अन्तिम आकांक्षा (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त

Antim Akanksha (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-9

धार्मिक कृत्यों में विवाह ही एक ऐसा कृत्य है, जिसका सुफल आँखों से प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। इसकी सुकृति के कारण ही हम हिन्दू किसी न किसी तरह इससे पार पा जाते हैं। नहीं तो बारात, बराती और घरातियों के सन्निपात में पड़कर आज एक भी लड़की वाला जीवित न दिखाई देता ।

मुन्नी की बरात आने के दो दिन पहले से हमारे घर में किसी को बात करने की फुर्सत न थी। फिर भी बातों के संघट्ट में सुनने वाले बहरे से हो उठे। मानों स्वयं कर्म-देवता ही उस कर्म- कोलाहल में अपने पुजारियों की निष्ठाहीनता पर क्रुद्ध होकर निरन्तर चीत्कार करता हुआ अपना गला फाड़ रहा था !

स्त्रियों के मंगल गान के बीच में शहनाई बज उठी और धूमधाम के साथ वर की पालकी हमारे घर के वन्दनवारों से सजे द्वार पर आ खड़ी हुई। दादा ने आगे बढ़कर वर के माथे पर रोली अक्षत का टीका किया और एक वस्त्र पर रक्खी हुई अपनी सामान्य भेंट उसके उद्यत करों पर रख दी। इसके बाद उसके पैर छूते हुए जब उन्होंने समागत बरातियों को भी झुक कर हाथ जोड़े, तब मैंने देखा, उनकी आँखों में प्रेमातिरेक के आँसू थे ।

अन्य प्रारम्भिक विधियाँ हुईं और आंशिक विश्राम के लिए बरात जनवासे चली गई।

मुझे बरातियों का उद्धत अहंकार पीड़ा पहुँचाने लगा। दादा के विनम्रता पूर्ण प्रेम की ओर देखने का उनमें से किसी को अवकाश न था। सब लोग एक दूसरे को ठेलते हुए तिलक में दी हुई निधि देखकर तत्काल उसका मूल्य निरूपण कर लेना चाहते थे। जिन्होंने दादा की वह विनयशीलता देखी भी होगी, उन्होंने उसे उनकी स्वाभाविक दीनता काही प्रमाण समझा होगा। अपनी इस धारणा से मुझे कष्ट होने लगा । यदि दादा के हृदय में प्रेम और आँखों में आँसू हैं तो वे क्यों उन्हें इस तरह धूल में गिराते फिरते हैं? योग्यायोग्य का भी तो कुछ विचार होना चाहिए।

लड़के को देखकर सब लोग बहुत सन्तुष्ट हुए । निश्चय ही वह सुन्दर और शरीर से हृष्ट-पुष्ट था। परन्तु एक झलक में ही उसे देख कर मेरा जी न जाने कैसा हो गया। दादा ने उसके पैर छूने के लिए अपने हाथ बढ़ाये तो झट से उसने अपने पैर कुछ आगे खिसका दिये। उसे किसी तरह का दिखाऊ संकोच भी न हुआ कि मेरे पिता की अवस्था के कोई यह क्या करते हैं। दादा के इस शिष्टाचार के समय तिलक में दी जाने वाली भेट सामग्री की ओर ही उसकी लोलुप दृष्टि थी। हाय !

परन्तु नहीं, आज मैं अपने मन में किसी तरह की कटुता को न टिकने दूँगा। किसी की हीनता और दुर्बलता पर घृणा करने का हमें क्या अधिकार, जब कि हम सब किसी न किसी दशा में समान रूप से ही दुर्बल हैं। आज मेरा मन पीड़ित हो उठा है, परन्तु मैं इस पीड़ा को जीतने का प्रयत्न करूँगा। बहिन, आज की मेरी उस दुर्भावना के लिए तू मुझे क्षमा कर। किसी तरह भी हो, मुझे आज तेरे स्वामी को प्यार करना ही चाहिए। उसकी समस्त न्यूनता के लिए क्षमा करके मैं उसे आशीर्वाद करना चाहता हूँ कि वह तेरे योग्य हो और अपने को पीड़ा पहुँचाये बिना ही मैं उसे प्यार कर सकूँ। स्वयं तेरे लिए मुझे कुछ नहीं कहना। जिस तरह देवी की प्रतिमा मन्दिर के पाछे नहीं चलती, मन्दिर ही उसके पीछे चलता है; उसी तरह जिस घर में भी तू पहुँच जायगी, वही तेरे अनुरूप हो उठेगा। फिर भी यदि मुझमें कुछ भी बड़ा है तो मैं तुझे भी आशीर्वाद देता हूँ। बस और कुछ नहीं ।

