अधूरे सपने (उपन्यास) : आशापूर्ण देवी

Adhure Sapne (Bangla Novel in Hindi) : Ashapurna Devi

1

हां, मैं अतनू बोस अपने बारे में सब कुछ बताने वाला हूं जिसे कानून की नजर में 'जबानवन्दी' या किताबी भाषा में 'इकरारनामा' के नाम से बड़े-बड़े अलफाजों में लिख कर लोगों को आकृष्ट किया जाता है। वास्तव में वह आदमी से अपनी बात उगलवा कर फिर उसे प्रमाणिक रूप से रखने के अलावा और कुछ भी तो नहीं है।

मैं कहता जाता हूं आप रिकॉर्ड कर लें। आज कल तो टेप की सविधा है; हां, टेप आप लोगों के पास काफी सारा है तो? बीच में अगर विघ्न घटे तो छन्दपतन हो जायेगा। मेरी विषय सामग्री लम्बे टेप की मोहताज है। हालांकि अधिकारीगण चाहते थे मैं अपनी स्वीकारोक्ति लिख कर दूं पर उस रात की झपटा-झपटी में मेरा दायां हाथ बेकार हो गया, उसमें कलम पकड़ने तक की ताकत नहीं है।

हां, टेप रिकॉर्डर पर टेप कर लें जिससे मेरा जुर्म हमेशा के लिए प्रमाणिक तौर पर उसमें बन्दी बना रहेगा।

आधुनिक विज्ञान ने हमें क्या नहीं दिया? हमारे बाप-दादा की कल्पना से बाहर सुख-सुविधा, जो हमारे हुक्म की बांदी हैं-हम उन यांत्रिक लीलाओं में इतने मग्न हैं कि यह सोचना हमारे बस से बाहर है कि वे अगर ना हों तो हमारा जीवन निर्वाह क्यों कर हो? उधर हमारे पुरखे यह सब सुनकर सब कुछ अलौकिक मान कर शायद सब बातें हँसी में टाल देते। हम तो इन सब उपकरणों के बिना जीना भी भूल गये हैं। हम कल्पना भी नहीं कर पाते कि किसी जमाने में इन सब वैज्ञानिक उपकरणों के बिना ही वे जिन्दा रहते थे।

इसलिए हम आज विस्मित होना भी भूल गये। तभी तो मैं विस्मित नहीं हूं कि-मैं बोलता जा रहा हूं और सामने रखा यंत्र मेरी बातें इस प्रकार रट चुका है कि, जब भी मैं हुक्म करूं तभी यह मेरी सारी बातें तेज रफ्तार से बकता चला जायेगा, उसमें विश्राम, विरति कुछ भी छोड़े बिना। और मैं जरा रोमांचित नहीं हो रहा।

उधर जब स्वयं को अपने पुरखों वाले सारल्य, सादगी और विश्वास की भावना से परे पाते हैं तब हमें महान आश्चर्य का अहसास होता है। हम विस्मित

रह जाते हैं। जाने दें-मेरी जबानवन्दी सुनकर यही प्रमाणित करना है कि मैं अपराधियों की श्रेणी का पहला नम्बर का अपराधी हूं। मेरा विचार होगा। मेरे भाग्य निर्णय का फैसला-कल सुनाया जायेगा। मैं उस अपराध का भागी हूं जिसके असफल प्रयास से सजा का विधान है-चाहे वह प्रयास असफल ही क्यों ना हो।

मेरी यही आशा है कि अनुत्तीर्ण परीक्षा फल के लिए महामान्य धर्माधिकारी गणों के इजलास में 'मेरा जो भी फैसला होगा वह न्याय से पूर्ण ही होगा।'

आप लोग जो हमेशा से अतनू बोस को हमेशा बड़ा आदमी समझ कर उससे एक फासला बनाये रखे थे और मन-ही-मन जलन भी होती होगी-वे अगर चाहे तो इस अदालत रूपी नाट्य स्थल में आकर इस उच्च श्रेणी के जीव की अभिनय प्रतिभा का निर्देशन इस उच्चश्रेणी के नाटक में पा जायेंगे। उससे शायद उनका मन कुछ शान्त हो।

यह भी है कि इस नाटक में अभिनय ना करूं ऐसा सुझाव भी दोस्तों से मिला पर मैं नहीं माना। दोस्तों का कहना था मैं क्यों नहीं पर्दे के पीछे जाकर नाटककार और अन्य कलाकारों का मुंह बन्द कर देता। जबकि बन्द करने की कुंजी मेरे पास मौजूद थी।

पर इच्छा नहीं हुई। पर इच्छा पुरानी भी तो हो गई है-अब सिर्फ मन में एक ही इच्छा बची है जो है-यह देखने की कि एक साधारण से आत्महत्या के प्रयास के कारण अतनू बोस को कैसी सजा निर्दिष्ट की जाती है?

यह समाचार सुनने के बाद आप लोगों को आश्चर्य का अनुभव तो हुआ ही होगा। शायद यही सोचकर चौंके होंगे कि नामी अमीर और कठोर दिलवाला अतनू बोस अचानक आत्महत्या क्यों करने चला था-जों कि अक्सर निर्बोध तथा भावप्रवण व्यक्तियों का जन्मसिद्ध अधिकार है।

हां, मैं मानता हूं मैंने यह बचपना किया और सस्ती मानसिकता का सहारा लिया। क्या करता-आखिरी बार की बीवी को सजा देने के लिए यही रास्ता चुना था-इधर आखिरी यानि पांचवीं बीवी को मैं थोड़ा...।

लेकिन वह तो बाद में-पहले प्रथम का ही वर्णन करता हूं। क्या हुआ? पांचवीं बीवी सुनकर आप मुंह छुपाकर हँस रहे हैं? आंखें गोल-गोल हो गई हैं-लेकिन क्यों? आधुनिक सभ्य संसार में सारे मसले ही तो निरीक्षण-परीक्षण के द्वारा तय किये जाते हैं तो जीवन में इसे क्यों नहीं लागू किया जा सकता?

