अंतिम अस्त्र : आनंद प्रकाश जैन

Antim Astra : Anand Prakash Jain

महानंद के वंश का समूल नाश कर, धुन के धुनी, गूढ़ विद्या के आदिगुरु, आचार्य विष्णुगुप्त चाणक्य ने अपने परम शिष्य चंद्रगुप्त मौर्य को मगध के राज-सिंहासन पर प्रतिष्ठित कर दिया था। एक विशाल राजसत्ता को मानो सहसा ही किसी अंधड़ ने उखाड़कर शून्य में तिरोहित कर दिया था।

अब ऊपर से सबकुछ शांत दिखाई पड़ता था । अपने सुदीर्घ अध्ययन तथा अनुभवों को निचोड़कर आचार्य ने उस महान् 'अर्थशास्त्र' की रचना लगभग संपन्न कर डाली थी, जो मौर्य साम्राज्य की दृढ़ता व स्थायित्व की आधारशिला बनने वाली थी। किंतु कार्य रूप में उसकी व्यापक प्रतिष्ठा होनी शेष थी । कंटक अगणित थे। शोधन समय चाहता था। समय के हाथी पर अनेक दुर्दमनीय शत्रुओं के अंकुश थे। वे अंकुश कहाँ-कहाँ, किस-किस रूप में कार्यरत थे, यह जानना जरूरी था। उसमें सबसे बड़ा अंकुश था, प्रधानमंत्री 'राक्षस'।

मौर्य साम्राज्य की बलात् स्थापना की लपेट में आकर अनेक संघ- राज्यों का अस्तित्व विलीन हो चुका था और अनेक उसमें लय हो चुके थे। किंतु जो शेष थे, वे भी पर्याप्त प्रबल थे-जैसे यौधेय, भद्र, मालव, शूद्रक, शिवि, आर्जुनायन आदि। मगध का नया मौर्य राजतंत्र उनसे घिरा हुआ था- - और उनमें से अनेक पर महामंत्री राक्षस का व्यक्तिगत प्रभाव था ।

राक्षस कौटिल्य की तरह ही धुन का पक्का था। अपने दूतों के द्वारा उसने कौटिल्य को ललकारा था कि वह उसे पकड़कर कारागार में डाल दे, या उसका वध करा दे। उसका संदेश पाकर ऑयल केवल मुसकरा दिए थे।

राक्षस को व्यक्तिगत हानि पहुँचाने का अर्थ था-सदा के लिए कुछ प्रबल संघ राज्यों को अपना शत्रु बना लेना। आचार्य उन राज्यों से स्थायी मैत्री संधि करने के पक्ष में थे। उन्होंने दूतों से कहा था - " महामना राक्षस जिस प्रकार मगध साम्राज्य के महामंत्री थे, वैसे ही अब भी हैं। अभी वह अपना आसन खाली ही रखना चाहते हैं, तो वह खाली ही रहेगा। वह तो हमारे पूर्व जन्म के मित्र हैं। उनसे हम बैरियों जैसा व्यवहार कैसे कर सकते हैं। "

इन पूर्व-जन्म के मित्र महोदय की ओर से अब तक सम्राट् चंद्रगुप्त के प्राणों पर अनेक गुप्त आघात हो चुके थे। आचार्य की सतत सतर्कता से वे निष्फल किए जा चुके थे। राक्षस पाटलिपुत्र के राजमार्ग तथा वीथिकाओं में छुट्टा घूमता था । उसके अनेक शरीर-रक्षक केवल दिखाने के लिए उसके साथ रहते थे। राजाज्ञा के अनुसार किसी को उसे अकेला पाकर भी छूने की हिम्मत नहीं थी, और राक्षस को इसका ज्ञान था। रात्रि के समय स्वयं मौर्य गुप्तचरों को राक्षस की रक्षा में जहाँ-तहाँ गुप्त रूप से रखना पड़ता था। राक्षस यह भी जानता था और ठहाके लगाता था ।

