अपनी जनता अपनी पृथिवी (निबन्ध) : वासुदेव शरण अग्रवाल
अपने देश में अपना राज्य स्थापित हुआ है—इसी की संज्ञा स्वराज्य है। स्वराज्य की व्याख्या नाना रूपों में की जा सकती है। अपनी भाषा हो अपनी संस्कृति हो, जीवन का अपना प्रकार हो, अपने आर्दश हो और अपना शिष्टाचार हो, सदाचार हो—ये सब स्वराज्य के सुंदर फूल हैं। इनका उपभोग भी स्वराज्य की स्थापना है, किंतु इन सबसे महत्वपूर्ण अपनी पृथिवी के साथ अपनी जनता का वह आंतरिक और धनिष्ठ संबंध है जिसके जीवित रहने से ही स्वराज्य का सच्चा फल देखने में आता है। जनता और पृथिवी का सूत्र बहुत कुछ अर्थ रखता है। अथर्ववेद में तो इसे यों कहा है—'माता भूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः।'
अर्थात् पृथिवी माता है, मैं उसका पुत्र हूँ, यही स्वराज्य की भावना है। स्वराज्य के फलस्वरूप जो कुछ चाहिए, वह इस एक वाक्य में आ जाता है। जब प्रत्येक व्यक्ति जिस पृथिवी में उसका जन्म हुआ है, उसे अपनी मातृभूमि समझने लगता है तो उसका मन उस भूमि के साथ जुड़ जाता है। मातृभूमि उसके लिए देवता हो जाती है। उसके मन के समस्त भाव मातृभूमि के हृदय से जा मिलते हैं। फ़िर वह पुत्र की भाँति माता के प्रति अपने कर्तव्य की बात सोचता है। जीवन में चाहे जैसा अनुभव हो, वह मातृभूमि से द्रोह की बात नहीं सोच सकता। मातृभूमि के प्रति जब यह भाव दृढ़ होता है, वहीं से सच्ची राष्ट्रीय एकता का जन्म होता है। उस स्थिति में मातृभूमि पर बसने वाले बहुविध जन एक दूसरे से सौदा करने या कीमतें तय करने की बात नहीं सोचते। मातृभूमि के प्रति अपने कर्तव्य की बात सोचते हैं। कर्तव्य की भावना को ही भारतीय परिभाषा में धर्म कहा जाता है। आज राष्ट्र का सबसे बड़ा कष्ट यही है कि प्रत्येक व्यक्ति या समूह अपने कर्तव्य या धर्म की बात नहीं सोचता, किंतु अपने लिए सब प्रकार के अधिकार चाहता है। सब के सुख में सुखी और सब के दुःख में दुखी होने की भावना जनता में उत्पन्न हो, यही स्वराज्य का प्रत्यक्ष फल और साक्षात रूप हो सकता है। सेतुबंधु रामेश्वर से लेकर कश्मीर तक की जनता का सुख-दुःख एक है। कच्छ से असम तक की जनता के हानि-लाभ एक हैं। राष्ट्रीय संकट के समय इस सत्य की एक लहर चारों ओर दौड़ गई थी। बिजली के तार से लगने वाले झटके को तरह इस तथ्य का सबने अनुभव किया। पर इसे सदा स्मरण रखना है, भुलाना नहीं है। यही तो स्वराज्य की भावना का मधुर फल है। स्वराज्य एक आध्यात्मिक अनुभव है। उसका आनंद विलक्षण है। वह एक ऐसा स्वाद है, जिसकी उपमा अमृत से ही दी जा सकती है। यह मनुष्य के मन और शरीर दोनों को पुष्ट करता है। स्वराज्य की महिमा में क्या नहीं कहा जा सकता। वैदिक ऋषियों ने सोचा था—
'यतेमहि स्वराज्ये।‘ हम सब मिल कर स्वराज्य की स्थापना में यत्नशील हों।
