अँधेरे बंद कमरे (उपन्यास-भाग 4) : मोहन राकेश

Andhere Band Kamre (Hindi Novel-Part 4) : Mohan Rakesh

सुषमा से मुझे ‘ला बोहीम’ में मिलना था। बात चूँकि लोगों की ज़बान पर पहुँच गयी थी, इसलिए मैं इस बार उससे खुलकर बात कर लेना चाहता था। मैं जानता था कि सुषमा भी इसकी प्रतीक्षा में है कि कब मैं उससे इस विषय में बात करता हूँ। पिछले कुछ दिनों में हम जब-जब भी मिले थे तो हमेशा हमें इस तरह लगता रहा था जैसे कि अगली बात हम उसी विषय में करने जा रहे हैं। आँखों से और चेहरे के भावों से वह बात न जाने कितनी बार कही जा चुकी थी! मगर मुँह पर आते-आते बात शायद इसलिए रुक जाती थी कि अगर मन के किसी कोने में अब भी उस विषय में कुछ सोचना बाकी है, तो अगली बार मिलने तक वह और सोच लिया जाए। सुषमा के नाम के साथ थोड़ा इतिहास जुड़ा हुआ है, यह मैं अच्छी तरह जानता था। लोग उसके पुराने मित्रों में कई-एक लोगों की चर्चा करते थे। मगर इस बात को सोचकर मेरे मन में कोई दुविधा नहीं थी। मैं सोचता था कि इस तरह का इतिहास किसके जीवन में नहीं होता! क्या मेरे अपने जीवन में इस तरह का कोई इतिहास नहीं था? और जितने लोगों को मैं जानता था, उनमें कौन ऐसा था जो इस तरह के इतिहास से बिल्कुल बचा हुआ था? फ़र्क़ इतना ही तो था कि कुछ लोगों के इतिहास की चर्चा सिर्फ़ थोड़े-से लोगों में और सिर्फ़ एक फुसफुसाहट के रूप में होती थी और सुषमा के इतिहास की लोग खुलकर चर्चा कर लेते थे। और इसका कारण भी तो सुषमा का अपना खुलापन ही था।

वह कभी अपने मित्रों के सम्बन्ध में बात करते हुए किन्तु-परन्तु का प्रयोग नहीं करती थी। जितना कुछ लोगों के मुँह से जाना जा सकता था, उससे कहीं ज़्यादा उसने खुद ही मुझे बता दिया था। लोग कहते थे कि सुषमा लोगों के घर तोड़ती है, वह ‘होम-ब्रेकर’ है। मगर मैं जानता था कि वह घर तोडऩा नहीं, घर बनाना चाहती है। अपने लिए घर बनाने और उसमें रहने की उसे कितनी चाह है, यह बात उसके शब्दों से ही नहीं, सारे हाव-भाव से प्रकट होती थी। मैं यह जानता था कि वह मेरे ऊपर जो इतना निर्भर करने लगी है, उसके पीछे भी मूल भावना यही है। यह बात ठीक थी कि उसने अपने आकर्षण के प्रभाव को कई लोगों पर आज़माने का प्रयत्न किया था। यह उसके लिए एक खेल की तरह था। उसने मुझसे कहा था कि इस खेल को ख़तरनाक हद तक उसने कभी नहीं जाने दिया। लोग उसे जो भी कहें, उसने आज तक किसी का घरेलू जीवन नष्ट नहीं किया। “जो लोग इतनी कच्ची ज़मीन पर खड़े हैं कि कोई भी लडक़ी उनकी तरफ़ अपनी उँगली बढ़ाये, तो वे उसे पकडक़र चल सकते हैं उनके साथ कुछ खिलवाड़ करने में अच्छा नहीं लगता?” उसने हँसकर कहा था, “मैं कई बार सिर्फ़ यही देखना चाहती थी कि कौन आदमी जो ऊपर से बहुत बनता है, वास्तव में कितने डगमग क़दमों से चल रहा है।”

मैंने एक बार ख़ास तौर पर हरबंस के बारे में पूछा, तो उसने थोड़ी-सी बात कहकर टाल दिया था। “वह तुम्हारा दोस्त है।” उसने कहा, “इसलिए ज़्यादा तुम उसी से पूछ लेना। मैं सिर्फ़ इतना जानती हूँ कि उस जैसे आदमी के साथ मेरी मित्रता हो ही नहीं सकती थी।”

मैंने उस बात को ज़्यादा तूल नहीं दिया। यह जानते हुए कि हरबंस मेरा मित्र है, वह उसके बारे में ज़्यादा बात कर भी कैसे सकती थी? मेरे मन में अगर दुविधा थी, तो वह अपनी बात सोचकर ही थी। क्या मैं सुषमा जैसी लडक़ी के साथ विवाहित जीवन की ज़िम्मेदारी उठाने के लिए तैयार था? मेरे मन में इसके विपक्ष में दलील कोई नहीं थी, फिर भी न जाने क्यों एक हिचक-सी थी। मैं अपने से पूछता था कि क्या मेरे मन में सुषमा के लिए उस तरह की भावना है जैसी कभी किसी और के लिए थी?

मगर मैं इस सवाल को दिमाग़ से निकाल देना चाहता था। भावना की नापजोख इस तरह कैसे हो सकती है्र और बरसों पहले की मन:स्थिति के साथ मैं आज की मन:स्थिति की तुलना कर ही कैसे सकता था? इस तरह पैमाना लेकर बैठने से क्या ज़िन्दगी कभी चलती है? गुज़रे हुए दिन गुज़र गये थे और मुझे अपने लिए आज की और आनेवाले कल की व्यवस्था करनी थी। अपनी इस दुविधा से निकलने के लिए मैंने उन दिनों की सारी बात सुषमा को बता भी दी थी। इस पर वह सिर्फ़ एक बार हँस दी थी और उसने कहा था, “शुक्ला सचमुच बहुत अच्छी लडक़ी है। मैं उसे अब भी बहुत प्यार करती हूँ।”

मेरे मन में एक हल्की-सी दुविधा और भी थी। सुषमा के अपने बने हुए विचार थे। वह हर विषय पर इतने अधिकारपूर्ण ढंग से बात करती थी और इतने सधे ढंग से अपनी बात रखती थी कि उसके साथ बहस करके उसके मत को बदलना लगभग असम्भव प्रतीत होता था। उसके बहुत से विचार ऐसे थे जिनसे मैं दिल से सहमत नहीं हो सकता था, मगर मैं अपने पक्ष का प्रतिपादन उतनी अच्छी तरह नहीं कर पाता था जितनी अच्छी तरह वह अपने पक्ष का प्रतिपादन करती थी। इसका एक कारण शायद यह भी था कि मैं उसकी बात धैर्य के साथ सुन लेता था। और वह मेरी बात सुनते हुए एकदम अधीर हो उठती थी। वह जब अधीर होकर बात करती थी, तो उसकी बातों में एक चामत्कारिक-सा प्रभाव आ जाता था। जीवन के सम्बन्ध में उसकी दृष्टि बहुत ही व्यक्तिवादी थी जिससे मुझे चिढ़ होती थी। एक बार बात-बात में उसने कहा था, “मैं इन्सान हूँ, तो मैं ठीक से जीऊँ क्यों नहीं? हम सब जानते हैं कि जीने की अपनी शर्तें हैं। हमें जीना है तो हमें उन शर्तों का पालन करना ही चाहिए। ठीक से जीना है, तो ठीक से पालन करना चाहिए।”

“मगर इन्सान जीने की शर्तों को बदल भी तो सकता है।” मैंने कहा, “अगर ऐसा न होता, तो हम आज भी आदिम काल की शर्तों पर ही ज़िन्दगी बिता रहे होते।”

“समय के साथ शर्तें बदल जाती हैं, यह मैं मानती हूँ, मगर उनके बदलने-बदलने में लाखों-करोड़ों आदमियों की ज़िन्दगियाँ तबाह हो जाती हैं। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा इतना सन्तोष मिल सकता है कि वे इतिहास में जीते हैं। और इतिहास में भी नाम बनकर नहीं, केवल एक घटना बनकर। और कई बार तो घटना बनकर भी नहीं, केवल एक परिस्थिति बनकर। उस तरह जीने में इन्सान का अपना क्या रह जाता है?”

“और इस तरह जीने में इन्सान का अपना क्या होता है?”

“क्यों? बहुत कुछ है जो अपना होता है। मुझे खाने-पहनने का शौक है, घूमने का शौक है, अच्छा संगीत सुनने का शौक है। ये सब शौक पूरे होते हैं, तो मुझे अपने जीवन का कुछ अर्थ नज़र आता है। बाकी बातें किताबों में पढऩे के लिए तो ठीक हैं, उन्हें अपने पर लागू करना बहुत मुश्किल है। और जो लोग इस तरह का दावा करते हैं, तुम समझते हो कि वे सचमुच अपने व्यक्ति को भूलकर जीते हैं? फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि कुछ लोग ज़िन्दगी में एक तरह का धोखा बनाये रखना चाहते हैं और मैं अपने को उस धोखे से मुक्त रखना चाहती हूँ। हमारे आसपास जो लोग बहुत-बहुत सिद्धान्तों की बातें बघारते हैं, तुम उनमें से किसी को भी देख लो। यह बहुत साफ़ नज़र नहीं आता कि उसकी सैद्धान्तिक ज़िन्दगी और व्यक्तिगत ज़िन्दगी में एक बहुत बड़ी खाई है?”

“अगर कुछ लोगों की ज़िन्दगी में इस तरह की खाई है, तो इसका यह मतलब तो नहीं कि इस तरह की खाई रखे बग़ैर जिया ही नहीं जा सकता...।”

“नहीं जिया जा सकता सूदन, बिल्कुल नहीं जिया जा सकता।” वह हठ के साथ बोली, “जो आदमी आज इस तरह जीने की कोशिश करेगा, उसे ज़िन्दगी दो दिन में बुहारकर एक तरफ़ कर देगी। तुम ज़िन्दगी में यह ख़तरनाक कोशिश करके देखो, तो तुम्हें खुद पता चल जाएगा और इसके बाद एक स्नेहपूर्ण स्पर्श के साथ उसने कहा, “मगर मैं यह भी कभी नहीं चाहूँगी कि तुम इस तरह की कोशिश करो। एक प्रयोग करने-करने में अपनी ज़िन्दगी नष्ट कर देना, यह कहाँ की अक्लमन्दी है! यह ज़्यादा अच्छा नहीं कि इस विषय में मग़ज़पच्ची करने की बजाय हम लोग चलकर कोई अच्छी-सी पिक्चर देखें? ‘प्लाज़ा’ में ‘एराउंड द वल्र्ड इन एटी डेज़’ तुमने देख ली है?”

“नहीं, अभी नहीं देखी।” मैंने कहा।

“मैं एक बार देख आयी हूँ।” वह बोली, “मगर तुम्हारे साथ एक बार फिर देखना चाहूँगी। तुम इस वक़्त चल सकोगे?”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं!”

“तो आओ चलें। यह बहस-मुबाहिसा किसी और दिन करेंगे।”

मैंने धीरे-धीरे अपने मन की रुकावट पर भी काबू पा लिया था। साथ-साथ जीवन बिताने की यह एक अनिवार्य शर्त कैसे थी कि पति-पत्नी के विचारों में साम्य हो ही? सुषमा अपनी तरह से सोचती थी, तो ठीक था। उसके अपने विचार थे। मेरे विचार उससे अलग थे, तो क्या यह ज़रूरी था कि वह भी मेरे विचारों को अपने ऊपर ओढ़ ले? और आगे चलकर उसके विचार बदल भी तो सकते थे। और न भी बदले, तो क्या था? विवाहित जीवन में दो व्यक्तियों को एक-दूसरे के विचारों का सम्मान नहीं करना चाहिए?

‘ला बोहीम’ के एक अँधेरे कोने में बैठे हुए यही बातें फिर बार-बार मेरे मन में उठ रही थीं। सुषमा अपने सफ़ेद कोट में बहुत अच्छी लग रही थी। उतनी अच्छी वह मुझे पहले कभी नहीं लगी थी। सोने के छोटे-छोटे गोल टॉप्स उसके लम्बे साँवले चेहरे पर बहुत खिल रहे थे। वह बात करते समय अपनी गरदन सीधी करती, तो उसकी लचक से मेरे शरीर में एक सिहरन-सी भर जाती। मुझे लग रहा था कि उसकी गरदन में उतनी लचक पहले मैंने कभी नहीं देखी। वह और दिनों की अपेक्षा बहुत प्रसन्न भी नज़र आ रही थी।

“तो?” हम दोनों जितने फ़ासले पर बैठे थे उतने फ़ासले से हम हाथ बढ़ाकर एक-दूसरे को छू भी सकते थे और कभी-कभी प्लेट पकड़ाते समय तो वह फ़ासला और भी कम प्रतीत होता था। मगर अचानक बीच में खामोशी का एक व्यवधान आ जाता और उसमें वह फासला काफ़ी बड़ा लगने लगता। फ़ासला कम होता था, तो मैं केवल उसी को देखता था। फ़ासला बढ़ जाता था, तो मुझे दूसरी बातों का भी ध्यान आने लगता था।

हम लोग खाना खा चुके थे। खाने के लिए मैंने जो ‘डिशें’ मँगवायी थीं, खाते समय मुझे खुद उनके नाम याद नहीं रहे थे। मैंने जान-बूझकर कुछ अपरिचित डिशों का ऑर्डर दिया था; कुछ तो सुषमा को प्रभावित करने के लिए और कुछ अपने-आपको ज़िन्दगी के एक और ही स्तर पर महसूस करने के लिए। बैरा आकर प्लेटें उठाने लगा, तो मैंने उससे कॉफ़ी लाने के लिए कह दिया। बैरा फिर भी झुका रहा, “कौन-सी कॉफ़ी सर? इटालियन फ़िल्टर, बेल्जियन फ़िल्टर, या...?”

“बेल्जियन फ़िल्टर।” मैंने बिना यह जाने कि इटालियन फ़िल्टर और बेल्जियन फ़िल्टर में क्या फ़र्क है, बहुत सरसरे ढंग से कह दिया और सुषमा की तरफ़ मुडक़र कहा, “तो हाँ...?”

हम लोगों को साथ-साथ बैठे लगभग पौन घंटा हो गया था। मगर जिस विषय पर मुझे बात करनी थी, उस विषय पर मैं तब तक नहीं आ सका था। वह जब भी मुसकराती थी, तो मुझे लगता था कि वह आशा कर रही है कि मैं अब उस विषय में बात करूँगा और मैं यह सोचकर टाल जाता था कि शायद यह नहीं, इसके बाद आनेवाला कोई क्षण उस बात के लिए ज़्यादा उपयुक्त होगा। हम दोनों आँखों ही आँखों में लगातार एक-दूसरे की टोह ले रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे। खाना खाते समय जो एक बत्ती जल रही थी, कॉफ़ी आ जाने पर सुषमा ने उसे भी स्विच दबाकर बुझा दिया, जिससे हमारे वाली मेज़ बिल्कुल अँधेरे में घिर गयी। रिकॉर्ड पर हल्का वाद्य संगीत वातावरण के रहस्यमय प्रभाव को और भी बढ़ा रहा था। अँधेरे में सुषमा की बड़ी-बड़ी आँखें बहुत भावपूर्ण लग रही थीं और उनमें पहले से कहीं ज़्यादा चमक आ गयी थी। उसने बेल्जियन फ़िल्टर के ढक्कन उठाकर रख दिये और कॉफ़ी में चीनी मिलाने लगी। इन सब चीज़ों के बारे में वह नि:सन्देह मुझसे कहीं ज़्यादा जानती थी।

सवाल हम दोनों की आँखों में था जिसे टालते हुए हम ‘ला बोहीम’ की नेवाड़ी छत और फ़ानूसदार बत्तियों के बारे में, पिछले दिनों देखे हुए नृत्यों और नाटकों के बारे में और एक-दूसरे की टिप्पणियों और लेखों के बारे में बातें कर रहे थे। सुषमा को यह जानकर आश्चर्य हुआ था कि अपने पत्र में दिल्ली की गलियों के विषय में लेख मैंने लिखा था। उसे वह लेख बहुत पसन्द आया था। “उस लेख से सचमुच यह लगता था कि किसी ने उन गलियों में जाकर उन्हें बहुत पास से देखा है।” उसने कहा, तुमने उसमें जो एक बुड्ढे मुसलमान सितारवाले की बात लिखी थी, वह टच बहुत ही अच्छा था। क्या सचमुच ऐसा कोई शख्स तुम्हें वहाँ मिला था?”

मैंने कहना चाहा कि मैं उस शख्स से मिला ही नहीं, उसे बहुत पास से जानता रहा हूँ; बल्कि जिस घर में वह रहता है, उसी घर में कई महीने रहा भी हूँ, मगर यह बात मुझे उस समय की मानसिक स्थिति के अनुकूल नहीं लगी। मैं अपने प्रस्ताव की भूमिका के रूप में अपने को उस पुरानी ज़िन्दगी की याद नहीं दिलाना चाहता था। मैं जानता था कि वह एक ऐसा विषय है जो मेरे मन को सीधी पटरी से हटाकर गुमराह कर देता है। मैं उस समय गुमराह नहीं होना चाहता था, इसलिए मैंने उससे इतना ही कहा कि मैंने जो कुछ लिखा था कल्पना से नहीं लिखा था, हालाँकि मेरे ख़याल में सारा अध्ययन बहुत सतही और अधूरा था।

“यह सिर्फ़ तुम्हारी विनम्रता है, नहीं तो यह स्टडी तो मेरे ख़याल में...।” मैं जानता था कि वह जो कुछ कह रही है, उसका सीधा सम्बन्ध उस विषय से न होकर, जिसकी वह बात कर रही है, एक और ही विषय से है जिसकी बात अभी आरम्भ होने को है। मेरे लेखों की प्रशंसा वह उसी तरह कर रही थी जैसे हम किसी का घर किराये पर लेने के लिए जाएँ तो पहले उसके बच्चे की प्रशंसा करते हैं।

“तो...”

हम दोनों में जैसे एक खेल चल रहा था जिसमें ‘तो’ कहकर गेंद एक तरफ़ से दूसरी तरफ़ फेंक दी जाती थी। दूसरा कुछ देर उधर से इधर की बातें करता था और फिर ‘तो’ के साथ गेंद उधर से इधर कर देता था।

“तुमने कहा था कि आज तुम कुछ गम्भीर बात करना चाहते हो।” आख़िर सुषमा ने ही उस विषय की ओर संकेत किया। मुझे खुशी हुई कि खेल का पहला दौर मेरे ही हाथ में रहा है।

“यह हल्का-हल्का संगीत कितना अच्छा लग रहा है!” मैंने अपनी जीत का मज़ा लेते हुए कहा, “दिल्ली में यह अपनी तरह की एक ही जगह है। मन होता है कि ऐसे और भी कई रेस्तराँ यहाँ हों।”

“यह तो है ही,” वह अपने में कुछ सिमट गयी। कुछ देर हम जैसे संगीत सुनने के लिए चुप रहे। उसके सफ़ेद कोट का आगे को उभरा हुआ भाग जल्दी-जल्दी हिल रहा था। उसकी साँस कुछ तेज़-तेज़ चल रही थी। जब रिकॉर्ड बदल गया, तो उसने कहा, “मैं भी एक बात तुम्हें बताना चाहती हूँ, मगर अभी नहीं बताऊँगी। तुम पहले अपनी बात कर लो, बाद में बताऊँगी।”

“नहीं, पहले तुम अपनी बात बताओ।”

“नहीं, पहले तुम बात कर लो।”

“मैं तो सिर्फ़ तुमसे मिलने का बहाना चाहता था। बात कुछ भी नहीं थी।”

“पहले तो मुझसे मिलने के लिए जैसे तुम बहाने की तलाश करते हो!”

वह मुसकरायी, तो उसका चेहरा थोड़ा लाल हो गया जिससे वह और भी सुन्दर लगने लगी। जाने उसकी कॉफ़ी में चीनी ठीक से नहीं मिली थी, या वैसे ही वह अपनी कॉफ़ी को चम्मच से हिलाने लगी। उसकी पतली-सी उँगली में रूबी की अँगूठी चमक रही थी। मैंने हाथ बढ़ाकर उस उँगली को हल्के से छू दिया और कहा, “तुम्हारी यह अँगूठी बहुत सुन्दर है!”

“शुक्रिया!” वह बोली, “वैसे कोई खास अच्छी तो नहीं है।”

“मुझे बहुत अच्छी लग रही है।”

“तो तुम्हें उतार दूँ?”

“मुझे पूरी आ जाएगी?”

“तुम्हें नहीं तो तुम्हारी पत्नी को पूरी आ जाएगी।” कहते हुए उसने अँगूठी उतार दी और अपनी हथेली पर रखकर मेरी तरफ़ बढ़ा दी। मैं पल-भर उसके हाथ को अपने हाथ में लिये रहा और उसकी आँखों में देखता रहता। “मेरी कोई पत्नी होगी, तभी तो उसे पूरी आएगी,” मैंने कहा।

“तुम रख लो,” वह बोली, “जब होगी, तब उसे पहना देना।”

“और तब तक?”

“तब तक इसे अपने सन्दूक में रख छोडऩा।”

“इतनी कीमती चीज़ मेरे सन्दूक में रहेगी, तो मेरे लिए रात को सोना मुश्किल हो जाएगा।” मैंने कहा और अँगूठी उसकी हथेली से उठाकर उसकी उँगली में पहना दी। “और सन्दूक की जगह यह यहीं ज़्यादा अच्छी लगती है।” अँगूठी पहनाते हुए मैंने महसूस किया कि उसकी उँगलियों का दबाव मेरी उँगलियों पर कुछ बढ़ गया है। अँगूठी पहना चुकने के बाद भी पल-भर हमारी उँगलियाँ आपस में उलझी रहीं। सुषमा जानती थी और मैं जानता था कि वही क्षण शायद हमारे लिए निर्णय का क्षण है।

“तुम्हारा ब्याह होगा, तो मैं यह अँगूठी अपनी तरफ़ से तुम्हारी पत्नी को उपहार में दे दूँगी।” वह बोली।

“और अगर मैं ब्याह से पहले ही यह उसे देना चाहूँ...?”