उन ठहाकों की आवाज जब-जब आचार्य तक पहुँचती थी, वे केवल मुसकराकर रह जाते थे । राजभवनों और राजसभा में जहाँ-तहाँ चंद्रगुप्त का आवास निवास, हलन चलन रहता था, वहाँ-वहाँ उसकी व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए, कड़े तथा स्पष्ट निर्देशों के अंतर्गत भारी सुरक्षा-व्यवस्था थी। यह भी आवश्यक था कि वह व्यवस्था इतनी स्पष्ट दिखाई न पड़े कि लोगों को लगे कि नया राजा दिन-रात प्राण जाने के डर से त्रस्त रहता है! इस व्यवस्था के अनेक अंगों का पता स्वयं चंद्रगुप्त को भी नहीं था । उसे सम्राटों की गरिमा के अनुरूप रहना था और उसी तरह वह रहता था ।

दूसरी ओर राजा को यह भी आभास था कि राक्षस के सारे तीर अभी समाप्त नहीं हुए थे। उसके ठहाके बताते थे कि उसका कोई अंतिम अस्त्र अभी शेष है। विष दान ऐसा ही एक प्राणहारी अस्त्र होता है, इसका निरूपण आचार्य ने स्वयं अपने 'अर्थशास्त्र' में किया था। उन्होंने लिखा था-

"स्नान - उबटन के बाद, सुंदर वस्त्राभूषणों से अलंकृत होकर वेश्याएँ राजा के पास जाएँ...। और भली प्रकार जाँच कर लें कि उन्होंने कहीं विष तो नहीं छिपा रखा है।" स्नान के बाद उन वेश्याओं को पता चलता था कि उनका कोई भी पुराना आभूषण या वस्त्र पहनने के लिए उपलब्ध नहीं है। उन्हें सर्वथा नए और मूल्यवान वस्त्रालंकार मिलते थे, जिनके एकदम विष रहित होने की जाँच-पड़ताल पहले से ही कर ली जाती थी ।

ब्रह्म मुहूर्त में उठ, स्नान-ध्यान करके, आचार्य कौटिल्य ने अपनी विस्तीर्ण कुटिया के एक कक्ष में एक आसन पर आसीन होकर 'अर्थशास्त्र' की रचना में थोड़ा और संवर्धन किया। फिर मन उचाट हो गया। बेठन लपेटकर वे खड़ाऊँ पहने बाहर वातायन में आ गए। कुटीर के बाहर दूर तक चले गए। वीथिका के मोड़ पर खड़े सतर्क गुप्तचर संतरी ने भद्रायण की तरफ देखा । वह तुरंत दौड़ा आया । करबद्ध प्रणाम कर, विनीत स्वर में उसने पूछा, "आज्ञा दें, गुरुवर!"

"वत्स, " आचार्य ने कहा, "हमने रात्रि के आठों प्रहर तुम्हें पूर्ण विश्राम की अनुमति प्रदान की थी, क्योंकि तुम लंबी यात्रा करके वैशाली से यहाँ पहुँचे थे। फिर तुम ब्रह्म मुहूर्त में ही यहाँ उपस्थित हुए, क्यों भला?"

भद्रायण थोड़ा सकपका गया। अटकते हुए बोला, "रात भर नींद नहीं आई, गुरुवर! मन ने कहा कि आचार्य श्री के निकट ही बने रहने से शांति मिलेगी।"

“यह अशांति क्यों?” आश्चर्य से भौंहें ऊँची उठाते हुए आचार्य ने पूछा, "तुमने तो अत्यंत बुद्धिमत्ता से अपना कर्तव्य पूरा किया। विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध एक विशाल संघ में संघटित होने का संदेश लेकर तुम लिच्छवियों की राजधानी गए । उन्होंने सम्राट् की भेजी हुई भेंट- सामग्री सहर्ष स्वीकार की, इसमें अवश्य तुम्हारी चतुराई तथा गूढ़ मंत्रणा ने अपना काम किया होगा। अन्यथा लिच्छवियों जैसा निर्मल और दंभी गणराज्य भारत में और कौन सा है ?"

भद्रायण ने फिर अलख्य रूप से पैंतरा बदला। मन की बात आचार्य के तीक्ष्ण नेत्रों से कब तक छिपा सकेगा, सहसा ही सूझ नहीं पड़ा, बोला, "गुरुदेव, लिच्छवियों के गणपति ने प्रसन्नतापूर्वक, बिना किसी अवरोध के सब शर्तें चुपचाप स्वीकार कर लीं। यही नहीं, अपनी मित्रता का विश्वास दिलाने के लिए भारी धनधान्य तथा ग्यारह पेशलरूपा दासियों की भेंट सम्राट् के लिए भेजी, इससे आशंका उत्पन्न होना स्वाभाविक है, गुरुदेव ! "

"सदा सतर्क रहना एक गूढ़ पुरुष का उत्तम लक्षण है, चिरंजीव । वैशाली से पाटलिपुत्र के सुदीर्घ मार्ग में भी क्या तुम्हें इस आशंका के निवारण का अवसर नहीं मिला?"

