अजातशत्रु (नाटक) : जयशंकर प्रसाद

Ajatashatru (Play) : Jaishankar Prasad

पात्र

बिम्बिसार: मगध का सम्राट्

अजातशत्रु (कुणीक): मगध का राजकुमार

उदयन: कौशाम्बी का राजा, मगध सम्राट् का जामाता

प्रसेनजित्: कोसल का राजा

विरुद्धक (शैलेन्द्र): कोसल का राजकुमार

गौतम: बुद्धदेव

सारिपुत्र: सद्धर्म के आचार्य

आनन्द: गौतम के शिष्य

देवदत्त (भिक्षु): गौतम बुद्ध का प्रतिद्वन्द्वी

समुद्रदत्त: देवदत्त का शिष्य

जीवक: मगध का राजवैद्य

वसन्तक: उदयन का विदूषक

बन्धुल: कोसल का सेनापति

सुदत्त: कोसल का कोषाध्यक्ष

दीर्घकारायण: सेनापति बन्धुल का भांजा, सहकारी सेनापति

लुब्धक: शिकारी

(काशी का दण्डनायक, अमात्य, दूत, दौवारिक और अनुचरगण)

वासवी: मगध-सम्राट् की बड़ी रानी

छलना: मगध-सम्राट् की छोटी रानी और राजमाता

पद्मावती: मगध की राजकुमारी

मागन्धी (श्यामा): आम्रपाली

वासवदत्ता: उज्जयिनी की राजकुमारी

शक्तिमती (महामाया): शाक्यकुमारी, कोसल की रानी

मल्लिका: सेनापति बन्धुल की पत्नी

बाजिरा: कोसल की राजकुमारी

नवीना: सेविका

(विजया, सरला, कंचुकी, दासी, नर्त्तकी इत्यादि)

प्रथम अंक-अजातशत्रु

प्रथम अंक : प्रथम दृश्य

स्थान - प्रकोष्ठ

राजकुमार अजातशत्रु , पद्मावती , समुद्रदत्त और शिकारी लुब्धक।

अजातशत्रु : क्यों रे लुब्धक! आज तू मृग-शावक नहीं लाया। मेरा चित्रक अब किससे खेलेगा

समुद्रदत्त : कुमार! यह बड़ा दुष्ट हो गया है। आज कई दिनों से यह मेरी बात सुनता ही नहीं है।

लुब्धक : कुमार! हम तो आज्ञाकारी अनुचर हैं। आज मैंने जब एक मृग-शावक को पकड़ा, तब उसकी माता ने ऐसी करुणा भरी दृष्टि से मेरी ओर देखा कि उसे छोड़ ही देते बना। अपराध क्षमा हो।

अजातशत्रु : हाँ, तो फिर मैं तुम्हारी चमड़ी उधेड़ता हूँ। समुद्र! ला तो कोड़ा।

समुद्रदत्त : ( कोड़ा लाकर देता है ) लीजिए। इसकी अच्छी पूजा कीजिए।

पद्मावती : ( कोड़ा पकड़कर ) भाई कुणीक! तुम इतने दिनों में ही बड़े निष्ठुर हो गए। भला उसे क्यों मारते हो?

अजातशत्रु : उसने मेरी आज्ञा क्यों नहीं मानी?

पद्मावती : उसे मैंने ही मना किया था, उसका क्या अपराध?

समुद्रदत्त : ( धीरे से ) तभी तो उसको आजकल गर्व हो गया। किसी की बात नहीं सुनता।

अजातशत्रु : तो इस प्रकार तुम उसे मेरा अपमान करना सिखाती हो?

पद्मावती : यह मेरा कर्त्तव्य है कि तुमको अभिशापों से बचाऊँ और अच्छी बातें सिखाऊँ। जा रे लुब्धक, जा, चला जा। कुमार जब मृगया खेलने जायँ, तो उनकी सेवा करना। निरीह जीवों को पकड़कर निर्दयता सिखाने में सहायक न होना।

अजातशत्रु : यह तुम्हारी बढ़ाबढ़ी मैं सहन नहीं कर सकता।

पद्मावती : मानवी सृष्टि करुणा के लिए है, यों तो क्रूरता के निदर्शन हिंस्र पशुजगत् में क्या कम हैं?

समुद्रदत्त : देवि! करुणा और स्नेह के लिए तो स्त्रियाँ जगत् में हुई हैं, किन्तु पुरुष भी क्या वही हो जाएँ?

पद्मावती : चुप रहो, समुद्र! क्या क्रूरता ही पुरुषार्थ का परिचय है? ऐसी चाटूक्तियाँ भावी शासक को अच्छा नहीं बनातीं।

छलना का प्रवेश।

छलना : पद्मावती! यह तुम्हारा अविचार है। कुणीक का हृदय छोटी-छोटी बातों में तोड़ देना, उसे डरा देना, उसकी मानसिक उन्नति में बाधा देना है।

पद्मावती : माँ! यह क्या कह रही हो! कुणीक मेरा भाई है, मेरे सुखों की आशा है, मैं उसे कर्त्तव्य क्यों न बताऊँ? क्या उसे चाटुकारों की चाल में फँसते देखूँ और कुछ न कहूँ!

छलना : तो क्या तुम उसे बोदा और डरपोक बनाना चाहती हो? क्या निर्बल हाथों से भी कोई राजदण्ड ग्रहण कर सकता है?

पद्मावती : माँ! क्या कठोर और क्रूर हाथों से ही राज्य सुशासित होता है? ऐसा विष-वृक्ष लगाना क्या ठीक होगा? अभी कुणीक किशोर है, यही समय सुशिक्षा का है। बच्चों का हृदय कोमल थाला है, चाहे इसमें कँटीली झाड़ी लगा दो, चाहे फूलों के पौधे।

अजातशत्रु : फिर तुमने मेरी आज्ञा क्यों भंग होने दी? क्या दूसरे अनुचर इसी प्रकार मेरी आज्ञा का तिरस्कार करने का साहस न करेंगे?

छलना : यह कैसी बात?

अजातशत्रु : मेरे चित्रक के लिए जो मृग आता था, उसे ले आने के लिए लुब्धक को रोक दिया गया। आज वह कैसे खेलेगा?

छलना : पद्मा! तू क्या इसकी मंगल-कामना करती है? इसे अहिंसा सिखाती है, जो भिक्षुओं की भद्दी सीख है? जो राजा होगा, जिसे शासन करना होगा, उसे भिखमंगों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता। राजा का परम धर्म न्याय है, वह दण्ड के आधार पर है। क्या तुझे नहीं मालूम कि वह भी हिंसामूलक है?

पद्मावती : माँ! क्षमा हो। मेरी समझ में तो मनुष्य होना राजा होने से अच्छा है।

छलना : तू कुटिलता की मूर्ति है। कुणीक को अयोग्य शासक बनाकर उसका राज्य आत्मसात करने के लिए कौशाम्बी से आई है।

पद्मावती : माँ! बहुत हुआ, अन्यथा तिरस्कार न करो। मैं आज ही चली जाऊँगी!

वासवी का प्रवेश।

वासवी : वत्स कुणीक! कई दिनों से तुमको देखा नहीं। मेरे मन्दिर में इधर क्यों नहीं आए? कुशल तो है?

अजात के सिर पर हाथ फेरती है।

अजातशत्रु : नहीं माँ, मैं तुम्हारे यहाँ न आऊँगा, जब तक पद्मा घर न जाएगी।

वासवी : क्यों? पद्मा तो तुम्हारी ही बहन है। उसने क्या अपराध किया है? वह तो बड़ी सीधी लड़की है।

छलना : ( क्रोध से ) वह सीधी और तुम सीधी! आज से कभी कुणीक तुम्हारे पास न जाने पावेगा, और तुम भी यदि भलाई चाहो तो प्रलोभन न देना।

वासवी : छलना! बहन!! यह क्या कह रही हो? मेरा वत्स कुणीक! प्यारा! कुणीक! हा भगवान! मैं उसे देखने न पाऊँगी। मेरा क्या अपराध...

अजातशत्रु : यह पद्मा बार-बार मुझे अपदस्थ किया चाहती है, और जिस बात को मैं कहता हूँ उसे ही रोक देती है।

वासवी : यह मैं क्या देख रही हूँ। छलना! यह गृह-विद्रोह की आग तू क्यों जलाना चाहती है? राज-परिवार में क्या सुख अपेक्षित नहीं है-

बच्चे बच्चों से खेलें, हो स्नेह बढ़ा उसके मन में,

कुल-लक्ष्मी हो मुदित, भरा हो मंगल उसके जीवन में!

बन्धुवर्ग हों सम्मानित, हों सेवक सुखी, प्रणत अनुचर,

शान्तिपूर्ण हो स्वामी का मन, तो स्पृहणीय न हो क्यों घर?

