अनाड़ी नंबर वन (गुजराती कहानी) : आबिद सुरती

Anari No. 1 (Gujarati Story) : Aabid Surti

दे० म० पांडे पत्रकार था। अपने पेशे में दक्ष था। प्रामाणिक था। निश्छल था। इस पर तुर्रा यह कि उसके आदर्श भी ऊँचे थे। इस ऊँचाई को अलंकारिक भाषा में ‘आकाश तक ऊँची’ कह सकते हैं। उसके आदर्शों की यही ऊँचाई उसके जीवन में क़दम-क़दम पर बाधा बनती आई थी।

पत्रकार दे० म० पांडे आख़िरी सात महीनों से बेकार था। नई नौकरी के लिए उनके कई अख़बारों में अर्ज़ियाँ डाली थीं। अब तक उनका कोई नतीजा नहीं निकला था। उसे उम्मीद थी, देर-सबेर एक नौकरी उसे अवश्य मिलेगी। उम्मीद के इसी तिनके के सहारे वह छिटपुट कामों पर टिका हुआ था। उसके साथ उसका परिवार भी घिसटता आ रहा था। भारी कड़की के ये दिन थे।

यही पीड़ा क्या कम थी कि उसे एक धक्का और लगा। वह था, गुजरात के कंडला बंदरगाह पर से गुज़रे तूफ़ान का। निरंतर तीन दिनों तक उसने यह क़हर टी.वी. पर देखा था। हफ़्ते-भर तक पत्र-पत्रिकाओं में ख़बरें पढ़ी थीं। उसका रोआँ-रोआँ कलप उठा था।

पत्रकार दे० म० पांडे की कहानी

पत्रकार दे० म० पांडे की ज़बानी…

सैकड़ों इंसानों को समंदर लील गया और मैं अपनी बूढ़ी माँ के जोड़ों के दर्द के इलाज के लिए घुट-घुटकर मरा जा रहा हूँ। हज़ारों लोग घर से बेघर हो गए और मैं अपने बीवी-बच्चों की उदास सूरतें देखकर छीज रहा हूँ। इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है!

मन ही मन मैंने निश्चय किया, दुर्घटनाग्रस्त लोगों की पीड़ा को मैं उजागर करूँगा। मैं अपने लहू में क़लम डुबोकर एक ऐसी कहानी लिखूँगा, जिसे पढ़कर पाठकों की बोटी-बोटी फड़क उठे। उन भूखे-नंगे यतीमों की ऐसी तसवीर खींचूँगा कि पढ़ने वालों का कलेजा मुँह को आ जाए।

‘‘इससे क्या फ़र्क़ पड़ेगा पांडे जी?’’ मेरे विचार जानकर एक मित्र ने प्रश्न किया।

मुझे ताज्जुब हुआ, ‘‘क्या मतलब?’’

‘‘आप पत्रकारों ने सिर्फ़ क़लम चलाना सीखा है।’’ यह उसका उत्तर था, ‘‘नेताओं के भाषणों की तरह आप लोगों की क़लमों ने अख़बारों के कई पन्ने बिगाड़े हैं, लेकिन उससे एक भी भूखे को रोटी नहीं मिली, नंगे को कपड़ा नहीं मिला। आज़ादी के पचास साल बाद इस देश के अनगिनत लोग आज भी बेघर हैं, बल्कि उनमें लाखों नए मुहताज़ों का शुमार हुआ है।’’

मित्र की टिप्पणी सही थी। कहानियाँ और भाषणों से किसका भला हुआ है? किसके पेट की आग बुझी है? मेरी एक अदद कहानी से कंडला के हज़ारों बेघर लोगों का क्या ख़ाक भला होगा? मैंने नया निश्चय किया। वे बेबस, बेघर महिलाएँ। एक जून रोटी के लिए बिलबिलाते वे बच्चे। उन मुफ़लिसों की ख़ातिर संभव हो उतने रुपए इकट्ठा करने की मैंने ठान ली।

