो नहीं एक है बस विचारों से अनेक है।।
परिवार का पतन होने से बचाएं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
वर्तमान दौर की एक बहुत बड़ी विडंबना है कि पारिवारिक परिवेश पतन की चरम पराकाष्ठा को छू रहा है। अब तक अनेक नववधुएं सास की प्रताड़ना एवं हिंसा से तंग आकर भाग जाती थीं या आत्महत्याएं कर बैठती थीं, वहीं अब नववधुओं की प्रताड़ना एवं हिंसा से सास उत्पीड़ित है, परेशान है। वे भी अब आत्महत्या का सहारा ले रही हैं, जो कि न केवल समाज के असभ्य एवं त्रासद होने का सूचक है बल्कि नई बन रही पारिवारिक संरचना की एक चिंतनीय स्थिति है।
परिवार होता क्या है? ऐसे लोगों का समूह जो भौतिक और मानसिक स्तर पर एक-दूसरे से प्रगाढ़ता से जुड़ा हो। जिसके सभी सदस्य अपना फर्ज पूरी ईमानदारी से करते हुए उदारतापूर्वक एक-दूसरे के लिए त्याग और सहयोग करते हैं। ऐसे क्या कारण हैं कि पारिवारिक प्रगाढ़ता अब प्रताड़ना बनती जा रही है। जिन बच्चों की खुशी के लिए माता-पिता हंसते-हंसते सबकुछ कुर्बान कर देते हैं, अगर वही उनकी मौत का कारण बन जाएं तो इससे ज्यादा दुखद क्या होगा।
कोई भी इंसान अपने परिवार का विस्तार चाहता है, उसका विघटन नहीं। मतभेद चाहे छोटा हो या बड़ा, हंसते-खेलते परिवार को तबाह कर देता है। परिवार की खुशहाली और समृद्धि तभी संभव है जबकि परिवार का कोई भी सदस्य स्वार्थी, विलासी और दुर्गुणी न हो। यदि परिवार में कर्तव्यों के प्रति पूरी आस्था और समर्पण होगा तो वे अच्छी तरह से समझ पाएंगे कि स्वार्थ की बजाय स्नेह-सहयोग का माहौल ही फायदेमंद है।
परिवार में बिखराव क्यों होता है? जब परिवार में संयुक्त हितों से जुड़े फैसले कई बार एकतरफा ले लिए जाते हैं। बड़े अपने हिसाब से निर्णय लेते हैं, छोटे उसे अपने पर थोपा हुआ मानते हैं। बस, यहीं से शुरू होती है परिवार से बाहर की ओर निकलने वाली राहें। छोटे विद्रोही स्वर लेकर परिवार से अलग हो जाते हैं या परिवार में ही रहकर सौहार्दपूर्ण वातावरण को लील देते हैं। 'परिवार' को स्वस्थ बनाना कोई उत्पाद नहीं है। यह तो जीवन है, इसे जीवंत बनाना होगा।
हम जितने आधुनिक हो रहे हैं, हमारे नैतिक मूल्य उतने ही गिरते जा रहे हैं। रिश्तों में व्यावहारिकता की जो लहर चली है उसने कई नातों को धराशायी कर दिया है। अब रिश्ते दिलों के नहीं, सिर्फ लाभ-हानि के रह गए हैं। हम जितने प्रोफेशनल हुए हैं, परिवारों में दुराव बढ़ा है। हमारे इस प्रोफेशनलिज्म की कीमत संभवत: परिवारों ने भी चुकाई है।
महानगरीय संस्कृति उपभोक्तावाद का शिकार होकर रह गई है। हर कोई न जाने किस अंतहीन दौड़ में भागा जा रहा है। इसमें इतना भी ध्यान नहीं है कि कितना कुछ पीछे छुटता जा रहा है। माता-पिता तो जीवनरूपी वृक्ष की जड़ हैं और जड़ के सूखने से कोई भी वृक्ष हरा-भरा नहीं रह सकता इसलिए संबंधों की कद्र करनी चाहिए। सभी रिश्ते जीवन में समान अहमियत रखते हैं। महानगरीय तनाव को जीवन पर इतना भी हावी न होने दें कि वह रिश्तों पर भारी पड़ने लगे। जीवन के हर क्षेत्र और रिश्ते में संतुलन बनाना जरूरी है। परिवार के सदस्य परस्पर समझौतावादी दृष्टिकोण लेकर चलें और विचार-फर्क की कठिन स्थितियों में संवाद बंद न होने दें। नेगोसिएशन... की प्रणाली समस्याओं के समाधान में नई दिशा दे सकती है।
सभ्य समाज की नींव सभ्य परिवार से पड़ती है। संस्कारों का प्रवाह परिवार से समाज की ओर जितनी तेजी से जाता है, उतनी ही गति से समाज से परिवार की ओर आता भी है। संस्कारों का प्रवाह ही परंपराओं को जीवन प्रदान करता है। अगर परिवार से गलत परंपराओं की शुरुआत हो जाए तो समाज भी उससे अछूता नहीं रहेगा। यदि आदर्शों और मर्यादाओं के गिरते स्तर के प्रति कठोर प्रतिक्रिया नहीं होती तो लोगों का चरित्र गिरने लगता है यानी कि वे और भी अधिक उद्दंड और मनमौजी हो जाते हैं।
आज जबकि हमारे देश में नया भारत एवं नए मनुष्य निर्मित करने की बात हो रही है तो परिवार के नए स्वरूप की पृष्ठभूमि तैयार करने का यही वक्त है। 'परिवार संस्था' को टूटने से बचाना कठिन जरूर है, पर सुख-समृद्धि इसी जमीन पर उगते हैं। नई परिवार संस्था में अनुशासन आरोपित न हो अपितु व्यक्ति से आविर्भूत हो ताकि कोई सास जीवनलीला समाप्त करने की न सोचे। विश्वभर में जब मानवीय उदात्तताएं हाशिए पर जा रही हैं तब नैतिक मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ परिवार की रूपरेखा खड़ी करने की आवश्यकता है।
अत्यधिक कल्पनाओं से स्वयं को वंचित रखें : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
किसी वस्तु की कल्पना में जो सुख है, वह उस वस्तु की प्राप्ति में नहीं। यही बात दु:ख के संबंध में भी लागू होती है। आज मानव सुख की कल्पना तो कर ही नहीं पाता, हाँ दु:ख की कल्पना कर अपने वर्तमान को दु:खी अवश्य करता है। वह या तो अतीत में जीता है, या भविष्य में। वर्तमान में जीना वह भूलता जा रहा है। यही कारण है कि वह दु:ख आने से पहले ही दु:ख का अनुभव करने लगता है।
दु:ख की खोज में यदि आप निकलेंगे तो आपको तीन प्रकार के दु:ख मिलेंगे- स्वजनित दु:ख, परजनित दु:ख और कर्मजनित दु:ख। व्यक्ति दु:ख का अनुभव करता है, किंतु उसके निवारण का उपाय कदाचित ही कर पाता है, क्योंकि दु:ख उसके ऊपर इतना अधिक हावी हो जाता है कि वह उससे बचाव का उपाय ही नहीं सोच पाता है। हमारे कितने ही दु:ख भयजनित होते हैं। इसका एकमात्र कारण यही है कि हकीकत में उसके सामने वह दु:ख नहीं होता, किंतु उस दु:ख से जुड़ी भविष्य की कल्पना ही उसे अधिक दु:खी कर देती है।
व्यक्ति के दु:ख का कारण सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति है। इस समय इंसान एक शुतुरमुर्ग की तरह होता है, जिसकी प्रवृत्ति होती है कि मुसीबत के समय वह अपना सर रेत में छिपा लेता है, इसके पीछे यही सोच होती है कि कोई उसे नहीं देख रहा है। वास्तविकता इसके विपरीत होती है। यही है सच्चाई से भागने की प्रवृत्ति। इस प्रवृत्ति के इंसान अपने आसपास एक वायवीय संसार का सृजन कर लेते हैं। सब कुछ उनकी कल्पना में ही होता रहता है। इसे सही साबित करने के लिए उसके पास इसी तरह की कपोल-कल्पित मान्यताएँ भी होती हैं, वह उससे बाहर निकलना ही नहीं चाहता। उसका एक अपना रचना संसार होता है, जिसमें वह जीना चाहता है। पर यह स्थिति उसे सच से इतना दूर ले जाती है कि सच उसे एक मजाक लगता है, वह उसका सामना ही नहीं कर पाता।
