Amritasva (Volga Se Ganga) : Rahul Sankrityayan

अमृताश्व (वोल्गा से गंगा) : राहुल सांकृत्यायन

3. अमृताश्व
देश : मध्य-एशिया; पामीर (उत्तर-कुरु)
जाति : हिन्दी-ईरानी
काल : ३००० ई० पू०

1.

फर्गाना के हरे-हरे पहाड़, जगह-जगह बहती सरिताएँ तथा चश्मे, कितने सुन्दर हैं, इसे वही जान सकते हैं, जिन्होंने काश्मीर की सुषमा देखी है। हेमन्त बीत कर बसन्त आ गया है और बसन्त-श्री उस पार्वत्य उपत्यका को भू-स्वर्ग बना रही है। पशु-पाल अपने हेमन्त-निवासों, गिरि-गुहाओं या पाषाण-गृहों से निकलकर विस्तृत गोचर-भूमि में चले आये हैं। उनके घोड़े के बाल के तम्बुओं से-जिनमें अधिकतर लाल रंग के हैं- धुआँ निकल रहा है। अभी एक तम्बू से एक तरुणी मशक को कन्धे से लटकाये नीचे पत्थरों पर अट्टहास करती सरिता के तट की ओर चली। अभी वह तम्बुओं से बहुत दूर नहीं गई थी, कि एक पुरुष सामने आकर खड़ा हुआ। तरुणी की भाँति उसके शरीर पर भी एक पतले सफेद ऊनी कम्बल के दो छोर दाहिने कन्धे पर इस तरह बँधे हुए हैं, कि दाहिना हाथ, मोढ़ा और वक्षार्द्ध तथा घुटनों के नीचे का भाग छोड़, सारा शरीर ढंका हुआ है। पुरुष के पिंगल केश, श्मश्रु सुन्दर रूप से सँवारे हुए हैं। सुन्दरी पुरुष को देख ठहर गई ।

पुरुष ने मुस्कराते हुए कहा-"सोमा ! आज देर से पानी के लिए जा रही है ?"

"हाँ, ऋज्राश्व ! किन्तु तू किधर भूल पड़ा ?".

"भूला नहीं सखी ! मैं तेरे ही पास चला आया।"

"मेरे पास ! बहुत दिनों बाद।"

"आज सोमा याद आ गई !"

"बहुत अच्छा, मुझे पानी भरकर घर में पहुँचाना है। अमृताश्व खाने बैठा है।"

बात करते हुए दोनों नदी तक जा, घर लौटे। ऋज्राश्व ने कहा-

"अमृताश्व बड़ा हो गया।

"हाँ, तूने तो कई वर्षों से नहीं देखा ?"

“चार वर्ष से ?"

"इस वक्त यह बारह वर्ष का है। सच कहती हूँ ऋज्राश्व ! रूप में वह तेरे समान है।

"कौन जाने, उस वक्त मैं भी तो तेरा कृपा-पात्र था। अमृताश्व इतने दिनों कहाँ रहा ?"

"नाना के यहाँ, वाहलीकों में ।"

सुन्दरी ने जलपूर्ण मशक तम्बू में रखी और अपने पति कृच्छ्राश्व को ऋज्राश्व के आने की खबर दी। दोनों और उनके पीछे अमृताश्व भी तम्बू से बाहर निकले। ऋज्राश्व ने सम्मान प्रदर्शित करते हुए कहा--"कह, मित्र कृच्छ्राश्व ! तू कैसे रहा ?"

"अग्निदेव की कृपा है, ऋज्राश्व ! आ जा फिर, अभी-अभी सोम (भांग) को घोटकर मधु और अश्विनी-क्षीर के साथ तैयार किया है।"

"मधु-सोम । किन्तु इतने सबेरे कैसे ?"

"मैं घोड़ों के रेवड़ में जा रहा हूँ। बाहर देखा नहीं, घोड़ा तैयार है ?

"तो आज शाम को लौटना नहीं चाहता !"

"शायद। इसीलिए तैयार है। यह सोम की मशक और मधुर अश्वमांस ।"

"अश्व-मांस !"