जीवन क्या-आपके शिल्प, साहित्य, शिक्षा समाज से कम महत्वपूर्ण है? पता नहीं आप लोगों के लिए है या नहीं पर मेरे लिए तो यही सबसे महत्त्पूर्ण है।

जब मेरी पहली शादी हुई थी तो मैं बाईस साल का और कन्या पन्द्रह साल की थी। उसमें रोमान्स ना था बल्कि बड़ों द्वारा या बड़ों के बीच मात्यदान, शुभदृष्टि, पूर्वराग, अनुराग, अभिमान था जो दोनों पक्षों में आपस में तय किया गया था।

हमारी भूमिका थी माथे पर सेहरा-मुकुट लगाये बुद्ध की तरह बैठे रहना ओर सेज पर उनींदी आंखों और पसीने वाले हाथों से कौड़ियों से खेलना। वह खेल भी दूसरे ही खिलाते थे।

हमारा काम था बड़ों के गुड्डे, गुड़ियों के खेल के सहभागी का पार्ट अदा करना। ब्याह के बाद भी युगल की भूमिका गौण थी। यहां तक साहस कर युगल भूमिका का निर्वाह करना भी हमारे अधिकार क्षेत्र की परिधि में नहीं आता था।

मिलते तो डर के जैसे सम्बन्ध अवैध हो। हमारे मिलन में प्रेम के स्थान पर पराये स्त्री-पुरुष के मिलन जैसा भाव समाया रहता।

अभिभावक इस बात को मानने के लिए राजी ना थे कि हमारा वैद्य रिश्ता है, समाज द्वारा भी स्वीकृति है। पता नहीं किसी उल्लेखित अनुशासन द्वारा हम हमेशा भयभीत तथा डरे रहते थे। यह भी जबान पर निकालना सम्भव नहीं था कि इतने धूमधाम से ब्याह करने की जरूरत ही क्या थी?

हां, मिलने का अधिकार दिन में एक बार था। जैसे मापजोख वाला राशन या सीमा पार का परमिट कार्ड।

मिलन का समय होता जब पूरे घर का रात्रि भोज समाप्त होता-रावण परिवार का रात्रिभोज मध्य रात से पहले सम्पन्न होना सम्भव कैसे होता? पुराने दम्पत्तियों का किसी-किसी का दरवाजा बन्द होता, तब नवेली दुल्हन ददिया सास, फुफिया सास के कमरे में मसहरी टंगाकर उनके माथे पर पंखा झल कर और पैर के पास तौलिया आदि रख कर बिना किसी आवाज के चोरों की तरह शयनकक्ष में प्रवेश करती।

उतनी ही थी सीमा। व्याह के एक बरस बाद भी हालात में तबदीली नहीं आई। ददिया सास मेरी दादी शायद गमनोमुखी से एक और पान कुटवा कर स्वर में अपार दया भर के कहतीं-जा बहू मेरा नाती परेशान हो रहा होगा।

पतोहबहू को और भी अधिक शर्म का दिखावा कर वहां रहना पड़ता, क्योंकि यह तो उसके लिए लज्जा का विषय था (पति के पास जाना) फिर पुनः-पुन: अनुरोध के पश्चात् ही कमरे से बाहर पैर निकालती।

मेरी पहली वही थी-जिसका नाम निर्मला था। जो दादी के बड़प्पन पर निहाल थी। कहती-जो भी हो दादी के मन में प्यार और दया है।

मेरी हालत उस वक्त बन्द शेर की जैसी होती। तभी तो दांत पीसकर कहता।

दयामाया। मेरी तो उस बूढ़ी को फांसी देने की इच्छा होती है। निर्मला शिहरत होती। भगवान का नाम लेती, दुर्गा, देवी। मेरा मुंह दबाकर कहती छि:-छि: तुम्हारी जबान पर लगाम नहीं है। किसको क्या कह रहे हो?

मैं और भी चिढ़ जाता। और उसकी स्थिरता, धैर्य पर और मुझे खीज होती। 'षोड़शी' के बारे में कितना काव्य रचा गया है, गाना, संगीत, सभी बेकार है। यह जो मेरे सामने हाड़-मांस की षोड़शी है बिल्कुल हाथ की मुट्ठी में है। कहना चाहिए, कहां इसमें तो षोड़शी का आवेग, उन्मादना, वासना, आकुलता कुछ भी नहीं दिखाई नहीं पड़ता।

मेरी इच्छा होती उसे पटक कर पूछूं, ''इतना धैर्य तुम कहां से लाती हो? तुम्हारे अन्दर क्या रक्त, मांस कुछ भी नहीं है, सिर्फ भूसा, मिट्टी है। वह भी गंगा के किनारे वाली मिट्टी।

संयुक्त परिवार के लड़के को काफी झमेलों से पार होना पड़ता है। अपनी उत्तेजना पर पानी फेरना पड़ता है। अगर ऐसा ना करे तो घर में समालोचना का तूफान बहने लगे।

2

निर्मला कहती-तब मुझे क्यों कहते हो। तुम तो घर के बेटे हो जब तुम्हीं-कहती थी क्योंकि मैं उसे धिक्कारता, लांछित करता। कुछ वाक्यों से विद्ध करता। सोचता था अगर वह तंग आकर कोई अन्यथा बन्दोवस्त करे। कुछ भी ना। नियमपूर्वक वह भोरे में अंधेरा रहते ही उठ जाती, और मध्य रात्रि में चोरों की तरह आती।

इधर मैं अपने ताया जी के लड़के को भी देखता जिसकी शादी मेरे बाद हुई थी। पर काफी चालाक चतुर बन बैठा था। अक्सर ही देखता उसके कमरे का दरवाजा पहले बन्द हो जाता और सुबह धूप निकलने के बाद ही वह दरवाजा खुलता।