मेरी आँखों से टप आँसू गिर पड़े।

रात को पाणिग्रहण संस्कार सकुशल सम्पन्न हो गया। मेरी नालायकी किसी से छिपी न थी; इसलिए मेरे जिम्मे कोई विशेष काम न था। किताबी कीड़े से काम का कोई काम हो भी नहीं सकता। काम की भीड़ में जाकर किताब के धोखे वह आदमी को ही काटने लगता है। काम के बहुत कुछ निर्विघ्न होने में लोगों के इस गूढ़ ज्ञान ने भी सहायता पहुँचाई। नहीं तो मैं समझता हूँ, किसी न किसी बराती से उलझ कर कोई न कोई बखेड़ा मैंने अवश्य खड़ा कर दिया होता।

परन्तु हमारा कोई विवाह बिना बखेड़े के पूरा पड़ जाय, यह असम्भव है । इतिहास काल के पूर्व हमारा जो पुराण- पुरुष जंगलों में दिगम्बर वेश में रहता था, वह जन्मजात क्षत्रिय था। अपने अस्त्र-शस्त्रों से कन्या पक्ष को मृतप्राय करके कन्या को जीत कर लाने में ही उसका गौरव था। अपने पूर्वज के उस वीर-दर्प को, सूक्ष्म रूप में ही सही, अपनी अगणित परम्पराओं में सुरक्षित रख सकने का गौरव केवल हमीं को है । अचानक विशेष रूप के गर्जन तर्जन को सुनकर मैं घटनास्थल पर दौड़ गया।

पहुँच कर देखा, सब बराती एकदम उठ खड़े हुए हैं। उनका इस तरह उठ खड़ा होना असहकार की वह भयंकर चोट है, जिसके मारे बड़ी-बड़ी सरकारें तक तिलमिला उठती हैं; अपने आप मर रहे लड़की वाले की बात ही क्या। एक आदमी क्रोध से चिल्ला रहा था - तुम्हारे आदमी ने हमारे आदमी को गाली दी है। हम यहाँ गाली सुनने के लिए नहीं, लड़का व्याहने के लिए आये हैं!

दूसरा कह रहा था - मैं होता तो साले का खोपड़ा फोड़ देता ।

तीसरा अधिक शान्त था, कह रहा था- चलो जी चलो, डेरे में चल कर बिस्तरे बाँधो । ऐसे नीचों के मुँह लगकर अपनी जवान खराब करने से क्या लाभ?

चौथे ने उत्तर दिया-भंगी - चमार तो बन चुके, अब बिस्तरे न बाँधोगे तो क्या करोगे?

उस विकट कोलाहल में बड़ी देर बाद समझ पाया कि रामलाल ने बरात के एक खवास की हुक्म उदूली की है; उससे कह दिया है कि, 'भंगी हो या चमार, बरात में जो कोई भी आता है, दूल्हा का बाप ही बन कर आता है।' मेरे प्रतिहिंसातुर मन को यह बात बहुत अच्छी लगी। परन्तु उस समय हमारे पक्ष के सब लोगों को 'पुनः पुनः' पड़ रही थी, इसलिए मेरे इस अच्छे लगने का कुछ मूल्य न था । हमारे यहाँ के सब बड़े-बूढ़े, बरातियों की जूती के चाकर और न जानें क्या-क्या बन कर बड़ी कठिनता से वह आग ठंडी कर सके ।

मुझे अनुभव था कि डाकुओं के आक्रमण वाले दिन से रामलाल का मिजाज गरम हो गया है । परन्तु इस मामले में मेरी सहानुभूति उसी के साथ थी । मैं स्वयं देख चुका था कि बरात का वह खवास अपने को न जानें कहाँ का नवाब समझता है। बरात के डेरे से किसी काम के लिए आता है तो उसके मिजाज ही नहीं मिलते। रामलाल ने उसे पीट नहीं दिया, इसे उसकी शिष्टता ही समझनी चाहिए। तीन दिन से बिना एक झपकी लिये वह लगातार रात-दिन काम कर रहा था और उसका परिणाम यह कि चारों ओर से उस पर फटकार पड़ रही थी।

मैंने उसे बुला कर पूछा- रामलाल, बात क्या हुई ?

