अग्निपुरुष : आनंद प्रकाश जैन

Agnipurush : Anand Prakash Jain

दसवीं शताब्दी के दसवें शतक में, मालवा की राजधानी अवंती के बाजारों में लोहे का एक लाल आदमी एक दिन विचरण करते देखा गया। वह आदमी जिधर चलता था, उधर लोगों के ठठ के ठठ जुड़ जाते थे। छत्र-रहित एक चौड़े चकले रथ के बीचों-बीच उसके दोनों पैर लोहे की मजबूत मेखों से जड़े हुए थे। उसका कद आम आदमी से लंबा नहीं था, किंतु उसकी बाँहें आवश्यकता से अधिक लंबी थीं, जैसे दूर से ही किसी को अपने अंदर समेट लेना चाहती हों। भुस और कपड़े के संयोग से बना एक नारी-आकार उसके बाहुपाश में आबद्ध था और उसे समेटे हुए उसकी बाँहें ऐसी लगती थीं मानो दो अजगरों ने कुंडल लगा लिया हो।

उस लोहे के आदमी के सामने एक नगाड़ा रखा था और उसकी बगल में एक उद्घोषक खड़ा था। वह एक राजाज्ञा की घोषणा करता हुआ रथ को अवंती के बाजारों में घुमा रहा था। अभी वह कुछ बोलने ही वाला था कि उसने दूर से ही एक अश्व को अपनी ओर आते देखा और उसके मुँह से निकला—‘‘राजकुमार भोज! प्रजाजनो, राजकुमार का अभिनंदन करो!’’ और यह कहते-कहते वह रथ के ऊपर दंडवत् लेट गया।

रथ के पास एक क्षण रुककर राजकुमार भोज ने अभिनंदन स्वीकार करते हुए उस लोहे के आदमी की ओर देखा। वह तत्काल अपना घोड़ा कुदाते हुए उस ओर दौड़ चले, जिधर सत्ताश्रय कुल तिलक, आहवमल्ल, रणरंग भीम, धनंजय तथा हलायुध जैसे कवियों के आश्रयदाता मुंज के रनिवास थे।

कुछ ही देर में महल की तीसरी मंजिल पर राजकुमार भोज की प्रतीक्षा में रत रानी रसवंती के द्वार राजकुमार भोज के लिए खुलते चले गए। वह नतमस्तक प्रतिहरिनों के बीच से होते हुए तीसरी मंजिल के उसी कक्ष में पहुँच गए। वहाँ के वातायन से रानी नीची छतों वाले उन घरों व बाजारों को देख रही थी, जो दूर-दूर तक फैले हुए थे। नतशिर भोज द्वार पर ही ठिठक गया।

‘‘भोज प्रणाम करता है, देवी।’’

राजकुमार भोज की ओर रानी की पीठ थी। उसी अवस्था में स्थिर रानी ने कहा, ‘‘लगता है बहुत व्यस्त थे, राजकुमार।’’

‘‘व्यस्त ही था, देवी। परंतु आज्ञा का पालन नहीं कर पाया। क्षमा चाहता हूँ।’’

‘‘मिल जाएगी। संभवतः किसी नवीन राजाज्ञा के प्रसारण का प्रबंध कर रहे थे...है न?’’ रानी ने प्रश्न पूछा।

तनिक चौंककर भोज ने रुक-रुककर कहा, ‘‘हाँ...नहीं, देवी! महाकवि धनंजय के साथ एक वाद-विवाद में फँस गया था।’’

‘‘क्या है नवीन राजाज्ञा, सुनूँ तो?’’ रानी ने धनंजय के साथ हुए वाद-विवाद की उपेक्षा करते हुए पूछा।

‘‘वह आचारहीन लोगों के लिए है, देवी के सुनने योग्य नहीं।’’ अभी तक नतशिर भोज ने उत्तर दिया।

‘‘सिर ऊँचा रखकर कभी बात नहीं करोगे, राजकुमार? क्या हम देखने-सुनने में इतने बुरे हैं?’’

हड़बड़ाकर भोज ने सिर सीधा किया और नेत्र ऊपर उठाए। फिर मानो जहाँ-का-तहाँ कीलित हो गया। अनेक बार वह उस रानी के सम्मुख आया था। अनेक बार शायद उसे देखा भी था, किंतु इस रूप-सज्जा में कभी नहीं। रानी की दृष्टि सीधे उसके नेत्रों में समा रही थी। वह बहुत तीखी थी, बहुत केंद्रित थी, प्रश्नवाचक चिह्न की तरह चमकदार! गुलाब की पँखुडि़यों की तरह उस धवल प्रतिमा के होंठ खुले।

‘‘मैंने भी वह राजाज्ञा सुनी है, राजकुमार। वह आचारहीन लोगों के लिए नहीं, मात्र आचारहीन नारियों के लिए है। वाग्पति के राज्य में चरित्रहीनता बहुत बढ़ गई है और इसका दोषी संभवतः मात्र स्त्रियों को ही पाया जाता है। इस आचारहीनता से क्षुब्ध वाग्पति मुंजराज आदेश देते हैं कि जिसके ऊपर आचारहीनता का दोष प्रमाणित हो जाएगा, वह नगर के प्रजाजनों के सम्मुख आग में तपाकर लाल किए गए लौह पुरुष का आलिंगन करेगी, जो इस समय अवंती के बाजारों में राज्य की नारियों को आतंकित करने के लिए घुमाया जा रहा है। यही राजाज्ञा है न, राजकुमार?’’

राजकुमार भोज पत्थर की प्रतिमा की तरह स्थिर खड़ा रहा...चुपचाप, निस्पंद, निश्चेष्ट।

‘‘लाल लोहे का आदमी! वाह! यह किस विद्वान् के मस्तिष्क की उपज है?’’

‘‘नहीं जानता, देवी। किंतु विश्वास करें, इस भयानक आविष्कार का प्रयोग कभी नहीं होगा। वाग्पति सरस्वती के वरद पुत्र हैं। उनका हृदय स्फटिक की तरह स्वच्छ और रेशम की तरह कोमल है। नारी वर्ग की ओर से विश्वासघात के बाद जो वाद प्रतिदिन राजसभा में प्रस्तुत हो रहे थे, उन्हीं के कारण संभवतः किसी अशुभ क्षण में वह क्षुब्ध हो गए।’’

उपेक्षा के साथ विहँसकर रानी ने कहा, ‘‘ऐसा कभी हुआ है, राजकुमार, जब पुरुष ने नारी के सतीत्व की रक्षा के लिए कोई आविष्कार किया हो और वह प्रयोग में न आया हो?’’

