अधूरी तैयारी (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Adhuri Taiyari (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
ऊपर बैठे सज्जन की धारदार
आवाज सुन पड़ी, ''बस नीचे उतर आइए शायद...फटाफट...।''
इस
बात को स्वीकार करना ही होगा कि जो कुछ कहा गया था वह बड़े भद्र-भाव से कहा
गया था। वह बड़े आराम से कह सकता था ''अबे स्सालो...बस खाली करो।''
लेकिन नहीं। कहा गया था,
''उतर आइए...।''
बस
में भरी भीड़ हड़बडाकर नीचे उतर आयी। सीट पाने वाले खुशनसीबों के मुकाबले
खड़े रहने वाले बदनसीबों की संख्या ही ज्यादा थी। अचानक पासा पलट गया। ऐसे
ही बदनसीबों को पहले उतरना पड़ा और वे भाग्यवान यात्री जो धक्कम-धक्का और
ठेलम-पेल करके अन्दर घुसे थे, उन्हें आखिरी ठिकाने तक जानेवाले मुसाफिर के
रूप में वहीं टिके रहना पड़ा।
लेकिन
त्रिभुवन चक्रवर्ती की तरह इतने पीछे कोई नहीं रह गया था। सारी बस एक ऐसी
दियासलाई की तरह दीख रही थी, जिसकी सारी तीलियाँ खत्म हो गयी हों।
त्रिभुवन अब भी गठियाग्रस्त घुटनों के साथ कसरत कर रहा था।
ऊपर बैठे आदमी की आवाज एक
बार फिर सुन पड़ी, ''क्या बात है दादा जी...आपका ट्विस्ट नाच पूरा नहीं
हुआ...और कुछ बाकी है?''
दूसरे ही पल उसने धमक
दिया, ''अच्छा मजाक है...? जल्दी नीचे उतरिए।''
त्रिभुवन
नीचे उतर गये। वे हैरान थे कि सिर्फ दो ही मिनट के दरम्यान बस पर सवार
इतने सारे लोग आतिशबाजी की चिनगारियों की तरह पता नहीं, कहाँ गायब हो गये।
तमाम रास्ते सुनसान दीख रहे थे...खाली...बियाबान।
त्रिभुवन
ने तय कर लिया कि जो हो सो हो। उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। घुटने का
दर्द भूलकर वे तेजी से आगे बढ़ चले। हालाँकि कदम-कदम पर उनके पाँव में जरब
पड़ जाता लेकिन उन्हें ठीक-ठीक यह नहीं जान पड़ता कि दरअसल यह टीस है कहीं?
घुटनों में ही...या कहीं और?
त्रिभुवन
के शरीर की जो हालत है उसमें ट्राम या बस की भीड़ को इस तरह ठेलकर या भेदकर
कोई काम करने जाना अव नामुमकिन होता जा रहा है। लेकिन उसके न चाहने से
क्या होगा? या कि न कर पाने से भी कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है। यह तो
परिस्थितियों पर निर्भर है। त्रिभुवन के ममेरे भाई की घरवाली अपने बाप की
मौत के गम में पिछले तीन महीनों से बिछावन से उठ नहीं पायी है। जबकि
त्रिभुवन की स्त्री को अपने गोद के बच्चे के छिन जाने के अगले ही दिन,
दूसरे बच्चों के लिए चूल्हा-चौका सँभालना पड़ा था।
इसलिए कर पाना या न कर
पाना जैसी कोई बात नहीं है।
अगर
ऐसा न होता तो अपने सारे होशोहवास खोकर...और चारों ओर क्या कुछ हो रहा
है...इससे बेखबर वह लगभग एक किलोमीटर रास्ता तय कर दौड़ा चला आता?