उसने कहा- कुछ नहीं भैया, मुझसे भूल हो गई।

मुझे रामलाल से ऐसे उत्तर की आशा न थी । मैं बहुत दिनों से देखता आता था कि किसी बात पर दीन बन कर क्षमा माँगना उसे आता ही नहीं। माँ के लाड़ ने उसके जी से यह बात एक तरह भुला ही दी थी कि वह छ: सात रुपये का एक मामूली नौकर है। उसके अपनी बात पर • अड़ जाने के हठ पर कभी-कभी मुझे क्रोध आता था । परन्तु ऐसा नहीं कि उससे मुझे कभी आनन्द भी न हुआ हो। उस समय मुझे जान पड़ता था कि यह मेरी माँ की ही कोमलता है जो इस तरह कठोर बन कर मेरा सामना कर रही है। फिर आज की बात में मेरी समझ के अनुसार उसका दोष भी बहुत न था । मैंने कहा- तुझसे भूल क्या हुई, वास्तव में ये सब के सब बराती ही कमीने हैं।

आगे के कमरे में वर पक्ष के कुछ लोग बैठे थे। उनकी ओर संकेत करके उसने जीभ काटते हुए कहा- नहीं भैया, ऐसी बात न कहो। कैसे भी हों, हमें उनके पैर ही पूजने चाहिए। वे बड़े हैं, तभी तो हम उन्हें अपनी बहिन सौंप रहे हैं।

अपनी बहिन ! - आह, कैसा है इसके हृदय में बहिन का यह प्रेम, जिसने इसके उद्धत अहंकार का फन भी इस प्रकार नत कर दिया । संसार अन्धा है; तभी तो उसकी दृष्टि में स्नेह और आत्मीयता की इस विशालता का मूल्य छः सात रुपये मासिक से अधिक नहीं।

मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही धीर गति से अपने काम पर वह ऐसे चला गया, मानों उसकी बात का कोई विरोध हो ही नहीं सकता ।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-10

सन्ध्या समय भोज था । गाँव के निमन्त्रित इष्टमित्र और फालतू खाते के दूसरे आदमी यथा समय आकर उपस्थित हो गये। परन्तु बार-बार बुलावे भेजे जाने पर भी बरातियों के आने के कोई लक्षण न दिखाई दिये । कुछ लोग गाँव के बाहर एकान्त कुएँ - बावड़ी पर भंग-ठंडाई छाननें चले गये थे और कुछ इधर-उधर किसी से मिलने-जुलने । समय की निष्ठा और बरातियों से क्या सम्बन्ध ? कचहरी की पुकार एवं अन्य ऐसे ही बहुत-से अवसरों पर हममें से बहुतों को दस की जगह आठ बजे ही प्रायः निरन्तर जाना पड़ता है। फिर सुयोग पाकर एक दिन के लिए भी समय की यह बेड़ी पैर फटकार कर दूर न फेंक दी जा सके, तो गुलामी का यह बोझ स्वच्छन्दता से ढोते रहने में मजा ही क्या? परन्तु घर के सब लोग बहुत परेशान थे। हमें जान पड़ रहा था कि हमारे भोज की सारी शोभा नष्ट कर देने पर ही बराती तुले हुए हैं। वे नहीं चाहते कि यथा समय उनका यथोचित सत्कार करके, उनके सामने ही हम किसी तरह भी अपना गौरव बढ़ा लें ।

बड़ी देर बाद बुलाने वाले सूखा मुँह लिए अकेले लौट आये। मालूम हुआ मामला बेढब है। वकील - मुख्तारों से काम नहीं चल सकता; वहाँ हम सबको असालतन हाजिर होना चाहिए।

उस समय जनवासे में गिने-चुने ही बराती थे। आपस में सबका हुक्का चल रहा था। दादा ने हाथ जोड़कर कहा - भोजन के लिए चलने की कृपा हो ।

बरात की युद्ध-समिति के सब सदस्यों की उपस्थिति पूरी करने के लिये, 'इन्हें बुलाओ, उन्हें बुलाओ' की धूम पड़ गई। जो उपस्थित थे, उनके रंग-ढंग से ऐसा जान पड़ा कि मामले का फैसला लिखा रक्खा है; सुनाने भर की देर है । हम लोग मुँह लटकाये हुए चुपचाप अभियुक्त की भाँति एक ओर बैठ गये ।

कुछ लोग आ पहुँचे। उनमें से एक ने कहा - लाला लालता सहाय नहीं आना चाहते; सिरे के रिश्तेदार हैं, उन्हें फिर से बुलवा लो।

तब तक लाल साहब स्वयं आ पहुँचे । खड़े-खड़े ही उन्होंने कहा - किसलिए यह तलवी हुई है? लो हम आ गये; सुना दिया जाय हुकुम ।

