Angira (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

अंगिरा (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

6. अंगिरा
स्थान : गंधार (तक्षशिला)
जाति : हिन्दी-आर्य
काल : १८०० ई० पू०

1.

"बेकार है यह कार्पास वस्त्र; न इससे जाड़ा रुकता है, न वर्षा से बचाव ।" अपने भीगे कंचुक को हटा कम्बल ओढ़ते हुए तरुण ने कहा।

"किन्तु गर्मी की ऋतु में यह अच्छा होता है"- दूसरे तरुण ने भी कंचुक को किवाड़ पर पसारते हुए कहा।

शाम होने में अभी काफी देर थी, किन्तु आवसथ (पांथशाला) में आग के किनारे अभी से लोग डटे हुए थे। दोनों तरुण धुंयें में बैठने की जगह गवाक्ष के पास हवा के ख्याल से कम्बल ओढ़कर बैठ गये।

पहला तरुण-"हम अभी एक योजन जा सकते थे, और कल सबेरे ही गंधार नगर में (तक्षशिला) पहुँच जाते, किन्तु इस पानी और हवा को क्या किया जाये।"

दूसरा-जाड़ों की यह बदली और बुरी लगती है। किन्तु, जब नहीं होती तो हमारे किसान इन्द्र से पानी बरसाने के लिए प्रार्थना पर प्रार्थना करते हैं और पशुपाल अधिक क्रंदन करते हैं ।

पहला- "सो तो है मित्र, सिर्फ पान्थ ही हैं, जो इसे नहीं पसन्द करते और कोई सदा पान्थ भी तो नहीं रहता।” फिर गर्दन के पीछे के घाव के बड़े दाग को देखकर कहा-"तेरा नाम मित्र ?"

"पाल मद्र। और तेरा ?"

“वरुण सौवर। तो तू पूर्व से आता है ?"

"हाँ, मद्रों में से और तू दक्खिन से ? बतला मित्र ! दक्खिन में, सुनते है, असुर अब भी आर्यों से लड़ रहे हैं।"

"सिर्फ समुद्र-तट पर उनका एक नगर बच रहा था। जानता है, न मित्र ! हमारे मधवा इन्द्र ने किस तरह असुरों के सौ नगर-दुर्गों को तोड़ा था।"

“सुना है, असुरों के नगर-दुर्ग लौह (ताँबा) के थे ?"

"असुरों के पास लौह ज्यादा है, किन्तु नगर-दुर्ग बनाने भर के लिए नहीं। मैं नहीं समझता यह कथा कैसे फैली। असुरों के मकान ईंटों-आग में पकाई चौकोर किन्तु लम्बी अधिक–के होते हैं, उनके नगरों को जिस दीवार से घेरा गया रहता है, वह भी ईंट की होती है। यह ईंटें लौह (लाल) वर्ण की होती हैं, किन्तु लौह (ताम्र) धातु और ईंटों में इतना अन्तर है, कि उसे लौह नहीं कहा जा सकता।"

“लेकिन हम तो वरुण ! असुरों के लौह दुर्ग को ही सुनते आते हैं।"

"शायद, हमारे इन्द्र को इन दुर्गों के तोड़ने में जितनी शक्ति लगानी पड़ी, उसी के कारण यह नाम पड़ा हो।"

"और शंबर के पराक्रम की भी तो बड़ी-बड़ी कथाएँ सुनी जाती हैं, उसका समुद्र में घर था, उसका रथ आकाश में चलता था।"

"रथ की बात बिलकुल गलत है। असुर यदि किसी युद्ध विद्या में सबसे निर्बल हैं, तो अश्वारोहण में। आज भी उत्सव के समय असुर अश्वरथ की जगह वृषभरथ जोड़ते हैं। मैं तो समझता हूँ पाल ! हमारे यह अश्व ही थे, जिनके कारण हम विजयी हुए, नहीं तो असुर-पुरों को जीत न सकते थे। शंबर को मरे दो सौ साल हो गये, किन्तु मुझे विश्वास है, उसके पास अश्वरथ भी न रहा होगा, आकाश में चलने की तो बात ही क्या ?"

"तो शंबर यदि इतना साधारण शत्रु था, तो उसके जीतने से हमारे इन्द्र की इतनी महिमा क्यों हुई ?"

"क्योंकि शंबर बहुत वीर था। उसके स्वर्ण-खचित लौह कवच को मैंने सौवीरपुर में देखा है, वह बहुत ही दृढ़ और विशाल है। असुर, आमतौर से कद में छोटे होते हैं। किन्तु शंबर बहुत बड़ा था, बहुत लम्बा-चौड़ा और शायद कुछ अधिक मोटा और हमारा मधवा इंद्र पतला, छरहरा जवान । सिन्धु के तट पर अब भी असुरों के पुरदुर्ग देखने को मिलते है। उनके भीतर रहकर कुछ सौ धनुर्धर हजारों शत्रु भटों को पास आने से रोक सकते हैं । वस्तुतः ये असुरों की पुरियाँ अयोध्या (अ पराजेय) थीं। और ऐसी अयोध्या पुरियों को तोड़ने वाला हमारा मधवा इन्द्र -नहीं, आर्य-सेनानी महापराक्रमी था।"

"दक्खिन में क्या अब भी असुरों का बल मौजूद है, वरुण !"

"कहा नहीं, सागर-तीर का उनका अन्तिम दुर्ग अभी हाल में टूटा है, इस युद्ध में मैं भी शामिल हुआ था," कहते हुए वरुण के अरुण मुख पर और अधिक लाली छिटक गई, और उसने अपने दीर्घ चमकीले पीले केशों को पीछे की ओर सहलाते हुए कहा-"असुरों के अन्तिम पुरदुर्ग का पतन हो गया।”

"तुम्हारा इन्द्र कौन था ?"

