अंधे की लाठी (कहानी) : रशीद जहाँ
Andhe Ki Lathi (Story in Hindi) : Rashid Jahan
नवाब मोहम्मद असगर अली खाँ और नवाब मोहम्मद इकबाल अली खाँ सगे भाई थे और नवाब मोहम्मद मुकर्रम अली रईस के लड़के थे। नवाब साहब ने हालाँकि बहुत ज्यादा रुपया अपनी जिन्दगी में उड़ा दिया था लेकिन जब उनका स्वर्गवास हुआ तो लड़के नाबालिग थे। जायदाद कोर्ट आफ वार्ड कर दी गई और यही वजह थी कि बच गयी। दोहरी जायदाद मिली। उनकी एक फुफी बे-औलाद थीं अपनी रियासत भी छोटे भतीजे को दे दी थी। दोनों भाइयों में वो मुहब्बत और दोस्ती थी कि फूफी की इस हरकत से जरा भी मैल न आया। जबकि असगर की दुल्हन जल भुन कर रह गयी। पति को हजार बार भड़काया कि इकबाल पर मुकदमा चला कर अपना हक हासिल करे लेकिन उन्होंने सुनी अनसुनी कर दी। भाई को कभी पता भी न चलने दिया कि उनको बुरा लगेगा। दूसरे भाई इकबाल बेऔलाद थे और जायदाद भाग कहाँ जाती। जब तक सास जिन्दा रहीं दोनों बहुएँ एक ही घर में जैसे-तैसे रहीं उनके मरने के बाद इकबाल और असगर ने बड़ी कोशिश की कि दो घर न हो लेकिन आखिर में बीवियों की तू-तू मैं-मैं से तंग आकर छोटी हवेली में चले गये। चूल्हे दो दो हो गये थे और बीवियाँ एक दूसरे के खून की प्यासी थीं लेकिन दोनों भाइयों की मुहब्बत एक ऐसी मजबूत बुनियाद पर खड़ी थी कि उसका गिरना बहुत कठिन था। अपनी औलाद न होने के कारण इकबाल अपने भाई की औलाद के दीवाने थे हजार बार बीवी से कहा कि वह भाई का लड़का गोद लेना चाहते हैं लेकिन उन्होंने जेठानी की औलाद को पालने से इन्कार कर दिया।
असगर की पत्नी के तो नौ बच्चे थे और बेचारी इकबाल की पत्नी बाँझ मशहूर थीं। औलाद न हो न सही लेकिन जेठानी के व्यंग और मजाक जिन्दगी गुजारना मुश्किल किये हुए थे। औलाद का गम उन्हें खाये जाता था और यह खयाल तो बीमार ही कर देता था कि मियाँ की जायदाद भी असगर के बच्चों में चली जायेगी। वह छुप-छुप कर इलाज करातीं, दुआएँ माँगती, ताबीज-गन्डा सब कुछ करतीं आस-पास क्या दूर-दूर मजारों पर जातीं मन्नतें माँगती कि खुदा इनको एक लड़का दे दे। वह हजार छुपा कर इलाज करतीं लेकिन फिर भी असगर की पत्नी को खबर हो जाती और उनके हाथ देवरानी को जलाने का एक नया शगूफा लग जाता।
"अरे दौलत लुटा रही हैं दौलत। मुए मैके वाले हर समय खड़े रहते हैं वह अलग। मुल्ला सयाने लगे रहते हैं वह अलग। कहीं पत्थर में से खून निकला है जो अब इनके औलाद होगी?" असगर दुल्हन महफिल में इतनी जोर से कहतीं कि इकबाल दुल्हन सुन लें। इकबाल दुल्हन जिसका मैका गरीब था और जो औलाद की खातिर हर वक्त रुपया खर्च करती रहती थीं इस तरह के कटाक्ष सुन कर