अँधेरे पर अँधेरा (कहानी) : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
Andhere Par Andhera (Hindi Kahani) : Sarveshwar Dayal Saxena
अँधेरे में चीखकर उसने उसे पकड़ लिया। दोनों एक कगार पर खड़े थे 1 नीचे हरहराती नदी बह रही थी। अचानक इस तरह पकड़े जाने से एक क्षण को वह भी काँप उठा, पर दूसरे ही क्षण एक और असहाय इंसान की उपस्थिति ने उसे एक नयी ताकत से भर दिया। एक थरथराता हुआ जिस्म उसे हिला रहा था। वह घबराकर बोल पड़ा - "तुम डर गयी हो। देखो, मैं भी आदमी हूँ।” उसने दियासलाई की तीली जलाई जो तेज हवा के कारण जलते ही बुझ गयी। वह अभी भी थरथरा रही थी और उसे बाँहों में भींचे खड़ी थी।
"इस तरह गिर पड़ोगी, बैठ जाओ।" वह उसे सँभाले हुए उभरी जमीन पर बैठ गया।
उसका थरथराना धीरे-धीरे कम होने लगा। कुछ देर बाद वह अपने को छुड़ाकर अलग बैठ गयी थी। उसे इस तरह असहाय देख, वह दर्द से भर उठा।
"हवा बहुत तेज है। तुम्हें सर्दी लग रही होगी।" उसने अपना कोट उतारा और उस पर डाल दिया।
"कैसी विचित्र बात है ! लगता है, हम दोनों एक ही उद्देश्य से यहाँ आए थे। क्या पता था, यहाँ भी कोई टकरा जाएगा।" आवाज काँप गयी ।
"अब क्या किया जाए ?" थोड़ी देर की खामोशी के बाद उसने कहा।
अब वह चुप थी। नदी की हरहराहट और भयंकर होती जा रही थी ।
"अपना कोट मुझ पर से उठा लो मुझे सर्दी नहीं लग रही है।" फटी-सी आवाज में वह बोली ।
"कैसी विचित्र बात है।" वह फिर बुदबुदाया, "तुम्हें यह अजीब नहीं लग रहा है, ठीक मौत से पहले दो आदमियों का इस तरह अचानक मिल जाना ? तुम भी मरने के लिए आयी थी न ? मैं भी आया था।”
"मैं अभागी हूँ।" वह सिसक रही थी।
“क्या तुम भाग्य को मानती हो ?”
"मैं अब कुछ नहीं मानती। मुझे अकेला छोड़ दो। जाओ ।" वह रो पड़ी।
"यह तो मैं भी कह सकता हूँ। मैं ही कहाँ जीना चाहता हूँ। मुझे क्या पता था कि ठीक छुटकारे के समय कोई मुझे इस तरह चीखकर पकड़ लेगा। घबराओ मत, मैं जा रहा हूँ। जो मौत खोज रहा हो, उसमें करुणा नहीं होती।"
वह उठकर खड़ा हो गया। “रोओ मत। संकल्प डिग जाता है।" उसने कहा और आड़ करके दियासलाई जलाई । रोशनी की एक कौंध में उसका आँसुओं से भरा मुँह दिखायी दिया, जो भय के कारण विकृत था ।
"तुम्हारी अभी उम्र ही क्या है; तुम सुन्दर हो, युवा हो । लेकिन मैं तुम्हें मरने से नहीं रोकूँगा । यदि चाहो तो साथ दे सकता हूँ।”
"अब साथ लेकर क्या होगा ?" वह भरभराए स्वरों में बोली।
"ठीक कहती हो। मैं जा रहा हूँ।" वह चुपचाप चला गया। कगार के एकदम किनारे तक गया, खड़ा रहा, पर कूद नहीं सका, बैठ गया। घुप अँधेरे में कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। केवल नदी का शोर चारों ओर भरा हुआ था। चारों ओर एक ही शोर-निरन्तर एक जैसा। काफी देर वह बैठा रहा।
