अंधा (गुजराती कहानी) : आबिद सुरती

Andha : Aabid Surti (Gujarati Story)

लोकनाथ सूरज के साथ जागकर नल के नीचे नहाने बैठा और ठंडे पानी की धार उसके जिस्म पर पड़ी तो उसे याद आ गया, रात में उसने एक सपना देखा था । ठंडे पानी और सपनों के बीच कोई संबंध हो सकता है? वह यह भी नहीं जानता था कि नेत्रहीन लोग सपने देख सकते होंगे या नहीं, मगर यह उसे बराबर मालूम था । वह खुद जन्म का अंधा नहीं था ।

दस साल की उम्र तक उसने जो कुछ भी देखा था, उसमें से वह शायद ही कुछ भूल पाया था । मसलन कोयल । आज भी वह जब कभी कोयल की कूक सुनता, वही बचपन की कोयल की तस्वीर उसके मन में उभर आती थी । स्नान के बाद उसने पूजा-पाठ भी निपटाया । यह उसका दैनिक क्रम था । इसी क्रम में तीसरे नंबर पर नाश्ता था । कमर पर गमछा बाँध पालथी मारकर वह रसोई में माँ के सामने बैठा और सपने का जिक्र छेड़ा ।

माँ ने नाश्ते की थाली के साथ चाय का कप बढ़ाते हुए पूछा, ‘क्या देखा सपने में?’

‘शंकर जी ।' वह बोला, ‘कह रहे थे-लोकनाथ, हम तुम्हें एक मिनट का समय देते हैं । तुम जो माँगोगे सो मिल जाएगा ।’

‘सच!' माँ बज उठी, ‘फिर तूने क्या माँगा?’

‘मैं सोचता रह गया और मिनट बीत गया ।’

‘अरे पगले!' अनजाने अपनी आवाज में दुख घोलते हुए माँ ने कहा, ‘ कम-से-कम अपने लिए आँखें ही माँग ली होतीं ।’

‘तब भोलेनाथ की नजरों से मैं गिर न जाता!' वह बोला,'वह क्या सोचते? यह लोकनाथ कैसा स्वार्थी इंसान है । सारा जग दुखियारा है और अपने लिए वह खुशियां मांग रहा है।’

उसका जवाब सुनकर माँ को हैरत न हुई । वह जानती थी । अपनी कोख से उसने बेटे को नहीं, किसी संत को जन्म दिया था। वैसे लोकनाथ न कोई संत था, न महात्मा । बल्कि इस देश के लाखों नेत्रहीनों में से एक था । और फिर भी अलग । अलग इस अर्थ में कि उसके सामने कोई राह न होते हुए भी राह बनाना वह जानता था ।

सफेद बुशर्ट-पैंट में तैयार होकर वह जाने लगा तो माँ ने उसके हाथ में छड़ी थमाते हुए टोका, ‘आज फिर भूल गया ।’

वह भूला नहीं था । माँ का दिल रखने के लिए उसने छड़ी का सहारा लिया और सीढ़ियाँ उतर गया । उसकी स्टील की यह छड़ी भी आम छड़ियों से अलग थी, क्योंकि यह चार हिस्सों में बँटी थी । जरूरत न होने पर उसे ‘फोल्ड' करके जेब में रखा जा सकता था । फुटपाथ पर कदम रख उसने वैसा ही किया । छड़ी को मोड़कर जेब में रखा और जेब से काला चश्मा निकाल आँखों पर लगा लिया । मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक-यह कहावत लोकनाथ पर एकदम फिट बैठती थी । उसकी जिंदगी का दायरा भी सीमित था । घर से चौराहा और चौराहे से घर । चौराहे पर उसका अपना टेलीफोन बूथ था । यह रास्ता उसका बरसों का परिचित था । यहाँ के शोर में टकराती आवाजें उसकी हमनशीं थीं ।

उजले कपड़े और चमड़े के जूतों में उसे बिना लकड़ी के फुटपाथ पर कदम बढ़ाता देख शायद ही कोई सोच सके कि वह नेत्रहीन होगा । आम लोगों के लिए यह जानना भी मुश्किल था कि उसकी अपनी कुछ गिनतियाँ थीं । कितने कदम चलने के बाद उसे रास्ता पार करना है और जूते पालिश करवाने के लिए कितने कदम पर रुकना है ।

सीधे फुटपाथ पर कुछ फासला तय कर वह रुका तो एक बच्चे की आवाज उसके कानों से टकराई, ‘अंकल, हमें रास्ता पार करवा दो न!' उसने आवाज की दिशा में हाथ बढ़ाया । बच्चे ने उसकी अँगुली थाम ली ।

जहाँ लोकनाथ खड़ा था, वहां न क्रासिंग था, न ज़ेब्रा लाइनें थीं ।' पर जब दूर के चौराहे पर लाल बत्ती चमक उठती, सारे वाहन वहीं रुक जाते थे और चंद पलों के लिए सड़क सूनी हो जाती थी ।

कुछ मिनटों के इंतजार के बाद बच्चे के साथ वह रास्ता पार कर गया । ‘थैंक्यू अंकल! ' बच्चे ने जाने से पहले कहा । वह सिर्फ़ मुस्कराया और फिर आगे बढ़ा । वह सामने की फुटपाथ पर से चौराहे की ओर कदम बढ़ा रहा था कि उसकी नाक ने महक परख ली । वह फूलवाले की दुकान तक आ पहुँचा था (आज उसने लंबी डंडी वाला एक गुलाब खरीदा और पारदर्शी कागज में बंधवा लिया ।) यहाँ से तैंतीस कदम पर जूते पालिश करने-वाला छोकरा बैठता था । लोकनाथ ठीक वहीं पर रुका ।

