अर्धांगिनी (कहानी) : डॉ पद्मा शर्मा
Ardhangini (Hindi Story) : Dr. Padma Sharma
डोरबैल बजते ही मनीषा ने पहले दीवार घड़ी पर निगाह डाली। मन ही मन वह सोचने लगी कि अभी तो इनके आने का समय नहीं हुआ है। पता नहीं कौन है? दरवाजा खोलकर देखा तो अपनी प्रिय सहेली संगीता को खड़ा पाया। वह उत्साह से उसके गले लग गयी। उसका हाथ पकड़कर अन्दर लाते हुए बोली-घर कब आयी।
“बस कल ही’’ कहते हुए संगीता ने अपना बैग टेबल पर लापरवाही से पटक दिया और आराम से सोफे में धँस गई।
“और सुना क्या हाल है’’ कहते हुए उसनें मनीषा का हाथ पकड़कर लगभग खींचते हुए उसे अपने पास बिठा लिया।
मनीषा हाथ छुड़ाते हुए बोली - तेरे लिये पानी तो ले आऊँ।
संगीता बोली - मुझे प्यास लगेगी तो मैं खुद भरकर पी लूंगी। और सुन मुझे चाय-वाय भी नहीं पीना है। बस तू आराम से मेरा पास बैठ जा।
तभी बेटे नवनीत की आवाज आयी तो मनीषा को जाना ही पड़ा।
उसके जाने के बाद संगीता ड्रांईग रूम का मुआयना करने लगी। वह कमरा ड्रांइग रूम के साथ-साथ एक व्यक्ति एक लेटने का कक्ष भी था। वह सोचने लगी कुछ भी तो नहीं बदला। यहाँ उसके ससुर जी सोते होंगे। नीचे एक कमरा अंदर बना है जो मनीषा का है ऊपर देवर रहते है।
ससुर व्यापारी हैं और देवर एक दुकान के मालिक है। मनीषा के पति नरेश एक ऑफिस मे कार्यरत है। ननद भी विवाह योग्य है।
मनीषा लौटकर आयी तो संगीता का ध्यान भंग हो गया। वह दरवाजे पर ही खड़ी होकर उससे कह रही थी कि चल अन्दर आजा मेरे कमरे में, वहीं बैठेगें।
अन्दर पाँच वर्षीय नवनीत होमवर्क कर रहा था। चारों तरफ कॉपी किताबें बिखरी पड़ी थीं।
मनीषा ने कहा- मैं इसे होमवर्क करा रही थी। आजकल स्कूलों में बहुत काम मिलता है। इसके प्रोजेक्ट भी पूरे करवाना है।
संगीता ने पूछा-जीजाजी नहीं करवाते?
उसने शुष्क आवाज में कहा- तुम्हें तो पता है उनका टाइम फिक्स है। वे ऑफिस से आकर टहलने निकल जाते है उसके बाद भोजन फिर मन्दिर। लौटकर टी.वी. देखना और सो जाना।....................