एक और दु:ख का कारण है, अतीत का बोझ अपने पर लादे रहना। हमारे समाज में कई ऐसे व्यक्ति मिल जाएँगे, जो अपने अतीत में ही जीते हैं। वे वर्तमान की बातों को भी अपने अतीत से तौलते नजर आते हैं। उन्हें अपना अतीत इतना प्यारा लगता है कि वे उससे अलग होना ही नहीं चाहते। वर्तमान की उपेक्षा ही उनके दु:ख का कारण होती है, क्योंकि अतीत में वे अकेले ही जीते हैं। वर्तमान में रहने वाले लोग उनके अतीत के सहभागी नहीं होते, इसलिए वे वर्तमान की उपेक्षा करने लगते हैं। अतीत को अपने सर पर लादे हुए लोग कभी भी सुखी नहीं हो सकते। इसके लिए उन्हें अतीत के भूत को अपने सर से उतारना होगा, तभी स्थिति सँभल सकती है।
आज का इंसान इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं से पूरम्पूर है। जीवन एक ऐसा अस्पताल बन गया है, जहाँ मरीज को हमेशा दूसरे का बिस्तर ही अच्छा लगता है। वह यही देखता है कि सामने वाले के पास क्या-क्या है और उसके पास क्या-क्या नहीं है। उसके पास क्या नहीं है, यह चिंता उसे हमेशा सताती रहती है। जो उसके पास है, उसका उसे सुख नहीं है, बल्कि जो उसके पास नहीं है, उसका ही उसे सबसे अधिक दु:ख है। आज यही दुःख का मूल कारण है। इसके अलावा एक बात और है, वह यह कि आज का सबसे बड़ा रोग, क्या कहेंगे लोग? लोगों को आज अपने आप पर इतना भी विश्वास नहीं रहा कि वे अपनी बात को दृढ़ता से रख सकें, उन्हें हमेशा इस बात का डर होता है कि उनकी इस हरकत से लोग क्या कहेंगे। कई बार अमीर बेटा अपने गरीब बाप को सबके सामने केवल इसीलिए गले नहीं लगा सकता, क्योंकि लोग उसके बारे में क्या सोचेंगे। इस चक्कर में वह अपने पिता का सच्चा प्यार भी नहीं पा सकता और न ही सुपुत्र होने का सुबूत ही दे सकता है।
इंसान केवल इतना जान ले कि हमारी अतृप्त उत्सुकता ही दु:ख का कारण है। दु:ख कहीं बाहर से नहीं आता, वह हमारी कल्पना से ही उपजता है। दु:ख को यदि किसी से डर लगता है, तो वह है हँसी। जहाँ हँसी का साम्राज्य है, वहाँ दु:ख फटक भी नहीं पाता। हँसी के सामने दु:ख कभी टिक नहीं पाया। जो दु:ख में भी हँस लेता है, वह सीधे ईश्वर से जुड़ जाता है, ईश्वर भी उनकी इस महानता के सामने नत हो जाते हैं। जो है उसी में संतुष्ट हो जाएँ, यही वह मूल मंत्र है जिसके आगे बड़ी से बड़ी शक्तियाँ पराजित हो जाती हैं। जो अपने पास है उसकी खुशियाँ मनाएँ यही एक सत्य है जिसे हमें समझना है बस...
जीवन में हमारी अभिलाषा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
जीवन मे हम पाना क्या चाहते हैं ? एक अच्छी नौकरी, एक आलीशान घर , एक सुंदर पत्नी और सुंदर बच्चे , अपनी दुनिया, और फिर अनंत सपनें , जो आजतक किसी के पूरे नहीं हुए। यही सब है न? बेशक ये मानव की मूलभूत आवश्यकता है, पर क्या यही जीवन की परिणीति भी है ? आप ये सब जरूर प्राप्त करें , ये जरूरी भी है पर कहीं ऐसा तो नहीं कि इन सबके साथ साथ हम कुछ ऐसी चीजों के पीछे भी तो नही भाग रहे जो अनंत और व्यर्थ की दौड़ ही है बस। कहीं ऐसा तो नही कि ये अंतहीन दौड़ हमे मानव के स्वाभाविक गुणों से भी वंचित कर रहे हैं। आज का मानव बड़ा यांत्रिक तो नही होता जा रहा। वो सुख वहाँ खोज रहा है , जहाँ वे हैं ही नहीं।
अपने अहंकार को तृप्त करने को वो न जाने किन किन अंधी दौड़ों में भाग लिए जा रहा है। उसको न उगते सूरज को निहारने का समय है, न ही वो कभी अनंत उन्मुक्त चाँदनी में नहा पाता है। कभी किन्ही दरख्तों के पास भी नहीं दिखता, न ही उन अल्हड़ पंक्षियों के बीच उठते संगीत सुन पाता है। कही पूरा भर गया है घर से , गाड़ी से और पता नहीं किस किस से। जगह छोड़ा कहाँ, सब व्यर्थ की चीजों से भर दिया, वो श्रेष्ठ से भी संतुष्ट नहीं उसे श्रेष्ठतम चाहिए और कमाल की बात है कि वो आने वाली पीढ़ियों को भी वैसा ही बना रहा है, जो अपने न कर सका वो उनसे कराना चाहता है, वो ये भी भूल जाता है कि तुलना मशीन की होती है न कि जागृत स्वस्थ सजीव की वो बच्चों में परफेक्शन खोजता है और उसका खुद का जीवन परफेक्शन के करीब ही नहीं। जिस उम्र में बच्चों को बच्चा होना चाहिए , उन्हें उसी उम्र में बूढ़ा बनाने लग जाता है। संस्कार तो दे नहीं पाता वरन उनके अंदर के स्वस्थ आत्मा को चाभी से संचालित करने लग जाता है।
आइए जीवन संगीत को सुनें जो है, जैसे है सब पूर्ण है यहाँ! अधूरा कुछ नहीं। पूर्ण आप स्वयं से हैं और अपूर्ण भी स्वयं से ही। स्वयं के करीब आइए, उसे पूरी सजगता में सुनने और स्वीकार करने की कोशिश कीजिए। आइए एक कदम मानव होने को उठाएँ, मशीन होना तो वैसे भी बहुत सरल है ।
बुजुर्गों के जीवन में प्रकाश का द्वीप जलाएं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
विश्व में वृद्धों एवं प्रौढ़ों के साथ होने वाले अन्याय, उपेक्षा और दुव्र्यवहार पर लगाम लगाने के उद्देश्य से प्रत्येक 1 अक्टूबर को अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसे भिन्न-भिन्न-नामो से जाना जाता है जैसे- ‘अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस’, ‘अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस’, ‘विश्व प्रौढ़ दिवस’ अथवा ‘अंतरराष्ट्रीय वृद्धजन दिवस’ इत्यादि। इस अवसर पर अपने वरिष्ठ नागरिकों का सम्मान करने एवं उनके सम्बन्ध में चिंतन करना आवश्यक होता है। इस दिवस का आधिकारिक तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन द्वारा श्रीगणेश किया गया था। इस दिवस को मनाने का मुख्य उद्देश्य संसार के वृद्धों एवं प्रौढ़ों को सम्मान देने के अलावा उनकी वर्तमान समस्याओं के बारे में जनमानस में जागरूकता बढ़ाना है।
