अंतिम संदेश (उपन्यास) : ख़लील जिब्रान

Antim Sandesh (Novel in Hindi) : Khalil Gibran

(1)

तिचरीन के माह में, जोकि यादगारों का महीना होता है, अनेकों में एक और सबका प्रिय अलमुस्तफा, जोकि अपने दिन का स्वयं ही मध्याह्र था, अपनी जन्मभूमि के द्वीप को लौटा।

और जब उसका जहाज बन्दरगाह के निकट पहुंचा, तो वह जहाज के अगले भाग में आकुलता से खडा़ हो गया। उसके ह्रदय में स्वदेश लौट आने की खुशी हिलोरें ले रही थी।

और तब वह बोला, और ऐसा लगा मानो सागर उसकी आवाज में समा गया हो। उसने कहा, देखते हो, यह है हमारी जन्मभूमि का द्वीप। यहीं तो पृथ्वी ने हमें उभारा था- एक गीत और एक पहेली बनाकर- गीत आकाश की ऊंचाई में और पहेली पृथ्वी की गहराई में। और वह, जोकि आकाश तथा पृथ्वी के बीच में है, गीत को फैलायेगा और पहेली को बुझायेगा, किन्तु हमारी उत्कंठा को समाप्त न कर पायेगा।

सागर फिर हमें एक बार तट को सौंप रहा है। हम उसकी अनेक लहरों में एक लहर ही तो हैं। अपनी वाणी को स्वर देने के लिए वह हमें बाहर भेजता है, किन्तु हम ऐसा कैसे कर सकते हैं, जबतक कि हम अपने ह्रदय की एकरूपता पत्थर तथा रेत के साथ न कर लें।''

क्योंकि नाविकों और समुद्र का यही कानून है- यदि तुम स्वतंत्रता चाहते हो तो तुम्हें कुहरे में परिवर्तित होना पडे़गा। निराकार हमेशा आकार ग्रहण करता है, जैसे अगणित ग्रह भी तो एक दिन सूर्य और चंद्रमा बन जायंगे, और हम, जिन्होंने बहुत-कुछ पा लिया है, और जो अब अपने द्वीप को लौट आये हैं, फिर एक बार कुहरा बन जाना चाहिए और आरम्भ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। जोकि आकाश की ऊंचाइयों तक जी सके और ऊंचा उठ सके, सिवा उसके जोकि आकांक्षा और स्वतंत्रता में बिखरकर समा जाय?

“हमें सदैव तट पर पहुंचने की चाह रहेगी, जिससे हम गा सकें और कोई हमें सुन सके, किन्तु उस लहर का क्या जोकि वहाँ टूट जाती है, जहां सुनने के लिए कोई कान न हो? यह हमारे अन्दर अनसुना ही तो है, जोकि हमारे सन्ताप के गहरे घावों को भरता है, यहां तक कि यह भी अनसुना ही है, जो कि हमारी आत्मा को काट-छांटकर आकार देता है और हमारे भाग्य को ढालता है।’’

तब उसके नाविकों में से एक आगे आया और बोला, "प्रभो, हमें इस बन्दरगाह तक पहुंचाने के लिए आप हमारी इच्छाओं के नायक बनें। और देखिए, अब हम वहां पहुंच गए हैं। फिर भी आप शोक की बातें करते हैं और ऐसे ह्रदयों की, जोकि मानो टूटने वाले हैं।"

और उसने उस नाविक को उत्तर दिया, "क्या मैंने स्वतन्त्रता की बात नहीं कही, और कुहरे के विषय में नहीं बताया, जोकि हमारी सबसे बडी स्वतन्त्रता है? फिर भी एक पीडा़ में ही मैं अपने जन्म के द्वीप की यह यात्रा कर रहा हूँ जैसे एक हत्या से बना प्रेत उन लोगों के सम्मुख सिर झुकाने आता है, जिन्होंने उसकी हत्या की थी।"

और तब एक और नाविक उठा और बोला, "ओह देखिए समुद्र की दीवार पर खडे़ हुए लोगों के झुन्ड। अपनी खामोशी में ही उन्हें आपके आने का दिन और घड़ी तक का पता लग गया है। अपनी प्रिय आकांक्षा को लिये वे अपने खेतों और अंगूर के बगीचों में से आकर आपके स्वागत के लिए इकट्ठे हो गए हैं।''

और अब अलमुस्तफा ने दूर लोगों के झुण्डों पर दृष्टि डाली। उसका ह्रदय उनकी आकांक्षाओं से भलीभांति परिचित था और वह शांत हो गया।

और तब लोगों की तेज पुकार सुनाई पड़ी। वह आवाज थी पुरानी यादगारों की और प्रार्थनाओं की।

उसने अपने नाविकों की ओर देखा और कहा, ''मैं इनके लिए क्या लाया हूं? एक दूसरे देश में मैं एक शिकारी था। लक्ष्य और शक्ति के साथ मैंने वे सब स्वर्ण-बाण समाप्त कर दिये जोकि इन्होंने मुझे दिये थे, किन्तु मैं तो कोई भी शिकार अपने साथ नहीं लाया, क्योंकि मैंने बाणों का पीछा नहीं किया। सम्भवतः वे जख्मी गरुड़ के पंखों के छोरों में उलझे हुए आकाश में दौड़ रहे हों और पृथ्वी पर कभी न गिरें, और यह सम्भव है कि वे ऐसे मनुष्यों के हाथ लग गए हों जिन्हें अपनी रोटी और मदिरा के लिए उनकी अत्यन्त आवश्यकता थी।

"मैं नही जानता कि उन्होंने अपनी उडा़न कहां पूरी की है, किन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूं कि उन्होंने आकाश में अपनी दौ़ड़ अंकित कर दी है।

"इसीलिए प्रेम का हाथ अभी तक मेरे ऊपर है, और तुम मेरे नाविको, अभी भी मेरी दृष्टि की नाव खेते हो। मैं मूक नहीं रहूंगा और जब मेरे कण्ठ पर ऋतुओं का हाथ होगा। तो मैं चीखूँगा, और जब मेरे ओठ आग की लौ से जलते होंगे, मै गाऊंगा।

"उन नाविकों के ह्रदय में खलबली मच गई, क्योंकि उसने बातें ही ऐसी कहीं। उनमें से एक बोला, "प्रभो हमें सारी शिक्षा दें, और इसलिए, क्योंकि आपका रक्त हमारी धमनियों में बह रहा है, और हमारी सांस आपकी सुगन्ध से महक रही है। हम सब उसे समझेंगे।”

तब उसने उसे उत्तर दिया। कहा, "क्या तुम मुझे एक शिक्षक बनाने के लिए मेरे जन्म द्वीप पर लाये हो? क्या अभी तक बुद्धि ने मुझे बन्दी नहीं किया? क्या मैं बहुत छोटा और बहुत ही अल्हड़ हूं कि बोलूँ तो केवल अपने ही विषय में जोकि गहरे का गहरेपन को पुकारने के समान है।"

जो बुद्धि ढूँढ़ता है, वह उसे मक्खन के प्याले में ढूंढ़े अथवा लाल मिट्टी के टुकडे़ में। मैं तो अभी भी गायक हूं। मैं तो अभी भी पृथ्वी के गीतों को गाऊँगा और मैं तुम्हारे भूले हुए सपनों को गाऊँगा जोकि एक निद्रा के बीच के दिन को चलकर पार करते हैं, किन्तु मैं समुद्र की ओर निहारता रहूंगा।"

और अब जहाज ने बन्दरगाह में प्रवेश किया और समुद्र की दीवार के पास पहुंच गया। इस प्रकार अलमुस्तफा अपने जन्म-द्वीप में पहुंचा और एक बार फिर अपने लोगों के बीच खडा़ हुआ। एक भारी आवाज उन लोगों के ह्रदयों में से स्फुटित हुई जिससे कि घर लौटने का एकाकीपन उसके अन्दर हिल उठा।

वे सब खामोश थे, उसकी आवाज सुनने के लिए, किन्तु उसने कुछ भी न कहा, क्योंकि यादों की पीडा़ ने उसे घेर रखा था, और अपने ह्रदय में उसमे कहा, "क्या मैंने कहा है कि मैं गाऊंगा? नहीं मैं तो अपने ओठों को केवल खोल ही सकता हूं कि जीवन की आवाज आगे आये और प्रसन्नता और सहारे के लिए वायु में फैल जाय।"

तब करीमा, जोकि बचपन में उसके साथ उसकी मां के बगीचे में खेली थी, आगे आई और बोली, "बारह साल तक तुम अपना चेहरा हमसे छिपाए रहे हो और बारह साल हम तुम्हारी आवाज के भूखे तथा प्यासे रहे हैं।"

और बड़ी ही कोमल दृष्टि से उसने उसे देखा, क्योंकि वह ही थी, जिसने उसकी अनुपस्थिति में उसकी मां के पलकों को बन्द किया था जबकि मृत्यु के श्वेत पंखों ने उसे समेट लिया था।

उत्तर में उसने कहा, "बारह साल। तुम कहती हो बारह साल, करीमा! मैं अपनी आकांक्षाओं के सितारों को दण्ड से नहीं मापता और न मैं उसकी गहराई आवाज से चीन्हता हूं, क्योंकि प्रेम जब घर के प्यार में उन्मत्त हो जाता है तो समय की माप और समय की आवाज को भी शून्य बना देता है।’’

"कुछ ऐसे क्षण होते हैं, जोकि जुदाई की सदियों को अपने में समा लेते हैं, और जुदाई क्या है, दिमाग का खालीपन। शायद हम तो जुदा ही नहीं हुए थे।"

और अलमुस्तफा ने लोगों पर एक निगाह डाली। उसने उन सभी को एक बार देखा - जवान और बूढे़, बलवान और हंसोडे़, वे जो वायु और सूर्य के सम्पर्क से गुलाबी हो गए थे, और वे जिनके चेहरे पीले थे, और उन सभी के चेहरो पर इच्छाओं और प्रश्नों की मांग अंकित थी।

उनमें से एक बोला, "प्रभो जीवन ने हमारी आशाओं और आकांक्षाओं के साथ कठोर व्यवहार किया है। और हमारे ह्रदय दुखी हैं, हम कुछ नहीं समझ पाते। मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप हमें सांत्वना दें और हमारे दुःखों का अर्थ समझाएं।"

उसका ह्रदय दयालुता से द्रवित हो उठा और बोला, "जीवन समस्त जीवित वस्तुओं से बडा़, जैसे कि सुन्दरता के पंख लगने से पहले सुन्दरता ने जन्म लिया, और जैसे कि सत्य उच्चारण होने से पहले भी सत्य ही था।”