"हाँ, हमारे पशुओं पर अग्निदेव की कृपा है। मैं तो अश्वों को ही अधिक पालता हूँ।"

"हाँ, कृच्छ्राश्व ! तेरा नाम उल्टा है।"

"माँ-बाप के समय हमारे घर में अश्वों की कृच्छ्रता थी, इसीलिए यह नाम रख दिया।

"लेकिन अब तो ऋद्धाश्व होना चाहिए।

"अच्छा, चलो भीतर ।”

"किन्तु, मित्र ! इसी देव-द्रुम की छाया में हरी घास पर क्यों न ?"

"ठीक, सोमा ! तू ला, सोम और माँस से यहीं मित्र को तृप्त करें।”

"किन्तु कृच्छ्र ! तू अश्वों में जा रहा था।

"चला जाऊँगा, आज नहीं कल। बैठ ऋज्राश्व !"

सोमा सोम की मशक और चषक (प्याले) लिये आई। दोनों मित्रों के बीच अमृताश्व भी बैठ गया। सोमा ने सोम (भाँग के रस) और चषक को धरती पर रखते हुए कहा-"बिस्तर ला हूँ, जरा ठहरो।”

"नहीं सोमे ! यह कोमल हरी घास बिस्तर से अच्छी है”-ऋज्राश्व ने कहा।

"अच्छा, यह बतला ऋजु ! लवण के साथ उबाला मॉस खायेगा, या आग में भूना ? बछेड़ा आठ महीने का था, मांस बहुत कोमल है।"

"मुझे तो सोमे ! भूना बछेड़ा पसन्द आता है। मैं तो कभी-कभी सम्पूर्ण बछेड़े को आग पर भूनता हूँ। देर लगती है, किन्तु मांस बहुत मधुर होता है। और तुझे भी सोमे ! मेरे चषक को अपने ओठों से मीठा करना होगा।

"हाँ, हाँ सोमे ! ऋज बहुत समय बाद आया है।”- कृच्छ्राश्व ने कहा।

"मैं जल्दी आती हूँ, आग बहुत है, माँस भूनते देर न लगेगी।"

कृच्छ्राश्व को चषक पर अँड़ेलते देख ऋज्राश्व ने कहा "क्या जल्दी है?"

"सोम मधुरतम है। सोमा का हाथ और सोम ! सोम अमृत है। यह सोमपायी को अमृत बनाता है। पी सोम और अमृत बन जा।”

"तू अमृत क्या बनेगा ? जिस तरह चषक पर चषक उँडेले जा रहा है, उससे तो अ-चिर में मृत-सा बन जायेगा।"

"किन्तु तू जानता है ऋज्र ! मैं सोम से कितना प्रेम रखता हूँ ?"

इसी वक्त भुने माँस के तीन टुकड़ों को चमड़े पर लिये सोमा आकर बोली-‘किन्तु कृच्छ्र ! तू सोमा से प्रेम नहीं रखता ?"

“सोमा से भी और सोम से भी।” कृच्छ्र ने परिवर्तित स्वर में कहा।

उसकी आँखें लाल हो रही थीं, "और सोमा, आज तुझे क्या परवाह ?"

"हाँ, आज तो मैं अतिथि ऋज़ की हूँ।"

"अतिथि या पुराने मित्र की ?" -हँसने की कोशिश करते हुए कृच्छ्र ने कहा।

ऋज्राश्व ने हाथ पकड़कर सोमा को अपनी बगल में बैठा लिया, और सोम-पूर्ण चषक को उसके मुँह में लगा दिया । सोमा ने दो बँट पीकर कहा-"अब तू पी ऋज्र ! बहुत समय बाद यह दिन आया है।"

ऋज्राश्व ने सारे चषक को एक साँस में साफ कर नीचे रखते हुए कहा-"तेरे ओठों के लगते ही सोमे ! यह सोम कितना मीठा हो जाता है।”

कृच्छ्राश्व पर सोम का असर होने लगा था। उसने झटपट अपने चषक को भरकर सोमा की ओर बढ़ाते हुए लड़खड़ाती जबान से कहा-"तो---सो---- ! इस-स्-से-भी--म्-क-ध्-धु-र-व्-ब-ना-I दे।"

सोमा ने उसे ओठों से छू; लौटा दिया। अमृताश्व को बड़ों के प्रेमालाप में कम रस आता था, इसलिए वह समवयस्क बालक-बालिकाओं के साथ खेलने के लिए निकल भागा। कृच्छ्राश्व ने झपी जाती पपनियों और गिरे जाते शिर के साथ कहा-"सो-ो-मं-- ! ग-गा-ना-1-ग-गा-ऊँ ?"