“भेंट सुरक्षित रूप से पाटलिपुत्र तक पहुँचाने के लिए आए लिच्छवि सैनिकों से बातचीत करने पर ऐसा कोई संदेह - सूत्र हाथ नहीं लगा, गुरुदेव । लगा कि आशंका ही निर्मूल थी। किंतु मुझे उन दासियों की ओर से पूर्ण संतोष प्राप्त नहीं हुआ। उन सबने पूर्णतः मौन धारण कर रखा था।" संतरी भद्रायण ने स्वर में फिर आशंका का पुट भरते हुए फिर आवेदन किया।

अब आचार्य मुसकराए, बोले, "उनके लिए यही शुभ था, वत्स! वे यह कैसे जान सकती थीं कि मौर्य दूत कामाजित होते हैं?"

भद्रायण अंदर-ही-अंदर कट गया। कटोक्ति सहज थी।

"गुरुदेव, मुझे वे आवश्यकता से अधिक दंभी प्रतीत हुई।"

"उनका दंभ स्वाभाविक भी हो सकता है, वत्स । लिच्छवियों में क्रीत दासत्व की प्रथा नहीं है। वहाँ निम्न वर्ग के समर्थ स्त्री-पुरुष धन-मान अर्जित करने के लिए ऐच्छिक दासत्व अपनाते हैं। सौंदर्य स्वयं दंभ का सृजन करता है। हमें आशा है, लिछिवियों ने सुंदर स्त्रियाँ भेजी होंगी। "

"क्षमा करें, गुरुदेव, उनमें कम-से-कम एक अवश्य ऐसी है, जिस पर से आँखें नहीं हटतीं । आवश्यक परीक्षाओं तथा स्नान- उबटन के बाद वह भी अपनी दसों साथिनों सहित सम्राट् का दर्शन-लाभ करेगी। संभव है, आज की रात्रि में उसे ही सम्मान प्राप्त हो जाए, जिसके लिए देश-विदेश की सुंदरतम पेशल रूपाएँ अपने प्राण तक न्योछावर करने को तैयार हो जाएँगी।" भद्रायण ने इस प्रकार यह सब कहा, मानो यह संसार उसकी इच्छा के विपरीत चलने को उद्यत हो गया हो !

हास्य का भाव तिरोहित कर, एक क्षण आचार्य ने दीवार पर चुपचाप एक बड़े से रंग-बिरंगे कीट की ओर बढ़ती छिपकली को देखा। फिर कहा, "वत्स, परीक्षण स्नान उबटन के बाद सम्राट् से पहले हम उन दासियों का निरीक्षण करना चाहेंगे, इस आशय की सूचना वृद्धा सुमंगला तक पहुचाओ!'

"जो आज्ञा, गुरुदेव!" भद्रायण ने प्रसन्नता के साथ कहा, और सिर नवाकर पलटते ही तीर हो गया।

राजमहल में प्रवेश का सौभाग्य प्राप्त करनेवाली गर्वित पेशल-रूपाओं तथा रानियों के कक्ष - आवास इस प्रकार एक-दूसरे से अलग-अलग बने हुए थे कि उनका परस्पर संपर्क संभव नहीं था। सिवा कुछ प्रमुख परीक्षक व स्थापक (स्नान - उबटन करानेवाली) दासियों के, जिन पर प्रमुख परिचारिका सुमंगला का प्रभुत्व था, उनकी अपनी दासियाँ भी अलग-अलग थीं। फिर भी सौंदर्य के गर्व से मंडित, नवागंतुक लिच्छवि-कन्याओं का समाचार किस राह से संपूर्ण रनिवास में फैल गया था, इसका सूत्र खोज निकालना किसी भी मौर्य गुप्तचर के लिए संभव नहीं था। नई अगरबत्तियों के धुएँ की तरह एक होंठ- कटी ईशी सर्वत्र व्याप्त हो चुके थी।

सभी को पता लग चुका था कि सभी लिच्छवि-पेशल- रूपाएँ सर्वथा निर्दोष तथा निर्विष पाई गई थीं, किंतु फिर भी, सबसे पहले वे आचार्य कौटिल्य के सम्मुख प्रस्तुत होनेवाली थीं।

महाकोसल की कन्या, रूप और यौवन के भार से दबी रानी मातुंगी ने परिहास किया- " कहीं ऐसा न हो कि उनमें से कोई एकाध स्वयं महातपस्वी आचार्य कौटिल्य की ही तपस्या भंग कर डाले!"

