अन्तिम आकांक्षा (हिंदी उपन्यास) : सियारामशरण गुप्त

Antim Akanksha (Hindi Novel) : Siyaramsharan Gupt

किसी के स्वस्थ व्यवहार और उपहार के प्रति कृतज्ञता-समर्पण की सीमा तक पहुँची हुई ऐसी कृतज्ञता कि बचपन से चाकरी में रहने वाला नौकर अपने उसी हम उम्र स्वामि-पुत्र के परिवार में अगले जन्म में भी जन्म लेने और उस परिवार की चाकरी करने की आकांक्षा अंतिम सांस लेते समय प्रकट कर रहा हो- यही है वह अंतरधारा जो इस उपन्यास में अनादि से अंत तक प्रवाहित हो रही है।
नौकर रमला को सेवा के पहले ही दिन पूरे नाम रामलाल से पुकारने का जो भाव उसका खास पुत्र-प्रकट करता है वह भाव धीरे-धीरे अपने उत्कर्ष की ओर बढ़ता जाता है और रामलाल की अन्तिम आकांक्षा का कारण बन जाता है।

उपन्यासकार सियारामशरण गुप्त अपने उपन्यासों में किसी न किसी ऐसे ही उत्कृष्ट भावना अथवा मान्यता को आधार बनाकर अपने उपन्यास की रचना करने के कायल थे, जिसे उन्होंने इस उपन्यास की भी अन्तरधारा के रूप में अपने कथानक में प्रवाहित किया है, जिससे उपन्यास रोचक और मनोरंजक बनने के साथ ही पाठक के अंतर्मन को भी प्रभावित करने वाला बन गया है।

श्रीराम

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-1

उस दिन दस-बारह बरस के हृष्ट-पुष्ट लड़के को अपने यहाँ मजूरी के काम पर देखकर सहसा मेरे मुँह से एक लम्बी साँस निकल पड़ी। इस साँस का कारण बताने के लिये मुझे बहुत पीछे लौटना पड़ेगा।

बरसों की बात है, एक दिन रामलाल भी पहले-पहल इसी अवस्था में मेरे यहाँ काम पर आया था। आज इस लड़के को देख कर मुझे उसी का स्मरण हो आया। देखता हूँ, बचने का प्रयत्न करने पर भी किसी तरह मैं उसकी स्मृति से बच नहीं सकता। मेरी मानसिक दशा सचमुच उस बच्चे जैसी हो रही है, जो अपने साथियों के दुर्व्यवहार की शिकायत अपने बड़ों के पास ले दौड़ता है और इसके दूसरे ही क्षण उन्हीं साथियों में मिलकर लड़ता झगड़ता हुआ फिर खेलने लगता है।

रामलाल के आने के दिन की बात मुझे अच्छी तरह याद है। उस दिन किसी मुसलमानी त्यौहार के कारण मेरे मदरसे की छुट्टी थी। मेरी वह छुट्टी, कारागार के सीकचों से कार्यवशात् ही उस बन्दी के बाहर निकलने के समान थी,- जिसके हाथ-पैर हथकड़ी-बेड़ी से जकड़े ही रहते हैं। क्योंकि मेरे अध्यापक को अच्छी तरह मालूम था कि मैं मुसलमान किसी तरह नहीं हूँ। और, उनका विचार था कि व्यवस्थापिका सभाओं के स्थानों की तरह सार्वजनिक छुट्टियाँ भी अलग-अलग होनी चाहिये। इसलिए घर पर अध्ययन करने का कठोर निर्देश उन्होंने मुझे पहले ही कर रक्खा था। सहसा उस अध्ययन से ऊबकर मैंने अपने कमरे के भीतर के पुकारा- परसादी !
एक बालक मेरे सामने आकर खड़ा हो गया। अवस्था में वह मुझसे बड़ा न था, परन्तु अपनी स्वस्थ देह के कारण वह पहली ही बार वह मुझे अपने से बड़ा मालूम हुआ। मुझे अपनी ओर देखते देख कर अपरिचय के किसी संकोच के बिना तुरन्त ही उसने कहा- परदासी भैया सौदा-पता लेने बाजार गये हैं। क्या काम है,- मैं कर दूँगा।

मैंने विरक्ति प्रकट करते हुए कहा- तुम क्या कर सकोगे- जाओ, देखो अपना काम। जब वह आ जाय, तब उसी को भेज देना। बड़ा कामचोर है; कई दिन से कमरे में झाड़ू तक नहीं दी। पाँच मिनट के किसी काम से गया होगा और लगा देगा पूरा एक घण्टा। मुझसे तो इस गंदगी में बैठकर पढ़ा-लिखा नहीं जाता।

‘‘मैं अभी सब ठीक किये देता हूँ, उस कमरे में झाड़ू पड़ी है’’- कहकर वह वहाँ से तेजी से चला गया। उसकी इस तत्परता ने परसादी के प्रति मेरा क्रोध और बढ़ा दिया। मुझे छोटा समझ कर ही वह मेरी परवा नहीं करता; उसे काम करना चाहिए इस नये नौकर की तरह दौड़ कर। झाड़ू उठाकर वह तुरन्त ही लौट आया और आज्ञा की प्रतीक्षा में चुपचाप एक जगह खड़ा हो गया। मैंने कहा- देख, इस तरह
झाड़ू फेर की कोई चीज इधर की उधर न हो जाय।

‘‘यह मैं जानता हूँ; परन्तु भैया, तनिक उठकर तुम बाहर चले जाओ। धूल उड़ेगी।’’
नई बात सुनी। परदासी इस तरह का वाक्य-व्यय आवश्यक नहीं समझता। आया और झट-से उसने अपना काम शुरू कर दिया। धूल उड़ेगी तो मैं अपने आप उसके साथ उड़कर बाहर चला जाऊँगा, यह एक मानी हुई बात है। मैं प्रसन्नता-पूर्वक उठकर बाहर चला गया।

घंटे डेढ़ घंटे बाद लौट कर देखा कि खड़ा-खड़ा वह अपने हाथ-पैर धो रहा है। पूछने पर मालूम हुआ, कमरे की सफाई करके अभी-अभी बाहर आया है। सुनकर जी खट्टा हो गया। जैसा परसादी, वैसा ही यह;- नौकर नौकर सब एक हैं ! इतनी देर तक क्या करता रहा ? झाड़ू उठाने तो इस तेजी से गया था मानों सब काम अभी एक क्षण में किये डालता है और काम करने बैठा तो दो घंटे लगा दिये। परन्तु जहाँ एक ओर मुझे असन्तोष हुआ, वहीं दूसरी ओर सन्तोष का कारण भी कम न था। बाहर जाकर अनावश्यक देर मैंने स्वयं कर दी थी। अब मैं कह सकता था कि इतनी देर न पढ़ सकने में कुछ दोष नहीं ।

भीतर जाकर देखा तो वैसा ही रह गया। मेरे कमरे का यह सम्मार्जन पूर्ण स्वस्थ पुरुष के गंगा-स्नान जैसा था, किसी रुग्ण के दो चार छीटों से शुद्ध हो जाने जैसा नहीं। ऊपर के जिन आलों में दीवाली के दूसरे दिन की धूल साल भर तक के लिए सुख से जमकर बैठ गई थी, वहाँ से उसे भी मानों बलपूर्वक हटा दिया गया था। मकड़जालों ने छत में मसहरी तान रक्खी थी। एक लकड़ी में लत्ता बाँध कर उसकी सफाई भी कर दी गई थी। अलमारी में कुछ पुस्तकों के नीचे धूल चिपक गई थी, उसे पोंछना भी वह न भूला था। पुस्तकें और कागज-पत्र इधर-उधर बिखरे पड़े थे, उठाकर वे सब एक स्थान पर रख दिये गये थे। यद्यपि बड़े के ऊपर छोटे के सिलसिले से वे न थे, परन्तु यह सब करना तो मेरा काम था। स्थान के अनन्तर अस्त-व्यस्त बालों के लिये कन्घी को ही कष्ट देना पड़ता है।

मेरे मुँह से अपने आप निकल पड़ा- वाह तूने तो बड़ा काम किया !
उसने प्रसन्नतापूर्वक चुपचाप सिर झुका लिया। मैंने पूछा- तेरा नाम क्या है ?
‘‘रमला।’’
मैंने माँ से सीखा था कि नौकर-चाकरों का नाम भी बिगाड़ कर न कहना चाहिए। पूछा- रमला क्या, -रामलाल ?
उसने हँसकर कहा- हाँ, सब लोग मुझे रमला ही कहते हैं।
मैंने सिर हिलाकर कहा- नहीं, दादा का नौकर परसादी, मेरा नौकर रामलाल। अच्छा बोल, करेगा मेरा सब काम ?
उसे जोर की हँसी आई। बोला-काम न करूँगा तो आया किस लिये हूँ ?
‘‘ठीक ! दादा का नौकर परसादी, मेरा रामलाल।’’
उसे ‘रामलाल’ कह कर मुझे ऐसी प्रसन्नता हुई मानों काम के पुरस्कार में मैंने उसे एक अक्षर और एक मात्रा की कोई दुर्लभ उपाधि ही दे डाली हो।

इसी समय बाहर खेलती हुई मुन्नी जोर से चिल्ला उठी- अरे भैया, रस्सी तोड़कर श्यामा छूट गई।

छूटी क्या, बँधी गाय को भी मुन्नी डरती थी और मैं था उसका बड़ा भाई। फलत: उसके लिये मेरे मुँह से सान्त्वना की कोई बात न निकल सकी। तब तक रामलाल बोल उठा- बिन्नी, डर मत, श्यामा को मैं अभी बाँधे देता हूँ।
मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैंने कहा- बिना पहचान की है, तुझे मारेगी तो नहीं ?
‘‘मारेगी कैसे’’- कह कर उसने पास रक्खी हुई एक लकड़ी उठा ली। परन्तु उसे लकड़ी के अच्छे या बुरे किसी उपयोग की आवश्यकता नहीं पड़ी। झट-से जाकर उसने गाय की टूटी डोर पकड़ ली और उसे थपथपाने लगा। मुझे अपने स्थान पर पीछे हटते देख उसने हँसते हुये कहा- भैया, घबराने की क्या बात है ? आओ, तुम भी इसके ऊपर हाथ फेर जाओ।

