हिंदी आलेख संग्रह (1) : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

Hindi Articles (1) : Praful Singh "Bechain Kalam"

हम सब इस पृथ्वी के ऋणी हैं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हमारे सौरमंडल में केवल धरती ही ऐसा ग्रह है, जहां जीवन है, जहां नदी, झरने, पहाड़, वन, अनेक जंतु प्रजातियां हैं और जहां हम सब मनुष्य भी हैं। लेकिन हम सब की लालच और लापरवाही ने ना केवल दूसरी जीव प्रजातियों के लिए बल्कि खुद अपने लिए और संपूर्ण धरती के लिए संकट पैदा कर दिया है। ऐसे में पृथ्वी दिवस जैसे आयोजन हमें जागरूक करने के लिए जरूरी हैं। आइए इस पृथ्वी दिवस पर हम धरती की पुकार सुनें और इसे स्वच्छ-सुरक्षित बनाए रखने में अपना भरपूर योगदान दें। पृथ्वी दिवस की परिकल्पना में हम उस दुनिया का ख्वाब साकार होना देखते हैं, जिसमें दुनिया भर की हवा और पानी प्रदूषणमुक्त होगा। नदियां अपने बदहाल पर आंसू नहीं बहाएंगी। मिट्टी, बीमारियां नहीं वरन सोना उगलेगी। धरती रहने के काबिल होगी। इस तरह समाज स्वस्थ और खुशहाल होगा। तभी ऐसे दिनों को मनाने की सार्थकता है।

भारतीय पौराणिक ग्रंथों में पृथ्वी को मां के समतुल्य माना गया है। यह हम सबकी आश्रयदाता है। इसकी रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। इस पर मौजूद बेशुमार संसाधन, उपहार के रूप में हम सबको मिले हैं। प्रकृति ने इस पर जल, नदियां, पहाड़, हरे-भरे वन और धरती के नीचे छिपी हुई खनिज संपदा धरोहर के रूप में हमारे जीवन को सहज बनाने के लिए प्रदान किए हैं। हम अपनी मेहनत से धन तो कमा सकते हैं लेकिन प्रकृति की इन धरोहरों को अथक प्रयास करने के पश्चात भी बढ़ा नहीं सकते। इसलिए हम सबको इन धरोहरों को संजोने का हर संभव प्रयास करना चाहिए। हमारी धरती बहुत ही सुंदर है। इसका एक बड़ा भाग पानी से ढंका हुआ है। पानी की अधिकता के कारण ही इसे ब्ल्यू प्लेनेट के नाम से भी जाना जाता है। लेकिन हम सबकी ही लापरवाही के चलते ग्लोबल वार्मिंग और पॉल्यूशन की वजह से यह सुंदर ग्रह अब खतरे में नजर आ रहा है। इसको बचाने के लिए पृथ्वी दिवस जैसे जागरुकता बढ़ाने वाले आयोजनों और अभियानों की आवश्यकता है।

वैसे तो ऐसे कई तरीके हैं जिससे हम अकेले और सामूहिक रूप से धरती को बचाने में योगदान दे सकते हैं। वैसे तो हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके संरक्षण के लिए कुछ न कुछ करते रहना चाहिए। लेकिन, अपनी व्यस्तता में व्यस्त इंसान यदि विश्व पृथ्वी दिवस के दिन ही थोड़ा बहुत योगदान दे तो धरती के कर्ज को उतारा जा सकता है।

पृथ्वी बहुत व्यापक शब्द है जिसमें जल, हरियाली, वन्यप्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी हैं। धरती को बचाने का आशय है इसकी रक्षा के लिए पहल करना। न तो इसे लेकर कभी सामाजिक जागरूकता दिखाई गई और न राजनीतिक स्तर पर कभी कोई ठोस पहल की गई। दरअसल पृथ्वी एक बहुत व्यापक शब्द है, इसमें जल, हरियाली, वन्यप्राणी, प्रदूषण और इससे जु़ड़े अन्य कारक भी शामिल हैं।

धरती को बचाने का आशय है इन सभी की रक्षा के लिए पहल करना। लेकिन इसके लिए किसी एक दिन को ही माध्यम बनाया जाए, क्या यह उचित है? हमें हर दिन को पृथ्वी दिवस मानकर उसके बचाव के लिए कुछ न कुछ उपाय करते रहना चाहिए। पृथ्वी दिवस का महत्व मानवता के संरक्षण के लिए बढ़ जाता है, यह हमें जीवाश्म ईंधन के उत्कृष्ट उपयोग के लिए प्रेरित करता है। इसको मनाने से ग्लोबल वार्मिंग के प्रति जागरुकता के प्रचार पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है, जो हमारे जीवन स्तर में सुधार के लिए प्रेरित करता है। ऐसे आयोजन ऊर्जा के भंडारण और उसके महत्व को बताते हुए उसके अनावश्यक उपयोग के लिए भी हमें सावधान करता है।

पृथ्वी के पर्यावरण को बचाने के लिए हम ज्यादा कुछ नहीं कर सकते, तो कम से कम इतना तो करें कि पॉलिथीन के उपयोग को नकारें, कागज का इस्तेमाल कम करें और रिसाइकल प्रक्रिया को बढ़ावा दें.. क्योंकि जितनी ज्यादा खराब सामग्री रिसाइकल होगी, उतना ही पृथ्वी का कचरा कम होगा।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पृथ्वी दिवस को लेकर देश और दुनिया में जागरूकता का भारी अभाव है! सामाजिक या राजनीतिक दोनों ही स्तर पर इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाए जाते। कुछ पर्यावरण प्रेमी अपने स्तर पर कोशिश करते रहे हैं, किंतु यह किसी एक व्यक्ति, संस्था या समाज की चिंता तक सीमित विषय नहीं होना चाहिए! सभी को इसमें कुछ न कुछ आहुति देना पड़ेगी तभी बात बनेगी।

सात्विक प्रेम : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

प्रेम अनुभूति का विषय है। जहाँ तक प्रेम पाने का संबंध है, तो यह अत्यंत कठिन है, क्योंकि हम कोई भी वस्तु दे तो सकते हैं आसानी से, लेकिन लेना अपने वश में नहीं। प्रेम में भी कुछ ऐसा ही है। लेकिन देना भी कम महत्वपूर्ण नहीं, यदि हम प्रेम कर सकते हैं तो इस देने में भी जो प्राप्ति होती है वह अनिर्वचनीय है। प्रेम पाने का अर्थ प्रेम करना ही है। प्रेम एक मानसिक स्थिति है। जाहिर है वह स्थिति संतुष्टिदायक ही होगी। यदि किसी प्रक्रिया से संतुष्टि नहीं मिलती तो वह प्रेम जैसी उदात्त स्थिति नहीं हो सकती। फिर भी इसका कोई एक निश्चित स्वरूप हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। प्रेम की अनुभूति सब के लिए अलग-अलग तरह की हो सकती है। सब को अलग-अलग तरह की क्रियाओं और मनोभावों में प्रेम का अनुभव हो सकता है। यह भी कहा जाता है कि प्रेम प्रतिदान या बदला नहीं चाहता। मात्र देने का नाम प्रेम है।

कोई भी कार्य करो, नि:स्वार्थ भाव से करो- प्रेम भी। प्रेम निष्काम कर्म का ही एक रूप हुआ। गीता में कहा गया है कि कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। ऐसा कर्म ही सात्विक कर्म है। प्रेम भी सात्विक कर्म तभी होगा जब फल की इच्छा के बिना किया जाएगा। पर ऐसा कौन सा कर्म है जो फल की इच्छा के बिना संभव हो सके? जिसको जो कार्य पसन्द हो उसकी खुशी के लिए बिना अपने लाभ-हानि का आकलन किए वह काम कर देना प्रेम का एक रूप हो सकता है। कर्म के अभाव में प्रेम संभव ही नहीं। आप कुछ करेंगे तभी पता चलेगा कि आप प्रेममय हैं अथवा नहीं। इस करने में कोई शारीरिक कार्य हो सकता है। मात्र देखना भी एक क्रिया हो सकती है। यह ठीक है कि प्रेम करने से प्रेम मिलता है, लेकिन प्रेम पाने से भी कम संतुष्टि नहीं मिलती। कोई आपको अपने किसी भी कार्य के माध्यम से तृप्त करना चाहता है, तो उसमें भी प्रेम का आदान-प्रदान ही होता है। यदि आप उसे स्वीकार नहीं करेंगे तो आपके मन में प्रेम नामक तत्व का संचार है ही नहीं। जहाँ आपने किसी को किसी भी रूप में तुष्ट कर दिया, वहाँ प्रेम का संचार होने लगा। अब यहाँ एक सवाल आ खड़ा हुआ है। सबकी संतुष्टि का स्वरूप अलग-अलग है। किसी की संतुष्टि पैसे से होती है, किसी की वस्तुओं से और किसी की बातों से। कोई आप से व्यवस्था के विरुद्ध कार्य कराना चाहता है तो कोई धर्म अथवा नैतिकता के विरुद्ध- और ऐसा करने में उसे कोई दोष दिखलाई नहीं पड़ता। हमें भी अनेक कार्य सामान्य दिखाई पड़ते हैं, लेकिन वास्तव में वे सामान्य नहीं होते। प्रेम के वशीभूत होकर हम न जाने क्या-क्या कर गुजरते हैं।

अपने प्रियजनों के प्रति हमारा प्रेम ही है जो हमें उनके दुर्गुण भी सद्गुण नजर आते हैं। आप कहेंगे, ये प्रेम नहीं मोह है। मैं भी यही मानता हूँ, लेकिन मोह के बिना प्रेम कैसे संभव है। हाँ, मोह के अनेक रूप हैं। मोह में सात्विक भाव है, तो सात्विक प्रेम और तामसिक भाव है तो तामसिक प्रेम। यदि मैं कहूँ कि मन की सकारात्मक वृत्ति से उत्पन्न भाव ही सही प्रेम है तो आप असहमत नहीं होंगे। प्रेम एक सकारात्मक भाव है। सकारात्मकता का अपना प्रभाव है। उसी तरह प्रेम का भी अपना प्रभाव है। नकारात्मक भावों की समाप्ति के बाद जब हम निष्काम भाव से कोई कार्य करते हैं तभी प्रेम का उदय होता है। इसी प्रेम के फलस्वरूप स्वांत: सुखाय हम अनेक कार्य करते हैं। किसी को साहित्य से प्रेम है तो किसी को कला से, किसी को संगीत में प्रेम की अनुभूति होती है तो किसी को नृत्य में। किसी को सुनने में आनंद आता है तो किसी को सुनाने में। ये सब क्रियाएं आनंद का माध्यम हैं।जहाँ आनंद की प्राप्ति हो, वहीं प्रेम है। यहाँ आनंद का संबंध भौतिक सुख से नहीं, मानसिक संतुष्टि से है।

मातृभाषा एवं देवभाषा को पहले हमें सम्मान देना होगा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

विश्व में केवल संस्कृत ही ऐसी भाषा है जिसमें सिर्फ "एक अक्षर, दो अक्षर या केवल तीन ही अक्षरों" से पूरा वाक्य बनाया जा सकता है। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है।

भाषा अभिव्यक्ति का वह सर्वाधिक विश्वसनीय माध्यम या जरिया है, जिसके द्वारा हम आपस में अपने मनोभावों को, विचारों को व्यक्त करते हैं, एक-दूसरे से जुड़ पाते हैं। यह हमारे समाज के निर्माण, विकास, अस्मिता, सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान का भी महत्वपूर्ण साधन है। इसके लिये हमारी वाचिक ध्वनियां सहायक होती हैं, जो शब्दों और वाक्यों का समूह बन एक-दूसरे को अपने मन की बात बताती-समझाती हैं। इसके बिना मनुष्य व समाज सर्वथा अपूर्ण हैं !

हमारे शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई ।

जाहिर है समय, परिवेश, स्थितियों के अनुसार अलग-अलग स्थानों पर विभिन्न तरह की भाषाओं का उद्भव हुआ। मानव के उत्थान के साथ-साथ उसका आरंभिक ''नाद'' विकास करते हुए संपन्न भाषाओं में बदलता चला गया। इस समय सारे संसार में हजारों (अनुमानत: 6809) प्रकार की भाषाएँ, वर्षों से अपनी-अपनी जरुरत के अनुसार बोली जाती रही हैं। इनमें से कई तो हजारों-हजार साल से अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए हैं। बहुतेरे देशों ने सिर्फ अपनी भाषा का उपयोग करते हुए भी ज्ञान-विज्ञान, पठन-पाठन में असाधारण प्रगति की है। उन्हें अपनी वाक्संपदा पर नाज है। थोड़ी-बहुत कमी-त्रुटि तो हर चीज में होती ही है, पर इसका मतलब यह नहीं कि दूसरी बोलियां हेय हैं, दोयम हैं !

हमारे देश पर सैंकड़ों सालों तक गैरों ने राज किया ! सालों-साल गुलाम रहने का असर हमारे दिलो-दिमाग पर भी पड़ना ही था ! हम अपना सुनहरा अतीत बिसारते चले गए ! हमें शासक और उनके कारिंदों की बातों में ही सच्चाई नजर आने लगी ! इस कुचक्र में कुछ हमारे अपने मतलबपरस्त लोगों का भी योगदान रहा है ! हमार शोषण के साथ-साथ हमारी धरोहरों, हमारी संस्कृति, हमारे शिक्षण संस्थानों, हमारे इतिहास के अलावा हमारी उस प्राचीनतम व समृद्धतम भाषा को, जिसमें हजारों साल पहले हमारे ऋषि-मुनियों ने ज्ञान-विज्ञान तथा जीवन के सार को लिपिबद्ध कर दिया था, उसे भी कमतर आंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई !

हम शुरू से ही सहिष्णु रहे हैं। हमने दुनिया को ही अपना परिवार माना है ! हर अच्छी चीज का स्वागत किया है। दूसरे धर्मों, संस्कृतियों, मान्यताओं को भी अपने में सहर्ष समो लिया है। हमारे इसी विवेक, सहनशीलता, सामंजस्य को कमजोरी मान लिया गया ! अच्छाइयों के साथ बुराइयां भी थोपी जाने लगीं। सबसे ज्यादा नुक्सान अंग्रेजी हुकूमत के दौरान हुआ, जब उन्होंने अंग्रेजी को कुछ ऐसा आभामंडित कर दिया जैसे वह विश्व की सर्वोपरि भाषा हो ! उसके बिना कोई भी उपलब्धि हासिल ना की जा सकती हो ! देश में उसे रोजगार हासिल करने का मुख्य जरिया बना दिया गया। वर्षों-वर्ष यह गलतफहमी पलती रही ! पर फिर समय आ ही गया जब उन्हें बताना जरुरी हो गया कि समृद्ध भाषा कैसी होती है !

संस्कृत में श्लोक सुनिए, मंत्र सुनिए, भजन सुनिए ! इसके उच्चारणों में वह शक्ति है जो किसी को भी मंत्रमुग्ध कर सकती है ! एकाकार कर सकती है ! सम्मोहित कर किसी और लोक में पहुंचा सकती है। यही अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें केवल "एक अक्षर" से ही पूरा वाक्य लिखा जा सकता है।

सैंकड़ों उदहारण मिल जाएंगें जो निर्विवाद रूप से संस्कृत को विश्व की सर्वश्रेष्ठ, व्याकरणिक, तर्कसंगत, वैज्ञानिक, त्रुटिहीन भाषा सिद्ध कर सकते हों। इसीलिए जब संस्कृत को सर्वोपरि कहा जाता है तो उसके पीछे इस तरह के अद्भुत साक्ष्य होते हैं। यह विश्व की अकेली ऐसी भाषा है, जिसमें "अभिधान-सार्थकता" मिलती है। यानी किसी वस्तु की संज्ञा या नाम क्यों पड़ा यह विस्तार से बताती है। जैसे इस विश्व का नाम संसार इसलिये है क्यूँकि वह चलता रहता है, परिवर्तित होता रहता है ! पर विडंबना है कि ऐसी सरल और समृद्ध भाषा को अपने ही देश में अपने ही लोगों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लडनी पड़ रही है !

मातापिता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

माता पिता भी तो इंसान हैं हमारे सपनों को पूरा करने के लिए न जाने अपने कितने अरमानों को अधूरें सपनों को त्याग दिये होंगे बिना पूरा किये। उनके सपने चाहें पूरे हुए या नहीं वो उसे भूल नहीं पाते उन अधूरे सपनों की एक पोटली बनाकर रख देते हैं। और हमारा भविष्य संवारने में जुट जाते हैं स्वयं को भूल जाते हैं।
और हम बच्चें बस उनसे मांगते ही रहते हैं कभी ये नहीं सोंच पाते कि हमें भी उनके लिये कुछ करना चाहिए ।
हमारे सपनों को पूरा करते करते वो खुद खो जाते हैं ।

समय अपनी गति से चलते रहता है और एक वक़्त ऐसा आता है जब हम उनकी जगह स्वयं को पाते हैं जब हम माता पिता बनते हैं और अपने सपनों को अपने बच्चों के लिए त्यागते है। पर तब भी हमारा स्वार्थी मन अपने माता पिता के बारे में नहीं सोच पाता एक पुराना सामान समझकर या तो फेंक देते हैं या घर के किसी कोने में निरर्थक सा रख देते हैं हमें ये तक याद नहीं रहता कि आज हम जो भी हैं ये उनकी देन हैं अपने सुख सुविधाओं के मद में खोये रहतें हैं मिटा देते हैं उनके त्याग और प्यार को ।

जितना प्यार और दुलार हम अपने बच्चों से करते हैं हमारें माता पिता ने भी हमें उतने ही प्यार दुलार से पाला पोषा था। जितनी सुख सुविधाएं हम अपने बच्चों को देते हैं वो भी हमें दिये थें। हाँ ये जरूर हो सकता हैं कि कुछ अभावों के चलतें वो हमें सबकुछ नहीं दे पाये होंगे परंतु हमारी ज़रूरतें और जिम्मेदारियां बखूबी निभाये और पूरे कियें। ये उनके सफलतापूर्वक निर्वहन किये गये जिम्मेदारियों का ही प्रतिफल है कि आज हम सफल हैं।

हमसे वो चाहते ही क्या हैं बस थोड़ा सा प्यार और सम्मान क्या हम इतना भी नहीं दे सकते उन्हें जिन्होनें हमें जीवन दिया जीना सिखाया ,हमारे डगमगाते क़दमों को चलना सिखाया तो क्या हम उनके लड़खड़ाते क़दमों को अपनी मजबूत बांहों का सहारा नहीं दे सकते ??

क्या सही और क्या ग़लत सोचिएगा जरूर मेरी सोंच तो यही कहती हैं जो काम करने से पहले सोचना न पड़े वो सही। और जो करने से पहले और करने के बाद सोचना पड़े वो गलत। सही का मार्ग मुश्किल जरूर होता है किन्तु सही होता है जबकि गलत का रास्ता बहुत आसान होता है फिर भी गलत ही होता है।

माता पिता बनने में और होने में बहुत अंतर होता है मां बाप कोई भी बन सकता हैं कितुं माता पिता वो होते हैं जो अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते हैं सिर्फ हमें जीवन ही नहीं देते अपितु जीने योग्य जिन्दगी देते हैं ।

आज हम जो भी हैं इसलिए हैं कि हमें इतने अच्छे माता पिता मिले जिन्होंने अपनी खुशियों की परवाह किये बिना हमें कामयाब बनाया जिसका ऋण हम जीवन भर नही उतार सकते ।

जो हमें दिन रात अनमोल दुआंएं देते रहते हैं बिना किसी स्वार्थ के हमारी सारी बलाएं स्वयं के लिए मागते रहते हैं ईश्वर से और हमारे लिए सिर्फ दुआएं, कितने अनमोल होते हैं हमारे माता पिता। अब ये हम पर निर्भर हैं हम अपना कल कैसा चाहते हैं हमारा कल उतना ही सुखद होगा जितना उनका आज।
"आदर एक निवेश है"

परिणय सूत्र : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जब एक स्त्री पुरूष परिणय सूत्र मे बंधते है तो पुरूष का कुछ नही बदलता वही स्त्री का सबकुछ बदल जाता है यहा तक कि उसका अपना नाम भी उसकी अब तक की पहचान खो जाती है। आपसे जुड़ते ही एक नयी पहचान बनती है एक नया नाम मिलता है जिससे वो जानी और पहचानी जायेगी जीवन भर... नया नाम मिलते ही उसका अस्तित्व ही मिट जाता है जैसे पानी मे घुलकर चीनी विलीन हो जाती है पर मिठास छोड़ देती है वैसे ही स्त्री अपना वजूद खोकर आपमे घुल जाती है आपके पानी रूपी जीवन को मिठास से भर देती है।

जब एक स्त्री बेटी से माँ बनने का सफर तय करती है तो कदम कदम पर उसे त्याग ही करना पड़ता है कभी बेटी या बहन के रुप मे कभी बहू या पत्नी के रुप मे और कभी माँ के रुप मे त्याग ही त्याग...जब लड़की बहू बनकर एक नयी दुनिया मे प्रवेश करती है तो अनेको जिम्मेदारियां होती है जिसका निर्वाह उसे सफलता पूर्वक करना होता है।

जिस घर मे आजीवन उसे रहना है वहा के हर कोने से वो अंजानी होती है सारे चेहरे अजनबी होते है जिसे अपना बनाना होता है। यहा तक जिसकी वो अर्धांगिनी बनकर आयी है वो भी पराया होता है उससे बिल्कुल अंजाना होता है। कितनी मुश्किलें होती है उसके नये जीवन मे कितनी कठिन परीक्षा लेती है जिन्दगी पर वह डरती नही है हाँ थोड़ी घबरा जाती है पर उसकी सहनशीलता और उसका धैर्य सदा उसके हौसलों को बढ़ाते रहते है उसका मनोबल बढ़ते जाता है।

धीरे धीरे अपने कुशल व मधुर व्यवहार से सारे अजनबी लोगो को अपना बना लेती है विविध रंगो के मोतियों को अपने प्यार और विश्वास के धागें मे पिरोती जाती है।सब एक साथ गूँथते जाते है सुंदर सी रिश्तों की माला बनने लगती है पर इस रिश्तों की माला का सबसे अहम हिस्सा कड़ी होता है जो दोनो सिरो को जोड़े रखता है और वो मजबूत कड़ी आप बनते है।

ये दायित्व आपका होता है आप की भी जिम्मेदारी उतनी ही होती है जितना की आपकी पत्नी की क्यूकि उसका पूरा जीवन धागें की तरह छुपा ही रह जाता है सामने आप दिखते है उसकी महत्ता को समझे उसने तो पूरी दुनिया अपनी आप मे समेट ली है आप उसे खुद मे समेट ले इतनी सी उसकी चाहत होती है।

जब वह माँ बनती है अपने ज़िस्म मे एक नन्ही सी जान को पालती है अपने लहू से सींचती है अपने अंश को हर पल स्वयं मे महसूस करती है माँ बनने के सुखद अहसास को जीती है उसे लगता है उसका नारी जीवन सार्थक हो गया उसने अपना दायित्व परिपूर्ण कर लिया मौत से लड़कर जब अपने अंश को इस दुनिया मे लाती है कितनी संतुष्ट होती है उसे निहारते आघाती नही उसकी इस खुशी मे भी नियति का स्वांग होता है यहा भी उसे त्याग ही करना है कोख उसकी, अंश उसका, दर्द उसने सहा , तड़पी वो, जन्म उसने दिया पर उसका तो कही नाम ही नही उस बच्चें को पहचान तो उसके पिता के नाम से मिलना है माँ का नाम तो कही नही माँ तो माँ है त्याग और ममता की मूरत इतने सारे त्याग करने के बाद भी वह खुश रहती है अपनी खुशियां आप सबमे तलाशती रहती है आप खुश तो वो भी खुश हो जाती है।

सरल भाषा मे कहूँ तो स्त्री जीवन बहुत जटिल है पर एक सुलझी और समझदार स्त्री सहजता से अपने सारे कर्तव्यों का निर्वाह कर लेती है क्यूकि उसके परिवार का साथ होता है। अपने साथी को सदा सम्मान और प्यार दे हर क्षेत्र मे एक दूसरे के सहभागी बने पति पत्नी दो शरीर एक आत्मा होते है क्यूकि दो जब एक होते है तभी सृजन होता है इस पवित्र रिश्तें की मर्यादा को समझे और विश्वास से निष्ठा पूर्वक निर्वाह करे कभी उसके वजूद को खोनें न दे क्यूकि वो आप मे खो चुकी है आपकी हो चुकी है।

रिश्तों के चार पायदान : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जीवन में आमतौर पर चार चीजें यानि विश्वास, रिश्ता, हृदय और वचन बड़ा ही महत्वपूर्ण स्थान रखतें हैं, क्योंकि यह चारों सीढ़ी के पायदान हैं....
पहला विश्वास : किसी भी रिश्ते को बनने के लिए जरूरी है विश्वास।
दूसरा रिश्ता : जब आपसी विश्वास पैदा हो जाए तभी हम उसको रिश्ते से जोड़ने का प्रयत्न करते हैं। यह रिश्ता चाहे दोस्ती का हो या सामाजिक हो
तीसरा ह्रदय : जब कोई रिश्ता बनता है और पनपता है तो उसकी जड़े हृदय से जाकर जुड़ती हैं दोनों तरफ से। और जिसकी जड़ें हृदय से जुड़ती हैं वह रिश्ता बहुत मजबूत और अटूट रहता है।
और चौथा आखिरी पायदान वचन : यह एक ऐसा पायदान है जिस पर हर कोई नहीं चढ़ सकता क्योंकि इस पायदान पर चढ़ने के बाद संतुलन बनाना बहुत आवश्यक है। क्योंकि वचन दोनों तरफ से बनाया और निभाया जाता है जहां पर दोनों पक्षों को संतुलित रूप से व्यवहार करना होता है अपने साथ-साथ अन्य सभी बातों को ध्यान रखते हुए।