आग हो जाती और जरा सी देर में दोनों में वह व्यंग शुरू होते कि महफिल की रौनक बढ़ जाती। असगर दुल्हन हँस-हॅंस कर चुटकियाँ लेतीं और इकबाल दुल्हन झुँझला कर जवाब देतीं। आखिर में बेबस होकर रोने लगतीं। मुँह पीटने और कोसने काटने पर उतर आतीं इसी वजह से इकबाल दुल्हन ने जेठानी के कारण हर जगह आना जाना छोड़ दिया था लेकिन फिर भी एक शहर का रहना कहीं-कहीं मुलाकात हो जाती।
बीस बरस के बाद इकबाल दुल्हन की किस्मत फिरी और कुछ उम्मीद हुई। पहले तो उन्होंने डर की वजह से किसी से कहा नहीं। कई बार इस तरह का शक उन्हें पहले भी हो चुका था और हर बार एक नया शगूफा जेठानी को मजाक उड़ाने को मिल जाता। जब पता चलने लगा तो असगर दुल्हन घबराईं कि कहीं सचमुच उनके लड़का न हो जाये एक तो जायदाद का मालिक पैदा हो जायेगा, दूसरे देवरानी बराबर की हो जायेगी। बहुत ताबीज, टोटके, अतः कोई जादू न छोड़ा कि बच्चा गिर जाये लेकिन ऐसा लगता था कि इकबाल दुल्हन के मौलवी ज्यादा जोरदार थे नौ महीने बाद अल्लाह ने बजाय एक लड़के के दो लड़कियाँ दी। इकबाल की खुशी का कोई ठिकाना था। इधर बैठक में लोग मुबारकबाद को आने लगे और दूसरे तरफ दरवाजे पर ढोल बाजे बजने लगे। इकबाल दुल्हन चाहती थी कि ढोल बाजे बड़ी शान के हों ताकि असगर दुल्हन सुनकर जलें। असगर दुल्हन कब चूकने वाली थी तुरन्त मियाँ से कहकर अपने दो छोटे बेटों की शादी का रिश्ता भिजवा दिया। इकबाल जो भाई पर जान देते थे यह सुनकर फूले न समाये और भाई को जबान दे दी जब औरतों में आकर कहा तो इकबाल दुल्हन अपनी जचकी भूल कर पलँग पर तन कर बैठ गयीं और पति को हजारों सुनाई भला अब वह क्यूँ दबतीं अब उन्हें कौन बाँझ कह सकता था। उन्होंने इस सगाई को मानने से इन्कार कर दिया। इकबाल जबकि कमजोर आदमी थे बीवी का हमेशा खयाल रखा लेकिन इस बात पर वह भी अड़ गये कि ये लड़कियाँ तो भाई साहब की हैं। दस आदमियों के सामने जबान दे चुका हूँ अब कुछ नहीं हो सकता।"
असगर दुल्हन ने मिठाई भेजी। बावजूद बीवी के विरोध के इकबाल ने रख ली मिठाई घर में रख तो ली लेकिन वह सड़-झड़ कर फेंकी इकबाल दुल्हन ने हाथ लगाया जब कोई उन्हें मुबारकबाद देता तो वह नाक भौं सिकोड़ कर कहतीं देखा जायेगा न मैंने सगाई लगाई है और न मैं जानूँ। लड़कियाँ जब जरा बड़ी हुईं तो असगर दुल्हन ने चाहा कि निकाह भी हो जाये। इकबाल दुल्हन कहती थीं कि मेरी जिन्दगी में तो होगा नहीं। इकबाल की इतनी हिम्मत न थी कि बगैर बीवी को सम्मिलित किये निकाह कर दें अतः इसी बहस और नोक-झोंक में दोनों लड़कियाँ अहमदी बेगम और कादिरी बेगम पन्द्रह बरस की हो गयीं।