मैं समझता था, बरात में मुन्नी के ससुर ही हम सबसे बड़े हैं। अब मालूम हुआ कि मैं भूल पर था; उनके ऊपर भी कोई है। एक के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा, यह क्रम लगातार बहुत दूर तक चला गया है। अब मुझे सन्तोष करना चाहिए कि वस्तुतः छोटा हममें कोई भी नहीं।

यह कैसी बात है कि जो हुक्म सुना सकता है, वही हुक्म सुना देने की प्रार्थना करे। ऐसे कलियुगी विपर्यव को आमने-सामने प्रत्यक्ष देखकर हमारे मालिक साहब घबरा उठे। उठकर उन्होंने लाला साहब को अपने स्थान पर बिठाया और स्वयं नीचे की ओर खिसक आये ।

लाला साहब ने कहा- तो सुन लो, भोजन के लिए हम न जायँगे । हमें तो साफ बात पसन्द है। हम चाहें तो हमारी मरजी के खिलाफ एक कुत्ता भी नहीं जा सकता। फिर भी हम किसी को रोकते नहीं; जिसे जाना हो खुशी से चला जाय, हम न जायँगे ।

कुसूर की बात पूछे जाने पर भड़क कर कहने लगे - अब कसूर मनाने आ गये, घर पर राजा साहब बन जाते हैं! पान-पत्ते और भले आदमियों की-सी दो बातें पूछना तो दरकिनार, खुद हमें अपने हाथों पैर धोते देख, हरिनाथ ने अपना मुँह दूसरी ओर फेर लिया। अपने हाथों हमारे पैर पखार देते तो इनकी नाक कट जाती !

मेरे ऊपर यह जो अभियोग लगाया गया था, उसके सम्बन्ध में मुझे कुछ भी स्मरण न था । लाला साहब कहते गये - ऐसे घमंडियों के यहाँ धूकने जाना भी पाप है। तुम्हें रुपये की गरमी है तो हमें भी कम नहीं। थानेदार साहब हों या तहसीलदार साहब, सबको हम खरी-खरी चुका देते हैं। गाँस-गुड़ी की बात हमें पसन्द नहीं। कोई नाराज हो जाय, बला से ।

पास ही बैठे हुए एक सज्जन ने उनकी बात सकारते हुए कहा- हाँ, लाला साहब में यह बात तो है; किसी से डरते बिलकुल नहीं। उस दिन गाँव में जब कलट्टर साहब आये, तब गाँव वाले एक कुएँ की मरम्मत करा देने की अर्जी दे रहे थे। बड़ा मनहूस हाकिम है, हमेशा हंटर लिये फिरता है। किसी की हिम्मत न पड़ी कि उससे दो बातें तो करे। आखिर लाला साहब ने उसके पैर पकड़ कर उसका रास्ता रोक ही तो लिया और जब तक अपनी दरखास्त मनवा न ली, तब तक उसे वहाँ से डिगने तक न दिया। ऐसा है इनका हठ !

लाल साहब के चेहरे पर मुसकान दिखाई दी । कहने लगे - उस दिन माते, मुखिया और पटवारी सबकी बोलती बन्द थी, अब सभी खुश हैं। खुश होने की बात ही है। पहले सबकी घरवालियों को कोख्स भर जाकर नदी से पानी लाना पड़ता था और अब घर में गंगाजी आ गई। परन्तु उस दिन का साथी कोई न था । बिगड़ कर कहीं कलट्टर साहब पैर फटकार देते तो मुँह हमारा टूटता, खुश होने के लिए सब हैं !

उस दिन की अपनी विजय गाथा से लाला सहब प्रसन्न हो उठे । दादा ने भी मेरी ओर से उनके पैर पकड़ कर उचित अवसर पर ही क्षमा याचना की । अतएव उनके दयालु होने में बहुत झंझट न हुई। फिर भी भोजन के लिए जब कोई उठता न दिखाई दिया, तब मालूम हुआ, मामला तय होने में अभी बहुत कसर है।

सब बराती एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। जान पड़ा, मानों सबके सब दौरा जज हैं। उनका काम अभियुक्त के जीवन-मरण का निर्णय कर देने का है, सो वह पहले ही पूरा किया जा चुका। अब उस निर्णय को सुनाकर कार्य रूप देने की हत्या का काम किसी पेशेदार का है। उसी की खोज होने लगी।

अन्त में लाला लालता सहाय ने हमारी सहायता की। क्षमा दे चुकने के बाद वे हम लोगों के प्रति बहुत कुछ उदार हो गये थे। उन्होंने कहा - यह घिच - पिच ठीक नहीं। हम तो साफ बात पसन्द करते हैं। बेचारों के काम में हर्ज हो रहा है। जो कहना है, खुल कर क्यों नहीं कह देते? हाँ, सुन्दर, तुम कहो ।

सुन्दर ने उत्तर दिया- आप ही हम सबमें बड़े हैं। आपके सामने भला हम मुँह खोल सकते हैं?