"तुम्हारा कोट ।” आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा।
"उसे बिछा लो और बैठ जाओ। नदी कगार को नीचे ही नीचे काट रही है। कुछ देर बाद हम अपने-आप लहरों में चले जाएँगे। किसी का किसी पर कोई एहसान नहीं होगा।"
उसने कोट एक ओर रख दिया और धूल में बैठ गयी। दोनों चुप बैठे रहे । नदी का हरहराता स्वर उसी तरह बना रहा और दोनों के बीच अँधेरे की दीवार उसी तरह खड़ी रही। पास-पास बैठे होकर भी वे पास-पास नहीं थे। एक-दूसरे की उपस्थिति ने उन्हें सहसा कुछ बदल दिया था। खामोशी तोड़कर स्त्री ने कहा, “तुम्हारा कोट यह रक्खा है।"
"समय बीतता जा रहा है।" वह बोला ।
"मैंने कहा था, चले जाओ। मैं अकेले रहना चाहती हूँ ।"
“मैं नहीं जाऊँगा। यहीं कगार के कटने की प्रतीक्षा करूँगा। तुम भी यही कर सकती हो।"
"अब एक क्षण भी मुझे बरदाश्त नहीं।" फिर कुछ रुककर बोली, "अब तक मैं इस जिन्दगी से छुटकारा पा गयी होती पर तुमने ... ।” उसकी आवाज फँस गयी और वह सिसकने लगी। फूटकर रो पड़ी, “अब मैं क्या करूँ !”
“घबराओ मत। मौत अभी भी हमारी पकड़ में है, हमें छोड़कर नहीं गयी है। मेरे यहाँ होने से घबराने की जरूरत नहीं है। मैं तुम्हें सहारा दे सकूँ, इस लायक नहीं हूँ। मैं खुद इस जिन्दगी से छुटकारा पाने आया हूँ। मुझ पर यकीन करो । यकीन करो मुझ पर यकीन करो ।”
"यकीन! फिर यकीन करूँ !" वह बिलखने लगी ।
"मुझे लगता है, तुम पूरी तरह टूटी नहीं हो। किसी आवेश में हो । नहीं तो मरते हुए आदमी के लिए यकीन करना न करना एक जैसा होता है !"
वह उसी तरह फूट-फूटकर रोती रही और नदी हरहराती बहती रही । काफी देर बाद उसका सिसकना बन्द हो गया ।
"थक गयीं !"
"मुझे हमदर्दी नहीं चाहिए।" भर्राई, रूखी आवाज में उसने कहा ।
"बिना चाहे मिल जाए तो।"
"नहीं, नहीं।"
"जिन्दगी भी तो बिना चाहे मिली है।" वह बोला।
"तुम बात मत करो।"
"जो बिना चाहे मिल जाए, उसे आसानी से छोड़ा जा सकता है। न मिला हुआ भी माना जा सकता है।"
"मुझे तुम्हारी हमदर्दी नहीं चाहिए।" वह तड़प उठी।
“तुम जरूर आवेश में हो। तुमने विवेक से मृत्यु को स्वीकार नहीं किया है।"
"तुमने विवेक से किया है ?” उसकी आवाज में तनाव था। उसने सिर घुटनों से उठा लिया था और अँधेरे में उसकी ओर देखने लगी थी ।
पुरुष ने दियासलाई जलायी और जलती हुई तीली नीचे अँधेरे में छोड़ दी। फिर जलाई, फिर छोड़ दी। तीली पूरी जले बिना बुझ गयी ।
“हाँ !” उसके जवाब में दृढ़ता थी। यह 'हाँ' स्त्री को ऐसा लगा, जैसे कोई चट्टान टूटकर नदी में गिर पड़ी हो ।
“विवेक से जिन्दगी स्वीकार की जाती है, मौत नहीं ।" वह धीरे से बोली ।
“ठीक कहती हो तुम। अब जिन्दगी और मौत में मेरे लिए कोई भेद नहीं है।"
“फिर दूसरों के लिए जीते।" स्त्री के स्वरों में अभी भी थोड़ा व्यंग्य था।
"अब तक दूसरों के लिए ही जिया । चालीस साल । पर अब कोई ऐसा भी नहीं रहा।" उसका स्वर उदासी में डूब गया ।