त्रिभुवन...जो उठते-बैठते 'माय रे' और 'बाप रें' किया करते हैं।
वह
किसी तरह भागते-दौड़ते आये और गली में घुसते ही एक टूटे-फूटे मकान की
ड्योढ़ी पर बैठकर हाँफने लगे। वह जोड़ों के दद की बात भूल ही गये थे शायद।
उनके सीने में धौंकनी-सी चल रही थी और दिल गेंद की तरह बार-बार उछल रहा
था। इस उछाल के थम जाने के वाद ही वह कहीं और जाने के बारे में सोच सकते
थे। लेकिन उनका दिल क्या इसलिए धड़क रहा है कि वह तेजी से दौड़कर आये हैं।
उस आदमी के चलते नहीं जिसने चीखकर उनसे उतर जाने के लिए कहा था। ऐसी
आवाजों से तो त्रिभुवन बुरी तरह परिचित हैं। उनके शरीर का एक-एक
रोयी-रेशा... रक्त-मांस-मज्जा... मन-प्राण-आत्मा... सोच और सरोकार... सब
परिचित हैं ऐसे तीखे कण्ठ-स्वर से।
तो
भी, अचानक यह स्वर वड़ा अनजाना और डरावना-सा जान पड़ा। जाने-पहचाने और
अपरिचित स्वरों के इस अन्तर को झेल न पाने की वजह से ही त्रिभुवन... इस
तरह
हाँफ रहे थे।
उस मकान के अन्दर से एक
आदमी बाहर निकल आया और ऊँचे स्वर में बोला, ''कौन है?''
ऐसी
परेशानी की कोई बात न थी कि इस तरह गला फाड़कर यह सवाल किया जाए। लगता है
सारी दुनिया का सरगम ही ऐसे पंचम में बाँधा गया है कि हर आदमी उसी सुर में
सुर मिलाकर बोलने लगा है।
''यहाँ क्या हो रहा है?''
ऊँचे सुर में उस आदमी ने पूछा।
''कुछ नहीं...'' त्रिभुवन
बोले, ''थोड़ा आराम कर रहा हूँ...।''
''इस तरह हाँफ क्यों रहे
हैं...? दमे का रोग तो नहीं?''
''नहीं..
नहीं...वो जरा जोड़ों में दर्द था...ओ...,'' त्रिभुवन ने अपनी सूखी जुबान
को हलक से बाहर निकालते हुए कहा था, ''तेजी से दौड़ने की वजह से...।''
''क्यों,'' उस आदमी ने शक
की नजर से देखते हुए पूछा, ''दौड़कर आने की
क्या जरूरत थी भला? पुलिस
की जीप खदेड़ रही थी?''
पुलिस जीप!!
त्रिभुवन ने हैरानी से
पूछा, ''पुलिस की जीप तो कहीं नहीं दिखी!''
''नहीं
दिखी...इसका क्या मतलब? अभी-अभी तो मैंने घर की छत से देखा कि पुलिस की
जीप चक्कर काट रही है और रास्ते पर लोग बेतहाशा इधर-उधर दौड रहे हैं। आप
यहीं कितनी देर से आकर बैठे हुए हैं?'' उस आदमी के स्वर में अब भी सन्देह
का काँटा चुभा हुआ था।
कितनी
देर से? त्रिभुवन ने इधर-उधर देखा। उसे लगा उसकी सारी दिशाएँ खो गयी हैं।
कब से बैठे हुए हैं वे...शायद युगों से...युग-युगान्तर से। घुँघराले बालों
वाले मोम के खिलौने जैसे एक शिशु के चिहुँकने की आवाज किस गलियारे से आ
रही है, इसी बारे में सोचते-सोचते वह शायद यह भूल गये हैं कि कितनी देर हो
चुकी है?