प्रश्न है कि दुनिया में वृद्ध दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों हुई? क्यों वृद्धों की उपेक्षा एवं प्रताड़ना की स्थितियां बनी हुई है? चिन्तन का महत्वपूर्ण पक्ष है कि वृद्धों की उपेक्षा के इस गलत प्रवाह को कैसे रोके। क्योंकि सोच के गलत प्रवाह ने न केवल वृद्धों का जीवन दुश्वार कर दिया है बल्कि आदमी-आदमी के बीच के भावात्मक फासलों को भी बढ़ा दिया है। विचारणीय है कि अगर आज हम वृद्धों को अपमान करते हैं, तो कल हमें भी अपमान सहना होगा। समाज का एक सच यह है कि जो आज जवान है उसे कल बुढ़ा भी होना होगा और इस सच से कोई नहीं बच सकता। लेकिन इस सच को जानने के बाद भी जब हम बुजुर्ग लोगों पर अत्याचार करते हैं तो हमें अपने मनुष्य कहलाने पर शर्म महसूस होती है। मनुष्यता को शर्मसार करने की स्थिति है।
वरिष्ठ नागरिक समाज की अमूल्य विरासत होते हैं। उन्होंने देश और समाज को बहुत कुछ दिया होता है। उन्हें जीवन के विभिन्न क्षेत्रों का व्यापक अनुभव होता है। हम आज परिवार, समाज एवं राष्ट्र को उंचाइयों पर ले जाने के लिए वरिष्ठ नागरिकों के अनुभव से लाभ उठा सकता है। लेकिन इसके लिये वृद्धों का उपेक्षा एवं उदासीनता की त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों को समाप्त करना होगा। वृद्ध अपने ही घर की दहलीज पर सहमा-सहमा खड़ा है, उसकी आंखों में भविष्य को लेकर भय है, असुरक्षा और दहशत है, दिल में अन्तहीन दर्द है। इन त्रासद एवं डरावनी स्थितियों से वृद्धों को मुक्ति दिलानी होगी। सुधार की संभावना हर समय है। हम पारिवारिक जीवन में वृद्धों को सम्मान दें, इसके लिये सही दिशा में चले, सही सोचें, सही करें। इसके लिये आज विचारक्रांति ही नहीं, बल्कि व्यक्तिक्रांति की जरूरत है।
वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे जो इन लोगों के पास है। सरकारी प्रयासों के साथ-साथ जनजागृति का माहौल निर्मित करना होगा, आज हम बुजुर्गों एवं वृद्धों के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने के साथ-साथ समाज में उनको उचित स्थान देने की कोशिश करनी होगी ताकि उम्र के उस पड़ाव पर जब उन्हे प्यार और देखभाल की सबसे ज्यादा जरूरत होती है तो वो जिंदगी का पूरा आनंद ले सके। वृद्धों को भी अपने स्वयं के प्रति जागरूक होना होगा, जैसाकि जेम्स गारफील्ड ने कहा भी है कि यदि वृद्धावस्था की झूर्रियां पड़ती है तो उन्हें हृदय पर मत पड़ने दो। कभी भी आत्मा को वृद्ध मत होने दो।
वृद्ध समाज इतना कुंठित एवं उपेक्षित क्यों है, एक अहम प्रश्न है। अपने को समाज में एक तरह से निष्प्रयोज्य समझे जाने के कारण वह सर्वाधिक दुःखी रहता है। संयुक्त राष्ट्र ने विश्व में बुजुर्गों के प्रति हो रहे दुव्र्यवहार और अन्याय को समाप्त करने के लिए और लोगों में जागरूकता फैलाने के लिए अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस मनाने का निर्णय लिया। यह सच्चाई है कि एक पेड़ जितना ज्यादा बड़ा होता है, वह उतना ही अधिक झुका हुआ होता है यानि वह उतना ही विनम्र और दूसरों को फल देने वाला होता है, यही बात समाज के उस वर्ग के साथ भी लागू होती है, जिसे आज की तथाकथित युवा तथा उच्च शिक्षा प्राप्त पीढ़ी बूढ़ा कहकर वृद्धाश्रम में छोड़ देती है। वह लोग भूल जाते हैं कि अनुभव का कोई दूसरा विकल्प दुनिया में है ही नहीं। अनुभव के सहारे ही दुनिया भर में बुजुर्ग लोगों ने अपनी अलग दुनिया बना रखी है। जिस घर को बनाने में एक इंसान अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है, वृद्ध होने के बाद उसे उसी घर में एक तुच्छ वस्तु समझ लिया जाता है। बड़े बूढ़ों के साथ यह व्यवहार देखकर लगता है जैसे हमारे संस्कार ही मर गए हैं।
वृद्धों को लेकर जो गंभीर समस्याएं आज पैदा हुई हैं, वह अचानक ही नहीं हुई, बल्कि उपभोक्तावादी संस्कृति तथा महानगरीय बोध के तहत बदलते सामाजिक मूल्यों, नई पीढ़ी की सोच में परिवर्तन आने, महंगाई के बढ़ने और व्यक्ति के अपने बच्चों और पत्नी तक सीमित हो जाने की प्रवृत्ति के कारण बड़े-बूढ़ों के लिए अनेक समस्याएं आ खड़ी हुई हैं। वृद्ध लोगों के लिये यह जरूरी है कि वे ईश्वरीय ज्ञान को ओढ़े नहीं, बल्कि जीएं। “सबका साथ, सब का विकास एवं सबका विश्वास’’ की गूंज और भावना वृद्धों के जीवन में उजाला बने, तभी नया भारत निर्मित होगा।
प्रेम अपरिभाषित है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
प्रेम को परिभाषित करना इस संसार के कई असंभव कामों में से एक है। प्रेम को परिभाषित नहीं किया जा सकता पर अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख़्या ज़रूर की जा सकती है। इसके अनगिनत पक्ष और अनगिनत रूप हैं। प्रेम का शून्य होना और अपने चरम पर होना, दोंनो ही वहम् है पर जो प्रेम में हैं, निभा रहे हैं, उनके लिए इससे बड़ा सच और भरोसा दूजा कुछ नहीं।
जब भी कोई प्रेम को परिभाषित करने निकला, उसने प्रेम को नकारते हुए, अनजाने में ही सही परन्तु उसके मूल अस्तित्व को अनदेखा करते हुए स्वार्थ की राह चुनी और लिखा अपने मन के भावों को।
इतना दुर्व्यवहार झेलने के बाद भी जो अपनी जगह ज्यों का त्यों बना रहा है वह प्रेम ही तो है। अंतर्मन की गहरी भावनायें भी गहरे कुएँ के नीर के समान प्रेम, बन कर रह गया प्रेमियों के नेत्रों का अश्रु मात्र।
जो कृष्ण ने राधा से किया , जो शिव जी ने गौरी माता से किया, उस प्रेम की उपमा दी गयी पर उसको परिभाषित न किया जा सका, संभवत: यह उच्चतम चोटी है प्रेम की। यह उपाधि सभी उपाधियों की पराकाष्ठा है। जो ईश्वर से जुड़ी है, भला उससे श्रेष्ठ क्या है जग में, अंतत: मनुष्य ने स्वीकारा है नाम प्रभु का और उनसे जुड़ी उपमायें, उसने सही समझा प्रेम को परिभाषित करने की चेष्टा ना करना। विरह और बिछोह, ये दो नेत्र हैं प्रेम के। जब भी प्रेम को लिखा गया, ये दोंनो प्रेम का अग्र और मुख्य भाग बन कर उभरे।
मैं अपनी बात करूँ तो मेरे लिए प्रेम जीवन का आधार है। जीवन में एक ऐसे साथी का होना जो पहले आपके भावनात्मक पहलू पर ज़ोर दे, तत्पश्चात उसे सुदृढ़ करे, वही सच्चा प्रेमी है। जो मन से जुड़े किसी तार की तरह और उत्पन्न करे संचार और अपार रौशनी। जो प्रेम और प्रेमी को अलग रखे। एक ऐसे इंसान का होना जो आपसे प्रेम निभाये, जिसके होने से आप आत्मिक तौर पर पूर्ण हो जायें, आपके सभी पक्षों पर ग़ौर करे। यह सब होने के बाद भी जो प्रेम का केंद्र हो और जो केवल आपके लिए प्रेम को परिभाषित करता हो, जो आपके लिए प्रेम को परिभाषित करने की जीती जागती मूरत हो।
और भी बहुत कुछ लिखा जा सकता था पर अभी के लिए बस इतना ही समेट पा रहा हूँ..!!