“तुम्हारे कोई नहीं है ?” स्त्री की आवाज में संवेदना थी।
"कोई नहीं। ऐसा कोई नहीं, जिसे अपना मान सकूँ। सभी अपने लिए जीते हैं। ऐसा कोई नहीं, जिससे लगे कोई मेरे लिए भी जी रहा है।" पुरुष के स्वरों में उदासी थी ।
"तुम झूठे हो ।”
"नहीं, ऐसा नहीं है। हर सम्बन्ध से कुछ दूर चलकर ऊब जाता था, जैसे सूखे पेड़ में पानी डाल रहा होऊँ। मैं अपने पूरे अस्तित्व से दूसरों का बनना चाहता था। दूसरे जाने क्यों इससे डरते थे। लोग स्नेह से, संवेदना से डरते हैं, जैसे तुम डरती हो ।”
उसने कोट उठाया और उसमें दियासलाई लगा दी। एक हल्की लपट उठी। असहनीय गन्ध भी रोशनी एक छोटे से वृत्त में फैली । नीचे नदी के जल की सतह पर पार के पेड़ों पर अँधेरा था। रोशनी में उसने स्त्री को साफ-साफ देखा । स्त्री ने उसे देखते ही, मुँह फिरा लिया। पुरुष ने कोट से उठती लपटों की ओर दृष्टि जमा ली ।
"कुछ तो ठंडक दूर होगी। तुम्हारा डर भी चला जाएगा। लेकिन यह आग बहुत थोड़ी देर टिकेगी। फिर हम बर्फ होने लगेंगे।” पुरुष ने बुझती आग की ओर देखकर अटक अटककर कहा।
"कोट क्यों जला दिया ?" स्त्री ने शिकायत भरे स्वर में पूछा।
“अब क्या करना था उसका। मैंने उसे यूँ ही बिना सोचे तुम्हारे ऊपर डाल दिया था। उसी तरह बिना सोचे जला दिया।"
"तुममें बहुत अहं है।" स्त्री ने कहा। फिर कुछ देर रुककर बोली, "लेकिन इसका मुझ पर कोई असर नहीं होगा।”
कोट कुछ देर बाद जलकर बुझ गया था। वह गर्म राख को कुरेद रहा था ! 'हमदर्दी स्वीकार करने से हमदर्दी देनी जो पड़ती है। लोग देते डरते हैं, इसीलिए लेते नहीं।' पुरुष ने जैसे अपने-आपसे कहा ।
"पेड़ों पर अँधेरा है। किसी भी क्षण कगारा कट सकता है और हम अँधेरे में मिल सकते हैं। तुम्हारा नाम क्या है ?"
“मैं सब भूल गयी हूँ। जो चाहो कह लो ।”
"तुम रहती कहाँ हो ? तुम क्यों मरना चाहती हो ?”
"यह सब कुछ मत पूछो, मैं प्रार्थना करती हूँ।” स्त्री के स्वरों में कातरता थी ।
"अभी कगारा कटने में काफी देर दीखती है। एक दूसरे का इतिहास हम जान सकते हैं।"
"मेरा कोई इतिहास नहीं।"
"कुछ तो बताओ। डरो मत।"
"मत पूछो। प्रार्थना करती हूँ। कुछ मत पूछो।" स्त्री की आवाज में बेहद कातरता थी ।
"अच्छी बात है । न सही अँधेरा कितना बढ़ता जा रहा है। या हमारे- तुम्हारे होने से लगता है बढ़ रहा है ? बचपन से ही अँधेरे से मुझे घबराहट होती थी, पर इधर शान्ति मिलती है। हम अपने को खुद जो नहीं देख पाते। चारों तरफ एक दुनिया भी है, जो आसानी से भुलाई जा सकती है इसी अँधेरे के कारण । तुम्हें अँधेरा कैसा लगता है ?"
“अच्छा नहीं लगता। डर लगता है।" वह बोली।
"अँधेरा कुछ भी बिखरने नहीं देता । कसता है। बाँधता है। पूजा करते समय भी तो हम आँख बन्द कर लेते हैं। ईश्वर अँधेरे में मिलता है। तुम ईश्वर को मानती हो ?"