त्रिभुवन उठ खड़े हुए।
अपने सीने को दबाते हुए।
उस
आदमी ने तभी पीछे से कहा, ''अरे महाशय...आपको तो दिल की बीमारी है। जल्दी
से कोई रिक्शा-विक्शा लेकर किसी डाँक्टर के दवाखाने या क्लिनिक जाइए। इस
मोहल्ले में किसी दूसरे मोहल्ले का आदमी मर-मरा जाए तो बड़ी मुसीबत हो
जाएगी यहाँ।''
त्रिभुवन
ने कहना चाहा, 'अरे भाई...ह्म जैसे लोगों की किस्मत में मौत कहाँ बदी..?'
लेकिन कह नहीं पाये। तभी...धड़ाम...धड़ाम...धड़ाम की आवाजें सुन पड़ा। यह
आतिशवाजी की नहीं...गोलियों के चलने की आवाज थी। वह इन आवाजों से परिचित
थे...आये दिन ऐसी आवाजें सुन पड़ती थीं।
''हो
गया न...सब निहाल।'' उस आदमी ने खीजकर कहा, ''गोली चल गयी। अरे अब भी तो
निकल जाइए।'' और ऐसा कहते हुए वह घर के अन्दर घुस गया और उसने अन्दर से
दरवाजा बन्द कर लिया।
लगता है, रिक्शों पर ही
जाना पड़ेगा।...त्रिभुवन ने सोचा...पैसे के बगैर। लेकिन कोई रिक्शा तो मिले
पहले और वह खाली हो...।
दो-तीन
रिक्शे पर नजर पड़ी लेकिन सब सवारी समेत बेतहाशा दौड़ रहे थे। आखिर वे इतनी
तेज क्यों दौड़ रहे थे और सिर्फ वाहन ही नहीं, लोग भी दौड़ रहे थे। इधर के
लोग उधर और उधर की भीड़ इधर। खासी रेल-पेल थी।
त्रिभुवन
भाग-दौड़ नहीं कर सकते। लगता है, ठीक से चल भी नहीं पा रहे। ऐसा जान पड़ता
है उन्हें जैसै कोई पीछे से खींच रहा है...रस्सी से। उन्हें जमीन पर
धकेलकर गिरा देना चाहता है।
हालाँकि ये सारी बातें
एकदम नयी नहीं हैं। कई-कई बार सुनी जा चुकी हैं। बार-बार यही बात उठायी
जाती रही है।
क्या
कहा जाए...यह सब गलत इरादों का नतीजा है। ये सब बस जलाकर भाग रहे थे और अब
पुलिस गोलियाँ चला रही है। और चाहे जो हो जाए...बस जलाने के समय कोई प्रभु
या जनता-जनार्दन नहीं दीखते। बाद में सब कुछ फुँक जाने के बाद दीख पड़ते
हैं। और...लाशें? वे रहीं...सड़क पर पड़ा...उन्हें उठाकर कहीं ले जाने की
तैयारी चल रही है। देख नहीं रहे?
देख
कैसे नहीं रहा? कच्ची उमर का एक युवक सड़क पर औंधा पड़ा है...रंग
गोरा...दूधिया...गाल पर काले बालों की फैली लटें और चेहरे पर घनी
मूँछ-दाढ़ी। दाढ़ी तो रहेगी ही...।
त्रिभुवन किस तरह भागे?
दायें...बायें...आगे...पीछे...?
चारों
तरफ से आग के बगूले छूट रहे हैं...। दौड़कर चला आ रहा है गोरा-चिट्टा और
घनी दाढ़ी-मूँछवाला एक युवक...वह भागता हुआ आता है और त्रिभुवन के सामने
औंधा पड़ जाता है...
उसे परे हटाकर त्रिभुवन
किस तरह भागे?
लेकिन
बिना कुछ सोचे-विचारे त्रिभुवन भागने लगे। किस ओर...यह उन्हें पता नहीं।
अगर वहाँ त्रिभुवन को जाननेवाला कोई होता तो वह यही कहता ''यह आदमी जोड़ों
के दर्द का बहाना किये हुए है। अगर इसके घुटनों में गठिया का रोग
है...नामुमकिन...। अगर ऐसा होता तो इस तरह खूँटे तुड़ाकर न भाग रहा होता
बेचारा।''
लेकिन यहाँ भला कौन
है...उसका परिचित। सब-के-सब अनजाने है-ये रास्ते...दूकानें..