“तो तुम मुझसे माँग लेना।”

“और अगर मैं चाहूँ कि तुम्हीं इस अँगूठी को पहने रहो...?”

उसके सफ़ेद कोट का उतार-चढ़ाव पहले से भी तेज़ हो गया था। उसने कॉफ़ी की प्याली उठायी और ज़रा ऊपर तक ले जाकर फिर नीचे रख दी। उसकी उँगलियाँ जैसे इतनी अशक्त हो गयी थीं कि कॉफ़ी की प्याली का भार भी नहीं सँभाल सकती थीं। उसके चेहरे पर लालिमा की तहें गहरी होती जा रही थीं, जैसे साफ़ पानी में बार-बार एक रंग छिटक जाता हो और इससे पहले कि वह घुलकर विलीन हो जाए, उसमें और रंग आ मिलता हो। रंग के उस आक्रमण से थककर उसने पीछे टेक लगा ली। कुछ क्षणों के लिए वह प्रसिद्ध पत्रकार सुषमा श्रीवास्तव की जगह एक बहुत साधारण लडक़ी हो गयी। जाने सचमुच ऐसा था, या अँधेरे में मेरी कल्पना को ऐसा लग रहा था!

“मेरा ख़याल है अब हमें गम्भीर होकर बातें करनी चाहिए।” आखिर उसने अपनी थकान से संघर्ष करते हुए कहा।

“तुम्हें यह क्योंकर लगा कि अब तक हम गम्भीर होकर बातें नहीं कर रहे थे?”

मैं फिर मुसकराया। उसने भी मुसकराने की चेष्टा की, मगर अपनी थकान में ठीक से मुसकरा नहीं सकी।

“तुम आज बिल्कुल दूसरी तरह के मूड में हो।” उसने कहा।

“किस तरह के मूड में?”

“बिल्कुल और ही तरह के मूड में। मैं सोचती थी कि जाने ऐसी कौन-सी गम्भीर समस्या आ खड़ी हुई है जिसके बारे में तुम बात करना चाहते हो!”

मैंने अपना हाथ उसकी तरफ़ बढ़ाया, तो उसने चुपचाप अपना हाथ मेरे हाथ में दे दिया। मैं पल-भर उसकी उँगलियों को सहलाता रहा। फिर मैंने कहा, “क्या हम सचमुच एक गम्भीर समस्या के बारे में ही बातचीत नहीं कर रहे हैं?”

“तुम तो शरारत करते हो।” वह बोली।

“इसमें शरारत क्या है?”

“यह शरारत नहीं तो और क्या है?” कहते हुए उसने अपना हाथ छुड़ा लिया।

“तो तुम बताओ इस विषय में गम्भीर बात और किस तरह से की जाती है?”

“मुझे अभी विषय का ही नहीं पता, तो मैं तुम्हें यह कैसे बताऊँ?”

“तुम सच कहती हो कि तुम नहीं जानतीं कि हम किस विषय में बात कर रहे हैं?”

वह थोड़ा मुसकरायी और एक हाथ को दूसरे हाथ से सँभालती हुई थोड़ा आगे की तरफ़ झुक गयी।

“तुम यह गम्भीर होकर कह रहे हो?”

“बिल्कुल गम्भीर होकर कह रहा हूँ।”

“जितना तुम मुझे जानते हो, उसके बाद तुम्हारे मन में कहीं कोई शंका तो नहीं है?”

“मेरे मन में कोई शंका नहीं है। तुम मुझे अपने मन की बात बताओ।”

“मेरे मन की बात क्या तुम पहले से ही नहीं जानते?”

“फिर भी क्या कुछ बातें ऐसी नहीं हैं जो हमें और विस्तार से जान लेनी चाहिए?”

“जैसे?”

“जैसे कि हम लोग इसके बाद अपनी ज़िन्दगी को कैसी रूपरेखा बनाकर रहेंगे, कहाँ रहेंगे, किस तरह रहेंगे...?”

“हाँ-हाँ। इसी बारे में तो मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती थी। मैने समझा...तुम दूसरी बात के बारे में कह रहे हो।”

“दूसरी कौन-सी बात के बारे में?”

“एक-दूसरे के विषय में और विस्तार से जानने के बारे में।”

“मैं तुमसे एक बात पूछूँ?”

“पूछो।”

“तुम यह निश्चय हारकर एक समझौता करने के रूप में तो नहीं कर रहीं?”

वह पल-भर कुछ सोचती रही। जैसे मेरे शब्दों की तह में जाना चाहती हो। फिर बोली, “ऐसा होता, तो मैं तुमसे साफ़ कह देती। यूँ तो किसी आदमी को पूरी तरह उसके साथ रहकर भी नहीं जाना जाता...।”

“मगर क्या...?”

“मगर मैं इतना कह सकती हूँ कि जितनी बार मैं तुमसे मिली हूँ, मुझे लगा है कि तुम दूसरे लोगों से काफ़ी अलग हो और जिस तरह विश्वास और भरोसे के साथ मैं तुमसे बात कर सकती हूँ, उस तरह और किसी से नहीं कर सकती। आज तो खास तौर पर मुझे लग रहा था कि...।”

“क्या लग रहा था?”

“लग रहा था जैसे मैं अपने सबसे घनिष्ठ मित्र से बात कर रही हूँ।”

संगीत की एक लहर उधर की चमकती हुई मेज़ों के पास से भटकती हुई हमारे आसपास के अँधेरे में से होकर गुज़र गयी। उसके बाद कई एक लहरें साथ-साथ चली आयीं, जैसे कि कुछ देर से वे दूर ठिठकी हुई थीं, एक जगह स्तब्ध होकर हमें देख रही थीं और अब उन्होंने अपने आगे का बाँध तोड़ दिया था और तेज़ी से हमें चारों ओर से घेर लेने के लिए बढ़ आयी थीं। मुझे महसूस होने लगा कि उन लहरों में एक उन्माद है जो मेरे अन्दर भी प्रतिध्वनित हो रहा है। मगर उस प्रतिध्वनि में भी मेरे अन्दर की एक ध्वनि डूब नहीं पायी थी—बहुत गहरे से ऊपर को उठती हुई ध्वनि जो कि एक घायल होकर गिरे हुए पक्षी की तड़प की तरह थी—उस तड़प की तरह जो भूनकर और सजाकर प्लेट में रख दिये जाने पर भी उसके अन्दर से मिट नहीं पाती और छुरी से कटते हुए हर रेशे के अन्दर से बोल उठना चाहती है। वह तड़प किस चीज़ की थी? एक पुरानी कुचली हुई भावना की या किसी और चीज़ की?

मगर संगीत की लहरों के वेग में वह तड़प धीरे-धीरे डूबती जा रही थी। मैं उन लहरों में इस तरह खो रहा था कि उनकी लय उस समय मेरे विचारों की भी लय हो गयी थी। वह लय ही मेरे लिए सच थी और वह तड़प—वह एक झूठ था जो मेरे अन्दर से मुझे छलना चाहता था। मगर मैं इतना असावधान, इतना एडोलेसेंट नहीं था कि उसे अपने पर छा जाने देता। मेरा विवेक, मेरा तर्क, मेरा इतने वर्षों का अनुभव और उन सबसे ऊपर सुषमा का सहज व्यवहार, बहुत कुछ था जो मुझे उस अनुभव से बचाये रख सकता था। उस तरह के अनुभव में अपने को खो देने की किशोर स्थिति से मैं बहुत आगे आ चुका था। मैं अब उतना कच्चा नहीं था जितना दस वर्ष पहले था। मैं जानता था कि मैं जीवन में अबाध सुख की कामना नहीं कर सकता। मैं सुख को सुख के और दुख को दुख के रूप में पहचानता अवश्य था, उन दोनों से पैदा होनेवाले दर्द को भी जानता था, मगर सुख और दुख का दर्द अब कभी मेरे मन को उसकी सम्पूर्णता में नहीं छा सकता था। सुख और दु:ख के हर अनुभव में मेरे अन्दर का वयस्क पत्रकार सदा मुझे सचेत रखता था और जब भी मेरा मन भटकने लगता, तो मुझे बाँह से पकडक़र ठीक सडक़ पर ले आता था।

“तुम सच-सच बताओ तुम्हें कैसा लग रहा है?” उसने पूछा।

“मुझे?” मैंने वयस्क भाव से हँसकर कहा, “मुझे जैसा लग रहा है, वह मैं शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता।”

इससे उसकी आँखों में एक ऐसा भाव उमड़ आया कि कई पल मैं सिर्फ़ उसकी तरफ़ देखता रहा। उसके कोट का उतार-चढ़ाव पहले से कुछ हल्का पड़ गया था। उसने एक बार अपने खुश्क हुए होंठों पर ज़बान फेरी और एकटक मेरी तरफ़ देखते हुए कॉफ़ी का प्याला उठाकर मुँह से लगा लिया।

“तो?” कुछ देर इधर-उधर भटककर हम फिर उसी ‘तो’ वाले कोर्ट में पहुँच गये।

“मेरा ख़याल है अब यहाँ से चला जाए।” वह बोली।

“अब कहाँ चलने का इरादा है?”

“यहाँ से मेरे यहाँ चलो। मुझे तुमसे जो बात कहनी है, वह वहीं चलकर बताऊँगी। तुम्हें अपना कमरा भी दिखा दूँगी। आज तक तुमने मेरा कमरा तो देखा ही नहीं। और बात वहीं बैठकर करेंगे। तुम्हें कहीं जाने की जल्दी तो नहीं है?”

“नहीं, मुझे क्या जल्दी होगी? मगर तुम पहले कहतीं, तो कॉफ़ी वहीं चलकर पीते।”

“अब भी तो पी सकते हैं। मेरे पास अपना पर्क्युलेटर है।”

“पर्क्युलेटर से ज़्यादा बड़ी बात यह है कि तुम अपने हाथ से बनाओगी।”

इस पर वह खुलकर हँस दी। उसके दाँत बहुत छोटे-छोटे और सफ़ेद थे, खूब तीखे और चिकने, जैसे सान पर तेज़ किये गये हों। “कितनी पुरानी बातें हैं,” वह बोली, “फिर भी कितनी अच्छी लगती हैं! वैसे सभी पुरुष इस तरह की बातें कहते हैं।”

“यह तुमने कैसे सोच लिया कि मैं सभी पुरुषों में से नहीं हूँ?”

“लगते तो नहीं हो।”

“सच?”

वह फिर एक बार हँस दी। मैंने बैरे से बिल लाने के लिए कह दिया।

कॉन्सीक्यूशन-हाउस में पहली मंज़िल पर उसका कमरा था। वैसे बड़े कमरे के साथ एक छोटा कमरा भी था। हर चीज़ बहुत साफ़, उजली और करीने से रखी हुई थी।

“तुम बहुत ढंग से रहती हो।” मैंने उससे कहा, “कभी मेरा कमरा देखो, तो तुम्हें लगेगा कि वह कमरा नहीं, एक गोदाम है।”

“ऐसा कैसे हो सकता है?” वह बोली, “तुम यूँ ही मुझे बना रहे हो।”

“मैं बना नहीं रहा, सच कह रहा हूँ।” मैंने कहा, “तुम कभी चलकर देखो, तो खुद ही कहोगी।”

“मैं यह बात मान ही नहीं सकती।”

“तुम नहीं मानना चाहो, तो मैं ज़बरदस्ती तो नहीं मनवा सकता, मगर असलियत वही है जो मैं तुमसे कह रहा हूँ।”

“अब यूँ ही बात मत किये जाओ। तुम्हारे जैसा कल्चर्ड आदमी अपने कमरे को गोदाम बनाकर रहता होगा!”

“हो सकता है मैं उतना कल्चर्ड नहीं हूँ जितना तुम समझती हो।”

“अच्छा ठीक है, मैं मान लेती हूँ। आज तो तुम जो कुछ भी कहोगे, मैं सब मान लूँगी।”

मैंने सोफ़े पर बैठकर अपनी टाँगें सामने की तिपाई पर फैला दीं। “तुम्हें एतराज तो नहीं है?” मैंने मुसकराकर पूछा।

“मैं जानती हूँ तुम यह सब क्यों कर रहे हो।” वह कोट उतारती हुई बोली, “मगर मुझे तुम्हारी किसी बात पर एतराज नहीं है।”

“वैसे तुम्हें यह अच्छा नहीं लगता न?”

“तुम्हें अच्छा लगता है?”

मैंने अपनी टाँगें समेट लीं। कोट उतार देने पर उसके शरीर का उभार उतना सुडौल नहीं रहा जितना कोट पहने हुए लगता था। शायद उसका ब्लाउज़ एक साइज़ ढीला था। मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा, तो वहाँ भी हल्की-हल्की लकीरें खिंच आयी थीं। शायद इसलिए कि वह पैदल वहाँ तक आने से थक गयी थी, या शायद इसलिए कि उसे मेरे व्यवहार से कुछ निराशा हुई थी। एक कारण यह भी हो सकता था कि घर के वातावरण में आकर हर चेहरा अपना ऊपरी लिबास उतारकर अपने को वैसे ही ढीला छोड़ देता है। मगर सिर्फ़ कोट उतार देने से किसी के आकार-प्रकार में इतना फ़र्क़ पड़ सकता है, यह बात उस समय मुझे कुछ विचित्र-सी लगी।

“मैं कॉफ़ी रख दूँ, अभी आती हूँ।” कहकर वह पीछे के छोटे कमरे में चली गयी। जब वह लौटकर आयी, तो उसने नाइट सूट के साथ नीला धारीदार ड्रेसिंग गाउन पहन रखा था और बालों की पिनें निकालकर उन्हें बहुत ढीले-ढाले ढंग से लपेट लिया था। ड्रेसिंग गाउन में उसके शरीर की सब गोलाइयाँ छिप गयी थीं और ढीले बालों से उसका चेहरा एक सियामी गुडिय़ा के चेहरे जैसा लग रहा था।

“मुझे कुछ देर लग गयी।” उसने आकर कहा, “कॉफ़ी अभी दो-चार मिनट में हुई जाती है। मेरा ख़याल है मैं कॉफ़ी ले आऊँ, तो एक ही बार आकर बैठूँ।”

जब तक वह कॉफ़ी लेकर आयी, तब तक मैं उसके कमरे की साज-सजावट को देखता रहा। एक तरफ़ ताँबे का हंसों का जोड़ा रखा था। दूसरी तरफ़ प्लास्टर ऑफ़ पैरिस की स्याह मूर्ति थी—दो अस्पष्ट आकृतियों के सम्मिलन का छायाभास देती हुई। दीवार पर लगे चित्रों में कहीं दो पेड़ थे और कहीं दो जिराफ़। बिस्तर के पास तिपाई पर डचेस ऑफ़ विंडसर की आत्मकथा रखी थी ‘द हार्ट हैज़ इट्स रीज़न्स’।

“तुम आजकल डचेस की आत्मकथा पढ़ रही हो?” उसने कॉफ़ी प्यालों में डाल दी, तो मैंने पूछा।

“हाँ,” वह बोली, “मैं पहले भी एक बार पढ़ चुकी हूँ। मुझे यह पुस्तक बहुत अच्छी लगती है।”

“तुम जब कॉफ़ी बना रही थीं, तो जानती हो मैं क्या देख रहा था?”

“क्या देख रहे थे?”

“देख रहा था कि तुमने अपने कमरे की सजावट के लिए जितनी चीज़ें चुनी हैं, उनमें सब तरह के जोड़े इकट्ठे कर रखे हैं। पेड़, पशु, पक्षी और इन्सान, सबके जोड़े यहाँ हैं।”

उसने एक बार आश्चर्य के साथ कमरे की सब चीज़ों पर नज़र दौड़ायी और हँसकर बोली, “मैंने इस नज़र से इन चीज़ों को कभी नहीं देखा।”

“और मैं हैरान हो रहा था कि फिर भी तुमने आज तक अपने लिए इस तरह की अकेली ज़िन्दगी क्यों चुन रखी है।”

“मैंने यह ज़िन्दगी चुन रखी है?” उसके स्वर में कुछ कटुता आ गयी जिससे उसके चेहरे की लकीरें और स्पष्ट हो उठीं, “मैं कब से इस ज़िन्दगी से तंग आ चुकी हूँ।” उसने अपने सिर को झटक लिया जिससे उसका ढीला जूड़ा खुल गया। उसने अपने सारे बालों को दाएँ कन्धे पर ले लिया।

“मगर तुम चाहतीं, तो तुम बहुत पहले ही इस ज़िन्दगी को नहीं बदल सकती थीं?”

“पहले तो खैर मैं इस तरफ़ ध्यान ही नहीं देती थी।” वह बोली, “मगर एक-डेढ़ साल से जब से मैंने इस विषय में सोचना शुरू किया है, तब से मुझे लगता रहा है कि...।” वह सहसा रुककर बहुत गम्भीर दृष्टि से मेरी तरफ़ देखने लगी।

“हाँ-हाँ...।”

“मुझे लगता रहा है कि अपने आसपास जितने भी पुरुषों को मैं जानती हूँ, वे सब के सब...।”

“वे सब-के-सब क्या हैं? दरिन्दे?”

“यह तो बहुत कोमल शब्द हैं।” वह बोली, “दरिन्दों में तो फिर भी एक-दूसरे के लिए कुछ भावना होती होगी।” उसकी आँखें उस समय एक आईने की तरह हो गयी थीं जिसमें मैं अपना चेहरा देखने का प्रयत्न कर रहा था कि मैं उसे क्या नज़र आ रहा हूँ। क्या वह आँखों ही आँखों से मेरे अन्दर भी उस वनमानुस को पहचानने का प्रयत्न कर रही थी जिसके बारे में वह मुँह से शिकायत कर रही थी।

“अगर तुम्हें यही लगता रहा है, तो क्या अब तुमने इस चीज़ को स्वीकार कर लिया है या...?”

“स्वीकार कर सकती, तो मेरे मन में इतनी कड़वाहट न रहती।” वह बोली।

“मगर मुझे अपने मन में कहीं यह विश्वास भी रहा है कि यही सचाई नहीं है।”

“तो आज तुम क्या सोचती हो?”

वह हँस दी, “तुम क्या मुझसे अपनी तारीफ़ सुनना चाहते हो?” गरम कॉफ़ी ने उसके होंठों से लिपस्टिक के रंग को काफ़ी हद तक हटा दिया था जिससे उन पर एक अस्वाभाविक-सा रंग उठ आया था।

“न जाने पुरुषों के हृदय में स्त्रियों को लेकर इतनी कड़वाहट क्यों नहीं होती?” मैंने कहा।

“अभी उतना नहीं जानती...” मैंने उसके लिए वाक्य पूरा कर दिया।

“तुम अभी यहाँ आये नहीं कि आते ही इस तरह की बातें करने लगे?” वह सहसा उठती हुई बोली, “मैं आज के दिन तुमसे कोई ऐसी बात नहीं सुनना चाहती जिससे मेरा मन उदास हो। मैं चाहती हूँ कि हम सचमुच गम्भीरतापूर्वक कुछ बातें कर लें।”

“तुम मुझे क्या बताना चाहती थीं?”

“मैं अभी तुम्हें बताती हूँ। यह रोशनी तुम्हारी आँखों को चुभती तो नहीं है?”

“नहीं तो...।”

“मगर मेरी आँखों को चुभती है। तुम्हें बुरा न लगे, तो मैं हल्की रोशनी जला दूँ?”

“हाँ-हाँ, क्यों नहीं?”

