अधूरी समाप्ति (कहानी) : प्रगति गुप्ता

Adhuri Samapti (Hindi Story) : Pragati Gupta

साक्षी पिछले तीन दिनों से क्षणिक का कोई फ़ोन या मैसेज न आने से बहुत परेशान थी। वह अपने मोबाईल को बार-बार उठाकर ऑन बटन को दबाकर खोलती और स्क्रीन पर अपनी खोजती आँखों से रोशनी के बंद होने तक ऐसे ताक़ती कि बस क्षणिक का चेहरा एक बार वीडियो कॉल पर दिखाई दे जाये।

वह न जाने कितनी बार उसे फोन लगा चुकी थी मगर क्षणिक के मोबाईल की घंटी लगातार बजकर बंद हो रही थी। ऐसे में उसकी सलामती की खबर मिलना साक्षी के लिये संजीवनी जैसा होता।

मोबाइल का डिस्प्ले ऑफ वन मिनट सेट होने से रोशनी तो उस अंतराल में बंद हो जाती मगर साक्षी का दिमाग सिर्फ और सिर्फ क्षणिक को बार-बार खोजना चाहता। गुज़रे हुए दिनों में उसने भर पेट लंच या डिनर खाया हो, उसे याद नही आता।

कोरोना की दूसरी लहर में सब जगह बुरा हाल था। बड़े शहरों में किसी अपने बीमार रिश्तेदार को खोजना आसान काम नही था। विभिन्न समाचारपत्र गवाह थे कि कब कोई बीमारी से ग्रस्त होकर एक अस्पताल में दाख़िल होता; और कब उसके गुज़र जाने की खबर किसी दूसरे अस्पताल से आती...

"अपने मरीज़ की देह को कोरोना गाइड लाइन की पालना करते हुए लेकर जाए।"

अधिकांशतः तो देह जिस तरह पैक होकर मिलती उसका दाह संस्कार कर दिया जाता। किन्हीं कारणों से कभी मृतक का चेहरा खुल जाता तो कुछ मामलों में किसी और व्यक्ति की भी देह निकली। टी.वी. और समाचार पत्रों में आने वाली ऐसी खबरों ने साक्षी को भयभीत कर रखा था।

साक्षी और क्षणिक की दोस्ती कोरोना की पहली लहर के दौरान ही हुई थी। साक्षी के एफ.बी. फ़्रेंड्स लिस्ट में क्षणिक किसी दोस्त का दोस्त था। कोरोनाकाल में वह लोगों का मसीहा बना हुआ था। एक दिन साक्षी ने जैसे ही क्षणिक की डाली हुई पोस्ट पर कमेन्ट किया; उसकी फ्रेंड रिक्वेस्ट आ गई। साक्षी को उस समय की भयावहता में क्षणिक की बातें ठंडी बयार-सी महसूस हुई थी। छः महीने में ही दोनों की बातचीत में प्रेम के अंकुर फूटकर पनपने लगे।

दोनों ही अच्छी कंपनी में काम कर रहे थे हालाँकि अलग-अलग शहरों में काम करने से उनका मिलना नहीं हुआ था मगर बातचीत में आत्मीयता बढ़ जाने से फोन पर ही बात करने का सिलसिला दिनोदिन बढ़ता जा रहा था। दिन में एक बार उनकी वीडियो कॉल पर बात होना तय था।

साक्षी को क्षणिक के परिवार के बारे में बहुत ज़्यादा पता नहीं था मगर बातों से उसका किसी संपन्न परिवार से होने का पता चल गया था।

एक दिन साक्षी को अकस्मात क्षणिक के कोरोना पॉजिटिव आने से अस्पताल में दाखिल होने का पता चला। कोरोना के मरीजों की मदद करते-करते कब वह भी उसके चपेटे में आ गया; उसे खुद देरी से पता चला।

शुरुआत में उसके शरीर में बुखार जैसे कोई लक्षण न आने से वह सोच ही नहीं पाया कि उसे भी बीमारी ने घेर लिया है। जब काम करते हुए उसका दम फूलने लगा; उसने डॉक्टर के कहने पर सी.टी. चेस्ट करवाया। रिपोर्ट आने पर जब फेफड़ों में कई पैच होने का पता चला; उसे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा।

