अग्नि और बरखा (कन्नड़ नाटक) : गिरीश कर्नाड

Agni Aur Barkha (Kannada Play in Hindi) : Girish Karnad

इतिहास, पुराण, जातक और लोककथाएँ गिरीश करनाड के लिए सर्वाधिक समृद्ध उत्प्रेरक और आकर्षक कथा बीज-स्त्रोत रहे हैं। नई दृष्टि एवं संवेदना के वहन के लिए वे अपनी रचना का शरीर अतीत से चुनते हैं। उनकी महत्वपूर्ण विशिष्टता यह है कि वे मिथकीय कथानकों से आधुनिक और सामयिक समस्याओं के सम्प्रेषण का काम लेते हैं । अग्नि और बरखा के लिए करनाड पुनः अतीत की ओर लौटे हैं, और इसके केन्द्र में है महाभारत का वन पर्व। अपने वनवास काल में देशाटन में पांडव इधर-उधर भटक रहे हैं। सन्त लोमष इन्हें यवक्री अर्थात यवक्रत की गाथा सुनाते हैं। महाभारत जैसी महागाथा का पटल इतना जटिल है कि ऐसे छोटे वृत्तान्त में ध्यान जाना स्वाभाविक न था, लेकिन करनाड को इस कहानी ने सर्वाधिक प्रभावित किया। इस कथा के भीतर कई गम्भीर अर्थ विद्यमान हैं, नाटककार इस नाट्य रूपान्तर में इसके निहित अर्थों व अभिप्रायों को स्पष्ट करता है। अतीत के प्रकाश में वर्तमान धुँधलके को साफ और उजला करने की यह रचनात्मक कोशिश निःसन्देह पठनीय और दर्शनीय है, इसका एक प्रमाण यह भी है कि अब तक इस नाटक के दर्जनों सफल मंचन हो चुके हैं।

नाटककार गिरीश कारनाड ने मूलतः यह नाटक अपनी मातृभाषा कन्नड़ में लिखा था अग्नि मत्तु मले। स्वयं नाटककार ने इसका अंग्रेजी अनुवाद मुझे सौंपा था जिससे मैंने यह हिन्दी अनुवाद किया। कन्नड़भाषी छात्रों और मित्रों से कई बार मूल कन्नड़ की ध्वनि भी ग्रहण करने की कोशिश की। उच्चवर्ण एवं ग्रामीण अथवा आदिवासी संस्कार भाषा की ध्वनि, जहाँ तक बन पड़ा मैंने डालने की कोशिश की। इसकी पहली प्रस्तुति राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय रंगमंडल में प्रसन्ना के निर्देशन में हुई थी किन्तु इस अनुवाद की इस प्रस्तुति के बाद भी स्वयं लेखक के साथ बैठकर जाँच-परख की गई और उनके सुझावों के अनुसार इसका संस्कार किया गया। अतः यह अनुवाद लेखक द्वारा उसके अंग्रेजी रूप पर आधारित है। भूल-चूक मेरी अक्षमता है। फिर भी एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक भारतीय नाटककार के नाटक का यह हिन्दी रूप पाठकों तक पहुँचाने के निमित्त मैं अपने को कृतार्थ मान रहा हूँ।
-राम गोपाल बजाज]

भूमिका

महाभारत के वन पर्व (अध्याय 135 से 138) में यवक्री अर्थात् यवक्रत का वृत्तान्त आता है। संत लोमष द्वारा यह गाथा पांडवों को सुनाई जा रही होती है जब पांडव अपने वनवास काल में देशाटन में यहाँ-वहाँ भटक रहे होते हैं। मैं संस्कृत के कई ऐसे आचार्यों से मिला हूँ जो इस गाथा से अनभिज्ञ थे। महाभारत की महागाथा का पटल इतना जटिल है भी कि ऐसी संक्षिप्त कथा का ध्यान न रहना असहज नहीं।
मैं कॉलेज ही में था और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के संक्षिप्त महाभारत का अंग्रेजी संस्करण पढ़ रहा था। तभी पहली बार यवक्री और परावसु की कहानी से मेरा पहला परिचय हुआ। राजाजी संसार की बृहत्तम महागाथा का संपादन मात्र चार सौ पृष्ठों में कर रहे थे तो भी यह लघु अवांतर कथा उनसे नहीं छूटी-राजाजी की संवेदना और दृष्टि का प्रमाण।
और, यह मेरा सौभाग्य है कि राजाजी ने यह कहानी छोड़ी नहीं वरना मैं वह कहानी चूक जाता जिसे लेकर मुझे नाटक लिखना ही था। उसके बाद तो सैंतीस वर्षों तक मैं इस कहानी से जूझता रहा कि किस प्रकार एक संगत ढाँचे में इस कथा के विभिन्न अर्थों को नाय्यशः पिरो सकूँ। सन् 1993 में मुझे अमेरिका के मिन्यापोलिस के प्रसिद्ध गथरी थिएटर ने एक काम सौंपा कि मै उनके लिए विशेष रूप से नाटक लिख दूँ। बस उस मुझे इस काम में सचमुच बलपूर्वक सन्नद्ध कर दिया। सन् 1994 का अक्टूबर माह, मिन्यापोलिस में एक रंग-शिविर लगाया गया था जिसमें मुझे अमेरिकी अभिनेताओं के साथ एक मंचीय आलेख तैयार करना था। मैं कृतज्ञतापूर्वक धन्यवाद देता हूँ गार्लेण्ड राईट को, जो वहाँ की रंगशाला के कलात्मक निर्देशक थे (इन्होंने ही मेरा नाटक नागमंडल पहले निर्देशित भी किया) धन्यवाद मेडेलिन पूज़ों को जिन्होंने सारे आयोजन की देखरेख की और सुमित्रा मुखर्जी को भी जिन्होंने मेरे काम का परिचय इन लोगों को देकर इस योजना का सूत्रपात किया था। बारबरा फिल्ड भी थीं। उनमें एक भिन्न संस्कृति की सूक्ष्मताओं के प्रति संवेदनशीलता थी, रंगमंच के लिए प्रतिबद्धता थी और साथ ही एक व्यावहारिक वृत्ति भी थी जो उस शिविर में एक ड्रामातुर्ग (नाट्य्यविद) की हैसियत से विशिष्ट योगदान दे पाईं। वो अब भी मेरी निकट और मूल्यवान मित्र हैं। अभिनेतागणों ने भी भरपूर सहयोग एवं अपनी समझदारी से आलेख को नये-नये रूप में ढालने में मेरी मदद की। मैं विशेष रूप से अभिनेत्री अमी काने को स्मरण करना चाहूँगा जिनकी समझ और संवेदना के कारण पात्र नित्तिलाई इतना मार्मिक हो सका था। इस नाटक को लिखने के प्रसंग में मैंने अनेकों पंडित, मित्र और विद्वानों का धीरज टटोला है। विशेष रूप से ऋण स्वीकारता हूँ विद्यालंकार प्रोफेसर एस.के. रामचन्द्र राव का जिन्होंने मेरे लिए कथा के एक-एक शब्द की व्याख्या की। अपने गुरु महामहोपाध्याय प्रोफेसर के.टी.पांडुरंगी के सुझावों की ओर भी मैं बार-बार उन्मुख हुआ। प्रोफेसर रामचन्द्र गाँधी ने मूल आलेख पढ़ा और समालोचना दी। और अन्त में धारवाड़ के अरुणाचार्य कट्टी को धन्यवाद, वे एक पुरोहित हैं, उन्होंने मुझे समझाया कि ‘यज्ञ’ एक ‘कर्ता’ को अन्दर से कैसा लगता है। प्रोफेसर शैल्डन पॉल्लाक (शिकागो विश्वविद्यालय), प्रोफेसर हैद्रून ब्रुकनेर (तुबिंगेन विश्वविद्यालय) और डॉ. सुरेश अवस्थी (भूतपूर्व सचिव, संगीत नाटक अकादेमी) इन सभी महानुभावों का आभार मानता हूँ, जिन्होंने ‘यज्ञ’ और ‘नाट्य्य’ संबंधी महत्त्वपूर्ण प्रकाशनों की ओर मेरा ध्यान आकृष्ट किया।
-गिरीश कारनाड