उसने बीच की रोशनी बुझाकर कोने की तरफ़ का ज़ीरो बल्ब जला दिया। कमरे के वातावरण में एक रूमानी अलसता फैल गयी। वह आकर कुरसी पर बैठी, तो मुझे लगने लगा जैसे छत और दीवारें भी ज़रा पास-पास को सिमट आयी हों। मुझे याद हो आया कि हरबंस ने मेरे साथ अपने विषय में बातें की थीं, तो उसने भी अपने चारों तरफ़ इसी तरह झुटपुटा-सा कर लिया था। क्या वास्तव में अँधेरा जिस तरह की आत्मीयता को जन्म देता है, वह उजाले में नहीं बन सकती? अँधेरे में शायद इन्सान दबे पैरों अपने अन्दर उतरता जाता है, उतरता जाता है; जैसे वह किसी ग़ैर के घर में चोरी के लिए दाख़िल हुआ हो और अपने अन्दर से सब कुछ बाहर निकाल लाता है। और उजाला हो, तो वह उस चोर गली की तरफ़ मुँह करते भी कतरा जाता है।

कमरे की वह रूमानी अलसता सुषमा के चेहरे के गम्भीर भाव के लिए बहुत उपयुक्त पृष्ठभूमि की तरह लग रही थी। वह लेटने की तरह कुरसी पर नीचे को सरक गयी और उसकी बाँहें कुरसी की बाँहों पर इस तरह ढीली हो गयीं जैसे शरीर के साथ उनका कोई सम्बन्ध ही न रहा हो।

“तुम नहीं जानते मधुसूदन कि मैं अब तक कितनी थक चुकी हूँ।” वह बोली। “मैं पहले इस बात का बहुत पक्षपात करती रही हूँ कि एक लडक़ी को बिल्कुल स्वतन्त्र जीवन बिताना चाहिए। किसी भी व्यक्ति के साथ बँधकर उसके शासन में रहना मुझे बहुत गलत लगता था। और तुम जानते हो कि हर पुरुष किसी न किसी रूप में स्त्री पर शासन करना चाहता है। मैं सोचती थी कि मैं एक अपवाद बन सकती हूँ। पुरुषों के शासन से बचकर उन्हें अपने शासन में रख सकती हूँ। मैंने इसका प्रयोग करना चाहा, तो वह प्रयोग मुझे काफ़ी हद तक सफल भी लगा। मुझे लगा कि मैं जिस किसी को चाहूँ, अपने इशारे पर नचा सकती हूँ। मैंने कुँआरी रहकर ज़िन्दगी काटने वाली लड़कियों के रूखे चेहरे देखे थे और मुझे लगता था कि उन्हें वास्तव में जीना नहीं आता। मगर बहुत जल्द मुझे लगने लगा कि मैं जिसे अपना शासन समझती हूँ, वह भी शासन नहीं, एक माँग है, और वह माँग सदा मुझी को हीन करती है जिससे दूसरा अपने को जाने क्या समझने लगता है! क्योंकि मुझे यह स्थिति स्वीकार्य नहीं थी, इसीलिए मैं अपनी ऊँचाई बनाये रखने के लिए सदा अपनी माँग से लड़ती रही हूँ। मैं जानती हूँ कि लोग मेरे बारे में कई तरह की बातें करते हैं, मगर सच यह है कि मैंने आज तक अपने को किसी पुरुष के सामने हीन नहीं होने दिया; किसी को अपनी कमजोरी का फ़ायदा नहीं उठाने दिया। मैं सोचती रही हूँ कि एक दिन मैं या तो उस माँग से ऊपर उठ सकूँगी, या कोई ऐसा उपाय ढूँढ़ लूँगी जिससे मैं अपने को हीन किये बिना उसे पूरी कर सकूँगी। मगर सच बात यह है कि दोनों में से कोई भी बात नहीं हुई और मैं आज तक अपने से लड़ती हुई जहाँ की तहाँ खड़ी हूँ। मैं आर्थिक रूप से किसी पर निर्भर नहीं रहना चाहती थी, इसलिए मैंने आर्थिक स्वतन्त्रता प्राप्त की; अकेली रहना और खुद अपने लिए कमाना सीखा। पुरुषों में स्त्रियों के प्रति जो संरक्षणात्मक भाव रहता है, वह मुझे बरदाश्त नहीं था, इसलिए मैंने ऐसा काम चुना जिसमें मैं अपने को किसी भी पुरुष के बराबर सिद्ध कर सकूँ। मैंने एक पत्रकार के रूप में किसी पुरुष से कम काम नहीं किया और कम अनुभव प्राप्त नहीं किया। मगर फिर भी इधर काफ़ी अरसे से मुझे लग रहा है कि मेरी सफलता में ही कोई चीज़ ऐसी है जो मुझे तोड़ रही है। मैंने अपने को टूटने से बचाने के लिए भी काफ़ी संघर्ष किया है। मगर अब ज़्यादा संघर्ष भी मेरे बस का नहीं रहा। मुझे किसी-किसी समय लगता है कि मैं अन्दर से चाहती हूँ कि मैं टूट जाऊँ। यह परिस्थितियों के कारण है या अपने अन्दर की ही किसी कमजोरी के कारण, मैं नहीं जानती। मैं बस इतना जानती हूँ कि मैं अपने वर्तमान से बाहर आना चाहती हूँ। इसलिए मैं सोच रही थी कि दो-तीन साल के लिए विदेश चली जाऊँ, तो शायद उससे मेरे अन्दर की समस्या कुछ हल हो जाए। मगर उसमें भी मुझे एक डर लगता था। और उस डर से बचने के लिए ही मैं चाहती थी कि अगर जाना हो, तो अपने को यहीं से सुलझाकर जाऊँ। नहीं तो यह न हो कि...।”

उसके आत्मविश्वास की तह में इतनी थकान छिपी होगी, इसकी मैंने कल्पना भी नहीं की थी। “क्या न हो?” मैंने अपने प्याले को सॉसर में घुमाते हुए पूछा।

“यही कि वहाँ जाकर भ्रम का आखिरी शीशा भी टूट जाए और मुझे महसूस हो कि मैं एक सुनसान जगह से बचने के लिए दूसरी उससे भी सुनसान जगह पर पहुँच गयी हूँ। मैं अब रिस्क नहीं लेना चाहती। मुझे कई बार ज़िन्दगी इतनी डरावनी लगती है कि मैं उससे बचकर एक छोटे-से कोने में दुबक रहना चाहती हूँ। एक पत्रकार के रूप में तुमने भी महसूस किया होगा कि ज़िन्दगी का सारा ढाँचा—युद्ध, राजनीति और बड़े-बड़े भयानक अस्त्र—यह सब कुछ कितना भीषण और कितना अमानुषिक है! मैं इस सबको बस रोज़ी का साधन मानना चाहती हूँ और अपने लिए एक छोटा-सा घर बनाकर रहना चाहती हूँ जहाँ से मुझे ज़िन्दगी की दीवारें इस तरह हिलती नज़र न आयें। मैं अपने आसपास छोटे-छोटे सुख के साधन जुटाकर और सब कुछ भूल जाना चाहती हूँ। मेरे अन्दर बहुत महत्त्वाकांक्षा रही है, मगर अब मुझे उस महत्त्वाकांक्षा से भी डर लगता है। मैं उन्नति करना चाहती हूँ, उतनी ही जितनी कि कोई भी कर सकता है, मगर उससे पहले मैं अपने लिए सुख चाहती हूँ, सुख जो एक छोटे-से घर मे ही मिल सकता है, जहाँ मैं एक छोटा-सा बाग लगा सकूँ और एक-एक पौधे को सींचकर बड़ा कर सकूँ, उसकी हर नयी पत्ती को देखकर खुश हो सकूँ और किसी से कह सकूँ कि देखो आज उस पौधे में एक नयी पत्ती निकली है। मैं कभी इस तरह की भावुकता का मज़ाक उड़ाया करती थी, मगर अब मुझे लगता है कि मैं अपने अन्दर वह सभी कुछ चाहती हूँ जिसका कि मैं मज़ाक उड़ाती थी।”

वह बोलते-बोलते थककर चुप हो गयी। उसकी बाँहें उसी तरह निर्जीव-सी पड़ी थीं। बल्कि उसका सारा शरीर ही निर्जीव-सा लग रहा था। उसकी आँखों में एक कातरता थी—उस कबूतर की-सी कातरता जो घायल होकर पड़ा हो और अपनी तरफ़ बढ़ते हुए हाथों को देखकर सोच रहा हो कि वे उसे बचानेवाले हाथ हैं या झिंझोड़ देनेवाले हाथ हैं।

“तुम इस समय सचमुच बहुत थकी हुई लग रही हो,” मैंने कहा।

“मैं लगभग एक-डेढ़ साल से इसी तरह थकी हुई महसूस कर रही हूँ।” वह अपने को थोड़ा सँभालने की चेष्टा करती हुई बोली, “ज्यों-ज्यों दिन बीतते जाते हैं, मुझे लगता है कि मैं अपनी बेबसी में एक डरावनी घाटी में नीचे-नीचे उतरती जा रही हूँ। मैं जितना चाहती हूँ कि उस रास्ते से लौट चलूँ, उतना ही अपने को घाटी के नज़दीक पहुँचते हुए पाती हूँ।”

“इस तरह की स्थिति में अक्सर लोग अपने मन को बहलाने के लिए धर्म और ईश्वर की बात करने लगते हैं। नहीं?”

“मैं इन सब ढकोसलों से नफ़रत करती हूँ,” कहते हुए वह कुछ उत्तेजित हो उठी और उत्तेजना से उसकी निर्जीवता बहुत कुछ कम हो गयी। “तुम इनमें विश्वास करते हो?”

“मैं इन चीज़ों के बारे में कभी सोचता ही नहीं, विश्वास करने की तो बात ही अलग है।” मैंने कहा।

“क्या तुम समझते हो कि जीवन में कोई ऐसा भी मूल्य है जिस पर आदमी अपने मन को स्थिर रख सके?” वह उसी कटुता के साथ बोली, “कोई भी ऐसी चीज़ है जिसका दामन पकडक़र आदमी खड़ा रह सके? मुझे लगता है कि जितने लोग इस तरह की बातें करते हैं वे या तो अपने को धोखा देना चाहते हैं, या दूसरों को। इस तरह उन्हें ज़िन्दगी बिताने के लिए एक अच्छा स्वाँग भी मिल जाता है।”

“तो तुम्हें लगता है कि जीवन में किसी तरह का कोई मूल्य है ही नहीं?”

“बिल्कुल नहीं। अगर कोई मूल्य है तो इतना ही कि हर इन्सान अपने लिए थोड़ा-बहुत सुख जुटाकर किसी तरह जी लेना चाहता है,जैसे मैं चाहती हूँ, तुम चाहते हो और हमारे आसपास सब लोग चाहते हैं।”

“मगर हर इन्सान के अन्दर स्नेह, सहानुभूति और सौन्दर्य की जो एक भूख होती है...।”

“ये सब कोरे शब्द हैं जिनका कभी अर्थ रहा होगा, आज कोई अर्थ नहीं है।”

“मगर हर इन्सान दूसरे पर निर्भर तो रहना चाहता ही है...।”

“हाँ, मगर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ और सुख के लिए ही। अन्दर से हर इन्सान बहुत छोटा और बहुत स्वार्थी है। और आज ही नहीं, सदा से ऐसा रहा है। मुझे किसी के मुँह से ये खोखले शब्द सुनना अच्छा नहीं लगता। तुम्हारे मुँह से तो बिल्कुल ही नहीं।”

“तो इसका तो यह मतलब है कि जीवन में तुम किसी तरह की आस्था का कोई स्थान ही नहीं मानतीं?”

“वह मैं नहीं जानती।” कहते हुए उसने पल-भर के लिए आँखें मूँद लीं, “मैं कितना चाहती रही हूँ कि जीवन में मुझे किसी तरह की आस्था मिल जाये, मगर उसकी जगह जो कुछ मिल रहा है, वे हैं कोरे शब्द। सदियों से लोग एक-दूसरे को छलने के लिए इन झूठे शब्दों का प्रयोग करते आये हैं और अब भी करते जा रहे हैं। मैं पहले अपने लिए इनमें एक शब्द ढूँढना चाहती थी। मगर अब मैं इन सब शब्दों से अपना पिंड छुड़ाना चाहती हूँ। ये शब्द केवल हमारे सुख में बाधा ही डाल सकते हैं। मुझे इस तरह के सब शब्दों से नफ़रत है। मैं अपने लिए अब एक छोटा-सा घर चाहती हूँ, बस!”

कुछ देर हम दोनों चुप रहे। कमरे की छत और दीवारें धीरे-धीरे और पास घिर आयी थीं। अँधेरा कन्धों पर उठाये हुए हल्के बोझ की तरह लग रहा था। सुषमा शायद मेरे चेहरे में खोज रही थी कि जो कुछ वह चाहती है, क्या वह उसे इस सामने बैठे हुए व्यक्ति से मिल सकता है?

“तुम सहसा उदास क्यों हो गये?” उसने अपनी कुहनियों पर झुककर पूछा।

“नहीं, मैं उदास नहीं हूँ।” मैंने अपने को झटककर थोड़ा सचेत कर लिया।

“मैं तुम्हें अपने साथ लायी थी कि तुम्हें एक खुशी की बात बताऊँगी।” वह बोली, “और उसकी जगह मैंने अपनी बातों से तुम्हें उदास कर दिया है। मगर यही तो मैं समझ नहीं पाती कि जो समय हमें सुख की खोज में बिताना चाहिए, उसे हम दुख को टटोलने में क्यों गँवा देते हैं? तुम हाथ देखना जानते हो?” कहते हुए उसने अपनी हथेली मेरे सामने फैला दी।

“नहीं,” मैंने उसका हाथ अपने हाथ में ले लिया। फिर पूछा, “तुम हस्त-रेखाओं में विश्वास करती हो?”

“कभी करती थी।” उसने कहा, “अब किसी चीज़ में भी नहीं करती। तुम करते हो?”

“नहीं। मैं पहले भी नहीं करता था। मगर तुम विश्वास नहीं करतीं तो तुमने मुझसे पूछा क्यों था?”

“मैं अपना हाथ तुम्हारे हाथ में देने के लिए कोई बहाना चाहती थी।”

हमारे हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझ गयीं और काफ़ी देर तक उलझी रहीं। फिर हल्के से दबाव से मैंने उसे अपनी तरफ़ खींच लिया, तो वह काफी आगे तक झुक आयी। मैंने उसका हाथ छोड़ दिया और धीरे-से उसके चेहरे को अपने दोनों हाथों में ले लिया, “तुम इस समय बहुत सुन्दर लग रही हो।” मैंने कहा।

“यह इसलिए कि मैं इस समय तुम्हारे बहुत पास हूँ और तुम्हारे हाथ आसानी से मुझ तक पहुँच सकते हैं।”

इससे उसके चेहरे पर मेरे हाथों का दबाव कुछ कम हो गया और मैं थोड़ा पीछे को हट गया।

“तुम तो इतनी-सी बात से पीछे हटने लगे।” कहते हुए उसने अपने दोनों हाथ मेरे हाथों पर रखकर उन्हें अच्छी तरह अपने चेहरे के साथ दबा लिया। “तुम्हारे हाथ बहुत गरम हैं।” उसने कहा।

“तुम्हारा चेहरा ठंडा है, शायद इसलिए तुम्हें ऐसा लग रहा है।”

“शायद,” कहकर उसने मेरे हाथों को और भी दबा लिया। कुछ क्षण इसी तरह बीत जाने के बाद उसने फुसफुसाने के स्वर में कहा, “मधु!”

मेरा शरीर रोमांचित हो उठा। बचपन के बाद पहली बार किसी ने मुझे इस नाम से सम्बोधित किया था। “तुम तो बिल्कुल बच्ची-सी लग रही हो।” मैंने कहा।

“मुझे अब जीवन में इतना ही चाहिए कि किसी के सामने हमेशा इस तरह बच्ची-सी बनी रहूँ।”

मेरे होंठ आगे को झुक गये। उसकी गरम साँस मेरी साँस से टकराने लगी।

“तुम हो ही बिल्कुल बच्ची-सी।” मैंने कहा और कुछ क्षणों के लिए जीरो बल्ब की रोशनी भी आँखों से ओझल हो गयी। दीवारों ने जैसे बहुत पास आकर हमें ऊपर से ढक लिया और हम एक अँधेरे गुम्बज में एक-दूसरे के स्पर्श में खोये रहे। जब मेरे होंठ उसके होंठों से हटे, तो मुझे लगा जैसे उनकी जड़ें वहीं रह गयी हों और मैंने केवल उन्हें ऊपर से तोडक़र अलग कर लिया हो। मुझे यह भी महसूस नहीं हुआ कि इस बीच मेरे हाथ उसके नाखूनों से छिल गये हैं। एक बहुत तेज़ साँस फिर मुझे अपने में लपेट लेने के लिए बहुत पास-पास आ रही थी। मैं उस साँस के पाश में खिंचता जा रहा था। “ज़िन्दगी सचमुच कितनी अच्छी हो सकती है मधु, अगर हम...” उसने फिर फुसफुसाकर कहा और अँधेरा पहले से भी स्याह होकर घिर आया। जड़ों से उखड़े हुए फूल फिर अपनी जड़ों से जा मिले और बीच की तिपाई भी हमारे बीच से हट गयी। कबूतर के पंखों का एक नरम-नरम बोझ मेरे ऊपर लद गया और मैं उस बोझ के नीचे अपने को बिल्कुल भूलने लगा। कुछ देर लगता रहा जैसे अँधेरे की जगह हम गहरे पानी में डूबे हों और वह पानी अपनी गहराई के हल्के बोझ से हमें सहलाता हुआ ऊपर से गुज़रता जा रहा हो और पानी में तैरती हुई मछलियाँ शरीर से टकरा-टकरा जाती हों और साँसों की रस्सियाँ हाथ-पैरों को कसती जा रही हों। एक लहर गुज़रने से पहले ही दूसरी लहर उमड़ आती हो, फिर तीसरी, और पानी हमें ऊपर-ऊपर अपनी सतह की तरफ़ उठाये लिये जा रहा हो। “मधु!” पाश की तरह कसती हुई साँसें धीरे-धीरे कह रही थीं, “मैं जीवन में अब अपने छोटे-से सुख के अलावा और कुछ नहीं चाहती, कुछ नहीं, बिल्कुल कुछ नहीं...।”

“तुम अपने को इतनी बेबस क्यों समझती हो शमी?” मैंने कहा, “तुममें तो इतना आत्म-विश्वास है, इतनी सामर्थ्य है।”

“वह सब झूठ है।” वह बोली, “मैं अब यहाँ से चली जाना चाहती हूँ, बस। मगर अकेली नहीं, तुम्हें साथ लेकर। यही बात थी जो मैं तुम्हें बताना चाहती थी।”

“मगर तुम कहाँ जाने की बात कर रही हो?”

उसने देश का नाम लिया, तो मैं एकदम चौंक गया। मेरी आँखों के सामने सहसा पोलिटिकल सेक्रेटरी का चेहरा घूम गया। “मुझे तीन साल के लिए वहाँ से नौकरी का ऑफ़र मिला है।” वह बोली, “मैंने उनसे कहा था कि मैं शायद शादी करके ही यहाँ से जाना चाहूँ। उन लोगों ने मुझे प्रॉमिस किया है कि मेरे हस्बैंड के लिए भी वे वहाँ नौकरी की व्यवस्था कर देंगे...।”

एकाएक न जाने कैसे गुम्बज की दीवारें टूट गयीं, अँधेरे में उठती हुई लहरें रुक गयीं और ज़ीरो बल्ब फिर अपनी जगह पर जल उठा।

“क्या बात है, मधु?” सुषमा ने बिना ज़रा भी हिले-डुले पूछा।

“कुछ नहीं।” मैंने कहा, “मेरा सिर कुछ चकरा रहा है। मैं थोड़ा पानी पिऊँगा।”

“मैं अभी तुम्हें पानी ला देती हूँ,” कहकर वह कुछ अनमने भाव से मुझसे अलग हो गयी। कुछ ही क्षणों में कमरे की बीच की बत्ती जल उठी, तो जैसे सभी कुछ बदल गया। लहरों और मछलियों की दुनिया से मैं सहसा कॉन्सीक्यूशन हाउस के पहली मंज़िल के कमरे में पहुँच गया। वही ताँबे की मूर्तियाँ और वही दीवारों के चित्र—या अभी-अभी केवल उन चित्रों में एक की वृद्धि ही नहीं हुई थी? मगर वे चित्र जितने स्थायी थे, क्या यह चित्र भी उतना स्थायी हो सकता था?

वह पानी का गिलास ले आयी, तो मुझे उसकी आँखों से लगा कि वह मुझे एक सन्देहपूर्ण दृष्टि से देख रही है। उसका ड्रेसिंग गाउन उसके शरीर पर नहीं था; जब वह मेरे पास से उठकर गयी थी, तब भी नहीं था। वह उसने कब उतार दिया था, यह मैं सोचकर भी नहीं सोच सका। नाइट सूट और बिखरे हुए बालों से वह उस समय कनॉट प्लेस के किसी शो-केस की आकृति जैसी लग रही थी—उसका मानवीय रूप उसके अंगों की कोमलता तक ही सीमित था। उसने गिलास मुझे देकर कुरसी पर बिखरा हुआ अपना नाइट गाउन उठा लिया और बाँहें फैलाकर उसे पहनने लगी।

“क्षमा करना।” मैंने कहा, “मुझे अचानक ही एक जलन-सी महसूस होने लगी थी। न जाने क्यों? शायद बहुत ज़्यादा कॉफ़ी पीने की वजह से...!”

“अच्छा?” मगर बुझे हुए स्वर में उसके ‘अच्छा’ कहने में एक व्यंग्य भी था और अविश्वास भी।

मैंने पानी पीकर गिलास रख दिया और अपने दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझा लीं, “तुमको ज़रूर बुरा लगा है।” मैंने कहा।

“नहीं, मुझे क्यों बुरा लगता?” वह बहुत दूर से तटस्थता के साथ बोली, “यह सब बहुत ही स्वाभाविक है।”

“क्या स्वाभाविक है?”

“मेरा मतलब है कि कई बार आदमी को इस तरह की जलन या घुटन का अनुभव होने लगता है। इसमें अस्वाभाविक कुछ नहीं है।”

“मगर मैंने घुटन की बात तो नहीं कही थी।”

“हाँ, तुमने सिर्फ़ जलन की बात कही थी। मुझे अफ़सोस है मैंने अपनी तरफ़ से एक और शब्द जोड़ दिया।”

“तुम मुझसे नाराज़ हो गयी हो!” उसके चेहरे पर ऐसी जड़ता भी आ सकती है, यह भी मेरे लिए एक नया अनुभव था। उसकी इस समय की निर्जीवता कुछ समय पहले की निर्जीवता से कितनी भिन्न थी!

“नहीं, मैं नाराज़ क्यों हूँगी? वह एक क्षण की कमज़ोरी थी जो क्षण बीतने पर दूर हो गयी।”

“तुम मुझे ग़लत समझ रही हो।” मेरा मन हुआ कि उसे बता दूँ कि मेरी अनुभूति में न्यूनता नहीं आयी थी, परन्तु मुझे सहसा एक ऐसा चेहरा दिखायी दे गया था जिसने मेरे लिए उस अनुभूति का रूप बिल्कुल बदल दिया था। मेरा यह भी मन हुआ कि जिस तरह कुछ देर पहले वह मुझसे अपने बारे में बात कर रही थी, उसी तरह मैं उससे अपने बारे में बात करने लगूँ और जो-जो बातें मेरे मन में उठ रही हैं, वे सब उसे बता दूँ और कहूँ कि हमें एक छोटा-सा घर बनाकर रहना है, तो क्यों हम यहीं रहकर ऐसा नहीं कर सकते? मगर यह सब कहने के लिए मैं उसकी आँखों में जो भाव देखना चाहता था, उस भाव का वहाँ स्पर्श भी नहीं था।

“स्त्रियाँ हमेशा ही पुरुषों को ग़लत समझती हैं।” उसने कहा।

“हमेशा तो नहीं, मगर कभी-कभी बहुत ग़लत समझती हैं।”

वह चुप रहकर कुछ देर सूनी आँखों से दीवार की तरफ़ देखती रही। फिर सहसा जैसे अपने को समेटती हुई बोली, “मुझे लगता है मुझे जितनी दूर तक जाना चाहिए था, मैं उससे बहुत आगे चली गयी थी।”

“अर्थात्?” मैं जानता था कि वह क्या कह रही है, मगर मैं चाहता था कि किसी तरह हम लोगों से पहले की-सी सहजता लौट आये।

“अर्थात् कुछ नहीं। तुम्हें और पानी ला दूँ?” उसके चेहरे ने एक बहुत ही शिष्ट और अभिजात रूप ग्रहण कर लिया था।

“नहीं।”

“तो...?”

