अंतिम पत्र (कहानी) : इंदिरा पार्थ सारथी
Antim Patra (Tamil Story in Hindi) : Indira Parthasarathy
ओपन लेटर अरुणगिरी बस स्टॉप पर खड़े थे। उनको हाथ-पैर हिलाते देख कृष्णन को लगा कि वे अत्यंत गुस्से में किसी को मानसिक तौर से पत्र लिख रहे होंगे। उनका नाम 'ओपन लेटर अरुणगिरी 'इसलिए पड़ा, क्योंकि उन्होंने अमेरिका के प्रेसीडेंट से लेकर शासकीय कॉरपोरेशन काउंसिलर तक सबको 'ओपन लेटर' लिखने की आदत डाल ली थी।
किसी को इसमें कोई एतराज नहीं था। वे अपने सभी पत्र करीबी मित्रों को पढ़कर अवश्य सुनाते। उनका प्रश्न यह था कि संसार में होनेवाले समस्त कुकर्मों, अत्याचारों तथा अन्याय को चुप रहकर क्यों सहें?
न्यूजर्सी में 'टाट बस्टर' नामक अमेरिकी युवावर्ग ने भारतीयों को जब परेशान करना शुरू किया था, तब उन्होंने अमेरिकी प्रेसीडेंट रेगन को पत्र लिखा। वह पत्र उनके मित्रों के बीच प्रसिद्ध हो गया। रेगन ने उस पत्र को पढ़ा या नही, इस बात का उसमें कोई उल्लेख नहीं है।
उनको क्रोध इस बात का था कि किसी भी भारतीय पत्रिका ने उस पत्र को प्रकाशित नहीं किया था। उनको यह पक्का विश्वास था कि सभी पत्रिकाओं के संपादकों को अमेरिका से पैसे मिलते हैं।
कृष्णन ने अपनी गाड़ी उनके करीब खड़ी की। उन्होंने उस ओर ध्यान ही नहीं दिया।
'हेलो मिस्टर अरुणगिरी, आपको कहाँ जाना है?'
अरुणगिरी कुछ पल उन्हें एकटक देखते रहे, फिर कृष्णन को पहचानते हुए बोले, 'ओह! कृष्णन्, आप कहाँ जा रहे हैं?'
कृष्णन ने कहा, 'मेरी परवाह न करें, आप बताइए कि आपको कहाँ जाना है?'
'रफी मार्ग जा रहा हूँ, 'हिंदू' के ऑफिस में एक पत्र देना है।'
कृष्णन झिझका कि कहीं पढ़कर सुनाने तो नहीं लगेंगे, उनके हाथ में लिफाफा था, जिसमें पत्र रखकर बंद कर दिया गया था। खोलकर नहीं पढ़ा गया, इसलिए कह रहा हूँ।
'इसमें आपने क्या लिखा है?'
'लेटर्स टू दी एडीटर' लिखा है क्या?
'नो...हिंदू को नकल की प्रतिलिपि भेजनेवाला हूँ।' वह चुप रहा। किसको मूल पत्र भेजनेवाले हैं? उसने नहीं पूछा। उन्होंने कार की खिड़की से पीक थूकी।
'देखकर थूकिएगा?'
'देखकर ही थूक रहा हूँ। आपकी कार में थोड़ा भी छींटा नहीं लगेगा।'
'मैं अपनी कार के लिए नहीं कहा। सड़क पर चलनेवाले किसी व्यक्ति पर न पड़ जाए, इसलिए कह रहा हूँ।'
'इस अरुणगिरी की पीक से किसी पर दाग लगा हो, ऐसा इतिहास ही नहीं है। ऑरिजनल किसे भेजनेवाला हूँ, आपने पूछा नहीं। खैर, मैं ही बताता हूँ, प्रधानमंत्री को।'
'आप उनसे क्या अपेक्षा करते हैं?'