इस डर से रामलाल कहीं मेरे पास न हाँक लाये, मैंने पीछे हटते हुये कहा- नहीं रे, तू इसे पीछे के घर में जल्दी बाँध आ। कहीं बिचक न उठे। ढोरों से मुझे बहुत डर लगता है। अभी परसों ही मुहल्ले में किसी गाय ने एक लड़के के पैर में वह ठोकर मारी कि उसकी हड्डी टूटते-टूटते बची।

रामलाल ने कहा- उसने कोई पाप किया होगा, नहीं तो गाय किसी को मारती है ? श्यामा है। भगवान् तक ने इसका दूध पिया है।
श्यामा गाय की यह महिमा मैंने भी सुनी थी। परन्तु इस बात पर विश्वास करने के ही लिये मैंने अपने को संकट में डालना उचित नहीं समझा।

वह उसे ले जाकर यथास्थान बाँध आया। मैंने कहा- चल रामलाल, माँ के पास। देर हो गई, कुछ खा ले।
वह बोला- माँ ने तो पहले ही खिला दिया था। कहने लगीं, घर जाने में देर हो गई, इसीलिये यहीं खा ले। मैंने कहा, नहीं माँ, देर कुछ नहीं हुई; घर पर अभी रोटी हुई तैयार न हुई होगी। काम लग जाता है तो मैं तीसरे पहर तक बिना खाये रह सकता हूँ। सबेरे डट कर जो खा लेता हूँ। सुनकर वे ‘राम-नाम’ करके कहने लगी, इतने छोटे बच्चे भी कहीं इतनी देर तक भूखे रह सकते हैं ! आ, कुछ खा ले। फिर मैं नाहीं न कर सका।

सुनकर मुझे कुछ बहुत अच्छा न लगा। माँ में यही तो ऐब है, जिसे देखो उसी को प्यार करने लगती हैं। उचित तो यही है कि सब माताएँ अपने-अपने बच्चों को प्यार करें ! मुझे मुनीम कक्का की बात याद आई कि इस घर में कोई नौकर अच्छी तरह काम नहीं कर सकता। माँ ही उन्हें बिगाड़ देती है। नौकरी तो उन्हें मिलती ही है, खाना-पीना उनका मुफ्त हो जाता है। कोई भी हो, घर में किसी का पेट खाली नहीं रहने पाता, और पेट भरा है तो किसी को काम की क्या चिन्ता ?
किसी काम से माँ को वहाँ आया देखकर मैंने कहा- माँ, तुमने मेरे नौकर को क्यों खिला दिया ?

माँ ने हँस कर कहा- खिला दिया तो क्या हुआ ? तू भी तो उससे खा लेने को ही कह रहा था।
रामलाल कुछ संकुचित हो पड़ा। कदाचित् इस विचार से कि माँ के संबंध में वह जो कुछ कह रहा था, उसे उन्होंने सुन लिया। मैंने कहा- खिलाना होता तो अपने नौकर को मैं खिलाता, तुम बीच में क्यों पड़ गई ? तुम उसे फुसलाना चाहती हो ! देख रामलाल, तू मेरा नौकर है, अब माँ का कोई काम किया तो ठीक न होगा।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-2

इधर-उधर घूम फिर कर, सन्ध्या के उपरान्त नित्य की भाँति जब मैं घर लौटा तब, मुन्नी रामलाल के सामने बैठी बड़े ध्यान से कुछ सुन रही थी । मुझे देखते ही उल्लास के साथ बोल उठी- भैया, बड़ी अच्छी कहानी है; तुम भी सुन लो ।

मैंने रामलाल से पूछा- तुझे कहानी कह आती है ?

उसने विनय का आडम्बर किये बिना, निस्संकोच कहा- हाँ हाँ भैया, मैं ऐसी कहानियाँ कह सकता हूँ, जो रात रात भर पूरी न हों।

मुन्नी कहने लगी- बैठ जाओ भैया, सुन लो । राजा ने अपने दो राजकुमारों को देश निकाला दे दिया था। रात में पहरे पर जागते हुए भूखे छोटे कुँवर से पेड़ के पंछी ने आदमी की बोली में - हाँ क्या कहा, रामलाल ?

रामलाल कहने लगा-सुनसान अँधेरी रात; चारों ओर बियाबान जङ्गल । ऐसे में पेड़ के पंछी ने आदमी की बोली में साफ कहा- सुन, ऐ राजकुमार !

"सब झूठ" कह कर मैं आगे बढ़ने लगा; परन्तु रामलाल के अभिनयोचित कथन ने मेरे हृदय और कान अपनी ओर आकृष्ट कर लिये। मुन्नी कहने लगी- वाह झूठ कैसे ! रामलाल ने साधू-महात्मा के मुँह से सुनी है, उनकी धूनी दिन रात कभी ठंडी नहीं होती; पूरा माथा भर कर तिलक लगाते हैं। क्यों रामलाल ?

उसने संक्षेप में कहा – हाँ ।

मुझे जान पड़ा कि वक्ता और श्रोता के इस आमन्त्रण को ठुकरा कर मैंने ठीक नहीं किया। नहीं तो, उस कहानी का कहने वाला क्या अकेला रामलाल ही था? नहीं, उसके भीतर से अनन्त काल की गाथा अपने आप बोल रही थी; न जाने कितने युगों से उसका वह अविरुद्ध स्रोत निरन्तर बहता चला आ रहा था, न जाने कितने शिशुओं के हर्षोच्छ्वास से फिर फिर ओतप्रोत होकर, न जानें वह कितना आगे बढ़ जाना चाहता था ! असत्य और अनैसर्गिक कहकर उसकी गति वहीं रोक दी जाती, क्या यह सम्भव था ? - नहीं, मैं आगे न बढ़ सका। लौट कर मुन्नी के पास बैठ गया और उसकी पीठ थपथपा कर उसे दोनों हाथों से हिलाने लगा उसके हृदय के श्रोता का आनन्द मानों इतनी ही बात से दुगुना हो गया। बोली- झूठ नहीं भैया, रामलाल ने बहुत बड़े साधू-महात्मा के मुँह से सुनी है। उनकी धूनी रात-दिन-

मैंने कहा- दुत् ! साधू-महात्मा कह बैठे कि मेरी पूजा में किसी मुन्नी की बलि चाहिए तो क्या तू इसे भी मान लेगी ?

उसने अपना सिर दूसरी ओर फेर कर कहा -जाओ, मैं तुम्हारी बात नहीं सुनती।

रामलाल को कहानी कहने के लिए प्रस्तुत देख कर मैंने कहा- तुम्हारी यह कहानी रात भर वाली तो नहीं है ?

वह बोला- नहीं भैया, बहुत छोटी है । परन्तु तुम कहो तो दूसरी सुनाऊँ । दानव और उसकी कन्या की दानव ने नगर का नगर उजाड़ कर दिया था। बहुत अच्छी । जो एक बार सुन लेते हैं, बार-बार सुनना चाहते हैं।

विज्ञ श्रोता को सामने पाकर रामलाल एक अख्यात साहित्यिक की तरह अपनी सर्वोत्तम वस्तु सुनाने के लिये बुरी तरह व्याकुल हो उठा। परन्तु बीच में ही टोक कर मुन्नी ने कहा- नहीं भैया, यही होने दो। हाँ, रामलाल, सुनसान अँधेरी रात में पेड़ के पंछी ने आदमी की बोली में कहा; - हाँ, क्या कहा?

उत्सुकता मेरी जाग गई थी, फिर भी मुझे अपने बड़प्पन का ध्यान रखना आवश्यक था। मैंने मुन्नी से कहा- देख, कहानी के बीच में 'हूँ' तुझे ही करनी पड़ेगी।

रामलाल की वाग्धारा इन साधारण बातों से रुकने की न थी। अपने पूर्व वेग से वह फिर प्रवाहित होने लगी। बाल साहित्य की अनेक कहानियाँ मैं पहले पढ़ चुका था; इधर-उधर सुनी भी बहुत-सी थीं। परन्तु इसके कथन में तो कुछ दूसरी ही बात है। मेरे लिये इस तरह की जो कहानी अपनी षोड़शावस्था पार करके कभी की जरा-जर्जर हो चुकी थी, रत्नाभूषण पहना कर इसने मानों फिर से उसे पूर्वावस्था में लाकर मेरे सामने खड़ा कर दिया। माँ के पद- शब्द से सहसा मेरा ध्यान टूटा | झट से कुछ आगे झुकते हुए, रामलाल के मुँह पर अपना एक हाथ रख कर मैंने कहा - चुप !

मुन्नी एकदम चौंक पड़ी। मैंने कहा- देख रामलाल, माँ सुन रही हैं। तू मेरा नौकर है; खबरदार जो इन्हें कुछ सुनने दिया। क्यों मुन्नी, कैसी कहानी है ? आज तक ऐसी कभी किसी ने न सुनी होगी। है न ठीक ?

प्रशंसा बहुत कुछ खाई जाने वाली तमाखू के समान है, जो अपना नशा पेट के भीतर पहुँचे बिना ही देने लगती है। कहानी के संबंध में मैं जो कुछ कह रहा हूँ, उसका उद्देश्य शुद्ध प्रशंसा न होकर कुछ और है, यह बात रामलाल निश्चय ही जानता था। फिर भी मैंने देखा, एकाएक वह पुलकित हो उठा है। बोला- हाँ मा, बड़ी अच्छी कहानी है । परन्तु दूसरी इससे भी अच्छी है। तुम सुनो तो वैसी ही रह जाओ ।

मैंने रोष दिखा कर देख फिर वही बात मैं कह चुका हूँ,- खबरदार जो माँ को कुछ सुनने दिया।

माँ ने भीतर की ओर लौटते हुए कहा-चल, चल, रहने दे अपनी कहानी; मैंने भी बहुत सुनी हैं।

रामलाल ने मुन्नी को हाथ से ठेलते हुए दबे स्वर में कहा- जा बिन्नी जा, माँ को लौटा तो ला ।

मुन्नी दौड़ कर माँ से लिपट गई। उन्हें अपनी ओर खींचती हुई अनुनय के स्वर में बोली- आओ माँ, तनिक तुम भी सुन लो पेड़ के पंछी ने आदमी की बोली में बात की थी। रामलाल ने बहुत बड़े साधू- महात्मा के मुँह से सुनी है।

साधू-महात्मा की धूनी और उनके तिलक छापों की बात सुने बिना ही माँ को अविश्वास का कोई कारण न दीखा। लौट कर हँसती हुई बोलीं- तेरे भैया तो सुनने ही नहीं देते। सबेरे उन्होंने रामलाल को खिला-पिला नहीं पाया। तभी से नाराज हैं।

मुन्नी बोली- हाँ माँ, रामलाल को यहीं ब्यालू करा दो। घर जा रहे थे, तब तक मैंने कहानी कहने के लिये रोक दिया। - सुनती हो माँ?