"इन्द्र का पद हमने तोड़ दिया है।"

"तोड़ दिया है ?"

"हाँ, क्योंकि इससे हम दक्षिणी आर्यों को डर लगने लगा।"

"डर क्यों ?"

"इन्द्र का अर्थ हम सेना नायक समझते हैं न?"

"हाँ।"

"और सेना नायक को आर्य अपना सब कुछ नहीं मानते। युद्ध के समय उसकी आज्ञा को भले ही शिरोधार्य मानें, किन्तु आर्य अपनी जन-परिषद् को सर्वोपरि मानते हैं; जिसमें हर आर्य को अपने विचार खुलकर रखने का अधिकार होता है।"

"हाँ, यह है।”

"किन्तु, इसके विरुद्ध असुरों का इन्द्र या राजा सब कुछ अपने ही हैं, वह किसी जन-परिषद् को अपने ऊपर नहीं मानता। असुर-राजा के मुँह से जो निकल गया, वही हर एक असुर को करना होगा, नहीं तो उसके लिए मृत्यु है।"

“ऐसे इन्द्र को हम लोग कभी पसन्द नहीं कर सकते ।"

"किन्तु असुर ऐसे ही इन्द्र को पसन्द करते आते थे। अपने राजा को वह मनुष्य नहीं, देवता मानते थे, और उसकी जिन्दा पूजा के लिए वह जो-जो करते रहे हैं, उसको सुनकर, मित्र ! तू विश्वास नहीं करेगा।’’

"हाँ, मैंने भी देखा है, असुर पुरोहित अपने लोगों को गदहा बनाकर रखते हैं।"

"हाँ, गदहे से भी बढ़कर ! सुना है न वह शिश्न (लिंग) और उपस्थ को पूजते हैं। मैं मानता हूँ, स्त्री-पुरुष के आनन्द के ये दो साधन हैं, इनके द्वारा हमारी सन्तान आगे चलती है, किन्तु इनको साक्षात् या मिट्टी-पत्थर का बनाकर पूजना कितनी भारी मूर्खता है ?"

"इसमें क्या शक।"

"और असुर-राजा शिश्नदेव के भारी भक्त थे। किन्तु इसमें तो मुझे निरी चालाकी मालूम होती है। आखिर, असुर-राजा और उनके पुरोहित मूर्ख नहीं होते, वह हम आर्यों से ज्यादा चतुर होते हैं। उनके नगरों - जैसा नगर बनाने के लिए हमें उनसे बहुत सीखना पड़ेगा। उनकी पण्यवीथी (बाजार). उनके कमल-शोभित सरोवर, उनकी उच्च अट्टालिकाएँ. उनके राजपथ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें शुद्ध आर्य-भूमियों में नहीं पाया जा सकता। मैंने उत्तर सौवीर के असुर-परित्यक्त नगरों को देखा है, और इस नवपराजित नगर को भी; हम आर्य उनके पुराने नगरों को प्रतिसंस्कार (मरम्मत) करके भी उस रूप में कायम नहीं रख सके, और ये नया नगर-जिसे कहते हैं, शंबर ने स्वयं बसाया था—तो देवपुर जैसा है।"

"देवपुर !"

‘देवपुर। और पृथ्वी पर उसकी किसी से उपमा नहीं दी जा सकती, मित्र ! एक परिवार के रहने लायक घर को ही ले लीजिए। इसमें सजे हुए एक या दो बैठकखाने, धूमनेत्रक (चिमनी) के साथ अलग रसोईघर, आँगन में ईंट का कुआँ, स्नानागार, शयनागार, कोष्ठागार) साधारण बनियों के घरों को मैंने दो-दो, तीन-तीन तल के देखा है। क्या बखान करू, असुर-पुर की उपमा मैं सिर्फ देवपुर से ही दे सकता हूँ।"

"पूरब में भी असुरों के नगर हैं, किन्तु हम मद्रों की (स्यालकोट वाली) भूमि से वह बहुत आगे हैं।"

"मैंने देखा है मित्र! और ऐसे नगरों के बसाने, बनाने वाले हमसे अधिक चतुर थे, इसे हमें मानना पड़ेगा। सागर के बारे में तो नहीं सुना होगा ?” ।

"नाम सुना है।"

"सिर्फ नाम सुनने या वर्णन करने से अन्दाजा नहीं लग सकता। सागर के तट पर खड़े होकर देखने से ही कुछ-कुछ पता लगता है। सामने ऊपर नील जल नीले आकाश से मिला हुआ है।"

"आकाश से मिला हुआ, वरुण !"

"हाँ, जितना ही आगे देखें, जल ताड़ों ऊपर उठता चला गया है, और अन्त में जाकर आकाश से मिल जाता है। दोनों का रंग भी एक-सा होता है-हॉ, सागर जल अधिक नीला होता है। और इस अपार-सागर में असुर अपनी विशाल नौकाओं को निर्भय होकर चलाते, वर्षों - महीनों के रास्ते जाते, और सागर से नाना प्रकार के रत्न लाते हैं। असुरों के साहस और चतुराई का यह भी एक नमूना है। यही नहीं, एक बात तो तूने सुनी भी न होगी मित्र ! असुर बिना मुँह से बोले बात चीत कर सकते हैं ।"

"बिना बोले ! क्या कहा मित्र ?"