पात्र

राजा
सभासद
कर्तानट
कई पुरोहित
परावसु : पर्जन्य सत्र का मुख्य पुरोहित होता
अरवसु : परावसु का छोटा भाई
नित्तिलाई : अरवसु की मित्र और निषाद कन्या
अंधक : एक बूढ़ा सूरदास-यवक्री का सेवक
विशाखा : परावसु की पत्नी और यवक्री की पूर्व प्रेमिका
यवक्री : परावसु का चचेरा भाई
रैभ्य : परावसु और अरवसु का पिता
ब्रह्मराक्षस : एक प्रेतात्मा
नित्तिलाई का भाई
देवराज इंद्र
एक अभिनेता जो विश्वरूप की भूमिका में है
प्रहरी
समूह जन इत्यादि

पहला अंक

[सूखा पड़ा है-अकाल। दस बरसों से बरखा की बूँद नहीं...सो पानी के देवता मेघराज इंद्र को प्रसन्न करने के लिए यज्ञ चल रहा है-सात वर्षों से पर्जन्य सत्र।
जब मंच पर प्रकाश होता है सबसे पहले हमें ब्रह्म राक्षस दिखाई देता है लगभग नग्न आकृति। यह आकृति मंच पर और सभी को देख सकती है लेकिन वे सब उसे नहीं देख सकते। वेद-मंत्र देख घोष सुनाई देते हैं और क्रमशः मंच और भाषित होता है तब हम देखते हैं कि वहां वेदिका मंडप है। अनेक होम कुंडों में यज्ञ अग्नि धधक रही है।..साथ-साथ होम करनेवाले पुरोहित ऋत्विजों के उच्चार हैं। वे यज्ञ में हवि डाल रहे हैं। बिना सिले याज्ञिक वस्त्रों में यज्ञोपवीत धारे ये वैदिक यज्ञ का मुख्य पुरोहित है, जिसे अध्ववर्यु कहते हैं। उनकी आयु होगी-अट्ठाइस। यज्ञ बिना विघ्न के सम्पन्न हो, नियम टूटे नहीं, विधि कोई छूटे नहीं, इसका भार अध्वर्यु पर है। यों ही मंत्रोघोष चलते हैं। फिर रुक जाते हैं-धीमे-धीमे। प्रातःकाल की यज्ञविधि हो गई पूरी। राजदूत और कर्त्तानट प्रवेश करते हैं और संकेत से अभिनेता को पास बुला लेते हैं। सभासद समझा रहा है उस नट को-भई, तुम रुको यहीं वेदिका-मंडप सभासद-राजा के पास भागता हुआ ! अरे, यज्ञ-मंडप के भीतर गया वह। राजा से चिरौरी करता है वह। देखो, सारे पुरोहित भी वहीं जमा हो गए हैं-अब तो...]
राजा: (दहाड़ता हुआ) ना ! कदापि नहीं ! असंभव !
पुरोहित-1: ओहो, किंतु मंडली है कहाँ ?
दरबारी: नगर-द्वार पर है-प्रतीक्षा में।
पुरोहित-2: दीक्षित ! अनुमति दें-आने दे उन्हें।
राजा: हमने उन्हें रोका नहीं। वे आ सकते हैं। किंतु वह युवक, उसे नहीं आने दूँगा।
पुरोहित-3: तीन वर्ष हुए-हमने नहीं देखा। लीला नहीं देखी।
पुरोहित-4: कभी तो महीने में चार-चार कोई खेल लीलाएँ देखने को मिलती थी !
पुरोहित-3: सच तो यह है कि हम थक गए हैं।–ये ऊबाऊ-अंतहीन...दार्शनिक शास्त्रार्थ, आध्यात्मिक तर्क, अनुमान और वितंडावाद...दिन प्रतिदिन। यज्ञहोम हो...पर इतना नी-रस सूखा ठूँठ।
पुरोहित-1: संयोग ही है कि ये मंडली आ गई है।
दूत: ये मंडली और प्रदेशों को चली गयी थी। किन्तु ये सब अब यहाँ आ गये हैं. क्योंकि यज्ञ संपन्न होने को है।
राजा: किन्तु ये लोग उसे ही क्यों चाहते हैं ? वो तो जन्म से नट भी नहीं है।
दूत: वह नट कहता है कि उनकी मंडली के बहुत सारे लोग बिखर गये हैं अकाल के कारण। सारे पात्रधारी अभिनेता अन्य प्रदेशों को भाग गये हैं। अतः इस युवक के बिना अब वो नाटक कर ही नहीं सकते।
पुरोहित-4: दुहाई ! उन्हें अपनी नटलीला खेलने दें, दीक्षित !
राजा: किन्तु अध्वर्यु नहीं मानेंगे।
पुरोहित-1: उन्हें पूछ न देखें ? (पुकारता है) अध्वर्युजी....!
परावसु: (प्रवेश कर) किसी ने बुलाया मुझको ?
राजा: (सभासद से) बताओ इन्हें तुम।
सभासद: बात यूँ है कि नटों की एक टोली...एक नाट्य-मंडल....नगर द्वार पर आई...आया हुआ है।....यहाँ हो रहे इस अग्नि के यज्ञ में वो भी एक नाट्यलीला करना चाहते हैं।
परावसु: मुझे लगा था-सारी ही नाटक टोलियाँ...अकाल के मुँह में समाप्त हो चुकी हैं।
सभासद: ऐसा ही हुआ है। बस...यही एक बच रही है।
[अभिनेता मैनेजर की ओर इशारा करते हुए] सभासद: वह अभिनेता है। एक विशेष निवेदन करना चाहता है। दूरी से ही अपनी बात कहेगा।
[परावसु हामी में सिर हिलाता है। सभासद कर्तानट को पुकारता है।]
सभासद: तुम जोर जोर से बोल दो, जो भी बोलना है, वहीं से। हाँ, ध्यान रहे...चेहरा वेदिका मंडप से परे रखना होगा....