साक्षी हर रोज ही उससे बातें कर रही थी; मगर तीसरे-चौथे दिन के बाद उसके मैसेज आने कम हो गये। क्षणिक की तबियत जब ज़्यादा बिगड़ी उसने ही दूसरे अस्पताल में शिफ्ट किए जाने की सूचना दी मगर किस अस्पताल में... यह क्षणिक ने नही बताया क्योंकि शिफ्टिंग के वक़्त वह होश में नहीं था। उसके होश में आने के बाद बहुत कम बात होने से साक्षी को नाममात्र की ही जानकारी मिली।

ऐसे में साक्षी के लिए उसे शहर के विभिन्न अस्पताल में खोजना आसान नहीं था। नर्सिंग स्टाफ व डॉक्टर्स मरीज़ों की जान बचाने के लिये अठारह से बीस घंटे काम कर रहे थे। मरीजों के रिश्तेदारों को पूरी सूचना या जानकारी देने में वे असमर्थ थे।

जैसे-जैसे दिन गुजर रहे थे, साक्षी की चिंताएँ लगातार बढ़ रही थीं| छह-सात दिन बाद एक दिन अचानक जैसे ही साक्षी के पास क्षणिक का मेसज आया ;उसका तनाव मुस्कुराहट में बदल गया..

"कैसी हो साक्षी? जानता हूँ मेरी तबीयत को लेकर परेशान होगी। लगातार ऑक्सीजन कॉन्सेंटरेटेर पर होने से बहुत कमजोरी थी; फोन की ओर देखने का मन ही नहीं हुआ। आज जब फ़ोन खोला तो तुम्हारे ढेर सारे नए व पुराने मेसज बार-बार पढ़े ।"

"क्षणिक! बहुत परेशान हो गई थी मैं। न कोई फ़ोन; न कोई रिप्लाई? तुम अभी कहाँ हो? क्या मैं तुमसे मिलने आ सकती हूँ? तुमने अपनी मम्मा को फ़ोन कर दिया? वह भी परेशान होंगी।"

क्षणिक ने साक्षी के मेसेज का काफ़ी देर तक कोई जवाब नहीं दिया। साक्षी की निगाहें एकटक मोबाईल की स्क्रीन पर टिकी हुई थी। क्षणिक की खामोशी साक्षी की चिंता बढ़ाने लगी थी। मोबाईल स्क्रीन पर टाइपिंग जैसा शब्द भी नहीं दिख रहा था।... जब क्षणिक का कोई भी मेसेज काफ़ी देर तक ब्लिंक नहीं हुआ तो साक्षी ने वापस मेसेज भेजा...

“क्या हुआ है क्षणिक? तुम ठीक तो हो?”

तभी अचानक क्षणिक का मेसेज आया... "मैं उन्हें अपनी बीमारी की भयावहता बताने का सोच ही नही पाया। अगर फ़ोन करता तो पापा मेरे पास ही पहुँच जाते। फिर उन्हें इस इन्फेक्शन से कैसे बचाता?"

"ओह! पर तुम्हें इन्फॉर्म तो करना चाहिए था!"

“मैंने उन्हें भी अभी फैमिली ग्रुप पर मैसेज किया है।”

“तुमने उन्हें भी फ़ोन नहीं किया? मैसेज ही किया? क्यों? तुम्हारी बीमारी का सुनकर वह क्या बोली?”

“फ़ोन करने की हिम्मत नही हुई। सच बताना इतना आसान नही होता।"

क्षणिक ने अपना मेसज लिखकर बहुत सारे डॉट लगाकर छोड़ दिये थे। साक्षी को अचानक ध्यान आया कि क्षणिक अपने पिता की बात कर रहा है मगर साक्षी उसकी माँ के बारे में पूछ रही है।

साक्षी को एकाएक समाचारपत्र में छपे विशेषज्ञों द्वारा किए गए कोरोना से जुड़े शोध ने सचेत किया, जिसमें उसने ब्रेन फॉग के बारे में पढ़ा था। शोधानुसार कोरोना काफ़ी मरीजों के दिमाग पर भी असर डाल रहा है; पाया गया था कि इस बीमारी में मरीजों को बातें और चीजें भूलने की समस्या होती है।

ज्यों ही साक्षी को लगा क्षणिक अभी पूरी तरह ठीक नहीं है; वह अपनी बातचीत में सावधानी बरतने लगी। क्षणिक के साथ कुछ गड़बड़ है इस बात का ख्याल आते ही साक्षी एकाएक चिंतित होकर पूछ बैठी...

"मुझसे कब बात करोगे?”