"होगा, जिसके लिए होगा। मेरे लिए नहीं है।"
"मेरे लिए है। क्योंकि चारों तरफ अँधेरा है। अँधेरा और ईश्वर दोनों बराबर हैं। अँधेरा ही ईश्वर है । हम इस समय ईश्वर से घिरे हैं।”
"ईश्वर का नाम मेरे सामने मत लो।"
"क्यों ? नाम लेने से तो उससे घृणा करने का और मौका मिलेगा।"
"मैं यह भी नहीं कर सकती !”
“लगता है, तुम्हारी घृणा अधूरी है। मैं ईश्वर से घिरा हूँ, फिर भी उसकी उपेक्षा कर सकता हूँ।”
उसने राख को कुरेदा । राख की ऊपरी परत हवा में उड़कर उसके ऊपर आ गिरी।
"तुम्हारे ऊपर तो राख नहीं गई ?” उसने पूछा ।
"मैं तो राख में दबी हुई हूँ।"
"ठण्डी या गरम ?" वह कुछ हँसा ।
"दार्शनिक मत बनो।" स्त्री चिढ़ गयी ।
"इस सवाल से नाराज होने की क्या बात है ? मैं वह राख छूने नहीं जा रहा हूँ जिसमें तुम दबी हो। हम सब जो मौत की कामना करते हैं, ठण्डी राख में दबे हैं।"
"तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती।" वह बोली।
“मैं तुम्हारे समझने के लिए कहाँ कह रहा हूँ। मेरी बात किसी के समझ में नहीं आयी। यदि आ जाती तो आज मैं तुमसे न टकरा जाता। जीवन जीने योग्य नहीं है, इस नतीजे पर न पहुँचता । मैं तो केवल अँधेरे और ईश्वर की बात कर रहा था, जो मौत के पर्याय हैं।"
वह चुप हो गया। नदी उसी तरह हरहराती बह रही थी। अँधेरा उसी तरह छाया हुआ था। हवा के किन्हीं तेज झोंकों में अक्सर राख उड़-उड़कर ऊपर गिर पड़ती थी ।
"तुम्हारा चुप हो जाना अच्छा लग रहा है।" स्त्री ने कुछ देर बाद कहा।
"चुप नहीं हूँ। बोल रहा हूँ। सोचता हूँ, अचानक एक दूसरे से मिलकर हम रुक क्यों गए? तुम इधर पहले भी आयी थीं? यह जगह तो बस्ती से दूर है ।"
"नहीं, पहले कभी नहीं आयी थी । सुना था यह स्थान बड़ा दुर्गम है, उजाड़ है। इधर कोई नहीं आता। इसीलिए इधर आयी थी। पर क्या मालूम था, यहाँ भी कोई मिल जाएगा।" स्त्री की आवाज में उदासी थी ।
"इसका तुम्हें बहुत पछतावा है ?"
"मुझे तुमसे डर लगता है।"
"क्यों ?"
"तुम जाने कैसी बातें करते हो ।”
"कैसी बातें तुम चाहती हो ?”
"मैं कुछ नहीं चाहती। आदमी की आवाज तक नहीं ।"
"मुझे तो समय काटना है। कुछ-न-कुछ बोलता ही रहूँगा । कोई न होता, खुद से बोलता । अँधेरे से, हवा से, नदी से बोलता बोलने लगो तो अजनबी अजनबी नहीं रह जाता। ऐसा अँधेरा मैंने पहले कभी नहीं देखा था।"
"तुम्हारे शब्द चुभते हैं, पर मुझे क्या करना है !" स्त्री ने जैसे अपने आपसे कहा ।
"करना तो किसी को कुछ नहीं है। जो कुछ करना था, हम कर चुके । सब कुछ कर चुकने के बाद यहाँ हैं। अब कोई नयी दुनिया हमें मिल जाएगी, ऐसा भ्रम मुझमें नहीं है। तुममें भी नहीं होगा ?"
“मुझमें अब कुछ नहीं है।"
"मैंने पूछा था, तुम भाग्य को मानती हो ? कहीं ऐसा तो नहीं है कि मौत का अनुभव साथ-साथ करने के लिए भाग्य ने इस तरह हमें तुम्हें मिला दिया हो ?"
