अगनहिंडोला (उपन्यास) : उषा किरण खान
Aganhindola (Hindi Story) : Usha Kiran Khan
(अगनहिंडोला सामाजिक सरोकारों की कहानियाँ लिखनेवाली लेखिका उषाकिरण खान ने साहित्येतिहास के गलियारे में लगातार झाँकने की कोशिश की है। शेरशाह उसी की एक कड़ी है। ‘अगनहिंडोला’ उपन्यास शेरशाह की जीवनी है। दिल्ली के तख्त पर सिर्फ पाँच साल काबिज होने वाले सुलतान ने जितने प्रशासनिक एवं लोकहित के कार्य किये कोई दूसरा सालोंसाल हुकूमत करके भी नहीं कर सकता। उसी रूखे-सूखे शहंशाह की जाती जिन्दगी के लम्हे जो बेहद तकलीफों से भरे हैं, जहाँ इनसानी जज़्बा भरा हुआ है, जिसे अपने विशदज्ञान के उपयोग न कर पाने का मलाल है, जिसके प्यार का सोता बहता है-की कथा ‘अगनहिंडोला’ में कहती हैं उषाकिरण खान।
हिन्दुस्तान की तारीख में खास जगह रखनेवाला शेरशाह बेमौके मौत के आगोश में चला गया। शेरशाह की जिश्न्दगी में ‘इश्क हकीकी’ भी है यही वजह है कि मलिक मुहम्मद जायसी सरीखे कवि से इतना अधिक लगाव है। स्वयं की परिपाटी के अनुसार पारदर्शी भाषा का सौन्दर्य बरकरार रखा है लेखिका ने। उपन्यास में कहीं कठिन अबूझ प्रयोग नहीं है। यह उपन्यास आपको उषाकिरण खान के लेखन के नये अनुभव संसार में ले जायेगा।)
कांधार के रोह प्रदेश का आकाश महीनों से अपना रंग बदल रहा है। वह रंग नीला नहीं है, धूसर और भूरा है। तेज सर्द हवाओं का झोंका रह रह कर दरख्तों के वजूद को हिला रहा है। ऐसा जान पड़ता है अब बादल घिर आएँगे और बड़ी-बड़ी बूँदे गिरेंगी। सुलेमान पहाड़ की तलहटी में बसा रोह का इलाका नम होगा फिर इतना पानी पी लेगा कि मरी हुई दूब घास की जड़ें हरी हो जाएँगी। अरबी और मुल्तानी घोड़े घास चर कर ज्यादा से ज्यादा मजबूत हो जाएँगे। अंजीर औ दाखों में रस भर जाएगा, खजूर बड़े-बड़े निकलेंगे। फसलें भी बोई जा सकेंगी। पर हाय, यह सब ख्वाब ही रहा। मौसम बदलते रहे जाड़ा बीता, बसंत आया, बसंत के बाद तीखी गर्मी पड़ी गर्मी के बाद मनचीता बारिश का मौसम कहाँ आया? औरतें रोते हुए बच्चों को चुप कराने की नाकाम कोशिशें करके हार गईं। अनाज के दानों के लिए तरसते लोग धीरे-धीरे पूरब की ओर बढ़ने लगे। करने को रोह में घोड़े पालने और व्यापार के अलावे कुछ न था। लोगों के देश से निकल भागने के कारण आबादी कम रह गई थी। सूखी नंगी पथरीली पहाड़ियों पर सूखे बेजान दरख्त हवा के झोंके से टूट कर बिखर गए थे अब सुलेमान पहाड़ी जो कभी जड़ी बूटियों से भरी होती थी, जो कभी हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला का सरताज हुआ करता था वह आज वीरान है। इसी हिंदूकुश पर्वत श्रृंखला के दर्रे और उसके जंगल भाँति-भाँति के वनस्पति न्यौछावर करते, यहाँ की साफ, स्वस्थ, हवा, ऋषि-मुनियों को वेद लिखने में सहायक हुई। इसी सुलेमान पर्वत पर यती ध्यान धरते। यही वह दर्रा है जहाँ जाँबाज रुस्तम अपने हवा से भी तेज दौड़ने वाले घोड़े पर आता हुआ दीखता।
आसमान की ओर आँखें उठाकर इब्राहिम सूर ने देखा। कहीं साफ-शफ्फाक आसमान नहीं दीखता। दर्रे से दनदनाता रुस्तम और उसका हिनहिनाता घोड़ा आता नहीं दीखता। उसके अस्तबल के घोड़ों की टाप से कभी रोह प्रदेश गूँजता आज गिने-चुने रह गए हैं वे भी निहायत कमजोर। कोई सूरत नजर नहीं आती कि कैसे अपने कुनबे को पाले और कैसे घोड़ों को। सुलेमान पहाड़ का नमक सुलेमानी चाट कर न तो अस्तबल टिक सकते हैं न सूर कबीला। इब्राहिम सूर ने देखा उसका कुनबा फ्रिकमंद है। बेटा हसन जो घोड़ों से ज्यादा किताब के साथ रहना पसंद करता है, अपने कमजोर बाजुओं से तलवारबाजी की तालीम लेना शुरू कर चुका है। अभी-अभी तो हिंदोस्तान के एक शहंशाह की तरफ से बड़ी जंग जीत कर आया है। सूर कुनबा। शहंशाह ने जागीरी, अमीरी देने की पेशकश की थी पर सूर अपने घोड़ों और शमशीर के साथ बेहद खुश थे। इन्हें अंदाजा भी कहाँ था कि रस टपकाने वाली खूबसूरत वादियाँ इस कदर वीरान परेशान हो जाएँगी, आसमान से आब के बदले आग बरसने लगेगी। इब्राहिम सूर ने देखा हसन का चेहरा सूखकर छुहारी हो गया है। बीवी-बच्चे सींक हो चले हैं। एकबारगी इब्राहिम सूर अपने बचे खुचे घोड़ों पर असबाब लाद पूरब की ओर चल पड़े। रास्ता वही पुराना था। उसी रास्ते से चलकर ये हिंदोस्तान अपने मजबूत पुट्ठों और चमकदार रोयों वाले घोड़ों को लेकर जाते बदले में मुहरें पाते जिससे इनकी घुड़साल चलती, इनके बच्चे पलते। रुखड़े चमड़ों के और कते उन के वस्त्र पहन ये जीवन बसर करते। सुलेमान पर्वत के नीचे बहती गमाल नदी के पानी में घोड़ों के बच्चों के साथ किलकारियाँ भरते रोह पठान बच्चे साथ साथ ही बढ़ते। घोड़ों की खालों को खरहरे से चमकाते अपने हथियारों को जंग न लगने देते। यह गमाल नदी भी कमाल दरिया है। इसी के किनारे बड़े-बड़े जहीन आलिम हुए। दिमागी तौर पर जुबान के इस्तेमाल में अपनी शमशीर के मुकाबले जरा भी कम नहीं हुए। सब कुछ होते हुए भी जब आसमान ही रूठ जाए तो क्या किया जाय। ऐसा ही समय आता है जब आबादियाँ पूरब की ओर भागने को मजबूर हो जाती हैं।
बहलोल लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा था बढ़े सुकून से कि जौनपुर का सुलतान महमूद अपनी बड़ी सेना लेकर चढ़ आया। लोदी को ऐसे ही समय अपना रोह मुल्क याद आया। उन्होंने वहाँ के जाँबाज पठानों को याद किया। पठान भाई आए और महमूद को जौनपुर की ओर धकेल कर बहलोल लोदी के राजपाट को निश्चिंत कर दिया। इब्राहिम सूर को अब भी याद है कि शहंशाह बहलोल लोदी ने बड़े भरे दिल और रुँधे गले से उनके सरदार का शुक्रिया अदा किया था। फजिर की नमाज के बाद उनसे इल्तिजा की कि वे यहीं रुक जाएँ उन्हें उचित मान-सम्मान मिलेगा। जागीरें दी जाएँगी सरदार ने कहा था कि मैं अपने साथियों की ओर से यह कहना चाहता हूँ कि किसी लालच से यहाँ नहीं आया था, आया था तो अपने मुल्क के बाशिंदे, अपने कबीले के भाई जो हिंदोस्तान का शहंशाह था उसके बुलावे पर। फिर भी यह कहना हमारा फर्ज है कि जिन रोह पठानों का दिल यहाँ रहने का है वे रहें बाकी लौट चलें। - शहंशाह ने इक्के-दुक्के रुके हुए पठानों को जागीरें दी और जाने वालों से कहा - हम भारी दिल से आपको रुखसत करते हैं पर यह न समझना कि फिर कभी इधर आना न होगा। जब जी चाहे आना जरूर। "माईबाप, आते रहेंगे। जब कभी मजबूत पुट्ठों वाला, खूबसूरत घोड़ा तैयार होगा हम आपके हुजूर में पेश होने आएँगे।" याद रखना, शहंशाह को पके हुए दाख की खाल के रंग का मुल्तानी घोड़ा बेहद पसंद है जिसके कान सीधे खड़े हों। "हम याद रखेंगे शहंशाह।" - सरदार ने इज्जत से पास आकर उनके हाथों के बोसे लिए और चल पड़े।
इब्राहिम सूर जो सबसे सूबसूरत घोड़े तैयार करता था, बुरे दिन में भी एक शानदार अरबी घोड़े पर खरहरा करने लगा। कुछ ही दिनों के बाद घोड़े की खाल चमक कर तांबई हो गई उसके खड़े कान का ऊपरी सिरा आबनूस सा काला था। ज्यों-ज्यों उसकी चमड़ी तांबई होती जाती त्यों-त्यों कान का आबनूसी रंग चटख होता जाता। तीखी रोशनी में कभी-कभी उसके रोएँ गहरे नीले दिखाई पड़ते। उसकी चाल मस्तानी होती जा रही थी। इब्राहिम सूर ने बड़े चाव से घोड़ों के झुंड को साथ किया और सारे माल असबाब लादकर पूरब की ओर बढ़ गया। गमाल दरिया पीछे छूट गई। रावी और सतलज का किनारा आन पहुँचा। इब्राहिम सूर का अपना कुनबा और तकरीबन दस सगेवालों के कुनबों ने रावी के किनारे तंबू गाड़कर चंद दिन गुजारे। रावी के साफ-शफ्फाक पानी मे घोड़ों को नहलाया धुलाया, खरहरे किए, नौजवानों ने घोड़े फेरे, वादियों में चरने छोड़ दिया। थोड़ी ही देर में हसन सूर उस अरबी घोड़े की रास पकड़े इब्राहिम सूर के पास आ गया। वह हाँफ रहा था। उसकी पेशानी पसीने से भीगी थी। इब्राहिम सूर ने बेटे की ओर टेढ़ी नजरों से देखा। - ''क्या बात है मेरे आलिम बेटे, इस बहार ने आपको खूब दौड़ाया। यह बहार भी खासी मुसीबत है, बड़ा तेज दौड़ाता है मियाँ यह आपका काफिया नहीं है जिसे आप आराम से बैठकर झूला झूलते हुए रटते हैं।''
''अब्बा हुजुर, गुस्ताखी माफ हो, मैं बहार के दौड़ाने से थका नहीं हूँ। एक बड़ी-सी लाव-लश्कर वाले तिजारती ने मुझसे इसकी कीमत पूछी। मैंने कहा यह बिकाऊ नहीं है। उसने कहा दुनिया में हर चीज बिकाऊ होती है यह तो घोड़ा है। हम तिजारती है, खरीद-फरोख्त की बात करते हैं वरना कहीं डाकू मिल जाएँ तो छीन कर ले जाएँगे। कहकर वह हँसने लगा।''
''ओह'' - इब्राहिम सूर की पेशानी पर बल पड़ गए। दूसरे दिन सुबह होने से पहले ही चल पड़े। दिल्ली अभी भी दो रात-दिन की दूरी पर था। भीतर से सभी रोह पठान डरे हुए थे पर बाहर से सीना मजबूत किए चल रहे थे। अल्लाह मेहरबान होगा तो हम बहलोल लोदी शहंशाह के दरबार तक जरूर पहुँच जाएँगे, इसी आशा आकांक्षा के बल पर रास्ता तय करते जा रहे थे। दरियाए जमन का किनारा देखते ही इनके दिल को बेइंतिहा सुकून मिला। इन्होंने सबसे पहले तंबू गाड़ दिए औरतें और बच्चों को तंबुओं में छोड़ा और घोड़ों को दरिया में उतार दिया। जमुना के सलेटी पानी में तांबई रंगों वाले घोड़े लाल दीखने लगे, सफेद और काले घोड़े गहरे रंगों वाले जान पड़े। उतावले तो बहुत थे इब्राहिम सूर कि सीधे घोड़ा ले दरबार में जाया जाय पर पढ़े लिखे बेटे हसन सूर ने कुछ और सलाह दी।
''अब्बा हुजूर, पहले शहंशाह से मिलने का, दरबार में हाजिर होने का बुलावा तो मिल जाय फिर बहार को लेकर जाएँ। वरना रास्ते में ही सेना का कोई ओहदेदार उचक के और शहंशाह के हुजूर में पेश कर हसबाह बन जाय आप क्या करेंगे?''
''तो क्या करना चाहिए?''
''हमें कहना चाहिए कि हम रोह से आए हुए उनके सिपाही हैं उनसे मिलकर कुछ पेश करना चाहते हैं। वे जरूर बुलाएँगे। आपने कहा है कि उन्होंने 4-5 साल कबल आप लोगों को हिंदोस्तान में रह जाने की पेशकश की थी।''
''बिल्कुल ठीक कहा आपने बेटे। हमें किसी रोह पठान ओहदेदार से मिलकर शहंशाह से रू-ब-रू होने की इल्तिजा करनी चाहिए। उनके दिल मे अपने रोहरी के लिए बड़ा दर्द है।'' - पढ़े लिखे बेटे हसन की सलाहियत से इब्राहिम सूर ने शहंशाह बहलोल लोदी से मुलाकात मुकर्रर की। रोह के अपने खैरख्वाह कबीले वालों को देखकर शहंशाह उठ खड़े हुए। दोनों हाथ आगे फैलाकर उनका इस्तकबाल किया। इब्राहिम सूर ने बेहतरीन शलवार और हल्की जरीदार चोंगा पहन रखा था। बड़ा-सा पग्गड़ बाँधे था। उसकी कमर में कटार खुली थी जिसे निकाल शहंशाह के कदमों में रखा और उनके हाथ बोसा लिया।
''तुम्हारी जगह हमारे दिल में है, सीने से लग जाओ।'' - शाह लोदी ने कहा। उन्हें सीने से लगा लिया। यह सारा कार्य-व्यापार दरबार में बैठे हुए दरबारियों ने खड़े होकर देखा। ''हुजूरे आली, हमारे आका हम आपके लिए मनपसंद तोहफा लेकर आए हैं।'' गर्व से कहा इब्राहिम सूर ने। शाहों के शाह बहलोल मोदी तांबई रंग के अरबी घोड़े पर फिदा हो गया।
''वाह" - उसके मुँह से बेसाख्ता निकल गया।
'जनाब की मंशा के लायक मुल्तानी घोड़ा मैं तजवीज नहीं कर सका। यह अरबी नस्ल का घोड़ा ही सँवर सका मेरे आका" - इब्राहिम सूर ने सर झुका कर कहा। "अरे क्या बात है। यह घोड़ा तो इतना सूबसूरत है कि मैं नस्लें भूल गया। मुल्तानी नस्ल से अपनी बिरादरी की लाग-डाट है बस, वरना यह किसी से कम नहीं। शाह बहलोल लोदी ने घोड़े के घने बालों पर हाथ फेरा। रेशम से चमकते बाल गरदन से झूलते से। मुलायम कान आबनूसी रंग के।
"शहंशाह, इस तरह का घोड़ा आपके दादा हुजूर के पास था। लाल घोड़ा काले आबनूसी कानवाला। कान के ऊपरी हिस्से को छेदकर हीरा पिन्हाया हुआ। दूर से चमकता हीरा। रात को शफ्फाक ओर दिन में सतरंगा।" - मुँहलगे अमीर जुम्मानी ने कहा "जुम्मानी साहब, बजा फरमाया आपने। मैं कान न छेदूँगा। कान छेदने से उसी पर अटका रहेगा। इनसान और जानवर में इस मुआमले में कोई फरक नहीं है।"
"हुजूर की बातों में वजन है।" - अमीर जुम्मानी ने आँखें नचाई।
"खान साहेब, आप हमारे मुल्क में रह जाइए। अपने कुनबे को भी ले आइए।" - इब्राहिम सूर से शाह लोदी मुखातिब थे। ''हमारे घोड़ों का कुनबा तिजारत के लिए नहीं है। आपकी नजर के लिए है। हुजूर" - इब्राहिम सूर ने दुहरे होते हुए कहा।
बहलोल लोदी को याद आया कि कैसे एक ही बुलावे पर रोह से सारे पठान भागते हुए आए थे और इनकी दिल्ली की गद्दी बचा दी थी। इन्होंने उनसे बड़ी फराखदिली से कहा था - "हमारा यह मुल्क है नदियाँ हैं अच्छी पैदावार होती है, क्यों न आप लोग यहीं रह जाएँ।" अपने अमीरातों से कहा "मेरा हुक्म है कि रोह पठान जागीर देकर बसाए जाएँ सुख से रखे जाएँ। यदि मैं यह जानूँगा कि किसी अमीर का रोह जगीरदार भूखा नंगा होकर रह रहा है या, रोह की ओर लौट रहा है तो मुझसे बुरा कोई न होगा। याद रखें ये अफगान पठान हमारी खून के हैं।" - कुछ अफगान रुक गए थे बाकी लौट गए। आज शायद रोह में ये तकलीफ में हैं, यही कारण है कि यहाँ आकर रहना चाहते हैं। शाह बहलोल लोदी ने तत्काल जमाल खाँ सारंगखानी जो हिसार फिरोजा के अमीर थे के हवाले इब्राहिम सूर को कर दिया। अपनी ओर से मुहरों से भरी थैलियाँ दी।
जमाल खाँ ने नारनौल परगने के कुछ गाँव की जागीरदारी और चालीस घोड़े के सवार इब्राहिम सूर को दी। इब्राहिम सूर अपने बेटे हसन सूर और बहू के साथ नारनौल में रहने लगा। शहंशाह के सलाहकार आजम खाँ की सेवा में हसन सूर लग गया। पढ़ा लिखा हसन सूर कभी-कभी अपनी उक्तियों से आजम खाँ को हैरत में डाल देता। हसन सूर के अल्फाज जब आजम खाँ अपनी जुबान से शाह बहलोल लोदी को सुनाता तो तारीफ ही तारीफ होती। हसन सूर के दिन पुरसुकून थे और रातें रोशन कि तभी बेहद मिहनती, ईमानदार और संजीदा उनके अब्बा हुजूर इब्राहिम सूर गुजर गए। एक बड़ा कुनबा उन पर, उनकी कमाई पर चलता था। हसन सूर ने जब यह सुना तो अपने मालिक आजम खाँ से फुरसत चाही।
"हुजूर, अब्बा हुजूर के गुजर जाने के बाद हमारे घर की हालत अच्छी नहीं है। हम वहाँ जाकर हाल-चाल लेना चाहते हैं।" - आजम खाँ ने गौर से सुनकर कहा - "आपकी तकलीफ से हम भी फ्रिकमंद हैं हसन सूर, लेकिन आप सारा कुनबा यहाँ न ले आइएगा। हमारे पास कोई अमीरी नहीं है। जितना कुछ था उसी में से मिल-जुल कर खाते थे।" -हसन सूर से आजम खाँ की हालत छिपी नहीं थी। लेकिन यह भी सच था कि रोह के अफगान मदद करने को हर वक्त तैयार रहा करते। आजम खाँ ने शहंशाह बहलोल लोदी के सेना के मसनदे आली से हसन सूर की तारीफ करते हुए कहा कि - "यह हसन सूर बेहद जहीन, पढ़ा लिखा अफगान है। साथ ही यह अच्छा शमशीरबाज भी है। इसकी सहायता करोंगे तो मेरे ऊपर उपकार करोंगे।" मसनदे आली उमर खाँ ने हसन सूर को सरोपा और घोड़े देकर इज्जत बख्शी साथ ही जमाल खाँ से उसके वालिद का इलाका और सकर भी दिलवाए। हसन खाँ सूर की आजम खाँ ने इतनी तारीफ की थी कि वह सबकी आँखों का तारा बन गया था।
हिसार में एक रात हसन सूर की बेगम सबा जोर से चीखकर उठ बैठी। हसन पास ही सो रहा था "क्या हुआ? क्यों चिल्ला रही हो?" - नींद में खलल पड़ने के कारण नाराज होकर पूछा।
"मैंने एक अजीब सा सपना देखा है।"
"सो जाओ कल सुनेंगे तुम्हारा सपना। मैं थका हूँ।"
"मेरा ख्वाब बेहद खुशनुमा है, सुन लीजिए। नहीं तो मैं सो न सकूँगी मेरे सरताज।" - सबा ने इल्तिजा की।
"चल सुना।"
"मैंने देखा मैं हरी हरी वादियों के बीच किसी ऊँची पहाड़ी पर बैठी हूँ। ठंडी हवा चल रही है। मेरे घने बाल मेरे दुपट्टे के बीच से निकलकर पेशानी पर फैल गए हैं, मेरी आँखें झिप रही हैं।"
"ओफ्फोह, मैं खो रहा हूँ अब कुछ और कहना है क्या?"
"कहना है मेरे आका, मेरी झिपती हुई आँखों में एक रोशनी भर गई।
मैंने भक्क से खोलकर देखा - क्या देखा जानते है?"
"देखा तुमने मैं कैसे जानूँगा? पहेलियाँ बुझाने का वक्त है यह?"