राजकुमार चुप रहा। थोड़ी-सी नजर उठाने पर ही उसकी दृष्टि फिर एक बार रानी की दृष्टि से मिल गई। उसे लगा कि उसके तन-बदन के भीतर एक अज्ञात सा कंपन उत्पन्न हो गया है।

बहुत धीमे से भोज का मुँह खुला और वह बोला, ‘‘यह राज्य-व्यवस्था है, देवी। हमारा वंश अग्निकुल से उत्पन्न है और चारों ओर से हम शत्रुओं से घिरे हुए हैं। हमारा यह उत्कर्ष-काल है और इसमें जो विलास-भावना हमारी जाति के भीतर घर करती जा रही है, उसका दमन होना ही चाहिए। मैं इसमें देवी के उत्तेजित होने का कोई कारण नहीं पाता।’’

‘‘तुम्हें वह कारण आसानी से नहीं मिलेगा, राजकुमार भोज। यदि आज किसी अन्याय की स्थापना होती है, तो उसके प्रति हमें केवल इसीलिए चुप नहीं रहना चाहिए कि उसका सीधा प्रहार हम पर नहीं हो रहा है। अन्याय एक ऐसी आग है, जिसकी लपट में सबसे पहले निर्दोष झुलसते हैं। वाग्पति की पगड़ी और कटार से मेरा परिणय कराकर जिस दिन तुम त्रिपुरी से यहाँ लाए, उसी दिन मैंने कभी एक क्षण को भी यह अनुभव नहीं किया कि वाग्पति से मेरा कोई जन्म-जन्मांतर का संबंध है।’’

‘‘यह क्या कह रही हो, देवी।’’ भोज ने आश्चर्य प्रकट किया।

‘‘तुम्हें खूब मालूम है, भोज, त्रिपुरी के अन्य सेनापतियों की भाँति मेरे पिताश्री का सिर धरती पर इसीलिए नहीं लोटा कि उन्होंने वाग्पति के साथ मेरे विवाह का वचन दिया था। अपने लिए स्वयं मनोनीत वर खोजने का प्रत्येक अवसर मेरे लिए अवरुद्ध था। क्या यह संभव नहीं कि मेरा मन किसी अन्य प्रतिमा में उलझा रह गया हो?’’ रानी रसवंती के नेत्र चमक रहे थे।

भोज ने कानों पर हाथ रख लिए। ‘‘यह सुनना भी पाप है, देवी। अग्नि के सम्मुख देवी ने वचन दिया था कि सदा परमार कुल की मर्यादा की रक्षा करेंगी।’’

‘‘उस समय यह कहाँ मालूम था कि परमार-कुल की रक्षा लोहे का तप्त पुरुष करता है! उस समय कटार तथा पगड़ी का प्रतिनिधि बनकर जिस पुरुष ने मेरा कर गहा था, उसके हाथ का स्पर्श कितना विनम्र था...कितना कोमल था!’’

‘‘देवि!’’ सिर से पैर तक सिहरकर राजकुमार भोज ने अपने नेत्र फिर उठाए। रानी रसवंती के नेत्रों में मादकता थी। किंतु क्षणमात्र में उसकी दृष्टि वक्र हो गई। तिक्त स्वर में उसने कहा—

‘‘पिता का सिर खड्ग की धार के नीचे रखकर उसकी कन्या से कोई भी वचन लिया जा सकता है। इस नगरी में आकर वाग्पति मुंज का इतना कठोर स्वरूप मैंने देखा है कि तन का समर्पण करके भी मेरे मन ने उन्हें पति-रूप में स्वीकार नहीं किया। ऐसा लगता रहा मानो आदिम जाति का एक बर्बर पुरुष एक निरीह अबला के तन पर अपने पैने नाखूनों और पंजों से चिपट जाने के लिए आतुर हो।’’

‘‘उफ!’’ भोज का मुख विकृत हो गया। उसने अपने कानों को दोनों हाथों से कसकर दबा लिया। वह बुदबुदाकर बोला, ‘‘यह अशुभ है, देवि, यह अशुभ है। इसे मन में भी न लाइए। इसका विचार तक न कीजिए।’’

भावावेश में विहँसती हुई रानी रसवंती ने कहा, ‘‘राजकुमार भोज, याद है वह अर्ध-पूर्णिमा की रात्रि, जब हमारा साथ त्रिपुरी से अवंती के लिए चला था?...मैं एक सजीधजी डोली में थी और तुमने आधा मार्ग घोड़े की पीठ पर बैठे-बैठे पार किया था। कोसों तक फैले हुए हमारे सार्थ में केवल एक ही पुरुष ऐसा था, जिसकी ओर वधू की डोली का आवरण बार-बार खुल जाता था। और उस समय जो दो-चार बातें हम दोनों के बीच हो सकी थीं, उनमें क्या राजकुमार भोज ने किसी को यह वचन नहीं दिया था कि उसकी हर इच्छा, हर भावना और हर कामना राजकुमार भोज के लिए सम्मान्य होगी?’’

राजकुमार भोज विचलित हो गया। उत्तप्त स्वर में वह बोला, ‘‘ओह देवी! मेरी भावनाओं को कुरेद रही हैं। मैं भी एक मानव हूँ। मेरे भीतर भी दुर्बलताएँ हैं। कहीं ऐसा न हो कि मैं ही उनके सम्मुख परास्त हो जाऊँ। देवी, इस बात को फिर होंठों पर न लाएँ। इस कुल की मर्यादा की रक्षा जो दीवारें कर रही हैं, उनके भी कान हो सकते हैं। वाग्पति मेरे पितातुल्य हैं। देवी की हर उचित कामना का पालन होगा। अब इस दीनहीन भोज को आज्ञा प्रदान की जाए कि वह विदा ले। अब मैं कभी देवी को अपना मुख नहीं दिखा सकूँगा। इसके लिए क्षमा चाहता हूँ।’’