मैं भी क्रोधित होकर कहता, ''देख रही हो।'' निर्मला कहती, ''क्यों नहीं।''

कहना-देखकर सीखती क्यों नहीं।

उसका जबाव होता-हाय! मैं तो मर ही जाऊं।

निर्मला की बात करने का लहजा ही ऐसा था। शायद सर्वगुणसम्पन्न बहू का खिताब लेने के लिए उसने अपने वाक्यों को भी सयंमित कर डाला था।

परन्तु उस खिताब के प्रति मैं काफी नाराज था। उस नाम का मेरे पास कुछ भी मूल्य ना था। मुझे लगता एक दिन चिल्ला-चिल्ला कर सारी लज्जा त्याग कर कहूं घर के अभिभावकों को, अगर नवयुवती को सेवा पाने का इतना ही लोभ था तो वे स्वयं ही एक और शादी कर सकते थे।

लगता था, इच्छा होती थी घर में चिल्लाने की पर हिम्मत ना होती।

अगर विद्रोह करने की हिम्मत जुटा कर कमरे से बाहर निकलता तो ताया जी को देख कर जो खड़ाऊं की खट-खट की आवाज से अन्दर से बाहर या बाहर से अन्दर आ जा रहे हैं, और पिताजी और चाचा ही दालान की चौकी पर बैठे शतरंज की बाजी चल रहे हैं, मेरी हिम्मत जबाव दे जाती।

मेरे पिता, ताया, चाचा जमींदार नहीं थे। वे व्यवसायी, कारोबारी थे, जो धान, चावल का कारोबार करते थे। उनका मिजाज था जमींदारों की तरह। ग्राम के सब उनका सम्मान करते, डरते भी थे, क्योंकि उनका दबदबा था। इस घर में जब पूजा, पार्बन होता तो प्रजा गुलामों की तरह सलाम करने आ जाती। इस दीनता की वजह एक और थी-यह सब परोपकारी थे। प्रचुर पैसा था पर अहंकार या अमीरों जैसी शान-शौकत नहीं थी। सबसे ऊपर भाइयों के बीच एकता भी थी-जो गांव के लिए आदर्शवादिता का नमूना था।

पता नहीं भाइयों में एकता होने से लोग उसे क्यों इतना महत्व देते हैं, उसे सराहते हैं। मुझे तो इस एकता में व्यक्तित्वहीन अपरिणति की छाप दृष्टिगोचर होती है। एक व्यक्तित्व सम्पन्न पुरुष शिशु या बालक की भूमिका ग्रहण करे तो इससे हास्यकर क्या हो सकता है?

हां, ऐसा ही तो होता था।

छोटे भाई की पत्नी या बच्चे की बीमारी की खबर पहले लड़के के ताया जी के पास पहुंचेगी, वे डॉक्टर या वैद्य का बन्दोबस्त करेंगे-यही था परिवार का आईना, कानून, विधि।

बीवियों को अगर मायके जाना है तो पतियों की इसमें कोई भूमिका नहीं थी, वह तो गृहकर्ता का दायित्व था। सर्वविधि प्रयोजन के अवसर पर हमें तायाजी या दादा जी के पास शरणागत होना पड़ता था।

यह सब मुझे अत्यन्त, बचपना लगा करता। हमारे उस परिवार में 'कर्ता भजन' नामक वस्तु ही पवित्र पुण्यकर्म हुआ करता। इसके अतिरिक्त कुछ और भी अन्यथा हो सकती है यह कल्पनातीत था।

मैं सिर्फ अजीबोगरीब कल्पना करता था।

मुझे यह लगता ताया जी निर्लज्ज स्वार्थी की तरह परिवार के नैवेद्य का हरण कर रहे हैं और उनके इस 'आदर्श' परिवार रूपी बेदी पर सबकी बली चढ़ रही है, सब अपने आनन्द, इच्छाओं की बलि देकर आदर्श की शबाशी उन्हें मिल रही है। वे उनके नाबालिग भाई। उनको सम्मानबोध भी अनूठा था।

मैं अगर अपनी पत्नी से असमय, थोड़ा प्रेमालाप करने की इच्छा जाहिर करूं तो वह उनका असम्मान होगा।

मैं अगर अनपढ़ पत्नी को पढ़ाना-लिखाना चाहूं तो वह भी उनके लिए असम्मान प्रदर्शन होगा।

मिथ्या सम्मानबोध का तमगा गले में डालकर औरों का जीना हराम किये दे रहे हैं।

बड़े यानि भयंकर, यही उनका विश्वास था। अब मैं समझ पा रहा हूं कि यह अजीब चीज मेरी हड्डी, मांस सबसें घुलमिल गई थी। खून तो एक ही रहेगा, अगर वह ना होता तो मैं काहे निर्मला को इतना सताता?

जिस विद्रोह का प्रदर्शन करने में मैं अक्षम था उसी को निर्मला के अन्दर क्यों देखना चाहता था। जब नहीं देख पाता तो उस पर अत्याचार करता, परन्तु वह भी मेरे व्यवहार के प्रति अगर विद्रोह करती?

शायद इतिहास ही बदल जाता। निर्मला ऐसा ना कर सकी। वह तो अनुगत, विनीत और दासत्व ही सीख पाई थी।

जब वह मध्यरात्रि को कर्मक्लान्त देह सहित मेरे शय्याप्रान्त में आती तब वह मुझे केवल प्रसन्न करने ही स्वयं को मुझे सौंपती। उसमें कामना, वासना का लेश भी न रहता। मेरे अन्दर जिस कामना ने तिल-तिल डेरा जमा रखा था वह आक्रोश और विकृत काम वासना उस निरीह नारी पर टूट पड़ता। उसे मैं चूर-चूर करता पर वह बिना किसी प्रतिवाद के मेरे सारे अत्याचार नीरवता से सह जाती।

अचानक कभी-कभी मैं एक हिंस्र पशु की तरह और एक निपट गंवार की तरह चिढ़ कर कहता, ''मैं तुम्हारा इतना अपमान करता हूं तुम कैसे सहती हो? तकलीफ नहीं होती?''

