अँधेरे की आत्मा (मलयालम कहानी) : एम. टी. वासुदेवन नायर
Andhere Ki Aatma (Malayalam Story in Hindi) : M. T. Vasudevan Nair
वेलायुधन डरते-सहमते बाहर आया। देहरी पर कदम पड़ते ही वह ठिठक गया, और दालान की तरफ झाँका-वहाँ अच्युतन नायर गहरी नींद में सोया पड़ा था। वह पल-भर उसकी तरफ ताकता रहा। अच्युतन नायर के नींद में खर्राटे लेते समय गले का कौआ जो कुलाँचें मारता था, उसे देखते रहने में उसे बड़ा ही मजा आया। उसकी अण्टी में खोया सुपारी का पका फल खुलकर बाहर फिसलना चाह रहा था। उसकी रोयेंदार हथेलियों और मोटी-मोटी घिनौनी अंगुलियों पर नजर पड़ी तो वेलायुधन गुस्से से भर गया।
इसी हाथ से ही तो कल शाम को...कल या और भी कुछ दिन पहले?
वेलायुधन ने गला सहलाया, वहाँ दर्द अभी बाकी था।
एक दिन चुपचाप किसी के अनजाने ही, वह हाथ काट डालना होगा। एक बड़ा-सा चाकू इसके लिए कहीं से हथियाना होगा। फिर जब अच्युतन नायर अपना रोयेंदार खुरदरा हाथ फर्श पर पसारकर सोया पड़ा होगा तो चुपके से, दबे-पाँव, दबी-साँस जाकर एक बार ऐसा कि...
बस, उसे यही सजा दी जानी चाहिए। दूसरों के सताने की भी कोई सीमा होनी चाहिए।
इधर कुछ दिनों से अच्युतन नायर ही उसे नहलाता था। यह उसे बिलकुल पसन्द नहीं। आखिर इसका मतलब क्या है? वह कोई दूध पीता बच्चा तो नहीं कि कोई दूसरा आकर उसे नहलाने-धुलाने लगे। अब वह बड़ा हो गया है-काफी सयाना। जब वह गोपी जितना बड़ा हो गया था तो वह भी काली के मन्दिर के सामने वाले नदी-घाट में स्नान करने जाता था। उन दिनों उसे उसकी माँ ही नहलाती थी।
मगर अब वह बड़ा हो गया है। नानी अकसर कहा करती, "बीस-पचीस साल का हो गया है, अपने पैरों खड़ा होने लायक एक सयाना मर्द। सुकृतक्षय (बदकिस्मती) और क्या?"
वेलायुधन को मालूम है कि नानी किसके 'सुकृतक्षय' पर मातम कर रही है।
घर के पिछवाड़े जो चौतरा बना है, उस पर रोज अच्युतन नायर उसे जबरदस्ती पड़कर ले जाता है। वहाँ तीन बड़े-बड़े कड़ाहों में पानी भरा रहता है। एक 'पु' से जिसका उपरीला किनारा टूटा हुआ है, पानी ले-ले सर पर लगातार उँड़ेलता रहता है।
अभी परसों की बात है। या उससे भी कुछ दिन पहले की बात-
पानी भरे कड़ाहों के पास तख्ते पर बिठाकर अच्युतन नायर 'पु' लाने गया तो वेलायुधन के दिमाग में एक योजना सूझ पड़ी। क्यों न एक नहर बनायी जाए इस चौतरे के सामने से? पाल लगी बड़ी-बड़ी नावों और मछियारों की छोटी-छोटी किश्तियों को उस पर तैरते हुए वह अपने सोने के कमरे की खिड़की पर खड़ा होकर देख पाएगा। बरसात के मौसम में मछलियाँ उछलती-कूदती फिरेंगी। और उस वक्त चाहे तो डोरी-काँटे से मछलियाँ भी पकड़ी जा सकती हैं, खिड़की पर ही खड़े-खड़े।
उसने गँदले पानी की निकासी के लिए चौतरे के सामने से खोदी गयी मोरी पर तीनों कड़ाहों का पानी उँड़ेल दिया। मटमैले पानी को बहते वह बड़े मजे से देख ही रहा था कि पीछे से अच्युतन नायर की पुकार सुनाई पड़ी, "वेलायुध!"
पुकार नहीं थी वह, दहाड़ थी, दहाड़!
वेलायुधन ने सहमी-सहमी-सी आँखें ऊपर उठायीं।
"गुस्ताखी कर रहे हो?"
अच्युतन नायर की आँखों से जैसे अंगारे निकल रहे थे। तैश में आकर वेलायुधन इस ख्याल से एक कड़ाहा उठाना ही चाहता था कि इससे अभी इस जालिम को ढक देता हूँ, कि तभी गाल पर जोर का एक थप्पड़ पड़ा।
"मार डाला, मुझे मार डाला!" मारे दर्द व घबराहट के वेलायुधन चिल्लाने लगा। शोर-शराबा सुन नानी आयी। पीछे-पीछे मौसी और गोपी भी आ पहुँचे।
नानी ओढ़ी हुई चादर के पल्ले से आँखें पोंछती हुई बोली, "अच्युता! ऐसा न करो। 'दैव दोष' (ईश्वर का कोप) होगा तुम पर। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से ही तो..."
"इसकी करतूत तो देखिए न नानी!" अच्युतन नायर ने नानी से कहा।
मौसी बुदबुदायी, "लात का भूत बात से नहीं मानता। यह सब बदमाशी है इसकी।"
नानी ने फिर एक बार आँखें पोंछते हुए किस्मत को कोसा, "सुकृतक्षय! सुकृत...!"
वेलायुधन ने गर्दन पर हाथ फेरा-अभी दर्द कुछ-कुछ बाकी था।
हलवाहा अयप्पन के पास एक तेज हँसिया है। वह जब खेत का काम करने के बाद अगवार लेने खलिहान वाले घर के फाटक पर आएगा तो उस हँसिये को उससे लेना होगा।
एक दिन जब अच्युतन नायर के गले का कौआ इसी तरह चौकड़ियाँ भरता रहेगा और खुद अच्युतन नायर मौत से बाजी लगाकर इसी तरह सोया रहेगा तो चुपके से जाकर एक हाथ ऐसा साफ और किस्सा खतम...
सवेरे उठने पर बड़ा मजा आएगा, ज्यों ही अच्युतन नायर यों दहाड़ते हुए कि 'यह सब वेलायुधन की बदमाशी है, पागलपन नहीं' मारने के लिए हाथ उठाएगा तो पाएगा कि हाथ नदारद...।
और हाथ ढूँढ़ता-ढूँढ़ता जब वह घर का कोना-कोना छानने लगेगा तो मारे हँसी के पेट फट जाएगा।
वेलायुधन दालान से उत्तर की तरफ के बड़े कमरे में आया। वहाँ खुली खिड़की के पास नानी सन की चटाई पर सिमटी सो रही थी। नानी का बदन बड़ा घिनौना लगता था, जैसे बदन-भर में मछली की चुईं लगी हो।
बेचारी नानी! उससे वेलायुधन की कोई शिकायत नहीं। नानी ने उसे कभी बुरा-भला नहीं कहा। न कभी डाँटा, और न थप्पड़ लगाया। घर के बाकी जितने जीव हैं, सबने उसे पीटा है, गोपी और शंकरनकुट्टी तक ने, जो अभी उससे छोटी उम्र के हैं। लड़के अपने से बड़ों पर हाथ नहीं उठाते।
मौसी कहीं दिखाई नहीं दी, अच्छा ही हुआ। मौसी का कमरा दुमंजिले पर है, मौसी, गोपी और गोपी का बाप दोपहर खाने के बाद अपने-अपने कमरे में चले जाते थे तो सूरज ढलने के बाद ही उतरते थे।
दक्षिण की तरफ जो बड़ा-सा कमरा था, उसमें घुप्प अँधेरा था। दोपहर के वक्त भी इसमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। हाँ, घर के बीच वाले आँगन से थोड़ी गोलगोल सी रोशनी घुसपैठ करती थी जरूर। चारों कोनों पर अनाज भरने के बड़े-बड़े सन्दूक और बीजों से भरे कोठर थे। उस अँधेरे में कहीं कोई शैतान तो नहीं छिपा बैठा हो। और यह भी हो सकता है कि वहाँ खुद मामा ही छिपा बैठा हो। ऐसी हालत में उसके हाथ में नारियल के पेड़ के पत्तों का डण्ठल जरूर होगा, क्योंकि उससे मारने में मामा को बड़ा मजा आता है न! मगर वहाँ शैतान हो तो मामा कैसे छिपा रह सकता है?
बरामदे पर कदम रखना ही चाहता था कि वेलायुधन को फिर मामा याद आया-अगर मामा बरामदे पर नारियल के पेड़ की डण्डी लेकर बैठा हो तो?
एक दिन मामा को भी ठिकाने लगाना होगा।
क्योंकि वेलायुधन ज्यों ही घर के अगवाड़े जाता, वह चिल्लाने लगता था-
'वेलायुधन!' सुनकर सारा घर काँप उठता।
फिर अच्युतन नायर लपक पड़ता। क्योंकि वेलायुधन पर यह पाबन्दी लगाई गयी थी कि घर के अगवाड़े कभी कदम न रखना। जब अच्युतन नायर आकर अपनी मोटी-बदरंग बदसूरत अंगुलियों से हाथ पकड़ लेता, तो मारे घृणा के वेलायुधन का कलेजा मुँह को आने लगता-मेढक पर पैर पड़ने की-सी घृणा। अगर अगवाड़े नानी बैठी हो तो अच्युतन नायर कुछ नहीं करता था। मगर ज्यों ही घर के उत्तरी तरफ पहुँचता, वह अपनी बहादुरी दिखाने लगता था।
दरवाजे की आड़ में खड़ा, वेलायुधन उसके सूराख से झाँका-नहीं, बरामदे पर कोई नहीं था। मामा की नजरों से बचना तो जरूरी था ही। शंकरनकुट्टी की नजर में भी नहीं पड़ना चाहिए, क्योंकि देखते ही वह कमबख्त भी चिल्ला-चिल्लाकर जमीन-आसमान एक कर डालता था, "पिताजी! वह रहा वेलायुधन भैया!"
मामी की नजर पड़ने पर भी यही किस्सा दुहराया जाता। मगर एक बात, वह तो मामा को नहीं पुकारती, अच्युतन नायर को पुकारकर कहने लगती (भले ही अच्युतन नायर बाहर कहीं गया हुआ है, यह मामी भली-भाँति जानती हो क्योंकि मामा का ध्यान आकृष्ट करने से मामी का मतलब) "अरे अच्युतन नायर! जरा देखना कि यह कौन बाहर निकल आया है।"
कभी-कभी तो खुद उससे ही पूछ बैठती, "किधर चले, साहब?"