सबके सम्मिलित प्रयत्न से ही स्वराज्य की रक्षा और स्थिति संभव है। यह एक व्यक्ति का बोझा नहीं। यह तो संपूर्ण राष्ट्र का दायित्व है। यदि राष्ट्र जागता है तभी स्वराज्य की स्थिति दृढ़ होती है। 'राष्ट्रिया जागृयाम वयम्’ यह वैदिक उक्ति हृदय में टांक लेने योग्य है। इस सबल मंत्र का प्रचार होना ही चाहिए कि हम राष्ट्र में जागते रहें। यह एक बड़ा संदेश है। जब व्यक्ति अपने कर्तव्य को भूल जाता है तब वह राष्ट्र के प्रति सच्चा नहीं होता। उसके प्रमाद से राष्ट्र की हानि होती है, राष्ट्र के योग-क्षेम के साथ ही व्यक्ति का योग-क्षेम जुड़ा है। राष्ट्र का सम्मिलित अर्थ पृथ्वी, उस पर रहने वाली जनता, और उस जनता की संस्कृति है। जब ये तीनों स्वर एक सूत्र में मिलते हैं तभी राष्ट्र का जन्म होता है। केवल स्थूल पृथिवी मिट्टी और पत्थर का ढेर है। उसकी सत्ता तभी सार्थक होती है, जब उस पर जनता का निवास हो, जब उस पर जनता का निवास हो और जनसमूह या जनता की चरितार्थता तभी है जब उसमें संस्कृति का विकास हो।
भारतीय राष्ट्र का जो स्वरूप पाँच सहस्र वर्षों में विकसित हुआ है उसमें ये तीनों तत्व एक दूसरे के साथ ओत-प्रोत हो गए हैं। हमने अपनी पृथिवी का पूजन किया। उसे पग-पग पर देवत्व प्रदान किया। उसके प्रत्येक पर्वत, नदी, सरोवर को पवित्र तीर्थ के रूप में प्रणाम किया और 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' इस प्रकार के उदात्त घोष से चारों दिशाओं को भर दिया। मातृभूमि के सम्मान की किलकारी चारों और भर गई। जनता ने भूमि के साथ अपना संबंध नाना प्रकार से स्थापित किया। उन सूत्रों की जड़ बहुत गहरी है। भूमि पर रहने वाली जनता का अभिप्राय विशृंखल जनसमूह से नहीं है, किंतु उस प्रकार के मानव समुदाय से है, जिसने भूमि को सम बनाया और नाना प्रकार के पदार्थो की उपलब्धि के लिए पृथिवी रूपी गो का दोहन किया। एक-दो नहीं अनेक आदिराज पृथु यहाँ जन्मे हैं, जिनके नेतृत्व में पृथिवी का दोहन किया गया और उसके अमृत-तुल्य दुग्ध का पान जनता ने किया। पृथिवी का यह दोहन केवल अधिक संपत्ति के रूप में ही नहीं प्राप्त हुआ, किंतु सांस्कृतिक जीवन के जितने रूप हैं, वे सब ही पृथिवी रूपी गौ के दुग्ध हैं। इनका सम्मिलित नाम संस्कृति है। मनुष्य अपने हाथों से जो कर्म करता है और मन को गति से जो विचार करता है, उसकी वह कर्म और मन की सिद्धि का नाम ही संस्कृति है। भारतीय मानव ने जीवन का कितना संस्कार किया है, जान और कर्म के क्षेत्र में उसका जो निर्माण है, उसकी समग्र कथा ही भारतीय संस्कृति का परिचय है। संस्कृति के रूप में जनता और पृथियों के अनेक धनिष्ठ संबंध ही हमारे जीवन के रूप हैं। स्वराज्य में उनका प्रतिपालन और विकास होना चाहिए।
संस्कृति हवा में नहीं तैरती, वह हमारे श्वास-प्रश्वास में भर जाती है। संस्कृति ही मानव जीवन की प्राण-वायु है। प्राणवंत जीवन की रचना के लिए संस्कृति के विकास पर ध्यान देना होगा। भारतीय उदाहरण के लिए भारतीय पुष्प, वृक्ष, फल, बीज, कृषि, भोजन, अन्न-पान विधि, वस्त्र, वेषभूषा, रहन-सहन, शैयासन, बर्तन-भांडे, गृह निर्माण, वास्तु, स्थापत्य, नृत्य-गीत, पर्व-उत्सव, आमोद-प्रमोद, चित्र-शिल्प, आचार-व्यवहार, शिक्षा-शास्त्र, भाषा, अपनी लिपि आदि सैकड़ों संस्थानों का भारतीय रूप ही राष्ट्र की संस्कृति है। अतीत के मौलिक सुंदर एवं रचनात्मक तत्वों को लेकर ही हमें नए रूपों का विकास करना चाहिए तभी निजी संस्कृति का माधुर्य और सौंदर्य जीवन में निवास करता है। जनता और भूमि के पारस्परिक संबंधों का जो श्रीवृक्ष है उसका संवर्धन ही सच्चा स्वराज्य है।