वह पीड़ा से हँस देती, ''अपमान कैसा? तुम तो प्रेम करते हो मुझसे।''

इस पृथ्वी के विरुद्ध, अभिभावकों के विरुद्ध और समाज व्यवस्था के विरुद्ध जितना भी आक्रोश मेरे मन में संचित होता रहता था वह उसके कोमल सुन्दर शरीर के ऊपर से लेता। और अपने मन की दाह की अग्नि उसके शान्त मन को दग्ध करके मिटाया करता। और वह कहती, तकलीफ काहे की यह तो तुम्हारा प्रेम है।

इस मिट्टी की गुड़िया से मेरा मन ऊब गया था, मेरा वुभुक्षु मन जो एक सम्पूर्ण मर्द की तरह ऐसी रमणी की तलाश करता जो उसके शारीरिक दाह को मिटा सके, उसे वासना और कामक्रीड़ा में अपना समान भागीदार बना सके।

तभी तो मेरे चरित्र में खरबी आ गई।

हालांकि अभिभावकों की कड़ी दृष्टि के सामने ऐसा कुछ भी करने का प्रश्न ही नहीं था पर कलकत्ते के घर में तो ऐसा कुछ भय नहीं था। हां, हम लोगों का एक मकान कलकत्ते में था।

हां, घन सुन कर महोदय किसी सुन्दर, रमणीक, कमनीय नीड़ की कल्पना मत कीजियेगा। यह तो एक मकान था जहा बारबार के प्रयोजन से आने वालों को एक रहने की जगह भर मिलती थी। मेरे पिता, ताया जी को बीच-बीच में कारोबार के सिलसिले में कलकत्ता आना पड़ता था, इसी कारण एक नौकर और महाराज को तनख्वाह और खाना कपड़ा पर रख छोड़ा था। उनके पास पैसा था और सस्ता जमाना था तभी ऐसा कर पाते थे।

और जब बच्चों को नाटक, बायस्कोप देखने का शौक चर्राता तब और लड़कियों को ससुराल से और बहुओं को मायके से लाने या ले जाने की आवश्यकता होती तब इस मकान की जरूरत बढ़ जाती। या किसी कठिन रोग से आक्रान्त किसी व्यक्ति को कलकत्ते में बड़े डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता होती, तब इसी घर में आना पड़ता था।

मैं ही जल्दी-जल्दी आने लगा। क्योकि मेरा दिल उस अचलायतन में हांफ उठा था।

मेरी पत्नी गांव की थी तभी उसे मायके के बहाने इस मकान में आने की कभी आवश्यकता नहीं पड़ी। फिर भी निर्मल कभी-कभी कहती-'कायस्कोप देखने का मन करता है। कभी तो देखते हैं सिर्फ मैं ही...।

मैं कहता-ठीक है अगले हफ्ते तुम्हें ले कर जाऊंगा।

निर्मला उसी वक्त मेरा हाथ पकड़कर प्रार्थना करती, ''मैं तुम्हारे पैर पड़ती हूं वह सब मत करना। चाची जी, या समझली बहू नौ बहू या दीदी लोग जाये तभी...।''

मैं झुंझला उठता।

क्योंकि मैंने यह निश्चय किया था इस बहाने मैं इस घर में प्रगति की आवहवा की सृष्टि कर पाऊंगा। परन्तु निर्मल ही बाधा देती, ''तुम अगर बड़ों के सामने ऐसा प्रस्ताव रखो तो मैं गले में फांसी लगा लूंगी।''

गले में फांसी यह उसका तकिया कलाम था। बायस्कोप के प्रस्ताव पर वह शर्म से गले में फांसी लगाने की व्याकुलता जाहिर करती।

मैं और बात नहीं बढ़ाता था क्योंकि मेरा मन खट्टा हो जाता था। उस समय तक।

3

लगता था कितनी ग्रामीण विचारों वाली है; पर यह सरल, निष्कपट, बुद्धि रहित और गधे जैसा बोझ ढोने वाली मेहनती लड़की कभी गले में फांसी लगाकर मर जायेगी; यह कोई भी ना सोच सकता था। यह बात तो सपने में भी कोई ना सोच पाया था।

क्योंकि कोई भी यह धारणा ना बना सकता था कि इस लड़की में किसी प्रकार की भावना प्रवणता या मन के अन्दर कोई छिपी वेदना भी हो सकती है।

तभी तो निर्मला के बारे में सब निश्चिंत थे। वह कोई गलत काम कर ही नहीं सकती।

निर्मला के बाद जो बहुएं आई थीं उनके बारे में कुछ सोचने का मसाला मिलता था, अगर वे गुरुजन स्तुति में कोई कसर छोड़ पातीं। पर निर्मला तो निष्ठा की जीती-जागती मिसाल थी। निर्मला तो आदर्श गृहवधु का प्रतीक थी।

यहीं निर्मला ने ही एक भयंकर अनिष्ठा का काम कर डाला। सबकी सोच पर तुषारापात हो गया था। अचानक एक दिन किचन के पीछे जहां कंडे, लकड़ियां रखी जाती हैं वहां झूलती पाई गई, उसका चेहरा पूरी तौर से भयंकर एवं बिगड़ गया था।

नये तौर से उसके लिए मेरे मन में घृणा उपजी। सोचा करना ही था तो थोड़ी हिम्मत ही दिखाती, ऐसा घृणित तरीका क्यों चुना? क्योंकि यही तरीका सबसे अधिक ग्रामीण था।

दिन-रात गले में फांसी शब्द व्यवहार करने की वजह से या और कोई उपाय ना था।

हालांकि मुझ पर जो जिरह का एक तूफान ही बह गया। पिछली रात को निर्मला कब शयनकक्ष से उठ कर गई, उसके पहले हमारे बीच में क्या-क्या बातें हुई थीं। उसने क्या इच्छा जाहिर की थी, इत्यादि-इत्यादि। इन अभिभावकों ने प्रश्न से जर्जरित कर डाला, जो इस बात को महत्वपूर्ण ही नहीं मानते थे कि हमारा कोई दाम्पत्य-सम्पर्क भी था।?

