अनामदास का पोथा (उपन्यास) : हजारीप्रसाद द्विवेदी

Anamdas Ka Potha (Hindi Novel) : Hazari Prasad Dwivedi

('अनामदास का पोथा' उपन्यास में उपनिषदों की पृष्ठभूमि में चलती एक बहुत ही मासूम सी प्रेमकथा का वर्णन है। साथ ही साथ उपनिषदों की व्याख्या व समझने का प्रयास, मानव जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में विचारों के मानसिक द्वंद्व व उनके उत्तर ढूंढने का प्रयास इस उपन्यास की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं। इस उपन्यास में लेखक का उपनिषद-ज्ञान व मानवीय मनोभावों को समझने की क्षमता निश्चित ही प्रशंसनीय है। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि छान्दोग्य उपनिषद में वर्णित कथा है जिसके अनुसार दो पक्षियों की वार्ता सुनकर राजा ने रैक्व नामक "पीठ खुजलाने वाले बैलगाड़ी वाले साधु" की महिमा जानी और उनकी शरण में जाकर ज्ञानयाचना की। साधु ने ज्ञान देने से मना कर दिया। तत्पश्चात् राजगुरुओं की सलाह से राजा पुनः वहां गए और भेंट के साथ अपनी पुत्री जाबाला को भी ले गए। जाबाला के सौंदर्य से प्रभावित हो रैक्व मान गए तथा उन्होंने राजा को ज्ञानवचन कहे जो कि छान्दोग्य उपनिषद में संकलित हैं।

कथानक : रैक्व जंगल में निवास करने वाला एक ऋषिपुत्र है, जिसकी माता की मृत्यु उसके जन्म के समय ही हो गयी थी। वेदों का कुछ ज्ञान प्रदान कर बाल्यकाल में ही उसके पिता भी चल बसे। पिता प्रदत्त ज्ञान से उत्पन्न जिज्ञासा को स्वानुभव से स्पष्ट करने की चेष्टा में जंगल में भटकता हुआ यह बालक किशोरावस्था में पहुंचते पहुंचते आसपास के गांवों में संन्यासी बालक के रूप में जाना जाने लगता है। एक दिन एक भयानक तूफान आता है, जिसे देख बालक वायु तत्त्व को सर्वशक्तिमान मानने लगता है। तूफान थमने पर वह जंगल निकलता है। अहोभाव से वायुशक्ति से हुए विनाश का अवलोकन करते हुए उसे एक दुर्घटनाग्रस्त बैलगाड़ी दिखती है, जिसके पास ही दो मानव शरीर पड़े हैं। एक की मृत्यु हो चुकी है। लेकिन दूसरा, यह जीवित तो है लेकिन बेहोश है। लेकिन यह क्या .... यह तो कोई विचित्र प्राणी है - इतने सुंदर लंबे मुलायम केश, इतनी सुंदर इतनी बड़ी मृग सरीखी आंखें, इतना सुंदर मुख? नहीं नहीं यह मानव नहीं हो सकता अवश्य ही यह कोई देवलोक का प्राणी है। इतने में घायल राजकुमारी को होश आ जाता है। यहां से शुरु होती है बैलगाड़ी वाले ऋषिपुत्र की कथा, जिसकी पीठ में रह रह कर खुजली उठती है जो शांत ही नहीं होती, या यूं कहें कि कथा के अंत में ही शांत होती है।)

भूमिका : अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !

कुछ दिन पहले एक अपरिचित मित्र आये थे। वे कुछ लिखने की योजना बना चुके थे। मुझसे कुछ परामर्श चाहते थे। मैं थोड़ी देर की बातचीत में ही समझ गया कि वे परामर्श कम और स्वीकृति अधिक चाहते थे। उन्होंने कहा था कि विधाता ने मनुष्यमात्र को सौ साल की उम्र दी है; कुछ लोग पूर्वजन्म के पापों के कारण पहले ही मर जाते हैं और कुछ दूसरे लोग इस जन्म के पुण्यों के कारण अधिक जी जाते हैं। जो लोग 66-67 साल तक जी जाते हैं उनके पूर्वजन्म के पाप बहुत प्रचण्ड नहीं होते। शास्त्र के अनुसार वे मध्यम आयु भोगकर दीर्घायु में प्रवेश करते हैं। उस दिन मेरे यह मित्र बता गये थे कि वे दीर्घायु में प्रवेश कर चुके हैं या प्रवेश करने की तैयारी में हैं। मैंने जब उनसे पूछा कि वे निश्चित रूप से क्यों नहीं कहते, तो उन्होंने बताया कि निश्चित रूप से दस दिन के बाद ही बता सकते है ! कारण यह था कि अभी चन्द्र गणना के अनुसार ही दीर्घायु के कोठे में पहुँचे हैं, सौर गणना के हिसाब से अभी दस दिन शेष हैं ! उन्होंने गम्भीर मुद्रा में बताया था कि यमराज के कार्यालय में चन्द्र गणना प्रचलित है, पर विधाता के दफ्तर में सौर गणना के हिसाब से काम होता है। यमराज पितृयान-परम्परा पर चलते हैं, ब्रह्माजी देवयान-परम्परा पर। कभी-कभी दोनों दफ्तरों की गणनाएँ परस्पर टकरा जाती हैं। अन्तिम निर्णय विधाता (ब्रह्मा) के इंगित पर होता है। पर दोनों में जितने दिनों का अन्तर होता है, उतने दिनों तक मरनेवालों को बड़ी साँसत सहनी पड़ती है। यमराज के दूत उन्हें घसीटकर ले जाना चाहते हैं। उधर ब्रह्मा का आदेश न मिलने से मरणशय्या पर पड़े रोगी का जीवन निकल नहीं पाता। बुरी-खींच-तान में बिचारे की दुर्गति हो जाती है। इस जानकारी के कारण मेरे यह मित्र सन्दिग्ध भाषा में बोल रहे थे। पर दस दिन का अन्तर कोई खास अन्तर नहीं था। वे आश्वस्त थे कि अगले दस दिन भी निर्विघ्न बीत जायेंगे, क्योंकि उनके पुराने पापों की कमजोरी तो सिद्ध हो ही चुकी है। यह और बात है कि हर विश्वास-परायण के समान वे भी हिसाबी थे। अपनी बात का उपसंहार करते हुए उन्होंने हाथ घूमाकर, मुँह बिचकाकर, इतना जोड़ दिया था कि ‘‘पर कौन जानता है ? क्षणमूर्ध्व न जानामि विधाता किं करिष्यति !’’

इस अपरिचित मित्र की बात मुझे आकर्षक लगी थी। मुझे विश्वास हुआ था या यों कहिए कि मैंने मन-ही-मन शुभकामना की थी कि वे केवल दीर्घायु में प्रवेश ही नहीं करेंगे, उसे पूर्णत: भोगेंगे। आज प्रमाण मिल गया है कि वे सचमुच दीर्घायु के कोठे में प्रवेश कर गये हैं। यह उस दिन की बात है जब वे कुछ लिखने का संकल्प कर चुके थे और मुझे समर्पित करने की अनुमति माँग रहे थे। अब तो वे सौर गणना के अनुसार भी दीर्घायु में प्रवेश कर चुके हैं। उनका पोथा भी आ गया है। कभी-कभी जीवन में ऐसी बातें घट जाती हैं जिन्हें साहित्यिक समालोचक ‘नाटकीय’ समझकर उपेक्षा करते हैं। मतलब यह होता है कि जीवन में तो वह घटता नहीं, लेखक ज़बर्दस्ती घटा लेता है; अर्थात् नाटककार जिस प्रकार कथा को अपनी वांछित दिशा में मोड़ लिया करता है, उसी प्रकार ऐसी बातें भी बना ली जाती हैं। समालोचकों से न डरना कोई बुद्धिमानी नहीं है, पर डरके सही बात न कहना भी कोई अच्छी बात नहीं कही जा सकती। जीवन में कभी-कभी ऐसी बातें अवश्य ही घट जाती हैं और उन्हें ‘नाटकीय’ कहने का एक ही अर्थ हो सकता है कि जीवन भी एक नाटक ही है। ईमानदारी की बात तो यही है कि जीवन सचमुच ही एक नाटक है। मेरे मित्र भी ऐसा ही मानते हैं। यहाँ मुद्दे की बात सिर्फ़ इतनी है कि जब यह मित्र अपनी बात कह रहे थे तो मैं भी मन-ही-मन हिसाब करने लगा था और यह विचित्र संयोग है कि मैं भी ६६ 2/3 वर्ष पार कर रहा था ! पर मेरे मित्र मुझे इससे अधिक आयु का समझ रहे थे क्योंकि श्रद्धापूर्वक वे कह गये थे कि आप तो अब देवता-कोटि में पहुँच चुके हैं। उनकी बात का अर्थ मैं समझता था। पर मैंने प्रतिवाद करने की आवश्यकता नहीं समझी। महाभारत में कहीं लिखा है कि जो आदमी सतहत्तर वर्ष, सात महीने, सात दिन जी जाता है वह देवता बन जाता है, सो उनके विचार से मैं इतनी उमर पार कर गया था। प्रतिवाद करने से व्यर्थ ही बात बढ़ती। और अन्तर भी कितना है ? सिर्फ ग्यारह साल का ! ग्यारह साल के लिए एक घण्टे की माथापच्ची कोई अक्लमन्दी नहीं जान पड़ी ! सो, वे कहते गये, मैं सुनता गया।

मेरे इस मित्र के समान कल्पनाशील आदमी कम ही होते हैं। वे अपनी कल्पनाओं को प्रामाणिक इतिहास मान लेते थे; उसमें रम जाते थे और प्रतिवाद या रोकाटोकी से मर्माहत-से हो उठते थे। आँसूभरी आँखों से ताकने लगते थे, जिसका अर्थ होता था-‘आप भी ऐसा ही कहते हैं !’ मुझे ऐसे अवसरों पर उन्हें यह समझाने में काफी समय लग जाता था कि उनकी प्रामाणिकता पर सन्देह करना मेरा उद्देश्य नहीं था। हालाँकि उद्देश्य यही होता था। इस प्रकार के झूठ में कोई दोष नहीं माना जाता, क्योंकि इसे अभिजात जनोचित शिष्टता ही समझा जाता है। फिर भी झूठ तो झूठ ही होता है। इससे बचने का शिष्ट तरीक़ा ‘मौन’ है-ऐसा मौन जिससे सुनानेवाले को पता ही न चले कि सुननेवाले के मन में क्या प्रतिक्रिया हो रही है। यह बात भी नाटकीय जैसी ही है। ऐसा नाटक मैं बहुत कर चुका हूँ। इसलिए मुझे इसमें कोई खास परेशानी नहीं हुई।

मेरे मित्र ने बताया था कि जब सूरदास ने यही अवस्था पार की थी, तभी उन्होंने वह प्रसिद्ध पद लिखा था जिसमें कहा गया है कि ‘अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !’ प्रमाण ? प्रमाण यही था कि ठीक आज ही, जब वे चान्द्र गणना के अनुसार 66 2/3 साल पूरे कर चुके हैं, इसी प्रकार के भाव उनके मन में आये हैं ! मेरा मन सनाका खा गया था। मैं भी आज प्रात:काल से यह पद रटे जा रहा था ! तो क्या यह मान लिया जाये कि सूरदास जब 66 2/3 साल के हुए तो उनके मन में इस प्रकार का पश्चात्ताप हुआ था ? सूरदास बहुत महान् सन्त थे। उनके बारे में तो यह दैन्योक्ति ही कही जायेगी। पर मेरे मन में और मेरे सामने बैठे अपरिचित मित्र के मन में यह भाव आज ही कैसे आ गया ? दो के मन में उठा है तो तीसरे, चौथे के मन में भी उठता होगा ! 66 2/3 महत्त्वपूर्ण लगता है ! मेरे मित्र उस दिन आश्वस्त होकर गये थे, पर मेरे मन में एक विचित्र हलचल पैदा कर गये थे।

उनकी बातों में भोलेपन के आवरण में अजीब लुभावनापन भी था। मैंने उनका नाम और पता जान लेना चाहा था पर वे विचित्र असमंजस में पड़ गये थे। ‘नाम में क्या रखा है ? कुछ भी समझ लीजिए। आप ही बताइए, आपका क्या नाम है ? जिस नाम से सारी दुनिया आपको जानती है वह नाम क्या आपके गुरुजनों के मन में कहीं भी था जब आप इस संसार में आये थे ? और अब आप जिस नाम से जाने जाते हैं, उसी का कोई वास्तविकता के साथ तालमेल है ? असल में नाम में धोखा है।’ और कोई अवसर होता तो उनकी बात को हँसकर उड़ा देता। कई लोग दूसरों पर रहस्यवादिता का रोब जमाने के लिए इस प्रकार के मिथ्या ज्ञान का घटाटोप फैलाया करते हैं पर 66 2/3 की महिमा है कि मैं उस दिन अभिभूत हो गया। यह सही है कि अपने प्रचलित नाम के कारण मुझे कई बार कठिनाइयों में पड़ना पड़ा है। एक अहिन्दी-भाषी नेता ने जब मुझसे इसका अर्थ पूछा तो मैं केवल यही उत्तर दे सका कि यह नाम शब्द के रूप में बिल्कुल अर्थहीन है। एक दूसरे विद्वान ने इसका अर्थ स्वयं बता दिया जो मेरी दृष्टि में बेईमानी था। उनके अनुसार यह एक देवी के नाम से सम्बद्ध है। एक बार संस्कृत का पक्ष लेकर कुछ बोल रहा था कि किसी मित्र ने मजाक किया कि ‘नाम तो आपका हिन्दुस्तानी है और समर्थन कर रहे हैं संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का।’ उस दिन मैंने भी कहा था-‘नाम में क्या रखा है !’ भगवान् साक्षी है कि मैं न संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का समर्थन कर रहा था, न तथाकथित हिन्दुस्तानी का विरोध। कर रहा था संस्कृत की समृद्धि की स्थापना, पर मेरा नाम अकारण घसीट लाया गया।

इस नाम को लेकर मुझे अपने एक परम श्रद्धेय गुरु से भी उलझना पड़ा। अगर उस समय उलझने में हठ न पकड़ लेता तो शायद यह नाम बदल ही गया होता। मेरे श्रद्धेय गुरु संस्कृत के महान् विद्वान थे। उन्होंने कहा था कि तेरे नाम में मुसलमानियत की बू है। पितामह का दिया हुआ ‘वैद्यनाथ’ नाम ही ठीक है। बदल दे। मुझे ‘बू’ शब्द खटक गया। मैंने प्रतिवाद किया, ‘गुरुजी, सुगन्धि कहिए। अगर इसमें ऐसी सुगन्धि हैं तो मैं इसे नहीं बदलने दूँगा।’ गुरुजी द्रवित हो गये। बोले, ‘तो रहने दे।’ और पितृ-पितामह का दिया नाम छूट गया, लोकदत्त नाम रह गया ! एक बार मेरे परम श्रद्धेय अग्रजतुल्य महान कवि ‘नवीन’ जी ने मुझे एक पुस्तक भेंट की। उन्होंने उसमें मेरा नाम ‘सहस्रार प्रसाद’ कर दिया और कहा कि मैंने तुम्हारा नाम संस्कृत बना दिया। मैंने उन्हें बताया कि ‘हजार’ वस्तुत: ‘सहस्र’ शब्द में विद्यमान ‘हस्र’ का ही फ़ारसी उच्चारण है और इस शब्द द्वारा आर्य भाषा के विस्तृत परिवेश की सूचना मिलती है तो वे मुग्ध हो गये। पर मैंने उनके हाथ का लिखा संस्कृतीकृत नाम बड़े जतन से अपने पास रख छोड़ा है। यह बात जब मैंने एक बड़े तान्त्रिक विद्वान को बतायी तो खिन्न और विस्मित भी हुए। दोनों का कारण हम लोगों का अज्ञान था। उनके मत से सहजावस्था देनेवाली शक्ति का नाम ही हजारी है। ‘सहज’ शब्द गुणपरक है-‘ह’ (हठयोग) और ‘ज’ (जययोग) का समन्वित रूप और ‘हजारी’ क्रियापरक है-ह और ज का समन्वय करने वाली देवी- ‘हजमाराति या देवी महामायास्वरूपिणी, सा हजारीति सम्प्रोक्ता राधेति त्रिपुरेति वा।’ मुझे याद आया कि एक महाराष्ट्रीय विद्वान ने भी कभी बताया था कि ‘हजारी’ एक देवी का नाम है। होगा, पर मेरा यह नाम इसलिए नहीं पड़ा कि यह किसी तन्त्रशास्त्रोक्त देवी के साथ सम्बद्ध था, बल्कि इसलिए कि गाँव-घर के लोग प्रसन्न थे कि मेरे जन्म से एक विषम संकट ही नहीं टला था, कुछ हजार रुपये की आमदनी भी हो गयी थी। मुझे यह नाम ‘विरुद’ के रूप में मिला और अब तो गले पड़ गया है। पण्डितों से तो सिर्फ इतना मालूम हुआ कि इसका अर्थ भी है-काफ़ी अच्छा अर्थ, जो शाक्त मत की त्रिपुरा है, वैष्णव मत की राधा हैं और योगियों की भाषा में हजारी हैं, मैं उन्हीं का प्रसाद हूँ। अर्थ अच्छा है, परमार्थ भी हो जाये तो क्या कहना, पर नाम में क्या रखा है, काम होना चाहिए। मेरे ये नये मित्र नाम नहीं बताना चाहते, काम दिखाना चाहते हैं। वे अपनी भावी रचना मुझे समर्पित करने की अनुमति लेकर चले गये। छोड़ गये सूरदास की व्याकुल वेदना, जो उन्होंने, मेरे इस नये मित्र के अनुसार, 66 2/3 वर्ष की अवस्था में अनुभव की थी- अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल !

क्या तुलसीदास ने जब कातर-भाव से गाया था कि ‘नाचत ही निसिदिवस मर्यो,’ तब उनकी भी अवस्था 66 2/3 साल की ही थी ? कौन बतायेगा ? मित्र तो गये सो गये ! पर उनकी अनुपस्थिति का एक लाभ भी हुआ है। मैं उनकी भाषा में सोचने लगा था, उनके विचार को अपना सत्य मानने लगा था। नाम में क्या रखा है, यह एक विदेशी मुहावरा ही है। नाम इतना हल्का पदार्थ नहीं है। ‘देखियत रूप नाम आधीना।’ जिस नाम को सामाजिक स्वीकृति नहीं प्राप्त हुई, वह निरर्थक शब्दमात्र है। अर्थ, नामी है। नाम उसका संकेत देनेवाला पद है। तभी नामी पदार्थ-पद का अर्थ-बनता है। मेरे अपरिचित मित्र तब तक ‘अपदार्थ’ हैं, जब तक उनका कोई नाम नहीं है। एक नाम ‘अनाम’ भी है। भाई जैनेन्द्रकुमार जी ने एक उपन्यास लिखा है-‘अनाम स्वामी’ ! इस अपरिचित मित्र को भी ‘अनाम’ कहा जा सकता है। स्वामी वे नहीं थे। मैं उन्हें आवश्कतानुसार ‘अनामदास’ कह सकता हूँ। महात्माओं की बात और है। वे लोग अपने बहाने साधारण मनुष्यों के मन को कुछ अच्छी बात सिखाना चाहते होंगे। किन्तु मैं साधारण मनुष्य के रूप में ही सोच सकता हूँ। किसी को सिखाना इसका उद्देश्य नहीं है। पीछे की ओर देखता हूँ, विराट् रिक्तता ! जो कुछ करता रहा हूँ वह क्या सचमुच किसी काम का था ? अपनी सीमाओं, त्रुटियों, ओछाइयों को छिपाकर अपने को कुछ इस ढंग से दिखाना कि मैं सचमुच कुछ हूँ, यही तो किया है। छोटी-छोटी बातों के लिए संघर्ष को बहादुरी समझा हैं, पेट पालने के लिए छीना-छपटी को कर्म माना है, झूठी प्रशंसा पाने के लिए स्वाँग रचे हैं-इसी को सफलता मान लिया है। किसी बड़े लक्ष्य को समर्पित नहीं हो सका, किसी का दु:ख दूर करने के लिए अपने को उलीचकर दे नहीं सका। सारा जीवन केवल दिखावा, केवल भोंडा अभिनय, केवल हाय-हाय करने में बीत गया। तुलसीदास ने मेरे-जैसे ही किसी को देखकर कहा होगा-‘कोउ भल कहउ, देउ कछु, असि वासना न मन तै जाई।’

मगर यह रोना भी व्यर्थ ही है। क्या लाभ है इससे ? किस दुखिया के आँसू पूँछने की सम्भावना है इससे ? किसी का भला न होता हो तो उसका पँवारा पसारना सामाजिक अपराध ही है। फलितार्थ सिर्फ़ इतना ही है कि अनामदासजी ने एक पोथा भेज दिया है। मुझे समर्पित है यह। पर समर्पण उस अर्थ में नहीं है जिस अर्थ में साधारणत: हुआ करता है। उन्होंने लिखा है कि इसे जैसा चाहूँ वैसा करने का अधिकार मुझे है, इसी अर्थ में यह समर्पित है ! क्या किया जाये ? न्याय का उत्तरदायित्व आ पड़ा है। छपा देना ही ठीक जान पड़ता है।

मगर छपे कैसे ? काग़ज़ की ऐसी किल्लत है कि बड़े-बड़े नामी लेखकों की रचनाएँ नहीं छप पा रही हैं। हर प्रकाशक नाम खोजता है। ऐसा नाम, जो कसके कमाया गया हो। नाम भी कमाया जाता है। कोई भी नाम रख लेने से काम नहीं चलता। संसार नाम की भी कमाई देखता है और यह अनामदास कहता है कि नाम में क्या रखा है। गोसाईं तुलसीदास-जिनका असली नाम क्या था, वह विवाद का विषय बना हुआ है-कह गये हैं कि नाम जाने बिना तो करतलगत वस्तु भी नहीं पहचानी जाती। कुछ-न-कुछ नाम तो होना चाहिए ! नाम से ही नामी की पहचान होती है। मैं एक बार एक विकट ज्योतिषी के पास गया था। नाम से ही सब बता देता था। मैंने पूछा कि राशि-नाम बताऊँ या लोक-नाम। बोले, लोक-नाम। मैं हैरान था, क्योंकि इसके पहले एक ज्योतिषी से पाला पड़ा था, वे राशि-नाम से फल भाखते थे। एक प्रसिद्ध दैनिक पत्र में हर सप्ताह राशिफल निकलता है। यह राशि-नाम के अनुसार देखा जा सकता है। जिस सप्ताह अनामदास मिले थे, उस सप्ताह उस दैनिक-पत्र ने मेरी राशि का फल बहुत अच्छा नहीं बताया था। लिखा था, इस सप्ताह तुम्हारी प्रतिभा लुप्त हो जायेगी। प्रतिभा कितनी लुप्त हुई, यह मैं नहीं समझ सका, क्योंकि लुप्त होने के पहले वह होनी चाहिए। जिसके प्रतिभा ही नहीं उसकी प्रतिभा लोप ही होकर कौन-सा नया करिश्मा कर लेगी ! मगर अब सोचता हूँ कि अनामदास का मिलना और प्रतिभा का लोप होना क्या एक ही बात है ? सुना है कि प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि होती है, अनामदास शायद ऐसा पत्थर था जो उन्मेष की सम्भावना को भी दबा देता है। सारी दुनिया नाम कमाने के चक्कर में है और अनामदास ने उस दिन मुझे समझा दिया कि नाम में क्या रखा है। मैं भी मान गया, बुद्धि तो मारी ही गयी थी। राशि-नाम ठीक ही होता होगा !

मगर अनामदास ने बताया था कि राशि-नाम भी धोखा ही है। कहते थे, भारतीय वर्णमाला की विन्यास-परम्परा से भिन्न यावनी वर्णमाला से राशि-नाम की पद्धति विकसित हुई है। किसी समय यहाँ कृत्तिका नक्षत्र से सत्ताईस नक्षत्रों की गणना होती थी, अब अश्विनी से होती है। पर बहुत-सी ज्योतिषिक गणनाएँ अब भी कृत्तिका से होती हैं ! सत्ताईस नक्षत्रों के 108 चरण होते हैं। यावनी वर्णमाला में इतने अक्षर नहीं थे। जो थे, उनके पाँच स्वरों समेत 108 बनाना सम्भव नहीं था। क्रम उनका अ, ब, क जैसा था, बहुत-कुछ अंग्रेजी के ए.बी.सी. की भाँति। यवन-भाषा के पाँच स्वरों के साथ आ, ई, ऊ, ए, ओ बा, बी, बू, बे, बो होते थे। इन्हीं को नक्षत्रों के चरण का प्रतीक माना जाता था। मज़ेदार बात तो यह है कि इसे कहते भी अबकहरा चक्र ही हैं-यावनी वर्णमाला के चार अक्षरों का भारतीय रूप ! संस्कृत वर्णमाला के घ, ड़, छ आदि कुछ अक्षर जोड़कर 108 की संख्या पूरी की गयी। यह एकदम कल्पित विधान है। कभी-कभी पण्डित को इन अक्षरों से नाम बनाने में कठिनाई हो जाती है। मेरी ओर इशारा करके उन्होंने कहा था, क्या आपके नाम अर्थात् राशि-नाम रखने में कठिनाई नहीं पड़ी होगी ? मैं हैरान था। उसका सांकेतिक अक्षर ‘ये’ है। संस्कृत में ‘ये’ से बननेवाले शब्द कम ही हैं। मेरी पत्री बनानेवाले पण्डित अवश्य चक्कर में पड़े थे। बहुत बुद्धिबल लगाकर उन्होंने मेरा नाम रखा ‘येन नाथ’ ! क्या मतलब हुआ ? मतलब यही हुआ कि नाम में क्या रखा है, कुछ भी रख दो, काम चल जायेगा। अनामदास का कहना है कि यह भी धोखा है। होगा ! फल भाखनेवाले तो काम चला ही लेते हैं। इस विचित्र विधान से ही ब्याह-शादी होती है। इससे जाति तय होती है, योनि का निश्चय होता है, गण का निर्णय होता है, कुण्डली मिलायी जाती है-एक समानान्तर व्यवस्था खड़ी हो जाती है। मेरे एक मित्र थे, प्रख्यात ब्राह्मणवंश के कुल-भूषण। परन्तु उनका लड़का इस अबकहरा गणना-पद्धति के हिसाब से शूद्र वर्ण का निकला। यह केवल उसी ब्राह्मण-कन्या से विवाह कर सकता था जो इस ज्योतिषिक गणना से शूद्र वर्ण की हो। अनेक लड़कियों के पिता उसके विवाह का प्रस्ताव लेकर आये, पर उनमें से एक भी ज्योतिष के हिसाब से शूद्र नहीं निकली। जो लड़की उन्हें ठीक जँचती वही या तो ब्राह्मण निकलती या फिर क्षत्रिय या वैश्य। विवाह तय नहीं हो पाता था। बहुत परेशान थे। अन्त में एक ज्योतिषी ने ‘विवाह-वृन्दावन’ का श्लोक पढ़कर उनकी परेशानी दूर की कि ‘मैत्री यदा स्यात् शुभदो विवाह:’। ग्रहमैत्री बनती हो तो और बातों का विचार नहीं किया जाता। ‘मैत्री’ मिल गयी थी। किसी प्रकार बला टली। अनाम की बातें वजनदार लगती हैं।

बहुत-सी आदिम जातियों में नाम छिपाने का प्रयत्न होता है। आदिम मनुष्य नाम और नामी की एकता में विश्वास रखता था। यदि नाम मालूम हो जाये तो कभी दुश्मनी से कोई अभिचार कर सकता है। ‘देवदत्त मर जाये’ कहने से देवदत्त मर नहीं जाता, यह बात तो अब लोग कहने लगे हैं ! बहुत आदिम काल में सोचते थे कि अगर ध्यानपूर्वक जप किया जाये तो ‘देवदत्त’ पद नहीं, इस पद का अर्थ-पदार्थ-देवदत्त मर जायेगा। कोई चित्र बनाकर उसकी छाती में छुरा भोंके तो छुरा उस चित्र के अर्थ में-जीवन्त मनुष्य में-लग जायेगा ! अब लोग कहेंगे कि ये सब बेकार बातें हैं, पर अब भी गालियों में, अभिशाप में उसका अवशेष बचा है ! और ज्योतिषी भी उसी पुरानी प्रथा से चल रहा है। दुनिया से कोई भी विश्वास एकदम ग़ायब नहीं हुआ है। रूप बदलकर वह जी रहा है। नहीं जीता तो अपने को ‘प्रोग्रेसिव’ या प्रगतिशील कहने और माननेवाले लोग विरोधी के पुतले क्यों जलाते, मुर्दाबाद के नारे क्यों लगाते ? आदिम मनोवृत्ति जी ही रही है ! जियेगी ! अनामदास नहीं जानते कि दुनिया यह नहीं पूछती कि क्या कहा जा रहा है, वह पूछती है, कौन कह रहा है ! कौन अर्थात् नाम। बड़े-बड़े समालोचक नाम देखकर आलोचना लिखते है; परीक्षक निर्देशक का नाम तौलकर उपाधिकारी की वैतरणी पार करा देते हैं ! ‘नाम’ अनेक कामों को अपने में बाँधे रहता है। अब इस पोथे को पढ़ना होगा, फिर अगर अच्छा हुआ यानी मेरे मन-माफ़िक हुआ तो कहना होगा कि अनामजी को कोई जानता तो नहीं, पर लिखते अच्छा हैं। फिर प्रकाशक नख़रे करेगा। राज़ी भी होगा तो कहेगा कि किसी नामी आदमी से प्रस्तावना लिखवा दीजिए। महा झंझट है। सारी दुनिया नाम खोजती है। धर्म-ग्रन्थ तो नाम की महिमा से भरे पड़े हैं। सब झूठे हैं, सच्चे हैं महात्मा अनामदास !

मगर इस भले आदमी ने मुझे ही इस झकमारी के लिए क्यों चुना ? बड़े-बड़े विद्वान हैं, नेता हैं, राजपुरुष हैं, सेठ-साहूकार हैं; चाहे तो तिल का ताड़ बना दें, ताड़ का तिल बना दें। वहाँ जाओ। उनसे कहो, मुझ गरीब को क्यों फाँसते हो ? विश्वास देखिए कि आये थे समर्पण करने की अनुमति माँगने; लिख दिया, ‘आपको समर्पित है, जो चाहे कीजिए।’ अजब समर्पण है ! ऐसा समर्पण भी नहीं सुना। पढ़ना पड़ेगा। पता नहीं, क्या-क्या लिखा है ? बात तो पते की थी। सिर खपाना बुरा नहीं होगा। मुश्किल यह है कि हिन्दी में लिखना जितना आसान है, उतना पढ़ना नहीं। लोग फटाफट लिख देते हैं, पढ़नेवाला मग़ज़ मारता रहता है। व्यक्तिगत अनुभव के बल पर कह सकता हूँ कि कुछ ऐसे लेखक हैं जिनकी एक पुस्तक पढ़कर समाप्त नहीं कर पाया तब तक उनकी चार पुस्तकें छप गयीं। अनाम भी कहीं वैसा ही लिक्खाड़ न निकले ! मगर अब डरने से भी क्या होगा ! संस्कृत के एक अनुभवी कवि सलाह दे गये हैं कि डर से तभी तक डरना चाहिए जब तक डर सचमुच सामने आकर खड़ा न हो जाये-‘तावद् भयस्य भेतव्यं यावद् भयमनागतम्।’ और यहाँ तो भय सिर पर सवार है ! पोथे से छुटकारा नहीं है।

पोथा पढ़ गया। अजब गप्पी है यह अनाम। अनुभव का क्षेत्र तो इसका बहुत सीमित लगता है, पर उस सीमा के भीतर उछल-कूद कर सकता है। कभी-कभी तो ऐसा उछलता है कि लगता है कि अंगद-कूद करके ही मानेगा। कहते हैं, जब रामचन्द्रजी लंकाविजय करके लौटे तो ससुराल गये थे और साथ में वानरी सेना भी गयी थी। लक्ष्मणजी सदा चिन्तित रहते थे कि कहीं लोक-व्यवहार से अनभिज्ञ बन्दर कुछ ऐसा न कर बैठें कि ससुराल में भद्द हो। सो, सब समय सिखाते रहते थे-मुझे देखते रहो, मैं जैसा इशारा करूँगा वैसा ही करना। बन्दर बिचारे भी काफी सावधान थे। सब समय देखते रहते थे कि लक्ष्मणजी क्या इशारा करते हैं। भोजन करने सब लोग बैठे थे। लक्ष्मणजी ने बहुत सावधान कर दिया था। अन्न देखकर ही न टूट पड़ना, मेरी ओर देखते रहना, जैसा इशारा करूँ वैसा करना। ससुराल का मामला है, गड़बड़ न होने पाये। राम के एक ओर सुग्रीव बैठे, एक ओर युवराज अंगद। लक्ष्मणजी कोने में सुग्रीव के बगल में थे। दायें, बायें, सामने वानर यूथाधिपति लोग। भोजन परसा गया। लक्ष्मण ने इशारा किया, चुप शान्त। सब वानर उनकी ओर दृष्टि बाँधे अधीर-भाव से प्रतीक्षा करते रहे। लक्ष्मणजी ने नींबू का टुकड़ा उठाया, उसे दबाया। एक बीज छटककर ऊपर उठा। बन्दरों ने समझा, इशारा हो गया। पासवाला उचककर थोड़ा कूदा। धीरे-धीरे क्रम से एक-एक वानर उचकने लगा। थोड़ा और अधिक उचकने की होड़ लग गयी। अंगद की बारी आयी तो ऐसा उचके कि छत ही ले उड़े। राम-लक्ष्मण हैरान ! यह क्या हो रहा है; मगर अंगद तो छत ही ले उड़े थे। इसी को अंगद-कूद कहते हैं। अनाम भी कभी ऐसी ही कुलाँचें भरता है। पर वह अंगद की भाँति छत लेकर नहीं उड़ पाता। छत से टकराकर नीचे ही आ जाता है। सीमा उसे अधिक बहकने नहीं देती। अनाम के भीतर सोया हुआ कोई कवि भी है। रह-रहकर वह जाग पड़ता है, पर न तो यह कवि उसके पूरे व्यक्तित्व को अभिभूत कर पाता है, न अनाम वैसा करने की उसे अनुमति ही देता है। बिचारा सोया कवि जागता है, फिर किसी अदृश्य चाबुक की चोट खाकर बेहोश हो जाता है। न मरता है, न मोटाता है। अनाम के भीतर का आलोचक सब समय गर्जन-तर्जन द्वारा उसका होश-हवास गुम करता रहता है। पर ऐसा लगता है कि यह आलोचक जितना गर्जन करता है, उतना शक्तिशाली नहीं है। कालिदास ने अपने एक विदूषक से कहलवाया है कि जैसा साँपों में डुण्डुभ होता है वैसा ही ब्राह्मणों में मैं हूँ। डुण्डुभ बिल्कुल निर्विष सर्प है। अनाम का आलोचक भी आलोचकों में डुण्डुभ ही है। कहने का मतलब यह है कि अनामदास के पोथे से लगता है कि उसके लेखक के भीतर का कवि सुप्त है, आलोचक अशक्त। फिर भी कोई बात है जो आकृष्ट करती है।