छलना : यह सब जिन्हें खाने को नहीं मिलता, उन्हें चाहिए। जो प्रभु हैं, जिन्हें पर्याप्त है; उन्हें किसी की क्या चिन्ता-जो व्यर्थ अपनी आत्मा को दबावें।

वासवी : क्या तुम मेरा भी अपमान किया चाहती हो? पद्मा तो जैसी मेरी, वैसी ही तुम्हारी! उसे कहने का तुम्हें अधिकार है। किन्तु तुम तो मुझसे छोटी हो, शील और विनय का यह दुष्ट उदाहरण सिखाकर बच्चों की क्यों हानि कर रही हो?

छलना : ( स्वगत ) मैं छोटी हूँ, यह अभिमान तुम्हारा अभी गया नहीं। (प्रकट) छोटी हूँ, या बड़ी; किन्तु राजमाता हूँ। अजात को शिक्षा देने का मुझे अधिकार है। उसे राजा होना है। वह भिखमंगों का-जो अकर्मण्य होकर राज्य छोड़कर दरिद्र हो गए हैं-उपदेश नहीं ग्रहण करने पावेगा।

पद्मावती : माँ! अब चलो, यहाँ से चलो! नहीं तो मैं ही जाती हूँ।

वासवी : चलती हूँ, बेटी! किन्तु छलना-सावधान! यह असत्य गर्व मानव-समाज का बड़ा भारी शत्रु है।

पद्मावती और वासवी जाती हैं।

प्रथम अंक : द्वितीय दृश्य

महाराज बिम्बिसार एकाकी बैठे हुए आप - ही - आप कुछ विचार रहे हैं।

बिम्बिसार : आह, जीवन की क्षणभंगुरता देखकर भी मानव कितनी गहरी नींव देना चाहता है। आकाश के नीले पत्र पर उज्ज्वल अक्षरों से लिखे अदृष्ट के लेख जब धीरे-धीरे लुप्त होने लगते हैं, तभी तो मनुष्य प्रभात समझने लगता है, और जीवन-संग्राम में प्रवृत्त होकर अनेक अकाण्ड-ताण्डव करता है। फिर भी प्रकृति उसे अन्धकार की गुफा में ले जाकर उसका शान्तिमय, रहस्यपूर्ण भाग्य का चिट्ठा समझाने का प्रयत्न करती है; किन्तु वह कब मानता है? मनुष्य व्यर्थ महत्त्व की आकांक्षा में मरता है; अपनी नीची, किन्तु सुदृढ़ परिस्थिति में उसे सन्तोष नहीं होता; नीचे से ऊँचे चढ़ना ही चाहता है, चाहे गिरे तो भी क्या?

छलना : ( प्रवेश करके ) और नीचे के लोग वहीं रहें! वे मानो कुछ अधिकार नहीं रखते? ऊपरवालों का यह क्या अन्याय नहीं है

बिम्बिसार : ( चौंककर ) कौन, छलना?

छलना : हाँ, महाराज! मैं ही हूँ।

बिम्बिसार : तुम्हारी बात मैं नहीं समझ सका?

छलना : साधारण जीवों में भी उन्नति की चेष्टा दिखाई देती है। महाराज! इसकी किसको चाह नहीं है। महत्त्व का यह अर्थ नहीं कि सबको क्षुद्र समझे।

बिम्बिसार : तब?

छलना : यही कि मैं छोटी हूँ, इसलिए पटरानी नहीं हो सकी, और वासवी मुझे इसी बात पर अपदस्थ किया चाहती है।

बिम्बिसार : छलना! यह क्या! तुम तो राजमाता हो। देवी वासवी के लिए थोड़ा-सा भी सम्मान कर लेना तुम्हें विशेष लघु नहीं बना सकता-उन्होंने कभी तुम्हारी अवहेलना भी तो नहीं की।

छलना : इन भुलावों में मैं नहीं आ सकती। महाराज! मेरी धमनियों में लिच्छवि रक्त बड़ी शीघ्रता से दौड़ता है। यह नीरव अपमान, यह सांकेतिक घृणा, मुझे सह्य नहीं और जबकि खुलकर कुणीक का अपकार किया जा रहा है, तब तो...

बिम्बिसार : ठहरो! तुम्हारा यह अभियोग अन्यायपूर्ण है। क्या इसी कारण तो बेटी पद्मावती नहीं चली गई? क्या इसी कारण तो कुणीक मेरी भी आज्ञा सुनने में आनाकानी नहीं करने लगा है? कैसा उत्पात मचाना चाहती हो?

छलना : मैं उत्पात रोकना चाहती हूँ। आपको कुणीक के युवराज्याभिषेक की घोषणा आज ही करनी पड़ेगी।

वासवी : ( प्रवेश करके ) नाथ, मैं भी इससे सहमत हूँ। मैं चाहती हूँ कि यह उत्सव देखकर और आपकी आज्ञा लेकर मैं कोसल जाऊँ। सुदत्त आज आया है, भाई ने मुझे बुलाया है।

बिम्बिसार : कौन, देवी वासवी!

छलना : हाँ, महाराज!

कंचुकी : ( प्रवेश करके ) महाराज! जय हो! भगवान् तथागत गौतम आ रहे हैं।

बिम्बिसार : सादर लिवा लाओ। ( कंचुकी का प्रस्थान ) छलना! हृदय का आवेग कम करो, महाश्रमण के सामने दुर्बलता न प्रकट होने पावे।

अजात को साथ लिए हुए गौतम का प्रवेश। सब नमस्कार करते हैं।

गौतम : कल्याण हो। शान्ति मिले!!

बिम्बिसार : भगवन्, आपने पधारकर मुझे अनुगृहीत किया।

गौतम : राजन्! कोई किसी को अनुगृहीत नहीं करता। विश्वभर में यदि कुछ कर सकती है तो वह करुणा है, जो प्राणिमात्र में समदृष्टि रखती है-

गोधूली के राग-पटल में स्नेहांचल फहराती है।

स्निग्ध उषा के शुभ्र गगन में हास विलास दिखाती है।।

मुग्ध मधुर बालक के मुख पर चन्द्रकान्ति बरसाती है।

निर्निमेष ताराओं से वह ओस बूँद भर लाती है।।

निष्ठुर आदि-सृष्टि पशुओं की विजित हुई इस करुणा से।

मानव का महत्त्व जगती पर फैला अरुणा करुणा से।।

बिम्बिसार : करुणामूर्ति! हिंसा से रँगी हुई वसुन्धरा आपके चरणों के स्पर्श से अवश्य ही स्वच्छ हो जाएगी। उसकी कलंक कालिमा धुल जाएगी।

गौतम : राजन्, शुद्ध बुद्धि तो सदैव निर्लिप्त रहती है। केवल साक्षी रूप से सब दृश्य देखती है। तब भी, इन सांसारिक झगड़ों में उसका उद्देश्य होता है कि न्याय का पक्ष विजयी हो-यही न्याय का समर्थन है। तटस्थ की यही शुभेच्छा सत्त्व से प्रेरित होकर समस्त सदाचारों की नींव विश्व में स्थापित करती है। यदि वह ऐसा न करे, तो अप्रत्यक्ष रूप से अन्याय का समर्थन हो जाता है-हम विरक्तों की भी इसीलिए राजदर्शन की आवश्यकता हो जाती है।

बिम्बिसार : भगवान् की शान्तिवाणी की धारा प्रलय की नरकाग्नि को भी बुझा देगी। मैं कृतार्थ हुआ।

छलना : ( नीचा सर करके ) भगवन्! यदि आज्ञा हो, तो मैं जाऊँ।

गौतम : रानी! तुम्हारे पति और देश के सम्राट् के रहते हुए मुझे कोई अधिकार नहीं है कि तुम्हें आज्ञा दूँ। तुम इन्हीं से आज्ञा ले सकती हो।

बिम्बिसार : ( घूमकर देखते हुए ) हाँ, छलने! तुम जा सकती हो; किन्तु कुणीक को न ले जाना, क्योंकि तुम्हारा मार्ग टेढ़ा है।

छलना का क्रोध से प्रस्थान।

गौतम : यह तो मैं पहले ही से समझता था, किन्तु छोटी रानी के साथ अन्य को विचार से काम लेना चाहिए।

बिम्बिसार : भगवन्! हम लोगों का क्या अविचार आपने देखा?

गौतम : शीतल वाणी-मधुर व्यवहार-से क्या वन्य पशु भी वश में नहीं हो जाते? राजन्, संसार भर के उपद्रवों का मूल व्यंग्य है। हृदय में जितना यह घुसता है, उतनी कटार नहीं। वाक्-संयम विश्वमैत्री की पहली सीढ़ी है। अस्तु, अब मैं तुमसे एक काम की बात कहना चाहता हूँ। क्या तुम मानोगे-क्यों महारानी?

बिम्बिसार : अवश्य।

गौतम : तुम आज ही अजातशत्रु को युवराज बना दो और इस भीषण-भोग से कुछ विश्राम लो। क्यों कुमार, तुम राज्य का कार्य मन्त्रि-परिषद् की सहायता से चला सकोगे?