[कर्तानट खड़ा होता है। उसका मुख वेदिका-मंडप से विपरीत दिशा में हैं।....ऊँचे स्वर में नाटकीय ढंग से घोषित करता-सा:]
कर्तानट: महापुरुषों, आप तो जानते ही हैं, आदिकाल में प्रजापति ब्रह्मा ने चारों वेदों को एकत्र करके नाट्यवेद नामक पंचमवेद की सृष्टि की और अपने परमपुत्र इंद्र को भेंट कर दी। गगनांग के स्वामी भगवान इंद्र ने दे दी यह विद्या पार्थिव देहधारी मानवों के लिए भरतमुनि को। क्योंकि देवगण मिथ्या माया-लीला का आचरण कैसे करते भला ! सभी ज्ञानीजन यह जानते हैं इसलिए अब इंद्र देवता को, मघवा को प्रसन्न करना होवे, दस बर्षों के इस अनंत अकाल दुर्भिक्ष को मिटाना होवे...जिसने हमारी धरती को जलाकर भस्मीभूत कर डाला है, तो अग्नि होम से काम नहीं बनेगा। चक्षु-यज्ञ भी चाहिए। जैसे देवता आहूति के भूखे हैं वैसे ही इनकी आँखें नटक्रीड़ा के लिए भूखी हैं। इसलिए हम साधारण अप्रबुद्ध लोग इन्द्र विजय का खेल खेलना चाहते हैं इस यज्ञ में हमारा नैवैद्य...भगवान इंद्र इसमें वृत्तासुर का कैसे तो संहार करते हैं ! वृत्तासुर ने संसार का सारा जल अपने पेट में भर लिया था। सो इंद्र उसका पेट फाड़कर जल को मुक्त करते हैं और धरती फिर से हरी हो जाती है। यह लीला दिखाओ, तब आशा बनती है-इंद्रदेव हमें पानी दे दे...हमारी मनचाही बरसात हो ही जाय...स्यात ! स्यात हमें वाद्यवृन्द का तालछन्द सुनाई पड़े प्राज्ञ।
[लंबी चुप्पी। परावसु राजा की ओर मुड़कर।]
परावसु : निश्चय ही इस निर्णय में आपको मेरी आवश्यकता तो नहीं ?
सभासद : (हिचकता-सा) समस्या यह है....नाटक खेलने के लिए अभिनेता-नट पूरे नहीं पड़ रहे हैं। सो ये लोग एक नया अभिनेता साथ लेना चाहते हैं।
पुरोहित: आपके भाई को।
परावसु : (धीमे स्वर में) अरवसु !
सभासद : (जल्दी से) मैंने पहले ही कह दिया था कर्तानट को...उसे छोड़ कोई भी ले लो...उसका प्रवेश यहाँ वर्जित है...किंतु ये कर्तानट कहता है-उसके बिना नाटक संभव नहीं। नट ही पूरे नहीं।
राजा: हमें दबाना चाहते हैं वे लोग। जानते हैं कि होता पुरोहितों की पाँत मनोरंजन की भूखी है।
[लंबी चुप्पी। परावसु भी चुप है। अन्य पुरोहित परावसु की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहे हैं।]
सभासद: कर्तानट का कहना है कि आपके लिए भाई ने एक विशेष संवाद भेजा है। यदि अनुमति दें, वह संवाद को दुहरा देगा-ज्यों का त्यों। आपके भाई ने उसे शब्द-शब्द सिखाया है। जो भी उसे कहना है। ज्यों का त्यों।
परावसु: क्या संवाद ?
राजा: (चिंतित)...देखिए, सभी लोग सुनेंगे-शब्द-शब्द।
परावसु: क्यों नहीं ? सुनें तो क्या है ?
सभासद: (कर्तानाट को पुकारता हुआ) तुम्हें कुछ जोड़ना भी हो...तो जोड़ लो।
कर्तानट: एक भाई को एक भाई का संदेश-मेरे प्यारे अग्रज ! आपने कभी कहा था मुझको, कि भरतमुनि के पुत्र आदि में अभिनेता हुआ करते थे। इसी धंधे के कारण उन्हें अपनी जाति से गिरना पड़ा। अभिशाप मिला और अपयशहीनता की दशा को प्राप्त हुए। जन्मजात उच्चकुल की चिंता है तो इस कार्य को कभी छूना भी नहीं।’ और मैं मान गया था।... किंतु आज...मैं एक अपराधी हूँ ब्रह्महत्या का...मैंने अपने पिता की हत्या कर दी। कलंकित हो ही चुका हूँ मैं। अब तो मैं अभिनेता नट हो जाऊँ तो क्या है ? अब मेरा रास्ता मत रोकिए !
[लंबा अंतराल। सभी परावसु को जिज्ञासा से देखते हैं।]
राजा: परावसु ! यज्ञ की पूर्णाहुति होनेवाली है। सात वर्षों हमने यज्ञ-साधना में कोई विघ्न नहीं पड़ने दिया और तुमने हमारा मार्गदर्शन किया है। इसे सांग सरूप से पूरा हो जाने दो। इन्द्राति देवता तृप्ता हो जाएँ जल बरसने दो। बस, वर्षो हो जाए...फिर चाहे जितने-नाटक लीलाएँ माँगें वह...मुक्त अनुमति होगी। खुलकर खेलें। अभी जैसे-जैसे यज्ञ पूरा होने को है-राक्षसों की प्रेतिल-छायाएँ मँडराने लगेंगी..विघ्न बाधाएँ विकराल होने लगेंगी। तुम्हारे ही शब्द हैं।
परावसु: सम्भवतः यज्ञ की पूरी सार्थकता के लिए जोखिम आवश्यक है।