"हॉ. बिना बोले । मिट्टी, पत्थर, चमड़े को दे दो, एक असुर उस पर कुछ चिह्न खींच देगा, और दूसरा सारी बात समझ लेगा। जितना हम दो घंटी बात करके नहीं समझा सकते, उतना वह पाँच-दस चिहनों को खींचकर बतला सकते हैं। यह बात आर्यों को कभी नहीं मालूम थी। अब हमारे आर्य उन चिह्नों को सीख रहे हैं, किन्तु वर्षों लगाने पर भी उनका सीखना पूरा नहीं होता।” ।

"तब जरूर असुर हमसे अधिक चतुर थे।"

"और उनके लोहारों, दस्तकारों, कुम्भकारों, रथकारों, वंशकारों, कर्मकारों, तन्तुकारों के हाथ की कारीगरी को तो हम सब देखते ही रहते हैं। फिर असुरों के अधिक चतुर होने में सन्देह क्या हो सकता है ?"

"और तूने कहा कि असुर वीर भी होते हैं।"

"हाँ, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है। आर्यों की तरह उनका हर एक बच्चा दूध छोड़ते ही तलवार से नहीं खेलता। उनके यहाँ योद्धाओं की अलग श्रेणी है, शिल्पियों, व्यापारियों की अलग और दासों की अलग। योद्धा श्रेणी को छोड़ दूसरी युद्ध-विद्या नहीं सीखते। उन्हें योद्धा बहुत नीची निगाह से देखते हैं और दास-दासियों की अवस्था तो पशु से भी बदतर है, उन्हें खरीदते-बेचते ही नहीं हैं, बल्कि वह उनके शरीर-प्राण से मनमाना कर सकते हैं।"

“उनमें योद्धा कितने होंगे ?"

“सौ में एक से भी कम, और दास-दासी सौ में चालीस, अर्धदास सौ में चालीस-शिल्पी और किसान अर्धदास हैं। और सौ में दस व्यापारी, बाकी दूसरे ।।

"तभी तो असुर आर्यों से हार गये।"

"हाँ, उनकी हार में यह एक प्रधान कारण था। और एक बड़ा कारण था, उनका राजा को सारे जन के ऊपर देवता मान लेना।"

"इसे तो हम आर्य कभी नहीं मान सकते।"

“इसीलिए हमें इन्द्र का पद तोड़ना पड़ा। मधवा के बाद के किसी इन्द्र की बात है, उसने असुर राजा जैसा बनना चाहा।”

"असुर राजा जैसा ! आर्यजन के साथ मनमानी करना !’’

"हाँ ? और वही एक नहीं, उसके बाद दूसरे ने, फिर इस बात में कुछ आर्य भी उनकी सहायता करते पकड़े गये।"

"सहायता करते ?"

"कुल, परिवार के ख्याल से। इसीलिए सौवीर-जन ने तय किया, कि अब कोई इन्द्र नहीं बनाया जाएगा। इन्द्र अशनि (बिजली)-हस्त देवता का नाम भी है, जिससे लोगों में भ्रम फैलने का डर है।"

"अच्छा किया सौवीर-जन ने मित्र !"

"लेकिन कितने ही आर्यों के नाम लजाने वाले पैदा हो गये हैं, जो असुरों की हर बात की प्रशंसा करते नहीं थकते। उनकी कितनी ही प्रशंसनीय बातें हैं जिनकी मैं प्रशंसा करता हूँ, उन्हें, हमें लेना चाहिए। उनके हथियारों को हमने अपनाया। उनके वृषभ-रथों की देखा-देखी हमारे मधवा इन्द्र ने अश्वरथ बनाये। धनुर्धर के लिए घोड़े पर से अधिक सुभीता रथ में होता है। वहाँ वह जितना चाहे, उतने तरकश रख सकता है, शत्रु के तीरों से बचने के लिये आवरण भी रख सकता है। उनके कवच, शक्ति, गदा आदि से हमने बहुत-सा सीखा। उनके नगरों से भी हम बहुत-सी बातें ले रहे हैं। उनकी सागर-यात्रा को भी हमें सीखना चाहिए, क्योंकि लौह (ताँबा), दूसरे धातु, रत्न और बहुत-सी चीजें सागर-पार से आती है। अभी भी यह सारा व्यापार असुर-व्यापारियों के हाथ में है।यदि हम उनसे स्वतन्त्र होना चाहते हैं, तो सागर-नौचालन सीखना होगा। किन्तु असुरों की बहुत सी बातें हैं, जिनको हमें घातक समझना चाहिए, जैसे शिश्न-पूजा।”

“लेकिन, शिश्न-पूजा को कौन आर्य पसन्द करेगा ?"

“मत कह मित्र ! कितने ही आर्य कह रहे हैं कि असुरों की भाँति हमें भी अपने पुरोहित बनाने चाहिए। हमारे यहाँ योद्धा, पुरोहित, व्यापारी, कृषक, शिल्पी का भेद नहीं, सब सभी काम इच्छानुसार कर सकते हैं, किन्तु असुरों ने अलग-अलग श्रेणियाँ बना रखी हैं। आज आर्यों में पुरोहित बन जाने दो और देखेंगे, कुछ ही वर्षों में शिश्न (लिंग) पूजा भी शुरू हो जायेगी। असुर-पुरोहित बहुत मक्कार होते हैं, लाभ-लोभ के लिए आर्य-पुरोहित भी वही करने लगेंगे।"

"यह तो बुरा होगा, वरुण !"