'मैंने लिखा है कि पार्लियामेंट में कुत्ते रखिए।'
एक ब्रिटिश प्रधानमंत्री शायद ग्लाडस्टोन नाम था उनका। उन्होंने कहा था कि 'लेट दी स्लीपिंग डोग्स लाइ।' करोलबाग में मेरे घर के पास कुत्तों के भौंकने का शोर रात भर सुनाई देता है। कान थक जाते हैं। पहले एक कुत्ता धीरे से शुरू होता है, फिर धीरे-धीरे कुत्तों का ऑपेरा शुरू हो जाता है। तभी मैंने यह पत्र लिखा है। सुनोगे...?
'नहीं...नहीं, बंद कर दिया है तो खोलने की जरूरत नहीं?'
'नहीं, उसकी प्रतिलिपि है।' वे बैग खोलने के लिए उद्यत हुए तो मैंने उन्हें रोका।
'जरूरत नहीं, आपने बता तो दिया है।'
'ठीक है, आपकी मरजी।' निराशा की रेखाएँ उनके चेहरे पर उभर आई। उन्होंने अपने बैग से एक छोटी डिबिया निकाली। उसमें से पान की गिलौरी मुँह में डाली।
'आपने देखा, करोलबाग में कुत्ते कितना परेशान कर रहे हैं?'
'ऐसा क्यों?'
'आप लोग डिफेंस कॉलोनी में रहनेवाले अमीर वर्ग के लोग हैं। करोलबाग में रहनेवाले हम लोग कुत्तों की तरह जी रहे हैं, कुत्तों के कारण...' इतना कहकर अपनी बात का खुद ही मजा लेते हुए जोर से हँसने लगे।
अरुणगिरी पेशे से वकील थे। वे अकसर सुप्रीम कोर्ट जाया करते थे। कृष्णन को इस बात की जानकारी नहीं थी कि कोई केस उसके पास आता था या नहीं। यदाकदा उनकी पत्नी ने स्वयं ही कहा था कि घर का चूल्हा उसकी अपनी कमाई से जलता है।
उनके एक पंद्रह वर्षीय बेटी थी। अभी स्कूल में पढ़ती थी। पढ़ाई में तेज थी। अपनी बेटी से उन्हें बेहद प्यार था। वे डर गए होंगे कि बेटी को कहीं सड़क का कुत्ता न काट ले, शायद इसी भय से उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र भेजा।
'प्रेमा कैसी है?'
'प्रेमा...? उसे पिछले माह वाह प्रतियोगिता, निबंध प्रतियोगिता आदि में फर्स्ट प्राइज मिला है...क्लास में वही फर्स्ट आती है। पर उसकी तबीयत थोड़ी खराब रहती है।'
'क्या हुआ है तबीयत को?' 'हमेशा सिरदर्द की शिकायत रहती है। आँख के डॉक्टर को दिखा दिया है। कोई खराबी नहीं है और इकतरफा सिरदर्द भी नहीं है।'
'किसी स्पेशलिस्ट को दिखलाइए न?"
स्पेशलिस्ट कहकर वे ठठाकर हँस पड़े। उनके कथन में हास्य-विनोद क्या था, उसे जानने के लिए कृष्णन ने कनखियों से उनकी ओर देखा।
'स्पेशलिस्ट केवल पैसा छीनते हैं।' इन स्पेशलिस्टों के बारे में भी हेल्थ मिनिस्टर को पत्र लिखा है। ये सब फ्रॉड हैं, पैसा लूटनेवाले लुटेरे...'
'सिरदर्द की यों ही उपेक्षा करना उचित नहीं है। इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में मेरे जान-पहचान का डॉक्टर है। उसका नाम है डॉ. अग्रवाल, न्यूरोलोजिस्ट हैं। आप उनसे मिल लीजिए।"
'यह सिरदर्द दिन भर पढ़ने के कारण होता है। अपने आप ठीक हो जाएगा। गाड़ी रोकिए, मुझे यहीं उतरना है।'
'देर लगेगी क्या?' कृष्णन ने पूछा।
'क्यों...?'