माँ ने उत्तर दिया- परन्तु तेरी कहानी पूरी हो तब तो ।

रामलाल को ब्यालू का यह प्रसंग अच्छा न लगा। उसकी कहानी का पुरस्कार इससे बढ़ कर और क्या हो सकता था कि ऐसे-ऐसे श्रोता उसके सामने थे। उसने संकोच के भाव से कहा- नहीं, मुझे कुछ देर नहीं हुई। मैं घर जाकर ही-

बीच में ही आज्ञा-सूचक कठोर स्वर से मैंने कहा- नहीं, ब्यालू तुझे यहीं करनी पड़ेगी ।

रामलाल हलकी हँसी हँसकर फिर कहानी कहने लगा ।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-3

दो-चार दिन में रामलाल मुझसे हिल मिल गया। उसका व्यवहार उन दूसरे नौकरों जैसा न था, जिन्हें मेरे काम के लिए अवकाश के समय में भी कभी अवकाश न मिलता था। अपने आप आ आकर वह मेरी आवश्यकताएँ जानने का प्रयत्न करता था। पतंग की डोर पर माँजा चढ़ाने के लिये मुझे काँच के महीन चूरे की आवश्यकता पड़ती। दूसरे नौकरों की आनाकानी के कारण एक दिन मैं स्वयं काँच पीसने बैठ गया। इसके लिए मेरे ऊपर डाँट पड़ी। वास्तव में यह डाँट पड़नी चाहिए थी नौकरों पर, जो उस समय तमाखू जैसा बहुमूल्य पदार्थ जला जला कर राख कर रहे थे। रामलाल के कारण मेरी यह कठिनाई सहज ही दूर हो गई। वह मेरा समवयस्क ही था, परन्तु काँच पीसते हुए उसको कोई नुकीला कण चुभ जाने का डर किसी को न था । - इसलिए अब जब मैं चाहता तभी मेरी डोर पर माँजे का कवच चढ़ जाता। दूसरे की कटी हुई पतंग लूटना भी मेरे लिए निषिद्ध था । मेरे सामने से ही किसी की कटी हुई पतंग निकल जाय और दो ही पग दौड़कर मैं उसके ऊपर अपना आधिपत्य न जमा सकूँ, इस बात से मेरे किशोर मन को कितनी पीड़ा होती, इसे दूसरा कोई अकालवृद्ध क्या जानें। लूटी हुई इस पतंग में मेरे लिए विजय - गर्व का जो आकर्षण था, बाजार से खरीद कर लाई गई सौ पतंगों में भी वह कहा। लूट-पाट के इस काम में रामलाल जैसा उत्साह दिखाया करता, उससे मेरे खेल का आनन्द सौगुना बढ़ जाता। एक दिन रंग-बिरंगी पतंग लूटने के लिए ऊपर के एक छज्जे पर वह बिल्ली की तरह चढ़ गया। वहाँ से जरा भी चूकता तो नीचे गिरकर उसकी हड्डी पसली चूर-चूर हो जाती। परन्तु जब सकुशल नीचे उतर कर उसने वह पतंग मेरे हाथ में दी, तब नौकर और स्वामी का भावभूल कर अपने उस विजयी सेनापति से मैं एकदम लिपट गया।

परन्तु रामलाल था 'नीच जाति' अर्थात्, वह हमारे यहाँ रोटी खा सकता था; हमारे जूठे बर्तन उठाकर माँज सकता था। और भी इसी तरह के अनेक काम थे, जिनसे अपने किसी पूर्वज का सिर नीचा होने का डर उसे न था। अतएव उसके साथ मेरी यह घनिष्ठता मुनीम कक्का को बहुत खटकती। वे मेरे पिता के निजी आदमियों में से थे और दीर्घ काल तक सुख-दुख के अभिन्न साथी रह कर हमारे परिवार के एक अंग ही बन गये थे। छुटपन में बहुत समय तक मैं यह अनुभव भी न कर सका था कि वे हमारे वेतन भोगी हैं। घर में मुझे किसी का डर था तो उन्हीं का । याद नहीं आता कि उन्होंने कभी मुझे मारा-पीटा हो, परन्तु मेरा विश्वास है कि यदि किसी नये यन्त्र की सहायता से उन दिनों मेरे मन का निरीक्षण किया जाता तो उस पर उनकी झिड़कियों की चोट के कई नीले चिह्न उभरे दिखाई देते ।

कक्का रामलाल से संतुष्ट न थे, यह मुझसे छिपा न था। कोई नौकर अपना निर्दिष्ट काम पूरा करके भी खेल-कूद का समय निकाल ले, यह जैसे उन्हें सह्य न था। वह पूरा काम नहीं करता, इस बात का प्रमाण क्या यह कुछ कम था कि वह मेरे साथ खेल-कूद भी लेता है। सम्भव है, उनके इस असन्तोष ने रामलाल को और भी मेरे निकट ला दिया हो। इसलिए उन दिन मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई, जब एक दिन दस रुपये का एक नोट लाकर मुझे बताते हुये उसने कहा- कक्का की गद्दी पर पड़ा मिला।

कक्का की गद्दी पर! एकदम आनन्द से उछल कर मैंने नोट उसके हाथ से छीन लिया। अब कहें, दूसरों पर तो तनिक तनिक सी बात पर बिगड़ते हैं और स्वयं दस दस रुपये के नोट इस तरह गिरा देते हैं। परन्तु हाय ! मुझमें ऐसी शक्ति न थी कि ऐसी भूल के लिए भी उनसे कुछ कह - सुन सकूँ ।

उनके सामने मैं अपनी उपस्थिति सदैव अपराधी के रूप में ही पाता था। इसलिए उनके नोट गिरा देने की यह घटना मुझे बहुत महत्वपूर्ण जान पड़ी। मेरे लिये यह एक ऐसी विजय थी, जिसका आनन्द दुहरा था। विजय रामलाल के ऊपर छापा मार कर अपने बल से मैंने इसे हस्तगत किया था।

परन्तु मेरा यह आनन्द तभी तक था, जब तक मैं कक्का के सामने न था। मेरे हाथ में नोट देख कर मेरे कुछ कहने के पहले ही वे बोल उठे - गद्दी पर से यह नोट क्यों उठाया?

उस कठोर स्वर से मैं एकदम गड़बड़ा गया । तुरन्त उत्तर न देने से सम्भव था, मेरे अज्ञात अपराध में और भी वृद्धि हो जाती, इसलिये अचानक शीघ्रता में कह बैठा-रामलाल लिये जा रहा था-

हाय, मेरे मुँह से यह क्या निकल गया! कक्का अब उस बेचारे को चोर समझ बैठें तो वह इस कलंक को धोयगा किस तरह? दस रुपये की निधि उसके लिये साधारण न थी । पाँच महीने के अविश्रान्त परिश्रम के रूप में ही वह इसे पा सकता था। सो भी ऋण के ब्याज की कमी के रूप में, प्रत्यक्ष इसी तरह नहीं ।

कक्का ने अपने सहज-कर्कश स्वर में मुझसे पूछा- उसने इसे गद्दी पर से उठाया क्यों? - मानों रामलाल मैं ही होऊँ। अब इस बात का मैं क्या उत्तर देता? देख कर भी यदि वहाँ से वह उसे न उठाता तो कौन कह सकता है, यह भी उसका एक अपराध न होता। उसकी स्थिति मानों कैंची के संयुक्त दो भागों के बीच में थी । ऊपर की धार से अपने को बचाता है तो नीचे की धार से नहीं बचता और नीचे की धार से अपने को बचाता है तो ऊपर की धार से नहीं बचता। फिर भी कक्का ने रामलाल की नियति के ऊपर कोई आक्रमण नहीं किया, मुझे बहुत जान पड़ा।

गिरे हुए नोट के मिल जाने पर भी उनकी चेष्टा में प्रसन्नता की कोई छाप न देख कर मुझे उस समय बहुत दिनों तक बड़ा विस्मय रहा था । इसके कई बरस बाद यह समझने की योग्यता मुझमें आ सकी कि वास्तव में उस नोट के पड़े रहने में उनकी कोई भूल न थी । जाना समझा ही वह वहाँ पड़ा रहा था। जान पड़ता है, इस घटना के बाद कक्का के व्यवहार में उसके प्रति निश्चय ही कुछ कोमलता आ गई थी; - छेनी चलाने वाला पत्थर पर पानी डालकर उसमें जिस प्रकार की अलक्ष्य कोमलता उत्पन्न कर देता है, कुछ कुछ उसी प्रकार की। इसी से उस समय उसे मैं समझ न सका था।

कक्का ने मुझे लौट जाते देख कर एकाएक कहा - आजकल तुम कुछ लिखते-पढ़ते भी हो या दिन भर खेल-कूद और ऊधम उपद्रव ही किया करते हो?

मैंने ठिठक कर कहा- पढ़ता तो हूँ ।

"क्या पढ़ते हो, – अङ्गरेजी ?"

“हाँ।”

“हाँ।”

"अच्छा देखें, क्या पढ़ते हो । बोलो अङ्गरेजी !"

मैं चक्कर में पड़ गया कि क्या अङ्गरेजी बोलूँ और कुछ बोलूँ भी तो कक्का उसे समझेंगे क्या । हतबुद्धि-सा जहाँ का तहाँ देख कर मुझे डाँटते हुए उन्होंने कहा- तुम समझते हो, यह बूढ़ा बेवकूफ अङ्गरेजी क्या समझेगा ? – परन्तु मैं इतने में ही समझ गया, तुम्हारी लियाकत क्या है । नीच जाति के लड़कों के साथ खेलने से इस तरह का बोदापन न आ गया तो क्या? इतने बड़े हो गये, परन्तु बात करने का शऊर भी न आया । उस दिन सक्सेना वकील के यहाँ एक अङ्गरेज आया, उसके साथ में उसका छः सात बरस का लड़का था। उसकी फर्राटे की अङ्गरेजी सुनकर वकील साहब भी चकरा गये और तुम अभी तक अङ्गरेजी में एक बात भी नहीं कर सकते। जाओ, कमरे में बैठकर, अच्छी तरह पढ़ो।

इच्छा हुई, जान लेकर एकदम यहाँ से भाग जाऊँ । परन्तु भागा हुआ समझ कर कहीं फिर से न पकड़ लिया जाऊँ, इसलिए धीरे-धीरे खिसक कर चुपचाप अपने कमरे में जा बैठा ।

प्रतिदिन की तरह उस दिन भी जब घूम-घाम कर सन्ध्या के बाद घर लौटा तो मुन्नी ने झट से मेरे पास आकर कहा- भैया, तुम कहाँ गये थे? – कक्का तुम्हें खोजते थे ।

मैं शंकित हो उठा। पूछा- क्यों क्या बात थी?