"तो सुनो लाला, आपके यहाँ कोई रामलाल है? रमला, – हाँ वही, नौकर । उसी के बारे में एतराज है।"

"क्या एतराज है?"

"एतराज कुछ नहीं, धर्म की बात है। कुछ भी हो हमें धर्म का पालन करना चाहिए। देखो, ईसाई और मुसलमान नित्य नियम से अपने- अपने मन्दिर में जाकर भगवान् का नाम लेते हैं। इसी से जवन होकर भी वे हमारे मालिक हैं। यह झूठ है कि उस दिन रामलाल ने डाकू भगा दिये । यह सब लाला जानकीराम [मेरे दादा] के भजन का प्रताप है । अगर डाकू घर के भीतर घुस जाते तो वहीं के वहीं भसम हो जाते। रामलाल को हमने देखा है, एक मामूली छोकड़ा है। उसके पीछे हम अपना धर्म छोड़ दें, यह नहीं हो सकता । - घबराओ मत, हम अभी सब कहे देते हैं। वेद में लिखी बात के विरुद्ध हमें नहीं जाना चाहिए। वेद तो आर्या तक मानते हैं। जर्मन वाले भी वेद को ही लेकर चलते हैं। वह तो उनसे वेद-पाठ में कुछ गलती हो गई, इसी से वे लड़ाई हार गये; नहीं तो क्या कोई उनका सामना कर सकता था? तो हाँ रामलाल के लिए हम वेद की बात नहीं उलट सकते। हम जानते हैं, रामलाल की नियत बुरी न थी । आदमी की हत्या उससे अनजान में ही हो गई। फिर भी-

एक दूसरे सज्जन बीच में ही बोल उठे - ताजीरात की १४४ वीं दफा में लिखा है कि हर मामले में मुलजिम की नियत देख कर फैसला करना चाहिये।

लाला सहाय ने क्रुद्ध होकर कहा-ताजीरात की पोथी हमारे यहाँ भी रक्खी है। उसकी बात तो हम कर ही रहे थे। नहीं मानते तो हम चुप हुए जाते हैं, तुम बोलो।

उन सज्जन के चुप हो जाने और फिर से अनुरोध किये जाने पर लालता सहाय कहने लगे- तो सुनो, रामलाल से जो आदमी मर गया, उसके गले में जनेऊ था। अब ब्रह्म हत्या का पाप उसे लगा या नहीं? उसे गंगाजी जाकर प्रायश्चित करना चाहिये। इसलिए घर जाकर सबसे पहले उसे हटा दो, तभी हम भोजन में शामिल हो सकेंगे। बस, इतनी ही बात है।

हमारी ओर से बरात वालों की वचन देना ही पड़ा कि आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। इस बात के लिए अड़ पकड़ने का कोई कारण भी न था। रामलाल न हमारी जाति का, न कोई सगा सम्बन्धी । एक मामूली नौकर को लेकर इतनी खींचतान करने की क्या आवश्यकता थी? बरात वालों की इस बेवकूफी को लेकर गाँव वालों को अपना जी ठंडा करने का एक अच्छा मौका मिल गया। सिरे के सम्बन्धी हैं, इसीलिए झुकना पड़ता है; नहीं तो हैं सबके सब पूरे गँवार !

क्रोध से मेरा माथा फटने लगा। जी में आया, रामलाल को बुलाकर कह दूँ - बागी होकर बन्दूक उठा ले; फिर देखें, तुझे यहाँ से कौन हटाता है।

परन्तु रामलाल शान्त था । उसने मेरे पास आकर कहा- भैया, मेरे लिए अपना जी क्यों खराब करते हो? मैं तो चाकर हूँ, कहीं दूसरी जगह काम पर भेज देते तो यह खटपट न होती। श्याम काका कहते हैं, 'यहाँ बने रहो, बस बरातियों को मालूम न हो कि तुम हटाये नहीं गये । खुले में होने से ही किसी बात में दोष माना जाता है; वैसे परदे के भीतर तो न जानें क्या क्या होता है।' परन्तु मेरे लिए यह जालसाजी करने की क्या जरूरत । मैं जा रहा हूँ। हाँ, बिन्नी को यहीं बुला दो; उसके पैर छूता जाऊँ । अब घर के भीतर मेरा जाना ठीक नहीं।

उसकी सहनशीलता देखकर मेरी आँखों में आँसू आ गये। मैंने कहा— हम नालायकों के बीच में तू न आता तो तुझे यह अपमान न सहना पड़ता ।

फीकी हँसी हँसकर संकोच के साथ उसने कहा- आप लोग मालिक हैं; आपके यहाँ किसी बात में हमारा क्या अपमान ?