"मैंने देखा आसमान से सूरज उतर आया है मेरी गोद में, मेरी आँखें चौंधिया गईं - तभी अपना बहार घोड़ा दौड़ता हुआ मेरे करीब आया। वह जोर से हिनहिनाया। मैंने देखा वह सूरज एक बच्चे में तब्दील हो गया।" - हसन सूर उठकर बैठ गया। अपनी बेगम को थोड़ी देर देखता रहा फिर उठा, दीवार पर टँगे अपने कोड़े को उतार लाया और गिनकर तीन कोड़े मारे उसके बदन पर। सबा चीख उठी "मेरा क्या कुसूर मेरे आका?" - वह हिलक कर रो उठी। हसन सूर पास आकर बैठ गए। सबा के गोरे गोल मुखड़े पर सचमुच दर्द की चिलक थी। बड़ी-बड़ी नीली आँखों से आँसुओं का सैलाब उमड़ रहा था। जुल्फें पेशानी से चिपकी हुई थीं। हसन सूर ने अपनी तलहथी में सारे मोती मानो चुन लिए जो बेकार जाया हो रहे थे। वे प्यार से बेगम को पुचकार रहे थे। बेगम सबा हैरत से देख रही थी। "तुम्हें मालूम है कि हमने ऐसी हरकत क्यों की?" - सबा ने ना में सर हिलाया।
"वो इसलिए मेरी शरीकेहयात कि तुमने जो सपना देखा है वह बड़ा मानी रखता है। नजूमियों ने कहा है कि जब कोई हामिला औरत ऐसा सपना देखती है तो मतलब यह होता है कि कोई तख्तो-ताजदार आने वाला है। कहते है कि इतना हसीन ख्वाब देखकर सोना नहीं चाहिए। आप कहीं सो न जाएँ सो मैंने कोड़े मार कर आपको तकलीफ दी। मुआफ कीजिएगा।" - हसन सूर ने सबा को अपने सीने से लगा लिया। बाँहों में भरकर उन्हें चूमते हुए पूछा - "बेगम आप हामिला तो हैं न? कि वह नेक काम भी आज की रात के लिए मैंने छोड़ रखा था?" हसन सूर का मुस्कुराता हुआ चेहरा चमकती हुई नजरें और ललस भरे ओठ को बरजने की ताव न थी सबा में। उसने अपने आपको बिल्कुल शौहर के हवाले कर दिया। हसन सूर ने एक-एक कर कपड़े उतारे और कोड़े से उधड़ी चमड़ी पर ओठ रख दिए। "मुझे मुआफ करना बेगम" - हसन बेगम के इश्किया पेचोखम में गर्क हुए जाते थे। आह, कोड़े ने चाँद पर अपना कहर न बरपाया। सच गदबदे बदन पर मानो दो चाँद उग आया हो। कभी हसन सूर ने गौर कहाँ फरमाया। आज की पूरी रात मानो शहद भीगी थी जिसे बूँद बूँद पी रहे थे, साकी बनी सबा जाने कब अपन दर्द भूल प्यार की पींगे भरने लगीं। रात गुजर गई, आँखों-आँखों में, ओठों-ओठों में जिस्मानी और रूहानी पुरसुकून रात बीत गई। बेगम सबा की खूबसूरती दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती गई, उसकी सेवा के लिए मुन्नी बाई नाम की दासी रखी गई। मुन्नी बाई सबा बेगम की दिल से देखभाल करती, उसे अपने गँवार लतीफों से खूब हँसाती। समय पर उन्होंने एक खूबसूरत गदबदे बेटे को जनम दिया। उसकी नीली-नीली आँखें अपनी अम्माँ सबा बेगम जैसी थीं, काले-काले घुँघराले बाल भी अम्माँ जैसे थे पर लंबे-लंबे हाथ पैर अब्बा सरीखे। जनम के समय भारी आवाज में जो रोया तो पूरी हवेली गूँज गई। हसन सूर उसे देखने को उतवाले हो उठे। मुन्नी बाई ने जब उनकी गोद में फरीद को दिया तब उनके शरीर में झुर सी उठी। उन्हें ऐसा लगा मानो वे सुलेमान पहाड़ के नीचे खड़े हैं। गमाल नदी के शफ्फाक पानी को छूकर आती हवा उनके पोर-पोर सहला रही है। हिंदोस्तान की धरती पर यह पहली पीढ़ी का जनम हुआ है। यह हिंदी है, हिंदी अफगान या अफगानी हिंदी। इसके हाथ पैर मजबूत होंगे। यह बढ़िया लड़ाका होगा। इसकी हथेलियों की रेखाएँ गहरी हैं यह जहीन होगा। इसकी जुल्फें और आँखें कशिश से भरी हैं यह दिलदार होगा। मेरा यह बेटा जिसने मुझे आज बाप बनने की इज्जत बख्शी है जरूर कुछ खास होगा। इसकी अम्माँ ने सपना जो देखा था कि गोद में आफताब उतर आया है। शायद इसी की आमद होने वाली थी कि हम गमाल दरिया के किनारे से उठकर दरियाए गंगजमन के मुल्क में आ गए। हमारे हमवतन हमदम तो सालों से यहाँ थे। हसन सूर ने बच्चे को मुन्नी बाई की गोद में डाला और अल्लाह का शुक्रिया अदा करने लगे। जाने क्यों इस बच्चे को गोद में लेते ही उन्हें ऐसा लगा मानो वे सातवें आसमान पर हैं। अपने खानदान पर हमेशा अल्लाहताला की इनायत याद आई। हजरत मुहम्मद साहब सल्लाहल्लाहु अलैही वसल्लम ने इनके पुरखे को चुना था मक्का छड़ी ले जाने को। यह सब यूँ ही तो नहीं हुआ होगा? शायद उसी पाक परदिगार ने हमारे इस बेटे को फिर से कोई बड़ा काम करने के लिए चुना हो। पर कैसे? हसन सूर ने सोचा - हम तो कुछ भी नहीं हैं। चंद गाँव की जागीर और चंद घुड़सवार। फिर उन्हें अपनी ही सोच पर हँसी आ गई, क्या यह कोई छुपी हुई बात है कि अल्लाह की मर्जी... वो चाहे तो जर्रा आफताब हो जाता है, अंधा आँखों वाला हो जाता है और लंगड़ा सुलेमान पहाड़ी तो क्या हिंदूकुश का हर दर्रा पार कर जाता है। हमारे खानदान के पास पाक हजरत की दी गई पदवी 'कैसे तो है' वही जिसने छड़ी मक्का पहुँचाई।
हिसार की वादियों हरियाली से भरी हुई थीं। बरसात शुरू होने वाली थी, छिटपुट फुहारें पड़ने लगी थीं तभी हसन सूर की मसरूफियतें बढ़ने लगी थीं। जमाल खाँ ने इन्हें कई छोटी बड़ी जिम्मेदारियाँ देने लगे थे। जिम्मेदारियाँ लगान का हिसाब किताब और बही खाता सही करने की अधिक थी। समय पर लगाकर उड़ने लगा था। नए जन्मे बच्चे का नाम छोटे-मोटे जलसे में रख दिया गया। जिस पाक फकीर ने बच्चे का नाम फरीद रखा उसने उसकी पेशानी छू कर कहा कि यह जिंदगी भर पहाड़ों, तराइयों और जंगलों की खाक छानता रहेगा, घोड़ों और लाव-लश्करों के बीच इसकी सुबह और शाम होगी। कुछ ज्यादा पोशीदा वाक्यात भी जिंदगी के रू-ब-रू होंगे जिसे आहिस्ता-आहिस्ता मुकद्दर अंजाम तक पहुँचाएगी।
मियाँ हसन सूर जमाल खाँ के बुलावे पर जौनपुर जाने पर आमादा थे उन्होंने उन उलझन भरी बातों पर तवज्जो नहीं दी। हिसार छोड़ अपने कुनबे समेत जौनपुर को चल पड़े। बेगम सबा ने रास्ते में ही दूसरे बेटे निजाम को जन्म दिया। रास्ते में तंबुओं में जितना कुछ हो सकता था उतना किया जा सका। बेगम की तबियत नासाज रहने लगी। फरीद अपने नन्हे-मुन्ने छोटे भाई को मुहब्बत तो खूब करते पर दूसरे बच्चे की आमद, खराब तबीयत और धीमे-धीमे ही सही सफर पर रहने की वजह से सबा बेगम बच्चे पर नजर नहीं रख पाती। अब्बा हुजूर भी गोद में लेकर नहीं घुमाते। रास्ते में रेवड़ियाँ बिक रही थीं जिसे खरीदने के लिए फरीद पैसे माँग रहे थे और आँसू बहाकर रो रहे थे। खेलने के चक्कर में उनके हाथ पैर धूल से अटे पड़े थे। घुँघराले बाल पेशानी के पसीने से चिपके थे, गोल गोल गाल पर आँसू की लकीरें थीं कि उधर से एक नजूमी गुजरा। रोते हुए फरीद को देखकर ठिठका। उसे पुचकार कर गोद में उठाया और आँसू पोंछकर कहा - "नहीं रोते बरखुरदार, हिंदोस्तान का बादशाह कहीं रोता है?" - फरीद रोना भूलकर नजूमी की दाढ़ी सहलाने लगा। नजूमी की बात से आसपास खड़े साईस बाँदियाँ अचरज में पड़ गए। उन्होंने एक दूसरे की ओर देखा। तब तक रमता जोगी बहता पानी की मानिंद वह अपना झोला झपाटा उठाकर गायब हो गया। सबों में फरीद को गोद में उठाने की होड़ लग गई। काफिला जौनपुर आकर रुका। हसन सूर जमाल खाँ की खिदमत में मुब्तिला हो गए। बेगम और पूरे कुनबे के लिए एक बड़ी हवेली मिल गई। जौनपुर शहर बेहद खूबसूरत और रौनकवाला था। फरीद को जगह खूब रास आई। हसन खाँ सूर के रुतबे बढ़े तो फरीद की इज्जत अफजाई होने लगी। उनका घुड़सवारी, तैराकी, शमशीरबाजी और शिकार में दिल लगता। वे अच्छे तीरंदाज हो गए थे। हसन सूर काम से लौट कर बेगम सबा के पास आते तो उदास हो जाते। सबा बीमार हो गई थी। उसका गोरा गुदाज बदन पीलिया गया था, नीली आँखें बुझी हुई लौ हों जैसे, शरीर हड्डी का ढाँचा रह गया था। उधर मुन्नीबाई की चमक बढ़ रही थी। हसन खाँ की तीमारदारी कर उसने अपने वश में कर लिया था और एक दिन दूसरी बेगम बन बैठी। फरीद और निजाम बड़े हो रहे थे उन्हें अपने वालिद का यह कदम बिल्कुल न भाया। अब वे मुन्नीबाई को खुलेआम बेइज्जत कर देते। बदले में मुन्नीबाई भी कोई कोर कसर न छोड़ती। वह अक्सर हसन खाँ सूर को दोनों बच्चों और बीवी की ओर से भड़काती रहती। सबा बिस्तरे पर पड़ी-पड़ी यह सब देखती कुढ़ती रहती। उसकी यह कुढ़न कितने दिन चलती, अल्लाह मियाँ के यहाँ से बुलावा आ गया। अब मुन्नीबाई का मुसलसल अख्तियार हो गया - कुनबे पर। उसके दो बेटे पैदा हो चुके थे। बुलंद शहर की ओर से जमाल खाँ का काफिला जौनपुर की ओर आ रहा था। लाव-लश्कर ने डेरा डाल लिया था। साईस ने बड़े अदब से जमाल खाँ को घोड़े से उतरा। जमीन पर पैर टेकते ही उसके पंजे मुड़ गए। वह अपने आप को सँभाल न सका और जमीन पर लुढ़क गया। चारों ओर से अमले कारिंदे दौड़ पड़े। अमीर जमाल खाँ को उठाकर तंबू में ले गए। साथ चल रहे हकीम ने चोट पर मलहम मला और गरम बालू से सिंकाई की। रात भर जमाल खाँ तकलीफ में जगे रहे पास में उनका बेटा नसीब खाँ था जिसे उन्होंने बुला भेजा था कि कुछ ऊँच-नीच समझा सकें। नसीब खाँ को उन्होंने समझाया कि हसन सूर एक ईमानदार और मेहनती रोह पठान है जो हमेशा अपने काम को खुदा समझता है। उस पर भरोसा करके सहसराम का किला और जागीर सौंप देना चाहिए। जमाल खाँ ज्यादा दिन जिंदा नहीं रहे पैर मुड़ना और गिरना उनके लिए मानो अल्लाह का बुलावा ही था।
हसन सूर का रुतबा बहुत बढ़ गया। फरीद, निजाम सहसराम आए। जंगलों पहाड़ों में फरीद का खूब मन रमता। वे दूर-दूर तक घोड़े दौड़ाते चले जाते। जंगल के दूसरे छोर पर जाकर वहाँ के किसानों आदिवासियों के घर-रोटी खा लेते। उनके साथ तीरंदाजी का नया-नया तरीका सीखते। उनका भाई निजाम भी उनके पीछे पीछे लगा रहता। हसन सूर के पास बिल्कुल फुरसत नहीं थी कि वे इन पर नजर रखते। मुन्नीबाई अपने बच्चों को खिला-पिला कर तेल फुलेल लगाकर परकोटे में रखती जबकि इन दोनों भाइयों के पैरों के जूते तक फटे-पुराने होते। एक दिन हसन सूर ने देखा कि अपना कोई मुल्तानी नस्ल का घोड़ा हिनहिनाता कतार में दौड़ा चला आ रहा है। दौड़ते घोड़े पर लगाम पकड़ फरीद ने जीन कसा और उछल कर चढ़ बैठे। बड़े बड़े पत्थरों के बीच ऐसा कारनामा, हसन सूर का कलेजा मुँह को आ गया। पीछे से निजाम भी एक घोड़े पर चढ़ा आ रहा था। उनके चेहरे खुशी से चमक रहे थे। हसन सूर ने देखा फरीद का गोरा भरा-भरा गाल खरोचों से भरा है। ओठ सूखकर पपड़ियाए हुए हैं। बाल रूखे-सूखे पगड़ी में बँधे हैं। जूते खस्ताहाल हैं और पायजामे अंगरखे मुसे-मुसे से हैं। फरीद की अम्माँ ने सपना देखा था कि गोद में सूरज उतर आया है, इसके जनम की कितनी उतावली थी इन्हें खुद, आज नजर भर देख नहीं पाते। अम्माँ नहीं हैं, इनके पास वक्त नहीं है। क्या कद निकल आया है। फरीद का। सीना चौड़ा हो गया हसन सूर का। वे समझते हैं कि इनकी दूसरी बेगम इन बच्चों को फूटी आँख नहीं देख सकती। उन्हें मालूम हुआ कि इन घोड़ों का रखरखाव, इनकी तालीम खुद फरीद ने अपने हाथों में ले रखी है। आखिर रोह पठान हैं ये अफगान। घोड़ों के बारे में इनसे ज्यादा कौन जानता है? फक्र से सीना चौड़ा हो उठता है हसन सूर का जिनके पुरखे छड़ी लेकर मक्का शरीफ गए थे और अरब में थे तब कैस कहलाए थे। खुद हजरत मुहम्मद साहब ने यह नाम रखा था। खुद उन्होंने ही सुलेमान पहाड़ी की ओर जाने और दुनिया के नई रोशनी फैलाने का हुक्म दिया था। सच है नई रोशनी फैलान से कोई किसी को कैसे रोक सकता है? रोशनी किसी के रोके रुकती भी तो नहीं।
"जाओ, आज हमारे बेटों के साथ ही दस्तरखान बिछाया जाय हम साथ खाएँगे।" -हसन सूर ने अपने नौकरों से कहा। वैसा ही हुआ। फरीद और निजाम साथ बैठे। हसन सूर फरीद से मुखातिब हुए - "मियाँ फरीद, आप जौनपुर चले जाइए, अपनी पढ़ाई पूरी कीजिए।"
"बेशक अब्बा हुजूर मैं भी यही चाहता हूँ। आप जब कहें चला जाऊँगा।"
"आप जल्दी ही जाइएगा।" - हसन सूर ने कहा।
"जौनपुर में ज्यादा पढ़ाई होगी। तालीम देने वाले मदरसे हैं।" - फरीद खासे खुश थे।
"सूबेदार हुजूर की सलाह पर चलना बेटे उन्होंने तुम्हारे ना चीज अब्बा हुजूर को रोहतास, सहसराम टाँडा का इलाका दिया है पाँच सौ घुड़सवार भी दिए हैं। यह जागीर छोटी नहीं है। सब तुम्हीं को तो देखना है।" - कहते कहते उनका गला भर आया। बेशक यह जागीर छोटी नहीं है, फरीद को यह बहुत बड़ी भी नहीं लगती। हाँ खूबसूरत जरूर लगती, पथरीली जमीन पर उगे ऊँचे-ऊँच पेड़, साल सागौन सिरीश के बेहद लाल फालसइ और नीले फूलों वाले, कल-कल करती नदियाँ और आगे का मैदानी इलाका। सभी खूबसूरत हैं, एक साड़ी बाँधें जूड़े में मौसमी फूल टाँके काली चिकनी युवतियों की हँसी बेहद दिलकश लगती। अब तक दिलकशी का यह नजारा इनकी घुड़सवारी पर हावी नहीं हुआ। अब तक तो अपनी ओर इनका ख्याल ही नहीं भटका। जमाल खाँ के जीते जी फरीद जौनपुर आए और तालीम पाने लगे। फरीद पढ़ने लिखने में अव्बल रहे। उन्होंने पूरी तरह से काफिया को पढ़ा उसकी टीका तक पढ़ डाली इस तरह फरीद व्याकरण के जानकार हो गए। किताबों में उसने गुलिस्ताँ, बोस्ताँ और सिकंदरनामा को पढ़ा। फरीद ने इतिहास की किताबों को भी पढ़ना पसंद किया। फरीद अरबी फारसी के अलावे हिंदवी पढ़ना और लिखना सीखा। इतना अधिक पढ़ने के बाद उन्हें राजकाज की सूझबूझ हो गई। जहाँ के मालिक वे हैं उस जगह की रियाया को किताना जानते हैं कि उनके अपने हो सकें, यह सब उन्हें सूझने लगा। फरीद अपने आप को सूबेदारी के लिए तैयार कर रहे थे। कई साल बीत गए थे, परंतु चंद कोस पर बसे हसन सूर न तो फरीद से मिलने आए न उन्हें बुला भेजा। मुन्नी बाई जो बूढ़े होते हसन की नई नवेली दासी बीवी थी उसने देखा कि हसन सूर रात दिन फरीद की यादों में खोए रहते हैं, उसे अपना वारिस बनाना चाहते हैं अक्सर भड़काती रहती।
"खान साहब मेरे आका, बुरा न मानें तो एक बात कहूँ।"
"मैं आपकी बातों का बुरा क्यों मानूँगा?" - वृद्ध हसन सूर ने मुन्नी बाई को खींचकर सीने से लगाते हुए कहा। उनके हाथ उसके गुदाज बदन से उठखेलियाँ करने को लरज रहे थे।
"हटिए, आप मुझमें ही मसरूफ रहिए उधर आपका बेटा आपके खिलाफ बगावत कर बैठेगा।" - नकली गुस्से से मुन्नी बाई कहतीं।
"तो क्या करूँ आप हैं ही इतनी दिलकश। चार-चार बच्चों की अम्माँ होने के बाद भी कमसिन दीखती हैं।" - हसन सून ने और कस कर चिपटा लिया मुन्नी बाई को।
"उधर फरीद...।"
"क्या फरीद?" - हसन सूर अब और न रुक सका अपने होठों से उसकी बोलती बंद कर दी। मुन्नी बाई ने अपने शरीर को पूरी तरह ढीला छोड़ दिया। मन ही मन बड़बड़ा रही थी - जो करना है कर आज तो मैं अपने बेटे सुलतान के लिए सहसराम की जागीरी पक्का कर लूँगी। रंगरंस में अबचूब होते हसन सूर ढलान पर आए। मुन्नी बाई ने जाम पेश कर दिए। हसन के सीने पर सिर रखकर तिरछी आँखों से मानो उन्हें घायल सी करती बोल उठी - "हम एक दूसरे में खोए हैं, फरीद को आपसे कोई दरेग ही नहीं है क्यों न सुलेमान को ताल्लुका सौंप देते हैं?"
"क्या कहा सुलेमान को?" - सीने से बोझ की तरह हटा है... हसन सूर ने चौंक कर कहा।
"आपने देखा नहीं सुलेमान का क्या कद निकल आया है। मसें भीग रही हैं, वह जवान हो रहा है। अभी से साथ रखकर सिखाएँगे तो आगे जागीर सँभालेगा।"
"आपका कहा ठीक है मुन्नी बाई, सुलेमान जवानी की दहलीज पर है घुड़साल के कारिंदे ने इतिल्ला की थी कि चेरो खातूनों को वह अक्सर छेड़ता है। शिकायतें आई हैं। आप उन्हें समझा दीजिएगा कि ऐसा न करें, ये चेरो बड़े खूँखार होते हैं। किसी राजा, जागीरदार की ताब न तो कभी सहा है न सहेंगे। इनसे मिल-जुलकर रहना हमारी हिफाजत के लिए जरूरी है।" - हसन सूर के उपर से मुन्नी बाई के इश्क का सुरूर उतर गया था। सुनकर मुन्नी बाई का मन भी बुझ गया। हसन सूर ने भाँप लिया।
"आप अपना मन छोटा न करें, हमने आपको आगाह किया है गौर फरमाइएगा। सुलेमान हमारा अजीज बेटा है। हम अपनी औलाद की हिफाजत के लिए ही यह सब कह रहे हैं। यह कोई अच्छी मिसाल तो नहीं पेश करेगा कि औरत की वजह से चेरो भड़क जाएँ वे हमारा बिगाड़ते क्या हैं? जंगल में रहते हैं हमें शहद और जड़ी बूटी पहुँचाते हैं। शिकार खेलने में मदद ही करते हैं।" - मुन्नी बाई ने कुछ न कहा। मुँह फेर कर सो गई। सबा बेगम की दासी बनकर आई थी उनके बच्चों की देखभाल करने। जाने सबा को कौन सी दवा पिलाई कि वह बिस्तरे से लग गई और चल बसी। अधेड़ हसन सूर की ब्याहता बन गई लेकिन तौर तरीका अब भी ऊपरी बीवी वाला ही रहा। हसन सूर को अपने कब्जे में रखने का सारा हथकंडा अपनाती। अब बेटे को जागीर दिलाने पर आमादा थी। कभी किसी कामुक समय में हसन सूर ने कसमें खाई थीं कि तुम्हारे बेटे जवान होंगे तो परगने की कमान उनके हाथों में दे दूँगा। मुन्नी बाई उस लिजलिजे वक्त को पकड़ कर बैठी थी कि जागीर हाथ से न जाय।
जमाल खाँ ने अपने बेटे नसीब खाँ और फरीद को सूबा बिहार की ओर भेजा। फरीद सूर और नसीब खाँ दरियाये गंग के किनारे किनारे चल रहे थे। घोड़ों को पानी के लिए वे रुकते, उनका काफिला रुकता और वे तंबू लगाकर आराम करते। नसीब खाँ आराम करता पर फरीद खाँ दरिया किनारे रहने वाले गाँवों में घूमने चला जाता। गाँव के बाशिंदों से बात मुलाकात करता। उनके तौर तरीके, उनके खानपान, उनके सुख दुख की जानकारी लेता रास्ते में घने जंगल आए जिधर से रास्ता बनाकर चलना मुश्किलों भरा था। धूप गरमी और पानी की कमी से जूझना पड़ा। पटना तक पहुँचते पहुँचते फरीद ने देखा कि कहीं तो खुला आसमान है जहाँ सर पर कोई साया नहीं, खुद के तंबू गाड़ो तो रहो। कहीं जंगलात हैं जहाँ राहजनी का खुलेआम डर सता रहा था। चुनार का खूबसूरत परकोटा दूर से ही दिखाई पड़ने लगा था। नसीब खाँ की सलाह पर इनका काफिला चुनार से दूरी बनाकर चले रहा था। विंध्याचल की पहाड़ियों में जगह जगह मठ मंदिर दिखाई पड़े, नंग घडंग साधु संत, नजूमी फकीर मिले। अपनी आदत के अनुसार फरीद ने पड़ाव डालने के बाद झुंड में बैठे लोगों से उनकी सलामती पूछी।
"आप लोग यहाँ किस तरफ से आए हैं?"
"हम बहुत दूर पूरब से आए हैं। देवी पूजक हैं, दर्शन को आए हैं आप सैनिक जान पड़ते हैं साहेब?"
"हाँ, हम सिपाही हैं। कितने दिनों से निकले हैं घर से?"
"महीना भर तो हो गया।"
"रसद पानी लेकर चले क्या?"
"थोड़ा बहुत लेकर चले बाकी देवी की आस। राहजनी भी होती है सो धन लेकर चलना कठिन है साहेब। एक समय था जब लोग बाग फसलें काटकर घर से निकलते हैं। हमारे जैसे चंद जिद्दी लोग ही निकलते हैं अब।" -
एक व्यक्ति ने कहा, "आप सैनिक हैं और हमारी तरह के दिखाई पड़ते हैं इसीलिए कहते हैं, कई सूबे में जजिया के कारण भी गरीब लोग घर से नहीं निकल पाते। जिनके पास उतना धन हों वे ही तो निकलें तीरथ पर।" - दूसरे ने कहा।
"देखिए, तभी तो हम हरबे-हथियार लेकर तीरथ करने निकलते हैं कि लूट की न जाएँ।" - तीसरे ने कहा
"आपको नहीं पता होगा साहेब कि सुदूर जगन्नाथ की यात्रा दर्शन के लिए जाने वाले भक्त यात्री गाँव में अपना श्राद्ध खुद करके निकलते है कि लौटना हो पाएगा या नहीं। रास्ते भर गाते-बजाते माँग कर खाते बढ़ते जाते हैं।" - एक व्यक्ति ने कहा।
"आप सुनकर परेशान हो गए साहेब। सच्चे मुसलमान हैं, तभी तो हमारी बात सुनकर दुखी हो गए। जाइए सो जाइए आप भी। हम अपने भजन कीर्तन में लगें।" - एक वृद्ध ने कहा।
फरीद उठकर अपने काफिले की ओर चले - पीछे झाल-मृदंग और चिमटे बजाकर उन यात्रियों ने पहले देवी गीत गाए फिर जगन्नाथ यात्रा के गीत दुहराए
"जगरनथिए हो भाई, दानी सन अमरुक लोक जग में कोई ना
घर मे घरनी रोवे भइया बाहर बूढ़ी माई
रस्ते रस्ते बहिनी रोवे, भइया तीरथ जाई
जगरनथिए।"
- फरीद की पीठ पर स्वर लहरी की सहलाहट थी। इबादत की मुद्रा में बैठकर उसने अल्लाहताला से विनती की - "या परवरदिगार, मुझे हिम्मत बख्श, मेरे उपर अपनी इनायत बरसा। हमारे पुरखों के हाथों में मक्का शरीफ ले जाने को छड़ी बख्शी थी, हमारे पुरखों को कैस की पदवी दी थी, मेरे हाथों में एक छड़ी दे दे, हिंदोस्तान की बादशाहत दे दे हम दिखा देंगे कि कैसा होता है सच्चा मुसलमान।" - तारों भरे आसमान की ओर देखता रहा फरीद, कोई संकेत नहीं आया आसमान से, पर इबादत में उठे उसके हाथ भर गए इनायत से - वह कोई गैरमुनासिब ख्वाब देख रहा था? नहीं, कभी नहीं। खुली आँखों से ख्वाब देखने वाले, अपने कदमों को जमीन पर टिकाकर रखने वाले, सर अल्लाह की इबादत में झुकाने वाले ही राज करते हैं इसमें अचरज की गुंजाइश कहाँ है। तमाम तारीख भरा पड़ा है ऐसे किस्सों से कि कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता। "तुम देर रात गए पैर मोड़कर क्यों बैठे हो फरीद मियाँ?" - अचानक नींद से जगे नसीब खाँ ने देखा मशाल के झुटपुटे में कोई चुपचाप बैठा आसमान देख रहा है। वह फारिग होकर आया और फरीद को देखकर पूछ बैठा।
"मैं आसमान की ओर देखकर पाक परवरदिगार का शुक्रिया अदा कर रहा था कि उन्होंने हमारे पुरखों को हिंदोस्तान जैसे धनवान देश में भेजा। यहाँ अनाज, फल और आबदार नदियाँ हैं, मेहनती इनसान हैं तभी तो पश्चिम से हम मंसूबे बाँधकर आते हैं।" -फरीद ने गहरी आवाज में कहा।
"हिंदोस्तान की शहंशाही के ख्वाब देख रहे हो क्या?"
"ख्वाब देखे जा सकते हैं फिलहाल मुझे सहसराम जाना चाहिए। अगर रोहतास का किला, खवासपुर टाँडा सहित दोनों जागीरें अब्बा हुजूर मेरे हवाले करते हैं तब मैं दिखा दूँगा कि कैसे रियाया को खुश रखा जाता है कैसे अमन चैन से बसर की जा सकती है यह बेशकीमती जिंदगी।"
"तुम्हारे अब्बा को यह करना ही चाहिए। तुम उसके सबसे बड़े बेटे हो। तुम जहीन हो पढ़े लिखे हो, ताकतवर सिपाही हो तुमसे बढ़कर कौन होगा जो उनकी जागीर सँभाले।"
"उनकी मर्जी मेरे आका।" - इनकी बातचीत मे कब सुबह हो गई पता ही न चला। कहीं दूर से अजान की आवाज सुनाई पड़ी तब ये वुजू कर बैठ गए नमाज पढ़ने। नाश्ते के बाद लश्कर उठाने का वक्त आ गया था कि झाड़ी में सरसराहट सुनाई पड़ी। हल्की फुफकार भी सुन रहे थे फरीद। घनी झाड़ी चीर कर आगे बढ़े तो देखा एक चूहे को भयंकर नाग ने पकड़ रखा था, उसकी पूँछ अब भी छटपटा रही थी पर यह क्या नाग खुद जुंबिश खा रहा था, उसे एक नेवले ने दबोच लिया था, उन सब के पीछे, तनिक हट कर एक सियार घात लगाए बैठा था। एक साथ यह नजारा देख फरीद सकते में आ गया। पैर पीछे हटाकर लौटने लगा कि एक धीमी इनसानी आवाज सुनाई पड़ी।
"आप लौट जाइए हुजूर, ये कभी भी पलट सकते हैं बड़े खतरनाक हैं - एक बहेलिया पेड़ पर चढ़ा तीर कमान साधकर बैठा था। फरीद हौले हौले कदम धरता बाहर निकल आया। दुनिया को बनाने वाले ऐ मेरे मालिक तेरी अदा ही निकाली है क्या हिसाब लगा रखा है अपने उपर कोई निशान नहीं छोड़ता। लाव लश्कर चल चुके थे। फरीद अपने घोड़े पर सवार हुआ। नसीब खाँ के साथ अनमने भाव से बातें करता बढ़ा जा रहा था। घनघोर जंगल से निकलकर चौड़े पाटवाली दरिया के किनारे किनारे चलने लगा। अगले पड़ाव तक आने पर चौकन्ना हो उठा। कहीं से आवाजें आ रही हैं।
"फरीद मियाँ, ये कैसी आवाजें हैं, बढ़ती ही जा रही हैं। यहाँ रुकना टीक होगा क्या?" - नसीब खाँ घबड़ा गए। फरीद ने गौर से सुना "मुझे लगता है आसपास ठठेरों की बस्ती है। अपने जौनपुर के बाहरी इलाकों में, उन बस्तियों में ऐसी ही आवाजें सुनने को मिलती हैं। पीतल तांबे पीटने की आवाजें हैं। घोड़े दौड़ा कर देखा तो सच पाया गया। एक बड़ा सा गाँव ठठेरों का था। इन दौरों के दौर में फरीद ने जाना कि लुहारों के गाँव किधर हैं, चमड़े और लकड़ियों के कारीगर कहाँ हैं। बड़ी-बड़ी मिट्टी की दीवारों वाले दो मंजिले परकोटों वाला घर कौन बनाने की सलाहियत रखता है। किस फसलों को कितना पानी चाहिए, तैयारी के लिए कितना वक्त चाहिए, कैसे खेत और खलिहान की जरूरत किस अनाज के लिए है। हिंदोस्तानी आबादी के साथ पले बढ़े फरीद को मालूम था कि अलग-अलग टोलों मुहल्लों में रहने वाली आबादियाँ अपने हुनर की वजह से इकट्ठी रहते हैं। बड़े पेड़ों की छाँव में मदरसे और पाठशालाएँ दीखीं। आम लोगों के दुख दर्द को देखा। फरीद ने जो काफिया पढ़ रखा था काजी शहाबुद्दीन के मशहूर टीका सहित उसमें इनके बारे कुछ नहीं था। यह तो महसूस करने वाली बातें थीं।
"फरीद तुम तेज निगाहों वाले इनसान हो। चारों ओर चौकन्ने रहते हो। जहाँ जाते हो वहाँ के माहौल और वाकयातों को जान जाते हो इस सफर में रहकर मुझे इलहाम हो रहा है कि तुम किसानों से, गँवइयों से उन्हीं की तरह बातें कर रहे हो। अपना माहीचा बाकरखानी छोड़ बाटी-लिट्टी खा रहे हो। चबेने चबा रहे हो। घोड़े हो क्या?" - हँसकर कहा नसीब खाँ ने। फरीद ठहाके लगाने के सिवा कर ही क्या सकता था। यह तो अपनी अपनी फितरत अपना अपना नसीब मुल्ला के नाम भर रख देने से कोई नसीब वाला नहीं हो जाता। इनायत यूँ नहीं बरसाई जाती है। गढ़ा खोदे बिना तालाब नहीं बनता। बड़ा काम सौंपने के पहले खुदा ने इस पठान अफगान को नेमतें बख्शीं, तमाम नेमतें जो फकीर को शहंशाह बनाती हैं। बिहार सूबा से लौटकर नसीब खाँ और फरीद जौनपुर पहुँचे ही थे कि हसन सूर का खत आया। उन्होंने नसीब खाँ से इल्तिजा की थी कि अब वे फरीद को भेज दें। फरीद की तालीम पूरी हो गई होगी। दोनों परगने देखने की जिम्मेदारी उठाने लायक हो गए होंगे। खत लेकर आनेवाले हसन सूर के नजदीकी सिपाही ने अर्ज किया कि वे बेहद बीमार चल रहे हैं। फरीद को यह सब यूँ ही नहीं मिला जब वे लोग सूबए बिहार गए थे उसी वक्त हसन सूर मियाँ जमाल खाँ सूबेदार से मिलने आए। उधर हसन सूर भी बीमार चल रहे थे। जमाल खाँ ने हसन सूर को अपने हकीम से दवा दिलवाई। हसन ने उनका था हाथ चूमकर कहा - "मसनदे आली, इंशाअल्लाह आप जल्दी उठकर खड़े हो जाएँगे। आपके हकीम साहब की दो दिनों की दवा ने मेरी रंगों में बिजली दौड़ा दी, अब आप भी चंगे हो जाएँगे।" खुदा खैर करे हसन सूर, यह मुगालता मैं नहीं पालता आप भी न पालें। हमारे इख्तियार में जो कुछ था उस पर अमल कर चुका आप भी समय रहते परगनों की बागडोर फरीद के हाथों सौंप दें। फरीद यूँ तो पहले से ही जहीन था, अब गहरी और ऊँची पढ़ाई कर वह इस मुल्क में बिरला ही है। आपकी यह औलाद आपका सर ऊँचा करेगी। इसमें ताकत, सूझबूझ और दिलेरी है। यह लोमड़ी की तरह चालाक और खरगोश की तरह चौकन्ना है। ऐसे इनसान कुछ कर गुजरने आते हैं दुनिया में। एक बड़ी बात हमने देखी है इसमें आपको अंदाजा भी है?"