जब क्षणिक की ओर से कोई मेसेज नहीं आया, साक्षी ने एक और मेसेज लिखकर भेज दिया...

“क्षणिक! हम हर रोज़ एक बार तो वीडियो कॉल पर बात करते ही थे। इतने दिन बाद भी तुमने वीडियो कॉल नही किया? तुम्हें देखे हुए अरसा हो गया है। गुज़रे हुए दिनों में तुम्हारे बारे में सोच-सोच कर बहुत परेशान हुई हूँ। सच-सच बताना तुम्हारी तबियत अब ठीक तो है?"

जब क्षणिक ने इस मेसेज का कोई जवाब नहीं दिया; साक्षी एकाएक ही खौफ़ की गिरफ़्त में आ गई। अकस्मात उसे लगा कहीं क्षणिक को ब्रेन फॉग तो नहीं हो गया। अगर बीमारी की वजह से क्षणिक को उसकी बातें और शक्ल याद नहीं रहे तो वह उसके बिना कैसे रहेगी? जब काफी देर तक दूसरी ओर खामोशी छाई रही; क्षणिक के ऑनलाइन दिखने पर भी कोई मेसज नही आया; साक्षी की घबराहट और ज्यादा बढ़ने लगी।

जैसे ही उसने वीडियो कॉल लगाया,फ़ोन बस डायलिंग दिखाने लगा; रिंगिंग जैसा कुछ भी लिखा हुआ नहीं आया। शायद उसकी तरफ़ के सिग्नल जा चुके थे। उसके बाद सामान्य फोन लगाने पर भी फोन नहीं लगा; बस आउट ऑफ रीच आता रहा।

साक्षी ने फोन लगाने की बजाय क्षणिक को व्हाट्सप्प मेसज ही लिखकर डाल दिया..

प्लीज! जब भी थोड़ा-सा ठीक महसूस करो; कॉल करके बात करना। मुझे तुम्हारी आवाज़ सुननी है; मेरा जी बहुत घबरा रहा है।'

साक्षी के पास क्षणिक का अगले दो दिन तक न कोई जवाब आया; न ही उसने कोई फोन किया। साक्षी ने जानबूझ कर व्हाट्सएप्प पर अपनी पीड़ा लिख कर भेजी थी ताकि उसे क्षणिक के मेसज पढ़ने के सूचना तो टिक़्स के ब्लू हो जाने से मिल जाये। तीन दिन गुजरने के बाद एक दिन अचानक किसी दूसरे नंबर से मेसेज आया...

“मेरा सिम खराब हो गया है। मुझे नया नंबर लेना पड़ा। अब इसी नंबर से बात करूँगा।”

क्षणिक की इस बात ने साक्षी को फिर से संशय में डाल दिया तो वह पूछ बैठी...

“सिम करेप्ट होने पर उसी नंबर का नया सिम मिल जाता है। फिर नंबर बदलने की क्या जरूरत थी?”

‘अस्पताल में नया सिम मंगवाना आसान था।’ अपनी बात इस तरह लिखकर क्षणिक ने फिर से अपनी बात पर फुल स्टॉप लगा दिया। साक्षी को क्षणिक का कोई भी जवाब संतुष्टि नहीं दे रहा था।

साक्षी उसकी बीमारी की वजह से परेशान थी। उसकी क्षणिक से अगर लंबी बात होती; तभी वह कुछ अधिक पूछ पाती। क्षणिक तो चंद बातें लिखकर बार-बार शांत हो जाता था। जितनी बार भी उसने बीच में फोन करने की कोशिश की, वह या तो फोन काट देता या कट जाता।

अगले दिन साक्षी ने जैसे ही मोबाईल खोला उसे क्षणिक के काफी मेसेज दिखाई दिये। एक बार को तो उसके चेहरे पर मुस्कान फैल गई मगर जैसे ही उसने मेसेज पढ़ने शुरू किये, उसके रोंगटे खड़े होते गये...