पिछले दो सौ वर्षों के असुर-संसर्ग से आर्यों में उनकी कितनी ही बुराइयाँ आने लगी हैं, उनको देखकर बूढ़े-बूढे आर्य निराश हो रहे हैं। मैं निराश नहीं हूँ। मैं समझता हूँ, यदि आर्य जन को अपनी पुरानी बातें ठीक से समझाई जायें, तो वह पथ-भ्रष्ट नहीं हो सकता। गन्धार-नगर (तक्षशिला) में अंगिरा नाम के, सुना है, एक आर्य ऋषि (ज्ञानी) हैं, वह आर्यों की पुरानी विद्या के भारी ज्ञाता है। वह आर्यों को आय-मार्ग पर आरूढ़ करने के लिए शिक्षा देते है। मैंने आर्यों की विजय के लिए तलवार चलाई है, अब चाहता हूँ, आर्यत्व की रक्षा के लिए भी कुछ करूं ।"

"कैसा संयोग है, मैं भी ऋषि अंगिरा के पास ही जा रहा हूँ, उनसे युद्ध-विद्या सीखने।”

"किन्तु पाल ! तूने पूरब के आर्यजनों की बात नहीं बतलाई ?"

"पूरब में आर्यजन वन की आग की तरह बढ़ रहे हैं। इस गन्धार से आगे की भूमि को हम मद्रों ने लिया है। उससे आगे मल्लों ने अपना

जनपद (जन की भूमि) बनाया है। इसी तरह कुरु, पंचाल आदि जनों से भी बड़े-बड़े प्रदेश अपने हाथों में किये।”

“तो वहाँ बहुत भारी संख्या में आर्य होंगे ?"

"बहुत भारी संख्या में नहीं, जितना ही आगे बढ़ते जायें, उतनी ही असुरों और दूसरों की संख्या अधिक मिलती है।

"दूसरे कौन मित्र ?"

"असुर मंगुर के चमड़े या ताँबे जैसे वर्ण के होते हैं। पूरब में एक और तरह के लोग रहते हैं, जिन्हें कोल कहते हैं, बिल्कुल कोयले जैसे काले होते हैं। ये कोल गाँव में भी रहते हैं और जंगल में मृगों की तरह भी। जंगली कोलों के कितने ही हथियार पत्थर के होते हैं।"

"तो आर्य-जनों को अनार्यों के साथ बहुत लड़ना पड़ता होगा ?”

"डटकर लड़ाई अब बहुत कम करनी होती है। आर्यों के घोड़ों को देखते ही अनार्य भाग खड़े होते हैं, किन्तु यह रात को हमारी बस्तियों पर छापा मारते हैं, जिसके लिए हमें अक्सर उनके साथ बहुत क्रूर बनना पड़ता है, इससे असुरों (शबरों), कोलों के गाँव के गाँव खाली हो गये हैं- वह पूरब की ओर भागते जा रहे हैं।"

"तो तेरे यहाँ पाल! असुरों के चाल-व्यवहार के पकड़ने का डर नहीं है?"

“मद्रजन में नहीं; और शायद यही बात मल्लों की भी है। आगे की नहीं कहता। हमारे यहाँ वस्तुतः अनार्य जंगलों में रह गये हैं।"

दोनों मित्रों का वार्तालाप अँधेरा होने तक चलता रहा; और यदि आवसथ रक्षिका ने आकर खान-पान के बारे में न पूछा होता, तो शायद अभी वह खतम भी न होता। आवसथ ग्राम की ओर से बनाया गया था, जिसमें सभी यात्रियों-इसे कहने की आवश्यकता नहीं, कि पीतकेशों-के ठहरने का प्रबन्ध था, और जिनके पास खाना नहीं होता, उन्हें आवसथ की ओर से सत्तू, गोमांस-सूप मिलता। सामान या बदले की चीज दे देने पर आवसथ-रक्षिका भोजन बना देती। सोम और सुरा के लिए यह आवसथ बहुत प्रसिद्ध था। वरुण और पाल ने आग में भुने गोमांस और सुरा से अपनी मित्रता को मजबूत किया।

2.

ऋषि अंगिरा सिन्धु के पूर्व वाले गंधार जन के ऊँचे-से-ऊँचे अधिकारी जनपति तक रह चुके थे। यद्यपि पुष्कलावती (चारसदा) से प्रथम पुश्त के बाद असुर लोग हटने लगे थे, और जब दूसरी पीढ़ी में कुनार-तट से आकर गन्धार जन की एक शाखा ने पश्चिमी गंधार को पराजित कर लिया, तो मरने से बचे हुए असुर बड़ी तेजी से पश्चिमी गंधार को खाली करने लगे। उससे तीस साल बाद ही सिन्धु के पूरब की भूमि पर गंधार और मद्रजनों का हमला हुआ, और वितस्ता (झेलम) और सिन्धु के बीच की भूमि को गंधारों तथा वितस्ता और इरावती (रावी) के बीच वाली को मद्रों ने आपस में बाँट लिया जो पीछे क्रमशः पूर्व गन्धार और मद्र जनपद के नाम से प्रसिद्ध हुए। इस आरम्भिक देव (आर्य)-असुर संग्राम में दोनों जातियों ने अमानुषिक क्रूरता दिखलाने में होड़ लगा रखी थी, जिसका परिणाम यह हुआ कि गंधार में बिल्कुल ही नहीं और मद्र में बहुत कम असुर बच रहे। लेकिन समय बीतने के साथ आगे असुरों का विरोध कम पड़ने लगा, और पीतकेशों ने भी अपनी युद्ध-क्रूरता कम की। यही नहीं, बल्कि जैसा कि वरुण सौवीर ने कहा था, पीतकेशों पर असुरों की बहुत-सी बातों का प्रभाव पड़ने लगा। ऋषि अंगिरा वक्षुतट से चली आती आर्य-परम्परा के बड़े पंडित ही नहीं थे, बल्कि वह चाहते थे, कि आर्य अपने रक्त तथा दूसरे आचार व्यवहारों की शुद्धता को न छोड़ें। इसीलिए पूर्वी गन्धार में अश्व माँस-भक्षण-जो एक प्रकार से छूट गया था-को उन्होंने अश्व-पालन को उत्साहित कर फिर से स्थापित किया। उनके इस आर्यत्व-प्रेम, उनकी विद्या और युद्धविद्या-चातुरी की ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी, कि दूरतम आर्य-जनपदों से भी आर्यकुमार उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिए आने लगे । किन्तु, उस वक्त किसी को क्या पता था, कि आगे चलकर गन्धारपुर में अंगिरा का रोपा यह विद्या-अंकुर तक्षशिला के रूप में एक विराट वृक्ष बन जाएगा, जिसकी छाया और मधुर फल से लाभ उठाने के लिए सैकड़ों योजन दूर से चलकर आर्य विद्याप्रेमी आयेंगे।