अधिक सोचने की मुझे ज़रूरत नहीं थी। हुतात्मा चौक में मैं खड़ा था। सामने के मकान में अंतर्राष्ट्रीय कंपनी का शानदार दफ़्तर था। उसका मालिक किसी सांस्कृतिक प्रतिनिधि मंडल के साथ फ्रांस गया था, तब मैंने ही उसका साक्षात्कार तसवीर के साथ एक सांध्य दैनिक में प्रकाशित किया था। उस समय मुस्कराते हुए उसने कहा था, ‘पांडे जी, कभी सेवा का मौका हमें भी दें।’’ इससे बढ़िया अवसर फिर हाथ आने वाला नहीं था।

लिफ़्ट धीमे-धीमे ऊपर जा रही थी। मन ही मन मैं हिसाब जोड़ रहा था। शाम तक मैं कम से कम दस उद्योगपतियों से मिलूँगा। दस हज़ार रुपए नक़द उगाहूँगा। उन दस हज़ार रुपयों से एक हज़ार बेघरों को एक जून की रोटी मिलेगी और इस नन्ही-सी जान को आत्मसंतोष।

पल-भर के लिए मुझे अपने परिवार के दस भूखे चेहरे याद आए और दसवीं मंज़िल आने पर लिफ़्ट रुकी। मैं बाहर निकलकर दाहिनी ओर मुड़ गया।

‘‘हैलो पांडे जी!’’ घुमंतू कुर्सी पर से खड़े होते हुए सेठ रुस्तम जी वर्किंग बॉक्स वाला ने मेरा स्वागत किया, ‘‘तशरीफ़ रखिए। आज…अर्से बाद हमारी याद कैसे आई?’’

उत्तर में मधुर मुस्कान बिखेरकर मैं उनके सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। बीच में तीन टेलीफ़ोन से सजी मेज़ थी। उन्होंने अपनी घुमंतु कुर्सी में स्थान लिया। अभी मैं ख़ामोश था। अपने विचार पेश करने के लिए सही शब्द ढूँढ़ रहा था।

‘‘कोई ख़ास काम है?’’ अधीर होकर उन्होंने फिर पूछा।

‘‘जी…जी हाँ।’’ एकबारगी कहकर मैं असली बात पर आ गया, ‘‘कंडला के बेघर लोगों के लिए मैंने चंदा इकट्ठा करने का फ़ैसला किया है।’’

‘‘हूँ!’’

‘‘आपसे शुभ शुरुआत कर रहा हूँ।’’

‘‘हूँ…’’ अपनी पीठ पुश्त पर टिका देते हुए उन्होंने सिगार जलाई, ‘‘कितने रुपयों की उम्मीद रखते हैं आप?’’

‘‘जितने भी आप दे सकें।’’

चेहरा उठाकर वे धुएँ के छल्ले छोड़ने लगे। छोटे-छोटे छल्ले धीरे-धीरे छत तक जाकर बिखर जाते थे। कुछ देर बाद उन्होंने पुनः मेरी ओर देखा। फिर बुदबुदाए, ‘‘कम से कम दस हज़ार तो हमें लिखवाने चाहिए।’’

मेरी आँखें चौड़ी हो गईं। शाम तक मैंने दस हज़ार रुपयों की थैली इकट्ठा करने की आशा रखी थी। पहले ही हाथ दस हज़ार का लगेगा इसकी मुझे कल्पना भला कैसे हो सकती है?

‘‘इब्तिदा करने के लिए दस हज़ार और एक का आँकड़ा शुभ है।’’ स्वस्थता से मैंने जता दिया।

‘‘हमारा बस चले तो हम पचास हज़ार एक लिखवा दें।’’ यह कहते हुए उनका स्वर थोड़ा दब गया। धुएँ के छल्ले थोड़े पतले हो गए, ‘‘लेकिन हमारी एक प्रॉब्लम है। हमें अपने पार्टनर से इज़ाज़त लेनी पड़ेगी।’’

यानी मूल राशि दस हज़ार भी ख़तरे में!