उस समय सब सखियाँ खिलखिलाकर हँस पड़ी थीं। किंतु संध्या तक परिहास सत्य में परिवर्तित हो गया। दूर-दूर तक फैले रनिवास की हँसी से प्रदीप्त कन्याओं में एक ही चर्चा थी- " आज एक लिच्छवि- पेशलरूपा उर्वशी ने मगध के विश्वामित्र की तपस्या भंग कर दी है। आचार्य कौटिल्य का सदा मौन रहनेवाला शांत कुटीर आज लिच्छवि-नृत्यांगनाओं के नूपुरों से झंकृत हो रहा है!"

और जो शेष रह गया था, वह भी रात्रि का प्रथम प्रहर समाप्त होते न होते अशेष हो गया; सुना गया कि ग्यारह लिच्छवि-पेशल-रूपाओं में से वह एक, जिस पर पुरुष की दृष्टि नहीं टिकती थी, आचार्य के एकांत कक्ष में रह गई। शेष दस रूपांगनाएँ लौट आई, और वे आज की रात सम्राट् की चरण- सेवा में प्रस्तुत होंगी।

किंतु रनिवास के सहज संचालन के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य के दुर्गम राजबोध की झुर्रियाँ जिन वृद्धा परिचारिकाओं के मुखों पर परिलक्षित होती थीं, उनकी आँखों में भावी अमंगल की छाया भी देखी जा सकती थी। उनमें एक प्रश्न था—

"क्या गुरु चरणों में अनन्य श्रद्धा भाव रखनेवाले, महाराज चंद्रगुप्त इसे मात्र गुरु-दक्षिणा मानकर संतोष कर लेंगे?"

इस प्रश्न का उत्तर निश्चित रूप से 'हाँ' में होता, यदि आचार्य के सम्मुख अपने कौशल का प्रदर्शन कर लौटी हुई दस लिच्छवि रूपांगनाएँ आपस में लुका-छिपी दृष्टियों का आदान-प्रदान कर, होंठों की पँखुडियों में दबी-ढकी मुसकानें न छलका रही होतीं।

मुसकानों पर रोक लगाना भी क्या कभी संभव हो पाया है?

निर्धारित रात्रिचर्या के अनुसार, रात के आठ भागों में से पहले भाग में, जब महाराज चंद्रगुप्त अपने परम विश्वस्त गुप्तचरों से मिले, तब वे बहुत प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। भेंट के अंत में भद्रायण ही रह गया था। उसने करबद्ध निवेदन किया- "वैशाली से भेंट स्वरूप आई दस लिच्छवि- पेशलरूपा दासियाँ आज महाराज के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त करेंगी। वे सब ओर से निर्दोष पाई गई हैं। समस्त वस्त्राभरण नवीन हैं। फिर भी आचार्य ने कहलवाया है कि महाराज विशेष रूप से सतर्क रहें।"

महाराज चंद्रगुप्त हँस पड़े; बोले, "हे भद्रायण! लगता है, हमारी व्यक्तिगत सुरक्षा की चिंता में आचार्यश्री न स्वयं सोते, न तुम लोगों को विश्राम करने देते। ठीक है, हम उनके आदेश का पालन करेंगे। किंतु हमने तो सुना था कि नवागंतुक लिच्छवि- पेशलरूपाओं की संख्या ग्यारह थी । एक कहाँ लोप हो गई, रे अगोपी?"