विवाह के वस्त्रालंकारों से झुकी हुई मुन्नी आकर खड़ी हो गई। रामलाल के इस अपमान की वेदना उसके मुँह पर स्पष्ट अंकित थी । वह रो नहीं रही थी, यही बहुत था। दो रुपये अपनी जेब से निकाल कर रामलाल आगे बढ़ा। मुन्नी के पैर छूकर उसने कहा- बिन्नी, छुटपन से मैंने तुझे गोद में खिलाया है। सोचा था, तुझे अपने घर के लिए बिदा करते समय तेरे पैर पखारने का पुण्य भी मुझे मिलेगा। परन्तु मेरा सुकृत इतना नहीं। कई महीनों में बचा बचाकर मैंने ये रुपये जोड़े हैं। ले ले बिन्नी इनकार न कर।

मुन्नी जोर से रो पड़ी। मुझसे बोली- रामलाल भैया को रोक लो । इनका यह अपमान मुझसे देखा नहीं जाता।

मैंने कहा- जाने दे बहिन, इसे जाने दे । इस जगह बने रहने में ही इसका अपमान है। रुपये ले ले। इन रुपयों से बड़ी भेंट हममें से कोई तुझे नहीं दे सकता।

फिर से मुन्नी के पैर छूकर ऊपर की ओर हाथ करके मन-ही-मन उसने कुछ प्रार्थना-सी की और झट से मुँह फेर कर वह वहाँ से निकल गया।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-11

मुन्नी अपने घर गई। सुधारकों का कहना है, लड़की को अपने घर जाते समय रोना न चाहिए। इसमें अशुभ है । परन्तु जब मेरे उस आदेश के विरुद्ध मेरी छाती में अपना मुँह छिपा कर वह धीरे-धीरे रोने लगी, तब मैं भी भूल गया कि मैं यह कैसी दुर्बलता प्रकट कर रहा हूँ। वह बोली- रामलाल भैया का ख्याल रखना, मेरा इतना ही कहना है ।

मेरा मन विश्व व्यापी क्रन्दन कर उठा । इच्छा हुई, जोर से चिल्ला हूँ । यदि यह अशुभ है तो संसार में शुभ का अस्तित्व कहीं है ही नहीं ।

मुन्नी के जाते ही घर भर में सन्नाटा छा गया। जूठी पत्तलों पर केवल कौओं की काँव-काँव ही सुनाई देने लगी। अब जान पड़ा, इस सूनेपन के सामने बरातियों का वह कुत्सित संसर्ग भी कितना मधुर और भरा- पूरा था !

बीच-बीच में उस सूनेपन में अनुभव होने लगा कि बहुत दूर न जाने कहाँ से मुन्नी के रोने की ध्वनि आ रही है। रोते-रोते उसका गला बैठ गया है और वायु भी मानों उस विराट वेदना को वहन करने में असमर्थ है। इसी से वह उसका बहुत सूक्ष्म ही हम तक पहुँचा रही है। परन्तु यह सूक्ष्म जितना सूक्ष्म है, उतना ही बेधक भी है।

उसका यह क्रन्दन रोका किस तरह जाय? चौदह बरस तक लगातार वह इस घर में रही है। इसके अणु अणु और परमाणु परमाणु में उसने अपनी स्मृति को हिला मिलाकर एक कर दिया है। विधाता ने अपने हृदय की समस्त कोमलता के साथ पहले पहल उसे इसी की गोद में उतारा। और आज वह इसकी कोई नहीं ! इस घर पर अब उसका इतना ही अधिकार है कि दस पाँच बरस में इन पाहुनियों की भाँति कभी-कभी दो-चार दिन के लिए रह जाय। इस अधिकार के होने से न होना अच्छा।

दिन भर मेरी कल्पना लगातार मुन्नी के साथ ही घूमती फिरती रही । अब वह नदी पर पहुँच गई होगी। अब इसके आगे किसी अमराई के पास उसकी पालकी होगी। कुएँ का सुभीता देखकर कहारों ने पालकी उतार कर नीचे रख दी होगी और नाइन या किसी छोटे लड़के के द्वारा मुन्नी से पानी पीने, भोजन करने आदि के लिए पूछवाया जा रहा होगा। आज सब के सब उसके प्रति अत्यन्त मृदु व्यवहार कर रहे होंगे। बाजार से किसी गुलाम को खरीद कर घर ले जाते समय उसके मालिक में भी पहले पहल इसी तरह की कोमलता दिखाई देती होगी।