उसने कहा- उनके साथ कोई बाबू था। कहने लगे, बुलाओ हरी को; बाबू साहब के साथ अङ्गरेजी में बातचीत करेगा। बाबू से कहते थे, हरी पढ़ने में बहुत तेज है। खूब पढ़ा कर उसे डिपटी कलट्टर बनायेंगे ।

मेरी अनुपस्थिति में कक्का मेरे विषय में ऐसी बात कहते थे ! मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं तैयार था जेल की आज्ञा सुनने के लिए और न्यायालय ने दे दिया नगद पुरस्कार। मैंने हँस कर कहा - हूँ, जाने दे बाबू को ! - तनिक रामलाल को तो बुला बिन्नी । उसकी कहानी सुनूँगा ।

मुन्नी ने म्लान-मन से कहा- कक्का ने रामलाल को खलिहान पर भेज दिया है। वहाँ वह नाज की चौकसी करेगा। किसान बड़े चोर हैं न । आँख बचाकर तुरन्त बोरे के बोरे उड़ा देते हैं - इसी से ।

मेरे घर में रामलाल की विश्वस्ता का यह पहला पुरस्कार था ।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-4

खलियान गाँव से कुछ दूर था। रविवार के दिन वहाँ जाने के लिये मैं अकेला निकल पड़ा। समझता था, मार्ग मेरा जाना हुआ है। पहले दो एक बार मैं वहाँ हो आया था। परन्तु गाँव के बारह कुछ दूर जाकर मैं एक विचित्र गोरखधन्धे में पड़ गया। दो पगडंडियाँ बाई तरफ गई थीं दो चार दाई तरफ। कटे हुये खेतों के बीच में भी आने जाने वालों ने बहुत-से नये मार्ग बना लिये थे। गाँव के लोग इन सबमें से किसी एक को किस तरह पहचान लेते हैं, मेरे लिये यह एक समस्या थी। रंग-रूप, आकार-प्रकार इन सबका एक; न कोई छोटा और न कोई बड़ा । अपने परिचय के विषय में सब समान रूप से चुप । किसी पुस्तक के बीच किसी अज्ञात भाषा के उद्धरण को छेड़ते हुये आगे का अंश पढ़कर हम अपने आप ठीक ठिकाने पर आ जाते हैं; यहाँ यह भी सम्भव न था । इसलिए उन पगडंडियों के अनुग्रह पर ही अपने को छोड़कर मुझे आगे बढ़ना पढ़ा ।

बहुत दूर निकल जाने पर, उस ओर से आते हुए एक किसान ने 'राम राम !' करके मुझसे कहा - इधर कहाँ जा रहे हो भैया?

रुक कर मैंने कहा - अपने बड़े खेत के खलिहान तक घूमने के लिए जा रहा था।

"तुम्हारा रास्ता तो पीछे छूट गया। भैया, तुम जैसे बड़े आदमियों का काम इधर अकेले आने का थोड़े है। बड़े मालिक (मेरे पिता) की भी जब कभी खेतखलिहान देखने की मौज होती थी तब हमेशा चार छः नौकर साथ रहते थे। तुम्हें भी किसी को साथ लेकर आना चाहिए ।मैं काम से जा रहा हूँ, नहीं तो तुम्हें मैं ही वहाँ तक पहुँचा आता। देखो, इस पगडंडी से जाकर सामने वह जो इमली का पेड़ दीख रहा है-"

मैंने सामने की ओर देखा, वहाँ बहुत से पेड़ दिखाई दिये। अब इनमें से कौन पेड़ इमली है और कौन आम; मेरे लिए यह जानना कठिन था। फिर भी मैंने कहा- अच्छा।

"तो बस उस खेत की मेंड़ को बाई ओर छोड़कर सीधे चले जाना।"

इस तरह बार-बार अपनी भूल का संशोधन परिशोधन करता हुआ बड़ी कठिनता से मैं अपने खलिहान पर पहुँचा ।

वहाँ काम करने वालों को बड़ा विस्मय हुआ । मानों पैदल ही सारी पृथ्वी की परिक्रमा करके मैं वहाँ पहुँचा होऊँ। रतना ने कहा- भैया, अकेले इतनी दूर कैसे चले आये; कहीं रास्ता तो नहीं भूले ?

किसना ने उसे फटकारते हुए कहा- बेशऊर कहीं का! यहाँ तक भी न आ सकते? उनकी अङ्गरेजी की पोथी में दुनिया भर की बातें लिखी हैं। बम्बई, कलकत्ता और न जाने कहाँ-कहाँ की ।

इसके बाद उसने गिटपिट गिटपिट करके अङ्गरेजी पढ़ने की नकल की ।

मैंने पूछा- रामलाल कहाँ है ?

वह बोला- कौन रामलाल ?

एक दूसरे आदमी ने कहा- अरे रमला की बात कह रहे हैं, रमला की! भैया, ऐसा वज्री लड़का तो दूसरा नहीं देखा। इसे वहीं बुला लो तो चैन पड़े। दिन भर ऊधम करता रहता है। किसी काम के लिए कहो तो सौ बहाने । अभी-अभी रोटी खाकर नहर के बम्बे पर पानी पीने गया है। नवाब का बेटा है न, इस कुएँ का पानी खारी लगता है !

मैंने विस्मय से पूछा -रोटी खाने का यह कौन समय है ?

"भैया, यह खेत है, घर नहीं कि जब जी चाहा भीतर जाकर मालकिन के हाथ-पैर जोड़े और दो-चार फुलके झट से पेट में डालकर हाथ-मुँह पोछते हुए बाहर निकल आये। यहाँ तो फुरसत पाकर जब कोई घर से रोटी दे जाय तभी समय है। हाँ, आज कुछ देर हो गई।"

"तो क्या वह इतनी देर तक भूखा ही बना रहा?"

"वह भूखा रहेगा तो हो चुका। रतन की एक रोटी जबर्दस्ती छीन कर खा गया। और फिर यहाँ तो ढेर के ढेर गेहूँ-चने हैं। दिन भर खाता रहता है।"

"कच्चे ही?"

छने चनों के ढेर के पास खड़े हुए एक आदमी ने कुछ चने उठा कर अपने मुँह में डालते हुए कहा- भैया, यह अन्न-देवता है; कच्चा भी किसको मिलता है ?

सुन कर दूसरे लोग हँसने लगे। अँगरेजी की पोथी में दुनियाँ भर की बातें पढ़ा हुआ मैं, मानों इतनी साधारण बात भी नहीं जानता ।

थोड़ी देर में ही रामलाल दिखाई दिया- एक भैंस की पीठ पर चढ़ा हुआ। एक हाथ में मोटी छड़ी जैसी कोई लकड़ी थी और दूसरे में हाल की तोड़ी हुई एक अमिया । उसे ऊपर उछाल कर उसी हाथ में बार- बार गुपक रहा था। दूर से देखते ही रतन ने कहा- देखी भैया, रमला की शैतानी ? यह ऐसे ही काम करता रहता है। भैंस बेंतर हो तो नीचे गिराकर सीधा जमराज के यहाँ भेज दे।

मुझे हँसी आ गई। इसी बीच में रामलाल ने मुझे देख लिया। देखते ही झट से भैंस की पीठ पर से नीचे कूद पड़ा और लकड़ी मार मार कर उसे इस प्रकार भगाने लगा, मानों नाज खाने के लिए अनधिकार प्रवेश करके वह उसकी सीमा के भीतर आ गई हो।

मेरे पास आकर बोला- भैया, बहुत दिनों में यहाँ आये? आज मैं अपने आप वहाँ आने की सोच रहा था। साथ में डोर पतंग नहीं लाये ? लाते तो बड़ा मजा रहता ।

मैंने कहा - लड़ाने के लिए यहाँ दूसरा तो कोई है ही नहीं ।

"अरे दूसरा कोई नहीं है तो क्या हुआ, हम अपने आप ही तानते। सचमुच बड़ा अच्छा रहता।"

बड़बड़ाते हुए एक किसान ने आकर कपड़े की बँधी हुई झोली में से एक ढेर कच्ची अमियाँ नीचे गिराते हुए कहा- देखो भैया, इस रमला की शैतानी ! मेरे आम पर चढ़कर ये अमियाँ झड़ा आया है। कच्ची है, अब यह नुकसान हुआ या नहीं? रखवाली पर बूढ़ी डोकरी थी, उसके रोकने पर उसे मुँह से चिढ़ा कर भाग आया। बड़े आदमी का नौकर समझ कर कोई कुछ नहीं कहता। नहीं तो गुस्सा ऐसा आता है कि अच्छी तरह धुनक दूँ, जिसमें फिर हमेशा को याद रहे ।

रामलाल ने टेढ़ी नजर से उसे देखते हुए कहा - अमियाँ क्या गिराई हैं? अपने आप हवा से झड़कर गिर गई और झूठ-मूठ मेरा नाम लेते हैं। डोकरी बिना कारण मुझसे चिढ़ती है। कहती है इस पेड़ के नीचे से रास्ता नहीं है, उधर से जाओ। मैंने तो कुछ कहा नहीं, नहीं तो झोंटा पकड़ कर-

किसान ने भड़क कर कहा-सुन लो भैया रतन, सुन लो इस लड़के की बात! मेरा नुकसान करके उलटा मुझी को डाँट रहा है। ये अमियाँ हवा की गिरी है? देखो, देखो- "

आदमियों ने बड़ी कठिनता से समझा बुझाकर उसे वहाँ से रवाना कर पाया। उसके चले जाने पर रतन ने कहा- देख लिया भैया, तुमने इसका हाल ? यह हम सब की बदनामी करायगा। मुनीम कक्का से कह कर इसे यहाँ से बुला लो। उनके हंटर पड़ेंगे तभी यह मानेगा ।

रामलाल के मुँह पर निश्चिन्तता का ऐसा भाव था, मानों उसकी शिकायत की चिट्ठी ऐसे लेटर बाक्स में डाली गई है जिसमें की चिट्ठियाँ कभी निकाली ही नहीं जाती। उसने कहा- दादा, नाखुश क्यों होते हो, मैं अभी चिलम भर कर लाता हूँ।

रतन को छोड़कर और सब लोग हँस पड़े। एक ने कहा- भैया, समझे इसकी बात? अभी-अभी इतनी फटकार पड़ चुकी है, फिर भी शरारत करने के लिए तैयार है। चिलम में तमाखू की जगह न जानें कौन कौन - सी सूखी पत्तियाँ घर लायगा और कहेगा-लो दादा, पियो तमाखू !