चर्म रोग से पीले पड़े ओठों की तरफ देखते ही वेलायुधन को जैसे उल्टी होने लगती थी। एक दिन उस टीले के कुछ कंकड़ उठा लाना होगा कि मामी जब तरन्नुम के साथ 'अच्युतन नायर!' कहकर पुकारना शुरु करे तो तुरन्त उन कंकड़ों से उसकी हलक भर दे।
वेलायुधन बहुत दिनों के बाद आँगन में कदम रख रहा था। इसलिए बाहर देखने पर आँखें चौंधिया-सी गयीं। आसमान जैसे आग उगल रहा था। धूप फीकी पड़ जाने पर शाम को मामा रोज आँगन में टहलता था। फिर साँझ तक यह मटरगस्ती जारी रहती थी।
आँगन में एक जगह गोबर लिपा था। जहाँ 'ओणम्' (केरल का सबसे बड़ा त्यौहार) के दिनों में जो अल्पना बनीं थी, अभी पुंछी नहीं थी। अल्पना जो 'तृक्काकरा अप्पन' (महाबली की मिट्टी से बनी पिरामिडनुमा बेढंगी मूर्ति) के चारों ओर खींची गयी थी।
'तक्काकरा अप्पन' को देखने के लिए एक दफा उस तरफ आया था, तो अच्युतन नायर ने उसे धक्का देकर निकाल दिया था, क्योंकि वहाँ मामा कुछ शरीफ लोगों के बीच बैठ गप्पें लड़ा रहा था। भला, उनके सामने यह अभागा सरफिरा कैसे जा सकता है!
उसने आँगन में पड़ा एक गिल्टीदार कागज का टुकड़ा उठा लिया और वह खलिहान वाले घर के पिछवाड़े चला गया। वहाँ दीवार से लगी दौरी पर वह मजे से तबला बजाने लगा। चारों तरफ से छायादार कलमी आम के नीचे नानी की गाय बैठी जुगाली कर रही थी।
उस ठण्डे छायेदार परिवेश में यूँ थोड़ी देर खड़ा रहा तो उसके मन में सन्देह उठा-
तो वह क्या सोच रहा था?
हाँ, यही कि जरा टहलना है, यों ही। अच्युतन नायर गहरी नींद में है और मामा खलिहान वाले घर में। अच्छा मौका है।
अहाते के उस तरफ जो दरीचा है, वहाँ से थोड़ी दूर चलने पर 'मना' (नम्पूतिरि ब्राह्मणों का घर) मिलेगा। मगर वहाँ जाने से वह डरता था। क्योंकि 'मना' के अहाते में जहाँ 'पुल्लानी' (एक किस्म की घास) की झाड़ियाँ हैं, उनके बीच 'करिनीलि' (एक कल्पित भूतिनी) बाल खोले जू चुनने में मगन बैठी होगी।
-माँ! दुर्गे, 'करिनीलि' से अभी सामना न हो!
बच्चों का खून चूस-चूसकर उनकी लाश कुएँ में फेंक देना-यही तो करिनीलि' का पेशा है। क्या वह सयानों को भी खाएगी? वह खुद सयाना हो गया है। ड्योढ़ी पार करते समय अब उसे सर झुकाना पड़ रहा था। वरना सर चौखट पर टकरा जाने का अन्देशा था। इतना बड़ा हो गया था अब वह। और फिर चेहरे पर खुजलीसी पैदा करते हुए घने बाल निकल आये थे। उसने चेहरे पर हाथ फेरा । ओह ! यह कैसी खुजली है।
बड़ा तो हो गया। मगर, अगर अचानक ‘करिनीलि' से सामना हो गया तो? सुना जाता है कि 'करिनीलि' एक थन अपने कन्धे पर थामे, छाती पीटती हुई आँधी की तरह आती है और किसी को देखते ही उसके पास पहुँच जाती है। अगर सामना न हो तो जान बचे।
अकेला खड़ा हो और वह आ गयी तो? अगर केले के काण्ड (केले के तने के भीतर का भाग) का एक टुकड़ा हाथ में हो, तो फिर बिलकुल डरने की जरूरत नहीं। केला-काण्ड मारने पर करिनीलि डरकर भाग जाती है। यह भेद उसे किसने बताया था? दीदी ने? या माँ ने? माँ उसकी, अब नहीं रही। उस ताड़ के पेड़ों के झुरमुट के भी उस तरफ, मिट्टी के भीतर माँ सो रही है, जहाँ अब झाड़ियाँ उग आयी हैं। कन-फटी मीनाक्षी दीदी और माँ दोनों ने चौपाल पर बैठी उसे करिनीलि की कहानी और उसे भगाने का भेद बताया हो, यह भी सम्भव है।
अगर इन दोनों ने. न बताया हो तो शायद अम्मुकुट्टी ने बताया होगा...
इतने में गाय की पीठ पर एक कौआ उड़कर आ बैठा। कौआ बड़ा बदमाश होता है। आँख तो सिर्फ एक ही है कम्बख्त की...यह सब वेलायुधन खूब जानता है। लड़कपन में पढ़ाया गया-'कौआ भी तो काला है, उसको किसने पाला है' वाला सबक भी उसे याद था। वह बहुत-सी बातें जानता है। तिस पर भी अगर वह कुछ करने-कहने जाए तो सब एक ही बात कहते थे-“इसकी अकल ठिकाने नहीं, अभागा कहीं का।...अच्छा हुआ कि अब इसकी माँ नहीं रही। वरना बेचारी को कितना दुःख होता।"
वेलायुधन समझ गया था कि सब लोग उसके दुश्मन बन गये हैं। उसकी खैर कोई भी नहीं चाहता।
गाय की पीठ पर बैठकर कीड़ों को चुन-चुन कुरेदने वाले कौए को एकटक देख ही रहा था कि अचानक किसी की धीमी कण्ठ-ध्वनि सुनाई दी।
"भैया!"
सुनकर पहले तो वह चौंक पड़ा। कहीं करिनीलि तो नहीं? नहीं, करिनीलि नहीं होगी। करिनीलि 'भैया' कहकर उसे नहीं पुकारती। वाह रे वाह! यह भी कैसी बेवकूफी की...
मुड़कर देखा तो खलिहान वाले घर की खिड़की खुली थी। खिड़की के सींखचे पकड़े अम्मुकुट्टी वहाँ खड़ी थी।
तो उसने करिनीलि की नहीं, अम्मुकुट्टी की कण्ठ-ध्वनि सुनी थी। तिस पर भी वह अचानक क्यों चौंक पड़ा? इसका ख्याल आते ही उसे हँसी आ गयी। हद हो गयी बेवकूफी की।
मेहँदी लगाने से लाल-लाल उँगलियों पर पहले उसकी नजर पड़ी। पकेपके टमाटर जैसी लाल! पीले-चमकीले रेशमी कुर्ते पर बाल बिखरे हुए थे। अम्मुकुट्टी की तरफ वह अपलक देखने लगा।
अम्मुकुट्टी ने फिर पुकारा, "भैया!"
वेलायुधन चुपचाप अम्मुकुट्टी की ओर ताकता रहा। 'ओलोर' (केरल में बहुतायत से पाये जाने वाला आम) जैसे दमकते उसके गालों से आँखें उखड़ती ही नहीं।
"भैया! इस तरह क्यों ताक रहे हो?"
"भैया बाहर क्यों निकले हो?"
उसने गालों से नजर हटायी तो वह अम्मुकुट्टी की आँखों से जा टकरायी। वह घबरा गया।
"भैया, इस तरह बाहर मत घूमा करो।"
पीले मलमली ब्लाउज के नीचे अम्मुकुट्टी का थोड़ा-सा पेट दिखाई पड़ रहा था। उस पर दृष्टि पड़ी तो वेलायुधन झेंप गया।
"अच्युतन नायर देख पाये, इसके पहले..." अम्मुकुट्टी एकदम रुक गयी। जाने वह आगे क्या कहना चाहती थी। मगर वेलायुधन इस बीच अच्युतन नायर की रोयेंदार हथेली भूल-सा गया था। सोच रहा था-खिड़की के सींखचों से लिपटी लाल उँगलियों को जरा छू लूँ तो....
"घुटने का चमड़ा कैसे छिल गया, भैया?"
वह चुप रहा। वह लाल-लाल उँगलियाँ, पके-पके टमाटर जैसी...
"कल मार क्यों पड़ी थी?"
वेलायुधन ने इसका भी कोई जवाब नहीं दिया।
"क्या सोच रहे हो?"
अम्मुकुट्टी ने सर जरा पीछे मोड़कर कान खड़े किये कि कहीं माँ तो नहीं आ रही है।
वेलायुधन तब भी यही सोच रहा था। जरा छू लूँ...इन उँगलियों को...लाललाल...पके-पके...
"भैया, तुम जल्दी अच्छे हो जाओगे, सारी बीमारी दूर हो जाएगी।"
"हाँ।"
"अच्युतन नायर का कहना कभी न टालना।"
"हाँ।"
"नहीं तो नाहक मार खानी पड़ेगी।"
"हाँ।"
"परसों रात को क्यों जोर से रो रहे थे?"
अम्मुकुट्टी ने खिड़की से अचानक हाथ हटा लिये तो उसे दुःख हुआ। वह पीठ फेरकर खड़ी हुई, धोती खोलकर झटका दिया और फिर कसकर पहन ली। इसके बाद फिर मुड़कर खिड़की पर हाथ रखा तो वेलायुधन की जान में जान आयी।
डरते-डरते उसने पूछा भी, "जरा छू लूँ?" ।
अम्मुकुट्टी के होठों पर हँसी की कली खिल उठी।
जब वह कुछ कहने लगता है तो अकसर गोपी और शंकरनकुट्टी हँस पड़ते हैं। मगर उनकी हँसी और इस हँसी में फर्क है। यह उपहास की हँसी नहीं। लेकिन अम्मुकुट्टी की यह हँसी देखकर पता नहीं क्यों उदास हो गया।
उसने धीरे से अम्मुकुट्टी की उँगलियों को छुआ।
अम्मुकुट्टी उदास आँखों से उसे देखती रही।
"भैया, अब जाओ। अच्युतन नायर या और कोई देख लेता तो..."
वह हिला नहीं।
"जाओ न!" वह जैसे रूठ गयी। फिर भी वेलायुधन गया नहीं।
सीढ़ियों पर किसी की पद-चाप सुनकर अम्मुकुट्टी खिड़की से हट गयी। और अन्दर चली गयी। बेलायुधन थोड़ी देर वहीं खड़ा रहा।
पश्चिम की ओर अहाते की सीमा पर जो अडानी थी, उसे फांदकर वेलायुधन कूचे में पहुंचा और एक गीत गुनगुनाता हुआ चलने लगा। उसका मन अम्मुकुट्टी की मूर्ति पर ही अटका हुआ था। पीले रंग का चमकता ब्लाउज उस पर छितरे हुए धुंघराले बाल, 'ओलीर' आम जैसे गाल! कितनी सुन्दर है अम्मुकुट्टी!
तहमत-बंधी अपनी धोती पर नजर गयी तो उसे शरम-सी लगी। गेंदले पानी का-सा रंग था उसका। कैसी गन्दगी! बदन पर मिट्टी लगी है। चेहरे पर हाथ फेरा तो लगा, जैसे वहाँ बालों की झाड़ी-सी उगी हुई है। अब नाई गोविन्दन जब आएगा तो उसके सामने उकड़ मारे बैठने में आनाकानी नहीं करनी चाहिए।
इधर एक अम्मुकुट्टी का बदन है कि कितना साफ और कैसा सुथरा! मैल का नाम नहीं। काले किनारे वाले कपड़े से केवड़े के फूल और लोबान की खुशबू आ रही थी। वेलायुधन ने अपनी हथेली नाक से लगायी-हाय! मुर्गी के बीट की-सी बदबू! उल्टी हुआ चाहती है।
तो क्या उँगली छू लेने पर मैली हो जाएगी? अम्मुकुट्टी को घिन लगी होगी? छूते समय मामी ने देख नहीं लिया, अच्छा हुआ। वरना किन-किन से मार खानी पड़ती!