अपनी बात बीच में ही छोड़कर उसने विषय बदलते हुए कहा-जल्दी बता चाय बनाऊँ या कॉफी।
संगीता ने फिर से उसे जबरन बिठाते हुए कहा- मुझे कुछ नहीं पीना। तू आराम से यहाँ बैठ। मुझे तुझसे ढेर सारी बातें करना है।
मनीषा बैठ गयी। पुरानी बातें हुयी। सबके हाल चाल पूछे गये पर मनीषा व्यग्र हो रही थी। थोड़ी देर बात करने के बाद मनीषा फिर से बोली- अच्छा चल किचिन में ही चलते है तेरे लिये चाय बनाऊँगी। वहीं बातें भी करेंगे और साथ-साथ खाने की तैयारी भी कर लूँगी।
संगीता ने तर्क किया- मुझे खाना-वाना नहीं खाना है।
मनीषा कुछ झिझकते हुए बोली- तेरे लिये नहीं, सबके लिये खाना बनाना है।
संगीता मनीषा के साथ किचिन में आ गयी। संगीता ने फिर पूछा - मम्मी जी कहाँ हैं।
उसने संक्षिप्त उत्तर दिया -मंदिर गयी हैं।
मनीषा को शांत देखकर संगीता चहकते हुए बोली तनख्वाह कितनी बढ़ रही है। सुना है तू तो अब मालामाल हो जायेगी। बता कितना फायदा हो रहा है।
“पता नहीं-’’ वही सरल सा उत्तर हमेशा की तरह उसने दिया अच्छा बता- अभी कितनी पगार मिल रही है, संगीता हिसाब लगाने को आतुर थी।
उसका फिर वही उत्तर था - मुझे नहीं पता।
दरअसल तुझे तो मालूम है मैंने शादी के बाद से ही नहीं जानना चाहा कि मुझे कितनी तनख्वाह मिलती है। वेतन बैंक में जमा हो जाता है। इन्हें जितनी जरूरत होती है एटीएम से निकाल लेते हैं। पूछती हूँ फिर भूल जाती हूँ।
संगीता जानती थी कि मनीषा को ज्यादा वेतन मिलता है और उसके पति को कम। वह वेतन संबंधी कोई भी बात करती है तो उन्हें लगता है तन्खवाह की धोंस दिखा रही है फिर इनफीरियरटी कॉम्प्लेक्स का भी प्रश्न था। गृहस्थी अच्छी तरह चलती रहे इसलिये उसने आर्थिक मुद्दो में कभी हिस्सा नहीं लिया ना हीं हस्तक्षेप किया।
संगीता झल्लाकर बोली - देख मनीषा ये सीधापन और सरलता नहीं है तेरा बुद्धूपन है। सीधा बनकर रहना और एक्टिव बनकर रहना दोंनो में अन्तर है। तू कब अपने आपको एक्टिव बनायेगी। कॉलेज का एक प्राध्यापक ये कहे कि उसे नहीं मालूम उसे कितनी तनख्वाह मिलती है। कोई सुनेगा तो यह नहीं समझेगा कि तू कितनी सीधी है वो तुझे मूर्ख समझेगा और यह तेरा सीधापन नहीं बुद्धूपन है। इसका लोग फायदा उठायेंगे। तू अपने आप में कब परिवर्तन लायेगी। संगीता का लम्बा चैड़ा भाषण शुरू हो गया था। थोड़ा रूककर फिर बोली - अपनी दशा देख। साड़ी बेतरतीव है, बाल बिखर रहे हैं पैरों की एड़ियाँ फट रही हैं। गला सूना पड़ा है। मुझे मालूम है ऐसे ही कॉलेज हो आयी होगी।
मनीषा की आँखों में पानी तैर आया था। वह धीरे से बोली - क्या करूँ घर के काम से फुरसत ही नहीं मिलती। रात को थककर चूर हो जाती हूँ। सुबह जल्दी उठकर क्लास का लेक्चर तैयार करती हूँ। नवनीत का टिफिन तैयार करना और नाश्ते की तैयारी करना........समय कब निकल जाता है पता ही नहीं चलता। बस भागते-दौड़ते कॉलेज जाती हूँ।
और देवरानी? संगीता ने प्रश्न उछाला
मनीषा बोली - वह सुबह का खाना बनाती है मैं शाम का।
चाय उबल रही थी। उसमें खदबदाहट थी ऐसी ही खदबदाहट संगीता के अन्दर भी थी।
काम करते-करते मनीषा ने पूछा- कब तक रूकी हो ?
उसने उत्तर दिया - बस परसों चली जाऊँगी।
मनीषा ने आग्रह करते हुए कहा अगले माह ननद की शादी है। पिछले महीने सगाई हो गयी है। तू शादी में आयेगी न?
संगीता ने पूछा - तुम लोग क्या दे रहे हो!