रतन उसके ऊपर एक तिरछी नजर डाल कर चुप रह गया। अपनी हँसी रोकते हुए रामलाल ने मुझसे कहा- चलो भैया, तुम्हें यहाँ घुमा- फिरा दूँ।

चलते-चलते मैंने कहा- रामलाल, घर पर तो तू ऐसा नटखट न था।

"घर पर तो माँ हैं, तुम हो, दादा हैं।"

"और कक्का नहीं?"

रामलाल ने मुँह विचका कर उपेक्षा के भाव से कहा - हूँ, - क्या मैं उन्हें डरता हूँ। माँ को बुरा लगेगा, इसी से कभी कुछ नहीं कहता।

"परन्तु उन्हीं ने तो मुझे खलिहान पर भेजा है कि कोई नौकर- चाकर यहाँ से कुछ टरका - टरकू न दे।"

"इसी से सब लोग मुझसे जलते हैं, मैं उनका अफसर हूँ।"

मुझे हँसी आई। बोला- इन बड़े-बड़े पूरे आदमियों का तू इतना छोटा अफसर।

सरल विस्मय से उसने कहा- क्यों, क्या छोटा आदमी अफसर नहीं हो सकता? उस दिन टोप लगाये जंट साहब गाँव देखने आये थे। उनके मूछें भी नहीं निकली थीं। लोग कहते थे, छोकड़ा है, – ताजा - विलायत; कोई बात समझता नहीं। फिर भी बड़ी-बड़ी भूरी मूँछों वाले झुक झुक कर सलाम करते थे।

"तो तू इन लोगों का ऐसा ही अफसर है?"

"हाँ भैया, अफसरी में बड़ा मजा है। मैंने कागज का एक टोप बनाया था, इन लोगों ने उसे फाड़फूड़ कर फेंक दिया है। साहब बन कर कुरसी की तरह कुएँ की जगत पर तनकर मैं बैठ जाता हूँ और हुक्म देता हूँ - तुम काला आदमी, हमारे लिए तमाखू का चिलम भर लाओ।”—कहते-कहते हँसी के मारे वह स्वयं लोट-पोट होने लगा।

"फिर तमाखू की चिलम आ जाती है?"

"आती कब है । अपने हरुआ चपरासी को हुक्म देना पड़ता है- पाकड़ो सुअर काला आदमी को; हमारा बात नहीं सुनता।"

"किसी को बुरा नहीं लगता?"

"बुरा क्यों लगेगा, सुनकर सब खुश होते हैं। दिन भर यहाँ यही आनन्द रहता है।"

चुपचाप चलते-चलते रामलाल ने नीरवता भंग करते हुए कहा- भैया, सुनी, इस हल्का की बदमाशी?

"क्या ? - हल्का तो सीधा-साधा बड़ा गरीब है। "

"सीधा-साधा नहीं, उसमें बड़े गुन हैं। कल साँझ के झुटपुटे में लोटा लेकर जल्दी-जल्दी दिशा के लिए जा रहा था। मैंने झट से पीछे से उसका हाथ पकड़ कर लोटा औंधा दिया । नीचे जमीन पर सेर डेढ़ सेर गेहूँ फैल गये। मेरे पैर पकड़क कर रोने लगा- भैया किसी से कहना नहीं। आकर अभी बिनिया कह गई थी, आज दिन में घर पर रोटी नहीं बनी; नाज न था। और सबका दुःख तो देख लिया जा सकता है, परन्तु बूढ़ी डोकरी का नहीं। कहती है; जब तक सब न खा लेंगे, मैं न खाऊँगी। इसी से - | मैंने कहा - डोकरी की माया थी तो नाज बाजार से क्यों नहीं खरीदा? कहने लगा-पैसे हों तब न – यहाँ तो ऋण के मद्धे काम कर रहा हूँ। उसकी सूरत देखकर मुझे दया तो आ गई, परन्तु है बड़ा बदमाश। मेरी आँखों में धूल डालना चाहता था ! "

सुन कर मैं सुस्त सा पड़ गया। थोड़ी देर चुप रह कर मैंने कहा- तूने यह क्या किया? उसे नाज ले जाने देता। बेचारी बुढ़िया के ऊपर भी तुझे दया न आई।

उसने मेरी ओर ताकते हुए कहा- वाह भैया, तुमने यह अच्छी कही। ऐसा हो तो सबका सब माल यहीं खेत पर से उड़ जाय । नौकर- चाकरों के घर का हाल तो ऐसा होता ही है। तो क्या कोई इसलिए किसी की चोरी करे? धर्म-कर्म भी तो कुछ है। कई बार मेरे घर भी दिन-दिन भर रोटी नहीं बन सकी। परन्तु बप्पा कहते हैं, धीरज धरने से सब ठीक हो जाता है। भगवान् रात-रात तक सबका पेट भरते हैं।

रामलाल की कोई बात ऐसी न थी, जिसके विरुद्ध मैं कुछ कह सकता। फिर भी न जाने क्यों उस दिन का मेरा सारा आनन्द क्षण भर में ही कहाँ किस जगह चला गया। मैंने पूछा- कक्का से तो तूने अभी तक यह बात नहीं कही?

"अभी तक तो वे मुझे मिले ही नहीं।"

"तो अब न कहना । "

रामलाल ने चुपचाप सिर हिला दिया ।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-5

दिन का विश्राम है रात और रात का विश्राम दिन; परन्तु समय का कोई विश्राम नहीं । न वह दिन देखता है न रात; रात दिन चलते रहना ही उसका काम है। देखते ही देखते दिनों की भाँति कई बरस बीत गये । बड़ों से बच कर, जिनके सामने चिरकाल तक हम बच्चे ही बने रहते हैं, — मैं कहना चाहता हूँ कि बचपन की अवस्था को अब मैं पार कर चुका था। मुन्नी भी अब वह मुत्री न थी, पहले जिसे मैं हाथों पर लेकर ऊपर उछाल दिया करता था । परन्तु हाँ, रामलाल की प्रकृति हमसे कुछ भिन्न थी । कटकर आती हुई पतंग को देखकर उसे लूटने के लिए अब भी वह पहले जैसा ही चंचल दिखाई देता था। उसका जीवन किसी ऐसे चन्द्रमा के समान था जो नवमी की तिथि तक निरन्तर बढ़कर भी अपनी द्वितीया का बाँकपन नहीं छोड़ता। सबसे विचित्र तो यह है कि लड़कपन के किसी काम से रोके जाने पर वह निस्संकोच भाव से कह देता - वाह, लड़का नहीं तो क्या अभी मैं बूढ़ा हो गया !

अध्ययन के अति भोजन से मेरी जठराग्नि मन्द पड़ गई थी। इसलिए मैं देखता था कि स्वयं तृप्त हो जाने पर भी अपने भोजनों से माँ को तृप्त कर देने की शक्ति मुझमें न थी । सम्भवतः रामलाल यह बात समझता था। इसलिए इस कमी की पूर्ति वह ऐसे मनोरंजक ढंग से करता कि मुझे बहुत अच्छा मालूम होता। समझ-बूझ कर वह ऐसे समय भीतर पहुँचता जब माँ रसोईघर से बाहर के किसी काम में लगी होतीं ।

"माँ, मुझे बहुत भूख लगी है।"

"भूख लगी है तो क्या करूँ, और पहले क्यों नहीं आया? बाहर घन्टे भर से बैठा बातें तो बना रहा था। जा, फिर आना; अभी अवकाश नहीं ।" - माँ झुंझला कर कहतीं ।

"नहीं माँ, सचमुच बहुत भूख लगी है। —तुम नहीं मानतीं तो लो, मैं ये कन्डा-लड़कियाँ सब साफ किये देता हूँ? रसोई के लिए तुम्हीं तंग होगी।" - कह कर रामलाल किसी लकड़ी का छिलका उचेल कर दाँतों से कुतरने लगता ।

इस प्रचण्ड क्षुधा से पराजित होकर माँ को हाथ का काम छोड़ना ही पड़ता।

भोजन करते-करते अचानक वह कह उठता - आज तो मंगल है, तुम्हारे व्रत का दिन । थोड़ी दूर बैठ कर उसका भोजन देखती हुई माँ कुछ रुखापन प्रकट करके कहतीं है सो क्या करें।

"कुछ नहीं; मैं सोच रहा था, व्रत के दिन तो तुम नाम मात्र का भोजन करती हो। हम लड़कों के लिए ही अच्छे-अच्छे व्यंजन बनते हैं। - आज तो आलू का मोहनभोग बना होगा?" "बना है सो अभी खा तो चुका।"

रामलाल सिर झुकाकर बड़े ध्यान से अपनी पत्त देखने लगता। कहता- कहाँ माँ, इसमें तो एक किनका भी नहीं है। और जब पत्त में फिर से मोहनभोग आ जाता हो तो भोलापन दिखा कर कहता - यह है ! यह तो खा चुका था; फिर से व्यर्थ परोस दिया। और फिर तेजी के हाथ चलाने लगता ।

वह केवल भोजन - वीर ही न था काम करने में भी उसकी बराबरी का आदमी मिल सकना कठिन है। जुट जाता तो दो-दो तीन-तीन आदमियों का काम अकेले दी निबटा देता। फिर भी अभी तक हम उसका परिचय नहीं पा सके थे। अचानक एक दिन सौभाग्य अथवा दुर्भाग्य का वह दिन आ पहुँचा।