मकान...लोग-बाग...।
उन्हें
खुद यह मालूम नहीं कि कितनी देर बाद और कहीं उन्हें एक खाली रिक्शा मिला।
उस पर बैठ जाने के बाद उन्होंने बताया कि कहीं जाना है उन्हें।
काफी देर के बाद...
त्रिभुवन पूर्व परिचित दृश्य देख पाये-मकान... द्वान... सड़क और रास्ते पर
चलनेवाले लोग।
लेकिन
ये सब इतने धुँधले क्यों थे? इस वक्त यह कोहरा कहीं से छा रहा है? तो
भी-त्रिभुवन एक जाने-पहचाने मकान के सामने ही रुके। और यह देखकर किसी को
भी हैरानी हो सकती थी कि रिक्शावाले को पैसे भी उन्होंने गिन-गिनकर ही
चुकाये।
इसके बाद अचानक जोड़ों में
उभरने वाला वह गठिया का दर्द सिर्फ घुटनों में ही नहीं पूरे शरीर में जैसे
अपने पैने दाँत गड़ाने लगा।
वह जब अपने पाँव को सचमुच
खींच पाने की स्थिति में न थे तब पुकार उठे, ''विशु...''
त्रिभुवन
का बड़ा लड़का विश्वभुवन अबकी बार एम. ए. की परीक्षा दे रहा था। वह बाहर
वाले कमरे में ही पढ़-लिख रहा था। तेजी से बाहर निकला और हैरानी में भरकर
बोला, ''पिताजी, आप! बात क्या है? क्या हुआ? इतनी रात गये...आप कहीं गिर
तो नहीं गये थे?''
त्रिभुवन
ने इतनी सारी बातों के उत्तर में इतना ही कहा,''मेरा हाथ तो पकड़।'' अपने
बाप की आवाज भी विश्वभुवन को अनजानी-सी जान पड़ी। वे इस तरह उखड़े-और कडुवे
ढंग से तो कभी बात नहीं करते। ऐसा कैसे सम्भव हो गया? त्रिभुवन को जान पड़ा
कि उन्हें इतनी देर बाद रोशनी की एक किरण दीख पड़ी है। वे बोले-''हाँ, गिर
पड़ा था।"
''कब कहां?''
त्रिभुवन की पत्नी रसोईघर
से बाहर निकल आयी और लगभग चीखकर बोली-''गिर पड़े थे...। कैसे...कहां?''
''बस से नीचे उतरते
हुए''-त्रिभुवन ने कराहते हुए बताया, ''मैं अपने घुटने हिला नहीं पा रहा।''
बेटी-बेटे
और पत्नी सभी आ जुटे-त्रिभुवन के घुटने के पास। नौवें दर्जे में पढ़नेवाली
रुचि बिटिया ने कहा, ''मैंने जैसे ही पिताजी को रिक्शे से उतरता देखा तभी
समझ गयी थी कोई-न-कोई बात है जरूर। वर्ना पिताजी पैसे खर्च करने से
रहे...''
''चुप भी रह...जब देखो
जुबान चलाती रहती है,'' पत्नी बोली, ''हां जी...कहीं हड्डी-वड्डी तो नहीं
टूटी?''
''क्या पता?'' त्रिभुवन
ने कहा।
वे
तीनों ही त्रिभुवन को सहारा देते हुए सोनेवाले कमरे तक लिवा लाये और
उन्हें चारपाई पर लिटा दिया। सभी निचली मंजिल पर रहते थे इसलिए कोई खास
दिक्कत नहीं हुई।
विशु
ने पिताजी की धोती को ऊपर उठाकर पाँव का बड़े गौर से मुआइना किया।
नहीं...कहीं टूटा-फूटा तो नहीं। कहीं जख्म लगा होता तो रास्ते की धूल से
टिटनेस होने का खतरा होता।
और हड्डियाँ...?