राजा: तुम्हीं ने उसे यज्ञ मंडप से भगा दिया था। तुम्हीं ने उसको दानव कहा था।
परावसु: सम्भवतः दानवों को यज्ञभूमि से दूर रखना सम्भव नहीं। इस नित्य सम्बन्ध को हम तोड़ नहीं सकते। होने दें-नाट्य। हम सभी देखें-लीला।
[सभासद सिर हिलाकर हाँ कहता है। वह कर्तानट की ओर भागता है, जो उत्साह में सिर हिलाता है। मंच पर अँधेरा होता है। नटों की एक मंडली, तीन पुरुष दो-एक स्त्रियाँ कुछ पोशाकों की पोटलियाँ, आभूषण और मंच सामग्री सँभाले आती हैं और समवेत होकर तैयार होती हैं। इन्हीं पुरुषों में से अरवसु भी एक है। अरवसु राक्षस का मुखौटा निकालना है। राजा, परावसु पुरोहित आदि और उनके पीछे नगराजन सभी मेला देखने के लिए एकत्र होते हैं। कर्तानट नांदिगान आरंभ करता है। मंच पर अँधेरा होने लगता है। साथ-साथ प्रकाश अरवसु पर केन्द्रित होता है। लगभग अट्ठारह वर्ष का। उसके जनेऊ नहीं है।
अरवसु: नित्तिलाई ! सुनती हो। भैय्या मान गया। वह भी होगा-वहां लीला देखने को। लेकिन तुम कहाँ हो ? तुम यहाँ क्यों नहीं ? नित्तिलाई ! नित्तिलाई ! मैं नाटक में अभिनय करुँगा नित्तिलाई !....आशा है, तुम भी देखोगी। मान जाओ-मान भी जाओ....अवश्य देखना। इतने वर्षों की साध पूरी होने को है। नाटक-लीला होने ही वाली है। लेकिन तुम जानती हो-भैय्या भी जानता है-मैं भी जानता हूँ-यह वास्तविक नाटक नहीं। यह कथा है-गल्पगाथा-मिथक पुरणों से...। वास्तविक नाटक तो कहीं और ही से आरंभ हुआ था-एक महीने पहले। मेरा और तुम्हारा ब्याह होना था। नवजीवन का आरंभ था। जब मुझे तुम्हारे आदिवासी बड़े-बूढ़ों से मिलना था। नित्तिलाई !
[नित्तिलाई ! एक चौदह वर्षीया लड़की। अरवसु के पास आकर बैठती है। दोनों एक-दूसरे पर रीझे हैं, पर प्रायः एक-दूसरे को छूते नहीं-सिवा तब, जहाँ विशेष निर्देश लिखे हों।]
नित्तलाई: क्या है ? वही रटंत लगाए रहोगे। आपसे कहा नहीं था-इत्ते सोच-विचार की बात ही क्या है ? बड़े-बूढ़े बड़-पीपल के नीचे चौरे पर बैठकी लगाएँगे...आपसे जो कुछ पूछेंगे-बता देना....आप...
अरवसु: कल एक पलक भर नहीं झपकी-सारी रात...। तुम्हारे बड़के सगे-सम्बन्धियों के विचार आते रहे और मैं ठेंडे पसीने के पानी में गोते खाता रहा....
नित्तिलाई: काहे को घबराये हैं आप ? इत्ते बरसों से जानते तो हैं सभी को...नहीं ? और लड़के जवान नहीं होते ? उनको ये सब नहीं करना पड़ता जैसे। अपने पर भरोसा रखिए और बोल दीजिए...कि...
अरवसु: हाँ, पता है, इतना भर कहना है-मैं उसे अपनी घरवाली बनाऊँगा। मैं पुंसत्वधारी हूँ। मैं इस स्त्री को हर तरह से तृप्त कर सकता हूँ।....
नित्तिलाई: (शरमाकर) हाँ, कुछ ऐसा ही कहते हैं।
अरवसु : सभी के सामने ? भरी सभा में ?
नित्तिलाई : बिलकुल ! और नहीं अकेले में ? फुसफुसाने से क्या होगा ?
(हँसती है) सोचो नहीं-इतने में क्या है ? कुछ नहीं।
अरवसु : कुछ नहीं। हाँ। तुम्हारे जंगली जवानों के लिए कुछ नहीं। मैं ब्राह्मण बच्चा हूँ। मंत्रघोष और यज्ञ के धुएँ के पीछे छिपने के बजाय और सांकेतिक गूढ़ भाषा में बात कहने की बजाय दस लोगों से यूँ खुल्ला बोलना...बाबा रे...डर लगता है...वहाँ बहुत सारे जने तो नहीं होंगे न...कितने जने...
नित्तिलाई : पूरा गाँव होगा-सारे होंगे-लो।....
अरवसु: हम यहाँ से भाग नहीं सकते ?
नित्तिलाई : जब दूल्ला ब्राह्मण हो तो पास-पड़ोस के गाँव वाले भी आएँगे।
अरवसु : हे भगवान : ये बड़े बूढ़े कठोर तो नहीं होते न ?
नित्तिलाई : बिलकुल नहीं ! हाँ, नौजवान कठिन हो सकते हैं।
अरवसु: कौन-से नौजवान ?
नित्तिलाई: तुम्हारे संगी-साथी-मेरे भाई-भतीजे-सभा में आए और भी सजीले-सब मस्ती में होते हैं। यही तो मौके होते हैं, मनमानी का रंग होता है सब कहीं...
अरवसु: मैं नहीं आता फिर।
नित्तिलाई: दैया ! कोई भूत-पिशाच सुन ही लेवे ? पगलपना नहीं अरवसु ! बापू जवानों से कह दिया है - होश में रहें। उन्हें तुम अच्छे लगते हो। जाने क्यों किस कारण ? अकाल पड़ा है- सो वैसे भी मरद कम ही बचे हैं। औरतें होंगी सभी । झुंड की झुंड .....