सबका सर फूट जाए! मामा, मामी, अच्युतन नायर-सबका! शंकरनकुट्टी का भी, जो बात-बात पर हँसी उड़ाता था, और ठहाका मारकर हँस पड़ता था। और आसपास के लड़कों से जोर-शोर से कहता था-"पागल हो गया है हमारा वेलायुधन भैया!"
उसका सर भी फूट जाए।
अम्मुकुट्टी कभी हँसी नहीं उड़ाती, कभी मन को दुख : ही पहुँचाती। दुर्गा माई! अम्मुकुट्टी का भला करना!
कूचे के दोनों तरफ बाँस के झाड़ हैं। जरा नीचे 'सर्पकाबु' (साँपों की मूर्तियाँ जहाँ रखी होती हैं) जहाँ तरह-तरह की बेलें साँपों की तरह आपस में उलझीलिपटी पड़ी हैं। दिन का समय ठहरा, इसलिए डरने की कोई बात तो है नहीं। मगर रात को वहाँ शैतान अंगारे चबाते नाचते-कूदते दिखाई देते हैं।
कूचा एक टीले की ढलान पर जाकर गायब हो गया था। ढलान पर एक आम का पेड़ था और पास ही एक कुआँ। कुएँ से 'चेरुमी' (खेत मजदूरिने) पानी भर रही थीं। वेलायुधन ने उस तरफ ध्यान ही नहीं दिया।
"छोटे तम्प्रान! मालिक! कहाँ चले?"
वह चुप रहा। आखिर यह 'चेरुमी' यह जानकर क्या करेगी? यही न कि चुपके से जाकर मामा की मुखबरी करे या फिर अच्युतन नायर को बुला लाये।
रास्ते के किनारे लाल पत्थर काटकर निकालने से बनी सुघड़ खाई दिखी। उसने एक कंकड़ उठाकर जोर से उस खाई में फेंका और धीरे-धीरे टीले पर चढ़ने लगा।
पानी भरने वाली 'चेरुमी' अपनी सहेली से, जो अपने लड़के के सिर पर नारियल का तेल मल रही थी, बोली, "इसको यूँ बाहर जहाँ चाहे, घूमने क्यों दिया जाता है, कौन जाने?"
"वह नायर, शायद पड़ा-पड़ा सो रहा होगा।"
वेलायुधन ने उनकी बातचीत पर ध्यान ही नहीं दिया। वह टीले पर चढ़ता गया। टीले पर 'कष्णातली' (फूलदार जंगली पौधे) सूखे खड़े थे। टीले की पीठ पर मस्से की तरह उभरी हुई एक चट्टान थी। वहाँ ताड़ के पेड़ थे, उन्हें चुनने के इरादे से वह टीले पर चढ़ता गया। चट्टान के माथे पर चढ़कर उसने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी-वाह! कितना अच्छा है यह नजारा! नीचे काली माता का एक मन्दिर, उसके परे सुपारी का बगीचा और बगीचे के बीच दिखाई देने वाला घर का छप्पर जो खपरों से छाया हुआ है।
- दूर, पूरब में कटे हुए खेत, उसके परे लाल मिट्टी के रंग वाला रास्ता और बगल में उसके एक नदी। बालू-भरे मैदानों के बीच से नदी बहती है।
बालू के मैदानों को देखा तो वेलायुधन के मन में कुछ धुंधली यादें उभर आयीं। ककड़ी की बेलों से बिछा बालू, ढोरों को नहलाने-धुलाने ले जाने वाले ग्वालों के लड़के, रस्सी पर नारियल की कोंपलें बाँधकर पानी से खींच ले जाने वाले मछुवारे।
माँ ने मना करते हुए कहा था- "उतरना नहीं बेटा! पानी में अष्टबाहु है।"
यह भी शायद माँ ने ही उसे बताया था कि दरअसल अष्टबाहु के आठ नहीं सैकड़ों बाँहें हैं।
अब भी उस बालू पर लोट-पोटकर खेलने को जी मचल रहा है। मगर अच्युतन नायर कुछ करने दे, तब न? कोई कुछ करने नहीं देता।
अकेली नानी थी जो उसका कहना कुछ-कुछ मानती थी। मगर वह भी यही कहती, "जो जी में आये, करना वेलायुधा! मगर अभी नहीं। पहले चंगे हो लो, तब..."
बस, हरेक की जबान पर यही टेक-'पहले चंगा हो जाओ...'
कान पक गये सुन-सुनकर! बाज आया!
सबका खून करना होगा। उस बड़े घर में आग लगानी होगी। जल-भुनकर सब राख हो जाएँ। मगर नहीं, अम्मुकुट्टी को जलने नहीं देना है। उसे छोड़कर बाकी सब भुनकर आग में कबाब हो जाएँगे। बचेंगे सिर्फ दो ही-एक खुद वह और दूसरी अम्मुकुट्टी! मगर वे दोनों वहाँ उस बड़े मकान में अकेले कैसे रहेंगे, जबकि चारों तरफ प्रेत ही प्रेत नजर आएंगे इन मरे हुओं के? फाटक वाला घर, खलिहान वाला घर सब जगह प्रेत...नानी को यह सब मालूम है। ये प्रेत पहले उस घर के कर्ता थे। फाटक वाले घर में चात्तु मामा का प्रेत है, रात को अपने भानजों का दिया मुर्गे का गोश्त खाया था चातु मामा ने। रात-भर 'पानी-पानी!' चिल्लाते दम तोड़ा था। गोश्त में संखिया मिली थी। रात-भर चीख आती रही। सबने सुना भी, मगर अनसुना कर दिया। किसी ने बूंद-भर पानी न दिया।
अब भी फाटक वाले घर से आधी रात को मारे प्यास के मृत्यु-पीड़ा से कराहने की आवाज आती है। वेलायुधन रात-भर कान पसारकर वह कराह सुनने की चेष्टा करता।
सब जलकर भस्म हो जाएंगे तो खलिहान वाले घर से वह घड़ा भी निकल आएगा। उसमें सोने के सिक्के और अनमोल गहने भरे हैं। उसे लेकर इसी टीले पर जहाँ 'चेरुमन' (खेत मजदूर) चात्तप्पन कुटिया बनाकर रहता है, वहाँ एक बड़ा-सा मकान बनवाया जाएगा। राजमहल-जैसा आलीशान मकान, बेलबूटेदार खिड़कियाँ, दीवार-भर रंगीन तसवीरें, सोने के असासे, आसमान से बातें करने वाले बुर्ज।
एक दिन रात को देख लेना, सब आग में झुलस जाएगा, सब जगह लाल जबाने लपलपाती ज्वालाएँ नाचने लगेंगी और वह खुद सोने के सिक्कों-गहनों से भरा घड़ा उठाकर चुपचाप टीले पर चढ़ आएगा।
इसके बाद...इसके बाद जरीदार कुर्ता पहने राजकुमार की तरह घूमने लगेगा। अम्मुकुट्टी की आँखें चौंधिया न जाएँगी तो कहना!
आज ही क्यों न आग लगायी जाए! सबसे पहले खलिहान-घर पर ही आग लगानी होगी। मामा को ही सबसे पहले आग में स्वाहा करना होगा। मामा ने ही तो रखवाली के लिए अच्युतन नायर को नियुक्त किया था। और मामा ने ही कहा था कि बाहर कहीं कदम रखेगा तो तेरी टाँग तोड़ के रख देंगे। एक बार शंकरनकुट्टी की पीठ पर जरा अपना हाथ रखा तो इसी मामा ने नारियल के डण्ठल से मरम्मत की थी। कितना बड़ा डण्ठल था वह! अच्युतन नायर के हाथ से भी बड़ा।
रात-भर सोने के सिक्कों वाला यह घड़ा ढूँढ़ना ही आजकल मामा का एकमात्र काम है, मगर वह घड़ा है कि अब तक किसी के हाथ न लगा। ताश्श मामा ने भी घड़ा कहाँ गाड़ दिया, इसका किसी को भी पता नहीं, खुद ताश्श मामा को भी मालूम न था।
बहुत-बहुत दिन पहले की बात है। नानी ने कहा था...खुद नानी को भी ठीक-ठीक याद नहीं। नानी की नानी जब छोटी-सी लड़की थी, उस समय की बात-ताश्श मामा ने धान का व्यापार कर धन कमाया था। उन दिनों पैसे भी सोने के होते थे। सब घड़े में भर कर गाड़ दिया। एक दिन ताश्श मामा पागल हो गये। कहाँ घड़ा दफनाया था, यह वह खुद भूल गये। कुदाल कन्धे पर थामे जमीन खोदते-गिराते रहे। आखिर एक दिन दफीना छोड़ हमेशा के लिए आँखें मूंद लीं।
अब भी रात को कुदाल के जमीन पर मारने की आवाज सुनाई पड़ती है। वेलायुधन रात-भर कान खड़े कर सुनता। साँझ होने पर खलिहान-घर की तरफ देखने से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं उसके। ताश्श मामा कुदाल लेकर निकल चुके होंगे...
बेचारे ताश्श मामा पागल हो गये थे। पागल हो जाने पर, कहते हैं कि सब कुछ भूल जाते हैं। मगर वेलायुधन कुछ भूला नहीं। सब कुछ ठीक-ठीक उसे याद है कि माँ को उन ताड़ों के झुरमुट के उस तरफ चिता पर जलाया गया था। बचपन में अम्मुकुट्टी के साथ वह स्कूल जाता था-वह भी उसे कल की तरह खूब याद है। उस दिन कुछ 'मापिला' (मुसलमान) लोगों ने एक सड़ियल कुत्ते को मार डाला था, जिसे वह खिड़की से देख रहा था। बाद को बाहर आकर देखा तो गोबरलिपे आँगन पर खून दिखाई दिया था। बेचारा कुत्ता! वह पागल था। तो क्या पागल हुआ तो पीट-पीट कर मार डालना ही होगा? एक बार ततैए बरगलाकर सब जगह उड़ने लगे तो मारे डर के वह खड़े खेत के बीच छिप गया था। उस दिन अम्मुकुट्टी भी साथ थी। वह तब इतनी बड़ी नहीं थी, देखने में भी इतनी सुन्दर नहीं लगती थी।
और जाने कितनी ही घटनाएँ ऐसी-ऐसी...वह सब ठीक याद कर सकता है। इसका मतलब इसके अलावा क्या कि वह पागल नहीं हो गया है। उसका दिमाग दुरुस्त है।
फिर भी शंकरनकुट्टी कहता था कि वेलायुधन भैया पागल है। गोपी भी यही कहता है। पड़ोस की मालू भी उसे पागल ही समझती है। पागल हैं वे, पागल उनके माँ-बाप जो उसे पागल कहते हैं। खून कर डालना होगा इन बदमाशों का, जो झूठी बेबुनियाद बातें गढ़-गढ़ा कर निरीहों की नाक में दम कर डालते हैं।
अब एक तेज चाकू के बिना काम नहीं चलेगा।
अचानक जंगली पौधों के झुरमुट में चरनेवाला एक मेमना सिर बाहर निकाल कर मिमिया उठा।
वेलायुधन चौंककर चट्टान से नीचे उतरा; क्या सचमुच मेमना ही है मिमियाने वाला? उसने ध्यान से और एक बार झुरमुट की तरफ देखा तो मेमना गायब! कहीं करिनीलि मेमना के वेश में छिपी बैठी हो! उसने भयभीत होकर चारों ओर नजर दौड़ायी। यह क्या चमकती पीली-पीली धूप में काले-कलूटे रूप इधर-उधर एकत्र होते जा रहे थे ! पास की काली चट्टान भी जैसे सिर धुनते हुए उठ रही हो। धूप धीरे-धीरे फीकी पड़ती जा रही थी और टीले की ढलान की तरफ अँधेरा मन्दमन्द रेंगता चला आ रहा है। अँधेरे में भूत छिपे रहते हैं, जो मुँह से चिनगारियाँ उगलते हैं, सोचते ही वह घबरा उठा। साँस तीव्र गति से चलने लगी। उसने आँखें बन्द की। इतने में अँधेरे को चीरती हुई एक पुकार आयी।
"वेलायुधा!"