पहचानें अपनी सीमा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

मानव सभ्यता के इतिहास में पहली बार ऐसा अवसर आया है कि मनुष्य अपनी वास्तविकता को समझ सके। धर्म दर्शन के लिए यह कोई नई बात नहीं है। धर्म जगत में सदा से ही मनुष्य को माटी का पुतला माना जाता रहा है पर अपनी सीमा का नहीं पहचान चाहता है। उसका स्वयं का कुछ नहीं है। जिन पांच तत्वों से मिल कर वह बना है वह भी प्रकृति से उधार लिए गए हैं जो अंतत: लौटाए जाने हैं। वह जन्म के समय कुछ भी लेकर नहीं आया था। वह जीवन समाप्त होने के बाद साथ लेकर भी कुछ नहीं जाएगा। इसके बाद भी मनुष्य जीवन भर अर्जित कर लेने और संग्रह करने में व्यस्त रहता है। वह स्वयं को भाग्यविधाता मानने लगा था, किंतु आज एक छोटे से वायरस ने उसका सारा अभिमान ध्वस्त कर दिया है। आज से पहले मनुष्य को सर्वाधिक भय परमाणु अस्त्रों के कारण तीसरे विश्वयुद्ध से लगता था। उसे लगता था कि यदि युद्ध हुआ तो संसार नहीं बचेगा। आज का भय ऐसे वायरस से है जो स्वत: सृजित हुआ है और जिससे निपटने की कोई ठोस योजना मनुष्य के पास नहीं है। पहचानें अपनी सीमा जिससे की आपकी अहमियत को दुसरे कोई समझ सके।

यह समय है हर तरह के अभिमान से मुक्ति पाने का और जीवन का सच देखने का। आज घर की सीमाओं में बंदी मनुष्य के लिए वह सब कुछ व्यर्थ हो गया है जिसे पाने के लिए वह दिन रात एक करता रहा है। उसके पास कितना भी धन हो, धन का उपयोग सीमित हो गया है। आज जीवन अधिक महत्वपूर्ण लगने लगा है। पहले छोटे-मोटे रोगों में भी मनुष्य की दिनचर्या बाधित नहीं होती थी। आज साधारण जुकाम भी आत्मविश्वास को हिला रहा है। भय का बड़ा वातावरण बना हुआ है। निर्भय मात्र वह है जो परमात्मा से जुड़ा हुआ है। संसार में जो भी घट रहा है उसमें परमात्मा की इच्छा निहित है। परमात्मा की इच्छा और आज्ञा में रहकर उससे दया और कृपा की प्रार्थना करना ही मनुष्य के वश में है। दीन-हीन ही मनुष्य की वास्तविकता है जिसे सदा के लिए स्वीकार कर लेना चाहिए।

मेरी कुछ बातें शायद अभी भी क़ैद में हैं : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जी हां कुछ बातें हमेशा कैद में पड़ी रहती है। वे जन्म लेती है हृदय में भावों की गहराई से और वहीं अपना जीवन गुजार देती है। उन्हें मिली कैद का भी कारण होता है, उन्हें शांति बिगाड़ने की शंका में मिलती है कैद। क्योंकि हृदय भयभीत होता है, कि यदि इन्हें आज़ाद कर दिया तो सब बदल जाएगा। हो सकता है कि बदलाव सकारात्मक हो परन्तु नकारात्मक का संदेह सदैव अधिक ही रहता है। इसलिए हृदय बचता है जोखिम मोल लेने से और ये बातें कैद में पड़ी रहती है। पर ये बातें सदैव चाहती है स्वतंत्रता ,चाहती है होंठों में घूमते हुए बाहर जाना,हवा में बहना, जहां कोई इन्हें सुन सकें। और कभी कभी ये आज़ादी इसे नसीब भी हो जाती है। परंतु इसके भी केवल दो मार्ग हैं पहला हृदय को सकारात्मक बदलाव का आश्वासन या कम से कम जोखिम का वादा, हालांकि इसके लिए लंबी पेशी होती है हृदय व मस्तिष्क के बीच, पर यह तब भी बेहतर मार्ग होता है पूरी तरह वैधानिक और वैधानिक प्रक्रियाओं की ही तरह अत्यंत धीमा। और दुसरा मार्ग होता है जो अचानक खुलता है भावनाओं के अत्यधिक दबाव के बीच जब होंठों के सारे ताले टूट जाते हैं , मस्तिष्क का नियंत्रण छूट जाता है तब ये बातें हो जाती है आज़ाद, पूर्णतः अनियंत्रित और भयावह रूप से।

पर मैं इन बातों को ना तो पेशी में जीता पाया ना कभी मस्तिष्क का कड़ा पहरा कमजोर हुआ। इसलिए मैंने एक सुरंग बनाई जो हाथों की मदद से इन्हें कागज पर उतार देती है। जहां ये प्रतीक्षा में रहते हैं कि कोई इन्हें पढ़कर आजाद कर दें।

अर्थ से अनर्थ तक : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

आप 'अर्थ' का अर्थ निश्चय ही जानते होंगे। दुनिया अर्थ के पीछे ही भागती रहती हैं। सारी गतिविधियों की धुरी अर्थ ही है।भगवान न करे हमारे मुँह से कभी उल्टी-सीधी बातें निकल जाए और सुननेवाला कुछ ज़्यादा ही समझ लें। वह अपना ही 'अर्थ' निकाल ले तो बड़ा अनर्थ हो जाता है। कई बार तो बात इतनी बिगड़ जाती है कि संभाले नहीं संभलती है। रुपये-पैसे भी तो 'अर्थ' ही हैं।यही रुपये आदमी को समर्थ भी बनाते हैं। इसके बिना जीवन व्यर्थ हो जाता है। अर्थ का प्रभाव होता ही है बड़ा विस्मयकारी। उलझे रहते हैं इसके माया-जाल में सारे संसारी।

हम सब सुनते आए हैं-"बाप बड़ा न भैया,सबसे बड़ा रुपैया।"आपके पास रुपये हैं तो नाते-रिश्ते बनते चले जाते हैं। जेब खाली है तो यार-दोस्त भी मुँह मोड़ लेते हैं।पैसे में है बड़ा दम,पास नहीं फटकने देगा कभी कोई ग़म। पैसे के न होते हैं हाथ और न ही होते हैं पैर। मगर पैसा ही करता है सकल काम और फिर पैसा ही चलता है सर्वत्र।

अक्सर देखा गया है,जब दो दोस्तों के मध्य पैसों का 'आयात-निर्यात' होने लगता है तो संबंधों का समीकरण असंतुलित हो जाता है। कहा जाता है कि 'करो मित्र की मदद हमेशा तन से मन से खुश होकर' एक बात मैं भी जोड़ देता हूँ इसमें। आप बुरा न मानना।कभी भी मित्र की मदद धन से मत करिये। आप अपने मित्र को सदा ही मित्र बनाए रखना चाहते हैं न ? इसलिए जब कभी वह पैसा माँगें तो अपने दोनों हाथों को जोड़ लेना।ज़्यादा से ज़्यादा आपका मित्र आपको खुदगर्ज ही समझेगा न। यारी तो बनी रहेगी।

हमारे महान देश के कार्यालयों में 'उत्कोच' का अच्छा-खासा प्रचलन है। कुछ लोग इसे 'सेवा-शुल्क' भी कहते हैं।कोई आपको 'सेवा' दे रहा है तो बदले में 'मेवा' लेगा ही ।लोग कहते हैं कि कर्मचारियों को तनख़ा मिलती है।हाँ भाई! इसलिए तो वे सरकार के हुक्म बजाते हैं।वे आपका नहीं हैं ग़ुलाम।जब आप अपना काम उनसे निकलना चाह रहे हैं तब आपको अपनी जेब ढीली करनी ही पड़ेगी।

संतों का कहना है -"जो जल बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम/दोनों हाथ उलीचिए यही सयानों काम।"अर्थात् जैसे बाढ़ के समय नाव में पानी भर जाने पर उसे दोनों हाथों से बाहर फेंकते हैं उसी तरह घर में पैसा बढ़ जाने पर दान करते चाहिए।मगर यह होता है कहाँ ?हाय पैसा! हाय पैसा!! इसी में सारी ज़िंदगी गुजर जाती है।कुछ लोगों को तो जान से प्यारी लगती है दमड़ी ।तब न यह कहावत बनी है कि चमड़ी जाए तो जाए मगर दमड़ी न जाए।

हम जानते हैं, पैसा ही पैसा बनाता है।पैसे-पैसे आपस में जुड़कर रुपये बनते हैं। फिर दहाई ,सैकड़ा,हजार लाख,करोड़ और आगे जहाँ तक आप चाहें इस पैसे को खींचकर ले जा सकते हैं।इसकी कोई सीमा रेखा नहीं है।कामना अनंत है।जो सहस्रों-सहस्र मुखों की अतृप्त क्षुधा के समान है। इसलिए भगवान न करें आपको पैसे बनाने की लत लग जाए।फिर आप पैसों के पीछे पागल हो जाएँगे। आप 'टका' को ही टक-टकी लगाए देखते रहेंगे। फिर आप प्रेत से पाए 'स्वर्ण-कलश' को भरने का निरर्थक प्रयत्न करते रहेंगे। सारे नाते-रिश्ते धरे के धरे रह जाएँगे।

सच की मानवीयता : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

मन में सदा अच्छे विचारों को स्थान दीजिए। दूसरे के लिए अच्छा सोचने वाले का अपना भी सब कुछ अच्छा होता ।यदि किसी के मन में दुर्भावनाएँ स्थायी रूप से अपना घर बना लेती हैं तो उस व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को बिगाड़कर रख देती है।

कहा भी गया है कोई किसी के लिए गड्डा खोदता है,उसके लिए खाई तैयार हो जाती है।इसलिए मन में हमें शुभ विचारों को प्रश्रय देना चाहिए। आप किसी की भलाई करते हैं तो मन में संतुष्टि का भाव उठता है और शुभकामनाओं के निकले शब्दों से हृदय शीतल हो जाता है।आत्मिक शांति मिलती है।

सत्य की अपनी प्रतिष्ठा है।सत्य बोलने वाले सबके प्रिय पात्र होते हैं।यह भी देखा गया है कि कुछ लोग अक्सर झूठ की खेती करते हैं मगर दूसरे से उनकी अपेक्षा रहती है कि वह सत्य को साथ लेकर उनके सामने आए।ऐसा इसलिए कि झूठा व्यक्ति को भी सत्य ही प्रिय होता है।झूठ का सहारा लेने वाले को भी आप सच का कद्र करते देख सकते हैं।अक्सर हमें किसी एक झूठ को छिपाने के लिए हजार झूठों का सहारा लेना पड़ता है।तब फिर सत्य बोलकर आप-हम निश्चिंत क्यों न रहें?हाँ,जब किसी के प्राण बचाने हों या जहाँ किसी की भावना या प्रतिष्ठा आहट हो रही हो या प्रेम-सौहार्द्र को बनाए रखना हो,वहाँ झूठ बोलना चलता है।लेकिन बात-बात में झूठ का सहारा लेने वाले व्यक्ति को कोई भी नहीं पसंद करता है।लोग उनकी बातों पर विश्वास नहीं करते और समाज की नज़रों में जरा भी उसकी इज्ज़त नहीं होती है।

शब्द को ब्रह्म कहा गया है। इसके दुरुपयोग से हमें बचना चाहिए।कहा भी गया है कि धनुष से छुटे बाण और मुख से निकले शब्द कभी वापस नहीं आते हैं।वाणी-संयम का अपना महत्व है।हमें व्यवहार में सोच -समझ कर शब्दों का प्रयोग करना चाहिए।शरीर के घाव भर जाते हैं परंतु वाणी से आहट हृदय सदा दग्ध रहता है।अक्सर देखा जाता है कि किसी भी दो व्यक्तियों के बीच का मनमुटाव की शुरुआत 'बात' से ही होती है। इसलिए हमारी कोशिश रहनी चाहिए कि किसी के दिल को अपनी बातों से न दुखाएँ। यदि किसी के हृदय को आपकी बातों से दुःख पहुँचा हो और संयोग से पता चल जाए तो क्षमा माँगने में जरा भी देर मत कीजिए।

ज़िंदगी दो दिनों का मेला है।दुनिया से कूच करने के बाद सब कुछ यहीं छुट जाता है। आप अपना व्यवहार अच्छा रखिए।अच्छा बनकर किसी से भी मिलिए,सब कुछ अच्छा ही होगा।आप प्यार बाँटिए चलिए निश्चय ही बदले में आपको प्यार ही मिलेगा।

प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

प्रेम आत्मा की सच्ची अभिव्यक्ति है। नारद भक्ति सूत्र में स: हि अनिर्वचनीयो प्रेम रूप: कहकर परमेश्वर को पे्रम रूप घोषित किया है। यही परमतत्व है। इसी का बोध होने में ज्ञान की सार्थकता है। प्रेम आत्मा की विशेषता है। कबीर कहते हैं, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। अर्थात् ढाई अक्षरों में ही निहित प्रेम के इस तत्व को प्राप्त कर लेने में ही पांडित्य की सार्थकता है। इसमें ऐसा कौन सा तत्व निहित है, जिसे जानने से सब कुछ जान लिया जाता है? इस विषय पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि पत्‍‌नी-बच्चों से किया जाने वाला प्रेम, प्रेम नहीं मोह होता है। इस प्रेम और मोह में विरोधाभास जैसी स्थिति है। प्रेम चेतन से होता है और मोह जड़ से। पत्‍‌नी आदि से किया जाने वाला तथाकथित पे्रम उसके जड़ शरीर से होता है, न कि चेतन स्वरूप आत्मा से, अत: यह मोह ही है। इसकी जड़ की ओर उन्मुखता मात्र हाड़-मांस वाले शरीरधारियों तक ही सीमित नहीं रहती, वरन लकड़ी, पत्थर व चूने के बने भवन से लेकर विभिन्न प्रकार के सामानों तक बढ़ जाती है, पर इसके विस्तार का क्षेत्र जड़ ही है।