"जीवन हमारी खामोशियों में गाता है और हमारी निद्रा में सपने देखता है, तब भी जबकि हम परजित और विनीत होते हैं, जीवन राजसिंहासन पर बैंठता है और बलवान् बनता है। और जबकि हम सोते हैं, जीवन आने वाले दिन भर मुस्कराता है, और तब भी स्वतन्त्र रहता है, जबकि हम गुलामी की जंजीरों को घसीटते चलते हैं।

“अक्सर हम जीवन को कठोर नामों से पुकारते हैं, किन्तु तभी जबकि हम स्वयं कटु और अन्धकारमय होते हैं। हम उसे शून्य और निरर्थक समझते हैं, किन्तु तभी, जबकि हमारी आत्मा निर्जन स्थानों में भटकती होती है, और हमारा ह्रदय स्वयं की अत्यधिक चेतना की मदिरा पिये हुए होता है।”

"जीवन अगाध और ऊंचा और दूरस्थ है, और हालांकि तुम्हारी फैली हुई निगाह भी उसके पैरों तक नहीं पहुंच पाती, फिर भी वह तुम्हारे पास है, और तुम्हारी सांस की सांस ही उसके दिल तक पहुंचती है, तुम्हारी परछाई की परछाई ही उनके चेहरे को पार करती है, लेकिन तुम्हारी हल्की-से-हल्की पुकार की प्रतिध्वनि उसके वक्षःस्थल पर एक झरना और एक शरद ऋतु बन जाती है।”

"और जिन्दगी आवरण से ढकी हुई और छिपी हुई है, जैसे कि तुम्हारी अनन्त आत्मा तुमसे छिपी हुई और आवरण के पीछे है। फिर भी जब जिन्दगी बोलती है तो सारी वायु शब्द बन जाती है, और जब वह फिर बोलती है, तुम्हारे ओठों की मुस्कान और आँखों के आंसू भी शब्दों में परिवर्तित हो जाते हैं जब वह गाती है तो बहरे सुनते हैं और मन्त्र-मुग्ध हो जाते हैं, और जब वह चलती हुई आती है, तो अन्धे उसे देखते हैं और विस्मित हो उठते हैं, और विस्मय और आश्चर्य से उसका पीछा करते हैं।”

वह चुप हो गया एक अनन्त खामोशी ने सभी लोगों को घेर लिया। उस खामोशी में था एक अज्ञात गान। उन लोगों के एकाकीपन और निरन्तर पीड़ा को सान्त्वना प्राप्त हो गई थी।

(2)

और उसने उसी क्षण उन्हें वहीं छोड़ दिया और उस बगीचे के रास्ते पर चल पडा़, जोकि उसके माता-पिता का था, जहां वे अनन्त निद्रा में लीन थे-वे और उसके पूर्वज।

और वहां ऐसे भी बहुत से लोग थे, जो उनके पीछे-पीछे जाना चाहते थे यह सोचकर कि वह एक अरसे के बाद घर लौटा है और अकेला है, उसका एक भी सन्बन्धी जीवित नहीं था, जोकि उनके नियमानुसार प्रीतिभोजों से उसका स्वागत करता।

किन्तु उसके जहाज के प्रधान नाविक ने उन्हें समझाया और कहा, "उन्हें अपने रास्ते पर अकेले जाने दो, क्योंकि उनकी रोटी तो एकाकीपन की रोटी है, और उनके प्याले में यादों की मदिरा है, जिसे वह अकेले ही पियेंगे।"

और उनके नाविकों ने अपने बढ़ते हुए कदम रोक लिये, क्योंकि वे जानते थे कि उनके प्रधान ने जो कुछ उनसे कहा है, सच है। उन सबने भी जोकि समुद्र की दीवार पर झकट्ठे हुए थे, अपनी इच्छा के पैरों को लौटा लिया। केवल करीमा ही उसके एकाकीपन और उसकी यादों को सोचती हुई कुछ दूर हटकर उसके पीछे चल दी। वह बोली कुछ नहीं, केवल कुछ दूर चलकर मुडी़ और अपने घर को चली गई। वह अपने बगीचे में बादाम के पेड़ के नीचे जाकर फ्रूट-फूटकर रो पडी़, किन्तु वह नहीं जानती थी कि किसलिए रोई।

(3)

और अलमुस्तफा आगे बढा और उसने अपने माता-पिता का बगीचा खोज लिया। वह बगीचे के अन्दर चला गया और अन्दर से दरवाजा बन्द कर लिया, जिससे कि उसके पीछे कोई आदमी भीतर न आ सके।

और चालीस दिन और चालीस रात वह उस मकान और बगीजे में अकेला रहा। कोई भी वहाँ नहीं आया- दरवाजे के करीब भी नहीं आया, क्योंकि वह बन्द था और सब लोग जानते थे कि उसे अकेला ही रहना था।

चालीस दिन और चालीस रात बीत जाने के बाद अलमुस्तफा ने दरवाजा खोल दिया, जिससे कि लोग अन्दर आ सकें।

नौ आदमी उसके साथ रहने के लिए अन्दर आये-तीन नाविक उसके स्वयं के जहाज से, तीन वे, जिन्होंने मन्दिर में सेवाएं की थीं, और तीन वे, जो कि उनके बचपन के खेल के साथी थे, और ये उसके शिष्य थे।

एक दिन सवेरे उसके शिष्य उसके चारों ओर बैठ गए। उसकी आंखों में अनन्त दूरी और स्मृतियां बसी हुई थीं। और वह शिष्य, जिसका नाम हाफिज था उससे बोला, "प्रभो, इर्फालीज नगर के विषय में कुछ बतायें और उन देशों के विषय में भी जहां कि आपने ये बारह साल बिताये हैं।”

"अलमुस्तफा खामोश ही बना रहा। उसने पहाड़ियों की ओर देखा और अपनी आंखे अनन्त शून्य में गडा़ दी। उसकी खामोशी में एक उद्वेलन था। तब उसने कहा, "मेरे मित्रो और मेरे हमराहियो। वह देश भी दयनीय है, जोकि अन्ध-विश्वासों से भरा है किन्तु धर्म से शून्य है।”

"वह देश भी दयनीय है, जोकि उस कपड़े को पहनता है, जिसे वह स्वयं नहीं बुनता, और वह उस मदिरा को पीता है, जो उसके स्वयं के मदिरा के कोल्हुओं से नही बहती।"

“और वह देश भी दयनीय है, जोकि निर्दयी को शूरवीर मानता है और दमकते हुए विजयी को उदार समझता है।”

"और वह देश भी दयनीय है, जोकि सपने में एक इच्छा का तिरस्कार करता है और जागृत अवस्था में उसीके वश में लीन रहता है।”

"और वह देश भी दयनीय है, जोकि मृत्यु के जुलूस में चलते समय को छोड़ कभी भी अपनी आवाज नहीं उठाता, अपने खंडहरों के अलावा कहीं अपनी डींग नहीं हांकता, और कभी बगावत नहीं करता, सिवा तब के जबकि गरदन तलवार और पत्थर के बीच रख दी गई हो।”

"और वह देश भी दयनीय है, जिसका राजनीतिज्ञ एक लोमडी़ है, जिसका दार्शनिक एक बाजीगर है, और जिसकी कला पैबन्द लगाना और बहुरुपिया बनाना है।”

"और वह देश भी दयनीय है, जो अपने नये राजा का धूम-धाम से स्वागत करता है और छीःछीः करके उसे विदा करता है, केवल इसलिए कि दूसरे राजा का फिर धूम-धाम से स्वागत करे।”

"और वह देश भी दयनीय है, जिसके महात्मा वर्षों के साथ गूंगे हो गए हैं और जिसके शूरवीर अभी पालना झूल रहे हैं।”

"और दयनीय है वह देश, जोकि अनेक टुकड़ों में बंटा हुआ है, और प्रत्येक टुकडा़ अपने को एक देश समझता है।"

(4)

एक बोला, "हमें वे बातें बतायें, जोकि अभी भी आपके हृदय में भटक रही हैं।"

और उसने उस शिष्य की ओर देखा। उसकी आवाज में तारों के गीत जैसा स्वर व्याप्त था। उसने कहा, "अपने जागृत स्वप्न में जबकि तुम खामोश होते हो और अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनते हो, तुम्हारे विचार हिम के टुकडों की भांति गिरते और फड़फडा़ते हैं और तुम्हारे समस्त अंगों की आवाजों को श्वेत खामोशी से ढंक देते हैं।”

"और जागृत सपने क्या हैं, सिवा मेघ के, जोकि तुम्हारे ह्रदय के आकाश-वृक्ष पर अंकुरित होता है और खिलता है। तुम्हारे विचार क्या हैं, सिवा पक्षियों के जिन्हें कि तुम्हारे हृदय की आंधी पहाड़ियों और उसके मैदानों पर बिखेर देती है। और जैसे कि तुम शान्ति की प्रतीक्षा तबतक करते हो जबतक कि तुम्हारे अन्तर का निराकार आकार न ग्रहण कर ले, इसी प्रकार मेघ इकट्ठा होता है और अपनी शक्ति को संचय करता है, जबतक कि ईश्वरीय उंगलियां उसके नन्हें सूर्य, चन्द्रमा और सितारे बनने की पुरातन इच्छा को पूर्ण न कर दें।”

"तब सारकिस, जोकि अर्ध-सन्देही था, बोला, "किन्तु बसन्त आयेगा और हमारे सपनों का सम्पूर्ण हिम पिघल जायगा। हमारे विचार भी पिघल जायेंगे और कुछ भी तो नहीं बचेगा।”

और अलमुस्तफा ने यह कहकर उत्तर दिया, "जब बसन्त अपनी प्रेयसी को ढूंढने सोतों, वाटिकाओं तथा अंगूर के बगीचों में आयेगा, तब वास्तव में हिम पिघल जायेगा और झरना बनकर घाटियों में नदी को ढूंढता दौड़ेगा और सदाबहार तथा लारेल के वृक्षों के लिए साकी का नाम करेगा।”

"इसी प्रकार तुम्हारे हृदय का हिम भी पिघल जायगा, जबकि तुम्हारा बसन्त आयेगा और इस प्रकार तुम्हारे रहस्य झरने बनकर बह उठेंगे घाटियों में, जीवन की नदी में जा मिलने के लिए और उन्हें अनन्त सागर तक ले जाने के लिए।”

"जब बसन्त आयेगा तो सभी वस्तुएं पिघल जायंगी और गीत बन जायंगी, यहां तक कि सितारे भी और बर्फ की बडी़-बडी़ चट्टानें भी जोकि विस्तीर्ण मैदानों में धीरे-धीरे उतरती हैं, सभी गाते हुए झरनों में समा जायंगी। जब ईश्वर के चेहरे का सूर्य फैले हुए क्षितिज के ऊपर निकलेगा तो कौनसी एक रूप जमी हुई वस्तुएं तरल संगीत में परवर्तित न हो जायंगी और तुममें से कौन सदाबहार तथा लारेल के लिए साकी न बनेगा?”