"क्या हुजूर" - हसन शूर का दिल फरीद के लिए मुहब्बत से लबालब भर गया था।
"उसने मुझसे बातचीत के वक्त कई बार यह कहा है कि - क्या कभी सारे सूर, अफगान, पठान एक नहीं हो सकते? यह उनको एक करने में लग जाएगा। आगे पीछे की तारीखें पढ़कर जान गया है कि समरकंद से लाहौर के रास्ते आने वाली मुगलों की सेना के सामने इब्राहिम लोदी तब तक नहीं टिकेंगे जब तक सारे पठान अफगान एकजुट न होंगे।"
"बहुत दूर की सोचता है फरीद।" - अपने बेटे की ऊँची सोच पर फख्र हो आया उन्हें। लौटते ही उन्होंने यह खत भेजा। जमाल खाँ ने फरीद को समझा बुझाकर सहसराम भेजा। फरीद जाना तो चाहता ही था फिर भी कहा - "मैं अपने वालिद की दोनों जागीरों को सँभाल लूँगा, उनकी देखभाल भी करूँगा पर वे बेबस हैं। उनकी बीवी जो निहायत नाशुक्री है मुझे बर्दाश्त नहीं कर पाएगी। अगर उन्होंने उसकी बात पर कान दिया तो शायद वे मुझे न रख पाएँ।"
"तुम्हें बड़े काम करने हैं, छोटी छोटी परेशानियों से कभी न हैरान होना। जाओ एक सिपाही की तरह जुट जाओ, अकीदतमंद की तरह अपनी सोच को अंजाम दो। आमीन"
रोहतास के पत्थर वाले दुर्ग के नीचे खड़े होकर हसन सूर ने उसका इस्तकबाल किया। वह दुर्ग राजा का था जहाँ जाना आसान नहीं था। राजा अपना फर्ज अच्छी तरह अदा करता था कभी भी जागीरदार को शिकायत का मौका नहीं देता था। हाँ, वह मुंडेश्वरी देवी के मंदिर में पूजा करने के लिए साल में एक बार ही किले से नीचे उतरता था। फरीद को देखकर हसन सूर बेहद खुश हुआ।
"आओ बेटे अब तुम ही दोनों परगने देखो"
"मैं देखूँगा पर आप पूरी तरह मुझे देखने देंगे तब।"
"मैंने तुम्हारे उपर सब कुछ छोड़ दिया है। तुम मेरे सबसे बड़ी औलाद हो। तुम पर ही तो भरोसा है।"
"अब्बा हुजूर, यह मैं इसलिए कहता हूँ कि कई जगहों पर आपके रिश्तेदार जागीर का काम देख रहे हैं। मैंने अगर उनके काम में गड़बड़ी पाई तो हटा दूँगा। रहम नहीं करूँगा।"
"तुम्हें जागीर का शिकदार बनाया है अब तुम्हारे इख्तियार में हैं कि तुम कैसे चलाओ।"
इत्मीनान होकर फरीद अपने काम में जुट गए। फरीद ने सबसे पहले गाँवों की ओर रुख किया। गाँव के किसान ही किसी राज्य की धुरी हैं। वे अन्न उपजाते हैं, वे न हों तो सारी सभ्यता ही नष्ट हो जाय। अरबी फारसी और हिंदवी का विद्वान फरीद किसी मुगालते में न था कि कोई सिकदार या अमीर दुनिया चला सकता है। सबने महसूस किया कि रोहतास सासाराम और हवासपुर टाँडा के किसान अच्छी खेती करते हैं और अच्छी नस्लों के ढोर पालते हैं पर बेहद तकलीफदेह जिंदगी गुजारते हैं। बारिश न हो और फसल अच्छी न हुई तो इलाके छोड़कर दूर जा बसते हैं। अपना इलाका खाली और बंजर हुआ जाता है। दरिया फतह करने पर जाना कि मुहम्मद गोरी के समय से ही इन पर फाजिल माहसूल लगाया और वसूला जाता है। बेगार के लिए लोगों को पकड़ कर जबर्दस्ती ले जाया जाता है। समय पर खेती नहीं हो सकता निराई गुराई नहीं हो, समय पर खेतों में पानी न डाला जा सके तो खेतिहर भागकर ऐसे तालुके में चले जाते जहाँ यह सब नहीं होता। फरीद ने तुरत फुरत माहसूल बंद कराए और बेगार तो बिल्कुल ही बंद करा दिया। दस घरों के उपर एक आदमी की बहाली सिर्फ इसलिए की कि वे किसानों की सलामती का ख्याल रख सकें। खूबसूरत नौजवान फरीद किसानों के बीच खड़ा होकर कहता - "मैं इनसान की सहायता करने वाला एक सैयद हूँ। तुम सब जो मेरी रियाया हो मुझ से जरा भी न डरो, मुझसे बेखौफ होकर अपनी तकलीफें बयाँ करो।"
खेतों में काम होने लगे। तालाब कुँए खुदे रहट चलने लगे। फसलें लहलहा उठीं। रोहतास सहसराम तालुका की खुशहाली की हवा दूर-दूर तक फैल गई। हिंदोस्तान उस वक्त अच्छे दौर से नहीं गुजर रहा था। छोटे-छोटे रियासत बन गए थे। लूट मार का खौफ सूबों में तारी था। फरीद के राजपाट की, उसके सुलझें विचारों की उसके सुधारों की खबरें चंदन की खुशबू की तरह चारों और फैल गई थी। फरीद ने राहजनी करने वालों को मुस्तैदी से पकड़ना शुरू किया। उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी गई। लिहाजा इसके रकबे में चोरी डकैती राहजनी नहीं होती। फरीद ने बाँस के पुल बनवाए उसका मन तालुके में रम गया।
खुशहाली की खबर सुन दूर दराज के लोग आने लगे, बंजर जमीने हरी होने लगीं। फरीद ने खेती की जमीने देकर हजारों लोगों को बसाया। पैदावार बढ़ी तो आप से आप माहसूल कुछ ज्यादा ही बढ़ गया। खजाने भरने लगे। फरीद के काम की तारीफ से उनकी सौतेली अम्माँ मुन्नी बाई को बड़ी कोफ्त होती। उसके सगे वाले जो तालुके में माहसूल वसूलने, बेगार करवाने के शौकीन थे वे फरीद की दरियादिली से नाराज थे। उनके हाथों की खुजली जो नहीं मिटती थी। उन्होंने मुन्नी बाई से शिकायत की पर कोई उपाय तो था नहीं क्योंकि फरीद मियाँ ने खजाने को भर दिया था। वे आहें भर कर रह जाते और अपनी तकदीर को कोसते कि अब सिर्फ वेतन पर गुजारा करना पड़ता। ऊपरी कमाई और बेगार का सुख छिन गया। कुछ करने की सोंच तो रहे थे पर कही रास्ता नहीं दीख रहा था। लाचार फरीद के रहमोकरम पर दिन काट रहे थे। फरीद उनसे हिसाब पूछते तो वे जलभुन कर खाक हो जाते। आनेवाले मजलूमों में एक मारवाड़ से आया क्षत्रिय जय सिंह था। मारवाड़ इलाके में अकाल पड़ गया था। एक-एक गाँव काफिले बनाकर पूरब की ओर निकल आए थे। जय सिंह ने रोहतास में शरण पाई थी। उन्हें खेत मिला था फसलें उगाने को। उनके साथ उनकी कमसिन बेटी थी, बला की खूबसूरत। फरीद गर्मी की भरी दुपहरी में अपना तालुका घूमकर आ रहा था। खेतों की हरियाली मन मोह रही थी। खेत जहाँ खत्म हुए वहाँ कुछ नए बने घर देखे फरीद ने। प्यास से उसका गला सूख रहा था। अभी हवेली दूर थी, गले में काँटे उग आए जान पड़ते थे। घोड़े से उतरकर उसने पास खड़े एक पेड़ से बाँध दिया और सामने की कुटिया में आवाज लगाइ। "कोई है? राहगीर को पानी पिलाओ।" - आवाज सुनकर एक युवती कमर पर घड़ा रखे नमूदार हुई। फरीद को पानी पिलाया फरीद अपलक उस लड़की को देखता रह गया। पीले रंग का घाघरा, हरी ओढ़नी। जरीगोटे और शीशे के काम से जगमग। पीली चोली पसीने से तरबतर चिपक गई थी जोबन के उभार से। घड़ा भर पानी पीकर भी फरीद की प्यास न बुझी। अजीब सी तिश्नगी थी।
"तुम कौन हो?"
"मैं चंदा हूँ।" - फरीद उसके कपड़ों से जान गया कि यह इस जगह की नहीं है। नए आए किसी किसान की बेटी है।
"तुम्हारे वालिदैन कहाँ हैं?"
"सिर्फ पिताजी हैं, वे खेत से नहीं आए हैं अभी तक, मैं अकेली हूँ घर में।"
''क्या नाम है उनका''
"जयसिंह हुजूर" - चंदा को समझ में आ रहा था कि जल की याचना करने वाला यह इनसान कोई साधरण नहीं है जरूर कोई खास है। उसने कह कर नजरें नीची कर लीं।
"यूँ अकेली किसी के भी पुकारने पर बाहर नहीं निकलना था समझ गई?" - फरीद ने उसे बरजा और खुद घोड़े पर चढ़ कर चला गया। चंदा ठगी सी देखती रह गई। फरीद की खूबसूरती से बढ़कर उसका घोड़ा चढ़ने दौड़ाने का अंदाज और उससे भी बढ़ कर उसकी हिदायत कि किसी के पुकारने पर बाहर न निकले। क्यों न निकले? अगर बाहर न निकलती तो उनको पानी कौन पिलाता? ऐसी गरमी की दुपहरी में प्यासे को पानी पिलाना धरम भी है और इनसानियत भी। चंदा को एक खुशबू का एहसास हुआ जिस पेड़ के नीचे वह खड़ा था वहाँ से हवा का एक खुशगवार झोंका आकर उसकी ओढ़नी उड़ाने को आमादा हो गया। चंदा को लगा वह उस इनसान की ओर खिंचती चली जा रही है।
घोड़ा दौड़ाता फरीद एक जोहड़ के पास आया। उतर कर रास ढीली की। उसे पानी पीने को छोड़ दिया। गरमी और प्यास से घोड़ा बेचैन था। फरीद चंदा से पानी माँग कर घोड़े को पिला सकता था पर जाने क्यों वह उसके रूप की आँच सह नहीं पा रहा था मन बेकाबू हो उठा था। वह भाग आया। चंदा के रूप के आँच से भाग आया। एक बार भी मुड़कर नहीं देखा पर अब दौड़कर उसके पास जाने का दिल कर रहा है, अजीब सी कैफियत है। उसके सुनहरे घने बाल, बड़ी बड़ी नीली आँखें भोला मुखड़ा इसके दिल में उतर गया। पतली कमर और उस पर छलकता जोबन। चोली और चूनर के बीच की दिलकश दूरी जो बेकाबू किए जाता है। उसे कोई गैर न देखे इसी मंशा से फरीद ने कहा कि किसी को पानी पिलाने न निकले। जाने क्यों फरीद ने उसे अपना, निहायत खानगी मान लिया कुछ ही पलों में। घोड़ा पानी पीकर इधर उधर चरने लगा। हरी हरी दूब उसे दीख गई थी। शाम का झुटपुटा होने लगा था। गायें और बकरियाँ जंगल से चर कर घंटियाँ बजातीं गाँवों की ओर लौटने लगी थीं। फरीद भी घोड़े पर चढ़कर हवेली की ओर चल पड़ा। जयसिंह खेत से घर आकर हाथ पैर धेने लगा। घड़े से पानी उँड़ेलकर चंदा उनके हाथ पैर धुलवाने लगी। बिटिया ने चबेने गुड़ के साथ डलिया में लेकर दिए। जयसिंह खाने लगे। खाली घड़ों को लेकर चंदा कुंए पर जल भरने गई। दो चार अधेड़ औरतें वहाँ पहले से खड़ी थीं।
"चंदा, मैंने घोड़े की टाप सुनी तो बाहर निकल कर देखा किसी पठान के तुम घड़े से उड़ेल कर पानी पिला रही थी।" - एक स्त्री ने कहा।
"हाँ काकी, एक राहगीर था, आवाज लगाई तो मैं बाहर गई। वह प्यासा था, चुल्लू में ही पानी पीने लगा। घड़ा भर पी गया।" - चकित सी कहा उसने।
"अरी प्यासा ही था। पर चुल्लू में क्यों? वह कोई बड़ा आदमी दिखाई दे रहा था, उसे लोटे में पानी देना था, गुड़ की भेली भी देनी था।" -
दूसरी ने कहा।
"अब मैं क्या जानूँ, मुझे लगा प्यासा है उसने भी चुल्लू बाँध लिया।"
"ठीक ही किया, अनजाने को क्या पानी पिलाना लोटे में?" - तीसरी स्त्री ने टीप दिया।
"काकी, उसने भी जाते जाते यही कहा।"
"क्या कहा?" - एक जनी थीं।
"कहा कि किसी के पुकारने पर यूँ अकेली नहीं निकलना चाहिए, अब लो, उसे पानी पिलाया, उसकी प्यास बुझाई वही नसीहत दे रहा है।" - हँस पड़ी चंदा "समझदार इनसान होगा।" - दूसरी ने कहा।
"जब से फरीद खाँ तालुका देखने लगे हैं कोई राहजनी चोरी, उठाईगीरी कहाँ होती है। सारे चोर उचक्के साध हो गए हैं।" - तीसरी स्त्री ने कहा
"बिटिया, उसने ठीक कहा।" - घड़े भर गए थे, सभी ने अपने अपने घड़े उठाए और चलती बनी। चंदा एक के उपर एक दो कलसी और एक कमर पर घड़ा लेकर लचकती हुयी आँगन आई। जय सिंह ने बिटिया के सर से घड़ा उतारा औ घिड़ौंची पर रखा। "एक साथ इतने घड़े लेकर जाने की क्या जरूरत थी, मैं ले आता। इतना खाली कर रखती है।"
"नहीं बापू, आज की बात ही जुदा है।"
"क्या जुदा है?"
"एक राहगीर प्यासा था, उसने पानी माँगा। मैं पिलाने बैठी तो सारा घड़ा ही पी गया। इनसान नहीं ऊँट था।" - वह खिलखिल हँसने लगी।
"प्यासा होगा बेचारा। कौन था?"
"मैं क्या जानूँ।" अब और जोर से हँसने लगी।
"कैसा था वह पूछ रहा हूँ।"
"अच्छा सा जवान था।"
"कपड़े कैसे पहने थे?"
"ओहो, उसने बेशकीमती पठानी कपड़े पहने थे, पगड़ी भी वैसी ही थी।"
"वही पूछ रहा था। वैसे तो इस छोटे से तालुके में अमन चैन है पर कौन जानता है किधर से कौन आता है? बुलावे पर बाहर न निकला कर।" - चंदा ने सोचा जैसा उस जवान इनसान ने कहा वैसा ही बापू भी कह रहे हैं काफी लोग भी कह रही थीं। नहीं निकलूँगी। मेरा क्या। दिन भर चक्की चलाकर चने पीसती रही थी चंदा। यहाँ ज्वार बाजरे तो उपजे नहीं गेहूँ खूब उपजे। आज गट्टे की सब्जी और घी चुपड़ी गेहूँ की रोटियों खिलाएगी बापू को। पिता गंभीर मुदा में बैठकर मूँज की रस्सियाँ बँटने लगा खेतों में सब्जियाँ बोई हैं। सारी सब्जियाँ बरसात में फलेंगी उनके लिए मचानें खड़ी करनी पड़ेंगी। मूँज की रस्सी ही काम आएगी। मचानों पर बरसाती लौकी, सतपुतिया और सेम फलेंगे। इस ओर की हरियाली देख जय सिंह को खेती करने का उत्साह दुगुना हो जाता है। अपनी कुटिया की दीवार पर टँगे तीर तलवार को देख आहें भरता कि कब वह एक सिपाही का रूप धरण करेगा। कब किसी सेना की भर्ती होगी और इसकी तलवार बोलेगी। खेती में मन रमता है, बिना माँ की बेटी को देख देख जी भी तो जलता है। अपने मारवाड़ से दूर बिरादरी में लड़का देखना भी मुश्किल है। साथ आए बुजुर्ग लोग सांत्वना देते कि कुछ कमा धमा ले, अनाज पानी और ढोर डंगरों से फिर ब्याह के लिए सब मिलकर कोई न कोई बिरादरी वाला ढूँढ़ ही लेंगे। रोहतास से भोजपुर, भोजपुर से पटना तक सैकड़ों मारवाड़ी आए होंगे, उनमें से कोई न कोई मिलेगा। अगर न मिले तो इधर के क्षत्रिय से बेटा माँगेंगे। जय सिंह सा उच्च कुलीन क्षत्रिय और चंदा सी बिटिया देखकर कौन इनकार करेगा। सब कुछ होते हुए भी जय सिंह का पिता वाला हृदय केले के पत्ते की भाँति जरा सी बयार से डोल उठता। न दिन को चैन न रात को नींद। सुना हैं और अनुभव भी किया है कि यहाँ किसी प्रकार की लूट मार नहीं है फिर भी विधर्मियों का क्या भरोसा।
फरीद लौटकर आए तो ऊपर धुले परकोटे पर कपड़े बदल लेट गए। एक नौकर बड़ा सा हाथ पंखा लेकर झलने लगा। थके फरीद को झपकी आ गई। नींद में उन्होंने चंदा को देखा। हाथ बढ़ाकर उसे छूने लगे कि वह खिलखिलाकर हँसने लगी और दूर भाग गई। लंबी चोटी उसकी पीठ पर लोट रही थी। उसके भागने से नागिन सी बल खा रही थी। फरीद हाथ बढ़ाकर पकड़ना चाह रहा था कि किसी ने आवाज दी - हुजूर, आप गिर जाएँगे।" - नींद टूट गई सपना गायब हो गया। उन्होंने नौकर की ओर गुस्से से देखा। वह सकपका गया। उसे समझते देर न लगी कि उसका नौजवान मालिक किसी हसीन सपने की गिरफ्त में था। सपना टूट जाने की वजह से नाराज हो गया। उसके हाथ पंखे सहित ज्याद तेजी से चलने लगे। फरीद ने फिर आँखें बंद कर लीं पर वो चुलबुली हसीना फिर लौटकर पलकों के बीच नहीं उतरी। फरीद उसका रूप याद कर आहें भरने लगा। दूसरे दिन आप से आप फरीद के पाँव चंदा के दरवाजे पर पहुँच गए। अबके सीधे उसके आँगन में पहुँच गया। चंदा चौंकी पर घबड़ाई नही। उसके पिता खेत की ओर गए थे। उसने अभी अभी खाना तैयार किया था और लेकर खेत जाने वाली थी। पोटली बाँध रही थी। "तुम अपने वालिद के लिए खाना खेत ले जा रही हो?"
"जी हाँ खाँ साहेब।" - उसने आदर से कहा।
"क्या बनाया है?"
"रोटी और साग। आपको प्यास लगी है क्या? तनिक रुकिए" दौड़ कर गुड़ की भेली और लोटे में पानी लेकर आई। फरीद अपलक उसे देखता रहा फिर कहा -
"तुम मुझे रोटी नहीं खिलाओगी?" - वह हँस पड़ी "आप पठान हैं, मालिक दीखते हैं हमारे घर की सूखी रोटी और साग खाएँगे?"
"बिल्कुल खाएँगे। जो तुम खिलाओगी वह खाऊँगा।"
"लीजिए" - आगे बढ़कर पोटली खोलने लगी कि फरीद ने उसका हाथ पकड़ लिया।
"रहने दो, फिर कभी।" - फरीद उठकर जैसे ही आया था वैसे ही चला गया। हाथ पकड़ लेने की प्रतिक्रिया दोनों के ऊपर हुई पर अलग अलग। फरीद की आग अधिक भड़क उठी। इस आग से उसका आमना सामना कभी नहीं हुआ था। वह या तो काफिया के अरवी पाठ से जूझता रहा या तीरंदाजी, तलवारबाजी के दाँव पक्के करता रहा। इतिहास पढ़ते वक्त सियासत के बारे में जानकारियाँ मिलीं, इश्क के पेचोखम से कहाँ गुजरा। किसी पुरसुकून माहौल मे कभी रहा नहीं, किसी के गेसू सँवारने का चाव कहाँ से पैदा होता। उसके दिल में एक बेचैनी थी जरूर पर औरत पाने की ललक नहीं थी कभी। उसने सिर्फ दो स्त्रियों को नजदीक से देखा था एक उसकी अपनी अम्माँ सबा खातून और दूसरी सौतेली अम्माँ मुन्नी बाई। इसकी नजर में एक निहायत नेक सताई हुई औरत की जो उसकी सगी अम्माँ थी दूसरी सताने वाली थी जिसने सबा खातून की बाँदी बनकर हवेली में दाखिला लिया और सौत बन गई। फरीद के दिल में पहली बार जज्बात जागे वो इस शिद्दत से कि इसकी अक्ल को कुंद कर दिया। वह रोज बरोज चंदा के घर पहुँचने लगा। पूरी बस्ती में कानापूफसी होने लगी। जय सिंह बेहद डर गया। उसने चुपचाप तीरथ के बहाने वहाँ से निकल जाने की योजना बना ली। दो घोड़ों का इंतजाम हो चुका था। नदी किनारे घोड़े छोड़ देने का इरादा था। नाव से रात में ही नदी पार कर दूसरे के जागीर में पहुँच जाएँगे। फरीद वहाँ न पहुँच सकेगा। नदी किनारे चंदा और जय सिंह पहुँचे ही थे कि चंद घुड़सवारों सहित फरीद वहाँ पहुँच गया। उन्हें घेर कर अपने किले में ले आया। "जय सिंह, मैं आपकी बेटी चंदा से मुहब्बत करता हूँ। आप इसे मुझसे दूर नहीं ले जा सकते।" - चीखकर कहा फरीद ने। जय सिंह का चेहरा क्रोध से लाल भभूका हो गया। उसने हाथ तलवार की मूठ पर चले गए। फिर अपने को उसने जब्त किया। उसे पता चल चुका था कि वह शिकारी की गिरफ्त में है। चंदा रोए जा रही थी। अब उसे सब कुछ समझ में आ गया था। कोने में चुपचाप भीगी गौरैया सी दुबकी बैठी थी। जय सिंह जानता था कि रहम करने को कहेगा भी तो सुनवाई नहीं होगी। सो खून का घूँट पीकर चुप रहा। फरीद ने जयसिंह और चंदा के रहने का इंतजाम किले में ही कर दिया। फरीद अब बेकाबू हुआ जा रहा था। उसने चंदा को अपनी कोठरी से कहीं नहीं जाने दिया। इसके सामने अभी न पठानों अफगानों को एक करने का मसला था न तालुकेदार से सूबेदार बनने और सूबेदार से शहंशाह बनने का ख्वाब था। वह अमीर की पदवी भी नहीं चाहता था। उसे तो सिर्फ और सिर्फ यह हसीना जो इसके दिल की धड़कन बन गई थी उसे हासिल करना था। उतावला हो गया फरीद। आहिस्ते से अगर जय सिंह से बात करके चंदा उसकी बीवी हो जाती तो सब कुछ बड़ी आसानी से हो जाता पर अब जब वे अपनी खेती बाड़ी अपने जीने की आरजू छोड़कर भाग जाना चाहते थे तो यह बेहिस हो गया।
"चंदा तुम्हें मालूम है न मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ। तुम्हारे बिना नहीं रह सकता। तुमसे निकाह करूँगा।" - फरीद ने इंतिजा की। "हमारा निकाह कैसे होगा मालिक, हमारा धरम अलग है।" - रोती हुई चंदा ने कहा।
"मुहब्बत धरम नहीं देखता। तुम क्या मुझसे मुहब्बत नहीं करती दिल पर हाथ रखकर बोलो।" - चंदा सचमुच फरीद को प्यार करने लगी थी। पर धरम की दीवार और पिता जयसिंह का मान, क्या कहती कैसे कहती। कश्मकश में थी। वह रोती रही। उसके आँसू फरीद से बर्दाश्त न हुए। उसने पहली बार उसे छुआ। उसके आँसू पोंछे, उसे सीने से लगाया। मुहब्बत की खुशबू ने दोनों को अपने में समेट लिया। दो जिस्म दो जान एक हो गए। फरीद ने चंदा को पाकर मानो सब कुछ पा लिया। चंदा ने अपना समर्पण अपनी इच्छा से किया था। वह जानते हुए भी आहत थी। फरीद उसे बार-बार कह रहा था कि वह औरतों की बेहद इज्जत करता है, उससे निकाह पढ़वाएगा। रात भर जय सिंह पिंजड़े में बंद शेर की भाँति छटपटाता रहा। उसका दुर्भाग्य कि उसकी बेटी और बीवी खूबसूरती की मिसाल थी। मारवाड़ से निकलते ही इनका काफिला लूट गया था। काफिले की सभी जवान खूबसूरत औरतें लूट ली गई। जयसिंह की बीवी भी उनमें से एक थी। काफी दिनों तक बच्चे जवान और बूढ़े बूढ़ी कोली बस्ती में शरण लेकर रहे। सुना कि पूरब देश का रोहतास इलाका लुटेरों से महफूज है। बेटी चंदा अब शुक्लपक्ष के चाँद की भाँति बढ़ती ही जा रही थी। पर हाय, यहाँ आकर भी क्या हुआ?
"जय सिंह, ले कुछ खा पी ले और दिमाग लगाकर सोच। फरीद मियाँ यहाँ के जागीरदार के बड़े बेटे हैं, दोनों जागीरों के शिकदार भी हैं। वे बड़े जाँबाज सिपाही हैं, पढ़े लिखे हैं इनका दिल आज तक किसी खातून की ओर नहीं आया था, तेरी बेटी भागोंवाली है। अरे वो उससे मुहब्बत करते हैं हम तो कहते हैं हैं शादी कर दे। तू भी सुख से रहेगा तेरी बेटी भी शान से रहेगी। क्यों नाहक जान देने पर तुला है।" एक सिपाही ने उसे खाना परोसते हुए कहा। "तुम तो हिंदू जान पड़ते हो।" - जय सिंह ने कहा।
"हाँ, तभी तो तेरा खाना लाया हूँ। मालिक ने कहा इसीलिए।"
"हुँह, तेरे मालिक को यह ख्याल क्यों नहीं आया कि मुझ हिंदू की बेटी को उठाकर क्यों ले आया है?"
"दिल का मामला है यार, तेरी बेटी पर दिल आ गया है। वह उससे शादी करना चाहता है।"
"वो कैसे कर सकता है ऐसा? तू ऐसा अपनी बेटी के साथ करने दे सकता है?"
"तो क्या करेगा? उसके वश में है वो जो चाहे करे। शादी करना रखैल बनाने से अच्छा है। फरीद खाँ सूर अच्छा इनसान है। वो रियाया के लिए कितना भला करता है।"
"मैं तो धरम गँवा बैठा। इसीलिए शेखावाटी से चलकर आया था?" -
जय सिंह सर धुनने लगा।
"देख मेरे भाई, जबर्दस्ती अगर रोहतास का किलेदार राजा महारथ सिंह भी बेटी को उठाकर अपनी रनिवास में ले जाए तो भी बुरा है। यह शादी करना उसे जिंदगी भर निभाना चाहता है। आज कई सौ सालों में हजारों क्षत्रियों ने धरम बदला है। इसे तकदीर समझ।"
"क्षत्राणियों ने जौहर भी तो किया है।"
"तू कहीं का राजा है क्या?"
"दिल का राजा हूँ।"
"बड़ा जिद्दी है भाई, पर शेर के मुँह लगे शिकार को किसी युक्ति से ही निकाला जा सकता है।" - रात भर समझने और समझाने का दौर चलता रहा। जयसिंह ने मुँह जूठा किया और जल पीया। मन ही मन कुछ संकल्प लिए। चंदा और फरीद एक दूजे के हो चुके थे। इनकी मुहब्बत का प्याला लबालब भरा हुआ था जितना पीते उतना छलक रहा था। फरीद के इश्क की चाशनी में चंदा ऐसी डूबी कि उसके पंख न रहे साबुत। कोई शिक्वा शिकायत नहीं कोई नया अरमान नहीं। बस फरीद ही फरीद। दोनों का पहला पहला प्यार था वह भी कमसिनी का इश्क। कहीं, कोई पेचोखम नहीं। फरीद ने सुनाया कि जयसिंह खुश है वह किले की सेवादारी करना चाहता है। अब चंदा का मन स्थिर हो गया था। उसे अपने महबूब से निकाह करने से भी इनकार नहीं था। उसे क्या मालूम धरम करम वह तो फरीद की सच्ची सुच्ची मुहब्बत की गिरफ्त में थी।
जयसिंह अब फरीद के साथ रहता। वह अच्छा तलवारबाज था। उसके दिल में आग धधक रही थी। किसी तरह भूल नहीं पा रहा था कि किजिलवाश लुटेरे उसकी बीवी को लूट ले गए और आज जिस तालुके में शरण ले कर अपने को महफूल समझ रहा था उसके शिकदार ने जो तालुकेदार का वारिस है उसकी फूल सी बेटी को बंदी बनाकर रख छोड़ा है। उसके जहन में इश्क मुहब्बत की जगह नहीं है। वह अपने आपको दुनिया का सबसे बदनसीब इनसान समझता है। वह अपनी स्त्री और बेटी की अस्मत नहीं बचा सका। फरीद के आस पास वह नफरत से लबरेज डोलता रहता। "लाइए मालिक मैं आपके सर को तेल लगाकर मालिश कर दूँ।" - थक कर आए फरीद से जयसिंह ने कहा।
"ठीक है रहने दो। हमारे जैसे सिपाही को मालिश नहीं सोहता।" -
फरीद तीमारदारी करवाने का कायल नहीं था। उसने देखा जय सिंह का चेहरा उतर गया। कहा -
"चलो कंधे दबा दो।" - जयसिंह आगे बढ़ आया।
"शमशीर बाँधे हुए कंधे दबाओगे क्या?" - फरीद ने कहा और टेक लगाकर आँखें मूँद लीं। जयसिंह ने अच्छा मौका देखा। तलवार कमर से निकाल सीधे फरीद की गरदन पर वार कर दिया कि चीते सी तेजी से फरीद उछला और उसी की तलवार से उसका गर्दन काट दिया। यह सब कुछ ही पल में गुजर गया। पास खड़े अमले सिपाही सकते में आ गए। यह क्या हो गया या खुदा। हे ईश्वर जय सिंह ने यह क्या कर डाला इसकी शंका तो मुझे भी न थी उसके सदा निकट रहने वाले सिपाही ने सोचा और काँप गया कि कहीं फरीद इस पर न रुष्ट हो जाय। चाँद कुँअर को जब यह खबर लगी तो वह पागल सी हो गई। इधर उधर भागने लगी। फरीद आकर उसे समझाने लगा वह सुनने को भी तैयार न थी। उसे अनुभव हो रहा था कि यह सब उसके कारण ही हो रहा है। उसने देखते ही देखते अपने शरीर में आग लगा ली। फरीद बचाने दौड़ा। उसके अमलों ने उसे कसकर पकड़ लिया। "ऐ नीच दुष्ट फरीद अफगान तूने मेरा धरम भ्रष्ट किया मेरे पिता को मार डाला। कभी सुख नहीं पायगा। जो मिलेगा वह तुझसे यूँ ही छिन जायगा जैसे मैं जलकर मर रही हूँ तू भी ताजिंदगी जलता रहेगा और मरेगा। अरे विधर्मी, मेरे तो किसी पूर्वजन्म का कृत्य होगा जो मैंने भोगा तुझे इसी जन्म में सब कुछ मिल जाएगा।" चंदा ने दम तोड़ दिया। फरीद दीवाना हो चुका था। यह क्या हो गया... उसने ऐसा तो कभी नहीं सोचा था। किसी खातून के लिए मन में बुरा ख्याल नहीं लाया। आज इस नियामत की तरह आई मुहब्बत ने कयामत बरपा दिया। एक तो अपनी अजीज दिलवर का कोयला होना दूसरे घिनौने अपराध की तरह उसके पिता का सरकलम कर देना मुआफी के काबिल नहीं है। कहाँ गया उसका पत्थर जैसा ठोस इरादा और कहाँ गया बड़े से बड़ा इनसान बनने का सपना। सब चूर चूर हो गया। वह बेचैन होकर भाग निकला परकोर्ट से। भागता चला गया जंगल की ओर। एक ऊँची पहाड़ी पर चढ़कर अपनी जहर बुझी कटार निकाल ली। अब मैं अपना कलंकित चेहरा लेकर जीकर क्या करूँगा। न जिंदगी में मुहब्बत रही न इज्जत। कटार उठाकर अपने सीने को चाक करने ही जा रहा था कि एक आवाज आई।
"रुको फरीद, ये क्या कर रहे हो" - संसार क्या है अलग अलग इनसानों की कहानी है। इसी तरह के भाँत-भाँत के खेल होते हैं। जैसा डर था वैसा ही हुआ। इसी की मानिंद एक दिन सबको मिट्टी में मिलना है। जान जाने के बाद रोने से वापस नहीं आते, हमें पता नहीं यह किस इम्तिहान का फल है।" - फरीद उनके पैरो पर गिरकर रोने लगा।
"दुनिया बनाने वाले अल्लाह कहो या ईशपिता के सिवा कोई धरती पर रहने नहीं आया है। वही है जो सदैव रहता है। कुराने पाक के अनुसार सारे संसार का अंत होगा एक दिन। हमेशा रहने वाला है खुदा जिसने इक्तकाल को दुनिया का नियम बना रखा है। इसलिए तुम्हें चाहिए कि तुम अपने दरदे दिल को सँभालो। तुम्हारे जिम्मे परवरदिगार ने ढेर सारे काम दे रखे हैं।" - फरीद को उठाकर नजूमी ने सीने से लगा लिया।
"बाबा, तुम वही हो न जिसने मुझे हिसार में रेवड़ियों के लिए पैसे दिलवाए थे?"