‘‘क्यों? मेरा आदेश मिलने पर भी?’’ रानी ने आवेश में पूछा।

‘‘कदाचित्।’’ भोज ने उत्तर दिया।

‘‘तो सुनो,’’ रानी सतर हो गई, ‘‘कल्चुरी कन्याओं का चरित्र-बल इतना ही नहीं होता, जितना तुम समझते हो। उनका तन और मन एक होता है। इस परिणय पर मेरा जो विद्राह है, वह कभी का वाग्पति के सम्मुख प्रकट हो चुका होता, यदि इसमें किसी ऐसे पुरुष का पराभव दृष्टिगोचर नहीं होता, जो जितना वाग्पति को प्रिय है उससे अधिक मुझे। तुम अब जाओ, भोज। मैं अपनी बलि उसी दिन चढ़ा चुकी थी, जब वाग्पति की कटार से परिणय हो रहा था। उसके बाद केवल एक ही आकर्षण मुझे जीवित रख सका है। यदि यह आकर्षण मुझसे दूर होता चला गया, तो यह देह नहीं रहेगी।’’

भोज भी सीधा खड़ा हो गया और अर्धमीलित नेत्रों से उसने एक बार रानी रसवंती की संपूर्ण देहश्री को नापा। इसके बाद उसका सिर फिर नत हो गया और धीमे से उसने कहा, ‘‘प्रणाम, देवी।’’

‘‘प्रणाम, भोज,’’ रानी ने मुसकराकर कहा, ‘‘जाओगे न फिर?’’

‘‘कदाचित्,’’ भोज ने कहा और तेजी से उलटे पैरों कक्ष से बाहर निकल गया। इसके बाद जिस वेग से वह रनिवास से बाहर हुआ, उसे देखकर अनेक दासियों ने दाँतों तले उँगली दबाकर एक-दूसरे की ओर सार्थक दृष्टि से देखा। किंतु उनके होंठ और भी कसकर बंद हो गए। रानी रसवंती का तेज उन सभी के लिए श्रद्धा की वस्तु थी।

मुख्य द्वार के समीप राजकुमार के लौटने की प्रतीक्षा में रत चार अश्वारोही सैनिक उसके साथ लग गए। किंतु राजकुमार भोज को न आती बेर उनका भान था, न जाती बेर। वह अपने ही विचारों में रत था। आज से तीन बरस पहले, जब वाग्पति मुंज ने त्रिपुरी के कल्चरियों पर आक्रमण किया था, तो एक परास्त सेनापति को चुन-चुनकर मौत के घाट उतारा गया था। उस समय सेनापति वल्लभराज को केवल इसलिए छोड़ दिया गया था कि वह अपनी उस कन्या का विवाह मुंज के साथ करेगा, जिसके रूप की ख्याति अनेक सूत्रों से अवंती तक जा पहुँची थी।

मुंज के दरबार में आने से पहले रानी रसवंती का नाम अरुंधती था। वह एक विदुषी कन्या थी। दास-दासियों का पूरा सार्थ साथ होते हुए भी राह में अरुंधती ने भोज के हाथ से जल लेकर पिया था। और उसने जितनी बार जल पिया था, उतनी ही बार परिहास भी किया था। हालाँकि, उस परिहास में कभी उसने शिष्टता की सीमा का उल्लंघन नहीं किया था। किंतु भोज भी मन-ही-मन उसका आनंद लेने के अतिरिक्त तनिक भी अपनी सीमा से आगे नहीं बढ़ा था। मुँह पर हल्की सी मुसकान ही अरुंधती को उसके परिहास का उत्तर दे देती थी।

कुछ ही दिनों बाद पता चल गया कि अरुंधती की ओर से मुंज रुष्ट है। उसे उसका तन मिला था—नीरस, निष्कंप, निष्चेष्ट—मानो अनिंद्य गौरवर्ण चाम के भीतर भुस भर दिया गया हो। अरुंधती की आकांक्षाओं का प्रतीक एक ऐसा ही पुरुष हो सकता था, जो उसके अंतर में पैठी करुणा, उल्लास तथा उच्छ्वासों के साथ घुल-मिल जाए। मुंज जितना रसिक था, उतना ही क्रूर था, जितना कलाप्रेमी था, उतना ही कठोर था, जितना युक्तियुक्त था उतना ही न्याय-विधान में कटु था, अरुंधती का आदर्श पति भोज हो सकता था, मुंज नहीं।

प्रकारांतरों से अरुंधती की ये भावनाओं इन तीन वर्षों में राजकुमार भोज पर प्रकट हो चुकी थीं—और इससे भोज की सारी रसिकता जैसे छूमंतर हो गई हो। गंभीरता, विचारशीलता, दार्शनिकता का समावेश उसके व्यक्तित्व के अंग बनते जा रहे थे। भोज का मस्तिष्क इन सारे परिवर्तनों के प्रति सचेत था और यही सबसे बड़ी विडंबना थी। मुंज उसका चाचा था और इस संबंध के नाते अरुंधती को उसे माता के रूप में देखना चाहिए था। किंतु भोज के अंतर का झंझावात क्या इसे स्वीकार करता है। इसी ऊहापोह में किस समय भोज का अश्व अवंती की मुख्य वीथिका से हटकर दौड़ने लगा था, इसका उसे कुछ भान ही न रहा। वह चौंका उस समय, जब एक जनरव उसके कानों में पड़ा।

चौंककर उसने देखा कि सामने से एक पागल को घेरे अवंती से सैकड़ों प्रजाजन हँसते-ठठाते चले आ रहे हैं। उस पागल के वस्त्र जीर्ण-शीर्ण हैं और लगता था कि उस पर कुछ मार भी पड़ चुकी है। भोज तथा उसके सैनिकों को देखते ही वह चिल्लाने लगा, ‘‘अहा! लोहे का आदमी, लोहे का आदमी—वह देखो...देखो!’’

और इसके बाद तीर की तरह भीड़ में से निकलकर वह उसकी ओर दौड़ा और पलक मारते ही उसके अश्व की लगाम पकड़कर लटक गया। अश्व को इससे अत्यधिक पीड़ा हुई और निकट ही था कि वह बीच मार्ग पर भोज को लिए-दिए लौट जाता कि उसके अंगरक्षक कूदे, उनमें से दो ने लगाम को सँभाल लिया। दो ने उस पागल को पकड़ लिया और खड्ग निकाल लिये।

कुछ स्थिर होकर भोज ने कहा, ‘‘जाने दो, यह पागल है। हम आगे बढ़ें।’’

छूटते ही वह भीड़ से विपरीत दिशा में दौड़ता चला गया। साथ-ही-साथ वह चिल्लाता जा रहा था, मुड़-मुड़कर भोज की ओर संकेत करते हुए चिल्ला रहा था, ‘‘यह देखो, लोहे का आदमी, लोहे का आदमी!’’