महर्षि याज्ञवल्क्य स्पष्ट करते हैं कि कोई भी आत्मा के कारण प्रिय हो, यही प्रेम की सच्ची परिभाषा है। मोह जहां विभेद उत्पन्न करता है, पे्रम वहीं अभेद की स्थिति पैदा करता है, पे्रम व्यापक तत्व है, जबकि मोह सीमित-परिमित। पे्रम का प्रारंभ संभव है किसी एक व्यक्ति से हो, पर उस तक सीमित नहीं रह सकता। यदि यह सीमित रह जाता है, कुछ पाने की कामना रखता है तो समझना चाहिए कि यह मोह है। प्रेम वस्तुओं से जुड़कर सदुपयोग की, मनुष्यों से जुड़कर उनके कल्याण की और विश्व से जुड़कर परमार्थ की बात सोचता है। मोह में मनुष्य, पदार्थ, विश्व से किसी न किसी प्रकार के स्वार्थ सिद्धि की अभिलाषा रहती है। प्रेम की ज्योति सामान्य दीपक की ज्योति नहीं, जिसमें अनुताप हो, अपितु यह दिव्य चिंतामणि की शीतल स्निग्ध ज्योति है, जिससे शरीर, मन, बुद्धि, अंत:करण प्रकाशित होते व समस्त संताप शांत होते हैं।

स्त्री-अस्मिता का साहित्य : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

पिछले कुछ दशक में हिंदी साहित्य में स्त्री लेखन का व्यापक प्रस्फुटन एक अनूठी और ऐतिहासिक घटना है। यहां स्त्री लेखन एक सामाजिक सच्चाई और अस्मिता के संघर्ष की चुनौती के रूप में सामने आता है। यह स्त्री के अपने नजरिए से स्त्री लेखन का नया पाठ है। इस साहित्य में स्त्री विमर्श अस्मिता का वह आंदोलन है, जो हाशिए पर छोड़ दिए गए नारी अस्तित्व को फिर से केंद्र में लाने और उसकी मानवीय गरिमा को प्रतिष्ठित करने का अभियान है। यह साहित्य स्त्री को सामाजिक संरचना में दूसरे दर्जे पर रखने का मुखर विरोध और स्त्री को एक जीवंत मानवीय ईकाई के रूप में स्वीकार करने का प्रयास है।

दुनिया के सभी समुदायों, सभ्यता, धर्म, वर्ग और जाति में पितृसत्ता किसी न किसी रूप में मौजूद रही है। सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व्यवस्था और मूल्यों ,मर्यादाओं, आदर्शों और संस्कारों के विभिन्न रूपों के जरिए बड़े बारीक ढंग से इसे समाज की संरचना में बुना गया है। इसके माध्यम से पुरुष को स्त्री की तुलना में श्रेष्ठ स्थापित करने का जो षड्यंत्र रचा गया उसमें स्त्री शोषण को सहज और स्वाभाविक मान्यता के रूप में समाज के मन-मस्तिष्क में बैठाने की निरंतर कोशिश की गई। समय-समय पर विभिन्न शक्तियों से गठजोड़ करके इसने अपना रूप भी बदला, पर इसकी मौजूदगी सामंतवादी व्यवस्था से लेकर पूंजीवादी और अब बाजारवादी व्यवस्था की आतंरिक संरचना में भी अनेक स्तरों पर बनी हुई है। इसका उद्देश्य स्त्री के वास्तविक अस्तित्व और स्वप्नों का सदा के लिए दमन करना और पौरुषपूर्ण वर्चस्ववादी समाज में स्त्री के लिए समानता और न्याय की संभावनाओं को समाप्त करना रहा है।

इन सभी रूढ़िवादी व्यवस्थाओं और सदियों से चल रहे सुनियोजित शोषण-उत्पीड़न के विरुद्ध विश्व भर के वैचारिक चिंतन में नारीवादी विमर्श ने एक नया आयाम और परिप्रेक्ष्य निर्मित किया। 1975 अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष घोषित हुआ। भारत के संदर्भ में भी इसे ऐतिहासिक काल कहा जा सकता है। स्त्री शिक्षा का सभी क्षेत्रों में विकास हुआ, अधिकारों की मांग बढ़ी और आत्माभिव्यक्ति के लिए क्षुब्ध और छटपटाते हृदय ने साहित्य को माध्यम बनाया। राजनीति और समाज के सभी क्षेत्रों में जब महिला सशक्तीकरण का दौर शुरू हुआ तो साहित्य की दुनिया में भी यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। महिला-लेखन के केंद्र में स्त्री अस्मिता का संघर्ष, अदम्य जिजीविषा, स्त्री स्वतंत्र, देह और यौन उत्पीड़न के प्रति विद्रोह और स्वयं की पहचान के प्रति जागरूकता के साथ सामाजिक पहलुओं से जुड़े यथार्थ को भी देखा गया। मानवीय संवेदना की गहरी पड़ताल करते हुए सभी वर्ग, वर्ण और जाति की स्त्रियों की अंतरात्मा का अवलोकन करके ये स्त्री रचनाएं पाठकों को स्तब्ध और उद्वेलित कर देती हैं। यह स्त्री-लेखन नारी-शोषण के विरुद्ध परिवर्तन और क्रांति के साथ समकालीन साहित्य में सशक्त हस्तक्षेप भी करता है।

वर्तमान स्त्री लेखन में स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे मूलभूत अधिकारों के लिए संघर्षरत और सक्रिय स्त्री रचनाकार स्त्री-हितों की चर्चा स्वयं करने लगी है और अपनी अस्मिता को पहचान रही है। स्त्री साहित्य अपनी मूल चेतना में उसे पराधीन बनाने वाली इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में निहित विवाह संस्था, धर्म, जाति, वर्ग आदि की स्त्री-विरोधी भूमिका को प्रकाश में लाता है। स्त्री को शक्तिहीन करने की यह प्रक्रिया बेहद सूक्ष्म, जटिल और संश्लिष्ट है, जिसमें स्त्री को कभी किसी संवाद या विवाद का अवसर नहीं दिया गया। स्त्री लेखन इन्हीं प्रश्नों से सीधी मुठभेड़ करके समाज की संकीर्ण मानसिकता से टकराने का जोखिम उठाता है। वह पुरुष को बेहतर सत्ता का मनुष्य मानने वाले समाज से प्रश्न करता है कि स्त्री आधी आबादी है, तो फिर उसे मानवीय गरिमा से वंचित क्यों रखा गया है। आज हिंदी में स्त्री लेखन का साहित्य समृद्ध और पहले की अपेक्षा कहीं अधिक विस्तृत है। स्त्री रचनाकार एक बड़े बदलाव के साथ आत्मविश्वास से अपने सुख-दुख, आक्रोश और असहमति को व्यक्त कर रही है। वह समान नागरिक के रूप में पुरुष से किसी अतिरिक्त दया या सहानुभूति की अपेक्षा नहीं रखती। मात्र देह मुक्ति को विमर्श न मान कर वह बौद्धिक रूप से अधिक सक्षम, सामाजिक रूप से ज्यादा सचेत और परिपक्व है। स्त्री साहित्य में आज की स्त्री के जीवन की वास्तविकताएं, संभावनाएं और दासता की दारुण स्थितियों से मुक्ति की दिशाओं का उद्घाटन हुआ है। स्त्री की अपनी पहचान को स्थापित करते हुए इन रचनाकारों ने यह सिद्ध किया कि समाज मे हर तरह के शोषण और अत्याचार का उपभोक्ता प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अधिकतर स्त्री ही होती है, चाहे वह धार्मिक कुरीतियां हों, यौन हिंसा या आर्थिक पराधीनता, युद्ध हो या जातिगत दंगे- विवाद, इन सभी का सबसे बुरा प्रभाव स्त्री पर ही पड़ा है।

स्त्रीवाद की वैचारिकी साहित्य में अत्यंत विश्वसनीय रूप से एक सतत संघर्ष यात्रा और आंदोलन के रूप में निरतंर समृद्ध हो रही है। स्त्री-लेखन सामाजिकता और दैहिकता के प्रश्नों को समांतर लेकर चलते हुए पितृसत्ता पर ठीक उन्ही तर्कों से प्रहार कर रहा है, जो उसके लिए भी अपनी पहचान के सवाल हैं। हिंदी का स्त्रीवादी साहित्य स्त्री को व्यवस्था की गुलामी से मुक्त करके उसे एक आत्मनिर्णायक स्वतंत्र व्यक्ति की अस्मिता के रूप मे स्थापित करने का महत्त्वपूर्ण और सार्थक प्रयास है।

समाज सार्थक संचार से दूर भौतिकता की गोद में : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

समाज सार्थक संचार से दूर, एक लोकतांत्रिक समाज संवाद पर आधारित है और विचारों के आदान-प्रदान से विकसित होता है। वह तर्क और तर्क के आधार पर मतभेदों को समाप्त करता है और एक निर्णय पर आता है और इसे निष्पादित करता है। वैदिक सभा की समितियों से लेकर भारत की संविधान सभा तक, ऐसे सैकड़ों बिखरे हुए उदाहरण हैं जिनमें चर्चा, तार्किक बहस होती है, लेकिन एक महत्वपूर्ण निर्णय पर भी पहुँचा जा सकता है जबकि विरोध को कम किया जाता है। वास्तव में, भारतीय समाज द्वारा तथ्यों और ज्ञान के पर्दा को तोड़ने के लिए तर्क का उपयोग किया जाता है। भ्रम और अज्ञान का आवरण टूट गया है, इसके लिए केवल तर्क की आवश्यकता है। बहस, परिष्कार, अवांछनीय अश्लीलता के नाम पर चरित्र हनन को कभी भी उचित नहीं ठहराया जा सकता। तार्किक आधारों पर निष्पादित होने पर ही संवाद योग्य होता है। हमें भारत की संसद में छंदों के अर्थ को हमेशा याद रखना चाहिए। उस श्लोक का अर्थ किसी सभा में प्रवेश करना भी नहीं है। यदि आप करते हैं, तो समन्वित और उचित तरीके से बोलें। एक व्यक्ति जो एक बैठक में चुपचाप या अनुचित तरीके से बोल रहा है वह पापी है।

भारतीय इतिहास बताता है कि जब भी तर्कवाद अपने चरम पर होता है, तो थोड़ी-सी बौद्धिकता पर आधारित ज्ञान प्रणाली समाज का आधार बन जाती है। श्रेष्ठ समाज भी इससे पराजित हो गया है। इसलिए, लोकतांत्रिक व्यवस्था में मूल्य के रूप में संवाद को लिया जाना चाहिए। हमें विश्वास से भी संवाद से निकाले गए निष्कर्ष को स्वीकार करना चाहिए। इसके लिए, भारत में प्रचलित प्रक्रिया भी शंकराचार्य जैसे तर्कवादियों को स्वीकार करती है। शंकराचार्य कहते थे कि धर्म कोई असभ्य बात नहीं है, बल्कि बहुत ही सूक्ष्म विचार है। इसलिए, उनकी उत्पत्ति को समझने के लिए चर्चा सत्र होना चाहिए, लेकिन चर्चा भीड़ में नहीं बल्कि समूहों में होती है। भीड़ में अराजकता हो सकती है, सच्चाई की भावना नहीं। सच्चाई को समझना भी हमारे विचारों के साथ स्थिरता की मांग करता है। गांधीजी इसका एक उदाहरण हैं। वह अपने विचारों को खारिज करने में भी संकोच नहीं करता था। उस दिशा में किया गया निर्णय लोगों के सामने, उनके सामने, लोगों के लिए फायदेमंद होता है। भारत के भीतर कई ऐसे अवसर आए हैं जिनमें जीवन के व्यवहार के स्तर में, सरकार के स्तर में मतभेद रहे हैं। वोट को विभाजित किया गया है, लेकिन एक बड़े पैमाने पर आम सहमति की ओर बढ़ने और देश के महानतम हितों के सामने हमारे स्वार्थ का त्याग करते हुए निर्मित प्रणाली को स्वीकार करते हुए, परिष्कार के बौद्धिक परिश्रम के उदाहरण भी हैं। भारत के लोग आपदा में भी यही करते रहे हैं। एक विभाजित दिमाग किसी भी राष्ट्र की समूह चेतना को नष्ट कर सकता है। विरोध होना जरूरी है, लेकिन विरोध होना खतरनाक है। विरोध को कम करने का एक तरीका अनुरोध के रूप में स्थापित प्रणाली के खिलाफ रखी गई बाधाओं को खत्म करना है। विभाजित लोगों को भड़काने और उत्तेजित समूहों को अराजकता में धकेलने के लिए देश में एक सामूहिक प्रयास है। ऐसा लगता है कि भारत फिर से शहर-शहर में विखंडन के कगार पर है।