"हाँ मैं वही हूँ।"
"तुमने अपनी नसीहत से दो बार मेरी इज्जत और जान बचाई है। तुम्हारे उपकार का बदला देना मेरी औकात में नहीं है।"
"मुझे नहीं चाहिए कुछ भी। मैं तो अपने परवरदिगार की इबादत करता रहता हूँ। वही जहाँ जहाँ जाने को कहते हैं जाता हूँ, उन्होंने ही इनसानी चक्कर की पहचान दी। इसीलिए मैं कहता हूँ जैसे तेरे खानदान की नियामत घोड़े ही रहे वैसे ही तुझे भी उसकी जीन हमेशा कसी रहे यही करना पड़ेगा। यही तो इशारा है उस पाक परवरदिगार का।"
फरीद का मन ठंडा इुआ। वह आकाश की ओर हाथ उठाकर मालिक से बाकी जिंदगी का वादा कर रहा था। जान बूझकर किसी खातून का बुरा नहीं चाहेगा। बेवजह किसी को सताएगा नहीं, दुश्मनों को बख्शेगा भी नहीं। जो तू चाहेगा मेरे मौला मैं वही करूँगा। आसमान से आँखें धरती की ओर की तो देखा नजूमी गायब है। उसका घोड़ा पास ही चर रहा है। उसे हैरत हुई वह तो दौड़कर निकला था घोड़ा पीछे से आया है शायद। बरसात के बाद जैसे आसमान साफ हो जाता है वैसे ही दिलो-दिमाग साफ हो गया था। दिल हल्का हो गया था पर एक गहरे घाव की पीर पसरी थी। घोड़े पर चढ़कर अपने परकोटे में आया परकोटा धुला पुँछा था, गुलाब अतर की खुशबू फैली थी। एक सिपाही ने इक्तिला दी कि अब्बा हुजूर ने बुला भेजा है। फरीद उल्टे पैर उनके पास चला गया। "यह मैं क्या सुन रहा हूँ। तुमने किसी औरत की खातिर खून-खराबा किया है? यही है तुम्हारे इतने पढ़े लिखे होने की निशानी जाहिलों जैसा काम करते हो? अरे जिंदगी की शुरुआत ही इतनी नाकाम हो तो कैसे आगे बढ़ोगे। मसें भीगनी शुरू नहीं हुई कि इश्क का भूत चढ़ गया। हमने जौनपुर में तुम्हारी सगाई बहाव अफगन की बेटी बीबी कमानी से कर दी थी। अभी सोचा था कि निकाह पढ़वाकर रुखसती करा लाओ पर ना... इधर गुल खिला दिया। अब सिर झुकाए क्यों खड़े हो, जवाब दो?" बीमार हसन सूर बेहद खफा थे।
"आपने बजा फरमाया अब्बा हुजूर, आपका हक है जो सजा दें कुबूल है।"
"आपको यहाँ की शिकदारी से छुट्टी दी जाती है। जौनपुर जाइए और कमानी बीबी से निकाह पढ़वाकर रुखसत करा लीजिए। मुन्नी बाई, उनके रिश्तेदार और बेटे सुलेमान, अहमद तथा इमदाद बैठे थे। फरीद की भूल छोटी नहीं थी परंतु इस प्रकार की सजा दिलवाने में अब्बा के इर्द गिर्द बैठे लोगों का ही हाथ था। चुपचाप उन्हें सलाम कर चले आए फरीद। हसन खाँ सूर ने अपने दूसरे बेटे जो मुन्नी बाई के थे उसे शासन प्रबंध दे दिया। सुलेमान न तो ठीक से पढ़ा लिखा था न फरीद की तरह सूझ बूझ वाला था पर मुन्नी बाई की औलाद था। उसने हसन सूर से वादा लिया था कि उसका वारिस सुलेमान वगैरह इसके बेटे ही होंगे। रियाया को यह सब अच्छा नहीं लगा पर उनके वश कोई बात थी ही नहीं। जमाल खाँ का इंतकाल हो गया था। जौनपुर नहीं जाकर फरीद दौलत खाँ के पास दिल्ली चले गए। दौलत खाँ इब्राहिम लोदी के अमीर थे। दौलत खाँ की सरपरस्ती में उन्होंने कमानी बीबी से शादी की और रुखसती करा के घर बसा लिया। दौलत खाँ इसकी सूझबूझ और कुछ कर गुजरने के जज्बे के बड़े कायल थे। उसकी बेचैनी देखकर एक दिन दौलत खाँ ने पूछा - "तुम इतने बेचैन क्यों हो? मुझे बताओ।"
"हुजूरेआली ऐसे वाकयात जो कहने में शर्म आए मैं कैसे बताऊँ?"
"बेफ्रिक होकर कहो मैं तुम्हारे साथ हूँ।"
"मेरे अब्बा हुजूर की ब्याहता अफगान बीवी का बच्चा मैं हूँ और निजाम है पर अब्बा की और बीवियाँ, बाँदियाँ हैं जिनसे बाकी के छ्ह बेटे हैं। उनमें से एक मुन्नी बाई का कहा वे सुना करते हैं। उसी की साजिश के कारण मुझे शिकदारी से हटा दिया। सुलेमान को सौंप कर जागीर का हाल बुरा कर दिया है। अगर सुलतान से कहकर जागीर मेरे नाम कर दिया जाय तो जागीर का भी भला हो और अब्बा हुजूर का भी।"
"जागीर की भलाई समझ में आई पर अब्बा की खूब कही। वो न तो तुमसे मुहब्बत करते हैं न तुम उनसे तो उनका क्या भला होगा?"
"नहीं हुजूर, वो मुझसे बेइंतहा मुहब्बत करते है मैं यह जानता हूँ मेरी काबिलियत पर भरोसा भी है उन्हें लेकिन वे अपने हालात से मजबूर है। उस बाँदी बीवी के भड़काने पर हमारे खिलाफ हो गए। हो सकता है। वे उनके बीच महफूज नहीं हैं।" - दौलत खाँ ने देखा एक औलाद अपने वालिद की सलामती के लिए बोल रहा है। उनका दिल भर आया। अल्लाहताल ऐसी औलाद बख्श कर हसन सूर पर नियामत बरसाया है। क्या हसन सूर इसकी कीमत जानता है? बहरहाल, अमीर दौलत खाँ सुलतान इब्राहिम लोदी से इसका जिक्र करेगा। वो ही जागीर हसन से लेकर फरीद को दे सकता है। बहलोल लोदी ने हसन को जागीर दी थी। कमानी बीबी की रुखसती करा के फरीद घर ले आया। फरीद का दिल बुझा था पर उसे संसार चलाने की नसीहत नजूमी बाबा ने दी थी उसने अपने खाली घर को दिखाकर कमानी बीबी से कहा - "यह खाली और सूना घर है जिसे आप अपनी मर्जी से भरें दुनियावी बनाएँ। हम तो सिपाही हैं हमें कुछ नहीं आता। आपने अपनी अम्मीजान से जो कुछ सीखा समझा है उसी के मुताबिक चलें क्योंकि हमारा कोई नहीं हम दोनों भाई यतीम हैं।"
"मेरे सरताज, आप ऐसा न कहें। आप हमारे सब कुछ हैं आपके भाई आपके होते यतीम कैसे हो सकते हैं, अब हम भी आ गए, भामी अम्मीजान से कम नहीं होती। हाँ आप अपना काम करते रहें, मैं घर सँभाल लूँगी। बेफिक्र रहें। निजाम भाई की दुनिया भी मैं बसा दूँगी।" - फरीद एक सुलझी हुई समझदार हमनवाज पाकर अपने नसीब पर खुश हो गया।
"मुझे लगता है आगे बढ़ने से मुझे कोई रोक नहीं सकता। आप एक दिन मलिकाए हिंदोस्तान होंगी।"
"जहेनसीब। यह बड़ा ऊँचा ख्वाब है।"
"ख्वाब ऊँचे ही देखना चाहिए। हिंदोस्तान का बादशाह होना तकदीर का फसाना लग सकता है आज पर नामुमकिन तो नहीं। कल को कौन जानता है।
"आपने ऐसा ख्वाब दिल्ली आकर देखा है या रोहतास में ही देख लिया था?"
"जाहिर है रोहतास की पहाड़ी पर बैठ कर खुली आँखों से यह ख्वाब देखा है।"
"तकदीर साथ दे, अपनी कोशिश और अल्लाह की मर्जी हो।"
"जी हाँ मेरे बादशाह।" - सगाई के वक्त फरीद एक खूबसूरत नीली आँखों वाला, काले घुँघराले बाल वाला गदबदा सा बच्चा था। कलीदार शेरवानी, रेशमी शलवार और जरीदार टोपी में शहजादा दीख रहा था। कमाली बीवी सुनहरे कलाबत्तू के काम की ओढ़नी और भारी गहनों तले दबी थी। अभी कैसा कद निकल आया है दोनों का रूप-रंग और ढंग ही बदल गए। तब तो फरीद की अम्मीजान थीं जो दुल्हन की बलैयाँ ले रही थी। उनकी धुँधली सी याद है कमानी बीवी को, फरीद बिल्कुल अपनी अम्मीजान सरीखा है। घर गिरस्ती जमाकर फरीद दौलत खाँ के हुजूर में पहुँचा। दौलत खाँ फरीद को लेकर सुल्तान इब्राहिम लोदी के दरबार में पहुँचे। दिल्ली सल्तनत का भव्य दरबार जो कई हाथों से गुजरता हुआ आज इब्राहिम लोदी के कब्जे में था। बेहद नामचीन यह दरबार दुनिया के लिए रश्क करने का सबब यूँ ही नहीं है। हिंदोस्तान मुल्क सोने की चिड़िया कहा जाता है, जिस चिड़िया के सोने के अंडे पाने हजारों साल से लोग बाग उमड़े चले आते रहे हैं। मुहम्मद गोरी ने बीस बार कोशिशें की बिना थके। इक्कीसवीं बार जीता तो क्या जीता अपने नौकरों के हवाले कर लौट गए गोर। फरीद सोचता एक गुलाम जब सैकड़ों साल राज कर सकता है तो मैं तो सिपाही हूँ किसी का गुलाम नहीं। मेरी रगों में ऊँचे खानदान का, ईमानदार लड़ाके का खून दौड़ता है मैं इसे जीतकर रहूँगा। कैसे और कब यह नहीं जानता। इब्राहिम लोदी ने बड़े इत्मीनान से फरीद की कहानी अमीर दौलत खाँ की जुबानी सुनी। कहानी में उन्हें कोई दम नजर नहीं आया। त्योरियाँ चढ़ाकर उन्होंने कहा कि कैसा बेटा है जो बाप बूढ़ा हो गया तो उसकी जायदाद ले लेना चाहता है। जो बीवी उसके पास है उस पर शक करता है। मुझे तो इसकी नीयत पर शक है। दौलत खाँ ने तजवीज की कि किसी को रोहतास भेजा जाय जो वहाँ के वाक्यात खुद पता कर आपको बताए। कहते हैं कि चारों जागीरों की आमदनी भी चौपट हो गई है। सुल्तान इब्राहिम लोदी इस पर राजी हो गया। दौलत खाँ ने फरीद को सब्र से काम लेने को कहा। फरीद में सब्र ही तो नहीं था। दौलत खाँ ने समझाया कि ऊँचे ख्वाब देखने वाले को अल्लाह पर भरोसा और सब्र से काम लेना ही चाहिए।
कारिंदा रोहतास से लौट कर आ गया। उसने कहा कि चारों परगनों में आदनी कम हो गई है। क्योंकि लोग बाग खेत छोड़कर भाग गए हैं। हसन सूर का इंतकाल हो गया है। सुनकर फरीद सकते में आ गया। उसके दिल पर चोट लगी कि आखिरी वक्त में वह नहीं था अब्बा ने उसे दूर कर दिया था। शक तो था ही कि कहीं उन लोगों ने अब्बा को जान-बूझकर तो नहीं मर जाने दिया।
इब्राहिम लोदी ने जब यह खबर सुनी तो उन्होंने दौलत खाँ से मशविरा किया। उन्हें लगा फरीद का कहना सही था। "शहंशाहे आलम, फरीद खाँ सूर जागीर की अच्छी तरह हिफाजत करेगा। वह बहुत अच्छा सिपाही है काम आएगा।" सुलतान लोदी ने फरीद और निजाम को अपने पास बुला कर कहा - "तुम्हें तुम्हारे अब्बा हुजूर हसन खाँ सूर की जायदार बख्शी जाती है। चारों परगने तुम्हारे हुए। तुम दो हजार घुड़सवार तैयार करो निजाम और तुम हमारी शाही सेना की टुकड़ी में अपने आप को मान कर चलो। उसके लिए तुम्हें एक हजार टका सालाना मुकर्रर किए जाते हैं।" - सुलतान ने रुक्का लिखकर दिया। दोनों भाई अपने कुनबे सहित रोहतास लौट आए और फिर से हुकूमत करने लगे। फरीद ने सुलेमान को बुलाकर कहा - "सुलेमान, अहमद और इमदाद तुम तीनों मेरे भाई हो तुम्हें हम कुछ काम देते हैं उसे अंजाम दो और जैसे रहते थे वैसे ही रहो।" - सामने में वे चुप रहे पर उन्हें यह सब गवारा न था। वह भागकर जौनपुर चला गया। रोहतास पास था। फरीद के हाथ में छीनकर देने की बात की। वही वक्त था जब पश्चिम से मुगल जहीरुद्दीन बाबर दिल्ली पर हमला करने बढ़ा चला आ रहा था। इब्राहिम लोदी के लिए सूर, पठान अमीर, सरदार तथा तालुकेदार सहायता करने एकजुट होकर बढ़े चले आ रहे थे। बाबर के पास जंग के नायाब हथियार थे, उसके पास खोने को कुछ न था। वह अपना सब कुछ छोड़कर हिंदोस्तान आया था पर इधर सुलतान इब्राहिम लोदी की फौज से टक्कर थी। मुहम्मद खाँ ने सुलेमान को अमन से काम चलाने को कहा और फरीद से कहा कि क्यों न वह एक परगना सुलेमान को अलग कर दे दे।
"यह रोह नहीं है कांधार का कि पुश्तैनी हक है मेरे भाइयों का यह सुलतान का लिखा हुआ रुक्का है मेरे नाम, मैं बाँटकर क्यों दूँगा।" - फरीद ने साफ-साफ कह दिया।
"देखो सुलेमान मियाँ, अभी तो जंग छिड़ी है। यदि बाबर हार जाता है और हमारे सुलतान इब्राहिम लोदी का तख्त सही सलामत रह जाता है तो मैं तुमसे वादा करता हूँ खुद उनसे रुक्का लिखवाऊँगा, फरीद और निजाम से जायदाद छीनकर तुम्हें दे दूँगा।" -मुहम्मद खाँ ने उन्हें कहा। उन पर दबाव डालने के लिए सुलेमान तीनों भाई और अम्माँ मुन्नी बाई भी वहाँ मौजूद थीं। वे सुनकर मायूस हुए पर समय की नजाकत देखकर चुप रहना पड़ा। जंग जो हिंदोस्तान की तारीख बदलने वाली थी उसमें इब्राहिम लोदी मारा गया। बाबर गद्दीनशीन हो गया। मुहम्मद खाँ सरीखे लोग ताश के पत्ते की मानिंद उड़ गए किधर कि पता नहीं चला। पठानों और अफगानों के राजपाट का अंत आ गया। बाबर बादशाह आगरा में था पर उसके डैने फैल रहे थे। सुदूर बिहार में बहार खाँ का राज्य था, फरीद ने अपने को ताकतवर बनाने के लिए उधर की रुख करने की सोची। अपने भाई निजाम से कहा कि वह रोहतास सँभाले खुद बिहार की ओर जा रहा है।
बहार खाँ ने फरीद को गले लगा लिया। उसने उसे अपने साथ ही रखा। उसे मालूम था कि अब सैकड़ों साल से चली आई हुकूमत का आपसी बैर के कारण खात्मे का वक्त आ गया है फिर भी फरीद के कहने के अनुसार एक बार सारे अफगान पठान में भाईचारा की कोशिश करनी चाहिए। फरीद बहार खाँ के पास रहकर सेना बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। एक दिन पूरे लाव लश्कर के साथ दोनों जंगल में हिरनों का शिकार करने गए कि अचानक एक शेर ने बहार खाँ पर हमला कर दिया फरीद ने चीते की सी तेजी से उछलकर अपनी तलवार से शेर पर वार कर दिया। शेर का सर धड़ से अलग हो गया। बहार खाँ ने यह रूह कँपा देने वाला मंजर देखा और महसूस किया। क्या कोई शख्स अपनी जान जोखिम में डालकर किसी की जान बचा सकता है? कौन ऐसा फरिश्ता होगा जो एक बार में शेर का काम तमाम कर दे? बहार खाँ होश खो बैठा था। होश में आने पर लाव लश्कर सहित वे बिहार लौट आए। गाँव गाँव में यह खबर फैल गई। अमीर के लश्कर के साथ ग्रामीण बेगार जाते थे। उनमें से कुछ उस दिन हिरन भून रहे थे, कुछ मंजीरे बजाकर गा रहे थे। बहार खाँ उठकर इधर उधर असावधान हो कर टहल रहे थे कि शेर ने हमला किया था। जिस गाँव के बेगार थे वहाँ पेड़ों के नीचे, पनघट पर चौपाल में हर जगह यह किस्सा फैल गया। चश्मदीद बेगार नायक की तरह फरीद को बखान कर रहे थे, क्यों न हो उन्होंने अपनी आँखों से वह अजीबोगरीब नजारा देखा था। अमीर बहादुर खाँ ने दरबारे खास बुलाई और सारा किस्सा अपने मुँह से बयान किया। "आज अगर वहाँ फरीद मियाँ न होते तो आपका यह अमीर आपके सामने न होता। यह इनसान नहीं फरिश्ता है यूँ तो बहादुर तरवल्लूस मेरा नाम है पर असल में यही बहादुर है। सुनने में आया था कि ऐसा भी होता है आज देखा है इतने लोगों ने अपनी आँखों से देखा, मैंने महसूस किया है। कैसे मौत के मुँह से इस फरिश्ते ने मुझे खींच निकाला। आज मैं कुछ एलान करना चाहता हूँ। फरीद खाँ आज से शेर खाँ कहलाएँगे। इस तरह का खत मैं लिखकर सभी अफगान और पठान अमीरों, सुबेदारों और सुलतान के पास भेजता हूँ। आमो खास में एलान कर दिया जाय कि फरीद खाँ सूर अब शेर खाँ सूर कहे जाएँगे।"
"आमीन आमीन" - दरबार से आवाज आई।
"हम आज से शेर खाँ को अपना वजीर मुकर्रर करते हैं।"
"बेहतर-बेहतर" - दरबारे खास से आवाज आई।
"अपने बेटे जलाल खाँ को इन्हें सौंपते हैं कि ये उन्हें तालीम देकर अपनी तरह का आलिम बनाएँ, अपनी ही तरह के सिपाही भी बनाएँ। सभी तरह के हथियार चलाकर सिखाएँ। शेर खाँ आपको कुछ कहना है?" "जहेनसीब हुजूर, आपने मुझे बहुत इज्जत बख्शी। जहाँ तक शेर मारने की कुव्वत का सवाल है तो वह मेरा अपना कतई नहीं हो सकता सब उस पाक परवरदिगार का कमाल है उसी ने वह लम्हा चुना जिसमें मुझ जैसे नाचीज के हाथों आपकी जान बच गई।"
"तुम पर अल्लाह की नेमतें बरसें शेर खाँ सूर। तुममें कोई बात है। यूँ ही कोई इतना बड़ा काम करके चुप नहीं बैठता। तुममें कुव्वत है मेरे दिल में आस जगी है कि तुम्हारे जैसे सिपाहियों के दम पर अफगान पठान फिर अपने पुरखों का हक हासिल कर लेंगे।
*** *** ***
"आज फिर इतने बड़े पत्थर के टुकड़ों पर छेनी चलाने लगे भाई मंगल?" -
- जंगी मियाँ ने आते ही पूछा। "संगतराश हैं, पत्थर और छेनी का ही तो काम है।" "सुना तुम आजकल अमीर के खा सुलखास फरीद मियाँ के साथ जंगल जाते हो हाँका करने।"
"ठीक सुना, पर हाँका करने नहीं तंबू गाड़ने ठोकने। काम मुझे जरा भी पसंद नहीं पर इस बार नहीं जाता तो वह मंजर देख ही न पाता।"
"अच्छा, जो अफवाह फैला है वह सच है क्या?"
"बिल्कुल सच, अफवाह नहीं है। भाई जंगी तभी तो मैं पत्थर ढूँढ़ रहा था। यह एक मिल गया है इसमें सही नजारा खोद डालूँगा।"
"लेकिन यह तेलिया पत्थर है मिहनत ज्यादा लगेगी।"
"अब जो लगे हम उस बब्बर शेर को और उसे तलवार की धर से एक बार में ही ढेर करने वाले शेरखाँ की मूरत इसी पर उकरेंगे चाहे जित्ता समय लगे।" -
"हम भी साथ देंगे जैसे कहोगे।" - जंगी ने नहीं देखा था नजारा लेकिन वह भी था संगतराश। जंगी ने इस्लाम कुबूल कर लिया था लेकिन देवी की मूरत बनाने में उसका जोड़ा नहीं था। मंगल शेर, भैंसा, बैल, चूहा, मोर, हंस, घोड़ा बेहद अच्छा बनाता। भवनों और मंदिरों में दोनों मिलकर काम करते, खानगी तथा सुल्तानी सभी तरह के ये काम करते थे। पत्थरकट गाँवों में दोनों कौम मिलजुल कर रहतीं, हम प्याला हम निवाला। पाँवरिए फरीद के शेर खाँ बनने की कथा गा गाकर सुनाते फिरे। लोक रंजन का यह माध्यम एक ओर धरती बनने की कहानी कहता तो दूसरी ओर तुरंत घटनेवाली किसी घटना का गीत बनाकर खँजड़ी बजाकर, पैरों में घुंघरू बाँधकर नाचता हुआ बयान करता। चेरो-उराँव-संथाल घरों की दीवार पर जो चित्र उकेरे जाते, चकरी लगाए बैठे फनियल साँप की, दाने चुगती चिड़िया की, उसमें शेर मारता शिकारी शेर खाँ भी जुड़ गया। पीली मिट्टी से लिए पुते घरों में कोयले और राख से बने, गेरू और आटे से लिखी जाने लगे शेर मारने की दास्तान। बहार खाँ ने शेर खाँ नाम दे दिया - फरीद को, वजीर बनाया फरीद को, लेकिन अपने आप को सर्वशक्तिमान समझने लगे। उन्होंने अपनी पदवी बढ़ा ली खुद ही अपना नाम और पदवी खुद रख लिया। अपने इलाके के खुद मुख्तार थे बहार खाँ सो अपना नाम रख लिया - "सरदारे हिंद सुल्तान मुहम्मद"। फरीद ने एक दिन उनसे अर्ज किया "हुजूरे आली सुल्तान, आप यदि हमें अपने रियासत रोहतास के सहसराम जाने की इजाजत देंगे तो बड़ी इनायत होगी। बहुत दिनों से आपके पास हूँ। उधर मेरा भाई निजाम किस तरह राजपाट चला रहा है देखने का दिल कर रहा है।"
"ठीक है शेर खाँ तुम जा सकते हो।" सुल्तान मुहम्मद ने कहा "हुजूर एक और इल्तिजा है।"
"कहो शेर खाँ ताकि मैं तुरंत ही फरमान जारी करूँ।"
"जनाबेआली यह हसन अली मेरे साथ बहुत दिनों से है सो इसे मेरे साथ जाने की इजाजत दे दीजिए।"
"ठीक है, जैसा तुम चाहो।" - सुल्तान मुहम्मद जो बहार खाँ था, ने फरमान जारी किया कि यथोचित घुड़सवार और लाव लश्कर वजीर शेर खाँ के साथ रोहतास दुर्ग की ओर रवाना हो। रोहतास की पहाड़ी के निकट सहसराम का दुर्ग था। पहाड़ पर दुर्मेद पत्थरों का दुर्ग है जिसमें महारथ सिंह जमींदार रहता था। उसका श्याम सुंदर नाम का शानदार हाथी था जिसके मोटे मोटे बड़े बड़े दाँत सोने और चाँदी से मढ़े हुए थे। महारथ सिंह जमींदार को वह पहाड़ी तथा तलहटी के कुछ गाँव सुल्तान बहलोल लोदी के समय से ही दिए हुए थे। महारथ सिंह न तो किसी की ओर देखता न अपनी ओर किसी को देखने देता। सुल्तान की सरपरस्ती थी कोई कुछ न कहता। शेर खाँ उस पत्थर के दुर्ग को देखकर आहें भरा करता। उस दिन भी उसके जहन में यह बात आई कि यह दुर्ग और श्यामसुंदर हाथी इसके पास होना चाहिए। इस पूजा पाठी क्षत्रिय के पास कमी नहीं होना चाहिए। शेर खाँ किला हथियाने की जुगत भिड़ाने लगा। किला में एक पंडित जी अक्सर पूजा कराने जाते वे राजपरिवार के गुरु थे। शेर खाँ ने उनसे रब्त-जब्त बढ़ाना शुरू किया। उनसे वह संस्कृत सीखने का स्वाँग करने लगा। यूँ संस्कृत वह पढ़ना लिखना पहले से जानता था। एक दिन पंडित जी से शेर खाँ ने कहा था कि वह किला देखना चाहता है। पंडित उसे किला ले गया। यह वाक्या उस दौर का था जब वह जायदाद का शिकदार था। इस बार फरीद से शेर खाँ बना बिहार का वजीर अपने मन में कोई युक्ति सोच रहा था।
कमानी बीवी हामिला थी। शेर खाँ को तुरत ही उपाय सूझ गया। अपनी गढ़ी से रोज घोड़ा दौड़ा कर आता और पंडित का इंतजार करता उसकी मेहनत रंग लाई। उसने पंडित जी को झुक झुक कर प्रणाम किया। पंडित बेहद खुश हुआ, उसका समाचार उस तक पहुँच चुका था "अरे बबुआ फरीद, अब तो तुम शेर खाँ कहाते हो। आएँ, बिहार के वजीर हो गए, का? इहाँ के काम तो निजाम बबुआ खूबे कौशल से देख रहे हैं बिल्कुल तोरे पदचिह्नों पर चल रहे हैं। एक दिन उफ भी नाम कमाएँगे।"
"सब आपको मालूम है हुजूर लेकिन एक बात तो आप नहीं जानते मैं बताऊँ? आपका काम बढ़ने वाला है।"
"क्या बबुआ फरीद?"
"आपकी बहू कमानी बेगम माँ बनने वाली है। उस बच्चे के सितारे तो आप ही न बाँचेगें"
"हाँ हाँ क्यों नहीं? बिल्कुल बाँचेंगे। कैसी हैं बेगम?"
"वैसे तो सब ठीक है पर बरसात आनेवाली है हमारी ड्योढ़ी पहाड़ी की तलहटी में है, जब तब सैलाब आता है। मुझे फिक्र हो रही है कि उसी समय मेरा वारिस जन्म लेगा तो क्या होगा।"
"किसी ऊँची हवेली में चले जाओ।"
"आप चाहेंगे तो वह भी हो जाएगा।"
"वो कैसे?"
"राजा महारथ सिंह की इतनी ऊँची हवेलियाँ हैं। पत्थरों के परकोटे वाला किला है। जगह मिल जाती तो अच्छा होता।"
"अच्छा, हम राजा से जिकर करेंगे। आप निफिकिर रहिए।"
शेर खाँ का दिल बल्लियों उछलने लगा। उसने देखा और जाना है कि राजा महारथ सिंह सरीखे लोग अपने आपको समझते हैं अक्लमंद पर होते नहीं। उन्हें शेर खाँ की लोमड़ी जैसी चाल कहाँ समझ में आएगी। अगर यह किला हाथ आ जाए तो हिंदोस्तान के कई किले मिल जाएँगे। शेर खाँ उतावला था पर हर कदम सोच सोच कर चलता था। बेचैन सा था जरूर, अजीब सी कैफियत थी। कमानी बीवी की मुश्किलों से किले का बहुत मतलब नहीं था पर वह एक सीढ़ी थी। दूसरे दिन दोपहर में पंडित जी अपनी लकुटी, झोला लेकर उतरे कि यह उनके सामने ऐसा अचानक प्रकट हुआ मानो सिर्फ संयोग हो। पंडित जी की बाँछें खिल उठीं इसे देखकर। उन्होंने महारथ सिंह राजा से बात कर ली थी। राजा पंडित जी को बहुत मान सम्मान देते थे सो उन्होंने प्रश्न किया "हसन सूर भी तो काफी दिनों से उसी जगह रहते रहे तो का हो गया?"
"अब नया जमाना, नया लड़िका फड़िका लोग। कहते हैं शेर खाँ कि बरसाती कीड़ा काटने के कारण उनकी सगी मैया रोगी होकर मर मुआ गई सो हौलदिल हो रहा है। बस। ई बहुत संस्कारी है। जानते हैं हमरा से संस्कृत सीखता है और अपने जैसा बोली बोलता है।"
"हसन सूर भी सीधा सच्चा इनसान था। मलगुजारी पहुँच जाता था, ऊँ खुश अपना ओहदेदार सगे को कहके रखा था कि कभी राजा साहेब को परेशान न करना।"
"तब अच्छा खानदान है।"
"मुनीम जी बताते हैं कि हिसाब किताब खुदे देखता था। का कहते हैं पंडित जी शेर खाँ को आने बोलें?"
"हाँ हजूर, ऊँ दक्षिण वाला हवेली उसको दे दीजिएगा। कुछ दिन रहेगा। बाल बुतरू हो जाएगा तो चला जाएगा।"
"चला जायगा तो का? हम फिर ऊँ घर अपना इस्तेमाल में लाएँगे का? भच्छ अभच्छ खाता है ऊँ लोग, गंगाजल से धोवेंगे तबो न शुभ होगा।"
"त ओकरे नाम पर छोड़ दीजिएगा। शेर महल।" - दोनों ठहाका मार कर हँस पड़े। - सारा वाक्य शेर खाँ को सुना कर पंडित जी ने कहा अब तुम चलो राजा साहब से मिल लो। शेर खाँ राजा महारथ सिंह से मिलने किले पर चढ़े। राजा साहब अपने ऊँचे आसन पर बैठे थें, शेर खाँ को भी आसन दिया। बिना किसी लाग लपेट के राजा महारथ सिंह ने कहा - बबुआ शेर खाँ, तू तो अभी बाली उमर के हो कइसे तलवार के एक ही वार में शेर को दो खंड में उड़ा दिए? ई कोमल मुखड़ा कमल के जैसा, ई-सूर्य को मलिन करने वाला तेज, तू तनिको न सोचा कि शेरवा न मरा और उछलकर तोरे उपर वार कर दे तब?"