वहाँ से चलकर भोज कविराज धनंजय की हवेली के सम्मुख अश्व से उतरा। सैनिकों ने तुरंत धनंजय को राजकुमार के आगमन तथा मार्ग की दुर्घटना का समाचार दिया। संभवतः उस समय वह किंचित् भी काव्य के प्रभाव में नहीं था। हँसते हुए वह बाहर आया और भोज को गले लगाकर अपने साथ भीतर ले गया। राह में बोला—

‘‘मार्ग में पागलों से बचकर चलना चाहिए, राजकुमार।’’

‘‘मुझे भय है कहीं अवंती की सारी प्रजा ही पागल न हो जाए।’’ भोज ने कहा, ‘‘जानते हो यह पागल कैसा था?’’

‘‘कैसा था?’’

कुछ समय पहले वह व्यक्ति अवंती की प्राचीर के मुख्य द्वार पर प्रमुख कराधिकारी था। उस द्वार से बाहर-भीतर माल ले जानेवाले एक सामान्य व्यापारी की कन्या पर वह आसक्त हो गया और न जाने कैसे एक रात्रि को उस कन्या को इसने प्राचीर पर आमंत्रित कर लिया। उसका पिता उसके साथ आया, किंतु उसे नीचे ही रोक दिया गया। कुछ समय बाद उसे अपनी कन्या की चीख सुनाई दी। वह प्रहरियों को एक ओर हटाकर ऊपर दौड़ता चला गया। प्राचीर पर पहुँचकर उसने जो कांड देखा उससे वह अर्धविक्षिप्त हो गया। उसकी बेटी पर बलात्कार हुआ था और वह रो रही थी। पिता को सामने देखकर वह लज्जा से अभिभूत हो, छलाँग लगाकर नीचे कूद पड़ी। नीचे खाई में से उसके शरीर के नाम पर केवल एक मांस का लोथड़ा ही मिला। उसके पिता ने महाराज वाग्पति से राजसभा में जाकर न्याय की माँग की और उसे न्याय मिला।’’ ‘‘क्या?’’ धनंजय ने पूछा, ‘‘यह घटना कब की है?’’

‘‘उस समय की, जब तुम अन्हिलवाड़ा में राजदूत के रूप में गए थे,’’ भोज ने बताया, ‘‘राज्य चिकित्सागार में इस व्यक्ति को सदा-सदा के लिए कामेंद्रिय से हीन कर दिया गया और उसकी संपत्ति राज्यकोश के हवाले कर दी गई। उसी में से दो हजार स्वर्ण-मुद्राएँ देकर व्यापारी को सांत्वना देने का प्रयत्न किया गया।’’

धनंजय विचारमग्न हो गया। बोला, ‘‘ओह! आचार-न्यास का यह न्याय तो बड़ा लोमहर्षक है, राजकुमार भोज। इससे तो मृत्यु-दंड अच्छा रहता। यह मानवता के विरुद्ध है—बलात्कार की घटना को अपेक्षा में रखकर भी।’’

‘‘क्या कहा जा सकता है? किस प्रकार उचित या अनुचित का निर्णय हो? उस समय तो हम सभी को ऐसा लगा था, मानो यह दंड उचित ही दिया गया था। लेकिन प्राचीर से कूदकर जिस कन्या ने अपनी लज्जा को छिपाने का यत्न किया था, उसको याद करें, तो आज भी यह पागल दयनीय प्रतीत नहीं होता।’’

धनंजय उस समय तक नहीं बोला, जब तक राजकुमार भोज जलपान करके सुस्थिर नहीं हो गए। इसके बाद धनंजय ने कहा, ‘‘मेरे अंतर से अमानवीय यंत्रणाओं का समर्थन नहीं होता, चाहे उन्हें दंडस्वरूप दिया जाए, चाहे अत्याचारस्वरूप। इससे साहित्य, कला और वरद-वाणी का हनन होता है। एक ओर शृंगार-रस का काव्य रचकर हम महाराज से इसके लिए पुरस्कार पाते हैं कि हमने संस्कृति के उन्नयन में योग दिया है। दूसरी ओर हमारी इस देन से जब जनरुचि मचलती है, तो हमें आचारहीनता का भय होता है और मचलकर जब वह कोई अपराध कर बैठती है, तब हम अपने अस्त्र लेकर दौड़ पड़ते हैं, और उनके अपराध करनेवाले अंगों को काटकर फेंक देते हैं। यह विडंबना ही नहीं है, पंचक विरोधाभास है। यदि इसका अंत नहीं होगा, तो राज्य का अंत हो जाएगा, निश्चय मानो।’’

‘‘किंतु मानव-समाज का कोई-न-कोई नियमन होगा ही, हमें उस नियमन में रहना होगा—मन से उत्तेजित होकर भी।’’ राजकुमार भोज ने कहा।

‘‘नियमन! हूँ,’’ धनंजय फिर मगन होकर बोला, ‘‘तब कहो कि राजदूत की संस्कृति अलग है और राजमहल में जो शृंगार-रस प्रवाहित होता है, वह वहाँ की नालियों से रिसकर प्रजाजनों में नहीं पहुँचना चाहिए। आपको जब तक नवीनता की चाह होती है, तब जैसे भी चाहें, जोर-जबरदस्ती से आप राज्य की सुंदर-से-सुंदर कन्या का वरण कर सकते हैं—और जब प्रजाजन की यह चाह कुंठा बनकर आचार-व्यवहार के अतिक्रमण में फूट निकलती है, तब आप उससे अग्नि में तपे हुए लोहे के आदमी को चिपटा देना चाहते हैं।’’

‘‘कविराज, आप संभवतः यह भावावेश में कह रहे हैं।’’ भोज ने आश्चर्य से धनंजय की ओर देखा।

‘‘राजकुमार, भावावेश हृदय को अनावृत करता है। दूसरे के अधिकार का अतिक्रमण ही अपराध है। किसी अपराध के लिए कठोरतम दंड तभी दिया जा सकता है, जब अधिकार-प्राप्त व्यक्ति तथा उसके समर्थकों को यह निश्चित हो कि उसका अधिकार शाश्वत है, प्रकृति व चेतना के न्याय से सर्वांगपूर्ण है, संगत है। किंतु राजकुमार भोज, ऐसा नहीं है। संपत्ति और अधिकार बहुत चलायमान वस्तुएँ हैं। अपराधी को दिया जानेवाला हर दंड इसी चलायमान संपत्ति व अधिकार की रक्षा के लिए है। इस रक्षा के ऊपर आधारित न्याय व्यवस्था के नाम पर दिया जाता है। हो सकता है, अपराधी की विरोध-प्रवृत्ति के कारण न्याय के विपरीत जो कृत्य हुआ है, वही अधिक स्वाभाविक अथवा प्रकृति के चिरंतन न्याय के अधिक अनुकूल हो। इसीलिए मानवता कहती है कि अपने अधिकार की रक्षा के लिए दंड दो, किंतु उसका रूप मानवीय हो, करुणा से पूर्ण हो, केवल वंचना ही उसमें निहित हो, प्रतिकार नहीं।’’

धनंजय जो कह रहा था, उसके प्रकाश में भोज के मानस में रानी रसवंती मानो बार-बार कह रही थी, ‘सुना, राजकुमार भोज, कवि-सम्राट् क्या कह रहे हैं? सुना, राजकुमार भोज?’