एक कर्कश हाथ ने उसके कन्धे को छुआ।
"मुझे मारो नहीं...मारो नहीं..."
"वेलायुधा!"
"मारो नहीं, मुझे मारो नहीं..."
उसने कसकर आँखें बन्द की और अँधेरे में डुबकी मारी... जोर-जोर से चिल्लाते हुए..."मुझे मारो नहीं, मारो नहीं!"
वेलायुधन की आँखों से अँधेरा हटा। बाहर केले के बगीचे में चाँदनी आँख मिचौली खेल रही थी।
कमरे में अँधेरा था। चटाई पर उठ कर बैठा तो माथे पर जलन और दर्दसा लगा। वह दीवार से सटकर बैठ गया। सब जगह सन्नाटा छाया हुआ था। बाहर साये-तले कुछ बोल-से रहे थे, पता नहीं क्या-क्या। काले-काले रूप इधर-उधर छिपे खड़े थे। मगर वेलायुधन कमरे के भीतर पड़ा था। इसलिए वह डरा नहीं। इन छोटी-छोटी खिड़कियों से होकर मोटे-तगड़े भूत भीतर कैसे पैठ सकते हैं भला!
पपीते के पत्तों के बीच से थोड़ा आसमान दिखाई दे रहा था, जिसमें कुंकुम की तरह सितारे चमक रहे थे। देखते-ही-देखते वे चमकते तारे काले नजर आने लगे, यह क्या! कहीं सितारे काले होते हैं?
घुटनों में सिर दाबे वह बैठा रहा। यों आँखें बन्द कर चुपचाप बैठते समय उसे लगा, जैसे आँखों में काले और लाल रंग के छोटे-छोटे बुलबुले उड़ रहे हैं।
रोशनी के अन्दर घुस आने की प्रतीक्षा में था वह।
दिन निकल आने के साथ ही बगीचे और घास की झाड़ियों से काले-काले साये गायब हो जाते हैं।
अच्युतन नायर जाग गया या नहीं, यह देखने चला तो उसके गुस्से का ठिकाना न रहा, दरवाजे पर बाहर साँकल लगी हुई थी। पहले कभी ऐसा न होता था।
"दरवाजा खोलो!" वह जोर से चिल्लाया।
दरवाजा नहीं खुला।
"दरवाजा खोलो!!" उसके स्वर में पूर्वाधिक जोर था।
दरवाजा बन्द ही रहा।
उसने गुस्से में भरकर दरवाजे पर लात मारी। एक, दो, तीन...फिर लातों पर लात कि दरवाजा टूट जाए, टुकड़े-टुकड़े हो जाए।
इस बार दरवाजा खुला।
अच्युतन नायर का रौद्र रूप सामने खड़ा था। उसके पीछे मामा। दोनों को एक साथ देखा तो डर लगा। आखिर क्या इरादा होगा दोनों के एक साथ आने का? यह तो नहीं कि एक उसे पकड़ ले और दूसरा थप्पड़ पर थप्पड़ लगाता जाए? अगर इस समय एक छुरा अपने पास रहता-अगर रहता तो एक ही वार से दोनों का सर जमीन पर लोटने लगता। इसके बाद दोनों सर को कहीं ऐसा छिपा देता कि वे उन्हें माँगने आएँ तो भी न देता।
वह आँखें जमीन पर गड़ाये खड़ा रहा। उनकी ओर देखने का साहस न था।
मामा बोला, "अरे कमबख्त! नाहक मेरे हाथ गन्दे न करवा, कहे देता हूँ।"
अच्युतन नायर अपनी रोयेंदार छाती खुजलाते हुए बोला, "बदमाशी करोगे तो हड्डिया तोड़ दूंगा, खबरदार! फिर कभी बाहर कदम रखा तो..."
"चुपचाप पड़े रहो। नाहक चीखने-चिल्लाने लगोगे तो पुलिस के हवाले कर दूंगा।" मामा कह रहा था।
वेलायुधन ने सोचा-तो पुलिस का सर भी उड़ाना होगा।
"एक छुरा मिल जाए तो सबका सर काट डालूँ", वह बुदबुदाया।
सुनकर मामा दो कदम पीछे हट गया। अच्युतन नायर से कहने लगा, "अच्युतन नायरे! आसार तो अच्छे नहीं, लोगों को मारने पर आमादा है।"
"यह सब इसकी बदमाशी है।" वेलायुधन की ओर घूरते हुए अच्युतन नायर ने कहा, "अगर बदमाशी करने पर आमादा हो, तो ऐसी मरम्मत की जाएगी कि याद रखेगा।"
"बन्द कर देना ही भला।" मामा ने सुझाया। अच्युतन नायर ने दरवाजा बन्द कर दिया।
दरवाजा इसके बाद आठों पहर बन्द ही रहा। सुबह-शाम अच्युतन नायर का साये की तरह लगा रहना उसे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता।
कमरे के भीतर अच्युतन नायर के सिवा दूसरा कोई घुसता नहीं था।
कभी-कभी उस तरफ से नानी का कण्ठ स्वर सुनाई देता-'सुकृतक्षय! सुकृतक्षय!"
दिन के वक्त पश्चिम की ओर जो खिड़की है, उसके पास जाकर बैठना वेलायुधन को भला लगता। वहाँ से केले की बगिया, पपीते के पेड़ और गायबकरी को बाँधने का बाड़ा आदि अच्छी तरह दिखाई देते थे।
पपीते के नीचे बैठ गोपी, शंकरनकुट्टी और अड़ोस-पड़ोस के लड़के खेला करते। वे कभी-कभी खिड़की के पास आते और उसे मुँह चिढ़ाकर भाग जाते।
एक दफे शंकरनकुट्टी ने एक ढेला उठाकर वेलायुधन को मारा था, जो उसकी पीठ पर लगा था।
अगले दिन उसने इसका बदला चुकाया था।
काँसे का बर्तन था। वह नीचे गिरा तो ऐसी आवाज आयी कि सुनकर बड़ा मजा आया वेलायुधन को, साथ ही बाहर से रोने की आवाज भी आयी। थोड़ी देर बाद अच्युतन नायर दरवाजा खोलकर अन्दर घुसा।
"लड़कों को सताओगे तो मैं तुम्हारी हड्डी का चूरा बना दूंगा, खबरदार!"
वेलायुधन ने सोचा, 'अगर एक छुरा अपने हाथ में होता।'
"अब गुस्ताखी करोगे तो पुलिस के हवाले कर दूंगा, हाँ!"
"तो तुम्हारा गला मैं काट डालूँगा!"
"क्या बक रहे हो?"
वह फिर बुदबुदाया, "सर उड़ा दूंगा।"
"क्या कहा बदमाश!" कहते हुए अच्युतन नायर ने अपना रोयेंदार हाथ उठाया।
"मुझे मारना मत...मारना मत!..."
कमरे के कोने में दुबकते हुए और नमकीन आँसुओं से भीगे ओठों पर जबान फेरते हुए उसने कराहने की-सी आवाज में कहा, "मुझे मारना मत... मुझे मार मत डालना..."
"चुप! मैंने कहा चुप रहो।"
"मारना मत...मारना मत...!"
बाहर नानी की आवाज सुनाई पड़ी। जाने वह किससे कह रही थी-'सुकृतक्षय! सुकृतक्षय!'
अच्युतन नायर चला गया तो सिसकियाँ भरता हुआ वह खिड़की के पास चला आया।
बाहर दोपहर की धूप को वह देख ही रहा था कि उसे लगा, जैसे केले के पेड़ों के तले अँधेरा सरकता-दुबकता आने लगा है।
दोपहर की धूप और अँधेरा अदल-बदल कर छिपते-उभरते रहते हैं।
अँधेरा छाने लगता है तो डर महसूस होता है। अंगारे उगलने वाले भूत...बाल खोले भाग आने वाली करिनीलि अगर अँधेरे में खिड़की से हाथ पसारकर उसे पकड़ ले?
रात और अँधेरे से उसे नफरत थी। रात-भर दीवार पर पीठ लगाये वह चौकन्ना बैठा रहता कि कुदाल के जमीन पर चोट सुनाई पड़ रही है कि नहीं। फाटकघर से कोई थका-प्यासा पुकार रहा है कि नहीं-'प्यास, प्यास! पानी, पानी!!!...'
...मिट्टी लगी छाती पर आँसू की दो बूंदें गिरी। आह! यह कैसी पीड़ा है! बाहर देखा नहीं जाता। दुपहरी धूप मद्धिम होती जा रही है। अँधेरा छा रहा है। अँधेरा जो अंगारे चबाने वाले भूतों को पनाह देता है।
वह दीवार की तरफ मुँह करके बैठ गया। मुड़ कर देखने की हिम्मत न पड़ी, क्योंकि उसे लगा कि बाहर कुछ हिल-सा रहा है। डरते-डरते कन्धे के ऊपर से एक नजर डाली।
अचानक चौंक पड़ा- कौन? बाल खुले हुए-शायद आँखों से चिनगारियाँ निकल रही हैं। कुछ छनक रहा है। यह छनक पैरों की पायलों की तो नहीं?
"भैया!"
एक झीनी-सी आवाज आयी।
भय से मुँह जमीन पर दबाये वह लेटा रहा।
"भैया! मुझे पहचाना नहीं, यह मैं हूँ अम्मुकुट्टी..."
भय और पीड़ा मिले स्वर में वह कराह उठा, "मुझे मत मारना...मुझे मत मारना।"
वह खिड़की नारियल के पत्ते की चटाई से ढंक दी गयी थी।
अब दिन में चटाई के छोटे छेदों से छनकर अन्दर घुस आने वाली झीनी-झीनी रोशनी ही अँधेरे में उजाले का सहारा बन गयी थी।
कुछ दिन यूँ गुजर गये तो कमरे के अंधेरे से वह हिल-मिल गया। अब वह उसे डरावना न लगता। चारों कोनों में छिपे काले-काले रूप अब उसे मारने की धमकी नहीं देते। वे अब उसके दोस्त बन गये, और उसके कान में तरह-तरह की बातें फुसफुसाने लगे। उसको भी उनसे बहुत कुछ कहना था कि ताश्श मामा ने जो घड़ा गाड़ दिया था, वह उसे खोदकर निकालने जा रहा है कि टीले के ऊपर वह एक बड़ा-सा आलीशान मकान बनाने वाला है; कि वह उस मकान की सातवीं मंजिल पर बैठकर बालू का मैदान और मस्तूल खोले तैर रही नावों से भरी नदी देखा करेगा। कि...