शायद यह और कुछ नहीं, उसका मात्रा ज्ञान है । कहाँ रुक जाना चाहिए, कहाँ मुड़ जाना चाहिए, कहाँ तेज़ चलना चाहिए, यह अनाम को मालूम है। पर कितना नहीं लिखना चाहिए, यह नहीं मालूम। मालूम होता तो इतना न लिखता । अभी तो भलेमानस ने एक अच्छा-खासा महाभारत लिख मारा है। 'महाभारत' इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि जो इसमें है वही अन्यत्र मिल सकता है और जो इसमें नहीं है वह कहीं नहीं मिल सकता (यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्क्वचित्), बल्कि इसलिए कि यह बहुत भारी है- वज़नी ! महाभारत में ही कहा गया है कि तराजू के एक पलड़े पर वेद रखे गए, दूसरे पर यह पाँचवाँ वेद रखा गया, यही वज़नी साबित हुआ । सो, 'महत्ताद, भारवत्त्वाद् च महाभारतमुच्यते' महान और भारवान् होने के कारण इस ग्रन्थ को 'महाभारत' कहा गया ! मेरा अनुमान है कि हिन्दी की थीसियों में जो सबसे भारी है- एक तो चौदह किलो का था ! — उससे भी यह भारी सिद्ध होगा । इसलिए इसे भी 'महाभारत' ही कहना चाहिए - महान भारवाला पोथा ! ऐसे भारवान् पोथे को किसी पाठक के सिर पर पटकने का अपराध मैं नहीं कर सकता! इसलिए मैंने इस ग्रन्थ के कुछ अंश चुने हैं। उन्हीं को प्रकाशित कराके अपने कर्तव्य का पालन कर रहा हूँ।

हिन्दी में एक प्रथा है, हर त्रुटि के लिए सहृदय पाठक से क्षमा माँग ली जाती है। किसी पाठक की, लिखकर क्षमा देने की बात नहीं सुनी गई पर इसके विपरीत भी कहीं कुछ नहीं सुना गया। अनुमान है कि हिन्दी का हर पाठक क्षमासिन्धु है । क्षमा माँगते ही वह उदार भाव से मौन क्षमा प्रदान कर देता है। अनाम यह जानते हैं। क्षमा माँगने की उन्हें ज़रूरत नहीं महसूस हुई। जो बात अनायास मिल जाती है वह बिन माँगे भी मिल ही जाएगी। परन्तु मैं पाठकों से सहानुभूति की याचना अवश्य करना चाहता हूँ। कितना कठिन कर्तव्य निभा रहा हूँ, यह सब नहीं समझ सकेंगे। कुछ भुक्तभोगी ही इस बात को समझ सकते हैं। मेरा समान धर्मा भुक्तभोगी शायद होगा ही नहीं कहीं। तब भी मैं याचना कर ही देता हूँ। दोष क्या है ? बहुत होगा, नहीं मिलेगी। मिल भी जाए तो कौन सा भंडार मिलता है, न भी मिले तो क्या नुक़सान हुआ जाता है !

अनामदास बहुत पहले से ही लिखते आ रहे हैं। उनके पोथे का एक मनोरंजक अंश है, रैक्व - आख्यान । कोई चालीस वर्ष पहले उन्होंने छान्दोग्य उपनिषद् के रैक्व - आख्यान पर एक कहानी लिखी थी। कहानी का शीर्षक था - 'सब हवा है !' वह कहीं प्रकाशित नहीं हुई। उन्होंने कहानी बड़े हल्के मनोभाव से लिखी थी। अब उसका दूसरा रूप उन्हें मिल गया है और उन्हें खेद हुआ है कि उन्होंने हल्कापन दिखाया था । जान पड़ता है, उसके अन्त में उन्होंने कुछ नई पंक्तियाँ भी जोड़ दी हैं। आरम्भ में लाल स्याही से यह भी लिख दिया है कि 'तब अति रहेऊँ अचेत'। जो हो, इस भूमिका में वह पुरानी कहानी दे रहा हूँ। इससे पाठकों को अनाम के व्यक्तित्व के एक विनोदी पक्ष का कुछ आभास मिलेगा। बाद में लिखा 'रैक्व - आख्यान' भी अलग से दिया जा रहा है ।

सब हवा है !

"इस देश में अनेक बड़े-बड़े ऋषि-मुनि हुए हैं। उनकी तपस्या और मनन चिन्तन से हम आज भी प्रभावित हैं। ऐसे ही एक ऋषि थे रैक्व । उपनिषद् में इनकी चर्चा आती है। जितना कुछ मालूम है उससे यही लगता है कि वे एक रथ के नीचे बैठकर अपना शरीर (शायद पीठ) खुजला रहे थे। उसी समय राजा जानश्रुति तत्त्व - ज्ञान की भिक्षा माँगने पहुँचे थे। कोई नहीं जानता कि रैक्व और सारी चीजों को छोड़कर रथ की छाया में ही क्यों बैठे थे। अनुमान किया गया है कि शायद वे स्वयं रथ बनाने या चलाने का कारोबार करते हों या ऐसा भी हो सकता है कि जिस प्रसंग की चर्चा उपनिषद् में मिलती है उस अवसर पर संयोग ही कुछ ऐसा था कि वे रथ की छाया में आ बैठे थे। पर दोनों अनुमान असंगत लगते हैं क्योंकि वे रथचालक नहीं थे, शुद्ध तत्त्व- चिन्तक ऋषि थे। संयोगवाली बात भी ठीक नहीं लगती। पहली बार जब राजा का दूत उनका पता लगाने गया तब भी वे रथ की छाया में ही बैठे-बैठे पीठ खुजला रहे थे और दूसरी बार जब स्वयं राजा उपस्थित हुआ तब भी वही हाल था। तीसरी बार भी राजा पहुँचा तो तथैव च । कितनी तो छाया मिलती होगी बेचारे को । कुछ अनुमान से यही कहा जा सकता है कि छाया की अपेक्षा उन्हें रथ से ही प्रेम था और यथासम्भव अपने रथ से दूर नहीं रहना चाहते थे। लेकिन इससे भी कठिन सवाल यह है कि वे अपनी पीठ क्यों खुजला रहे थे? एक कारण तो यह भी हो सकता है कि उन्हें नहाने की आदत न हो और शरीर में मैल बैठ गई हो ! परन्तु ऋषि-मुनियों के बारे में यह बात कैसे कही जा सकती है। भारतवर्ष के पुराने साहित्य से इतना तो पता चल ही जाता है कि ऋषि-मुनि और चाहे कुछ न करते हों, सुबह-सुबह स्नान तो ज़रूर कर लेते थे। सभी ऋषि स्नान करते थे तो रैक्व मुनि भी स्नान करते ही होंगे, इसलिए शरीर पर मैल जम जाना तो उनकी खुजली का कारण नहीं है। ऋषि-मुनि नहाते तो ज़रूर थे मगर देह पोंछते थे कि नहीं, इसमें सन्देह है। बेचारों के पास कपड़ा ही क्या होता था, वल्कल - मात्र ! उससे देह पोंछने का काम ज़रा कठिन ही जान पड़ता है। हो सकता है, और इसी को छान्दोग्य में भी ठीक समझा गया है, कि बराबर शरीर के भीगे रहने पर रैक्व मुनि को थोड़ी-बहुत दाद की बीमारी हो गई हो । हालाँकि ऋषियों के बीमार होने की खबर भी बहुत कम ही मिलती है, पर दाद-जैसे रोग तो उन्हें हो ही नहीं सकते। कहते हैं, दाद की बीमारी सभ्यता की देन है। लोग ज्यादा कपड़ा पहनने लगे और दाद की बीमारी आ धमकी। रैक्व मुनि के दाद नहीं होगा। हो सकता है कि शरीर खुजलाने की उनकी आदत हो । ऋषि लोग अपने-आप पर नियन्त्रण कर लेते थे । खुजली होती भी थी तो उसे खुजलाने की ज़रूरत नहीं होती थी। कहते हैं कि भगवान् महावीर ने जब 13 साल तक घोर तप किया था तो उन्होंने शरीर को खुजलाया भी नहीं था। इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि ऋषि-मुनियों को खुजली होती तो अवश्य थी, पर अत्यधिक संयम के कारण वे उसे खुजलाते नहीं थे। पर रैक्व मुनि खुजला रहे थे। कुछ हरकतें मनुष्य जान-बूझकर नहीं करता, किसी प्रयोजन से भी नहीं करता, वे उसकी लत होती है। हो सकता है कि रैक्व मुनि भी किसी प्रयोजन से नहीं, बल्कि आदतन ऐसा किया करते थे। जो भी हो, उनकी खुजली का उल्लेख उपनिषदों में मिल जाता है। वे गाड़ी की छाया में बैठकर शरीर खुजला रहे थे ।

“ऐसी ही अवस्था में राजा जानश्रुति उनकी सेवा में उपस्थित हुए थे। लगता है, ऊँची जाति के आदमी नहीं थे। राजा कहने से आजकल हम लोग जैसा धन-धान्य और शान-शौकत का अनुभव करते हैं वैसा तो उस समय क्या रहा होगा। किसी छोटे-मोटे गाँव के खाते-पीते मुखिया रहे होंगे। लोग उन्हें राजा कहते थे और उपनिषद् में भी उन्हें राजा ही कहा गया है। इनके बारे में कोई विशेष सूचना नहीं दी गई है। केवल उन्हें राजा कहकर ही यह बता दिया गया है कि वे और दस आदमियों से अधिक सम्पन्न थे और उनके पास कुछ दास-दासी, सोना-चाँदी, गाय-बैल भी अवश्य थे। ज्ञान के पिपासु थे। उन्हें ज्ञान मिल नहीं रहा था। ज्ञान की खोज में उन्होंने न जाने किन-किन लोगों से बात की होगी, उसका कोई विवरण हमें नहीं प्राप्त है। हम इतना ही जानते हैं कि वे ज्ञान-प्राप्ति के लिए रैक्व मुनि के पास अवश्य पहुँचे और रैक्व मुनि थे कि शरीर खुजला रहे थे, गाड़ी की छाया में बैठकर। वे कुछ फ़क्कड़ ज़रूर थे। राजा के आने पर कुछ-न-कुछ सम्मान किया ही जाता है और करना भी चाहिए। पर लगता है कि रैक्व मुनि पर उनके आगमन का कोई असर नहीं हुआ। न वे उठे और न और किसी प्रकार का सम्मान ही किया। बैठे रहे तो बैठे ही रहे !

" जो भी हो, राजा जानश्रुति कोई ऐसे-वैसे साधारण आदमी नहीं थे। वे कई भाषाओं के जानकार होंगे। इसमें शक करने की ज़रूरत नहीं है। आजकल भाषा की जानकारी ज्ञान की कसौटी मानी जाती है, खास करके अंग्रेज़ी की जानकारी । जो आदमी अंग्रेज़ी जानता है और झमाझम उसको बोल देता है कि वह चतुर माना जाता है। अंग्रेज़ी समझदार लोगों की भाषा है और जो लोग उसे जानते हैं वे अगर समझदार मान लिए जाते हैं तो इसमें बुराई कुछ नहीं है । जानश्रुति अंग्रेजी तो नहीं जानते होंगे, परन्तु हंसों की बोली वे समझते थे। आदमियों में जैसा अंग्रेज़, चिड़ियों में वैसा हंस हंसों की भाषा समझनेवाला उन दिनों अवश्य समझदार माना जाता होगा। राजा जानश्रुति जानते थे । परन्तु भाषा जानने मात्र से वे अपने को ज्ञानी नहीं समझते थे। बहुत लोग समझते हैं। हमारे गाँव में एक पंडितजी थे, कौओं की भाषा समझते थे। उनके मत से कौआ सर्वज्ञ होता है। वह तरह- तरह की आवाज़ करके अज्ञ मानव-जन को बराबर सावधान करता रहता है। बताता रहता है कि अब क्या घटनेवाला है। लेकिन आदमी है कि वह समझ ही नहीं पाता। हमारे गाँव के पंडितजी कौओं की बोली समझते ही नहीं थे, लोगों को उसका अर्थ भी बता दिया करते थे। भीड़ लगी रहती थी उनके द्वार पर । आश्चर्य की बात तो यह है कि अधिकांश लोगों को विश्वास था कि वे कौओं की भाषा बिल्कुल सही-सही बता देते हैं। पंडितजी की बात अगर कभी ग़लत साबित होती थी तो लोग समाधान कर लिया करते थे कि कौए ने तो ठीक ही बताया होगा, पंडितजी ने ठीक-ठीक समझा नहीं । आदमी से ग़लती तो होती ही रहती है। अगर कौओं की भाषा इतनी सटीक है तो हंसोंवाली का तो कहना ही क्या !

"हंस विवेकी पक्षी है। वह नीर-क्षीर को अलग कर देता है। यद्यपि अभी तक किसी ने परीक्षा करके इस बात का जायजा नहीं लिया कि सचमुच हंस पानी मिले हुए दूध में से दूध ले लेता है और पानी छोड़ देता है या नहीं। बंगाल के एक पक्षीप्रेमी ने अनेक प्रकार के प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला था कि यह बात सही नहीं है। असल में हंस को जब दूध पिलाया जाता है तो उसके जबड़ों से एक प्रकार कर रस क्षरित होता रहता है। इसी क्षरित लाला रस को लोग पानी समझ लेते हैं। परन्तु आजकल ऐसा नहीं सुना गया कि बंगाली पंडित की इस खोज के बाद हंसों के बारे में लोगों की धारणा बदल गई है। मुझे तो एक दूसरे बंगाली विद्वान् ने यह बताया था कि जिन पक्षियों पर ये प्रयोग किए गए हैं वे असली मानसरोवर के हंस थे ही नहीं। सो, हंसों की इज्जत अभी बची हुई है और वे इतने विवेकवान् माने जाते हैं कि महाज्ञानी साधु-सन्त अब भी परमहंस कहलाते हैं। सो राजा जानश्रुति के ज़माने में हंसों की महिमा और भी अधिक प्रतिष्ठित थी और वे हंसों की भाषा समझते थे। यह कोई मामूली बात नहीं थी ।

“राजा जानश्रुति कहीं जंगल में भ्रमण कर रहे थे। क्यों भ्रमण कर रहे थे, यह ठीक-ठीक नहीं मालूम। खोजी तो वे थे ही, कुछ खोजने के लिए निकल पड़े होंगे या यों ही स्वास्थ्य लाभ के लिए जंगल की हवा खा रहे थे। रास्ते में उन्हें हंसों का जोड़ा मिल गया। राजा लोग शिकार के शौकीन होते हैं। वे चाहते तो इन हंसों को मारकर घर ले आ सकते थे। उस दिन रात्रिकालीन भोजन में सुस्वादु मांस पाकर तृप्ति अनुभव कर सकते थे, परन्तु वे और लोगों से कुछ भिन्न थे । उन्होंने हंसों का शिकार नहीं किया। चुपचाप खड़े होकर उनकी बातचीत सुनते रहे। भाषा तो वे जानते ही थे, समझ गए कि वे क्या बातें कर रहे हैं। वे आपस में बात कर रहे थे कि जिस प्रकार पाँसे के सब निचले दावे ऊँचे दावों के अन्तर्गत आ जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य जितने भी पुण्यकर्म करते हैं वे सब सर्वरथी, तत्त्वज्ञानी रैक्व मुनि के पास पहुँचते हैं। उन दिनों पाँसे का खेल कैसे हुआ करता था, यह पंडितों के अनुमान की बात है। लेकिन हंसों के कहने का तात्पर्य इतना अवश्य था कि छोटे-छोटे आदमियों के जितने भी धर्म-कर्म, ज्ञान और पुण्य हैं वे सर्वरथी रैक्व के पास पहुँच जाते हैं। राजा की आँखें आश्चर्य से फैल गईं। कौन है यह रैक्व; जो इतना प्रतापी है कि सब लोगों के तप, स्वाध्याय, मनन-चिन्तन आदि उसके पास पहुँच जाते हैं? वह निश्चय ही कोई महान तत्त्वदर्शी होगा, पता लगाना चाहिए। जिसकी प्रशंसा हंस भी करें वह ज़रूर बड़ा तत्त्वज्ञानी होगा। यह बात बहुत कुछ ऐसी ही थी जैसी आजकल घटित हो रही है। जिसकी प्रशंसा श्वेतकाय अंग्रेज़ कर दें, उसे आज भी महान तत्त्वज्ञानी मान लिया जाता है। उसकी खोज तो की ही जाती है।

“राजा जानश्रुति ने अपने चरों को चारों ओर भिजवा दिया। खोजो उस महान तत्त्वज्ञानी को, जिसकी प्रशंसा हंस भी करते हैं। वह कहाँ रहता है, क्या करता है, कैसे उसके पास पहुँचा जा सकता है ! चरों ने दौड़ लगाई। उन दिनों जहाँ-जहाँ खोजा जा सकता था वहाँ-वहाँ वे गए। अन्त में एक ने आकर खबर दी कि रैक्व कोई बहुत दूर नहीं रहते, पास ही किसी रथ की छाया में बैठकर शरीर खुजलाते रहते हैं। सन्धान पाते ही राजा बहुत-सा उपहार लेकर उस रथ के पास पहुँचे जिसकी छाया में बैठे परम तत्त्वज्ञानी रैक्व मुनि शरीर खुजला रहे थे। उन्हें देखकर राजा को आश्चर्य हुआ ।