स्त्री कुछ बोली नहीं । अँधेरा उसी तरह छाया हुआ था और नदी उसी तरह हरहराती हुई बह रही थी। हवा जरूर पहले से कुछ अधिक तेज और ठण्डी हो गयी थी ।
"तुमने कोट जला दिया । तुम्हें सर्दी लग रही होगी। मेरी शाल ले लो, चाहो तो।" कुछ देर बाद स्त्री ने कहा ।
“फिर तुम्हें सर्दी लगेगी। मैं सहने का आदी हूँ। आदमी और मौसम दोनों की मार।"
"फिर तुम व्यंग्य करने लगे।”
"यह सत्य है । सत्य ही सबसे बड़ा व्यंग्य है।"
"इसीलिए तो कहती हूँ, मेरी शाल ले लो। मैं किसी के कष्ट का कारण नहीं बनना चाहती।"
"किसी के चाहने से क्या होता है। तुम्हें क्या मालूम तुम्हारी शाल ओढ़कर मुझे दुगुना कष्ट हो जाए।"
"नहीं होगा।"
"होगा। प्रतिदान पाने का कष्ट । दूसरे के कारण वंचित रहने का भी एक सुख होता है। वह मुझसे छिन जाएगा।”
"तुम स्वार्थी हो । अब समझ में आया, वह करुणा नहीं थी, तुम्हारा अहं था, जिसके कारण तुमने अपना कोट मुझ पर डाल दिया । तुम दिखाना चाहते थे कि अपने असमर्थ क्षणों में भी तुम किसी को कुछ दे सकते हो । लेकिन मैंने तुम्हारा अहं चूर-चूर कर दिया। मुझे किसी का दान नहीं चाहिए । तुम अपने को मुझसे बड़ा साबित करना चाहते हो। तुम दिखाना चाहते हो कि तुम मेरे लिए कष्ट उठा रहे हो। मुझसे यह बरदाश्त नहीं होगा। तुम्हें शाल लेनी पड़ेगी।" स्त्री के स्वरों में आवेश था। उसने शाल उतारकर उसके ऊपर फेंक दी।
"कैसी अजीब बात है। मरते समय भी हम लड़ते हैं।" पुरुष ने कहा।
"और दूसरे को पराजित देखना चाहते हैं। मैं हर तरफ से हार चुकी हूँ। लेकिन मैं तुमसे, एक अजनबी से इस अन्तिम समय हार नहीं मानूँगी। तुम्हें शाल ओढ़नी होगी, क्योंकि तुम्हें मुझ पर अपना कोट डालने का कोई अधिकार नहीं था।"
"तुम फिर लड़ रही हो। अस्वस्थ हो । अँधेरे में मुझसे चीखकर लिपटने का ही तुम्हें क्या अधिकार था ? मैं सच कहता हूँ, यह सब अपने-आप हुआ था। बहुत कुछ अपने आप हो जाता है, उसके लिए कोई जिम्मेदार नहीं होता। अपनी शाल ले लो, तुम्हें सर्दी लग रही होगी।”
वह उठा और उसने शाल स्त्री के ऊपर डाल दी ।
"यह नहीं होगा।" स्त्री चीख उठी।
"यह होगा ।" पुरुष की आवाज में कठोरता थी ।
अचानक दोनों के बीच खामोशी छा गयी। जैसे दोनों ही मर चुके हों । कगार के पास के पेड़ों पर रात के पक्षी बोलने लगे थे। उनके परों की मनहूस फड़फड़ाहट उस खामोशी को खा रही थी। काफी देर बाद वह बोला, “मैं माफी चाहता हूँ। तुम्हें अपमानित करना मेरा उद्देश्य नहीं है। यदि अभी तुम्हारे मन में क्षोभ है तो शाल मुझे दे दो। मैं उसे ओढ़कर नदी में कूद पड़ता हूँ और यदि तुम्हें मेरे कष्ट का खयाल है तो यह तो हो ही सकता है कि हम दोनों ही उसे ओढ़कर बैठ जायें।”
"आओ।" स्त्री ने कठोर स्वर में कहा।