"हाँ, तेरे जैसे गायक क्या कुरु में कहीं है?"

"ठ-ठी-कम्-मे-रे-ज-जै–सा-ग-गायक-न-ही-तू-तो सु-सु-न-"

“पृपि-व्-वे--म्-मसो-मं-"

"रहने दे कृच्छ्र ! देख तेरे संगीत से सारे पशु-पक्षी जंगल छोड़ भाग रहे हैं।"

"ह. हु-म्-म!"

यह समय सोम पी अमृत बनने का नहीं था। आम तौर से उसका समय सूर्यास्त के बाद होता है, किन्तु कृच्छ्राश्व को तो कोई बहाना मिलना चाहिए । उसके होश हवाश छोड़ चित्त पड़ जाने पर, सोमा और ऋज्राश्व ने प्याले रख दिये और दोनों नदी के किनारे एक चट्टान पर जा बैठे। पहाड़ के बीच यहाँ धार कुछ समतल भूमि में बह रही थी, किन्तु उसमें बड़े-छोटे पत्थरों के ढोंके भरे हुए थे, जिन पर जल टकराकर शब्द कर रहा था। पत्थरों की आड़ में जहाँ-तहाँ मछलियाँ अपने पंखों को हिलातीं चलती-फिरती दिखलाई पड़ती थीं। तट के पास की सूखी भूमि पर विशाल साल, देवदारु आदि के वृक्ष थे। पक्षियों के सुहावने गीतों के साथ फूलों से सुगंधित मन्द पवन में श्वाँस तथा स्पर्श लेना बड़े आनन्द की चीज थी। बहुत वर्षों बाद दोनों इस स्वर्गीय भू भाग में अपने पुराने प्रेम की आवृत्ति कर रहे थे। इस वक्त फिर उन्हें वह दिन याद आ रहे थे, जबकि सोमा षोडशी पिंगला (पिंगल केशी) थी, जब वसन्तोत्सव के समय ऋज्राश्व भी वाहलीकों में अपने मामा के घर गया था। सोमा उसके मामा की लड़की थी। ऋज्राश्व भी उसके प्रेमियों में था। उस वक्त सोमा के चाहने वालों में होड़ लगी थी, किन्तु जयमाला कृच्छ्राश्व को मिली। दूसरों के साथ अजाश्व को भी पराजय स्वीकार करनी पड़ी। अब सोमा कृच्छ्राश्व की पत्नी है, किन्तु उस जिन्दादिल युग में स्त्री ने अभी अपने को पुरुष की जंगम सम्पत्ति होना नहीं स्वीकार किया था, इसलिए उसे अस्थायी प्रेमी बनाने का अधिकार था। अतिथियों और मित्रों के पास स्वागत के रूप में अपनी स्त्री को भेजना, उस वक्त का सर्वमान्य सदाचार था। आज वस्तुतः सोमा ऋज्राश्व की रही।

शाम को ग्राम के नर नारी महापितर (कबीले के मुखिया या शासक) के विस्तृत आँगन में जमा हुए। सोम, मधुसुरा और स्वादिष्ट गो-अश्व-मॉस लाया जा रहा था। महापितर पुत्रोत्पत्ति का महोत्सव मना रहे थे। कृच्छ्र ने अपने को हिलने-डोलने लायक नहीं रखा था, उसकी जगह सोमा और ऋज्राश्व वहाँ पहुँचे। बडी रात तक पान, गीत, नृत्य महोत्सव मनाया गया ! सोमा के गीत और ऋज्राश्व के नृत्य को सदा की भाँति कुरुओं ने बहुत पसन्द किया।

2.

"मधुरा ! तू थक तो नहीं गई ?"

"नहीं, मुझे घोड़े की सवारी पसन्द है ?"

"किन्तु उन दस्युओं ने मुझे बुरी तरह पकड़ रखा था ?"

"हाँ, बाह्लीक पक्यों की गौओं और अश्वों को नहीं, बल्कि लड़कियों को लूटने आये थे।

"हाँ पशु का लूटना दोनों जनों में चिरस्थायी शत्रुता पैदा करता है, किन्तु कन्या को लूटना थोड़े ही समय के लिए-आखिर ससुर को जमाता का सत्कार करना ही पड़ता है।"

"किन्तु मुझे तेरा नाम नहीं मालूम ?"