“उपनिषद् की गवाही से इतना ही पता चलता है कि रैक्व मुनि ने शूद्र राजा को उपदेश देना अस्वीकार कर दिया। अन्न और सोने का उपहार भी लौटा दिया। गायें, सोने के हार, घोड़े जुते हुए रथ सब लौटा दिए। राजा ने जानना चाहा था कि वे किस देवता की उपासना करते हैं। परन्तु रैक्व तो फक्कड़ आदमी थे । उन्होंने कहा कि उन्हें राजा के गोवंश, हार और रथ से कोई मतलब नहीं है। बेचारे जानश्रुति लौट आए।

“उपनिषद् में कुछ विशेष रूप से यह नहीं बताया गया है कि इसके बाद क्या हुआ। केवल कहानी का अन्तिम अंश इस प्रकार बताया गया कि वे दूसरी बार ऋषि के पास गोवंश, हार और रथ तो ले ही गए, अपनी सुन्दर कन्या को भी ले गए। फक्कड़ ऋषि अब जाकर प्रसन्न हुए और जानश्रुति की सुन्दरी कन्या का मुख अपनी ओर उठाकर बोले कि 'हे शूद्र, इस सुन्दर मुख के कारण तुम मुझे बोलने को बाध्य कर रहे हो।'

“सो, बाध्य होकर उन्होंने अपना उपदेश जानश्रुति को सुनाया । उपदेश बड़ा संक्षिप्त था। उन्होंने बताया कि वायु में ही समस्त वस्तु जगत् का लय हो जाता है; जब आग बुझती है तो वह वायु में ही लीन हो जाती है; जब सूर्य अस्त होता है तो वह भी वायु में ही विलीन हो जाता है; जब जल सूख जाता है तो वायु में ही उसका विलय हो जाता है। इस प्रकार वायु में ही संसार के सम्पूर्ण पदार्थों का विलय हो जाता है। रैक्व मुनि ने यह नहीं बताया कि समस्त जगत् सिर्फ वायु में विलीन ही होता है या उत्पन्न भी होता है। ऊपर-ऊपर से देखने से इस तत्त्वज्ञान का अर्थ सिर्फ़ यही होता है कि सब चीजें हवा में विलीन हो जाती हैं। अगर इस तत्त्वज्ञान का अर्थ हो कि वायु ही समस्त जगत् का कारण है और सारा विश्व वायु में ही लीन हो जाता है तो ग्रीस देश के एक दूसरे फ़क्कड़ डाइजोनीज़ के साथ रैक्व मुनि की तुलना की जा सकती है, लेकिन अब तो यह केवल अनुमान की बात है कि वे उस ग्रीस देश के दार्शनिक की तरह यह मानते नहीं थे कि वायु ही समस्त पदार्थों का चरम आश्रय है। जो भी हो, कहीं कुछ छूटा हुआ-सा लगता है और ऊपर-ऊपर से यह तत्त्वज्ञान सुन्दरी राजकन्या के पाने योग्य तो नहीं ही लगता । कहीं कुछ और बात होगी ।

“इस तत्त्वज्ञान को प्राप्त करने के लिए जानश्रुति को बीच में क्या-क्या प्रयास करने पड़े और अन्त में उन्हें अपनी कन्या को लेकर क्यों जाना पड़ा, और सारी घटना से शरीर के खुजलाने का क्या सम्बन्ध है, यह अभी तक मालूम नहीं था । ठीक-ठीक मालूम तो अब भी नहीं है, परन्तु जितना कुछ मालूम हुआ है वह मनोरंजक अवश्य है। आगे वह कहानी दी जा रही है।"

रैक्व आख्यान : एक

उन दिनों देश का अधिकांश भाग जंगलों से घिरा हुआ था। इन जंगलों में जहाँ अनेक हिंसक जन्तु फैले हुए थे, वहाँ ज्ञान के साथ कुछ तपस्वी भी यत्र-तत्र अपनी कुटिया बनाकर रहा करते थे । कुछ तपस्वी तो केवल तपश्चर्या में ही सारा समय लगा देते थे, लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो अध्ययन-अध्यापन किया करते थे। उनके यहाँ जिज्ञासु विद्यार्थियों की उपस्थिति बराबर बनी रहती थी । ये ऋषि कहलाते थे। वे गृहस्थ-रूप में रहते थे, उनके अपने बाल-बच्चों के अतिरिक्त गायें भी हुआ करती थीं और किसी-किसी के यहाँ बकरियाँ भी रहती थीं। बकरियों को 'अजा' कहा जाता था। उनके दूध से जो घी बनता था उसे 'आज्य' कहा जाता था। ऋषियों के यहाँ यज्ञ आदि हमेशा हुआ करते थे और आज्य का हवन आवश्यक माना जाता था। बाद में गाय के घी को भी 'आज्य' ही कहा जाने लगा। दोनों प्रकार के घी हवन के काम आते थे और पौष्टिक भोजन के लिए भी आवश्यक माने जाते थे। रिक्व ऋषि बड़े मेधावी तपस्वी थे, उनके यहाँ अध्ययन-अध्यापन भी होता था, यज्ञ-याग के अनुष्ठान भी होते थे और दार्शनिक और आध्यात्मिक चिन्तन भी हुआ करता था । उनका पुत्र छोटी उम्र से ही इन सब क्रियाओं में बड़े उत्साह से योग देता था और बड़े ध्यान से पिता की बातें सुना करता था। रिक्व ऋषि जब अपने विद्यार्थियों को समझाते थे कि संसार में जो नानात्व दिखाई दे रहा है वह वस्तुतः किसी एक ही मूल से विकसित हुआ है और फिर वे एक मूल में विलीन हो जाएँगे तो उनका बालक पुत्र आश्चर्य से चकित होता रहता था। उसमें सोचने-विचारने की प्रवृत्ति तीव्र रूप से विद्यमान थी और पिता की बातों को समझने के लिए वह विभिन्न मूलों की कल्पना करता था। बालक का कुछ ऐसा दुर्भाग्य था कि बहुत जल्दी ही उसके पिता स्वर्गवासी हो गए, माता तो उनके जन्म के साथ ही प्रस्थान कर गई थी। कोई भाई भी नहीं था, बहिन भी नहीं थी। आश्रम उजड़ गया। बालक अनाथ हो गया। परन्तु उसमें सोचने की प्रवृत्ति बराबर बनी रही। कभी-कभी वह अन्य ऋषियों के आश्रमों में जाता, लोगों की बातें सुनता और स्वयं सोचने का प्रयत्न करता । जंगल में जो कुछ मिल जाए उससे वह पेट भर लेता था। किसी के द्वार भिक्षा माँगने नहीं गया । उसका अधिकांश समय चिन्तन-मनन में ही व्यतीत होता था ।

उसने किसी पुराने ऋषि का मन्तव्य सुना था कि सृष्टि के आदि में केवल जल की ही सत्ता थी । जल से ही सत्य का उदय हुआ। सत्य ही ब्रह्म है। ब्रह्म से प्रजापति की उत्पत्ति हुई और प्रजापति से देवताओं की सृष्टि हुई। ये देवता- गण केवल सत्य की ही उपासना करते हैं। यह सिद्धान्त उसे बड़ा विचित्र मालूम हुआ । क्या संसार का मूल जल है ? क्या सत्य जल से आया है? इस वचन का तात्पर्य क्या हो सकता है? जल से उत्पन्न हुए सत्य की क्या कोई मौलिक सत्ता है ? ऋषि ने बताया था कि सत्य में तीन अक्षर हैं। एक 'स' है, एक 'ति' है और एक 'अ' है। पहला और तीसरा अक्षर सत्य है और बीचवाला मिथ्या है। इसका मतलब बालक की समझ में नहीं आया, लेकिन उसने अपने मन में यह निष्कर्ष निकाला कि आदि सत्य है और अन्त सत्य है, बीच का प्रपंच सब मिथ्या है। इसका मतलब यह हुआ कि जो कुछ दिखलाई दे रहा है वह बीच का है और सब असत्य है । उसके पिता ने बताया था कि सभी वस्तुएँ एक ही तत्त्व से निकली हैं और उसी तत्त्व में विलीन हो जाएँगी। अब ऋषि के वाक्य में उसने इतना और जोड़ लिया कि वह मूल तत्त्व जिससे सब निकला है वह सही है और जिसमें सब विलीन हो जाएगा, वह भी सही है - केवल बीच का प्रपंच मिथ्या है। परन्तु उसका मन यह मानने को किसी प्रकार तैयार नहीं था कि वह मूल तत्त्व जल ही है।

लड़का चिन्तन-मनन में इतना खो गया कि उसे संसार की किसी और बात का ध्यान ही नहीं रहा । केवल ध्यान करता था और समझने का प्रयत्न करता था कि वह मूल तत्त्व क्या है जिससे सबकुछ उत्पन्न होता है और जिसमें सब विलीन हो जाता है। अपनी इस सोचने की आदत के कारण वह लोक-सम्पर्क में बहुत कम आता था। अनाथ तो था ही, वह पूर्णरूप से अनिकेत भी हो गया, अर्थात् उसके पास अपना कहा जाने लायक कोई घर भी नहीं था। वह एकान्त-सेवी हो गया था। प्रातःकाल नदी में स्नान करने के बाद वह ध्यान में बैठ जाता और सोचने लगता । तन-मन की सुधि न रहती, भूख लगती तो आस-पास का कन्दमूल लेकर पेट भर लेता। उसे पता ही नहीं था कि दुनिया में और क्या होता है, अन्न कैसे उत्पन्न होता है, सामाजिक जीवन क्या चीज़ है, पुरुष और स्त्री का क्या भेद है, इन सब बातों से वह एकदम अपरिचित ही बना रहा, लेकिन उसकी सोचने की प्रक्रिया निरन्तर बढ़ती ही जाती थी ।

देखते-देखते बालक किशोरावस्था में आ गया। कभी कोई परिचित ऋषि या जिज्ञासु उससे मिल जाता तो उसे रिक्व का बेटा कहकर पुकारता । रिक्व का बेटा अर्थात् रैक्व । किशोरावस्था में प्रवेश करने पर उसे सिर्फ़ इतना ही मालूम था कि उसका नाम रैक्व है अर्थात् किसी रिक्व ऋषि का बेटा। इससे अधिक न उसने जाना और न किसी ने बताया। लेकिन जिज्ञासु जनों में उसके प्रति आदर का भाव अवश्य बढ़ गया था। उसमें चिन्तन-मनन की प्रवृत्ति, निरन्तर ध्यान करने की शक्ति और हर बात में मूल तक पहुँचने का प्रयास, प्रशंसा की दृष्टि से देखा जाता था। धीरे-धीरे लोग उसे देखने के लिए भी आने लगे। ऐसा विश्वास किया जाने लगा कि यह निष्क्रिय, निष्काम तरुण तापस समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर रहा है; क्योंकि उसकी प्रवृत्तियाँ बहिर्मुख नहीं हैं, अन्तरतर में लीन हो गई हैं। लोगों के आते-जाते रहने पर भी वह उनकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता था, अपनी समाधि में उसी प्रकार बैठा रहता था। लेकिन उसका यश जैसे-जैसे फैलता गया वैसे-वैसे उसके पास खाने-पीने की चीजें आने लगीं। लोग कुछ-न-कुछ उसके पास रख जाया करते थे। इससे जंगल में जाकर कन्द-मूल खोजने की कठिनाई से वह बच गया। उसकी ध्यान-धारणा और भी निर्विघ्न-भाव से चलने लगी। इस बीच एक घटना और हुई।

तरुण तापस रैक्व जब अपने आसन से उठा तो तीसरा पहर हो गया था। उस दिन उसने अपनी समाधि में इस बात का अनुभव किया था कि समस्त चैतन्य जगत् को जो चीज़ सचमुच प्राणवन्त बनाए हुए है, वह वायु है। वस्तुतः प्राण भी वायु ही है। तो इस प्राण को ही क्या मूल तत्त्व माना जा सकता है ? कुछ दिन पहले उसने किसी ऋषि से सुना था कि समस्त पदार्थों का परम तत्त्व प्राण ही है । प्राण में ही समस्त तत्त्व विलीन हो जाते हैं । प्राण ही सबको जीवन्त बनाए हुए है। यह प्राण ही वायु के रूप में बाह्य जगत में व्याप्त है। परन्तु वायु क्या चरम और परम है या इससे भी परे कोई चीज़ है? तरुण तपस्वी ने देर तक इस विषय पर मनन किया। उन्हें पता ही नहीं चला कि कब सूर्योदय हुआ, कब मध्याह्न हुआ और कब सूर्य पश्चिम की ओर ढरक पड़ा। जब वे उठे तो उनका मन बहुत प्रसन्न था। वे अब प्राण तत्त्व का रहस्य समझना चाहते थे। उन्हें ऐसा लग रहा था कि उन्होंने कोई बहुत बड़ी उपलब्धि पा ली है। उठकर वे नदी में स्नान करने के लिए चले गए। आज उनका चित्त बहुत ही उत्फुल्ल था; लेकिन जब वे नदी में उतरे तभी उन्होंने देखा कि आसमान के पश्चिमी किनारे पर काले मेघ-खंड दिखाई दे रहे हैं। सरल तपस्वी को यह समझ में नहीं आया कि आँधी आनेवाली है। जिस वायु की महिमा को उन्होंने अपनी समाधि में अनुभव किया था, वही प्रचंड वेग धारण करके सिर पर आनेवाला है; इसका उन्हें लेशमात्र भी ध्यान नहीं था। अचानक बड़े जोर की आँधी आई। नदी उस प्रचंड देग से उफन उठी। विचारमग्न ऋषि कुछ तरंगों के एक ही आघात से उलट गए और आँधी के साथ भयंकर वर्षा भी शुरू हो गई। जब तक वे सँभलें तब तक नदी की गरजती हुई धारा ने उन्हें बहा लिया। यद्यपि वे बुरी तरह से आँधी- पानी में फँस गए थे फिर भी उनका मन प्रसन्न था, क्योंकि वे वायु की प्रचंड शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव कर रहे थे। ऋषिकुमार नदी की गरजती हुई तरंगों से काफी दूर तक धकेले जाते रहे और अन्त में एक ऊँचे शिला-खंड से टकरा गए। किसी प्रकार से शिला- खंड के ऊपर जा बैठे। आँधी तब भी तेज चल रही थी और नदी की धारा तब भी तेज गरज रही थी। ऋषिकुमार भी बहुत थक गए थे और शिला-खंड पर बैठते ही वे मूर्च्छित हो गए। कितनी देर तक वे बेहोशी की हालत में रहे यह उन्हें भी नहीं मालूम, लेकिन स्वप्न में भी वे यही सोचते रहे कि वायु सबसे प्रचंड शक्ति है, जल से भी और धरती से भी । यह वायु का ही वेग था जो जल को खींच लाया, पानी बरसने लगा। नदी के जल को उछाल दिया, वह फुफकारने लगी और उन-जैसे चेतन प्राणी को उसने ऐसा धक्का मारा कि वे न जाने कितनी दूर इस अज्ञात जगह पर आ बैठे। वायु की महिमा सचमुच प्रचंड है। वे अब भी जो सपना देख रहे हैं या सोच रहे हैं वह सिर्फ़ इसलिए है कि उनकी साँस चल रही है, यह साँस भी वायु ही है। अचेतावस्था में उन्हें बार-बार अपनी इस नई उपलब्धि का आभास मिलता रहा। वे आनन्दित और उल्लसित होते रहे ।

धीरे-धीरे आँधी का वेग कम हुआ। नदी का भयंकर फूत्कार शान्त हुआ, आसमान में तारे दिखाई देने लगे। ऋषि की मूर्च्छा भंग हुई। वे चकित भाव से आकाश की ओर देखने लगे। इतने असंख्य तारे अब तक दिखाई क्यों नहीं देते थे! वायु के प्रचंड वेग से सारा आसमान मेघों से भर गया और तारे तक उसमें लुप्त हो गए ! वायु की महिमा सचमुच विस्मयकारी है !

रैक्व के पिता सामवेद के प्रख्यात विद्वान् थे । नाना देशों से आए हुए धुरन्धर विद्वान् उनसे साम-गान के बारे में चर्चा करते थे। बालक रैक्व को सब समझ में नहीं आता था। कभी-कभी ऋषियों के साथ उनके पुत्र भी आ जाया करते थे। खुले और चमकते हुए तारों से भरे हुए आकाश को देखकर रैक्व को पुरानी बात याद आ गई। उस समय रैक्व की अवस्था बहुत थोड़ी थी, सब चीजें उसकी समझ में नहीं आती थीं । वृद्धों के पास जाने में तो उसे संकोच भी होता था लेकिन नौजवान ऋषि पुत्रों की चर्चा में वह खुलकर हिस्सा लेता था। तारों भरे आकाश को देखकर उसे याद आया कि तीन तरुण ऋषिकुमार उसके आश्रम में साम-गान की चर्चा में लगे हुए थे । उनमें दो तो ब्राह्मण थे और तीसरे क्षत्रिय थे । ब्राह्मण ऋषियों में प्रथम थे शालवान् के पुत्र शिलक और दूसरे थे चिकितायन के पुत्र दाल्भ्य । क्षत्रिय ऋषि जीवल के पुत्र प्रवाहण थे। तीनों उद्गीथ - विद्या के मर्मज्ञ थे। एक बार इन लोगों में इस तत्त्व के आश्रय के सम्बन्ध में विचार हुआ। शिलक के प्रश्नों का उत्तर देते हुए दाल्भ्य ने बताया था कि साम का आश्रय स्वर है, स्वर का आश्रय प्राण है, प्राण का आश्रय जल है और जल का आश्रय स्वर्ग-लोक है। इसके आगे प्रश्न नहीं करना चाहिए, क्योंकि साम को 'स्वर्ग लोक' कहकर ही स्तुति की गई है - 'स्वर्गो वै लोकः सामवेदः ।'

किन्तु शालवान् के पुत्र शिलक, चिकितायन के पुत्र दाल्भ्य के इस कथन से सहमत नहीं हो सके। यह कैसे हो सकता है कि स्वर्ग लोक ही अन्तिम सत्य है ? उन्होंने शिलक के प्रश्न के उत्तर में कहा था- स्वर्ग लोक का आश्रय मनुष्य-लोक है - यह मिट्टी की धरित्री है। शिलक ने बाद में दाल्भ्य के ढंग पर ही स्वीकार किया कि इसके आगे प्रश्न अनुचित है। सबकी प्रतिष्ठारूप इस मनुष्य-लोक की प्रतिष्ठा और क्या हो सकती है? साम को पृथ्वी कहकर ही स्तुति की गई है— 'इयं वै रथन्तरम् !' सो साम का चरम आश्रय यह मनुष्य-लोक ही है ।

जीवल के पुत्र प्रवाहण को यह भी चरम आश्रय नहीं जान पड़ा। बोले, 'मनुष्य-लोक ही अन्तिम सत्य नहीं है। मनुष्य-लोक की भी कोई गति होनी चाहिए। यह कैसे मान लिया जाए कि इसके आगे कुछ है ही नहीं? वस्तुतः इसका भी आश्रय आकाश है। भूतमात्र आकाश में ही उत्पन्न होते हैं, आकाश में ही विलीन होते हैं। आकाश सबसे बड़ा है। आकाश ही परम आश्रय है।'

आज रैक्व शुभ्र आकाश को देख रहे हैं । तो क्या यह आकाश ही सबकुछ है? इसी में सब-कुछ विलीन हो जाता है, इसी से सब उत्पन्न होता है, इसी में सब-कुछ चक्कर मार रहा है? किन्तु इसमें प्राण कहाँ है? प्राण के बिना तो कुछ भी चंचल नहीं होता। जीवधारियों में जो प्राण है वही आकाशमंडल में व्याप्त वायु है ? वायु ही पृथ्वी और स्वर्ग के अन्तराल को भरता है? आकाश पर इसका प्रभुत्व नहीं है? पृथ्वी उसकी क्षमता से परे है ? रैक्व मुग्ध भाव से आकाश की ओर देखते रहे। उन्हें ठीक उत्तर नहीं सूझ पड़ा। सोचते हुए वे अपने स्थान से उठे और जिधर पानी का प्रवाह नहीं फैला था उस ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगे। उनके मन में तीन तत्त्व मुख्य रूप से चक्कर काट रहे थे वायु, जल और आकाश । अन्धकार चारों ओर व्याप्त हो गया था। रास्ता पाना कठिन मालूम हो रहा था। वे ठीक नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर वे हैं कहाँ अपनी कुटिया से कितनी दूर हैं। जब-जब वे कुटिया की बात सोचते थे तब-तब उनके मन में वायु की शक्तिशालिता उजागर हो उठती थी । यह वायु ही है जिसने उन्हें अचानक यहाँ तक ठेल दिया। यह वायु ही है जिसने जल को ऐसा प्रलयंकर बना दिया। यह वायु ही है जिसने आकाश को काली मसृण स्याही से पोत दिया था और अब निर्मल तारे - खचित शुभ्र रूप में प्रकट करा रहा है। लेकिन वायु क्या चरम है? वायु का भी कुछ कारण होना चाहिए। वायु क्या स्वयं शक्तिशाली है या किसी और से शक्ति पाता है?

मगर तरुण तापस अँधेरे में रास्ता टटोलते हुए आगे बढ़ रहे थे। रास्ता तो कहीं था नहीं। दूर तक कँटीली झाड़ियों का विस्तार था। थोड़ी ही देर में चन्द्रमा का उदय हुआ। सारी वनस्थली में किसी ने दूध की चादर बिछा दी । तरुण तापस और आगे बढ़ा। उसे कुछ खेत दिखाई पड़े। निश्चय ही वे किसी गाँव के निकट पहुँच गए थे। उन्होंने सावधानी से चारों ओर देखा, एक पगडंडी-सी दिखाई पड़ी। गाड़ियों के चलने से चिह्न बन गए थे। एक गाड़ी तो लगता है तूफान में फँस गई थी, क्योंकि उसके पहिए दूर-दूर तक धँसे हुए दिखाई देते थे । उन निशानों पर आगे बढ़ते हुए एक जगह और आकर रैक्व एकदम रुक गए। यह क्या? सामने एक बैलगाड़ी, जिसे उन दिनों 'रथ' कहा करते थे, बुरी तरह कीचड़ में धँसी पड़ी है। बैल उसमें अवश्य जुते हुए थे, लेकिन जान पड़ता है कि आँधी के भयंकर वेग से भाग खड़े हुए थे और गाड़ी धँसी पड़ी हुई थी। गाड़ीवान पास ही में मरा पड़ा था। रैक्व के मन में करुणा का उदय हुआ । हाय ! बेचारा आँधी-तूफान में मर ही गया, लेकिन गाड़ी से कोई दस-पन्द्रह हाथ पर एक और जीव उसी तरह आँधी-पानी से जूझता हुआ शिथिल - मूर्च्छित पड़ा हुआ था। रैक्व ने पहले तो उसे भी मरा समझा, परन्तु एकाएक अपने चिन्तन से प्राप्त उपलब्धि की याद आ गई- वायु के बिना कोई जीवित नहीं रहता। देखना चाहिए कि यह जीवित है कि मर गया है। अगर जीवित होगा तो नाक से साँस निकल रही होगी। गाड़ीवान की नाक पर हाथ रखकर देखा, कोई हलचल नहीं थी। दूसरे प्राणी की नाक पर हाथ रखकर देखा तो साँस चल रही थी।

ऋषिकुमार ने सोचा कि अगर इसकी कुछ सहायता की जाए तो शायद जी जाए। कठिनाई यह थी कि यह दूसरा प्राणी इतने कपड़ों से और मणि-मोतियों से जड़ा हुआ था कि उनकी समझ में नहीं आया कि ये सब कपड़े क्या हैं। ये मोती-मानिक जैसी चीज़ें इस प्राणी ने पहले से ही धारण की थीं या बाद में उसके शरीर पर डाली गई हैं। यह प्राणी निस्सन्देह मनुष्य ही था। हाथ, पैर, नाक, मुँह, देह सबकुछ मनुष्य-जैसे थे, परन्तु था कुछ विचित्र । इस प्रकार की मानवमूर्ति उन्होंने अपने जीवन में कहीं देखी नहीं थी। उनके समझ में नहीं आया कि आँधी और तूफान से जो कपड़े इधर-उधर बिखर गए हैं, उनका क्या उपयोग किया जाए। फिर भी कुछ तो करना ही चाहिए।

उन्होंने अपने सिद्धान्त की परीक्षा की। अगर वायु सबकुछ का कारण है और समस्त वायु में ही विलीन हो जाता है तो वायु के उपचार से इस प्राणी को कुछ राहत मिल सकती है। उन्होंने उसके शरीर पर उलझे हुए कपड़ों का एक सिरा उठाया और हवा करने लगे। थोड़ी देर में उन्होंने देखा कि उस प्राणी में कुछ हलचल हुई। ऐसा लगा कि उसकी मूर्च्छा दूर हो रही है और वह धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहा है। एक और आश्चर्य मुनि को यह हुआ कि जिस कपड़े से वे हवा कर रहे थे वह सूख गया। रैक्व के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने धीरे-धीरे उसके सब कपड़े उतारकर सुखाने का निश्चय किया। उन्होंने उसका सिर उठाकर कपड़ा हटाना चाहा। एकाएक उनका ध्यान उसकी आँखों की ओर गया। ऋषिकुमार विस्मित होकर देखने लगे। ऐसी आँखें तो मनुष्य की नहीं होतीं । ये तो बिल्कुल मृग की आँखें हैं। अवश्य ही इस प्राणी ने कहीं से मृग की आँखें लेकर अपने चेहरे पर बैठा ली हैं। वे धीरे-धीरे आँखों के चारों ओर उँगली फिराकर देखने लगे कि कहीं जोड़ के चिह्न हैं या नहीं। नहीं थे। ऋषिकुमार एकदम उसके चेहरे पर झुक गए। अवश्य ही कोई रहस्य है ! उसी समय उस प्राणी की आँखें खुल गईं। वह अचकचाकर उठ बैठा। क्रोध-भरे स्वर में उसने कहा, “कौन है तू? क्या कर रहा है ?” रैक्व ने इतनी मधुर वाणी कभी नहीं सुनी थी। उन्होंने समझा, निश्चय ही यह कोई देवलोक का मनुष्य है। हाथ जोड़कर बोले, “मैं बहुत प्रसन्न हूँ देवलोक के मनुष्य! तुम्हारी संज्ञा लौट आई, तुम उठकर बैठ गए, मैं तुम्हारे कपड़े सुखाने का प्रयत्न कर रहा था।” देवलोक के प्राणी को रैक्व की यह वाणी सुनकर कुछ कुतूहल हुआ। बोला, “तुम कौन हो ?"

रैक्व ने गद्गद भाव से प्रणति की और कहा, “धन्य हो देवता ! मुझे लोग रिक्व ऋषि का पुत्र रैक्व कहते हैं। मैं भी आँधी-तूफान में फँस गया था और इधर आते समय देखा कि यह रथ भी फँस गया है। इसका चलानेवाला मर गया है, इसका एक प्राणी जीवित है। तुम धन्य हो । अब बताओ, तुम कौन हो?"

रैक्व की सरल निष्कपट स्तुति से देवता को प्रसन्नता हुई। उसने उठकर अपने कपड़े ठीक किए और चुपचाप एक ओर ज़रा ऊँची ज़मीन देखकर आसन ग्रहण किया। रैक्व उसके पीछे-पीछे उसी तरह खिंचते चले गए जैसे चुम्बक के पीछे लोहा खिंचता है। ऐसा लगता है कि रैक्व जिसे देवलोक का मनुष्य समझ रहे थे, उसे थोड़ी-बहुत चोट भी आई थी। उसकी पीठ में, हाथ में कुछ चोट के निशान भी थे। रैक्व को लगा कि अकारण ही उसके अन्तरतर में एक भयंकर आँधी चल रही थी। ऐसा दिव्य रूप उन्होंने कभी नहीं देखा था, इतनी मीठी बोली उन्होंने कभी नहीं सुनी थी। यह कौन है ? क्या स्वर्ग के देवता ऐसे ही होते हैं? कातर-भाव से बोले, “अगर मैं कुछ सेवा करने योग्य माना जाऊँ तो आज्ञा पाकर कृतार्थ होऊँगा।” देवलोक का मनुष्य उसकी ओर एकदम देखता ही रहा। उसके मुख पर सीधे चन्द्रमा की शुभ्र किरणें बरस रही थीं। रैक्व ने कातर विनीत वाणी में कहा, "हे देवलोक के मनुष्य! तुम्हें देखकर मेरा सारा अस्तित्व तुम्हारी सेवा के लिए ढरक जाना चाहता है। मैंने बचपन में मधुर साम-वाणी सुनी है, परन्तु ऐसी मीठी वाणी आज तक नहीं सुनी। मुझे आज ऐसा जान पड़ता है कि मेरा जन्म कृतार्थ है, मेरा जप-तप सफल है, मेरा सारा अस्तित्व परिपूर्ण हो गया है। अहाहा, कैसा सुन्दर रूप है ! सत्य कहता हूँ देवता, मैंने ऐसी सुन्दर आँखें पहले कभी नहीं देखीं। तुम जब हँसते हो तो मुझे लगता है कि फूल बरस रहा है, तुम जब बोलते हो तो मुझे लगता है कि अमृत की वर्षा हो रही है। कैसा अद्भुत है! अब तक मैंने तुम्हारी अवस्था के जितने ऋषि-पुत्र देखे हैं, सबके केश रूक्ष और जटिल होते हैं, परन्तु तुम्हारे केश कितने मुलायम और मनोहर हैं। तुम्हारे अधरों में कैसी दिव्य प्रभा है। मुझे ठीक-ठीक बताओ, तुम किस स्वर्गलोक के निवासी हो और यहाँ कैसे आ गए?" आनन्द- गद्गद होकर रैक्व ने उसके मुलायम बालों को हाथों से अनुभव करने का प्रयत्न किया। फिर अत्यन्त सरल सहज भाव से उन्होंने देवता के गालों पर भी हाथ फेर दिया और आनन्द - कातर भाव से बोले, "अहा हा, तुम्हारी अवस्था के ऋषि पुत्रों के तो रूखे-रूखे बाल जम आते हैं, कैसा दिव्य तुम्हारा मुख-मंडल है, कितने लाल-लाल अधर हैं।" स्वर्गीय प्राणी ने ज़रा झिड़ककर कहा, “ऋषिकुमार, ज़रा दूर हटकर रहो। तुम क्या पहली बार किसी स्त्री को देख रहे हो?” ऋषिकुमार कुछ समझ नहीं सका, केवल आँखें फाड़कर उसकी ओर देखता ही रहा। अब उस स्वर्गीय प्राणी ने कहा, “देखो ऋषिकुमार ! मैं महाराज जानश्रुति की कन्या हूँ, तुम्हें इतनी तो जानकारी होनी ही चाहिए कि इस तरह से स्त्रियों का स्पर्श करना अनुचित है, पाप है, परन्तु मैं तुम्हारी सरलता पर मुग्ध हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि तुमने जीवन में मेरी जैसी कोई लड़की देखी ही नहीं। तभी तुम्हें आश्चर्य हो रहा है। मैं राजा की कन्या हूँ, कुछ समझ रहे हो?”

ऋषिकुमार भौंचक्के खड़े थे । असमंजस में पड़े हुए बोले, “ 'कन्या' शब्द से मैं परिचित हूँ; लेकिन वह होता क्या है, यह मैं नहीं जानता।" अब राजकुमारी को कुतूहल हुआ - "अच्छा ऋषिकुमार, तुमने व्याकरण पढ़ा है?" ऋषिकुमार ने गर्व से कहा, "अवश्य पढ़ा है।"

“तो फिर जानते हो, व्याकरण में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग होता है ?"

"जानता हूँ ।"

"तुम पुल्लिंग हो, मैं स्त्रीलिंग हूँ। आगे मुझे सम्बोधित करना तो वह व्याकरण-सम्मत स्त्रीलिंग के अनुसार होना चाहिए। मुझे क्या सम्बोधन करोगे, बोलो तो।"

ऋषिकुमार अभिभूत हतप्रभ की भाँति उसकी ओर देखते रहे। बोले, “मैं नहीं जानता। इतना अवश्य जानता हूँ कि स्त्रीलिंग शब्द भाषा में व्यवहार किए जाते हैं। पद का मुझे ज्ञान है, पदार्थ का मुझे ठीक ज्ञान नहीं है। मैं जानता हूँ कि कन्या शब्द स्त्रीलिंग है, इसलिए मैं आपको कन्या शब्द से सम्बोधित कर सकता हूँ। मुझे यह भी मालूम है कि आर्ये, भवति, शुभे, इत्यादि शब्द स्त्रीलिंग के सम्बोधन हैं। परन्तु मुझे ठीक नहीं मालूम कि इन पदों के अर्थ - पदार्थ - क्या हैं ।"

जाबाला ने हँसकर कहा, "अच्छी बात है। तुम मुझे 'शुभे' कहकर पुकारा करो। मैं देवलोक से नहीं आई हूँ, इसी पृथ्वीलोक पर महाराज जानश्रुति की कन्या हूँ। मैं तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ। तुमने मेरे प्राण बचाए। मैं इस रथ पर बैठकर अपने एक सम्बन्धी के यहाँ जा रही थी, बीच में ज़ोर की आँधी आई और पानी बरसने लगा। आँधी का वेग इतना तेज था कि बैल रास्ता छोड़कर इधर भाग पड़े। फिर वे किसी तरह जुआ उतारकर न जाने किधर चले गए। जान पड़ता है कि भागते हुए बैलों ने गाड़ीवान को अपने खुरों से रौंद डाला, वह बेचारा समाप्त हो गया है। मुझे भी बचने की आशा नहीं थी। तुम एक काम कर सकते हो? मुझे मेरे पिता के घर पहुँचा दो ।"

ऋषिकुमार अत्यन्त विनीत भाव से बोले, “शुभे, तुम जैसा भी आदेश करोगी, उसका पालन करना मेरे लिए हर्ष और गौरव की बात होगी। परन्तु तुम्हारे पिता के घर का रास्ता मुझे मालूम नहीं है। तुम्हें अपनी पीठ पर बैठाकर जिधर कहो, उधर पहुँचा दूँ ।"

राजकुमारी हँसने लगी । बोली, “देखो ऋषिकुमार, तुम्हारा यह प्रस्ताव अनुचित है। इससे लोक-निन्दा होगी। कोई भी युवक किसी कुमारी को पीठ पर ले जाने की बात नहीं करता । सोचता भी नहीं । मुझे सिर्फ़ उस रास्ते तक पहुँचा दो जहाँ से बैलगाड़ी इधर आई है। मेरे पिता के आदमी अवश्य ही उधर खोजने के लिए आए होंगे। मेरे पैरों में यदि कष्ट न होता तो उतनी दूर जा सकती थी।"

ऋषिकुमार हैरान थे। उनकी समझ में नहीं आया कि इसमें लोक-निन्दा की क्या बात है। कुछ हारे हुए-से बोले, “शुभे, मैंने वृद्ध लोगों से सुना है कि आर्त्त और विपन्न लोगों की सेवा करना धर्म है, मैं तो धर्म की ही बात कर रहा हूँ । क्या मैं कुछ अनुचित कह रहा हूँ ?”

