अपनी-अपनी सीमा : जसवंत सिंह विरदी (पंजाबी कहानी)
Apni-Apni Seema : Jaswant Singh Virdi
बाहर का गेट खोलकर फूलों और लताओं के पास से होता हुआ जब मैं आँगन में पहुँचता हूँ, दरशी का गुलाबी चेहरा मधुर मुस्कान के साथ मेरा स्वागत करता है। इस वक्त या तो वह घर की सफाई करने में लगी होती है या सीने-पिरोने के काम में । लगता है जैसे काम के बिना उसका जीवन सार्थक न हो सकता हो। वह कोई भी काम कर रही हो, मुझे देखते ही उसे सभी काम भूल जाते हैं जैसे वह सुबह से मेरा ही इंतजार कर रही हो। जिन्दगी का हर पल मेरे ऊपर न्योछावार करने के लिए वह तैयार हो जाती है। उस वक्त जब वह अपने प्यार परिपूर्ण पोरों से मेरी देह को स्पर्श करती है और मेरे कपड़ों को खूटियों पर लटका देती है, उस वक्त ऐसा प्रतीत होता है जैसे सारे दिन की यातनाओं की पीड़ा के विष को शिव रूप धारण कर स्वयं ही पी जाना चाहती हो। उस वक्त मैं एक अलौकिक मस्ती के आलम में होता हूँ। मुझे लगता है जैसे मैं सत्य-खंड में विचर रहा होऊँ। सत्य-खंड में रहने वाले लोग क्या मेरे से ज्यादा सुखी होंगे?..यह एक ऐसा स्वर्ग है जहाँ मैं इंद्र हूँ और दरशी मेरी अलका, मुस्कराते फूल और दरशी। मेरी अलका।
पर, पिछले कुछ अरसे से, दरशी मुझ से मेरा यह स्वर्ग छीन लेना चाहती है।
शाम की चाय उधेड़बुन में ही खत्म हो जाती है। इससे पहले कि मैं उस को सारे दिन के अपने रोजनामचे में से कोई दिलचस्प बात सुनाऊँ-वह पहले ही अपनी बात सुनाने के लिए तैयार होती है। बहुत-सी इधर-उधर की बातों की भूमिका के बाद वह कहती है-“वह है न आपके दोस्त सब्भरवाल की पत्नी कीर्ति।"
"हाँ, क्या हुआ कीर्ति को?"
"उस को भी स्कूल में सर्विस मिल गई है।"
"अच्छा! बहुत बुरा हुआ," मैं जैसे खीझता हुआ कहता हूँ।
"बुरा क्यों हुआ?" वह भी तल्ख हो जाती है। पर मैं तल्खी के वातावरण को सहज बनाने के लिए कहता हूँ-
"बस तुम बुरा ही समझो।" इस वक्त मैं बहुत कुछ कहना चाहता था पर मुझे कुछ भी तो नहीं सूझता और मैं बेमतलब इधर-उधर की लगाता हूँ।
"देखो न मेरी दरशी, औरतों का नौकरी करना बड़ा खतरनाक है। आज जितनी बुरी हालत नौकरी-पेशा औरतों की है, वैसी और किसी की नहीं।"
"कैसे?"
"तुम देखती ही हो कि बसों में औरतों का कितना बुरा हाल होता है। अगर वर्षा के दिन हों तो कहर ही तो है।"
“वर्षा क्या सारा वर्ष होती है?"
“सारा वर्ष तो नहीं, पर सारा वर्ष कोई न कोई मुसीबत, वर्षा के समान आती ही रहती है और...और..."
मेरी इन निरर्थक बातों के आगे उसे हथियार डालने पड़ते हैं। उसका चेहरा उतर जाता है और लगता है जैसे नयनों के कोरों में खारा पानी छलक रहा हो। इस वक्त लगता है जैसे उसकी नौकरी करने की आकांक्षा छटपटा कर आत्महत्या कर रही हो-क्या मैं इतना जालिम हूँ?-नहीं।
और मैं उसकी तसल्ली के लिए कहता हूँ-"मेरी प्यारी, मैं भले ही औरतों की नौकरी के पक्ष में नहीं हूँ, पर मैं लगातार कोशिश करता हूँ कि तुम्हें नौकरी मिल जाए। मैं जानता हूँ कि तुम सारा दिन घर में अकेली बोर हो जाती हो। नौकरी करने से तुम्हारा व्यक्तित्व भी तो विकसित हो जाएगा-है न?"