अरवसु : तुम्हारी औरतें ? बाप रे!... वो तो चबा ही डालेंगी मुझे - ताम्बूल की तरह...!

नित्तिलाई : दस्तूरी हक है यह तो उनका । चलो चलो, बड़ी डींगें हाँका करते थे कि अगर तुम्हें कहीं औसर मिल जाए, तो बड़े-बड़ों को, हजारों-हजार को अपनी बतकही से छका सकते हो। तो लो... छकाओ अब उनको!

अरवसु : वो तो मैं नाटक की बात कर रहा था, लीला करने की बात, लेकिन यह तो वास्तववाली बात है। यहाँ तो मैं - मैं ही रहूँगा...

नित्तिलाई : सो तो है।

नित्तिलाई : अच्छा, बताओ, तुम्हारी अपने लोगों से इस विषय में दो-चार हुई कि नहीं ? [चुप्पी] बताया उनको ? नहीं न! ...क्यों ? लाज आती है कि निषाद कन्या से ब्याह कर रहे हो ।

अरवसु : नहीं... लजाने की क्या बात है! यह लो, मैं अभी दिखाए देता हूँ!
[ अरवसु नित्तिलाई का हाथ पकड़कर अपने निकट खींच लेता है।]

नित्तिलाई : छोड़ो-छोड़ो, जाने भी दो मुझको ! यह क्या करने लगे ?

अरवसु : क्यों ? क्या मुझे अधिकार नहीं कि मैं तुम्हें... ?

नित्तिलाई : नहीं...ब्याह के पहले... बिलकुल.... कुछ भी नहीं। उसके पहले लड़की अपने होनेवाले मरद को छुए भी तो गलत होता है। हमारे यहाँ ऐसी ही मानता चली आई है ... हाँ, तो....!

अरवसु : वाह री...मेरी अम्माँ कहीं की! अरे मैं तो तेरे वास्ते अपनी जाति, अपने सगों को छोड़ रहा हूँ... अपना पूरा अतीत और परम्परा को किनारे कर रहा हूँ... और एक तू है कि मेरे लिए एक अपनी छोटी-सी रीत से चिपककर बैठी है!

नित्तिलाई : जब रीत ही इतनी अच्छी हो तो...समझदारी की बात है। इसमें मानने लायक है, तभी तो ।

अरवसु : आज तक मैंने तुम्हें क्यों नहीं छुआ ? क्योंकि ब्राह्मण निषाद जाति के लोगों को नहीं छुआ करते... और अब तुम मुझे क्यों नहीं छू सकतीं, क्योंकि तुम्हारी जाति की लड़कियाँ अपने मँगेतर को नहीं छू सकतीं... तो अब इस बात का भी कैसे भरोसा हो कि हमारा ब्याह हो जाने के बाद भी ऐसे ही न छू सकनेवाली कोई न कोई रीत हमारे और तुम्हारे बीच में बाधा नहीं बन जाएगी ?
[नित्तिलाई उसे रोकती है और एक ओर को इशारा करती है। दोनों यवक्री के पिता की कुटिया से थोड़े ही दूर पर हैं। एक अंधा आदमी, जिसका नाम अंधक है, द्वार पर बैठा है। अरवसु सिर हिलाता है और नितिलाई को चुप रहकर देखने का इशारा करता है। अरवसु कुटिया की तरफ चल पड़ता है। वह घूम-घुमावदार ढंग से जाता है-अपनी चाल को छिपा हुआ।]

अन्हरा बाबा : अरे, कौन ?... अरवसु है क्या ?
[नित्तिलाई हँसती हुई दोहरी हो जाती है। अरवसु ऊपर उछलकर बैठ जाता है-निराशा के मारे। अपनी असफलता पर वह क्षुब्ध है । ]

अरवसु : कौन कहेगा कान इसको आँख ही आँख भरी हैं तेरे कानों में बाबा रे बाबा!