"राजा साहेब आप हमारे वालिद समान हैं आपका शक शुबहा, खौफ सब जायज है पर मैं सामने की आफत के सामने कभी झुकना नहीं जानता। आगे अल्लाह मालिक।"
"जाओ बबुआ, दुलहिन को ले आओ जनी जात को इज्जत से रखना ही चाहिए।" - शेर खाँ ने खुशी-खुशी उनसे रुखसती ली। राजा ने एक प्रकार से अपनी कब्र खेद ली। दक्षिण मुख की सुंदर हवेली को साफ सुथरा करवा कर शेर खाँ को दे दिया। जिस दिन कमानी बीवी और उनकी बाँदियों पालकी पर चढ़कर किले में दाखिल हुइ वही दिन राजा महारथ सिंह के पतन का शुरुआती दिन बन गया। हवेली में लोहबान की खुशबू फैल रही थी, नमाज और अजान की आवाजें फिजों में तैर रही थीं। महारथ सिंह की अम्माँ और रानियों के कलेजे हलक से मुँह को आ गए। एक तरफ मंदिर की घंटियाँ दूसरी ओर अजान की आवाजें महारथ सिंह ने शेर खाँ को बुलाकर कहा था।
"मसजिद का उठाके ले आए हो बबुआर?"
"राजा साहब, इसकी जरूरत है हम अपने तरीके से इबादत करते हैं आपको कोई एतराज?" - शेरशाह ने तल्ख होकर कहा था। राजा सहम गया इसी को तो मालगुजारी देते हैं। पिनकाहा लगता है। शेर का सर दन्न से काट के फेक दिया हमरो काट देगा तो का करेंगे। कौना गाढ़ा में जान फँसा लिए ए दादा। इ तो बड़ा मनबढ़ू लड़िका है। राजा सोच रहा था। शेर खाँ ने समझा चोट सही जगह पर हुई है। अपना प्रभाव छोड़ने में वह सफल रहा है।
"राजा साहब, आप ज्यादा माथे पर बल न डालिए। हाँ अपना और हमारा तख्त बराबर रखिएगा। रखना तो मेरा ऊँचा चाहिए पर आपकी बुजुर्गियत का लिहाज है दिल में।" - कहकर शेर खाँ चलता बना।
समय पर कमानी बीवी ने बेटे को जन्म दिया। राजा साहब ने सूप भर सोना-हीरा-जवाहरात पेश किया नजराने में खुशी से। शेर खाँ ने बिना मौका गँवाए कहा - ''यह क्या राजा साहब, मैं तो सोचता था आप श्यामसुंदर हाथी मेरे बेटे को नज्र करेंगे।" - राजा महारथ सिंह के हाथों के तोते उड़ गए। उनका गंदुमा चेहरा स्याह पड़ गया हलक सूख गया। जुबान में बोलने की कुव्वत ही न रही वे धीमी चाल अपने शयनकक्ष में आए और धम्म से पलंग पर गिर पड़े। यह उन्होंने क्या किया, कबाछ से दूर ही रहना चाहिए, देह से लग जाती है तो खुजली करते करते जान जाने का डर रहता है। इन्होंने विषबेल को इश्कपेचाँ की लतर समझकर अपने आपसे लिपट जाने दिया। इधर लगातार जिरह बख्तर वाले सिपाहियों का आना जाना देख रहे थे राजा साहब पूछने पर बताया जाता कि शेर खाँ से मशविरा को आते हैं। पर लड़ाका सिपाही के भेष में क्यों आते हैं। शेर खाँ अधिक दिनों तक एक स्थान पर रह ही नहीं सकता था। कहीं न कहीं से किसी अमीर, किन्हीं सिपहसालार और कई सूबेदार की ओर से बुलौआ आ चला था। जाने के पहले राजा महारथ सिंह से कहा - "राजा साहब, हमें जौनपुर फिर दिल्ली की ओर जाना होगा। बाबर बादशाह आगरे में है उससे भी मिलने का इरादा है। मैं तो चला।"
"अपने बच्चे का नामकरण भी तो कर लें कम से कम।" - शेर खाँ ने आनन फानन में कर डाला सब कुछ। बच्चे का नाम इस्लाम सूर रखा गया। राजा महारथ सिंह की ओर से पूरी बूँदी का भोजन बँटा। शेर खाँ ने देखा हाथी के कान जितनी बड़ी-बड़ी पूरियाँ थीं। मन में आया कि राजा महारथ सिंह बेहद सरल और इज्जतदार खानदान का इनसान है तभी तो इतना सब कर रहा है। पक्की बात है कि वह यह सब डर से तो नहीं कर रहा होगा।
"राजा महारथ सिंह जी, हम बिहार की तरफ कूच कर रहे हैं हमारी बीवी बच्चा आपकी देख रेख में हैं। किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं होगी आपकी सरपरस्ती में यह मेरा यकीन है। तो मैं जाऊँ न" - शेर खाँ ने कहा।
"हमारी ओर से इन्हें कोई परेशानी नहीं होगी। आप इत्मीनान रखिए।" - राजा ने आश्वासन दिया। शेर खाँ रोहतास किला से निकलकर अपने साथी सिपाहियों के साथ मिलकर जंगलों पहाड़ों में बैठकर चेरो उराँव और स्थानीय क्षत्रिय तथा पठानों की फौज तैयार करने में लग गया। फौज के लिए सिपाही चुनने में वह खुद लग जाता। उसके सामने एक एक कर जवान आते वह उनसे कुछ प्रश्न पूछता अगर संतुष्ट होता तो उसकी पिंडलियों को अपने हाथों से छुकर, महसूस कर भर्ती करता। भर्ती के बाद शुरुआती दाँव सिखाता साथ ही उन्हें अभ्यास करने का समय देता। घोड़े वह खुद पहचान कर खरीदता उसके खाने पीने और अभ्यास का खास ख्याल रखता। श्यामसुंदर हाथी शेर खाँ के दिल में ऐसा बस गया था कि उसने जंगलों से हाथी पकड़वा मँगाए उन्हें युद्ध के लिए तैयार किया। तीरंदाजों की अलग एक फौज खड़ी की। शेर खाँ के जंगलों में सेना इकट्ठी करने की खबर से उस वक्त हड़कंप मच गया। बहार खाँ जिसने अपने आपको सरदारे हिंद सुलतान मुहम्मद की उपाधि दी थी उसी ने शेर खाँ को अपना वजीर मुकर्रर किया था उसे मुहम्मद खाँ सूर ने आकर इत्तिला दी कि शेर खाँ आपको आपके ओहदे से बेदखल करने के लिए ही सेना इकट्टी कर रहा है। सुलतान मुहम्मद पहले से ही शेर खाँ के पराक्रम के आगे डरा हुआ था अब ज्यादा घबड़ा गया। उसने मुहम्मद खाँ सूर के कहने पर शेर खाँ के सौतेले भाई सुलेमान वगैरह के नाम जागीर का रुक्का लिखकर भेज दिया। सुलतान मुहम्मद ने एक हजार घुड़सवार शेर खाँ से लड़ने भेजा। शेर खाँ अपनी नई तैयार की गई सेना के बल पर पुरानी सेना से मुकाबला नहीं कर सका। अपनी अस्त-व्यस्त सेना के साथ वह पशेमन होकर सुलतान जुनैद बरलास की जानिब पहुँच गया। सुल्तान जुनैद बरलास खानदाने तैमूरिया का एक वफादार तथा इज्जतदार अमीर था। उसके पास एक बड़ी सेना थी। अपने समय का वह एक ही पक्का इनसान था, सच्चा मुसलमान था। उसने शेर खाँ की हौसला अफजाई की, अपनी फौज उसकी सहायता को दिया अब जौनपुर के मुहम्मद खाँ सूर हार कर भाग गए, सुलेमान कहीं जाकर छिप गया। शेर खाँ जो अपने खानदान और जाति की एकता का हिमायती था ने मुहम्मद खाँ सूर को खबर भेजी - "मुझे आपके परगने में कोई दिलचस्पी नहीं है। मैं तो सिर्फ और सिर्फ अपने हक की लड़ाई लड़ रहा था। आप आएँ और फिर से जौनपुर की गद्दी सँभालें। मैं रमता जोगी हूँ। मुझे ज्यादा बड़ा काम करना है।" - मुहम्मद खाँ सूर एक तो शेर खाँ की फितरत को जानता था, थोड़ी देर को विभ्रम में पड़ गया था दूसरे स्वयं भी बुद्धिमान था सो वैमनस्य भुलाकर जौनपुर का तख्त सँभाल लिया। शेर खाँ का अब बिलाशक सच्चा दोस्त मुहम्मद खाँ सूर कभी इसके खिलाफ नहीं जायगा। उसने अपने भाई निजाम को फिर से अपने परगने सहसराम, हवासपुर टाँडा बलहू का शिकदार बहाल किया और खुद जुनैद बरलास के हुजूर में रहा। इन दिनों शेर खाँ में एक बदलाव आया था। वह जंगल में फौज की तालीम देता जब थक कर पेड़ के नीचे किसी पत्थर को सिरहाना बना लेट जाता तो अजीबोगरीब वाक्यात पर उसकी नजर जाती। जंगल का अपना रंग-ढंग था, कीड़े मकोड़े, पशु पक्षियों के तौर तरीके देख दिल में कई तरह की भावनाएँ उठतीं। शेर खाँ ने देखा कि एक छोटा सा पंछी बाज पत्तों के बीच देर तक चुपचाप बिना हिले डुले बैठा रहता है सिर्फ उसकी लाल काली करजनी सी आँखें इधर उधर घूमतीं। कई बार घंटों एक ही ओर देखता हुआ बैठा रहता। ज्यों ही झुटपुटा समय होता कि वह अपने से दोगुने पंछी पर झपट पड़ता और एकबारगी दबोच लेता। दबोचा जाने वाला पंछी अक्सर बेपरवाह होता। यह वाक्यात जंगल के लिए आम थे। साँप चूहे मेढक गिलहरी पंछी को बेपरवाही में ही दबोचता, नेवला साँप को ऐसे ही समय दबोचता, लोमड़ी चालाकी से ही शिकार पाती यह इस खुदाई की फितरत हैं जो ताकतवर, अक्लमंद, शातिर होता है जीत उसी की होती है। हम हिंदोस्तान की धरती पर यहाँ के बाशिंदे तब तक सुकून से राजपाट चलाते रहे जब तक किसी उनसे ज्यादा होशियार ताकतवर चालाक हमलावर ने शिकस्त न दे दी। कीमत उसी की है जो शिकस्त दे सकते हैं जो हार गए वे गए। शेर खाँ को ऐसा लगा जैसे उसे सदा याद दिलाने के लिए एक साथी चाहिए। वह साथी कौन हो सकता है। उसने एक बाज को चुना। अब उसका अपना प्यारा बाज उसके साथ रहता। कई बार शेर खाँ अपने बाज को कुछ पता करने भेज देता। अक्सर वह उसके कंधे पर बैठा रहता। सुलतान जुनैद बरलास बाबर बादशाह की सेवा में उसके दरबार में उपस्थित हुआ, साथ में शेर खाँ भी था। शेर खाँ पठानी वस्त्रों में एक बहादुर लड़ाका दिखाई पड़ रहा था पर उसमें कोई शाही या अमीरी रंगत थी ही नहीं। जुनैद बरलास ने शहंशाह जहीरुद्दीन बाबर के सामने शेर खाँ के गुणों और बहादुरी की चर्चा की। बाबर सुनकर बेहद खुश हुआ और अपने अनुरूप कीमखात का जरीदार चोगा शेर खाँ को पेश करने का हुक्म दिया। बाबर को उसकी मझौले कद काठी पर चोगा खूब फबता दिखता था। बाबर ने उमंग में कहा -"तुम तो शेर खाँ नहीं शेरशाह दीखते हो।" - शेर खाँ के चेहरे पर रौनक छा गई। उसने तुरत ही नियम के अनुसार तैमूर वंश के प्रति निष्ठा की, वफादारी की कसमें खाईं। दरबार सहित जुनैद बरलास बेहद खुश था। एक बहादुर पठान बाबर का मुरीद हो गया है यह उसे उस वक्त अपने लिए सचमुच जरूरी लगा। शहनशाह ने जुनैद बरलास और शेर खाँ को अपने साथ खाने की दावत दी। शेर खाँ निहायत शरीफाना अंदाज में खाने बैठा। सामने माही चा यानी बक्रा मुसल्लम परोस कर रखा गया था। बेहद खुशबूदार और जायकेदार दिख रहा था। शेर खाँ के नथुनों में इसकी खुशबू पहुँच रही थी, उसकी भूख भड़क उठी। सबों ने हाथों में तश्तरी ले रखी थी, वहाँ कोई छुरा काटने को नहीं था सभी एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। शेर खाँ ने आव न देखा ताव तुरंत अपनी कमर में खुँसी खुखरी को निकाला और माहीचे की रान काटकर अपनी तश्तरी में रखा। रोटी के साथ खाने लगा। बाबर ने देखा तो अचरज में पड़ गया। बादशाह के सामने एक पठान नौजवान थोड़ा ठहर नहीं सका, खाने की उतावली में अपनी ही खुखरी का इस्तमाल कर गया और पहला मनपसंद निवाला शहंशाह नहीं शेर खाँ लेने की जुर्रत कर रहा है। बाबर बादशाह ने कनखियों से उसे देखा और सुल्तान जुनैद बरलास से धीरे से कहा - "सुनो भाई, इस अफगान में मैं एक बागी को देख रहा हूँ। इससे हमेशा बचकर रहना नजर भी रखना। देखो इसने जाने क्यों अपने कंधे पर बाज बैठा रखा है। पालतू बनाने के लिए तमाम खुशनुमा, गानेवाले रंगीन पंछी हैं फिर बाज ही क्यों? नः इस पर नजर रखी जाय।" बरलास ने ना-नुकर की तो कहा,
"मैंने कहा न कि यह उपद्रवी जान पड़ता है। माबदौलत को इससे खतरा पेश आ सकता है। नजर रखी जाय, गड़बड़ी का शक हो तो तुरंत कैद कर लिया जाय।" - शेर खाँ ने अपने रोएँ के हर हिस्से को आँखें बना रखी थीं। उसे सब कुछ समझ में आ गया। रात का खाना खतम होते न होते वह अपना घोड़ा ले आगरे से निकल गया। वह सीधा सुल्तान मुहम्मद के पास गया। सुलतान मुहम्मद ने कहा - "शेर खाँ, तुमने मुझे जिंदगी बख्शी थी उसका समय पूरा हो रहा है। तुम अब भी मेरे बेटे जलाल के सरपरस्त हो। इसे अपनी तरह का इनसान बनाना।"
"आप नाहक गमगीन हैं सुल्तान। मैं आ गया हूँ आपसे काफिया और गुलिस्ताँ का जिक्र करके फिर से जिंदगी में ले आऊँगा। मुझे जान पड़ता है अकेले हो गए हैं हुजूर।"
"इसमें कोई शक नहीं कि मैं अकेला पड़ गया हूँ।" - शेर खाँ उनको खुश रखने की कोशिश करने लगे। "पश्चिमी प्रदेश रायसीन का राजा पूरनमल बेहद पुख्ता किले का स्वामी था उसके पास दस हजार घुड़सवार और कई हजार पदातिक सैनिक थे सभी के सभी जाँबाज। पूरनमल वीरता की मिसाल था पर साथ ही सुरा-सुंदरियों में लिप्त रहने वाला राजा था। दिल्ली के सुलतान इब्राहिम लोदी के साथ मित्रता का संबंध था पूरनमल का। सुलतान बहलोल लोदी का यह करदाता था। सभी छोटी बड़ी लड़ाइयों में उसका साथ देता। इब्राहिम लोदी इससे कर नहीं लेता था पर सेवा भेजने का अनुबंध था। इब्राहिम लोदी की बाबर के साथ हुई निर्णायक लड़ाई में पूरनमल ने बहुत देर कर दी सेना लेकर आने में। इब्राहिम लोदी मारा गया। बाबर गद्दीनशीन हुआ। पूरनमल इब्राहिम लोदी की हरम की बेगमों को रायसीन ले गया अपने किले में पहुँचकर पूरनमल ने दोस्ती का चोला उतार फेंका और बेगमों को नाचने गाने को मजबूर कर दिया। पूरनमल ने बाबर बादशाह की गद्दीनशीनी पर तोहफे भी भेजे। जिन दिनों शेर खाँ जुनैद बरलास के साथ बाबर से मिला था उन्हीं दिनों उसने ऐसे वाकयात सुने। शेर खाँ का दिलो दिमाग भन्ना उठा। एक अफगान बादशाह की बेगमों का यह हश्र! पूरनमल पर कभी विजय प्राप्त करने का सुअवसर मिले तो उसे इसका मजा चखाया जाए - शेर खाँ मन ही मन सोचने लगा। बाबर की नजरे इनायत के लिए हजारों साल से राज करने वाला क्षत्रिय कितना नीचे गिर गया यह सोचता हुआ वह बिहार पहुँचा था।
सुल्तान मुहम्मद के पास शेर खाँ था तभी उसे जानकारी मिली कि उसकी बेगम और भाई निजाम कुनबे सहित किले से नीचे उतर सहसराम आ गए। इसे यह भी जानकारी मिली कि मुगलों की नजर अब पूरब की ओर उठ रही है। उसने निजाम को संदेश भेजा कि अपनी और अपने पूरे कुनबे की सलामती के लिए निजाम फिर से पत्थर वाले पहाड़ी किले की शरण ले। राजा महारथ सिंह को भी संदेशा भेजा कि वह बिहार में है और उसके कुनबे को मुगलों से खतरा है सो उन्हें फिर से अपनी सरपरस्ती में रख लें। सुलतान मुहम्मद से बातचीत के सिलसिले में शेर खाँ अक्सर कहता - "हुजूर ये मुगल हिंदोस्तान पर ज्यादा दिन टिक नहीं सकते। इनका अंदाज पहले से शहंशाहों वाला है। ये खुद कुछ नहीं करते, अमलों और ओहदेदारों पर भरोसा करते हैं जो बिना रिश्वत लिए कोई काम नहीं करते। अभी तो सिर्फ दिल्ली आगरा इनके कब्जे में है तब ये रंग है।"
"हिंदोस्तान में कौन है जो इन्हें रोकेगा शेर खाँ, सारे क्षत्रिय और कुछ पठान जो नूहानी हैं इनका इस्तकबाल करने को मरे जा रहे हैं।"
"मैं रोकूँगा सुलतान"
"छोटे मुँह बड़ी बात न करो। तुम बहादुर हो आलिम हो पर तुम्हारा साथ कौन देगा। उनके तोप के मुकाबिल हो क्या? पहले उनकी तैयारियाँ देखो तब बोलो।"
"देख रहा हूँ सुलतान।" - शेर खाँ बेचैन था।
बाबर बादशाह का इंतकाल हो गया था हुमायूँ बादशाह गद्दीनशीन हुए। हुमायूँ बहादुर तो थे लेकिन उनका ज्यादा से ज्यादा समय किताबों के बीच गुजरता। किताबों से समय बचता तो शराबनोशी करते रक्कासाओं के नाच देखते। उनके अमीर उमरा और दोस्त बैरम खानखाना उनका ख्याल रखते। बैरम खाँ ने हुमायूँ बादशाह से अर्ज किया -"शहंशाह, आपके अब्बा हुजूर जन्नत आशियानी बादशाह बाबर के पैर अभी जमे भी नहीं थे कि वे इस दुनिया से रुखसत हो गए। अब अगर बादशाही कायम करनी हो तो हिंदोस्तान जो अभी खील-खील बिखरा हुआ है उसे समेट लें और फिर मुसलमानी राज करे।"
"आपकी सलाह मेरे मन मुआफिक है। पहले हमें पूरब की ओर बढ़ना चाहिए। जौनपुर, चुनार, बिहार फिर गौड़। क्या कहते हैं? - हुमायूँ ने तजवीज की।
"बिल्कुल ठीक। अभी हमारे मातहत जितने सिपाही घोड़े और हाथियों की फौज है हम उनसे कन्नौज के बाद जौनपुर का इलाका लपेटे में ले सकते हैं। जौनपुर से हमें और लड़ाके और घोड़े मिल जाएँगे। चुनार के पुख्ते किले को छोड़ और बिहार को दरकिनार कर हमें गौड़ की ओर बढ़ना चाहिए।"
"ऐसा क्यों खानेखाना साहेब?"
"चुनार के पुख्ता किले पर अपना वक्त जाया होगा और बिहार का सरपरस्त शेर खाँ सूर है जो बड़ा शातिर और जाँबाज सिपाही है। उससे टकराने की अभी जरूरत नहीं है।"
"जैसा आप ठीक समझें।"
"दो चार लड़ाइयाँ जीतनी जरूरी हैं शहंशाह वह भी तुरंत। तभी तो रियाया में खौफ रहता है। इसे ही तो सियासत कहते हैं।"
"आप सियासत के लिए कहते हैं तो सच ही होगा।"
"हुजूरे आली, मुल्क अगर एक बड़े दरख्त के समान है तो सियासत पानी है जो उसकी जड़ें सींचता है। आपके जन्नत आशियानी अब्बा हुजूर बादशाह बाबर ने मुल्तान के रास्ते में ही कहा था कि हिंदोस्तान जीतकर वहाँ से हीरे जवाहरात लूट के ले जाने नहीं आया हूँ हम इसे अपना वतन कबूल करते हैं। हम चाहते है कि यहाँ एक पौध रोपें उसकी जड़े दूर-दूर तक फैलें खुदा की मर्जी।"
"हमें याद है। अब्बा हुजूर ने यह सब इबादत के वक्त कहा था।"
"इबादात के वक्त दिल से निकली आवाज दुआ होती है।"
"उस वक्त इनसान अपने अल्लाह के रू-ब-रू खड़ा होता है।"
"हुजूर, तो हम लश्कर की तैयारी कर लें।"
"तैयारी हमारी तहजीब की तरह हो।"
"न हुजूर, यहाँ जंग पर जनानियों को नहीं ले जाते।"
"हम अपनी चाल क्यों छोड़ें?"
"पहली लड़ाई है। बेगमों को किले में रहने दें। बाकी को ले जा सकते हैं।"
"चलिए आप की तजवीज भी सही है " - बैरम खाँ ने सब मसले देख रखे थे। उन्हें यह अंदाजा हो गया था कि राजपूतों को अपने साथ मिलाना उतना मुश्किल नहीं है पठानों और अफगानों से पार पाना बेहद खतरनाक है। यह जरूर है कि छोटे छोटे कबीलों वाले छोटे-छोटे सूबों में बँटे थे उन्होंने यह भी सुन रखा था कि शेर खाँ एका कराने में जुटा था अब। "खानेखाना, आपकी तरह मैं शेर खाँ को कोई तवज्जो नहीं देता। वह है क्या चीज इधर उधर सियार की तरह भटकने वाला बिना किसी हैसियत का इनसान।"
"इतना कम करके आँकना सही नहीं है शहंशाह। दुश्मन जितना सामने से दिखाई पड़ता है उसकी ताकत पीछे से कहीं बड़ी है। यह न भूलें कि हमने पठान और अफगान सुल्तानों की फमट का ही फायदा उठाया है। अब यदि कोई शख्श एका करवा देता है तो हमारी मुखालफत के लिए तैयार हो जाता है।"
"अभी हमें कन्नौज से फौज लेकर सीधे गौड़ की ओर बढ़ना चाहिए आपकी राय यही है न" - हुमायूँ ने अपने आपको फतह की तजवीज की ओर मोड़ लिया। बैरम खाँ ने इशारा समझा कि अपनी नजर जमाकर उसी ओर रखनी चाहिए जिस ओर जाना है फालतू इधर उधर भटकने से क्या फायदा?
"शेर खाँ के सामने बड़ी से बड़ी सेना खड़ी करने की चुनौती थी। सेना के लिए धन चाहिए। घोड़े, हथियार और सिपाहियों के लिए धन ही जरूरी है। छोटी छोटी लड़ाइयों से इकट्ठा धन वह इन्हीं में खर्च करता। अपना और अपने कुनबे का जीवन शानदार नहीं रखता बेहद सादगी से रहता। जिन इलाकों में उसकी हुकूमत थी वहाँ खुशहाली थी, कर पूरे मिलते थे लेकिन बादशाहत की लड़ाई के लिए यह सब नाकाफी था। बिहार के अमीर सुल्तान मुहम्मद के इंतकाल के बाद नाबालिग जलाल खाँ का सूबा शेर खाँ की सलाह से जलाल की अम्माँ दूदा बेगम देखती थीं। दूदा खुद बीमार रहती। उन्होंने शेर खाँ को बुलाकर तिजोरी की चाभी दे दी कि जलाल की सरपरस्ती कभी न छोड़े। उन्हें शेर खाँ पर पूरा भरोसा था। जलाल खाँ के साथ खास सरदारों को छोड़ शेर खाँ अपने घर आए। घर आकर देखा कि पत्थर वाले किले पर निजाम ने डेरा बना लिया है। महारथ सिंह जमींदार का कहीं अता पता नहीं था।
"यह कैसे हुआ निजाम, सुना राजा साहब किला का कोई कोना छोड़ने को तैयार न थे।"
"हमने काफी कोशिश की भाई, पर वह नहीं माना फिर एक चाल चली।"
"क्या थी चाल?"
"हमने कहा भाभी कमानी बीवी, मेरी मेहर जमानी बीवी और बच्चे सभी बेहद बीमार हैं कम अज कम उन्हें तो हवेली में जाने की इजाजत दे दो। वह तैयार हो गया। हमने पचास पालकियों में भरकर पठान सिपाहियों को भेज दिया। उन्होंने राजा के आलसी सिपाहियों की मुश्कें कसी और बागीचे में छोड़ आए। दूसरे दिन राजा महारथ सिंह का श्यामसुंदर हाथी तैयार करवाया उन्हें उस पर बिठा बागीचे में ले आया।"
"निजाम, रनिवास का क्या हुआ?"
"भाई पालकी और बारादरियों में इज्जत के साथ उन्हें भी बागीचे वाले घर में पहुँचा दिया।"
"अब वे कहाँ हैं?"
"बागीचे में ही हैं। उनकी जमींदारी वहीं तो है।"
"देखो यह तरीका ठीक नहीं था। औरतों की शान में कोई गुस्ताखी नहीं होनी चाहिए।"
"नहीं होगी भाई।" - निजाम ने कहा। बहुत दिनों के बाद एक पुरसुकून रात थी शेर खाँ की कमानी बीवी ने साथ चार-चार बेटों को जन्म तो दिया यूँ ही भागते से।
"मेरे सरताज, इस किले पर हम हैं किसी तरह की कोई तकलीफ नहीं है न ही डर है। यहाँ से रसद के सिवा कुछ भी लेने नीचे जाने की जरूरत नहीं है। आज से दस साल पहले जब हम यहाँ आए थे इस्लाम के पैदा होने के वक्त तक नहीं पता था कि चश्मा-पानी और दरिया सब यहाँ मौजूद है। यह जन्नत है मेरे आका।"
"आप खुश हैं बेगम तो मैं खुश, देखिए हमने कभी आपको अपना समय नहीं दिया, जंगलों पहाड़ों की खाक छानते फिरते हैं। एक जुनून सा सवार है कि मुझे हिंदोस्तान का शहंशाह बनाना है। कई लोग तंज कसते हैं पर मेरा दिल कहता है ऐसा होगा जरूर। आप हिंदोस्तान की मलिका बनेंगी।"
"इतनी अच्छी बातें सुनकर यकीन करने का जी करता है मेरे शहंशाह। आप मेरे लिए हिंदोस्तान तो क्या काबुल कांधार खुरासान ईरान सभी के बादशाह हैं।"
"यही सादगी मुझे आगे बढ़ने की कुव्वत देती है बेगम।"
"यहाँ एक अफवाह उड़ी थी मेरे हमदम कि आपने दुदा बेगम से निकाह पढ़वा लिया है।" - कमानी बीवी ने पूछने के अंदाज में कहा। शेर खाँ को हँसी आ गई। सचमुच यह अफवाह उड़ी तो थी। हमारी बीवी तक पहुँच गई।
"मैंने कोई निकाह नहीं पढ़वाया। दूदा बेगम जन्नतनशीं हो गई। वे बेहद नेकदिल इनसान थीं। कमानी बीवी, सुल्तान मुहम्मद निहायत कमीना इनसान था, उसने बड़े हरम बना रखे थे पर जलाल की अम्माँ भली औरत थीं। उनपर गलती से भी तंज न कसें।" - शेर खाँ उदास हो गए। "यह भी सुन रखा है पर अब जो मैं कहने जा रही हूँ उस पर गौर फरमाइएगा अपने बाजू में जो चुनार गढ़ है उसे तो देख रहे हैं न?"
"बिल्कुल, इस रोहतासगढ़ के किले का बड़ा भाई है क्यों न देखूँ।" शेर खाँ ने तपाक से कहा।
"और क्या-क्या जानते हैं मेरे आका? सिर्फ किले की चारदीवारी ही दीखती है या और कुछ?"
"अपने ताज खाँ साहब को सुल्तान इब्राहिम लोदी ने वह किला दिया था। चुनारगढ़ उन्हीं का है।"
"हुजूर उनकी एक बेगम है लाड मलका। सुना है वह रक्कासा थी। बेहद हसीन है। धनवान भी है, ताज खाँ साहब की चहीती है।"
"होगी, ऐसा होता है।"
"पर वह मलका मुसीबत में है। उसके सौतेले बेटे ताज खाँ को मार डालना चाहते हैं, लाड मलका को अपना बनाना चाहते हैं।"
"ऐसा कैसे हो सकता है। जिससे चिढ़ हो सकती है उसे अपनाना, यह नहीं हो सकता।"
"लाड मलका के जहन में सिर्फ आपका नाम आता है जो उसे इस मुश्किल से उबार ले।"
"आपको किसने कहा? और मैं दूसरे के घर के अंदर क्यों घुसने जाऊँ? यह कोई सियासी मुआमला तो है नहीं। मैं ऐसे वाकयात सुनना भी नहीं चाहता।"
"सुनिए तो, आपको निजाम भाई भी बताएँगे।" - एक हसीन रात कमानी बीवी ने खो दिया। शेर खाँ करवटें बदलते रहे। उन्हें ठीक से समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सुबह-सुबह निजाम को तलब किया और पूछा कि चुनारगढ़ का क्या किस्सा है?