यह भी उसका नित्य क्रम था । साफ कपड़े, साफ जूते और इधर-से उधर की कुछ बातें । बातें करने का छोकरे का अंदाज कुछ ऐसा था कि वह दिलचस्पी से सुनता रहता । किस फिल्म के टिकटों का ब्लैक चल रहा है और कौनसी फिल्म ने पहले ही हफ्ते में दम तोड़ दिया या किस हीरोइन ने किस सुपर स्टार को चाँटा मारा और कौनसा निर्देशक किस अड्डे पर शराब पीता है। पर आज न जाने क्यों छोकरा उससे रूठ गया हो, ऐसे चुपचाप जूते चमकाने में व्यस्त था। ‘चुनिया!' आखिर लोकनाथ ने पूछा, ‘क्या बात है?’

‘कुछ भी नहीं ।’

‘खामोश क्यों हो?’

‘अब क्या बताऊँ, साब! ‘ दाहिने पैर के जूते को चमकाकर उसने बाएँ पर ध्यान लगाया, ‘एक माँ है। दो छोटे भाई हैं। वैसे ही इस धंधे में गुजारा नहीं होता । बारिश शुरू होगी तो साला एकदम ठप्प हो जाएगा ।’

‘साथ में कोई दूसरा धंधा शुरू कर दो ।’

‘यही तो अपन की खोपड़ी में नहीं आता कि बिना नकद लगाए कौनसा धंधा शुरू किया जा सकता है!’

‘समझो!' लोकनाथ ने उसे उपाय सुझाया, ‘हमारे इलाके में फूलवालों की तीन दुकानें हैं । ये लोग जब दुकानें बंद करते हैं तो गुलाब की ढेर सारी पत्तियाँ फेंक देते हैं । तुम वे ढेर इकट्ठे कर अपने वैद्य जी की दुकान पर बेच आओ ।' पालिशवाले जूते पर कपड़ा मारते हुए छोकरा बोला, ‘वैद्यजी उनका क्या करेंगे?’

‘वे गुलकंद बनाकर बेचते हैं ।’

छोकरे की समझ में बात आ गई । पर जैसे अब भी विश्वास बैठा न हो, ऐसे लोकनाथ को दूर तक जाते हुए वह देखता रहा ।

लोकनाथ चौराहे पर आया और जेब से चाबी निकाल उसने अपने बूथ के ताले में घुमाई। इस टेलीफोन बूथ के लिए वह नगरपालिका तथा बंबई शहर के भले मनुष्यों का आभारी था । इसलिए कि उनकी बदौलत उसकी रोजी-रोटी का सवाल हुआ था और इसलिए भी कि इस बूथ के जरिए उसे मानव-सेवा का मौका मिला था।

अभी बूथ में वह मेज-कुर्सी झाड़कर बैठा ही था कि टेलीफोन की घंटी बज उठी। उसने रिसीवर उठाकर कान पर लगाया । रांग नंबर था । मुस्कराते हुए उसने कहा, ‘जी नहीं, यह कब्रिस्तान नहीं, लोकनाथ वर्मा का टेलीफोन बूथ है।' दिन भर में ऐसे दर्जन-भर कॉल आ ही जाते थे । कभी किसी का प्र:सूतिगृह का नंबर यहाँ लग जाता था तो कभी पुलिस स्टेशन का। कभी किसी ‘मटका-डैन' की लाइन यहाँ आ जाती थी तो कभी होटल की । वह जरा भी चिढ़े बगैर सभी को प्यार से जवाब देता था ।

‘क्या मैं फोन कर सकता हूं?’

आवाज किसी युवक की थी। उसने इशारे से ‘हाँ' कहा ।

बूथ के बाहर खड़े युवक के बारे में सोचने पर उसे लगा कि युवक में आत्मविश्वास की कमी है, वर्ना जो सहूलियत जनता के लिए उपलब्ध हो उसके लिए इजाजत लेने की जरूरत नहीं होती।

‘ इंटरव्यू आज है?' डायल धुमाकर युवक रिसीवर में कह रहा था, ‘आपने दो हफ्ते पहले खत भेजा होगा पर मुझे नहीं मिला ... जी अभी? ... यहाँ से आने में घंटा-भर लग जाएगा... जी हां, मैं टैक्सी कर लूँगा ।’

फौरन रिसीवर रख उसने जेब टटोली और रुपए का एक सिक्का निकालकर लोकनाथ के हाथ में रखा । लोकनाथ ने उसके सामने अपना रूमाल बढ़ाया। जाने-अनजाने रूमाल स्वीकार कर युवक ने पसीना पोंछा और अचानक उसे खयाल आया-इस अंधे को कैसे पता चला कि उसका चेहरा गीला है? रूमाल लौटाते हुए उसने पूछ ही लिया । लोकनाथ रिसीवर पोंछते हुए केवल मुस्कराया । चाहता तो वह कह सकता था कि पसीने से रुपए का सिक्का चिपचिपा था । यह रिसीवर भी गीला है ।

युवक उसके शरारती मुस्कान-भरे चेहरे को घूरकर वहाँ से खिसक गया, तो कुछ पल पहले आकर उसके पीछे खड़े एक मुच्छड़ ने रिसीवर उठा लिया । फिर नंबर घुमाकर फोन में बोलने लगा, ‘ मैं जग्गा से बात कर सकता हूँ, जी?' लोकनाथ ने सोचा, यह कोई धाकड़ शख्स होना चाहिए । आमतौर पर लोग रिसीवर उठाने से पहले इतना जरूर कहते थे-फोन लगाना है या लगाता हूँ । इस पट्ठे ने सूचना देने की भी जरूरत नहीं समझी ।