नित्तिलाई : (अंधे बाबा से) बाबा, ये इस तरह दुबके चल रहे थे कि आप समझ सकें, कौन है। आपको छकाने के लिए।

अन्हरा बाबा : मुझे सभी छकाने का जतन करते हैं और हर बार मैं ही छका देता हूँ। तुम आँखवाले जैसे नाक, कान, चेहरे से पहचानते हो, वैसे ही मैं पाँव की आहट से आदमी पहचान लेता हूँ।

अरवसु : बूढ़े बाबा, कभी न कभी आपको भी छकाऊँगा । देख लेना।

अन्हरा बाबा : ऊपरवाला तेरे मन की भी पूरी करे। लेकिन बच्चे, तुम दोनों ने अभी तो मेरा मन हरा कर दिया। कानों को ऐसी मीठी-मीठी खबर सुनने को मिली है ... गुड़ की डली हो जैसी ।

अरवसु : बात आप तक पहुँच गई पहले ही ?

नित्तिलाई : हम चाहते थे, आपको अचानक बताएँगे तो.....

अन्हरा बाबा : देखो, तुम दोनों बड़े निडर हो, साहसी हो । सुनो, समाजवालों को ये पसंद नहीं होता। तुम इतने वर्षों से साथ-साथ घूमे, फिरे, खेले- कूदे। मुझे चिन्ता है अब दुनिया तुम्हें अलग-अलग न कर दे।

नित्तिलाई : बाबा, देखो न, अभी तक इन्होंने केवल मेरे घरवालों से बात की है। अपने घरवालों को बताया भी नहीं ।

अन्हरा बाबा : अरे उसकी हालियत तो तुम्हें समझनी चाहिए कि नहीं ? मधुमक्खियों को छेड़ोगे तो मधु कैसे निकालोगे ?

अरवसु : ये जो अकाल पड़ा है, इस संकट का एक लाभ तो है ही।

नित्तिलाई : ऐसा नहीं कहते। ये भी कोई अच्छी बात है!

अरवसु : हाँ, समझता हूँ-फिर भी अकाल पड़ा। अकाल के मारे मेरे सम्बन्धी और परिवारवाले नगरों की ओर भाग निकले। वे अपनी बेटियों के ब्याह इस क्षेत्र से कहीं बाहर ही करना चाहते हैं। इसलिए अब उन्हें इस बात की कोई चिन्ता नहीं- मैं किसे ब्याहता हूँ।

अन्हरा बाबा : (स्वर कठिन नहीं है) हाँ, लोग यह तो जानते हैं कि तुम बहुत चतुर भी नहीं हो, इसलिए तुम कोई ऐसे वर तो हो नहीं जिसके पीछे लड़कियों वाले पाँत लगाए खड़े हों।
[ अरवसु मुँह बिचकाता है। नित्तिलाई चुपचाप - सी खिलखिलाती है।]

अरवसु : मैं तुमसे सच कहता हूँ। मैं बहुत डरा हुआ था। भयानक कष्ट में था। मुझे डर था कि लोग क्या कहेंगे। मैं डर से सचमुच काँप रहा था।

नित्तिलाई : इसीलिए तो मैं खुद आई हूँ आज कि कहीं तू भाग न जाए।

अन्हरा बाबा : तू अपने भाई को भेज सकती थी।

नित्तिलाई : मेरे भाई को इनके आश्रम नहीं सुहाते ।

अरवसु : ऐसा है कि अभी उसी दिन मैं बैठा-बैठा सोच रहा था ( अंधक को सुनाने के लिए जोर से) यानी सोचने का बड़ा जतन कर रहा था कि अचानक मेरी बुद्धि ने मुझसे कहा - कितना बुद्धू है तू! मैं अपने पिता और चाचा जैसा विद्वान तो कभी हो ही नहीं सकूँगा । सम्राट के राजकीय यज्ञ-संचालन का मान भी कहीं नहीं मिलेगा मुझे, जैसे भैया परवसु को मिला और अपने चचेरे भाई यवक्री के जैसी तप- साधना भी नहीं कर पाऊँगा, मैंने समझ लिया। मैं तो सिर्फ नाचना चाहता हूँ, गाना चाहता हूँ और अभिनय करना चाहता हूँ। इसके अतिरिक्त नित्तिलाई का साथ चाहिए मुझे जीवन में और मेरे पिता को कोई चिन्ता नहीं इस बात की कि मैं जीता हूँ कि मर गया । उनकी दृष्टि में मेरा मोल गोबर के उपले बराबर भी नहीं और मेरी भाभी तो... वो अपने ही संसार में उलझी डूबती-उतराती रहती है। अब बचा कौन! ले-देकर मेरे भाई....सो वो.....

अन्हरा बाबा : बड़ा ही कठोर व्यक्ति है वह ।

अरवसु : कठोर ! नहीं, मेरे साथ तो नहीं। मेरे लिए तो वही मेरी माँ, वही मेरे पिता-बंधु, धात्री और गुरु- सखा । सब कुछ अकेले वही हैं मेरे लिए । माँ ने मुझे जनम भी दिया और मर गई। पिता ने आँख भर देखा नहीं । कभी भैय्या परवसु ने मुझे कंचे खेलना सिखाया बालापन में । बाँस काटकर बंसी की पहली धुन मैंने उन्हीं से सीखी। मेरा तो सब कुछ उन्हीं का दिया है।

अन्हरा बाबा : तो अब जो कहीं वो मना कर दे तो तू क्या करेगा ?