'देर नहीं लगेगी तो आपके साथ यूएनआई में एक कप कॉफी पीना चाहूँगा।'
'कह नहीं सकता। कभी-कभार कुछ संपादकों को चिट्ठी पढ़कर सुनाने की भी जरूरत पड़ जाती है। कुछ लोग सुनना पसंद नहीं करते हैं।'
'तो ठीक है, मैं चलता हूँ।'
उनके बारे में सोचने पर अफसोस ही होता है। उनका क्रोध उचित ही है। लेकिन इस कठोर समाज और सरकारी संगठनों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। इसे वे समझ क्यों नहीं पाते? कहीं ऐसा तो नहीं कि सबकुछ समझते हुए भी 'क्रोधी विदूषण' की भाँति वे भी अभिनय कर रहे हैं।
कृष्णन को लगा कि कोशिश करने पर वे अच्छे वकील बन सकते थे। सरकारी शासन विधियाँ उन्हें कंठस्थ थीं। कृष्णन को लगा कि शायद वे कोशिश नहीं कर पाए होंगे। वे झूठ 'नहीं बोल सकते। अधर्म के साथ समझौता नहीं कर सकते। उस दिन शाम को कृष्णन घर गया। उसने सुबह अरुणगिरी से हुई मुलाकात का प्रसंग छेड़ दिया।
'बेचारे पता नहीं ऐसे क्यों हैं? उमा सुबह मुझसे कह रही थी। दस दिन पहले उन्हें चार–पाँच गुंडे मारने घर आ गए थे।' उन्होंने दिल्ली कॉरपोरेशन ऑफिस में हो रहे भ्रष्टाचार के बारे में मंत्री को पत्र लिखा था। मंत्री का भी उसमें कुछ सहयोग होगा क्या पता, उसे मारने आ गए। बड़ी मुश्किल से उन्हें समझाया और बाहर निकाला। इन्हें क्या जरूरत पड़ी थी।'
'क्रोध आना स्वाभाविक ही है।'
'बकवास...देश में अगर सब अच्छे हों और एकाध यदि गलत काम करता हो तो उसे प्रकाश में लाना न्यायसंगत होगा। यहाँ तो पूरा राष्ट्र, पूरा देश ही चोर है।'
'क्या उन्हें इसका पता नहीं? अच्छी तरह पता है, लेकिन अपनी अंतरात्मा के धिक्कार से बचने के लिए ऐसा करते हैं।'
'इनकी अंतरात्मा क्यों धिक्कारती है?'
'अनुचित कार्यों की ओर इंगित न कर पाने के कारण अंतरात्मा उन्हें धिक्कारती है। वे लेखक बनने की बजाय आज तक केवल पत्रिकाओं को पत्र ही लिखते रह गए क्यों?'