“मेरे ख़याल में उचित यह होगा कि हम फिर किसी समय मिलकर इस बारे में बात करें। इस मन:स्थिति में शायद मैं अपनी बात तुम्हें ठीक से समझा नहीं सकूँगा।”

“ठीक है।” वह बोली, “तुम्हें जब भी सुविधा हो, तुम फ़ोन कर लेना। संक्षेप में बताने की बात हो, तो चाहे फ़ोन पर ही बता देना।”

मुझे लगा कि यह मुझे जाने के लिए संकेत है। मगर न जाने क्यों मेरा मन उठने और जाने को नहीं हो रहा था। शायद मैं जाने से पहले अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहता था जो मैं नहीं कर पा रहा था। मगर संकेत इतना स्पष्ट था कि और बैठना भी ठीक नहीं लगता था।

“तुम्हें इस वक़्त आराम की ज़रूरत है।” मैंने उठते हुए कहा, “इस समय मैं और रुककर तुम्हें परेशान नहीं करूँगा। पहले ही मैंने तुम्हें काफ़ी परेशान कर दिया है।”

“क्यों?” वह उसी रूखे आभिजात्य के साथ बोली, “मेरे लिए तो यह खुशी की बात थी कि आज की शाम तुम्हारे साथ इतनी अच्छी बीत गयी। मैं तो बल्कि समझ नहीं पा रही कि तुम्हें किस तरह धन्यवाद दूँ, खाना खिलाने के लिए भी और यहाँ आने के लिए भी।”

अगर मैं अपने मन से चल सकता, तो उसकी बाँह पकडक़र उससे कहता कि सुषमा अपने को इस लबादे में लपेटकर मुझसे बात न करो; तुम्हारा वह कमजोर व्यक्तित्व तुम्हारे इस अभिजात व्यक्तित्व की अपेक्षा कहीं अधिक मानवीय और स्वाभाविक था; वह व्यक्तित्व इसकी अपेक्षा कहीं अधिक सबल और सजीव भी था; तुम क्यों नहीं अपने उसी रूप में बनी रहतीं और चलते समय मुझसे उसी तरह बात कर सकतीं? मगर ज़ीरो बल्ब की रोशनी में मैं जितने अधिकार के साथ उससे बात कर रहा था, उसका सौवाँ हिस्सा अधिकार भी उस समय मुझे उस पर नहीं लग रहा था।

“तुम्हारा मन इस समय दूसरी तरह का हो गया है।” मैंने कहा, “मैं दो-एक दिन में फिर किसी समय तुमसे बात करूँगा। तुम नीलिमा के शो में तो आओगी?”

क्षण-भर के लिए अपने आभिजात्य से बाहर निकलकर उसने होंठ बिचका दिये।

“कह नहीं सकती कि आऊँ या न आऊँ। हो सकता है कि उसे कवर करने के लिए आ भी जाऊँ।”

“तुम्हें ज़रूर आना चाहिए।” मैंने कहा, “एक तरह से उसका यह पहला ही शो है और हमें उसे हतोत्साहित नहीं करना चाहिए।”

उसका भाव ऐसा हो गया जैसे उसने अन्दर ही अन्दर एक बार हँस लिया हो।

“तो तुम भी आजकल उसकी वकालत कर रहे हो?” उसने कहा।

“क्यों? इसमें वकालत की क्या बात है?”

“मैं यह भूल ही गयी थी कि वे लोग तुम्हारे घनिष्ठ मित्र हैं।”

“मेरी उनसे मित्रता है, इसमें कोई सन्देह नहीं, मगर...।”

“अच्छा है वे लोग किसी से तो मित्रता रख सकते हैं, वरना...।” मुझे लगा कि उसे यह सब कहने में एक तरह का प्रतिशोध लेने का सुख मिल रहा है।

“वरना क्या?”

“मैं जितना उन्हें जानती हूँ उससे मेरी तो राय यही थी कि अपने अलावा उन लोगों को दुनिया में और किसी चीज़ से मतलब नहीं है।”

“तुम समझती हो कि तुम उन्हें इतना पास से जानती हो?”

“मैं उनमें से एक को ही जानती हूँ। पति को। तुमने उसके बारे में एक बार पूछा भी था। पत्नी को तो मैंने सिर्फ़ देखा ही है। मुझे तो नहीं लगता कि उसमें वह चीज़ है...।”

“क्या चीज़?”

“जो एक कलाकार में होनी चाहिए।”

“अर्थात्?”

“अर्थात् वह सुरुचि, कोमलता, भावना, अनुभूति...।”

“मगर बिना उसका प्रदर्शन देखे तुम कैसे कह सकती हो?”

“मेरी अपनी राय है। मुझे ऐसा लगता है।”

“ख़ैर, मैं इस समय इतना ही कहूँगा कि तुम उस दिन ज़रूर आओ और जो भी राय बनानी हो, उसका शो देखकर ही बनाओ। पहले से मन में पूर्वाग्रह हो, तो हम कभी किसी का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते।”

“पूर्वाग्रह दोनों तरह का हो सकता है।” वह बोली, “पक्ष में भी और विपक्ष में भी। तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारे मन में पूर्वाग्रह नहीं है?”

“इसका पता तुम्हें मेरी टिप्पणी से चल जाएगा।”

“तो ठीक है।” वह बोली, “मैं उस दिन आऊँगी।”

“उस दिन ही और बात भी करेंगे...।” मैंने उसके कन्धे को हल्के से छुआ कि शायद मेरे चलते समय वह अपना तनाव कुछ छोड़ दे, मगर उसका कन्धा ज़रा भी ढीला नहीं हुआ। मैंने अपना हाथ हटा लिया।

“तुम्हें नीचे तक पहुँचा आऊँ?” उसने पूछा।

“नहीं।” मैंने कहा, “तुम्हें कपड़े बदलने पड़ेंगे। तुम बैठो।”

“सुनो।” मैं दरवाज़े से निकलने लगा, तो उसने कहा। मैं रुक गया। क्षण-भर हम चुपचाप एक-दूसरे की तरफ़ देखते रहे।

“मैं समझती थी कि हम लोग साथ-साथ बाहर चल सकेंगे। मगर मैं तुम्हारा मन जितना समझ सकी हूँ, वह ठीक ही समझा है न?”

“देखो, तुम इस वक़्त यह बात न पूछो। उस दिन मिलेंगे, तो बात करेंगे।”

“तुम समझते हो कि बात करने को कुछ बाकी है?”

“सभी कुछ बाकी है।”

“अच्छा, गुड नाइट!”

“गुड नाइट!”

मैं कॉन्सीक्यूशन हाउस के गेट से बाहर निकला, तो मुझे अपना सिर बहुत भारी लग रहा था। यह भारीपन एक मर्ज़ था जिसका जब तब मेरे ऊपर दौरा हो जाता था। बात करते-करते, चलते-चलते, अनायास, बिना कारण यह भारीपन मुझे छा लेता था। उस स्थिति में अपने आसपास का विवेक मिट जाता था, अपने अन्दर और बाहर सब कुछ पथराया हुआ सा लगता था; सडक़, खम्भे, तारे और आकाश सब एक कब्रिस्तान की तरह हो जाते थे। मुझे हर चीज़ से वितृष्णा और विरक्ति होने लगती थी। एक-एक क़दम चलना मेरे लिए बोझ बन जाता था। मैं नहीं समझ पाता था कि यह भारीपन क्या है? क्या यह एक ऐसा रोग था जो टिकिया खाने से ठीक हो सकता था? या इस रोग का इलाज़ किसी भी तरह सम्भव नहीं था? सडक़ से कई-कई गाडिय़ाँ गुज़र रही थीं और मुझे अपने पथराये हुए मन में कई एक ख़ाके नज़र आ रहे थे—पत्थर पर बनी हुई लकीरों की तरह। गाँव का पोखर, कीचड़ में डुबकियाँ लेते हुए सूअर, अलमारी में रखी हुई तसवीरोंवाली किताब, अमृतसर का कंजरियोंवाला बाज़ार, क़स्साबपुरा की गली, पोलिटिकल सेक्रेटरी का कमरा, हरबंस के घर की दीवारें, कबूतर के पंखों का बोझ, एक दूर के देश की तरफ़ उड़ाकर ले जाता हुआ हवाई जहाज़, एक सजा हुआ छोटा-सा घर, नीले परदोंवाली गाड़ी, सुगन्धित तम्बाकू के सिगरेट, मुसकराकर बातें करते हुए लोग, टेलीप्रिंटर पर आती हुई ख़बरें, सम्पादक का चेहरा, अपने कमरे की खिडक़ी, वहाँ से दिखायी देते हुए बत्तियों के झुरमुट और...और फिर वही पोखर, वही कीचड़ से लथपथ सूअर और ताई की झिडक़ी, “तू नहीं मानेगा कीचड़ से खेले बिना, मधू! सूअर के बीच एक सूअर तू भी है...!”

सुबह अभी नींद नहीं खुली थी कि बीच की मंज़िल के किरायेदारों के लडक़े ने आकर दरवाज़ा खटखटाया। दरवाज़ा खोला, तो उसने पतंग की खपची मुँह में चबाते हुए कहा, “अंकलजी, नीचे कोई आपसे मिलने के लिए आयी है।”

“मुझसे मिलने के लिए!” मुझे आश्चर्य हुआ कि सुबह-सुबह वहाँ मुझसे कौन मिलने के लिए आ सकती है। मगर फिर सोचा कि हो सकता है नीलिमा आयी हो कि मैं चलकर एक बार उसकी प्रैक्टिस देख लूँ। एक ख़याल यह भी आया कि सम्भव है सुषमा ही दफ़्तर से मेरा पता पूछकर चली आयी हो। मैंने जल्दी-जल्दी अपने कपड़ों की सलवटें ठीक कीं, बालों में कंघी की, एक बार आईना देखा और नीचे चला गया। मगर नीचे पहुँचते ही मैं एकदम अचकचा गया। घर के सामने सडक़ के उस तरफ़ ठकुराइन और निम्मा खड़ी थीं। सडक़ के नीचे पाइप बिछाने के लिए सडक़ बीच से खोदी गयी थी। बीच की खाई को पार करने के लिए पतला फट्टा हमारे घर से थोड़ा हटकर रखा था।

“भाभी, तुम!” मैंने उन पर नज़र पड़ते ही कहा।

“हाँ भैया! तुम्हारा घर ढूँढऩे में हम लोग इतनी परेशान हुई हैं कि क्या कहूँ! अब भी मालूम नहीं था कि ठीक जगह पहुँच गयी हैं या नहीं।...ठहरो, पहले उधर से हम लोग पार कर लें।” कहते हुए उसने निम्मा का हाथ पकड़ लिया।

“चल मरी, अभी उधर से घूमकर आना पड़ेगा।”

बहुत सँभल-सँभलकर पैर रखते हुए उन लोगों ने आगे-पीछे फट्टे को पार किया। मैं उन्हें लाने के लिए कुछ क़दम आगे चला गया।

“मैंने सोचा था कि करोलबाग़ में किसी बड़े बँगले में रहते होगे।” ठकुराइन पास आकर बोली, “मुझे क्या मालूम था कि तुम इतनी ऊँची पहाड़ की चोटी पर चढक़र रहते हो! पहले डर लगे कि किसी बोतलोंवाली मोटर के नीचे ही न आ जायें। फिर आगे यह मरी नहर आ गयी। तुमने भी जगह ली तो कहाँ!”

हम लोग सेहन में आ गये, तो मैंने पूछा, “मगर तुम्हें इस जगह का पता कैसे चला! मैं तो उस दिन तुम्हें बताकर नहीं आया था।”

“यह तुम कुछ मत पूछो भैया!” ठकुराइन अपनी चादर को ठीक से सँभालती हुई बोली, “पहले कल अरविन्द भैया के दफ़्तर में जाकर पूछा, तो उन्होंने तुम्हारा पहलेवाले अख़बार का पता बता दिया। वहाँ गयी, तो एक खद्दरपोश आदमी ने बताया कि हाँ दस साल पहले तो हमारे पास ही काम करते थे, अब किसी दूसरे अख़बार में काम करते हैं। मगर उस भले आदमी ने इतना किया कि वहीं से तुम्हारे अख़बार में टेलीफ़ोन करके तुम्हारा घर का पता पूछ दिया। कल का सारा दिन इसी में गया। आज सवेरे जल्दी निकल आयी थी कि तुम घर से चले न जाओ, मगर घंटा-भर घूम-घूमकर अब तुम्हारा मकान मिला है। यहाँ की चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते तो हम दोनों का दम निकल गया।”

निचली मंज़िल की बबुआइन ग़ौर से देख रही थी कि बरसातीवाले बाबू के यहाँ ये कौन मेहमान आयी हैं। ठकुराइन घर की धुली हुई मैली धोती के ऊपर उसी तरह की मैली चादर ओढ़े थी।

निम्मा अपेक्षाकृत साफ़ सलवार-कमीज़ पहने थी, मगर उसमें भी ऊपर से नीचे तक इस तरह सलवटें पड़ी थीं जैसे दिनों के बाद वे कपड़े बन्द ट्रंक में से निकाले गये हों। वह कुछ घबरायी हुई-सी थी और अपनी माँ के कहे हुए हर शब्द को बहुत उत्सुकतापूर्वक सुन रही थी। पैरों में उसने चमड़े की गुरगाबी पहन रखी थी जिसका कीचड़ बहुत खरोंचने पर भी पूरा नहीं उतरा था। बरसाती में रहने वाले कुँआरे आदमी के पास इस तरह के वेश में एक स्त्री और एक लडक़ी के आने का बबुआइन जाने अपने मन में क्या अर्थ लगा रही थी!

“आओ भाभी, ऊपर चलें, वहीं चलकर बात करेंगे।” मैंने कहा और चुपचाप सीढिय़ाँ चढऩे लगा। ऊपर कमरे में आते ही ठकुराइन थकी-सी चारपाई पर बैठ गयी। निम्मा एक मोढ़े की पीठ पकड़े खड़ी रही।

“तुम्हें जगह ढूँढऩे में सचमुच बहुत तकलीफ़ हुई होगी।” मैंने कहा, “मैं तो यह सोच भी नहीं सकता था कि तुम इस तरह परेशान होती हुई यहाँ आओगी।”

“हाँ भैया, तुम क्यों कभी हमारे आने की बात सोचोगे?” ठकुराइन न जाने क्या सोचकर चारपाई से उठ खड़ी हुई और कमरे के चारों मोढ़ों में से सबसे टूटे हुए मोढ़े पर बैठ गयी, “तुम्हें हमसे मुराद नहीं, मगर हमें तो भैया तुमसे मुराद है ही। देख लो ज़मीन सूँघती हुई किसी तरह पहुँच ही गयी।”

निम्मा उसी तरह खड़ी थी। मैंने उससे बैठने को कहा, तो वह चुपचाप मोढ़े पर बैठ गयी। ठकुराइन इस तरह मेरे चेहरे की तरफ़ देख रही थी जैसे अभी-अभी उसने मुझे कोई जुर्म करते पकड़ा हो। मैंने अपने लिए भी एक मोढ़ा खींच लिया और उस पर बैठते हुए कहा, “तुम्हारे चेहरे से तो लगता है भाभी, जैसे तुम किसी वजह से मुझसे नाराज़ हो। यह क्या इसीलिए है कि मैंने तुम्हें अपना पता लिखकर कार्ड नहीं डाला!”

“तुम क्या कार्ड डालते भैया!” ठकुराइन बोली, “और भाभी बेचारी तुमसे क्या नाराज़ होगी! अगर उसे कोई दु:ख है तो उसका रोना रोकर भी वह क्या करेगी! दु:ख तो गाँठ में बाँधकर उसने जनम ही लिया था। आज तो मैं तुम्हारे पास एक दरखास लेकर आयी हूँ अगर तुम मंजूर करो तो!”

निम्मा चुपचाप ज़मीन की तरफ़ देखने लगी। अपनी ख़ामोशी में वह बिल्कुल बच्ची-सी लग रही थी।

“हाँ-हाँ, बताओ, क्या बात है!” मैंने कहा। सोचा कि वह फिर वही लडक़ी के लिए लडक़ा ढूँढऩे की बात कहेगी। साथ ही मुझे समय का भी ध्यान हो आया कि बातचीत में पन्द्रह-बीस मिनट से ज़्यादा लग गये तो समय पर तैयार होकर दफ़्तर कैसे पहुँचूँगा।

“पहले तुम यह बताओ कि हम लोगों के घर की रपट तुमने ही की थी?” ठकुराइन मेरे चेहरे पर आँखें स्थिर किये हुए बोली।

“रपट? कैसी रपट?”

“मैं तो घर में सबसे कहती थी कि यह काम मधुसूदन भैया का नहीं हो सकता। वे ऐसा काम कर ही नहीं सकते। मगर सब लोग मुझसे यही कहते थे कि यह काम तुम्हीं ने किया है। तुम्हीं उस दिन वह मरी तसवीरोंवाली मशीन लिये हुए हमारे घर आये थे। तुम एक बार सौंह खाकर कह दो कि तुमने रपट नहीं की, तो मैं जाकर अच्छी तरह सबका मुँह तोड़ दूँ...।”

“मगर भाभी कुछ समझ भी आये कि तुम किस रिपोर्ट की बात कर रही हो। मुझे आखिर तुम लोगों की किस बात की रिपोर्ट करनी थी? और कोई बात होती भी तो क्या तुम समझती हो कि मैं जाकर तुम लोगों की रिपोर्ट करता?”

“तो इसका मतलब है कि तुमने नहीं की।” ठकुराइन कुछ आश्वस्त होकर बोली, “तब तो मैं सब लोगों से ठीक ही लड़ी थी कि यह काम मधुसूदन भैया का नहीं हो सकता। अब मैं जाकर पूछूँगी सबसे। और तो और, राँड गोपाल की माँ भी सबमें शामिल हो गयी। कहती थी कि यह काम बस तुम्हारा ही हो सकता है।”

“मगर तुम यह भी बताओ कि बात क्या है?”

“बात तो बहुत ज़बरदस्त है भैया!” ठकुराइन मोढ़े पर आगे को सरक आयी। “किसी मुंडीकाटे ने सरकार में इस बात की रपट कर दी है कि हमारा मुहल्ला शहर का सबसे गन्दा मुहल्ला है और कि वहाँ जाने कैसी-कैसी बुराई फैल रही है! सब झूठ बातें, बिल्कुल झूठ! जाने बीच के किसी दुश्मन का काम है या किसका! मुए को सबसे ज़्यादा बैर हमारे घर से ही न था। सितारवाले मियाँ का नाम लिखकर उसने हमारे घर का अता-पता भी दे दिया है। तीन दिन हुए कमेटीवाले हमारे मुहल्ले की जाँच करने आये, तो हमें पता चला। गली में जितने सब्जीवाले बैठते थे, मरों ने सबको उठा दिया और नालियों में जाने क्या काली-सी दवाई डाल गये हैं! कहते थे कि दो-चार दिन में ओवरसियर साहब आएँगे और मुहल्ले के जो-जो घर गिरने की हालत में हैं, उन्हें गिरवा देंगे। हमारे घर के लिए वे कहते थे कि यह तो बिल्कुल ही कंडम है, इसलिए इसे सबसे पहले गिराया जाएगा। कोई कहता था कि सितारवाले मियाँ का काम है। मरा आप मरने को है और मरते-मरते घर के सब लोगों की मिट्टी पलीद कर जाना चाहता है। मगर उस दिन से उसे जिस तरह गश आ रहा है उससे मैं कहती हूँ कि नहीं, यह काम उसका नहीं हो सकता।”

यह सब सुनते हुए मैं अन्दर कटा जा रहा था। लेख लिखते समय मैंने यह नहीं सोचा था कि उसका ऐसा असर भी हो सकता है। जहाँ यह बात खुशी की थी कि स्थानीय अधिकारियों पर अख़बार में छपी बात का कुछ असर होता है, वहाँ यह बात बहुत परेशान करनेवाली थी कि कहीं सचमुच ही मेरी वजह से उन लोगों के घर न गिरा दिये जायें। उस वजह से अपने ऊपर आनेवाला जो लांछन था वह मुझे और भी परेशान कर रहा था।

“हम लोगों को तो तीन रातों से नींद ही नहीं आयी।” ठकुराइन बोली, “कुछ सूझ ही नहीं पड़ता कि किस दुश्मन ने यह दुश्मनी की है। हममें से किसके साथ किसी का ऐसा बैर हो सकता है? होगा तो किसी का मियाँ के साथ ही बैर होगा। लोगों को मियाँ पर इतना गुस्सा आ रहा था कि कल गोपाल ने उसके नाम की तख्ती उखाडक़र चूल्हे में जला दी कि जब ओवरसियर साहब घर की पहचान के लिए आएँगे तो हम कह देंगे कि यहाँ इस नाम का कोई आदमी नहीं रहता। क्यों भैया, यह हो भी तो सकता है कि खुद उसी ने अपना घर गिरवाने के लिए सरकार को लिखा हो। उसकी सरकार में चलती तो बहुत है!”

“ऐसी बात नहीं है, भाभी!” मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि ठकुराइन को किस तरह सारी स्थिति समझाऊँ। “इसमें इबादत अली ने कुछ नहीं किया। उसे इस बुढ़ापे में क्यों यह सूझेगी कि अपना घर गिरवाये...!”