भद्रायण के भाग्य में मानो आज सकपकाना ही लिखा था। संकोच के साथ बोला, “गुरुवर, उसकी ओर से पूर्ण आश्वस्त नहीं हैं, महाराज। वे अभी उसकी और परीक्षा लेंगे, तभी उन्हें महाराज की सेवा में भेजने, न भेजने के संबंध में निर्णय लेंगे।"

"इन परीक्षाओं के तो हम भी पर्याप्त अभ्यस्त हो चले हैं रे! फिर इतनी कठोर दिनचर्या व रात्रिचर्या हमारे लिए आचार्यश्री ने निर्धारित की है कि रूप और यौवन का सारा आकर्षण ही लुप्त हो गया। जो भी हो, मुझे तो तेरे चेहरे का रंग भी उड़ा उड़ा लग रहा है। तू जा, आज विश्राम कर। "

भद्रायण नतमस्तक चला गया। गुप्तचरों में वही एक ऐसा था, जिससे सम्राट् कभी-कभी परिहास कर बैठते थे। उसे कितना आहलाद होता था इससे ! महाराज आज अपने आपको सचमुच थका-थका अनुभव कर रहे थे। यों भी, नारी सौंदर्य के प्रति जो उनकी आरंभिक अभिरुचि थी, उसमें एक विजिगुशु - आत्मावलंबी - सम्राट् की नियमित नियंत्रित वृत्ति के कारण, काफी कुछ शिथिलता आ गई थी। भेंट में भेजी श्रेष्ठ सुंदरियों पर सम्राट् दृष्टिपात भी न करें, इसमें नया नया बना वैशाली गणतंत्र अपना अपमान भी अनुभव कर सकता था।

इसीलिए सम्राट् के शयनकक्ष से सटे हुए रंगभवन की ओर से जब नूपुरों की झंकार के साथ, एक नए प्रकार का लुभावना संगीत उनके कानों में पहुँचा, और साथ ही उनकी प्रमुख अंगरक्षिका ने शयनकक्ष में प्रवेश कर उन्हें रंगभवन में चलकर, प्रतीक्षा में आतुर लिच्छवि-पेशलरूपाओं को भेंट देने की प्रार्थना की, उन्हें मानो बलात् उठना पड़ा।

मंच पर नृत्य की विभिन्न मनोहारी मुद्राओं में, विभिन्न ऊँचे-नीचे स्थानों पर, मानो स्वर्ग की दस अप्सराएँ स्मित-मुख खड़ी थीं। सम्राट् ने उनकी छवि निहारी, और उन्होंने एक साथ करबद्ध नमस्कार किया। इसके बाद शास्त्रीय नृत्य की जो गहराइयाँ उस रात उस रंगभवन के विस्तीर्ण मंच पर उजागर हुई। उनमें उतरकर सम्राट् मंत्रमुग्ध से बैठे ही रह गए। वह मंत्र - लीला तब टूटी, जब अनेक मधुर नारी- कंठों से झंकृत हास्य स्वरों ने धृष्टता का परिधान पहना। कुछ बिलबिलाते स्वरों में आदान-प्रदान हुआ।

"अद्भुत ! नृत्य कला का ऐसा प्रदर्शन हमें आज तक देखने को नहीं मिला। " हार्दिक उद्गार प्रकट करते हुए सम्राट् चंद्रगुप्त ने कहा ।

फिर वही सम्मिलित मुक्त मधुर हास्य के स्वर, जिनमें स्पष्ट रूप से उपहास था तथा एक-दूसरे की ओर चोरी से फेंकी जानेवाली अर्थपूर्ण दृष्टियाँ -

"तुम लोग कुछ कहना चाहती हो, हम तुम्हें अमूल्य पुरस्कार देंगे। किंतु यदि तुम कुछ विशेष पुरस्कार...!"

उस पर भी जब परिहास का वही खिलखिलाता स्वर मिला; तो सम्राट् की भौंहों पर बल पड़े। उन्होंने चकित भाव से अपनी प्रधान अंगरक्षिका की ओर देखा ।

“भैरवी, क्या ये कन्याएँ, मागधी भाषा नहीं समझतीं?'

“राजराजेश्वर!” भैरवी ने संकुचित स्वर में कहा, "ये विदेशी रमणियाँ धृष्ट हैं और दुष्ट भी । ये कह रही थीं कि जिस सेना का सेनापति नहीं रहता, वह अंधी सेना कहलाती है। मगध सम्राट् का कला मानस जब वैशाली की नायिका रहित नृत्य सेना से ही पराभूत हो गए हैं, तो नायिका के नेतृत्व में होने वाले कला-प्रदर्शन से तो उनके हृदय की धड़कन ही बंद हो जाती। इसलिए अच्छा ही हुआ कि उनकी नायिका को मगध के राजगुरु ने अपने उपभोग के लिए रख छोड़ा है। क्षमा करें, अन्नदाता, यह इन दुष्टाओं का ही कथन है।"