'अभी भी उनसे हमारे परिवार को कोई फायदा नहीं है। लेखक होते तो भी यही हाल होता। उमा ने उन्हें फोन किया था, यह तो बताना ही भूल गई। प्रेमा कमजोर होती जा रही है। मेडिकल इंस्टीट्यूट में आपके मित्र डॉ. अग्रवाल हैं न, उनको दिखला दे; ललिता की बात खत्म होने से पहले ही कृष्णन बोला, 'आज सवेरे मैंने अरुणगिरी से इस संदर्भ में बात की थी। उन्होंने मुझे कह दिया कि उन्हें स्पेशलिस्ट पर भरोसा नहीं है।'
'उनको गोली मारो, मैंने उमा से कहा है कि वह शुक्रवार प्रेमा को लेकर यहाँ आ जाए। आप डॉ. अग्रवाल से हमारी एपॉइंटमेंट तय कर दीजिए।'
कृष्णन ने हँसते हुए कहा, 'कहीं ऐसा न हो कि वे मुझे कोसते हुए राष्ट्रपति को एक पत्र लिख डालें।'
ललिता बोली, 'मजाक मत उड़ाइए, आप स्वयं ही कहते हैं कि अरुणगिरी बहुत अच्छे इनसान हैं, लोग यों ही उनकी हँसी उड़ाते हैं। आज आप भी उनका मजाक उड़ा रहे हैं।'
'उसकी आवाज में संवेदना थी।' कृष्णन् ने कहा।
'आइ एम सॉरी।'
उमा और ललिता सहपाठिनी थीं। उमा ने जब कैमिस्ट्री एम.एस.सी. समाप्त कर शोधार्थी के रूप में यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया था तो उसी वक्त उसका विवाह हो गया था। अरुणगिरी उस वक्त किसी औद्योगिक संस्थान में 'लीगल एडवाइजर' थे। उस कंपनी द्वारा किए गए भ्रष्टाचार को नजरअंदाज कर पाने में असमर्थ विवाह के चौथे माह ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। चेन्नई के कोर्ट में वकील की हैसियत से नाम रजिस्टर करा लिया।
सच बोलनेवाला मुवक्किल ही मेरे पास आए, ऐसी शर्त उन्होंने रखी तो उनके पास एक भी व्यक्ति नहीं आया। इस बीच उमा की दिल्ली के एक स्कूल में नौकरी लग गई।
उमा के साथ-साथ वे भी दिल्ली आ गए। जब वे दिल्ली आए, तब प्रेमा उनकी गोद में थी। ललिता और कृष्णन जब दिल्ली पहुंचे तो उमा के घर ही ठहरे थे। उसके बाद ही डिफेंस कॉलोनी में घर था।
ललिता अपनी सहेली का पक्ष लेकर अरुणगिरी से जब-तब लड़ती रहती। ललिता की बातें अरुणगिरी चुपचाप सुनता रहता। उमा अपने पति पर कभी कुरद्ध नहीं होती। उनके साथ बच्चों-सा व्यवहार करती। ललिता ने उसे समझाया, 'तुम अपने पति के साथ सख्ती बरतो, तभी उन्हें जिम्मेदारी समझ आएगी।'
'नो...यू...आर मिस्टेकन। वे अपने को कभी नहीं बदल सकते। उन्हें ऐसे ही रहने दो। घर-संसार का सामना मैं कर लूँगी। लेट हिम रिमेन अनसपोइल्ड।' उसने जवाब दिया।
अरुणगिरी द्वारा लिखे गए पत्रों में से एक भी नहीं छपा, इसका उन्हें तनिक भी रंज न था, कृष्णन ने सोचा कि पत्र लिखने और उन्हें मित्रों के बीच पढ़कर सुना देने भर से उनकी जिम्मेदारी खत्म हो गई है, शायद वे कुछ ऐसा ही सोचते थे। पत्रिकाओं में उनका एक भी पत्र नहीं छपा था, लेकिन चार पृष्ठों का पत्र एडिट होकर छपा था। उन्होंने क्रुद्ध होकर उन्हें खूब कोसा और एक जबरदस्त पत्र लिखा। उसके बाद वे हमेशा एक पाद टिप्पणी के साथ पत्र भेजते-
'यदि पूरा पत्र छापना हो तो छापें, अन्यथा नहीं।'
'अन्यथा नहीं' वाली आंशिक उक्ति पर सभी पत्रिकाओं के संपादकों की नजर पड़ी होगी।
अगले दिन जब कृष्णन कार्यालय में कोई जरूरी काम कर रहा था, तब इंटरकॉम बजा।
'एक्सक्यूज मी सर, कोई सज्जन आपसे तुरंत मिलना चाहते हैं।'
'कौन हैं?'
'मिस्टर अरुणगिरी।'
अरुणगिरी तो आज तक उसके कार्यालय में कभी नहीं आए थे। आज कौन सा जरूरी काम आ पड़ा है?
'ठीक है, भेज दो।'
अरुणगिरी भीतर आए।
'बैठिए, क्या बात है?'