“अरे, तुम उसे नहीं जानते भैया!” ठकुराइन कुछ सोचती हुई-सी अपना घुटना खुजलाने लगी, “वह बुड्ढा मरा ऐसा कमजात है कि उसका कुछ पता भी नहीं कि जाते-जाते हम लोगों से अपना सारा बैर निकाल ले। उसे हमसे इस बात की दुश्मनी तो है ही कि हम उसकी मरज़ी के खिलाफ उस घर में रहते हैं और उसकी लडक़ी हमीं लोगों की वजह से घर छोडक़र गयी है। इधर कई दिनों से उसे दिल का ऐसा दौरा पड़ता है कि कुछ पता नहीं कि वह कब अपना बोरिया समेट ले।” और थोड़ा आगे को झुककर वह कुछ रहस्यपूर्ण ढंग से बोली, “घर में मरदों ने तो यह सोच रखा है कि अगर यह उस बुड्ढे का काम हुआ, तो रातोंरात उसका बोरिया बनाकर जुमना जी में डाल आएँगे और कह देंगे कि पता नहीं कि वह घर छोडक़र कहाँ चला गया है। वे कहते हैं कि अगर वह हमसे इस तरह दुश्मनी कर सकता है, तो हमें उसका किस बात का लिहाज है। ज़्यादा से ज़्यादा हिन्दू-मुसलमानों का झगड़ा ही तो होगा, हो जाए!” और यह कहते-कहते वह एक बार सिहर गयी, “मगर भैया, अगर सचमुच झगड़ा हुआ, तो जिनके घर में मरद हैं, उन्हें तो उतना डर नहीं। तुम मुझे बताओ, हम माँ-बेटी क्या करेंगी, कहाँ जाएँगी? मुझे तो अपने लिए हर तरफ़ आफत ही आफत नज़र आती है।”

यह जानते हुए भी कि ठकुराइन जो कुछ कह रही है, उसमें ज़्यादा उसके मन का वहम ही है और ऐसी स्थिति शायद पैदा कभी नहीं होगी, मुझे यह ज़रूरी लग रहा था कि मैं इबादत अली के सम्बन्ध में उसकी ग़लतफ़हमी दूर कर दूँ। दूसरी तरफ़ मुझे यह समझ नहीं आ रहा था कि उसे पूरी बात समझाऊँ किस तरह! एक पत्रकार के रूप में अपना फ़र्ज पूरा करने के लिए मैंने जो काम किया था, उसे करते हुए यह मैंने कब सोचा था कि वैयक्तिक स्तर पर मुझे उसे और ही तरह से झेलना पड़ेगा? पूरी बात बता देने पर एक डर यह भी था कि अगले दिन सारा मुहल्ला ठकुराइन के साथ आकर मेरे घर पर धरना न दे दे। यह सारी स्थिति मुझे बहुत नाटकीय और दुखदाई लग रही थी कि मैं तो अपने कर्तव्य से प्रेरित होकर एक लेख लिखता हूँ और उसके परिणामस्वरूप मेरे ही परिचित लोगों को बेघर-बार होना पड़ता है और उसके लिए पिटाई बुड्ढे इबादत अली की होती है। मुझे ठकुराइन को असलियत बता देने के सिवा कोई चारा नज़र नहीं आया।

“इसमें ग़रीब इबादत अली का कोई कसूर नहीं है भाभी।” मैंने कहा, “यह जो भी कार्रवाई हुई है, वह किसी रिपोर्ट की वजह से नहीं हुई। बात असल में यह है कि मैंने दिल्ली के कुछ इलाकों की गन्दगी के बारे में एक लेख लिखा था...।”

“तो तुमने ही लिखा था?” ठकुराइन सहसा तमक उठी। निम्मा भी, जो तब तक कमरे के बिखरे हुए सामान को उड़ती नज़रों से देख रही थी, सहसा इस तरह मुझे देखने लगी जैसे उनके घर में चोरी करके भागा हुआ चोर सहसा पकड़ लिया गया हो। “मुझे नहीं पता था भैया कि तुम हम लोगों के साथ इस तरह की बेमुरव्वती करोगे। तुमने और किसी का नहीं, तो कम से कम मेरा और इस लडक़ी का ही कुछ ख़याल किया होता कि हम ग़रीब बेघर-बार होकर कहाँ जाएँगी? मैं तो फिर भी जैसे-तैसे बख़त काट लूँ, मगर इस डेढ़ गज़ की घोड़ी को बताओ कहाँ ले जाकर रखूँ? तुमने तो लिख दिया और अपना नाम कर लिया, मगर हम गरीबों की सोचो अब क्या हालत होगी। सरकार हमको धक्का देकर घर से निकाल देगी, तो हम किसके घर में जाकर रहेंगी और किसके सिर चढक़र बैठेंगी? मैं तो पहले ही रात-दिन इसकी रखवाली करने में मरी जाती हूँ। फिर तो यही एक रास्ता रह जाएगा कि इसे साथ लेकर किसी कुएँ की शरण ले लूँ या तुम्हारे घर के सामने आ बैठूँ। तुमने हमारे साथ अच्छी की!”

“भाभी, तुम बात को ग़लत समझ रही हो।” मैं अपनी सफ़ाई देने की चेष्टा करने लगा, “बात दरअसल में इस तरह नहीं है। बात यूँ है कि...।”

“मैं तुम्हारी कोई बात नहीं सुनूँगी।” ठकुराइन रोष के साथ बीच में ही बोल उठी, “भाभी ने जितने दिन तुम्हें घर में रखा, बिल्कुल अपने सगों की तरह ही रखा और अपने सगों की तरह ही खिलाती-पिलाती रही। चाहे तुमसे पैसा लेकर ही खिलाया, मगर खिलाया तो उसी प्यार के साथ जो प्यार आज के ज़माने में लोगों को अपने सगों से भी नहीं होता। भाभी अगर ग़रीब न होती, तो तुमसे कभी एक पैसा भी न लेती। मगर तुम्हें भाभी को उसका यही बदला देना था? तुम बताओ तुमने अपने मुहल्ले के बारे में वे सब बातें क्यों लिखीं? आज चाहे नहीं, मगर कभी तो वह तुम्हारा अपना ही मुहल्ला था। तुमने हम लोगों के बारे में यह लिख दिया कि हम नालियों की गन्दगी में रहते हैं और हमारी लड़कियाँ जाने क्या-क्या करती फिरती हैं! कमेटीवाले जो आये थे, वे हँस-हँसकर हमसे पूछ रहे थे कि हमें बताओ मियाँ की लडक़ी का क्या किस्सा था। हाय, यह भी कोई लिखने की बात थी? वह मरी जैसी भी थी, तुम उसके बाप के दिल से तो पूछकर देखो कि उसके चले जाने से उसे कैसा लगता है!”

“भाभी, मैंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी।” ठकुराइन के गुस्से के सामने मेरी स्थिति सचमुच एक मुजरिम की-सी हो गयी थी, “और जो कुछ मैंने लिखा था, वह उस एक मुहल्ले के बारे में ही नहीं, दिल्ली के और भी कई ऐसे इलाकों के बारे में लिखा था...।”

“तुम यह बताओ कि तुमने बीच में हमारे मुहल्ले का नाम लिखा था कि नहीं?”

“मुहल्ले का नाम किसी सिलसिले में बीच में आ गया होगा...।”

“आ गया होगा क्या? तुमने बीच में इबादत अली के घर का पता दिया था कि नहीं?”

“इबादत अली का नाम भी वैसे ही बीच में आ गया था, नहीं तो...।”

“नहीं तो क्या? तुमने सारी दुनिया के सामने हमारी मिट्टी पलीद कर दी और यह सब झूठ लिखकर! तुम्हें पता है कि अपनी इज़्ज़त-आबरू के लिए वहाँ सब लोग किस तरह अपनी जान सुखाकर रहते हैं और तुमने लिख दिया कि...।”

ठकुराइन का गुस्सा इतना बढ़ गया था कि शायद वह उस समय और भी कितना कुछ कह जाती। मैं सहसा मोढ़े से उठकर उसके कन्धे दबाने लगा, “भाभी, तुम मेरी बात तो सुनो।” मैंने कहा, “मैंने सचमुच कोई कसूर नहीं किया और न ही मैंने कोई ऐसी बात लिखी है। मैंने तो बल्कि जो बात लिखी थी, वह इससे बिल्कुल उल्टी थी...।”

“तो फिर कमेटीवाले वहाँ कागज लिखने क्यों आये थे? वे क्यों कहते थे कि ओवरसियर साहब आकर हमारे घर की जाँच करेंगे और उसे गिरवा देंगे?”

“पहले तुम शान्त हो जाओ भाभी, फिर मैं तुम्हें सारी बात समझाता हूँ।” कहकर मैं उसके कन्धे दबाता रहा। ठकुराइन पहले तो कुछ सकपकायी फिर सहसा हँस दी। उसके हँसने से निम्मा के होंठों पर हल्की-सी हँसी की रेखा आ गयी।

“पहले ऐसा काम करते हो, और फिर इस तरह भाभी की खुशामद करते हो,” ठकुराइन बोली।

“मैं पहले नीचे जाकर अपने दफ़्तर में फ़ोन कर दूँ कि मुझे आने में देर हो जाएगी, फिर आकर तुम्हें पूरी बात बताता हूँ।” मैंने कहा और ठकुराइन के आक्रोश से बचने के लिए झट नीचे चला गया। नीचे से मैंने दफ़्तर में फ़ोन किया और पास के दुकानदार से विटारोज़ की दो बोतलें ले लीं। बबुआइन ने मुझे बोतलें ले आते देखा, तो उसकी आँखों का कठोर भाव और भी कठोर हो गया।

मैंने बोतलें ले जाकर ठकुराइन के सामने रखीं, तो उसका चेहरा हँसी से फैल गया। अब इतनी सरदी में हमें यह ठंडा पानी पिलाओगे!” उसने कहा।

“अगर घर की तरह घर होता तो तुम्हें चाय ही पिलाता।” मैंने कहा, “मगर इस हालत में...।”

“तो तुमसे कहा किसने है कि तुम इस हालत में रहो?” ठकुराइन अब बहुत मीठे गुस्से के साथ बोली, “क्यों नहीं अपने लिए कोई लेडी-वेडी ले आते जो तुम्हारे घर को घर बना दे?”

लेडी-वेडी शब्द का उच्चारण ठकुराइन ने इस तरह किया कि निम्मा सहसा खुलकर हँस दी। मैंने बोतलें खोलकर उन दोनों को दे दीं। ठकुराइन अपनी हँसी को रोकती हुई बोली, “और क्या! किसी भले घर की लडक़ी से तुम्हारा गुज़ारा थोड़े ही होगा? तुम्हें तो चाहिएगी बस ऐसी कि...।”

“तुम्हें इतनी ही फिक्र है तो कोई ढूँढ़ क्यों नहीं देतीं!” मैंने सोचा कि इस तरह बात बदल जाएगी, तो मैं ठकुराइन के सामने अपनी बेगुनाही की बात अच्छी तरह रख सकूँगा।

“मैं तुम्हें आज ही ढूँढ़ देती हूँ, तुम करनेवाले बनो,” ठकुराइन बोली, “तुम्हारे लिए क्या लड़कियों की कमी है?”

“मुझे तो सख्त कमी नज़र आती है।” मैंने हँसकर कहा, “कोई लडक़ी मुझसे बात ही नहीं करती।”

“हाँ, वह आप ही तो बात करेगी तुमसे! जिसके आगे-पीछे कोई नहीं होगा, वही आकर तुमसे अपने आप बात करेगी।”

“तो बताओ फिर कैसे होगा?” मैंने अपना चेहरा गम्भीर बनाकर कहा, तो ठकुराइन सचमुच गम्भीर हो गयी, “तुम्हें सचमुच करना हो, तो बात करो।” वह बोली, “ऐसे छेडख़ानी कर रहे हो तो बात दूसरी है।”

“नहीं छेडख़ानी नहीं कर रहा, बिल्कुल सच कह रहा हूँ।”

“तो बताओ किसी सीधी-सादी लडक़ी से करोगे या विलायत की मेम ही लाओगे।”

“विलायत की मेमें तो सुना है भाभी कि घर में आदमी को गुलाम बनाकर रखती हैं और...।”

“तो सीधी-सादी लडक़ी एक तो यह तुम्हारे सामने बैठी ही है। बोलो, करोगे इससे ब्याह?”

मैं एकदम चौकन्ना हो गया कि बात कहाँ की कहाँ पहुँच गयी! मैं नहीं जानता था कि हँसी की बात को ठकुराइन इतनी गम्भीरता से ले लेगी। निम्मा अपने हाथ की बोतल वहीं रखकर सहसा उठकर खिडक़ी के पास चली गयी। मेरा सोच-विचार सहसा गुम हो गया और मुझे गुस्सा भी आया कि ठकुराइन ने लडक़ी के सामने यह क्या बात कर दी।

“बोलो?” ठकुराइन ऐसे स्वर में बोली कि कुछ देर मेरी ज़बान तालू के पास अटकी रही। मैं बहुत कठिनाई से अपना मुँह खोल पाया। “इस बात को छोड़ो भाभी।” मैंने कहा, “अभी मैं अपना ही गुज़ारा नहीं कर पाता, तो ब्याह करके क्या करूँगा! मैं तो ऐसे ही बात कर रहा था।”

“बस!” ठकुराइन का स्वर फिर तीखा हो गया। “वह मुँह से कहने की ही बात थी न कि कोई सीधी-सादी लडक़ी हो, तो ब्याह कर लूँगा? साफ क्यों नहीं कहते कि ब्याह करूँगा तो किसी बालकटी सोनपरी से ही? मेरे बस की बात होती, तो मैं तुम्हारे लिए ऐसी भी ढूँढक़र ला देती। मगर यह मेरे बस की बात ही नहीं है।”

ठकुराइन ने जिस ढंग से यह कहा उससे मैं अन्दर ही अन्दर शरम से पानी हो गया। मैं अब चाहने लगा कि किसी तरह बात को पहले के विषय पर ला सकूँ, तो अच्छा है।

“मैं तुम्हें उस लेख के बारे में बता रहा था।” मैंने कहा, “वह लेख मैंने लिखा था कि इस शहर में जहाँ-जहाँ गन्दगी है, सरकार उसे दूर करने के लिए कोई क़दम उठाये।” और मैं काफ़ी घुमा-फिराकर और काफ़ी विस्तार के साथ ठकुराइन को बताने लगा कि उस लेख में मैंने क्या-क्या लिखा था और यह सब लिखने में मेरा उद्देश्य क्या था। जब मैं अपनी सारी दिमाग़ी पूँजी ख़र्च कर चुका तो ठकुराइन ने आहिस्ता से सिर हिला दिया। “झूठ बात है,” वह बोली, “पहले तो ये बातें लिखकर हम लोगों की जान नाक में कर दी, और अब ऊपर से यह लीपापोती कर रहे हो। तुम मुझे जितनी अनजान समझते हो, मैं उतनी अनजान नहीं हूँ।”

मैंने फिर उसे समझाना चाहा कि सरकार उनके लिए नये घर का प्रबन्ध किये बिना उनके पुराने घर को नहीं गिरा सकती और मैं इस बारे में पूछताछ करके थोड़े ही दिनों में उसे पूरा पता दूँगा। मगर ठकुराइन का अविश्वास उसी तरह बना रहा। “अब भैया इन बातों से हमें ठगो नहीं।” वह बोली, “मैं नहीं जानती थी कि तुम भी दस साल में इस तरह बिल्कुल बेपत के हो जाओगे और मुँह से कुछ कहोगे, करोगे कुछ।”

“अब भाभी, मैं तुम्हें किस तरह अपनी बात का विश्वास दिलाऊँ?” मैंने हताश होकर अपने हाथ आपस में उलझा लिये।

“भाभी को विश्वास दिलाने की क्या ज़रूरत है, भैया?” ठकुराइन अपनी चादर को ठीक से कन्धे पर समेटती हुई बोली, “तुम उसके लिए अच्छा करो, तो ठीक है और बुरा करो, तो ठीक है। उनके जाने के बाद इतने दिन हो गये दुनिया की मार सहते हुए। अब और पड़ेगी, तो और सह लूँगी। जहाँ बस न हो वहाँ आदमी कर क्या सकता है?”

“माँ, अब घर नहीं चलोगी?” कहती हुई निम्मा सहसा खिडक़ी के पास से हट आयी। मैंने देखा कि उसका चेहरा तमतमाया हुआ है और उसकी आँखों के कोरों में आँसू अटक रहे हैं जो उसके सँभालने पर भी नीचे गिर आने को हैं। मुझे उस समय पहली बार यह लगा कि वह लडक़ी बच्ची नहीं है, सचमुच बड़ी हो गयी है। तनकर खड़ी होने की वजह से वह शरीर के लिहाज़ से भी बच्ची नहीं लग रही थी। उसने जिस तरह उपेक्षा की नज़र से मुझे देखा, उससे क्षण-भर के लिए मुझे खुरशीद की आँखों का भाव याद हो आया और मैं उसके चेहरे से नज़र हटाकर दूसरी तरफ़ देखने लगा।

“हाँ, चल ही रही हूँ।” ठकुराइन चादर समेटकर उठती हुई बोली, “आज तो मरी, जाने को वह घर है, कल को वह घर भी नहीं रहेगा तो मुझसे कहाँ चलने को कहेगी?”

निम्मा की आँखों में रुके हुए आँसू सहसा नीचे बह आये। उसके साथ ही उसका चेहरा फिर बच्चों का-सा हो गया। उसने झट अपना मुँह मोड़ लिया और कमरे से बाहर चली गयी।

“अच्छा भैया, खुश रहो। भाभी के दिल से तो हमेशा तुम्हारे लिए असीस ही निकलेगी।” ठकुराइन ने रुलाई रोकने के लिए आँखों को झपकते हुए कहा, “कभी तुम्हें हमारी याद आ जाए, तो यह सोच लिया करना कि तुम्हारी खुशी से ही हमारी भी खुशी है। तुम्हारी भाभी के पास धन होता, तो वह तुम्हें खुशी देने के लिए अपनी तरफ़ से भी कुछ करती। मगर भगवान ने तो उसे ऐसी जगह मारा है जहाँ उसे पानी भी न मिले। देने को मेरे पास खाली असीस के सिवा क्या है? या यह अपनी जान है जो चाहकर भी किसी को दी नहीं जाती। यह जान भी अब इस लडक़ी की अमानत है। जितने दिन जीना है, अब बस इसी के लिए जीना है...।”

मैं ठकुराइन के साथ कमरे से बाहर निकला, तो निम्मा हमसे पहले ही जल्दी-जल्दी सीढिय़ों से उतर गयी। ज़ीने से उतरते हुए मैंने ठकुराइन से कहा, “भाभी, देखो तुम इस तरह दुखी होकर यहाँ से न जाओ। मेरी अपनी भी कुछ मजबूरियाँ हैं। और जहाँ तक घर का सवाल है, तुम यह विश्वास रखो कि तुम्हारा घर गिराने कोई नहीं आएगा।”

“सब विश्वास ही विश्वास है भैया।” ठकुराइन बोली, “यह मरा विश्वास ही खाकर तो ज़िन्दगी काट रहे हैं।”

“मैं उस बारे में पूरा पता करके तुम्हें कार्ड लिखूँगा, या किसी दिन खुद ही वहाँ आऊँगा,” मैंने कहा।

“यूँ ही झूठी बात क्यों कहते हो?” ठकुराइन बोली, “तुम जो कार्ड लिखोगे और जैसे हमारे घर आओगे, वह मुझे सब पता है। और अगर आओगे, तो भैया, हमारे सिर-आँखों पर! भाभी के रहते, वहाँ कोई तुमसे एक बात भी कह जाए, तो कहना। मैं तो जाकर सबसे यही कहूँगी कि वह तुम्हारा काम नहीं है, क्या जाने किसने अख़बार में छपा दिया है! और तुम कभी आ ही जाओ, तो तुम भी किसी को यह न बताना कि तुम्हीं ने यह खेल किया था। नहीं तो सब जने मुझसे कहेंगे कि यह राँड भी इसमें शामिल है जो हमसे झूठ बोलती है...।”

हम जब तक नीचे पहुँचे, तब तक निम्मा खाई पार करने के फट्टे पर पहुँच गयी थी। उसने जल्दी-जल्दी फट्टे को पार किया, तो एक बार पैर सीधा न पडऩे से थोड़ा लडख़ड़ा गयी, मगर किसी तरह सँभलकर उस पार पहुँच गयी।

“तुम कहो तो मैं चलकर तुम्हें घर तक पहुँचा आऊँ।” मैंने ठकुराइन से कहा।

“नहीं भैया, तुम कहाँ चलोगे!” ठकुराइन खाई की उभरी हुई मिट्टी पर सँभल-सँभलकर पैर रखती हुई बोली, “हम लोग आते बखत पहुँच गयीं, तो जाते बखत क्या नहीं पहुँच पाएँगी? इस घर का तो रास्ता भी नहीं पता था, उस घर की तो पैर अपने-आप टोह ले लेते हैं। तुम अब चलो, जाकर बैठो, पहले ही आकर तुम्हारा इतना टैम बरबाद कर दिया है। तुम भी कहोगे कि ये चुड़ैलें सुबह-सवेरे कहाँ से आ मरीं!”

“अम्माँ, अब तुम चलोगी कि नहीं?” निम्मा उधर से उतावले स्वर में बोली। मुझसे नज़र मिलते ही उसने मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया और सीधी चल दी। उसकी चाल से भी न जाने क्यों मुझे फिर खुरशीद की याद हो आयी।

उन्हें छोडक़र मैं ऊपर जाने लगा, तो बबुआइन फिर अपने चौखट के पास खड़ी थी, उसकी लडक़ी दहलीज़ लाँघकर बाहर आने लगी, तो उसने उसे बाँह पकडक़र रोक लिया और कहा, “चल अन्दर!”