क्षणिक आज से कुछ दिनों पहले ही मर चुका है। मैं कौन हूँ? इससे तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मरने से पहले बस तुमसे पश्चाताप करना चाहता हूँ।... क्योंकि अनजान लोगों के सामने प्रायश्चित करना आसान होता है।

जब मौत को अपने पास खड़ा हुआ देख रहा हूँ; होश में आया हूँ।... आज से कुछ दिन पहले तुम्हारा दोस्त खराब हालात में यहाँ आया था। मैं उस वक़्त काफ़ी सही हालात में था। मुझे अपने ठीक होने की पूरी उम्मीद थी क्योंकि डॉक्टर्स की बातचीत से मेरी तबीयत में सुधार होने का पता चला।

मैंने एक बार उसे तुमसे बात करते हुए सुना। उसका महंगा फोन देखकर मेरे मन में लालच जाग गया और मैं उसके मरने का इंतज़ार करने लगा। मेरे पास कभी भी इतना रुपया नहीं रहा कि लाख रुपए का फोन खरीद सकूँ।

मुझे बस मौके की तलाश थी; कब वह अंतिम साँस ले और मैं... भगवान से मैं लगातार यही माँग रहा था बस मुझे बगल के बिस्तर वाले का फोन मिल जाए। मैंने बेईमानी और बदमाशी करके ही अपना जीवन गुज़ारा है। मैं पढ़ा-लिखा बेरोज़गार वो युवा हूँ जिसने लोगों को धोखा देकर ही रुपया कमाया है।

मैंने तो अपने माँ-बाप को ही नहीं छोड़ा। उनके झूठे साइन बनाकर अपने भाई-बहन को धोखा दिया। जो इंसान अपने रक्त-संबंधियों का सगा नहीं रहा वह अनजान व्यक्ति को तो दगा दे ही सकता है न।

माँ-बाप ने मुझसे रिश्ता बहुत समय पहले तोड़ लिया था। जब पुलिस किसी न किसी अपराधिक गतिविधि से जुड़ा होने के कारण मुझे जेल लेकर जाने लगी थी; वे कभी छुड़ाने नहीं आए। पुलिसवाले खुद ही हार कर मुझे छोड़ देते थे। छोटे-मोटे अपराध करने वालों को पुलिस भी कब तक जेल में रखती? पुलिस वालों के लिए अपराधियों के खाने-पीने का इंतज़ाम करना आसान नहीं होता। हम जैसे लोग तो खाते भी बहुत हैं। जेलों में लगातार बढ़ते हुए अपराधियों की जरूरतों को पूरा कर पाना सरकार के बस की बात नहीं।

जैसे-जैसे बगल के बिस्तर पर लेटा हुआ तुम्हारा मित्र धीमे-धीमे शांत होता गया... मुझे उसका फ़ोन हथियाने में समय नहीं लगा। एक रोज़ उसके बेसुध होते ही मैंने उसके थम इम्प्रेशन से मोबाईल चुपके से खोल कर पासवर्ड बदला और व्हाट्सप्प के सारे मैसेज पढ़े। चुपके-चुपके दूसरों के मोबाईल के मैसेज पढ़ना; मेरा पुराना शौक रहा है। कॉलेज में भी दोस्तों के मैसेज पढ़कर उनको ब्लैकमेल करना , मुझे खुशियाँ देता था।

तुम्हारे दोस्त का नाम मुझे उसके स्क्रीन से ही पता चला। उसके नाम की पुष्टि तुम्हारे लिखे व्हाट्सप्प संदेशों से हुई। पिछले दिनों तुम्हारे पास जो भी संदेश लिखकर आए; उन्हें लिखने वाला मैं था।.. तुम दोनों की चैट ने मुझे बहुत लुभाया; तभी मैं तुमसे बात करने का मोह नहीं छोड़ पाया।

जैसे ही साक्षी को क्षणिक के जाने की खबर मिली वह फूट-फूट कर रो उठी। मेसेज करने वाले की सच्चाई खुलने से उसे घबराहट ने दबोच लिया। उसके हाथ अब आगे के मेसेज पढ़ते हुए बुरी तरह काँपने लगे थे...

सबसे पहले यहाँ के नर्सिंग स्टाफ़ को कुछ रुपए देकर नया सिम मँगवाया ताकि मैं तुम्हें भी धोखा दे सकूँ मगर... सिम मिलने के अगले ही दिन मेरी तबीयत भी तुम्हारे दोस्त की ही तरह ज़्यादा खराब होने लगी और...