भारतीय समाज की ताकत यह है कि यह मतभेदों को खत्म करता है और एक बनने के लक्ष्य की ओर बढ़ता है, लेकिन आज यह सार्वजनिक रूप से स्वीकृत प्रणाली गायब हो रही है। नतीजतन, छोटे अंतर भयावह रूप ले रहे हैं। छोटे-छोटे मतभेद टुकड़ों का समाज बना रहे हैं। ऐसी स्थिति में, हमें याद रखना चाहिए कि किसी भी समूह की भाषा और उसकी विचार प्रणाली, अर्थात् मिलना, बैठना, विचार व्यक्त करना, वैचारिक भिन्नताओं पर चर्चा करना और चर्चा के दौरान स्पर्श, बोध के आधार पर पूर्ण संवेदनशीलता और संवेदनशीलता के साथ। दूसरे का अपनाना प्रगतिशील होना है। यह भारत के इतिहास में गार्गी और याज्ञवल्क्य के संदर्भ में जनक और अष्टावक्र के संदर्भ में देखा जा सकता है। यह भेद कुमारिल और शंकराचार्य के संवादों में, शंकराचार्य और मंडन मिश्र के संवादों में भी परिलक्षित होता है। यह सावरकर और गांधी के संवाद, सुभाष और गांधी के संवाद में भी गूंजता है।

शास्त्रार्थ केवल आधार भूमि में है। भारत के लिए, यह संविधान, संवैधानिक कानूनों का आधार है, जिसमें सभी उपचार संभावनाएं शामिल हैं। यदि भारत के शरीर में कोई बीमारी है, तो इसका अहिंसक उपचार संभव है। इसीलिए बुद्ध ने खुद को सर्वश्रेष्ठ चिकित्सक कहा, क्योंकि उन्होंने एक ऐसी सोच विकसित की जो समाज की पीड़ा को दूर करने के लिए करुणा और नैतिकता पर आधारित हो। आज का शोरगुल वाला माहौल संगीत को विभिन्न स्वरों के बीच सामंजस्य बनाने की उम्मीद करता है और यह संगीत केवल भारत के लोगों द्वारा ही बजाया जा सकता है।

सकारात्मक या नकारात्मक नजरिया : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हमारी जिंदगी में नजरिया (attitude) बहुत ज्यादा मायने रखता है। हमारा नजरिया बचपन में ही बन जाता है। हम कैसे विचार करते हैं ये हमारे नजरिए पर निर्भर करता है। अगर हमारी सोच अक्सर सकारात्मक होती है तो हमारा नजरिया सकारात्मक होता है। अन्यथा हमारा नजरिया नकारात्मक होता है। कुछ लोग जरा सी परेशानी आयी औऱ घबराने लगते हैं । उन्हें हमेशा लगता है कि यह मुसीबत हमारा पीछा नहीं छोड़ेगी। एक के बाद दूसरी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। इनका कोई अंत नहीं है। यह सोचकर वे ज्यादा परेशान हो जाते हैं। उनका नजरिया ही नकारात्मक बन जाता है। वे हर सफल व्यक्ति में केवल बुराइयाँ ही तलाशते हैं। उन्हें लोगों की अच्छाइयां कभी दिखाई नहीं देती हैं। वे लोगों में केवल नकारात्मक विचारों को फैलाते हैं। न कभी खुश रहते हैं और ना किसी को रहने देते हैं। हमेशा नकारात्मक बातों को करते रहते हैं। जीवनभर अपना नजरिया बदल नहीं पाते हैं।

इस वजह से जीवन में सदा असफल रहते हैं। अपनी असफलता का कारण दूसरों को मानते हैं। वे यह समझ नहीं पाते हैं कि उनकी असफलता की असली वजह उनका नकारात्मक नजरिया है। वे अपने आपमें कभी सुधार नहीं करते हैं। सदा दुखी और असन्तुष्ट रहते हैं। इन लोगों से मिलकर लोग अप्रसन्न हो जाते हैं। ये लोग दूसरों की परवाह नहीं करते हैं।

दूसरी तरफ सकारात्मक नजरिया वाले लोग आत्मविश्वास से भरे रहते हैं। वे जो काम करते हैं उसमें उन्हें सफलता मिलती है। अगर कभी असफल भी होते हैं तो उसका कारण तलाशते हैं और उस कमी को दूर करते हैं। वे दूसरों पर दोषारोपण नहीं करते हैं। ऐसे लोगों से मिलकर लोग खुश हो जाते हैं क्योंकि वे अच्छे विचार फैलाते हैं। ऐसे लोग बुराई में अच्छाई तलाशते हैं। उनका यह नजरिया ही उन्हें सफलता के करीब ले जाता है। वे दूसरों की अच्छाइयों की तारीफ करते हैं। ऐसे लोगों के बहुत मित्र बन जाते हैं। वे दूसरों में आशा की किरण जगाते हैं तथा लोगों को सदा प्रोत्साहित करते रहते हैं। स्वयं भी सकारात्मक रहते हैं और सकारात्मक ऊर्जा लोगों में फैलाते हैं।

जीवन में सकारात्मक औऱ नकारात्मक विचारों का अपना ही महत्व है। सकारात्मक सोच आगे बढ़ने में सहायता करती है तो नकारात्मक सोच किसी काम में आनेवाली चुनोतियों का एहसास कराती है । हमें दोनों का उचित संतुलन बनाकर अपना काम करना चाहिए। जैसे–सकारात्मक सोच वालों ने हवाई जहाज बनाया लेकिन नकारात्मक सोच वालों ने पैराशूट बनाया। हवाई जहाज बनाने वाले ने सोचा लोग हवा में उड़ सकेंगे तो नकारात्मक विचारों वालों ने सोचा अगर हवाई जहाज गिर गया तो लोग कैसे बचेंगे इसलिए उन्होंने पैराशूट बनाया जिससे लोग बच सकें।
आप इस एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि एक हद तक नकारात्मकता सही है।

भारतीय संस्कृति : आधुनिकता एवं प्राचीनता दोनों संग लेकर चलें : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

सत्य, शिव और सुंदर के विवेचन कठिन हैं। गतिशील समाज वर्तमान से संतुष्ट नहीं रहते, और अतीत से विचलित रहते हैं। सभी संस्कृतियों में प्राचीन के साथ संवाद की परंपरा है। सारा पुराना कूड़ा करकट नहीं होता। वह पूरा का पूरा बदली परिस्थितियों में उपयोगी भी नहीं होता। पुराने के गर्भ से ही नया निकलता है। वास्तविक आधुनिकता विचारणीय है। यहां प्रश्न उठता है कि आधुनिकता के पहले वास्तविक विशेषण की आवश्यकता क्यों है? इसका सीधा उत्तर है कि आधुनिकता स्वयं में कोई निरपेक्ष आदर्श या व्यवहार नहीं है। इसका सीधा अर्थ ही प्राचीनता का अनुवर्ती है। आधुनिकता प्राचीनता के बाद ही आती है। हरेक आधुनिकता की एक सुनिश्चित प्राचीनता होती है। इसी तरह प्राचीनता की भी और प्राचीनता होती है।

आधुनिकता को और आधुनिक कहने के लिए उत्तर आधुनिकता शब्द का चलन बढ़ा है। सच बात तो यही है कि प्राचीनता और आधुनिकता के विभाजन ही कृत्रिम हैं। काल अखण्ड सत्ता है। काल में न कुछ प्राचीन है और न ही आधुनिक। हम मनुष्य ही काल संगति में प्राचीनता या नवीनता के विवेचन करते हैं। प्राचीनता ही अपने अद्यतन विस्तार में नवीनता और आधुनिकता है। हम आधुनिक मनुष्य अपने पूर्वजों का ही विस्तार हैं। वे भी अपनी विषम परिस्थितियों में अपने पूर्वजों से प्राप्त जीवन मूल्यों को झाड़ पोछकर अपने समय की आधुनिकता गढ़ रहे थे। ऐसा कार्य सतत् प्रवाही रहता है।

विज्ञान और दर्शन के विकास ने देखने और सोचने की नई दृष्टि दी है। इससे प्राचीनता को नूतन परिधान मिले हैं। ऋग्वेद प्राचीनतम ज्ञान कोष है। हम ऋग्वेद के समाज को प्राचीन कहते हैं। ऐसा उचित भी है लेकिन ऋग्वेद में उसके भी पहले के समाज का वर्णन है। ऋग्वेद जैसा मनोरम दर्शन और काव्य अचानक नहीं उगा। निश्चित ही उसके पहले भी दर्शन और विज्ञान के तमाम सूत्र थे। वैदिक पूर्वजों ने अपने पूर्वजों से प्राप्त परंपरा का विकास किया। ऋग्वेद की कविता वैदिक काल की आधुनिकता का दर्शन-दिग्दर्शन है। यही बात उपनिषद् और महाकाव्य काल पर भी लागू होती है। सांस्कृतिक निरंतरता पर ध्यान देना बहुत जरूरी है।

वैदिक काल की निरंतरता का ही विकास हड़प्पा सभ्यता है। इसे स्वतंत्र सभ्यता बताने वाले गल्ती पर हैं। कोई भी सभ्यता या संस्कृति शून्य से नहीं उगती। हड़प्पा की सभ्यता नगरीय सभ्यता है। नगरीय जीवन खाद्यान्न सहित तमाम मूलभूत आवश्यकताओं के लिए ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर निर्भर होते हैं। आधुनिक भारत का समाज प्राचीन भारत के पूर्वजों के सचेत या अचेत परिश्रम का परिणाम है। आधुनिकता में प्राचीनता की चेतना होनी चाहिए लेकिन अंग्रेजी राज के दीर्घकाल में प्राचीनता को अंधविश्वास और पिछड़ापन बताया गया।

भारतीय सम्पर्क से विश्व का भी ज्ञानवर्द्धन भी हुआ लेकिन भारत में लोकमत के संस्कार का काम संतोषजनक नहीं है। हम भारत के लोग बहुधा दुनिया के अन्य देशों की जीवनशैली की प्रशंसा करते हैं। यहां विदेशी सभ्यता को अपनी सभ्यता से श्रेष्ठ बताने वाले भी हैं। संप्रति भारतीय आधुनिकता भारतीय नहीं जान पड़ती। यह प्राचीनता का स्वाभाविक विस्तार नहीं है। इस आधुनिकता में विदेशी जीवनमूल्यों का घटिया प्रवाह है। यह भारत के स्वयं को आत्महीन बना रही है। इसलिए मूल परंपरा से संवाद जरूरी है। उसके पक्ष में लोकमत बनाना और भी जरूरी है।

आधुनिकता भारतीय प्राचीनता की ही पुत्री है। प्राचीनता मां है और आधुनिकता पुत्री। माता पूज्य है और पुत्री आदरणीय। दोनो स्वतंत्र सत्ता नहीं हैं। आधुनिकता को यथासंभव मां के सद्गुणों का अवलम्बन करना चाहिए और देश काल परिस्थिति के अनुसार स्वयं का पुनर्सृजन व विकास भी करना चाहिए। प्राचीनता पिछड़ापन नहीं है। प्राचीनता का विवेचन जरूरी है। प्राचीनता की गतिशीलता में ही हम आधुनिक होते हैं। गति के साथ अनुकूलन करना और अनुकूलन व अनुसरण में ही प्रगतिशील होते जाना काल का आह्वान है।

वर्तमान समाज व्यवस्था व जीवन शैली संतोषजनक नहीं है। इसका मुख्य कारण प्राचीनता से अलगाव है। आयातित आधुनिकता ने हमारी स्वाभाविक संस्थाएं भी तोड़ी हैं। परिवार, प्रीति और आत्मीयता के बंधन टूट रहे हैं। असंतोष विषाद बन रहा है और विषाद अवसाद। इसलिए लोकमत निर्माण में लगे सभी विद्वानों, पत्रकारों, साहित्यकारों, सामाजिक कार्यकर्ता और मूल्यनिष्ठ राजनेताओं को ध्येयनिष्ठ, स्वाभाविक आधुनिकता के सृजन में जुटना चाहिए।

युवा अर्थात वायु : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

युवा का उल्टा होता है “वायु”-अर्थात जो वायु के वेग से चल सके, जिसके मन में उत्साह हो, उमंग हो, जो जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारण किया हो और लक्ष्य प्राप्ति के लिये दृढ़ संकल्प हो वह युवा है, युवा वर्तमान है, जो खुद को बेहतर बनाने के लिये जो सोचता और करता है वह युवा है, आंखों में उम्मीद के सपने, नयी उड़ान भरता हुआ मन, कुछ कर दिखाने का ज़ज्बा और दुनिया को अपनी मुट्ठी में करने का साहस रखने वाला युवा है।

युवा सम्राट स्वामी विवेकानन्द जी कहा है - युवा वह जो जोश से भरा हुआ है, जो सदैव क्रियाशील रहता है, जिसमें शेर जैसा आत्मत्व है, जिसकी दृष्टि सदा लक्ष्य पर होती है, जिसकी शिराओं में गर्म रक्त बहता है, जो विश्व में कुछ अनुठा करना चाहता है, जो भाग्य पर नहीं कर्म पर विश्वास रखता है, जो परिस्थितियों का दास नहीं उसका निर्माता, नियंत्रणकत्र्ता और स्वामी है।