सम्राट् चंद्रगुप्त ने धीर-गंभीर दृष्टि से एक बार उन सभी 'दुष्टाओं' की भाव-भंगिमा देखी। वे सभी अब तक गंभीरता धारण कर चुकी थीं और नतमस्तक थीं।

“इन लोगों को उपयुक्त पुरस्कारों से सम्मानित किया जाए और अतिथिगृह में रखा जाए!” सम्राट् ने भैरवी को आज्ञा दी, और उत्तरीय का छोर कंधे पर डालकर, वे चुस्त कदमों से अपने शयन कक्ष की ओर प्रस्थान कर गए।

श्रीनिवास का अतिथिगृह प्रसिद्ध था। चारों ओर से रंग-बिरंगे सुवासित पुष्पों की वाटिका तथा उसके बाहर ऊँची चारदीवारी से घिरा, जिसमें केवल एक भारी द्वार था । सब प्रकार की राजसी सुविधाएँ, किंतु द्वार केवल राजाज्ञा से खुलता था। रनिवास की कोई रूपगर्विता उसमें जाना तक पसंद नहीं करती थी। उसका मुख्य द्वार प्रायः किसी को बाहर लाने के लिए नहीं खुलता था। उसके अंदर की ध्वनियाँ तक बाहर नहीं आती थीं।

राजाज्ञा सुनकर ही भैरवी सिहर उठी।

रात्रि के सातवें चरण में जब प्रमुख गुप्तचर नियमित प्रावधान के अनुसार, मंत्रणा गृह में एकत्र हुए, भद्रायण फिर उपस्थित था। भवन सेनापति सेल्यूकस नाइकेटर की सैनिक गतिविधियों की सूचनाएँ अधिक थीं। अंत में भद्रायण फिर सम्राट् के साथ एकांत में रह गया।

"तुम नहीं सोए न?" सम्राट् ने गंभीर मुद्रा में प्रश्न किया ।

"सो तो लगता है, स्वयं महाराज भी नहीं सोए, " भद्रायण ने भी उतने ही गंभीर-भाव से कहा, "किंतु महाराज, मैं पुरस्कार के योग्य समाचार लाया हूँ।”

"पुरस्कार के योग्य समाचार होगा तो अवश्य मिलेगा। " चंद्रगुप्त ने कहा ।

"आज मैंने स्वप्न में एक ऐसी रूप-राशि के दर्शन किए, महाराज, जिसकी समता में कला - मूर्तियाँ भी खंडित लगने लगती हैं। "

"सपना जागते हुए देखा है?" महाराज ने तीव्र दृष्टि से मुँह लगे गुप्तचर को देखा ।

भद्रायण ने पास ही रखा एक चौकोर बैठन उठाया । वस्त्र अलग करते ही मानो एक संपूर्ण नारी की देहयष्टि, आँखों की नीली पुतलियों से मुसकराहट छलकाती बातें करने लगी।

सम्राट् चंद्रगुप्त ने चकित भाव से देर तक उस कला - चित्र का निरीक्षण किया। फिर मानो जागते से बोले, "यह काल्पनिक है। पुरस्कार तुम्हें नहीं, चित्रकार को मिलेगा।"

“महाराज, चित्रकार कायर है। युद्ध के भय से भाग गया है। मैं ही रह गया हूँ।"

"युद्ध का भय! कहाँ हो रहा है युद्ध ? इस समय के मौर्य साम्राज्य में सर्वत्र शांति है।" महाराज ने कहा।

"वह अब रहनेवाली नहीं है, महाराज। यह चित्र काल्पनिक नहीं, यथार्थ की प्रकृति है । यह यवन सेनापति सेल्यूकस नाइकेटर की अविवाहित कन्या है।" भद्रायण ने आँखें चमकाई ।

"यदि इसके साथ महाराज का परिणय सूत्र बँध जाए तो मौर्य साम्राज्य उत्तर-पूर्वी भारत की ओर से दीर्घकाल तक सुरक्षित रह सकता है। किंतु युद्ध अनिवार्य होगा, प्रभु! "

उसी एक क्षण में चंद्रगुप्त मौर्य ने युद्ध का निश्चय कर लिया। प्रकट में वे बोले, "तुझे क्या पुरस्कार चाहिए, रे चक्री?"