‘कौन, जगह!' दूसरे छोर पर मित्र आने पर मुच्छड़ ने बात शुरू की, ‘हाँ जी ... हाँ जी ... अभी नहीं... हाँ जी ... एक हफ्ता और रुकना होगा. .. तुसी ऐश करो, पापे ।’

मिनट-भर में बात समाप्त कर मुच्छड़ ने बटुए से बीस रुपए का एक नोट निकालकर लोकनाथ के सामने धरा, ‘लो, जी ।' लोकनाथ ने नोट के नयेपन को महसूस कर दराज से चार नोट निकाले-दस और पाँच रुपए का एक-एक और दो-दो रुपए के दो । तभी उसके कानों से सैंडल की परिचित आवाज टकराई । मुच्छड़ को उन्नीस रुपए लौटाते हुए उसने मधुर आवाज में कहा, ‘हैलो... ' मुच्छड़ चौंका, ‘मुझसे कुछ कहा, जी?’

‘नहीं ।' वह बोला, ‘आपके पीछे जो मिस खड़ी है, उससे ।’

मुच्छड़ ने पलटकर देखा तो हैरान रह गया । सचमुच उसके पीछे अठारह साल की एक सुंदरी, पूनम खड़ी थी । उसने फिर एक बार लोकनाथ के सामने देखा (कहीं यह अंधा ढोंगी तो नहीं?) और अपनी चौड़ी गरदन एक अंगुली से खुजाता हुआ चलता बना ।

पूनम अब लोकनाथ के सामने आई, ‘लोकू। मेरा कोई फोन था?’

उसने ‘ना' कहा । वह बूथ के बाहर रखे हुए एक स्टूल पर बैठ गई। यह उसका लंच-आवर था । रोजाना वह इसी वक्त (एक बजकर दस मिनट पर) अपना लंच बॉक्स और पानी की बोतल लेकर यहाँ चली आती थी ।

‘कुछ लोगे?' लंच बॉक्स खोलकर उसने लोकनाथ की दिशा में चेहरा तिरछा किया, ‘पूरी- भाजी के साथ केक का एक टुकड़ा भी है ।’

‘थैंक्स, मिस!' कुछ पल रुककर उसने जोड़ा, ‘इजाज़त हो तो एक सवाल पूछूँ?’

‘जरूर ।’

‘आप किसी दफ्तर में काम करती हैं, सच?’

‘रेडिमेड कपड़े बनाने वाली एक कंपनी में मैं पी.एस. हूँ।' ‘तब वहाँ फोन भी होगा?’

पूनम उसकी इशारा समझ गई, ‘तुम यही पूछना चाहते हो न कि मैं अपने पर्सनल कॉल वहाँ रिसीव क्यों नहीं करती?’

उसने सिर हिला दिया ।

‘मेरे उसूल ।' पूनम खाना भी खा रही थी और जवाब भी दे रही थी, ‘जिस वक्त के लिए मुझे तनख्वाह मिलती हो, वह वक्त मेरा नहीं होता । इसी कारण मैंने अपने मित्रों, परिवारवालों को साफ-साफ बता दिया है कि दफ्तर में मुझे फोन न करें । अलबत्ता, इमरजेंसी हो तो बात और है ।’

‘यह बात तो समझ में आई, लेकिन ...’

‘लेकिन क्या?’

‘फॉर्गेट इट । आप सोचेंगी, अँगुली दी तो पहुँचा पकड़ लिया ।’

‘मुझे इतना भरोसा है ।' खाना पूरा कर पानी की बोतल खोलते हुए पूनम बोली, ‘तुम उन मर्दों में से नहीं हो । कहो, तुम्हारा दूसरा सवाल क्या है?' ‘यही कि रोजाना फोन का इंतजार करने के बजाय आप खुद भी तो डायल कर सकती हैं?’

‘यही मुमकिन नहीं । मेरा बॉयफ्रेंड ट्रेवलिंग सेल्समैन है ।' पानी के दो घूँट भरकर उसने आगे कहा, ‘वह किसी भी वक्त कहीं भी हो सकता है ।’

फोन की घंटी बज उठी । वह खड़ी हो गई । पानी की बोतल और खाली लंच बाक्स स्कूल पर रख उसने रिसीवर उठाया । कॉल उसके बॉयफ्रेंड का ही था ।

‘हैलो, राहुल! ' वह चहक उठी, ‘कहाँ से बोल रहे हो?’

‘ एयरपोर्ट।’

‘प्यार का पट्ठा छुड़ाकर कहीं भाग निकलने का इरादा तो नहीं?’

‘है ।' रिसीवर में से आवाज उभरी, ‘पर उसमें एक खतरा है ।’

‘वह क्या?’

‘तुमसे जितना दूर जाता हूँ उतना ही और करीब आता हूँ ।’

पूनम हँस दी, ‘ऐसी मीठी-मीठी बातें बनाना तो कोई तुमसे सीखे । अच्छा, यह बताओ, आज शाम को हम कहाँ मिल रहे हैं?’

‘अगर तुमने मिनी स्कर्ट पहना है तो किसी डिस्को में, साड़ी पहनी हो तो किसी रेस्तराँ में और कोई अंधा भी बता सकता है कि तुमने साड़ी पहनी है । कॉफी हाउस कैसा रहेगा?’