उम्र का यही वह दौर है जब न केवल उस युवा के बल्कि उसके राष्ट्र का भविष्य तय किया जा सकता है। आज के भारत को युवा भारत कहा जाता है क्योंकि हमारे देश में असम्भव को संभव में बदलने वाले युवाओं की संख्या सर्वाधिक है। आंकड़ों के अनुसार भारत की 65 प्रतिशत जनसंख्या 35 वर्ष आयु तक के युवकों की और 25 साल उम्र के नौजवानों की संख्या 50 प्रतिशत से भी अधिक है। ऐसे में यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि युवा शक्ति वरदान है या चुनौती? महत्वपूर्ण इसलिए भी यदि युवा शक्ति का सही दिशा में उपयोग न किया जाए तो इनका जरा सा भी भटकाव राष्ट्र और समाज के भविष्य को अनिश्चित कर सकता है।

युवा आत्मविश्वास का धनी होता है, वह ऊर्जा से ओत-प्रोत रहता है। यदि युवा ऊर्जा के बिखराव को रोक सके तो जिस तरह सूर्य की किरणों को सुनियोजित कर बिजली पैदा की जाती है वैसे ही युवा वर्ग अपनी ऊर्जा को सुनियोजित कर किसी लक्ष्य की ओर अग्रसर होंगे तो कामयाबी निश्चित है। युवा कठिन चुनौतियों से कभी पीछे नहीं हटता बल्कि संघर्ष करते हुए रास्ता बनाकर मंजिल तक पहुँचता है।

वर्तमान में देश जिस उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है, आशंकित है आगे क्या होगा? पर्यावरण प्रदूषण, भ्रष्टाचार का दावानल, सूखते जल स्त्रोत, बढ़ती बेरोजगारी, नशाखोरी, आराजकता की भयावह दृश्य को केवल और केवल युवाशक्ति ही मिटा सकती है। पूर्व में हुई क्रांतियों की ही भांति आज के युग एक क्रांति की आवश्यकता है। सारे देश की निगाहें आज युवा शक्ति पर टिकी हुई है। अत: युग निर्माण के मंच से ऐसे युवाओं का आह्वान किया जाना चाहिये, जिनके दिल में देश और समाज के लिये कुछ करने की ललक हो, ऐसे युवाओ को मुख्य धारा से जोड़ना होगा।
उम्मीदों की पतंगों ने भरी उड़ाने होसलों की। चलो अब देखते उचाइयां इन आसमानों की।।

माँ शब्द में निहित संपूर्ण सृष्टि : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की सलामती मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है।

माँ एक शब्द नहीं पूरी दुनिया है, जो सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं ! उसकी ममता का, निस्वार्थ प्रेम कोई ओर-छोर नहीं होता। सागर से गहरे, धरती से सहनशील और आकाश से भी विशाल उसके स्नेहसिक्त आँचल में तो तीनों लोक समाए रहते हैं। मनुष्य को प्रकृति प्रदत्त यह सबसे बड़ी नेमत है, जिसका कोई सिला नहीं ! माँ इस धरती पर ईश्वर का प्रत्यक्ष रूप है। जिस घर में माँ खुश रहती है, वहां खुशियों का खजाना कभी खाली नहीं होता। कोई कष्ट, कोई व्याधि, कोई मुसीबत नहीं व्यापति ! अपने बच्चों को खुश देख खुश रह लेने वाली माँ अपनी ख़ुशी के एवज में भी बच्चों की ख़ुशी ही मांगती है।

जिस माँ के बिना इस दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती; उसी के लिए हमने एक दिन निर्धारित कर दिया। माँ या उसका ममत्व कोई चीज या वस्तु नहीं है कि उसके संरक्षण की जरुरत हो ! नाहीं वह कोई त्यौहार या पर्व है कि चलो एक दिन मना लेते हैं ! अरे ! जब भगवान के लिए कोई दिन निर्धारित नहीं है; तो फिर माँ के लिए क्यों ? भगवान भी माँ से बड़ा नहीं होता ! वह तो खुद माँ के चरणों में पड़ा रह खुद को धन्य मानता है।

वैसे माँ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसके लिए कोई ख़ास दिन बनाया गया है कि नहीं। उसे न तोहफों की लालसा होती है नाहीं उपहारों की ख्वाहिश। मिल जाएं तो ठीक, ना मिलें तो और भी ठीक। वह तो निस्वार्थ रह बिना किसी चाहत के अपना प्यार उड़ेलती रहेगी। ख़ुशी में सबके साथ खुश और दुःख में आगे बढ़, ढाढस दे आंसू पोछंती रहेगी। भगवान से भले ही वह नाखुश हो जाए पर अपने बच्चों के लिए उसके मुख पर सदा आशीष ही रहती है। इसीलिए ऊपर वाले से कुछ मांगना हो तो सदा हमें अपनी माँ की खुशहाली मांगनी चाहिए, हमारे लिए तो माँ हर वक़्त दुआ मांगती ही रहती है।

ज़िन्दगी धूप छाँव सी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

कई बार जीवन में बहुत कुछ अनापेक्षित ही मिल या घट जाता हैं जिसकी हम कभी कल्पना भी नही किये होते हैं पर शायद इसी का नाम जिन्दगी हैं धूप- छावं सी जिस पर हम चाहकर भी प्रतिबंध नही लगा सकते उसे घटित होने से नही रोक सकते हैं।

कई बार ये परिवर्तन सुखदायी और कई बार अत्यंत पीड़ा दायक और कष्टकारी होता हैं असहनीय हो जाता हैं जिसे सह पाना नामुमकिन सा लगने लगता हैं जीने की आकांक्षा ही मिट जाती हैं हम स्वयं में ही हम टूट से जाते हैं वक्त वही ठहर जाता है ।

यूँ लगता हैं अब सबकुछ खत्म हो गया कुछ नही बचा क्यूकिं मन का टूटना, दुनिया की हर चीज़ के टूटने से ज्यादा दु:खदायी होता है और विश्वास का टूटना, मनुष्यता का विनष्ट होना है हम सोंचते है हमे दु:ख हमारी गलतियों की वजह से मिला हमने गलत राह चुन ली पर यथार्थ बिल्कुल विपरीत ही होता है हम रास्ते नही चुनते, रास्ते चुनते हैं हमें ।

परिस्थितियां कुछ यूँ बन जाती है कि हमें आभास भी नही होता ना ही एहसास की क्या सही और क्या गलत कठपुतली की तरह नियति के हाथो नाचते रहते है हर एहसासों को भोगने के लिए नियति बार बार हमे ले जाती है असह्य पीड़ा अपरिमित प्रतीक्षाओं की ओर..

शायद, अपने ही कर्मों के अनुबंध से बंधे होते हैं रास्ते खुशियों के और गमों के संघर्षों और पीड़ाओं असहनीय यातनाओं के इसीलिये स्वयं को दोषी मानकर जो हो रहा हैं स्वीकार कर ठहरे नही अपितु बढ़ते रहे अपनी सोंच को सकारात्मक रखे सब कुछ कभी नष्ट नही होता कुछ न कुछ अवश्य रह जाता है जैसे- लकड़ी जल जाने के बाद राख बची रह जाती है।

वैसे ही मन टूटने के बाद भी कही न कही इच्छा शक्ति शेष रह जाती है जिसकी वजह से आप खुद को टूटा महसूस कर रहे थे उसी को जीने की वजह बना लीजिये जीने के लिए वही पर्याप्त हैं बस अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत हैं। कहना बस इतना ही हैं कि जीवन बहुत मूल्यवान है इसे यूँ ही नष्ट नही करना चाहिए जहां भी लगे अंत हैं वही से शुरू करें।

रास्ते चाहे जितने भी अनजाने क्यूँ न हो खत्म तो कही न कही होगें ही। अंजानी डगर की भी मंजिल होती है हताश या निराश होकर लौटने की बजाय उसी पर निरन्तर आगे बढ़ते रहे एक दिन आप स्वयं देखेंगें कि आप ने वो पा लिया जो असम्भव था।

भक्ति का पहला मार्ग सादगी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

सादगी भक्ति का पहला मार्ग है, आनंद एक आलसी लेकिन निर्दोष युवक था। पूरे दिन कोई काम नहीं करता, बस खाना और सोना। परिजनों ने उसे नौकरी से निकाल दिया और नौकरी करने को कहा। आनंद ने घर छोड़ दिया, इस तरह भटकते हुए एक आश्रम में आया। वहाँ उन्होंने देखा कि एक गुरु जी हैं, उनके शिष्य काम नहीं करते, बल्कि केवल मंदिर में पूजा करते हैं। उसने सोचा कि यह उसके लिए एक अच्छी जगह है, कोई काम नहीं है और केवल पूजा है। उन्हें गुरु से आज्ञा मिली और वे वहाँ रहने लगे।

आनंद ख़ुशी से आश्रम में रहे, कोई भी काम या तीर्थयात्रा नहीं की, केवल प्रभु की भक्ति में ही भोजन किया और भजन गाया। धीरे-धीरे महीना बीत गया और एकादशी आ गई। आनंद ने देखा कि रसोई में खाना तैयार नहीं था। जब उन्होंने गुरुजी से पूछा, तो उन्होंने कहा कि सभी लोग आश्रम में एकादशी का व्रत रखते हैं। आनंद ने कहा: गुरु जी, बिना भोजन के वह मर जाएगा।

इस पर गुरुजी ने कहा, उपवास मन पर निर्भर करता है, कोई अनिवार्यता नहीं है। इसलिए, आपको अपने स्वयं के भोजन को तैयार करना और खाना चाहिए, लेकिन आपको इसे नदी के पार करना होगा। आनंद ने जलाऊ लकड़ी, खाना पकाने के बर्तन आदि ले लिए। और नदी पार कर गया। इस बीच, गुरुजी ने कहा कि जब वह खाना बनाने के लिए तैयार हो, तो सबसे पहले श्री राम जी को अर्पित करें।

आनंद ने खाना तैयार किया और खाना खाने बैठ गया। इस बीच, उन्हें याद आया कि गुरुजी ने भगवान से उन्हें भोग चढ़ाने के लिए भी कहा था। उन्होंने भजन गाना शुरू किया लेकिन उन्हें पता नहीं था कि भोला मानस नहीं आएंगे, लेकिन उन्हें गरु जी की आज्ञा का पालन करने की भी आवश्यकता थी। लंबे समय के बाद उन्होंने कहा कि भगवान राम को देखिए, मैं समझ गया कि आप क्यों नहीं आते क्योंकि मैंने सूखा खाना पकाया है और आपको मिठाई खाने की आदत है। उसने कहा, एक बात और बताओ, भगवान ने आज आश्रम में कुछ भी नहीं किया है, इसलिए यदि आप खाना चाहते हैं, तो इसका आनंद लें।

श्रीराम अपने भक्त की सरलता पर मुस्कुराए और माता सीता के साथ प्रकट हुए। आनंद भ्रमित हो गए क्योंकि गुरुजी ने राम जी के बारे में बात की थी, लेकिन सीता माता भी यहाँ आई हैं। आनंद ने कहा: प्रभु, मैंने दो लोगों के लिए भोजन तैयार किया था, लेकिन आपको देखकर बहुत अच्छा लगा।

अगले एकादशी तक भोला मानस सब कुछ भूल गया। उसे लगा कि भगवान ने आकर प्रसाद ग्रहण किया होगा। फिर एकादशी आई। गुरुजी ने कहा: मैं अपना भोजन पकाने गया था, इस बार गुरुजी थोड़ा और अनाज लेंगे, दो लोग वहां आएंगे। गुरुजी मुस्कुराए और सोचा कि अगर उन्होंने कड़ी मेहनत की, तो वे भूखे रह सकते हैं, इसलिए वह बहाना बना रहे हैं।

गुरु ने अधिक भोजन लाने की अनुमति दी। आनंद ने इस बार तीन लोगों को पकाया और प्रभु को याद किया। इस बार भगवान राम, लक्ष्मण और सीता माता तीनों पहुंचे। फिर आनंद ने प्रभु को खिलाया और मौत के घाट उतार दिया। बिना जाने ही उसने एकादशी का व्रत भी कर लिया।

अगली एकादशी में उन्होंने पूछा: गुरुजी, आपके भगवान राम अकेले क्यों नहीं आते? वे हर बार कितने लोगों को लाते हैं? अनाज इस बार थोड़ा ज्यादा दें। इस बार, गुरुजी को लगा कि अगर उन्होंने अनाज बेचा तो उन्होंने आनंद को छिपाने और देखने का फैसला किया।

अपने जीवन को बदलने से पहले अपने सोच को बदलिए।

दूसरी ओर, आनंद ने सोचा, इस बार मैं पहले भोजन नहीं बनाऊंगा, मुझे नहीं पता कि कितने लोग आते हैं। पहले मैं फोन करता हूं और फिर करता हूं। जब भोले आनंद ने भगवान को याद किया, तो भगवान उनके दरबार में उपस्थित हुए। उन्होंने आनंद से कहा, क्या यह प्रसाद अभी तैयार नहीं है? भक्त, भोला भाला, ने कहा: मैंने सोचा कि कितने लोग आएंगे, तो पहले इसे करने का क्या लाभ है? खुद भी करो और मुझे भी खिलाओ।

शिष्य की सरलता देखकर भगवान राम मुस्कुराए और कहा कि भक्त की इच्छा अवश्य पूरी होनी चाहिए। चलो काम पर वापस चलते हैं। लक्ष्मण जी ने लकड़ी एकत्र की, माता सीता ने आटा गूंथना शुरू किया। भक्त एक तरफ बैठकर देखता रहा। इसे देखकर बुद्धिमान भिक्षु, यक्ष, गंधर्व प्रसाद लेने के लिए आने लगे। इधर, गुरुजी ने देखा कि भक्त खाना नहीं बना रहा था, बल्कि एक कोने में बैठा था।

वे वहाँ गए और पूछा, बेटा, क्या हो रहा है, तुमने खाना क्यों नहीं बनाया? आनंद ने कहा, अच्छा हुआ गुरूजी, आप देख चुके हैं कि कितने लोग प्रभु के साथ आते हैं। गुरुजी ने कहा: मुझे तुम्हारे और फलियों के अलावा कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। यह सुनकर आनंद ने सिर पकड़ लिया और भगवान राम से कहा: भगवान, आप मुझे हर बार इतनी मेहनत करते हैं, मुझे भूखा रखते हैं और अब मैं गुरुजी को देख भी नहीं सकता।

यह सुनकर, प्रभु ने कहा: मैं उन्हें नहीं देख सकता। शिष्य ने कहा कि वह मेरा गुरु है, कि वह एक महान विद्वान है, कि वह एक विद्वान है, कि वह बहुत कुछ जानता है, आप उसे क्यों नहीं देखते?