पुरुष स्त्री के पास जाकर बैठ गया। दोनों ने उस एक शाल से अपने को लपेट लिया। कुछ देर बाद पुरुष जैसे खुद से बोलने लगा, “क्या मालूम था अन्तिम समय में यह होगा। मैं गरीब घराने में पैदा हुआ। माँ-बाप तक का पूरा प्यार नहीं पा सका। उनके बीच भी अजनबी सा रहा। आर्थिक संघर्ष अपनों से दूर करता था, दूसरों को पास लाता था । उसने सिखाया दुनिया बहुत बड़ी है। सभी अपने हैं क्योंकि कोई अपना नहीं। जिससे भी थोड़ी संवेदना मिली, उसे अपना मान लिया। जैसे वही सर्वस्व हो। लेकिन हर बार लगा, संवेदना प्यार नहीं है। मैं ज्यों-ज्यों भरता जाता, दूसरे त्यों-त्यों चुकते जाते। हर बार लगता मैंने भूल की है, लेकिन फिर-फिर भूल करता, फिर-फिर टूटता और एक भयानक उदासीनता से भरता जाता। अन्त में हर आदमी मेरे लिए एक जैसा हो गया-अपने हित के लिए सतर्क, भीतर कुरूप, ऊपर मुखौटे ओढ़े हुए अविश्वसनीय, चालाक, ढोंगी । फिर धीरे-धीरे सबसे ऊब गया। सबसे ऊबना अन्ततः अपने से ऊबना है। अपने से ऊबे हुए आदमी को आत्महत्या के अलावा और कोई रास्ता नहीं दिखाई देता । मुझे भी यही दिखाई दिया। क्या करूँ ?
"अब किसी पर क्रोध या घृणा मुझे नहीं है। हर आदमी लगता है चालाक या ढोंगी होने के लिए मजबूर है। मैं नहीं हो सका, यह मेरा ही कसूर है। मैं इस दुनिया के योग्य नहीं हूँ। मैं किसी के भी योग्य नहीं हूँ । हर तरह से व्यर्थ हूँ । न खुद को बदल सकता हूँ, न दूसरों को। मेरे जीने का कोई अर्थ नहीं। मेरे लिए यह दुनिया बेकार है, इस दुनिया के लिए मैं ।
"मैं मरना नहीं चाहता था। मैं यकीन करना चाहता था, जो नहीं था उसका भी जिससे कि जिन्दा रह सकूँ । झूठ को भी सच मानकर स्वीकार कर लेता था। मैंने जिन्दा रहने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखा। लेकिन हर बार असलियत नकाब उलट देती थी, मेरा विश्वास टूट जाता था । मैं नहीं चाहता था मेरा विश्वास टूटे। टूटे विश्वासों को भी बार-बार जोड़ता था पर कोई आकर्षण ऐसा नहीं था, जो भ्रम ही बना रहने देता । यकीन मानो मैं मात्र भ्रम के सहारे जी भी लेता, यदि किसी ने वही बना रहने दिया होता। "
वह फिर चुप हो गया। उसने सिर घुटनों में छिपा रक्खा था। उसकी साँस साँस में कराह थी। स्त्री ने उसका हाथ धीरे से अपने हाथों में ले लिया। इस स्पर्श से वह और अधिक भर उठा।
"प्यार बहुत बड़ी चीज है। उसकी आशा किसी से नहीं करनी चाहिए। मैं जानता हूँ, वह केवल दिया जाता है। लेकिन जाने क्यों इतना जरूर चाहता था, जिसे हम प्यार देते हैं, वह हमें समझे। कहीं कोई हो जो हमें समझे। मैं ऐसे व्यक्ति को खोजने लगा। घूमता फिरा। अक्सर लगता आदमी और समाज न सही, इस सुन्दर प्रकृति के लिए ही जिया जा सकता है-नदियों, पहाड़ों, फूलों, सुन्दर वृक्षों, सुन्दर आकाश सभी के लिए जिया जा सकता है। कुछ दिनों तक हर स्थान, हर दृश्य अच्छा लगता था, पर अन्त में आदमी के बिना अधूरा लगने लगता था।" उसने मुँह उसी तरह घुटनों में दबा