मुन्नी की सगाई प्रतिष्ठित कुटुम्ब में सुन्दर वर के साथ हो चुकी थी। हम लोग विवाह की तैयारी में थे। रात के आठ बजे का समय था । हिसाब लगाया जा रहा था कि विवाह के खान-पान के लिए घी कितना चाहिए, शक्कर कितनी और इसी तरह बहुत कुछ। एकाएक घर में आतंक छा गया कि डाकू आ रहे हैं। क्षणिक किंकर्तव्यविमूढ़ता के ही अनन्तर ऐसी दुर्घटना का प्रतिकार करने के लिए अच्छी से अच्छी जो तैयारी की जा सकती थी, तुरन्त की जाने लगी। अर्थात् जो भाग सकते थे, भाग कर इधर-उधर जा छिपे और डर के मारे जो स्त्रियाँ और बच्चे इतना भी नहीं कर सकते थे, उन्हें आश्वासन देकर पूर्ण तत्परता के साथ मुहल्ले की ऐसी दरिद्र झोपड़ियों में ले जा कर बिठा दिया गया, जिनके लिए डाकुओं को तो क्या महाजनों और सेठों को भी कोई आकर्षण नहीं हो सकता। लोहे की तिजोरी से निकाल कर सोना चाँदी और काम के कागज पत्र भी ऐसे स्थान पर छिपा दिये गये जहाँ से उन्हें फिर प्राप्त करने में रखने वाले को भी कुछ याद करना पड़े। किन्तु यह सब निकल जाने पर भी लोहे की तिजोरी खाली न थी। उसमें सोने-चाँदी की वे नकली चीजें रख दी गई थीं, जो डाकुओं के तात्कालिक सन्तोष के लिए हमारे ऐसे किसी किसी गृहस्थ के यहाँ, बहुत पहले से तैयार कराके संकट काल के साक्षी ब्रह्मास्त्र की तरह आदर के साथ रख छोड़ी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त हमारे यहाँ एक दुनाली भी थी। ढाई तीन हजार की बस्ती में अस्त्र - कानून की यह कृपा हमारे ऊपर ही थी । परन्तु इस कानून ने अहिंसा का जो धर्म सारे के सारे देश पर लाद दिया है उसके संक्रामक प्रभाव से हम लोग भी मुक्त न थे। फिर भी अपनी दुनाली को हम न भूल सके। इस मानसी हिंसा में हमें आपद्धर्म का ही भरोसा था। आपद्धर्म विद्रोही ही सही, है तो धर्म! अतएव दुनाली के साथ गनपत जमादार सामने वाले घर के ऊपरी खण्ड में ऐसी जगह बिठा दिया गया, आवश्यकता पड़ने पर, जहाँ से डाकुओं के ऊपर अनायास ही गोलाबारी की जा सके।

यह काम तत्परता के साथ शीघ्र किया गया कि कोई भी हममें से किसी पर कर्त्तव्यहीनता का दोषारोपण नहीं कर सकता। वास्तव में हम लोग डाकुओं के लिए बहुत पहले से तैयार थे। डाकू विक्रमसिंह के कारण इन दिनों चारों ओर दूर-दूर तक बहुत आतंक था। यह डाकू अभी नया ही था, इसके डर की तीक्ष्णता अभी तक किसी को सह्य नहीं हो सकी थी। भूकम्प की भाँति किसी अलक्ष्य में अपनी तैयारी करके वह किसी भी जगह अचानक प्रकट हो सकता था । प्रत्येक दूसरे-तीसरे दिन उसकी किसी न किसी निर्दयता का समाचार सुनना ही पड़ता था । पहले भी दो-तीन बार हमारे गाँव में उसके आ पहुँचने के समाचार आ चुके थे। ये समाचार आधुनिक विज्ञान की सहायता के बिना ही क्षण भर में गाँव के इस छोर से उस छोर तक आश्चर्यजनक रीति से फैल जाते थे। साँझ का दिया जलने के पहले ही सारा का सारा बाजार तुरन्त बन्द हो जाता और घर-घर ताले से पड़े हुए दिखाई देने लगते। अच्छी तरह यह सब हो चुकने के अनन्तर दूसरे दिन मालूम होता - डाकू न थे, हमने तो पहले ही कह दिया था; उनके यहाँ कोई बड़ा मेहमान आया था, उसको उस जंगल में चिड़ियाँ मारते देख कर उस डरपोक ने व्यर्थ ही गाँव भर में हो-हल्ला कर दिया - डाकू आये, डाकू आये ! इस बार भी ऐसा ही हो सकता था। परन्तु सम्भावना को ध्रुव मान कर निष्क्रिय बैठ रहना हम बुद्धिमानों का काम नहीं । आपत्ति पहले इसी तरह धोखा देती है और फिर धोखे ही धोखे में अचानक गले आ पड़ती है । विक्रमसिंह के कारण पुलिस भी कम परेशान न थी । बराबर वह उसका पता लगा रही थी। गाँव के दरोगा मुझे एक दिन अचानक मिल गये । टहलने के समय भी उसी की बात उनके भीतर चक्कर काट रही थी । मुझसे पूछने लगे - भाई, तुम तो बताओ, यह विक्रमसिंह कौन है और इसका पता कैसे लगे?

मैंने कहा- हाँ मैं बता सकता हूँ। सुन कर दारोगा साहब की आँखें आनन्द से चमकने लगीं। शीघ्रता से कहने लगे- हाँ बताओ भाई, बताओ। मैंने उत्तर दिया – सुनिए; विक्रमसिंह डाकू है और उसका पता लगाने का ढंग यही है जो आप इस समय कर रहे हैं। मुझ जैसे आदमियों को छोड़ कर आप उसका पता दूसरी जगह नहीं पा सकते ।

दारोगा साहब झेंप गये। बोले- नहीं नहीं, मेरा मतलब यह न था । आप लोग भी क्या, — जरा जरा सी बात पर नाखुश हो जाते हैं !

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-6

मेरे घर से चालीस-पचास गज की दूरी पर दीना कोरी का घर था । अधिक सुरक्षित समझ कर माँ को वहीं पहुँचा दिया गया। दो घन्टा चुपचाप डाकुओं की प्रतीक्षा कर लेने पर भी जब किसी ओर से पत्ता भी उड़कर नहीं आया, तब निश्चितन्त होकर मैं माँ को देखने चला। 'दीना, दीना!' कह कर मैंने बाहर सड़क पर से आवाज दी। डाकुओं की निशाचरी माया से वह अच्छी तरह परिचित था । इसलिए कचहरी के नियमानुसार जब तक अपने निश्चय की मिसिल का पेटा 'कौन, क्या और किसलिए' के उत्तरों से भर न लिया, तब तक स्वर पहचान कर भी उसने घर के किवाड़ नहीं ही खोले ।

माँ ने मुझे देखकर पूछा- तू इधर-उधर क्यों फिर रहा है ?

मैंने कहा - माँ, डर की कोई बात नहीं, मैं सावधान हूँ। यही देखने के लिए चला आया था कि तुम्हें कोई कष्ट तो नहीं।

"अच्छा तो फिर यहीं बैठ जा, अकेले अच्छा नहीं लगता"- कहकर माँ ने मुझे वहीं बन्दी कर लिया।

बैठ कर मैंने दीना का घर इधर-उधर देखा। छोटी-छोटी कोठरियों के बीच में बहुत छोटा आँगन था। उसके एक कोने में पानी भरे मिट्टी के दो-तीन घड़े रक्खे थे; उसी तरह के, जैसे मेरे ढोरों वाले घर में गोबर थापने के लिए मैली-कुचैली हालत में एक ओर पड़े रहते हैं । घड़ों के नीचे से फैल कर पानी ने आसपास चारों ओर काफी कीचड़ कर रक्खा था; इसलिए घड़ों तक पहुँचने के लिए ईंटें रखकर, उनका एक छोटा पुल-सा बना दिया गया था। आँगन के कोने में घर का बरसाती पानी बाहर निकालने के लिए नाबदान था। आजकल जितना पानी सूर्य से जबर्दस्ती छीनते बनता, उसे छोड़ वह एक बूँद भी अपने गोदाम से बाहर न जाने देता था। थोड़ी ही देर में उसका दुर्गन्ध से मेरा सिर भिन्नाने लगा ।

हाथ में कुछ लिये हुए दीना ने आकर कहा- भैया, तनिक उठो तो, मैं इसे बिछा दूँ । नीचे जमीन गड़ती होगी।

मैंने देखा, उसके हाथ में एक गन्दी कँथरी थी; न जाने कितनी पुरानी, जिसके सर्वाङ्ग में गलित कुष्ठ ऐसा कुछ था । मैंने उस ओर से मुँह फेरकर कहा - आवश्यकता नहीं। मैं ठीक बैठा हूँ।

पास बैठकर दीना बातचीत करने लगा। बोला- भैया, विक्रमसिंह को मैंने देखा है।

उत्सुक होकर मैंने पूछा- कहाँ, कब? – और तुमने उसे देखा तो इसकी खबर थाने में क्यों न दी?

वह कुछ घबरा - सा गया। बोला- नहीं भैया, उसके लिए इस तरह नहीं कहना चाहिए। उसे देवी का इष्ट है। वह सब जान जाता है कि कौन कहाँ उसके बारे में क्या कह रहा है। यह सब झूठ है कि उसके साथ सौ दो सौ आदमी हैं। जब चाहता है, तभी माया के आदमी खड़े कर देता है। थानेदार तो क्या उसे अँगरेज़ भी नहीं पकड़ सकता।

मैंने प्रश्न किया- तुमने उसे देखा कहाँ ?

वह कहने लगा- मैं नदी के उस पार से आ रहा था, जंगल में ही मुझे रात हो गई । भूतों वाली महन्त की बावड़ी के पास पहुँचकर मैंने देखा कि बड़ के नीचे एक बढ़िया पहाड़ी घोड़ा बँधा है। पूँछ और सिर हिलाकर हिनहिनाता हुआ जमीन पर टापें पटक रहा है। मैंने मन में कहा- छल है ! और महावीर का सुमिरन करने लगा। सामने ही कारतूसों की पेटी पहने और बगल में बन्दूक लटकाये हुए दो लम्बे- तड़ेगे जवान दिखाई दिये। डर के मारे मेरी साँस रुक गई। मुझे चुपचाप आगे बढ़ते देख उनमें से एक ने कहा- 'इस आदमी को पकड़ लो ।' दूसरे ने हँसकर उत्तर दिया- 'यह भी कोई आदमी है; इससे मक्खी तक तो मर नहीं सकती।' दौड़कर जब तक अपने गाँव की मेंड़ पर नहीं आ गया, तब तक फिर मैंने साँस तक नहीं ली।

"तो फिर तुमने यह कैसे जाना कि विक्रमसिंह वही था?"