उन्होंने अपना झोला खोला और पान मुँह में डाला। उनके संयत व्यवहार से उन्हें चिढ़ होने लगी।
'मेरे मन में एक नया विचार कौंधा है। मैं आपसे कहने तुरंत चला आया।'
'कैसा विचार?'
'आज तक मैंने जितने पत्र लिखे हैं, उनकी कुल संख्या दस हजार होगी। ज्यादा भी हो सकती है।' इसलिए वह थोड़ा मुसकराए।
'इसलिए क्या...?' आगे बोलिए।
'उसको पुस्तकाकार में निकालें तो कैसा रहेगा?'
कृष्णन चौंका। थोड़ी देर बाद बोला, 'पुस्तक के रूप में?'
'जी हाँ, तीन खंडों में निकलेगा। यही मेरी कृति भी बन जाएगी। गांधीजी का दिया शीर्षक 'सत्य की खोज' कैसा रहेगा?'
'तीन खंडों का मतलब कितने पृष्ठ...? कितनी प्रतियाँ, खर्चे के बारे में सोचा है?'
'उसके बारे में नहीं सोचा। जैसे ही सूझा वैसे ही आपके पास चला आया।' प्रेमा कैसी है? उमा ने कहा था कि वह उसे साथ लेकर आएगी। शुक्रवार डॉ. अग्रवाल के साथ अपॉइंटमेंट फिक्स करनेवाला हूँ।'
'मैं केवल अपने बारे में सोचता रहा और बच्ची की तरफ ध्यान ही नहीं दे पाया। बताइए, मेरी बच्ची को क्या हुआ है? उमा बहुत प्रैक्टिकल है। अगर वह डॉक्टर को दिखाना चाहती है तो जरूर कोई सीरियस बात होगी।' अरुणगिरी ने चिंतित स्वर में कहा।
'लुक हियर मिस्टर अरुणगिरी, आप मुझसे कोई खास बात कहने आए थे। वह भी कोई बात तो थी नहीं।'
'एक क्रेजी आइडिया था बस। अब टॉपिक बदल गया है। आपकी बेटी की तबीयत नथिंग इज रीना विथ हर। इस वक्त मुझे कुछ जरूरी काम करने हैं। फिर मिलें तो कैसा रहे? शाम को घर आइए, फिर चर्चा करेंगे, कृष्णन को लगा कि उसने रुखाई से ही बातें की थीं।
वे कुछ देर तक कृष्णन की ओर देखते रहे, फिर खड़े होकर बोले, 'आई एम सॉरी मि. कृष्णन! मैं दूसरों को भी अपने जैसा बेकार समझकर तंग करता हूँ। आई एम सॉरी, हो सके तो शाम को मिलूँगा, वे चले गए। कृष्णन को लगा कि इतनी रुखाई से शायद उनसे बोलना नहीं चाहिए था। परंतु उसे अपने काम की व्यस्तता के चलते बोलना पड़ा।
दोपहर तीन बजे उसने अपने कनिष्ठ अधिकारियों को अपने कक्ष में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए बुलाया था। जैसे ही लोग भीतर आए, इंटरकॉम बज उठा।
'लुक हेयर करुणा, जो भी हो कह दो, बाद में बात करूँगा।'
'आपकी बीवी हैं सर।'
'ओ के टेल हर।'
उसने फोन काट दिया। एक घंटे तक मीटिंग हुई। सबके चले जाने के उपरांत वह कुरसी पर आराम से बैठ गया। वह बहुत ज्यादा थक गया था। उसे याद आया कि ललिता ने उसे फोन किया था। घर फोन लगाया। घंटी बजती रही; फोन रखकर सोचने लगा। कहाँ गई होगी?