नारियल के पत्ते की चटाई जो खिड़की को ढंके हुए थी, उसके छेदों से कभी-कभी आँखें नमूदार हो जातीं। बाहर से, पता नहीं कौन-कौन अन्दर झाँक रहे हैं।
तरह-तरह के कण्ठ-स्वर सुनाई देते।
"उस छोटे मालिक की किस्मत तो देखो।"
"अच्छा हुआ कि उसकी माँ यह सब देखने के लिए जिन्दा नहीं रही।"
"बेचारा! कोई बच्चा तो है नहीं कि यों...।"
मगर वह यह सुनना नहीं चाहता था।
दीवार पर रुपये के आकार की गोल-गोल रोशनी जो पड़ रही थी, वह उसी की ओर ताकता बैठा रहता। और कमरे के चारों कोनों में छिपी काली सूरतों से तरहतरह की बातें करता।
स्टील की थाली पर भात लेकर अच्युतन नायर दरवाजा खोलकर अन्दर आया। आते ही उसने वेलायुधन के सामने कै कर दी। सारा भात गन्दा हो गया।
अच्युतन नायर थाली वहीं रखकर चला गया और थोड़ी ही देर में वापस आया। उसके हाथ में इमली की एक छड़ी थी।
"अब करोगे ऐसी शरारत?" प्रश्न सुनकर वेलायुधन ने मुड़कर देखा, तभी छड़ी उसे दिखाई दी।
"कितनी बार समझा चुका हूँ मैं तुझको, टट्टी करना हो तो मुझे बुलाया करो।"
पहली मार कन्धे पर पड़ी। वेलायुधन हस्बदस्तूर रोया नहीं। दिल और आँखों में गुस्सा भभक रहा था।
"घूर क्यों रहे हो? भस्म कर डालोगे क्या?" एक छड़ी और पड़ी।
"अब करोगे ऐसा? तुम्हारा पागलपन अभी खतम किये देता हूँ।" इमली की छड़ी फिर हवा में बल खा गयी।
"अब करोगे बदमाशी?"
शोरगुल सुनकर नानी दरवाजे पर आयी। पीछे मौसी भी। नानी ने काँपते कण्ठ से कहा, "ऐसा न करो अच्युता! दैव दोष (देवताओं का अभिशाप) होगा।"
"यह सब इसकी बदमाशी है नानी!" मौसी ने हस्बदस्तूर कहावत दुहरायी, "लात का भूत बात से नहीं मानता।"
इतने में मामा भी आ पहुँचा। दरवाजे पर आकर उसने नाक बन्द कर ली। अच्युतन नायर ने सारी घटना नमक-मिर्च के साथ कह दी। रोज सुबह-शाम वेलायुधन को वह बाहर ले जाया करता है। तिस पर भी इसने सारा कमरा गन्दा कर दिया।
"तो यह कहो कि अब मामला हमारे बस से बाहर हो रहा है। अब कमरे में भी बन्द नहीं किया जा सकता।" मामा ने कहा।
"क्या कहूँ इसकी बदमाशी को!"
"अगर यही सिलसिला जारी रहा तो घर में रहना दूभर हो जाएगा। दिल लगाकर कुछ खा भी नहीं सकेंगे।"
"उत्तर की तरफ जो कमरा है, उसमें इसे बन्द किया जाए तो?" मामा ने अपने आप से कहा।
उस कमरे में एक भी दरवाजा नहीं। दूसरे अगर उसे भी टट्टीखाना बना डाले तो? रसोईघर पास ही ठहरा। अच्युतन नायर ने भी दिमाग लड़ाया कि इस उलझन को कैसे सुलझाए। आखिर उसने मामा के कान में कुछ कहा।।
सड़ी कीचड़-जमी आँखें मिचमिचाते बाहर खड़ी नानी ने यह सुना।
उसने आँखें पोंछकर कहा, "सुकृतक्षय! सुकृतक्षय! मुझ अभागिन को यह भी देखना पड़ा इन आँखों से।"
नानी की बातों पर किसी ने ध्यान ही न दिया। वह वहाँ से धीरे-धीरे चली गयी।
वेलायुधन ने उस दिन खाना नहीं खाया। मामा और अच्युतन नायर को बाहर खड़े धीमी आवाज में बातचीत करते उसने देखा था। उन लोगों ने उसे मारने की साजिश की हो तो, भात में जहर मिलाया हो तो? पानी के लिए, फाटक वाले मकान में रोते-बिलखते दम तोड़ने वाले उस पुराने 'कारणवर' (घर की कर्ता) को मुर्गे के गोश्त में संखिया मिलाकर खिला दिया था।
उसे अपने पूरे बदन में तीव्र पीड़ा महसूस हो रही थी।
स्टील की थाली का भात और तरकारी उसने फर्श पर बिखेर दी। तभी देखा कि सारा फर्श गन्दा हो गया था। पता नहीं कब ऐसा हुआ। उसे उल्टी होने लगी।
खिड़की पर टँगी चटाई अचानक हिल उठी। अब भी अगर एक छुरा मिल जाता...अच्युतन नायर खिड़की के उस तरफ जान से मारने की ताक में खड़ा होगा।
नारियल के पत्ते की चटाई के छेदों से होकर ये किसकी दो आँखें दिख रही थीं?
वह डर के मारे दीवार से सटकर खड़ा होकर चिल्लाने लगा, अब ऐसा नहीं करूँगा...कभी नहीं...मुझे मत मारो, मेरा खून मत करो!"
"भैया!"
बाहर से धीमे से आवाज आयी।
"कौन?"
"मुझे पहचानते नहीं, भैया? मैं हूँ अम्मुकुट्टी!"
"अम्मुकुट्टी की बच्ची! खि...खि...खि...!" सुनकर उसे बड़ी हँसी आयी। उसने मुँह चिढ़ा दिया।
"भैया!" कहने के साथ ही सिसकियों की आवाज आयी।
वेलायुधन ने उसकी सही-सही नकल उतारी और ऐसा ठहाका मारा कि दीवारें तक हिल उठीं।
क्षीण कण्ठ से फिर वही पुकार बाहर से सुनाई दी।
झपटकर खिड़की के सींखचों को पकड़ते हुए वेलायुधन गरज उठा, "सिर उड़ा दूंगा मैं!"
बस, इसके बाद सब चुप। अच्छा ही हुआ। लोग यों ही आकर तंग करते हैं। खिड़की के सींखचों को पकड़े वह थोड़ी देर चुप खड़ा रहा। चटाई के छेदों से ठण्डी हवा घुस आयी। रिसते कन्धों और पीठ पर ठण्डी हवा लगने से कुछ आराम मिला। बदन में थकावट महसूस हुई। इतने में मन में सन्देह पैदा हुआ कि आखिर किसने उसे बुलाया था?
क्या-क्या सुना था उसने? कुछ साफ नहीं। कुछ याद कर नहीं पा रहा था। उसे लगा कि उसके हाथ से कुछ छूट गया है, कुछ खो गया है, जिसे जैसे अँधेरे में ढूँढ़ रहा है।
"भैया!"
तो क्या सचमुच...वह चौंक पड़ा। उसकी आँखें भर आयीं।
एक ठीकरा लेकर वेलायुधन एक सीढ़ी का चित्र बनाने लगा।
अँधेरे की परतें उसकी आँखों से धीरे-धीरे हट रही थीं।
अब इस वक्त था कहाँ?
उसने चारों ओर दृष्टि फेरी। घर के पिछवाड़े जो छोटी-सी कोठरी थी, वह इस वक्त उसी में था। उठ खड़ा हुआ तो लगा, जैसे खोपड़ी फट-सी रही है। पैर दु:ख रहे थे। एक कदम उठाकर आगे रखना चाहा तो नीचे कुछ खनकता-सा लगा। झुककर देखा-पैरों में एक साँकल बँधी हुई थी। उसने गौर से उस साँकल को देखा। उसका दूसरा छोर दीवार की एक सुरंग से होकर बगल के कमरे में चला गया था। साँकल से रगड़ खाकर पैर का चमड़ा छिल गया था और लाल रंग का हो गया था।
किसने पैरों में यह साँकल बाँध दी?
इस तंग पेशाबघर-जैसी कोठरी में वह कैसे आया, उसने सोचा।
यह करतूत किसकी थी? उसके साथ कोई खेल तो नहीं कर रहा था?
फर्श पर कीचड़ फैला था। ओह कितनी गन्दगी फैली हुई है यहाँ!
उसने गुजरी घटनाओं को तरतीब से याद करने की कोशिश की, मगर कुछ भी साफ-साफ याद नहीं आया। उस पर जो बीत रहा था, सब उसे कुहासे में डूबे धुन्ध के साये-जैसा लगा। वह घबरा गया। मगर उस घबराहट और धुन्ध में भी एक सवाल बार-बार उभर आया। क्या आदमियों को भी साँकल से बाँधा जाता है, कुत्तों-पिल्लों की तरह...?
शायद वह बीमार हो!
शायद इसीलिए इस कोठरी में रखा गया हो। मगर आदमी को साँकल से बाँधा जाता है कहीं, कुत्ते की भाँति...?
बाहर फीकी धूप वाली शाम झाँक रही थी। आँगन में जो केले का पेड़ था, उसमें एक गिलहरी शहद पी रही थी। वह गिलहरी का केले के फूलों की पंखड़ियों को दाँतों से दबा खोलना देखता रहा। एक फूल समाप्त कर गिलहरी केले के एक पत्ते से दूसरे पर...उसमें से और एक पर कूदती-सँभलती चली जाएगी, उसने सोचा। रसोईघर से आवाजें आ रही थीं। अगर कोई बाहर आ जाए...यह सोचकर उन लोगों ने इस कोठरी में रखा होगा कि वह बीमार है। इसलिए कोई बाहर आये तो कह दे कि मैं अब बिलकुल ठीक हूँ, बिलकुल ठीक...अब यह साँकल खोल देना।
आदमी भी कहीं यूँ साँकल से बाँधा जाता है भला!
रसोईघर के कुएँ वाले दरवाजे को खोलकर कोई पानी भरने लगा, बड़े ही दीन स्वर में रहट चीख रही थी, शायद मौसी पानी भर रही होगी।
वेलायुधन ने पुकारा, "मौसी! मौसी!"
कोई जवाब नहीं आया।
अब किसको पुकारे! ये सब कैसे लोग हैं? अब वह अपने को बिलकुल भला-चंगा महसूस कर रहा था।
कीचड़ से लथपथ अपने शरीर को देखकर उसे खुद पर शर्म भी आयी। कारण उसकी कमर पर कोई कपड़ा नहीं था। इस तरह कोई उसे देख लेगा तो क्या समझेगा! वह कोई बच्चा तो नहीं कि नंग-धडंग बैठा रहे। वह काफी बड़ा और सयाना हो गया था। खुरदरी ठोड़ी गले में रगड़ खाकर खुजली पैदा करती थी...और इधर यह हालत कि कमर पर कोई चिथड़ा तक नहीं।
वेलायुधन सिकुड़कर बैठ गया। उसे एक कपड़ा चाहिए ही। किसे पुकारे? मौसी को बुलाना बेकार था। उसने गोपी को पुकारा, जोर-जोर से कई बार।
कपड़ा पहनने के पहले कोई न आये तो जान बचे।
कोई कोठरी के सामने आकर खड़ा हुआ, पूछा, "क्या है?"