और मैं फिर कागज़ी फूलों को खिलने देता हूँ। यानी इस वक्त मैं प्रेम-दृष्टि से उसकी ओर देखता हूँ और वह खुश हो जाती है।
बेचारी औरत !
जिस दिन से उसने ऐम्बराइडरी डिजाइनिंग की ट्रेनिंग ली है, बस नौकरी के सिवा और कुछ सोच ही नहीं रही। नौकरी करने की आकांक्षा उसकी नस-नस में समा गई है।
कई बार जब हम लान में बैठे होते हैं और घर के आगे से अचानक ही कोई प्रसन्न, खिलखिलाता और चहकता हुआ सुंदर जोड़ा निकल जाता है तो दरशी की दृष्टि उसी बिंदु पर केन्द्रित हो जाती है-वह औरत अपने पति के कदम-से-कदम मिला कर बड़े अभिमान से चल रही नज़र आती है। उसका कद अपने पति से छोटा होते हुए भी वह अपने कद-काठ में पति के समान लगती है। मेरे बोलने से पहले ही दरशी कहेगी-“यह औरत ज़रूर नौकरी करती होगी।"
"तुम्हें कैसे पता चला?"
“जब तक औरत नौकरी नहीं करती, उस में स्वाभिमान की भावना उभर ही नहीं सकती।..."
और फिर वह दूर जा रहे उसी जोड़े की ओर देखती हुई नज़र आती है। मैं कल्पना में ही अनुभव करता हूँ जैसे वे दूर जाने वाले पति-पत्नी मैं और दरशी हो। फिर मैं कल्पना करता हूँ कि यदि दरशी को नौकरी मिल जाए तो उस में कितना स्वाभिमान उभर आएगा। उस चाल में कितनी दृढ़ता आ जाएगी। शायद उसका व्यक्तित्व मेरे जीवन पर हावी ही हो जाए और मैं दब जाऊँ? इस बिंदु पर आ कर मेरी विचार-शृंखला चटक जाती है और मुझे महसूस होता है कि दरशी के साथ चलता हुआ मैं जैसे निरीह-सा लग रहा होऊँ"। मैं सूखे पत्ते के समान काँप जाता हूँ जैसे मैंने कोई भयानक सपना देख लिया हो। क्या यह सपना सच हो जाएगा?
इस वक्त भी दरशी दूर जाते हुए उसी सुन्दर जोड़े की परछाईं को देखती जा रही है। उसकी गर्दन झुकी हुई, आँखें नम, और चेहरे पर काँपती लौ जैसा आत्मविश्वास । अभाव की साकार प्रतिमा दरशी। मासूम और निर्बल...।
इस मूड में वह मुझे बड़ी भली लगी। यह दृश्य मेरे लिए कितना शांतिदायक था? और मैं खुश हुए बिना न रह सका। मैं मुस्करा पड़ा और हल्की-सी हँसी मेरे होंठों में काँप गई। मेरी यह रहस्यमयी अवस्था देखकर दरशी की समाधि टूट गई और वह छटपटा कर बोली-“आपको क्या हुआ है?"
उसकी आवाज़ काँप रही थी। मैंने खुश होकर झूठ-मूठ कह दिया-“मैं सोचता हूँ अगर तुम्हें भी नौकरी मिल जाए तो हमारी जिंदगी भी उसी सुंदर जोड़े के समान हो जाए और ...और...तुम भी...तुम भी..."