"ओहो भाई, मैं अपने आप में इतना उलझा था कि आपको कुछ बता नहीं पाया। अच्छा हुआ कि भाभीजान ने आपसे यह सब कह दिया। चुनारगढ़ से लाड मलका का एक खत आया है।" - निजाम ने खत शेर खाँ को पढ़ने दिया। सचमुच लाड मलका शेर खाँ से मदद की गुहार कर रही हैं। किले के किसी गुप्त कोने में वे ताज खाँ के साथ छुपी है।" - शेर खाँ दिन भर सोचता रहा क्या करना चाहिए। ताज खाँ के बहाने कोई दुश्मन तो नहीं है? लेकिन क्यों कर कोई दुश्मन चुनारगढ़ का सहारा लेगा? चुनारगढ़ की कौन सी पोशीदा जगह है जहाँ ताज खाँ छुपे हो सकते हैं वहाँ कैसे पहुँचें? समय बालू की मानिंद इनकी मुट्ठी से फिसलता जा रहा था। रात गहरी काली थी, इनकी बाँहों में बेटा आदिल खाँ सो रहा था, बाज बड़ी बेचैनी से फड़फड़ा रहा था कि शेर खाँ उठ खड़ा हुआ। अपने साथ एक हजार सिपाही लेकर चुनारगढ़ की ओर चला पड़ा। गढ़ की दीवारों के अंदर जो हलचल मची थी वह किलेदार बिल्कुल नहीं जानता था। शेर खाँ अफगान था और लोदी वंश का खैरख्व्वाह था। ताज खाँ के साथ उनकी आमदरफ्त थी। दरवाजा खोल दिया गया। अंदर हवेली में जाते ही उसने जो नजारा देखा वह दिल दहला देने वाला था। ताज खाँ के बेटे ने उनका सर काट दिया था। लाड मलका के बाल पकड़कर खींच रहे थे। "बता खजाना कहाँ छुपा रखा है गलीज रक्कासा, बता वरना में तेरा वो हस्र करूँगा कि शैतान भी शर्मा जाए।" - ताज खाँ का बेटा बक रहा था लाड मलका रोए जा रही थी। शेर खाँ ने उसके चंगुल से लाड मलका को छुड़ाया। बिना बड़ी लड़ाई के वह इनके कब्जे में आ गया। शेर खाँ ने उसे कैद कर लिया और ताज खाँ को इज्जत से दफन किया। उसने लाड मलका से काफी माँगी कि उन्हें आने में देरी हुई।
"मोहतरमा लाड मलका, अगर मैं बिना समय गँवाए आ गया होता तो आज ताज खाँ साहेब हमारे बीच होते। हमें बेहद अफसोस है, मैं शर्मिंदा हूँ। मुझे लगता है ताज खाँ साहब की ऐसी मौत के लिए मैं खुद जिम्मेवार हूँ।"
"शेर खाँ, आप आए यह बताता है कि ताज खाँ साहेब का आप पर ऐतबार बिल्कुल सही था। उन्होंने कहा था कि शेर खाँ ही इस किले को किसी गैर के हाथों जाने से बचा सकता है।"
"जहेनसीब, मुझे इस लायक समझा अमीर ताज खाँ ने।"
"शेर खाँ साहेब, एक इल्तिजा है।"
"कहिए मल्काँ"
"मेरे पास ताज खाँ साहेब का और मेरा अपना खजाना है वह माशा अल्लाह बहुत बड़ा है। चुनारगढ़ में पाँच हजार घुड़सवार फौज है यह सब आपकी नजर करती हूँ।"
"आप खुद एक जवान खातून हैं, सब कुछ सँभाल सकती हैं मैं मदद करूँगा।"
"मुझे आपकी मदद चाहिए हुजूर लेकिन आप मेरी पूरी बात गौर से सुनिए तो सही।"
"कहिए लाड मल्का।"
"आप मुझसे निकाह पढ़वा लीजिए। मैं और मेरा धन, मैं और मेरा गढ़ सब आपका।" - शेर शाह गुस्से से लाल हो गए। सोचा यह औरत अपनी बेमिसाल खूबसूरती और धनबल की धौंस दिखा रही है। कैसी बेरहम है यह। ताज खाँ साहब की कब्र की मिट्टी अभी गीली ही है और यह मुझसे निकाह की तैयारी कर रही है। लेकिन इसे नहीं मालूम की शेर खाँ किसी औरत से जरा भी नहीं भरमाता। धन-बल अपने बाजुओं की ताकत पर हासिल करता है इस तरह की गलती करने का वक्त बहुत पीछे छूट गया है।
"मैंने ताज खाँ साहब की महबूबा के नाते आपकी इज्जत अफजाई की मोहतरमा आप तो ऐसे बेहिस सवाल करने लगीं, बल्कि तजवीज सुझाने लगीं। मैं अंदर गढ़ में आपके जानिब खड़ा हूँ आपको कैद कर अमीर बन बैठूँ कौन माई का लाल रोकेगा? पर शेर खाँ ऐसा नहीं कर सकता। मुझे तकलीफ हो रही है यह कहने में कि मुझे आपको पहचानने में गलती हुई।"
"गलती तो हुई हुजूरे आली शेर खाँ पर मुझे पहचानने में नहीं पूरे वाकयात को समझने में। मैं जो कुछ आपको कह रही हूँ वह मरहूम ताज खाँ साहेब का हुकुम था मेरे लिए उन्होंने ही कहा था कि मैं आपकी सरपरस्ती कबूल कर लूँ।"
"क्या?"
"जी हुजूर, उन्हें मालूम था कि आप जरूर आएँगे। उनकी उम्र हो चली थी बाजुओं में दम कम था। मुगल बादशाह हुमायूँ का डर था। उससे भिड़ने का दमखम किसके पास है? शेर खाँ आप और हम मिलकर मुकाबला कर सकते हैं। हमारे पास जो धन है उससे तोप और बंदूकें खरीदें। बारूदी हथियार से मुगल लैस हैं अगर अफगान पठानों की हुकूमत बरकरार रखना चाहते हैं तो हमारी अर्जी पर गौर फरमाएँ वरना हमें हमारे हाल पर छोड़ दें।" - शेर खाँ ने हैरत से लाड मलका के चेहरे की ओर गौर से पहली बार देखा। यह बेमिसाल खूबसूरत औरत हिम्मतवाली है। इसके पेशकश में दम तो है। क्या करे? बिना सरपरस्ती के कैसे हक हो सकता है इसके धन बल पर?
"मुझे सोचने का मौका दें मोहतरमा।"
"सोचने का वक्त नहीं है, फिर भी आप सोग के समय तक चुनार गढ़ में ही रुके रहें। बिना निकाह पढ़े न जाएँ रोहतासगढ़।" - शेर खाँ ने रहना मान लिया। उन्होंने अपनी शरीके हयात कमानी बीवी को सारा किस्सा लिख भेजा। उनसे मशविरा लेकर लाड मलका से शादी कर ली। शादी की खबर कहीं उजागर न हो जाए इसका इंतजाम कर लिया। लाड मलका ने यही चाहा था। पहले से शेर खाँ के बारे में उन्होंने सुन रखा था कि वे बहादुर जवाँ मर्द हैं, शराबनोशी नहीं करते, पाँच वक्त नमाज अदा करते हैं, रोजे रखते हैं और पराई औरत की ओर आँख उठाकर नहीं देखते। अब वे खुद चालीस दिनों से उनके सामने थे। घोड़े खरीदते, सिपाही बहाल करते, सियासी मुआमलों को सुलझाते, किलेबंदी करते शेर खाँ कैसे शौहर होंगे यह नहीं समझ पा रही थी। सियासत की बातें, गढ़ की फिक्र और हिंदोस्तान के सुल्तान का जिक्र करना इनके लिए आसान था अब अपनी दिली ख्वाहिश यूँ कहें कि दिल की कैफियत बयाँ करना बेहद मुश्किल था। लाड मल्का क्या, सभी अफगान कमसिनों के ख्वाबगाह में शेर खाँ मौजूद थे। वे आरजू थे लाड मलका के। लाड मल्का दिल ही दिल में अल्लाह को याद करतीं - "खुदाया, मैं शरीके हयात तो बन गई अब मिलन कब होगा?" चुनारगढ़ में जंग की तैयारियाँ हो रही थीं। हुमायूँ बादशाह का खौफ तारी था। जब हिंदोस्तान की सल्तनत अफगानों पठानों के हाथों में थी तब वे उसकी फिक्र न कर सके। आपसी झगड़े में गँवा बैठे। अब एक दूसरे की ओर हाथ बढ़ाकर कड़ी बनाना चाहते हैं। मुगल बादशाह को अंदाजा था कि राजपूतों को अपने साथ मिला लेने से हिंदोस्तान की हुकूमत में आसानी होगी। बाबर बादशाह ने महसूस किया था कि इब्राहिम लोदी की ओर से जाँबाज क्षत्रिय राणा सांगा और हेमू ने उन्हें नाको चने चबवा दिए थे। मशक्कत के बाद दिल्ली का तख्तोताज मिल गया तो उसके क्षत्र के नीचे का पूरा इलाका मिल गया। कन्नौज के बाद का सूबा जौनपुर, बिहार, चुनार रोहतास और गौड़ बागी था। सल्तनत के समय से ही ये खुद मुख्तार थे अभी भी रहे। हुमायूँ चुनार से पहले गौड़ फतह करने बढ़ा। शेर खाँ की भी उधर नजर थी।
"महारथ सिंह ने शेर खाँ की अनुपस्थिति का लाभ उठाया। उसने झारखंड की ओर जाकर उराँव, चेरी और खरवार की सेना गठित की। महारथ सिंह का दिल टूटा हुआ था वह न हिंदुओं पर भरोसा कर रहा था न पठानों पर वह खरवार और चेरों की सादगी और भोलपन के अंदाज का मुरीद था। सुदूर चतरा की दुरूह पहाड़ियों में किला बना रहा था। महारथ सिंह की बेटी जगभातो कुँवरि और खरवार सरदार की बेटी झानो सहलियाँ बन गई थीं। झानो तीर धनुष का अभ्यास करती तो जगमातो भी करती। इनकी एक फौज ही तैयार हो गई थी। हाथी घोड़ों की फौज महारथ सिंह और जितन खरवार तैयार कर रहे थे। जंगलों और पहाड़ों के अनुरूप देसी और तिब्बती घोड़े जो छोटे पर तेज भागने वाले होते इन लोगों ने सेना के लिए तैयार किए थे।
जंगल के अंदरुनी हिस्से में रहने के कारण इनके विषय में बाहर के लड़ाके अनजान थे। इनका रसद पानी बाहर से नहीं आता। ऐसे समय में ही कुछ पठान सैनिक राह भटक कर घाटी में आ गए थे। उन्होंने देखा सैकड़ों की तादाद में युवतियाँ तीर कमान चलाकर अभ्यास कर रही हैं। उन्होंने निडर होकर उनके पास जाकर पूछा - "तुम लोग कौन हो, किसलिए इतनी तादाद में तीर कमान से लैस हो? क्या किसी जंग की तैयारी हो रही है?"
"तुझी से जंग है मूरख" झानो ने कहा और उन्हें पकड़कर पेड़ों से बाँध दिया। जगमातो को जानकारी मिली की गोरा चिट्टा नीली आँखों वाला सैनिक अंदर घुस आया है तो तुरंत उसे मार डालने का आदेश दे दिया। "दुश्मनों को जिंदा नहीं रखना चाहिए। हमारे राजा साहेब ने ऐसा किया था। उसी का फल भुगत रहे हैं।" - जगमातो कुँवरि के आदेश का पालन हुआ। यह खबर जब राजा महारथ सिंह और जिनन खरवार के कानों में पड़ी तब उन्हें आसन्न संकट का भय सताने लगा। "राजा भैया, एक पठान आया हो सकता है और कहीं छुपा होगा। हमें सावधान रहना चाहिए।" - जिनन खरवार ने कहा। राजा महारथ सिंह ने किलेबंदी के लिए उराँव सैनिकों को लगाया। जंगल की सीमा पर वे तैनात हो गए। जंगल के बाहर हाट-बाजार की ओर जाने वाले रास्तों पर विशेष नजर रखी जाने लगी। महारथ सिंह जानते थे कि तीर धनुष और तलवार से पठानों का मुकाबला कभी नहीं किया जा सकता है। उन्हें यह भी मालूम था कि पठानों की हुकूमत चली गई है वे उसे मुगलों से वापस पाने की जद्दोजहद में लगे हैं। एक छोटा सा राजा जिसका देसनिकाला हो गया है जिसने जंगल में शरण ले रखी है वह किसी का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भोला पर होशियार साथी जिनन खरवार का विचार था कि पठानों का दुर्दिन चल रहा है ऐसे में मुगलों की शरण में जाना चाहिए।
"पर हमारे पास है क्या कि मुगल हमारी सहायता करेंगे?" - राजा महारथ सिंह ने स्वागत ही कहा।
"हमारे पास जंगल है, चश्मे हैं, शिकारगाह है। हाथी हैं, जाँबाज सिपाही उराँव जाति के हैं। हम उनके काम आ सकते हैं पठानों के खिलाफ।" - राजा महारथ सिंह को यह तजवीज पसंद आई। उन्होंने हुमायूँ बादशाह के पास संदेसा भिजवाया।
सादे लिबास में अपनी चहेती लाल घोड़ी की जगह सफेद घोड़े पर चढ़कर शेर खाँ बिहार के पटना की ओर कूच करने से पहले रोहतासगढ़ आए। ऐसे समय में उनका बाज उनके कंधें पर न होता। वह आगे आगे उड़कर गंतव्य तक पहुँच जाता। बाज को आया देख कमानी बीवी समझ गई शेर खाँ आ रहे हैं। उनके दिल बल्लियों उछलने लगे। कई बार साल-दो साल के जंगी दौर से गुजर कर आते शेर खाँ तब तो ऐसा न था। अभी तो कुछ दिनों के लिए बाजू के चुनार किले में थे फिर क्यों जी इतना अकुलाता रहा। कमानी बीवी ने झट मोगरे मसले पानी से नहा कर अपने को तरोताजा किया लोहबान-अगरू भूसियों के साथ धुआँ कर अपने घुटने तक पहुँचने वाले बाल सुखाए। बालों की पत्तियाँ निकालकर ऊँचा जूड़ा बनवाया सुरमा लाली से लैस हो गई। उनके बालों में बेली का गजरा टाँकती बाँदी ने पूछा "आज कोई खास बात है क्या बीबी?" "खास ही है। मेरा दिल कहता है कि मेरे सरताज आ रहे हैं।"
"अल्लाह उनको लंबी उमर बख्शे, आपका दिल कहता है तो मियाँ शेर खाँ साहब जरूर आएँगे।" शेर खाँ ने आते ही कमानी बीवी पर गौर फरमाया। खाना-खाने के बाद जब वे इक्ट्ठे हुए तो उनके भरे-भरे चेहरे को अपनी हथेलियों के बीच लेकर पूछा - "आज तो आप कयामत ढा रही हैं मेरी जान।" - शेर खाँ कभी उनकी सुरमई आँखों में झाँकते कभी गेसुओं से खेलते। बीवी की कोशिश रंग लाई। शेर खाँ उनके वजूद के कोने तलाशने में मसरूफ हो गए। रात जब ढलान पर थी तो शेर खाँ ने अपनी शरीके हयात से कहा कि - "जाने अब कब मिलना हो जंग छेड़ने से पहले - आपसे ही सिर्फ मिलने आया था। आप खुश तो हैं" बीवी ने उसके चौड़े सीने में मुहै छुपाते हुए उमंग में भरकर कहा - "आपने ऐसी मुहब्बत तो कभी न की थी। जंग की तरह मुहब्बत की। जान पड़ता है लाड मल्का से सीखा है।"
"वह निकाह पढ़ने तक बीवी थी अभी तक शरीके हयात नहीं बनाया है। बना भी नहीं सकता, मैं यह नहीं कर सकता।"
"क्या? आपने उन्हें अब तक सही मानी में बीवी नहीं बनाया! यह ठीक नहीं है मेरे सरताज"
"क्या ठीक है क्या नहीं मैं नहीं जानता। मेरे सामने एक ही काम है वह है हिंदुस्तान की गद्दी। वह मैं लेकर रहूँगा। यह शादी उसी की एक कड़ी है। लाड मल्का ने खुद आगे बढ़कर कहा कि उनके धन का उपयोग करने के लिए, हिंदुस्तान के तख्त पर फिर से किसी अफगान को बिठाने के लिए और सबसे बड़ी बात कि उसके खुद की, चुनार गढ़ की हिफाजत के लिए निकाह पढ़ना जरूरी है। शरीयत के लिहाज से वह मुझे अपना रखवाला तक्सीम करना चाहती थी। उन्हें मालूम है कि मैं उनका शौहर नहीं बन सकता।"
"बड़ी अजीब बात है लाड मलका बड़ी बदनसीब खातून है। ताज खाँ जैसे बूढ़े की बीवी थी अब जब उनके लायक शौहर मिले, तो भी कुछ नहीं। उनके लिए मेरे दिल में बड़े दर्द का अहसास है।"
"आप नहीं समझेंगी हुकूमत का नशा क्या होता है। लाड मलका मियाँ ताज खाँ की बीवी बन कर तमाम चुनारगढ़ की मालकिन थीं आज भी हैं। उनको हुकूमत का नशा है। वे खुश हैं।"
"मुझे ऐसा कतई नहीं लगता।" - कमानी बीवी जिन्होंने सभी अमीरों, सुबेदारों यहाँ तक की मुकद्यमों के भी कई कई बीवियाँ देखीं उन्हें यह अचरज की बात लगती। इस मुल्क में हरम और रनिवास का रिवाज था। उधर शेर खाँ ने अपना दिमाग सिर्फ और सिर्फ हिंदोस्तान के तख्त की ओर लगाए रखा था। हुमायूँ बादशाह गौड़ की ओर निकल गया था। गौड़ की पृष्ठभूमि यह थी कि कहाँ के सुबेदार महमूद खाँ शेर खाँ से मित्रता कर चुके थे। शेर खाँ के वे इतने मुरीद हो चुके थे कि मातहत की तरह ही रहते। बिहार के नाबालिग सुबेदार जलाल खाँ की सरपरस्ती का सीधा मतलब था कि बिहार के असली सूबेदार ये ही थे। बंगाल के अभियान में मुंगेर के पास बड़ी जंग हुई थी जिसमें कुतुब खाँ मारा गया था। शेर खाँ के हाथ अकूत धन आया, चार हजार लाल घोड़े आए। धन को शेर खाँ ने नदी की पार पर उगे जंगल में गड्डा खोद कर गाड़ दिया कि गाढ़े वक्त पर काम आए। निशानदेही के लिए पाँच तरह के पेड़ लगाए। अपने साथियों से हाथ में पाक कुरान देकर कसमें खिलाई।
हुमायूँ बादशाह गौड़ बंगाल की ओर फतेह करने चला कि रास्ते में शेर खाँ से मुलाकात हो गई। शेर खाँ ने हुमायूँ बादशाह से इल्तिजा की, उन्हें अपने तरीके से समझाया - "हे हिंदुस्तान के मुगल शहंशाह, आपका इकबाल बुलंद हो। आप बंगाल गौड़ की ओर जा रहे हैं तो मैं एक अर्ज करूँ?" - शेर खाँ ने बिना सर झुकाए, बिना तलवार की मूठ पर से हाथ हटाए एक हाथ से ही सलाम करते हुए कहा।
"शेर खाँ, मुझे मालूम है कि तुम बड़े बहादुर हो, काफिया वगैरह किताबें पढ़ रखी हैं। शायद इसी लिए माबदौलत की जानिब अकड़ कर खड़े हो।" - रतजगे से मुगल बादशाह हुमायूँ की आँखें गुलाबी रंगत लिए थीं। अर्जी सुनने की कुव्वत नहीं थी। शेर खाँ ने हुमायूँ बादशाह के बारे में सुन रखा था। उनका निजी कुनबा, लाव लश्कर देखकर हैरान था। बाबर बादशाह की सेवा में काफी दिन रह चुका था। यह सच था कि शाही अंदाज उनका भी था। उनके साथ भी लाव लश्कर चला करते थे। मुगलों की एक आदत थी कि बेगमों का लश्कर साथ चलता। बाँदियाँ, ख्वाजासरा सबों के हुजूम चलते। अमलों, ओहदेदारों की फौजें साथ चलतीं। शेर खाँ ने इब्राहिम लोदी के लश्कर को भी देखा था। उनका मुँहबोला था सो तंज भी कसता था - "हुजूर सुल्ताने आजाम, जब तक पीकदान साथ चलेगा खुदा मेहरबान न होगा।" - सुल्तान हँस पड़ते। कहा करते - "तुम्हें सुल्तानी दी गई तो तुम यह रिवाज न रखना। रखोगे भी कैसे कोई अमल तो है नहीं।" हुमायूँ बादशाह ने एकतरफा जलीकटी सुनाई शेर खाँ को। शेर खाँ ने देखा आसमान चूमता तंबू शाही दरबारे खास बना है जिसमें तमाम झाड़ फानूस लटक रहे हैं। मखमली कालीन है तो जरीदार परदे हैं। दरबारे खास के बाजू बाले तंबू में किताबों गट्ठर रखे हैं जिसे शहंशाह पढ़ते रहते हैं। वह सब हाथियों पर लाद कर साथ लिए चलते। कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे जियारत पर जा रहे हैं या जंग के मैदान में। हुमायूँ बेहतरीन शमशीरबाज थे। सारी नियामतें इकट्ठी थी फिर भी इतना घमंड क्यों? शेर खाँ सूरी को अगर हो तो कोई बात थी क्योंकि घोड़े के छोटे व्यौपारी के खानदान का था। बहलोल लोदी की इनायत पर रोटी जुटी थी पर इन्हें क्या हुआ? शेर खाँ ने माहौल की नजाकत भाँप कर दिल की दिल में ही रखी और कहा - "शहंशाह, हम रूखे रोह हैं हमें तहजीब नहीं आती। आप बड़े दिल वाले बड़े बादशाह हैं, अर्जी सुन लें फिर जैसा जी चाहे वैसा करें चाहे तो ठुकरा दें।"
"कहो क्या कहना है। हमारा दस्तरखान बिछा है जल्दी करो।"
"आप का बहुत वक्त लिया शहंशाह, खुदा हाफिज हमारा भी दोपहर का नमाज का वक्त हो चला है।" - सलाम कर शेर खाँ बाहर निकल आया। हुमायूँ खुश था कि उसने शेर खाँ को नाचीज समझा। शेर खाँ ने अंदाजा लगाया कि यह हिंदोस्तान पर बादशाहत कायम न रख सकेगा। उसने बाहर खड़े अमीर से कहा कि हो सके तो अपने बादशाह से कहना कि सूबए बिहार की हुकूमत का ख्याल ख्वाब में भी न लाएँ। मैं उनके लिए गौड़ बंगाल छोड़ता हूँ। उन्हें समझा देना कि शेर खाँ को चूहा न समझें और न जैसा कि वे कहते चलते हैं वैसा लोमड़ी भी न समझें।" अमीर कुतुल की रगों में शेर खाँ का बयान सुरसुरी पैदा कर रहा था उसने हुमायूँ बादशाह से मशविरा के अंदाज में कहा कि हुजूर को सचमुच गौड़ चलना चाहिए। शेर खाँ से अभी टकराना ठीक नहीं।
शेर शाह ने अपने भरोसेमंद साथियों से कहा कि हुमायूँ बादशाह को बंगाल में उलझाकर रखो। उसे खूबसूरत माहौल पसंद है। मुर्शिदाबाद के बड़े बागीचे में ठहरने का इंतजाम करो खुशबूदार फूलों की लतरें, गुलाब की क्यारियाँ, हरी घास जहाँ हो वहीं उनका ऊँचा महल बनाओ। उनकी सेवा के लिए खूबसूरत रक्कासाएँ भेजना। बेगमातों के लिए सोने चाँदी और हीरे जवाहरात के महीन और जहीन कारीगर भेजो। मेरी मंशा है कि उन्हें इतना मसरूफ कर दो कि वे भूल जाएँ बंगाल के अलावा हिंदोस्तान में और भी कोई सूबा है। हुमायूँ के लश्कर आगे बढ़े कि किसी ने उन्हें खबर दी कि शेर खाँ के पठान सिपाही गाँवों में देखे गए हैं। उसका बाज भी देखा गया है। शेर खाँ के बाज की चंगुल चाँदी सोने से मढ़ी थीं। हुमायूँ ने जाँच की पर कहीं कोई निशानी नहीं दिखी वह इत्मीनान से मुर्शिदाबाद पहुँच गया। मुर्शिदाबाद की खातिरदारी से वह बेहद खुश था, इतना कि बरसात आ गई तब याद आया कि बरसात में बंगाल से निकलना मुश्किल होता है। शेर खाँ को समय मिल गया था वह पूरी तैयारी से लैस होकर हुमायूँ का मुकाबला करने आगे बढ़ गया।
जिस वक्त हुमायूँ बादशाह मुंगेर में ठहरा हुआ था उस समय वहाँ के बहुत सारे ज्ञानी लोग उससे मिलने आए। हुमायूँ का मन ज्ञान की बातों में बड़ा रमता। उन्हीं में मियाँ बदन मुंगेरी थे जो चुपचाप सर झुकाकर बैठे थे। बादशाह को पता चला कि बदन मियाँ का कोई सानी नहीं है तो उन्होंने उनसे बातचीत की। मियाँ बदन मुंगेरी ने जो तर्क छोड़े उसका जवाब किसी को न सूझा। हुमायूँ को भी नहीं। मियाँ मुंगेरी ने ही जवाब समझाया। हुमायूँ बादशाह ने उन्हें बड़ी इज्जत बख्शी और पूछा कि - "मियाँ मुंगेरी शेर खाँ गौड़ की तरफ गया है, मैं भी उसके पीछे पीछे चल रहा हूँ। आप मुझे बताएँ कैसे करना चाहिए उसका पीछा कि फतह हो।"
"शहंशाह, आप जैसे जा रहे हैं वैसे ही जाएँ पर एक बड़ी फौज झारखंड की ओर से गौड़ की तरफ भेजें। शेरखान अपनी फौज सहित नदी में डूब मरेगा।" - पूछने को पूछ लिया हुमायूँ ने पर उनकी बात को तवज्जो नहीं दिया। सोचा कि यह किताबी इनसान क्या जाने जंग की हकीकत उसने वैसा ही किया जैसा उसका दिल चाहता था।
शेर खाँ ने सुहिया नदी के किनारे हुमायूँ की सेना को करारी शिकस्त दी। शेर खाँ ने सुना की मियाँ बदन मुंगेरी ने हुमायूँ को जंग जीतने के लिए सलाह दी थी। सुनते ही उसके तन बदन में आग लग गई। उसने कहा - "इस जहीन बदन मुंगेरी को क्या सूझी थी कि वह एक मुगल को सलाह दे रहा था, मुझे मिलेगा तो मैं उसकी खाल खिंचवाकर मिश्ती को दे दूँगा।" - सुहिया नदी के किनारे जीत का जश्न हो रहा था कि मियाँ बदन मुंगेरी शेर खाँ के हुजूर में पहुँचे। "ऐ शेर खाँ, मैंने तुम्हारी शिकस्त का इंतजाम कर दिया था पर जन्नत के फरिश्ते ऐसा नहीं चाहते थे। हुमायूँ बादशाह ने मेरी बात सुनी नहीं। लेकिन मेरी कोई जाती दुश्मनी तो तुमसे है नहीं, हो भी नहीं सकती मैं किसी तख्तोताज का तलबगार नहीं हूँ। फिर भी सुना है कि तुम मुझसे खफा हो तो मैं हाजिर हूँ मुझे जो चाहो सजा दो।" शेर खाँ भौंचक्का सा उसे देखता रह गया।
"मैं नाराज तो था लेकिन अब सोचता हूँ कि आपको सूली पर टाँग के क्या होगा? आपसे मेरा एक घोड़ा भी छीना नहीं जा सकता। एक और बात अब किसी अम्माँ के पेट से आपके जैसा जहीन पैदा हो न हो। जाइए मैं आपको मुंगेर की बारह हजार बीघा उपजाऊ जमीन अता फरमाता हूँ। आप अपने दिल से मेरे खिलाफ काँटा निकाल दीजिए।"
शेर खाँ से बेफिक्र हो कर बादशाह हुमायूँ मुर्शिदाबाद में रंगरलियाँ मनाकर लौट रहे थे। उन्हें रास्ते में पता चला कि उनके भाई मिर्जा हिंदाल ने बगावत कर दी है। वे तेजी से आगे बढ़ते गए कि चौसा के पास शेर खाँ से टकरा गए। शेर खाँ ने जंग की कायदे से तैयारी कर रखी थी। मिट्टी का पुख्ता और अभेध किला बना रखा था। लाव तश्कर रुक गए। शाम ढल जाने के कारण वहीं तंबू गाड़े गए। सुबह जब तक हुमायूँ जगे बुजू वगैरह किया तभी पठानों ने हमला कर दिया। अफरा तफरी मच गई। अमीर अतका ने उन्हें तुरत निकल भागने को कहा - "हुजूर आप घिर गए हैं, आपका निकल भागना जरूरी है। अपनी फौज पठानी फौज से उलझी है।" - हुमायूँ तुरत घोड़े पर चढ़कर निकल भागे। गाँगी नदी में बाढ़ आई हुई थी। इन्होंने अपने घोड़ों को पानी में छोड़ दिया। वहीं एक भिश्ती अपने मश्क से पानी भर रहा था। अतका के कहने पर उसने उसमें हवा भर दिया। हुमायूँ ने मशक के सहारे नदी पार की और जान बचाकर पंजाब की ओर भाग निकले। सेनाओं में मार काट मची थी। बेगमातों के खेमे के सिपाही मारा गए। शेर खाँ को मालूम हो गया कि हुमायूँ बादशाह जान बचाकर भाग गए। उसने तुरंत जंग रोकने का एलान किया और बेगमातों के खेमे में आए। "आप सब मेरी सगी बहन के समान हैं। आपके साथ कोई नाइंसाफी नहीं होगी। आप सबों को हम फौज की निगहबानी में जहाँ कहेंगी वहाँ पहुँचा देंगे।" - शेर खाँ ने बड़े अदब से कहा और अपने खास सिपहसालार तथा बेगमों के ख्वाजा सराओं के साथ उनहें रोहतास के किले में इज्जत के साथ रखा। उन्हें उनके ओहदे के बराबर वजीफे दिए और यह जानकर कि हुमायूँ बादशाह पंजाब की ओर चले गए हैं उधर को सुरक्षित भेज दिया।
शेर खाँ ने आगरा जाकर तख्तनशीन होने की कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। एक बार फिर से फौज को समेटने में लग गए। सुल्तान इब्राहिम लोदी की भानजी फतेह मलका जो काला पहाड़ फारमुली की बेटी थी के शौहर का जौनपुर की लड़ाई में इंतकाल हो चुका था। उनके पास मनो सोना इकट्ठा था जिस ओर अमीरों की नजर थी। फतेह मल्का के मन में एक ही आस थी कि दिल्ली की गद्दी फिर किसी अफगान के कब्जे में आ जाए। जो शख्श मुगल बादशाह हुमायूँ से टक्कर ले सकता हो ऐसे को छोड़कर किसे दिया जा सकता है ये खजाना? इसी जद्दोजहद में पड़ी थी कि एक दिन उसने सपना देखा - फारमुली उससे कह रहे हैं - "तू आगे पीछे न सोच शेर खाँ को अपना सब कुछ सौंप दे वह तेरी रहनुमाई करेगा।" - बीवी फतेह मल्का ने शेर खाँ को अपना खजाना सौंप दिया और कहा कि "आप मुझसे निकाह पढ़वा लें। मुझे आप पर और आपको मुझ पर भरोसा हो जायगा।"
"खजाने की जरूरत जंग लड़ने के लिए है पर शादी की क्या जरूरत है बेगम? इनसान को ऐतबार रहना चाहिए। मैं शादी पर यकीन नहीं रखता एक जंगजू को कहाँ फुरसत है कि वह अपने आपको किसी नेक औरत के खाविंद बनने लायक बनाए। आप चाहें तो एक सच्चे पठान की तरह हम पर ऐतबार करें, हमारे ईमान का इम्तिहान लें।"
"शेर खाँ साहेब, हमें आपके ईमान पर ऐतबार है। आप सच्चे मुसलमान हैं। पाँच बार नमाज पढ़ते हैं, रोजा रखते हैं बिला वजह किसी खातून की इज्जत के साथ खिलवाड़ नहीं करते। आपकी जंगी फितरत से हम वाकिफ हैं आप हमारे लिए एक अजूबा हैं।"
"हम समझे नहीं बीवी फतेह मल्का?" - शेर खाँ ने हैरत से पूछा सुन रख है कि आप जब तक तख्त नहीं पा जाते किसी छोटे या बड़े जानवर का मांस नहीं खाएँगे। इबादत नमाज और रोजे तो समझ में आते हैं पर आपकी यह कसम क्या है? आप शराब भी नहीं पीते। जंग की थकान कैसे दूर होती है शेर खाँ?"