लगता है हड्डियाँ
सही-सलामत हैं शायद। अगर कोई हड्डी टूट या चटख गयी होती तो वे इतनी दूरी
तय कर घर तक आ पाते? कभी नहीं।
अब तो बेहतर यही होगा कि
गरम पानी से सेंक देने पर और...आयोडिन या ऐसी ही कोई दवाई लगा दी जाए।
लेकिन इतनी देर तक
त्रिभुवन रहे कहां?
दफ्तर
से तो सीधे घर जाना तय रहता है शाम के छह बजे तक। बहुत हुआ तो साढ़े छह-सात
बजे तक। इसलिए कि बसों में देर हो ही जाती है। त्रिभुवन वैसे भी दफ्तर से
इधर-उधर नहीं जाते, सीधे घर ही जाते हैं।
इस सवाल का जवाब देते हुए
त्रिभुवन खीज उठे थे।
''अच्छी मुसीबत है...कहां
जाएँगे भला? खुद चलकर आने की स्थिति में नहीं थे...इसलिए एक मकान की
ड्योढ़ी पर बैठ गये थे।''
लेकिन
पत्नी का जी यह सब देखकर बड़ा ही खट्टा हो गया था। उसने पूछा, ''ही
जी....रास्ते पर आने-जानेवालों में से किसी ने थोड़ी-सी भी सहायता न की?''
''सहायता....हुँ....। कौन किसकी सहायता करता है यहीं?...'' त्रिभुवन एक
बार फिर झुँझला उठे,''अरे किसको पड़ी है...?''
''पड़ी
भले न हो...लेकिन...'' त्रिभुवन की पत्नी ने न जाने किस जमाने की बात की,
''मानवता के नाते....और किसलिए? एक आदमी ठोकर खाकर सड़क पर औंधा पड़ा है और
कोई उसकी तरफ देखेगा भी नहीं? उसे सहारा देकर किसी गाड़ी में उसके घर नहीं
पहुँचा देगा? और उसका अता-पता न हो तो कम-से-कम किसी दवाखाने तक तो पहुँचा
ही सकता है।''
त्रिभुवन
को अचानक ऐसा लगने लगा कि वह खामखाह इस पचड़े में क्यों पड़े? और पत्नी जो
कि दर्द वाली जगह सहला रही है, उसे भी इस पचड़े में घसीट रहे हैं। ''आखिर
क्यों? और कहीं ले जाएँगे?....गाड़ी पर लिटाकर...ये सारी बातें तुम्हें
कानों-कान कौन कह गया?''
''कहेगा
कौन?...यह तो सदियों से लोग कहते रहे हैं,'' घरवाली ने गुस्से में भरकर
कहा, ''और जो मुनासिब है...मैं वही तो कह रही हूँ। कोई आदमी सामने सड़क पर
गिरा-पड़ा हो तो क्या उसे दूसरा आदमी उठाएगा नहीं? फिर तो आदमीयत जैसी तो
कोई चीज ही नहीं रही?''
हां....सामने किसी के गिर
जाने पर।
त्रिभुवन
भी तो दौड़ते रहे थे...इधर से उधर...क्योंकि उनके आगे-पीछे...बायें-दायें
लोग बेतहाशा भागते चले जा रहे थे....। उनके ही बीच से एक आदमी दौड़ता हुआ
आएगा और ठीक त्रिभुवन के सामने औंधा पड़ जाएगा....भला त्रिभुवन को कहीं पता
था। वे खुद भागते रहे थे...जी-जान से...