‘छह बजे मैं वहीं तुम्हारा इंतजार करूँगी ।’

रिसीवर क्रेडिल पर रख उसने लोकनाथ का आभार माना और स्टूल पर से लंच बॉक्स तथा पानी की बोतल उठा ली ।' लोकू! ‘ जाने से पहले उसने कुछ सोचकर पूछा, ‘साड़ी के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है?’

‘ साड़ी हिंदुस्तानी औरत की पहचान है।' कहते हुए लोकनाथ खड़ा हो गया । पारदर्शी कागज में लिपटा हुआ गुलाब का फूल उसके हाथ में था ।' और दूसरी पहचान है-यह। मेरी ओर से अपने राहुल को यह छोटा-सा तोहफा देकर कहना कि अंधा यह भी बता सकता है कि आज उसने क्या पहना होगा ।’

पूनम की आँखें उसके चेहरे पर टिक गई, ‘क्या पहना होगा?’

‘शर्ट, पैंट और टाई।' पूनम कुछ आगे कह इससे पहले उसने खुलासा कर दिया, ‘सेल्समैनों के लिबास यही होते हैं ।’

पूनम से बिना हँसे रहा न गया ।

उसकी हँसी लोकनाथ की हँसी थी । उसकी खुशी लोकनाथ की खुशी थी । मानो उसके जीवन का सिर्फ़ एक ही मकसद था । अपने परिचय में आने वाले हर शख्स के दिल को मुस्कराहटों से भर देना । फिर वह शख्स छोटा हो या बड़ा, ऊँचा हो या नीचा, अमीर हो गरीब-उसके लिए इस दुनिया में सभी बराबर थे ।

तीन दिन बाद जब वह जूते पालिश करवाने रुका तो उसकी खुशी की सीमा न रही । छोकरे ने विषय ही कुछ ऐसा छेड़ा था ।

‘साहब! गुलकंद खरीदोगे?’

उसकी समझ में कुछ भी न आया, ‘गुलकंद!’

‘अपन ने बनाना सीख लिया है।' लोकनाथ के बूते चमकाते हुए वह फख्र से कह रहा था, ‘ एकदम इज्जी है । एक हाथ में गुलाब की पत्तियाँ और दूसरे हाथ में चीनी लेकर मसलने से जो मलीदा तैयार होगा, उसे कांच के मर्तबान में भरकर धूप में रख दो और गुलकंद तैयार।’

‘मर्तबान धूप में कितने घंटे रखना चाहिए?’

‘मैंने दो दिन रखकर बोतलों में भर लिया था, साब, आप बोहनी करेंगे तो शाम तक मेरी दसों बोतलें बिक जाएंगी।’

‘ओ.के. ।' बटुए के लिए जेब में हाथ डालते हुए वह मुस्कराया, ‘क्या दाम रखे हैं?’

‘एक बोतल के सिर्फ़ छह रुपए।’

‘मैं दो बोतलें खरीदूंगा ।’

अब तक छोकरे ने दोनों जूते पालिश कर लिए थे ।

‘बाजार में यह छोटी बोतल ग्यारह रुपए में बिकती है। मैं छह रुपए में बेचता हूँ। फिर भी एक रुपया बचता है।’

दो बोतलों की कीमत अदा कर लोकनाथ ने बटुआ जेब में सरका दिया । दस मिनट बाद वह अपने टेलीफोन बूथ में बैठा था और बाहर स्टूल पर उखड़ा-सा एक इंस्पेक्टर । सवेरे-सवेरे अचानक ही टेलीफोन डैड हो जाने के कारण आज कइयों को मायूसी होनेवाली थी । पर इंस्पेक्टर गोडबोले की परेशानियां एक से अधिक थीं ।

‘आज का दिन ही कुछ मनहूस शुरू हुआ ।' वह अपनी वर्दी पर पड़ा एक ताजा दाग कागज के टुकड़े से घिसकर साफ कर रहा था, ‘सवेरे चाय के पहले कप के साथ बीवी ने टाँय-टाँय शुरू कर दी । तंग आकर घर से निकला तो बिल्ली रास्ता काट गई । यहाँ फोन को छुआ तो वह डैड हो गया ।' बड़बड़ाते हुए उसने पेड़ पर बैठ कौवे पर एक नजर डाली, ‘यही क्या कम था कि कौवे ने वर्दी खराब कर दी ।’

‘आप ड्यूटी पर भी लेट होंगे तो बड़े साहब की ...’

‘डाँट-फटकार आखिरी एक पखवारे से सुन रहा हूँ ।' लोकनाथ का जुमला उसने बीच में काटते हुए बताया, ‘अब तो आदत-सी हो गई है ।’

‘कोई नए साहब आए होंगे?’

‘चीफ तो वही है। उनको ऊपर से जूता पड़ता है तो वे नीचेवालों पर लानतें बरसाते हैं । वैसे कसूर उनका भी नहीं है ।' कागज का मैला टुकड़ा फेंककर उसने लोकनाथ से सवाल किया, ‘मैंने तुम्हें बैंक-रेड के बारे में बताया था?’

‘वह तो करीब बीस दिन पहले की बात है ।’

‘वही ।' वह बोल उठा, ‘उन लुटेरों का अब तक न पक चला है, न उनका कोई सुराग मिला है । हमारे कुत्ते भी साले फेल हों गए। हम तो सिर्फ़ इंसान हैं । क्या करें? अब तक वे पट्ठे सीमा पर निकल गए होंगे!’

कुछ सोचकर लोकनाथ ने हौले से पूछा, ‘बैंक से नोटों के जो बंडल गायब हुए हैं, उनके बारे में आप क्या जानते हैं?’