"यह तो कल की ही बात है कि तुम बहते सागर के साथ भ्रमण कर रहे थे और तुम्हारा कोई किनारा नहीं था, तुम आत्म विहीन थे। तब वायु ने, जोकि तुम्हारे जीवन का श्वास है, तुम्हें बुना, अपने चेहरे पर प्रकाश का एक आवरण बनाया, उसके हाथों ने तुम्हें इकट्ठा किया तुम्हें आकार दिया और एक ऊंचा मस्तक रखकर तुमने ऊंचाई प्राप्त की। किन्तु सागर तुम्हारे पीछे-पीछे चला और उसका गीत अभी तुम्हारे साथ है। और यद्यपि तुम अपने जन्मदाता को भूल गए हो, लेकिन वह तो अपने ममत्व को स्थापित रखेगा और हमेशा तुम्हें अपने पास बुलायेगा।’’

"पहाड़ों और रेगिस्तानों में भटकते हुए भी तुम उसके शीतल हृदय की गहराई को स्मरण करोगे और यद्यपि प्रायः तुम्हें यह ज्ञान नहीं होगा कि किसके लिए तुम उन्मत्त हो, तथापि वास्तव में वह उसकी लयबद्ध शान्ति ही होगी।’’

"इसके अतिरिक्त और हो ही क्या सकता है? बगीचों में और कुञ्जों में, तब जबकि पहाड़ों पर पत्तियों में वर्षा नाचती है, जबकि बर्फ गिरता है-एक भाग्यशीलता और एक आगमन के स्वरूप घाटियों में, जबकि तुम अपने पशुओं के झुण्डों को नदी की ओर ले जाते हो, तुम्हारे खेतों में जहां कि सोने-चांदी जैसे झरनों की भांति प्रकृति की हरी पोशाक मे खो जाते हैं, तुम्हारे बगीचों में जहां कि सवेरे की ओस आकाश को प्रति-बिम्बित करती है, तुम्हारे चरागाहों में जबकि संध्या की धूल तुम्हारे रास्ते पर हल्का परदा बिछा देती है, इन सभी में सागर तुम्हारे साथ है, तुम्हारी बंश-परम्परा का एक साक्षी और तुम्हारे प्रेम का एक अधिकारी।”

"यह तुम्हारे में एक हिम का टुकडा़ ही तो है, जो नीचे सागर की ओर दौड़ रहा है।

(5)

और एक दिन सवेरे, जबकि वे बगीचे में घूम रहे थे, द्वार पर एक स्त्री दिखाई पडी़। वह करीमा थी, जिसे अलमुस्तफा ने बचपन में अपनी बहन की भांति प्यार किया था। वह बाहर खड़ी थी, खामोश और अपने हाथों से दरवाजा भी नहीं खट-खटा रही थी, किन्तु केवल इच्छुक और दुःखमय दृष्टि से बगीचे को ताक रही थी।

और अलमुस्तफा ने उसके पलकों पर उमड़ती आकांक्षा देख ली। तेज कदमों से वह दीवार के पास आया और उसके लिए द्वार खोल दिया। वह अन्दर आ गई और इस प्रकार उसका स्वागत हुआ।

तब वह बोली, तुमने क्यों हम सब लोगों का बहिष्कार किया है, जिससे कि हम तुम्हारे चेहरे के प्रकाश में नहीं रह सकते? देखो, इन अनेक वर्षों तक हमने तुम्हें प्यार किया है और तुम्हारे सकुशल लौटने की हमने आकांक्षित प्रतीक्षा की है, सब लोग तुम्हें पुकार रहे हैं, और तुम्हारे साथ बातें करना चाहते हैं, और उनकी दूत बनकर तुम्हारे पास मैं प्रार्थना लेकर आई हूं कि तुम लोगों को अपना दर्शन दो, अपने ज्ञान की बातें उन्हें बताओ, टूटे हुए हृदयों को सान्त्वना दो और हमारी बुद्धिहीनता के लिए हमें शिक्षा दो।”

करीमा की ओर देखते हुए उसने कहा, "मुझे विद्वान् न कहो, जबकि तुम समस्त मनुष्यों को ज्ञानी नहीं समझते। मैं तो एक युवा फल ही तो हूं जोकि अभी भी टहनियों से लटक रहा है और अभी कल ही की तो बात है कि मैं केवल एक पुष्प ही था।

"और अपने में किसी को भी बुद्धिहीन न कहो, क्योंकि सत्य तो यह है कि हम न तो विद्वान् ही हैं और न अज्ञानी। हम तो जीवन के वृक्ष पर हरी पत्तियां हैं और जीवन स्वयं ज्ञान के परे है तथा अज्ञानना से भी निश्चय ही दूर है।”

"और क्या वास्तव में ही मैं तुमसे अलग हूं? क्या तुम नहीं जानते कि दूरी कुछ भी नहीं है, सिवा उसके, जिस पर कल्पना-शक्ति द्वारा आत्मा पुल नहीं बांध पाती और जब आत्मा उस दूरी पर पुल बांध लेती है, तो वह दूर आत्मा में एक गीत बनकर समा जाती है।

"वह दूरी जोकि तुम्हारे और तुम्हारे पडो़सी में कलह के कारण उत्पन्न हुई है, वास्तव में उस दूरी से कहीं अधिक है, जो कि तुम्हारे और सात देशों और सात समुन्दर पार बसने वाले तुम्हारे प्रेमी के बीच में है।”

"स्मृति के लिए दूरी कुछ नहीं है और विस्मृति में ही एक ऐसी खाई है, जिसे न तो तुम्हारी वाणी और न तुम्हारे नेत्र लांघ सकते हैं।”

"समुद्र के किनारों और ऊंची-से-ऊंची पहाड़ियों की चोटियों के बीच एक ऐसा गुप्त पथ है, जिसे तुम्हें अवश्य तय करना पड़ेगा, इससे पहले कि तुम पृथ्वी के पुत्रों के साथ एक हो सको।”

"और तुम्हारे ज्ञान और तुम्हारी समझ के बीच एक ऐसा पथ है, जिसे तुम्हें अवश्य ही खोज निकालना होगा, इससे पहले कि तुम मनुष्य के साथ एक हो सको और इस प्रकार स्वयं में समा सको।”

"तुम्हारे दायें हाथ, जोकि देता है, और तुम्हारे बायें हाथ, जो कि लेता है, दोनों के बीच एक अनन्त दूरी है। केवल दोनों का प्रयोग करके, देकर और लेकर, ही तुम इन दोनों के बीच की दूरी समाप्त कर सकते हो, क्योंकि इसी ज्ञान के द्वारा कि अन्त में न तुम्हें कुछ देना है और न तुम्हें कुछ लेना है, तुम दूरी को तय कर सकोगे।”

"वास्तव में सबसे विस्तीर्ण दूरी तो वह है, जोकि तुम्हारे निद्रा-दृश्य और जागरण के बीच है, और उसके बीच है, जोकि केवल एक कर्म है और वह, जो एक आकांक्षा है।”

"और एक और पथ है, जिसे पार करने की तुम्हें अत्यन्त आवश्यकता है, इससे पहले कि तुम जीवन में समा सको। किन्तु उसके विषय में अभी मैं कुछ नहीं कहूंगा, यह देखते हुए कि भ्रमण करते-करते तुम अभी ही ऊब चुके हो।"

(6)

और तब वह करीमा के साथ चल पडा़, वह और उसके नौ शिष्य, बाजार में पहुंच गए। उसने लोगों से बातें की, अपने मित्रों और पडो़सियों से भी और उनके हृदयों और नेत्रों में खुशी चमक रही थी।

और उसने कहा, "तुम अपनी निद्रा में बढ़ते हो और अपना सच्चा जीवन सपनों में बिताते हो, क्योंकि तुम्हारा सारा दिन धन्यवाद देने में बीत जाता हैं, उसके लिए, जोकि तुमने रात्रि की खामोशी में पाया है।”

"प्रायः तुम रात्रि को विश्राम करने का समय बताते हो, किन्तु सत्य यह है कि रात्रि तो पाने और खोजने का समय है।”

"दिन तुम्हें ज्ञान की शक्ति प्रदान करता है और तुम्हारी उंगलियों को लेने की कला में दक्ष बनाता है, किन्तु यह रात्रि ही है, जोकि तुम्हें ज्ञान की शक्ति जीवन के खजाने के मकान तक ले जाती है।”

"सूर्य तो उन सब वस्तुओं को शिक्षा देता है, जोकि प्रकाश के लिए अपनी आवश्यकताएं बढ़ाती रहती हैं, किन्तु यह रात्रि ही है, जो कि उन्हें सितारों तक ऊंचा उठाती है।”

"वास्तव में यह रात्रि की खामोशी है, जोकि जंगल में पेडों पर तथा बगीचों में फूलों पर विवाह का आवरण बुनती है और महान् प्रोतिभोज सजाती है और सुहागरात का महल तैयार करती है और उस पवित्र शान्ति में समय अपनी कोख में कल को धारण करता है।”

"इस प्रकार वह तुम्हारे साथ है, और इस प्रकार प्रयत्न करने पर तुम्हें भोजन प्राप्त होता है और तुम्हारी इच्छापूर्ति होती है। यद्यपि सवेरा होने पर जागरण तुम्हारी स्मृति को मिटा देता है, परन्तु सपनों का परदा तो सदैव फैला रहता है और सुहागरात का महल तुम्हारी सदैव प्रतीक्षा करता रहता है।”

"और वह कुछ देर के लिए खामोश हो गया, और वे लोग भी, उसकी वाणी की प्रतीक्षा में चुप रहे तब उसने फिर कहा, "तुम सब प्रेतात्मा हो, यद्यपि तुम शरीरों से चलते हो, और तेल की भांति हो, जोकि अन्धकार में जलता है; तुम ज्वाला हो, किन्तु दीये के अन्दर बन्द हो।”

"यदि तुम शरीर के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हो, तब मेरा तुम्हारे सम्मुख खडे़ होना और तुमसे कुछ कहना शून्य के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। किन्तु मेरे मित्रो, यह बात नहीं है। वह सब, जोकि तुम्हारे अन्दर अमर है, दिन और रात सदैव स्वतन्त्र है, और न उसे किसी मकान में बन्द किया जा सकता है और न उसे बेड़ियों में जकडा़ जा सकता है, क्योंकि यही ईश्वर की इच्छा है। तुम उसी की श्वास हो, ऐसे ही जैसे कि वायु जोकि न तो पकडी़ ही जा सकती है और न कैद ही की जा सकती है, और मैं भी ईश्वर की श्वास की एक श्वास हूं।"

और वह उनके बीच तेजी से चल पडा़ और उसने फिर बगीचे में प्रवेश किया।

और सारकिस, वह जोकि अर्थ सन्देही था, कुरूपता क्या है, प्रभो? आपने कुरूपता के विषय में कुछ नहीं कहा।"

और अलमुस्तफा ने उसे उत्तर दिया। उसकी आवाज में तीखापन था उसने कहा, "मेरे मित्र, कौन मनुष्य तुम्हें आतिथ्य बिमुख कहेगा? क्या वह, जोकि तुम्हारे घर के पास से गुजरे और तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक भी न दे?