मैंने भी निर्बोध का जामा पहन अपनी नींद की दुहाई देकर 'मन खराब' का बहाना बनाया। लेकिन मैं क्या सच में आसमान से गिरा था? कल कुछ अन्यथा ना देखा था?

सच कहूं तो पिछली रात को ही वह मुझे पहली बार अच्छी लगी। मुझे यह भी ख्याल आया कि अगर उसे इस माहौल से निकाल कर ले जाऊं तो वह सम्पूर्ण मानवी बन सकती है।

क्यों कि कल रात वह विनीत दासी का आवरण त्याग कर तेजी व्यक्तित्व सम्पन्न नारी बन गई थी। उसने मुझसे कैफियत मांगा-''रोज-रोज कलकत्ते में तुम्हारा इतना क्या काम रहता है?''

उत्तर दिया, रहता है काम।

उसने भी अड़ कर प्रतिप्रश्न किया, ''कैसा काम मैं भी जानना चाहती हूं।''

''वह तुम्हारी समझ से बाहर है।''

''अगर साधारण भाषा में बताओ तो जरूर समझ जाऊंगी।''

मैं विस्मित होने लगा, सोचा शायद किसी ने सिखा पढ़ा कर भेजा है। नहीं तो यह दृढ़ता तो उसमें कभी नहीं दिखी। लेकिन बाद में यही लगा शायद पहली बार मेरे अभिसार की खबर सुन कर वह दुख से आकुल होकर सख्ती पर उतर आयी थी।

लेकिन उस वक्त तो निर्मला के क्रोध को महत्व नहीं दे पाया। निर्मला के जिरह का उत्तर भी ना दे पाया। केवल यही कहा, ''अचानक मेरे ऊपर खबरदारी करने की इच्छा क्यों। माजरा क्या है? तुम तो जैसे मेरी मास्टरनी बन बैठी हो?''

निर्मला बोली, ''मजबूरी से बनना पड़ा। इंसान जब गलत रास्ते पर कदम उठाता है तो तब उसे ठीक राह पर लाने के लिए एक मास्टर की जरूरत पड़ती है।

''ओह गुरुआनी मुझे नीति पाठ पढ़ाने आई हैं।''

मैं गलत रासते पर अपनी मर्जी से ही जा रहा हूं। मेरा जो मन चाहेगा मैं करूंगा।

निर्मला ने अचानक मेरा हाथ पकड़ा और कहा, ''अपनी मर्जीनुसार काम करोगे तो मेरे ऊपर तुम्हारा कोई भी दायित्व नहीं है क्या?'' निर्मला के कंठ में एक किसी निश्चित की प्रतिध्वनि सुनाई दी।

मैं हँस पड़ा। कहा, ''इतनी अच्छी-अच्छी बातें कहां से सीखी? तुम्हारी ददिया सास के अगचूर, अचार के भंडारे में तो इन सब चीजों की आमदनी नहीं होती होगी?''

उसने मेरा हाथ छोड़ा। फिर दृढ़ कंठ से कहने लगी, ''अपमान करके तुम मुझे धोखा नहीं दे सकते, तुम्हें वह सब त्यागना पड़ेगा।''

मैं भी टेढ़ी मुस्कान भर के बोला, ''छोड़ सकता हूं अगर तुम मुझे उस 'बुरी संगत' का मजा देने का वादा करो।''

वह हताश-सी दृष्टि डालकर कहने लगी और कितना दूं? और क्या करूं?

''क्यों अपने आदर्श बहू वाले कलेवर को त्यागकर मेरे साथ कलकत्ते चलो। जिन्दगी कैसी जी जाती है मैं सिखाऊंगा तुम्हें।''

निर्मला ने व्यंग्य किया, 'उपभोग' के मायने तो है होटल में जाकर गाय, सूअर का मांस खाना, शराब पीना और निर्लज्ज होकर नाचना।

निर्मला ने आज तक कभी तर्क-वितर्क ना किया था, उस रात को उसने काफी वाद-प्रतिवाद किया था तभी तो वह मुझे थोड़ी अच्छी लगी। पर उन आखिरी व्यंग्य वाणों से उसने मुझे क्रोधित कर दिया जिनमें ग्रामीणता कूट-कूट कर भरी थी।

मैंने जबाव दिया, ''तुम जैसी हो उसी के अनुरूप ही तुम्हारी सोच है। पर यह समझ लेना मैंने चरित्र अगर खराब किया है तो गलती से नहीं किया, वासना से ताड़ित होकर नहीं किया, इच्छा से समझते-बूझते हुए ही किया है। क्योंकि तुम्हारे पास अच्छे बने रहने का मोल मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। तुम्हें मैं 'पत्नी' का दर्जा ही नहीं देता।''

निर्मला खाट से उतर कर बोली, ''क्या कहा?''

निर्मला का गला कांपने लगा। समझ गया कि यह क्रन्दन का पूर्वाभास था। अब शुरू होगा रोना-धोना कसम खिलाने का प्रहसन।

मैं भी सख्ती से बोला, ''जो भी कहा है वह ठीक ही है। तुम्हारी जैसी मिट्टी की प्रतिमा के प्रति कोई रुचि नहीं। मैं तुम्हें प्यार नहीं करता।''

निर्मला ने अब कोई जबाव ना दिया और धीरे-धीरे दरवाजा खोल कर बाहर चली गई।

इसे मैंने एक औरत के मान मनोबल या नखरेबाजी का पूर्व प्रहसन माना, जो थोड़ी देर में ही वह आकर यह सब करेगी। फिर पता नहीं कब सो गया? सुबह नींद टूटी अपनी छोटी बहन की उत्तेजित चीख से, मेरे अपने कोई भाई-बहन नहीं थे। जो भी सब मामा, चाचा, फूफा आदि रिश्ते से थे। सुधा भी मेरी वैसी ही बहन थी। वह बोली, ''मझले भैया मझली भाभी कहां हैं?''