अजातशत्रु : क्यों नहीं, पिताजी यदि आज्ञा दें।

गौतम : यह बोझ, जहाँ तक शीघ्र हो, यदि एक अधिकारी व्यक्ति को सौंप दिया जाए, तो मानव को प्रसन्न ही होना चाहिए, क्योंकि राजन्, इससे कभी-न-कभी तुम हटाए जाओगे; जैसा कि विश्व-भर का नियम है। फिर यदि तुम उदारता से उसे भोगकर छोड़ दो, तो इसमें क्या दुःख-

बिम्बिसार : योग्यता होनी चाहिए, महाराज! यह बड़ा गुरुतर कार्य है। नवीन रक्त राज्यश्री को सदैव तलवार के दर्पण में देखना चाहता है।

गौतम : ( हँसकर ) ठीक है। किन्तु, काम करने के पहले तो किसी ने भी आज तक विश्वस्त प्रमाण नहीं दिया कि वह कार्य के योग्य है। यह बहाना तुम्हारा राज्याधिकार की आकांक्षा प्रकट कर रहा है। राजन्! समझ लो, इस गृह-विवाद, आन्तरिक झगड़ों से विश्राम लो।

वासवी : भगवन्! हम लोगों के लिए तो छोटा-सा उपवन पर्याप्त है। मैं वहीं नाथ के साथ रहकर सेवा कर सकूँगी।

बिम्बिसार - तब जैसी आपकी आज्ञा। (कंचुकी से) राज-परिषद् सभागृह में एकत्र हो; कञ्चुकी ! शीघ्रता करो।

(कञ्चुकी का प्रस्थान)

[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : तृतीय दृश्य

(समुद्रदत्त और देवदत्त)

देवदत्त - वत्स ! मैं तेरी कार्यवाही से प्रसन्न हूँ। हाँ फिर क्या हुआ क्या अजात का राज तिलक हो गया ?

समुद्रदत्त - शुभ मुहूर्त में सिंहासन पर बैठना ही शेष है और परिषद् का कार्य तो उनकी देख-रेख में होने लगा। कुशलता से राजकुमार ने कार्यारम्भ किया है; किन्तु गौतम यदि न चाहते यह काम सरलता से न हो सकता।

देवदत्त - फिर उसी ढकोसले वाले ढोंगी की प्रशंसा ! अरे समुद्र, यदि मैं इसकी न चेष्टा करता, तो यह सब कुछ न होता - लिच्छविकुमारी में इतना मनोबल कहाँ कि वह यों अड़ जाती !

समुद्रदत्त - तो युवराज ने आपको बुलाया है, क्योंकि रानी वासवी और महाराज बिम्बिसार सम्भवत: अपनी नवीन कुटी में चले गए होंगे। अब यह राज्य केवल राज-माता और युवराज के हाथ में है। उनकी इच्छा है कि आपके सदुपदेश से राज्य सुशासित हो।

देवदत्त - (कुछ बनता हुआ) यह झंझट भला मुझ विरक्त से कहाँ होगा। फिर भी लोकोपकार के लिए तो कुछ करना ही पड़ता है।

समुद्रदत्त - किन्तु गुरुदेव ! युवराज है बड़ा उद्धत, उसके संग रहने में भी डर मालूम पड़ता है। बिना आपकी छाया के मैं तो नहीं रह सकता।

देवदत्त - वत्स समुद्र ! तुम नहीं जानते कि कितना गुरुतर काम तुम्हारे हाथ में है। मगध-राष्ट्र का उद्धार इस भिक्षु के हाथों से करना होगा। जब राजा ही उसका अनुयायी है, फिर जनता क्यों न भाड़ में जायगी। यह गौतम बड़ा कपट-मुनि है। देखते नहीं, यह कितना प्रभावशाली होता जा रहा है; नहीं तो मुझे इन झगड़ों से क्या काम ?

समुद्रदत्त - तब क्या आज्ञा है ?

देवदत्त - गौतम का प्रभाव मगध पर से तब तक नहीं हटेगा, जब तक बिम्बिसार राजगृह से दूर न जायगा। यह राष्ट्र का शत्रु गौतम समग्र जम्बूद्वीप को भिक्षु बनाना चाहता है और अपने को उनका मुखिया। इस तरह जम्बूद्वीप भर पर एक दूसरे रूप में शासन करना चाहता है।

जीवक - (सहसा प्रवेश करके) - आप विरक्त हैं और मैं गृही। किन्तु जितना मैंने आपके मुख से अकस्मात् सुना है वहीं पर्याप्त है कि मैं आपको रोककर कुछ कहूँ। संघभेद करके आपने नियम तोड़ा है, उसी तरह राष्ट्रभेद करके क्या देश का नाश करना चाहते हैं ?

देवदत्त - यह पुरानी मण्डली का गुप्तचर है, समुद्र ! युवराज से कहो कि इसका उपाय करें। यह विद्रोही है, इसका मुख बन्द होना चाहिए।

जीवक - ठहरो, मुझे कह लेने दो। मैं ऐसा डरपोक नहीं हूँ कि जो बात तुमसे कहनी है, उसे मैं दूसरों से कहूं। मैं भी राजकुल का प्राचीन सेवक हूँ। तुम लोगों की यह कटु-मन्त्रणा अच्छी तरह समझ रहा हूँ। इसका परिणाम कदापि अच्छा नहीं। सावधान, मगध का अध:पतन दूर नहीं है।

(जाता है)

सदत्त - (प्रवेश करके)- आर्य समुद्रदत्तजी ! कहिए, मेरे जाने का प्रबन्ध ठीक हो गया है न ? शीघ्र कोसल पहुँच जाना मेरे लिए आवश्यक है। महारानी तो अब जाएँगी नहीं, क्योंकि मगध-नरेश ने वानप्रस्थ आश्रम का अवलम्बन किया है। फिर मैं ठहर कर क्या करूँ?

समुद्रदत्त - किन्तु युवराज ने तो अभी आपको ठहरने के लिए कहा है।

सुदत्त - नहीं, मुझे एक क्षण भी यहाँ ठहरना अनुचित जान पड़ता है, मैं इसीलिए आपको खोजकर मिला हूँ। मुझे यहाँ का समाचार कोसल में शीघ्र पहुँचाना होगा। युवराज से मेरी ओर से क्षमा माँग लीजियेगा।

(जाता है)

देवदत्त - चलो, युवराज के पास चलें। (दोनों जाते हैं)

(जाता है) [पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : चतुर्थ दृश्य

(स्थान-उपवन) (महाराज बिम्बिसार और महारानी वासवी)

बिम्बिसार - देवी, तुम कुछ समझती हो कि मनुष्य के लिए एक पुत्र का होना क्यों इतना आवश्यक समझा गया है?

वासवी - नाथ ! मैं तो समझती हूँ कि वात्सल्य नाम का जो पुनीत स्नेह है, उसी के पोषण के लिए। बिम्बिसार - स्नेहमयी ! वह भी हो सकता है, किन्तु मेरे विचार में कोई और ही बात है। वासवी - वह क्या नाथ ?

बिम्बिसार - संसारी को त्याग, तितिक्षा या विराग होने के लिए पहला और सहज साधन है। पुत्र को समस्त अधिकार देकर वीतराग हो जाने से असन्तोष नहीं होता; क्योंकि मनुष्य अपनी ही आत्मा को भोग उसे भी समझता है।

वासवी - मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको अधिकार से वंचित होने का दु:ख नहीं।

बिम्बिसार - दुख तो नहीं, देवि ! फिर भी इस कुणीक के व्यवहार से अधिकार का ध्यान हो जाता है। तुम्हें विश्वास हो या न हो, किन्तु कभी-कभी याचकों का लौट जाना, मेरी वेदना का कारण होता है।

वासवी - तो नाथ ! जो आपका है वही न राज्य का है। उसी का अधिकारी कुणीक है, और जो कुछ मुझे मेरे पीहर से मिला है, उसे जब तक मैं न छोडूं तब तक तो मेरा ही है।

बिम्बिसार - इसका क्या अर्थ है ?

वासवी - काशी का राज्य मुझे मेरे पिता ने, आँचल में दिया है, उसकी आय आपके हाथ में आनी चाहिए। और मगध-साम्राज्य की एक कौड़ी भी आप न छुयें। नाथ ! मैं ऐसा द्वेष से नहीं कहती हूँ; किन्तु केवल आपका मान बचाने के लिये।

बिम्बिसार - मुझे फिर उन्हीं झगड़ों में पड़ना होगा देवि, जिन्हें अभी छोड़ आया।

(जीवक का प्रवेश)

जीवक - महाराज की जय हो !

बिम्बिसार - जीवक, यह कैसा परिहास ! यह सम्बोधन अब क्यों ? यहाँ तुम कैसे आये ?