"वाह भैया, यह तुमने खूब कही! क्या मैं इतना भी नहीं जान सकता? मैं बाजी लगा कर कह सकता हूँ कि विक्रमसिंह को छोड़कर वह और कोई हो ही नहीं सकता। उसके तेज से मेरी आँखें झँप गईं?"

इस सम्बन्ध में उससे कुछ कहना व्यर्थ था । चुपचाप बैठा बैठा मन ही मन न जाने में कितनी बातें सोचने लगा। दीना की यह झोपड़ी मेरे रहने के घर की सीमा में ही आ सकती है, परन्तु आज के पहले मेरी आँखें इसे अच्छी तरह देख भी न सकीं। मैं जिस दुर्गन्ध में दो मिनट नहीं बैठ सकता, वह इसका घर है, वह इसका सौभाग्य है और इस सौभाग्य के कारण न जानें यह कितनों की ईर्ष्या का पात्र है ! इस कोरी के पूर्वजों के बनाये हुए वस्त्र न जाने कब से मेरे वंश के गौरव और प्रतिष्ठा की वृद्धि करते आये हैं, आज इसके घर की यह अवस्था। जिस वस्त्र पर प्रतिदिन यह सुख के साथ सो सकता है, वह इतना मैला कुचैला और कदर्य है कि उसकी एक झलक भी धूल के झोंके की तरह, मेरी आँखों को उस ओर टिकने नहीं देती। इस घर की छोटी से छोटी वस्तु में भी एक इतिहास है, एक कहानी है; फिर भी मैं कुछ नहीं जानता । विदेशी साहित्य के कितने ही किसान मजदूरों से मेरा परिचय है। उनकी विपत्ति - गाथा से आँखों में आँसू भर कर बीसियों बार मन ही मन मैं अपनी सहृदयता के दम्भ का अनुभव कर चुका हूँ। परन्तु मेरे लिए इस दीना के पास ऐसा कुछ नहीं जो मुझे उसकी ओर आकर्षित कर सके । विलासिता की अगणित वस्तुओं की भाँति, हमारी करुण- भावना को जागृत करने के लिए दरिद्र और दुःखी भी बाहर से ही आने चाहिए। शिक्षित होकर हमने यही सीखा है !

एकाएक मेरा मन न जानें कैसा हो उठा । उत्तेजित होकर सोचने लगा - भला हो इस विक्रमसिंह का ! इसके कारण हमें आज अपने एक पड़ौसी को इस तरह देखने का मौका तो मिला। इसके अन्ध-विश्वास और कायरता की हँसी उड़ाने का हमें कोई अधिकार नहीं । हथियार- बन्द दो-चार डाकुओं के आने की खबर से ही अवसन्न और अर्द्धमृत हुए सारे के सारे जिस गाँव के ऊपर अँधेरे की कालिख पुत गई है, उसमें जो स्थान दीना का है वही मेरा आ भाई विक्रमसिंह, आ ! तेरे लिए अस्त्र कानून की कोई बाधा नहीं । यदि तेरे लिए एक बन्दूक यथेष्ट न हो तो आवश्यकतानुसार दूसरे अस्त्र लाकर आज ही इस गाँव को धुएँ के साथ उड़ा दे । तुझ पर आज किसी भी निर्दयता का दोषारोपण कर सकने का मेरा मुँह नहीं ।

मेरी इस चंचलता का अनुभव माँ ने उस अँधेरे में भी कर लिया। बोलीं- बैठा बैठा इस तरह क्या सोच रहा है।

आह यह कण्ठ- स्वर ! इसके सामने मेरी कोई भी उद्दण्डता नहीं टिक सकती। मृदु होकर मैंने कहा- कुछ नहीं, मैं तनिक बाहर जाना चाहता हूँ ।

"तो मैं भी चलती हूँ" - कहकर माँ मेरे ही साथ उठ खड़ी हुईं।

घबरा कर दीना कहने लगा-हें हें माई ! यह क्या करती हो? बैठो भैया, बैठो। तुम बाहर निकले और विक्रमसिंह प्रकट हुआ। उसे महावीर का इष्ट है। आज मंगलवार है न, डाके का दिन। तुम्हें ऐसा लड़कपन न करना चाहिए।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-7

'भैया, तनिक किवाड़ तो खोलो।"

रामलाल का स्वर था । दीना के कुछ कहने के पहले ही मैंने झट- से जाकर किवाड़ खोल दिये। भीतर आते ही हम लोगों को देखकर वह हँसने लगा। चिढ़कर मैंने पूछा- है क्या ?

"कुछ नहीं, आज मुझे यों ही हँसी आ रही है । तुम्हारे पास दियासलाई हो तो दो । मोहना से लड़ झगड़कर एक बीड़ी छीन लाया हूँ। बड़ी देर से तमाखू नहीं पी।"

माँ झुंझला पड़ीं। बोलीं- इस तरह इधर-उधर क्यों फिर रहा है। घड़ी भर तमाखू न पीने से क्या तेरी जीभ गिर जाती ?

रामलाल ने हँसते-हँसते कहा -लो माँ, तुम नाखुश होतीं हो! मैं कहता हूँ डाकू - वाकू कहीं नहीं हैं। किसी ने हँसी की है। मैं तो बराबर घूमता रहा हूँ। दादा किसान की पौर में हैं। माई पूरब वाले भुस के घर में हैं। मैं वहाँ गया था। रहने वाले घर में उनका कोई गहना रह गया है। उसे ले आने के लिए वे बड़ी उतावली मचा रही हैं। आज सबकी धजा विचित्र है। मुझे तो बड़ी हँसी आ रही है। परन्तु माँ, तुम बिलकुल न घबराओ । डर की कोई बात नहीं। एक विक्रमसिंह की तो क्या-

दीना ने रोषदृष्टि से उसकी ओर देखा। मुझे भी इस समय उसका यह बातूनी जमा-खर्च अच्छा न लगा। मैंने कहा- जोर से क्यों चिल्लाता है। और तो कोई नई खबर नहीं?

अपना स्वर धीमा करते हुए उसने कहा- मैंने कहा नहीं, कहीं से कोई खबर आने की नहीं है। डाकू इस तरह ढोल पीटकर किसी ने आते सुने हैं? हाँ, गनपत को कुछ काम था । चला गया है। कहता था- अभी लौटकर आता हूँ।

गनपत पर मुझे बहुत विश्वास न था । गरम होकर मैंने पूछा- क्या बन्दूक भी साथ ले गया है ?

"नहीं, भला बन्दूक मैं कैसे ले जाने देता। मैंने वहीं ऊपर के कोठे पर रखवा ली है। अभी आता है। मैं उसके साथ ही था।" - कहकर वह वहीं बैठ गया और दियासलाई सुलगाकर बीड़ी पीने लगा।

बैठे-बैठे मुझे एक-एक क्षण भारी जान पड़ने लगा। मैं एकदम उठ पड़ना चाहता हूँ; परन्तु जान पड़ता है, ऊपर के शून्य में समय का प्रत्येक क्षण घनीभूत होकर मुझे जोर से नीचे को दबा रहा है और मैं इधर- उधर हिल-डुल भी नहीं सकता। ओ शिक्षाभिमानी मूर्ख, तू समझ रहा है, डाकू अभी तक नहीं आये। यह तेरी भूल है । वे आ चुके हैं, अपने समाचार के साथ ही । आकर उन्होंने तेरा जो कुछ लूट लिया है, तू यदि उसे समझ सका होता तो कभी का पागल हो जाता। उस लूटे हुए के सामने तेरे बचे हुए धन, जन और जीवन का मूल्य इतना भी नहीं, जितना सड़क पर पड़े हुए उस पत्थर का, जिसके प्रतिघात के डर से ठुकराने वाले भी उसे आदर के साथ ही धीमे पैरों ठुकराते हैं।

"सुनो भैया, कुछ सुनाई पड़ रहा है" - मुझे जगाने के से भाव से मेरे ऊपर हाथ रखता हुआ रामलाल बोल उठा -" डाकू आ गये !”

एक क्षण के लिए मैं सन्न - सा रह गया। पर दूसरे ही क्षण मुझे जान पड़ा, जैसे मेरे शरीर के ऊपर से कोई बोझ उतर गया। डाकू आ गये, अच्छा ही हुआ ! ऐसा न होता तो आज की इस लज्जा का बोझ जीवन भर मैं अपने मन के ऊपर किस प्रकार वहन कर सकता ?

थोड़ी ही देर में किसी अत्यावश्यक काम से जाने वाले तीन-चार आदमियों का एक झुण्ड पद शब्द करता हुआ तेजी से सड़क पर से निकल गया और फिर वैसी ही नीरवता छा गई।

मैं क्रुद्ध हो उज्ञा । इच्छा हुई रामलाल से लड़ बैठूं । मूर्ख कभी तो कहता है, डाकू - वाकू कोई नहीं आने के और कभी सड़क पर मामूली आने जाने वालों को भी आवाज सुनकर कहने लगता है - डाकू आ गये ! एक चाँटा जड़ दिया जाय, बस तबियत ठीक हो जायगी। परन्तु क्रोध भी इतना जानता है कि यह मौका लड़ने-झगड़ने का नहीं, चुपचाप शान्ति से बैठे रहने का है। समय पहले की ही तरह बीतने लगा।

सहसा एक बन्दूक का धड़ाका हुआ। हम सब एक साथ चौंक पड़े। पक्षी न होने के कारण ही हम वहाँ के वहीं बैठे रह सके, नहीं तो फड़फड़ करके उसी समय आसमान में उड़ गये होते। इसके थोड़ी ही देर बाद बाहर सड़क पर पड़ पड़ करते हुए तेजी से दस-बीस आदमियों के निकलने का बोध हुआ। एक मिनट के भीतर ही आदमियों का वह दल मेरे रहने के द्वार पर पहुँच कर रुक गया। वे डाकू हैं, इस बात में सन्देह का अब कोई कारण नहीं ।

रामलाल का लड़कपन ! किवाड़ के पास जाकर वह जनकी सन्धियों में से डाकुओं को देखने का प्रयत्न करने लगा। दीना ने बढ़ कर झट से उसे पीछे खींच लिया। " ठहरो तो, देखने दो" कहकर वह फिर आगे बढ़ गया। मैंने मन में कहा, शोर करके आज यह हम सबको फँसा देगा। क्यों मैंने इस बेवकूफ को अपने पास रहने दिया ?