राजकुमारी मुग्ध दृष्टि से ऋषिकुमार की ओर देखती रही। कैसा सरल भाव है! कैसा सहज-कमनीय मुख! हँसकर बोली, “हाँ कुमार, तुम जानते ही नहीं कि कितनी अनुचित बात कह रहे हो !”

ऋषिकुमार सोच में पड़ गए - " मैं जानता कैसे नहीं! यह धर्म-संगत प्रस्ताव है। इसमें अनुचित क्या हो सकता है? नहीं शुभे, इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है । आ जाओ मेरी पीठ पर । अनुचित क्या है भला !” और अपनी पीठ राजकुमारी के सामने कर दी। उन्हें आशा थी कि वह उनकी पीठ पर आ जाएगी। पीठ में एक अजीब-सी सनसनाहट हो रही थी । वह शान्त नहीं हुई । राजकुमारी दो पग पीछे खिसक गई। बोली, “तुम बहुत भोले हो ऋषिकुमार, उठो, मेरी ओर देखो ।”

पीठ की सनसनाहट ज्यों-की-त्यों बनी रही। बाध्य होकर उन्हें उठना पड़ा। हताश होकर चकित दृष्टि से उन्होंने राजकुमारी को देखा। राजकुमारी हँस रही थी। निराश ऋषिकुमार उस मोहक हँसी से अभिभूत हो गए- “हँसती हो शुभे, मैंने कोई हास्यास्पद आचरण किया है?"

राजकुमारी का मुख म्लान हो गया। बोली, “नहीं ऋषिकुमार, तुम स्वर्गीय ज्योति हो। मेरी हँसी तो अधम जन के कलुषित चित्त का विनोद है। हाय, तुम्हारे - जैसा पवित्र मन कहाँ मिलता है? अच्छा कुमार, मुझे देखकर तुम्हें कैसा अनुभव होता है?"

“ – अनुभव ? जानती हो शुभे, सबकुछ वायु से उत्पन्न होता है, वायु में विलीन हो जाता है। मेरे भीतर, तुम्हारे भीतर और समस्त विश्व-ब्रह्मांड में वायु ही सबकुछ करा रहा है। मेरे भीतर जो प्राणवायु है, वह तुम्हें देखकर बहुत चंचल हो गया है। तुम्हें दिखाई नहीं देता, पर मेरे भीतर भयंकर आँधी बह रही है। मैं नहीं जानता कि वह मुझे उड़ाकर कहाँ ले जाएगी। पर वह उड़ा रही है। मैं उड़ रहा हूँ। वह मेरे अन्तर्वर्त्ती प्राणवायु को तुम्हारे भीतर ठेलकर घुसा देना चाहती है। मेरा प्राण चंचल हो उठा है। वायु की इस अद्भुत शक्ति का परिचय मुझे पहले नहीं था । तुम्हें देखकर मुझे नया प्रकाश मिल रहा है। प्रकाश का कारण वायु ही है ।"

“थोड़ा रुको ऋषिकुमार! तुमने बहुत बड़ी बात कही है। पर तुम जिसे वायु कहते हो वह क्या सचमुच वायु है? वह वस्तुतः एक प्रत्यय है, प्रतीति है। जानते हो ऋषिकुमार, प्रत्यय आत्मा का धर्म है। पद और पदार्थ को यह प्रत्यय ही जोड़ता है ।"

“नहीं शुभे, यह बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। वायु तो सबका कारण है, उसका कोई कारण कैसे हो सकता है? तुम जिसे प्रत्यय कहती हो, उस पर मैंने विचार नहीं किया है। क्या यही अच्छा होता कि तुम्हारे साथ बैठकर इस पर विचार करता !"

“ऋषिकुमार, मैं तुम्हारे साथ बैठकर विचार कर सकती तो कितना अच्छा होता ! पर तुम नहीं जानते कि ऐसा सम्भव नहीं है । "

"क्यों, इसमें क्या दोष है?"

राजकुमारी ने हँस दिया। ऋषिकुमार फिर सोचने लगे। राजकुमारी ने ही मौन तोड़ा।

"जानते हो ऋषिकुमार, मेरे पिता के पास एक बड़े विद्वान् आए थे। वे बता रहे थे कि कोई राजा जनक थे जिनके पास याज्ञवल्क्य ज्ञानचर्या के लिए गए थे। याज्ञवल्क्य से राजा जनक ने पूछा कि मनुष्य की ज्योति क्या है। याज्ञवल्क्य ने पहले उत्तर दिया कि 'मनुष्य की ज्योति सूर्य है। यह सूर्य के ही कारण है कि मनुष्य बैठने, विचारने, कार्य करने और लौटने की शक्ति रखता है।' राजा जनक ने कहा, 'जब सूर्य छिप जाता है, तब मनुष्य की ज्योति क्या है?' याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि 'तब मनुष्य की ज्योति चन्द्रमा है; क्योंकि चन्द्रमा की ज्योति के कारण ही मनुष्य बैठ सकता है, विचार कर सकता है तथा लौट सकता है।' राजा जनक ने कहा कि 'जब सूर्य और चन्द्रमा दोनों अस्त हो जाते हैं, तब मनुष्य की ज्योति क्या है?' याज्ञवल्क्य ने कहा कि 'निश्चय ही तब मनुष्य की ज्योति अग्नि है, क्योंकि अग्नि के प्रकाश के कारण ही मनुष्य बैठ सकता है, विचार कर सकता है और लौट सकता है।' जनक ने कहा कि 'जब सूर्य अस्त हो जाता है, चन्द्रमा अस्त हो जाता है और अग्नि बुझ जाती है, तब मनुष्य की ज्योति क्या है?' याज्ञवल्क्य ने कहा कि ‘अब आप मुझे गहनतम प्रश्न की ओर ले जा रहे हैं। जब सूर्य अस्त हो जाता है, चन्द्रमा अस्त हो जाता है, जब अग्नि बुझ जाती है, तब आत्मा ही एकमात्र ज्योति है !"

“विचित्र है। इस चर्चा में वायु का कोई स्थान ही नहीं है !”

“हाँ, इसीलिए मैं सोचती हूँ कि जिसे तुम वायु कहते हो वह वही चीज तो नहीं है जिसे जनक 'आत्मा' कहते हैं! सोचो, सोचने में दोष क्या है!"

"सोचूँगा शुभे, तुम्हारे इस सुन्दर मुख से निकली वाणी साम-गान की तरह पवित्र लगती है। इस सुन्दर मुख ने मुझे सोचने को बाध्य कर दिया है।”

राजकुमारी हँसती रही, ऋषिकुमार मुग्धभाव से उसकी ओर देखते रहे। इसी समय कुछ लोग उधर आते दिखाई पड़े। राजकुमारी ने ऋषिकुमार से कहा, “जान पड़ता है, मेरे आदमी आ रहे हैं। तुम कहीं दूर जाकर छिप जाओ। ये लोग जानने न पाएँ कि हम लोग यहाँ एकान्त में बात कर रहे थे।" ऋषिकुमार हैरान! "क्यों, क्या इसमें भी दोष है?” राजकुमारी ने बल देकर कहा, “हाँ, है; जल्दी करो ।”

ऋषिकुमार ने अनमने भाव से आज्ञापालन किया। राजकुमारी को लेकर सब लोग चले गए। ऋषिकुमार का मन उदास हो गया। रथ के पास जाकर देखा तो गाड़ीवान का शव भी नहीं था। शायद उसे भी उठा ले गए। रथ को ज़रूर खींचकर कीचड़ से निकाल दिया गया था, पर शायद वह बेकार हो गया था। किसी ने उसे ले जाने की आवश्यकता नहीं समझी। तीन दिन, तीन रात ऋषिकुमार उस रथ के पास बैठे रहे। उन्हें आशा थी कि कोई-न-कोई उसे लेने आएगा। राजकुमारी के कुछ समाचार मिलेंगे। कोई नहीं आया। उन्होंने रथ को खींचकर उस स्थान पर रखा जहाँ राजकुमारी बैठी थी। उसी की छाया में बैठकर चिन्तन करने लगे । पर पीठ की सनसनाहट बनी रही। वे प्रायः उसे खुजला लेते।

रैक्व आख्यान : दो

जाबाला राजा जानश्रुति की इकलौती दुलारी कन्या थी । बड़े लाड़-प्यार में उसका लालन-पालन हुआ था। लड़की बहुत बुद्धिमती थी। राजा जानश्रु ने उपयुक्त अध्यापकों को लगाकर उसे पढ़ने-लिखने में चतुर बनाया था । यद्य राजा का वैभव बहुत अधिक था वह सौ बैलों की खेती करता था, अनेक दास-दासी उनके यहाँ नियुक्त थे; जाबाला की कुछ करने की आवश्यकता नहीं थी; परन्तु फिर भी वह खेतों में जाती, कर्मकारों के साथ खेती-बारी का काम देखती और अपने हाथों से गाय-बैलों की सेवा भी करती थी। राजा जानश्रुति आस-पास के गाँवों में सबसे सम्पन्न व्यक्ति थे। उनकी रूपवती और गुणवती कन्या को प्राप्त करने के लिए अड़ोस-पड़ोस के अनेक राजकुमार प्रयत्नशील थे, परन्तु जाबाला कुछ विचित्र स्वभाव की लड़की थी। उसे अपनी विद्या और ज्ञान पर गर्व था। वह ऐसे किसी युवक से विवाह नहीं करना चाहती थी, जो ज्ञान और विद्या में उसके समकक्ष न हो। राजा जानश्रुति लाड़-प्यार में पली अपनी बेटी के योग्य वर नहीं खोज पा रहे थे, क्योंकि उनकी जाति के लोगों में पढ़ने-लिखने का विशेष चलन नहीं था। अच्छे पढ़े-लिखे युवक ब्राह्मण और क्षत्रियों में ही प्राप्त हो सकते थे। जाबाला की प्रखर बुद्धि की समकक्षता उनमें भी बहुत थोड़े ही कर सकते थे। इस प्रकार माँ-बाप की लाड़ली जाबाला का विवाह कार्य रुका हुआ था। उसे उसकी बहुत चिन्ता भी नहीं थी। वह पठन-पाठन और शास्त्र - चिन्तन में ही आनन्द अनुभव करती थी ।

उस दिन जाबाला अपनी मौसी के घर जा रही थी। मौसी के यहाँ कोई उत्सव था। वह गाँव बहुत दूर नहीं था इसलिए माता-पिता की अनुमति लेकर दिन रहते ही जाबाला केवल गाड़ीवान को साथ लेकर अपनी मौसी के घर जा रही थी । अचानक आसमान धूल से भर गया। गाड़ीवान को आँधी और वर्षा का आभास मिल गया। उसने जाबाला को सावधान किया। अपना घर अभी बहुत दूर नहीं छूटा था। मौसी का घर अधिक दूर था। गाड़ीवान ने जाबाला की अनुमति से गाड़ी को घर की ओर लौटाया भी, लेकिन आँधी का वेग इतना प्रचंड था कि वे बीच में ही फँस गए। आँधी के साथ-साथ पानी भी बड़ी तेज़ी से बरसने लगा। चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा हो गया। बैल गाड़ीवान के नियन्त्रण से बाहर हो गए। वे रास्ता छोड़कर झाड़ियों के भीतर घुस गए और बुरी तरह विद्रोह कर बैठे। इधर गाड़ी का चक्का भी धँस गया। गाड़ीवान ने उतरकर उसे ठीक करने का प्रयत्न किया और इसी बीच बैल अपने कन्धे से जुआ उतारकर रथ को लिए ऊधम मचाने लगे। कुछ भी दिखाई नहीं देता था । ऐसा लगा कि गाड़ीवान नीचे गिर गया है और बैल उसे बुरी तरह से रौंद रहे हैं। जाबाला साँस रोक यह दृश्य देखती रही। एकाएक वह गाड़ी से कूद पड़ी, लेकिन आँधी के वेग से वह कुछ थोड़ी दूर तक ठेली जाती रही। उसके बाल अस्त-व्यस्त हो गए थे। उसने चिल्ला-चिल्लाकर गाड़ीवान को बुलाया, लेकिन कहीं कोई नहीं आया। बैल भाग चुके थे। वह स्वयं एक झाड़ी से उलझकर गिर गई। आँधी की तीव्र गति बढ़ती ही जाती थी; देर तक वह बेहोश पड़ी रही ।

जाबाला को चोट उतनी नहीं लगी थी, जितना उसके मन में भय समा गया था। बेहोश वह भय के आघात से हुई थी। वह कितनी देर बेहोश रही, उसे पता ही नहीं चला। उसी अवस्था में उसे जान पड़ा कि कोई उसकी आँखों के चारों ओर उँगलियों से दबा रहा है। उसकी आँखें खुलीं। सामने उसके चेहरे पर आँखें गड़ाए कोई ताक रहा था। उसे भय हुआ। वह एक झटके में बैठ गई। देखा, रूक्ष जटिल चेहरेवाला कोई तापस आश्चर्य से उसे देखे जा रहा है। क्रोध से उसने डाँटा । तापस डरकर पीछे हट गया। जाबाला के वस्त्र अस्त-व्यस्त थे । आँधी और वर्षा से बुरी तरह बिखर गए थे। तापस का भयभ्रान्त मुख उसे अच्छा लगा। वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा रहा था। पहले तो उसने उसे मूर्ख ही समझा। पर उसकी बातों से उसे लगा कि यह ऋषिकुमार बुद्धिमान भी है और भोला भी। जीवन में उसने शायद कभी किसी स्त्री को नहीं देखा । जाबाला को वह स्वर्गलोक का प्राणी समझ रहा है। उसे कुतूहल हुआ। भोले ऋषिकुमार की बातें उसे मीठी लगीं। थोड़ी देर तक की बातचीत से ही उसे ऐसा लगने लगा कि ऋषिकुमार प्यारे-प्यारे भोले शिशु के समान है। उसे लोक व्यवहार का कुछ भी ज्ञान नहीं है। अगर वह देर तक उससे बात कर सकती तो अच्छा होता, पर विघ्न आ गया। ऋषिकुमार तो नितान्त भोला है, पर वह तो लोक व्यवहार जानती है। उसे कहीं छिपने को कहकर वह घर लौट आई। पर लौट आने पर भी मन चंचल ही बना रहा। कहाँ गया होगा वह ? क्या सोचता होगा? दिव्य लोक के प्राणी के बिछुड़ने पर क्या मानसिक अवस्था उसकी हुई होगी? कचट जाती नहीं, हृदय मसोस उठता है। हाय, बिचारा बड़ा ही भोला है ! कहता है, सबकुछ वायु से ही निकला है, उसी में विलीन हो जाएगा। हृदय में न जाने कैसी उथल-पुथल महसूस करता है, पर मानता है कि यह भी वायु से ही उत्पन्न हुआ है ! भोलेराम को और कुछ का पता ही नहीं है। हृदय में उसके आँधी बह रही है, वायु ही तो है !

मगर जाबाला स्वयं कुछ हलचल महसूस कर रही है। छाती में कहीं बुरी तरह हलचल है। यह भी क्या वायु का ही प्रताप है! पहले उसे कुतूहल हुआ था, अब उससे अलग कोई भाव है। भोलेराम कहते हैं कि उनके बाल रूक्ष हैं, जटिल हैं और स्वर्गीय प्राणी के मुलायम हैं! हाय रे भोला, तू तो जानता ही नहीं कि केशों को मुलायम बनाने के लिए कितनी दासियाँ लगी रहती हैं, कितना तेल-उबटन खर्च होता है; कहीं तेरे बालों की भी ऐसी ही सेवा हुई होती तो क्या कम सुन्दर या कमनीय होते! जाबाला के मन में एक विचित्र प्रकार की गुदगुदी अनुभूत हुई । अगर उसे अवसर मिलता तो वह उसकी ऐसी सेवा करती कि तीन दिनों में उसका रूप निखर आता। एक सप्ताह भी अगर वह उसे धौरी गाय का दूध पिला सकती तो उसका शरीर तप्त कांचन की भाँति लहक उठता। नाई बुलाकर उसके सुन्दर मुख को चाँद की तरह चमका देती। तीन दिन के तेल-उबटन से वह दिव्य पुरुष की भाँति खिल उठता। मगर है हठी । नाई से ही झगड़ पड़ेगा। तेल-उबटन लगानेवालों से तो लड़ ही पड़ेगा। सब तो वायु का खेल है, तुम कौन होते हो दखल देनेवाले! मगर जब वह गुस्सा होगा तो उसका भोला मुँह और भी कमनीय हो जाएगा। जाबाला उसे आँखों से ही डाँट देगी - 'नहीं, ऊधम मत करो, चुपचाप जो कहती हूँ करा लो ।' मान जाएगा या नहीं? मान जाएगा। कहेगा, 'इस सुन्दर मुख की वाणी के कारण मैं बाध्य हो रहा हूँ।' मज़ा आ जाएगा। भोलेराम को पता ही नहीं कि सुन्दर मुख की वाणी कितनी गहराई में चोट करती है !