उसका अगला अध्याय तो मैं पहले ही आप लोगों के सामने खोल चुका हूं।

निर्मला ने मुझे मुक्त कर दिया। मेरा मन जो मर चुका था फिर से जी उठा।

मैं सोचने लगा, निर्मला मुझे कभी सुखी ना कर पाती। उसे अपने हिसाब से ढालने का कोई उपाय भी ना था।

दिन-ब-दिन वह मिट्टी के ढेर से एक मजबूत मिट्टी में तबदील कर दी जाती। परिवार की पृष्ठभूमि में ससुराल, सासों के प्रेम के आसन से मुझ जैसे नाबालिग की इच्छाओं को बचपना समझ कर अवहेलित करती रहती।

और मैं अपनी जीवन-संगिनी को अपने इच्छानुरूप ना बना पाने का प्रतिशोध बुरे रास्ते में चल कर चरित्रहीन बन कर लेता।

हां, उसी प्रकार की भावनाओं के सहारे मैंने अपने निराश मन को आशा के प्रदीप से जला डाला।

तभी तो यह ठीक लगा कि बुद्धू निर्मला ने एक ही बुद्धिमानी का परिचय दिया। मुझे मुक्ति देकर वह बुद्धिमान बन गई।

अब आप लोग सोचने लगे हैं इसके बाद में अधःपतन के रास्ते पर पूरी तरह चला गया, वही तो स्वाभाविक था।

लेकिन जीवन के उस मोड़ पर मुझे अपने को विश्लेषण करने का अवसर मिला तो पाया किसी भी साधारण गतानुगत वस्तु से मुझे चिढ़ थी। तभी तो पत्नी के फांसी लगाने के बाद में गलत रास्ते पर ना गया बल्कि उस रास्ते को ही त्याग डाला।

मैं जब कुछ भी नहीं छिपा रहा तो इस बात को भी नहीं छिपाऊंगा कि कलकत्ते के मकान में जाकर मैं उच्चश्रेणी के मोहल्ले में नहीं जाता था। हालांकि मेरे प्राणों से प्रिय दोस्त ने वैसे मोहल्ले के बारे में कहा था जहां लड़कियां उच्चश्रेणी के मर्दों के लिए ही बहाल की जाती हैं। देखने से तो वह उच्चतर दर्जे से सम्बन्धित लगती हैं। उनके चाल-चलन, अदब-कायदे में तो समाज के उच्चश्रेणी की छाप रहती है-पर असल उनका पेशा वहीं आदिमकालीन औरतों वाला पेशा है।

4

लेकिन तब तो मैं किसी ऐसे खुले, किसी अन्धड़ जैसे माहौल की तलाश में था। और निर्मला के विपरीत स्त्री-जो मुझे मेरे सब कुछ से दूर लेकर चली जायेगी। मैं उन मोहल्लों में जाता जहां सिर्फ पैसे का ही मोल था।

उनमें से एक लड़की को मैं प्यार करने लगा। नाम याद नहीं पर चेहरा याद है-श्यामल, स्वास्थती, चेहरा सुन्दर। तेल लगाकर एक बड़ा जूड़ा बनाती और उस तेल की खूशबू से मैं कई बार भाग आया करता।

उस लड़की के मन में बड़ा कष्ट था। किसी दूर-दराज गांव में उसकी ससुराल थी। ससुराल में उसे सताया जाता है तभी तो यहां मां के पास पड़ी है। मां तीन घरों में बर्तन मांज कर गुजारा करती है, उसने भी बेटी को कठोर निर्देश दे रखा है अपने पेट का इंतजाम आप करने को, और साथ में सदुपदेश भी कि बर्तन मांज कर कुछ भी हासिल नहीं होगा पेट तो भरेगा पर और कुछ ना होगा। तभी तो निर्मला की मृत्यु के पश्चात् जब कलकत्ता गया तो ख्याल गया उसकी खबर लूं पर भीतर से उस ख्याल ने ज्यादा जोर ना पकड़ा। तभी तो गया नहीं। नहीं तो उसे कुछ रुपये देने की इच्छा हो रही थी, उसकी मां उसे बड़ा कष्ट देती है अगर वह पैसा ना कमाये तो।

पैसा अलग रखा भी फिर खर्च कर डाला। एक दिन दुपहरी को वह मेरा घर ढूंढ़ते-ढूंढ़ते हाजिर हुई यह बात मुझे दिन के उजाले की तरह याद है। मैंने पूछा क्या? उसने कहा, 'रमेशबाबू से पूछा आप आये हैं पर-।''  

मैंने हँस कर पूछा, ''मेरे लिए क्या तेरे दिल में तकलीफ हो रही थी?''

उस लड़की ने विपन्नता से जबाव दिया, हमारा दिल? मां परेशान किये डाल रही है, कहती है, ''ऐसे बड़े दिलवाले बाबू को खो दिया तभी तो कहने आई थी आप जायेंगे तो?''

मैंने हँसी को और गहरा कर कहा, ''नहीं मेरी पत्नी मेरी है तभी मेरा आजकल सूतक चल रहा है, साल भर संन्यासी बनकर रहना पड़ेगा।''

उसने संदिग्ध स्वर में प्रश्न फेंका, ''यह खबर मुझे रमेशबाबू से मिली है पर पत्नी की मृत्यु पर एक बरस का छूत...?''