भोज डूब गया था। उसे हिलाते हुए धनंजय ने कहा, ‘‘क्या बात है, राजकुमार? बहुत अधिक उद्विग्न मालूम पड़ते हो! निश्चय ही उस पागल के कारण नहीं?’’

‘‘नहीं,’’ भोज ने भावाभिभूत होकर कहा। इसके बाद रानी रसवंती को लेकर जो झंझावात तीन वर्षों से भोज के मानस में उठ रहा था, उससे धनंजय कविराज अवगत हो गए। धीमे-धीमे, रुक-रुककर राजकुमार भोज ने उस झंझा के द्वारा धनंजय के लिए खोल दिया। कविराज ने भीतर झाँककर देखा, घुप अँधेरा, जहाँ हाथ-को-हाथ सुझाई न दे! इस व्यावहारिक दुविधा के तम के लिए सैद्धांतिक दर्शन, विश्वास तथा युक्तियों का प्रकाश भी पर्याप्त नहीं।

और इस सारे प्रकाश को अपनी कोमल हथेली से ढाँककर धनंजय ने सम्मति दी—‘‘राजकुमार भोज, मेरे मित्र, मैं यह सब जानकर बहुत दुःखी हुआ। इस समय इसका एक ही उपचार है—अब तुम कभी रानी रसवंती के सम्मुख न जाओ।’’

झंझावात में राह ढूँढ़ते भोज ने भी यही निश्चय किया।

नगर में लोहे के लाल आदमी की चर्चा थी और साहसिक अरुंधती, जिसे वाग्पति मुंज ने प्रथम मिलन के समय एक मौखिक संदेश भेजा। दासी ने भोज के महल में राजकुमार से भेंट की और कहा, ‘‘रानी ने स्मरण किया है। कोई राजनीतिक कार्य है। आदेश है कि आवश्यक समझा जाए।’’

भोज ने बहाना किया, जो सभी भयभीत प्रेमी करते हैं—आज नहीं, फिर और फिर फिरकर नहीं आती।

हारकर रानी ने अपने हाथ से सुंदर-सुंदर अक्षरों में भोज के नाम भोज-पत्र पर एक पत्र लिखा। लिखा कि मैं जानती हूँ, तुम क्यों नहीं आते। तुम्हारे मन में भी मेरे प्रति वही आकर्षण है, जो मुझे विकल कर रहा है। तुम्हारे मन में भी मेरी तरह बेचैन है। पर प्यार की राह चलने से झिझकते हो। नीति और आचार के बंधन तुम्हें रोकते हैं। पर वह खोटी राह तो तुम कभी के पकड़ चुके हो, उसी क्षण से जब तुमने मेरे परिहासों का मुसकराकर उत्तर दिया था। मेरे राजकुमार भोज, प्यार भी विनाश की राह है, और तुम उसी की कँटीली झाडि़यों में उलझे हो। मुझे देखो, जो मेरे मन में है, वही बाहर है और जो बाहर है, वह चारों ओर फैल जाता, यदि मेरा नायक एक राजपुरुष न होता, और उसे भविष्य में मालवा का नृपति बनना न होता। आओ, मेरे राजकुमार, तुरंत आओ ‘मैं केवल तुम्हें देखना चाहती हूँ एक बार और, एक बार और’।

भोजपत्र में धागा लिपटा हुआ था। भयभीत दासी उसे अपनी चोली में छिपाए रनिवास से बाहर आई। वह रानी की दूत थी, राजदां थी, भेदिया थी। किंतु जिस अग्निपुरुष को रथ पर चढ़ाकर, एक भुसभरी नारी से आलिंगनबद्ध, अवंती के बाजारों में घुमाया गया था, वह उसके मन के भीतर कहीं जमकर बैठ गया था। मुंज के राज्य में अपराधी और अपराध में सहायता करनेवाला एक श्रेणी में रखा जाता है। कहीं ऐसा न हो, कहीं ऐसा न हो कभी-कभी तो ऐसा लगता है, आशंका का दूसरा नाम ही नारी है।

डरती-सकुचाती, चारों ओर देखती, संध्या के झुटपुटे में वह चली जा रही थी भोज के महल की ओर, जबकि एक रहस्यपूर्ण किंतु तीखी आवाज सुनाई दी, ‘‘हाय! अभिसारिका, कहाँ जा रही है?’’

दासी के काटो तो खून नहीं। एक क्षण के लिए वह जहाँ थी, वहीं जड़ हो गई। फिर बड़ी तेजी से आगे की ओर भागी। किंतु उसके पीछे दौड़नेवाला पागलों की तरह दौड़ रहा था। कुछ क्षणों में ही उसने उसे बीच बाजार पकड़ लिया और चिल्लाने लगा, ‘‘देखो, देखो, अभिसारिका, अभिसारिका!’’