मगर जाबाला यह सब क्या सोच रही है । असम्भव दिवास्वप्न हैं ये सब ! जंगल का जानवर पगहा तुड़ाकर भागा सो भागा । अब क्या वह पकड़ाई देगा ! अगर पकड़ में आ भी गया तो जाबाला को उसकी सेवा के लिए कौन अवसर देगा! छिः, वह राजकुमारी है, उसे ऐसा सोचना क्या शोभा देता है! जाबाला कुछ बेचैनी महसूस कर रही है। वह भागा कहाँ, मैंने ही तो भगा दिया! यही तो उसके हृदय को कुरेद रहा है। वह बिचारा तो पीठ सामने करके उस पर जाबाला को बैठाकर उसके घर तक पहुँचाने को गिड़गिड़ा रहा था। कह रहा था, इसमें दोष ही क्या है। एक बार जाबाला के जी में आया कि उसकी पीठ पर सवार हो ही जाए। पर रुक गई थी, दोष तो था ही। ऐसा भी कहीं होता है। उस जंगली मृगछौने को इसमें दोष नहीं दिखता तो क्या राजकुमारी जाबाला भी वैसी ही बन जाए? नहीं, उस समय उसने अपने मन पर काबू पा लिया, यह अच्छा ही हुआ । उसने अपने पिता से सुना था कि पुरा काल में भी कोई जाबाला थी। उसका बेटा सत्यकाम बड़ा ज्ञानी हुआ था । परमज्ञानी होने के बाद वे अपने को सत्यकाम जाबाल कहते थे। एक बार उन्होंने याज्ञवल्क्य को बताया था कि मन ही सत्य है। पर राजा जनक ने कहा था कि यह आंशिक सत्य है। आंशिक सत्य क्या पूर्ण सत्य का विरोधी होता है? मन ने उसे चंचल बनाया था, उसने उस पर काबू पा लिया था; पर आंशिक रूप से ही सही, सत्य की एक झलक तो मिल ही गई थी। भोलेराम बता रहे थे, उनके प्राणों में वायु आन्दोलित हो रही थी। उदंक ऋषि ने याज्ञवल्क्य को कहा था कि प्राण ही परम सत्य है। जनक ने उसे भी आंशिक सत्य ही बताया था। तो उधर भी आंशिक सत्य का ही साक्षात्कार हो रहा था ! पूर्ण सत्य क्या होता होगा? न भोले ऋषिकुमार को उसका साक्षात्कार हुआ, न सुशिक्षिता राजकुमारी को ही ।

जाबाला के पिता ने बताया था कि महाराज जनक ने कहा था कि 'जिसे वाणी व्यक्त नहीं कर सकती, किन्तु जो वाणी को अभिव्यक्ति प्रदान करती है, उसी को परम सत्य समझो; उसे नहीं जिसकी लोग व्यर्थ उपासना करते हैं ।

...........

जाबाला का ध्यान भंग हुआ। वृद्ध आचार्य को देखकर उसे प्रसन्नता भी हुई और उसके मन में कुछ अमनख का भाव भी आया । ठुनककर बोली, “ठीक तो हूँ, पर आप मुझे छोड़कर चले कहाँ गए थे?"

आचार्य ने हँसते हुए कहा, "अरे, क्या बताऊँ बिट्टो रानी, मैं भी तेरी ही तरह आँधी-तूफान में फँस गया था। तुझे छोड़कर कहाँ जाऊँगा? मैं तो समझता था तू मौसी के घर आराम से होगी और इस बूढ़े को भूल ही गई होगी।”

जाबाला ने आशंकित होकर पूछा, “आप कैसे तूफान में फँस गए, तात !”

आचार्य असल में उस दिन जाबाला के. योग्य वर की तलाश में ही गए थे। इस बात को उन्होंने छिपा लिया। बोले, "मेरे एक सहपाठी थे। बहुत दिनों से उन्हें देखा नहीं था। सोचा, जब तक तू मौसी के यहाँ रहेगी तब तक मेरा मन तो यहाँ लगेगा नहीं, इस बीच उन्हें देख आऊँ । उनका पुत्र बड़ा तत्त्वज्ञानी है । वे लोग अश्वल गोत्र के हैं, आश्वलायन कहे जाते हैं। बड़े आश्वलायन जो मेरे सहपाठी थे, वे अब नहीं रहे। उनके सुपुत्र को देखकर ही लौट आया। अपने पिता की कीर्त्ति को यह लड़का बढ़ा रहा है। बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ता उससे ज्ञानचर्चा करने आते हैं। पिछली बार तो एक यज्ञ में जितने विचारक आए थे सबने एक स्वर स्वीकार किया कि तरुण आश्वलायन बहुत बड़ा तत्त्वज्ञानी है। मगर मैं तो रास्ते में ही फँस गया। उनके घर तो दूसरे दिन पहुँचा।"

“क्या हुआ तात, बताइए न !” उतावले भाव से जाबाला ने पूछा।

“हुआ क्या बिटिया, सन्ध्या समय सूर्यास्त से कुछ पूर्व ही जब मैं चन्द्रधुनी नाले के किनारे-किनारे जा रहा था, अप्रत्याशित रूप से आसमान काला हो गया। भयंकर वेग से आँधी आई। ऐसा जान पड़ा कि मुझे उड़ा ही ले जाएगी। नाले का पानी भी बुरी तरह उफन रहा था। मुझे आस-पास कोई आश्रय नहीं मिला । ऐसा लगा कि यह भयंकर वात्या मुझे नाले में ही फेंक देगी। संयोग से एक ठूंठा शिंशपा वृक्ष दिख गया। आँधी की ओर पीठ करके मैंने कसके उस ठूंठ को पकड़ लिया। आँधी गरजती रही, पानी बरसता रहा और मैं उस ठूंठ को दोनों हाथों से कसकर बाँधे बैठा रहा। पानी क्या था, लगता था, कोई लोहे की रस्सियों से पीट रहा है। मैं सविता देवता की मन-ही-मन स्तुति करता भींजता रहा। नाले के दोनों किनारों पर हंसों के दल चिल्लाते रहे। इधर से एक दल चिल्लाता था, 'रयि क्व ।' उधर से दूसरा दल उतने ही ज़ोर से चिल्लाता, 'रयि क्वे।' जैसे आँधी का वेग बढ़ता वैसे चिल्लाहट भी बढ़ती जाती। एकाएक मेरे मन में आया, ये तो शुद्ध संस्कृत में जवाब-सवाल चला रहे हैं। तू समझती है बेटा, इसका क्या अर्थ है?”

"अर्थ ? अर्थ कैसा ? यह तो उनकी बोली है। आपको जैसा सुनाई पड़ा, वही ध्वनि यह है ।"

“नहीं रे, 'रयि' सम्पत्ति को कहते हैं। तुझे बताया तो था, याद नहीं है? वेदों की ऋचाओं में भी यह शब्द आता है। मुझे लगा कि एक दल पूछ रहा है कि सम्पत्ति कहाँ जाती है? दूसरा दल जवाब दे रहा है, रैक्व के पास !”

"तात, आप भी क्या बात करते हैं। हंस संस्कृत बोलते थे?"

"नहीं, नहीं, वे तो अपनी बोली में ही कुछ पूछ रहे होंगे। मैंने जो सुना उसका संस्कृत में यही अर्थ होता है। मैं क्या यों ही मान लेता ! दूसरे दिन मुझे तरुण आश्वलायन ने भी यही बात बताई और मज़ेदार बात तो यह है बिटिया, कि सचमुच ही रिक्व मुनि का एक पुत्र महातपस्वी रैक्व है। लोग तो उसकी अलौकिक शक्तियों को देखकर उसे दिव्य पुरुष ही मानने लगे हैं। तरुण आश्वलायन तो उस महान तापस के दर्शन भी कर आए हैं। कहते थे कि यह किशोर किसी से कुछ भी नहीं बोलता । वह किसी को भी ज्ञानी नहीं मानता। कभी बोलता भी है तो बहुत कम। उसे अपने ऊपर जितना विश्वास है, उतनी ही दूसरों पर अनास्था । बेकार की बात करनेवालों को वह तिरस्कारयोग्य समझता है। प्रायः 'शूद्र' कहकर लोगों का तिरस्कार करता है। लोग बुरा नहीं मानते क्योंकि उसकी सिद्धियाँ सत्य हैं। महा फक्कड़ है। पंडित और सिद्ध अवश्य है । वह वायु को सब वस्तुओं का कारण मानता है। मनुष्य शरीर में प्राण रूप से जो वायु निबद्ध है, उसे वश में करके सबकुछ पाया जा सकता है। आश्वलायन से उसकी थोड़ी बातचीत हुई थी । वह अपने प्राणों को इस प्रकार निरुद्ध कर सकता है कि हवा में उड़ सकता है, उनका ऐसा संक्रमण दूसरों में कर सकता है कि लोग रोग मुक्त हो सकते हैं। हज़ारों की संख्या में लोग उसकी सिद्धियों से लाभान्वित हुए हैं। पर वह ऐसा भोला है कि कुछ जानता ही नहीं । आश्वलायन से उसने कहा था कि यदि किसी दिन बाहरी वायु पर नियन्त्रण पाने की सिद्धि उसे मिल जाए तो वह काल की गति को भी रोक सकता है। आश्वलायन ने उससे थोड़ी देर बात करके ही उसकी विद्वत्ता और तपश्चर्या की गहराई जान ली है । पर वह भोला अपनी ही शक्ति को भी नहीं जानता। बातें करता है तो ऐसा लगता है कि दुधमुँहा बच्चा बोल रहा है। दृढ़ता इतनी है कि अपने अनुभव के सामने श्रुति-वाक्यों को भी प्रमाण नहीं मानता। आश्वलायन का दृढ़ विश्वास है कि हंसों में उसी के गुण का बखान हो रहा है।"

जाबाला को कैसी जाने टीस अनुभव हुई। आश्चर्य से उसकी आँखें टँग गईं- “विचित्र है, तात !”

"विचित्र तो है ही । तेरे पिताजी से जाकर मैंने सारी बातें बताईं तो तुरन्त नाले के पास जाकर उन्होंने भी हंसों की कहानी सुनी । आश्वलायन से भी मिल आए। अब तो उन्होंने आश्वलायन से अनुरोध किया है कि उन्हें उस किशोर तापस के पास ले चलें। लेकिन आश्वलायन ने आकर समाचार दिया कि तरुण तापस कुटिया में नहीं है, शायद आँधी-तूफान में कहीं उड़ ही गया ! राजा ने और भी चर भेजे हैं। मुझे भी खोजने का काम मिला है। कैसे खोजूँ, कहाँ खोजूँ? कौन जाने, जीवित है भी या नहीं !”

जाबाला के प्राण उत्कंठ हो गए। वह जानती है, उस सिद्ध तापस को । उसने देखा ही नहीं, पाया है । भोला तो वह अवश्य है, पर क्या प्राणों के संक्रमण द्वारा वह सचमुच रोग-शोक, चिन्ता से मुक्त कर सकता है ! तातपाद तो उच्छ्वसित हैं, बिना देखे ही । देखते तो इनकी क्या दशा होती । उसके मन में कई बार आया कि वह तातपाद को बता दे कि उसकी भेंट उससे हो चुकी है पर हर बार कोई लज्जा उसकी वाणी रुद्ध कर गई। हाय-हाय, उसने कैसी निधि पाई थी ! पर किसी दुर्भाग्य ने उसे पाई हुई निधि से दूर कर दिया। हृदय विदीर्ण होकर टुकड़े-टुकड़े हो जाना चाहता है। वाणी रुद्ध हो गई है। चेतना गहराई में विलीन हो गई है। आचार्य बहुत-कुछ कहते रहे, जाबाला ने कुछ नहीं सुना। फिर वे चले गए।

देर तक जाबाला सोचती रही। तरुण तापस वायु को जानता है, उसके कहने का अर्थ शायद कुछ और है। वह क्रियामार्गी है; जाबाला अब तक उसे ज्ञानमार्गी समझती रही।

जाबाला कह नहीं पा रही है मगर उसके हृदय में भारी उथल-पुथल है। उस ऋषिकुमार ने अपना नाम रैक्व ही तो बताया था। वह जीवित तो अवश्य है पर कहाँ है? हाय, उसने उसे दूर जाकर छिप जाने को कह दिया और स्वयं चली आई। आकर क्या उसने उसे खोजा नहीं होगा! क्या वह विक्षिप्त की भाँति 'शुभे - शुभे' कहकर चिल्लाया नहीं होगा! क्या बीती होगी उस भोले तापस कुमार पर ! वह अपनी व्यथा किसी से कह नहीं रही थी। भीतर ही भीतर से वह अपने ताप से आप ही जलने लगी।

राजा ने पुत्री की अवस्था देखी तो व्याकुल हो गए। वैद्य बुलाए गए, पर रोग का कुछ पता नहीं चला। आचार्य की तो दशा और चिन्तनीय थी। क्या हो गया उनकी प्यारी बिट्टो रानी को ! चेहरा सूखता जा रहा है, शरीर काला पड़ता जा रहा है। आश्वलायन ने बताया था कि रैक्व ने सैकड़ों को अपने अन्तर्निहित वायु को संक्रमित करके नीरोग बना दिया था। उन्होंने राजा से प्रस्ताव किया कि रैक्व को खोजने के लिए और अधिक प्रयत्न किया जाए। वही जाबाला को रोग मुक्त कर सकता है। पता लगाने का अभियान और तेज कर दिया गया। चरों ने आकर सूचना दी कि कोई तापसकुमार उस टूटे रथ की छाया में समाधि लगाता है जिससे बिटिया मौसी के घर जा रही थी और जो तूफान में फँस जाने के बाद बुरी तरह टूट गया था । वह समाधि लगाता है तो एक हाथ धरती के ऊपर उठ जाता है । जब समाधि टूटती है तो फिर धरती पर आ जाता है। बोलता बहुत कम है। रथ को थोड़ी देर के लिए ही छोड़ता है। प्रातःकाल नित्य क्रिया और स्नानादि के लिए जाता है। कहीं कन्दमूल खोजकर खा लेता है, फिर समाधि पर बैठ जाता है। कुछ रोगी दिन-भर बैठे रहते हैं । सन्ध्या-समय उनसे थोड़ी बात कर लेता है। खोया- खोया सा ही रहता है। किसी की ओर ताकता भी नहीं। पीठ अवश्य खुजलाता रहता है। कभी-कभी तो समाधि की अवस्था में भी खुजला लेता है। राजा ने आचार्य से कहा कि वे स्वयं जाकर पता लगाएँ कि यही व्यक्ति रैक्व है या नहीं । जाबाला को जब यह समाचार मिला तो उससे नहीं रहा गया। आचार्य को बुलाकर उसने जोर देकर कहा कि “तात, निस्सन्देह यही व्यक्ति रैक्व है।” आचार्य ने पूछा कि "तू कैसे कह सकती है कि यही तापस रैक्व है?” तो उसने बिना किसी झिझक के कहा, “मैं जानती हूँ।” और उठकर अन्यत्र चली गई। आचार्य को कुछ अप्रत्याशित लगा। वे देर तक उसकी प्रतीक्षा में खड़े रहे, पर वह लौटी नहीं ।

रैक्व आख्यान : तीन

आचार्य औदुम्बरायण रैक्व का पता लगाकर सीधे राजा के पास पहुँचे। राजा उस समय जाबाला के पास बैठे थे। बेटी के अज्ञात रोग से वे बहुत व्याकुल थे। लेकिन बेटी बहुत ठीक थी। यद्यपि उसका शरीर अब भी दुर्बल था; पर रैक्व के मिल जाने के समाचार से वह बहुत आश्वस्त हो गई थी। पिता को बता रही थी, वे व्यर्थ ही दुःखी हैं, वह बिल्कुल स्वस्थ है । पर पिता की चिन्ता बनी हुई थी। आचार्य एकदम वहीं पहुँच गए। उन्हें देखकर राजा और जाबाला दोनों ही आश्वस्त हुए। राजा ने आतुर भाव से पूछा कि क्या वे रैक्व से मिल सके हैं? आचार्य प्रसन्न थे। बोले, "बैठिए महाराज, बताता हूँ। बड़े बेढव जीव से मिलकर आ रहा हूँ।”

राजा की उत्सुकता और बढ़ गई - "तो क्या यह मनुष्य कोई और है? आपने जिस तापस को देखा, वह रैक्व से भिन्न है?"

जाबाला की आँखें कान तक फैल गई। वह मानो आँख और कान दोनों को मिलाकर सुनना चाहती थी।

आचार्य ने हँसते हुए कहा, "हैं तो वे रिक्व ऋषि के पुत्र महाभाग रैक्व ही- पर विचित्र जीव हैं। गया तो समाधि लगाए हुए थे। समाधि भंग हुई तो थोड़ी देर तक खोए-खोए से रहे। फिर मुझे देखकर खिसियाए-से बोले, 'आप कौन हैं? यहाँ क्या करने आए हैं?"

"मैंने विनीत भाव से कहा, 'उदुम्बर- गोत्रीय औदुम्बरायण हूँ, तापस- कुमार ! महाराज जानश्रुति ने मुझे भेजा है। मैं जानना चाहता हूँ कि आप क्या महान ऋषि रिक्व के सुपुत्र रैक्व हैं?' "

" 'हूँ तो रिक्व ऋषि का पुत्र रैक्व ही । पर यह जानश्रुति कौन हैं? क्या ये महाभागा शुभा के पिता हैं?' मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने विनीत भाव से कहा, 'नहीं, उनकी कन्या का नाम कुछ और है, शुभा नहीं ।' "

" 'तो कोई और होंगे। उन्हें मुझसे क्या काम है?' ''

जाबाला की छाती को बिजली चीर गई। उसकी वाणी रुद्ध थी, पर उसका रोम-रोम चिल्लाकर कह रहा था - 'नहीं, नहीं, शुभा जाबाला ही है ! महाराज जानश्रुति ही शुभा के पिता हैं।' किसी को यह चीत्कार नहीं सुनाई दिया। महाराज तो कुछ आश्वस्त-से ही लगे कि जिसकी लड़की को यह तापसकुमार जानता है वह जानश्रुति कोई और हैं!

आचार्य औदुम्बरायण ने बताया कि उन्होंने तापसकुमार से कहा कि राजा जानश्रुति उनसे तत्त्वज्ञान की चर्चा करना चाहते हैं। तापसकुमार ने अवज्ञा की हँसी के साथ कहा, 'ज्ञान की चर्चा करना चाहते हैं? आप उनके कौन होते हैं?"