फिर
उन्होंने अपने आपको रोका था...बलपूर्वक। वह उठ खड़े हुए थे....अपने तकिये
का सहारा लेकर। और फिर खीजते हुए बोल पड़े थे, ''आदमीयत...! इन्सानियत...!!
मानवता...!!! तुम्हें इनके हिज्जों के बारे में मालूम भी है। चलो...फूटो
यहाँ से...ज्यादा बक-बक मत करो....।''
एम.
ए. पढ़ने वाले बेटे के सामने इतना अपमान। क्या इसके बाद और बावजूद...वह
टीसते अंगों को अपनी हथेलियों से सहलाती रहेगी? घरवाली चिढकर बोली, ''वाह!
क्या खूब! देख तो विशु...मैं ही हूँ जो कई सालों से यह झेल रही
हूँ...घर-वार के सारे काम-काज सँभाल रही हूँ और ये बाबू साहब रोब गाँठे जा
रहे हैं...लगता है सीधे लड़ाई के मैदान से आ रहे हैं।...जान तो यही पडता है
कि मैंने इन्हें बस से धकेल दिया था।...है न...? अरे ये खुद उठकर अपने से
हाथ-मुँह धो भी पाएँगे या नहीं? या कि गरम पानी की पतीली यहीं ले आऊँ?''
कमरे में पतीली मँगवाकर
वहीं हाथ-मुँह धोनेवाली बात त्रिभुवन के लिए कोई नयी बात नहीं। कभी-कभी
विवश होकर ऐसा करना पड़ता है।
लेकिन
त्रिभुवन ने अचानक झिड़क दिया, ''नहीं...इस नवाबी ठाट-बाट की कोई जरूरत
नहीं। मैं आ रहा हूँ।'' और कन्धे पर तौलिया रखकर वह बाथरूम की तरफ बढ़ गये।
रूबी ने कहा, ''पिताजी तो
बड़े आराम से चल रहे हैं...कोई खास चोट नहीं लगी है।''
विश्वभुवन
ने भी, जो सारा कुछ देख रहा था, मुस्कराकर बोला, ''चूँकि किसी वजह से आने
में देर हो गयी थी इसलिए पिताजी ने एक कहानी गढ़ ली।''
विशु की माँ ने भी कहा,
''जो भी हो...एक आदमी की चिन्ता तो मिटी...। अब दूसरा कब घर आएगा...यह तो
वही जानता है या फिर भगवान।''
यह
दूसरा विशु की माँ का सबसे छोटा बेटा जयभुवन था। इस बार कॉलेज के पहले साल
में पढ़ रहा था। परीक्षा सर पर थी। इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता कि वह
नियमित रूप से कॉलेज जाता भी है या बिलकुल नहीं जाता। वह एकदम लापरवाह है।
सबसे अलग-थलग और बेखबर।
विशु
ने तभी दीवार पर टँगी पुश्तैनी घड़ी की ओर देखा और...और समय के पन्द्रह
मिनट आगे किये जाने का हिसाब लगाकर बोला, ''जय क्या अभी लौटेगा? यह समझ लो
कि उसके आने में अभी एक घण्टा और...।''
''कोख
से कैसा रतन पैदा हुआ है,'' त्रिभुवन की पत्नी ने मन-ही-मन कहा, ''दूध के
दाँत भी नहीं टूटे कि सर पर शैतान सवार। बकझक की बात तो दूर रहे कोई
अच्छी-सी सलाह तक देने की नौबत नहीं आती।...अब देर-सबेर जब भी आएगा तो
उसके नाम से दुनिया भर की गाली-गलौज का एक दौर चलेगा। इधर एक तरफ पेट में
आग लगी रहती है और दूसरी तरफ बेटा जब तक घर न लौट आए तब तक खाने पर बैठने
को जी नहीं करता।...और सारा गुस्सा निकाला जाता है मुझ पर। मेरी तो जान पर
बन आयी है...। तू भी तो मेरा बेटा है...एक ही जैसा साथ
पला-बढ़ा...लेकिन...''