"और कौन तुम्हें बहरा तथा अज्ञानी कहेगा, जबकि वह तुमसे अनजान भाषा में बात करे, जिसे तुम तनिक भी नहीं समझते?

"क्या यह वह नहीं है, जिस तक पहुंचने का तुमने कभी प्रयास नहीं किया, जिसके हृदय में प्रवेश करने की तुम्हारी कभी इच्छा नहीं हुई जिसे कि तुम कुरूप कहते हो?”

"यदि कुरूपता कुछ है तो वास्तव में वह हमारी आंखों पर एक आवरण है और हमारे कानों में भरा हुआ मोम।”

"किसी को भी कुरूप न कहो मेरे मित्र, सिवा एक आत्मा के भय को, उसकी अपनी स्मृतियों के सम्मुख।"

(7)

और एक दिन, जबकि वे श्वेत चिनार के वृक्षों के लम्बे साये में बैठे हुए थे, उनमें से एक बोला, "प्रभो, मैं समय से डरता हूं। वह हम पर से गुजरता है हमसे हमारा यौवन लूट ले जाता है और बदले में हमें देता क्या है?"

और उसने उत्तर दिया और कहा, "अभी एक मुट्ठी-भर मिट्टी तुम हाथ में लो। क्या तुम्हें उसमें कोई बीज अथवा कोई कीटाणु दिखाई पड़ता है? यदि तुम्हारे हाथ विस्तीर्ण और चिरस्थायी हैं तो बीज एक बन सकता है और कीटाणु अप्सराओं का एक झुण्ड। और यह न भूलो कि वर्ष, जिन्होंने बीज को वन तथा कीटाणु को अप्सरा बनाया, इसी ‘अब’ से संबंधित हैं, समस्त वर्ष इस ‘अब’ से ही।”

"वर्षों की ऋतुएं तुम्हारे परिवर्तित होते विचारों के अतिरिक्त और क्या है? बाहर तुम्हारे हृदय में एक जागरण है, और ग्रीष्म तुम्हारी स्वयं की परिपूर्णता की स्वीकृति ही तो है। क्या शरद तुम्हारे में उसे, जो कि अभी भी बच्चा है, लोरियां सुनाने वाला पुरातन नहीं है? और मैं तुमसे पूछता हूं, हेमन्त एक निद्रा के अतिरिक्त, जोकि दूसरी ऋतुओं के सपनों से फूलकर मोटी हो गई है, और क्या है?"

और तब जिज्ञासु शिष्य मानस ने अपने चारों ओर दृष्टि दौडा़ई और देखा कि अंजीर के वृक्ष पर फूलों से लेकर नीचे तक एक बेल चिपकी हुई है। वह बोला, "पराश्रितों को देखिए प्रभो, वे भारी पलकों वाले चोर हैं, जोकि सूर्य के निश्चल बच्चों से प्रकाश चुरा लेता है और उस रस का, जोकि उनकी शाखाओं और पत्तियों में दौड़ता है, पीकर भोज मनाते हैं।"

और उसने यह कहकर उत्तर दिया, "मेरे मित्र, हम सभी पराश्रयी हैं। हम, जोकि भूमि को मेहनत करके धड़कते हुए जीवन में परिवर्तित करते हैं, उनसे ऊपर नहीं है, जो प्रत्यक्ष मिट्टी से ही जीवन प्राप्त करते हैं, यद्यपि मिट्टी को समझते नहीं हैं।”

"क्या मां अपने बच्चे से यह कहेगी, मैं तुझे प्रकृति को, जोकि तेरी बडी़ मां है, वापस देती हूं, क्यों तू मुझे परेशान करता है, मेरे हृदय तथा हाथों को ?”

"और क्या गायक अपने स्वयं के गान की निन्दा कर सकता है, यह कहकर कि, अब अपनी प्रतिध्वनि की गुफा को वापस लौट जाओ, जहां से तुम आये थे, क्योंकि तुम्हारी आवाज मेरी सांस चाहती है?'

"और क्या एक गड़रिया अपनी भेड़ के बच्चे से यह कहेगा,  'मेरे पास कोई चरागाह नहीं है, जहां कि मैं तुझे ले जाऊं, इसलिए कट जा और इसके निमित्त बलिदान हो जा?'

"नहीं, मेरे मित्र, इन सब बातों के उत्तर प्रश्न उठने से पहले ही दे दिए जाते हैं, और तुम्हारी सपनों की भांति जबकि तुम सोए रहते हो, पूर्ण हो जाते हैं।”

"हम विधान के अनुसार, जोकि पुरातन और अमर है, एक दूसरे के सहारे जीते हैं इस प्रकार हमें प्रेममय कृपा पर जीवित  रहना भी चाहिए। हम अपनी स्वतन्त्रता में एक-दूसरे को खोजते हैं। और तभी हम रास्ते पर घूमते हैं, जबकि हमारे पास कोई अंगीठी नहीं होती, जिसके सहारे बैठ सकें।”

"मेरे मित्रो और मेरे भाइयो, विस्तीर्ण पथ तो तुम्हारा हमराही ही है।”

"लताएं, जोकि वृक्षों पर जीवित रहती हैं, रात्रि की मीठी खामोशी में पृथ्वी से दूध पाती हैं, पृथ्वी अपने शान्त सपनों में सूर्य के वक्षःस्थल से दूध चूसती है।”

"और सूर्य ऐसे ही, जैसे कि मैं और तुम और दूसरे सब, जो यहाँ हैं, उस राजकुमार के प्रीतिभोज में बराबर आदर के साथ बैठते हैं, जिसके द्वार हमेशा खुले रहते हैं और जिसका दस्तर-ख्वान हमेशा बिछा रहता है।”

"मानस, मेरे मित्र, जो कुछ भी यहां जीवित है, उस पर जीवित रहता है, जोकि यहां है, और सबकुछ यहां विश्वास पर जीवित है और अनन्त और सर्वोच्च की कृपा पर।"

(8)

और एक दिन जबकि आकाश सूर्योदय के कारण अभी पीला ही था, उन सबने इकट्ठे बगीचे में प्रवेश किया और पूर्व की ओर देखने लगे तथा उगते हुए सूर्य के सम्मुख खामोश खड़े हो गए। कुछ क्षण पश्चात् अलमुस्तफा ने अपने हाथ से एक ओर इशारा किया और बोला, "एक ओस की बूंद में भोर के सूर्य का प्रतिबिम्ब सूर्य से कम नहीं है। तुम्हारी आत्मा में जीवन का प्रतिबिम्ब जीवन से कम नहीं है। ओस की बूंद प्रकाश को प्रतिबिम्ब करती है, क्योंकि वह और प्रकाश एक हैं, और तुम जीवन को प्रतिबिम्बित करते हो, क्योंकि तुम और जीवन एक हो।”

"जब तुम अन्धकार से घिरे हुए हो तो कहो, 'इस अन्धकार का उदय अभी तक उत्पन्न ही नहीं हुआ है, और यद्यपि मुझे रात्रि की पीडा़ पूर्णतः घेरे हुए है, फिर भी मुझ में प्रकाश अवश्य जन्मेगा।' कुमुदिनी के पुष्प की सन्ध्या में अपने आकार को गोल करती हुई ओस की बूंद तुम्हारे स्वयं के ईश्वर के ह्रदय में जमा हो जाने से भिन्न नहीं है।”

"यदि एक ओस की बूंद कहे, 'किन्तु एक हजार वर्ष में मैं भी केवल ओस की बूंद ही हूं; तो तुम कहो और उत्तर दो, 'क्या तू यह नहीं जानती कि तेरे वक्ष में समस्त वर्षों का प्रकाश प्रज्जलित है?"

(9)

और एक सन्ध्या को एक तीव्र आंधी ने उस स्थान के दर्शन किये, और अलमुस्तफा तथा उसके नौ शिष्य अन्दर मकान में आ गए और आग के चारों ओर बैठ गए। वे निश्चल और शान्त थे।

तब शिष्यों में से एक ने कहा, "मैं अकेला हूं, प्रभो, और समय के पंजे जोर-जोर से मेरे वक्षःस्थल को पीट रहे हैं।"

अलमुस्तफा उठा और उन लोगों के बीच खडा़ हो गया और उसने ऐसी आवाज में कहना आरम्भ किया, मानो वह तीव्र आंधी की आवाज हो, "अकेला! तो उसके लिए क्या? तुम अकेले आये थे, और अकेले ही तुम कोहरे में समा जाओगे।”

"इसलिए अपना प्याला एकान्त में और खामोशी के साथ पियो। शरद के दिनों ने विभिन्न ओठों को भिन्न-भिन्न प्याले प्रदान किये हैं और उनको कड़वी तथा मीठी मदिरा से भरा। वैसे ही उन्होंने तुम्हारे प्याले को भी किसी न किसी प्रकार की मदिरा से भरा है।”

"अपने प्याले को अकेले पियो, यद्यपि उसमें तुम्हारे स्वयं के रक्त और आंसुओं का स्वाद है, और ‘प्यास' के उपहार के लिए जीवन की प्रशंसा करो क्योंकि बिना ‘प्यास' के तुम्हारा ह्रदय एक उजडे़ हुए समुद्र के किनारे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, संगीतविहीन और तूफानरहित।”

"अपना प्याला अकेले पियो, और उसे खुशी से पियो।”

"उसे अपने मस्तक से ऊपर उठाओ और उनके लिए खूब पियो, जोकि अपने प्याले अकेले पीते हैं।”

"एक बार मैंने मनुष्यों का साथ किया और उनके साथ उनकी प्रीतिभोज की मेज पर बैठा और उनके साथ मैंने खूब पी। किन्तु उनकी मदिरा मेरे सिर तक न चढ़ पाई और न मेरे वक्षःस्थल में बही। वह केवल मेरे पैरों पर उतर गई। मेरी बुद्धि सूख गई, मेरे ह्रदय में ताला लग गया और वह बन्द हो गया। केवल मेरे पैर धुंधलके में उनके साथ थे।”

"और फिर मैंने मनुष्य का साथ कभी नहीं किया और न उसकी मेज पर कभी उसकी मदिरा पी।”

"इसलिए मैं तुमसे कहता हूं यद्यपि समय के पंजे तुम्हारे सीने को जोर-जोर से पीट रहें हैं, परन्तु इससे क्या? तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम अपने दुःख का प्याला अकेले ही पियो।"

(10)