अहमदी और कादिरी हमेशा एक से कपड़े, एक सी सूरत और डील डौल के साथ बिल्कुल एक दूसरे की तस्वीर थीं। माँ तक धोखा खा जाती थीं। अहमदी केवल घन्टा भर बड़ी थीं लेकिन अपने बड़े होन पर उन्हें बड़ा गर्व था और कादिरी से अपने को बड़ी आपा कहलवाती थी। माँ की शिक्षा का असर था कि दोनों बहनें चच्ची को किसी कसाई से कम न समझती थीं। और जब अपनी आने वाली जिंदगी का खयाल करतीं तो काँप जातीं लेकिन इतनी हिम्मत कहाँ थी कि बाप से कहतीं कि हम चच्चा के लड़कों से शादी करना नहीं चाहतीं। कुँवारी लड़कियाँ हिन्दुस्तानी सभ्यता में पली हुई थी इस किस्म के शब्द जबान पर ला भी नहीं सकती थी जब माँ-बाप की रोज-रोज की लड़ाई सुनती तो छुप-छुप कर रो लेतीं। लड़कियाँ पन्द्रह साल की हो गयी थीं लेकिन इकबाल दुल्हन किसी तरह राजी नहीं होती थीं। कहती थीं कि "उम्र भर कुँवारी रखूँगी, तुम्हारे भाई के घर न दूँगी, जहर खिला कर सुला दूँगी मगर असगर के बेटों को न ब्याहूँगी।" कुँवारी रखने और जहर खिलाने की धमकी रोज देती थी लेकिन बेटियों का दहेज बराबर तैयार कर रही थीं।
असगर दुल्हन की भी हठ थी कि आखिर एक दादा की जायदाद है अलग क्यूँ हो। देवरानी का जब दिल चाहे करें मुझे जल्दी नहीं है। असगर गरीब बिल्कुल बूढ़े हो चुके थे और भावज के बुरे व्यवहार व नहीं-नहीं से तंग आ गये थे लेकिन जायदाद का लालच बुरा होता है वह भी अपनी बात पर अड़े थे और बराबर भाई पर जोर डाल रहे थे कि शादी कर दो। जब लड़कियाँ चाचा के यहाँ माँगी हों तो किसी की मजाल है कि रिश्ता भेजे, और कोई जिक्र कर भी देता तो असगर दुल्हन से पिण्ड छुड़ाना हो जाता।
अहमदी और कादिरी की आने वाली जिंदगी का मसला इस तरह खटाई में पड़ा हुआ कि उनका भाग्य जागा और इकबाल छः दिन निमोनिया में पड़े रह कर मर गये। बीमारी के जमाने में असगर और उनकी बीवी ने हजार कोशिश भी कि निकाह हो जाये लेकिन इकबाल की दुल्हन ने मियाँ की ऐसी चौकीदारी की कि असगर और उनकी दुल्हन की एक न चली और लड़कियों को बिन ब्याहे छोड़कर इकबाल चले गये और उनकी मौत के बाद यह हाल खुला कि वह जिंदगी में सारी जायदाद बीवी के नाम कर गये थेा असगर दुल्हन तिलमिला कर रह गयीं, "हाय अब क्या करूँ अब तो यह सोने की चिड़ियाँ हाथ से गयीं।"
पति के रहते ही इकबाल दुल्हन ने बचपन में मँगनियाँ तोड़ दीं। यह खानदानी नस्ल के बच्चे असगर और उनका खानदान इस बात पर अड़ गये कि बचपन की मँगनियाँ टूट नहीं सकतीं। निकाह टूट जायें मँगनियाँ नहीं टूट सकतीं। वरना खून हो जायेंगे। शादी होगी तो यहीं होगी मजाल है किसी की कि लड़कियों को ब्याह कर ले जाये।