" 'मैं उनका अध्यापक हूँ।'

" 'तो ज्ञान की चर्चा आपसे ही क्यों नहीं कर लेते? यहाँ मुझे विव्रत करने क्यों आना चाहते हैं?'

“ 'मैं उनकी सब जिज्ञासा शान्त नहीं कर सकता। वे बहुत जिज्ञासु हैं, मैं अल्पज्ञ हूँ।'

" 'अच्छा, आप अल्पज्ञ हैं ? अल्पज्ञ जैसी बातें तो आप कर ही रहे हैं!' "

आचार्य ने कहा, “मैंने ऐसे अशिष्ट उत्तर की अपेक्षा नहीं की थी। थोड़ा अप्रतिभ हो गया। तापस को मानो प्रसन्नता हुई। बोला, 'मैं भी अल्पज्ञ हूँ, परन्तु पहले मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप मुझसे अधिक अल्पज्ञ हैं या कम बताइए,

............
............

समझेंगे? देखा भी हो !'

"कहीं फिर न बिगड़ उठें, इस आशंका से मैंने बात आगे बढ़ाने का प्रयत्न किया। कहा, 'आश्चर्य है ऋषिकुमार, महाभागा शुभा आपको स्वप्न में दिख गईं। यह तो अद्भुत है!'

“ऋषिकुमार प्रसन्न हुए। उल्लसित भाव से कहने लगे- 'केवल दिख नहीं गईं, बातें कीं। उन्होंने ही तो कहा कि तुम आचार्य से बात करना नहीं जानते। वे दुःखी हो गए हैं। समझे आचार्य!'

"क्या उत्तर दूँ, यह सोच ही रहा था कि वही बोल पड़े- 'कैसे समझेंगे? आपने देखा भी हो !'

“मौन रहना ही उचित था। सो, मैं केवल उत्सुकता से उनकी ओर ताकता रहा-एकटक !

'' 'शुभा ने मुझसे कहा कि तुम्हें आचार्य का सम्मान करना चाहिए। नहीं तो पाप होगा। अच्छा आचार्य, मुझे बता दें कि मैं आपका सम्मान कैसे करूँ? न जाने इस पाप का दंड कितना भोगना पड़ेगा।'

" ऋषिकुमार का मुख म्लान हो गया। पहले दिन जो फक्कड़ाना लापरवाही थी वह एकदम लुप्त हो गई। वे ज़ोर-ज़ोर से अपनी पीठ खुजलाने लगे। मैंने उन्हें आश्वस्त करने के लिए कहा, 'नहीं ऋषिकुमार, तुमसे कोई पाप नहीं हुआ है, कोई दंड भी नहीं भोगना पड़ेगा। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए तो कठिन ही है, पर वृद्धों से सुना है कि आसन देकर और प्रणिपात करके वृद्धों का सम्मान किया जाता है।'

"बीच ही में तापसकुमार झुंझलाकर बोल उठे - 'आप कैसे जानते हैं? शुभा जानती हैं। आपको पता है कि जिसे धर्म कहा जाता है, वह कभी-कभी भयंकर पाप भी हो जाता है? पर कैसे जानेंगे? शुभा जानती हैं।'

"मैं हैरान था ! मनु नहीं, वशिष्ठ नहीं, आपस्तम्ब नहीं, अत्रि नहीं, याज्ञवल्क्य नहीं, धर्म के बारे में जानती हैं तो केवल शुभा ! पागल है क्या!

"परन्तु ऋषिकुमार की वाग्धारा आज रुकना नहीं चाहती थी। उसकी बातें उसकी सच्चाई और भोलेपन से ऐसी मीठी लगती थीं कि मैं उत्सुकतापूर्वक सुनता ही रहा ।

" 'अच्छा आचार्य, विपन्न व्यक्ति की सेवा धर्म है न? कैसे जानेंगे आप? कल स्वप्न में मैंने शुभा से पूछा था कि ये लोग मेरे पास रोग मुक्त होने की आश से आते हैं, उनकी सेवा धर्म है या नहीं?' उन्होंने हँसकर कहा- 'है! शुभा जब हँसती है तो लगता है कि फूल झर रहे हैं?'

"मैंने कुतूहल 'के साथ कहा, 'इतना तो मैं भी बता सकता था।' तापसकुमार ठठाकर हँसे और बोले, 'इतना मैं भी जानता था। लेकिन बस, इतना ही। उस रात को ऐसा हुआ कि शुभा को चोट आ गई थी। मैंने कहा कि वे मेरी पीठ पर बैठ जाएँ। यह तो धर्म ही था। लेकिन शुभा ने कहा कि नहीं, यह ठीक नहीं होगा । ऐसा किसी युवक का सोचना भी पाप है। मैं नहीं माना, मैंने अपनी पीठ उसके सामने कर दी। वे हट गईं। मेरी पीठ में सनसनाहट अनुभव हुई। थोड़ी देर वैसे बैठा रहा। पर शुभा हट गईं। उन्होंने कहा कि यह अनुचित है, पाप है। सचमुच पाप था। मेरी पीठ की सनसनाहट वैसी ही बनी रह गई। पाप का फल तो मिलता ही है। मैंने वायु-निरोध कर इसे दूर करना चाहा। नहीं दूर हुआ। ऐसा लगता है कि गहराई में कोई शल्य धँस गया है और वहाँ वायु की शक्ति काम नहीं कर पाती। अच्छा आचार्य, वायु से भी कोई प्रबल चीज़ होती होगी? मगर आप कैसे जानेंगे? शुभा बता सकती हैं। शुभा, महाभागा शुभा !' "

राजा और आचार्य औदुम्बरायण इस मनोरंजक बातचीत में इतने तल्लीन थे कि वे देख ही नहीं सके कि जाबाला के चेहरे पर कैसी सफेदी आ गई। उसे जान पड़ा कि उसके अन्तरतर को कोई आरी से चीर रहा है। उसकी आँखों से आँसू की धारा उमड़ पड़ी थी, पर उसने प्रयत्नपूर्वक अपने को सँभाल लिया। उसके भीतर अजीब तरह की हलचल थी। कैसे बताए कि उस भोले तापसकुमार की शुभा वही है। हाय, यह वयस्क शिशु कितना भोला है, कितना सरल! उसने लोकगीतों में किसी भोले प्रेमी की कहानी सुनी थी। वह थका-माँदा अपनी अज्ञातनामा प्रिया के द्वार पर पहुँचकर गिड़गिड़ाकर पूछने लगा, 'वह है कहाँ, कोई बता दे मुझे।' प्रिया कटकर रह गई। शर्म से बोल ही नहीं पाई कि 'अरे भोले बटोही, वह मैं ही तो हूँ, वह मैं ही तो हूँ।' जाबाला को कुछ वैसा ही अनुभव हो रहा था।

आचार्य कहने लगे- "मैं कुछ कहूँ, यह तापस को स्वीकार नहीं था। इसलिए मैं चुपचाप सुनता रहा। भोलेराम को यह बताना व्यर्थ था कि शुभा के अतिरिक्त कोई और भी कुछ जानता है । पर महाराज, यह शुभा कौन है? उसके पिता का भी वही नाम है जो आपका है।" फिर जाबाला की ओर देखकर बोले, “जानश्रुति-कन्या तो तुम भी हो बिट्टो रानी ! इतने में तो तू उसकी गुरु शुभा के समान ही है। पता नहीं, उसने इस भोले तापस को कितनी गहराई में प्रभावित किया है!"

जाबाला रुद्धवाक्, हतचेष्ट !

आचार्य ने आगे कहा, “अभी इस सत्संग का सबसे मनोरंजक अंश आपको नहीं बता पाया। मैंने विनोद करने की इच्छा से ही पूछा, 'अच्छा ऋषिकुमार, प्राणवायु से भी अधिक गहराई में जो चीज़ है उसके बारे में शुभा ने कुछ नहीं बताया ? सुना है कि तत्त्वज्ञानी लोग उसे 'मन' कहते हैं। आपको इसका पता नहीं है?'

“ऋषिकुमार ने कहा, 'है। मैंने बाल्यावस्था में अपने पिता से सुना था कि आरुणि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु से कहा था कि जिस प्रकार एक सूत्र में बँधा हुआ पक्षी पहले प्रत्येक दिशा में उड़ने की चेष्टा करता है और कहीं शान्ति न पाकर उसी स्थान पर बैठ जाता है जहाँ पर कि वह बँधा हुआ है; ठीक उसी प्रकार सौम्य मन प्रत्येक दिशा में उड़ने के बाद कहीं शान्ति न पाकर श्वास पर ठहर जाता है, क्योंकि मन श्वास से ही बँधा हुआ है। तभी से मैंने मन के बारे में सुन रखा है। पर मन तो श्वास से बँधा है। श्वास वायु है। इसलिए मन वायु के बस में रहता है। शुभा ने उसके बारे में कुछ नहीं बताया। समय ही कहाँ मिला! शूद्रों का मेला था, उन्हें पकड़कर न जाने कहाँ ले गए। अच्छा आचार्य, आप क्या अनुभव करते हैं, मन प्रबल है या वायु ?'

"मैंने किसी भूमिका के बिना दृढ़ता के साथ कहा, 'मन ।'

“ऋषिकुमार सोचने लगे। अपने-आप से ही कहा, 'शुभा ने कहा था, मैं जिसे वायु कहता हूँ वह वही चीज़ है जिसे तत्त्वदर्शी लोग आत्मा कहते हैं। मन बीच में कहाँ से आ गया?” फिर मेरी ओर देखकर बोले, 'मुझे ऐसा लगा है आचार्य, कि वायु भी शक्तिशाली है पर अलग स्तर पर मन भी हो सकता है, दूसरे स्तर पर। इनमें विरोध नहीं है। महाभागा शुभा ने बताया था कि पद और पदार्थ को जोड़नेवाला तत्त्व प्रत्यय है, वह आत्मा का धर्म है। यह प्रत्यय रहता तो मन में ही है। श्वास में तो निश्चय ही नहीं रहता । पर... नहीं आचार्य, मैं भटक गया हूँ, मुझे ठीक सूझ नहीं रहा है, मैं गुरु की खोज में जा रहा हूँ। आप नहीं जानते, मैं बहुत व्याकुल हूँ।'

“मैं चुपचाप बैठा रहा। हटने का कोई प्रयत्न नहीं किया। ऋषिकुमार चिन्तित दिखाई पड़े। फिर एकाएक बोले, 'वायु के बल पर मैं निर्जीव वस्तुओं में गति पैदा कर सकता हूँ, पर सजीव वस्तुओं पर यह बल नहीं चलता। आपके हाथ में जो डंडा है, उसे छोड़िए तो ज़रा।'

"मैंने छोड़ दिया। वह धरती पर गिर गया। ऋषिकुमार ने श्वास-निरोध किया। थोड़ी देर में डंडा सीधा खड़ा हो गया और धीरे-धीरे उनकी ओर सरकने लगा। उन्होंने रेचक की प्रक्रिया शुरू की। डंडा धीरे-धीरे मेरे पास आ गया और लुढ़ककर धरती पर गिर गया। ऋषिकुमार ने मेरी ओर देखकर कहा, 'अब आप इस पर मन की शक्ति लगाकर देखिए तो, इसमें हलचल होती है या नहीं।'

"मैंने हाथ जोड़कर कहा, 'ऋषिकुमार, मुझे मन की शक्ति लगाने का अभ्यास नहीं है। मैंने सुनी-सुनाई बात आपसे कही है।'

“ऋषिकुमार ने आश्चर्य से मेरी ओर देखा - ' आप बिना परीक्षा किए ही कोई बात मान लेते हैं? विचित्र है। यह तो नेयता हुई । यही शूद्र-धर्म है।'

"फिर एकाएक उठकर खड़े हो गए। बोले, 'मैं ही परीक्षा करूँगा। कहीं गुरु के दर्शन हो जाते!' फिर कुछ असमंजस में पड़े दिखाई दिए - ' आपने यह नहीं बताया कि मुझे किस प्रकार आपका सम्मान करना चाहिए। बताइए न !' मैं क्या बताता ! उनके उद्विग्न भोले मुख की ओर ताकता रहा । फिर ऋषिकुमार ने नम्रता के साथ कहा, 'मैं आपको प्रणिपात निवेदन करता हूँ। मेरा किया हुआ यह सम्मान ग्रहण करें ।' फिर एकदम चल पड़े, जान पड़ा जैसे उड़े जा रहे हैं। शायद गुरु की खोज में चल पड़े। मैं दूर तक उन्हें जाते देखता रहा । रह-रहकर वे अपनी पीठ पर हाथ फेर लेते थे ।"

कहानी समाप्त करने के बाद राजा और आचार्य दोनों ने आश्चर्य के साथ देखा कि जाबाला का चेहरा सफेद हो गया है। वह एकदम पाषाणमूर्ति के समान जड़ीभूत हो गई है। दोनों उसकी दशा से चिन्तातुर हो उठे ।

रैक्व आख्यान : चार

ऋषिकुमार रैक्व व्याकुल- भाव से चलते गए। कहाँ जा रहे हैं, यह उन्हें स्वयं - नहीं मालूम। विचित्र प्रकार की व्याकुलता उनके मन में है पर वे समझ नहीं पा रहे हैं। प्राण वायु की शक्ति से वे थोड़ा-बहुत जड़ पदार्थों को प्रभावित कर सकते हैं। आश्वलायन ने यह तो उन्हें बताया था कि हंसों की वाणी से स्पष्ट है कि 'रयि' पदार्थ रैक्व के पास पहुँच जाते हैं। पर उन्होंने यह नहीं बताया कि ‘रयि’ वस्तुतः जड़ पदार्थों का वाचक है। पर स्वप्न में शुभा कैसे खिंच आई, वह तो जड़ पदार्थ नहीं है! स्वप्न कौन देखता है? आचार्य कहते हैं कि मन नामक कोई पदार्थ है, वह वायु से अधिक शक्तिशाली है । यह उनकी सुनी-सुनाई बात है, परीक्षित सत्य नहीं है, पर जिससे सुना होगा, वह कदाचित् परीक्षा कर चुका हो। स्वप्न में क्या मन कार्यरत रहता है? स्वप्न क्या है? सुषुप्ति क्या है? प्राण वायु और मन का क्या सम्बन्ध है? किससे पूछा जाए, कौन बताएगा ? शुभा बता सकती थी पर वह मिलेगी कहाँ ? क्या मन की शक्ति से उसे प्रत्यक्ष खींचा जा सकता है? स्वप्न में जो बिना बुलाए ही आ गई, वह क्या प्रयत्न करने पर भी जाग्रत अवस्था में नहीं मिल सकती ? ऋषिकुमार चलते गए। कुश-कंटकों से पैर बिन्ध जाते थे, पर वे अपनी धुन में मस्त थे। कब रात हुई, कब थककर बैठ गए, इसका ध्यान ही नहीं रहा। पीठ की जो सनसनाहट भूल गई थी, वह अवसर पाते ही फिर अनुभूत हुई। उन्होंने पीठ पर हाथ फेरा। व्यथा कुछ गहराई में उतरती जान पड़ी। छाती तक उसने हमला किया। एक हाथ से छाती पकड़ी। सनसनाहट जा नहीं रही है। प्राणायाम करना चाहिए, पर प्राणायाम सिद्ध नहीं हो रहा है। व्याकुलता बढ़ गई जान पड़ी। क्लान्ति से शरीर चूर-चूर हो गया। उन्हें झपकी आ गई। थोड़ी देर में वे सो गए। स्वप्न में शुभा दिखाई पड़ी । चिन्ता - कातर मुख की शोभा कुछ और ही थी। उन्हें शुभा के अमृत वचन सुनाई दिए : 'ऋषिकुमार, तुम्हारी पीठ में बड़ी वेदना है। आओ, तुम्हारी पीठ सहला दूँ ।' और सचमुच ही शुभा ने उसकी पीठ पर हाथ फेर दिया। कितना शीतल स्पर्श था ! सारी व्यथा जाती रही। ऋषिकुमार को अपूर्व तृप्ति मिल रही थी। पर अचानक उनकी निद्रा भंग हुई। बैठे-बैठे जहाँ लेट गए थे वहाँ एक सुन्दर सी लता थी । उसी के पल्लव हवा के झोंके से उनकी पीठ पर झूम रहे थे। क्या रहस्य है ? इस लता में कुछ दैवी शक्ति थी क्या? पर हिल तो रही है वायु से ही। यह तो वायु की शक्ति का ही उद्घोष है। ऋषिकुमार को अपना परीक्षित सत्य फिर अभिभूत करने लगा-वायु ही परम शक्तिशाली तत्त्व है ! पर स्वप्न क्या वायु का उपजाया था? वे फिर विचारमग्न हो गए।

प्रातःकालीन हवा ने उनमें ताजगी भरी। उन्हें लगा कि पीठ की सनसनाहट कुछ कम हुई है। वे खड़े हो गए और फिर चलने लगे। वायु में ऐसा कुछ अवश्य है जो शरीर में स्फूर्ति भरता है।

कल दिन-भर कुछ न खाया, न पिया। आज उन्हें भूख और प्यास दोनों का अनुभव हुआ। सामने नदी थी। पहले स्नान कर लिया जाए, फिर कुछ कन्दमूल- फल खोजा जाए। वे सीधे नदी की ओर बढ़े। किनारा बुरी तरह ऊबड़-खाबड़ था । किनारे-किनारे कुछ आगे बढ़े। एक जगह उतरने का अच्छा घाट-सा बना हुआ था। वे उतर गए। पर स्नान नहीं कर सके। वहाँ एक वृद्धा स्नानादि से निवृत्त होकर सूर्य को अर्घ्य दे रही थीं। वे एकटक उन्हीं की ओर देखने लगे। आश्चर्य और कुतूहल से उनकी आँखें कान तक फैल गईं। शुभा के मुख की तरह यह मुख

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