और एक दिन, जबकि फिरदौस नाम का एक यूनानी उस बगीचे में सैर कर रहा था, उसको पैर में अचानक एक पत्थर से ठोकर लग गई और वह क्रुद्ध हो उठा। घूमकर उसने पत्थर को उठा लिया और धीमे स्वर में बोला, "ओ मेरे रास्ते में मर्त्य वस्तु?" और उसने पत्थर को उठाकर दूर फेंक दिया।

और अनेकों में एक ओर सबके प्रिय अलमुस्तफा ने कहा, "तुम यह क्यों कहते हो, 'ओ मर्त्य वस्तु?' तुम इस बगीचे में काफी समय से हो और यह भी नहीं जानते कि यहां मर्त्य वस्तु कोई नही हैं। सभी वस्तुए दिन के ज्ञान और रात्रि के वैभव में जीवित है और जगमगाती हैं। तुम और यह पत्थर एक हो। केवल हृदय की धड़कनों में अन्तर है। तुम्हारा हृदय थोडा़ अधिक तेज धड़कता है। है न, मेरे मित्र? किन्तु यह पत्थर भी तो इतना निश्चल नहीं है।”

"इसकी लय एक दूसरी लय हो सकती है। किन्तु मैं तुमसे कहता हूं कि यदि तुम अपनी आत्मा की गहराइयों को खट-खटाओ और आकाश की ऊंचाई को नापो, तो तुम्हें केवल एक ही संगीत सुनाई पड़ेगा और उस संगीत में पत्थर और सितारे मिलकर गायेंगे, एक-दूसरे के साथ, पूर्णतः एक होकर।”

"यदि मेरे शब्द तुम्हारी समझ तक नहीं पहुंचते, तो प्रतीक्षा करो, तबतक जबतक कि दूसरा प्रभात आये। यदि तुमने इस पत्थर को इसलिए कुचला है कि तुम अपने अन्धेपन में इससे टकरा गए थे, तब क्या तुम एक सितारे को भी, जिससे कि तुम्हारे मस्तक की मुठभेड़ हो जाय कुचल दोगे? किन्तु मैं जानता हूं वह दिन आयेगा जबकि तुम पत्थरों और सितारों को ऐसे चुनते फिरोगे, जैसे कि एक बच्चा कुमुदिनी के फूलों को चुनता है, और तब तुम जानोगे कि इन वस्तुओं में जीवन और सुगन्ध है।"

(11)

और सप्ताह के पहले दिन, जबकि मन्दिरों के घण्टों की आवाज उनके कानों तक पहुंची, एक ने कहा, "प्रभो, हम इधर-उधर ईश्वर के विषय में अनेक बातें सुनते हैं। आप ईश्वर के विषय में क्या कहते हैं, और वास्तव में ईश्वर है क्या?"

और वह उनके सम्मुख एक युवा वृक्ष की भांति खडा़ हो गया, तूफान और आंधी से निडर, और उसने यह कहकर उत्तर दिया, "मेरे साथियो और मुरब्बियो! एक ऐसे हृदय की कल्पना करो, जो कि तुम्हारे समस्त रहस्यों को समाये हुए है, एक ऐसा प्रेम जिसने तुम्हारे सम्पूर्ण प्रेम को लांघ रखा है; एक ऐसी आत्मा, जिसमें तुम्हारी समस्त आवाजें बसेरा हैं; एक ऐसी खामोशी, जोकि तुम्हारी समस्त खामोशियों से गहरी और अनन्त है।”

"अपनी स्वयं की सम्पूर्णता में ग्रहण करने के लिए एक ऐसी सुन्दरता खोजो, जोकि समस्त वस्तुओं की सुन्दरता से अधिक मोहक है; एक ऐसा गीत, जोकि समुद्र तथा वन के गीतों से अधिक विस्तीर्ण है; एक ऐसी भव्यता, जोकि एक ऐसे सिंहासन पर विराजती है, जिसके सम्मुख मृग-जड़ित बाल-नक्षत्र भी एक चरणपीठ है; और जो एक ऐसा राजदण्ड पक़डे़ हुए है, जिसमें टके हुए कृतिका-नक्षत्र (सात सुन्दर वस्तुओं का समूह) ओस की बूंदों की जगमगाहट के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं जान पड़ते।

"तुमने अभी तक केवल भोजन, आश्रय, कपडा़ और लकडी़ की ही चाह की है। अब उसे पाने का प्रयास करो, जोकि न तो तुम्हारे तीरों के लिए निशाना है और न पत्थरों की एक गुफा है, जोकि तत्वों द्वारा तुम्हारी रक्षा करेगी।”

"और यदि मेरे शब्द एक पत्थर और पहेली ही हैं, तब उसे पाओ, उससे कम नहीं, जिससे कि तुम्हारे हृदय टूट जाय, और जिससे कि तुम्हारे प्रश्न तुम्हें उस सर्वोच्च ज्ञान और प्रेम तक ले जायं, जिसे मनुष्य परमात्मा कहते हैं।"

और वह खामोश हो गया, दूसरे सब भी, और वे अपने हृदय में व्याकुल हो उठे। अलमुस्तफा उनके प्यार से द्रवित हो उठा और उसने उन्हें कोमल दृष्टि से निहारा तथा कहा, "आओ, अब हमें पिता परमेश्वर के विषय में और अधिक बातें नहीं करनी चाहिए। हमें देवताओं, तुम्हारे पडो़सियों, तु्म्हारे भाइयों तथा उन तत्त्वों के विषय में बातें करनी चाहिए, जोकि तुम्हारे घरों और खेतों में घूमते हैं।”

"तुम कल्पना में बादलों तक पहुंच जाओगे और उनकी ऊंचाई का अनुमान भी लगा लोगे, और तुम विस्तीर्ण सागर को पार कर लोगे तथा उसकी दूरी भी बता दोगे; किन्तु मैं तुमसे कहता हूं कि जब तुम पृथ्वी में एक बीज देखते हो तो अधिक ऊंचाई तक पहुंचते हो, और जब तुम प्रातः की सुन्दरता अपने पडो़सी से बताते हो तो अनेक सागर पार करते हो।”

"अनेक समय तुम अनन्त ईश्वर के गीत गाते हो, और फिर भी सत्य यह है कि तुम कोई गाना नहीं सुन पाते। क्या इसलिए कि तुम गाती हुई चिड़ियों को सुन सको, और शाखाओं से गिरती हुई पत्तियों के गीत को भी, जबकि वायु गुजरती है। और भूलो मत, मेरे मित्र, ये पत्तियां तभी गाती हैं, जबकि शाखाओं से अलग हो जाती हैं।"

“फिर मैं तुमसे कहता हूं कि ईश्वर के विषय में, जोकि तुम्हारा सबकुछ है, इतनी स्वतन्त्रतापूर्वक बातें न करो, और कुछ कहो और एक-दूसरे को समझो, पड़ोसी एक पड़ोसी को, एक देवता एक देवता को।”

"घोंसले में बच्चे को कौन दाना खिलायेगा, यदि मां चिड़िया आकाश में उड़ती रहे? और खेत में कौन सा पुष्प परिपूर्ण हो जायगा, जबतक कि मधु-मक्खी द्वारा दूसरे पुष्प से गर्भ न प्राप्त कर ले।”

"जबकि तुम अपनी नन्हीं आत्मा में खो जाते हो, तभी तुम आकाश को, जिसे कि तुम ईश्वर कहते हो, पाते हो। यह क्या इसलिए कि तब तुम अपनी अनन्त आत्मा में रास्ते ढूंढ़ सकते हो, और क्या इसलिए कि तब तुम बेकार रह सको और मार्ग ढूंढ़ सको?”

"मेरे नाविको और मेरे मित्रो, यह बुद्धिमत्ता है कि हम ईश्वर के विषय में, जिसे कि हम समझने में असमर्थ हैं, कम बातें करें और एक-दूसरे के विषय में अधिक, जिसको सम्भवतः हम समझ सकें। फिर भी मैं तुम्हें यह बताना चाहूंगा कि हम ईश्वर की श्वास की एक सुगन्ध हैं। हम ईश्वर ही हैं, पत्ती में, पुष्प में और प्रायःफल में भी।"

(12)

और एक दिन तड़के, जबकि सूर्य ऊपर उठ चुका था, शिष्यों में से एक, उन तीन में से एक, जोकि बचपन में उसके साथ खेले थे, उसके पास पहुंचा और बोला, "प्रभो, मेरे कपडे़ फट चुके हैं और मेरे पास दूसरे नही हैं। कृपया मुझे हाट तक जाकर लाने की आज्ञा दीजिए। सम्भवतःमैं अपने लिए एक नया जोडा़ ला सकूं।”

और अलमुस्तफा ने उस युवक की ओर देखा और उसने कहा, "मुझे अपने कपडे़ दे दो।" उसने ऐसा ही किया और वह खिलती हुई धूप में नंगा खडा़ हो गया।

और अलमुस्तफा ऐसी आवाज में बोला, जोकि सड़क पर दौड़ते हुए जवान घोडे़ की टाप की होती है, "केवल नंगे ही सूर्य के प्रकाश में रहते हैं. केवल निष्कपट ही वायु पर सवारी करते हैं। और केवल वही, जो अपना रास्ता एक सहस्त्र बार खोता है, अपने घर को लौटता है।”

"देवता चतुर मनुष्यों से तंग आ गए हैं, और कल ही तो एक देवता ने मुझसे कहा, 'हमने उन लोगों के लिए नर्क बनाया है, जोकि चमकते अधिक हैं। अग्नि के अतिरिक्त और क्या है, जो एक चमकती हुई सतह को खुरच सके और प्रत्येक वस्तु को पिघलाकर उसे प्रकृत रूप प्रदान कर सके?”