‘‘पकड़ लो, पकड़ लो, इसे लोहे के आदमी से चिपटाओ।’’

और जब तक आसपास से दौड़कर लोग जमा हों, उसने ‘अभिसारिका’ को पकड़ने का काम स्वयं ही पूरा करना आरंभ कर दिया। दासी छूटकर भागने की चेष्टा में उससे उलझ पड़ी और इस हाथापाई में धागे में बँधा भोजपत्र चोली से निकलकर नीचे गिरा।

अवंती के प्रजाजनों ने देखा कि कथित अभिसारिका को पकड़नेवाला वही पागल था, जो अग्निपुरुष के प्रकट होने के दिन राजकुमार भोज से उलझ पड़ा था। इस समय उसके हाथ में एक भोज-पत्र दिखाई पड़ रहा था, जिसे खोलकर संध्या के झुटपुटे में वह उसका लेख पढ़ने की चेष्टा कर रहा था। दो-चार बार इधर से उधर दृष्टि दौड़ाकर उसने उस पत्र को मुट्ठी में दबोच लिया और चिल्लाने लगा, ‘‘अहा, पकड़ लिया, पकड़ लिया! अवंती के प्रजाजनो, इसे लोहे के आदमी से चिपटा दो—हा-हा-हा-हा।’’

और इससे पहले कि लोग उसकी ओर झपटें, वह मानो हवा में कुलाँचें भरता हुआ दौड़ा ऐसा कि मानो स्वयं वायु का झोंका उड़ा जा रहा हो।

अवंती के राजमहलों में जब रात्रि के दीपक जलाए जा रहे थे, तब वह पागल महाराज वाग्पति मुंज के निवास-महल के सामने जोर-जोर से चिल्ला रहा था, ‘‘कहाँ है वागपति मुंज? अवंती की प्रजा पहली बार लोहे के आदमी का करतब देखना चाहती है। मुझे मुंज के पास ले चलो।’’

हलायुध, धनंजय और धनिक के साथ उस समय मुंज सरस्वती-चर्चा में तल्लीन था। जब एक प्रतिहारी ने आकर निवेदन किया, ‘‘महाराज, कुछ समय पहले एक दंडित अपराधी पागल हो गया था। कुछ समय से उसने राजधानी में भारी उत्पात मचा रखा है और अब वह ड्योढ़ी से बाहर खड़ा महाराज से भेंट करने के लिए चिल्ला रहा है। आज्ञा दें कि हम उसे कारागार में बंद कर दें।’’

‘‘वह क्या कहता है?’’ महाराज ने पूछा। ‘‘

अन्नदाता, वह अग्निपुरुष का प्रदर्शन देखने के लिए चिल्ला रहा है।’’ वह पागल है, अवंतीराज।’’ प्रतिहारी ने निवेदन किया।

‘‘यह हम निर्णय करेंगे कि वह पागल है या नहीं। मालवा नरेश की सेवा में हर प्रजाजन अपनी आवश्यकता के अनुसार हर समय उपस्थित होने की गुहार मचा सकता है। उसे सावधानी से यहाँ ले आओ।’’

और पागल को मुंज की सेवा में उपस्थित किया गया।

धनिक और हलायुध ने कुतूहल के साथ उस पागल की ओर देखा। धनंजय ने देखा सहानुभूति के साथ महाराज मुंज ने भावहीन स्वर में पूछा, ‘‘क्या चाहते हो?’’

‘‘लोहे का आदमी,’’ पागल ने जोरदार स्वर में उत्तर दिया, ‘‘अग्निपुरुष, महाराज मुंज, निकालो उसे, वह कहाँ है...और यह देखो...अब देखूँगा कि वाग्पति मुंज का न्याय किस कोने में जाकर छिपता है। लो, लो, सँभालो, अब न्याय के तराजू को।’’

चार सशस्त्र प्रहरी पागल के पीछे खड़े मुंज की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे कि कब संकेत मिले और कब उस पागल को पकड़कर बाहर धक्का दें। धनंजय ने आगे बढ़कर भोजपत्र पागल के हाथों से ले लिया और उसे खोल डाला। पत्र पर एक दृष्टि डालते ही सारी स्थिति उसके सामने स्पष्ट हो गई। क्षण मात्र में धनंजय का मुख श्वेत हो गया।

‘‘इसमें क्या है, कविवर? हम सुनने की प्रतीक्षा में हैं।’’ मुंज ने कहा।

‘‘महाराज क्षमा करें,’’ धनंजय ने कहा, ‘‘यह पत्र राजकुमार भोज के नाम है और उन्हीं को उसे पढ़ने का अधिकार है।’’

‘‘झूठ है, झूठ है,’’ पागल ने चिल्लाकर कहा, यह पत्र एक आचारहीन नारी की ओर से लाल लोहे के आदमी को लिखा गया है। पढ़ो, पढ़ो, कविराज, बेखटके पढ़ो। महाराज मुंज को अपने राज्य की प्रत्येक गुप्त बात जानने का अधिकार है। पढ़ो, कहीं ऐसा न हो कि मालवपति का न्याय डोल जाए।’’

‘‘इस वाचाल को बाहर ले जाओ।’’ मुंज के स्थान पर धनंजय ने प्रहरियों को आदेश दिया। स्वामी की मौन स्वीकृति देखकर प्रहरियों ने तुरंत पागल को पकड़ लिया। जाते-जाते वह और जोर से चिल्लाया—

‘‘मुंज, इस पत्र को जरूर पढ़ लेना, नहीं तो अवंती की प्रजा तुझे इसका एक-एक शब्द सुनाएगी। चलो, मैं चलता हूँ। मुझे बाहर छोड़कर तुम लोग अग्निपुरुष को बाहर निकाल लाना। जानते नहीं, महाराज मुंज को शीघ्र ही उसकी आवश्यकता है! हा-हा-हा-हा-हा...।’’

महाराज मुंज ने धनंजय के हाथ से पत्र ले लिया और उसे पढ़ा...फिर पढ़ा...और उनके नेत्र धनंजय पर स्थिर हो गए।

सिर नत करके धनंजय ने निवेदन किया, ‘‘राजकुमार भोज निर्दोष हैं, वाग्पति।’’

‘‘और रानी रसवंती?’’ गंभीर स्वर में गंभीर प्रश्न हुआ।

‘‘केवल परिस्थितियों के वश में हैं,’’ धनंजय का उतना ही गंभीर उत्तर मिला।

मुंज ने घंट बजाया। प्रतिहारी उपस्थित हुए। आज्ञा मिली, ‘‘इसी समय रानी रसवंती और राजकुमार भोज को बंदी बनाया जाए और अगले आदेश तक उन्हें बंदीगृह में रखा जाए। मालूम किया जाए, यह पत्र किन अवस्थाओं में उस पागल के हाथों लगा, जो अभी-अभी यहाँ उपस्थित किया गया था...धनंजय, इस विषय में तुम जितना जानते हो, वह प्रकट करो। यह हमारा आदेश है।"

आहत वाणी में कविवर धनंजय ने मुंज के सम्मुख अपने हृदय के पट खोल दिए। सब कुछ सुनकर मुंज दो क्षण अवाक् रहा। फिर उसने दंड उठाकर घंट बजाया । प्रतिहारी उपस्थित हुए।