इकबाल दुल्हन चुपके-चुपके इनकी बात लगातीं लेकिन चाचा उसे किसी न किसी तरह मोड़ कर दम लेते। कहीं लड़कियों में खराबी बताते कहीं माँ को पागल कहते। इस तरह दो साल निकल गये और अहमदी व कादिरी को वर न मिल सके।
देहली में सैय्यद मनजूर हसन साहब अत्यधिक श्रद्धालु और धार्मिक थे। उनके ज्ञान-ध्यान और नेकी की इतनी धूम थी कि लोग उनके मुरीद थे। शिक्षा और ज्ञान के कारण ही मौलवी साहब को गरीबी के गड्ढे से निकाल कर अमीरी की बुलन्दी पर पहुँचा दिया। और मुसलमानों के सियासी मामले पर भी उनकी आवाज काफी जोरदार असर रखती थी। इन्होंने जब इकबाल दुल्हन का हाल सुना तो अपने लड़कों का रिश्ता भेज दिया और इकबाल दुल्हन ने ऊपर वाले की मदद समझ कर कुबूल भी कर लिया।
चाचा को खबर हुई, वह देहली मौलवी साहब के पास पहुँचे और लड़कियों पर अपना हक जताया। मौलवी साहब जो रुपये की कद्र एक अमीर से ज्यादा करते थे कहने लगे, "नवाब साहब, मुझे बहुत अफसोस है, आपके खानदान में इतनी फूट है। इस हालत में तो यही बेहतर होगा कि शादियाँ बाहर हों और अब मैं तो अपनी जबान दे चुका हूँ, वापस नहीं ले सकता।"
नवाब पहली बार मुँह की खाकर घर वापस आ गये। बीवी ने सुना तो घर में कोहराम मचा दिया। नवाब असगर अली खाँ के लड़के भी इसे अपना अरमान समझे और मरने मारने को तैयार हो गये।
शादी तो ऐसी हालत में क्या होती, हर समय डर था कि असगर दुल्हन और उनके साहब जादे कुछ फसाद करेंगे। अतः मौलवी साहब की अक्ल ने सब काम सहूलियत से अदा कर दिया। निकाह की तारीख चाँद की इक्कीस ठहरी। बहुत जोर-शोर से इकबाल दुल्हन ने तैयारियाँ शुरू कीं। खत और नेवते बँटे। लोग इस ब्याह के इन्तेजार में थे कि जिस तरह लोग गाँव में राम लीला के इन्तेजार में रहते हैं।
नौ तारीख को मौलवी साहब दुल्हाओं, काजी और गवाहों के साथ रात ग्यारह बजे मोटर में आये। निकाह पढ़वा कर दोनों दुल्हनों को लेकर रुखसत हुए। इसकी खबर सिवा इकबाल दुल्हन और हकीमन बुढ़िया को जो इकबाल दुल्हन की नौकर थी किसी को कानों-कान न हुई। अब हकीमन बेचारी को न ठीक से सुनाई देता था न दिखायी। लेकिन इकबाल दुल्हन ने इस डर से कि कहीं किसी को खबर न हो जाये उसको दुल्हनों के साथ किया। जब दूसरे दिन असगर दुल्हन को खबर हुई तो सर पीट कर रह गईं।
मौलवी साहब की बीवी ने अपने करीबी रिश्तेदारों को इकट्ठा कर लिया था उन्हें इस तरह खाली घर में दुल्हन उतरवाते हुए शक होता था। सब परेशान थीं कि अब न मालूम क्या होगा जब खैरियत से डेढ़ बजे मोटरें आकर रुकीं और मालूम हुआ कि दुल्हनें आ गयीं तो सब को सुकून हुआ। जाड़े के दिन थे महवटें बरस कर खुल रहीं थी, ठण्डी हवा, कुछ-कुछ बादल और कभी-कभार की