प्रभु ने कहा कि आपके गुरुजी सब कुछ जानते हैं, लेकिन यह आपके लिए उतना सरल नहीं है, इसलिए, वह इसे नहीं देख सकते हैं। आनंद ने गुरुजी से कहा: गुरुजी प्रभु कह रहे हैं कि आप सरल नहीं हैं, इसलिए आप नहीं देखेंगे। गुरुजी रोने लगे और कहा: “मुझे सब कुछ मिल गया लेकिन मैं इसे आसानी से प्राप्त नहीं कर सका, जबकि भगवान शांति के साथ अकेले हैं।” यह सुनकर भगवान राम प्रकट हुए और गुरुजी को भी दर्शन दिए।

गरीबी शिक्षा में बाधक नहीं है : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

हम जिस युग में जी रहे हैं उसमे आधुनिक तकनीकी हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है जिसे सिखने या इस्तेमाल करने के लिए शिक्षा की अहमियत होती है. शिक्षा हम सभी के उज्जवल भविष्य के लिए एक बहुत ही आवश्यक साधन है. हम अपने जीवन में शिक्षा के इस साधन का उपयोग करके कुछ भी अच्छा प्राप्त कर सकते हैं. ये तो हम हमेसा से सुनते आये हैं की शिक्षा पर दुनिया के हर एक बच्चे का अधिकार है. देश के विकास के लिए प्रत्येक बच्चे का शिक्षित होना बेहद जरुरी है। लेकिन हमारे देश भारत में क्या इन बातों पर अमल किया जाता है? सभी इस बात से वाकिफ हैं की भारत में गरीब लोगों की संख्या मध्यवर्गीय और अमीर लोगों की तुलना में कई ज्यादा है. इस गरीबी के कारण ऐसे कई लाख बच्चे हैं जिन्हें प्राथमिक शिक्षा भी नसीब नहीं होती और बचपन से ही उन्हें बाल श्रम के दलदल में ढकेल कर उनका मासूम सा बचपन छीन लिया जाता है।

गरीबी के कारण केवल एक परिवार को ही नहीं बल्कि उस देश को भी इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है. अशिक्षित लोगों की संख्या बढ़ने से देश के उन्नति पर इसका गहरा प्रभाव पड़ता है। हमारे देश की हालत को सुधारने का एक मात्र रास्ता है शिक्षा. शिक्षा लोगों की सोच को सकारात्मक बनाती है और नकारात्मक विचारों को दूर भगाती है. आज मै आपके लिए एक अनोखा विषय लेकर आई हूँ जिसके बारे में आपको जानना जरुरी है ताकि जब भी आप किसी गरीब बच्चे को शिक्षा प्राप्त ना करते हुए देखें तो आप उसे सही सलाह दे सकते हैं. उस विषय का नाम है गरीबी शिक्षा में बाधक नहीं है पर निबंध. ये निबंध अपने बच्चों के साथ भी शेयर कीजिये ताकि उन्हें भी इस निबंध के माध्यम से शिक्षा के महत्व के बारे में पता चल सके।

गरीबी एक ऐसी समस्या है जो हमारे पुरे जीवन को प्रभावित करने का कार्य करती है. गरीबी एक सामाजिक समस्या है जो इंसान को हर तरीके से परेशान करती है. इसके कारण एक व्यक्ति का अच्छा जीवन, शारीरिक स्वास्थ्य, शिक्षा स्तर आदि जैसी सारी चीजें ख़राब हो जाती है. आज के समय में गरीबी को दुनिया के सबसे बड़ी समस्याओं में से एक माना जाता है। गरीबी में जीवन जीने वाले व्यक्तियों को ना तो अच्छी शिक्षा की प्राप्ति होती है ना ही उन्हें अच्छी सेहत मिलती है. भारत में गरीबी देखना बहुत आम सा हो गया है क्योंकि ज्यादातर लोग अपने जीवन की मुलभुत आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर सकते हैं।

गरीबी का मुख्य कारण अशिक्षा है और अशिक्षा से अज्ञानता पनपती है. गरीब परिवार के बच्चे उच्च शिक्षा तो छोडिये सामान्य शिक्षा भी ग्रहण नहीं कर पाते हैं. शिक्षा का अधिकार सभी लोगों को है लेकिन गरीबी के कारण ऐसा नहीं हो पाता है. हमारी भारत सरकार गरीब लोगों के लिए कई सारे अभीयान चलाती है लेकिन अशिक्षित होने के कारण गरीबों तक उस अभियान की जानकारी नहीं पहुँच पाती है। गरीब लोगों में जागरूकता और जानकारी का अभाव तथा उनका गैर प्रगतिशील नज़रिया एक ऐसा मुलभुत कारण है जिसे गरीबी के लिए जिम्मेदार माना जाता है. जानकारी तथा जागरूकता की कमी के कारण गरीब लोग सरकारी कार्यक्रमों का लाभ उठाने में असमर्थ रहते हैं. इसलिए प्राथमिक शिक्षा भी गरीबों के लिए बहुत ही जरुरी होता है।

बेहतर शिक्षा सभी के लिए जीवन में आगे बढ़ने और सफलता प्राप्त करने के लिए बहुत आवश्यक है. यह हममें आत्मविश्वास विकसित करने के साथ ही हमारे व्यक्तित्व निर्माण में भी सहायता करती है. आधुनिक युग में शिक्षा का महत्व क्या है ये गरीब परिवार और पिछड़ी जाती के लोगों को बताना अति आवश्यक है तभी वो अपने बच्चों को शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करेंगे।

शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा देने के लिए बहुत सी सरकारी योजनाएं चलायी जा रही है ताकि सभी की शिक्षा तक पहुँच संभव हो. ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों को शिक्षा के महत्व और लाभों को दिखाने के लिए टीवी और अखबारों में बहुत से विज्ञापनों को दिखाया जाता है क्योंकि पिछड़े ग्रामीण क्षेत्रों में लोग गरीबी और शिक्षा की ओर अधूरी जानकारी के कारण पढाई करना नहीं चाहते हैं।

सर्व शिक्षा अभियान का उद्देश्य सभी को शिक्षित करके उन्हें अपने पैर पर खड़ा करना है जिससे समाज का कल्याण हो सके. इसके अलावा बालक बालिका का अंतर समाप्त करना, देश के हर गांव शहर में प्राथमिक स्कूल खोलना और मुफ्त शिक्षा प्रदान करना, निशुल्क पाठ्य पुस्तकें, स्कूल ड्रेस देना, शिक्षकों का चयन करना, उन्हें लगातार प्रशिक्षण देते रहना, स्कूलों में अतिरिक्त कक्षा का निर्माण करना आदि सर्व शिक्षा अभियान के उद्देश्य में शामिल हैं।

बालिका छात्रों तथा कमजोरवर्गों के बच्चों पर विशेष ध्यान दिया गया है. डिजिटल दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाने के लिए सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत ग्रामीण क्षेत्रों में कम्प्यूटर शिक्षा भी प्रदान की जाएगी।

स्कूली शिक्षा बिना अमीरी गरीबी का भेदभाव किये सभी बच्चों को मिलनी चाहिए क्योंको ये सभी के जीवन में एक महान भूमिका निभाती है. शिक्षा को प्राथमिक शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा जैसे तिन प्रभागों में विभाजित किया गया है. शिक्षा के सभी भागों का अपना महत्व और लाभ है. प्राथमिक शिक्षा आधार तैयार करती है जो जीवन भर मदद करती है।

माध्यमिक शिक्षा आगे के अध्ययन के लिए रास्ता तैयार करती है और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा भविष्य और पुरे जीवन का अंतिम रास्ता तैयार करती है. उचित शिक्षा भविष्य में आगे बढ़ने के बहुत सारे रास्ते बनाती है. यह हमारे ज्ञान स्तर, तकनिकी कौशल और नौकरी में अच्छी स्थिति को बढाकर हमें मानसिक, सामाजिक और बौद्धिक रूप से मजबूत बनाता है।

पहले भारत की शिक्षा प्रणाली बहुत सख्त थी और सभी वर्गों के लोग अपनी इच्छा के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे. ज्यादा पैसे लगने की वजह से विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेना बहुत कठिन था. लेकिन अब शिक्षा प्रणाली में बदलाव किये गए हैं जिससे शिक्षा में आगे बढ़ना सरल और आसान हो गया है।

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है की दूरस्थ शिक्षा कार्यक्रमों ने उच्च अध्ययन को इतना सरल और सस्ता बना दिया है की पिछड़े क्षेत्रों के लोग भविष्य में शिक्षा और सफलता तक अपनी पहुँच प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा के बहुत से लाभ होते हैं पहला तो ये की गरीबी की स्थिति को सुधारने में सक्षम होता है. शिक्षा के कारण लोगों को समाज में मान सम्मान मिलता है और इज्जत मिलता है. नौकरी के ढेरों अवसर मिलते हैं जिससे आर्थिक स्थिति में सुधार होने लगता है।

शिक्षा के वजह से ही व्यापार का विकास होता है और देश की आय में बढ़ोतरी होती है. अच्छी शिक्षा जीवन में बहुत से उद्देश्यों को प्रदान करती है जैसे व्यक्तिगत उन्नति को बढ़ावा, सामाजिक स्तर में बढ़ावा, सामाजिक स्वस्थ में सुधार, आर्थिक प्रगति, राष्ट्र की सफलता, जीवन में लक्ष्यों को निर्धारित करना, हमें सामाजिक मुद्दों के बारे में जागरूक करना और पर्यावरण समस्याओं को सुलझाने के लिए हल प्रदान करना जैसे कई सारे मुद्दों के बारे में सोचने समझने की काबिलियत प्रदान करता है।

समाज में भ्रष्टाचार, अशिक्षा तथा भेदभाव जैसे ऐसी समस्याएं हैं जो आज के समय में विश्व भर को प्रभावित कर रही है. इसे देखते हुए हमें इन कारणों की पहचान करनी होगी और इनसे निपटने की रणनीति बनाते हुए समाज के विकास को सुनिश्चित करना होगा क्योंकि गरीबी का सफाया समग्र विकास के द्वारा ही संभव है।।

"मैं" स्वाभिमान या अभिमान : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

[ भगवद्गीता के कर्म को समझने से पहले "मैं" को समझना अति आवश्यक है ]

इस जीवन में आत्मा रुपी पंछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूँ। दूसरा कोई नहीं है।

संसार के चक्र को एक व्यवस्थित विधान के साथ परमात्मा चला रहे हैं। परमात्मा का यह व्यवस्थित धारणीय विधान ही धर्म है। परमात्मा ही है, जो संसार के चक्र को सुव्यवस्थित ढंग से चलाकर उसे नित्य गतिमान रखते हुए संतुलित करते जाते हैं।

हमें यह समझ लेना चाहिए कि जो लोक-परलोक में शुद्ध और विकार रहित हो वही धर्म है। धर्म के उन्नत होने पर हिंसा खत्म होती है और अहिंसा मजबूत होती है। धर्म ही सभी जीवों का संरक्षण करता है। यह जीव ही है, जो धर्म को धारण करता है। इसी धर्म के कारण जीव का वैभव बढ़ता है। धर्म से ही मैत्रीभाव, क्षमा, दया, पवित्रता, विद्या, बुद्धि और बल के साथ सत्य की प्राप्ति होती है। जो धर्म को धारण करेगा, वह शरीर, मन और वचन से पवित्र रहेगा। जो धर्म के विपरीत हो, वह अधर्म कहा जाएगा। आत्मनिवेदन के भाव में जब इन्द्रियां वश में रहती है, तो हिंसा, झूठ, कपट, छल, चोरी और अपवित्रता तथा सभी भोगों के प्रति स्वच्छन्दता समाप्त हो जाती है। साधु पुरुषों और जीवों की रक्षा धर्म करता है। इसे हम ऐसे भी समझ सकते है कि धर्म रुपी शरीर जो भगवान का शरीर है, उनकी रक्षा करता है। अधर्म होने पर वही धर्म रुप से शरीर धारण कर परमात्मा दुष्टों का संहार करते है। भगवान अधर्म का शमन करके धर्म की स्थापना करते है। संसार का स्वरुप परिवर्तनशील है। धर्म और अधर्म दोनों ही परमात्मा की निगाह में रहते हैं। दोनों में से उन्हें अपने स्वभाव का स्वरुप धर्म ही प्रिय है।