"दंडनायक को उपस्थित किया जाए! " आज्ञा हुई।

कविगण सहम गए। मुंज के मस्तिष्क में क्या है? भाँति-भाँति से धनंजय राजकुमार भोज और रानी रसवंती की उस कथा के मानवोचित पक्ष प्रस्तुत करता रहा। किंतु मुंज के होंठ फिर उसी समय खुले, जब दंडनायक ने प्रणाम किया।

"आज्ञा, देव! "

" दंडनायक, कल रात्रि के दूसरे प्रहर के समाप्त होते न होते रानी रसवंती अग्निपुरुष का आलिंगन करेंगी, और परसों प्रातः काल राजकुमार भोज मालवा से निष्काषित होंगे।"

"अक्षर-अक्षर पालन होगा, देव!" दंडनायक ने शीश झुका दिया। उसके जाते ही कविगणों को संकेत करते हुए मुंज ने कहा, "हम एकांत चाहते हैं।"

सिर लटकाए तीनों कवि सरस्वती-भवन से बाहर आ गए। तब हलायुध ने कहा, "कविवर धनंजय, मैं राजकुमार भोज के साथ जाऊँगा। मुझे अभी से अवंती रस से विहीन लग रही है।"

धनिक ने कहा, “यदि किसी प्रकार राजमुद्रा हमें प्राप्त हो जाए, तो रानी रसवंती इस अमानुषिक दंड से बच सकती है। "

धनंजय ने केवल आश्चर्य ही प्रकट किया, "राजमुद्रा ! असंभव! " फिर विचारपूर्ण स्वर में वह बोला, "यदि राजमुद्रा के द्वारा हमने राजकुमार भोज और रानी रसवंती को छुड़ाने की चेष्टा की, तो... लेकिन महाराज की उँगली से राजमुद्रा कैसे उतारी जा सकती है?" किसी को भी मालूम न था कि कैसे उतारी जा सकती हैं, किंतु उसी रात्रि को तमोवर्ण वस्त्रों से अपने सारे अंगों को ढाँके एक पुरुष बंदीगृह के द्वार पर पहुँचा। उसने उँगली में पड़ी राजमुद्रा प्रहरियों को दिखाकर द्वार खोलने का आदेश दिया। सात ड्योढयों को पार कर वह पत्थरों से निर्मित उस बड़े कक्ष में पहुँचा, जिसमें रानी रसवंती मात्र एक दीपक के प्रकाश में अनहोनी की प्रतीक्षा कर रही थी। काले पुरुष को देखकर वह त्रस्त भाव से खड़ी हो गई।

"कौन हो तुम?"

"यह बातों का समय नहीं, " काले पुरुष ने फुसफुसाकर उत्तर दिया, "चुपचाप मेरे साथ आ जाओ । बंदीगृह के सारे कर्मचारी हमारी मुट्ठी में हैं। "

"मैं कहीं नहीं जाऊँगी।" दृढ़ स्वर में रानी रसवंती ने उत्तर दिया।

"क्यों?" आश्चर्य के अतिरेक से काले पुरुष ने पूछा ।

"इसलिए कि मैं देखना चाहती हूँ कि अग्निपुरुष में कितनी आग है!" रानी ने उत्तर दिया।

"पागल न बनो, 'आगंतुक फिर फुसफुसाकर बोला, "यह अवसर फिर हाथ नहीं आएगा। मैं त्रिपुरी में तुम्हारे पिता के पास तुम्हें पहुँचा दूँगा । यहाँ से अपने पिता को लेकर तुम सुविधा से मालवा छोड़ सकती हो। "

रानी हँसी - एक खुली हुई हँसी पूछा “और राजकुमार भोज ?"

"वे निर्दोष हैं। संभवतः कवियों के कहने से उनका अपराध क्षमा कर दिया जाएगा।" वह व्यक्ति और भी फुसफुसाकर बोला।

रानी फिर खिलखिलाई "रानी रसवंती चली जाए, यह कैसे हो सकता है?" फिर वह अपने स्वभाव के अनुकूल सतर होकर बोली, "मैं अग्निपुरुष का आलिंगन करूँगी - यह मेरा अधिकार है।"

काला पुरुष यह सुनकर स्तब्ध रह गया। "आखिर तुम्हारे मन में है क्या?"

रानी एकदम गंभीर हो गई— "मेरे मन में क्या है, यह जानना चाहते हो तो सुनो, जबसे अग्नि का आविष्कार हुआ, तब से तुम लोग नारी के लिए अग्निपुरुष बनाते आ रहे हो, आज किसी रूप में और कल किसी रूप में। तुमने भोली नारी का बलात् वरण किया, फिर उसे सतीत्व का पाठ पढ़ाया और उसके मनोनुकूल मातृत्व से वंचित कर दिया। फिर उसकी नैसर्गिक दुर्बलताओं का हौवा बनाकर उसे जीवित ही चिता में जलाया और उसी परंपरा की शृंखला में आज अग्निपुरुष को अवतार दिया। किंतु मेरी नारी के भीतर जो आग है, मैं उससे उस अग्निपुरुष को भस्म कर देना चाहती हूँ। मैं अपनी समस्त देह से उसे स्पर्श करके देखना चाहती हूँ। यह देखना चाहती हूँ कि उसमें अधिक अग्नि है या मुझमें।"

काला पुरुष खड़ा खड़ा सिहर गया। आकुलता से वह बोला, "देवी, आवेश में हैं। "

'आवेश में हूँ? रानी ने व्यंग्यपूर्ण प्रश्न किया। फिर बोली, "जिस समय तुम लोग सरस्वती का पाठ करते हो, उसका श्रवण करते हो। कुँवारी अबोध कन्याओं और परकीया से किए जानेवाले रागोल्लास का वर्णन व श्रवण करके हर्षित होते हो, तब क्या तुम आवेश में नहीं होते? मैं चाहती हूँ, अग्निपुरुष का यह साकार रूप नष्ट हो जाए और इसके साथ-साथ वे सब अग्निपुरुष नष्ट हों, जिन्होंने मानव-चरित्र का नियमन करने के बहाने उसके समस्त चरित्र को एक बोझ के नीचे दबा दिया है। आप मुझे कारागार से निकालने क्यों आए हैं? यदि आप में पुरुषों का वास्तविक साहस हैं, तो इस अग्निपुरुष को नष्ट कीजिए और अवंती में ही नहीं, सारे मालवा में आचरण को मुखरित, पल्लवित होने का अवसर दीजिए। "