आगे मैं कुछ न कह सका। झूठ बोलना जैसे मेरे लिए मुश्किल हो गया हो-मारक विष। पर दरशी के तो खुशी में आँसू निकल आए और अत्यंत प्रसन्न होकर वह मेरे लिए काफी बनाने के लिए रसोई में चली गई।
कई बार अखबार पढ़ते हुए अचानक ही मेरी नज़र एक घटिया-सी खबर पर जाकर रुक जाती और मैं कितनी ही देर तक उसे पढ़ता रहता-यह खबर एक ऐसी औरत के संबंध में होती जो नौकरी करते हुए अपने दफ्तर में ही किसी असिस्टेंट से प्रेम-बंधन में बँध कर किसी और शहर चली जाती है। जब यह खबर चटखारे लेकर मैं दरशी को सुनाता हूँ तो उसका रंग पीला पड़ जाता है, हाथ काँप-काँप जाते हैं और वह स्वयं जल्दी से अखबार की पंक्तियों पर नज़र दौड़ाती है-जैसे-जैसे उस के चेहरे का रंग उड़ता है, मैं जैसे मस्त होता जाता हैं। और लगता है जैसे दरशी बेचैनी की सूली पर लटक रही हो। उसको और भी तंग करने के लिए मैं बड़े कंटीले व्यंग्य से कहता हूँ
"माना कि विज्ञान ने बड़ी तरक्की की है। आज इंसान चाँद पर भी पहुंच चुका है। औरतों को बराबरी के हक भी मिल गए हैं, पर क्या लाभ? जब तक औरतों की जिंदगी में आचरण की पवित्रता और दृढ़ता नहीं आती-सारी इंसानी तरक्की बेकार है।
इस बात पर दरशी ठंडे मन से पलंग पर जा लेटती है और कई दिन तक उस के चेहरे पर पतझड़ पसरा रहता है। बगीचे में खिले हुए फूल बेकार लगते हैं। और वर्षा की बूंदों से हमारी जिंदगी में कोई रोमांस नहीं आता।
पिछले दिनों में तो मैं दरशी की जिंदगी को दब-घुट कर रखने के लिए एक बहुत ही घटिया किस्म की हरकत कर बैठा हूँ और मेरी आत्मा एक जख्मी परिंदे के समान सहमी हुई छटपटाती रहती है।
और एक दिन अचानक ही दरशी हाथ में अखबार पकड़े मेरे सामने आ खड़ी होती है। उस के चेहरे पर गंभीर शांति है जैसे इस सागर में कोई हलचल मचने वाली हो।...वह उस दिन वाली खबर का आखिरी कांड पढ़ने के लिए मुझे कहती है-पढ़ कर मुझे पता चलता है कि उस दिन असिस्टेंट के साथ भाग जाने वाली वह औरत असल में कोई घरेलू स्त्री नहीं थी। वह तो कोई परित्यक्ता औरत थी जो अपनी कलंकित जिन्दगी को सार्थक करना चाहती थी।...मैं फड़फड़ा कर साँस लेने के लिए तड़पता हूँ और दरशी से नजरें चुरा कर जल्दी से, फूलों की ओर देखता हुआ कहता हूँ-“दरशी! ये फूल मुझे बगीचे में लगे अच्छे लगते हैं ...इनकी खुशबू को यहीं रहने दो दरशी मेरी प्यारी। देखो न...।"
पर आगे में कुछ भी नहीं कह सकता, कुछ भी नहीं।
दरशी अभी तक मेरे सामने खड़ी है और मेरी दलीलों के सारे हथियार कुंद कर देना चाहती है। मैं मन-ही-मन सोचता हूँ कि वह औरत स्वाधीन होकर जरूर एक दिन मेरे मुकाबले में खड़ी हो जायेगी, अपने आपको मुझ से उत्तम समझेगी।
मैं फिर उससे नज़रें बचा रहा हूँ, पर वह हर बार मेरी नज़रों को पकड़ लेती है।
"कल मैं एम्प्लाइमेंट एक्सचेंज गई थी...।"
"तुम?" मैं काँप गया।
"हाँ," उसकी आवाज ऊँची होते-होते और ऊँची हो गई।
"डीलिंग क्लर्क ने बताया कि बहन जी आपको पिछले हफ्ते इंटरव्यू कार्ड भेजा था-सिर्फ एक ही कैंडीडेट था क्या कोई इंटरव्यू कार्ड आया था?"
“हाँ, आया था...पर...मैंने फाड़ दिया...असल में...मैं...मैं..."
और मैंने उसको सब कुछ सच-सच बता दिया कि मैं क्यों उसको नौकरी नहीं करने देना चाहता।
"दो सौ की नौकरी करके में इस घर का और भी सुंदर बना सकती हूँ।"
"पर...पर अब क्या हो सकता है । छोड़ो ख्याल नौकरी का । नौकरी जिंदगी में बहुत बड़ी चीज नहीं है।"
मैं बहुत प्रसन्न था । अपने षडयंत्र में मैं सफल हो गया था । पर मेरी बात अनसुनी करके वह उसी दृढता से कहती गई— "कार्ड फाड़ने के वक्त आप ने इण्टरव्यू की तारीख नहीं देखी शायद । मुझे इण्टरव्यू कार्ड और मिल गया था । आज मैं इण्टरव्यू करके अप्वाइण्टमैंट लेटर ले आई हूँ।"