"अमृताश्व, कुच्छ्राश्व-पुत्र, कौरव ।"

"कौरव ! कुरु मेरे मामा के कुल होते हैं।"

“मधुरा, अब तू सुरक्षित है। बोल कहाँ जाना चाहती है?"

मधुरा के मुख पर कुछ प्रसन्नता की रेखा दौड़ने लगी थी, किन्तु वह बीच ही में रुक गई। अमृताश्व समझ गया, और बात का रुख दूसरी ओर मोड़ते हुए बोला-"पक्थों की कन्यायें हमारे ग्राम में भी आईं हैं।"

"सभी लूटकर ?"

"नहीं, उनमें मातुल पुत्रियाँ अधिक हैं।"

"तभी तो। किन्तु लड़कियों के लिए यह लूट-मार मुझे बहुत बुरी मालूम होती है।"

"और मुझे भी मधुरा ! वहाँ पुरुष-स्त्री यह भी जानते हैं कि उनमें प्रेम की सम्भावना है भी।',

"मातुल-पुत्री का ब्याह इससे अच्छा है; क्योंकि उसमें पहले से परिचित होने का मौका मिलता है ।"

"तेरा कोई ऐसा प्रेमी था मधुरा ?"

"नहीं, मेरी कोई बुआ नहीं है।"

"कोई दूसरा ?"

"स्थायी नहीं।

"क्या तू मुझे भाग्यवान् बना सकती है ?"

“मधुरा की शर्मीली निगाहें नीची हो गई। अमृताश्व ने कहा-

"मधुरा! ऐसे भी जनपद हैं, जहाँ स्त्रियाँ दूसरे की नहीं, अपनी होती हैं।"

"नहीं समझी अमृताश्व ।” ।

"उन्हें कोई लूटता नहीं, उन्हें कोई सदा के लिए अपनी पत्नी नहीं बना पाता। वहाँ स्त्री-पुरुष समान होते हैं।"

"समान हथियार चला सकते हैं ।

"हाँ, स्त्री स्वतन्त्र है।"

"कहाँ है वह जनपद, अमृत-आँ अमृताश्व !"

"नहीं अमृत ही कह मधुरा ! वह जनपद यहाँ से पश्चिम में बहुत दूर है।

"तू वहाँ गया है अमृत ?"

"हाँ। वहाँ की स्त्री आजीवन स्वतन्त्र रहती है; जैसे जंगल में स्वतन्त्र विचरता मृग, जैसे वृक्षों पर उड़ती चिड़ियाँ।"

"वह बड़ा अच्छा जनपद होगा ! वहाँ स्त्री को कोई नहीं लूटता न ?"

"स्वतन्त्र बाघिन को कौन जीते जी लूट सकता है?"

"और पुरुष, अमृत ?"

“पुरुष भी स्वतन्त्र है।

"बाल-बच्चे ।"

"मधुरा ! वहाँ को घर-बार दूसरी ही तरह का है; और सारे ग्राम का एक परिवार होता है।"

"उसमें बाप का कर्तव्य ?"

"बाप नहीं कह सकते मधुरा ! वहाँ स्त्री किसी की पत्नी नहीं, उसका प्रेम स्वच्छन्द है।”

“तो वहाँ कोई बाप को नहीं जानता ?"

"सारे घर के पुरुष बाप हैं।"

"यह कैसा रिवाज है ?"

"इसीलिए वहाँ स्त्री स्वतन्त्र है; वह योद्धा है, शिकारी है।"

"और गाय-घोड़ों का पालन-पोषण ?"

"वहाँ गाय-घोड़े जंगलों में पलते हैं, वैसे ही जैसे यहाँ हरिण ।"

"और भेड़-बकरियाँ ?"

"वहाँ लोग पशु-पालन नहीं जानते। शिकार, मछली और जंगल के फल पर गुजारा करते हैं।"

"सिर्फ शिकार ! फिर उन लोगों को दूध नहीं मिलता होगा ?"

"मानवी का दूध और वह भी बचपन ही में।”

"घोड़े पर चढ़ना भी नहीं ?"

"नहीं। और चमड़े के सिवा दूसरा परिधान भी नहीं जानते ।

"उन्हें बड़ा दुःख होता होगा?"

"किन्तु वहाँ की स्त्रियाँ स्वतन्त्र, पुरुषों की तरह स्वतन्त्र हैं। वह फल जमा करती हैं, शिकार करती हैं, युद्ध में शत्रुओं पर पाषाण-परशु और बाण चलाती हैं।"

"मुझे भी यह पसन्द है। मैंने शस्त्र चलाना सीखा है, किन्तु युद्ध में पुरुषों की भाँति जाने का सुभीता कहाँ ?"