आदत के अनुसार भद्रायण चकराया, बोला, "गुरुवर ने जिस लिच्छवि कला नेत्री को परीक्षा के लिए रख छोड़ा है, वह अत्यधिक दंभी है; महाराज के रनिवास की शोभा बढ़ाने योग्य नहीं है।"

चंद्रगुप्त के मन को झटका लगा। विद्रोह और अपार गुरुभक्ति के बीच एक अलक्ष्य विद्युत धारा उसके शरीर में दौड़ गई।

"आचार्य श्री ने उसे हमारे दर्शनार्थ भी नहीं आने दिया, रे भद्र! तो फिर वह आचार्य श्री की ही संपत्ति रहे, हमें कोई आपत्ति नहीं होगी। हम उनके आज्ञाकारी हैं, वे हमारे अनुगत थोड़े ही हैं! " चंद्रगुप्त ने दृढ़ स्वर में भी हताशा के भाव से कहा।

क्षण भर के लिए भद्रायण भी सहसा दिग्मूढ़ रह गया। वह भी मन-ही-मन सिहर उठा। कारण भैरवी के कारण से सर्वथा भिन्न था। कभी आचार्य कौटिल्य तथा सम्राट् चंद्रगुप्त के बीच मानसिक तनाव उत्पन्न हो सकता है, यह संभावना ही सिहरन पैदा करनेवाली थी।

"आप कल भी गुरुवर से नहीं मिल पाए थे, प्रभु, " उसने कहा, "आज इस रात्रि के अगले अंतिम चरण में क्या उनसे भेंट करने नहीं चलेंगे?" उसने नतमस्तक होकर पूछा ।

"क्यों नहीं?" यवनों के विरुद्ध युद्ध-संचालन की पूरी योजना तो उन्हें ही बनानी होगी - चलो ! "

धुरंधर अंग रक्षिकाओं की पंक्ति के संरक्षण में, प्रासाद के अंतिम छोर पर स्थित आचार्य कौटिल्य की विस्तीर्ण कुटिया में उनके आगमन का समाचार पहुँच चुका था।

अंग- रक्षिकाएँ शिविर के बाहर ही रुक गई।

आचार्य कौटिल्य अपनी पीठिका पर आसीन थे। उन्हें प्रणाम करते समय सम्राट् तथा सभी भद्रायण ने एक विचित्र दृश्य देखा । सर्वथा अलौकिक सौंदर्य की स्वामिनी, एक नारी मूर्ति, चित्रलिखित-सी, एक अर्निवर्चनीय दर्प के भाव से गरदन मोड़े, उद्दंड दृष्टि से आचार्य को निरख रही थी।

आशीर्वाद देते हुए आचार्य कौटिल्य ने दो आसनों की ओर संकेत करते हुए कहा, “अच्छे समय पर आए, वत्स । आज तुम्हें संसार का एक अनूठा आश्चर्य देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। यह नारी मूर्ति जो तुम देख रहे हो, यह गूढ़ मानव मस्तिष्क का एक श्रेष्ठ चमत्कार है, और गुप्तचरी के अस्त्रों में अंकित उपाय है ! यह विषकन्या है! "

"विषकन्या! " चंद्रगुप्त तथा भद्रायण ने चकित भाव से दोहराया।

"हाँ, एक ऐसी विषकन्या, जिसके वस्त्राभरणों में कोई विष नहीं छिपा है, केशों और नखों में कोई विषाक्त बाह्य पदार्थ नहीं है, तोता-मैना या भौंरा इसे देखकर नहीं चिल्लाते, क्रौंच पक्षी इसके स्पर्श से भी विह्वल नहीं होता, चकुवा इसे देखकर नहीं मुरझाता, न ही उसकी आँखें लाल होतीं, कोयल इसे देखकर प्राण नहीं छोड़ती-फिर भी वत्स, काम से दग्ध पुरुष इसके संसर्ग से तत्काल परलोक सिधार जाता है। " आचार्य ने स्मित भाव से लिच्छवि कला नेत्री की ओर देखा ।

उसके मुख मंडल का स्वाभाविक दर्प और भी गहरा हो उठा।

भद्रायण का मुख दुःख के भाव से ओत-प्रोत था । कष्ट के साथ उसने पूछा, "सब प्रकार की विष- परीक्षाओं में रनि-रहित होने पर भी यह रमणी विषकन्या किस प्रकार हुई, देव?"