उसका वही उत्तर - पता नहीं।
संगीता को उस पर गुस्सा आने लगा। लेकिन वह कुछ कह नहीं पायी। संगीता जाते - जाते चेता गयी- तुझसे तो अच्छी मेरी जिन्दगी है। घरेलू महिला हूँ पर अपनी जिन्दगी अपने हिसाब से तो जी तो रही हूँ। अच्छा बनने का लेबल चिपकाने के चक्कर में कब तक घुटेंगी। देख कोई नहीं पूछेगा तेरी अच्छाई को एक्टिव बन।
मनीषा और संगीता कक्षा पाँच से लेकर बी. ए. तक साथ-साथ पढ़ी हैं। संगीता का मन आगे पढ़ने में नही लगा तो माँ बाप ने उसकी शादी कर दी। मनीषा के पिता की किताबों की दुकान थी पिताजी किताबें लेने जाते तो कभी-कभी मनीषा भी दुकान पर बैठ जाती। चार बहन भाइयों का पालन गरीबी में किस जद्दो जद्द में होता है यह सब मनीषा ने देखा है। घर की हालत देखकर उसने संकल्प ले लिया था कि वह अच्छी नौकरी करेगी। उसने मेहनत की और कॉलेज में सहा. प्राध्यापक बन गयी। अपनी तनख्बाह वह अपने घरबालों पर जी भरकर खर्च भी नहीं कर पायी थी कि अच्छा घर मिलते ही उसके पिताजी ने उसकी शादी कर दी।
मनीषा के मन में भी प्रश्न उछल रहा था रात में उसने नरेश से पूछा कि हम शादी में क्या देंगे।
नरेश ने टालते हुए कहा - देख लेंगे। अभी कुछ सोचा नहीं है।
मनीषा विस्तर पर लेटी थी। संगीता के शब्द उसके मस्तिष्क पर बार-बार प्रहार कर रहे थे..........तुझे ये भी नहीं पता तुझे कितनी तनख्बाह मिलती है..........मैं अपनी ज़िन्दगी अपने हिसाब से जीती हूँ..........। मनीषा बुदबुदायी संगीता तुम्हें कैसे बताऊँ कि मैं क्यों इन सबके हिसाब में चलती हूँ। तुम्हें नहीं पता इनके परिवार में ताऊजी के लड़के ने गुस्से में आकर पत्नी को छोड़ दिया। मैं जानती हूँ भाभीजी की हालत क्या हो गयी है। डर लगता है मुझसे ऐसी गलती न हो जाये कि मेरा भी वही हाल हो। पिताजी पर क्या गुजरेगी। दो बहनें अभी शादी के लिए हैं। उनकी शादी में बाधा आ जायेगी। सोचते हुए उसकी आँख की कोर से आँसू वह निकले।
समय जल्दी ही व्यतीत हो गया। ननद की शादी करीब आ गयी शादी की रस्में पूरी होने लगीं। घर में मेहमान भी आ गये।
सासु माँ चैकी पर बैठीं बुलावे में दिये जाने वाले बटौने को थैली में भरवा रही हैं। बुआसास उस में एक-एक कटोरी वताशे भर कर मौंसी सास को देती जा रही है।
बुआजी ने पूछा - घर में कौन-कौन क्या-क्या दे रहा है। मम्मीजी ने वही घिसा पिटा उत्तर दिया- दे देंगे जो बनेगा।
मौंसी ने पूछा - नरेश और महेश क्या दे रहे हैं?