प्रकृति स्वभाव : सात्विक, राजसी और तामसी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
मनुष्य जन्मता है, फिर उसमें अपने कुल-धर्म के अनुसार संस्कार पड़ते हैं । कोई झूलेलाल का, कोई गणपति का, कोई रामजी का, कोई शिवजी का, कोई अल्लाह का भगत बनते हैं । भगत तो बन गये लेकिन आदत सबकी अलग-अलग होती है । किसी की सात्विक, राजस, और तामसी आदत होती है । जैसा संग मिलता है वैसी आदत पुष्ट होती है । जैसा रिलेशन, कम्पनी, साहित्य मिलता है, खान-पान, रहना-करना । १० प्रकार के साधनों का असर पड़ता है । जैसे माता-पिता के, दादा-दादी, नाना-नानी स्वभाव का बच्चे पर असर पड़ता है ऐसे ही खान-पान का, शास्त्र का, मंत्र का, संग का प्रभाव पड़ता है ।
तो इसमें ३ मुख्य गुण होते हैं । सात्विक, राजसी और तामसी स्वभाव । जो आया वो खा लिया, जो आया वो बोल दिया, जो दिल में आया कर डाला कुछ सोचा नहीं । जिसकी तामसी आदत है आलस्य, निद्रा, झूठ, कपट तो ये तामसी, राजसी स्वभाव के लोग हैं । तामसी स्वभाव अगर छुपा-छुपा के करते गये तो मरेगा तो कीड़क योनि में जायेगा, साँप, मेंढ़क, पतंगिया, छछूंदर, दूसरी ऐसी तमस प्रधान योनि होती हैं ।जिनका राजसी स्वभाव बन जाता है, राजसी स्वभाव का बहलिया होता है और पाप ज्यादा नहीं करते तो मरने के बाद मनुष्य योनि में आते हैं । राजसी स्वभाव में लोभ, काम, क्रोध होता है लेकिन साथ-साथ में पाप से बचता रहता है । जब भूल कर लेता है तो पश्चयताप कर लेता है । ऐसे जमा-उधर गाड़ी चलती है वो राजसी स्वभाव के होते हैं । राजसी स्वभाव में भी सात्विक का अंश ज्यादा है तो ऊँचे कुल का होगा । और तामसी स्वभाव ज्यादा है तो नीच योनि का मनुष्य होगा । कहीं अनपढ़ वातावरण में, झोपड़-पटी में, शराबी-कबाबी के घर में । अथवा तो राजसी है लेकिन कुछ शुभ कर्म ज्यादा हैं तो किसी संत के, भक्त के, अच्छे कुल के संस्कार वाले में जन्म लेगा ।
अगर सात्विक स्वभाव ज्यादा बन गया, जप, ध्यान, परोपकार, सेवा की आदत पड़ गयी, सादगी से रहने की पवित्र आदत पड़ गयी, सत्य बोलने की आदत पड़ गयी, सयंमी रहने की आदत पड़ गयी तो वो सात्विक हो गया । तो मरने के बाद देव लोक में दिव्य भोग भोगेगा खूब सुख भोगेगा बाद में या तो श्रीमान, पवित्र कुल में जन्म लेगा या तो किसी योगी के घर जन्म लेगा ।
और बचपन से ही उसको ऐसे संस्कार, वातावरण मिल जायेगा के वो भगवान को पा लेगा । लेकिन जो सात्विक स्वभाव के हैं, और स्वर्ग नहीं चाहते हैं, ईश्वर ही चाहते हैं, मुक्ति ही चाहते हैं तो फिर वे देवताओं के भोगों को तुच्छ समझने वाले, सात्विक स्वभाव वाले खोजते हैं के मुक्ति कैसे मिले, भगवान कैसे मिलें ?
भगवत प्राप्ति की इच्छा वाले दो प्रकार के होते हैं । एक तो सगुण, साकार भगवान को पाना चाहें, कृष्ण, राम, शिव, गणपति भगवान । तो उन्हीं की पूजा करते-करते मर जायेंगें तो उन्ही के लोक में जायेंगे । दूसरे वो होते हैं भगवान जिससे भगवान हैं, शिव जिससे शिव हैं, गुरु जिससे गुरु हैं, वो महान तत्व क्या है ? उसकी जिज्ञासा होती है । तो फिर ब्रह्मज्ञानी के सम्पर्क में उनकी रूचि होंगी, वो खोज लेंगें, वहाँ पहुँच जायेंगें । फिर ब्रह्मज्ञान का विचार करेंगें । कृष्णजी का, रामजी का नहीं, ब्रह्मज्ञानी गुरु ने जैसा उपदेश दिया है उसी प्रकार ब्रह्म परमात्मा की उपासना, आराधना करेंगें ।
ब्रह्म परमात्मा की उपासना, आराधना करने वालों में भी २ प्रकार के लोग होते हैं । एक तीव्र साधन करता है, दूसरा मंद करता है । तीव्र साधन वाला तो जल्दी ब्रह्म परमात्मा को पा लेगा, और जिसका ढीला साधन है तो मरते दम तक परमात्मा का साक्षात्कार तो नहीं कर सकेगा, लेकिन साक्षात्कार की इच्छा है । तो मरने के बाद अगर उसकी साधना एकदम मंद है, तो सवर्ग का सुख भोगकर फिर आकर किसी अच्छे वातावरण में यात्रा करेगा ।
अगर उसकी तीव्र साधना है, तर-तीव्र नहीं तीव्र तो मरने के बाद बरहम लोक में जायेगा । जैसे गुरु को आश्रम में रहने का वातावरण मिलता है वैसे ही शिष्यों को मिल जाता है, जिस धरती पे गुरु रहते हैं, उस धरती पे शिष्य रहते हैं । तो ऐसे ही जैसे ब्रह्माजी को मिलता है ऐसे ही बरह्मलोक का वातावरण, सुख सामग्री वहाँ रहने वालों को भी मिल जाता है । लेकिन ब्रह्माजी के अधिकार अपने रहते हैं, ब्रह्म लोक निवासी के अपने रहते हैं । जब प्रलय होता है, तब ब्रह्म लोक निवासी, ब्रह्माजी का तत्व ज्ञान का उपदेश सुनके उस ब्रह्म परमात्मा में लीन हो जाते हैं । जिसकी सत्ता से तमाम सूरज, आकाश गंगाएं और पुरे ब्रह्माण्ड चलते हैं, उस परब्रह्म का आखरी उपदेश, क्योंकि पहले तो सुन के आया धरती पर से, लेकिन कच्चा रह गया । तो आखरी उपदेश ब्रह्माजी का सुनके ब्रह्म लोक को, ब्रह्म परमात्मा को पा लेगा।
हम पर्यावरण का ख्याल रखें, पर्यावरण हमारा ख्याल रखेगा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
भारतीय संस्कृति में ऋषि-मुनियों ने पर्यावरण को स्वच्छ और वातावरण को स्वस्थ रखने के लिए अनेक व्यवहारिक पक्ष समाज को दिए हैं। धरती पर जीवन संतुलित बना रहे, आबाद रहे इसके लिए पर्यावरण संरक्षण आवश्यक है। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, वन, पहाड़, नदी, झील आदि के महत्व को उन्होंने जाना और समझा। इसके संरक्षण हेतु अनेक मार्ग भी बताए। जब हम स्वच्छ पर्यावरण की बात करते हैं, तो यह केवल हानिकारक गैसों और रसायनों से मुक्त होने की बात नहीं होती। पर्यावरण में हमारे आस-पास का सारा माहौल शामिल है। इस माहौल को दूषित करने के अपराध सहभागी हर वह व्यक्ति है, जो कहीं भी थूक देते हैं, गुटका-पाउच, पॉलीथिन सड़कों पर कहीं भी फैंक देते हैं। अपने घर का कचरा समेटकर किसी तरह थैले में ठूंस कर कहीं भी पटक आते हैं, जला देते हैं …। क्या आपको अंदाजा है कि कचरे के प्रकार, मात्रा और उसके उचित निस्तारण के प्रति अपने उदासीन रवैये के चलते पर्यावरण को क्षतिग्रस्त करने में हम सब बहुत बड़ी भूमिका निभा रहे हैं।