यह कोई मामूली सवाल न था । गोडबोले का चौंकना भी वाजिब था । (अंधे के पेट में कुछ कुलबुला रहा हो तो हैरत नहीं!) ‘तुम्हें क्या जानना है?’

‘वे बंडल सौ के थे, पचास के थे या दस-बीस के?’

‘दो लाख रुपए के बंडल सौ-सौ के थे ।' लोकनाथ के चेहरे को गैर से देखते हुए उसने बताया, ‘ बाकी बीस-बीस के ।’

‘नोट सारे नए होंगे?’

‘चकाचक ।’

दराज से बीस रुपए का एक नोट निकालकर लोकनाथ खड़ा हो गया, ‘कहीं यह उन्हीं में से तो एक नहीं?’

उसके हाथ से नोट झपट लेते हुए गोडबोले ने कुछ पल उसे गैर से देखा । फिर अपनी डायरी निकाल सीरियल नंबर चैक किया । उसकी आँखें चमक उठीं, ‘यार लोकू, यह उसी में का एक है! ' बोलते-बोलते स्टूल पर से वह भी खड़ा हो गया, ‘तुम्हारे पास कहाँ से आया?’

‘आखिरी कुछ दिनों से एक साहब यहाँ फोन करने आते हैं और हमेशा बीस का नया नोट दे जाते हैं ।’

डायरी पर बालपेन झुकाते हुए उसने फिर सवाल किया, ‘ उनके बारे में कुछ और बता सकते हो?’

‘क्यों नहीं! उनकी ऊँचाई साढ़े पाँच फुट होनी चाहिए ।’

‘वह कैसे?’

‘जब वे मुझसे बातें करते हैं तो उनकी आवाज बिलकुल मेरे सामने से आती है और मेरी ऊँचाई उतनी ही है ।’

गोडबोले ने अपनी डायरी में नोट करते हुए कहा, ‘ और?’

‘वे उत्तर भारत के रहने वाले होने चाहिए ।’

‘यू.पी. के?’

‘शायद पंजाब के ।’

‘तुम्हें यकीन है?’

‘बात करने का उनका लहजा कुछ वैसा है और हाँ..' यकायक याद आने पर उसने जोड़ा, ‘वे लोग अभी इतवार तक इसी शहर में रहेंगे ।’

‘सूरदास!' गोडबोले ने अपनी डायरी बंद कर जेब में डालते हुए मस्ती में कहा, ' लगता है, तुमने मेरा दिन ही नहीं, साल भी सुधार दिया ।’

लोकनाथ ने मधुर आवाज में कहा, ‘हैलो...’

इंस्पेक्टर गोडबोले चौंका, पर वह कुछ समझे, इससे पहले उसके पीछे से उतनी ही मीठी आवाज उभरी, ‘हैलो. .. लोकू!’

वह पूनम थी ।

दोनों को हैरत से देखता हुआ वह खिसक गया ।

‘मिस!' लोकनाथ ने व्यंग्य में कहा, ‘बेहतर होगा कि आप लौट जाएँ । आज आपका फोन नहीं आएगा ।’

वह ठिठक गई, ‘तुम्हें कैसे पता चला?’

‘यह तो सारा जग जानता है कि बाबा लोकनाथ त्रिकालज्ञानी है ।’

अब पूनम की नजर ‘आउट ऑफ ऑर्डर' की सूचना पर पड़ी और उसके होठों पर मुस्कान फैल गई । ‘बाबा!' स्टूल पर बैठकर अपना लंच बॉक्स खोलते हुए उसने मजाक जारी रखा, ‘क्या आप हमारा भविष्य बता सकते हैं?’

‘अवश्य । क्या जानना है तुम्हें, बच्ची?’

राहुल से हमारी शादी कब होगी?’

‘प्रश्न यह नहीं कि ब्याह कब होगा, बच्ची!’

‘तो?’

‘प्रश्न यह है कि ब्याह होगा या नहीं?’

पूनम के गले में जैसे मछली का काँटा फँस गया हो ऐसे उसका मुँह खुला रह गया । वह एक शब्द भी बोल न सकी । वैसे बोलने के लिए उसके पास था ही क्या? जो कुछ वह बताना नहीं चाहती थी, वह भी लोकनाथ ने भाँप लिया था, मानो उसके दिल की गहराई में गोता लगाकर वह उसका भय सतह पर ले आया था ।

‘देखिए, मिस!' अब लोकनाथ ने गंभीरता से कहा, ‘आप मेरी मित्र हैं और इसका मुझे फ़ख्र है ।’

पूनम की आँखें भर आईं ।

‘अगर आप भी मुझे अपना मित्र समझती हैं तो यह आपका फर्ज बनता है कि आप अपनी समस्या खुलकर मेरे सामने रखें ताकि हम साथ मिलकर उसे सुलझा सकें ।’

वह चुपके-चुपके रोने लगी । लोकनाथ को उसकी भनक लग ही गई । दूसरे पल उसने अपना रूमाल बढ़ा दिया । पूनम ने अपना चेहरा पोंछा और लंच बॉक्स खाए बिना बंद कर दिया ।

‘राहुल... राहुल चाहता है कि नए, मॉडर्न लिबास पहनूँ.. ' स्टूल पर बैठे-बैठे ही हाथ बढ़ाकर उसने रूमाल लौटाया, ‘डिस्को में उसके साथ नाचूँ गाऊँ । ये सब मुझे पसंद नहीं । मेरे लिए मुमकिन भी नहीं ।’