फोन क्यों किया होगा? दुबारा फोन लगाया। कोई जवाब नहीं आया। इसका मतलब हुआ कि वह घर पर नहीं है। कहाँ गई होगी? बताने के लिए ही शायद फोन किया हो? उसी समय अरुणा भीतर आई।
'मिसेज कृष्णन ने आपको सफदरजंग अस्पताल में आने को कहा है?' कृष्णन चौंका।
'क्यों?'
उन्होंने सूचना देने को कहा है कि प्रेमा को अस्पताल में एडमिट किया है, कृष्णन उठ खड़ा हुआ। शुक्रवार में अभी दो दिन बाकी हैं। इस लड़की को इस बीच क्या हो गया है।
'हू इज प्रेमा सर?' अरुणा ने पूछा।
'माइ फ्रेंड्स डॉटर।'
जब वह कमरे से बाहर निकला तो फोन की घंटी बजी। अरुणा ने जल्दी से फोन का चोगा उठाया।
'सर...आपका...'
'यस कृष्णन...क्या? प्रेमा मर गई?'
'माइ गॉड...तुम क्या कह रही हो?
ओके, आइ एम कमिंग!'
जब तक वह सफदरजंग अस्पताल के इंटेंसिव केयर यूनिट में पहुँचा, तब तक एक घंटा हो चुका था। रास्ते भर में ट्रैफिक जाम। इंटेंसिव केयर यूनिट में कोई नहीं था। अस्पताल के निचले बरामदे के एक कमरे में ललिता, उमा, अरुणगिरी सभी मौजूद थे। उनके सामने स्ट्रेचर पर प्रेमा का निर्जीव शरीर था। कृष्णन ने पूछा,
'यह क्या है?'
'बास्टर्डस...' उमा कुपित हो बोली। कृष्णन आश्चर्यचकित रह गया। उसने उसे इतना क्रुद्ध होते कभी नहीं देखा था।
'वट हेपंड?' 'प्रेमा स्कूल में ही बेहोश हो गई थी। स्कूल के डॉक्टर ने उमा को फोन किया और उसे यहाँ ले आए। यहाँ लाकर उसे इंटेंसिव केयर यूनिट में रखा गया। पर कुछ नहीं किया। बस वैसे ही पड़ा रहने दिया। जब उमा और अरुणगिरी ने वहाँ जाकर पूछताछ की तो पता चला कि उमा का एमरजेंसी ऑपरेशन करने जो डॉक्टर आया था, उसे पार्लियामेंट से बुलावा आ गया। वहाँ एक मंत्री के दिल में दर्द सा उठा। डॉक्टर प्रेमा को वैसा ही छोड़ पार्लियामेंट की ओर दौड़ा। कोई दूसरा डॉक्टर भी नहीं आया, शीयर नेगलिजियंस के कारण लड़की मर गई।' ललिता बोली।
उस समय वहाँ मौजूद डॉक्टर ने कहा, 'यह हमारी नेगलिजियंस नहीं है। काजीनिटल कॉरोनरी प्रॉब्लम के होते आप लोगों ने ध्यान नहीं दिया। यह आपकी गलती है।'
कृष्णन ने कहा, 'एमरजेंसी ऑपरेशन करने आए डॉक्टर का मंत्री को देखने पार्लियामेंट में जाना क्या गुनाह नहीं है?'
'जब रोगी यहाँ लाया गया था, वह मृत था।' डॉक्टर ने बताया।
कृष्णन ने कहा, 'यह सरासर झूठ है।'
'स्कूल के डॉक्टर ने कहा था कि वह जब अस्पताल लाई गई थी, तब जीवित थी। डॉक्टर एमरजेंसी ऑपरेशन करने आया था। फोन आया तो तुरंत चला गया।'
अरुणगिरी बुत बना खड़ा था। कृष्णन ने उसके कंधे पर हाथ रखा।
वे बुदबुदाए, 'मैं प्रधानमंत्री को और पत्रिकाओं को अंतिम पत्र लिखूँगा।'
उमा ने उन्हें ऐसे देखा, जैसे निरीह बालक को देख रही हो।