बूँदा-बाँदी सर्दी को चमका रही थीं, बीवियाँ अँगीठियाँ लिए बैठी थीं। इस सर्दी में कोई दुल्हनें उतरवाने और कोई न उठीं। सब को सोने की जल्दी थी। दुल्हनें सीधी ऊपर भेज दी गयीं, कुँवारी लड़कियाँ एक कमरे में जमीन पर बिस्तर किये आपस में खुसर-फुसर कर रही थीं। ऐसे मौके इन बेचारियों को कम मिलते थे कि आपस में बातें कर सकें। ऐसे मौकों पर तो वह रात-रात भर शादी ब्याह, दूल्हा-दुल्हन की बातें कर के गुजार देती थीं। लड़कों की माँ का चेहरा खुशी से चमक रहा था जो जेवर और कागजात लड़कियों को मिले थे उनको देख-देख कर वो खुशी से फूले न समाती थी। बीवियाँ रश्क से उनकी ओर देख रही थीं सब को जमाइयाँ पर जमाइयाँ आ रही थी, "बुआ, मैं तो चली मारे नींद के बैठा नहीं जाता।" कह-कह कर खिसकती जाती थीं।
दोनों दुल्हा इस किस्म की खुफिया शादी से बड़े खुश थे। हर एक उन पर गर्व कर रहा था। बराबर वाले तो छेड़-छेड़ कर नाक में दम किये देते थे। बड़े साहबजादे जिन को इस्लामी ज्ञान में काफी महारत थी अपनी जीत पर बड़ा गर्व कर रहे थे। और अपने दुश्मनों का मजाक उड़ा रहे थे। छोटे साहब जो शायरी का मिजाज व शौक रखते थे और पिता के दिल से उतरे हुए थे एक अजीब किस्म की बेचैनी महसूस कर रहे थे इसलिए बना भी सब उन्हीं को रहे थे। जब दुल्हाओं को अन्दर बुलाया गया तो यह बड़ा शरमाये लेकिन बड़े भाई को अन्दर जाते देख कर उनकी हिम्मत बँधी और यह भी साथ-साथ लग गये। डेवढ़ी पर बहनें और चाचियाँ मिलीं उन्होंने भी खूब छेड़ा और अपने-अपने कमरे बता कर चली गयीं।
घड़ी ने टन-टन करके चार बजाये। छोटे साहब ने अँगड़ाई लेकर बीवी को और भींचा "अरे भई, यह तो बताओ तुम्हारी बहन को भाभी जान कहूँ या बड़ी साली का रिश्ता रख कर आपा जान कहूँ?"
अहमदी जो अभी तक शर्म के कारण जी हाँ या जी नहीं में जवाब दे रही थी एक दम आँखें फाड़ कर डरती-डरती आवाज में बोली
- "तो आप... आप" छोटे साहब जिनको बड़ी नींद आ रही थी और जो बराबर जागने की कोशिश कर रहे थे आधी सोयी और आधी जागती आवाज में बोले - "अरे कहाँ भागी जाती हो...। अल्लाह अल्लाह करके तो तुम्हें मनाया था अब तुम हो कि भागी जाती हो.. खुदा के लिए बताइए... आप कौन हैं।"
"तुम बड़ी शरीफ हो तुम्हें अब भी नहीं मालूम है कि मैं कौन हूँ?"
"आप बड़े भाई हैं कि छो...टे.... अल्लाह जल्दी बताइए...।"
दुल्हन की आवाज काँप रही थी, दूल्हा ने भी आँखें खोल दीं। "क्यूँ, क्यूँ। यह तो मेरा ही कमरा है।"
घबरा कर चारों तरफ निगाह डाली, "वाह यह तो मेरा ही घन्टा है। फिजूल तुम मुझे डरा रही हो।"
"मैं अहमदी हूँ बड़ी बहन... आप बताइए कि आप कौन से भाई हैं?"
