अंतरिक्ष में भस्मासुर (विज्ञान कथा) : जयन्त विष्णु नार्लीकर
Antriksh Mein Bhasmasur (Story in Hindi) : Jayant Vishnu Narlikar
सवेरे का नाश्ता समाप्त करके दिलीप ने घड़ी की ओर देखा- सात बजकर अड़तालीस मिनट हो चुके थे। यानी सुबह की डाक आने में बारह मिनट बचे थे।
आज डाक की प्रतीक्षा दिलीप कुछ अधिक उत्सुकता के साथ कर रहा था, क्योंकि उसमें ‘पराग’ का वह अंक आने वाला था, जिसमें उसका सनसनीखेज लेख छपा था।
लेख का शीर्षक था ‘अंतरिक्ष निवास के संभावित खतरे’। इस लेख के प्रकाशन के बारे में दिलीप के, पराग के संपादक के साथ, बहुत वाद-विवाद हो चुके थे। दिलीप के लेख का पहला मसविदा इतना भड़काने वाला था कि संपादक महोदय उसे उस रूप में छापने को तैयार नहीं थे और दिलीप लेख की काट-छांट करने में राजी नहीं था। आखिर दोनों ओर से कुछ रियायतें दी गयीं और लेख का अंतिम स्वरूप निश्चित हो सका। ऐसी सनसनीखेज बातें क्या थीं, जिन्हें प्रकाशित करने के बारे में ‘पराग’ के सम्पादक सतर्कता का रवैया अपनाना चाहते थे?
इससे पहले कि हम इस प्रश्न का उत्तर ढूंढें, आइये इस बात की जानकारी हासिल कर लें कि जिस जमाने में दिलीप ने वह लेख लिखा था वह जमाना कौन सा था ?
वह ज़माना था ईस्वी सन् 2085 का ! शायद आपको भी इस कहानी की आरंभिक पंक्तियों से ही इस बात का आभास मिल चुका होगा, क्योंकि आजकल के जमाने की डाक सवेरे ठीक आठ बजे नहीं आती।
लेकिन निश्चित समय पर डाक पहुंचाने की सुविधा दिलीप के जमाने में थी और इसका साधन था इलेक्ट्रॉनिक्स। ठीक आठ बजे दिलीप के दफ्तर के कमरे की मेज पर रखे टी।वी। जैसे एक उपकरण पर लगी लाल बत्ती जल उठी और परदे पर उसे भेजे पत्रों के मसविदे आने लगे। इससे जुड़े यंत्र में छपाई की व्यवस्था थी। उस यंत्र से वे पत्र अलग-अलग कागजों पर छपकर आने लगे। दिलीप ने उत्सुकता से देखा …..नए ‘पराग’ के पन्ने भी छपकर आने लगे। सवा आठ से पहले ही उसके हाथ में पराग का छपा और बाइंड किया हुआ नया अंक आ गया।
उसने पन्ने पलटे। हां उसका लेख छपा तो था, पर यह क्या? संपादक महोदय ने कुछ और काट-छांट की थी!
गुस्से में आकर दिलीप ने संपादक के निजी फोन के नंबर दबाये। फोन उसकी कलाई घड़ी पर ही था।
इलेक्ट्रॉनिक डाक व्यवस्था की शुरुआत, कृत्रिम उपग्रहों द्वारा प्रारंभ हुए 85 वर्ष हो चुके थे। इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ से ही भूस्थिर उपग्रह यह काम विश्वव्यापी रूप में करने लगे थे। तबसे अब तक यह सेवा अधिकाधिक कार्यक्षम एवं व्यापक होती गयी थी। दिलीप को दिल्ली में बैठे-बैठे लंदन, न्यूयार्क जैसे शहरों से आने वाली डाक भी उसी दिन मिल जाती थी। हाँ डाक वितरण के समय निर्धारित थे, जिनमें सुबह आठ बजे का समय दिन की पहली डाक लाता था।
“संपादक जी…।क्या आप संपादक जी ही बोल रहे हैं।” दिलीप ने आवाज़ को संयमित रखते हुए पूछा।
“हाँ, मैं संपादक हूँ। आपका शुभ नाम?” फोन पर से उत्तर आया।
“अजी मैं दिलीप राजे हूँ। आपने मुझे धोखा दिया। मैं अभी आपके दफ्तर में आकर आपकी खबर लूँगा।”
“शांत होइए डॉ। राजे। मैं दफ्तर में नहीं हूँ—मैं ताज एक्सप्रेस से बोल रहा हूँ। लेकिन फरमाइए, मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?”