‘‘आप फ़ोन पर इज़ाज़त नहीं ले सकते?’’ मेरा उत्साह भी ढीला पड़ने लगा।

‘‘वे अभी-अभी घर गए हैं।’’ एक गहरा कश लेकर उन्होंने सिगार राखदान पर रख दी, ‘‘आप एक काम कीजिए पांडे जी! यहाँ से सीधा उनके फ़्लैट पर पहुँच जाइए।’

‘‘फिर?’’

‘‘हमारी ओर से उन्हें अनुरोध करना। उम्मीद करते हैं, आपका काम बन जाएगा।’’

यहाँ अब समय गँवाने का कोई मतलब नहीं था। सेठ वर्किंग बॉक्स वाला से पता लेकर उनका आभार माना और मरीन ड्राइव पर सेठ टॉकिंग बॉक्स वाला के निवास पर आ पहुँचा। आठ बेडरूम वाले शानदार फ़्लैट के शानदार बैठककक्ष के नर्म सोफ़ा में मैंने स्थान लिया।

चंद मिनटों की प्रतीक्षा के बाद सेठ टॉकिंग बॉक्स वाला अपना गंभीर चेहरा लिए मेरे सामने उपस्थित हुए। मैंने अपना संक्षेप में परिचय दिया और संक्षेप में ही आगमन का कारण बताया। उनका चेहरा थोड़ा और गंभीर हो गया। काफ़ी देर तक वे गुमसुम बैठकर सोचते रहे। फिर बोले, ‘‘इस द्वार से कोई मायूस लौट जाए यह मैं पसंद नहीं करता।’’

‘‘मैं आपको एक सिफ़ारिशी पत्र दूँगा।’’ थोड़ा सोचकर उन्होंने आगे कहा, ‘‘उस पते पर जाकर आप गुज़ारिश करेंगे तो मुझे यक़ीन है कि आपको अधिक नहीं तो कम से कम पचास हज़ार का चैक मिल जाएगा।’’

सेठ टॉकिंग बॉक्स वाला ने दो वाक्य लिख दस्तख़त किए और पत्र लिफ़ाफ़े में डाल मेरे हाथ में थमाया तो मेरी बाछें खिल गईं। सिफ़ारिशी पत्र मिस सनाया सहगल के नाम था। वह कोई और नहीं, हिंदी फ़िल्मों की ‘हीरोइन नंबर वन’ थी। (पिछले साल उसने एक के बाद एक पाँच जुबिली फ़िल्में दी थीं।) अनगिनत युवक उस पर तहेदिल से मरते थे। कॉलेज की युवतियाँ उसकी हर अदा की नक़ल करने में गौरव अनुभव करती थीं।

‘‘मैडम सनाया से कहना…’’ सेठ वर्किंग बॉक्स वाला के पार्टनर सेठ टॉकिंग बॉक्स वाला ने मुझे दरवाज़े तक छोड़ने के लिए आते हुए पहली बार मुस्कराकर बताया, ‘‘जितने रुपए वह लिखवाएगी, उससे मेरा एक रुपया ज़्यादा होगा।’’

मिस सनाया के पाली हिल के बँगले के सदर दरवाज़े पर मैं आया तो बंदूकधारी दो गुरखों ने मुझे रोका। मैंने लिफ़ाफ़ा दिखाते हुए अपना आई-कार्ड भी पेश किया। मेरे लिए सदर दरवाज़ा खुल गया। मैं आगे बढ़ा। मेरे और बँगले के बीच किरकट की पिच के बराबर हरियाला लॉन था, जो रंग-बिरंगे फूलों के छोटे-छोटे पौधों की क़तार से घिरा था। लॉन के मध्य में एक स्विमिंग पूल था। पूल के किनारे और सप्तरंगी धारियों वाले एक छाते तले बेंत की कुर्सी डाल काले चश्मे में मिस सनाया सहगल बिकनी पहने बैठी थी। हाथ में ऑरेंज जूस का गिलास था। उसकी बगल में उसका सेक्रेटरी डायरी के साथ खड़ा था और किसी शूटिंग की डेट के बारे में फुसफुसाहट हो रही थी।