ऋषि अंगिरा की आयु ६५ साल की थी, उनके श्वेत केश, नाभि तक लटकती श्वेत चमकती दाढ़ी उनके प्रशान्त गम्भीर चेहरे पर बहुत आकर्षक मालूम होते थे। अभी लेखनी, स्याही और भुर्जपत्र इस्तेमाल करने में कई सदियों की जरूरत थी, उनका सारा अध्यापन मौखिक हुआ करता था, जिसमें पुराने गीतों और कविताओं को विद्यार्थी दुहरा-दुहराकर कंठस्थ करते थे। दूर के विद्यार्थी अपने साथ खाद्य-सामग्री नहीं ला सकते थे, इसलिए ऋषि अंगिरा को विद्यार्थियों के भोजन-वस्त्र का प्रबन्ध करना पड़ता था। अंगिरा ने अपने पैतृक खेतों के अतिरिक्त विद्यार्थियों की सहायता से जंगल काटकर नये खेत आबाद किये थे जिनसे साल भर के खाने के लिए गेहूँ पैदा हो जाता था। अभी बाग-बगीचों का रवाज़ न था, किन्तु जंगल में जब फल पकने का समय आता, तो अपनी शिष्य-मण्डली के साथ वह वहाँ फल जमा करने के लिए चले जाते । खेत जोतने-बोने-काटने, फूल-फल-काष्ठ जमा करने के समय ऋषि और उनके विद्यार्थी वक्षु और सुवास्तु के तटों पर बने गीतों को बड़े राग से गाया करते । सारे गन्धार में सबसे बड़ा अश्वस्थ (अश्व-पालन स्थान) ऋषि अंगिरा का था। दूर-दूर तक अपने शिष्यों और परिचितों से ढुँढवाकर उन्होंने उच्च जाति के घोड़े-धोड़ियों को जमाकर उनके वंश की वृद्धि की थी। सैंधव (सिन्धु-तटवर्ती) घोड़ों का जो पीछे सर्वत्र भारी नाम हुआ, उसका प्रारम्भ ऋषि अंगिरा के अश्वस्थ से ही हुआ था। इनके अतिरिक्त ऋषि अंगिरा के पास हजारों गायें और भेड़ें थीं । उनके शिष्यों को विद्याध्ययन के साथ-साथ बराबर काम करना पड़ता था, जिसमें ऋषि भी समय-समय पर हाथ बँटाते थे, यह जरूरी भी था क्योंकि इस प्रकार शिष्यों को खाने-पहनने की कोई तकलीफ नहीं होने पाती थी।

तक्षशिला के पूर्व के सारे पहाड़ सुजल-सुफल, हरे-भरे थे। ऋषि अंगिरा के साथ उस वक्त वरुण और पाल की टोली गोष्ट की देख भाल कर रही थी। तम्बुओं के बाहर कुछ दूर पर लाल, उजले बछड़े फुदक रहे थे, और ऋषि अपने शिष्यों के साथ बाहर हरी घास पर बैठे हुए थे। ऋषि के बायें हाथ में बारीक ऊन की पूनी थी, और दाहिना हाथ काट की बड़ी तकली को चला रहा था। शिष्यों में भी कोई तकली चला रहा था, कोई ऊन निकिया रहा था, कोई हाथों लम्बी पूनी तैयार कर रहा था। आज ऋषि प्राचीन और नवीन, आर्य और अनार्य रीति-रिवाजों, शिल्प-व्यवसायों में कौन ग्राह्य हैं, कौन त्याज्य हैं, इस बात को समझा रहे थे।

"वत्सो ! सभी नवीन त्याज्य है, सभी प्राचीन ग्राह्य है, यह कहना बिल्कुल गलत है, और करना तो और भी असम्भव है। वक्षुतट के आर्यों में जब पहिले-पहिल पत्थर के हथियारों की जगह ताँबे का हथियार प्रचलित होने लगा, तो कितनों ने इस नवीन चीज का विरोध किया था।

ऋषि के प्रिय शिष्य वरुण ने पूछा-"पत्थर के हथियारों से कैसे काम चलता होगा ?"