जीवक - यह अभ्यास का दोष है। मैं श्रीमान् के साथ ही रहूँगा, अब मुझे वह पुरानी गृहस्थी अच्छी नहीं लगती।

बिम्बिसार - इस अकारण वैराग्य का कोई अर्थ भी है ?

जीवक - कुछ नहीं राजाधिराज! और है तो यही कि जिन आत्मीयों के लिए निष्कपट भाव से मैं परिश्रम करता हुआ उन्हें सुख देने का प्रबन्ध करता हूँ, वे भी विद्रोही हो जाते हैं।

वासवी - महाराज, जीवन की सारी क्रियाओं का अन्त केवल अनन्त विश्राम में है। इस बाह्य हलचल का उद्देश्य आन्तरिक शान्ति है, फिर जब उसके लिए व्याकुल पिपासा जग उठे, तब उसमें विलम्ब क्यों करें?

जीवक - यही विचार कर मैं भी स्वामी की शरण आया हूँ, क्योंकि समुद्रदत्त की चालें मुझे नहीं रुचती। अदृष्ट का आदेश जानकर मैं भी आपका अनुगामी हो गया हूँ।

बिम्बिसार - क्या अदृष्ट सोचकर, अकर्मण्य बनकर, तुम भी मेरी तरह बैठ जाना चाहते हो?

जीवक - नहीं महाराज ! अदृष्ट तो मेरा सहारा है। नियति की डोरी पकड़ कर मैं निर्भय कर्मकूप में कूद सकता है, क्योंकि मुझे विश्वास है कि जो होना है वह तो होगा ही. फिर कायर क्यों बनूँ - कर्म से क्यों विरक्त रहूँ - मैं इस उच्छृंखल नवीन राजशक्ति का विरोधी होकर आपकी सेवा करने आया हूँ।

वासवी - यह तुम्हारी उदारता है, किन्तु हम लोगों को किस बात की शंका है जो तुम व्यस्त हो ?

जीवक - देवदत्त निष्ठुर देवदत्त के कुचक्र से महाराज की जीवन-रक्षा होनी ही चाहिए।

बिम्बिसार - आश्चर्य ! यह मैं क्या सुन रहा हूँ ! जीवक ! मुझे भ्रान्ति में न डालो-विष का घड़ा मेरे हृदय पर न ढालो। भला अब मेरे प्राण में मगध-साम्राज्य का क्या सम्बन्ध है? देवदत्त मुझ से क्यों इतना असन्तुष्ट है ? जीवक - बुद्धदेव की प्रतिद्वन्द्विता ने उसे अन्धा कर दिया है - महत्त्वाकांक्षा उसे एक गर्त में गिरा रही है। उसकी वह आशा तब तक सफल न होगी, जब तक आप जीवित रहकर गौतम की प्रतिष्ठा बढ़ाते रहेंगे और उनकी सहायता करते रहेंगे।

बिम्बिसार - मुर्खता - नहीं, नहीं, यह देवदत्त की क्षुद्रता है। भला आत्मबल या प्रतिभा किसी की प्रशंसा के बल से विश्व में खड़ी होती है ? अपना अवलम्ब वह स्वयं है, इसमें मेरी इच्छा या अनिच्छा क्या। वह दिव्य ज्योति स्वत: सबकी आँखों को आकर्षित कर रही है। देवदत्त का विरोध केवल उसे उन्नति दे सकेगा।

जीवक -देव! फिर भी जो ईर्ष्या की पट्टी आँखों पर चढ़ायें है, वे इसे नहीं देख सकते। अब मुझे क्या आज्ञा है, क्योंकि यह जीवन अब आप ही की सेवा के लिए उत्सर्ग है।

वासवी - जीवक, तुम्हारा कल्याण हो, तुम्हारी सद्बुद्धि तुम्हारी चिर संगिनी रहे। महाराज को अब स्वतन्त्र वृत्ति की आवश्यकता है, अत: काशी प्रान्त का राजस्व, जो हमारा प्राप्य है, लाने का उद्योग करना होगा। मगध-साम्राज्य से हम लोग किसी प्रकार का सम्बन्ध न रखेंगे।

जीवक - देवि ! इसके पहले एक बार मेरा कौशाम्बी जाना आवश्यक है।

बिम्बिसार - नहीं जीवक ! मुझे किसी की सहायता की आवश्यकता नहीं, अब राष्ट्रीय झगड़ा मुझे नहीं रुचता।

वासवी - तब भी आपको भिक्षावृत्ति नहीं करनी होगी। अभी हम लोगों में वह त्याग, मानापमान-रहित अपूर्व स्थिति नहीं आ सकेगी। फिर, जो शत्रु से भी अधिक घृणित व्यवहार करना चाहता हो, उसकी भिक्षावृत्ति पर अवलम्ब करने को हृदय नहीं करता।

जीवक - तो सुदत्त कोसल जा चुके है। और कौशाम्बी में भी यह समाचार पहुँचना आवश्यक है। इसीलिए मैं कहता था; और कोई बात नहीं। काशी के दण्डनायक से भी मिलता जाऊँगा।

बिम्बिसार - जैसी तुम लोगों की इच्छा।

वासवी - नाथ ! मैं आपसे छिपाती भी, फिर भी कहना ही पड़ा कि हम लोग वानप्रस्थ आश्रम में भी स्वतन्त्र नहीं रखे गये हैं।

बिम्बिसार - (नि:श्वास लेकर) - ऐसा ! - जो कुछ हो -
(गाते हुए भिक्षुओं का प्रवेश)
न धरो कहकर इसको 'अपना'।
यह दो दिन का है सपना।।
वैभव का बरसाती नाला, भरा पहाड़ी झरना।
बही, बहाओ नहीं अन्य को, जिससे पड़े कलपना।।
दुखियों का कुछ आँसू पोंछ ली, पड़े, आहें भरना।
लोभ छोड़कर हो उदार; बस, एक उसी को जपना।।

बिम्बिसार - देवि, इन्हें कुछ दो

वासवी - और तो कुछ नहीं (कंकण उतार कर देती है) प्रभु ! इस स्वर्ण और रत्नों का आँखों पर बड़ा रंग रहता है, जिससे मनुष्य अपना अस्थि-चर्म का शरीर तक नहीं देखने पाता।

(भिखारी जाते हैं) [पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : पञ्चम दृश्य

(कौशाम्बी में मागन्धी का मन्दिर)

मागन्धी - (स्वगत) - इस रूप का इतना अपमान ! सो भी एक दरिद्र भिक्षु के हाथ! मुझसे ब्याह करना अस्वीकार किया ! यहाँ मैं राजरानी हुई, फिर भी वह ज्वाला न गयी, यहाँ रूप का गौरव हुआ, तो धन के अभाव से दरिद्र-कन्या होने के अपमान की यन्त्रणा में पिस रही हूँ ! अच्छा इसका भी प्रतिशोध लूँगी, अब से यही मेरा व्रत हुआ। उदयन राजा हैं, तो मैं भी अपने हृदय की रानी हैं। दिखला दूंगी कि स्त्रियाँ क्या कर सकती हैं !

(एक दासी का प्रवेश) दासी - देवि क्या आज्ञा है ?

मागन्धी - तू ही न गयी थीं गौतम का समाचार लाने, वह आजकल पद्मावती के मन्दिर में भिक्षा लेने आता है न?

दासी - आता है स्वामिनी ! वह घण्टों महल में बैठकर उपदेश करता है। महाराज भी वही बैठकर वक्तृता सुनते हैं, बड़ा आदर करते हैं।

मागन्धी - तभी कई दिनों से इधर नहीं आते हैं, अच्छा नर्तकियों को तो बुला ला। नवीना से भी कह दे कि वह शीघ्र आवे और आसव लेती आवे।

(दासी का प्रस्थान)

मागन्धी - (आप-ही-आप) - गौतम ! यह तुम्हारी तितिक्षा तुम्हें कहाँ ले जायगी? यह तुमने कभी न विचारा कि सुन्दरी स्त्रियाँ भी संसार में अपना कुछ अस्तित्व रखती हैं। अच्छा तो देखें कौन खड़ा रहता है ?

(नवीना का पान-पात्र लेकर प्रवेश)

नवीना - देवी की जय हो !

मागन्धी - तुम्हें भी बुलाना होगा, क्यों ? महाराज नहीं आते हैं तो तुम सब महारानी हो गयी हो न?

नवीना - दासी को आज्ञा मिलनी चाहिए, यह तो प्रतिक्षण श्रीचरणों में रहती हैं।

(पान कराती है)

मागन्धी - महाराज आयेंगे कि नहीं, इसका पता लगाकर शीघ्र आओ -

(नवीना जाती है, मागन्धी आप-ही-आप गाती है)
अली ने क्यों भला अवेहला की।
चम्पक कली खिली सौरभ से उषा मनोहर बेला की।
विरस दिवस, मन बहलाने को मलयज से फिर खेला की।
अली ने क्यों भला अवहेला की।

नवीना - (प्रवेश करके) - महाराज आया ही चाहते हैं।

मागन्धी - अच्छा आज मुझे बड़ा काम करना है, नवीना नर्तकियों को शीघ्र बुला। मेरी वेष भूषा ठीक है न - देखो तो -

नवीना - वाह स्वामिनी, तुम्हें वेष-भूषा की क्या आवश्यकता है - यह सहज सुन्दर रूप बनावटों से और भी बिगड़ जायेगी।

मागन्धी - (हँसकर) - अच्छा, अच्छा रहने दे, और सब उपकरण ठीक रहे, समझी? कोई वस्तु अस्त व्यस्त न रहे। अप्रसन्नता की कोई बात न होने पावे। उस दिन जो कहा है, वह ठीक रहे।

नवीना - वह भी आपके फिर से कहने की आवश्यकता है ? मैं सब अभी ठीक किये देती हूँ।

(जाती है)
(एक ओर से उदयन का और दूसरी ओर से नर्तकियों का प्रवेश। सब नाचती हैं और मागन्धी उदयन का हाथ पकड़कर बैठाती है)
(नर्तकियों का गान)
प्यारे, निर्मोही होकर मत हमको भूलना रे।
बरसों सदा दया-जल शीतल
सिंचे हमारा हृदय-मरुस्थल
अरे कँटीले फूल इसी में फूलना रे।
(नर्तकियां जाती है)

मागन्धी - आर्यपुत्र ! क्या कई दिनों तक मेरा ध्यान भी न आया ? क्या मुझसे कोई अपराध हुआ था ?

उदयन - नहीं प्रिये ! मगध से गौतम नाम के महात्मा आये हैं, जो अपने को 'बुद्ध' कहते हैं। देवी पद्मावती के मन्दिर में उनका संग निमंत्रित होता था और वे उपदेश देते थे। महादेवी वासवदत्ता भी वहीं नित्य आती थीं।

मागन्धी - (बात काटकर) - तब फिर मुझे क्यों पूछा जाय !

उदयन - (आदर से) - नहीं नहीं यह तो तुम्हारी ही भूल थी, बुलवाने पर भी नहीं आयी। वाह ! सुनने के योग्य उपदेश होता था। अभी तो कई दिन होगा। हमने अनुरोध किया है कि वे कुछ दिनों तक ठहर कर कौशाम्बी में धर्म का प्रचार करें।

मागन्धी - आप पृथ्वीनाथ हैं, सब कुछ आपको सोहाता है किन्तु मैं तो अच्छी आँखों से इस गौतम को नहीं देखती। मगध के राजमन्दिर में ही मुड़ियों का स्वांग अच्छा है कौशाम्बी इस पाखण्ड से बची रहे तो बड़ा उत्तम हो। स्त्रियों के मन्दिर में उपदेश क्यों हो क्या उन्हें पतिव्रत छोड़कर किसी और भी धर्म की आवश्यकता है (पान-पात्र बढ़ाती है)

उदयन - ठहरो मागन्धी ! पुरुष का हृदय बड़ा सशंक होता है, क्या तुम इसे नहीं जानतीं ? क्या अभी अभी तुमने कुछ विषाक्त व्यंग्य नहीं किया है ? यह मदिरा अब मैं नहीं पिऊँगा। अभी आज ही भगवान् का इसी पर उपदेश हुआ है, पर मैं देखता हूँ कि मदिरा से पहिले तुमने हलाहल मेरे हृदय में उँडेल दिया। यह व्यंग्य सूखे ग्रास की तरह नीचे भी नहीं उतरता और बाहर भी नहीं हो पाता।

मागन्धी - क्षमा कीजिये नाथ ! मैं प्रार्थना करती हूँ, अपने हृदय को इस हाला से तृप्त कीजिये। अपराध क्षमा हो ! मैं दरिद्र-कन्या हूँ। मुझे आप के पाने पर और किसी की अभिलाषा नहीं है। वे आपको पा चुकी हैं, अब उन्हें और कुछ की बलवती आकांक्षा है, चाहे लोग उसे धर्म ही क्यों न कहे। मुझमें इतनी सामर्थ्य भी नहीं।

उदयन - हूँ, अच्छा देखा जायेगा। (मुग्ध होकर) उठो मागन्धी उठो ! मुझे अपने हाथों से अपना प्रेम-पूर्ण पात्र शीघ्र पिलाओं, फिर कोई बात होगी (मागन्धी मदिरा पिलाती है।)

उदयन - (प्रेमोन्मत्त होकर) तो मागन्धी, कुछ गाओ। अब मुझे अपने मुखचन्द्र को निर्निमेष देखने दो कि मैं एक अतीन्द्रिय जगत् की नक्षत्रमालिनी निशा को प्रकाशित करने वाले शरच्चन्द्र की कल्पना करता हुआ भावना की सीमा को लाँघ जाऊँ और तुम्हारा सुरभि-नि:श्वास मेरी कल्पना को आलिंगत करने लगे।

मागन्धी - वही तो मैं भी चाहती हूँ कि मेरी मूर्छना मेरे प्राणनाथ की विश्वमोहिनी वीण की सहकारिणी हो, हृदय और तन्त्री एक होकर बज उठे, विश्व-भर जिसके सम पर सिर हिला दे और पागल हो जाय।

उदयन - हाँ, मागन्धी ! वह रूप तुम्हारा बड़ा प्रभावशाली था, जिसने उदयन को तुम्हारे चरणों में लुटा दिया (मद्यप की-सी चेष्टा करता है) - किसी को भेजो कि पद्मावती के मन्दिर में से...

मागन्धी - (दासी से) - आर्यपुत्र की हस्तिस्कन्ध - वीणा ले आओ।
(दासी जाती है)

उदयन - तब तक तुम्हीं कुछ सुनाओ।
(मागन्धी पान कराती है और गाती है)
आओ हिये में अहों प्राण प्यारे !
नैन भये निर्मोही, नहीं अब देखे बिना रहते हैं तुम्हारे ।।
सबको छोड़ तुम्हें पाया है, दे कि तुम होते हो हमारे।।
तपन बुझे तन की औ' मन की, हों हम-तुम पल एक न न्यारे।।
आओ हिये में अहो प्राण प्यारे !

उदयन - हृदयेश्वरी ! कौन मुझसे तुमको अलग कर सकता है ?
हमारे वक्ष में बनकर हृदय, यह छवि समायेगी।
स्वयं निज माधुरी छवि का रसीला गाना गायेगी।।
अलग तब चेतना ही चित्त में कुछ रह न जायेगी।
अकेले विश्व-मन्दिर में तुम्हीं को पूज पायेगी।।

मागन्धी - प्रियतम ! मैं दासी हूँ। उदयन - नहीं, तुम आज से स्वामिनी बनो।
(दासी वीणा लेकर आती है उदयन के सामने रखती है; उदयन के उठाने के साथ ही साँप का बच्चा निकल पड़ता हैं -मागन्धी चिल्ला उठती है)

मागन्धी - पद्मावती! तू यहाँ तक आगे बढ़ चुकी है ! जो मेरी शंका थी, वह प्रत्यक्ष हुई।

उदयन - (क्रोध से उठकर खड़ा हो जाता है) - अभी इसका प्रतिशोध लूँगा। ओह ! ऐसा पाखण्ड-पूर्ण आचरण ! असह्य !

मागन्धी - क्षमा सम्राट ! आपके हाथ में न्याय दण्ड है। केवल प्रतिहिंसा से आपका कोई कर्तव्य निर्धारित न होना चाहिए, सहसा भी नहीं। प्रार्थना है कि आज विश्राम करें; कल विचार करें; कल विचार कर कोई काम कीजियेगा।

उदयन - नहीं (सिर पकड़ कर) किन्तु फिर भी तुम कह रही हो, - अच्छा, मैं विश्राम चाहता हूँ।

मागन्धी - यहीं...?
(उदयन लेटता है, मागन्धी पैर दबाती है)
[पट-परिवर्तन]

प्रथम अंक : षष्ठ दृश्य

कौशाम्बी के पथ में जीवक।

जीवक : ( आप - ही - आप ) राजकुमारी से भेंट हुई और गौतम के दर्शन भी हुए, किन्तु मैं तो चकित हो गया हूँ कि क्या करूँ। वासवी देवी और उनकी कन्या पद्मावती, दोनों की एक तरह की अवस्था है। जिसे अपना ही सम्भालना दुष्कर है, वह वासवी की क्या सहायता कर सकेगी! सुना है कि कई दिनों से पद्मावती के मन्दिर में उदयन जाते ही नहीं, और व्यवहारों से भी कुछ असन्तुष्ट-से दिखलाई पड़ते हैं; क्योंकि उन्हीं के परिजन होने के कारण मुझसे भी अच्छी तरह न बोले, और महाराज बिम्बिसार की कथा सुनकर भी कोई मत नहीं प्रकट किया। दासी आने को थी, वह भी नहीं आई। क्या करूँ।

दासी का प्रवेश।

दासी : नमस्कार! देवि ने कहा है, आर्य जीवक से कहो कि मेरी चिन्ता न करें। माताजी की देख-रेख उन्हीं पर है, अब वे शीघ्र ही मगध चले जाएँ। देवता जब प्रसन्न होंगे, उनसे अनुरोध करके कोई उपाय निकालूँगी और पिताजी के श्रीचरणों का भी दर्शन करूँगी। इस समय तो उनका जाना ही श्रेयस्कर है। महाराज की विरक्ति से मैं उनसे भी कुछ कहना नहीं चाहती। सम्भव है कि उन्हें किसी षड्यन्त्र की आशंका हो, क्योंकि नई रानी ने मेरे विरुद्ध कान भर दिए हैं, इसलिए मुझे अपनी कन्या समझकर क्षमा करेंगे। मैं इस समय बहुत दुःखी हो रही हूँ, कर्त्तव्य-निर्धारण नहीं कर सकती।

जीवक : राजकुमारी से कहना कि मैं उनकी कल्याण-कामना करता हूँ। भगवान की कृपा से वे अपने पूर्व-गौरव का लाभ करें और मगध की कोई चिन्ता न करें। मैं केवल सन्देश कहने यहाँ चला आया था। अभी मुझे शीघ्र कोसल जाना होगा।

दासी : बहुत अच्छा। ( नमस्कार करके जाती है। )

गौतम का संघ के साथ प्रवेश।

जीवक : महाश्रमण के चरणों में अभिवादन करता हूँ।

गौतम : कहो, मगध में क्या समाचार है? मगध-नरेश सकुशल तो हैं?

जीवक : तथागत! आपसे क्या छिपा है? मगध-राजकुल में बड़ी अशान्ति है। वानप्रस्थ-आश्रम में भी महाराज बिम्बिसार को चैन नहीं है।

गौतम : जीवक!

चंचल चन्द्र सूर्य है चंचल

चपल सभी ग्रह तारा है।

चंचल अनिल, अनल, जल थल, सब

चंचल जैसे पारा है।

जगत प्रगति से अपने चंचल,

मन की चंचल लीला है।

प्रति क्षण प्रकृति चंचला कैसी

यह परिवर्तनशीला है।

अणु-परमाणु, दुःख-सुख चंचल

क्षणिक सभी सुख साधन हैं।

दृश्य सकल नश्वर-परिणामी,

किसको दुख, किसको धन है

क्षणिक सुखों को स्थायी कहना

दुःख-मूल यह भूल महा।

चंचल मानव! क्यों भूला तू,

इस सीटी में सार कहाँ?

जीवक : प्रभु! सत्य है।

गौतम : कल्याण हो। सत्य की रक्षा करने से, वही सुरक्षित कर लेता है। जीवक! निर्भय होकर पवित्र कर्त्तव्य करो।

गौतम का संघ सहित प्रस्थान।

विदूषक वसन्तक का प्रवेश।

वसन्तक : अहा वैद्यराज! नमस्कार। बस एक रेचक और थोड़ा-सा बस्तिकर्म्म-इसके बाद गर्मी ठण्डी! अभी आप हमारे नमस्कार का भी उत्तर देने के लिए मुख न खोलिए, पहले रेचक प्रदान कीजिए। निदान में समय नष्ट न कीजिए।

जीवक : ( स्वगत ) यह विदूषक इस समय कहाँ से आ गया! भगवान्, किसी तरह हटे।

वसन्तक : क्या आप निदान कर रहे हैं? अजी अजीर्ण है, अजीर्ण। पाचक देना हो दो, नहीं तो हम अच्छी तरह जानते हैं कि वैद्य लोग अपने मतलब से रेचन तो अवश्य ही देंगे। अच्छा, हाँ कहो तो, बुद्धि के अजीर्ण में तो रेचन ही गुणकारी होगा? सुनो जी मिथ्या आहार से पेट का अजीर्ण होता है और मिथ्या विहार से बुद्धि का; किन्तु महर्षि अग्निवेश ने कहा है कि इसमें रेचन ही गुणकारी होता है। (हँसता है )

जीवक : तुम दूसरे की तो कुछ सुनोगे नहीं?

वसन्तक : सुना है कि धन्वन्तरि के पास एक ऐसी पुड़िया थी कि बुढ़िया युवती हो जाए और दरिद्रता का केंचुल छोड़कर मणिमयी बन जावे! क्या तुम्हारे पास भी...उहूँ... नहीं है? तुम क्या जानो।

जीवक : तुम्हारा तात्पर्य क्या है? हम कुछ न समझ सके।

वसन्तक : केवल खलबट्टा चलाते रहे और मूर्खता का पुटपाक करते रहे। महाराज ने एक नई दरिद्र कन्या से ब्याह कर लिया है, मिथ्या विहार करते-करते उन्हें बुद्धि का अजीर्ण हो गया है। महादेवी वासवदत्ता और पद्मावती जीर्ण हो गई हैं, तब कैसे मेल हो? क्या तुम अपनी औषधि से उन्हें विवाह करने के समय की अवस्था का नहीं बना सकते, जिसमें महाराज इस अजीर्ण से बच जाएँ?

जीवक : तुम्हारे ऐसे चाटुकार और भी चाट लगा देंगे, दो-चार और जुटा देंगे।

वसन्तक : उसमें तो गुरुजनों का ही अनुकरण है! श्वसुर ने दो ब्याह किए, तो दामाद ने तीन। कुछ उन्नति ही रही।

जीवक : दोनों अपने कर्म के फल भोग रहे हैं। कहो, कोई यथार्थ बात भी कहने-सुनने की है या यही हँसोड़पन?

वसन्तक : घबराइए मत। बड़ी रानी वासवदत्ता पद्मावती को सहोदरा भगिनी की तरह प्यार करती हैं। उनका कोई अनिष्ट नहीं होने पावेगा। उन्होंने ही मुझे भेजा है और प्रार्थना की है कि ''आर्यपुत्र की अवस्था आप देख रहे हैं, उनके व्यवहार पर ध्यान न दीजिएगा। पद्मावती मेरी सहोदरा है, उसकी ओर से आप निश्चिंत रहें। कोसल से समाचार भेजिएगा।'' नमस्कार। ( हँसता हुआ जाता है। )

जीवक : अच्छा, अब मैं भी कोसल जाऊँ।

जाता है।

( पट - परिवर्तन )

प्रथम अंक : सप्तम दृश्य

स्थान - कोसल में श्रावस्ती की राजसभा।

प्रसेनजित् सिंहासन पर और अमात्य, अनुचरगण यथास्थान बैठे हैं।

प्रसेनजित् : क्या यह सब सच है सुदत्त? तुमने आज मुझे एक बड़ी आश्चर्यजनक बात सुनाई है। क्या सचमुच अजातशत्रु ने अपने पिता को सिंहासन से उतारकर उनका तिरस्कार किया है?

सुदत्त : पृथ्वीनाथ! यह उतना ही सत्य है, जितना श्रीमान् का इस समय सिंहासन पर बैठना। मगध-नरेश से एक षड्यन्त्र द्वारा सिंहासन छीन लिया गया है।

विरुद्धक : मैंने तो सुना है कि महाराज बिम्बिसार ने वानप्रस्थ-आश्रम स्वीकार किया है और उस अवस्था में युवराज का राज्य सम्भालना अच्छा ही है।

प्रसेनजित् : विरुद्धक! क्या अजात की ऐसी परिपक्व अवस्था है कि मगध-नरेश उसे साम्राज्य का बोझ उठाने की आज्ञा दें?

विरुद्धक : पिताजी! यदि क्षमा हो, तो मैं यह कहने में संकोच न करूँगा कि युवराज को राज्य-संचालन की शिक्षा देना महाराज का ही कर्त्तव्य है।

प्रसेनजित् : ( उत्तेजित होकर ) और आज तुम दूसरे शब्दों में उसी शिक्षा के पाने का उद्योग कर रहे हो! क्या राज्याधिकार ऐसे प्रलोभन की वस्तु है कि कर्त्तव्य और पितृभक्ति एक बार ही भुला दी जाए?

विरुद्धक : पुत्र यदि पिता से अपना अधिकार माँगे, तो उसमें दोष ही क्या?

प्रसेनजित् : ( और भी उत्तेजित होकर ) तब तू अवश्य ही नीच रक्त का मिश्रण है। उस दिन, जब तेरे ननिहाल में तेरे अपमानित होने की बात मैंने सुनी थी, मुझे विश्वास नहीं हुआ। अब मुझे विश्वास हो गया कि शाक्यों के कथनानुसार तेरी माता अवश्य ही दासी-पुत्री है। नहीं तो तू इस पवित्र कोसल की विश्व-विश्रुत गाथा पर पानी फेरकर अपने पिता के साथ उत्तर-प्रत्युत्तर न करता। क्या इसी कोसल में रामचन्द्र और दशरथ के सदृश पुत्र और पिता अपना उदाहरण नहीं छोड़ गए हैं?

सुदत्त : दयानिधे! बालक का अपराध मार्जनीय है।

विरुद्धक : चुप रहो, सुदत्त! पिता कहे और पुत्र उसे सुने। तुम चाटुकारिता करके मुझे अपमानित न करो।

प्रसेनजित् : अपमान! पिता से पुत्र का अपमान!! क्या यह विद्रोही युवक-हृदय, जो नीच रक्त से कलुषित है, युवराज होने के योग्य है? क्या भेड़िये की तरह भयानक ऐसी दुराचारी सन्तान अपने माता-पिता का ही वध न करेगी? अमात्य!

अमात्य : आज्ञा, पृथ्वीनाथ!

प्रसेनजित् : ( स्वगत ) अभी से इसका गर्व तोड़ देना चाहिए। ( प्रकट ) आज से यह निर्भीक किन्तु अशिष्ट बालक-अपने युवराज पद से वंचित किया गया। और, इसकी माता का राजमहिषी का-सा सम्मान नहीं होगा-केवल जीविका-निर्वाह के लिए उसे राजकोष से व्यय मिला करेगा।

विरुद्धक : पिताजी, मैं न्याय चाहता हूँ।

प्रसेनजित् : अबोध, तू पिता से न्याय चाहता है! यदि पक्ष निर्बल है और पुत्र अपराधी है, तो किस पिता ने पुत्र के लिए न्याय किया है परन्तु मैं यहाँ पिता नहीं, राजा हूँ। तेरा बड़प्पन और महत्त्वाकांक्षा से पूर्ण हृदय अच्छी तरह कुचल दिया जाएगा-बस चला जा।

विरुद्धक सिर झुकाकर जाता है।

अमात्य : यदि अपराध क्षमा हो, तो कुछ प्रार्थना करूँ। यह न्याय नहीं है। कोसल के राजदण्ड ने कभी ऐसी व्यवस्था नहीं दी। किसी दूसरे के पुत्र का कलंकित कर्म सुनकर श्रीमान् उत्तेजित हो अपने पुत्र को दण्ड दें, यह श्रीमान् की प्रत्यक्ष निर्बलता है। क्या श्रीमान् उसे उचित शासक नहीं बनाना चाहते?

प्रसेनजित् : चुप रहो मन्त्री, जो कहता हूँ वह करो।

दौवारिक आता है।

दौवारिक : महाराज की जय हो! मगध से जीवक आए हैं।

प्रसेनजित् : जाओ, लिवा लाओ।

दौवारिक जाता है और जीवक को लिवा लाता है।

जीवक : जय हो कोसल-नरेश की!

प्रसेनजित् : कुशल तो है, जीवक तुम्हारे महाराज की तो सब बातें हम सुन चुके हैं, उन्हें दुहराने की कोई आवश्यकता नहीं। हाँ, कोई नया समाचार हो तो कहो।

जीवक : दयालु देव, कोई नया समाचार नहीं है। अपमान की यन्त्रणा ही महादेवी वासवी को दुखित कर रही है, और कुछ नहीं।

प्रसेनजित् : तुम लोगों ने तो राजकुमार को अच्छी शिक्षा दी। अस्तु, देवी वासवी को अपमान भोगने की आवश्यकता नहीं। उन्हें अपनी सपत्नी-पुत्र के भिक्षान्न पर जीवन-निर्वाह नहीं करना होगा। मन्त्री! काशी की प्रजा के नाम एक पत्र लिखो कि वह अजात को राज-कर न देकर वासवी को अपनाकर दान करे, क्योंकि काशी का प्रान्त वासवी को मिला है, सपत्नी-पुत्र का उस पर कोई अधिकार नहीं है।

जीवक : महाराज! देवी वासवी ने कुशल पूछा है और कहा है कि इस अवस्था में मैं आर्यपुत्र को छोड़कर नहीं आ सकती, इसलिए भाई कुछ अन्यथा न समझें।

प्रसेनजित् : जीवक, यह तुम क्या कहते हो? कोसल-कुमारी दशरथ-नन्दिनी शान्ता का उदाहरण उसके सामने है; दरिद्र ऋषि के साथ जो दिव्य जीवन व्यतीत कर सकती थी। क्या वासवी किसी दूसरे कोसल की राजकुमारी है? कुल-शील-पालन ही तो आर्य-ललनाओं का परमोज्ज्वल आभूषण है। स्त्रियों का वही मुख्य धन है। अच्छा जाओ, विश्राम करो।

जीवक का प्रस्थान।

सेनापति बन्धुल का प्रवेश।

बन्धुल : प्रबल प्रतापी कोसल-नरेश की जय हो!

प्रसेनजित् : स्वागत सेनापते! तुम्हारे मुख से 'जय' शब्द कितना सुहावना सुनाई पड़ता है! कहो, क्या समाचार है!

बन्धुल : सम्राट्, कोसल की विजयिनी पताका वीरों के रक्त में अपने अरुणोदय का तीव्र तेज दौड़ाती है और शत्रुओं को उसी रक्त में नहाने की सूचना देती है! राजाधिराज! हिमालय का सीमा प्रान्त बर्बर लिच्छवियों के रक्त से और भी ठण्डा कर दिया गया है। कोसल के प्रचण्ड नाम से ही शान्ति स्वयं पहरा दे रही है। यह सब श्रीचरणों का प्रताप है। अब विद्रोह का नाम भी नहीं है। विदेशी बर्बर शताब्दियों तक उधर देखने का भी साहस न करेंगे।

प्रसेनजित् : धन्य हो, विजयी वीर! कोसल तुम्हारे ऊपर गर्व करता है और आशीर्वादपूर्ण अभिनन्दन करता है। लो, यह विजय का स्मरण-चिह्न!...

हार पहनाता है।

सब : जय, सेनापति बन्धुल की जय!

प्रसेनजित् : ( चौंकते हुए ) हैं! जाओ, विश्राम करो।

बन्धुल जाता है।

( पट - परिवर्तन )

प्रथम अंक : अष्टम दृश्य

स्थान - प्रकोष्ठ

कुमार विरुद्धक एकाकी।

विरुद्धक : ( आप ही आप ) घोर अपमान! अनादर की पराकाष्ठा और तिरस्कार का भैरवनाद!! यह असहनीय है। धिक्कारपूर्ण कोसल-देश की सीमा कभी की मेरी आँखों से दूर हो जाती; किन्तु मेरे जीवन का विकास-सूत्र एक बड़े ही कोमल कुसुम के साथ बँध गया है। हृदय नीरव अभिलाषाओं का नीड़ हो रहा है। जीवन के प्रभात का वह मनोहर स्वप्न, विश्व भर की मदिरा बनकर मेरे उन्माद की सहकारिणी कोमल कल्पनाओं का भण्डार हो गया। मल्लिका! तुम्हें मैंने अपने यौवन के पहले ग्रीष्म की अर्द्धरात्रि में आलोकपूर्ण नक्षत्रलोक से कोमल हीरक-कुसुम के रूप में आते देखा। विश्व के असंख्य व कोमल कण्ठों की रसीली तानें पुकार बनकर तुम्हारा अभिनन्दन करने, तुम्हें सम्भालकर उतारने के लिए, नक्षत्रलोक को गई थीं। शिशिरकणों से सिक्त पवन तुम्हारे उतरने की सीढ़ी बना था, उषा ने स्वागत किया, चाटुकार मलयानिल परिमल की इच्छा से परिचारक बन गया, और बरजोरी मल्लिका के एक कोमल वृन्त का आसन देकर तुम्हारी सेवा करने लगा। उसने खेलते-खेलते तुम्हें उस आसन से भी उठाया और गिराया। तुम्हारे धरणी पर आते ही जटिल जगत् की कुटिल गृहस्थी के आलबाल में आश्चर्यपूर्ण सौन्दर्यमयी रमणी के रूप में तुम्हें सबने देखा। यह कैसा इन्द्रजाल था-प्रभाव का वह मनोहर स्वप्न था-सेनापति बन्धुल, एक हृदयहीन क्रूर सैनिक ने तुम्हें अपने उष्णीष का फूल बनाया। और, हम तुम्हें अपने घेरे में रखने के लिए कंटीली झाड़ी बनकर पड़े ही रहे! कोसल के आज भी हम कण्टकस्वरूप हैं...!

कोसल की रानी का प्रवेश।

रानी : छिः राजकुमार! इसी दुर्बल हृदय से तुम संसार में कुछ कर सकोगे? स्त्रियों की-सी रोदनशीला प्रकृति लेकर तुम कोसल के सम्राट् बनोगे?

विरुद्धक : माँ, क्या कहती हो! हम आज एक तिरस्कृत युवकमात्र हैं, कहाँ का कोसल और कौन राजकुमार!