मम्मी का वही उत्तर - पता नहीं।
बुआजी बोलीं - सगाई तो अच्छी चढ़ा दी। सुना है कार भी दी है। तभी देवरानी निशा बोली - मम्मीजी ऐसी बातें क्यों कर रही हो। ये तो तुम्हें भी मालूम होगा। तुम्हारे बेटों ने क्या दिया है।
वे फिर से नकारने लगीं - कुछ नहीं दिया।
अब कहाँ निशा चुप रहने वाली थी। वह मुँहफट वैसे भी थी। वह बोली मम्मीजी तीस हजार दिये हैं। मामूली दुकान है तब भी इतना कर दिया।
सुनकर मम्मीजी का चेहरा सफेद पड़ गया।
मनीषा निरूत्तर थी उसे तो मालूम ही नहीं था कि नरेश ने कितना रूपया लगाया है या कितना देने के लिए सोच रखा है।
बुआजी बोल पड़ी - चलो जाकी तो छोटी दुकान है। जाने तीस हजार लगा दये। ये तो दोऊ जने कमाते हैं कुछ तो देने ही चइये। ननद की शादी कौन बार-बार होतै। तुम्हारी बहन की शादी होगी तो तुम कुछ नहीं दोगी क्या? बहना अपनी तेरी को फर्क मत करो।
तब तक ननद भी आ गयी थी उसने भी तर्क देते हुए कहा - .......और क्या बुआजी कुछ नहीं दिया। इनके बच्चों को दिन-दिन भर रखा तभी ये नौकरी कर पायीं।
मनीषा की आँखें डबडबा आयीं। वह जमीन में गड़ी जा रही थी। यह तो वही जानती है कि बच्चों के कारण दिन रात नौकरानियों की तरह घर में जुटी रहीं। पूरे घर के कपड़े धोना, झाड़ू पौछा, बरतन सभी काम में बह लगी रहती थी। कभी उफ तक नहीं की और नां ही किसी को कहने का मौंका दिया कि नौकरी करती है तो घर का काम नहीं करती। बल्कि और अधिक मर्यादा में वह रही।
अचानक नरेश कहीं से वापस आ गये। ननद के शब्द उनके कानों में पड़ चुके थे। वे हस्तक्षेप करते हुए बोले- तुम्हारी सगाई में जो कार गयी है उसका पूरा सवा लाख हमने दिया है।
ननद शान्त रह गयी। फिर मम्मी की ओर मुखातिव होकर बोले - मम्मी तुम्हें मालूम नहीं हमने क्या दिया। मम्मीजी का चेहरा सफेद पड़ गया।
मनीषा अन्दर दौड़ी चली गयी। आज तो उसके सब्र का बाँध टूट गया। उसे तो नरेश पर गुस्सा आ रहा था। सबको पता है बस मुझे ही नहीं पता। निशा को भी मालूम है कि उसने कितना रूपया दिया। रह रहकर संगीता की बातें कानों में गूँज रही थीं- सीधा होना और एक्टिव होना दोनों में अन्तर है। वह ठीक कहती है। हर आय व्यय का विवरण मालूम होना चाहिये। आज मुझे मालूम होता तो मैं भी वह देती। यूँ जलील तो नहीं होती।
नरेश अन्दर आये। उसे फूट-फूटकर रोता देखकर बोले। शांत हो जाओ।
मनीषा का लावा फूट पड़ा मैंने तुझसे कभी तनख्वाह का हिसाब नहीं लिया। मुझे ये तक नहीं मालूम तुझे कितनी तनख्वाह मिलती है। मुझे यह तक नहीं मालूम तुमने सगाई में क्या दिया निशा को मालूम है उसने क्या दिया। मालूम नहीं है तो बस मुझे। मैंने घरवालों का सहयोग करने के लिये आपको कभी मना नहीं किया फिर क्यों आप एक माह से सह बात छिपाये हुए हैं। मैं अर्धांगिनी हूँ आपकी। क्या इतना भी अधिकार नहीं है मेरा कि मैं ये सब जान सकूँ?
उसका यह रूप देखकर नरेश स्तब्ध रह गया। शादी के सात वर्ष बाद पहली वार उसका यह रूप देखा है। वह आज अर्धांगिनी के अधिकार मांग रही है।
नरेश डबल वैड पर बैठ गया। उसको उठाते हुए बोला - रोना बन्द करो मेरी गलती रही कि मैंने तुम्हें राजदार नहीं बनाया। आगे से ऐसा नही होगा।
मनीषा स्तब्ध थी। सात वर्षों में पहली वार नरेश अपनी गलती स्वीकार कर रहे थे।