और मैंने कहा, “किन्तु नर्क बनाने में तुमने दानव भी तो उत्पन्न कर दिए हैं, जोकि नर्क पर राज्य करते हैं।” किन्तु देवता ने उत्तर दिया, 'नहीं, नर्क पर उनका राज्य है, जो अग्नि के सम्मुख भी न झुके।'

“बुद्धिमान देवता। वह मनुष्य और अर्ध-मनुष्य की विधियों से परिचित है। वह उन दैवी पुरुषों में से एक है, जोकि देवदूतों की सहायता के लिए आते हैं; तब जबकि वे चतुर मनुष्यों द्वारा आकर्षित कर लिये जाते हैं।”

"मेरे मित्रो और मेरे नाविको, केवल नंगा ही सूर्य के प्रकाश में रहता है। केवल बिना पतवार के ही विशाल सागर पार किये जा सकते हैं। केवल वह जोकि रात्रि के साथ अन्धकारमय हो जाता है, भोर के साथ जागता है; और वह जोकि हिम के साथ जड़ों में सोता है, बाहर तक पहुंचता है।” 

"क्योंकि तुम भी तो जड़ों की भांति ही हो, और जड़ों की तरह ही सरल हो, इसीलिए तो पृथ्वी द्वारा तुम्हें ज्ञान प्राप्त हुआ है। और तुम खामोश हो, फिर भी तुम्हारे पास तुम्हारी भावी शाखाओं में चार वायुओं का संगीत व्याप्त है।”

"तुम दुर्बल हो और तुम निराकार हो, फिर भी तुम विशाल सिन्दूर के वृक्ष का आरम्भ हो और आकाश पर बने अर्ध चित्रित सरई के वृक्ष का भी।”

"मैं फिर से कहता हूं, तुम काली मिट्टी तथा घूमते आकाश के अन्त में एक जड़ ही तो हो, और अनेक बार मैंने तुम्हें प्रकाश के साथ नृत्य करने के लिए उठते हुए देखा है, किन्तु मैंने तुम्हें वस्त्रहीन दशा में लज्जायुक्त भी देखा है। पर सभी जड़ें लज्जाशील होती हैं। उन्होंने अपने हृदय को इतना गहरा छिपा लिया है कि वे यह भी नहीं जानतीं कि उन्हें अपने हृदय का क्या करना चाहिए।”

"किन्तु वसन्त ऋतु आयेगी और वसन्त चंचल सुन्दरी है, वह पहाडि़यों और मैदानों को उपजायेगी।"

(13)

और एक ने, जोकि मन्दिर में सेवाएं कर चुका था, विनती करते हुए कहा, "हमें शिक्षा दें, प्रभो कि हमारी वाणी ऐसी बन जाय, जैसे कि शब्द लोगों के लिए एक भजन और सुगंधित धूप हैं।"

और अलमुस्तफा ने उत्तर दिया और कहा, "तुम अपने शब्दों से ऊपर उठोगे, किन्तु तुम्हारा पथ एक संगीत और सुगन्ध बनकर रहेगा- एक गीत प्रेमियों के लिए और उन सबके लिए, जोकि सेविकाएं हैं, और एक सुगन्ध उनके लिए, जोकि अपना जीवन एक बगीचे में बितायेंगे।”

"किन्तु तुम अपने शब्दों से ऊपर एक शिखर तक उठोगे, जहाँ सितारों के टुकडे़ बरसते हैं, और तुम अपने हाथों को फैलाये रहोगे जब तक कि वे भर न जायें। तब तुम नीचे लेट जाओगे और सो जाओगे, जैसे श्वेत चिडि़या का बच्चा सफेद घोंसले में सोता है, और फिर तुम अपने कल का सपना देखोगे जैसे कि हलका नीला फूल बहार का सपना देखता है।”

"हां तुम अपने शब्दों से अधिक गहरे जाओगे, तुम खोये हुए स्रोतों के अन्त को खोज निकालोगे और तुम गहराइयों की मिटती हुए आवाजों को, जिन्हें कि अब तुम सुन भी नहीं पाते, प्रतिध्वनित करती हुई एक छिपी कंदरा हो।”

"तुम अपने शब्दों से गहरे जाओगे, हां सब आवाजों से गहरे- पृथ्वी के हृदय तक, और वहां तुम उस ईश्वर के साथ अकेले रहोगे, जोकि आकाश-गंगा पर भी घूमता है।"

और कुछ क्षण पश्चात शिष्यों में से एक ने पूछा, "प्रभो, हमें अस्तित्व के विषय में बताइए, और यह 'होना, क्या है?’

और अलमुस्तफा ने उस शिष्य पर एक लम्बी निगाह डाली और उसे प्यार किया। और तब वह खडा़ हो गया और उनसे कुछ दूर टहलता हुआ चला गया। फिर लौटकर उसने कहा, "इस बगीचे में मेरे माता-पिता लेटे हुए हैं। वे जीवित हाथों द्वारा दफना दिये गए हैं, और इसी बगीचे में गत वर्ष के बीज भी गडे़ हुए हैं, जोकि वायु के पंखों द्वारा यहां लाये गए थे। एक हजार बार मेरे माता-पिता यहाँ दफनाये जायंगे, एक हजार बार मैं, तुम और ये पुष्प भी एक साथ इसी वाटिका में आयेंगे, जैसे कि अब आये हैं; और हम जीवन को प्यार करते 'होंगे', हम शून्य के सपने देखते 'होंगे, और हम सूर्य की ओर बढते 'होंगे'।

"किन्तु आज का 'होना' विद्वान होना है, एक मूर्ख के लिए अजनबी बनना नहीं, बलवान बनना है, किन्तु दुर्बल को बेकार करके नहीं; छोटे बच्चों के साथ खेलना है, किन्तु पिता की तरह नहीं, अपितु साथी बनकर, जो उनके खेलों को सीखना चाहता है।“

"और 'होना' क्या है?"

बूढे़ पुरुषों और स्त्रियों के साथ सरल और निष्कपट व्यवहार करो, और उनके साथ प्राचीन सिंदूर के वृक्ष की छाया में बैठो, यद्यपि तुम अभी बहार के साथ घूमते हो।”

"एक कवि को ढूंढ़ो, चाहे वह सात नदियों के पार ही रहता हो, और उसकी उपस्थिति में शान्ति पाओ, बिना किसी इच्छा के, बिना किसी सन्देह के, और तुम्हारे ओठों पर कोई प्रश्न न हो।”

"यह जानो कि साधु और अपराधी भाई-भाई हैं, जिनका पिता हमारा दयालु राजा है, और उनमें से एक ने केवल एक क्षण पहले ही जन्म लिया था, और इसीलिए हम उसे उत्तराधिकारी राजकुमार मानते हैं।”

"सुन्दरता के पीछे-पीछे चलो, चाहे वह पर्वत की दीवार तक ही क्यों न ले जाय। यद्यपि उसके पंख लगे हैं और तुम्हारे नहीं, और चाहे वह उस दीवार को भी पार कर जाय तो भी पीछा करो, क्योंकि जहाँ सुन्दरता नहीं है, वहां कुछ भी नहीं है।”

"बिना चहारदीवारी के बगीचा बनाओ, एक संरक्षक के बिना एक अंगूर का बाग और ऐसा खजाना बनाओ, जोकि आने-जाने वालों के लिए सदैव खुला रहे।”

"क्या हुआ जो तुम्हें किसीने लूट लिया, या ठग लिया, या धोखा दिया, या गुमराह किया, अथवा अपने चंगुल में फांस लिया और इसके बाद तुम्हारी हंसी उडा़ई क्योंकि दुनिया में यही तो होता है। इतने पर भी तुम अपनी आत्मा में से झांको और मुस्कराओ, क्योंकि तुम्हें मालूम है कि एक बहार है, जोकि तुम्हारे बगीचे में तुम्हारी पत्तियों में नाचने आयेगी, और एक शरद है, जोकि अंगूरों को पकायेगी, और यह भी ज्ञात है कि यदि तुम्हारी एक खिड़की भी पूर्व की ओर खुलती है, तो तुम कभी भी रिक्त नहीं होगे, और तुम जानते हो कि वे सब अपराध करने वाले, डाकू, ठग और धोखेबाज आवश्यकता के समय तुम्हारे भाई ही तो हैं और सम्भवतः उस अदृश्य नगरी के वासियों के लिए, जोकि इस नगर से ऊपर है, तुम सभी वैसे ही हो।”

"और अब तुम्हारे लिए, जिनके हाथ उन सब वस्तुओं को बनाते और खोजते हैं, जोकि हमारे दिन और रात के आराम के लिए आवश्यक हैं।”

"होने का अर्थ है एक प्रकट उंगलियों वाला जुलाहा बनना, एक बुनने वाला, जो प्रकाश और दूरी को ध्यान में रखता हैं, एक हलवाहा बनना और यह ध्यान में रखना कि प्रत्येक बीज के बोने के साथ-साथ तुम एक खजाना छिपा रहे हो; एक मछुआ तथा शिकारी बनना, ह्रदय में मछली और जानवरों के लिए दया रखते हुए, और इससे भी अधिक दया मनुष्य की भूख और आवश्यकताओं के लिए रखते हुए।”

"मेरे साथियों और मेरे मुरब्बियों, तुच्छ नहीं, साहसी बनो; संकुचित नहीं, विस्तीर्ण बनो, और तबतक, जबतक कि मेरी अंतिम घडी़ और तुम्हारा अनन्त सत्व न बन जाय।”

उसने बोलना बन्द कर दिया। उन नौ-के-नौ पर एक गहरी निस्तब्धता छा गई, उनके हृदय उसकी ओर से फिर गए, क्योंकि वे उसके शब्दों को समझ नहीं पा रहे थे।”

और देखो, तीन मनुष्य, जो नाविक थे, समुद्र की ओर जाना चाहते थे, वे जिन्होंने मन्दिर में सेवाएं की थीं, अपने देवालय को जाने के इच्छुक थे, और उन्होंने, जोकि उसके बचपन के खेल के साथी थे, हाट का रास्ता पसन्द किया। उसके शब्दों के लिए बे सब बहरे थे, इसलिए उन शब्दों की आवाज इसी प्रकार उसीके पास वापस लौट गई, जैसे कि थके और बिना घर के पक्षी शरण के लिए स्थान टटोलते हैं।

और अलमुस्तफा उनसे कुछ दूर बगीचे में चला गया। उसने उन पर एक बार निगाह भी नहीं डाली। और उन्होंने  आपस में तर्क करना प्रारम्भ कर दिया, इसलिए कि अपने वहां से जाने के लिए बहाना ढूंढ़ लें।

और देखो, वे सब मुड़े और प्रत्येक अपने-अपने स्थान को लौट गया, और इस प्रकार अलमुस्तफा, अनेकों में एक और सबका प्रिय फिर अकेला रह गया।

(14)

और जब पूर्ण रूप से रात्रि हो गई तो उसने अपने कदमों को कब्र की ओर बढ़ाया और वह देवदार के वृक्ष के नीचे बैठ गया, जोकि उस स्थान पर उग आया था। तब एक महान् प्रकाश की छाया आकाश पर छा गई और बगीचा पृथ्वी के वक्षःस्थल पर एक सुन्दर हीरे जैसा जगमगा रहा था।

अलमुस्तफा अपनी आत्मा की एकान्तता में चीखा और बोला, "अपने पके हुए भारी फल से मेरी आत्मा लदी हुई है। वह कौन है, जो आये और अपने को तृप्त करे? क्या ऐसा कोई नहीं है, जिसने उपवास किया है और जिसका हृदय दयापूर्ण और कृपालु है, जो आये और अपना उपवास सूर्य को मेरी प्रथम भेंट द्वारा तोड़े और मेरी स्वयं की अधिकता से मुझे मुक्त करे?”

"मेरी आत्मा सदियों की मदिरा से लबालब भरी हुई है। क्या यहां कोई प्यासा नहीं है, जोकि आये और पान करे?"