धर्म की भूमिका केवल आध्यात्मिक उन्नयन के लिए नहीं है, बल्कि सामाजिक उन्नयन में भी धर्म का अत्यधिक महत्व है। अशान्ति पैदा करने वाले उपादान आज पूरे विश्व में सर्वत्र उपस्थित है। इसका कारण तृष्णा, प्रबल मिथ्या भोगेच्छा, अहंकार, द्वेष, ईर्ष्या, लोभ और राग है। लंबे समय से इन विसंगतियों को दूर करने में समाज जब चूकता है, तब अधर्म अपनी जड़े मजबूत करने लगता है। बद्धात्माओं की इस भौतिक जगत में भौतिक प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छा बहुत गहरी होती है। प्रत्येक मनुष्य सम्पत्ति एकत्रित करना चाहता है। वह अपनी अधिकतम सीमा तक सुख भोग लेना चाहता है। मानव की जगत में हर प्रकार से सुखी होने की इच्छा प्रबल होती है। ये इच्छाएं ही भौतिक बंधन का कारण हैं। सभी प्रकार की भौतिक इच्छाओं को निष्फल करने का एकमात्र साधन धर्म को धारण कर भगवान की भक्ति करना है। इसीलिए ज्ञानी और संत जन कहते है कि सदाचार का पालन करते हुए ईश्वर की भक्ति और असहायों की मदद कर उनकी सेवा में मनुष्य को सदा तल्लीन रहना चाहिए। दरअसल, हमें जब तक यह अहसास नहीं हो जाता है कि ईश्वर ही सब कुछ कर रहा है। वह यन्त्री हैं और हम यन्त्र मात्र हैं। सभी को अपना मानकर प्रेम करना और किसी पर भी अपना अधिकार न मानना ही जीवन मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इन्हीं कारणों से हम धर्म संरक्षण को अपने जीवन से जोड़कर देखते है। इस जीवन में आत्मा रुपी पछी एक बड़े से पिंजरे में कैद है। उसे ‘मैं’ ने कैद कर रखा है। ऐसी कोई हवा नहीं चल रही है कि पछी पिंजरा समेत उड़ान भर कर मुक्ति का आनन्द उठा ले। पिंजरे को तोड़ने के लिए ‘मैं’ की दीवार को काटना होगा। ‘मैं’ देखता है, ‘मैं’ ही सुनता है, ‘मैं’ ही महसूस करता है। यहाँ हालत यह है कि ‘मैं’ ही ‘मैं’ हूं। दूसरा कोई नहीं है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, यह धन मेरा है। यह सब पिंजरे की दीवार को मोटा कर कैद खाने को चमकाते रहते है।

लेकिन जब यह आभास होने लगे कि यह ‘मैं’ मेरे में है, वह नित्य शाश्वत और ज्ञान स्वरुप है तो समझ लेना चाहिए कि पछी पिंजरे समेत उड़ान भर रहा है। हम धर्मशालाओं में धार्मिक आचरण करते हुए नैतिकता का पालन करते हुए कुछ समय के लिए ठहरते है, फिर उसे छोड़कर चल देते है। धर्मशाला को लेकर यह भाव नहीं आता है कि यह धर्मशाला मेरा है। इस संसार में विचरण करने के लिए परमात्मा से अलग हुआ यह शरीर धर्मशाला है, जिसमें आत्मा रुपी पंछी कुछ समय के लिए ठहरता है, फिर नैतिकता के साथ ईमानदारी पूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए धर्मशाला रुपी शरीर को छोड़कर चल देता है। यहाँ व्यर्थ का मोह, ममता, लगाव और रिश्तों का लोभ धर्मशाला को कैदखाने में तब्दील कर देता है। इसीलिए इसमें रह रहा आत्मा रुपी पछी इस कैद से आज़ाद नहीं होना चाहता है। कोलाहल सभी प्रकार के सृजन में बाधा उत्पन्न करता है। जीवन में जब भी दूसरा कोई पदार्पण करता है तो खुशी उत्पन्न होती है। जब कोई जाता है तो विक्षोभ।

स्वर-लालित्य, विद्या-कला और प्रेम की उत्कट अभिव्यक्ति इसी आने और जाने में समाहित रहता है। जीवन और कर्म, भक्ति और शक्ति, सर्जन और विसर्जन का सुंदर संयोग जीवन की संरक्षित दृष्टि को विशिष्ट बनाती है। इस धर्म संरक्षण में स्नेह, सौंदर्य, स्फूर्ति, समन्वय और स्पर्श की सुमधुर सृष्टि है।

पिंजरा : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जब एक नन्ही चिड़िया तिनका-तिनका जोड़कर अपना घोंसला बनाती है बड़े अरमान और विश्वास से उसे सजाती है, और सोचती है इसमे वो और उसके बच्चे सुरक्षित रहेंगे। खुशी मे वो भूल जाती है घोंसला तो उसका है जिसे उसने कड़ी मेहनत और लगन से बनाया है पर वो पेड़ या वो घर उसका नही जहां उसने अपना घोंसला बनाया है।

उसका मालिक तो कोई और है फिर वो घोंसला उसका कैसे हुआ उस इंसान का जब दिल करेगा उसे बेघर कर देगा, तबाह कर देगा उसके अरमानों का आशियाना, बिखेर देगा उसके सपनों के घोंसले को एक मगरूर हवा का झोंका तोड़ देगा उस डाली को जिस पर जहाँ बसा रखा उस नन्हीं चिड़िया ने।

उम्मीद से भरी उसकी आंखे किससे बयां करे अपने दर्द को वो जगह कहाँ जहाँ वो निश्चिंत होकर अपना घोंसला बना सके जिसे वो अपना कह सके जिस पर सिर्फ उसका हक हो किसी और का नही जहाँ वो निडर होकर रह सके कोई न तोड़ सके उसके अरमानो का घोंसला। हममे से कई लोग अपनी खुशी के लिए उसे पाल लेते है घर मे रख लेते है पर घर नही देते, देते है तो पिंजरा जहाँ वो सांसे तो ले पर चहक न सके, परो के होते हुए भी उड़ न सके पर कटेे परिंदे की तरह तड़पती रहे। अगर हमारे दिलो मे इतनी जगह नही की उसे अपने घर मे घोंसला बनाने दे तो कृपया उसे कैद भी न करे उड़ जाने दो जीने दो उसे क्यूँ अपनी खुशियों के लिए खरीद लेते हो उसके जीवन को लिख देते हो अपना नाम उसकी जिन्दगी पर मोहताज बना देते हो उसकी हर सांस को छीन लेते हो उसकी सारी खुशियां।
क्या कभी लौटा सकोगे उसके जीवन को ??

जिसको कैद कर लेते हो अपने स्वार्थ के लिए कैद मे होकर भी वो तुम्हे मुस्कुराहटे देती है उसकी तड़प पर तुम मुस्कुरातें हो जब वो आजाद होने के लिए तड़पती है तो तुम खुश होते हो कहते हो पाले हो मगर वास्तव मे तो कैद कर रखा है।

कैद मे कोई खुश नही रह सकता एक आजाद परिंदा चहकता है गुनगुनाता है जिसे देख कर सब मुस्कुराते है क्या वो भी तुम्हे देखकर खुश रह पाता है सहम कर एक कोने मे कही बैठ तो नही जाता है।

मत कैद करो उसे सिर्फ वो कैद नही होता उसके साथ उसकी सांसे उसका चहकना, उछलना और उसकी वो स्वछन्द उड़ान सब कैद हो जाता है बिछड़ जाते है उसके नन्हें बच्चें या उन बच्चों से उनकी माँ उजड़ जाता है उनके अरमानों का घोंसला तड़प कर रह जाते है कैद हो कर कुछ शेष नही रह जाता है। रह जाता है उनके जीवन मे तो बस वो “पिंजरा” जिसे तुम देते हो अपने स्वार्थ के लिए !!

रोने की कोशिश : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

कभी जबरदस्ती रोने की कोशिश की है? मैंने की है। एक बार नहीं, बहुत बार। जब ग़म हृदय पर अपनी काया का विस्तार करता है और मैं उससे बाहर निकलने की हज़ार कोशिशों के बाद भी असफल रहता हूँ। सब कुछ गर्म आँसुओं के साथ बाहर निकाल देना चाहता हूँ। पर हो नहीं पाता..

कभी सोचकर परेशान होते हैं? अनबन, हज़ारों ख़्वाहिशों, ख़्यालों में से किस ख़्याल के कारण अचानक आँसू निकल आए? मैं होता हूँ। फिर जब वो ख़्याल दोहराता हूँ तो हज़ारों और ख़्याल आ जाते हैं और सब में सुख-दुख की परिसीमा नापते-तोलते आँसू सूख जाते हैं..

कभी महसूस किया है? दस बाए बारह के कमरे में खिड़की से लगे बेड पर बैठकर उसी खिड़की की लोहे की ग्रिल की ठंड को महसूस, वो भी उत्ताप बढ़ती साँसों के साथ? मैंने किया है। आँखें ज़मीं की तरफ़ झुक जाती हैं। किसी अजनबी चीज़ पर टिक जाती हैं, मेरी नज़रों से बेख़बर..

यह जो कहते हैं न कि ज़िंदगी में उतार-चढ़ाव होता रहता है, उसमें ज़्यादा दर्द उतार से चढ़ाव और चढ़ाव से उतार होने की ट्रांजीशन स्टेट में होता है। जैसे कंपनी में नाइट और डे शिफ्ट। तीन महीने नाइट शिफ्ट में जैसे-तैसे एडजस्ट हुए ही होंगे कि शिफ्ट डे हो जाता है। सुख और दुख वैसे ही होता है। किसी एक के साथ हमारी आदत बनते ही वो बदल जाता है। बस उस स्थिति में अगर हम ज़िंदगी जीना सीख जाएँ तो उससे बड़ा सुख और कुछ नहीं होगा.!!

संस्कृति समाज की जननी : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

संस्कृति समाज की जननी है ! संस्कृति की कोख से जन्म लेकर समाज संसार में अपना आकार ग्रहण करता है ! माँ के लहु के कोख से जन्म लेने के साथ व्यक्ति समाज के भावनात्मक कोख से भी जन्म लेता है ! लहु की कोख होना प्राकृतिक है यहाँ तन आकार लेता है , भावना का कोख होना निज मातृत्व है यहाँ मन आकार लेता है ! तन हमेशा मन के अनुसार ही चलता है ! यशोदा माँ की भावना भगवान श्रीकृष्ण का मन है और देवकी माँ का लहु श्रीकृष्ण का तन है ! जिसकी जननी लहु नहीं केवल भावना की कोख है और भावना की कोख केवल शारीरिक स्त्रियों के आधीन नहीं होती ! वर्षों तक अनेकों मातृत्व भाव से सिंचित आज स्वयं मातृत्व भाव का संवाहक बन चुका है ! जो बीज अंकुरित होकर वृक्ष बनता है , उसके फल में फिर से बीज उत्पन्न होते हैं , यही प्रकृति का शाश्वत सिद्धांत है।

आपका बुरा वक़्त : प्रफुल्ल सिंह "बेचैन कलम"

जिन्दगी में बहुत सारी चीज़ें ऐसी होती हैं, जो आपके अनुसार नहीं चलती। आप दिल से पूरे मन से चाहते हो, कोशिश करते हो की वो चीज़ ठीक वैसे ही हो जैसे आप चाहते हो। लेकिन शायद यही तो जिन्दगी है कि कुछ चीज़े बिल्कुल आपके खिलाफ और आपके इच्छा के विपरीत होती ही हैं। चाहे आप जो भी हो, चाहे आप जो भी कर लो। आप उस नाजुक पल में बस ठगा सा और हारा हुआ महसूस कर सकते हो।

आप अपने सूकून के लिए रोते हो चीखते हो, तन्हा हो जाते हो, किस्मत को कोसते हो, अपने आप को कोसते हो, डरते हो, दुनियां से दूर भागते हो, गुस्साते हो, घबराते हो, और उस पल को जाते हुए निर्मम आँखों से देखते रहते हो। कोई इसे संघर्ष कहता है, कोई किस्मत, तो कोई आपके कर्मों का फल!

पर वास्तविकता में वो चीज़ जो आपके मन के अनुसार न हो रही हो उसका मायने आपके लिए क्या है यह सिर्फ और सिर्फ आप जानते हो। वो पल या वो फैसला आपको कितना तोड़ता है और आप उस पल कितना टूटते हो इसका असली मापदंड सिर्फ आप कर सकते हो। लेकिन उस हालात से सीखना ,उस जख्म को भरना, उस पल में सम्भलना, टूटे हुए अपने आप को जोड़ना ये सारी चीज़ें सिर्फ आपकी काबिलियत पर निर्भर करता है। उस हालात का अनुभव आपको बिखेरता तो है, पर थोड़ा बहुत निखारता भी है। बस आपमें संयम, साहस और एक इन्सान जिन्दा रहे।

रोओ ,चिल्लाओ, टूटो, बिखरो लेकिन इसके साथ निखरो भी। मुश्किल होगा पर असंभव नहीं।

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