इस प्रकार जब मैं स्वयं ही व्याकुल हूँ तो माँ और दादा को किस तरह समझाऊँ ? सम्भव है, कोई बात कहकर मैं उनकी पीड़ा और बढ़ा दूँ। आज कोई कुछ खाना-पीना नहीं चाहता तो न खाने दो। एक दिन में ही कोई भूखों नहीं मर जाता।

परन्तु इस रामलाल को तो देखो। कहता है, मालिक के घर में हमारा क्या अपमान ? किन्तु उसी दिन से गाँव छोड़ कर न जानें कहाँ चला गया। बरात बिदा हो जाने के बाद तुरन्त ही क्या उसे यहाँ न आना चाहिए था। इस समय आकर वह माँ के पास घड़ी भर के लिए बैठ जाता तो उसकी बात मारी जाती !

दूसरे-तीसरे दिन वह दिखाई दिया। उस पर मुझे गुस्सा था। मैंने सोच रक्खा था, अब उसे बुलाऊँगा नहीं। देख तो लूँ अपनी लगी हुई रोटी छोड़ कर कब तक अपने आप दौड़ा नहीं आता। उस बात को याद करके अब मैं सोचता हूँ, उसे रोटी देने का कुछ-कुछ अभिमान निश्चय ही मेरे मन में था । यह दूसरी बात है कि मैं उसे कभी मुँह पर ला न सका होऊँ । कदाचित् यह इसीलिए कि रसना को भले-बुरे के स्वाद का ज्ञान है। स्थूल शरीर की भाँति कहीं हमारे मन को भी एक ऐसी ही रसना दे दी गई होती तो अनायास हम कितने ही दुर्विचारों के अखाद्य से बच जाते।

परन्तु उसे देख कर मेरे मन में दूसरा ही भाव उठा। यह कैसा आदमी है, जिसे अपने मान-अपमान का कुछ विचार ही नहीं बुलाये जाने के लिये दो-चार दिन तो प्रतीक्षा करता। मानों हम इसकी जगह कोई दूसरा आदमी तुरन्त ही भरती कर लेते। कम से कम मेरे विषय में तो इसे ऐसी धारणा न करनी चाहिए थी । क्यों न करनी चाहिए थी, इसका युक्ति-संगत कारण मेरे पास न था ।

मुझे 'राम राम' करके, बिना कुछ कहे सुने वह माँ के पास चला गया। किसी एक डाक्टर की नकल वह अक्सर किया करता था । उसी के ढंग से खड़ा होकर बोला-ओ, तुमको एक सौ बीस का बुखार है ! कड़ी दवा देना पड़ेगा ।

एक क्षण रुककर उसने दवा सोचने का सा ढंग दिखाया और कहने लगा- जब तक सो न जाओ, तब तक दो-दो घन्टे बाद सवा सेर मोहनभोग, डेढ़ सेर किसमिस और बादाम की ठंडाई-

माँ के मुख पर हँसी की रेखा देख कर वह भी हँस पड़ा। अब अपने सहज स्वर में कहने लगा- क्यों माँ, दवा की एक खुराक क्या कुछ बड़ी हो गई? परन्तु मुझे तो एक सौ तीस का बुखार है; मेरे लिए इससे कम किसी तरह ठीक न होगी ।

"क्यों नहीं, तू ऐसा ही खाने वाला तो है।"

"विश्वास नहीं है तो इसी समय खिला कर देख लो" - कहकर मानों पत्तल की प्रतीक्षा में उसी जगह बैठ गया । मुन्नी की बिदा के बाद आज पहली ही बार मैंने माँ के मुँह पर हँसी देखी।

मुझसे छिपा न था कि माँ की और स्वयं रामलाल की भी यह हँसी बनावटी है। किन्तु कभी-कभी इस बनावट की भी आवश्यकता पड़ती है । पानी में से निकाले गये मनुष्य कृत्रिम श्वास- संचार के उपाय से ही फिर से जीवित होते देखे गये हैं ।

सब काम पहले की ही भाँति चलने लगा ।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-12

इधर रामलाल में कुछ दिन से नया परिवर्तन दिखाई दिया। वह एकाएक विशेष रूप से प्रसन्न रहने लगा । हमसे बचकर दूसरे नौकरों के साथ गुपचुप न जानें क्या गप लड़ाया करता । काम-काज में भी उसका मन न लगता । काम पर सबेरे देर करके आता और रात को भी जल्दी ही घर चला जाता।

एक दिन उसके बाप ने आकर दादा से कहा- भैया, रमला का विवाह है; पैसे की मदद करनी पड़ेगी। सौ रुपये के बिना काम न चलेगा।

दादा ने सहायता करना स्वीकार करके पूछा-लड़की तो अच्छी है ?