"इधर मत आना...मेरे सामने मत आना...गोपी कहाँ है?"
"मैं ही गोपी हूँ।"
गोपी धारीदार लाल जाँघिया और कुर्ता पहने हुए था। उसमें वह बहुत चुस्त दिख रहा था।
"क्यों नाहक पुकार रहे हो?"
"मुझे एक कपड़ा ला दोगे?"
"क्यों, फाड़ने के लिए?"
"नहीं फाड़ूँगा गोपी! जल्दी करो। किसी के आने के पहले..."
गोपी पसोपेश में खड़ा रहा।
"मेरे अच्छे गोपी! जाओ न..."
गोपी जाकर एक अच्छा-सा सफेद कपड़ा ले आया।
वेलायुधन खुश हो गया।
"फाड़ोगे तो नहीं?"
"फाड़ूँगा क्यों?"
"फाड़ना चाहते हो तो नहीं दूंगा।"
"दो न गोपी! कोई देख लेगा तो..."
गोपी ने दूर से ही कपड़ा उसके सामने फेंक दिया।
कपड़ा पहनकर वेलायुधन के जी में जी आया। अब कोई भी आ जाए, कोई हर्ज नहीं।
"मेरे पैरों में किसने साँकल बाँधी है?"
गोपी ने इसका कोई जवाब नहीं दिया।
"उससे कहो न कि साँकल खोल दे।"
गोपी मुस्कराया।
"खोल दो...मैं कुत्ता थोड़े ही हूँ।"
गोपी मुँह फेरकर चल दिया। अब कौन यह साँकल खोले!
उसने नानी को पुकारा। फिर मौसी को। मगर कोई नहीं आया। किसी ने ध्यान नहीं दिया।
इतने में खड़ाऊँ की खट-खट आँगन में सुनाई दी और आवाज नजदीक आकर थम गयी, तो उसने देखा, मामा सामने खड़ा है।
वेलायुधन सादर उठ खड़ा हुआ। मामा के सामने बैठा रहना मना है न!
"क्यों बे?"
वेलायुधन ने कुछ नहीं कहा।
"मैंने पूछा, क्यों चिल्ला रहे थे?"
"जरा यह साँकल खोल देते..."
"क्यों, लोगों को हैरान करना अभी बाकी है?"
"साँकल में क्यों जकड़ रखा है मुझे?"
"तेरी ज्यादतियों के कारण, और क्या! अब तेरा पागलपन कम होगा कि नहीं, देख लूँगा।"
मामा जैसे आया था खट-खट करता वैसे ही चला गया।
यह भी कैसा अन्याय है-उसने सोचा पहले बीमार था, ठीक है। मगर अब? अब तो वह स्वस्थ हो गया है!
उसने चाहा कि गला फाड़-फाड़कर कहे, "मैं ठीक हो गया हूँ। एकदम ठीक हूँ!"
उसे अपना दम घुटता-सा लगा। तो क्या कोई इस साँकल को नहीं खोलेगा? उसे जोरों की रुलाई आ रही थी। साँकल खोलने कोई नहीं आएगा?...कोई भी...?
वह असहाय भाव से बाहर ताकता रहा। अहाते के उस छोर पर उगे इमली के पेड़ की टहनियों के बीच से तमतमाया आसमान दिख रहा था। काले बादल का एक टुकड़ा वहाँ लटक रहा था। अपने माथे का पसीना हाथ से पोंछकर वह अपना पैर सहलाने लगा। साँकल की कड़ियाँ कुलबुला उठीं।
बरबस आये रोने को ओठों से दबाये उसने याद करने की चेष्टा की कि असल में यह सब क्या हो रहा है।
वह बीमार है-वे सब कह रहे थे।
मगर अब मैं ठीक हूँ। तन्दुरुस्त हूँ। मुझे कोई तकलीफ नहीं...मुझे छोड़ दो-उसने कहना चाहा।
दीमक खाये पुराने लकड़ी के खम्भे से पीठ टिकाये वह बैठा रहा। हाय! थोड़ी देर पहले वह नंगा था। जाने किन-किन की नजरों से गुजरा हो। शायद अम्मुकुट्टी ने भी...
अम्मुकुट्टी!
अगर अम्मुकुट्टी को देख पाता!
शायद इस हालत में देखकर वह नफरत से मुँह मोड़ लेगी। धूल से लिपटा बदन। उसने मुद्दत से आईने में अपना चेहरा नहीं देखा था। दाढ़ी के बाल बहुत बढ़ आये होंगे। वह अपना सर खुजलाने लगा तो मिट्टी और धूल झड़ने लगी।
अम्मुकुट्टी के बदन पर कभी गन्दगी नहीं रहती। उसके पास जाने पर ओषधियों से सुगन्धित तेल और केवड़े के फूल की महक आती है।
अगर अब वह सामने दिखाई दे तो-
अम्मुकुट्टी की याद आते ही एक पोशीदा बात दिल में ताजी हो उठी, जिसको न कोई जानता था और न उसने किसी से कही थी। पड़ोस के खट्टे आम के पेड़ के नीचे आम गिरने की प्रतीक्षा में कन्धे से कन्धा लगाये अम्मुकुट्टी और वह दोनों बैठे थे कि अचानक उसने अम्मुकुट्टी के गाल पर अपने दाँत गड़ा दिये थे। अम्मुकुट्टी नाराज होकर उसे नोचने तथा मुक्का मारने लगी थी।
तब तो वे बहुत छोटे थे। बहुत दिन पहले की बात थी। अब दोनों कितने बड़े हो गये!
उसके...उसके बाद जाने क्या-क्या घटनाएँ घटीं, जिनमें कई तो याद ही नहीं। एक बन्द दरवाजा, नारियल के पत्ते की चटाई से ढकी एक खिड़की...अँधेरे की खामोशी में न जाने क्या-क्या न घट गया? यह भारी-भरकम साँकल भी न जाने कब पैरों में पड़ गयी।
"भैया, तुम जरूर चंगे हो जाओगे।" एक धीमा-सा कण्ठ स्वर कहीं अटका हुआ है-ऐसा उसे लगा।
वह बीमार है। वह कह रहे थे। सभी कह रहे थे। हाय दुर्गे! क्या यह सच है? क्या सचमुच...
घुटनों के बीच सिर रखे वह रोने लगा। आँसू टपकने से साँकल की रगड़ से छिली चमड़ी में बहुत दर्द हुआ।
फिर भी चाहे जो हो, अब एक बात की तसल्ली थी कि अब वह बिलकुल चंगा हो गया है।
"मैं बिलकुल अच्छा हूँ, एकदम ठीक हूँ।"
वह जोर से चिल्लाया, "मुझे तुरन्त छोड़ दो! छोड़ दो, छोड़ दो!"
कोई छोड़ने के लिए आया नहीं। क्या उसकी पुकार किसी ने नहीं सुनी? कहीं आदमी को भी साँकल से जकड़ा जाता है? वह कोई सड़ियल कुत्ता तो नहीं कि...
"छोड़ दो! छोड़ दो मुझे!! मुझे छोड़ो!!!"
वह खिड़की की तरफ आशा-भरी नजरों से देखता रहा।
अचानक किसी का सर खिड़की पर नमूदार हुआ। कौन! शंकरनकुट्टी! हाँ, वही तो।
"शंकरनकुट्टी!"
"शंकरनकुट्टी जरा पास आना।"
शंकरनकुट्टी ने सिर हिलाया
"पास आऊँगा तो मुझे मारोगे?"
"नहीं, शंकरनकुट्टी! मैं नहीं मारूँगा।" कहते समय वेलायुधन का गला काँप रहा था।
शंकरनकुट्टी को यकीन नहीं आया।
"मैं तुम्हारा बाल तक बाँका नहीं करूँगा।"
डरते-डरते शंकरनकुट्टी दो कदम आगे बढ़ा।
"इधर आना मना किया है।"
"किसने?"
"बापू ने।"
"शंकरनकुट्टी, किसने मेरे पैरों में बेड़ियाँ पहना दी हैं?"
"बापू के कहने पर लुहार ने पहनायी थीं।"
"जरा इसे खोल दोगे?"
"नहीं।"
"मैं बिलकुल अच्छा हो गया हूँ शंकरनकुट्टी! जरा खोल दो न?"
"नहीं। तुम पागल हो गये हो।"
सिसकियों को ओठों में ही दबाते हुए वेलायुधन ने कहा, "नहीं, शंकरनकुट्टी, मैं पागल नहीं हूँ।"
अब कौन खोल सकता था यह साँकल? नानी आएगी तो जरूर खोल देगी। वह सब समझती है। अम्मुकुट्टी भी सब समझती है।
"अच्छा शंकरनकुट्टी, जरा नानी को ही बुला दो!"
शंकरनकुट्टी जोर से हँस पड़ा।
"नहीं बुलाओगे?"
"वेलायुधन भैया! तुम पागल हो गये हो। नानी तो कब की चल बसी।"
सुनकर वेलायुधन सन्न रह गया। नानी की मौत की खबर से ज्यादा उसे इस खयाल ने दुखी कर दिया था कि अँधेरे में, उसके अनजाने ही, उसके ऊपर क्याक्या बीता था! कितने दिन? कितने महीने?
साँकल बज उठी।
अब कौन इसे खोलेगा? कोई कहना नहीं मानता। मानने की उम्मीद भी नहीं। उसने आवाज धीमी करके कहा, "तो तुम अपनी दीदी को चुपचाप बुला सकते हो?"
अम्मुकुट्टी तो देखते ही समझ जाएगी कि वह अब चंगा हो गया है।
"मेरी दीदी माँ के साथ मायके चली गयी है।"
शंकरनकुट्टी के चेहरे पर यह कहते वक्त उपहास नहीं था। हमदर्दी झलक रही थी।
"चली गयी? कब?"
"बहुत दिन हुए। मैं भी वहीं था, कल आया हूँ पिताजी के साथ।"
"कब वापस आएगी तुम्हारी दीदी?"
"जल्दी नहीं आएगी।"
"क्यों?"
"अगले महीने दीदी की शादी है न!"
वेलायुधन ने आगे कुछ नहीं पूछा।
वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। वह बीमार था...एक दरवाजा, जो हमेशा भिड़ा ही रहता था। एक खिड़की, जो नारियल की चटाई से आठों पहर ढंकी रहती थी। एक खुरदरा हाथ जिस पर रोयें की चादर लिपटी रहती थी। एक धीमा कण्ठ-स्वर 'भैया, तुम जल्दी चंगे हो जाओगे।'
अम्मुकुट्टी, मैं चंगा हो गया हूँ।
मगर वह अब यह बात नहीं जानती। क्या वह अब यहाँ कभी नहीं आएगी?