रक्खा था। स्त्री बिना हिले-डुले चुपचाप बैठी थी। फिर कुछ देर रुककर वह बोला, “मृत्यु भी शायद अधूरी होती, पर तुमसे मिलकर लगता है पूरी हो जाएगी। मैं मरूँगा सुखी, क्योंकि मैंने किसी के साथ छल नहीं किया है। मैं साधनहीन, विपन्न आदमी था; सच्चाई के सिवा मेरे पास कुछ नहीं था जो मैं किसी को दे सकता। मैंने उसे दिया है। हरएक को दिया है। यद्यपि हर एक ने बदले में मुझे मेरी विपन्नता का ही अहसास कराया है। सच्चाई असमर्थ होती है। दुनिया सामर्थ्य चाहती है। सच्चाई के सपने सामर्थ्य के सपनों से अलग होते हैं। मेरे पास जो संसार था, यद्यपि सच्चा था। मैं मरूँगा सुखी, क्योंकि मेरे मन में कोई पछतावा नहीं है।”
हवा का तेज झोंका आया और राख उड़कर मुख पर पड़ी। नदी की हरहराहट में पेड़ों के झूलने की आवाज दबी हुई थी। अँधेरे में आँखें फाड़कर वह उनका हिलना अपनी दृष्टि से पकड़ना चाहता था, लेकिन दृष्टि असमर्थ थी, अँधेरे को भेद नहीं पाती थी। कुछ देर वह अँधेरे को देखता रहा फिर बोला, “तुम्हें क्या पार के पेड़ कुछ भी दिखाई दे रहे हैं। शायद वे झूम रहे हैं। मुझे हवा में झूमते पेड़ बहुत अच्छे लगते हैं। इस समय तुम्हारे सामीप्य से मैं कितना सुखी हूँ। झूमते पेड़ों को देखना चाहता हूँ।"
"तुम सुखी हो ?" स्त्री चौंक पड़ी।
“हाँ, ठीक इस क्षण मैं सुखी हूँ। कितना अच्छा होता यदि इसी समय यह कगारा कट जाता।"
"क्या सुख मिल रहा है तुम्हें ?" स्त्री की आवाज में विकलता थी । उसने उसका हाथ छोड़कर अपना हाथ खींच लिया ।
"यह मैं नहीं बता सकता। तुम्हारी उपस्थिति से ... ।”
“मैं बता सकती हूँ ।" स्त्री ने आवेश में बात काट दी और बोली, "तुम स्त्री के शरीर के भूखे हो । उसे पाने के लिए नाटक खेल रहे हो । पुरुष हमेशा इसी तरह नाटक खेलता है। शब्दों के जाल रचता है। हमदर्दी दिखाता है। स्त्री की करुणा जगाता है। केवल उसे प्राप्त करने के लिए। उसे प्राप्त करते ही नाटक खत्म हो जाता है। मैं यह नाटक अच्छी तरह समझती हूँ ।" क्रोध से भरी उसकी आवाज काँपने लगी थी ।
पुरुष जोर से हँस पड़ा। शाल अपने पर से हटाकर जमीन पर लोट गया। हँसते-हँसते बोला, “समझा। तुम्हारे शरीर पर मार पड़ी है।" और कुछ सोच-सोचकर हँसता रहा। " शरीर की मार तो सही जा सकती है। उसके लिए मरना बेवकूफी है।" हँसी रुकने पर उसने कहा ।
"तुम पुरुष हो इसलिए ऐसा कहते हो।" स्त्री ने तिलमिलाकर कहा ।
"मन की मार, आत्मा की मार, कहीं बड़ी होती है । शरीर की मार उसके सामने गौण है, कुछ नहीं । असली जीत और हार मन की होती है, शरीर की नहीं । स्त्री का शरीर मुझे मिला है। किसी को भी मिल सकता है। सभी को मिलता है। कोई बड़ी बात नहीं है। लेकिन मन ? वह सबको नहीं मिलता। उनको भी नहीं जो शरीर के स्वामी होते हैं। यदि तुम्हारी मार केवल शरीर की है तो कुछ नहीं।" वह फिर हँसने लगा।