“देखो, एक आदमी था। वह एक चौराहे पर आने-जाने वालों की ओर हाथ फैलाकर खडा़ हो गया, और उसके हाथ हीरों से भर गए। और तब उसने आने-जाने वालों को पुकारा और कहा, 'मुझ पर दया करो और मेरे से यह सब ले जाओ। भगवान के नाम पर मेरे हाथों से यह ले जाओ और मुझे सान्त्वना दो।”

किन्तु आने-जाने वालों ने उसे केवल देखा और किसी ने भी उसके हाथ से कुछ न लिया।

इससे तो यही अच्छा होता कि वह एक भिखमंगा होता जो अपना हाथ भिक्षा पाने के लिए फैलाये है - हां कांपता हुआ हाथ और उसे खाली ही अपने हृदय को वापस लौटा लेता है, और फिर उसे बहुमूल्य वस्तुओं से भरकर फैलाता है और कोई भी लेने वाला नही ढूंढ़ पाता।

"और देखो, एक दयालु राजकुमार था जिसने पहाड़ों और रेगिस्तानों के बीच अपने रेशमी डेरे लगाये और अपने सेवकों से अजनवियों तथा घुमक्कड़ों के लिए चिह्न स्वरूप आग जलवाई और उसने अपने गुलामों को रास्तों पर तैनात कर दिया कि कम से कम एक अतिथि तो खोजकर ला सकें। किन्तु सड़कों तथा रेगिस्तान के रास्तों ने कुछ भी न दिया और उन्हें कोई भी न मिल सका।”

"इससे तो यही अच्छा होता कि वह राजकुमार एक साधारण व्यक्ति होता, एक ऐसा मनुष्य, जो कहीं का नहीं है और किसी एक समय का नहीं है, जो भोजन तथा आश्रय ढूंढ़ रहा है, अथवा वह एक बटोही ही होता, केवल लकडी़ और एक मिट्टी के  बरतन ही जिसके साथ हैं, क्योंकि तभी तो रात्रि को वह अपने जैसों से भेंट करेगा और कवियों से, जो न किसी जगह के हैं और न किसी एक समय के, और उनकी भिक्षा तथा उनकी स्मृतियों और उनके सपनों में हिस्सा बांटेगा।”

"और देखो, राजा की बेटी निद्रा से जाग पड़ी और उसने अपना रेशमी लिबास पहना, अपना हीरे और लाल पहने, बालों पर ओढ़नी ओढ़ी और अपनी उंगलियों को अम्बर (एक वृक्ष से निकलने़ वाला एक प्रकार का पीले रंग का सुगन्धित पदार्थ) में डुबाया। तब वह अपनी अटारी से नीचे बगीचे में उतरी, जहां कि रात की ओस ने उसकी सुनहरी जूतियों को चूमा।”

"रात्रि की निस्तब्धता में राजा की बेटी बगीचे में प्रेम खोजने निकली, किन्तु उसके पिता के विस्तीर्ण साम्राज्य में एक भी नहीं था, जो उसका प्रेमी हो।”

"इससे तो यही अच्छा होता कि वह एक हलवाहे की बेटी होती, अपनी निद्रा एक खेत में पूरी करती तथा सन्ध्या समय पैरों पर रास्ते की धूल जमाये तथा वस्त्रों  की परत में अंगूर के बगीचे की सुगन्ध लिये अपने पिता के घर लौटती, और जब रात्रि की देवी इस संसार में प्रवेश करती, तो वह अपने पैरों को चोरी से घाटी की ओर ले जाती, जहां उसका प्रेमी उसकी प्रतीक्षा करता होता।"

“अथवा वह एक मठ में पुजारिन होती और धूप के स्थान पर अपना हृदय़ जलाती, जिससे कि उसका हृदय वायु तक पहुंच सके और उसकी आत्मा को शून्य बना सके अथवा एक दीपक होती, एक प्रकाश को महान् प्रकाश की ओर उठाने के लिए, उन सबके साथ, जोकि पूजा करते हैं, जो प्रेमी हैं और प्रेमिकाएं।

"अथवा वह वर्षों द्वारा बनाई गई एक बूढी़ स्त्री होती और धूप में बैठकर यह सोचती कि उसके यौवन में किसने साझा किया था।"

और रात्रि गहरी होती गई। रात्रि के साथ अलमुस्तफा भी अन्धकारमय होता गया, और उसकी आत्मा थी, मानो एक बिन बरसा बादल तथा वह जोर से बोलाः -

"भारी है मेरी आत्मा अपने स्वयं के पके हुए फल से;
भारी है मेरी आत्मा अपने स्वमं के फलों से।
कौन अब आयेगा खायेगा और तृप्त होगा?
मेरी आत्मा लबालब भरी है मेरी मदिरा से;
कौन अब ढालेगा और पियेगा और ठण्डा होगा रेगिस्तान की गर्मी से? ”

"काश मैं एक वृक्ष होता, बिना फूल और बिना फल का,
क्योंकि अत्यधिकता की पीडा़ उजडे़पन से कहीं अधिक कड़वी है,
और अमीर का दुःख जिसे कोई ग्रहण नहीं करता,
कहीं बडा़ है एक भिखारी की निर्धनता से,
जिसे कोई नहीं देता।”

"काश मैं एक कुआं होता, सूखा और झुलसा हुआ,
और मनुष्य मेरे अन्दर पत्थर फेंकते;
क्योंकि यह अच्छा और आसान है, व्यय हो जाना
अपितु जीवित जलकर उद्गम बनना,
जबकि मनुष्य उसकी बगल से गुजरें और उसका पान न करें।

"काश मैं एक बांसुरी होता, पैर के नीचे कुचली हुई;
क्योंकि यह चांदी के तार वाली एक वीणा होन से अच्छा हैं,
ऐसे मकान में जिसके मालिक के उंगलियां ही नहीं हैं,
और जिसके बच्चे बहरे हैं।"

(15)

सात दिन और सात रात तक कोई आदमी बगीचे के निकट भी नहीं आया, और अपनी स्मृतियों और पीडा़ओं के साथ वह अकेला ही बना रहा, क्योंकि वे भी, जिन्होंने उसकी बातें प्यार तथा घैर्यपूर्वक सुनी थीं, उससे विमुख होकर दूसरे दिनों की खोज में चले गए थे।

केवल करीमा आई, उसके चेहरे पर खामोशी एक आवरण की तरह फैली हुई थी। उसके हाथ में प्याला और तश्तरी थी, उसके एकाकीपन और भूख के लिए मदिरा तथा खाना था। और ये वस्तुएं उसके सामने सजाकर वह अपने रास्ते वापस लौट गई।

और अलमुस्तफा ने फिर श्वेत चिनार के वृक्षों का साथ ग्रहण कर लिया, और सड़क की ओर देखता हुआ बैठा रहा। जरा देर बाद उसने देखा, मानो एक धूल ऊपर उठकर बादल बन गई है और वह बादल उसकी ओर चला आ रहा है। उस बादल में से निकलकर वे नौ के नौ शिष्य बाहर आते दिखाई पडे़ और उनके आगे-आगे करीमा पथ प्रदर्शक बनी चली आ रही थी।

और अलमुस्तफा ने आगे बढ़कर सड़क पर ही उनसे भेंट की, और वे दरवाजे के अन्दर दाखिल हुए। सबकुछ ठीक था, मानो वे अभी एक घण्टे पहले ही अपने-अपने रास्ते पर गये हों।

वे अन्दर आ गए और उन्होंने उसके साथ उसके सस्ते आसन पर भोजन किया, जबकि करीमा ने उनके लिए रोटी और सब्जी परोसी और अंतिम मदिरा प्यालों में ढाली। जब वह ढाल रही थी तो उसने प्रभु से पूछा और कहा, "यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं नगर जाकर आपके प्यालों को फिर से भरने के लिए मदिरा ले आऊं, क्योंकि वह समाप्त हो गई है?"

और उसने करीमा की ओर देखा। उसकी आंखों में एक यात्रा तथा एक दूर देश बसा हुआ था और उसने कहा, "नहीं, क्योंकि इस समय के लिए तो यही काफी है।"

उन्होंने खाया पिया और वे सन्तुष्ट हुए। जब यह समाप्त हुआ तो अलमुस्तफा विस्तीर्ण सागर की भांति गहरी और चन्द्रमा के साये में तूफान की तरह पुष्ट आवाज में बोला, "मेरे साथियो और मेरे हमराहियो, हमें आज जुदा होना पड़ेगा। एक अरसे से हम भयानक समुद्रों पर तैरते रहे हैं, हम ढालू पहाडि़यों पर चढे़ हैं किन्तु एक साथ बैठकर हमने महाभोज भी खाये हैं। अनेक समय हम नंगे रहे हैं, किन्तु हमने राजसी वस्त्र भी पहने हैं। हमने वास्तव में बडा़ लम्बा सफर तय किया है, लेकिन अब हम जुदा होते हैं। तुम इकट्ठे अपने रास्ते पर जाओगे और मैं अकेला अपने रास्ते पर बढ़ जाऊंगा।”

"और हालांकि समुद्र और विस्तीर्ण भूमि हमें जुदा करेगी, फिर भी पूज्य पर्वत की यात्रा में हम साथी होंगे।”

"किन्तु इससे पहले कि हम अपने-अपने कठिन रास्ते पर जायं, मैं तुम्हें अपने हृदय की फसल तथा जीवन का निचोड़ प्रदान करूंगा।”

"तुम अपने रास्ते पर गाते हुए जाओ, किन्तु हर गीत को छोटा रखो, क्योंकि वे ही गीत, जोकि तुम्हारे ओठों पर अपनी जवानी में ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, मनुष्य के हृदय में जीवित रहेंगे।”

"एक सुन्दर सत्य थोडे़ शब्दों में कहो, किन्तु एक असुन्दर सत्य थोडे़ शब्दों में भी मत कहो। जिस सुन्दरी के केश सूर्य के प्रकाश में चमकते हों, उससे कहो कि वह प्रभात की पुत्री है, किन्तु यदि तुम्हे एक अन्धा दिखाई पडे़ तो उससे यह न कहो कि वह रात्रि के साथ एक है।”

"बांसुरी बजाने वाले को ध्यान से सुनो, जैसा कि वह बसन्त को सुनता है, किन्तु यदि तुम समालोचक अथवा दोष निकालने वाले को सुनो तो अपनी हड्डियों की भांति बहरे हो जाओ और इतनी दूर निकल जाओ, जितनी कि तुम्हारी कल्पना।”

"मेरे साथियो और मेरे स्नेहियो; अपने रास्ते पर तुम लम्बे नाखूनों वाले मनुष्यों से मिलोगे, उन्हें एक पंख देना; लम्बे सींगों वाले मनुष्यों से मिलोगे, उन्हें लारेल के हार पहनाना; लम्बे-लम्बे पंजों वाले मनुष्यो से भी मिलोगे, उनकी उंगलियों के लिए पुष्प की पंखुड़ियां देना; और तीखी जिह्वा वाले मनुष्यों से भी मिलोगे, उनके शब्दों के लिए मधु देना।”