लोहे की थाली में भात लेकर एक औरत कोठरी में घुसी। उसने दूर से ही थाली वेलायुधन के सामने सरका दी। वह एक अधेड़ औरत थी छाती खोले, खीस निपोरती हुई। पता नहीं कहाँ से आयी थी। फिर भी उसने कहा, "यह साँकल खोलना जरा।"
वह औरत उसे घूरती-धमकाती हुई बोली, "पहले तुम्हारी अकल ठिकाने पर आने दो, तब कहना..."
"मैं ठीक हूँ... मुझे छोड़ दो।"
इसी तरह दाँत निकाले पिच से थूकती हुई वह औरत बाहर चली गयी।
अन्दर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। मौसी का गला साफ सुनाई दे रहा था। वह गोपी को डाँट रही थी, "तुमने वह अच्छा वाला कपड़ा उसे क्यों दे दिया? वह तो दीये की बत्ती के लिए अलग कर रखा था मैंने।"
"और कोई कपड़ा हाथ नहीं आया माँ!"
"तुम्हें डाँटना बेकार है। अब पागल तुम हो गये हो, वेलायुधन नहीं।"
"मौसी, मैं पागल नहीं"-कहकर वेलायुधन को चिल्लाने की इच्छा हुई। भूख लग रही थी। थाली से कुछ दाने उठाकर उसने मुँह में डाले।
अँधेरा केलों के बाग में रेंगता घुस आने लग चुका था। हँसिया लगी लग्गी लेकर कोई केलों के बीच घूम रहा था। उसे लग्गी का अग्र भाग ही दिख रहा था।
देखते ही देखते हँसिए वाली लग्गी ने केले का फूल तोड़ डाला। फूल में भरे शहद की मिठास वेलायुधन की जीभ पर तैरने लगी। अम्मुकुट्टी को केले का शहद पसन्द नहीं था। फूल के अन्दर छिपी सफेद गिरी ही वह खाती थी। पड़ोस की जानु को भी गिरी ही पसन्द थी। इसलिए केले का फूल मिल जाने पर दोनों में झगड़ा शुरू हो जाता था।
"अच्छा, पत्ते डालकर देखेंगे।" (सिक्के के बदले पत्ते से टॉस लगाना)
"पत्ता मैं डालूँगी।"
"न, भैया डालेंगे।"
वह तुलसी या और किसी और का पत्ता तोड़कर पूछता, "अन्दर या बाहर?"
"अन्दर।"
"बाहर।"
"अच्छा, पत्ते का अगला भाग, गिरने पर ऊपर रहेगा तो फूल अम्मुकुट्टी का। और उलटा हो तो जानु का।"
जब तक पत्ता धरती पर गिरता, अम्मुकुट्टी आँखें बन्द किये हाथ जोड़े खड़ी रहती-भगवान की प्रार्थना करती।
मगर अब अम्मुकुट्टी अपने मायके में होगी। वह क्यों चली गयी वहाँ? बचपन से ही वह यहीं रहती थी।
वह गलियारा, जिसमें घुँघची के दाने बिछे हुए रहते, उसे खूब याद था। वह बचपन में माँ के साथ मामी के यहाँ न्यौता पाकर जाया करता था। अरे वाह ! कितनी ही घुघचियों की बेलें घेरे पर फैली रहती थीं। गलियारे के दोनों तरफ! नीचे रेत पर घुघची के फल बिछे पड़े रहते। उसका घर एक नहर के पास था। उसने मन-ही-मन एक कमरे की तस्वीर देखी, जिसमें कुंकमे लटके हुए थे, जिसकी दीवार पर हिरण के सींग टॅगे हुए थे। अम्मुकुट्टी अब क्या कर रही होगी?
नहा-धोकर घर के उत्तरी तरफ के आँगन में जहाँ सिलबट्टे पड़े थे, बाल खोलकर उँगलियों से सँवार रही होगी।
क्या अब वह कभी वापस नहीं आएगी?
अम्मुकुट्टी से एक बार मिल पाता...शादी के बाद तो वह यहाँ कभी नहीं आएगी। अगर इसके पहले एक बार मिल पाता...
वेलायुधन ने दीवार पर अपनी पीठ रगड़कर खुजली दूर की तो पैर पर पड़ी साँकल एक बार और बज उठी। अगर साँकल खोल पाया, तभी कोठरी से निकल सकेगा। उसने साँकल पर जोर आजमाया। मगर बेकार। उँगलियाँ दुखने के सिवा कुछ फायदा न हुआ। साँकल थी कि वैसी ही पैर से लिपटी पड़ी रही। क्या यह नहीं खुलेगी? कोई आकर नहीं खोलेगा?
मेमने को बाँधने के लिए मौसी कोठरी के सामने से निकली तो सहमीसहमी-सी आवाज में उसने उसे पुकारा। मगर मौसी ने एक बार मुड़कर भी नहीं देखा।
अगवाड़े बैठकर शंकरनकुट्टी और गोपी 'नमः शिवाय' जप रहे थे। (सन्ध्या के वक्त घरों में 'नमः शिवाय' जपा जाता है।)
खीसेवाली अधनंगी औरत थाली उठाकर ले जाने आयी तो वेलायुधन फिर गिड़गिड़ाया, "माई, जरा यह साँकल खोल दो।"
"क्यों, अभी लोगों को तंग करना बाकी है क्या?"
उसने भीगी आँखें पोंछ आकाश की तरफ देखा-भीगी-चमकती कबरी का रंग। जहाँ तक आँखें जातीं, एक उदास तारे के सिवा वहाँ और कुछ नजर नहीं आ रहा था।
'नमः शिवाय' का जाप समाप्त कर शंकरनकुट्टी और गोपी ने रामायण बाँचना शुरू किया। मामा बीच-बीच में उच्चारण ठीक करा रहा था। उत्तर के विशाल कमरे की जाली से रोशनी कोठरी के सामने वाले आँगन में पड़ी।
अन्दर दीपक जल गये थे। रसोईघर से बर्तनों के शब्द सुनाई दे रहे थे। अब कोई इस तरफ नहीं आएगा। वह बुदबुदाया, जैसे अँधेरे से कह रहा हो- 'मुझे छोड़ दो!'
घर वाले न हों तो अड़ोस-पड़ोस में लोग होंगे ही। वे ही आकर यह साँकल क्यों नहीं खोल देते?
वह गला फाड़कर चिल्लाने लगा, "अरे, कोई है?"
एक दीपक आँगन में नमूदार हुआ। साथ ही कण्ठ-स्वर-"वेलायुधा!"
"मुझे छोड़ दो, मुझे छोड़ दो!"
"चुपचाप पड़े रहो, इसी में भलाई है। वरना हड्डी-पसली तोड़ दूँगा, याद । रखना।"
दीपक गायब हो गया।
घर के अन्दर का शोरगुल, बर्तनों की झनझनाहट धीरे-धीरे थम गयी। आँगन में अँधेरे में किरणें बिखेरने वाली रोशनी भी बुझ गयी।
साँकल पर उसने और एक बार जोर आजमाइश की। साँकल खुल जाती तो जान में जान आती। इसके बाद अब अगर उसे कोई सताने आता तो उसकी खैर नहीं थी। खूखार कुत्ते तो साँकल से बाँधे जाते हैं, मगर आदमी?...अगर यह साँकल खुल जाती...एक कड़ी...एक कड़ी अगर टूट जाती...बस एक कड़ी...
कहते हैं-पागल है! पागल हैं वे! वरना नाहक किसी को तंग क्यों करते?
'मैं अच्छा हूँ, मैं पागल नहीं हूँ।' वह बुदबुदाया। वह सारी ताकत लगाकर साँकल खींचने लगा। हाथ दुखने लगा। फिर भी वह रुका नहीं। यहाँ तक कि दम घुटने लगा तो औंधा होकर जमीन पर लेट गया।
आँखें खुली तो पाया कि वह सपना देख रहा था। एक राजकुमार, जिसे माणिक्य मणि मिली थी। यह कहानी गोद में सुलाकर बचपन में उसकी नानी ने उसे सुनायी थी। सरोवर के भीतर स्थित सौध में राक्षस ने राजकुमारी को साँकल में बाँध रखा था। साँकल ऐसी कि न आग पर पिघलती और न काटने पर टूटती। एक बुढ़िया ने, जो लकड़ी काटने आयी थी, उसे खंजर दिया। मन्त्र जाप कर साँकल खंजर से छुआ कि वह टूट गयी। सफेद घोड़े पर सवार होकर राजकुमार और राजकुमारी जंगली फूलों वाले पौधों से भरे टीले की चोटी पर पहुँचे, जहाँ सौमंजिला महल था।
इतने में उसकी आँखें खुल गयीं। सामने न सौमंजिला महल था और न दूधिया घोड़ा या माणिक्य मणि। झीनी चाँदनी कोठरी में खिड़की से घुस रही थी। आँगन में साये चित्र बुन रहे थे।
क्षण-भर वह सोचता रहा कि अब मैं कहाँ हूँ। हिला तो साँकल ने आवाज की।
दोनों पैर दीवार पर जमायें, गुस्से के साथ उसने साँकल पर एक बार और सारी शक्ति लगा दी।
एक कड़ी...अगर एक कड़ी टूट जाती!
और एक बार पूर्वाधिक जोर से...
"मैया रे!"
वह पीठ के बल गिर पड़ा। साँकल टूट गयी थी।
उठा तो जैसे बदन चूर-चूर हो रहा था। लँगड़ा-लँगड़ाकर आँगन में आया। हर कदम पर पैर में लिपटा साँकल का टुकड़ा बज रहा था।
सीढ़ियाँ उतरकर फाटक वाले मकान का भिड़ा दरवाजा उसने खोल दिया।
सामने खेत थे। उसकी रीढ़-सी दूर तक चली गयी मेंड़ पर से चलते समय उसने सोचा, अब कहाँ जाऊँ?...
सबसे जरूरी बात उस कोठरी से बाहर निकलने की थी। सवेरा होने पर अगर उन लोगों ने देख लिया तो फिर पैरों में बेड़ियाँ पड़ जाएँगी। यहाँ से कहीं भाग जाना ही होगा।
हवा में झूमती बालियों के पत्तों की आवाज के साथ ताल-मेल रखती हुई साँकल बज रही थी। उस तरफ से एक कुत्ते के भौंकने की आवाज आयी, जो बहुत करुण-सी उसे लगी। शायद कोई साँकल से बँधा कुत्ता होगा-वेलायुधन ने सोचा।
मद्धिम चाँदनी छायी हुई थी। इसलिए रास्ता सूझना उतना मुश्किल नहीं लगा। ऊपर फीका आसमान!