"ओह बीवी फतेह मल्का, इतनी सी बात? मैं तो डर ही गया था कि कहीं आप कुछ और न पूछ बैठें। कि आप कहीं यह न पूछ बैठें कि रोह के घोड़े की तिजारत करने वाले, यहाँ वहाँ मारा-मारा फिरने वाले एक फटेहाल अफगान के दिलोदिमाग में अमीरी का शौक ही पायजामे से बाहर था यह तख्ते हिंदोस्तान का ख्वाब कैसे देख बैठा?" - शेर खाँ ने दिल उड़ेल दिया।
"यह सब अब सोचने का वक्त नहीं है। तख्त पर न इब्राहिम लोदी है न अफगान पठान की हैसियत रही। आपने बिना अल्लाह की मर्जी के तो कुछ न किया होगा? मुझे आपसे सच मुहब्बत हो गई है। एक जंगी से मुहब्बत इसे ठंडे दिलो दिमाग से सोचें और मुझ पर अपनी बेइंतहा इनायत बरपा करें।"
"बीवी फतेह मल्का, आपको मालूम होगा कि जलाल खाँ जो बिहार का अमीर है मेरा बेटा कहलाता है, वह मेरा शागिर्द भी है। उसे मैंने जंग के बीच में काफिया पढ़ाई सुल्तान महमूद मेरे सबसे बड़े सरपरस्त थे। उनके इंतकाल के बाद बेगम दूदा ने हुकूमत सँभाली। मैं उनकी मदद को तैयार रहता था। लेकिन ज्यादा दिन जिंदा न रह सकीं। उनके इंतकाल के बाद से हम नाबालिग जलाल की अमीरी देखते रहे जरूर लेकिन बेगम दूदा से मेरा कोई जाती रिश्ता नहीं बना। बेगम को यूँ ही लोग मेरी बीवी कहने लगे। पर वह सच नहीं था।"- शेर खाँ उलझा सा लगा।
"आप खातिर जमा रखिए शेर खाँ, मैं ऐसा न होने दूँगी। आप एक नेक इनसान हैं, मुझे मालूम है एक नेक सैयद हैं। सुना है हुमायूँ बादशाह ने भी आपसे खानदानी रिश्ता करना चाहा था। वह जानता है कि आप पाक खानदान के हैं। घोड़े का व्यौपारी होना कौन सा गुनाह है?" फतेह मलका ने कहा।
"बीवी फतेह मल्का, हमारी आधी से अधिक उम्र गुजर गई। जिंदगी की शाम होने को आई अब बादशाहत का वक्त आया है।"
"आया तो सही।"
फतेह मलका से रुखसत होकर शेर खाँ रोहतास के किले पर अपनी बेगम कमानी बीवी से मिलने पहुँचा। तीन जवान बेटों की अम्माँ कमानी बेगम हमेशा अपने शौहर की खिदमत के लिए सजधज कर तैयार रहतीं। शेर खाँ को सुकून मिलता। उसने अपनी अम्माँ सबा बेगम को उदास, तकलीफजदा बीमार देखा था कमानी बीवी को खुश देखकर उसे जान पड़ता अम्माँ को भी खुशी मिल रही होगी वह जहाँ भी होगी।
"आपको मालूम है मेरे सरताज कि क्या होने वाला है?" - बिना किसी लाग लपेट के कमानी बीवी ने कहा।
"क्या होने वाला है बेगम, इस उम्र में मैं किसी खुशखबरी की आस लेकर नहीं आया हूँ आपकी ओर से?" - शेर खाँ को हँसी आ गई।
"आप भी मजाक करते हैं मुझसे। मैं तो राजा महारथ सिंह के बारे में बताने वाली थी।"
"उसे क्या हुआ?"
"चतरा के जंगल में उसने बड़ा ऊँचा पत्थरों का किला बना रखा है यह तो आपको मालूम है न?"
"हाँ और खरवार-चेटो की फौज भी खड़ी कर रखी है। उनकी फौज से डरने की जरूरत नहीं है वे अपने जंगल भर की रखवाली कर लें यही काफी है।"
"वो तो है। बात है कि राजा महारथ सिंह ने अपने बेटे की शादी खरवार जिनन की बेटी झानो से तय किया है। कल ही शादी है।"
"आपको किसने कहा? क्या राजा साहेब के यहाँ से संदेसा आया है?"
"नहीं, कुछ उनके खैरख्वाह हैं न यहाँ वे ही कह रहे थे। कह रहे थे कि यहाँ शादी होती तो खूब ही रौनक होती अभी तो राजा साहेब के पास कुछ है भी नहीं।" - कमानी बीवी उदास थी।
"बेगम, हम न्यौता लेकर चुपचाप चलें, राजा साहब ने एक वक्त पर हमारी मदद की थी। बाद में हमने उनके साथ अच्छा सुलूक नहीं किया। अब जब जश्न का माहौल है तो हमें जाना चाहिए।" सौगात लेकर दोनों थोड़े से सिपाही लेकर सादे कपड़ों में राजा महारथ सिंह के किले में बेखर के पहुँच गए। राजा साहब ने जब पहचाना तब वे भौंचक्के रह गए। "हम आपको डराने नहीं आए हैं राजा साहब दोस्ती का हाथ बढ़ाने आए हैं। यह जंगल, यह पहाड़ी आपकी है।"
"हमें मालूम है शेर खाँ आप दिल्ली की गद्दी पा गए हैं। जल्दी ही शेर शाह हो जाएँगे। हमें बुला लेना भइया, कोर्निश बजाएँगे।" - राजा महारथ सिंह ने कहा।
"हमें भी बुलाना हजूर, हम सिंगा बजाएँगे, नाच करेंगे। जशन होगा जितन खरवार ने कहा।
इस शादी में शरीक होकर शेर खाँ खुशी खुशी रोहतासगढ़ के किले पर पहुँचे। एक छोटे से राजा और जंगल के सरदारों की खैरख्वाही ने इनके सारे शिकवे दूर कर दिए। जंगल की ओर से कभी किसी तरह के बगावत के खतरे से शेर खाँ की हुकूमत महफूज हो गई। कई जंग तीर कमान के भरोसे पर भी जीते जा सकते हैं। हाथियों की फौज खड़ी की जा सकती है। रसद होने वाले छोटे घोड़े-टटूटू जंगल से ही मिलते हैं। उराँव, चेरो खरवार, कोल भील सौताल बेहद जाँबाज सिपाही की शक्ल में तैयार हो सकते हैं। पथरीली डगर पर इन्हीं की ज्यादा जरूरत है। शेर खाँ ने दिल्ली जाने के पहले पूरब को पूरी तरह अपने कब्जे में ले लिया था। पूरब ने इन्हें अपना शहंशाह कबूल कर लिया था। शेर खाँ ने अपने आपको पश्चिमी चुनौती के लिए तैयार कर लिया। "ऐ सुल्तान, आप आए थे चुपचाप पर हम चाहते हैं हम आपको लाव-लश्कर के साथ रुखसत करें। का कहते हैं?" - राजा महारथ ने कहा। शेर खाँ तैयार नहीं हुआ। वह जैसे आया था वैसे ही जाना चाहता था। रात उसकी फल्गू नदी के किनारे बीती। तंबू गाड़ा गया, पालकी रख छोड़ा गया घोड़ों की जीन खोल दी गई।
"साईस, नदी के बालू को हाथ से हटाओ, छोटे-छोटे गड्ढे खोद डालो। साफ पानी निकल आएगा घोड़ों को पिलाकर प्यास बुझाओ हमारे लिए भी मशक में भर लाओ।" - शेर खाँ ने कहा। साईस जानता था पर कमानी बीवी की आँखें हैरत जदा थीं। "ऐ मेरी नेकदिल बीवी, देखो यह खुरदुरी सूखी सी नदी बिल्कुल आपकी मानिंद है उपर से ऐसी है, इसने अपने कलेजे में पानी के चश्मे दबा रखे हैं।" - आँखें फाड़कर नदी की ओर देखती बीवी से कहा। "या खुदा" - कमानी बीवी सिर्फ देख रही थी। डटकर खाया पीया था चलने से पहले, यहाँ पानी पीकर सोना जरूरी जान पड़ा।
"हुजूर, हमने मछलियों का शिकार किया है भून रहे हैं, बेगम साहेब के लिए लाया हूँ।" - साथ चलते मुकद्यम ने कहा। बेगम को भूनी हुए मछलियों का बड़ा चाव था।
"मेरे आका, आपको बादशाहत मिल गई। अब तो मछलियाँ खा सकते हैं।" बेगम ने पेशकश की।
"अब ख्वाब में भी जी नहीं चाहता, बहरहाल हिंदुस्तान सिर्फ गौड़ से आगरे तक नहीं है।"
"आपने रायसीन तक जीत लिया है सुल्तान।"
"जीत तो लिया है मेरी हमसाया, पर वही मेरे सीने में तीरे-नीमकश होकर अटका पड़ा है।"
"क्यों? वहाँ अमन तो है।"
"अमन से पहले की बात है।"
"क्या वाक्या है मेरे आका, कोई सियासी मामला न हो तो आप मुझसे कह सकते हैं।"
"सारे मामले सियासी हैं। जब भी सियासतदाँ का मामला होगा तभी वह सियासी हो जायगा। आप न समझेंगी।"
"समझाइए तो।"
"बेगम आपको याद होगा कि रायसेन के राजा पूरनमल पर मुझे कितना गुस्सा था। उस अहमक ने काम ही ऐसा किया था ऐसा काम ही मुझे भड़का देता है।"
"कैसा काम?"
"अफगानों की हार के बाद उसने दर्जनों सय्यदानियों को पकड़ लिया था। उन्हें अपने किले के अंदर ले जाकर बदसलूकी की।
"क्या किया?"
"उन्हें रक्कासा बना दिया। अपने दरबार में नाचने को मजबूर किया। यह सुन कर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। मैंने मुगल बादशाह को जब खदेड़कर पंजाब पहुँचा दिया तभी यह मुआमला मेरे सामने पेश हुआ। मैंने अपनी फौज का मुँह रायसेन किले की ओर मोड़ा। रायसेन का किला अब तक के फतह किए गए सभी किलों से पुख्ता और बड़ा था। पूरनमल को शिकस्त देना उतना आसान न था। मुगल बादशाह हुमायूँ गौड़ को नहीं जानता था उतनी अच्छी तरह जितना मैं जानता था, वह जगह भी उसकी नहीं थी और खेल रहा था। मेरी बिछाई बिसात पर सो मुँह की खा गया लेकिन यह किला मेरे लिए अनजाना था। पूरनमल की अपनी जगह थी। जंगल का चप्पा चप्पा उसका देखा भाला था। बिना अक्ल का इस्तमाल किए जीतना आसान न था।"
"आपने कैसे जीता उसे?"
"चालाकी से कुछ खत उसके मातहतों के लिखवाए अपने नाम से कि पूरनमल से वे तंग आ चुके हैं और हिंदोस्तान के सुल्तान के मातहत रहना चाहते हैं। वह खत किले के अंदर किसी रास्ते पर गिरवा दिया खत पूरनमल तक पहुँच गया। चूँकि उस पर किसी का नाम न था चुनाँचे सभी शक के घेरे में आ गए। ऐसे ही वक्त हमने उसे खबर भेजी कि वो किले के बाहर आकर हमसे बातें करे। सय्यद पठान अफगानी खातूनों को बाइज्जत हमें पहुँचा दे।"
"उसने वैसा किया क्या सुलतान?"
"नहीं उसने हमारे सुपुर्द करने से इनकार कर दिया। तब हमने उसे फिर खबर भिजवाई कि बड़ा बहादुर बनता है पूरनमल औरतों की ओट में छुपा है चूहे की तरह। अब उसे बुरा लगा। उसने फौरन सभी मुसलमान खातूनों को किले के बाहर हमारे पड़ाव पर भेज दिया।
"चलिए कुछ तो किया।"
"बीवी, उसकी आमदरफ्त से रास्तों का अंदाजा हो गया। हमने उसे खबर भेजी कि शेर खाँ को सुलतान कबूल कर सगे संबंधियों यानी कि अपने कुनबे के संग सामने आ जाय।"
"फिर क्या हुआ मेरे आका?"
"अब उसका माथा ठनका। अपने अमीरों भाई बंदों से मशविरा कर उसने कुछ तोहफे भेजे। एक हजार घुड़सवार, पाँच सौ हाथियों की फौज साथ भेजी। हमें मालूम था पूरनमल के पास कई हजार घोड़ों और हाथियों की फौज है। सबसे बड़ी बात थी कि वह हमसे डर नहीं रहा था। बिना खौफ के कहीं सुलतानी चलती है बेगम?"
"नहीं चलती हुजूर।"
"बहुत दिनों के जद्दोजहद के बाद पूरनमल अपने बिल से निकल गया। उसकी वजह थी, उसने अपने रनिवास की औरतों का जौहर अपनी आँखों के सामने करा दिया फिर सारे मर्द निकल आए, फिजूल में लड़कर जान दे दी। अंदर बड़ा खौफनाक मंजर था। हमारा फौज लूटमार में मुब्तिला थी कि एक नन्ही बच्ची पर मेरी नजर गई। वह बच्ची लाशों के बीच खड़ी रो रही थी। लाल रंग का घाघरा पहन रखा था, लिबास और सजावट से जान पड़ा जरूर शाही घराने से ताल्लुक रखती है। मैंने अपना फौजी लिबास उतार दिया था। उसकी ओर हाथ बढ़ाया कि वह मेरी टाँगों में चिपक गई।"
"ओहे, बेचारी बेहद खौफ खा गई होगी।" - शेर खाँ थोड़ी देर चुप रहे फिर लंबी साँस लेकर कहने लगे। "मैंने उसे गोद में उठा लिया और नाम पूछा, उसने बताया गुलाब कुँअर उसने बताया कि महाराजा उसके ताऊ हैं। कमानी बीबी, वह बच्ची मेरे सीने से चिपकी हुई थी और मेरा सीना आग उगल रहा था। मैंने उसी वक्त उस बच्ची गुलाब कुँअर को एक बनजारे को दे दिया। "लो राजा-पूरनमल की इस बेटी को नचवाओ। उसने पठान अफगान सैय्यदानियों को नचवाया है।"
"ओह, आप जंगजूओं के तरीके अजब हैं। आप किसी को बख्शते नहीं। इस गुलाब कुँअर बच्ची को अपने ताऊ के किए का खामियाजा भुगतना पड़ा।"
"कभी कभी उसके लिए सीने में तकलीफ महसूस होती है बेगम। वह मेरे सीने से चिपक गई थी। छोटी छोटी दोनों बाँहें मेरी गर्दन के गिर्द कस कर लपेट लिया था। उसे जबरन अपने सीने से हटाना पड़ा, दूर तलक मेरी जानिब देखती रही। हम जानते हैं हमारी वहशियाना फितरत शेर खाँ दरिया के पार कहीं दूर देख रहा था। कमानी बीबी समझ रही थी कि इसके दिल में बच्ची के लिए दीवानगी है। कमानी बीबी ने सिर्फ बेटे जने। बेटे जनना बेगमातों के लिए सबाब है पर एक रुन-झुन करती बिटिया घर की रौनक होती है। काश सुल्तान शेर खाँ गुलाब कुँअर को अपनी बना लेता। इनका गुबारे दिल कैसे निकाला जाए सोचने लगी। "आपकी जिद भी खूब है मेरे सरताज, कहाँ तो शमशीर-तलवार से माहीचा मुसल्लम काट कर खाते थे कहाँ मछलियाँ भी दुश्वार हैं।"
"अब हैं जिद्दी, आपको तो झेलना ही है।" - शेर खाँ आपे में लौट आए और कमानी बीबी को आगोश में लेकर लेट गए। फजिर की नमाज तक बेगम उनके आगोश में बेफिक्र होकर सो रही थीं और हिंदुस्तान का बादशाह आसमान के तारे गिन रहा था।
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रास्तों की परेशानी दूर करने के लिए सभी इबादतगाहों की ओर जाने के लिए सड़कें चाहिए। वह हिंदुओं का हो या मुसलमानों का। तभी याद आया कि उनपर तीरथ जाने का जजिया वसूला जाता है। यह सही नहीं है। अपने अपने कौम की इबादतगाहों में जाने के लिए फाजिल जजिया क्यों उगाहा जाय। आज गया की इस धरती पर ऐन फजिर की नमाज के वक्त यह ख्याल आया है तो रोहतासगढ़ पहुँचते ही ऐलान करना होगा। एक छोटी सी जागीर के शिकदार होते ही शेर खाँ ने खेत की मालगुजारी कम कर दी थी अब तो दिल्ली की तख्त पर बैठने जा रहा है। इस तरह के तमाम फिजूल मालगुजारी माहसूल बंद करेगा। सैकड़ों साल से राज यूँ ही नहीं किया है। जैसे ही ऐसे फिजूल खर्चे थोपे गए शाही फरमान के ऐलान से वैसे ही सुल्तानी गई समझो। हम ऐसा नहीं करेंगे। रियाया खुश रहेगी खेती चलती रहेगी तो आप से आप खजाने भरेंगे। इतनी ज्यादा पढ़ाई की है, उसका कायदे से इस्तमाल करेगा शेर खाँ। गुलाब कुँअर नैना बनजारन की गोद में डाल दी गई थी। नैना ने उसे सीने से लगाया और अपने मरद मानुस से कहा - "इस देस से उखाड़ो तंबू चलो पश्चिम की ओर जिधर समंदर है। इस सोने सी बच्ची को महाराज की अमानत समझ पालूँगी इसके पैरों में न घुंघरू बँधेगी न ये किसी के आगे नाचेगी। हम नाच गाकर इस राजकुमारी का साज सिंगार बरकरार रखेंगे।" - नैना का कहना था कि सारे बनजारे अपने तंबू उखाड़ पच्छिम की ओर चल पड़े। वह व्यौपारियों का देस था, सेठों साहूकारों का। नैना का कुनबा रुका, पड़ाव डालकर पास दूर के गाँव में जाकर रोजी कमाता। करतब दिखातें, नाचते गाते जिंदगी की गाड़ी आगे खींचते। सात साल की बच्ची गुलाब कुँअर थोड़े ही दिनों में इन लोगों के साथ घुलमिल गई। उनके बच्चों के साथ खेलती, घर द्वार बनाती तंबुओं में रहने वाले बच्चे खेल-खेल में खूबसूरत बालू की डेवढ़ियाँ बनाते। गुलाब कुँअर के जहन में अपना किला था सो वह विस्तार देकर किला और सिंह दरवाजा बनाती बनजारे बनजारिने देखतीं और दिल ही दिन में आहें भरतीं। कैसी है यह तख्त की जंग जिसमें औरतें जल मरती हैं, बच्चे यदि जिंदा बच गए तो बेसहारा हो जाते हैं। इन बनजारों के साथ घुल-मिलकर इनकी संख्या सदा बढ़ाते रहते हैं। नैना बनजारन लहँगे में कशीदाकारी कर रही थी कि जीतू आया। जीतू छरहरा लंबा साँवला सा युवक था। उसके कंधे पर मानुष तीर टँगे थे। उसने माथे पर कौड़ी टँके पट्टे पहन रखे थे। कमर में चूनर का गमछा बाँधे थे। कालें रंग के सुत्थन पर हरे रंग के चूनर का गमछा। बड़े-बड़े जुल्फों को बाँधने वाला पट्टा लाल चूनर पर टँका था। कुल मिलाकर जीतू एक छैल छबीला नौजवान था। नैना बनजारन ने उसकी झोली में ढेर सारे फल देखे। "क्या लाया जीतू?" - उसने पूछा "अमरूद हैं जिज्जी, जंगली हैं छोटे छोटे कड़े पर मीठे हैं।"
"बच्चों में बाँट दे।" जितू ने सभी बच्चों को बुलाकर अमरूद बाँट दिए। बच्चे जानते थे कि सबों को मिलेंगे फिर भी एक के उपर चढ़े आ रहे थे। गुलाब कुँअर किनारे खड़ी निहार रही थी, जितू ने पुकारा "ओ महारानी, तुझे नहीं चाहिए क्या?" - उसने हाँ में सिर हिलाया और अपने हाथों को देखा उसमें बालू लगे थे। वह दौड़कर घिड़ौंची के पास गई कि दूसरी बनजारन ने रोका।
"बिटिया, रुक मैं देती हूँ पानी घड़ा गिर जायगा।" - उसी ने लोटे में पानी निकाल उसके हाथ घुलवा दिए। जीतू उसे देखकर हँसने लगा और सबसे अच्छे अमरूद थमाते हुए कहा - "यह बिल्कुल साफ है, धोने न लगना।" - मन ही मन सोच रही थी नैना बनजारन कि यह सब कुछ दिन चलेगा जब तक राजसी आदत है फिर वैसी ही हो जायगी जैसी हम हैं। जीतू को मालूम भी नहीं कि वह किस राजघराने का बेटा है। मालवा के राजघराने के 5 पाँच लड़के इन्हें हिजड़ा बनाने को दिए गए थे, नैना ने इसे दूर पुआल की ढेर में छुपा दिया था। चार का बधिया कर नवाब के यहाँ पहुँचा दिया गया पाँचवें के बारे में कह दिया गया कि उसे रात में सियार उठा ले गए। ये घुमंतू बनजारे मालवा से डेरा उठाकर दूर दूसरे राज्य की सीमा में जा बसे। इनकी यही आदत है बड़ी औरतों को हरम में ले गए बच्चियों को रक्कासा बनाने बनजारों को दे देते और लड़कों को अगर जिंदा छोड़ते तो हिजड़ा बनाकर। वे नस्ल ही खत्म करना चाहते। जीतू को नहीं पता है कि वह मालवा के किसी राजा का चश्मे चिराग था। नैना पक्के तौर पर जानती है कि ये बनजारों की बस्ती बसी ही ऐसे है। सुलतानों के नफरत की पैदाइश है यह कौम। इनके कोई नहीं न अल्लाह न भगवान। इनका ईश्वर है पंचतत्व क्षिति जल पावक गगन और समीर, इनका ईश्वर है अन्न जो धरती देती है, जल जो जरूरी है जिसके कारण भी इनके तंबू उखड़ते रहते हैं। इन्हें आग जुगाड़कर रखना होता है, आकाश ही इनका घर है, हवा का रुख देख आपदा पहचानने की क्षमता है, क्योंकि आपदा के कारण ही तो अनिकेत हैं। कई बार जीतू ने पूछा नैना से - "जिज्जी, हमारे माई-बापू कहाँ चले गए?"
"ऊपर" - उँगली तान देती नैना।
"काहे? जिज्जी मेरी माई तुम्हारी माई भी थी न?"
"वो हमारी चाची थी, तू मेरी छोटी चाची चाचा का बेटा था मेरे लाडले।"
"मैं इस गुलाब की तरह कहीं से उड़के तो नहीं आया "
"नहीं रे। पर ऐसा नहीं बोलते गुलाब को दुख होगा।"
"तुम्हें कहता हूँ न, उसे न कहूँगा।"
भूलकर भी न कहूँगा।
"मेरे पास है, मेरी भी तो कुछ है।" - नैना इस कुछ से चौक गई। ठीक तो कहता है। पर क्या है गुलाब? नहीं है तो कुछ बनना होगा। इस दीन दुनिया में जो उथल पुथल चल रही है उसमें इनके राजपाट लौटने की सूरत तो नजर नहीं आती। नैना सोच रही है कैसे बदलेगी सूरत पूरनमल जीतेगा तो अफगान पठान औरतों को रक्कासा बनाएगा, अफगानों को काट डालेगा, पठान जीतेंगे तो वो नचवाएँगे एक कदम आगे बढ़कर हिजड़ों की फौज तैयार करेंगे। कुछ दिनों में हम बनजारे ही रह जाएँगे अमन पैदा करने उन्हें बरतने। ऊह, ठीक है कि हम किसी राजपाट के लिए नहीं लड़ते, पाँवरियों और बक्खो की तरह नाचने गाने की जगह भी तय नहीं कर रखी है जहाँ जी चाहता है चल देते हैं बैलों पर लादकर अपना कुनबा। टट्टू और बकरियों चलती हैं साथ। गाँव-गाँव घूमो ठाँव-ठाँव तंबू गाड़ो। न किसी भूमि के राजा हैं न किसी सुलतान की रैयत। राजधनी के आजू-बाजू में रहकर ज्यादा बुरा लगता है। जब तब हमले हो जाते हैं, मार-काट होती है। खून-खच्चर का यह बुरा मंजर हमें नाकाबिले बर्दाश्त होता है पर करें क्या, जहाँ जहाँ तंबू गड़ते हैं उस जमीन को भले ही ऊपर वाले ने बनाया हो चलती उनकी कुछ नहीं। चलती उनकी है जिसका कब्जा होता है और कब्जे के लिए ही तो लड़ाइयाँ होती हैं। रात को सारे बच्चे सो गए तब नैना बनजारन ने बनजारा सरदार से बड़े बुजुर्गो के साथ बैठकर विचार किया - "इस राजकुमारी के साथ क्या किया जाय?" कंजी आँखों वाले अतिवृद्ध बनजारे ने कहा - "हम कर क्या सकते हैं?" "इसकी तकदीर में बनजारिन बनना लिखा है नैना" - सरदार ने आकाश निहारते हुए कहा। वह देख रहा था कि कितने कलंदर आए सिकंदर आए आज वे आसमान में तारे बन चमक रहे हैं, धरती को अपनी खूँरेजी से लाल कर उपर जा विराजते है वहाँ से देखते हैं कि एक भी पौध लाल पत्तियाँ लेकर कहाँ उगता है, सबके रंग धानी हरे होते हैं। फिर भी नहीं सँभलते। "हमें मालूम है सरदार, हमें यह भी मालूम है कि गुलाब कुँअर को हम नहीं नाच करने देंगे पर उसकी नस्ल नहीं नाचेंगी यह कौन कह सकता है?"
"हममें से कितने अफगान नस्ल के हैं क्या वे नहीं नाचते, उनकी क्या निशानदेही है? हम सब बनजारे हैं।" - बूढ़े बनजारे ने कहा।
"सीधे मुद्दे पर आ नैना कहना क्या चाहती है?" - बूढ़ी बनजारन बोली "कहना है कि कमाऊ बनजारा जो हमारी नजर में गुलाब कुँअर के लायक है से इसकी सगाई कर देनी चाहिए।"
"ठीक सोचा है।" - बूढ़ी बनजारन ने कहा।
"कमाऊ का मतलब?" - सरदार ने कहा
"जो अच्छे करतब करना जानता है, खेल दिखाकर रोजी कमाना जान रहा है। बिना नचवाए बीवी बच्चे पाल ले।"
"ऐसा हो सकता है क्या?" - एक बनजारे ने कहा
"हम सिलाई-कढ़ाई के सामान बनाकर भी तो बेचते हैं। गुलाब को वही सिखाएँगे।"
"वह तो ठीक है पर क्या दूसरी टोली में देखभाल कर दूल्हा ढूँढ़ेगी?"
"अजी ना जी - ना, अपने पल्ले ऐसा लड़का है।"
"कौन है री?" बूढ़ी बनजारन का सवाल था
"अपना मालवे वालो राजकुमार।" - नैना के नैन चमक उठे।
"जोड़ी तो उपर वाले ने तय करके भेजी है नैना।" बूढ़े ने कहा
"उमर का बड़ा फरक है।" - एक बनजारे ने कहा
"अभी सगाइ कर बाँध देंगे, जवान होने पर फेरे पड़वा देंगे।" - नैना ने उत्साह से कहा।
"वही करेंगे। अगली पूरनमासी पर जसन करो और दोनों की सगाई कर दो। तब तक कुछ नए घाघरे गहने तैयार कर लो।" - बाँ की पतली पतली तीलियाँ बनाता जीतू मसरूफ था कि गुलाब उसके पास आई और खजूर की पत्तियाँ तोड़ देने की जिद करने लगी।
"मैं अपनी तीलियों को चिकना कर रहा हूँ, टाट बनानी है अभी नहीं जाऊँगा। बिल्लू मेरी तीलियाँ उड़ा लेगा।" - जीतू ने कहा "तुझसे चिकनी तीलियाँ मैं चीरता हूँ, मैं क्यों उड़ाऊँगा भला? तू कामचोर है, खजूर के पेड़ पर चढ़ेगा तो तेरा हाथ पैर छिलेगा न।" - बिल्लू जो पास बैठा तीलियों को मोटे धगे से फँसाकर टाट बिन रहा था ने कहा "तू बैठी देखती रह तीलियाँ जस की तस रहनी चाहिए, मैं लेकर आता हूँ खजूर की डाल।" - जीतू हनक कर उठा और चल पड़ा बिल्लू हँसने लगा, गुलाब कुँअर भी हौले से मुँह दबाकर हँस पड़ी। बिल्लू ने गौर किया गुलाब हाथों से मुँह ढँक कर हौले से हँसती है, इसकी बहनों की तरह खिलखिला कर हँसती नहीं। इसे यह तो मालूम है कि नैना मौसी ने इसे गोद लिया है पर किससे और कहाँ से इतनी सुथरी छोकरी को गोद लिया यह नहीं जानता जी करने लगा कि इससे पूछे कि तभी इसकी बहनें रज्जो और गुंजा आ धमकी।
"दादा, चल रोटी खाले, माई बुला रही है। गुलाबो तू यहाँ क्या कर रही है?" - रज्जो ने पूछा।
"मैं जीतू की तीलियों की रखवाली कर रही हूँ।"
"क्यों जीतू कहाँ गया?"