''सभी एक जैसे नहीं होते
माँ...मैं ठहरा डरपोक...मेरी बात जाने दो...''और यह कहकर विश्वभुवन ने
किताब में अपना मुँह छिपा लिया।
कमला
ने रूबी को बुलाकर खाना लगाने को कहा। रूबी ने दो नक्काशीदार आसनी बिछाकर
दो गिलास रखे। फिर उनमें पानी उँडेलकर पूछने लगी, ''छोटे भैया का भी खाना
परोसकर रख दूँ।''
''अभी
रहने दे, ''कहकर कमला ने खिड़की से बाहर सड़क की तरफ देख लिया, इससे भी कोई
राहत नहीं मिली। कमला को गाली-गलौज का वह दौर झेलना ही पड़ेगा। और इस दूकान
पर पहुँचकर ही सारी दलीलों का खात्मा होता।
इस
बीच त्रिभुवन बाबू बाथरूम से लौट उमये थे और कमर में भीगा तौलिया लपेटे
हुए थे। उन्होंने कहा, ''रूबी, मेरी कोई फटी-पुरानी धोती हो तो ला दे। उसे
पहनकर सो रहूँ। धूल-माटी से लिथड़े कपड़ों को मैंने उतार फेंका है।''
रूबी ने इधर-उधर ढूँढ़कर
देखा और वापस आकर कहा, ''धोती मिल नहीं रही है.. लुंगी लाकर दूँ।"
इस
बीच कमला भी रसोईघर से थाल में रोटी और तरकारी परोसकर ले आयी थी और आसनी
के सामने रखकर उसने कहा, ''इस लड़की की आँखें तो आसमान पर टँगी रहती हैं।
उसे कुछ सूझे भी तो कैसे? मैं हाथ धोकर देती हूँ।''
''...अरे रहने भी दो...हो
गया'' त्रिभुवन ने उखड़े स्वर में कहा और फिर पूछा, ''मेरा खाना लगा भी
दिया?''
''मैं तो सोने जा रही
थी।''
''सोने जा रही हो?''
कमला
ने त्यौरी चढ़ाकर पति की ओर देखा। अभी सोने जाना तो बड़ी अजीब-सी बात लग रही
है। बात क्या हुई? वह बुरी तरह चिढ़ गये और बोले, ''यह आखिर बात क्या है?
तुम्हें हुआ क्या है?''
किसी डर से अचानक
त्रिभुवन सहम गये थे। उनके हाथ-पाँव ठण्डे हो गये।
कमला
की आँखों में यह कैसी आग सुलग रही है! त्रिभुवन के सीने की धड़कन रेल के
इंजन की तरह धड़कने लगी थी-और वह उसी स्थान पर जाकर गिर पड़ना क्यों चाहने
लगा था। त्रिभुवन उन आँखों के सामने से खुद को हटा लेंगे। वे तेजी से आगे
बढ़े और आसनी पर बैठ गये। फिर होठ चबाते हुए बोले, ''मजाल है किसी की जो यह
कह सके कि मुझे आज भूख नहीं है...अच्छी मुसीबत है।'' और ऐसा जान पड़ा कि वे
गुस्से में रोटी के बड़े-बडे टुकड़े तोड़कर मुँह में डालने लगे।
इसका
मतलब यह हुआ कि गाली-गलौज का दौर आज के लिए मुलत्वी हो गया। एक तरह से
अच्छा ही हुआ। कमला को भी लगा कि खाली पेट के मुकाबले भरे हुए पेट की
फटकार की चुभन थोडी कम होती है।
उसने
खिड़की के बाहर अपनी गर्दन उचकाकर देखा। सारा रास्ता बीरान हो गया था। और
आजकल की रातें पहले जैसी कहीं रहीं कि रात के बारह बजे भी बत्तियाँ जलती
रहें। अब तो रात के नौ बजने के पहले ही रात के चेहरे पर बारह का आकड़ा लिखा
जान पड़ता है।
अब भी यह लड़का पता नहीं
कहाँ है...किधर है।
उसने अपने आपको सँभालते
हुए जोर से पुकारा, ''विशु बेटे....आ जा...रे खाना खा ले आकर।''
विशु आ गया।
उसने
देखा कि पिताजी खाने को बैठ गये हैं तो वह तनिक आश्वस्त हुआ। अगर पिताजी
खाना न खाकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे होते तो विशु को मन मसोसकर खाने के लिए
बैठना पड़ता।
''थोड़ी देर के बाद
खाऊँगा,'' उसने कहा।
''क्यों,'' त्रिभुवन बाबू
ने गर्दन उठाकर घड़ी की तरफ देखा और पूछा, ''क्या बात है? बाद में क्यों
खाओगे? रात कितनी हो गयी?''