आखिरी जुमला माने रखता था। उसका असर क्या हुआ होगा यह जानने के लिए पूनम ने अपना चेहरा तिरछा कर लोकनाथ की ओर देखा । उसे लगा, अस्त्रों की तरह लोकनाथ का चेहरा भी अंधा था । न उसकी आँखें कुछ कहती थीं, न चेहरा । वर्ना कहीं तो यह सवाल नजर आता कि मिनी पहनकर डिस्को में नाचना पूनम के लिए मुमकिन क्यों नहीं? अपने बॉयफ्रेंड की खुशी के लिए कभी-कभार डिस्को संगीत की धुन पर नाचने से आसमान नहीं टूटने वाला था । लोकनाथ उसे ये सब कह सकता था । वह उसका हक था । न कहा शब्दों द्वारा, न भाव द्वारा । चालाक लोमड़ी है, लोमड़ी । पहले छेड़कर सबकुछ उगलवाता है, फिर खामोश हो जाता है ।

‘मेरा ... मेरा एक पैर नकली है ।' आखिर पूनम ने बता दिया ।

चौराहे के सिग्नल के पास एक टैक्सी का इंजन फेल हो गया था । पीछे खड़ी हुई कारों की कतार से हॉर्न की आवाजें उठ रही थीं । पूनम और लोकनाथ के बीच सन्नाटा छाया था ।

‘क्या... ' कुछ देर बाद लोकनाथ ने होंठ खोले, ‘यह राज राहुल नहीं जानता?' वह खामोश रही ।

‘यानि कि जिसे आप जीवनसाथी बनाना चाहती है, उसी पर आपको एतबार नहीं, सच?’

‘मैं उसे बता दूँ और वह मुझे ठुकरा दे तो?’

‘यह साबित होगा कि उसका प्यार कच्चा था ।' लोकनाथ ने बताया, ‘वह तुम्हारे मन से नहीं, तन से प्यार करता है । और तन का प्यार सच्चा नहीं होता शादी के बाद भी वह तुम्हें छोड़ सकता है ।’

‘यही मेरी उलझन है ।’

‘और यही उसके प्यार की कसौटी भी ।' कहते हुए वह मुस्कराया, 'मिस, वैसे आप हैं खुशकिस्मत । उसे आजमाने का यह सुनहरा मौका आपको शादी से पहले ही मिल गया । आजमाओगी न?’

इस मसले पर सोचने के लिए पूनम वक्त चाहती थी । कलाई-घड़ी पर नजर डाली । लंच-ऑवर करीब-करीब खत्म होने आया था ।

‘यह फोन कब ठीक होगा?’

‘कम्पलेंट सवेरे लिखवाई थी । किसी भी वक्त ठीक हो सकता है ।’

वह खड़ी हो गई, 'तब घर जाने से पहले शाम को मैं यहाँ होकर जाऊँगी ।' इंस्पेक्टर गोडबोले लोकनाथ से अलग होकर सड़क पार कर एक मकान के गलियारे में खड़ा हो गया था । उसकी तीखी नजर टेलीफोन बूथ पर टिकी थी । जो कोई भी शख्स फोन करने आता, उसे वह गैर से देखता था ।

पूनम के जाने के बाद दो मर्द और आए। उनमें एक बौना था, जो स्टूल पर चढ़कर नंबर घुमाने जा रहा था कि लोकनाथ ने 'आउट ऑफ ऑर्डर' की सूचना की और इशारा किया । शायद वे दोनों किसी सर्कस के विदूषक थे । दूसरा, उसका साथी ताड़ की तरह लंबा था ।

कुछ देर बाद टेलीफोन बूथ के सामने एक टैक्सी रुकी और एक युवक ब्रीफ़केस के साथ बाहर निकला । सबसे पहले उसकी नजर सूचना पर पड़ी और फिर लोकनाथ के चेहरे पर ।

‘लोकनाथ तुम्हीं हो?' कुछ कदम चलकर सामने आते हुए उसने पूछा । लोकनाथ ने ‘हाँ' में सिर हिला दिया ।

‘मेरा नाम...’

‘मैं जानता हूँ।' उसने मुस्कराकर कहा, ‘आप राहुल हैं ।’

राहुल को सचमुच हैरत हुई । आज तक पूनम से वह लोकनाथ के बारे में किस्से सुनता आया था । यही नहीं, आखिरी मुलाकात के वक्त पूनम ने एक अजीब फिकरा भी कसा था-लोकू अंधा है, इसका मतलब यह नहीं होता कि वह नहीं देखता ।

राहुल चकरा गया था । यह जुमला न था, ‘रुबिक क्यूब' था । उसने अलग-अलग ढंग से तोड़कर, जोड़कर, मोड़कर देखा था । फिर भी वह उस वक्त अर्थ समझ नहीं पाया था । आज लोकनाथ से रू-ब-रू होने पर उसकी गुत्थी सुलझ गई । लोकनाथ की आँखों में भले ही रोशनी न हो, वह आवाजों के जरिए, स्पर्श और गंध के जरिए देखता था ।

‘कहिए,' लोकनाथ ने खामोशी तोड़ते हुए पूछा, ' मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ?’

‘पूनम को एक मैसेज दोगे?’

‘श्योर ।’

‘उससे कहना कि आज शाम को मैं इसी इलाके में रहूँगा और छह बजे नुक्कड़ के चाइनीज रेस्तराँ में मिलूँगा ।’

‘अब एक गुजारिश मुझे करनी है। ' कहते हुए उसने दराज में रखी हुई दो बोतलों में से एक निकालकर राहुल के सामने बढ़ा दी।

‘यह क्या है?’