आधुनिक युग में वैज्ञानिक और तकनीकी विकास का एक भयानक पहलू है पर्यावरणीय असंतुलन।जिसके कारण धरती की सेहत लगातार गिरती जा रही है। धरती पर पादप जगत और जीव जगत एक दूसरे पर आश्रित हैं। यह सहजीवन जितना सहज होगा, दुनिया मे उतनी ही खुशहाली, हरियाली रहेगी। हजारों सालों से यह संतुलन बरकरार रहा, लेकिन धीरे धीरे जब इंसानी आबादी विस्तार लेने लगी और उसके अस्तित्व के लिए प्राकृतिक संसाधन कम पड़ने लगे, तो इसके लिए पेड़ -पौधों को काटा जाने लगा। नदियों को बाँधा जाने लगा और पहाड़ों को क्षरित किया जाने लगा, तो पर्यावरण संतुलन बिगड़ने लगा। परिणामतः मानव जाति के अस्तित्व को ही खतरा पैदा हो गया। यह ठीक है कि विज्ञान ने हमको बहुत कुछ दिया है, जिससे मानव बहुत सरल व सुखी हो गया है। परंतु अपनी तृष्णाओं व अनन्त विकास-विस्तार, संवेदनहीनता, बौद्धिकता की लालसा, बेइंतहा भाग-दौड़ से मानवता का स्वभाव भी अधिक मारक व उग्र होता जा रहा है। तकनीकी के ज्यादा प्रयोग और मुनाफा कमाने के चक्कर में मानव ने जल, थल, नभ सभी कुछ को ही मथ डाला है। आज मानव विकास के मार्ग पर तेजी से बढ़ रहा है वहीं बड़े-बड़े कल-कारखानों की चिमनियों से लगातार उठने वाली जहरीली गैसें, धुआँ वायुमंडल में घुलती जा रही है। बड़ी-बड़ी मशीनों का शोर वायु प्रदूषण के साथ-साथ पर्यावरण को दूषित कर रहा है। प्राणवायु देने वाले पेड़ों को काटकर राजमार्ग बनाये जा रहे है। कॉलोनियां बसाई जा रही है। इससे धरती पर जीवनदायनी ऑक्सीजन की कमी होती जा रही है। मनुष्य के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। कई तरह की बीमारियां पनप रही है।
मानव जीवन को भौतिक सुविधाएं तो प्राप्त हो रही है, परन्तु पृथ्वी पर मौजूदा जीवन आधारित स्त्रोत तेजी से समाप्त होते जा रहे हैं । भूमि के अतिरिक्त दोहन व उत्खनन से जैव-विविधता, पशु-पक्षी, वनस्पति, जल, नदियां, तालाब, झीलें, पहाड़ धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार पर पहुंच रहे हैं। विभिन्न प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन के साथ धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी ने धरती के ऋतु चक्र को ही गड़बड़ा दिया है। युद्ध जैसी विभीषिकाओं से उत्सर्जित रासायनिक पदार्थ व गैसें हमारे प्राकृतिक संसाधन को ही नहीं, बल्कि समूचे वायुमंडल को विषाक्त कर रहे हैं। पूरी धरती का दम प्रदूषण से घुट रहा है। इस घुटन के प्परिणाम स्वरूप ही तो प्राकृतिक आपदाएं बढ़ने लगी है। भूकम्प, अतिवृष्टि, पहाड़ों के टूटना, सुनामी जैसे खतरे बढ़ने लगे गए हैं। इन बढ़ते खतरों से मानव जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ता जा रहा है। हम इस बात पर गर्वकर सकते हैं कि मोबाइल फोन, लेपटॉप, कम्प्यूटर, टी. वी., माइक्रोवेव ओवन, मेडिकल उपकरण, एयर कंडीशनर आदि की संख्या कुल आबादी से कई गुनाअधिक हो गई है।हर दिन इनमें से कई हज़ार खराब होते हैं या पुराने होने के कारण कबाड़ में डाल दिए जाते हैं। सभी इलेक्ट्रिक उपकरणों का मूल आधार ऐसे रसायन होते हैं जो जल, जमीन, वायु, मानव और समूचे पर्यावरण को इस हद तक नुकसान पहुंचाते हैं कि उबरना लगभग ना मुमकिन है। यही ई-कचरा है। यही बात प्लास्टिक व प्लास्टिक उत्पादों के बारे में कहीं जा सकती है। इनसे निकलने वाले जहरीले तत्व और गैसें मिट्टी व पानी मे मिलकर उन्हें बंजर और विषैला बना देती है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा तथा वनस्पति ये सब पंचभूत तत्व मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। इन सबमें प्रकृति जन्य संतुलन बना रहना मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक है। धरती के स्वास्थ्य को बनाये रखने के लिए हमें अपनी जीवन चर्या को इर तरह नियंत्रित करना चाहिए कि जिससे प्रकृति के साथ सहयोग, समन्वय और समरसता बनी रहे। उपभोगवादी संस्कृति और अति स्वार्थपूर्ण प्रवृतियों को बदलने की जरूरत है, तभी मानवता का भविष्य व पृथ्वी का अस्तित्व सुरक्षित रह सकता है। विश्व के विभिन्न देशों की सरकारों को जागरूक होकर पर्यावरण संरक्षण के लिए कारगर उपायों की तरफ शीघ्रता से चिंतन करना चाहिए। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है। सरकारें तो इस दिशा में कार्य करेगी है, पर धरती के आम नागरिक होने के नाते पर्यावरण संरक्षण के लिए हर व्यक्ति अपने-अपने प्रयास ईमानदारी पूर्वक करने चाहिए। व्यक्ति अपनी सोच, अपने कर्म, अपने उद्देश्य को बदलें। सबको सही समय पर दिशा मिले, क्योंकि बिना महत्वाकांक्षी-मन को संयमित किये पर्यावरण दूषित होने से बच नहीं सकता। कितनी विचित्र बात है कि एक मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो सब कुछ पाकर भी खुद को खो देने के जतन में लगा है। दूसरों की समस्याओं का समाधान ढूँढते-ढूँढते स्वयं अपनी अस्मिता और अस्तित्व खोने की ओर अग्रसर है। कहाँ गया वो आदमी, जो स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था? गोचर भूमि का एक ग़ज़ टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। जिसके लिए जल की एक-एक बूंद भी जीवन जितनी कीमती थी। कत्लखानों में कटती गायों की निरीह आहें जिसे बेचैन कर देती थी।जो वन्य जीवों के संरक्षण के लिए पेड़ लगाना अपना धर्म मानता था। वातावरण को स्वच्छ करने के लिए तुलसी का पौधा हर घर -आँगन की शोभा हुआ करता था। जो आदमी धरती को माँ की तरह सम्मान देता था, अफसोस कि ऐसा आदमी दुनियावी विकास की आंधी में कहीं खो गया है। आज आदमी खुद पर्यावरण बैरी बन गया है। जब आदमी के भाव, विचार और कर्म बदलते हैं तो उसका प्रभाव बाहरी पर्यावरण पर भी पड़ता है। दूषित पर्यावरण दूषित वृत्तियों का परिफलन है। इस लिए जरूरी है कि प्रकृति-संतुलन और सुरक्षा के लिए व्यक्ति स्वयं के चरित्र को बदले। शुरुआत हमें अपने आप से करनी होगी।