अब मौत को अपने बहुत करीब देख रहा हूँ। चूँकि कुछ दिनों से सिर्फ़ तुमसे ही बात हुई है तो सोचा अपने अपराधों का पछतावा तुमसे ही कर लूँ। आज मेरा ऑक्सीजन लेवल काफी कम हो गया है...लिखने में बहुत दिक्कत आ रही है।

इस अस्पताल में मरीजों की संख्या दिनोदिन बढ़ रही है। मुझे नहीं लगता कोई मुझे वेंटीलेटर पर लेगा। मेरा मरना तय है... किस दिन मरूँगा पता नहीं है मगर यहाँ भर्ती कोरोना के मरीज़ मेरे जैसे दुष्ट इंसान को भी दहशत में डाल रहे है। एक-एक दिन में कई-कई मरीजों की देह उठाई जा रही है। पता नहीं इन लोगों को कोई लेने भी आ रहा है या नहीं... यहाँ सब मरेंगे एक-एक कर... किसी रोज़ मैं भी।

फोन चोरी करते वक़्त मुझे पूरी उम्मीद थी कि मैं यहाँ से ठीक होकर लौटूँगा। मैं भी मौत को हराने चला था मगर...

तुम न सिर्फ़ अच्छी लड़की हो बल्कि होशियार भी हो। आज नहीं तो कल मेरी चोरी पकड़ ही लेती। तुम्हारे सवालों के जवाब और कितने दिन दे पाता? क्षणिक भी अच्छा लड़का था। उसके मोबाईल में मेरे मोबाईल के जैसे किसी भी तरह का कचरा नहीं भरा था। मैंने उसके दूसरे मेसेज भी पढ़े थे।

सिम चेंज करने से पहले उसके फैमिली नाम से सेव किए हुए ग्रुप पर उसके मरने की सूचना डाल दी थी, ताकि वो लोग इंतजार नहीं करें मगर मरने से पहले तुम्हें मैसेज कर अपने पापों का बोझ हल्का करने का मन हुआ ,वही मैंने किया।

इन संदेशों को पढ़ने के बाद साक्षी समझ गई थी क्यों यह अनजान व्यक्ति पिता के अस्पताल आने की बात कर रहा था। क्षणिक के पिता की मृत्यु कुछ समय पूर्व ही होने से उनका नंबर फैमिली ग्रुप से हटाया नहीं गया था | और यह शख्स फैमिली ग्रुप के मैसेज पढ़ने के बाद क्षणिक के पिता के न होने का अंदाज नहीं लगा पाया।

क्षणिक के जाने की खबर ने साक्षी को बहुत विचलित कर दिया था मगर वह इस व्यक्ति के मैसेज अंत तक पढ़ने के लिए मजबूर थी। यह व्यक्ति ही क्षणिक के अंतिम दिनों का साक्षी था। हर मैसेज को दस या पंद्रह मिनट के अंतराल से लिखा गया था। मानसिक रूप से टूटी हुई साक्षी सुबकते हुए आगे लिखे हुए मैसेज पढ़ने लगी...

मैं इस बीमारी से कभी नहीं मर सकता, मेरा विश्वास था।... मेरे इसी भरोसे ने लड़के का मोबाईल चोरी करने के लिए उकसाया मगर मौत ने समय रहते सच का सामना करवा दिया।

मेरा यही मैसेज आखिरी है। इसके बाद इस नंबर से तुम्हारे पास कोई मैसेज नहीं आएगा। जब मैं रहूँगा ही नहीं तो मैसेज कैसे आएगा। विदा...

अंतिम मैसेज तक पहुँचते-पहुँचते साक्षी की आँखें बुरी तरह बरस पड़ीं। अनजान व्यक्ति के लिखे हुए विदा शब्द के साथ साक्षी को अब क्षणिक को भी विदा करना था।

क्षणिक का जाना उसे तोड़ गया था मगर इस विषमकाल में कोई ऐसा अपराध भी कर सकता है; उसे अचंभित कर रहा था। उस दिन के बाद उस नंबर पर कभी भी कोई ऑनलाइन नहीं दिखा।... क्षणिक का जाना उसके जीवन से प्रेम का पूरी तरह आने से पहले ही जाना था।

साक्षी उस व्यक्ति की अपराधिक प्रवृत्तियों और कृत्यों की गवाह थी; जिन्हें पढ़ना सिर्फ़ उसके हिस्से में लिखा था। जाते-जाते क्षणिक और वह अनजान बहुत कुछ सोचने के लिए छोड़ गए थे।

साक्षी के मन में प्रेम के बीज अंकुरित होकर पुलकना शुरू ही हुए थे कि वक़्त ने अचानक पलट कर कितना कुछ अधूरा ही समाप्त कर दिया था... या जितना मिलना था... मिला। अब उसे अपने खालीपन के भरने की प्रतीक्षा करनी थी।

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