रात की ठण्ड से ठिठुरी नीरवता में साँकल की आवाज सन्नाटे को भयंकर करती गयी।
खेतों का सिलसिला सड़क के पास खतम हो गया था। केवड़ों के झुरमुट से वह सड़क पर आ गया। नदी के किनारे से सड़क दूर तक चली गयी थी।
जब वे लोग सवेरे उठकर देखेंगे तो वेलायुधन नामक कुत्ते को कोठरी में नहीं पाएँगे। यह सोचकर उसे जोर से ठहाका मारने की इच्छा हुई। मगर ठहाका मारकर हँसने की फुरसत कहाँ थी? वे लोग उसे ढूँढने-ढूँढते आ पहुँचेंगे। इसके पहले बच निकलना होगा। मगर वह जाएगा कहाँ? कोई ऐसा आदमी नहीं दिखता, जो उसके कहने पर यकीन करे। कोई उसकी बात सुनने तक के लिए तैयार नहीं। उसने अपने आप से कहा, "मैं पागल नहीं, मैं बीमार नहीं।"
"भैया, तुम चंगे हो जाओगे," अम्मुकुट्टी ने कहा था।
"मेरी प्यारी अम्मुकुट्टी! अब मैं बिलकुल चंगा हो गया हूँ।" वह तो यकीन करेगी ही इस पर। सिर्फ वही-और कोई दूसरा नहीं।
सड़क की मिट्टी भीगी हुई थी, शायद हिम पड़ने से। बहुत दिनों-शायद सालों के बाद वह इस सड़क पर चल रहा था। बन्द दूकानों की एक पाँत और मसजिद पीछे छोड़कर वह आगे बढ़ा।
मसजिद के सामने की झाड़ियाँ और बरगद, जिन पर कहा जाता है कि भूत-प्रेत रहते हैं-याद करते समय उसे अब की बिलकुल भी डर नहीं लगा। एक चाँड़ था रास्ते के किनारे। वह उस पर हाथ टेके खड़ा रहा। पूरब में लाली फैलने लगी थी।
अरे! यह कहाँ आ पहुँचा? खेत के बीचोंबीच टापू जैसा स्थान था, जिसे देखते ही उसे पता चला। उस टापू पर एक मदरसा था। उसके भी आगे खेत के किनारे एक बड़ा तालाब और छोटा मन्दिर था। हर महीने वह माँ के साथ उस मन्दिर में जाता था। मन्दिर के सामने के खेत में, जहाँ बुवाई के मौसम में बैलों की जुताई की प्रतियोगिता चलती थी, उस दिन एक नाटक भी खेला गया था।
खेत के ऊपर नीला कुहरा छाया हुआ था। वेलायुधन खेत में उतरा। झनकते कदमों से चलते समय सामने एक काली-सी मूरत आती दिखाई पड़ी, जो कन्धे पर हल थामे हुए थी।
पास आते ही तो वह मूरत ठिठक गयी। "कौन?"
वेलायुधन ने कोई जवाब नहीं दिया। वह क्षण-भर रुका और फिर चलने के लिए कदम उठाया तो वह मूरत अपने हल को मेंड़ पर ही डालकर खेत में कूद पड़ी।
वेलायुधन ने इसकी तरफ जरा भी ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ता गया। कुनकुनी धूप बदन पर पड़ने लगी तो उसे बड़ा भला लगा। फैले हुए खेतों के बीच खड़े होकर उसने चारों ओर नजर दौड़ायी।
सर पर मिट्टी की हाँडी लिये कुछ खेत-मजदूरिनें उस तरफ से आ रही थीं। पास पहुंचते ही वे खड़े खेत में उतरकर भागने लगीं।
"पागल!! पागल!!!"
पीछे से शोरगुल सुन वेलायुधन लम्बे-लम्बे डग भरने लगा। सोचा, लोग पीछा तो नहीं कर रहे हैं?
ऊँचे पनीरी के खेत में घुसते समय केवड़े के आरेनुमा पत्ते से उसके पैर जख्मी हो गये। वह पनीरी के खेत से होकर एक तंग गली में घुस गया।
पीछे शोरगुल बराबर बढ़ता जा रहा था। मगर सामने से आने वालों में किसी ने भी उसे रोकने की चेष्टा नहीं की। यह अच्छा ही हुआ। हर कोई उसे देखते ही भाग रहा था। यह देखकर उसे बहुत दुख हुआ।
"मैं पागल नहीं, पागल नहीं मैं।"
पीछे से लोग चिल्ला रहे थे-"पागल! पागल!!"
गली के छोर पर पहुँचा तो वहाँ एक ऊँची चट्टान से लिपटकर खड़ा हो गया। ओह ! कितना थक गया था! थोड़ी देर सुस्ताकर चलने लगा तो पीछे से कोई दहाड़ उठा, "ठहर जा!"
मुड़कर देखा-एक तगड़ा आदमी था। उसने सर पर अंगोछा बाँध रखा था। उसकी मूंछे सफेद हो आयी थीं।
"मैंने कहा, ठहर जा! इसी में खैरियत है। ऐसे-ऐसे कितने ही मस्त हाथियों को बाँध चुका हूँ।"
वेलायुधन हाँफते हुए बोला, "मैं पागल नहीं, पागल नहीं हूँ..."
"तेरा पागलपन अभी मैं ठीक करता हूँ।" वह बाँस की सौंटी, जिसे अब तक पीछे छिपाकर पकड़े हुए था, घुमाते हुए आगे बढ़ा तो वेलायुधन घबरा गया।
वेलायुधन ने एक बड़ा-सा पत्थर उठा लिया।
तगड़े आदमी ने पीछे हटने में ही अपनी खैर समझी। वेलायुधन आगे बढ़ा।
गली टीले की ढलान तक चली गयी थी। वहाँ से चढ़ाई शुरू हो जाती थी। वह जल्दी-जल्दी टीले पर चढ़ने लगा। वहाँ चढ़कर सीधे टीले के ऊपर पहुँचा, जहाँ एक सप्तपर्णी का पेड़ और लाल पत्थर से बना छोटा-सा दुर्गा-मन्दिर था। वह उसका परिचित स्थान था। वहाँ से इसी तरफ उतरने पर काजुओं का बगीचा मिलता है, और उसके परे एक गली और उसके बाद एक नाला।
उस नाले के किनारे एक घर था, जिसके फाटक पर घुँघची के दाने बिखरे पड़े रहते थे।
"मेरी प्यारी अम्मुकुट्टी! मैं पागल नहीं..."
टीला सूना था। सिर्फ वहाँ एक काला साँड़ चर रहा था।
चलते समय घास से ओस की बूंदें उछल रही थीं।
कोई नहीं था। सुनसान जगह थी। थोड़ी देर आराम से बैठा जा सकता था।
दोनों घुटने जैसे टूट रहे थे। मन्दिर की दीवार से लगकर वेलायुधन बैठ गया। ठण्डी हवा लगी तो अपने-आप आँखें मूंद गयीं। पीठ में दर्द हो रहा था। भीगी घासों से पटे फर्श पर औंधे मुँह लेट गया।
वह एकाएक चौंककर उछल पड़ा। उसे लगा कि उसकी पीठ पर कुछ गिरा है। उठा तो देखा कि थोड़ी दूर पर लकुटी और बाँस का छतना लिये चार-पाँच ग्वालों के लड़के खड़े थे। वे उसकी ओर गौर से देख रहे थे। एक और ढेला उसकी तरफ आया जो उसके ठीक सामने गिरा और सिर के ऊपर से उछलता चला गया।
वेलायुधन घबराकर उठ खड़ा हुआ। पैरों की साँकल बज उठी।
चलने लगा तो ग्वालों के लड़कों का वह जत्था भी पीछे लग गया। ढेले एक के बाद एक पीठ पर बराबर पड़ने लगे। चट्टानों के बीच से साँकल घसीटता हुआ वह जल्दी-जल्दी टीले से उतरने लगा। गली पर पहुँचने के बाद उसने एब बार मुड़कर देखा।
"मैया री!" वह बिलख उठा। माथा पोंछा तो हाथ में खून लग गया।
"पकड़ो, पकड़ो!"
"पागल! पागल!! भागो! भागो!"
खेतों में नहीं उतर सका तो देखा, लोग इधर-उधर भाग रहे थे। रास्ते में खड़ा एक लड़का डर के मारे जोर से रोने लगा।
"पागल! पागल!! लोगों को सताता है। भागो भागो!!"
पीछे से फिर शोर-गुल! खेत के किनारे से चलता हुआ वह नाले के पास पहुँचा। वहाँ से फिर एक गली में घुसा जिसके दोनों तरफ पेड़ों की कतार थी और नीचे रेत में घुँघची के दाने बिछे पड़े थे।
बचपन में पता नहीं, कितने ही दिन वह उस गली में खेला था। सामने लाल चूने से पुती चारदीवारी और छप्पर पर उछलने की मुद्रा में खड़ी हनुमान की मूर्ति वाला घर दिखाई दिया तो उसका दिल धड़कने लगा। यहीं...हाँ यहीं अम्मुकुट्टी रहती है।
एक बार-सिर्फ एक बार अम्मुकुट्टी से मिलना है...उससे कहना हैअम्मुकुट्टी! मैं अब अच्छा हो गया हूँ। अब मैं बिलकुल चंगा हो गया हूँ। भला और चंगा...
वह फाटक पार कर गया।
आँगन में एक बेल का पेड़ था। उसके चबूतरे पर बैठकर एक लड़का नारियल के पत्तों से गेंद बना रहा था। गोबर-पुते विशाल आँगन में कुनकुनी धूप बिछी हुई थी। उस तगड़े घर के सामने खड़े होकर वेलायुधन चारों ओर देखने लगा।
लड़का पत्ते उठाकर घबराया हुआ अन्दर भाग गया।
"अम्मुकुट्टी! अम्मुकुट्टी! तुम कहाँ हो?"
उसने धीरे-धीरे दो-चार कदम आगे बढ़ाये। इतने में देखा, बरामदे के सामने बँधी रस्सी पर एक स्त्री गीले कपड़े डाल रही थी।
साँकल फिर बज उठी। उसने मुड़कर देखा।
क्षण-भर वेलायुधन जड़वत् खड़ा रहा। उसने उसके चेहरे की ओर देखा-
"अम्मुकुट्टी!"
अम्मुकुट्टी हाथ के कपड़े फर्श पर फेंककर बरामदे पर चढ़ गयी और चिल्लाने लगी, “पागल! पागल!!..."
'देखो, यह मैं हूँ अम्मुकुट्टी! मैं पागल नहीं हूँ'-कहना तो वह चाहता था, मगर शब्द नहीं निकले। उसने पुकारा, "अम्मुकुट्टी!"
अम्मुकुट्टी अन्दर भाग गयी।
अन्दर का शोर सुनाई दे रहा था :
"पागल! पागल!!"
"मेरी छड़ी जरा उठा लाना। तुम अन्दर जाओ।"
"पागल! पागल!...."
वेलायुधन अब वहाँ नहीं रुका। ओठों पर जबान फेरी तो माथे पर का नमकीन खून ओठों तक पहुंच गया था। पैर में बेड़ी। साँकल घसीटता हुआ वह फाटक पार कर बाहर आया।
मारे थकावट के अब चला नहीं जा रहा था। फिर भी झंझा के वेग से वह भागा। पीछे से किसी के कनस्तर बजाने का शोर आ रहा था। साथ ही चीख-पुकार की आवाज।
फाटक वाला मकान पार कर आँगन में पहुँचा तो देखा, मामा खड़ा था दो आदमियों के साथ। साँकल की आवाज सुनकर वे चौंक पड़े।
वेलायुधन दीवार पर हाथ टेके थोड़ा रुका। इतने में उसने देखा कि मामा सोंटी लेकर उसकी ओर आ रहा है। थकावट के मारे बेहाल आँखें अपनी देह पर पड़ी तो देखा कि कमर का कपड़ा न जाने कब गिर चुका था।