आज हमारी फैलाई गंदगी हमारी ही सांसों में घुल रही है, भोजन-पानी मे मिल रही है। हमारा फैलाया कचरा हमें ही बीमार कर रहा है। क्या हम जानते हैं कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने में हम खुद रोज कितना योगदान देते हैं? एकबार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। रोज जाने -अनजाने कितना कचरा फैलाते है हम? भारत मे सार्वजनिक स्थलों, धर्मस्थलों, बाग-बगीचों आदि जगहों पर फैली गंदगी को देखकर बाकी दुनिया को लगता है कि गंदगी फैलाना हमारा मौलिक अधिकार है। क्या आप कभी ऐसा सोचते है? हम विदेशों में जाते हैं, एयरपोर्ट या हाई प्रोफाइल मॉल में जाते हैं तो वहां चिप्स का खाली पैकेट या चॉकलेट का रैपर भी डस्टबिन नहीं दिखने पर जेब में रख लेते हैं, तो हर जगह सही काम क्यों नहीं करते? अपने आप को धार्मिक कहते हैं लेकिन धर्मस्थलों पर गंदगी फैलाने से बाज़ नहीं आते? दुनिया भर में आप अपने प्रकृति प्रेमी होने का ढिंढोरा पीटते हैं, और विकास के नाम पर सैकड़ों पेड़ कटवा देते हैं। क्या आप पर्यावरण की महत्ता, उसकी सुरक्षा का समुचित ज्ञान अपने बच्चों को देते हैं? कोई भी कार्य केवल सरकार के बूते नहीं हो सकता। पर्यावरण की स्वछता नागरिकों का भी कर्तव्य है। हम बस एक बार अपनी जीवन शैली पर नज़र डालें। किसी के प्रति नहीं, हम खुद के, अपने परिजनों और आनेवाली अपनी पीढ़ियों के प्रति जवाबदेह हैं। गंदगी केवल बीमार पर्यावरण, घ्रणित हालात, लोग और माहौल पैदा करेगी। जब समय और पीढ़ी सवाल पूछेगी, तो क्या हमारे पास जवाब होगा? धरती की पुकार कानों में कसक पैदा कर रही है कि पर्यावरण के सुधार के लिए लग जाओ ताकि स्वच्छ हवा, पानी मनुष्य को मिलता रहे। धरती को पेड़ों से आच्छादित करदो ताकि जीवनदायिनी हवा कम न हो। मानव जीवन बचाना है तो पर्यावरण बचाना ही हमारी प्राथमिकता हो। अगर आप देश, समाज के लिए मुफ्त में कुछ करना चाहते हैं, तो गंदगी न फैलाएं। यह पाप मत कीजिये। खुद सफाई रखिये और इसके लिए आगे बढ़कर पहल कीजिये। पर्यावरण प्रदूषण के दुष्प्रभावों से बचने के लिए पेड़ों को बचाइए, गंदगी मत फैलाइये और पर्यावरण के बैरी बनने से बचिए। धरती और मानवता आपकी आभारी रहेगी।
लिखने की ललक : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
"लेखन कला जीवन की रीत, शाश्वत जीवन ईश्वर की प्रीत"
यदि आपके पास कोई विचार है, तो बस उसे लिखें। भविष्य के किसी भी संपादन, संशोधन और पुनर्लेखन के बारे में न सोचें। अपने काम को प्रकाशित करने के बारे में चिंता न करें। बस अपने विचारों को लिखें।
अपने बहुमूल्य सृजन को अपने विचारों को अपने मस्तिष्क में समाप्त न होने दें। यदि आप ऐसा करते हैं तो आपको अपने लेखन को बाद में पढ़ने पर समझ में आएगा कि आपने जो लिखा है, आपने जो रचा है, आपने जो बनाया है, उसमें भी एक ध्यान शामिल है, उसका भी केंद्र है।
आपका लेखन भी प्रकाशन के योग्य है केवल आप ही ऐसे व्यक्ति हो जो अपने लेखन को तुलनात्मक दृष्टिकोण रखने के कारण दूसरों से अल्पज्ञ समझते हो।
यदि लेखन करना है तो सबसे पहले अपने भीतर एक अनुभवी लेखक होने की ललक को जगाना चाहिए। प्रश्न यह भी है कि लेखन कार्य कौन करने को आगे बढ़ता है लॆखन वही करने को आगे बढ़ता है जिसके अंदर भाषा की समझ, शब्द विस्तार, जिंदगी के अनुभव और सशक्त भावनाएं हो।
भाषा की शुद्धता और भावना किसी भी लेखन का प्राण होती है। हम जीवन को प्रतीक के रूप में, अक्षर ब्रह्म के रूप में गढ़ते है। जीवन प्रतीक एक विशाल वृक्ष की तरह है। यह वृक्ष हमारे व्यक्तिगत विकास, विशिष्टता और व्यक्तिगत सौंदर्य का प्रतिनिधित्व करता है।
जिस तरह एक पेड़ की शाखाएं अपनी जड़ों को मजबूती से पकड़े होती हैं और आकाश की ओर बढ़ती हैं, वैसे ही हमे भी अपने लेखन को एक वृक्ष की मजबूती के जैसे विस्तार देते जाना चाहिए। स्पष्ट ज्ञान और ज़िंदगी के नित नए अनुभव से हमें धरा पर जीवन के नौ-रस को बरसाने का पुण्य कर्म प्राप्त हुआ है।
हर रस में ईश्वर की जीवनदायी उपस्थिति ही शाश्वत जीवन की पूर्णता है।
वृद्धि और विकास की प्रमाणिकता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। चेतन या निर्जीव वस्तुएं सभी परिवर्तन के अधीन हैं। जीवन के प्रवाह और चक्र को बनाए रखने के लिए चेतन वस्तुओं को मुख्य रूप से निर्जीव वस्तुओं से अलग किया जाता है। बीज, मिट्टी में अंकुरित होने के बाद पौधे के रूप में विकसित होते हैं और फिर विशिष्ट पौधों या पेड़ों के रूप में विकसित होते हैं, जो फूल में बदल जाते हैं और आगे अंकुरण के लिए बीज या फल पैदा करते हैं। पक्षियों, जानवरों और मनुष्यों के साथ भी ऐसा ही होता है, जो नर और मादा के बीच यौन संबंध के माध्यम से प्रजातियों की विशिष्ट विशेषताओं के संचरण के द्वारा अपनी तरह का प्रजनन कर सकते हैं।