“यह बचपन से विषों पर पाली हुई एक अभागिन कन्या है, वत्स । बारह वर्ष की आयु से इसकी जीभ पर काले नाग का दंश कराया जाता रहा है। फिर नागराज का विष ही इसकी दैनिक खुराक बन गया है। किंतु ध्यान से देखो, इस त्रस्तमना निरीह कन्या के मुख पर जो दर्प तथा लालिमा परिलक्षित हो रही हैं, यह मात्र विष का प्रभाव है। इसका अंतर्मन वध-स्थल पर ले जाए जाते अपराधी के मन की तरह ध्वस्त हो चुका है।" आचार्य ने करुण दृष्टि से विषकन्या की ओर देखते हुए आगे कहा, "अस्त्र रूप में इसका निर्माण करनेवाले दुष्ट ने सामान्य नारी की तरह पूर्ण क्षमता रखते हुए थी, भोग का सामान्य अधिकार इससे छीन लिया है। भोग का चरम सुख इसके भाग्य में नहीं रह गया है, वत्स!"

"क्या किसी औषधाचार से...?" चंद्रगुप्त ने सूखे गले से पूछना चाहा।

"असंभव! ऊपर से परिहास यह है कि यह चार जन भाषाओं की ज्ञाता है और अत्यधिक संवेदनशील हैं!” आचार्य एक निस्तेज हँसी हँसे—“ अपने घोर दुःख से त्रस्त यह नारी-रूपी अंतिम अस्त्र बड़े-से- बड़े साम्राज्यों का एक ही रात में ध्वंस कर सकता है। तुम्हें यह जानकर प्रसन्नता होगी, वत्स, कि इस विदुषी मानवी ने हमारे साथ एक सम्मानजनक सौदा किया है।"

चंद्रगुप्त गुरु के प्रति शंका को प्रश्रय देने से जहाँ एक ओर लज्जित थे, वहीं न जाने क्यों— उस निराश नारी-मन की ओर से दुःखी थे । विस्मय के भाव से उन्होंने पूछा, “सौदा ?"

“हाँ, वत्स! वैशाली गणतंत्र के साथ षड्यंत्र करके महामंत्री राक्षस ने इस विषकन्या को तुम्हारा अंत करने के लिए भेजा था। "

अब यह और इसकी संपूर्ण विष- गरिमा मौर्य साम्राज्य को बँटवाने के इच्छुक पर्वतक की अंतिम अंकशायिनी होगी, जिसे प्रकट में महामंत्री राक्षस ने उन्हीं के निमित्त भेजा होगा। महाराज पर्वतक के चिरनिद्रा में लीन हो जाने पर, यदि इस वीर रमणी को प्राणोत्सर्ग भी करना पड़ा... सौदा महँगा है न, बेटी ? " आचार्य ने स्नेहासिक्त स्वर में कथित विषकन्या से पूछा ।

चंद्रगुप्त और भद्रायण ने भी उस ओर मूढ़ भाव से देखा । लिच्छवि कलानेत्री ने हौले से इनकार में गरदन हिलाई। विहँसते हुए आचार्य ने कहा, "बदले में हमने इसे वचन दिया है, वत्स, कि हम इस प्रकार की किसी विषकन्या की चर्चा अपने 'अर्थशास्त्र' में नहीं करेंगे, जिसका निर्माण इतना निर्मम हो तथा विनाश अप्रत्याशित रूप से ध्वंसकारी हो । भावी पीढ़ियों को कम-से-कम आचार्य कौटिल्य की अधिकृत लेखनी से किसी कोमल नारी- हृदय को दग्ध करने का अवसर प्राप्त नहीं होगा ! "

महान् मौर्य साम्राज्य के अधिपति सम्राट् चंद्रगुप्त मौर्य तथा आचार्य कौटिल्य के प्रिय गूढ़-पुरुष भद्रायण को अपनी समस्त चाहना - ऐषणा सहित, उस अपरिमित नारी-सौंदर्य के अद्भुत बलिदान की भावना के सामने अपने अस्तित्व बहुत छोटे लग रहे थे।

उन दोनों ने ही उस तेजोमयी प्रतिमा, काल के अंतिम अस्त्र को नतमस्तक हो श्रद्धा से प्रणाम किया।

  • मुख्य पृष्ठ : आनंद प्रकाश जैन की कहानियाँ और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां