Aitihasik Upanyas (Hindi Lekh/Nibandh) : Rahul Sankrityayan
ऐतिहासिक उपन्यास (हिंदी निबंध) : राहुल सांकृत्यायन
सरस ललित गद्य वृहत्कथाएँ ऐतिहासिक आधार लेकर हमारे देश में पहले भी लिखी जाती रहीं, पर उन्हें यथार्थवादी ढंग से लिखने की प्रणाली आधुनिक काल की एक विशेष देन है। आधुनिक दृष्टिकोण ने यथार्थवादी कथानक को फीका बना दिया और पाठक अपने मनोरंजन की चीज़ भी अलौकिक नहीं, लौकिक रूप में देखना चाहने लगे। यही कारण है जो आज सारे भूमंडल में नए ढंग के कथा-साहित्य, (उपन्यासों और कहानियों) को लिखने-पढ़ने का रिवाज चल पड़ा है। हमारे अधिकांश कथानक वर्तमान काल से संबंध रखते हैं। यथार्थता का पूरी तौर से अनुसरण करने के लिए यह सुगम भी है क्योंकि उसके पात्र हमारे सामने मौजूद हैं। हम स्वयं उन्हीं में से एक हैं, इसलिए उनके अंतर-बाह्य से पूर्णतया परिचित हैं। यदि अपने देश काल-पात्र के अनौचित्य के भागी नहीं हो सकते। भविष्य-संबंधी कहानी या उपन्यास बहुत कम लिखे जाते हैं और वह अधिकतर किसी आदर्श को साकार रूप में दिखलाने के लिए ही। काल के अनुसार दूसरी श्रेणी के उपन्यास या कहानी अतीत-संबंधी होते हैं। जिनके लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह ऐतिहासिक ही हों, पर तो भी कथाकार को किसी देश-काल को तो रखना ही पड़ेगा और उसे देश-काल तथा उसके संबंधी पात्रों को उनके अनुरूप ही चित्रण करना होगा। हर हालात में यथार्थवाद हमारे ऊपर कुछ जिम्मेवारियाँ, कुछ नियमों की पाबंदी रखता है।
यह पाबंदी ऐतिहासिक उपन्यास-लेखकों को निर्वाहित करनी ही होगी। उपन्यास का कलेवर बड़ा होता है इसलिए उसका हर जगह निर्वाह करना कष्टसाध्य है। उपन्यास प्राग्-इतिहास के संबंध में भी लिखे जा सकते हैं, पर तब हमारे पात्र ऐतिहासिक नहीं होंगे। प्रागैतिहासिक-काल व्यक्ति-प्रधान नहीं समाज-प्रधान था, इसलिए तत्संबंधी कथा में एक नहीं अनेक व्यक्ति नायक का पार्ट अदा करेंगे। पर, प्रागैतिहासिक काल को लेकर उपन्यास अभी हमारे यहाँ तो लिखे ही नहीं गए, कहानियाँ ज़रूर लिखी गई हैं और उनमें भी ऐतिहासिक यथार्थवाद की कसौटी पर उतरने वाले और भी कम हैं।
ऐतिहासिक उपन्यासों में हमें ऐसे समाज और उसके व्यक्तियों का चित्रण करना पड़ता है, जो सदा के लिए विलुप्त हो चुका है। किंतु उसके पदचिह्न कुछ ज़रूर छोड़े हैं, जो उनके साथ मनमानी करने की इजाज़त नहीं दे सकते। इन पदचिह्नों या ऐतिहासिक अवशेषों पर पूरी तौर से अध्ययन को यदि अपने लिए दुष्कर समझते हैं तो कौन कहता है, आप ज़रूर ही इस पथ पर कदम रखें? हम देखते हैं, कम-से-कम हमारे देश में, समर्थ कथाकार भी ऐसी ग़लती कर बैठते हैं और बिना तैयारी के ही कलम उठा लेते हैं। इसमें शक नहीं, यदि उनकी लेखनी चमत्कारिक है तो साधारण पाठक उसे बड़ी दिलचस्पी से पढ़ेंगे। और हमारे समालोचकों में बहुत ही कम ऐसे हैं जो ऐतिहासिक यथार्थवाद की परख रखते हैं, इसलिए इतिहास के जानकारों और प्रेमियों के लिए सिर में दर्द पैदा करने वाले उपन्यासों पर ख़ूब अच्छी समालोचना या सम्मति भी प्राप्त हो सकती है। लेकिन ऐसे लेखक की कृति पर राय देने का अधिकार आज की के पाठक नहीं रखते, समानधर्मा लोगों की अनेक पीढ़ियाँ उन्हें देखेंगी और वह ऐसे लेखक को तुच्छ दृष्टि से देखेंगे, जिन्हें जजों की राय की कोई परवाह नहीं। ऐसे वीरों के लिए कुछ कहना नहीं है, उनकी कलम को कोई रोक नहीं सकता और उनके पाठक भी मिल सकते हैं। एक लेखक ऐतिहासिक सामग्री के अवगाहन में अपने परिमित साधनों के कारण अक्षम हो सकता है, पर लाखों रुपए खर्च करके बनने वाले फिल्मों को, बनाने वालों को हम साधनहीन नहीं कह सकते, वहाँ तो इस विषय में और भी अँधेर मचा हुआ है। रेडियो पर एक बार अशोक-संबंधी एक कहानी प्रसारित हुई थी, जिसमें बारूद का धमाका करवाया गया था। जहाँ अर्थशास्त्र, साइंस के विलायती यूनिवर्सिटियों के ग्रेजुएट प्रभु और महाप्रभु बनने के सबसे योग्य पात्र समझे जाते हों, वहाँ ऐसा अँधेरखाता क्यों न हो?
जिस समय की कुछ भी प्रमाणित समकालीन लिखित सामग्री प्राप्य है, उसे कथा-साहित्य के लिए ऐतिहासिक मान सकते हैं। इस प्रकार हमारे यहाँ ऐसा काल तीन-चार हज़ार वर्ष तक का हो सकता है। हरेक ऐतिहासिक कथाकार के लिए आवश्यक नहीं है कि वह सारे काल की प्राप्य सामग्री का समवगाहन करे, यह संभव भी नहीं है। ऐतिहासिक सामग्री का हल्के दिल से अध्ययन करना लाभदायक नहीं है। इससे लेखक आधा तीतर, आधा बटेर पैदा करने में समर्थ होगा, जो कि और भी उपहासास्पद बात होगी। ऐतिहासिक कथाकार को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि हमारी एक-एक पाँति पर एक बड़ा निष्ठुर मर्मज्ञ-समूह पैनी दृष्टि से देख रहा है। हमारी ज़रा भी ग़लती बर्दाश्त नहीं करेगा, वह हमारी भद्द कराएगा। फिर उसके देश और काल के बारे में जितनी ज्ञातव्य बातें हैं, उन्हें जमा करने में लग जाइए। किसी यूनिवर्सिटी के लिए लिखी जाने वाली अच्छी थीसिस से इस सामग्री-संचय में कम मेहनत नहीं करनी पड़ेगी। पकी पकाई सामग्री आपके लिए तैयार शायद ही मिले। वह कुछ मात्रा में मिल भी सकती है, यदि उसी काल और समाज पर किसी अधिकारी लेखक ने कोई उपन्यास लिख डाला हो। उससे आप ख़ुशी से सहायता ले सकते हैं। वर्तमान काल से संबंध रखने वाले उपन्यासों में वर्तमान समाज के चित्रण बहुत कुछ एक जैसे होते हैं, पर उसके कारण हम किसी लेखक को दोषी नहीं ठहरा सकते। साहित्यिक चोरी दूसरी चीज़ है, जिससे बचना अवश्य चाहिए।
ऐतिहासिक उपन्यासकार का विवेक वैसा ही होना चाहिए जैसा कि इतिहासकार का होता है। उसे समझना चाहिए कि कौन-सी सामग्री का मूल्य अधिक और किसका कम है। लिखित सामग्री वही प्रथम श्रेणी की मानी जाएगी जिसे उसी समय लिपिबद्ध किया गया हो। ग्रंथों को बराबर नई प्रतियों के रूप में उतारा जाता रहता है। सभी प्रतिलिपि करने वाले अपनी सफ़ाई देते हैं;
‘यादृशं पुस्तकं दृष्टं तादृशं लिखतं मया।
यदि शुद्धमशुद्ध या मम दोषो दीयताम्।'
पर जब हम नई प्रतियों में बराबर घटाव-बढ़ाव होता देखते हैं, तो दोष क्यों न देंगे? 'महाभारत' का जो नया संस्करण पूना से निकल रहा है, उससे मालूम होता है कि कितने भारी परिमाण में नए श्लोकों को रचकर उसमें मिलाया गया। 'रामचरितमानस' में कितने अधिक क्षेपक हैं यह आसानी से देखा जा सकता है। इसीलिए समकालीन लिपिबद्ध सामग्री सबसे अधिक प्रामाणिक मानी जाती है। सिक्के, शिलालेख और ताम्र-पत्र उसी समय के लिखे होते हैं, इसीलिए उनका मूल्य अधिक है। वास्तु, मूर्तियाँ, और चित्र अपने समय के समाज के जीवन पर बहुत प्रकाश डालते हैं। अजंता की चित्रशालाएँ पाँचवीं से सातवीं सदी के भारत के समाज का बड़ा ही सच्चा चित्र उपस्थित करती हैं। साँची और भरहुत की मूर्तियों को अच्छी तरह अध्ययन किए बिना हम मौर्य और शुंग-काल पर अच्छे उपन्यास नहीं लिख सकते। हरेक ऐतिहासिक उपन्यासकार को जैसे तत्कालीन इतिहासों को पढ़कर नोट कर लेना चाहिए, उसी तरह संग्रहालयों को भी अच्छी तरह से देखना चाहिए। हर तीन-चार शताब्दी के बाद लोगों की वेशभूषा में कितने ही अंतर आ जाते हैं, जिनका ध्यान रखना ज़रूरी है। आज जिस तरह हमारे देश में प्रदेश के अनुसार लोगों के वस्त्र आभूषणों में फर्क मालूम होता है, उसी तरह कुछ-न-कुछ पहले भी था, यह अध्ययन से मालूम होगा।
ऐतिहासिक अनौचित्य से बचने के लिए जिस तरह तत्कालीन ऐतिहासिक सामग्री और इतिहास का अच्छी तरह अध्ययन आवश्यक है, वैसे ही भौगोलिक अध्ययन की भी आवश्यकता है। यह तो बल्कि समसामयिक उपन्यास और कहानी-लेखकों के लिए भी ज़रूरी है। जिस तरह ऐतिहासिक मानदंड स्थापित करने के लिए तत्कालीन राजाओं के राज्य और शासनकाल की पहले ही से तालिका बनाकर उसमें वर्णनीय घटनाओं के अध्याय-क्रम को टाँक लेना ज़रूरी है, उसी तरह भौगोलिक स्थानों, उनकी दिशाओं और दूरियों का ठीक-ठीक अंदाज रहने के लिए तत्संबंधी नक्शे का ख़ाका हर वक्त सामने रखना चाहिए। नक्शा तो हमारे मानस पटल पर अंकित हो जाना चाहिए। ऐसा न करने पर अक्षंतव्य गलती हो जाती है। नंदलाल डे ने प्राचीन भूगोल का कोश लिखा है। उसमें नक्शे का ख्याल न रहने के कारण उन्होंने कुमाऊँ की काली और अलीगढ़, एटा जिलों की काली को एक समझ लिया। उन्हें यह ख्याल नहीं आया कि ऐसा होने के लिए दोनों कालियों को गंगा के ऊपर से गुज़र कर एक होना पड़ेगा।
मानव के ऐतिहासिक विकास में एक चीज़ का एक समय अभाव रहता है और दूसरे समय उसका आविष्कार हो जाता है। जो चीज़ जिस समय अभी आविष्कृत नहीं हुई, उसे उस समय रखना भारी दोष है, उदाहरण के लिए बारूद और बारूदी हथियारों को ले लीजिए। चीन में यद्यपि आतिशबाजी के छोटे-छोटे खिलवाड़ों के लिए बारूद का उपयोग कुछ पहले भी होता था, पर उसे हथियार के तौर पर सबसे पहले चंगेज़ (1227 ई.) की सेना ने इस्तेमाल किया। अभी भी धातु की तोपें नहीं बन सकी थीं। धातु की तोपें मंगोलों की चमड़े की तोपों को देखकर यूरोप वालों ने निकाले। यही बारूदी तोपें और बंदूकें थीं, जिन्होंने युद्ध में यूरोपियों के पल्ले को भारी कर दिया और उन्होंने सारे विश्व पर अपना अधिकार स्थापित किया। भारत में सबसे पहले बारूदी तोपों का इस्तेमाल बाबर ने पानीपत के मैदान (11 अप्रैल, 1526 ई.) में किया।
उसकी सात सौ यूरोपीय तोपों ने चार-पाँच घंटे में दिल्ली (इब्राहीम लोदी) की सेना को घास-मूली की तरह काटकर रख दिया। 21 अप्रैल 1526 ई. से पहले बारूदी तोपों और हथियारों को अपने उपन्यासों और कहानियों में लाना अनुचित है।
कहा जा सकता है, हमारे यहाँ पहले से ही सारे हथियार मौजूद थे। आपके यहाँ पुष्पक विमान मौजूद थे, बारूदी तोप क्या अणु-बम भी मौजूद थे, पर यह आपके घर की मान्यता है जिसे विचारशील वैज्ञानिक दुनिया नहीं मानती। आप जैसे अपने ओझाओं-सयानों और कथा-पुराणों की ‘सच्चाईयों' को अपने कथानकों में नहीं ला सकते, वैसे ही इन पुरानी मान्यताओं या भ्रमों को भी अपने ऐतिहासिक वर्णनों में सम्मिलित नहीं कर सकते।
ऊपर की पंक्तियों को पढ़कर आप कह उठेंगे, तब तो ऐतिहासिक उपन्यास और कहानी लिखने के लिए नौ मन तेल वाली शर्त पूरी करनी पड़ेगी। शर्त ज़रूर पूरी करनी होगी यदि आप गंभीरतापूर्वक इस क्षेत्र में कदम रखना चाहते हैं, नहीं तो 'मुखमस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतिकी' वाला रास्ता आपके लिए खुला है ही।