मैं ढीले पैरों से सीढिय़ाँ चढक़र ऊपर पहुँचा और एक पिटे हुए मोहरे की तरह चारपाई पर सीधा पड़ गया।

धूपछाँह मौसम बूँदाबाँदी में, बूँदाबाँदी वर्षा में और वर्षा रात तक ओलों में बदल गयी थी। मैं हरबंस के पास उसकी बैठक के कमरे में बैठा था। ओलों के गिरने की आवाज़ के अलावा वातावरण में बिल्कुल खामोशी छायी थी, एक मनहूस-सी खामोशी जैसे कि वह खामोशी एक समुद्र हो, आकाश के ओर-छोर तक फैला हुआ समुद्र, जिसे अपने में डूबी हुई दुनिया की हलचलों से कोई वास्ता न हो और जो बरसते हुए बादलों के नीचे बेबस पड़ा हो। कभी ओले तेज़ हो जाते थे और खिड़कियों से टकराने लगते थे। कोई-कोई ओला रोशनदान से उछलकर कमरे में आ गिरता था और फ़र्श की दरी पर पड़ा-पड़ा कुछ देर सवालिया नज़र से हमारी तरफ़ देखता रहता था और फिर दरी के रेशों में ही कहीं डुबकी लगा जाता था। जब ओलों का ज़ोर कम होता, तो हवा का हहराता हुआ झोंका खिडक़ी के किवाड़ों को थपथपाकर उस खामोशी को एक झटका दे जाता।

मैं चुपचाप बैठा हरबंस के चेहरे के उतार-चढ़ाव को देख रहा था। हरबंस हाथ और टाँगें फैलाये दीवार पर बैठा था जैसे अभी-अभी उसे उठकर वहाँ से चले जाना हो। बाँके थोड़ी देर पहले सुलगती हुई अँगीठी रख गया था और मैं उस पर हाथ ताप रहा था। अँगीठी आयी थी, तो हरबंस ने एक गहरी नज़र से उसे देखते हुए कहा था, “यह भी उसी लडक़ी ने भिजवायी है। वह होती, तो क्या यह बात वह कभी सोच भी सकती थी?” ‘उसी लडक़ी’ से मतलब था शुक्ला से और ‘वह’ से मतलब था नीलिमा से। जिस समय मैं आया था उसी समय से मैंने लक्ष्य किया था कि नीलिमा की अनुपस्थिति में घर की सारी व्यवस्था शुक्ला ने सँभाली हुई है। उसने न सिर्फ़ घर का सारा सामान ठीक-ठिकाने से रख दिया था, बल्कि बाँके के साथ मिलकर रसोईघर में खाना भी बनवा रही थी। मुझे देखकर उसके मुरझाये हुए चेहरे पर खुशी की एक लहर दौड़ गयी थी और उसने कहा था, “तो आप आ गये हैं! मैं तो दोपहर से ही आपकी राह देख रही थी। भापाजी उधर अपने पढऩे के कमरे में हैं।”

“अब उसकी तबीयत कैसी है?” मैंने पूछा तो उसके चेहरे पर जाने क्यों बहुत रूखा-सा भाव आ गया।

“उनकी तबीयत ठीक नहीं है।” वह बोली, “मुझसे वे बात ही नहीं करते, इसलिए बाँके ही उनके कमरे में आता-जाता है। आप अगर हो सके तो आज की रात उनके पास रह जाएँ। किसी को तो रात को उनके पास होना ही चाहिए। रहने को तो मैं ही रह जाती, मगर...।” और अपनी सूनी-सी आँखों को आग की तरफ़ से हटाकर उसने कहा, “मैं सावित्री दीदी को और हर चीज़ के लिए माफ़ कर सकती हूँ मगर आज भापाजी के पास न आने के लिए कभी माफ़ नहीं कर सकती। इसका तो मतलब है कि उनके दिल में...।”

“मैं भी सुबह उसके पास गया था।” मैंने कहा, “मगर वह उसी तरह अपनी ज़िद पर अड़ी हुई है।”

“तो वे अड़ी रहें अपनी ज़िद पर!” कहते हुए शुक्ला की गरदन जिस तरह तन गयी, वह ढंग बिल्कुल नीलिमा जैसा था, “इससे किसी का नुक़सान होगा, तो उन्हीं का होगा। भापाजी की देखभाल तो किसी न किसी तरह हो ही जाएगी; वह सारी उम्र बैठकर पछताती रहेंगी। मैंने भी सोच लिया है कि न तो अब खुद ही उन्हें बुलाने जाऊँगी, और न ही किसी और को भेजूँगी। उन्हें अकेली रहना है, तो रहें अकेली और अगर किसी और के साथ घर बसाना है, तो...।”

“छि:!” मैंने कहा, “तुम भी ऐसी बे-सिर-पैर की बातें करने लगीं?”

“मैं बे-सिर-पैर की बातें नहीं कर रही।” वह बोली, “उनके स्वभाव को मैं और लोगों से ज़्यादा जानती हूँ। बल्कि जितना वे खुद जानती हैं, उससे भी ज़्यादा जानती हूँ। उन्हें ज़िन्दगी में जो कुछ मिला है उसकी वे परवाह नहीं करतीं, और जो कुछ नहीं मिला, उसी के पीछे भटकती हैं। मगर मैं विश्वास के साथ कह सकती हूँ कि वे भापाजी के साथ रहकर सुखी नहीं रह सकीं, तो सुख पाना उनके लिए बदा ही नहीं है। वे ज़िन्दगी-भर एक मृगतृष्णा के पीछे भटकती रहेंगी और इसी तरह छटपटाती रहेंगी।” शुक्ला का जूड़ा ढीला हो रहा था, शायद दिन-भर की व्यस्तता के कारण। उसके बालों की कई लटें उसके चेहरे पर आ गयी थीं। उसकी फ़िरोज़ी रंग की काँजीवरम् की साड़ी भी बहुत ढीले-ढाले ढंग से बँधी हुई थी जिससे उसका शरीर कुछ फूला-फूला-सा लग रहा था। जाने आग की वजह से या वैसे ही उसका चेहरा पहले से कहीं चिकना लग रहा था। मेरे मन में सहसा यह बात उठ आयी कि शायद थोड़े दिनों में वह माँ बननेवाली है। उसी क्षण, शायद मेरी आँखों के भाव को पढक़र, वह थोड़ा लजा गयी और उसके चेहरे की चिकनाहट में हल्की-सी सुरखी घुल-मिल गयी जिससे मेरा अनुमान निश्चय में बदल गया। बाँके ने हरबंस के कमरे में ले जाने के लिए कॉफ़ी बना ली थी। मैंने कॉफ़ी की ट्रे उसके हाथ से ले ली और कहा, “तुम रहने दो, मैं ले जाता हूँ।” जब मैं ट्रे लेकर वहाँ से चलने लगा, तो शुक्ला का सुर्ख चेहरा आग की तरह ही दमक रहा था।

हरबंस अपने पढऩे के कमरे में उसी पलंग पर लेटा हुआ था जिस पर एक बार मैंने रात काटी थी। अपने रूखे उलझे हुए बालों और दिन-भर की बढ़ी हुई दाढ़ी के कारण वह सचमुच बहुत बीमार लग रहा था। मुझे देखते ही वह एक झटके के साथ सीधा उठ बैठा और अपनी टाँगों पर फैले हुए कम्बल को हटाता हुआ बोला, “आओ, मैं तुम्हारा ही इन्तज़ार कर रहा था। मैंने सोचा था कि शायद तुम कुछ जल्दी आओगे।”

मैंने ट्रे रख दी और एक ही साँस में पूरा ब्यौरा दे दिया कि सुबह से अब तक मैं किस तरह व्यस्त रहा हूँ। सिर्फ़ नीलिमा के पास जाने की बात मैंने नहीं बतायी। उसके पलँग के नीचे ह्विस्की की बोतल रखी थी जो तीन-चौथाई से ज़्यादा खाली थी। उसके साथ ही सोडा की कई खाली बोतलें रखी थीं। तिपाई पर कुछ फ़ाइलें रखी हुई थीं, जिनमें अस्त-व्यस्त लिखे हुए कुछ कागज़ थे। मैंने बैठते हुए एक सरसरी नज़र उन कागज़ों पर डाली, तो मुझे यह पहचानने में देर नहीं लगी कि वे वही कागज़ हैं जिन पर कभी उसने एक उपन्यास लिखना आरम्भ किया था और जो तब से अब तक उसी तरह उलझे हुए रखे थे। उसने जल्दी से उन फ़ाइलों को बन्द कर दिया और बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। “चलो साथ के कमरे में चलकर बैठते हैं।” उसने कहा, “कल रात से यहाँ पड़े-पड़े मेरा जिस्म और दिमाग़ बिल्कुल ज़ंग खा गये हैं।” और उसने खुद की ही कॉफ़ी की ट्रे उठा ली। हम दोनों बैठक के कमरे में आ गये, उसने खुद ही कॉफ़ी बनायी और एक प्याली मेरी तरफ़ बढ़ा दी।

“तुम कल से अब तक बहुत सुस्त पड़ गये हो।” मैंने कहा। मैंने जान-बूझकर यह नहीं कहा कि वह कल से काफ़ी अस्वस्थ लग रहा है।

“शायद बिस्तर में पड़े रहने की वजह से ऐसा लग रहा हो।” वह बोला, “वैसे मैं बिल्कुल ठीक हूँ।”

“इसका मतलब है कि तुम पड़े-पड़े बहुत कुछ सोचते रहे हो।”

उसने सिर्फ़ कन्धे हिला दिये और कॉफ़ी के घूँट भरता रहा। फिर क्षण-भर बाद स्वयं ही बोला, “हाँ, कुछ सोचता भी रहा हूँ। और कुछ क्यों, कई कुछ सोचता रहा हूँ। तुम्हें पता है कि सावित्री घर छोडक़र चली गयी है?”

“मुझे पता है वह बीजी के घर पर है।”

“एक बार जब वह पहले छोडक़र गयी थी, तो मैंने महसूस किया था कि उसे नहीं जाना चाहिए था। मगर इस बार मैं बहुत सोच-सोचकर इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि उसने जाकर शायद ठीक ही किया है। वह न जाती, तो हम लोग ज़िन्दगी-भर साथ रहकर उसी तरह कुढ़ते रहते। उसने अच्छा किया जो खुद ही निश्चय कर लिया। अगर यही निश्चय मुझे करना पड़ता, तो मेरे मन को ज़्यादा तकलीफ़ होती। अब मैं ज़्यादा साफ़ मन से अपने रास्ते पर लौट सकता हूँ।”

मैं उसका मतलब समझकर भी जान-बूझकर अनजान-सा उसकी तरफ़ देखता रहा। वह बताने लगा कि किस तरह जब पिछली रात को वे लोग लौटकर घर आये, तो पहले कुछ देर दोनों में कोई बातचीत नहीं हुई और उन्होंने चुपचाप बैठकर खाना खाया। खाना खाने के बाद नीलिमा ने उसके बहुत पास आकर उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “तो तुम्हें आज मुझसे बहुत निराशा हुई है न?”

“अगर सच पूछती हो, तो मुझे बहुत निराशा हुई है।” वह बोला, “मैंने तुमसे कहा था कि तुम्हें अभी कुछ दिन और इन्तज़ार करना चाहिए।”

इस पर नीलिमा भडक़ उठी और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगी कि वह अपनी इन्हीं बातों से आज तक उसकी ज़िन्दगी नष्ट करता आया है; कि वह उसे बहुत छोटा और बहुत स्वार्थी आदमी समझती है; और कि उस दिन के शो को ख़राब करने की पूरी ज़िम्मेदारी उसी पर है। उसने जान-बूझकर अगर समय पर धोखा न दिया होता, तो आज वह दुनिया के सामने इस तरह ज़लील न होती। “मैं नहीं जानती थी कि तुम जान-बूझकर मेरे साथ इस तरह की हरकत करोगे।” वह कहती रही, “अगर तुममें ज़रा भी इन्सानियत का माद्दा होता, तो तुम मुझसे पहले ही कह देते कि तुम इस शो की सफलता नहीं चाहते। तुम अपने को बिल्कुल अलग रखते, तो भी सब कुछ ठीक हो सकता था। मगर तुमने जान-बूझकर ढोंग रचा, गुप्ता से झूठ बोला, मुझसे झूठ बोला और समय पर आकर हमें धोखा दे दिया। मैं तुम्हें इतने बरसों से अच्छी तरह जानकर भी पूरी तरह नहीं जान सकी थी। मैं नहीं जानती थी कि कोई इन्सान इतना नीचे तक भी जा सकता है। तुमने यूरोप में एम्प्रेसारियो के साथ मिलकर सारे ग्रुप को जिस तरह ख्वार किया था, उसकी भी वजह ठीक से मुझे अब समझ आ रही है। तुम्हारे लिए मैं सिर्फ़ औरत का शरीर हूँ, तुम्हारी वासना-पूर्ति का साधन, और तुम यह बरदाश्त नहीं कर सकते कि मैं इससे ज़्यादा कुछ बन सकूँ। तुम खुद एक असफल आदमी हो, इसलिए तुम मुझे भी अपनी तरह असफल बनाकर रखना चाहते हो। मगर मैं असफल चाहे रहूँ, तुम्हारे घर में अब नहीं रहूँगी। मुझे अफ़सोस है कि मैंने यह फ़ैसला बहुत पहले ही क्यों नहीं कर लिया। मगर अब समय हाथ से निकल गया है, इसलिए मैं मन मारकर चुपचाप तुम्हारे पास नहीं बैठी रहूँगी। मैं तुम्हारा घर छोडक़र जा रही हूँ और इसी समय जा रही हूँ। अगर तुम ज़रा भी इन्सान हो तो तुम मुझे रोकने या वापस बुलाने की कोशिश मत करना। मेरी तरफ़ से तुम्हें खुली छुट्टी है कि तुम जो जी चाहे करो, जिसे चाहे घर में रखो और जैसे चाहे अपनी ज़िन्दगी बिताओ। हम आज तक भी एक-दूसरे के लिए अजनबी थे, मगर इस बात को मानना नहीं चाहते थे। अब आगे के लिए इतना ही फ़र्क़ होगा कि हम इस बात को मानकर रहेंगे। अच्छा यही होगा कि आज के बाद न तुम मेरा चेहरा देखो और न ही मैं तुम्हारा चेहरा देखूँ। हमें आज से समझ लेना चाहिए कि हम एक-दूसरे के लिए मर चुके हैं।”

नीलिमा बोल रही थी और वह अपना सिर हाथ में पकड़े चुपचाप पलँग पर बैठा था। उसे बार-बार एक ही बात सूझ रही थी कि वह उसे बाँहों से पकड़ ले और उसके मुँह पर हाथ रखकर उसका मुँह बन्द कर दे। मगर वह यह भी नहीं कर सका और चुपचाप बैठा रहा। बोलते-बोलते नीलिमा के मुँह से झाग आने लगा, तो उसे उस पर दया भी आयी, मगर उसने बिना कुछ कहे चुपचाप ह्विस्की की बोतल लाकर खोल ली। नीलिमा दूसरे कमरे में चली गयी, तो उसने एक गिलास में ह्विस्की डालकर बाँके के हाथ उसके लिए भी भेज दी। मगर उसने गिलास बाँके से लेकर ज़मीन पर पटक दिया और जल्दी-जल्दी अपने कपड़े वगैरह बाँधकर खुद ही टैक्सी लाने भी चली गयी। जब उसने अपना सामान टैक्सी में रख लिया और सोये हुए अरुण को उठाकर बाहर जाने लगी, तो बाँके घबराया हुआ शुक्ला को बुलाने चला गया। मगर शुक्ला के आने से पहले ही वह वहाँ से चली गयी थी।

“तब से ही मैं इस लडक़ी को देख रहा हूँ।” हरबंस हाथ और टाँगें फैलाये कॉफ़ी का घूँट भरकर बोला, “कल रात से अब तक इसने क्या नहीं किया? मैं दरवाज़ा अन्दर से बन्द करके शराब पी रहा था और यह बाहर इस तरह बेचैन-सी घूम रही थी जैसे इसी के साथ कोई दुर्घटना हुई हो। मुझे इसने आवाज़ नहीं थी, खुद दरवाज़ा भी नहीं खटखटाया, इसलिए कि मैं इसके साथ बात नहीं करता, इसलिए कि मुझे इसका बुरा न लगे। मगर इसकी हर हल्की से हल्की आहट और फुसफुसाहट मेरे कानों में पड़ती रही है। बाँके जब भी दरवाज़ा खटखटाता था, तो मुझे पता चल जाता था कि यह दरवाज़े के पास ही खड़ी है। कभी-कभी तो मुझे महसूस होता था जैसे यह बन्द दरवाज़े से अन्दर चली आयी हो और मेरे सामने खड़ी होकर खामोश आँखों से मुझे देख रही हो। कोई व्यक्ति पास न होते हुए भी इतना पास हो सकता है, यह मैंने पहली बार महसूस किया। मुझे लग रहा था कि मेरे अन्दर की ही कोई कमज़ोरी उभरकर बाहर आ रही है और मैं इसकी उपस्थिति की बात भूल जाना चाहता था। मेरा शरीर और मन जैसे एक पहाड़ के शिखर से नीचे को झूलकर रुका हुआ था। मैं उस स्थिति से बचने के लिए, उसे भूलने के लिए, लगातार पीता रहा, पीता रहा। मगर मुझसे महसूस होता था कि जो चीज़ मुझे गिरने से बचाये हुए है, वह शराब नहीं है, एक ऐसा हाथ है जो छुए बिना मुझे कसकर पकड़े हुए है। मुझे मन में एक आभार का अनुभव भी हो रहा था और उस अनुभव से मुझे कुछ बुरा भी लग रहा था। मैं अनुभव से बचना चाहता था, मगर...।”

वह बिल्कुल निढाल-सा बैठा था और उसकी आँखें बाहर की बजाय अन्दर की तरफ़ झाँकने लग रही थीं। ओलों का तूफ़ान बीच में ज़ोर से खिडक़ी से टकराता और फिर धीमा पड़ जाता था। वह एक कड़वी चीज़ को निगलने की तरह कुछ देर आँखें बन्द किये और माथे पर बल डाले बैठा रहा और फिर बोला, “आधी रात को मेरी तबीयत बहुत ख़राब हो गयी। पहले कै हुई, फिर सिर चकराने लगा और सारे शरीर से जान निकलती हुई-सी लगने लगी। तब शायद रात के दो या ढाई बजे थे। बाँके ने तब ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया जिससे दरवाज़े की चटखनी अपने आप खुल गयी। बाँके अन्दर आया, तो भी मुझे लगा कि यह लडक़ी बाहर दरवाज़े के पास खड़ी है। बाँके ने बत्ती जलायी, तो यह जल्दी से दरवाज़े के पास से हट गयी। उस नीम बेहोशी की हालत में भी मेरे मन में एक डर-सा समा गया कि सुरजीत को पता चलेगा कि यह आधी रात को अकेली इस घर में रही है, तो वह क्या सोचेगा और इसके साथ क्या सलूक करेगा? मैं यह नहीं मान सकता कि वह सुरजीत को बताकर उस समय यहाँ आयी होगी और उसने इसे आने दिया होगा। यह बात सोचकर मेरी आँखों के सामने अँधेरा गहरा होने लगा और फिर मुझे सुबह तक होश नहीं आया कि मैं कहाँ पड़ा हूँ और कैसे पड़ा हूँ। सुबह जब मेरी आँखें खुलीं, तो मैं दो तकियों के बीच बिस्तर पर पड़ा था। कमरे की सब चीज़ें ठीक-ठिकाने से रखी थीं जैसाकि नीलिमा के रहते हुए कभी नहीं होता था। बाँके ऊँघता हुआ अपने कम्बल में लिपटा दहलीज़ के पास बैठा था मगर रसोईघर में चूल्हा जल रहा था और केतली में चाय का पानी उबल रहा था।”

तभी बाँके उधर से कम्बल और गरम पानी की बोतल लिये हुए आ गया। “साहब, छोटी बीबीजी कह रही हैं आप लेट जायें।” उसने दोनों चीज़ें हरबंस को देते हुए कहा। हरबंस ने एक आज्ञाकारी बच्चे की तरह दोनों चीज़ें ले लीं और गद्दी बाँह के नीचे रखकर कुहनी के बल लेट गया। “और आप साहब, खाना कब खाएँगे?” बाँके ने मुझसे पूछा।

“मैं खाना यहाँ से जाकर ही खाऊँगा।” मैंने कहा, “तुम मेरे लिए कुछ मत बनाओ। इनके लिए जो कुछ बना हो, वह इन्हें खिला दो।”

“इनके लिए सूप और आपके लिए खाना तैयार हो चुका है।” बाँके बोला, “आप जब कहेंगे, तभी मैं ले आऊँगा। आपके लिए धुला हुआ कुरता-पाजामा भी निकालकर रख दिया है। छोटी बीबीजी कह रही हैं आप रात को यहीं रहेंगे।”

“नहीं, देखो बात यह है...”, मैं कहने लगा। मगर उसी समय ड्यौढ़ी के दरवाज़े के पास से शुक्ला की थकी हुई-सी आवाज़ सुनायी थी, “बाँके, इनसे कहो कि ये भी सावित्री दीदी की तरह न हो जाएँ। रात को किसी को तो भापाजी के पास रहना ही चाहिए।”

बाँके ने एक बार उधर देखा और फिर मेरी तरफ़ मुडक़र बोला, “तो जी, आपको पाजामा-कुरता दे दूँ, या...?”

“अभी रहने दो।” मैंने कहा, “अगर मैं रह गया तो मैं सोने से पहले तुमसे ले लूँगा।” बाँके के दाँत निकल आये और दरवाज़े पर झुकी हुई छाया दरवाज़े के पास से हट गयी।

शुक्ला के मुँह से सावित्री दीदी का ज़िक्र सुनते ही हरबंस के चेहरे का भाव कुछ बदल गया था। बाँके चला गया, तो वह पल-भर हाथ से अपने माथे को दबाये रहा।

“सिर में दर्द है क्या?” मैंने पूछा।

“नहीं, दर्द नहीं है, एक जकड़-सी है।” वह बोला, “मुझे कल से एक बहुत अजीब-सा अनुभव हो रहा है। मुझे पहली बार लग रहा है कि यह घर घर है और यहाँ जो जैसे होना चाहिए, वैसे ही हो रहा है। यह कितना बड़ा व्यंग्य है कि जो कुछ मैं नीलिमा से चाहता रहा हूँ, वह सब कुछ उसकी अनुपस्थिति में हो रहा है; और इसलिए सब कुछ होते हुए भी मेरे मन का खालीपन ज्यों का त्यों है, बल्कि पहले से भी बढ़ गया है।”

“तुम इसके लिए नीलिमा को ही दोषी नहीं ठहरा सकते।” मैंने कहा, “दोष बहुत-कुछ तुम्हारा अपना भी है। तुम उससे वह कुछ माँगते हो जो वह नहीं दे सकती और जो वह दे सकती है...।”

“वह मुझे कुछ नहीं दे सकती।” कहता हुआ वह गरम पानी की बोतल पीठ के पीछे रखकर सीधा बैठ गया। “इतने बरसों में मैं इसी नतीजे पर पहुँचा हूँ कि न वह मुझे कुछ दे सकती है और न मैं उसे कुछ दे सकता हूँ। इसलिए उसने अलग रहने का निश्चय कर लिया है, यह अच्छा ही है, नहीं तो वही चख़-चख़ ज़िन्दगी-भर बनी रहती। वह दस साल पहले जो कुछ मुझे नहीं दे सकती थी, वह आज भी नहीं दे सकती और दस साल और गुज़र जाते, तो भी न दे पाती।”

हवा की लहर एक गूँज के साथ आयी और निकल गयी। उस गूँज के बाद भी वातावरण में एक छटपटाहट-सी बनी रही, जैसे हवा जाते-जाते उसमें कई कुछ तोड़ और बिखेर गयी हो। कुछ क्षण भीगे हुए आकाश की तिप-तिप करती ख़ामोशी बनी रही और फिर एक वैसी ही गूँज उठ आयी।

“तुम्हें कल तो कम से कम उसका उत्साह नहीं तोडऩा चाहिए था।” मैंने कहा, “यह क्या ठीक था कि वहाँ से आते ही तुमने कह दिया कि तुम्हें उसके प्रदर्शन से निराशा हुई है?”