दोनों के आगे अदब से खड़े होकर मैंने मैडम के हाथों में सिफ़ारिशी पत्र रखा। उसने आँखों से काला चश्मा हटाया तो संक्षेप में अपनी योजना भी बताई। अब मैं चाहता था कि भूखों को केवल रोटी ही नहीं, बीमारों को दवाइयाँ भी मिलें।

मिस सनाया सहगल की झील-सी आँखें कभी सिफ़ारिशी पत्र पर ठहरती थीं तो कभी मेरे चेहरे पर। सेक्रेटरी मौन खड़ा था। दूब का मुलायम कालीन मेरे पाँवों तले था। जी चाहा उस पर थोड़ा लोट लूँ, मगर साहस नहीं हुआ।

‘‘पांडे जी!’’ आख़िरकार मिस सनाया ने कहा, ‘‘मैं जानती हूँ, आपका इरादा नेक है। मगर इक्के-दुक्के लोगों की सहायता से इतने भारी संकट का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता।’’

‘‘तब?’’

‘‘मेरा एक सुझाव है।’’ उसने ऑरेंज़ जूस का ख़ाली गिलास तिपाई पर रखते हुआ आगे कहा, ‘‘उस पर अमल करने से आप एक करोड़ से ज़्यादा ही रुपए इकट्ठा करने में सफल हो जाएँगे।’’

‘‘सच?’’

उसने उपाय समझाया, ‘‘अगले महीने हम यहाँ कॉकलेट पार्टी रखेंगे।’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘बेघर लोगों के लिए।’’

‘‘लेकिन मैडम…’’ मैंने काठ के उल्लू की तरह टोका, ‘‘बेघरों को कॉकटेल से क्या मतलब?’’

ईडियट! यह शब्द वह मन में अवश्य ही बोली होगी। फिर कहा, ‘‘कॉकटेल पार्टी में शहर के नामी-गिरामी, सभी लोग आएँगे। उनमें उद्योगपति भी होंगे और सुपस्टार भी। घोड़ों के मालिक होंगे और बिल्डर्स भी। नगर-सेवक होंगे और केंद्र के नेता भी। उन सबसे मैं ख़ुद हाथ जोड़कर प्रार्थना करूँगी। हर एक से कम से कम लाख रुपए उगलवाऊँगी। अब कहिए पांडे जी, आपकी क्या राय है?’’

‘‘अद्भुत, अद्भुत!’’ मैं एक ही शब्द कह पाया। दस हज़ार की मेरी कल्पित थैली का वज़न काफ़ी बढ़ने वाला था। आँकड़ा करोड़ पार करने वाला था। मेरा चेहरा लॉटरी-टिकट के विजेता की भाँति दपः-दपः होने लगा।

मिस सनाया सहगल युवा थी, छरहरी थी, नयन के तीर चलाने में माहिर थी। दिल से दिल तक राह बनाकर पुरुषों की जेब में डुबकी लगाना उसे अपनी माँ से विरासत में मिला था। वह स्वयं अपने गुनगुने स्वर में कॉकटेल पार्टी में उपस्थित आमंत्रित मेहमानों को सहायता के लिए ललकारने वाली थी। किसमें ज़ुर्रत थी कि वह उसके शब्दों को नकारे?

कॉकटेल पार्टी की तैयारी में मुझे भी एक अहम भूमिका निभानी थी। इसके प्रचार की सारी ज़िम्मेदारी मिस सनाया सहगल ने मुझे सौंपी थी। दूसरे ही रोज़ से मैंने धुआँधार प्रचार शुरू कर दिया।

मुंबई शहर के लगभग सभी छोटे-बड़े अख़बारों में खबरें छपीं। बॉलीवुड की पत्रिकाओं में मैडम की रंगीन तसवीरों के साथ लेख भी छापे गए। यही नहीं, टी. वी. चैनलों ने भी इस नेक काम में भरपूर सहयोग दिया।