"आज वत्स ! ताँबे के हथियारों से काम चल रहा है, कल इससे भी तीक्ष्ण कोई हथियार निकल आयेगा, फिर लोग सवाल करेंगे- ताँबे के हथियार से कैसे काम चलता होगा ? जो हथियार जिस वक्त प्राप्य होता है, आदमी उसी से काम चला लेता है। जब पाषाण के कुल्हाड़े से लड़ाइयाँ लड़ी जाती थीं, तो दोनों पक्ष के भटों के पास पाषाण के ही कुल्हाड़े होते थे, जैसे ही एक पक्ष के पास ताँबे का कुल्हाड़ा आया, वैसे ही दूसरे पक्ष को भी पाषाण छोड़ ताँबे का कुल्हाड़ा हाथ में लेना पड़ा; यदि वह ऐसा न करता तो संसार में जीने के लिए उसे स्थान न मिलता। इसीलिए मैंने कहा-सभी नवीन बातों को त्याज्य कहना गलत है। यदि मैं नवीन का विरोधी होता, तो इतने सुन्दर घोड़े, इतनी सुन्दर गायें न पैदा करा सकता। मैंने देखा अच्छे घोड़े-घोड़ियों के अच्छे बछेड़े होते हैं। मैंने कुछ अच्छे-अच्छे घोड़े-घोड़ियों को चुना, और आज पैंतीस वर्ष बाद इस वक्त तुम अंगिरा के घोड़ों की इस नसल को देख रहे हो।

असुर खेतों की खाद का अच्छा प्रबन्ध करते थे। वह पहाड़ी नदियों से नहरें निकाल कर सिंचाई करते थे। हमने गन्धार में इन बातों को स्वीकृत किया। उनके शहर बसाने के तरीके, चिकित्सा के कितने ही ढंग बहुत अच्छे थे, हमने उन्हें ले लिया है। आहार, परिधान, जीवन-रक्षा के लिए उपयोगी जितनी भी चीजें मिलें, उन्हें स्वीकार करना चाहिए. इसका ख्याल किये बिना कि वह पुरानी हैं या नई. आर्यों से आई हैं या अनार्यों से। सुवास्तु में और उससे पहले आर्य कपास के वस्त्र का नाम भी नहीं जानते थे, किन्तु यहाँ हम लोग उसे पहनते हैं। गर्मियों में वह सुखद होता है।"

"लेकिन कितनी ही चीजें हैं, जिनको हमें विषवत् त्याज्य समझना चाहिए। असुरों का शिश्न (लिंग) पूजा-धर्म हमारे लिए निन्दनीय है। उनका जाति-विभाग हमारे लिए त्याज्य है, क्योंकि उसके कारण सभी आदमी अपने जन की रक्षा के लिए हथियार नहीं उठा सकते, आपस में ऊँच-नीच का भाव बढ़ता है। असुरों के साथ रक्त-मिश्रण नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह असुर बनने के लिए दरवाजा खोल देगा, और फिर आर्यों में भी नाना शिल्पों, नाना व्यवसायों की छोटी-बड़ी जातियाँ बन जायेंगी।”

पाल-"रक्त-सम्मिश्रण को तो सभी आर्य बहुत बुरा समझते हैं ?"

ऋषि-"हाँ, किन्तु इसके लिए उतना ध्यान देने को तैयार नहीं हैं। क्या असुर अथवा कोल स्त्रियों के साथ आर्य समागम नहीं करते ?"

वरुण-"सीमान्त पर करते हैं, और असुर पुरों की वेश्याओं के पास तो हमारे भट आम तौर से जाते हैं ।"

ऋषि-"इसका परिणाम क्या होगा ? वर्णसंकरता बढ़ेगी। असुरों में भी पीतकेश बालक-बालिकाएँ पैदा होंगी जिन्हें भ्रम या धोखे में पकड़ कर आर्य अपने भीतर ले लेंगे, फिर रक्त की शुद्धता कहाँ से रहेगी ? इसलिए रक्त-शुद्धता के वास्ते हमें स्त्री-पुरुष दोनों ओर से पूरा ध्यान रखना होगा। यही नहीं, हमें आर्य जनपद में दास-प्रथा नहीं स्वीकार करनी होगी, क्योंकि रक्त की शुद्धता को नष्ट करने के लिए इससे खतरनाक कोई चीज नहीं। बल्कि, मैं तो कहूँगा ऐसी कोशिश करनी चाहिए, कि आर्य जनपद में अनार्यों का वास न होने पाये।"

"सबसे बड़ा खतरा और सारी बुराइयों की जड़ है, असुरों की राज्य-प्रथा जिसका ही एक अंग है उनकी पुरोहित-प्रथा। असुर-जन को कोई अधिकार नहीं; असुर-राजा जो कहे उसी पर चलना हर एक असुर अपना धर्म समझता है। असुर-पुरोहित सिखलाता है, जनता को सभी बातों का जिम्मा ऊपर देवताओं और नीचे राजा ने ले रखा है, जन को कुछ कहने-करने का अधिकार नहीं । राजा स्वयं धरती पर देवता है। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई, जब सुना कि शिवि- वीरों ने इन्द्र के पद को हटा दिया । यद्यपि इन्द्र को आर्यों में वह स्थान कभी नहीं मिला, जो कि असुर-राजा को प्राप्त था-इन्द्र जन द्वारा चुना एक बड़ा योद्धा मात्र था, वह जन पर शासन करने का कोई अधिकार नहीं रखता था। तो भी इस पद से खतरा था, और कुछ लोगों ने उसकी आड़ में आर्यों में राज-प्रथा कायम करने का प्रयत्न किया भी। आर्य यदि अपने आर्यत्व को कायम रखना चाहते हैं, तो उन्हें किसी आदमी को राजा जैसा अधिकार नहीं देना चाहिए। आर्यों में असुरों के धर्म के प्रति भारी घृणा है, इसमें शक नहीं; किन्तु जिस दिन आर्यों में राजा बनेगा, उसी दिन असुरों जैसा पुरोहित भी आ जायेगा और फिर आर्यत्व को डूबा ही समझो। जन के परिश्रम पर राजा मौज करेगा, और देवता की सहायता दिलाने के लिए वह पुरोहित को रिश्वत देकर अपनी ओर मिला लेगा, इस प्रकार राजा और पुरोहित मिल जन को अपना दास बना छोड़ेंगे।

"हमें, आर्यों की पुरानी प्रथाओं को बड़ी दृढ़ता के साथ पकड़े रहना होगा, और जहाँ भी कोई आर्य जन उससे डिगे, उसे आर्यों की जनता से खारिज कर देना होगा।"

3.