"अपना कलंक लेकर वह समाज में कैसे रहेगी ?" स्त्री तमतमा उठी थी ।
"कैसा कलंक ? कैसा समाज ?" वह उठकर बैठ गया। उसकी आवाज बदल गई थी, "तुम किस जमाने में रहती हो ? अपनी इच्छा से जो मिलता है, वह कलंक नहीं होता और समाज जरूरतों के हिसाब से हम चुन सकते हैं, बदल सकते हैं, उससे ऊपर उठ सकते हैं। हम खूँटे से नहीं बँधे हैं ।"
"तुम पुरुष हो, इसीलिए ऐसी बातें कर सकते हो। जो कलंक लिये हो, उस स्त्री को कौन स्वीकार करेगा ?” स्त्री का स्वर फिर आवेश में काँपने लगा था।
"हर वह व्यक्ति, जो देह का धर्म जानता हो।"
"तुम मुझे स्वीकार कर सकते हो ? मैं कलंकिनी हूँ ।" स्त्री की आवाज सख्त हो गयी थी।
“हाँ, यदि जीने की इच्छा मुझमें होती ।"
"तुम झूठे हो।" उसने कहा और चुप हो गयी। फिर जाने कैसे अपने आप कहने लगी—“मैं एक धनी घराने में पैदा हुई । बिना कोई अभाव महसूस किए हुए पूरी आजादी के साथ पली-बढ़ी। शरीर का बन्धन मैंने स्वीकार नहीं किया। केवल प्रेम का बन्धन मैंने स्वीकार किया। झूठे प्रेम का । अब आधी से अधिक जिन्दगी बीत गयी । तन ढलान पर है। माँ बनना चाहती थी। लेकिन कोई स्वीकार करने को तैयार नहीं था । मेरा सम्पन्न परिवार विपन्न हो गया था। माता-पिता सारी सुख-सुविधा लेकर संसार छोड़कर जा चुके थे। मैं अकेली थी। जीवन के विलास से ऊब चुकी थी । एक घर बसाकर रहना चाहती थी। पर कोई तैयार नहीं था। जो तैयार भी हुआ वह भाग निकला। मैं कहीं की नहीं रह गई । सच, अब मैं कहीं की नहीं हूँ। मेरा कोई नहीं है। कोई नहीं, कोई नहीं।" स्त्री फूटकर रो पड़ी।
नदी की हरहराती आवाज से उसका रोना अलग सुनाई दे रहा था, जैसे धार से कटे सड़े हुए फूल किनारे से लगकर अलग दिखाई देते हैं । अँधेरा उसी तरह चारों ओर जमा हुआ था। लेटे-लेटे पुरुष ने दृष्टि आकाश पर जमा दी थी। बहुत फीके कुछ सितारे उसकी निगाहों की पकड़ में आ गए। धीरे से उसने पूछा, “क्या तुम जिन्दा रहना चाहती हो ?"
स्त्री कुछ नहीं बोली। उसी तरह रोती रही ।
"बोलती क्यों नहीं हो ? क्या तुम जिन्दा रहना चाहती हो ?"
स्त्री उसी तरह चुप रोती रही ।
"यदि तुम जिन्दा रहना चाहती हो, तो मैं तुम्हें स्वीकार करने को तैयार हूँ।” पुरुष ने कहा ।
"नहीं, नहीं, यह झूठ है।" स्त्री और जोर से चीखकर रोने लगी ।
पुरुष उठकर उसके पास आ गया। कोमल और दृढ़ स्वरों में बोला, "यह सच है। मैं एक बार फिर जिन्दा रहने की कोशिश कर सकता हूँ । शायद तुम पूरे मन से मुझे स्वीकार कर सको। तुम मेरे लिए हो सको ।" यह कहते हुए उसने शाल उसे अच्छी तरह लपेट दी और आहिस्ता से उसकी पीठ पर अपना हाथ रख दिया। स्त्री कुछ क्षण जड़वत् बैठी रही। फिर ठीक पहले की तरह चीखकर उसने उसे बाँहों में भींच लिया। उसका शरीर काँप रहा था और वह 'नहीं, नहीं' करती फूट-फूट कर रो रही थी । अँधेरे पर अँधेरे की एक और परत चढ़ गयी थी।