“पुरुष ने यह काम अपने ऊपर लिया है। घोड़ों-गायों, भेड़-बकरियों को वह पालता है, स्त्री को उसने पशु-पत्नी नहीं, गृह-पत्नी बनाया है।"

"और लड़कियों को लूटने लायक बनाया है। वहाँ तो लड़कियाँ नहीं लूटी जाती होंगी, अमृत ?"

"एक जन के लड़के-लड़की सदा उसी जन में रहते हैं, न बाहर देना, न बाहर से लेना।"

"कैसा रिवाज है ?"

"वह यहाँ नहीं चल सकता।"

“इसलिए लड़कियाँ लूटी जाती रहेंगी ?"

"हाँ तो मधुरा ? क्या कहती है ?"

"किस बारे में ?"

"मेरे प्रेम के बारे में ।"

"मैं तेरे वश में हैं, अमृत ।"

"किन्तु मैं लूटकर नहीं ले जाना चाहता।"

"क्या, मुझे युद्ध करने देगा ?”

"जहाँ तक मेरा बस होगा।”

"और शिकार करने ?",

"जहाँ तक मेरा बस होगा।"

"बस ?"

"क्योंकि मुझे महापितर की आज्ञा तो माननी पड़ेगी। अपनी ओर से मधुरा ! मैं मुझे स्वतन्त्र समझेंगा।"

"प्रेम करने न करने के लिए भी।"

"प्रेम हमारा सम्बन्ध स्थापित कर रहा है। अच्छा उसके लिए भी।"

“तो अमृत ! मैं तेरा प्रेम स्वीकार करती हूँ।"

"तो हम कुरुओं में चलें या पक्थों में ?"

"जहाँ तेरी मर्जी ।"

"अमृत ने घोड़े को लौटाया और वह मधुरा के बताये रास्ते से पक्थों के भ्रम में पहुँचा। ग्राम में किसी के तम्बूघर में कोई मारा गया था; किसी में कोई घायल पड़ा था, किसी की लड़की लूटी गई थी। चारों ओर कुहराम मचा हुआ था। मधुरा की माँ रो रही थी और बाप ढाढ़स बँधा रहा था, जब कि घोड़ा उसके बालों के तम्बू के बाहर खड़ा हुआ।

अमृताश्व के उतर जाने पर मधुरा कूद पड़ी और अमृताश्व को बाहर खड़े रहने के लिए कहकर भीतर चली गई । एकाएक सामने आ खड़ी बेटी को देख, पहले माँ-बाप को विश्वास न हुआ। फिर माँ ने के गोद में ले उसके मुख को ऑसुओं से भिगोना शुरू किया। शान्त होने पर बाप ने पूछा और मधुरा ने बतलाया- "वाहलीक पक्थ । लड़कियों को लूटकर ले जा रहे थे। मुझे लूटकर ले जाने वाला पिछड़ गया था। मौका पाकर मैं घोड़े से कूद गई। वह पकड़कर फिर चढ़ानाचाहता था। मैं उसका विरोध कर रही थी। उसी वक्त एक सवार आ गया, उसने वाह्लीक को ललकारा और उसे घायल कर गिरा दिया। वही कुरु तरुण मुझे यहाँ पहुँचाने आया है।"

बाप ने कहा-"तो तरुण ने तुझे नहीं ले जाना चाहा ?"

"बलात् नहीं।"

"किन्तु हमारे जनपद के नियम से अनुसार तू उसकी हुई।

"और मैं उससे प्रेम भी करती हैं, तात !"

मधुरा के बाप ने बाहर आकर अमृताश्व का स्वागत किया और उसे तम्बू के भीतर लिवा लाया। गाँव वालों को यह अजीब-सी बात मालूम हुई; किन्तु सभी के सम्मान और सहानुभूति के साथ अमृताश्व ने मधुरा के साथ ससुराल छोडी।

3.