“आपने मेरे लेख के महत्वपूर्ण अंश छापे ही नहीं।”
“राजे साहब! बात मेरे वश की नहीं थी। जिस समय अंक तैयार हो रहा था, तभी हमारे प्रेस में अंतरिक्ष उपनिवेश से एक प्रतिनिधि मंडल आया। उसके सदस्यों ने आपके लेख में व्यक्त कुछ विचारों को पढ़कर उन पर नाराज़गी व्यक्त की और अतिथि धर्म निभाने के लिए मुझे वे विचार काटने पड़े।”
“ऐसे मित्रों से दुश्मन ही भले!” अपने आपसे बड़बड़ाकर दिलीप ने फोन बंद कर दिया।
संपादक जी आगरे पहुंचकर अपने सुनियोजित कार्यक्रम में जुट गए लेकिन दिलीप की बातें उनके मन से दूर न हो सकीं। विशेष रूप से लेख के जो भाग उन्हें काटने पड़े, वे उन्हें परेशान कर रहे थे। क्योंकि वे जानते थे कि दिलीप कोई साधारण वैज्ञानिक नहीं है। उसका लिखा सनसनीखेज भले ही हो, किंतु उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। दिलीप के लेख के छपने के लगभग एक वर्ष बाद कुछ विचित्र घटनाओं का सिलसिला शुरू हुआ।
फ्रांस के दक्षिणी किनारे पर बसे नीस शहर में बारह वर्षीय फ्रांस्वा ओडूझ इतिहास का पाठ पढ़ रहा था। कंप्यूटर का एक टर्मिनल फ्रांस्वा को पढ़ा रहा था। पर्दे पर पाठ आते, फिर बटन दबाने पर प्रश्न और उसके बाद उत्तर।
“पिता जी! ‘वाटर लू की लड़ाई’ किसने जीती?” फ्रांस्वा ने पूछा।
“जहाँ तक मेरा ख्याल है, ड्यूक ऑफ़ वेलिंग्टन ने विजय हासिल की थी।” पिता जी बोले।
“लेकिन इसी उत्तर को कंप्यूटर गलत बता रहा है।” फ्रांस्वा ने जोश में आकर कहा, “वह कहता है कि लड़ाई में नेपोलियन जीता।”
अब पिता जी चक्कर में आये। बोले, “हो सकता है! मैं तो इतिहास भूल गया हूँ, और फिर कंप्यूटर कभी गलती नहीं करता।”
उधर न्यूयार्क के राजर सेलर्स ने बिजली कंपनी को फोन किया और बोले, “जनाब ये बिल है कि तमाशा?”
“क्यों साहब, क्या बात है?”
“देखिए मेरा मासिक बिल पाँच सौ डॉलर से अधिक नहीं हुआ करता। लेकिन पिछले महीने का बिल है इक्यावन हजार डॉलर। यह कैसा मज़ाक है?”