आख़िरकार कॉकटेल पार्टी की शाम आ पहुँची। सूरज ढलने से पहले मैं बँगले पर पहुँच गया। मैडम प्रसन्न थी। उसका सचिव भी ख़ुश था। उसने नाम और तसवीरों के साथ छपी सारी ख़बरों की एक अलबम बनाकर मैडम को पेश की थी। इस समूचे प्रचार की बागडोर सँभालने के लिए मैडम ने मेरा आभार माना।

सूर्यास्त कब का हो चुका था। पुल साइड दुलहन की तरह सज-धजकर तैयार था। नन्हें-नन्हें रंगीन बल्बों की रोशनी से पेड़-पौधों को सजाया गया था। एक के बाद एक मेहमान आ रहे थे। थोड़े अरबपति, जो मुझसे पहले आकर मैडम के दीवानख़ाने में शराब पी रहे थे, पूल साइड पर पधारे और पीना आगे बढ़ाया। माहौल में मंद-मंद संगीत गूँज रहा था। श्वेत पोशाक में जँच रहे ‘बैरा’ साक़ी बने हुए थे।

एक बैरा भरी हुई ह्विस्की की बोतल और ख़ाली गिलासों की ट्रे के साथ मेरी सेवा में उपस्थित हुआ। उसके पीछे एक और बैरा था। उसकी ट्रे में चिकन कबाब और मटन समोसे थे। मैंने कबाब की ओर हाथ बढ़ाया और मुझे बीवी-बच्चों की पलटन याद आ गई। पोपले मुँह वाली बूढ़ी माँ का चेहरा आँखों में तैरने लगा। वे सब आज भी चाय-पाऊँ खाकर सो गए होंगे!

मैंने किसी भी चीज़ को न छुआ, अतः दोनों बैरा मेरे आगे से खिसक गए। रात बढ़ती जा रही थी। भिनभिनाहट शोर में तबदील होती जा रही थी। भीड़ का एक हिस्सा मस्ती में आकर गा रहा था–सनाया, ओ सनाया, तुझे किस रब ने बनाया। मगर अब तक किसी ने कंडला के तूफ़ान या बेघरों के विषय में एक शब्द भी नहीं कहा था।

मेरा धीरज का पल्ला छूटने ही वाला था कि मैडम सनाया सहगल ने दो शब्द कहने की शुरुआत की। शोर डूबने लगा। वह बोल रही थी। काजल कारे उसके नयन बोल रहे थे। बिना बाँहों की उसकी चोली बोल रही थी। गले में जगमगा रही मोतियों की मालाएँ बोल रही थीं। अनमोल साड़ी में बुने चाँदी के तार बोल रहे थे। हाथ में अदा से धरा हुआ जाम बोल रहा था…

‘इस समय हज़ारों बेघर, भूखे-प्यासे लोग बिलख रहे होंगे। सैकड़ों बच्चों ने ख़ाली पेट दम तोड़ दिया होगा। कई बदक़िस्मत कॉलेरा और टाइफॉइड की चपेट में भी आ गए होंगे। वे सब हमारी तरह इंसान हैं। उन्हें जीने का उतना ही अधिकार है, जितना कि हम-आपको है…’’

तालियों की गड़गड़ाहट से माहौल गूँज उठा। भाषण वास्तव में धुआँधार था। जिस किसी डायलॉग राइटर ने लिखा था, क़ाबिले तारीफ़ था। मैडम ने भी जिस नाटकीय शैली में संवाद बोले थे, वह प्रभावशाली थी। एक-एक शब्द मानो उसके दिल की तह को छूकर उभरा था। मेरा अपना हिया भी पसीज गया था। अफ़सोस कि मेरी जेब में वापस घर जाने के लिए बस के किराए के अलावा एक पैसा भी अधिक नहीं था कि मैं चंदे में दे सकूँ।