"नहीं तुम झूठ कह रही हो।" छोटे साहब लिहाफ निकल पड़े और फिर दुल्हन की मौजूदगी दूसरी तरफ महसूस करके अपने को छुपा लिया। उनकी आवाज में दरख्वास्त थी कि खुदा के लिए कह दो कि तुम छोटी बहन कादिरी हो।
"मैं झूठ नहीं बोल रही।" दुल्हन ने कहा।
दोनों एक पलँग पर बैठ गये। कुछ पलों तक एक दूसरे का मुँह डर और परेशानी से देखते रहे। अक्ल तो जैसे वहाँ थी नहीं, एक तो एहसास मर चुका था। दुल्हन पहले होश में आयी और "हाय अल्लाह अब क्या होगा" कह कर मुँह छुपा लिया। छोटे साहब धीरे से पलँग से उतरे, कपड़े पहने और कमरे से निकल गये। दुल्हन ने जोर से पुकारा "सुनिये तो" यह सीधे चले गये और जाकर बड़े भाई का दरवाजा खटखटाया, वह सो रहे थे और समझे कि देर हो गयी और लोग उन को जगाने आये हैं। झुँझला कर उठे और दो मिनट में तैयार होकर बाहर निकले। छोटे भाई को इस तरह बदहवास व बौखलाया हुआ देखकर खैरियत पूछी।
"भाई साहब!... भाई साहब!! आवाज हलक में फँस गयी। भाई साहब दुल्हनें बदल गयीं।" बड़े ने घबरा कर इधर-उधर देखा "औरतों से गल्ती हो गयी" बड़ी मुश्किल से फिर छोटे ने कहा। दोनों भाई एक दूसरे का मुँह ताकने लगे। बूँदों ने उन्हें होशियार किया और वह धीरे-धीरे मुँडेर की तरफ बढ़े, बड़े भाई चुप खड़े थे और छोटे भाई बेचैन इधर-उधर टहल रहे थे।
"भाई साहब क्या होगा?"
"तुम्हें सही खबर है?"
"खुद दुल्हन ने मुझसे कहा। मेरी समझ में नहीं आता कि क्या होगा?"
"जो अब्बा जान कहेंगे और क्या।"
"अब्बा जान।"
"मैं तो बिल्कुल...।"
"अच्छा यहाँ मीन्ह में भीगने से क्या फायदा नीचे चलो। दोनों ने धीरे-धीरे सीढ़ी से नीचे उतरना शुरू किया। बड़े भाई ने मुड़ कर कहा - हर एक से कहते न फिरना, बेकार हँसी होगी। मुझे पहले अब्बा जान से बता लेने दो।"
"और जो उन्होंने बदल लेने को कहा?"
"पहले से ही कहने लगे उन्हें मौका तो दो।" बड़े ने डाटा। छोटे बेचारे ने पहली बार औरत को बाँहों में लिया था। अपनी गजलें सुनाई थीं। यह तो पहले से ही बिना देखे अपनी बीवी पर आशिक हो चुके थे और बाप को भी जानते थे। बेचारे की हालत सहानुभूति के लायक थी। बड़े भाई जो औरत के मामले में इतने अनजान न थे और दुनियादार भी थे चुप थे।
छोटे बाहर से अन्दर आये तो डेवढ़ी में खड़े रहे माँ के पास जायें या न जायें। भाई ने मना कर दिया था कि किसी से बताना नहीं। मालूम होगा तो वह बिगड़ेंगे। लेकिन हिम्मत करके अन्दर चले गये। माँ सामने गावतकिया से लगी सो रही थीं। जाकर जगाया, उन्होंने घबरा कर आँखे खोलीं तो निगाहें बेटे के मुँह पर जमीं की जमीं रह गयीं।
"ऐ खैर तो है।"
"दुल्हनें बदल गयीं।"
"दीवाना हुआ है लड़के।" माँ ने बड़ी मुश्किल से कहा। "कहाँ है अनवरी और मँझली दुल्हन जो लड़कों को ऊपर ले गई थीं।" बेटी को जोर से आवाज दी।
"खुदा के लिए अम्मा जान किसी से कहिएगा नहीं। भाई साहब ने कहा है वह अब्बा जान से पहले बता लें। आप भी किसी से मेरा नाम न लीजिएगा।"
यह कहकर छोटे उसी घबराहट में उठ कर बाहर चल दिये। और माँ मुँह देखती की देखती रह गयीं।