रानी : देखो, तुम मेरी सन्तान होकर मेरे सामने ऐसी नीच बात न कहो। दासी की पुत्री होकर भी मैं राजरानी बनी और हठ से मैंने इस पद को ग्रहण किया, और तुम राजा के पुत्र होकर इतने निस्तेज और डरपोक होगे, यह कभी मैंने स्वप्न में भी न सोचा था। बालक! मानव अपनी इच्छा-शक्ति से और पौरुष से ही कुछ होता है। जन्मसिद्ध तो कोई भी अधिकार दूसरों के समर्थन का सहारा चाहता है। विश्व में छोटे से बड़ा होना, यही प्रत्यक्ष नियम है। तुम इसकी क्यों अवहेलना करते हो? महत्त्वाकांक्षा के प्रदीप्त अग्निकुण्ड में कूदने को प्रस्तुत हो जाओ, विरोधी शक्तियों का दमन करने के लिए कालस्वरूप बनो, साहस के साथ उनका सामना करो, फिर या तो तुम गिरोगे या वे ही भाग जाएँगी। मल्लिका तो क्या, राजलक्ष्मी तुम्हारे पैरों पर लोटेगी। पुरुषार्थ करो! इस पृथ्वी पर जियो तो कुछ होकर जियो, नहीं तो मेरे दूध का अपमान कराने का तुम्हें अधिकार नहीं।

विरुद्धक : बस, माँ! अब कुछ न कहो। आज से प्रतिशोध लेना मेरा कर्त्तव्य और जीवन का लक्ष्य होगा। माँ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तेरे अपमान के कारण इन शाक्यों का एक बार अवश्य संहार करूँगा और उनके रक्त में नहाकर, कोसल के सिंहासन पर बैठकर, तेरी वन्दना करूँगा। आशीर्वाद दो कि इस क्रूर परीक्षा में उत्तीर्ण होऊँ।

रानी : ( सिर पर हाथ फेरकर ) मेरे बच्चे, ऐसा ही हो।

दोनों जाते हैं।

प्रथम अंक : नवम दृश्य

स्थान - पद्मावती का प्रकोष्ठ।

पद्मावती वीणा बजाना चाहती है। कई बार प्रयास करने पर भी नहीं सफल होती।

पद्मावती : जब भीतर की तन्त्री बेकल है तब यह कैसे बजे! मेरे स्वामी! मेरे नाथ! यह कैसा भाव है, प्रभु!

फिर वीणा उठाती है और रख देती है, गाने लगती है।

मीड़ मत खिंचे बीन के तार

निर्दय उँगली! अरी ठहर जा

पल-भर अनुकम्पा से भर जा,

यह मूर्च्छित मूर्च्छना आह-सी

निकलेगी निस्सार।

छेड़-छेड़कर मूक तन्त्र को,

विचलित कर मधु मौन मन्त्र को-

बिखरा दे मत, शून्य पवन में

लय हो स्वर-संसार।

मसल उठेगी सकरुण वीणा,

किसी हृदय को होगी पीड़ा,

नृत्य करेगी नग्न विकलता

परदे के उस पार।

पद्मावती : ( आप - ही - आप ) यह सौभाग्य ही है कि भगवान् गौतम आ गए हैं, अन्यथा पिता की दुरवस्था सोचते-सोचते तो मेरी बुरी अवस्था हो गई थी। महाश्रमण की अमोघ सान्त्वना मुझे धैर्य देती है; किन्तु मैं यह क्या सुन रही हूँ-स्वामी मुझसे असन्तुष्ट हैं। भला यह वेदना मुझसे कैसे सही जाएगी! कई बार दासी गई; किन्तु वहाँ तो तेवर ही ऐसे हैं कि किसी को अनुनय-विनय करने का साहस ही नहीं होता। फिर भी कोई चिन्ता नहीं, राजभक्त प्रजा को विद्रोही होने का भय ही क्यों हो?

हमारा प्रेमनिधि सुन्दर सरल है।

अमृतमय है , नहीं इसमें गरल है।।

नेपथ्य से -' भगवान् बुद्ध की जय हो ' ।

पद्मावती : अहा! संघ-सहित करुणानिधान जा रहे हैं, दर्शन तो करूँ।

खिड़की से देखती है।

उदयन का प्रवेश।

उदयन : ( क्रोध से ) पापीयसी, देख ले, यह तेरे हृदय का विष-तेरी वासना का निष्कर्ष जा रहा है। इसीलिए न यह नया झरोखा बना है।

पद्मावती : ( चौंककर खड़ी हो जाती है , हाथ जोड़कर ) प्रभु! स्वामी! क्षमा हो! यह मूर्ति मेरी वासना का विष नहीं है, किन्तु अमृत है, नाथ! जिसके रूप पर आपकी भी असीम भक्ति है, उसी रमणी-रत्न मागन्धी का भी जिन्होंने तिरस्कार किया था -शान्ति के सहचर, करुणा के स्वामी-उन बुद्ध को, मांसपिण्डों की कभी आवश्यकता नहीं।

उदयन : किन्तु मेरे प्राणों की है। क्यों, इसीलिए न वीणा में साँप का बच्चा छिपाकर भेजा था! तू मगध की राजकुमारी है, प्रभुत्व का विष जो तेरे रक्त में घुसा है, वह कितनी ही हत्याएँ कर सकता है। दुराचारिणी! तेरी छलना का दाँव मुझ पर नहीं चला-अब तेरा अन्त है, सावधान!

तलवार निकालता है।

पद्मावती : मैं कौशाम्बी-नरेश की राजभक्त प्रजा हूँ। स्वामी, किसी छलना का आपके मन पर अधिकार हो गया है। वह कलंक मेरे सिर पर ही सही, विचारक दृष्टि में यदि मैं अपराधिनी हूँ, तो दण्ड भी मुझे स्वीकार है, और वह दण्ड, वह शान्तिदायक दण्ड यदि स्वामी के कर-कमलों से मिले, तो मेरा सौभाग्य है। प्रभु! पाप का सब दण्ड ग्रहण कर लेने से वही पुण्य हो जाता है।

सिर झुकाकर घुटने टेकती है।

उदयन : पापीयसी! तेरी वाणी का घुमाव-फिराव मुझे अपनी ओर नहीं आकर्षित करेगा। दुष्टे! इस हलाहल से भरे हुए हृदय को निकालना ही होगा। प्रार्थना कर ले।

पद्मावती : मेरे नाथ! इस जन्म के सर्वस्व! और परजन्म के स्वर्ग! तुम्हीं मेरी गति हो और तुम्हीं मेरे ध्येय हो, जब तुम्हीं समक्ष हो तो प्रार्थना किसकी करूँ मैं प्रस्तुत हॅूँ।

तलवार उठाता है , इसी समय वासवदत्ता प्रवेश करती है।

वासवदत्ता : ठहरिए! मागन्धी की दासी नवीना आ रही है, जिसने सब अपराध स्वीकार किया हे। आपको मेरे इस राजमन्दिर की सीमा के भीतर, इस तरह, हत्या करने का अधिकार नहीं है। मैं इसका विचार करूँगी और प्रमाणित कर दूँगी कि अपराधी कोई दूसरा है। वाह! इसी बुद्धि पर आप राज्य-शासन कर रहे हैं? कौन है जी? बुलाओ मागन्धी और नवीना को।

दासी : महादेवी की जो आज्ञा। ( जाती है )

उदयन : देवी! मेरा तो हाथ ही नहीं उठता है-यह क्या माया है?

वासवदत्ता : आर्यपुत्र! यह सती का तेज है, सत्य का शासन है, हृदयहीन मद्यप का प्रलाप नहीं। देवी पद्मावती! तू पति के अपराधों को क्षमा कर।

पद्मावती : ( उठकर ) भगवान् यह क्या! मेरे स्वामी! मेरा अपराध क्षमा हो-नसें चढ़ गई होंगी।

हाथ सीधा करती है।

दासी : ( प्रवेश करके ) महाराज, भागिए! महादेवी, हटिए, वह देखिए आग की लपट इधर ही चली आ रही है। नई महारानी के महल में आग लगी है, और उसका पता नहीं है। नवीना मरती हुई कह रही थी कि मागन्धी स्वयं मरी और मुझे भी उसने मार डाला; वह महाराज का सामना नहीं करना चाहती थी।

उदयन : क्या षड्यन्त्र! अरे, क्या मैं पागल हो गया था। देवी अपराध क्षमा हो। ( पद्मावती के सामने घुटने टेकता है। )

पद्मावती : उठिए-उठिए, महारज! दासी को लज्जित न कीजिए।

वासवदत्ता : यह प्रणय लीला दूसरी जगह होगी-चलो हटो, यह देखो लपट फैल रही है।

वासवदत्ता दोनों का हाथ पकड़कर खींचकर खड़ी हो जाती है। पर्दा हटता है - मागन्धी के महल में आग लगी हुई दिखाई पड़ती है।

( यवनिका )

  • द्वितीय अंक-अजातशत्रु
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