अब अमृताश्व अपने कुरु ग्राम का महापितर था। उसके पास पचासों घोड़े, गायें तथा बहुत-सी भेड़-बकरियाँ थीं । उसके चार बेटे और मधुरा रेवड़ और घर का काम देखते थे। ग्राम के दरिद्र-कुलों के कुछ आदमी भी उसके यहाँ काम करते थे-नौकर के तौर पर नहीं, घर के एक व्यक्ति के तौर पर। एक कुरु को दूसरे कुरु से समानता का बर्ताव करना पड़ता। अमृताश्व के चलते-फिरते ग्राम में पचास से ऊपर परिवार थे। आपसी झगड़ों, मामलों मुकदमों को फैसला महापितर को ही देखना पड़ता। फिर पानी, रास्ते और दूसरे सार्वजनिक कामों का संचालन भी महापितर करता और युद्ध में--जो सदा सिर पर बैठा ही रहता-सेना का मुखिया बनना तो महापितर का सबसे बड़ा कर्तव्य था। वस्तुतः युद्धों में सफलता ही आदमी को महापितर के पद पर पहुँचाती हैं।

अमृताश्व एक बहादुर योद्धा था। पक्थों, बाह्लीकों तथा दूसरे जनों अनेक युद्धों में उसने अपनी बहादुरी दिखलाई थी । मधु को दिये उसके वचनों का उसने पालन किया। मधुरा ने अमृताश्व के साथ रीछ, भेडिये और बाघ के शिकार ही नहीं किये थे, बल्कि युद्धों में भी भाग लिया था। यद्यपि जन वालों में से किसी-किसी ने इसे पसन्द नहीं किया था, उनका कहना था, स्त्री का काम घर के भीतर है। अमृताश्व जब पहले-पहल महापितर चुना गया, उस दिन कुरु पुर महोत्सव मना रहा था। तरुण-तरुणियों ने आज के लिए अस्थायी प्रणय बाँधे थे। ग्रीष्म के दिनों में नदी की उपत्यका और पहाड़ पर घोड़ों और गायों के रेवड़ स्वच्छन्द चर रहे थे। गाँव वाले भूल गये थे कि उनके शत्रु भी हैं। पशुधन के होते ही उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ती थी। जब कुरु जन वोल्गा के तट पर था, उस वक्त उसके पास पशुधन नहीं था। उस वक्त उसे आहार जंगल से लेना पड़ता था; कभी शिकार, मधु या फल न गिने से भूखा रहना पड़ता था। अब कुरुओं ने शिकार के कुछ पशुओं-गाय, घोड़े, भेड़, बकरी, खर को पालतू बना लिया था। वह उन्हें माँस, दूध, चमड़ा ही नहीं, बल्कि ऊन के वस्त्र भी देते । कुरुआनियाँ सूत कातने और कम्बल बुनने में कुशल । किन्तु यह कुशलता समाज में उनके पहले स्थान को अक्षुण्ण नहीं रख सकी। अब स्त्री नहीं पुरुष का राज्य है। जन-नायिका जन-समिति का नहीं, बल्कि लड़ाके महापितर का शासन है। जो जनमत का ख्याल रखते हुए भी बहुत कुछ अपने मन से निर्णय करता। और सम्पत्ति? जहाँ स्त्री के राज्य में परिवार का परिवार सदा एकत्र रहता, एक साथ काम करता; वहाँ अब अपना-अपना परिवार, अपना-अपना पशुधन और उसका हानि-लाभ भी अपने ही को था। हाँ, सबके संकट के वक्त जन फिर एक बार पुराने जन का रूप लेना चाहता था।

अमृताश्व महापितर के महोत्सव में मस्त जन को अपने पशुधन की फिक्र न थी। बाजे की आवाज पर थिरकते तरुण सिर्फ सोम सुरा और सुन्दरियों का ख्याल रख सकते थे। पहर रात रह गई थी, किन्तु नृत्य अब भी बन्द होना नहीं चाहता था। इसी वक्त चारों ओर कुत्ते जोर-जोर से भौंकते हुए उपत्यका के ऊपर के भाग की ओर दौड़ते मालूम हुए। अमृताश्व उन पुरुषों में था जो सोम को उतना ही पीने में आनन्द मानते हैं जितने में उनकी आँखों में लाली उतर आये और साथ ही होश-हवाश भी हाथ से जाने न पावे । कुत्तों की आवाज सुन, चुपके से उठ, उसने काठ के बेट वाली अपनी पाषाणी गदा को सँभाला और नदी के किनारे-किनारे आवाज आने की दिशा की ओर चलना शुरू किया। थोड़ी ही दूर जाने पर अस्ताचल पर पहुँचते चन्द्रमा की रोशनी में कोई स्त्री आती दिखाई पड़ी। वह ठहर गया। पास आने पर मालूम हुआ वह मधुरा है। मधुरा की साँस अभी तेजी से चल रही थी, उसने उत्तेजित स्वर में कहा-"पुरु हमारे पशुओं को हाँके लिए जा रहे हैं।"

"हाँके लिये जा रहे है ! और हमारे सारे तरुण नशे में चूर हैं ! तू कहाँ तक गई थी मधुरा ?”