''घड़ी भी तो पन्द्रह मिनट
आगे है,'' विशु ने उखड़े स्वर में आगे कहा, ''मैं थोड़ी देर और पढ़ लेता हूँ,
जय भी आ जाए तब तक....।''
''क्या कहा?'' अचानक
त्रिभुवन बाबू बम की तरह फट पड़े, ''कोई जरूरत नहीं है किसी के लिए इन्तजार
करने की। सबके सब खाना खा लो।''
यानी कि कमला भी।
त्रिभुवन
की बोली कमला को हद से ज्यादा कड्वी लगती है। उसका तेवर बड़ा उखड़ा-उखड़ा
रहता है। गुस्सा आया भी नहीं कि हमेशा की तरह एकबारगी सातवें आसमान पर चढ़
जाता है।
त्रिभुवन
बाबू का खाना लगभग समाप्त होने को है और कमला को थोड़ा इतमीनान भी हो चला
है....। उसे मालूम है कि जब तक यह आदमी खाना न खा ले, इस बात का हमेशा
खटका लगा रहता है कि पता नहीं कब बोल दे, ''धत् तेरे की....नहीं खाना।''
जय को लेकर भी कमला कुछ
कम परेशान नहीं रहती थी।
''वैसे
जब रात हो जाएगी तो खा लूँगी,'' कहकर कमला त्रिभुवन बाबू के खाने के अन्त
में नियमानुसार दो रोटियाँ और थोड़ा-सा गुड़ लाकर रख देती है।
लेकिन त्रिभुवन इस नियम
का पालन करने की बात अचानक भूल जाते हैं।
''तुम्हें किसने कहा देने
को...'' कहते हुए वह यकायक चीख पड़ते हैं।
विशु को, जो पढ़ने के लिए
जा रहा था, पिताजी की बेतुकी चीख पर खड़ा हो
जाना
पड़ा। उसने अबकी बार ऊँचे स्वर में कहा, ''जय तो कभी-कभी इससे भी देर करके
आता है....आधी रात के बाद। आज ही इतनी जोर से चीखने-चिल्लाने वाली ऐसी
क्या बात है!''
''मैं
चिल्ला रहा हूँ!'' ऐसा जान पडा कि बेटे की डाँट खाकर त्रिभुवन बाबू
एकबारगी बुझ गये। उन्होंने दबी जुबान में कहा, ''मैं चिल्ला कब रहा था?
ठीक है...खा रहा हूँ।'' और डसके साथ ही थाल को अपनी तरफ खींच लिया और बड़े
ही बेतरतीब ढंग से रोटी के वड़े-बड़े टुकड़े मुँह में डालने लगे।
यह
आदमी तो बस नाम का ही त्रिभुवन था। यह आदमी जो कभी बड़ी शौकीन तबीयत का था,
अपने नाम के साथ मेल बनाये रखने के लिए ही उसने अपने बेटे का नाम रखा
था-विश्वभुवन और जयभुवन।
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)