एक क्षण इसी तरह और, फिर एकाएक 'पकड़ो, इस स्त्री को पकड़ो' की आवाज; लोगों का इधर-उधर दौड़ना-फिरना; किसी को पीटने का धमाका और साथ ही साथ नारी- कण्ठ का चीत्कार ! किवाड़ पर से अपना सिर हटाकर हम लोगों की ओर झुकते हुए रामलाल ने धीरे से कहा- डाकुओं ने माँई को पकड़ लिया। अपना छूटा हुआ गहना ले आने के लिए निकली होंगी; किन्तु बीच में ही डाकू आ गये, इसी से भाग कर छिप न सकीं।

क्रोध के मारे मेरा तालू सूखने लगा। माँईं को गहने की बड़ी ममता है, अब उनके लिए दें अपने प्राण! मैं इन डाकुओं की निर्दयता सुन चुका था । गृहस्थों के स्त्री-पुरुषों को पकड़ पाते हैं तो धन बता देने के लिए क्रूर से क्रूर अत्याचार करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती। तेल में डूबे हुए लत्ते हाथ-पैरों में बाँध कर उनमें आग लगा देना तो कोई बात ही नहीं; और भी वे जो कुछ करते हैं, उनका वर्णन भी नहीं किया जा रुकता। माँईं ने जैसा किया, उसका फल उन्हें भोगना ही पड़ेगा। इसमें किसी का क्या वश । किन्तु उत्पीड़न सह सकने में असमर्थ होकर उन्होंने कहीं हम लोगों का पता बता दिया तो क्या होगा? हैं तो आखिर औरत ही हिम्मत ही उनमें कितनी। ऐसी ही न जाने कितनी बातें मेरे मन में एक साथ चक्कर काट गई और मुझे जान पड़ा कि मेरा दम घुटा जा रहा है।

उधर माँईं चीत्कार कर रही थीं, इधर माँ भी चिल्ला पड़ीं- "बचाओ, कोई भौजी को बचाओ !" मुड़कर उनकी ओर देखा तो जान पड़ा कि अचेत होकर धरती पर गिरने ही वाली है। जब तक मैं उन्हें संभालूँ-संभालूँ तब तक दृढ़ कण्ठ से "माँ को देखो!" कह कर किवाड़ खोलता हुआ रामलाल तीर की तरह बाहर निकल गया। दीना ने झट से किवाड़े बन्द कर दिये और हम लोगों के लिए दरवाजा रोक कर खड़ा हो गया। परन्तु कदाचित् इसकी आवश्यकता न थी । मैं समझता हूँ, उस समय कुछ देर के लिए चेतना ने मेरा साथ छोड़ दिया था।

बन्दूक की आवाज, एक, यह दो । क्षण भर बाद फिर एक, और यह दो ! तत्काल ही मुझे अनुभव हुआ, डाकुओं का दल तितर-बितर होकर भाग रहा है; जो जितने जोर से भाग सकता है, दूसरे की चिन्ता छोड़ कर भाग रहा है। बीच-बीच में रामलाल की पागलों जैसी 'जै काली माई की!' और उसकी बन्दूक का फैर ।

थोड़ी ही देर बाद मेरे घर के आगे आधे गाँव की भीड़ थी । रामलाल अपने आपे में न था और उसका सारा शरीर काँप रहा था । बन्दूक एक ओर रखकर वह दीवार से टिक गया। 'भीड़ हटाओ, भीड़ हटाओ; रमला को गरमी लग रही है; पंखा लाओ !' की धूम पड़ गई। पास खड़ा हुआ एक आदमी उसे अपनी पिछौरी से हवा करने लगा।

प्रकृतिस्थ होकर रामलाल ने कहा- बन्दूक से एक डाकू मर गया है। और वे लोग उसका सिर काट ले गये ।

सब के चेहरे का रंग एक साथ उतर गया। रामलाल कहने लगा - वे लोग माँईं के हाथों में कपड़ा लपेट कर आग लगाना चाहते थे| बन्दूक ऊपर के कोठे पर थी। जब तक डाकू मेरी ओर देखें - देखें, तब तक जीने के किवाड़ खोल कर मैं ऊपर दौड़ गया और मैंने बन्दूक चला दी। मैं किसी को मारना नहीं चाहता था। उन्हें डरा देने के लिए ही मैंने यह किया।

अन्तिम आकांक्षा (उपन्यास) : अध्याय-8

पुलिस के आने में आध घन्टे की भी देर न लगी। मालूम हुआ डाकुओं को पकड़ने के लिए ही वे लोग दूसरी ओर गये थे । उन्होंने ऐसा अच्छा इन्तजाम किया था कि आज एक भी डाकू न भाग सकता। रमला की बेवकूफी से ही सब चौपट हो गया। इस बात की शिकायत बड़े साहब से की जायगी, हम लोगों से यह भी छिपा न रह सका !

यह बिना सिर की लाश किसकी है; रमला की रंजिश का कोई शख्स तो नहीं? डाकू किस तरह से आये किस तरफ से गये, किस किसने उन्हें देखा, और भी ऐसी बीसियों बातें थीं जिनकी जाँच करते- करते पुलिस ने सबेरा कर दिया। कोई न कोई लाश पहचान ले और सब बदमाशों का पता अभी लग जाय, इसके लिए भी दरोगा साहब ने कम प्रयत्न नहीं किया। चमारों को पकड़ बुलाना, देर से आने के लिए उन पर हंटर फटकारना और लाश हटवा कर यथास्थान भिजवाना, आदि सब काम वे बराबर बिना थके सबेरे तक करते रहे ।

पुलिस और गाँव के दूसरे आदमियों ने पिण्ड छोड़ा तब जान पड़ा कि अब इतनी देर बाद डाकुओं से त्राण मिला है। इसके अनन्तर हम सबको ऐसे अवसाद ने आ घेरा मानों यह किसी ऐसी कुश्ती के बाद का समय है, जिसमें एक पहलवान ने दूसरे बहुत बड़े पहलवान को अचानक अपने दाँव में पाकर चित्त तो कर दिया है, परन्तु अत्यन्त निः शक्त हो जाने के कारण स्वयं वह एक आनन्द ध्वनि भी नहीं कर सकता।

रामलाल किसी काम से घर के भीतर जा रहा था, अचानक परसादी ने आगे बढ़कर उसे बीच में ही रोक दिया- ठहर रमला, भीतर न जा।

रामलाल ने उसके टोकने के ढंग से क्रुद्ध होकर कहा- क्यों, - रोकने वाले तुम कौन होते हो?

पिंजड़े में बन्द हो गये बाघ की दहाड़ सुनकर जिस प्रकार हमें कुछ बुरा नहीं मालूम होता और हम हँसने लगते हैं, रामलाल के क्रोध से परसादी को वैसी ही हँसी आई। उसे संयत करते हुए उसने कहा- नाराज न हो, सुनो। तुम्हें मैंने नहीं रोका, दादा ने रुकवाया है। तुमने एक आदमी की हत्या कर डाली है। अब इसके प्रायश्चित्त में तुम्हें गङ्गाजी जाना पड़ेगा, सत्तनारायण की कथा करानी पड़ेगी, तब ब्रह्मभोज देकर किसी के यहाँ आ जा सकोगे। यह घर तो मालिक का है, इस समय तुम अपने घर में भी नहीं घुस सकते। तुम अपने घर के भीतर घुसे और तुम्हारे कुटुम के कुटुम को घिसटना पड़ा; अभी तो अकेले तुम्हारे ऊपर ही दोष है । बिरादरी की बात है लल्ला, हँसी-खेल नहीं !

क्रोध में भर कर रामलाल पीछे लौट पड़ा। बोला - बिरादरी की क्या धौंस देते हो? जो लोग ईसाई या मुसलमान बन कर तुम्हारी बिरादरी की खबर जूते से लेते हैं, उन्हीं को तुम मानते हो ।

परसादी ने उत्तर दिया- ईसाई या मुसलमान नहीं, तुम भंगी हो जाओ, बिरादरी से तो तुम्हारा कोई वास्ता न रहेगा।

भीतर से निकल कर मैंने देखा, रामलाल जा रहा है। पुकार कर मैंने कहा— रामलाल ! अकेला क्यों जा रहा है, मैं भी तो तेरे साथ हूँ।

मेरी सहानुभूति पाकर वह लौट आया और एक जगह बैठ कर आँसू गिराने लगा । बोला- भैया, दादा ने घर के भीतर घुसने से मना करा दिया। अब मैं क्या मुँह लेकर यहाँ रहूँ। तुम्हीं कहो भैया, मैंने पाप किया है?

पाप? – हाँ, पाप नहीं तो और क्या ! सियार की जाति का होकर सिंह का काम कर बैठा, यह पाप नहीं तो और क्या है। भीतर की ओर आवाज देकर मैंने कहा- माँ यहाँ आकर इस परसादी बात तो सुन जाओ !

परसादी कहने लगा- मैंने ऐसा इससे कहा क्या, जो यह इतना बिगड़ता है। दादा ने रुकवाया, मैंने रोक दिया। इसने जिसे मार डाला है, न जाने वह ब्राह्मण था या कौन। उसके शरीर पर जनेऊ था। अब हत्या का पाप न लगेगा तो और होगा क्या। दादा तो शुद्ध सुभाव के हैं, देवता । वे ऐसे पाप की ओर से आँखें कैसे फेर लें। हाँ वे इसके गंगाजी जाने, ब्रह्मभोज कराने आदि की खर्चा देने को तैयार हैं, फिर भी आँखें दिखा रहा है। समय की बात है !

माँ को देखकर रामलाल ने दूर से ही हाथ जोड़े। माँ ने कहा- वहाँ क्यों बैठा है? भीतर मेरे पास आ ।

उसे स्थिर ही देख कर उन्होंने फिर कहा-आ, उठता क्यों नहीं?

रामलाल को उठते देखकर परसादी झट से बोल उठ-माँ, दादा ने रुकवाया है।

माँ ने धीर कण्ठ से कहा- हाँ, सुन लिया । आ रामलाल, मैं कहती हूँ तू आ ।

माँ के पैरों पर सिर रख कर वह रोने लगा। उसे प्रकृतिस्थ करके माँ ने कहा- रोता क्यों है, तुझसे कोई पाप नहीं हुआ। यदि अनजान में कुछ हुआ भी हो तो चल ठाकुरजी के दर्शन करके चरणामृत ले ले; फिर कुछ डर नहीं।

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