जहां तक मनुष्य का संबंध है, पिता के शुक्राणु कोशिका द्वारा मां के डिंब (अंडे की कोशिका) के निषेचन की प्रक्रिया के परिणामस्वरूप माता के गर्भ में जीवन की शुरुआत होती है। माँ का गर्भ तब नए जीवन के विकास और विकास के लिए साइट और अर्थ बन जाता है और यह केवल नौ महीने के बाद होता है कि बच्चा एक नए जन्म के रूप में दुनिया में आने में सक्षम होता है। मां के गर्भ में बिताए गए समय को प्रसव पूर्व अवधि कहा जाता है और आमतौर पर एक कालानुक्रमिक उम्र की गणना में शामिल नहीं किया जाता है।
मानव सहित सभी जानवरों में, जन्म के पूर्व की अवधि मिट्टी से बाहर आने के लिए एक अंकुरित बीज द्वारा लिया गया समय जैसा दिखता है, जो तब बढ़ता है और एक पूर्ण विकसित पौधे या पेड़ में विकसित होता है। वे प्रक्रियाएँ जिनके द्वारा एक अंकुरित बीज या गर्भित जीव को परिपक्व पौधे में बदल दिया जाता है या पूर्ण विकसित होने को सामूहिक रूप से वृद्धि और विकास कहा जाता है।
विकास एक बच्चे के आकार या बच्चे के कुछ हिस्सों में प्रगतिशील वृद्धि है। विकास विभिन्न कौशल (क्षमताओं) का प्रगतिशील अधिग्रहण है जैसे सिर का समर्थन, बोलना, सीखना, भावनाओं को व्यक्त करना और अन्य लोगों के साथ संबंधित। वृद्धि और विकास साथ-साथ चलते हैं लेकिन अलग-अलग दरों पर।
वृद्धि और विकास का आकलन करने का महत्व
विकास और विकास का आकलन बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण की स्थिति का पता लगाने में बहुत मददगार है। लगातार सामान्य वृद्धि और विकास एक बच्चे के स्वास्थ्य और पोषण की अच्छी स्थिति का संकेत देते हैं। असामान्य वृद्धि या वृद्धि विफलता बीमारी का एक लक्षण है। इसलिए, विकास की माप शारीरिक परीक्षा का एक अनिवार्य घटक है।
वृद्धि और विकास को प्रभावित करने वाले कारक
प्रत्येक बच्चे का पथ वृद्दि और विकास का पैटर्न आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। आनुवांशिक कारक वृद्धि और विकास की क्षमता और सीमाओं को निर्धारित करते हैं। यदि अनुकूल हो, तो पर्यावरणीय कारक, जैसे पर्याप्त पोषण, वृद्धि और विकास की आनुवंशिक क्षमता की उपलब्धि को सुविधाजनक बनाते हैं। प्रतिकूल कारक, अकेले या संयोजन में कार्य करना, वृद्दि और विकास को धीमा या रोकना। कुछ प्रतिकूल कारक कुपोषण, संक्रमण, जन्मजात विकृतियां, हार्मोनल गड़बड़ी, विकलांगता, भावनात्मक समर्थन में कमी, खेल की कमी और भाषा प्रशिक्षण की कमी हैं। अनुकूलतम विकास को बढ़ावा देने के लिए, इन पर्यावरणीय कारकों को हटाया या कम किया जा सकता है। एक बार जब वे हटा दिए जाते हैं, तो वृद्धि को पकड़ने की अवधि होती है। इस अवधि के दौरान विकास दर सामान्य से अधिक है। यह वृद्धि दर तब तक जारी रहती है जब तक कि पिछले विकास पैटर्न नहीं पहुंच जाता है। फिर विकास दर व्यक्ति के आनुवंशिक कारकों द्वारा निर्धारित सामान्य दर तक कम हो जाती है। एक बच्चा आनुवंशिक रूप से लंबा होने के लिए निर्धारित होता है एक बच्चे के आनुवंशिक रूप से छोटा होने की तुलना में थोड़ा अधिक तेजी से बढ़ता है। इसी तरह, एक बच्चा आनुवंशिक रूप से चतुर होने के लिए निर्धारित होता है, जो कि कम बुद्धिमान होने के लिए आनुवंशिक रूप से निर्धारित बच्चे की तुलना में अधिक तेजी से अपनी बुद्धि विकसित करता है।
सकारात्मक दृष्टिकोण अंधेरे में भी प्रकाश पाते हैं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
जब सकारात्मक, हम अंधेरे में भी प्रकाश पाते हैं। हमारा भारतीय दर्शन हमें सकारात्मक सोचने के लिए प्रेरित करता है। यह जानकर, हम अक्सर क्रोधित होते हैं और नकारात्मकता पर हावी होते हैं। इसी समय, सभी शोधों ने पुष्टि की है कि जो व्यक्ति सकारात्मक सोच को प्राथमिकता देता है वह हमेशा संतुष्टि और खुशी का अनुभव करता है। उनकी प्रतिरक्षा भी अपेक्षाकृत बेहतर है। जल्द ही समस्या का हल भी ढूंढेंगे। स्वस्थ जीवन के लिए सकारात्मक सोच अमृत के समान है।
जीवन के संघर्ष में, यदि हम सकारात्मकता पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो हमारे सभी कौशल निश्चित रूप से विकसित होंगे। सकारात्मक सोच रक्त में एंटीबॉडी की मात्रा को बढ़ाती है, जिससे हमारी प्रतिरक्षा बढ़ जाती है। यदि हम अपनी मजबूत क्षमताओं को पहचानते हैं और उनका उचित उपयोग करते हैं, तो हम भी सकारात्मक महसूस करते हैं। परिवार, समाज और प्रकृति से हमें जो सहयोग मिला है, उसके लिए आभार व्यक्त करने के लिए मन भी प्रसन्न है। ऐसी स्थिति में खुद सकारात्मक रहें और दूसरों को भी सकारात्मक होने के लिए प्रेरित करें। स्थिति चाहे कितनी भी प्रतिकूल क्यों न हो, हम अंत में सकारात्मक ऊर्जा के साथ सबसे बड़ी लड़ाई जीतेंगे। वैश्विक महामारी से पूर्णतया निजात पाने के लिए जिसे हम अभी सामना कर रहे हैं, हमें इसे दूर करने के लिए धैर्य और साहस दिखाना होगा। भारत में हर घर गुणों की खान है। वे सभी विशेष क्षमताओं से भरे हैं। ऐसे में हमें अपनी रचनात्मक और रचनात्मक शक्ति का उपयोग करते हुए आगे बढ़ना होगा। सभी एक साथ मिलकर एक अद्वितीय शक्ति और सुंदरता का निर्माण करते हैं। इसलिए, हमें भारतीय होने का गौरव बनाए रखते हुए इस संकट पर काबू पाने में योगदान देना चाहिए।
जीवन परिधि : जहाँ से शुरू वहीं पर अंत : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