तालियों की आवाज़ थमी कि मैडम तुरंत मूल विषय पर आई। उसने अपनी ओर से पचास हज़ार और एक रुपए की रक़म घोषित की। थोड़े अंतर पर बैठे एक मारवाड़ी सज्जन ने ऊँची आवाज़ में लाख लिखवाए। तीसरी ओर से डेढ़ लाख का आँकड़ा सुनाई दिया। बोलियाँ बोली जा रही थीं, जैसे बढ़-चढ़कर चंदा लिखवाने की होड़ लगी थी।

मन ही मन मैं जोड़ मिलाता गया। आख़िरी सज्जन, जो फ़िल्म निर्माता थे, उन्होंने पंद्रह लाख देने की घोषणा की और ग्रांड टोटल एक करोड़ को पार कर गया।

कहीं रात के दो के डंके बजे। मैंने देखा, नशे में चूर होकर स्त्री-पुरुष एक-दूसरे से टकरा रहे थे। कोई ठहाके पर ठहाका लगा रहा था तो कोई कुर्सियों के नीचे लुढ़क गया था। मैं सोच रहा था, करोड़ रुपयों के चैक मेरे हाथ में कब आएँगे? कैसे आएँगे?

दूसरे रोज़ मैं मैडम सनाया के बँगले पर पहुँचा तो वह शूटिंग पर गई थी। तीसरे रोज़ मैं देर शाम में गया तो पता चला, हफ़्ते-भर के लिए वह आउटडोर गई है। पूरा एक माह मैंने चक्कर काटे और एक रविवार को मैडम से मुलाक़ात हो ही गई।

‘‘आप!’’

‘‘जी, मैं।’’

थोड़ी देर पसोपेश में रहकर उसने पूछा, ‘‘सबसे चैक इकट्ठे किए?’’

‘‘वह तो आपके सचिव का काम था।’’

उसे एक धक्का और लगा।

‘‘पांडे जी!’’ वह बोली, ‘‘यह कहते हुए मुझे अफ़सोस होता है कि आप अनाड़ी नंबर वन हैं।’’

‘‘जी?’’

‘‘अपने पचास हज़ार लगाकर मैंने कॉकटेल पार्टी आयोजित की।’’ उसकी नए टेलीफ़ोन की घंटी-सी मधुर आवाज़ कर्णकटु हो गई, ‘‘जिन नामवरों की एक-एक पल क़ीमती होती है, उन्हें यहाँ इकट्ठा किया और आप उम्मीद करते हैं कि चंदा इकट्ठा करने के लिए हम दर-दर की ठोकरें भी खाएँ? क्या आपका फ़र्ज़ नहीं बनता था कि उन लोगों के दफ़्तर पहुँचकर दूसरे ही रोज़ चैक…’’

‘‘लेकिन…’’ मैंने टोका, ‘‘मेरे पास पते नहीं थे।’’

‘‘वो मेरे सचिव से माँग लिए होते।’’

‘‘ख़ैर…’’ मैंने संयम में रहते हुए कहा, ‘‘अभी भी देर नहीं हुई है। कल से मैं चैक-वसूली का काम शुरू कर दूँगा।’’

सचिव से पते लेकर दूसरे दिन मैं सबसे पहले उस मारवाड़ी सज्जन के घर पहुँचा, जिन्होंने मैडम की घोषणा के तुरंत बाद लाख रुपए लिखवाए थे। मेरी सूरत देखते ही वे समझ गए, मैं चंदा उगाहने के लिए आया हूँ।

‘‘आपका नाम पांडे जी है, सही?’’ मैं कुछ कहूँ इससे पहले ही वे बोले।

मैंने सिर हिलाकर संकेत से ‘हाँ’ कहा।

‘‘शायद आपको पता नहीं होगा…’’ ग़ौर से मेरा फटेहाल हुलिया देखते हुए वे कह रहे थे, ‘‘संझा एक्सप्रेस, शाम के अख़बार का मैं मालिक हूँ और नौकरी के लिए आपने हमारे यहाँ अर्ज़ी डाली है।’’

‘‘जी…जी हाँ।’’ मेरे होंठ खुल गए।

‘‘कल से काम पर आ जाना।’’

‘‘जी।’’ कहते हुए मेरे होंठ सिल भी गए।

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