"उतनी ही दूर तक जितने में कि मैं इतना जान सकी ।

“सारे पशुओं को ले जा रहे हैं ?"

"देर से जान पड़ता है, बिखरे रेवड़ को एकत्र करने में लगे हुए थे।

"तू क्या सोचती है मधुरा ?"

"देर करने का समय नहीं !"

"और हमारे सारे तरुण नशे में चूर हैं।"

"जो चले सकें, उन्हें लेकर धावा बोलना चाहिए।

"हाँ जरूर, लेकिन एक बात है मधुरा ! तुझे मेरे साथ नहीं चलना चाहिए। इन तरुणों का आधा नशा तो इस समाचार से ही उतर जाएगा और बाकी को दही खिलाना। जैसे-जैसे नशा उतरता जाय, वैसे-वैसे भेजती जाना।”

"और कुरुआनियाँ ?"

"मैं कुरुओं के महापितर की हैसियत से आज्ञा दे सकता हूँ, उन्हें युद्धक्षेत्र में उतरने की; उस पुरानी विस्मृत प्रथा को हमें जगाना होगा।"

"मैं आगे आने की कोशिश नहीं करूँगी; अच्छा जल्दी।"

महापितर की आज्ञा पर बाजे एकदम बन्द हो गये। नर-नारी महापितर के गिर्द जमा हो गये। सचमुच गो-अश्व-हरण की बात सुनते ही उनमें से कितनों का नशा उतर गया; उनके चेहरों पर प्रणय-मुद्रा की जगह वीर-मुद्रा छा गई। महापितर ने मेघ-गम्भीर स्वर में कहा-

“कुरुओं और कुरुआनियों ! पुरु शत्रुओं से हमें अपने धन को छीनना है। लड़ाई होगी। तुममें से जितने होश में हैं, अपने हथियार को ले, घोड़ों पर सवार हो, मेरे पीछे आयें । जो नशे में हों, मधुरा से दही लेकर खायें, और उतरते ही दौड़ आयें । कुरुआनियों ! आज तुम्हें भी मैं रणक्षेत्र में आने की आज्ञा देता हूँ। पुरानी कुरुआनियाँ युद्धक्षेत्र में पुरुषों के समान भाग लेती थीं; यह हम बृद्धों से सुनते आये हैं। आज तुम्हारा महापितर अमृताश्व तुम्हें इसकी आज्ञा देता है।"

दम के दम में चालीस घोड़े जमा हो गये। पुरु जितने पशुओं को जमा कर पाये थे, उन्हें उपत्यका के ऊपर की ओर भगाये लिये जा रहे थे। पर दो घंटे की दौड़ के बाद पौ फटते वक्त कुरुओं ने उन्हें देखा। घोड़ों और गायों के इतने झुण्ड को इकट्ठा कर उस पहाड़ी से दौड़ाते हुए हाँकना आसान काम न था। पुरु सवार अपने चमड़े के कोड़ों को हवा और पत्थरों पर पटक कर पशुओं को भयभीत कर रहे थे। अमृताश्व ने देखा, पुरुओं की संख्या सौ के करीब होगी। अपनी चालीस की टुकड़ी से लड़ाई शुरू करनी चाहिए या नहीं, इस पर ज्यादा मत्थापच्ची वह करना नहीं चाहता था।