"मेरे लिए खजूर की डाल लाने। चटाई बुननी है।"
"सच, दादा हमें भी खजूर के पत्ते ला दो न" - रज्जो ने कहा।
"तो जा न उसी जीतू से माँग ले।"
"वो नहीं तोड़ देगा।" - गुंजा ने कहा
"अरी तोड़ देगा।" - बिल्लू ने कहा
"गुलाबो झगड़ा करेगी। उसके लिए लाने गया है न" - रज्जो ने कहा "ऊँह, गुलाब कुँअर झगड़ना जानती है क्या? इसकी तो मुँह में जुबान ही नहीं है।"- फिक से हँस पड़ा बिल्लो, गुलाब उन तीनों को देखकर आनंदित हो रही थी पर समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे उनसे आयु में थोड़ी छोटी तो थी ही, यह सब उसे आता भी नहीं था। अभी तक उसके सामने से वो खौफनाक मंजर हटा नहीं था। परकोटे में रहने वाली बाँस की तीलियों के घेरे में रहने लगी थी। पलंग पर सोने वाली झिलंगी खाट पर सो रही थी। केशर वाले दूध पीने की आदी रोटी खाकर जी रही थी वह भी मोटी टिक्कड़ वाली, सागडाँट के साथ। नैना बनजारन और उनके टप्पर के बप्पा हीरा के लाड़-दुलार से धीरे-धीरे हरी हो रही थी। इन बनजारे बच्चों, युवाओं के हँसने खेलते चुहल इसे सुकून देते। उसी समय जीतू हाथ में दो-चार खजूर की डालियाँ लेकर आ गया।
"ले, तब तक इससे काम चला मैं और तोड़ लाऊँग।" - जीतू ने कहा। वह उठाने लगी पर उससे एक भी न उठी। "तू छोड़ मैं पहुँचा दूँगा। जब तक पत्तियाँ निकाल।" - अपने गले में लिपटे गमछे को जमीन पर फैलाकर कहा - "इसमें निकाल कर रख।"
"ऐ है, बड़ा बाँका - है रे तू मेरे लिए भी ला दे न" - गुंजा ने इठलाकर जतू से कहा
"दूसरी बार तो जाएगा ही, ला देगा।" - बिल्लू ने बेलौस होकर कहा।
"मैं नहीं जाता अभी। काम भर ले आया। तू जा लेकर आ।" - जीतू ने कहा। फिर तो चारों में खजूर की डाल के बहाने झगड़े होने लगे, वे जोर जोर से एक दूसरे को गालियाँ देकर लड़ने लगे। शोर सुनकर घबड़ा गई गुलाब, मुँह दोनों हाथों से छुपाकर रोने लगी। उसका गुलाबी चेहरा काला पड़ गया। अचानक रज्जो की नजर उस पर पड़ी। वह दौड़ कर उसके पास गई। उसे अपने से सटा लिया। "क्या हुआ गुलाबो, हम तो हँसी हँसी में लड़ रहे थे।" गुलाब कुँअर हिलक हिलक कर रो रही थी। उसका सारा शरीर थर थर काँप रहा था। वह शोर के दहशत से भरी थी। दोनों बहनों ने चुप कराने की पूरी कोशिश की बिल्लू ने कान पकड़कर मजाकिया तरीके से उठक-बैठक की तब उसका रोना रुका। जीतू को मानो काठ मार गया, गुलाब कुँअर का रोना इसके कलेजे में खंजर सा चुभ रहा था जाने क्यों। काम समेट कर सभी अपने अपने टप्पर में आए। खजूर की डाल देख नैना बनजारन खुश हो गई।
"जीतू, तूने अच्छा किया खजूर की डाल ही ले आया। पत्तियाँ निकालकर डालियों से अलगनी बाँधूँगी कपड़े इधर उधर गट्ठर में पड़े रहते हैं। ठीक किया।" - गुलाब कुँअर के सूजे हुए मुख को देखकर नैना कुछ बोलने को हुई कि जीतू ने अपनी उँगली ओठों पर डाल चुप करा दिया, इशारे से कहा बाद में बताएगा। टिक्कड़ और पत्तियों की खट्टी मिर्ची वाली चटनी जीतू स्वाद लेकर खाने लगा। गुलाब के लिए बकरी की दूध सनी रोटी के कौर बड़े मनुहार से खिलाने लगी नैना बनजारन। खाने के बाद अपनी गोद में उसका सर ले थपक थपक कर सुला दिया। जब गोद में इसका सर रखती नैना की छाती फटने लगतीं, आँखें भर आतीं। हाय, राज पाट लेंगे मरद मानुस और इज्जत गँवाती है औरतें। जो सेज पर सोती है उसके बूँद का बिरिछ बनाकर खड़ा करती है, जिसने ओदर फाड़ के जना उस औरत को भूल जाता है मरद जात। माथे पर मुकुट साजने के लिए तखत पर बैठने के लिए हवस पूरी करता है अपनी कहता धरम के लिए करम कर रहे हैं। तो कौन जनीजात रोकती है। जो करना है कर, इस जनम देनेवाली को बख्श। नहीं न बख्शता तो भुगत। नापता रह, घोड़े दौड़ाता, फलाँगता रह जंगल पहाड़, रेगिस्तान में आकर डूब मर। क्या कभी चैन से रहता है तू, ओ धरती के राजा, कभी सुकून मिला तुझे! ढाल तलवार तेरी सबसे बड़ी हमसाया है तभी तो तू औरत की कदर नहीं जानता।
गुलाब कुँअर सो गई थी। उसका सर बालिश्त पर टिका टप्पर से बाहर निकली। शाम का झुटपुटा था। टेढ़े बेर के नीचे पत्थर पर जीतू बैठा था। कई बार नैना ने उसे उस बेर के पेड़ के नीचे बैठने से मना किया। कभी भी काँटे गड़ जाएँगे। कई बार उसके गहरे घाव हो जाते हैं। पर यह माने तब न।
"जीतू, इधर आ" - पुकारा नैना ने। जीतू उठकर आ गया। टप्पर के बाहर आकर बैठ गया चारों ओर बनजारे टप्पर, मचान, चटाई बनाने में लगे थे। शायद यहाँ से डेरा उठाने की तैयारी है। जीतू ने बिना किसी भूमिका के दोपहर वाली घटना बयान की।
"माई, छोकरी लड़ाई झगड़े की आवाज से भी डरती है।"
"तुझे तो मालूम है न छोकरे कि यह क्यों डरती है?"
"वो तो सबों को मालूम है पर आदत से लाचार हैं हम।"
"जीतू, तुझसे एक बात कहनी है।"
"बोल न"
"तू तो करतब दिखाकर अच्छा कमा लेता है - अब तुझे बेड़ियाँ डालनी है।"
"क्यों, मैं कहीं भाग रहा हूँ क्या?"
"अरे नहीं, वैसी बेड़ी नहीं तेरी सगाई करनी है।
"सगाई? किससे?" वो थोड़ा शरमाया।
"गुलाब कुँअर से।"
"क्या कहती है, वह राजकुमारी और मैं?" - अचंभे से कहा जीतू ने।
"तू भी कोई राजकुमार... से कम है क्या?" - नैना उसके वजूद का सच बोलने ही जा रही थी कि सँभल गई।
"अरे नहीं।"
"जीतू बेटा, तुझे यह भी मालूम है न कि शेरशाह ने इसे घुँघरू पहनाने और नचवाने का हुकुम दिया था।"
"मालूम है।"
"इसका कोई नहीं है यह अब बनजारन है। मैं चाहती हूँ कि यह घुँघरू बाँधकर सड़कों पर न नाचे। तू कमाकर खिलाए। यह इतना सा करेगा अपनी जिज्जी के लिए?" - जीतू ने सर झुका लिया। उसके उपर एक बड़ी जिम्मेवारी आ गई। इस राजकुमारी को इसे रानी की तरह रखने का हौसला है। उसके लिए क्या करे? क्या फौज में भरती हो जाए? कई बनजारे तो फौज में भरती भी हो गए। एक दिन इसने भी कहा था नैना से कि यह भी चाहता है फौज में भरती होना तो उसने झिड़क दिया था। "क्या कहता है, बनजारा है बनजारों की तरह रह। लड़ने मरने की क्या जरूरत है।"
"बिना लड़े भी फौज में रहते हैं लोग। सभी लड़ाके नहीं होते।"
"लेकिन तोप के गोले को यह नहीं मालूम कि सामने वाला तलवारबाज है कि तंबू गाड़ने वाला बनजारा। तुझे नहीं जाना।" गुलाब कुँअर धीरे-धीरे खजूर की चटाई बिनना, घाघरे में शीशे टाँकना रंग बनाना, कपड़े रंगना सीख रही थी। गुंजा और रज्जो को करतब करती, नाचती, घूमर लेती देखती। इसे बड़ा मजा आता। जिस दिन जिस पूनम की रात को जीतू और गुलाब कुँअर की सगाई हुई सारे बनजारे बनजारिनें खूब नाचे गाए। गुल्लो जरूर अलग थलग खड़ा था जाने क्यों उसे जीतू से बड़ी चिढ़ थी। उसे पता था कि नैना मासी ने जीतू को किसी से गोद लिया है और गुलाब कुँअर पूरनमल की बेटी है जीतू तो इन्हीं की तरह दीखता है पर यह राजकुमारी यह तो बड़ी प्यारी है। आगे चलकर रानी पद्मिनी सी निखरेगी। ओह सुनाते हैं गा-गा कर बनजारे कि कैसे रानी पद्मिनी ने जौहर कर जान दे दी। पूरनमल के घर की औरतों ने भी वैसा ही तो किया। यह गुलाब नहीं जानती क्या? अभी कुछ कुछ जान गई होगी लेकिन धीरे-धीरे भूल जायगी। नैना मासी ने जीतू की सगाई क्यों कि इससे? मैं तो उससे अच्छा करतब दिखाता हूँ। मैं सामान भी अच्छी तरह बेचकर ले आता हूँ। यह जीतू तो कुछ भी नहीं कर पाता। उस दिन कस्बे के मेले में जो रस्सी बाँधी थी वह ढीली थी, बाँस भी टेढ़ा लगाया था अगर मैं न होता तो मेरी बहन रज्जो सीधे पथरीली जमीन पर आ गिरती, उसका मुँह टेढ़ा हो जाता। शहद उतारने में इसकी नानी भरती है। एक काम सिरफ आता है शिकार करना। उसमें वह मुझसे आगे है। इस गुलाब कुँअर के साथ इसकी सगाई तो की है देखूँ कैसे निभती है। अभी तो यह बच्ची है बड़ी होने पर क्या होगा कौन जाने। अब कौन सी ठकुराइन रही और कौन सी राजरानी। रज्जो और गुंजा फूलदार कुरती शीशे जड़े लहँगे और चाँदी के गहनों में खूब ही खिल रही थी। गुलाब कुँअर के भी चाँदी के बड़े-बड़े गहने सर से पाँव तक पहनाए गए थे। उसे लाल रेशमी शीशे टँकी कुर्नी और हरा घाघरा पहनाया था। वह कुछ नहीं समझ रही थी। रज्जो और गुंजा ने उसे समझाया - "यह जीतू तेरा मंगेतर हो गया, इसके साथ तेरी सगाई हो गई। कुछ दिन बाद जब इसका अपना टप्पर होगा और तू इत्ती बड़ी हो जायगी तब तेरी शादी होगी। तू इसकी लुगाई हो जायगी।" दोनों की बातें आँखें झपका कर सुनी गुलाब कुँअर ने। समझ में कुछ न आया। नाच गाने, उत्सव और लजीज खाने का पूरे कुनबे ने आनंद लिया। बड़ा जशन रहा।
उपर से सूखी अंदर से गीली बल्कि लबालब आबदार दरिया फल्गू के किनारे बुजू कर फजिर का नमाज पढ़ शेर खाँ का काफिला रोहतास किले की ओर बढ़ा। पीछे से घड़ी घंटों की आवाज, बौद्ध मंत्र सुनाई रहे थे। उमर के इस पड़ाव पर आकर बहुत कुछ बहल जाता है। बदल जाता है तख्त पाने के बाद मिजाज। एक ही इनसान जो लड़ाका सिपाही होता है वह अचानक शहंशाह हो जाता है, उसकी रगों में सुल्तानी सुरसुराने लगती है जो उसे चैन न लेने देती है। कमान बीबी को रोहतास किले तक छोड़ इन्होंने विदा ली, उन्हें चुनार के किले पर जाना था। लाड मल्का इनका इंतजार कर रही थी। लाड मल्का ने बेहद सादे तरीके से इनका इस्तकबाल किया। शेर खाँ ने पहले ही कह रखा था कि दिल्ली की ओर कूच करने से पहले वे बिल्कुल तामझाम न पसंद करेंगे। दिल्ली तख्त पर बैठ कर अपने साथ दोनों बेगमों को बैठाएँगे तब होगा जश्न। लाड मल्का शेर खाँ की जिंदगी की राह आसान करने वाली बेगम थी। उन्होंने ही इन्हें एक ऐश्वर्यशाली जिंदगी दी। पंद्रह साल की अमीरी में तरह तरह के सुझाव देकर जिंदगी आसान की। चौसा में नदी पर पुल बनाकर सेना उतारने तक शेर खाँ खुद अपनी अक्ल से काम कर रहा था पर एक ओर से खवास खाँ और दूसरी ओर से शेर खाँ के बड़े बेटे आदिल खाँ को पीछे से लाड मल्का ने ही भेजा था। वह जानती थी कि मुगल बादशाह हुमायूँ की सेना बड़ी है लेकिन वे पूरी हरम लेकर चलते हैं सो घेरने पर पस्त हो जाएँगे। उसी लड़ाई में हुमायूँ खुद तो जान बचाकर भागे पर हरम पीछे छूट गया। हरम की निगहबानी में लगे सिपाहियों को अफगानों ने मौत के घाट उतार दिया। शेर खाँ ने सुना तो उसे बेहद तकलीफ हुई। उसने तुरंत पूरे राज्य में मुनादी करवाई कि मुगल बच्चे और औरतें जहाँ कहीं भी हैं उन्हें महफूज रखा जाय। उनके खाने पीने का इंतजाम शाही खजाने से होगा। खुद शाही हरम की बेगमातों के पास पहुँचा और घोड़े से उतरकर उनका सलाम पहुँचाया। उनसे कहा -
"मैंने मुगल बादशाह बाबर का और हुमायूँ का नमक खाया है। आपका दास हूँ। जंग हिंदोस्तान के तख्त के लिए है आपको तकलीफ में रखने के लिए नहीं। आप बाइज्जत हमारे रोहतास के किले में पूरे शानो शौकत से रहेंगी। आपको आपकी हैसियत के हिसाब से खर्चे दिए जाएँगे। हुमायूँ बादशाह का सही ठिकाना मिल जाने के बाद आप सबों को उन तक पहुँचा दिया जायगा।" तीन माह बाद जब बरसात खत्म हुई तथा हुमायूँ बादशाह का ठिकाना मालूम पड़ा शेर खाँ ने मरियम मकागी, बाकी बेगमातें और उनकी बाँदियों को अपने खासुलखास साथी सिपहसालार खवास खाँ और राजा टोडरमल के साथ मुल्तान की ओर भेज दिया। पूरे मुल्क में फैले मुगल पठानों की दहशत से छुपे छुपे थे। उन्हें भी शाही खजाने से खर्च देकर जाने दिया गया। हुमायूँ बेहद हैरत में था। एक ओर उसका सगा भाई कामरान बगावत का बिगुल फूँक रहा था दूसरी ओर जानी दुश्मन शेर खाँ उसके शाही हरम को बाइज्जत उसके पास पहुँचा रहा था। शाही बेगमातें और बांदियाँ खुद हैरत में थीं। रोहतास के किले में बिल्कुल मुगलिया शान के साथ रहती थीं, क्या कोई ऐसा कर सकता है? मरियम मकानी ने सोचा क्या इनसान है यह रूखा-सूखा सा दीखने वाला पंद्रह सालों से अमीरी करने वाला, अब दिल्ली की तख्त पाने वाला अफगान कैसा नरम दिल है इसका। पास ही रूखे बलुआ पत्थर से एक मकबरा तैयार करवा रहा था। एक दिन इन लोगों ने उसे देखने की पेशकश की। पूरे शाही अंदाज में बेगमातों की डोलियाँ मकबरा देखने गई। उन्होंने देखा कि बाहर लगे खुरदरे पत्थर मानो शेर खाँ का बाहरी रूप ही ओर अंदर चिकने संगेमरर मानो शेर खाँ का दिल हो। 'अल्लाह, तुझे नूर बखशे, तू सुकून पाए' - बेसाख्त कह गई मरियम मकानी। अपने बेटे हुमायूँ की फिक्र तो थी पर इस इनसान ने भी औलाद की तरह ख्याल रखा। कामरान ने मुल्तान पर कब्जा कर लिया था चुगताई अमीरों ने भी बगावत कर रखा थर। हुमायूँ बादशाह को लाहौर में सिमट कर रहना पड़ा। लाहौर में फौज इकट्ठी करते हुए हुमायूँ सोचता रहता कि जिन दिनों शेर खाँ शहंशाह बाबर की सेवा में था वह मुगलों के फौजी तरीके सीख समझ रहा होगा। उसने देखा होगा कि हमारी हुकूमत में क्या कमजोरियाँ हैं। तभी तो कहा करता था कि ये मुगल हिंदोस्तान पर राज कभी नहीं कर पाएँगे। इनमें शाही अंदाज पहले से हैं। ये खुद कुछ नहीं देखते अपने हुक्कामों और अमलों पर यकीन करते हैं। उसकी बातों पर कभी ठीक से गौर नहीं किया, लफफाजी समझा हमने। जब शेर खाँ कहता है कि रियाया से सीधे रिश्ता नहीं रखते, घोड़े खुद देखकर नहीं खरीदते, फौजी परखकर बहाल नहीं करते और किसानों से अनाज खुद गोदामों में नहीं रखवाते। किसानों पर मालगुजारी लगाने का तरीका यक्साँ नहीं है तो शायद सच ही कहता है। मैं पढ़ा लिखा इनसान उस तालीमयाफ्ता, बहादुर, रियाया के खैर ख्वाह शेर खाँ की तजवीज को समझ नहीं पाया। सिर्फ यह सोचता रहा कि वह घटिया किस्म का शातिर लोमड़ की तरह छापामार लड़ाइयाँ लड़कर मुझे, आगरा के शहंशाह को क्या शिकरत दे पायगा? पर उसने मुझे आईना दिखा दिया। रियाया पठानों के झगड़ों से ऊब चुकी थी, हमारी मुगल हुकूमत कायम हुई थी तो सचमुच हमने उनसे सीधा ताल्लुक क्यों नहीं रखा तभी तो किसी जंग में हमारे साथ खड़ी नहीं हुई। इस अफगान को सुल्तानी की हवस है इसलिए हमसे जंग कर रहा है लेकिन हमारा भाई कामरान क्यों लड़ रहा है? उसके पास तो मुल्तान पहले से ही था। हमें मिल-जुल कर, फौज इकट्ठी कर शेर खाँ से मुकाबला करना चाहिए पर वो तो उल्टा दाँव खेल रहा है। वह मेरा और मेरे बेटे का काम तमाम करना चाहता है। वह खानदाने मुगलिया का तख्तोताज हासिल करना चाहता है। उस दुश्मन शेर खाँ को चाहिए हिंदोस्तान की सुल्तानी और मेरे भाई को चाहिए खानदान का तख्त। या अल्लाह, मैं तो फँस गया। यह सब सोचता हुआ हुमायूँ लाहौर के किले में बैठा अपने खैरख्वाह दोस्त बैल खाँ और शम्शुद्दीन अतका की राह देख रहा था। मुगल बेगमों को रुखसत कर उनके सही ठिकाने पर पहुँच जाने की खबर सुनकर शेरशाह को सुकून महसूस हुआ। अब वह दिल्ली की दुनिया में रमने को बेताब था। शाही इमारत बन रही थी, शेर शाह ने फौज के लिए घोड़े खरीदने और घुड़सवार बहाल करने की कवायद शुरू कर दी थी। अलाउद्दीन खिल्जी की ओर से घोड़ों पर दाग लगाने की प्रथा शुरू हुई थी जो आगे के लोदी सुल्तानों के वक्त बंद कर दी गई थी। शेर शाह ने उसे फिर से चालू कर दिया। घोड़ों के पुट्ठे जाँच कर उस पर सवारी कर खुद चुनता और अपने सामने दाग लगवाता। फौजी घोड़ों की यह निशानदेही थी। चुनार, गौड़ और बिहार की अमीरी के वक्त शेर खाँ ने अपनी हुकूमत का ढंग बदलना शुरू कर दिया था। अपनी अम्मीजान सबा बेगम के इंतकाल के बाद मुन्नी बाई ने उसे कई तरह से सताया। सताने में सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात थी भूखा रखना। अफगानियों के पसंदीदा शोर बे यख्नी का शौक शेर खाँ को था जिसमें पानी मिलाकर पेश किया जाता वह भी ताने तिश्ने के साथ परोसा जाता। हसन मियाँ देखकर भी अनदेखा कर जाता। उसके पास कोई चारा नहीं था, वह एक तरह से मुन्नी बाई जो जवान औरत थी की कैद में था। तभी उसने सोच विचार कर जौनपुर भेज दिया जहाँ पढ़ने और सीखने की गुंजाइश थी। शेर खाँ अपने खुद के घोड़े पर खाली हाथ जौनपुर के लिए चल पड़ा। लड़के चला था, भरी दुपहरी में भूख प्यास की वजह से इसका गला सूख रहा था, घोड़े की लगाम के पास से फेन निकल रहा था। पत्थरों पठारों के पार इसे हरियाली दिखाई पड़ी और दिखाई पड़ा एक पाकड़ का पेड़। पेड़ बड़ा सा था, घनी छाया थी उसकी। शेर खाँ ने अनुमान लगाया कि वहाँ कहीं पानी होगा, तभी तो ऐसी हरियाली है। घोड़े को एड़ लगाई, तिलमिलाता हुआ घोड़ा सीधे पेड़ के पास आकर रुका। पेड़ के नीचे कुछ किसान बैठकर खाने पीने का इंतजाम कर रहे थे। इसे देखते ही बोल उठे। "बबुआ, तुम्हारा तो मुँह घाम से लाल हो गया है। आओ सुस्ताओ पानी पीयोगे?"
शेर खाँ ने घोड़े की ओर इशारा किया। किसानों ने निकट के कुँए से पानी निकाल घोड़े को पिलाया फिर उसे खेत के धूर पर से एक मुट्ठी घास लाकर ओगार दिया। शेर खाँ ने अपने हाथ पैर मुँह धोये पानी पीने के लिए दोनों हाथों की ओक बनाया कि किसान ने कहा "ना बेटा, खाली पेट पानी पीयोगे तो पेट दुखेगा। पहले हमारे साथ सत्तू खा लो।" नमक से गूँथा हुआ सत्तू खिलाया किसान ने फिर मिट्टी के सकोरे में पानी पीने दिया, कई सकोरे पानी पी गया शेर खाँ। "ऐसा लजीज निवाला मैंने कभी नहीं तोड़ा ये मेरे भाई" - भावुक होकर शेर खाँ ने कहा। "कहाँ कुछ खास मैंने पेश किया बबुआ, ई तो सतुआ है घरनी निमक मरिचाइ से गूँथकर गमछी में बाँध के घर देती है, ई कुइयाँ दू-चार सै बरिस का है, निर्मल मिट्ठा पानी है, है कि नहीं?" "बहुत मिट्ठा, बिल्कुल मिश्री की डली और सतुआ बेहद लजीज इसे मैं सुल्तान बनूँगा तो पूरे हिंदोस्तान का खास खाना शुमार करूँगा। मैं सुल्तान बनने लायक हूँ न चचा?" - शेर खाँ मौज में आ गया था। "तुम्हारे कपाल पर लिखा है कि कुछ तो बनोगे। कहाँ जा रहे हो?"
"अभी पढ़ने सीखने जा रहा हूँ।"
"कहाँ जौनपुर का?"
"जी चचा।"
"हे तुम्हारा घोड़ा खूबे ऊँचा है तुम जरूर किसी अफगान के बेटे हो। फिर खाली झोली अकेले क्यों जा रहे हो?"
"आपने ठीक पहचाना, मैं अफगान हूँ पर किसी बड़े आदमी से ताल्लुक नहीं है। घोड़ा बचपन से पाला है।"
"किसका बचपन बबुआ?"
"मैं भी बच्चा था हमारे दादा हुजूर घोड़े के व्यापारी थे, यह घोड़ा भी बीमार बच्चा था। मैंने इसे और इसने मुझे पाला है। मुझको बड़ा अजीज है यह चचा।"
"जिनावर इनसान से जादे सगे होते हैं। तुम जो करोगे उसी में कामयाब रहोगे, ऐसा मिट्ठा सुभाव जो है, बोलते हो तो लगता है शहद चू रहा है।"
"आपका शुक्रिया भी अदा नहीं कर सकता। चचा, मैं आपको याद रखूँगा आप खेतिहर हैं न?"
"मैं कुम्हार हूँ, बरतन गढ़ता हूँ, आँवा लगाता हूँ, अपना यह सामने वाला जिरात है, गेहूँ काटकर धान बोया है। उस ओर नदी है वहाँ से नहर खींच कर लाया गया है। आवाज सुन रहे हो उत्तर वाले जिरात में रहट चल रहा है। इसी लिए थोड़ी देर निराई-गुड़ाई कर बैठा हूँ। उनका खेत पूरी तरह से पटा दिया जाए तो हम अपना नाला खोदेंगे।" - किसान ने तफसील से बताया।
"खेत रहट से कैसे पटाते हैं आप लोग, नाला कहाँ तक जाता है क्या आप मुझे दिखाएँगे चचा?" - शेर खाँ ने कहा। किसान ने उसे लेकर पूरा खेत दिखाया, धान का खेत मकई का खेत नाला जिससे रहट का पानी क्यारियों में आता। सब्जियों की लतरें पहचानी, पौधे देखे, दिन ढलने तक किस मौसम में क्या और कौन सी सब्जी लगाई जाती है तफसील से सुनता रहा शेर खाँ। अपनी तकलीफ से समझ में आई बात कि राह चलने वालों के लिए तो कही कोई जगह ही नहीं है। भूखा प्यासा इनसान किसी बाजार की आस घर कर चलता है वरना कुछ भी भोगता है। यह कुम्हार इसे एक नया नजरिया दे गया। इसने पहली बार किसानों को गौर से देखा। पटना जाते वक्त ठठेरों को देखा था, तब वह सूबेदार बहादुर के साथ था। अकेले कहीं भी निकल जाने की शेर खाँ की आदत ने भी इसे बहुत कुछ समझा दिया।
बिहार की एक यात्रा वैसी ही थी, शेर खाँ ने देखा हुमायूँ की मुगल फौज गौड़ जा रही थी, दूरी बना कर इसकी फौज भी चल रही थी। जब आगे पहुँचा तो देखा किसान कलेजा कूट-कूट कर रो रहे हैं सामने उजाड़ गन्ने का खेत पड़ा था सारी फौज ने गन्ना लूट लिया था एक एक गन्ना एक एक सिपाही उखाड़ कर चूसते, खुशी से झूमते चले जा रहे थे। इसका गुस्सा सातवें आसमान पर चला गया था। शहंशाह हुमायूँ के लिए और ज्यादा नफरत से भर उठा। भगोड़े मुगल, काफिरों से भी बदतर, बड़ा पढ़ा लिखा कहा जाता है यह नहीं जानता कि उसके सिपाही, सिपहसालार क्या करते हैं, खेत उजाड़ते हैं, कारीगरों और मंडी वालों से बात-बात पर रिश्वत लेते हैं, अपनी तिजोरियाँ भरते हैं। जंग में लूट का माल छुपा के रखते हैं थोड़े से शाही खजाने में जमा करने हैं, खूबसूरत औरतों को नजर करते हैं। रंगरलियों में मस्त रहने वाला शहंशाह शराब और शबाब में डूबा रहता है। ऐसे अगर किसानों कारीगरों और व्यापारियों को लूटते रहे तो क्या शमशीर के साए में हुकूमत चला पाएँगे? इन्हें हुकूमत का इल्म ही नहीं है। काश कि सारे पठान अफगान अपना बैर भुलाकर एक हो जाएँ तो कभी मुगल जम न सकेंगे। पठानों को सीख लेनी चाहिए इस मुल्क के पुराने बाशिंदों के बहादुर होने पर किसी को कोई शक नहीं है। शक है तो यह कि वे भी निहायत बेअक्ल हैं। दूसरे से मिलकर नहीं रहते, मूँछों की लड़ाई लड़ते रहते हैं, रियाय को समझा नहीं पाते कि जमीन को किस हद तक अपने कब्जे में रखना चाहिए। यह मुगल बादशाह तो उन से भी बढ़ है।
उधर हुमायूँ बादशाह अपनी अम्मीजान से शेर खाँ की तारीफ सुन सुन कर परेशान हो चुके थे। आजिज आकर अम्मी जान से कहा - "आप लोगों को आराम से रखा यहाँ बाइज्जत पहुँचा गया, अच्छी बात है। वह एक सच्चा मुसलमान है इससे ज्यादा कुछ नहीं। आपको क्या पता कि ऐसा करने के पीछे उसकी मंशा क्या है? वह निहायत चालाक, लोमड़ी जैसा इनसान है। आगे से भी और पीछे से भी वार करता है। हाथ में बाज लिए चलता है, बाज की तरह गाफिल कर जोरों का हमला करता है। उसका मारा हुआ हूँ अम्मी जान।"
"यह सब सियासत है, अपना अपना जंग है। जहाँ पैदा हुए वहाँ से इतनी दूर आने का सबब क्या था? उसे छोड़ो सिरफ इबादत का तरीका एक है बाकी कौन सा तुम्हारी और उसकी कौम एक है? अपने भाई कामरान को देखो, वह भी तख्त पर बैठना चाहता है।"
(उपन्यास अंश)