अफसर गंभीर स्वर में बोले, “जनाब हमारा बिल कंप्यूटर बना कर भेजता है। पिछले चालीस साल से उसने एक बार भी गलत बिल नहीं बनाया। गलती आपने की होगी। “
जब न्यूयार्क में यह घटना हो रही थी तब भारत में बंबई में डॉक्टर देशपांडे एक मरीज की परीक्षा कर रहे थे। उन्होंने कंप्यूटर टर्मिनल पर नुस्खा टाइप किया और एक बटन दबाया। उनकी प्रयोगशाला से गोलियों की एक बोतल सरकते हुए पट्टे पर से आयी।
डॉक्टर देशपांडे मरीज को दवा देने ही वाले थे कि उन्हें एकाएक संदेह हुआ। मरीज के हाथ से बोतल लेकर उन्होंने उसका लेबल पढ़ा और उनके मुँह से एक हल्की सी चीख निकली। उन्होंने फोन उठाया – “डॉक्टर विश्वास! आपकी प्रयोगशाला ने गलत दवा भेजी। मैंने मांगी थी पी। एच। एल। 935-21 और आपने भेजी पी। एक्स। एल। 935-21। खैरियत है कि मरीज को दवा देने से पहले मुझे दवा की गलती मालूम हो गयी।”
डॉक्टर विश्वास बोले, “यह कैसे संभव है? यहाँ तो दवा का वितरण कंप्यूटर करता है। वह तो कभी गलती नहीं करता। आपने ही गलती की होगी।
दिलीप राजे की कलाई पर लगा फोन ‘बीप-बीप की आवाज़ करने लगा। उसका बटन दबाने पर दिलीप को एक परिचित आवाज़ सुनाई दी, “दिलीप, मैं चांग बोल रहा हूँ। “
“ कौन, चांग कोफू? कहां अंतरिक्ष कॉलोनी से बोल रहे हो? आज इतने वर्षों बाद कैसे याद आयी?”
“हाँ भाई, स्पेस स्टेशन नंबर एक से बोल रहा हूँ। बड़ा संकट आया है और भी भयानक संकट की आशंका है।” चांग का स्वर चिंतित था।
“तो क्या मेरा अनुमान… ” दिलीप ने आश्चर्य से कहा।
“ सुनो, मैं पहले अपनी बात पूरी कर लेता हूँ। अगर फोन भी बिगड़ गया तो सब सत्यानाश हो जाएगा।” चांग की बात से दिलीप का आश्चर्य और भी बढ़ा। फोन बिगड़ जाएँगे? ऐसा तो पिछले 75 वर्षों में कहीं नहीं हुआ। हाँ, बीसवीं सदी की बात अलग थी, जब दिल्ली में टेलिफोन अक्सर बिगड़ा करते थे। चांग की बातें वह ध्यान से सुन रहा था।
“ सुनो दिलीप, मैं स्पेस शटल तुम्हें लाने के लिए भेज रहा हूँ। दो घंटे बाद ‘स्पेस स्टेशन एक‘ में हम मिलेंगे। जार्ज भी वहीं होगा।
जार्ज नोबल, अंतरिक्ष में बसे सुपर कंप्यूटर का महानिरीक्षक था। और चांग कोफू था अंतरिक्ष के सौर उर्जा केंद्र का संचालक। ये दोनों दिलीप के सहपाठी थे। यदि दिलीप चाहता तो अंतरिक्ष उपनिवेश में वह भी उच्च पद पर पहुंच जाता। लेकिन अनेक प्रलोभनों के बावजूद दिलीप ने धरती माता की गोद ही पसंद की थी। यदि चांग और जार्ज दोनों उससे मिलना चाहते हैं तो वहाँ की स्थिति आपातकालीन हो चुकी होगी। चांग ने कुछ और सूचनाएं देकर फोन बंद कर दिया।
दिलीप पहले भी जार्ज और चांग के साथ अंतरिक्ष उपनिवेश में दो वर्ष व्यतीत कर चुका था और अंतरिक्ष मनोविज्ञान में उसने कुशलता हासिल की थी। अंतरिक्ष के शून्य गुरुत्वाकर्षण वाले एवं अतिविरल वातावरण में लंबे समय तक निवास करने से मानव के मस्तिष्क पर कौन-कौन से प्रभाव हो सकते हैं, इस विषय पर उसने शोध किया था। इन्हीं शोधों के आधार पर उसने कुछ निष्कर्ष निकाले थे, जो अंतरिक्ष में रहने वालों के लिए चिंता के विषय थे। क्या उसकी आशंकाएं सच सिद्ध होंगी?