''अगर कोई चाहे तो रख सकता है।''

तब वह निश्चिन्त स्वर में बोली, ''ओह इच्छानुसार। अगर इच्छा हो।''

मैंने कहा, ''तुझे तो पैसे की जरूरत होगी ले-ले।''

उसकी तरफ कुछ रुपये बढ़ा दिये।

वह देखती रही पर लेने के लिए हाथ नहीं बढ़ाया।

मैंने कहा, 'ले-ले।'

वह अचानक जोर से बोली, ''ना ऐसे कैसे लूं? लगेगा भीख ले रही हूं।'' कह कर चली गई।

मैं भरी आश्चर्यचकित होकर देखता रह गया। मुझे याद आया उसकी मां तीन घरों में बर्तन मांजती है और उसे बात-बात पर पैसे के लिए तंग करती है।

स्त्री चरित्र देवा ना जानति! मैं विस्मय बोध करते-करते सहानुभूति, सम्मान से जड़ हो गया। मां से लताड़ खाकर भी।

लेकिन मेरा विस्मय बोध सम्मान, सहानुभूति सब लेकिन दो दिनों में ही मिट गया। वह लड़की जिस। नाम किसी तरह से याद नहीं आता-वह दो दिन बाद आई। गले में आंचल डालकर मुझे प्रणाम कर बोली, ''बाबू आप देवता हैं नहीं तो परिवार की मृत्यु पर कोई संन्यास ग्रहण करता है भला? आपको देखने के बाद मेरे मन में इन दो दिनों में काफी उथल-पुथल मची। लगा ससुराल ही चली जाऊं। पति मारे, पीटे फिर भी तो वह धर्म का पथ है, मेरी अपनी जन्म देने वाली माता भी तो कम परेशान नहीं करती। वह तो मुझे नरक में धकेले दे रही है। उस दिन तो आपसे पैसा लिया। आज आपसे पैसा लेकर मां को बताये बिना भागूंगी।''

मन-ही-मन हँसी आई। पैसा ना लेकर चली गई थी तभी शायद आप अफसोस कर रही हैं। उसे पूरा पैसा ही दे दिया।

उसका चेहरा चमकने लगा।

लगा शायद सच में शायद अच्छी राह पर चलना चाहती है। उस राह पर चलने के लिए सहारे की जरूरत थी या किसी आदर्श की जो उसे मुझसे मिल गया।

पर इस संसार को हम साफ नजरों से कहां देखते हैं? मेरी तो नहीं है। तभी तो मैं यह सोचकर भी प्रसन्न ना हो पाया कि वह लड़की मेरे पैसों के बल पर अपने पतिगृह में लौट जायेगी और वहां गृहस्थ जीवन जीयेगी जो उसके लिए सही होगा।

सोचता हूं पैसे से सब कुछ हो सकता है।

पैसा बलवान है। शायद कुछ क्षणों के मन की उत्तेजना पर उसे अफसोस हो रहा है जब वह मेरे पैसों को फेंककर चली गई थी। और अब एक कहानी बना कर-

पर झूठ नहीं कहता उस लड़की का सुन्दर-सा चेहरा याद आता है तो अच्छा लगता है, उसमें एक ज्योति का आभास था जैसे उसे मुक्ति का पथ मिल गया हो।

जाने दें, मरने दें, एक बर्तन मांजने वाली महरी की लड़की के जीवन में पाप-पुण्य सुपथ-कुपथ को लेकर कौन सिर खपाये? ज्यादा खपाया भी नहीं। सिर्फ सोचा, मगर इस सरल, सहज लड़की ने पढ़ाई-लिखाई की होती और किसी अच्छे खानदान में ब्याह हुआ होता तो क्या वह पूर्ण नारी ना होती? जो नारी एक पुरुष को सब प्रकार का सुख प्रदान कर सकती है।

फिर उस चिनताधारा को भी जबर्दस्ती मन से निकाल फेंका।

मैं अतनू बोस। कांचनगर के बोस के खानदान का लड़का मैं...।

ओह! एक बात में बताना ही भूल गया। मेरा असली नाम है अतीन्द्र वसु। अपनी वंश-परम्परा को कायम रखने की खातिर मेरा नाम रखा गया था जो दूसरे भइयों का था, यतीन्द्र, सतीन्द्र। लेकिन पौली ने उस नाम को सुन कर नाक सिकोड़ा था। कहा था, छि: वह भी कोई नाम है क्या? इन अक्षरों को ही टेढ-मेढ़ा करके अतनू बना लो। किया भी था।

समाचार-पत्र में विज्ञापन में कानूनी तौर पर अपना नाम अतनू बोस बना डाला।

पौली के साथ मैं काफी बहक गया था, उस समय अगर पीली वंश की वसु पदवी को मिटा कर अगर कोई और पदवी देती तो उसे भी रख लेता। तब तो पौली के कहने से जीता, मरता था। पौली अगर जिन्दा रहने को कहती...।

पौली तो मेरी तीसरी पत्नी थी। पहले दूसरी के बारे में बता दूं।

दूसरी भी-अभिभावकों के दया स्वरूप ही आई थी। उस महरी की बेटी से ऐसे ही मजाक से संन्यास लेने की बात कही थी पर अचानक ख्याल आया कि अवधूत या साधु बनना ही बाकी रह गया है, बन कर देखा ही जाये ना?

बस एक साधु को पकड़ कर उसे गुरु बना कर साधना में जुट गया।

कलकत्ते वाले मकान में रहकर, महाराज के हाथ का बना खाना खाना भी बंद कर दिया। स्वयं पकाता, भोर या रात्रि के अन्तिम प्रहर में हजार बार जप करता और यही सोचता शायद इसी प्रकार का जीवनयापन करके सम्पूर्णता की राह पकड़ लूंगा। और इसी प्रकार मन में शान्ति भी मिलेगी।

पर कहां।

जब शुद्ध देह पर विशुद्ध वस्त्रों का आवरण डाल हजार बार ईश्वर का जाप करने बैठता तभी इच्छा होती कि एक जीवन्त, उज्ज्वल, तेज लड़की मेरे इस जीवन में आये जो मेरे ईष्ट, ध्यान, जप-तप सब को भुला दे। मुझे नियमों के बेड़ा जाल से निकाल कर ले जाये भोग वासना के अन्तहीन सागर में।