‘गुलकंद ।' वह बोला, ' मेरी ओर से मिस को यह तोहफा देना । इसके नियमित सेवन से उनकी आवाज में भी आप-सी चाशनी घुल जाएगी ।’

राहुल ने बोतल स्वीकारने से पहले पूछ लिया, ‘तुम खुद भी उसे दे सकते हो ।’

‘शायद वह स्वीकार नहीं करेंगी ।' कारण बताते हुए उसने जोड़ा, ‘लेकिन आप अपने हाथों से देंगे तो मिस ना नहीं कहेंगी ।’

राहुल के चेहरे पर अनजाने ही मुस्कान फैल गई । उसी मुस्कान के साथ वह प्रतीक्षा करती टैक्सी में बैठा और चौराहे के वाहनों की भीड़ में गायब हो गया । लोकनाथ अपनी कुर्सी पर बैठने ही वाला था कि उसने परिचित आवाज सुनी, ‘फोन डैड है, जी?’

‘सुबह से ।' कहते हुए उसके कान खड़े हो गए । वह चौकन्ना हो गया । मुच्छड़ उसके सामने खड़ा था ।

सड़क पार मकान के गलियारे में छिपकर खड़ा इंस्पेक्टर गोडबोले भी सावधान हो गया था । वह तेजी से सोच रहा था । यह मुच्छड़ बैंक-लुटेरा हो सकता है । लोकनाथ के बताए हुलिए के मुताबिक वह किसी पंजाबी ट्रक ड्राइवर-सा लगता था । उसकी ऊँचाई भी करीब साढ़े पाँच फुट थी । पर अभी पूरी तसल्ली होना बाकी था ।

‘यहाँ कहीं और पब्लिक फोन होगा?’

‘आप इस शहर में नए लगते हैं?' मुच्छड़ के सवाल का जवाब देते हुए लोकनाथ ने बताया, ‘वरना आपको जरूर पता होता कि यहाँ करीब में ही एक और फोन है ।’

‘कहाँ है, जी?’

उस सामने वाले मकान के गलियारे में ।’

मुच्छड़ बूथ से मुड़ा और लोकनाथ ने जेब से रूमाल निकालकर मुँह पोंछा । इंस्पेक्टर गोडबोले के लिए यह इशारा था । उसका शक यकीन में बदल गया । अब उसे मकान के गलियारे से निकलकर मुच्छड़ का पीछा करना था । सही मौका मिलने पर धर दबोचना था । पर वह गलियारे से निकल न पाया । मुच्छड़ उसी की दिशा में आ रहा था ।

वह बौखला गया । अंधे ने ऐसा क्या चमत्कार कर दिया कि शिकार खुद चलकर शिकारी के जाल में चला आ रहा था । (यह राज कुछ घंटे उसके लिए राज ही रहने वाला था ।) सड़क पार कर जैसे ही मुच्छड़ मकान के गलियारे में दाखिल हुआ कि इंस्पेक्टर गोडबोले ने अपना रिवॉल्वर निकालकर उसके सीने पर तान दिया ।

उस रात लोकनाथ चैन की नींद सो नहीं सका । उसकी समस्या यह न थी कि अब तक मुच्छड़ का गैंग पुलिस के चंगुल में फँसकर सलाखों के पीछे चला गया होगा या नहीं, बल्कि उसकी पीड़ा यह थी कि पूनम और राहुल के रिश्ते में कहीं दरार तो नहीं पड़ी होगी?

अब पूनम में इतनी हिम्मत आ गई थी कि वह अपने जीवन की सच्चाई को राहुल के सामने रख सके । पर इस साहस का नतीजा क्या निकलेगा, यह लोकनाथ की सोच के बाहर था । वह तो सिर्फ़ इतना जानता था-सच कभी हारता भी है तो उसका सिर ऊँचा होता है ।

रात घड़ी ने बारह बजाए और लोकनाथ की माँ ने करवट बदलते हुए देखा तो लोकनाथ का बिस्तर खाली था । उसने सोचा, बेटा शायद बाथरूम गया होगा या पानी पीने उठा होगा । मिनट-भर वह आहट लेती पड़ी रही । कहीं कोई हलचल सुनाई न देने पर वह उठ बैठी ।

लोकनाथ एक कोने में रखी हुई शिवजी की मूर्ति के सामने बैठा था । कुछ पलों के लिए माँ उसे एकटक देखती रही । आखिर उससे रहा न गया तो पूछ लिया, ‘क्या बात है, बेटा?’

अब तक लोकनाथ अपनी प्रार्थना पूरी कर चुका था ।' माँ! ' वह खड़े होते हुए बोला, ‘आज पहली बार मन में खटका हुआ है, कहीं रिश्ता टूट न जाए! ' ‘कैसा रिश्ता?’

‘प्यार का ।' वह माँ के करीब बैठ गया, ‘दोनों बहुत ही भले हैं । एक-दूसरे को सच्चे दिल से चाहते हैं ।’

‘कौन हैं वे दोनों?’

‘आप नहीं जानतीं ।' कुछ रुककर उसने बताया, ‘वैसे मैं भी उन्हें ठीक से नहीं जानता ।’

‘तू पगला का पगला ही रहेगा ।' माँ हँस दी, ‘चल, अब सो जा ।’

दूसरे दिन सवेरे लोकनाथ न फूलवाले की दुकान पर रुका, न जूते पालिश करवाए। वह सीधा चौराहे पर पहुँचा और टेलीफोन बूथ खोल अपनी कुर्सी पर बैठ गया । बिगड़ा हुआ फोन कल शाम में निगम के आदमी दुरुस्त कर गए थे । पर ‘आउट ऑफ ऑर्डर' का बोर्ड अब भी बूथ के बाहर लटक रहा था । याद आने पर उसने वह निकालकर अंदर एक तरफ रख दिया ।

ठीक एक बजकर दस मिनट पर पूनम आई । यही उसका रोज का आने का समय था । पर रोज की तरह वह भी आज अपनी औपचारिकता भूल गई । लोकनाथ से उसने न ‘हैलो 'कहा, न कुछ और, और स्टूल पर बैठ गई ।

आखिर लोकनाथ ने ही शुरूआत की-

‘मिस...!’