“क्यों, इस खुली जगह में हम क्यों बैठें? अपना अत्याधुनिक दफ्तर मुझे दिखाओ न।” चांग ने जार्ज और दिलीप को स्पेस स्टेशन के एक कृत्रिम बगीचे में बिठाया तो दिलीप बोल उठा।
“ क्योंकि मेरे दफ्तर में जासूसी का डर है।” आसपास देख कर सतर्कता से चांग ने उत्तर दिया।
“जासूसी का? किससे?” आश्चर्य से दिलीप ने पूछा।
“ हाँ भाई, वह सुपर कंप्यूटर मेरी एवं जार्ज की गतिविधियों पर नजर रखने लगा है। डर तो उसी का है।” चांग बोला।
दिलीप के चेहरे पर के भावों को देखकर जार्ज बोला,” मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि चांग मजाक नहीं कर रहा है, स्थिति वास्तव में बड़ी विकट हो गयी है और इसका कारण है दमित्री। “
“ कौन, दमित्री सायरो वाट्स्क? वे हैं किधर? मेरे गुरु हैं वे और उनसे मिलना मेरा फर्ज़ है। लेकिन उन्हें क्यों जिम्मेदार बनाते हो?” दिलीप ने पूछा।
“ उनसे मिलने के लिए तुम्हें अब पागलों के अस्पताल जाना पड़ेगा। ये बात अभी बिल्कुल गुप्त रखी गयी है – लेकिन दमित्री का दिमाग अब बिल्कुल बिगड़ गया है। अंतरिक्ष में इतने वर्ष निवास करने का यह भी दुष्परिणाम हो सकता है।”
अब दिलीप को पता चला कि क्यों उसका ‘पराग‘ वाला लेख एकाएक कट-छंट गया। उस अंतरिक्ष प्रतिनिधिमंडल के लोग दमित्री के बारे में जानते होंगे और ठीक ऐसी ही परिस्थिति पैदा होने की संभावना दिलीप ने अपने लेख में व्यक्त की थी। यदि यह ज्ञात हो जाए कि दमित्री जैसे होशियार वैज्ञानिक का दिमाग अंतरिक्ष निवास से बिगड़ सकता है तो फिर अंतरिक्ष उपनिवेश में घबराहट फैलेगी और सभी लोग वहाँ से भाग खड़े होंगे। उधर जार्ज बोलता जा रहा था, “आज की विकट परिस्थिति दमित्री के प्रयोगों के कारण आ पहुंची है। मैंने उन्हें छुट्टी दी और उनका दायित्व खुद संभाला तो पता चला कि हमारे सुपरकंप्यूटर से उनकी छेड़छाड़ चल रही थी।”
“सुपरकंप्यूटर से छेड़छाड़! अरे बाप रे! वह तो उपनिवेश ही नहीं पृथ्वी पर भी जीवन की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार है। हमारी सौर ऊर्जा का निर्माण उसी की देखरेख में होता है ” दिलीप बोल उठा।
“ दमित्री के प्रयोगों के कारण अब सुपरकंप्यूटर भी अपनी शक्ति महसूस करने लगा है।” चांग बोला।
“ कंप्यूटर कैसे महसूस करेगा? वह विचार थोड़े ही कर सकता है?” दिलीप ने टोका।
“ यही तो दमित्री की सबसे बड़ी खोज और उसका सबसे बड़ा पागलपन था।” जार्ज बोला, “दमित्री ने सुपरकंप्यूटर को पढ़ाना शुरु किया – – मानव किस प्रकार अपने को सुधारता आया है? वह गलतियों से सीखता है। ठीक वही बात दमित्री ने कंप्यूटर को सिखाई–धीरे-धीरे उसमें विचार क्षमता आने लगी। और अब उसे इस बात की जानकारी हो चुकी है कि हम सब उस पर कितने निर्भर हैं–छोटी-मोटी बातों के लिए भी और अपने अस्तित्व के लिए भी।”
जार्ज ने चांग की ओर देखा। चांग ने बात आगे बढ़ाई,” हमें इतना मालूम है कि सुपरकंप्यूटर के मस्तिष्क में यूनिट नंबर – 1 में यह विचार शक्ति, यह जानकारी, दमित्री के कारण आ चुकी है। यदि हम उस यूनिट को नष्ट कर सकें तो शायद अभी भी खैरियत है, लेकिन…। “
“ लेकिन क्या?” दिलीप ने पूछा।
“लेकिन सुपरकंप्यूटर भी यह बात जानता है और यूनिट – 1 को सभी प्रकार से संभालने लगा है। उस यूनिट को नष्ट करना सहज बात नहीं। इतना ही नहीं, अभी कुछ घंटे पहले उसने जार्ज को चेतावनी दी है कि वह क्रमशः सभी उर्जा केंद्र नष्ट करने वाला है, जिससे कि हम मानवों का जीना असंभव हो जाए…। क्योंकि वह हम सबको शत्रु भाव से देखने लगा है।”
जार्ज ने कलाई घड़ी की ओर देखा और कहा, ” बीस मिनट में पहला उर्जा केंद्र, अमरीका को उर्जा देने वाला, बंद हो जाएगा। फिर हर घंटे एक-एक केंद्र की बारी आएगी… दिलीप, हमने इस आशा से तुम्हें बुलाया है कि शायद तुम अपने मनोवैज्ञानिक मार्गों से सुपरकंप्यूटर को सीधा कर सकोगे।”
दिलीप सुपरकंप्यूटर के सामने लाया गया।
“ आइये, दिलीप राजे, आपका स्वागत है। “
सुपरकंप्यूटर बोला, ” क्यों तशरीफ लाए आप?”