"यह काम राज्याधिकारियों का है, देवी!" आगंतुक ने पूर्व स्वर में कहा।

"मैं मालवा के सर्वोच्च राज्याधिकारी से ही बातें कर रही हूँ!" रानी रसवंती के नेत्र चमके ।

"क्या!" आगंतुक चौंक पड़ा।

"महाराज मुंज, एक ओर अग्निपुरुष को अवंती के बाजारों में घुमाना, दूसरी ओर उससे एक विशेष अभियुक्त को बचाना कायरता है। मैं जानती हूँ कि मालवा के उत्तराधिकारी को आप न केवल जीवित रखना चाहते हैं, बल्कि उसे विदग्ध होने से भी बचाना चाहते हैं। ठीक है, मेरी भी यही कामना है। मैं इसके लिए अग्निपुरुष का आलिंगन करूँगी।"

महाराज मुंज ने मुँह पर से काला वस्त्र हटा दिया। स्थिर वाणी में वे बोले, "अरुंधती, तुम इस कलंकित रूप को लेकर मालवा में नहीं रह सकतीं। "

"राजकुमार भोज के साथ मैं इस तथाकथित कलंक को लेकर हर जगह रह सकती हूँ।" अरुंधती ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया ।

"किंतु राजकुमार भोज इस कलंक को लेकर मालवा का उत्तराधिकार नहीं ले सकता।"

"अग्निपुरुष भस्म हो जाए तो अवश्य ले सकता है।" अरुंधती ने समान स्वर में कहा। उसके नेत्र दीपक की प्रज्वलित शिखा को देख रहे थे - स्थिर दृष्टि से। इससे स्वयं दीपशिखा उसकी दोनों पुतलियों में समा गई थी।

" तो सुनो, अग्निपुरुष नष्ट नहीं होगा। कल अर्धरात्रि तुम्हें ही उसका स्पर्श करके भस्म होना पड़ेगा।"

"विश्वास रखिए, वाग्पति ... वह अरुंधती के किए प्रियतम भोज के आलिंगन से कम सुखद नहीं होगा।"

काले वस्त्र फिर से व्यवस्थित कर मुंज जैसे आया था वैसे ही बंदीगृह से बाहर निकल गया।

अगले दिन प्रात:काल ही नगर में रानी का दंड उद्घोषित हो गया । केवल दंडनीय व्यक्ति राजघराने का होने के कारण उसका सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं हो रहा था ।

उस दिन राजसभा नहीं लगी, वाग्पति ने भोजन नहीं किया, इसलिए सारे राजकुल ने भी लंघन किया । मुंज के साथ लगे रहनेवाला कवियों का जमघट उस दिन लोप रहा। न जाने क्या जादू की छड़ी नगर में घूमी कि सारा दैनिक कामकाज ठप रहा। शोक नहीं था, एक अवसाद था, जो सारे नगर पर कुहरे की भाँति छाया रहा। राजमहल के अंतरीय वातायनों में से एक पर खड़े-खड़े मुंज ने सारा दिन बिता दिया ।

संध्या होते-न-होते एक जनघोष नगर के एक भाग से उठा और नगर भर में घूमता हुआ बृहदाकार धारण करने लगा। राजभवनों तक पहुँचते-न-पहुँचते उसका स्वर लक्षगुना बढ़ गया। वह उद्दाम स्वर था - ' अग्निपुरुष को नष्ट करो! लाल लोहे के आदमी का नाश हो! वह अपवित्र है, दूषित है, अन्याय का पुतला है, अन्याय के पुतले का नाश हो।'

ये स्वर जब मुंज के कानों में पड़े, तो वह अंतरीय वातायन से हटकर अटारी पर आया। नीचे अपार जन-समूह उमड़ा पड़ रहा था। सबसे आगे धनंजय कवि थे। वे ही इस जनवाहिनी का नेतृत्व कर रहे थे।

"कौन धनंजय?" मुंज ने कविराज को देखकर कहा, "क्या चाहती है अवंती की प्रजा ?"

धनंजय आगे बढ़ा। उसके हाथों में एक पोटली थी। उसे ही ऊपर उठाकर वह बोला, “धनंजय मर चुका, देव। उसके काव्यों की मूल प्रतियों की राख यह जन समुदाय राजसेवा में लाया है। स्वीकार करें। " आगे बढ़कर उसने यह पोटली महाप्रतिहार के हाथों में थमा दी और पीछे हटता हुआ जनवाहिनी के आगे जा खड़ा हुआ। इसके साथ ही बीसियों कवि तथा अन्य सरस्वती - पुत्र आगे बढ़े। उन सबके हाथों में एक-एक पोटली थी । महाप्रतिहार ने प्रश्नसूचक दृष्टि से मुंज की ओर निहारा । इनके साथ ही घोष उठा, "सरस्वती के वरद पुत्रों की जय, अग्निपुरुष का नाश हो। "

मुंज ने हाथ उठाया और शांति छा जाने पर उसने कहा, "अवश्य होगा। प्रजा की यदि यही इच्छा है, तो किसी को दंडित करने से पहले ही अग्निपुरुष नष्ट कर दिया जाएगा। किंतु रानी रसवंती को विष- पान करना होगा। आप लोगों की इच्छा पूरी हुई— आप जाइए। यदि इससे आगे कोई माँग हुई तो वह राजद्रोह समझा जाएगा।

मुंज पीछे हट गया और जनवाहिनी मानो अचल रह गई... किंतु कुछ ही क्षणों के लिए। अवसन्न कवियों के पीछे-पीछे वह धीरे-धीरे वापस लौटने लगी।

अर्धरात्रि का घड़ियाल बजते ही रानी रसवंती ने हलाहल विष का स्वर्ण पात्र मुख से लगाया। मुदित मन के हर कोने से उस समय वह हँस रही थी। किंतु विष पीने पर जब उसे हल्की-हल्की चिरनिद्रा का आभास होने लगा, तो उसके मुख से कुछ शब्द निकले। इन शब्दों का बहुत महत्त्व आँकने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि वे मात्र एक अप्राप्य के प्रति थे । सुना है विष इतना उत्तम था कि उससे रानी रसवंती को प्राण त्याग करते समय किंचित् भी कष्ट नहीं हुआ। हुआ भी हो तो क्या ? हमें उस कष्ट के अंकन का अधिकार नहीं ।

किंतु अग्निपुरुष के नष्ट होते ही मालवा में जीवन रस की जो धारा प्रवाहित हुई, उसी में नहाकर मुंज 'पृथ्वीवल्लभ' बना।

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