उसने उत्तर दिया- बहुत अच्छी, लच्छमी जैसी सयानी है। तुम्हारी दया से अब रोटी-पानी का सुभीता हो जायगा ! रमला की माँ के मर जाने के बाद से बड़ी तकलीफ थी। इसी दिन के सुख की बात सोच कर मैंने फिर से अपना घर नहीं बसाया था।

कह कर वृद्ध ने एक साँस ली।

एकान्त में पाकर मैंने रामलाल से कहा- क्यों रे रामलाल, यह बदमाशी ?

वह समझ गया कि मैं क्या कहना चाहता हूँ । हँसकर बोला- मैंने क्या किया भैया?

"किया क्यों नहीं; सगाई, बातचीत सब पक्की कर ली - और कानों कान मुझे ख़बर भी न हुई ।"

"ऐसी बहुत बड़ी बात तो थी जो तुमसे कहता-फिरता । हम लोगों की सगाई भी क्या, रुपये आठ आने का खर्च है। कोई धूम-धाम का काम होता तो तुम्हें भी मालूम होता । अब विवाह के समय थैली की थैली खोलना पड़ेगी।

"दुलहिन तो देख-परख ली? ऐसा न हो कि दुलहिन के बदले कोयले का एक ढेर घर में आ जाय ।"

"नहीं भैया, बहुत अच्छी- " कहते-कहते संकुचित होकर वह बीच में ही रुक गया।

इस संकोच के बीच भी विवाह की चर्चा में उसे आनन्द आ रहा. था। अधिक देर तक बातचीत करने के लोभ से वह मेरे कमरे का फैला - फूटा सामान ठीक से लगाने लगा। मैंने पूछा- तो इस बीच में तू उसे देख भी आया ?

थोड़ा इधर-उधर करके उसने वह बात भी सुना दी। बोला- उस दिन मैंने सोचा, विवाह के पहले एक बार उसे देख आना चाहिए। सब पढ़े-लिखे भी तो ऐसी ही पसन्द करते हैं। भोजपुरा यहाँ से दो कोस है । दो कोस कहाँ, कम ही होगा। उसके खेत का डेरा तो अपने गाँव के ड़े पर ही है। बीसियों वार मैं उसके पास से निकल चुका था ।

"परन्तु इस बार जिस तरह चोरी-चोरी गया, वैसा कभी न गया होगा ।"

"वाह भैया, इसमें चोरी की क्या बात; गया था, अपनी खुशी । किसी का कुछ चुरा तो नहीं लाया?"

"परन्तु उससे बात करते कोई देख लेता तो तुझे शरम न लगती ?"

"सब बातें मैंने पहले ही सोच रक्खी थीं । कह देता, दादा ने आसामियों के पास तगादे के लिए भेजा था, वहीं जा रहा था। ऐसा ही और कुछ, जो उस समय समझ में आता ।"

"तो इन बातों में तू अभी से पक्का हो गया। फिर मिला मौका?"

"मिलता क्यों नहीं, अच्छी शायत में घर से चला था। किसी ढोर को खेत के बाहर खदेड़ देने के लिए वह उसी समय घर से निकली । आस-पास कोई न था । चारों ओर धुंधली सी चाँदनी छिटकी हुई थी । मैंने पूछा, भोजपुरा यहाँ से कितनी दूर है? उसने ध्यान से मेरी ओर देखा और दबे स्वर में उत्तर दिया- 'मुझे नहीं मालूम; पूछो उधर किसी से, जाओ !! कह कर जाने लगी। मैंने समझ लिया कि यह जान गई है कि मैं कौन हूँ; तभी तो हुकुम लगा कर चले जाने के लिए मुझसे इस तरह कह रही है। मैंने कहा- इस तरह जाती कहाँ हो रानी? गाँव का नाम नहीं मालूम तो पानी ही पिला जाओ; प्यास लगी है 'यहाँ प्याऊ नहीं रक्खी है, जाओ यहाँ से' – कह कर अपनी हँसी चाँपती हुई तेजी से भाग गई।

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  • अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय (1-8)
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