जबसे दूरियों का मापन समय में होने लगा, समय की चाल और बढ़ गई। समय और आगे चलता चला गया। हम नापते रहे, वह दूरपार होता रहा। एकान्त के क्षण कम होते गए। व्यक्ति स्वयम को ओढ़ना-बिछाना भूल गया। शीघ्रता की समझ अधीरता में परिवर्तित हो गई। समय सिकुड़ता चला गया और व्यक्ति अपने को समेट न सका। कहते हैं कि समय की चाल बड़ी तीव्र होती है। इतनीं तीव्र कि सूर्य भी उसमे सिमट आता है। वास्तविकता तो यह कि सूर्य न तो उदय होता है और न ही अस्त। किन्तु हमारे समय की सांसारिक समझ उसी के चतुर्दिक गति करती है। हम सूरज से न केवल जैविक रूप से सम्बद्ध हैं, अपितु वह समय की पतली धार को पृथ्वी की धुरी पर उड़ेलता है। हमारी पृथ्वी अपने अक्ष पर चौबीस घण्टे में घूम आती है। यदि यह न घूमती तो दिन-रात की यह पहेलियाँ कहाँ से होती। यह घूमना भी समय-चक्र का ही एक अंश है। अत्यन्त सूक्ष्म अंश। यह इतना सूक्ष्म है कि हमे इसका अनुभव तक नही होता। उधर धरती चुपचाप घूमती है। इधर हम बोलते हुए। ऐसी ही कितनी चुप्पियाँ इस ब्रह्मांड में पसरी हुई हैं। ग्रहों की चुप्पियाँ। नक्षत्रों की चुप्पियाँ। उल्का पिण्डो की चुप्पियाँ। सहस्र चुप्पियाँ।
एक तारे को दूसरे तारे की सूचना नही।छिटके तारे, ज्यों किसी ने उन्हें छींट दिया हो। अनगिन एकान्त। देखकर तो यों लगता है जैसे हम कूदकर एक से दूसरे पर चले जायेंगे। किन्तु वहाँ पहुँचने में अनथक चाल भी थक जाए। इतना एकान्त। ऐसे ही एकान्त पसरा है अस्तित्व के हर छोर पर। अन्तरिक्ष के हर छोर पर समय की चाल गणनात्मक रूप से भिन्न, किन्तु समय तो बस वही एक न। ऐसा एकान्त। धरती भी अपना समय पूर्ण करेगी। यह शेष भी अशेष होगा। तो वह कौन धरती होगी, जहाँ हम होंगे। पुनः एक एकान्त। समय सूचनाएँ नही भेजता। वह पसीजता रहता है। वह अनवरत है। जब कुछ न होगा तो भी वह होगा। वह चलता रहेगा। उसे इसबात की कोई चिन्ता नही कि उसे नापने वाला कोई है भी या नही। हर मापक विदा हो जाता है। कोई वय नापते, कोई अर्जित नापते, कोई दूसरे को नापते।आदमी नपते हुए नापता है। न यह नाप कभी पूरी होती है और न ही समय रुकता है। वह रत्ती-रत्ती बढ़ता है और अनाहट ही द्वार पर साँझ की थपकन छोड़ जाता है। तब सम्भवतः उसके जीवन के इस अन्तिम छोर पर, इसबार का अन्तिम एकान्त घिर जाता है। और वह चल देता है सुदूर किसी घटते हुए नव-एकान्त के द्वार।
मैं वारंवार ऐसे क्षण दुहराता हूँ। जो गीत अवचेतन को छलता है, उसे रच-रचकर गाता हूँ। यह दुनिया काठ के गीत सम है। धुन की अपरिचित रहस्यों को समेटे। और रहस्यों का हरक्षण मरण। ऐसे ही हर क्षण को अपने मे मरते हुए देखता हूँ। यह कुछ और करे न करे, मुझे और कुछ करने से बचा ले जाता है। तिसपर भी मुझमें जो बचता है, उसे पुनः अपने को ही सौंप देता हूँ। छोड़ देता हूँ समय पर कि मुझे वो मुक्त होकर बाँच सके। समय की यह मुक्ति ही मेरा मापन है। और मैं इसी एकान्त को दोहराता हूँ।
संकल्प : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
संकल्प वह शक्ति है जो व्यक्ति को दृढ़, साहसी, स्वप्रेरित व अपने लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्ध करता है। व्यक्ति को परखता है, निरखता है। निहितार्थ यह है कि संकल्प लेने के प्रक्रिया में अनगिनत उधेड़बुन, अस्थिरता, उद्वेग आदि से गुजरना होता है। अपने होने मात्र की अनुभूति से संघर्ष करना होता है। समाज के तीक्ष्ण वाणों और प्रकृत के माया से निकल जाना होता है।
इस तरह व्यक्ति गीता के स्थितप्रज्ञ की भाँति स्थिरचित्त होकर ,अपने मन को झंकृत कर यह कहता है कि" हाँ मुझे यही करना है" ।
अब ये आवश्यक नहीं कि ये संकल्प ऊँचा हो, बड़ा हो, सफल हो। होता है तो बस अटल, अविरल और अडिग। जैसे एक बच्चे का जन्म ही , माता -पिता के जिम्मेदारी का संकल्प है, एक किसान को अपनी फसल बचाने का संकल्प है, एक विद्यार्थी को अच्छा पढ़ने का संकल्प है। संवैधानिक पद संविधान के पालन से संकल्पबद्ध है। नौकरीपेशा अपने काम के लिए संकल्पबद्ध हैं। प्रेमी अपने प्रेमिका को पा लेने, नदी सागर में गिर जाने, हवा सरसराहट से बह जाने, बूंदे बरस जाने के लिए संकल्पबद्ध है।
हालाकि कुछ ऐसे संकल्प हैं जो छूट भी जाते हैं, वो प्रकृत को मलिन न करने का, बुजुर्गों के देखभाल न करने का, लोकतंत्र को लज्जित न करने का, राष्ट्रीयता की भावना से विमुख होने का आदि। कुछ लोगों के संकल्प होते तो है ,पर इनके मार्ग और लक्ष्य कुछ अलग होते हैं, जैसे वन को काट देने का,धन हड़प के जमा कर लेने का, सत्ता पर बने रहने का, भय का आतंक कायम कर लेने का , दूसरों के हक मार लेने का आदि।
यानी ये बात सहज ही स्वीकार कर लेने का है कि हमारी मनोवृति ही यह निश्चय करती है कि क्या निर्णय लें और क्या छोड़ दें। अंततः परिणाम संकल्प की परीक्षा है।
कर्म अपने कर्ता को पहचान लेता है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"
समय तटस्थ व निरपेक्ष रहते हुए साक्षी भाव से चराचर जगत की समस्त घटनाओं को देखता रहता है। वह कर्ता नहीं है ,वह निर्दोष है। फिर भी पता नहीं क्यों ? लोग स्वभावतः चालाकी से या अवसर देखकर दूसरों के ऊपर दोष मढ़ने का अभ्यासी होने के कारण प्रतिकूल परिणामों के लिए समय को कारण मानते हैं। अगर समय को ही श्रेय देना हो तो ईमानदारी से सभी कर्मों को समर्पित कर देना चाहिए जो निश्चित रूप से कल्याणकारी होगा। समय तो कभी अच्छा या बुरा नहीं होता है। अच्छे-बुरे होते हैं व्यक्ति द्वारा कर्ता भाव से किये गए कर्म। कर्म छोटा हो या बड़ा, उसके फल को निश्चित रूप से भोगना ही पड़ता है। उससे बचा नहीं जा सकता है। कहा गया है कि, जिस प्रकार हजारों हजार गायों के समूह में बछड़ा अपनी माँ को पहचान लेता है, वैसे ही कर्म अपने कर्ता को पहचान लेता है। इसलिए कर्म करते समय सजग रहने की आवश्यकता है। गीता में कहा गया है कि, "कर्मों की कुशलता ही योग है।" आशय यह है कि कर्म इस प्रकार(निष्काम) किए जाएं कि उसका फल कर्ता को भोगना न पड़े। इसलिए आवश्यक है कि,कर्मफल को सहर्ष स्वीकार करते हुए कम से कम अच्छे कर्म करने का और सर्वोत्तम है कि निष्काम कर्म करने का निरन्तर अभ्यास करना। इसी में शान्ति भी है और मुक्ति भी..!!