अरवसु : कह दूँगा मैं उनको कि मैं नित्तिलाई को नहीं छोड़ सकता । वही मेरा जीवन है। मैं उसके बिना नहीं रह सकता।

अन्हरा बाबा : सुन्दर-सुन्दर ...हाँ, मरम छूनेवाले शब्द हैं तुम्हारे ।
[नित्तिलाई खुशी से हँसती है । ]

अरवसु : मैंने अभी तक उनसे कहा नहीं है। क्योंकि सम्राट के महायज्ञ का समापन होने ही को है। भैय्या उसके प्रधान होता पुरोहित हैं- अध्वर्यु- इस समय उन्हें किसी भी चिन्ता में डालना अनुचित होगा।
[नितिलाई हामी में सिर हिलाती है।]

अन्हरा बाबा : आज दोपहर तुम नित्तिलाई के कुटुंब-कबीलेवालों से, बड़ों से मिलोगे और यह बात परावसु को कोई न कोई बता ही देगा।

अरवसु : मुझे क्या पता था कि इसके पिता ऐसे अचानक पंचायत बुला लेंगे। मुझसे पूछा उन्होंने ।

नित्तिलाई : हाँ, तो मेरे ही पिताजी का कसूर हुआ न! आप क्या जानें कि पिताजी ने पंचायत जल्दी-जल्दी क्यों बुलाई। पिताजी शुरू से ही कहते रहते हैं कि ऊँची जातिवाले मरद को हमारी औरतों के संग सोना तो अच्छा लगता है, किन्तु ब्याहने में जाति आ जाती है बीच में।

अरवसु : ठीक है, अब मैं तुमसे ब्याह करूँगा, फिर तो तू मेरे साथ.....

नित्तिलाई : (जोर से) चुssप!
[ सब जोर से हँसते हैं ।]

अन्हरा बाबा : तुम्हारा चचेरा यवक्री बहुत प्रसन्न होगा।

अरवसु : वो हैं यहाँ ?

अन्हरा बाबा : ओ...हाँ, याद आया, उसने कहा था कि वो तुम्हारी ही कुटिया की तरफ जा रहा है।

अरवसु : उसने संदेशा दिया था कि मैं उससे वहीं मिलूँ, लेकिन एक बात - दस बरस हुए उसे मिले। वो पहचानेगा कैसे ?

नित्तिलाई : अच्छा होता, तुम यहीं उससे बतिया लेते और बस, हम यहीं से निकल जाते अपनी बस्ती को ।

अन्हरा बाबा : यवक्री को यहाँ चैन ही नहीं मिलता। मिलनेवालों का ताँता लगा रहता है- सवेरे से संझा तक- बेरोक | पढ़े-लिखे शास्त्री लोग ऋषि- मुनि - पंडित - ज्ञानी उसकी तपस्या की एक-एक बात पूछेंगे। कौन- कौन से मंत्र पढ़े, क्या-क्या जाप किया, क्या-क्या बातें हुईं ईश्वर से, इन्द्र देवता ने क्या कहा ? आदि आदि ।

अरवसु : (नित्तिलाई से) समझे तुम ? कोई छोटी बात नहीं है ये। अब इसकी हँसी उड़ाना फिर ।

अन्हरा बाबा : नित्तिलाई हँसी उड़ा रही थी इसकी ? क्या कह रही थी - कहो तो !
[नित्तिलाई अरवसु को घूरती है, जैसे कहना चाह रही हो कि किया न तुमने फिर से वही ! अंधक और भी उतावला जाता है।]

अन्हरा बाबा : बोलो मेरी बच्ची, क्या हँसी उड़ाई तुमने ?

नित्तिलाई : नहीं तो-

अन्हरा : तो फिर ?

नित्तिलाई : मैंने इतना ही तो पूछा था- जंगल में दस साल क्यों लगा दिए यवक्री ने ?

अन्हरा बाबा : ईश्वर को ढूँढ़ रहा था। भगवान से ही सकल ज्ञान लेना था ब्रह्मज्ञान- । और फिर मनुष्य को देवता ऐसे ही थोड़े मिल जाते हैं! तप करना होता है। उपवास, ध्यान। दस-दस बरस की कठोर तपस्या

नित्तिलाई : हाँ-हाँ, वो सब जानती तो हूँ।

अन्हरा बाबा : फिर भी इन्द्रदेव का मन तरल न हुआ। अन्त में यवक्री धधकती ज्वाला के गोले के बीच खड़ा हो गया। एक-एक करके अपने अंग-प्रत्यंग काट-काट चढ़ाने लगा ज्वाला में पहले उसने अपनी अँगुलियाँ चढ़ा दीं फिर चढ़ा दीं अपनी आँखें अपनी आँतें निकाल चढ़ा दीं उसने जीभ काट समर्पित कर दी और अन्त में जब अपना हृदयपिंड निकाल होम करने को तत्पर था वह, तभी प्रगट हुए इन्द्र देवता - आतुर और प्रसन्न । अंग-प्रत्यंग फिर से जोड़ दिए उसके और मुँहमाँगा वरदान दिया।

नित्तिलाई : (सरलता से बिना किसी आक्षेप के) बाबा! ये सब क्या उसी ने तुमको बतलाया ?

अरवसु : मूरख कहीं की ! अरे कोई भी महापुरुष अपने विषय में ऐसी बात अपने-आप करता है भला !

नित्तिलाई : फिर सब कोई जानेंगे कैसे कि क्या हुआ ? देखनेवाली आँखों से कोस-कोस दूर घने जंगल में!