उसने सींगों के लम्बे भाले को सँभाल कर दुश्मन पर हमला करने की आज्ञा दी।

कुरु वीर और वीरांगनाओं ने-हाँ, वीरांगनायें आधी से कम न थ-निर्भय हो घोड़ों को आगे दौड़ाया। उन्हें देखते ही कुछ को पशुओं को रोक रखने के लिए छोड़, पुरु नीचे की ओर दौड़ पड़े; और घोड़ों से पूरा फायदा उठाने के लिए नदी के किनारे एक खुली जगह में खड़े हो, कुरुओं का इन्तजार करने लगे। अमृताश्व की आकृति उस वक्त देखने लायक थी। उसका घोड़ा अमृत और वह दोनों एक ही शरीर के अंग मालूम होते थे। हरिन के तेज सींग को उसका भाला एक बार जिसके शरीर पर लगता, वह दूसरे बार के लिए अपने घोड़े पर बैठा नहीं रह सकता था। पुरुओं ने धनुष-बाण और पाषाण-परशु पर ज्यादा भरोसा कर गलती की थी, यदि उनके पास भी उतने ही सींग के भाले होते; तो निश्चय ही कुरु उनका मुकाबला नहीं कर सकते थे। एक घंटा संग्राम होते हो गया, कुरु अब भी डटे हुए थे, किन्तु उनके एक-तिहाई योद्धा हताहत थे, यह डर की बात थी। इसी वक्त तीस कुरु घुड़सवार ललकारते हुए संग्राम-क्षेत्र में पहुँचे। कुरुओं की हिम्मत बहुत बढ़ गई । पुरु बुरी तरह से मरने लगे। उनकी नाजुक हालत देख पशुओं को रोक रखने के लिए छोड़े हुए घुड़सवार भी आ पहुँचे; किन्तु इसी समय चालीस कुरु-कुरुआनियों का जत्था लिए मधुरा आ पहुँची। डेढ़ घंटा जमकर युद्ध हुआ। अधिकांश पुरु हताहत हुए, कुछ भाग निकले। घायलों का खात्मा कर कुरु-वाहिनी पुरु-ग्राम की ओर बढ़ी। वह चार कोस ऊपर था। सारा ग्राम सूना था। लोग तम्बुओं को छोड़कर भाग गये थे। उनके पशु जहाँ-तहाँ चर रहे थे। किन्तु कुरुओं को

पहले पुरुओं से निबटना था। पुरु बुरी तरह घिर गये थे; ऊपर भागने का उतना सुभीता न था। उपत्यका सँकरी होती गई थी और चढ़ाई कड़ी थी, तो भी प्राण बचाने के लिए नर-नारी घोड़ों पर भागे जा रहे थे। आखिर ऐसा भी स्थान आया; जहाँ घोड़ा आगे नहीं बढ़ सकता था। लोग पैदल चलने लगे। कुरु उनके नजदीक आ गये थे। बच्चे, बूढे स्त्रियाँ तेजी से नहीं बढ़ सकते थे, इसलिए उन्हें भागने का मौका देने के लिए कुछ कुरु-भट एक सँकरी जगह में खड़े हो गये। कुरु अपनी संख्या का पूरा इस्तेमाल नहीं कर सकते थे; इसलिए उन्हें इन पुरुओं से रास्ता साफ करने में कुछ घंटे लगे। पुरु और कुरु अब दोनों ही पैदल थ‌े, किन्तु पुरुओं में मर्द मुश्किल से एक दर्जन रह गये थे इसलिए वह कुछ ही दिनों तक सारे पुरु- परिवार की रक्षा कर सकते थे। उन्होंने एक दिन कुछ साहसी स्त्रियों को ले, एक दुरूह पथ पकड़, वह उपत्यका छोड़ दी और पहाड़ों को पार करते दक्खिन की ओर बढ़ गये। कुरुओं ने जहाँ-तहाँ छिपे प्राणों की भिक्षा माँगते पुरु बच्चों, वृद्धों और स्त्रियों को पकड़ा। बन्दी बनाना इस पितृ-युग के नियम के विरुद्ध था, इसलिए बच्चे से बूढ़े तक सारे ही पुरुषों को उन्होंने मार डाला। स्त्रियों को वह अपने साथ लाये । पुरुओं का सारा पशु-धन भी उनका हुआ। अब वह हरित रोद (नदी) उपत्यका नीचे से ऊपर तक कुरुओं की चरागाह थी। एक पीढ़ी तक के लिए महापितर ने एक से अधिक पत्नी रखने का विधान कर दिया और इसी वक्त कुरुओं में पहले-पहल सपत्नी देखी गई ।

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(आज से दो सौ पीढी पहले के एक आर्य-कबीले की यह कहानी है। उस वक्त भारत और ईरान की श्वेत जातियों का एक कबीला (जन) था और दोनों का सम्मिलित नाम आर्य था। पशुपालन उनकी जीविका का मुख्य साधन था।)

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