"और तुम इन सबसे तथा इनसे भी अधिक से मिलोगे- तुम्हें मिलेंगे लंगडे़ आदमी; सहारे की लकडि़यां बेचते हुए, और अंधे, देखने का शीशा बेचते हुए, और तुम्हें धनी मनुष्य मंदिर के द्वार पर भीख मागते हुए मिलेंगे।"

“लंगडे़ को अपना सहारा प्रदान करना, अन्धे को अपनी दृष्टि देना और यह ध्यान रखना कि तुम स्वयं अपने को धनी भिखारयों को दो, क्योंकि वे सबसे अधिक जरूरतमन्द हैं, और कोई भी पुरुष भीख के लिए हाथ नहीं फैलायेगा, जबतक कि वह वास्तव में गरीब न हो।”

"मेरे साथियो और मेरे मित्रो, मैं तुम्हें हमारे मेरे और तुम्हारे बीच के प्यार की सौगन्ध खिलाता हूं कि तुम उन अनगिनत रास्तों पर जाओ, जोकि रेगिस्तान में एक दूसरे पर से गुजरते हैं, जहां कि शेर और खरगोश साथ-साथ घूमते हैं और भेड़िये और भेड़ भी।”

"और मेरी यह बात याद रखो; मैं तुम्हें देना नहीं सिखाता, लेना सिखाता हूं; अस्वीकार करना नहीं, संतुष्ट करने का पाठ पढा़ता हूं; और झुकने की नहीं; समझने की सीख देता हूं, अपने ओठों पर मुस्कान लेकर।”

“मैं तुम्हें खामोशी नहीं सिखाता, बल्कि एक गीत, किन्तु अधिक प्रखर नहीं।”

"मैं तुम्हें तुम्हारे अनन्त सत्व को समझाता हूं, जिसमें समस्त प्राणी-मात्र व्याप्त हैं।”

और वह आसन से उठ खडा़ हुआ और बाहर सीधा बगीचे में चला गया, और जबकि सूर्य डूब रहा था, वह चिनार के वृक्षों के साये में घूमता रहा। और वे उसके पीछे-पीछे थे, जरा दूर हटकर, क्योंकि उनके हृदय भारी हो गए थे और उनकी जिह्वाएं अपने तालुओं से चिपक गई थीं।

केवल करीमा, जबकि वह सब सामान जमा कर चुकी, उसके पास आई और बोली, "प्रभो, आप मुझे साथ ले चलें, जिससे कि मैं कल के लिए, और आगे आपकी यात्रा के लिए भोजन बनाती रहूं।"

और उसने करीमा की ओर देखा, ऐसी दृष्टि से जिसमें इस संसार के अलावा और बहुत से संसार दिखाई पड़ते थे, और उसने कहा, "मेरी बहन और मेरी प्रिये, वह तो हो चुका, समय के आरम्भ से ही। भोजन और मदिरा तो तैयार है, कल के लिए, जैसे कि बीते कल के लिए थी, और आज के लिए भी।"

“मैं जाता हूं, लेकिन अगर मैं एक सत्य को लेकर चला जाऊंगा, जिसे अभी तक आवाज नहीं मिली है, वही सत्य फिर मुझे खोजेगा और इकट्ठा कर लेगा, चाहे मेरे समस्त तत्त्व अनन्त खामोशी में बिखरे पडे़ हों। और फिर मुझे तुम्हारे सामने आना होगा, जिससे कि मैं उस वाणी द्वारा बोल सकूं, जोकि उन असीम खामोशियों के हृदय में फिर से उत्पन्न हुई है।”

"और यदि जरा-सी भी सुन्दरता रह जायगी, जिसे कि मैंने तुम्हें नहीं बताया है, तो मुझे फिर पुकार लिया जायगा, हां, मेरा-स्वयं का नाम लेकर ही -अलमुस्तफा। और मैं तुम्हें एक संकेत दूंगा, जिससे कि तुम समझ जाओगे कि मैं जो कुछ छूट गया था, उसे बताने के लिए फिर से आ गया हूं क्योंकि ईश्वर अपने को मनुष्य के हृदय की गुफाओं में ढके रखना नहीं चाहेगा।”

"मैं मौत के बाद भी जीऊंगा और मैं तुम्हारे कानों में गाऊंगाः
विशाल समुद्र की लहर के बाद भी, जो वापस ले जायेगी,
मैं तुम्हारे आसन पर बैठूंगा, हालांकि बिना शरीर के,
और मैं तुम्हारे साथ तुम्हारे खेतों में जाऊंगा,
एक अदृश्य आत्मा बनकर।
मैं तुम्हारे पास तुम्हारे आग के सहारे बैठूंगा,
एक अदृश्य अतिथि बनकर।
मौत तो कुछ भी नहीं बदलती, परदे के अलावा,
जोकि हमारे चेहरे पर पडा़ रहता है।
बढ़ई फिर भी एक बढ़ई ही रहेगा,
हलवाहा फिर भी एक हलवाहा ही रहेगा,
और वह जोकि वायु के लिए गीत गाता है,
फिर भी गतिशील ग्रहों लिए गायगा।"

और शिष्य ऐसे खामोश हो गए जैसे कि पत्थर, और अपने हृदयों में सिसकने लगे, क्योंकि उसने कहा था, "मैं जाता हूं।" किन्तु किसी ने भी प्रभु को रोकने के लिए अपना हाथ बाहर नहीं निकाला, और न कोई उसके पदचिन्हों पर आगे बढा़।

और अलमुस्तफा अपनी मां के बगीचे से बाहर निकल आया। उसके पैर तेजी से आगे बढ़ रहे थें। तेज हवा में उड़ती हुई पत्ती की भांति वह उनसे दूर चला गया और उन्होंने देखा, मानो एक पीला प्रकाश ऊंचाई पर चढ़ रहा हो। और वे नौ-के-नौ सड़क पर अपने-अपने रास्ते पर चल पड़े। किन्तु करीमा अभी भी गहरी होती रात में खडी़ रही और उसने देखा कि किस प्रकार प्रकाश तथा तारों की जगमगाहट एक हो जाती है; और अपनी बेबसी और तनहाई को उसने ये शब्द कहकर ढांढ़स बंधाया, "मैं जाता हूं लेकिन अगर मैं एक सत्य को लेकर चला जाऊंगा, जिसे अभी तक आवाज नहीं मिली है, तो वही सत्य फिर मुझे खोजेगा और इकट्ठा करेगा, और मैं फिर आऊंगा।"

(16)

और अब सन्ध्या हो गई थी।

वह पहाड़ों पर पहुंच गया। उसके पैर कुहरे के पास ले आये थे। वह चट्टानों और सफेद सिरों के वृक्षों के बीच, जोकि अब चीजों से छिपे हुए थे, खड़ा था और वह बोलाः

"ओ कुहरे, मेरे भाई,
श्वेत श्वास अभी तक किसी आकार में नहीं ढली है,
मैं तु्म्हारे पास वापस आ गया हूं,
एक श्वेत श्वास और ध्वनिविहीन बनकर—
एक शब्द भी अभी तक नहीं बोला।

"ओ कुहरे मेरे पंखों वाले भाई कुहरे, हम अब एक साथ हैं,
और साथ ही रहेंगे, जीवन के अगले दिन तक,
कौनसा प्रभात तुम्हें ओस की बूंद बनाकर बगीचे में लिटायेगा,
और मुझे एक बच्चा बनाकर एक स्त्री के वक्षःस्थन पर,
और हम एक दूसरे को याद रखेंगे।

"ओ कुहरे, मेरे भाई, वापस आ गया हूं
एक हृदय अपनी गहराइयों में सुनता हुआ,
जैसा कि तुम्हारा ह्रदय,
एक धड़कती हुई आकांक्षा, और
तुम्हारी उद्देश्यहीन आकांक्षा की भांति,
एक विचार जो अभी तक स्थिर नहीं हुआ,
जैसे कि तुम्हारा विचार।

"ओ कुहरे, मेरे भाई, मां के पहले पुत्र,
मेरे हाथ अभी भी उन चीजों को पकडे़ हुए हैं,
जोकि तुमने मुझे बिखेरने के लिए दिये थे
और मेरे ओंठ सीये हुए हैं उस गति पर,
जोकि तुमने मुझे गाने के लिए दी थी;
और मैं तुम्हारे लिए कोई फल नहीं लाया
और न तुम्हारे पास मैं कोई प्रतिध्वनि लेकर आया हूं,
क्योंकि मेरे हाथ अन्धे और मेरे ओठ खामोश थे।

"ओ कुहरे मेरे भाई, मैने दुनियां से बहुत ज्यादा प्यार किया,
और दुनिया ने मुझे वैसा ही प्यार दिया,
क्योंकि मेरी समस्त मुस्कराहटें दुनिया के ओठों पर थीं,
और उसके समस्त आंसू मेरी आंखों में।
फिर भी हमारे बीच एक खामोशी की खाई थी,
जोकि दुनिया नहीं भरना चाहती थी,
और जिसे मैं पार नहीं कर सकता था।

"ओ कुहरे, मेरे भाई मेरे अमर भाई कुहरे,
मैंने पुराने गीत अपने बच्चों को सुनाये,
और उन्होंने सुने और उनके चेहरे पर आश्चर्य व्याप्त था,
किन्तु कल ही वे यकायक गीत भूल जायंगे,
और मैं नहीं जानता था कि किसके पास तक
वायु गीत नहीं ले जायगी।
और हालांकि वह गीत मेरा अपना नहीं था,
लेकिन वह मेरे दिल में समा गया,
और मेरे ओठों पर कुछ देर के लिए खेलता रहा।

"ओ कुहरे, मेरे भाई, हालांकि यह सब गुजर गया,
मैं शान्ति में हूं।
मेरे विचार में यह काफी था कि उनके लिए गाया जाय,
जोकि जन्म ले चुके हैं।
और अगर्चे यह गाना मेरा अपना नहीं हैं,
लेकिन वह मेरे दिल की सबसे गहरी ख्वाहिश है।

"ओ कुहरे, मेरे भाई कुहरे,
मैं तुम्हारे साथ अब एक हूं।
अब मैं स्वयं ‘मैं’ नहीं रहा ।
दीवारें गिर चुकी हैं,
जंजीरें टूट चुकी हैं,
मैं तुम्हारे पास आने के लिए ऊपर उठ रहा हूं,
एक कुहरा बनकर, और हम साथ-साथ सागर के ऊपर तैरेंगे,
जीवन के दूसरे दिन तक,
जबकि प्रभात तुम्हें ओस की बूंद बनाकर बगीचे में,
और मुझे एक बच्चा बनाकर एक स्त्री के वक्षःस्थल पर लिटा देगा।"

।।समाप्त।।

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