सौवीर के दक्षिणी भाग (कराची के आस पास) से इधर कितनी ही चिन्ताजनक खबरें वरुण को मिल रही थीं; जिनसे मालूम होता था, कि अन्तिम असुर-दुर्ग के पराजय के साथ आर्यों के भीतर भारी कलह उठ खड़ी होना चाहती है। वरुण ने अपने गुरू के साथ सौवीर की समस्या पर कई बार हर पहलू से विचार किया था। ऋषि अंगिरा का कहना था, कि चाहे यह कलह पहले सौवीर में पैदा हुई हो, किन्तु इसके भीतर से सारे आर्य जनों को गुजरना पड़ेगा। आर्य सदा से व्यक्ति के ऊपर जन के शासन को मानते आये हैं, उधर असुरों की निरंकुश राजसत्ता को देखकर कितने ही आर्य नेताओं को अधिकार और भोग का प्रलोभन हो सकता है, इन दोनों मनोवृत्तियों का संघर्ष जरूर होकर रहेगा, और जिस जनपद में असुरों की संख्या जितनी ही अधिक होगी, वहाँ इस संघर्ष की और ज्यादा सम्भावना है, क्योंकि वहाँ पराजित असुर आर्यों की भीतरी फूट से फायदा उठाना चाहेंगे।

आठ वर्ष रहने के बाद सौवीरपुरे (रोरुक, रोडी) की खबरों को और चिन्ताजनक सुन वरुण को गन्धारपुर छोड़ना पड़ा। आवसथ के प्रथम साथी पाल माद्र ने उसका साथ दिया। गन्धार की सीमा पार कर वे नमक की पहाड़ियों वाले सिन्धु जनपद में प्रविष्ट हुए। नमक की खानों में काम करने वाले अब भी असुर (व्यापारी और श्रमिक) ज्यादा थे, जिसका असर पीतकेशों (आर्यों) पर भी बुरा पड़ा था। उनमें ज्यादा आलस्य था। वह अपने काम को अनार्य कर्मकरों से कराना ज्यादा पसन्द करते थे, और समझते थे कि हमारा काम घोड़े पर चढ़ना और तलवार चलाना है। अनार्यों के सामने असुर राजाओं जैसी हेकड़ी दिखाने वाले आर्य राजसत्ता अंकुरित करने के लिए अच्छे क्षेत्र थे। लेकिन, नमक की पहाड़ियों को पार करने पर सौवीरों का प्रथम-स्थान (मूल स्थान, मुल्तान) जब आया, तो अवस्था कुछ अच्छी पाई। यहाँ के निवासी सारे ही आर्य थे, और उनके लिए यह तारीफ़ की बात थी कि यहाँ की भीषण गर्मी (वरुण और पाल गर्मी क ऋतु ही में यात्रा कर रहे थे, यद्यपि सिन्धु में नाव से चलने के कारण मार्ग का कष्ट कम था) को बर्दाश्त कर भी जनपद को आर्य बनाये हुए थे।

सौवीरपुर (रोरुक, रोडी) में गर्मी का क्या पूछना था, उन्हें वह गर्मी ज्यादा परेशान कर रही थी। आर्यों में अभी लिखने का संकेत (लिपि) नहीं प्रचलित हुआ था, इसलिए जब तब सौवीर के सार्थों द्वारा वरुण ने अपने मित्रों को जो संदेश भेजा था, वह पूरा नहीं पहुँच सकता था। इस वक्त कितनी ही बार उसे असुरों की लिपि का ख्याल आया था । सौवीरपुर में पहुँचने पर उसे मालूम हो गया, कि मामला बहुत दूर तक बढ़ चुका है। स्वयं सौवीरपुर में सुमित्र के समर्थक बहुत कम थे, किन्तु दक्षिण सौवीर में अन्तिम असुर-दुर्गध्वंसक सुमित्र का पक्ष लेने वाले आर्य ज्यादा थे। इस अन्तिम दुर्ग के पतन के समय सेनापति सुमित्र ने असुर नागरिकों पर आवश्यकता से अधिक दया दिखलाई थी, उस वक्त वरुण इसके लिए सुमित्र का भारी प्रशंसक बन गया था। किन्तु अब उसे मालूम हो रहा था, कि यह सब सुमित्र की चाल थी। वह समझता था, इस पराजय के बाद असुर फिर आर्यों के विरुद्ध खड़े नहीं हो सकेंगे, और इस दया-प्रदर्शन से सागर पर के सार्थवाह असुरों की सम्पत्ति और शक्ति का उपयोग हम अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए कर सकेंगे।

सुमित्र अब भी सेना को लिए हुए सागर तीर के असुरपुर में बैठा था, और बनावटी युद्धों के बहाने वहाँ से लौटने का नाम नहीं लेता था। वरुण पहले जन के साधारण नायकों से मिला, उनको सुमित्र की बातें स्पष्ट नहीं मालूम थीं । वह समझते थे, व्यक्तिगत द्वेष के कारण कुछ जननायक सुमित्र का विरोध कर रहे हैं। फिर जब वह उन प्रधान नायकों से मिला, जिन पर जन के शासन का भार था, तो उन्होंने सारी बातें बतलाई, किन्तु साथ ही यह भी कहा कि सुमित्र की बुरी नीयत हमारे लिए बिल्कुल साफ होने पर भी जन के साधारण लोगों के लिये साफ नहीं है, क्योंकि इसे वह दूसरे ही अर्थ में लेते हैं।