अन्हरा बाबा : इस धरती का लगभग हर ब्राह्मण ब्रह्मज्ञान अवश्य प्राप्त करना चाहता है। पर सफलता किसी-किसी को मिलती है। सुनो, अरवसु, मैंने जीवन भर में अब तक केवल दो जनों को जाना जिन्हें ऐसा ब्रह्मतेज मिला- तुम्हारे चाचा और तुम्हारे पिता । किन्तु ज्ञान उन्हें गुरुओं ने ही दिया। मानव देहधारी गुरुओं ने! हाँ, एक यवक्री है जो उनसे भी आगे निकल गया। उसको ज्ञान मिला- साक्षात देवताओं से। तुम्हारे चाचा निश्चिन्त थे कि वो असफल होगा। उन्होंने बालक यवक्री को ऐसा व्रत ठानने से रोका भी बहुत । तब मैं उनको समझाया था - 'स्वामी, जाने दो उसको जंगल। आप अपने बेटे को नहीं जानते, जितना मैं जानता हूँ। मैंने उसको अपनी गोद खिलाया है। अरे वो जो भी जतन करेगा, उसी में उसको सफलता मिलेगी।' बस, मेरे मुँह से निकल गई सो निकल गई। मेरे स्वामी ने मेरी बात कान धरी होती तो जीवन न गँवाया होता। बड़ा दुखी मन लेकर गए वो संसार से ।
[चुप्पी]
मैं प्रतीक्षा करता रहा यहीं का यहीं दस बरस इस कुटिया की देखभाल करता रहा... पहरा देता रहा। मेरा यवक्री घर लौटेगा - बाट अगोरता रहा। अब वो लौटा है-जीतकर सारा संसार उसके चरणों पर है।

नित्तिलाई : मुझे कोई इतना बता दे कि ईश्वर संबंधी बातों को ये लोग इतनी गुपचुप क्यों रखते हैं-भेद बनाकर ?

अरवसु : हे भगवान! लो, ये आ गई न फिर अपने तेवर में कौन तरक करेगा इससे !
[कुछ दूर टहल जाता है। एक जगह रुककर ध्यानमग्न]

नित्तिलाई : अब देखो, जितने भी होम, यज्ञ, वेदिकाएँ होती हैं - सब की - सब बंद मंडपों में होती हैं; या वे अपने ही को गहरे जंगलों के अँधेरे में गोड़े होते हैं बरसों बरस उनके देवता भी प्रगट होते हैं तो इतने चुपके-चुपके क्यों भला ? डरते किनसे हैं वे ? मेरे कुटुम्ब कबीलेवालों को देखो, जो कुछ होता है, सब खुल्लम-खुल्ला चौड़े में। हमारे पुरोहित पुकारकर सुनाते हैं कि वो फलाने देवता को फलाने दिन, फलाने समय बुलाएँगे और तब सबके सामने हमारे पुरोहित पर देवता छा जाते हैं और हमारे सवालों का जवाब देते हैं। सबको साफ लगता है कि देखो, देवता यूँ आया और यूँ गया। तुम्हें साफ लगता है-ये रहा वो, ये रहा वो कोई बतकही नहीं ।

अन्हरा बाबा : सँभल के बिटिया, सँभल के ! सावधान, इनके पुरोहित जिन देवताओं को बुलाते हैं न, वो तुम्हारे देवताओं से बहुत अलग होते हैं।

नित्तिलाई : मैं इतना ही तो कह रही हूँ कि इन्द्रदेवता ने यवक्री को दर्शन दिए । इन्द्र पानी का देवता है तो यवक्री इन्द्रदेवता से ये कह क्यों नहीं देता कि थोड़ी-सी अच्छी-सी बरखा कर दो- अकाल पड़ा है ? थोड़े मेघ बरसा दो। आप जाकर हमारा गाँव देखो, उसके चारों ओर का हाल देखो। पपड़ियाँ पड़ी हैं। दरक गई है धरती । हर दिन सुबह-सवेरे मेरे बाबा के द्वारे लोग जमा होते हैं मुट्ठी मुट्ठी भर दाने को, जो बाबा न सूखी हथेलियों में डालता है। औरतों की हथेलियाँ, जिनके सीने से भूखे बच्चे चिपके होते हैं-सूखे कंकाल से बच्चे ! कमान की तरह झुके हुए खोंखियाते बूढ़े बूढ़ियाँ! एक भी जवान जैसे बचा ही नहीं हो ! सब-के-सब नदारद हो गए जाने कहाँ! बाबा कहता है - इस धरती को चाहिए एक-दो झड़ी पानी मूसलाधार और तब धरती हरियाएगी। देवता से इतना भर माँगना भी बहुत बड़ी बात है क्या ?

अन्हरा बाबा : (अर्द्ध- सम्मति में) बड़ों का कहना है कि तप की ऐसी शक्तियों का प्रयोग दैनिक समस्याओं के लिए नहीं करना चाहिए।

नित्तिलाई : फिर ऐसी शक्तियों का फायदा ही क्या !

अन्हरा बाबा : यवक्री से पूछ लेना - मिलोगी तो सही ।

नित्तिलाई : वो तो मुझे देखेगा भी नहीं ।

अन्हरा बाबा : क्या कहती है ? बहुत भला मानस है वो ।

नित्तिलाई : दो ही बातें पूछनी हैं उससे क्या वो मेघ बरसा सकता है ? दूसरी बात क्या वो यह जानता है कि वह कब मरेगा ? बस, यही दो बातें। ज्ञानी होने का फायदा ही क्या, यदि मरते बच्चों को न बचा सको या अपनी मृत्यु का समय भी न जान सको !

अरवसु : (दूर ही से) बता सकते हो, कौन सा जानवर है ये ?

नित्तिलाई : ये देखो... इसे कुछ सूझता ही नहीं।
[ अपनी आँख मींचकर सुनने का प्रयास करती है।]

नित्तिलाई : अच्छी बात है - तैयार हूँ।
[अरवसु तेजी से आता है। जंगली जानवर का नाट्य करता हुआ।]

अन्हरा बाबा : (सुनने की कोशिश करता है) जंगली घोड़ा- हाँ...नहीं ? अच्छा,

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