‘जी..’

‘कल की मुलाकात कैसी रही?’

‘ठीक।’

‘सबकुछ सच-सच बता दिया?’

‘हूँ।’

‘क्या कहा उसने?’

‘सोचने के लिए एक रात माँगी ।’

‘क्या सोचने के लिए?’

‘यही कि वह मुझसे शादी करेगा या नहीं ।’

खामोशी उतर आए इससे पहले लोकनाथ ने विषय मोड़ दिया, ‘अब तक आपने खाने का डिब्बा नहीं खोला?’

‘भूख नहीं है ।’

‘गुलकंद ट्राई किया?’

उसके सवाल को नजरअंदाज कर पूनम ने उसकी ओर देखा, ‘तुम्हें क्या लगता है?’

‘एक-आध दिन में बारिश शुरू होनी चाहिए ।’

‘मैंने मौसम के बारे में नहीं, अपनी शादी के बारे में पूछा है ।’

‘लड़का बुरा नहीं है ।’

‘लोकू!' वह भड़की । तभी टेलीफोन की घंटी बज उठी । उसने फौरन खड़े होते हुए रिसीवर झपट लिया । आज उसकी किस्मत का फैसला होने वाला था । बेसब्री उसके चेहरे पर साफ नजर आ रही थी ।

‘हैलो.. .हैलो...' वह बोल उठी और दूसरे पल उसे पता चला, फोन राहुल का नहीं था ।' सॉरी, रांग नंबर... जी नहीं, यह कब्रिस्तान नहीं है ।' उसने रिसीवर पटक दिया ।

लोकनाथ ने उसका दिल बहलाने के लिए कहा, ‘मेरी समझ में यह नहीं आता कि निगमवालों को कब्रिस्तान में फोन लगाने की क्या जरूरत पड़ी?' पूनम ने फिर स्टूल पर

बैठते हुए अपनी आवाज जरा, ऊँची की, ‘लोकू, मेरे सवाल का जवाब नहीं देना हो तो तुम ना भी कह सकते हो ।’

‘मैंने सोचा, मेरे चेहरे की मुस्कराहट देखकर आपने मेरा जवाब भाँप लिया होगा ।’

‘मैं साफ शब्दों में सुनना चाहती हूँ ।’

लोकनाथ ने बता दिया, ‘आपको वह जरूर स्वीकार करेगा ।’

‘तुम्हें यकीन है?’

‘मुझे भगवान में श्रद्धा भी है ।’

‘तब उसने फौरन जवाब क्यों नहीं दिया?’

‘शायद इसलिए कि वह अपने घरवालों से सलाह-मशविरा करना चाहता हो ।’

लोकनाथ कुछ आगे कहे इससे पहले राहुल की टैक्सी टायर की आवाजों के साथ रुकी । ब्रीफकेस के साथ वह उसमें से बाहर निकला । पूनम चौंककर खड़ी हो गई । उसका दिल धड़क उठा । जवाब हाँ में होगा या नहीं-राहुल के चेहरे से यह अंदाजा लगाने में वह नाकाम रही थी । लोकनाथ अपनी कुर्सी पर बूथ में बैठा रहा ।

राहुल धीरे-धीरे आगे बढ़कर पूनम के करीब आया, पर कहा लोकनाथ को संबोधित कर, ‘आज मैंने लंच नहीं लिया है ।’

‘मिस भी भूखी बैठी हैं ।' वह बोला ।

अबकी राहुल ने पूनम के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘आज हम तीनों किसी बढ़िया-से रेस्तराँ में साथ लंच लें तो कैसा रहेगा?’

‘वंडरफुल! ' राहुल का इशारा पूनम के लिए काफी था । खुशी से उसका रोम-रोम झनझना उठा, ‘लोकू! आज तुम ना नहीं कह सकते ।’

‘लेकिन ... लेकिन आप दोनों के बीच मेरा क्या काम?’

‘तुम्हारा तो खास काम है ।' जवाब राहुल ने दिया, ‘लंच का बिल तुम चुकाओगे ।' फिर मुस्कुराते हुए उसने दोपहर के अखबार की एक ताजा प्रति ब्रीफकेस से निकाली और पूनम की ओर बढ़ा दी, ‘ये देखो!’

हैरत और खुशी से पूनम उछल पड़ी, ‘लोकू! इसमें तो पहले पन्ने पर तुम्हारी तस्वीर छपी है-एक नेत्रहीन ने बैंक-लुटेरों की टोली को गिरफ्तार करवाया...' हैडलाइन के साथ वह पूरी खबर तेजी से पढ़ गई । ‘बोलो, अब कुछ कहना है?’

‘सिर्फ इतना,' बूथ बंद करते हुए उसने फिकरा कसा, ‘अब यह मत कहना कि टैक्सी का मीटर भी मुझे चुकाना होगा!'

राहुल ने हँसकर उसका दाहिना हाथ अपने हाथ में लिया, पूनम ने उसका बायाँ हाथ; और तीनों मित्र इंतजार करती टैक्सी की ओर आगे बढ़ गए ।

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