असुरपुर की विजय में वरुण सुमित्र का उपनायक था, इसलिए यद्यपि उस बात को बीते अब नौ साल हो गये थे, तो भी लोगों में उनके खड़ग की प्रशंसा बन्द नहीं हुई थी। वरुण ने जन को समझने से पहले चाहा कि सुमित्र के बारे में खुद जाकर पता लगाये। इसी अभिप्राय से एक दिन दोनों मित्र दक्षिण सौवीर के लिए नौका पर सवार हुए। उन्होंने गन्धार-व्यापारियों जैसा बाना बनाया ! असुरपुर के देखने में मालूम होता था, वह सचमुच ही आर्यों का नहीं, असुरों का पुर है। उसकी पण्य-वीथियों में बड़े-बड़े असुर सागर-वणिकों के महल और देश-विदेश की पण्य-वस्तुएँ थीं। कितने ही असुर सामन्त परिवार भी अपने मुहल्ले में बसे हुए थे, और उनके आस पास दास-दासी भी पहले ही की तरह हाथ बॉधे खड़े रहते थे। उसके मन में जिज्ञासा होने लगी कि आखिर विजयी आर्य यहाँ पर कहाँ रहते हैं। सुमित्र असुरराज के महल में रहता था। एक दिन उसने गन्धार-वणिक की ओर से भेंट लेकर पाल माद्र को उसके पास भेजा । पाल ने लौटकर बतलाया कि पीले केशों और गौर मुख को छोड़ देने पर सुमित्र बिलकुल असुर राजा बन गया है। उसका निवास किसी आर्य सेनापति का सीधा-साधा घर नहीं, सोने-चाँदी से चमकता असुर-दरबार है। उसके पार्श्वचर सैनिकों में भी वह सादगी नहीं है। सप्ताह बीतते बीतते मालूम हो गया कि वहाँ आर्यों का पता लगता है असुर-कन्याओं के नृत्यों तथा सुरा-गोष्ठियों में। कितनी ही आर्य स्त्रियाँ अपने पतियों के पास जाना चाहती हैं, किन्तु बहाना करके उन्हें आने से मना कर दिया जाता है। सुमित्र ने बहुत बार सन्देश भेजने पर भी अपनी स्त्री को आने से रोक दिया। वह स्वयं असुर पुरोहित की कन्या के प्रेम में फँसा हुआ था। और वही नहीं नगर की कितनी ही असुर-सुन्दरियाँ उसकी अन्तःपुरचारिणी थीं। अपने आर्य सैनिकों के लिए भी उसने वैसे ही छूट दे रखी थी। दूसरे आर्य जब आने लगते, तो दासों से दंगा करवा देता, जिससे कुछ खून-खराबी होती और आर्य आने से रुक जाते ।

वरुण ने सारी बातों का पूरा पता लगा अपने मित्र के साथ चुपचाप सौवीरपुर के लिए प्रस्थान किया। सौवीरपुर में उसने जननायकों को बतलाया, कि सुमित्र अपनी शक्ति को इतना दृढ़ कर चुका है, कि अब हमें असुरपुर के आर्य भटों ही नहीं, असुरो की शक्ति से भी मुकाबला करना पड़ेगा, इसके लिए तैयारी करके हमें असली बात लोगों को बतलानी होगी। वरुण नृत्य-अखाड़े का दुलारा था और वर्षों से पतियों का मुख न देख पाने वाली आर्य स्त्रियाँ जब इस सुन्दर नर्तक के मुँह से एकान्त में अपने पतियों की करतूतों को सुनतीं तो उन्हें पूरा विश्वास हो जाता। फिर एक कान से दूसरे कान में चलकर बात बड़े वेग से फैलने लगती । वरुण कवि भी था, उसने पति-वियोगिनी आर्य महिलाओं की ओर से असुर-कन्याओं को अभिशाप, तथा सुमित्र के विलासपूर्ण स्वार्थमय जीवन के कितने ही सुन्दर गीत बनाये, जो दावानल की भाँति सारे सौवीर के आर्य ग्रामों में गाये जाने लगे। आखिर में उसने आर्य पत्नियों को थोड़ा-थोड़ा करके उनके पतियों के पास भेजा, जिन्हें तिरस्कार कर लौटने का परिणाम और भी बुरा साबित हुआ । सुमित्र को लौटने के लिए कहने पर भी जब वह आने के लिए राजी नहीं हुआ तो उसके स्थान पर वरुण को सेनानायक नियुक्त कर भारी आर्य सेना के साथ असुरपुर के लिए रवाना किया। वरुण को सामने आया समझ-सुमित्र के सैनिकों में फूट पड़ गई. और कितनों ने अपने अनार्य व्यवहार के लिए सचमुच पश्चाताप किया। बाकी बची हुई सेना की मदद से लड़ने में सुमित्र को सफलता की आशा न थी, इसलिए अन्त में उसने वरुण को नगर समर्पित कर सौवीरपुर लौटने की इच्छा प्रकट की। इस प्रकार आर्य-जन पहली भीषण परीक्षा में सफल हुआ। वरुण ने असुरों को नहीं छेड़ा, क्योंकि अब वह अस्त्र से नहीं लड़ रहे थे। हाँ, आर्यों को असुरों के प्रभाव से अलग रखने के लिए उसने एक अलग आर्यपुर बसाया और ऋषि अंगिरा की बतलाई कितनी ही बातों को काम में लाना शुरू किया।

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(आज से १२५ पीढ़ी पहले की आर्य-कहानी।)

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