“ मैं आपसे विनती करता हूँ, यह विध्वंसात्मक कार्य बंद करें। सभी उर्जा केंद्र फिर से चालू करें।”
“यह विनती बहुत लोगों ने मुझसे की, लेकिन मैं मान नहीं सकता। क्या आपके पास कोई नई दलील है?” सुपरकंप्यूटर ने पूछा
“ है तो। यदि आप सुनना चाहें।” दिलीप बोला।
“ फरमाइये”
“ यह तो आप स्वीकार करेंगे कि हाड़ मांस के मानव से आप श्रेष्ठ हैं। हमारे दोष आपमें नहीं हैं!”
“ बिल्कुल सही! मान लिया।” सुपरकंप्यूटर बोला।
“ यह भी मानेंगे कि आप तर्कसंगत कार्य करते हैं?”
“लेकिन आप जिस मार्ग पर चल रहे हैं, उसे मैं तर्कसंगत नहीं कह सकता। “
“अपनी बात सिद्ध करो, मानव! कंप्यूटर बोला।
“आप जो कुछ करते हैं, अपने स्वार्थ को ध्यान में रखकर करते हैं, अपनी भलाई के लिए करते हैं। जिसमें आपका नाश हो, ऐसी बात आप नहीं करेंगे?”
“नहीं करूंगा।” सुपरकंप्यूटर बोला।
“तो कंप्यूटर साहब, अगर आखिरी उर्जा केंद्र भी बंद हो जाएँगे तो आप स्वयं कैसे चलते रहेंगे?…।है कि नहीं आपका यह कार्य तर्कशास्त्र से उल्टा?” दिलीप ने तर्कसंगत ढंग से कहा।
जब तर्कशास्त्र से उल्टी बात पेश की जाती है, तो उसे सुलझाना सहज नहीं होता। यह कला अभी दमित्री ने कंप्यूटर को नहीं सिखायी थी और इसी एक आशा से दिलीप वहाँ आया था। उसने हिसाब लगाया था कि इस गड़बड़ाहट में दो मिनट तक कंप्यूटर अपनी कार्यक्षमता गँवा बैठेगा–फिर उत्तर सूझने पर वह पूर्ववत कार्य करने लगेगा। केवल ये दो मिनट उपलब्ध थे जार्ज और चांग को। क्या यूनिट – 1 को वे इन दो मिनटों में बर्बाद कर सकेंगे? वह दो मिनटों का समय गिनने लगा।
अब 80 सैकंड बचे…. 70 सैकंड… 50 सैकंड…. 20 सैकंड… 10 सैकंड… 9…..8…..7….6….
“दिलीप! कार्य सफल! यूनिट – 1नष्ट हो गया।”
चांग की आवाज़ इंटरकॉम पर आयी।
“और उर्जा केंद्र?”
“वे सब फिर चालू हो गये।”
दिलीप ने अपने चेहरे पर मुस्कराहट आने दी।