हरबंस पल-भर सीधी नज़र से मुझे देखता रहा। फिर बोला, “तुम्हारी इस बीच नीलिमा से मुलाकात हुई है?”

“मैं सुबह उससे मिल चुका हूँ।” मैंने कहा।

उसकी पीठ में शायद बहुत दर्द हो रहा था, क्योंकि उसने अपने पीछे बोतल को फिर ठीक किया और पल-भर फ़र्श की तरफ़ देखता हुआ कुछ सोचता रहा। फिर आँखें उठाकर बोला, “बात यह है मधुसूदन कि मैंने कभी उसे धोखे में नहीं रखना चाहा और शायद यही मेरी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। मुझे सबसे बड़ा दु:ख इस बात का है कि वह आज तक मुझ पर विश्वास नहीं कर सकी। वह यही समझती है कि मैं अपने हीन भाव से जकड़ा हुआ हूँ, इसीलिए उसे ऊपर नहीं उठने देना चाहता। कल रात को उसने जो कुछ कहा, उसने मेरे अन्दर के घाव को और भी गहरा कर दिया है।”

“मगर उसका गिला भी तो बेजा नहीं था। तुम टिकटों की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं लेना चाहते थे, तो तुमने उससे पहले ही क्यों नहीं कह दिया?”

“तो तुम भी समझते हो कि मैंने जान-बूझकर ऐसा किया है?” उसकी आँखों का भाव बहुत व्यथापूर्ण हो उठा, “तुम्हारा भी यही ख़याल है कि मैं अपनी हीनता की भावना से पीडि़त हूँ और उसे धोखा दे रहा हूँ? मगर न तुम जानते हो, न वह जानती है, और न कोई और ही जानता है कि मेरे अन्दर क्या गुज़र रही है। मैं परसों टिकट देने के इरादे से ही पोलिटिकल सेक्रेटरी के यहाँ गया था।”

“तो फिर तुम उसे बिना टिकट दिये ही क्यों लौट आये? उसने जब खुद तुमसे कहा था कि...।”

“हा-हा!” वह अपने ख़ास लहजे पर आकर बोला, “यही बात है जिसे मेरे आसपास के लोगों में से कोई समझना नहीं चाहता। वह आदमी मेरे ऊपर इतना मेहरबान क्यों है? और आज ही नहीं, बहुत दिनों से वह मेरे लिए कुछ न कुछ करने की कोशिश करता रहता है। आखिर क्यों?”

“तुम इसकी क्या वजह समझते हो?”

“वजह बहुत साफ़ है, मधुसूदन! तुम्हें मैंने बताया था कि वे लोग मुझे एक बहुत अच्छी नौकरी ऑफ़र कर रहे हैं।”

“हाँ, यह तो बताया था, मगर यह नहीं बताया था कि वह नौकरी कैसी है और तुम्हें उसे लेने में एतराज़ क्या है?”

“नौकरी बहुत अच्छी है।” वह बोला, “और सीधे तौर पर देखा जाए, तो मुझे उसे लेने में कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए। भारतीय संस्कृति केन्द्र के सेक्रेटरी की जगह खाली है और वही जगह मुझे ऑफ़र की जा रही है।”

“अरे!” मैं एकदम चौंक गया, “भारतीय संस्कृति केन्द्र के सेक्रेटरी की जगह और वह ऑफ़र तुम्हें ये लोग कर रहे हैं? इनका भारतीय संस्कृति केन्द्र के साथ क्या सम्बन्ध है?”

‘क्या सम्बन्ध है?” वह थोड़ा आवेश के साथ बोला, “तुम दिल्ली में रहते हुए भी नहीं जानते कि क्या सम्बन्ध है? भारतीय संस्कृति केन्द्र की स्थापना किसके पैसे से हुई है? उसकी नीति का संचालन किन लोगों के हाथ में है? शची को उसकी प्रधानता स्वीकार करने के लिए तुम्हें पता है कितना पैसा दिया जाता है?”

“मगर...।” मैं भौंचक्का-सा उसके चेहरे की तरफ़ देखता रहा।

“मगर क्यों?”

“मगर भारतीय संस्कृति केन्द्र तो भारतीय कला और संस्कृति को प्रोत्साहित करने का ही काम करता है। उनके कार्यक्रमों में तो ऐसा कुछ नहीं होता जिसका दूर से भी राजनीति के साथ किसी तरह का सम्बन्ध हो...।”

हरबंस ने हताश भाव से कन्धे हिलाये और पल-भर चुप रहा। फिर बोला, “तुम पत्रकार हो और जानते हो कि राजनीति में बफ़र स्टेट क्या अर्थ रखती है। साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में भी इस तरह की बफ़र स्टेट अपना अर्थ रखती है। भारतीय संस्कृति केन्द्र का काम सिर्फ़ इतना ही है कि वह साहित्यिकों और कलाकारों की एक ऐसी बफ़र स्टेट बनाये रखे जिसकी कम से कम दूसरे पक्ष के साथ सहानुभूति न हो। राजनीतिक दृष्टि से यह काम तुम्हारे ख़याल में कम महत्त्वपूर्ण है? इसी काम के लिए ये लोग ‘कल्चर’ नाम के अँग्रेज़ी साप्ताहिक को पैसा दे रहे हैं, इसीलिए कुछ लोगों को हर साल विदेश-यात्रा के लिए भेजते हैं। ये सबके सब उस बफ़र स्टेट को बनाये रखने के साधन हैं। इसके लिए किसी आदमी का नाम उपयोगी है, कोई आदमी दूसरी तरह से उपयोगी सिद्ध हो सकता है, इसलिए उसे हथियाने की कोशिश की जाती है। मुझे भारतीय संस्कृति केन्द्र के सेक्रेटरी का पद किसलिए दिया जा रहा है?”

“किसलिए दिया जा रहा है?”

“तुम्हें यह समझ नहीं आता कि मैं भी एक उपयोगी आदमी हूँ? मैं आज जिस पद पर काम कर रहा हूँ, उस पद को ध्यान में रखते हुए...तुम्हें कुछ भी समझ नहीं आता कि मैं किस तरह उपयोगी हूँ?”

अँगीठी की आँच मुझसे बरदाश्त नहीं हो रही थी, इसलिए मैंने अपनी कुरसी बदल ली।

“तो तुम समझते हो कि...।”

“मैं ही नहीं समझता, बात ही दरअसल यह है। मैं अपने को धोखे में रखना चाहूँ, तो कुछ भी कह सकता हूँ। मेरे मन में कई बार यह आया है कि जब दुनिया इसी रास्ते पर चल रही है, तो मैं भी क्यों न चलूँ! जब मेरे बदलने से दुनिया नहीं बदल सकती, तो मैं ही क्यों एक फिसलनवाले रास्ते को अपनाऊँ? मैंने कितनी ही बार अपने मन को मनाया है कि एक बार जाऊँ और चुपचाप बिन्दुओंवाली रेखा पर हस्ताक्षर करके लौट आऊँ। परसों भी मैं गया था, तो मेरे मन में अनिश्चय बना हुआ था। मगर वहाँ जाते ही उसने पहली बात इसी विषय में आरम्भ की, तो कोई चीज़ मेरे अन्दर से उठकर गले की तरफ़ आने लगी। मुझसे यह बरदाश्त नहीं हुआ कि मैं भी अपने को उसी पंक्ति में देखूँ जिसमें ‘कल्चर’ का सम्पादक है, सुषमा श्रीवास्तव है और हमारे परिचितों में कई और लोग हैं...।”

सुषमा का नाम बीच में आ आने से अचानक मेरे होंठ सूखने लगे। “तुम सुषमा के बारे में यह कैसे कह सकते हो कि वह भी इन्हीं लोगों में से है?” मैंने कुछ कठिनाई के साथ कहा।

“हा-हा!” वह बोला, “क्या मैं नहीं जानता? सुषमा कुछ दिन मेरे साथ भी घूमती रही है। एक बार मुझे लगा था कि मैं उससे अच्छी इंटलेक्चुअल मित्रता प्राप्त कर सकता हूँ। मगर बहुत जल्दी मुझे पता चल गया कि मैं कितने बड़े धोखे में हूँ। सुषमा ने उन्हीं दिनों करनाल में अपने पिता को नया मकान बनवाकर दिया था। उसके पिता की आर्थिक हालत क्या थी, मैं जानता हूँ। मैंने उससे पूछा कि अचानक वे लोग इतने अमीर कैसे हो गये, तो उसने मेरा हाथ दबाकर उत्तर दिया कि इस तरह के सवाल किसी से नहीं पूछने चाहिए।

मेरा सिर चकरा रहा था। मैंने कुरसी की दोनों बाँहों को पकडक़र अपने को सँभाले हुए कहा, “मगर तुमने यह बात मुझे पहले क्यों नहीं बतायी?”

“मैं सोचता था कि तुम्हारा उसके साथ इतना उठना-बैठना है, तुम्हें सब पता होगा। और जब मैं ही अपने मन में अपने लिए तय नहीं कर पा रहा था तो मुझे तुमसे कुछ कहने का अधिकार ही क्या था?”

मेरा शरीर और दिमाग़ बिल्कुल खाली हो गये थे। मेरी छाती में एक गोला-सा अटक रहा था। मैं खोयी हुई आँखों से चुपचाप उसकी तरफ़ देखता रहा तो वह बोला, “कल जाते ही उस आदमी ने मेरे साथ जब वह बात छेड़ दी, तो न जाने क्यों मेरे लिए वहाँ बैठना और उससे बात करना भी मुश्किल हो गया। उसके चेहरे पर जो रहस्यमय मुस्कराहट थी, वह मुझसे बरदाश्त नहीं हुई। यह कहकर कि मैं अभी दो मिनट में आ रहा हूँ, मैं उसके पास से उठकर चला आया और फिर लौटकर उसके पास नहीं गया। मैंने नीलिमा से कहा था कि मेरा उस आदमी से झगड़ा हो गया है। मगर सच बात यह है कि मेरा उससे कोई झगड़ा नहीं हुआ। अब सोचता हूँ तो लगता है, सचमुच उससे झगड़ा करके ही आया होता तो ज़्यादा अच्छा था। तब मुझे अपने मन के किसी कोने में यह आशंका तो न रहती कि शायद अब भी मैं किसी वक़्त जाकर बिन्दुओंवाली रेखा पर हस्ताक्षर कर आऊँ...।”

“मधुसूदन भाई!” दरवाज़े के चौखट के पास से शुक्ला की थकी हुई आवाज़ फिर सुनायी दे गयी। मैं उठकर ड्यौढ़ी में आ गया, तो वह थोड़ा गुस्से के साथ बोली, “देखिए, सारी रात भापाजी की तबीयत ख़राब रही है और अब भी ये लगातार बातें किये जा रहे हैं। कल को क्या ये अस्पताल ही जाना चाहते हैं? आप इन्हें बातें करने से रोकिए और कहिए कि थोड़ा-सा सूप पीकर सो जाएँ। मैं आपका खाना भी भेज रही हूँ। रात काफ़ी हो गयी है और वैसे भी इतनी सरदी है,आप लोगों को अब चुपचाप सो जाना चाहिए।” उसका जूड़ा बिल्कुल खुल गया था जिससे उसके बाल कन्धों पर बिखर आये थे। उस रूप और अपने अधिकारपूर्ण स्वर के कारण वह सचमुच घर की मालकिन लग रही थी।

“मैं अभी जाकर उसे बातें करने से रोक देता हूँ।” मैंने कहा, “तुम खाना भेज दो।” मैं कमरे में आया, तो हरबंस तब अपनी बाँह आँखों पर रखकर सीधा लेट गया था। वह ज़रा भी नहीं हिला-डुला, तो मुझे लगा कि वह अचानक ही सो गया है। “तुम्हें नींद आ गयी?” मैंने पूछा।

“नहीं।” उसने बाँह हटाकर आँखें खोल लीं, “बाँके से कह दो कि सूप ले आये, और क्षण-भर बाद उसने इतने धीमे स्वर में, कि मैं भी उसे कठिनाई से ही सुन सकता था, कहा, “और सुनो मधुसूदन, तुम रात को यहीं रहना, चले नहीं जाना।”

“ठीक है नहीं जाऊँगा, मगर...।”

“मगर-अगर कुछ नहीं। मैं तुम्हें बता नहीं सकता कि मुझे कैसा लग रहा है।...यह लडक़ी कल से जिस तरह का व्यवहार कर रही है, उससे मुझे अपने से ही डर लगता है।”

“क्यों, डर कैसा लगता है?”

“मुझे डर लगता है कि अगर मैं...अगर मैं अकेला घर में रहा और यह इसी तरह सब कुछ करती रही, तो न जाने...।”

ओलों का तूफ़ान तो थम गया मगर तूफ़ानी हवा रात-भर चलती रही। हरबंस अपने बेडरूम में सोया था और मैं उसी पलँग पर था जिस पर मैंने एक रात पहले काटी थी। जाने उस पलँग में ही ऐसी कुछ बात थी या क्या कि मैं जिस करवट भी लेटता वही करवट मुझे अस्वाभाविक लगती। गली के लैम्प की रोशनी रोशनदान के शीशे से छनकर कमरे में आती हुई, बहुत बुझी-बुझी और उदास लग रही थी। लैम्प-पोस्ट के आगे का पेड़ हिलता था, तो वह रोशनी भी इधर से उधर सरकने लगती थी, जैसे वह अपने से भाग रही हो। सडक़ से गुज़रती हुई गाडिय़ों की रोशनियाँ कभी-कभी दीवार को उजला कर देती थीं। दीवार एकदम सफ़ेद हो जाती थी, अलमारियों में रखी हुई किताबों की जिल्दें चमक उठती थीं और फिर सब कुछ अँधेरे में गुम हो जाता था। मेरे मन में आनेवाले दिनों की एक तसवीर भी उसी तरह उभरकर अँधेरे में गुम हो जाती थी। डिफेंस कॉलोनी या जोरबाग़ का एक घर। आँगन में उगे हुए कैक्टस, पाम और मोरपंखी के पौधे। सरपत के सहारे उठे हुए स्वीटपीज़, दुधमुँहें बच्चों की तरह मुसकराते हुए। लॉन की घास पर चलते समय पैरों में उठती हुई एक कोमल चुनचुनाहट! गार्डन चेयर पर बैठकर आकाश की ओर ताकती हुई सुषमा पीछे से आकर कन्धे पर हाथ रख देती है। उसकी कोमल बाँहें धीरे-धीरे गले को कस लेती हैं और आँखों के पास आयी हुई आँखें स्वीट-पीज़ की तरह मुसकरा उठती हैं। फिर घर की दूब शिमला, कश्मीर और नैनी की मखमली दूब में बदल जाती है। पहाड़ की चोटी से दिखायी देते हुए बादल के टुकड़े सूर्यास्त के समय कई-कई रंगों में नहा लेते हैं। घाटी से खच्चरों की घंटियों की आवाज़ सुनायी देती है। सुषमा की कोमल उँगलियाँ मेरी उँगलियों में कसती जाती हैं। हवा में उड़ते हुए रेशमी बाल और उलझी हुई बाँहों के दूधिया कैक्टस! हवा के हर झोंके के साथ कैक्टसों में फूल उग आते हैं, कबूतरों के पंखों की तरह कोमल-कोमल फूल। शरीर सेमल के-से स्पर्श से ढकता जाता है और रोम-रोम में चुभते हुए काँटे बहुत मीठे लगते हैं। वातावरण की नमी गरम-गरम साँसों से गरमा जाती है। उसके बाद मरमरी प्यालों में गरम-गरम चाय। वातावरण की महक शरीर में और शरीर की महक वातावरण में भर जाती है। सुगन्ध का स्वर हृदय की धडक़नें तेज़ कर देता है। आधी-आधी रात तक नाइट लैम्प के सुरमई उजाले में बेमतलब की बातें होती हैं। आँखें खुलती हैं, तो बन्द हो रहना चाहती हैं। ‘ला बोहीम’ किसी अँधेरे कोने में आधी रात तक क्लासिक्स के विषय में बातचीत चलती है। ज़िन्दगी बहुत हल्के-हल्के क़दमों से आगे बढ़ती है। आपस से हल्की-हल्की बातचीत पार्टियों में हल्की-हल्की चुस्कियाँ, दोस्तों के हाथ हल्की-हल्की मुसकराहटें, सब कुछ हल्का और कोमल...।

हवा खिडक़ी को झटका दे जाती, दीवार उजली होकर स्याह पड़ जाती और मैं करवट बदल लेता। करवट के साथ ही ज़िन्दगी भी बदल जाती। दो छोटे-छोटे कमरों का घर। सुबह-सुबह बरतन मलने और कमरे बुहारने की आवाज़। ठकुराइन का झाइयों से लदा हुआ चेहरा। टूटे हुए मोढ़े पर बैठकर अख़बार पढ़ते हुए निम्मा चाय की प्याली लेकर पास आ खड़ी होती है। चाय पर पत्तियाँ तैर रही हैं। निम्मा की आँखें सहमी हुई हैं, जैसे उसे हवा से भी डर लग रहा हो कि वह अभी उसे डाँट देगी। उसकी पतली-पतली बाँहें देखने में भी चुभती-सी लगती हैं। बाँह को हाथ में पकड़ते ही वह एक घोंघे की तरह अपने में सिमट जाती है और बाँहों में कस लेने पर इस तरह विस्मय के साथ देखती है जैसे उसके साथ कोई बहुत ही रहस्यमय घटना घटित हो रही हो। वह नीचे को झुकती जाती है, झुकती जाती है, यहाँ तक कि उसका दुबला शरीर भी बाँहों के लिए बोझ बन जाता है। उसके हाथों से राख और प्याज़ की और कपड़ों से पसीने की गन्ध आती है। चेहरा ऊपर उठाने पर उसकी आँखें आँसुओं से भीगी नज़र आती हैं। गली में सब्ज़ीवाले ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाते हैं। ऊपर से इबादत अली की सितार का स्वर सुनायी देता है। दिन-भर के काम से थका हुआ सिर तकिये पर रखते ही नींद आने लगती है। पड़ोस के घर से किसी बच्चे के रोने और प्याज़ से दाल के छोंकने की आवाज़ सुनायी देती है...।

मैं करवट बदलकर सीधा हो जाता। अँधेरे का रंग सुरमई और उजला सुरमई होकर फिर गहराने लगता। आनन्द पर्वत की वही बरसाती। वही रोज़-रोज़ अकेले लौटना और दरवाज़े पर दस्तक देना। बबुआइन उसी तरह सन्देह-भरी आँखों से देखती है और अपनी लडक़ी को बाँह पकडक़र अन्दर भेज देती है। सीढिय़ाँ चढ़ते हुए कमरे में दाखिल होने को मन नहीं होता। कमरे में आकर किसी चीज़ को रखने-उठाने को मन नहीं होता। खिडक़ी के पास खड़े होकर दिल्ली का दूर-दूर तक का विस्तार दिखायी देता है। सराय रुहेला स्टेशन से एक-एक करके गाडिय़ाँ गुज़रती जाती हैं। अँधेरे में एक भटकती हुई रूह बार-बार कराह उठती है। मैं कमरे से छत पर आता हूँ और छत से कमरे में लौट जाता हूँ...।

काफ़ी देर करवटें बदलने पर भी नींद नहीं आयी, तो मैं उठकर बैठ गया। उठकर कमरे की बत्ती जला दी। दीवार पर फ़ेड-इन और फ़ेड-आउट होते हुए रंग सहसा लुप्त हो गये। पास ही तिपाई पर हरबंस की फ़ाइलें रखी थीं। मैं कुछ देर उनके अधूरे अधलिखे पन्नों को पलटता रहा। अध्याय एक—बुआजी के यहाँ पहली भेंट। दो चेहरे। उसके नाखून। एक सवाल।...अध्याय पाँच—बर्फ़ बहुत गिरी है। मगर मन में कोई ख़ुशी नहीं। भ्रूण-हत्या सिर पर मँडरा रही है। क्या अपराध की अनुभूति ही अपराध का सबसे बड़ा दंड नहीं है?...अध्याय ग्यारह—एकान्त सडक़ और खाली जेब। वह क्यों नहीं आयी?...अध्याय इक्कीस—आईना टूट गया है। क्या वह आईना ज़िन्दगी का आईना ही नहीं था? अगर गाड़ी की दुर्घटना हो गयी होती? अध्याय पच्चीस—असम्भव को सम्भव बनाने का प्रयत्न। हवा जैसे चलती है, चलने दो।—संख्याहीन अध्याय...इतने बरसों में इन काग़ज़ों को कीड़े क्यों नहीं खा गये? यह सब बकवास है, कोरी बकवास। मुझे चाहिए कि इन काग़ज़ों को आग में झोंक दूँ।...अनध्याय—आख़िर अन्त क्या होगा?

मैंने काग़ज़ रख दिये और कमरे से बाहर निकल आया। बाहर तिपाई पर पानी का जग ढककर रखा हुआ था। मैं अचानक तिपाई से टकरा गया, तो शीशे का जग ज़मीन पर गिर गया। मैं उस आवाज़ से स्तब्ध होकर पल-भर अपनी जगह पर ज्यों-का-त्यों खड़ा रहा। हरबंस ने अपने कमरे में करवट बदली और फिर उसकी लम्बी साँस सुनायी देने लगी। तभी पीछे के दरवाज़े पर हल्की-सी थपथपाहट हुई और शुक्ला की निंदियायी हुई आवाज़ आयी, “बाँके!”

मैंने धीरे-से जाकर दरवाज़ा खोल दिया। वह शॉल ओढ़े हुए ठंड में ठिठुरी हुई-सी खड़ी थी। “आप अभी जाग रहे हैं?” उसने मुझे देखकर पूछा, “अभी आवाज़ कैसी हुई थी?”

“मेरा पैर तिपाई से टकरा गया था जिससे जग टूट गया है।”

“भापाजी की तबीयत तो ठीक है न?”

“हाँ। मेरा ख़याल है उसे नींद आ गयी है।”

“शुक्र है।” वह बोली, “मैं तो डर गयी थी कि कहीं...।”

“तुम भी अभी तक जाग रही थीं?”

“नहीं, जाग नहीं रही थी, मगर पूरी तरह सोयी भी नहीं थी। सुरजीत देर से घर आया था, उसे खाना खाकर सोये अभी थोड़ी ही देर हुई है।”

मेरा ध्यान फिर उसके शरीर के फैलाव की ओर चला गया और मुझे लगा कि उसे इतनी ठंड में बाहर नहीं आना चाहिए था।

“तुम सो रहो। हरबंस के पास मैं तो हूँ ही।”

“मैं आपको एक बात बताना भूल गयी थी। अगर रात को उन्हें फिर मितली हो, तो उन्हें दवाई का एक डोज दे दीजिएगा। उनकी दवाई उधरवाले कमरे में मेज़ पर रखी है। मैंने सुबह मँगवायी थी, मगर दिन में तो उसकी ज़रूरत पड़ी नहीं।”

“अच्छा...।”

जाते-जाते वह फिर रुकी और बोली, “देखिए, एक बात और भी आपसे कहना चाहती थी। भापाजी का दिल्ली में दिल नहीं लगता, इसलिए आप इनसे कहें कि ये आगरावाली नौकरी कर लें। हो सकता है वहाँ जाकर इनका मन कुछ शान्त हो जाए। वह काम इनके मन के अनुकूल भी है...।”

“देखो, बात हुई तो उससे कहूँगा।”

“आपको आज मैंने बहुत तकलीफ़ दी हैं।” उसने कहा और धीरे-धीरे चली गयी। मैंने दरवाज़ा बन्द कर लिया। कमरे में आकर मैं बत्ती बुझाकर लेट गया। मगर हरबंस की फ़ाइल देर तक मेरे दिमाग़ में खुली रही...।

सुबह सोकर उठा, तो वर्षा से धुली हुई धूप रोशनदान से नीचे झाँक रही थी। आँगन से बत्तखों के कुडक़ुड़ाने और पंख फडफ़ड़ाने की आवाज़ आ रही थी। मैंने बिस्तर से उठकर खिडक़ी खोल ली। दो बत्तखें आँगन में चक्कर काट रही थीं। क्वाक् क्वाक् क्वाक्! उनकी काली धारियोंवाली गरदनें हिलतीं, पीली चोंचें नीचे को झुककर ऊपर उठ जातीं और पंख थोड़ा खुलकर बन्द हो जाते। क्वाक् क्वाक् क्वाक्!

मैंने कमरे का दरवाज़ा खोला, तो सहसा ठिठक गया। सामने रसोईघर में मिट्टी के तेल का स्टोव जल रहा था और उसके पास, उसके ऊपर झुकी हुई-सी नीलिमा खड़ी थी। पीठ की तरफ़ से वह उस समय बहुत दुबली लग रही थी। उसके बाल खूब कसकर बँधे हुए थे जिससे बालों के नीचे उसकी लम्बी गरदन ऊपर तक नज़र आ रही थी। मुझे देखकर वह एक बार ज़रा-सा मुसकरायी और फिर उसी तरह काम में लग गयी। मैं जाकर चुपचाप रसोईघर के दरवाज़े के पास खड़ा हो गया। उसने एक बार फिर घूमकर मेरी तरफ़ देखा और उसी तरह फीके ढंग से मुसकराकर कहा, “तुम्हें चाय दे दूँ?”

“तुम बना लो, तो साथ ही पीते हैं।” मैंने कहा।

“तुम कमरे में चलो, मैं लेकर आ रही हूँ।”

“हरबंस सो रहा है?” मैंने पूछा।

उसने धीरे-से सिर हिलाया और गरम पानी से प्यालियाँ धोने लगी। मैं कमरे में लौट आया। हरबंस की फ़ाइलें तिपाई पर खुली हुई रखी थीं। मैंने उन्हें बन्द किया और उठाकर मेज़ पर रख दिया। नीलिमा चाय लेकर आ गयी। चाय बनाते हुए भी उसने कोई बात नहीं की। चाय के दो-एक घूँट भर चुकने के बाद उसने पूछा, “तुम्हें रात को ठीक से नींद आ गयी थी?”

“शुरू में तो काफ़ी देर मैं जागता रहा था।” मैंने कहा, “मगर बाद में सो गया था।”

उसके बाद फिर कुछ देर हम दोनों खामोश रहे। फिर मैंने पूछा, “तुम किस वक़्त आयी हो?

“मैं अभी थोड़ी देर पहले ही आयी हूँ,” वह बोली। फिर कुछ देर चाय की प्याली में न जाने क्या देखते रहने के बाद उसने कहा, “सुबह सुरजीत मेरे पास आया था।”

“अच्छा!”

“रात को शुक्ला को काफ़ी बुख़ार हो गया है। अप्रैल-मई में उसके बेबी होनेवाला है, इसलिए सुरजीत बहुत घबराया हुआ था। मैं आना नहीं चाहती थी, मगर फिर मैंने सोचा कि...सोचा नहीं, मुझे लगा कि...शायद अब यही ठीक है।”

“अच्छा किया जो तुमने यह बात जल्दी सोच ली।” और कुछ देर चुप रहने के बाद मैंने कहा, “शुक्ला कल और परसों दोनों दिन बहुत हैरान हुई है और उसने काम भी बहुत किया है।”

“मुझे पता है।” वह बोली, “सुरजीत ने मुझे बताया था।”

“सुरजीत को मालूम था?”

“मालूम कैसे न होता? रात को जग टूटने पर जब वह तुमसे पूछने के लिए आयी थी तो...।”

“वह उस वक़्त जाग रहा था?”

“हाँ। वह बेचारा तो रात-भर नहीं सोया। यहाँ से जाकर शुक्ला को कुछ मितली-इतली भी हुई थी। वह सारी रात उसे सँभालता रहा है।”

“अच्छा!” मैं कुछ जल्दी-जल्दी चुस्कियाँ भरने लगा।

“मेरा तो ख़याल है कि वह हममें सबसे अच्छा आदमी है।”

मैं चुपचाप चाय पीता रहा। तभी अरुण साथवाले कमरे में से आँखें मलता हुआ आ गया। ‘ममी’, उसने नीलिमा के गले में बाँहें डालकर कहा, “मैं रात को किस घर में सोया था?”

“तू रात को नानी के घर में सोया था,” कहते हुए नीलिमा ने उसे उठाकर गोद में बिठा लिया और उसके सिर पर हाथ फेरने लगी।

“तो अब अपने घर में कैसे आ गया?”

“तेरी बत्तखें तुझे सोये-सोये अपने पंखों पर बिठाकर ले आयी थीं।”

“मेरी बत्तखें कहाँ हैं?” अरुण एकदम उसकी गोद से उतर गया।

“बाहर आँगन में घूम रही हैं।”

“आहा! आहा!” अरुण ने हाथ पर हाथ मारा और बाहर भाग गया।

“ये बत्तखें तुम खरीदकर लायी हो?” मैंने पूछा।

“नहीं।” वह बोली, “कल शाम को मैं अरुण को जन्तर-मन्तर में घुमाने के लिए ले गयी थी। वहाँ से लौटकर आ रही थी, तो ये सडक़ पर पड़ी थीं। शायद कोई क्रिसमस ईव के लिए ले जा रहा होगा और रास्ते में उससे गिर गयी होंगी। इनके पैर आपस में बँधे हुए थे और ये वहाँ पड़ी-पड़ी कुडक़ुड़ा रही थीं। मुझे लगा कि किसी बस या कार के नीचे आकर कुचली जाएँगी, इसीलिए मैंने उन्हें उठा लिया। कुछ देर इन्हें लिये वहाँ खड़ी रही कि शायद कोई इन्हें लेने के लिए आ जाए। मगर कोई नहीं आया, तो मैं इन्हें घर ले आयी। घर आकर रात तक अरुण इन्हीं से खेलता रहा है। इनसे खेलता-खेलता ही सो गया। अच्छा हुआ, नहीं तो सोने से पहले बॉबी के पास आने के लिए रोता।”

अरुण दोनों बत्तखों को बगलों में दबाये हुए बाहर से आ गया। बत्तखें उसकी बाँहों के दबाव से कुछ सहम गयी थीं और टुकुर-टुकुर सामने की तरफ़ देख रही थीं। अरुण ने उन्हें लाकर कमरे में छोड़ दिया, तो वे पंख फडफ़ड़ाती हुई पलँग के नीचे घुस गयीं।

“अच्छी पली हुई बत्तखें हैं।” मैंने कहा, “तुम इनसे नये साल की दावत करोगी?” मगर मेरे इतने कहते न कहते अरुण मेरे पास आकर मेरे घुटनों पर मुक्के मारने लगा।

“ममी, कोई मेरी बत्तखों को काटेगा, तो मैं उसे जान से मार दूँगा।” उसने कहा और मेरे पास से हटकर मुक्का ताने हुए नीलिमा के पास चला गया। नीलिमा ने उसे बाँहों में भरकर अपने साथ सटा लिया और बोली, “नहीं बेटे, तेरी बत्तखों को कोई नहीं काटेगा।”

“मैं आज से तुमको अपने घर में नहीं आने दूँगा।” अरुण मेरी तरफ़ आँखें निकालकर बोला। मैंने उसकी बाँह पकडक़र उसे अपनी तरफ़ खींच लिया और उसके गालों को चूम लिया।

बत्तखें पलँग के नीचे से निकल आयी थीं। अरुण ने मेरे हाथ से अपनी बाँह छुड़ा ली और उन्हें फिर बग़लों से लेकर पुचकारता हुआ बाहर चला गया।

रोशनदान से झाँकती हुई धूप दीवार से फ़र्श पर उतर आयी थी। मैंने घड़ी की तरफ़ देखा और उठ खड़ा हुआ। “मेरा ख़याल है मैं अब तैयार हो जाऊँ और चलूँ।” मैंने कहा।

कुछ ही देर में मैं चलने के लिए तैयार हो गया। हरबंस तब भी जागा नहीं था। “उसे जगा दूँ?” नीलिमा ने पूछा।

“नहीं, उसे अभी सोया रहने दो।” मैंने कहा, “उसे तुम्हारे आने का पता है?”

“नहीं, मैंने आकर उसे जगाना ठीक नहीं समझा। कहो, तो अब जगा दूँ।”

“नहीं, रहने दो।”

उसी समय बाँके सब्ज़ी का थैला लिये बाहर से आ गया। “तुम सब्जी ले आये?” नीलिमा उसे देखते ही बोली, “मगर तुमने जाते हुए पैसे तो मुझसे लिये ही नहीं थे। तुम्हारे पास पैसे थे?”

“कल छोटी बीबीजी ने पाँच रुपये का नोट दिया था।” बाँके थैला रखकर जेब से पैसे निकालता हुआ बोला, “उसमें से कल सब्ज़ी लाया था और साहब की दवाई लाया था। रात को इन साहब के लिए सिगरेट की एक डिब्बी भी लाया था। अब उसमें से पाँच-छ: आने मेरे पास बचे हैं।”

“ये तुम अपने पास रखो।” कहती हुई नीलिमा उधर के कमरे में चली गयी और वहाँ से अपना पर्स उठा लायी। उसमें से पाँच रुपये का नोट निकालकर बाँके को देते हुए उसने कहा, “उधर जाओ, तो ये उनके रुपये उन्हें लौटा देना।” फिर मेरी तरफ़ देखकर वह बोली, “तुम नाश्ता करके नहीं जाओगे?”

“इनके नाश्ते के लिए तो सुरजीत साहब ने उधर से कह रखा है,” बाँके बोला।

“नहीं, मैं नाश्ता करके नहीं जाऊँगा।” मैंने कहा, “वैसे तो आज मेरा हॉफ़ डे है, मगर सम्पादक ने नौ बजे मुझे दफ़्तर में बुला रखा है। उसे शायद मुझसे कोई ज़रूरी बात करनी है। तुम सुरजीत से भी मेरी तरफ़ से कह देना।

उससे पहले दिन मेरी सम्पादक से भेंट नहीं हो सकी थी। जब मैं हनुमान रोड पर नीलिमा से मिलकर वापस आया था, तो वह अपने किसी काम में व्यस्त था और उसने कहा था कि मैं कुछ देर के बाद उसे फ़ोन कर लूँ। जब मैंने फ़ोन किया, तो वह बाहर गया हुआ था। उसके बाद शाम को मुझे दूसरी चिट मिली थी कि सुबह नौ बजे आकर मैं उससे मिल लूँ। मैं जब उसके कमरे में दाख़िल हुआ, तो मेरे मन में कई-कई आशंकाएँ उठ रही थीं। वह उस समय स्टेनो को कुछ नोट्स दे रहा था। मुझे बैठने का इशारा करके वह नोट्स देता रहा। मैं धडक़ते हुए दिल से आनेवाले क्षण की प्रतीक्षा करता हुआ इधर-उधर देखता रहा। जब स्टेनो चला गया, तो उसने कुहनियाँ मेज़ पर फैलाये हुए मुझसे कहा, “तो...?”

“आपने आज आने के लिए कहा था।” मैंने कहा।

“हाँ।” वह बोला। फिर कोई बात याद आ जाने से वह अपनी टेबल डायरी के पन्ने उलटने लगा। उसमें एक जगह कोई बात नोट करके उसने कहा, “मैं तुमसे सिर्फ़ यही कहना चाहता था कि इस बीच तुमने मुझे सिर्फ़ एक ही फ़ीचर लिखकर दिया है। उसके बाद और कोई फ़ीचर तुम प्लान नहीं कर रहे? लोक सभा का बजट सेशन आरम्भ होने से पहले मैं चाहता था कि...।”

“आपने उस फ़ीचर के बारे में अपनी राय मुझे नहीं बतायी थी।” मैंने कहा।

“हाँऽऽ! वह फ़ीचर ठीक ही था।” वह आवाज़ को कुछ लटकाकर बोला।

“मगर तुमने मेरी बात को बहुत शाब्दिक अर्थ में ले लिया था। मेरा मतलब दरअसल और चीज़ से था और मैं तुमसे कुछ दूसरी ही तरह के फ़ीचर की उम्मीद कर रहा था। मगर वह फ़ीचर तुमने लिखा अच्छा था हालाँकि उसमें भी मुझे लगा कि तुम अभी अपनी कविता से बिल्कुल छुटकारा नहीं पा सके...।”

मुझे अपने मन में कुछ तसल्ली हुई कि जिस तरह की बात से मैं डर रहा था, वैसी कोई बात नहीं है। “मैं आपकी बात को समझता हूँ।” मैंने कहा, “वह फ़ीचर मैंने सिर्फ़ शुरू करने के लिए लिखा था। इधर मैं एक और फ़ीचर प्लान कर रहा हूँ...।”

“आई सी...!” वह थोड़ा मुसकराया, “उसकी कुछ रूपरेखा तुम मुझे पहले से बता दो, तो मैं उसे शेड्यूल में रख लूँ।”

मैं बहुत जल्दी-जल्दी सोचने लगा। कल रात से मेरे मन में एक रूपरेखा बन रही थी। “मैं सोच रहा था कि यहाँ पर विदेशी पैसे से जो कुछ ऐसी-वैसी संस्थाएँ काम कर रही हैं, उनके बारे में एक चीज़ लिखूँ...।”

“कैसी संस्थाओं के बारे में?”

“यहाँ कई एक ऐसी संस्थाएँ हैं न जो साहित्य, कला और संस्कृति की आड़ लेकर किन्हीं छिपे हुए राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति कर रही हैं...।”

“जैसे?”

मैंने उदाहरण के तौर पर ‘भारतीय संस्कृति केन्द्र’ का नाम ले लिया।

सम्पादक का चेहरा सहसा गम्भीर हो गया और उसने अपने दोनों हाथों को आपस में उलझा लिया। “यू मीन...”, उसने कहा, “मगर इस बार तुम मेरे मतलब से बहुत आगे चले गये हो। इस तरह की चीज़ राजनीतिक हो जाएगी और मैंने तुम्हें बताया नहीं, मगर तुम्हारी राजनीतिक टिप्पणियों को लेकर पहले ही ऊपर काफ़ी चर्चा हो चुकी है। मैं तुम्हारा हित चाहता हूँ, इसलिए तुम्हें यह राय दूँगा कि तुम्हें ऐसी चीज़ों में नहीं पडऩा चाहिए जो तुम्हारे अपने हित को नुक़सान पहुँचा सकती हैं। ऊपर से मुझे यह भी कहा जा रहा है कि तुम्हें सांस्कृतिक रिपोर्टिंग से भी हटाकर ‘न्यूज़’ सेक्शन में कर दिया जाए। इसलिए ऐसी चीज़ लिखने का मैं तुम्हें परामर्श नहीं दूँगा। और अख़बार की पॉलिसी को नज़र में रखते हुए मैं कह सकता हूँ कि ऐसी चीज़ हम छाप भी नहीं सकते। इसलिए करना चाहो, तो तुम कोई और ही चीज़ प्लान करो।”

पल-भर हम दोनों चुप रहकर तौलती हुई-सी नज़रों से एक-दूसरे की तरफ़ देखते रहे।

“मैं सोचकर आपका बताऊँगा।” मैंने कहा।

“हाँ-हाँ, तुम अच्छी तरह सोचकर बताना।” वह बोला, “एक अन्दर की बात तुम्हें और बता रहा हूँ जिसे तुम्हें आउट नहीं करना चाहिए। मुझसे यह भी कहा गया कि तुम्हें अगला इन्क्रीमेंट देने से पहले तुम्हारे काम को कुछ दिन और अच्छी तरह देख लिया जाए। तुम्हें इस बात को ध्यान में रखकर ही चलना चाहिए।”

उसके कमरे से अपने केबिन में आकर कुछ देर मैं चुपचाप सामने दीवार पर लगे हुए कैलेंडर की तरफ़ देखता रहा। मेरी मेज़ पर उपहार में पायी हुई नये साल की अजन्ता के चित्रोंवाली एक डायरी रखी थी। कुछ देर मैं उसके पन्ने पलटता हुआ चित्रों को देखता रहा। उन चित्रों को देखते-देखते अचानक मुझे ध्यान आया कि मैंने उस दिन साढ़े दस बजे सुषमा को फ़ोन करने के लिए कह रखा है। मैंने अनजाने ही फ़ोन का चोंगा उठा लिया हालाँकि मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं उससे क्या बात करूँगा। मैं धीरे-धीरे उसका नम्बर मिलाने लगा—चार, पाँच, पाँच, चार...! मगर आगे का हिन्दसा मिलाने से पहले ही मैंने चोंगा रख दिया। डायरी मैंने एक तरफ़ सरका दी और कुरसी की पीठ से टेक लगाकर अपने हाथों को आपस में मलता हुआ फिर कुछ देर कैलेंडर की तरफ़ देखता रहा। काग़ज़ लेकर कुछ लिखने की कोशिश की तो मुझसे कुछ लिखा नहीं गया। फिर मैंने चोंगा उठा लिया। इस बार पहले के तीन हिन्दसे मिलाने के बाद ही मैं रुक गया और मैंने चोंगा रख दिया। चोंगा रखते ही मैं सहसा अपनी कुरसी से उठ खड़ा हुआ। मुझे लग रहा था कि मुझे उस समय कहीं जाना है। मैंने चलते-चलते डायरी मेज़ से उठा ली। शायद मन में कहीं इस तरह का ख़याल भी था कि वह डायरी मुझे किसी को उपहार में देनी है। नीचे आकर मैं फुटपाथ पर खड़ा हो गया और सोचने लगा कि मैं कहाँ जाने के लिए ऊपर से आया हूँ। क्या मुझे कॉन्सीक्यूशन हाउस जाना था? मगर वहाँ जाने से पहले क्या सुषमा को फ़ोन कर देना ज़रूरी नहीं था?

मैंने हाथ देकर एक आती हुई खाली टैक्सी को रोक लिया। सरदार ड्राइवर ने मीटर गिराकर मेरी तरफ़ देखा, तो भी मैं पल-भर सोचता रहा। फिर चुपचाप दरवाज़ा खोलकर अन्दर बैठ गया। सरदार ने अपनी सीट पर बैठते हुए मेरी तरफ़ देखकर पूछा, “कहाँ चलना है साहब?”

मेरे दोनों हाथों की उँगलियाँ आपस में उलझी हुई थीं। मैंने दोनों हाथों को एक-दूसरे से कसे हुए धीरे-से कहा, “क़स्साबपुरा।” और हाथ खोल लिये।

ड्राइवर शायद नया था। वह यह सुनकर भी मेरी तरफ़ देखता रहा और बोला, “कौन-सा पुर?”

“बस्ती हरफूलसिंह!” मैंने कहा और थोड़ा ढीला होकर सीट पर नीचे को सरक गया। “बस्ती हरफूल,” सरदार सोचता हुआ-सा बोला, “यह कहाँ पर है साहब?”

“बारहटूटी, सदर बाज़ार!” मैंने झुँझलाकर कहा। सरदार ने टैक्सी स्टार्ट कर दी। टैक्सी एक झटके के साथ चली, तो मैंने अपनी गोद में रखी हुई डायरी को एक बार देख लिया कि वह गिर तो नहीं गयी।

टैक्सी चेम्सफ़ोर्ड रोड का पुल पार करके कुतुब रोड पर आ गयी। मैंने एक लम्बी साँस ली और मन में कुछ हल्का महसूस करता हुआ सीट पर थोड़ा और नीचे को सरक गया।