हां, इच्छा होती। कोई प्रबल वेग से मुझे संन्यासी जीवन से निकाल कर अपने प्रेम के आलिंगन पाश में जकड़ कर भोग के अन्तिम चरण तक पहुंचा दे। लग रहा था-यह मेरे ख्याली मन ने कैसा साधना का व्रत लिया है पर अजीब बात थी।

मेरे साथी रमेश ने जो मेरे बुरे कर्मों का समान भागीदार था उसने भी आकर मेरे सत्कर्मों का भागीदार बनना चाहा। वह मुझे गुरु, पथ-प्रदर्शक मानने लगा और मेरे ही गुरु से दीक्षा भी ले लिया।

रमेश ने अगर ऐसा आध्यात्मिक अधपतन का मार्ग ना पकड़ा होता तो शायद मैं पुराने अघःपतन के मार्ग पर अग्रसर हो जाता। और धीरे-धीरे ऊंचे समाज के सुखों का आस्वादन ले पाता। पर रमेश ही मेरी राह का कांटा निकला।

उसने मेरी लुटिया बूबो दी।

रमेश रात-दिन गुरु के आश्रम में रहने लगा।

हां, ईश्वर ही जानता है यह आकर्षण गुरु के प्रति था या गुरुदेव की शक्ति प्रतिमा के प्रति जो वास्तव में आकर्षणीय महिला थी-रूपसी एवं बुद्धिमति तथा छलनामयी। बीच-बीच में वे भाव समाधि लेती उस समाधिकाल में-जो दे-वह सब।

मेरी इस कहानी में उनकी भूमिका गौण है।

5

उनका जिक्र इस कारण छोड़ा क्योंकि उन्हीं की वजह से अपने दोस्त रमेश को मैंने खो दिया। तब रमेश ने मेरे जीवन को अशान्ति से भर दिया। जब प्रबल इच्छा होती कोई आये और योगासन से खींचकर इस संसार के रूप, रस, गंध के द्वार पर लाकर खड़ा करे तब रमेश मुझे समझाता, कुलकुन्डलिनी की शक्ति का रहस्य क्या है? आत्मा को किस प्रकार प्रमाणित करते हैं, शक्ति प्राणायाम, वैष्णव प्राणायाम में क्या अन्तर है आदि, आदि। और ना जाने क्या-क्या।

वह भारी ज्ञानी बन बैठा था। उसकी इन बातों में भाग लेने में मुझे जरा भी अच्छा ना लगता। उस पर हँसी आती, पर इन सब तथ्यों में उससे पीछे रहना भी मेरे लिए लज्जाजनक बात थी। तभी तो ज्यादा-ज्यादा मैं उन सब आध्यात्मिक तथ्यों को जानने में जुट जाता।

मतलब गुस्से के मारे अपना ही सिर पीटना। लेकिन यह सब चल ना पाया। साथ में हमारी मित्रता की डोर भी टिकी नहीं। उसमें गांठ आई तो मैंने, उसे तोड़ कर गांव जाना ही श्रेयस्कर समझा।

क्या आप लोग सप्रश्न उन्मुख हैं? यह जानने के लिए-मैं एक जवान मर्द कुछ काम-धाम भी करता था या नहीं? यह भी जिज्ञासा रखते ही होंगे, मेरी विद्या की दौड़ कितनी थी?

काम तो करता था और विद्या भी अर्जित की थी। मैं तो वंश का कुलदीपक था।

मेरे परिवार में पहला बी.ए. था। मेरे पिता, चाचा मिडिल पास थे। बाकी सब स्कूल की चौखट से ही मां सरस्वती को प्रणाम कर लक्ष्मी की आराधना में लग गये थे। यहां तक मेरे भाई भी जो चचेरे, ताया या फुफेरे थे।

मैं पिता की एकमात्र सन्तान था तभी मां की प्रेरणा से मैं उन सब हदों को पार कर गया। और ग्रेजुएट बना।

विद्या ने मुझे इस परिवार में सम्मानित आसन पर बिठाया, तभी तो बाकी लड़के जिन अपराधों के कारण सजा पाते मैं उनसे बच जाता।

इसका प्रमाण तो उन बुरे कारनामों से ही मिल जाता है जिन्हें मैं कलकत्ता के निवास के दौरान किया करता था।

अगर मुझ पर सन्देह होता तो ताया जी ने कलकत्ता जाकर मुझ पर कुछ दिन निगरानी रख या जासूसी करके मुझे बुलाया। पूछा, ''तुम यहां सारा दिन क्या करते हो?''

मैंने अनायास कह दिया, किताबें पढ़ता हूं। कहा तो यह झूठ भी ना था। किताबें पढ़ता था और काफी मात्रा में पढ़ता था।

वह बोले, ''तुम्हें जेब खर्च के तौर पर जो रुपये मिलते हैं क्या उनसे गुजारा नहीं होता? तुम और रुपये की मांग करते हो।''

मैं अन्दर से कठोर हो जाता पर ऊपरी तौर पर नरम सुर से कहा, ''हां लेता तो हूं इससे कम में गुजारा नहीं होता।''

''लेकिन क्यों, तुम्हें जो मिलता है वह तो कम नहीं है।'' मैंने भी कोमल-कठोर का मिश्रण रख कर ही जबाव दिया, ''हां, एक इंसान के गुजारे के लायक कम नहीं बल्कि अधिक हैं। महाराज और यह तो इससे भी कम में चला लेते हैं।''

ताया जी दुख भरे स्वर से बोले, ''मैं क्या तुम्हें नौकरों की तरह रहने के लिए कह रहा था। फिर भी गृहस्थ घर के बेटे...।''

''मैं गृहस्थ घर से हूं याद रखूंगा। किताब-भी नहीं खरीदूंगा। मुझे तो यही लगता है आप लोगों पर निर्भर ना रह कर मुझे कुछ काम करना चाहिए। कहां, तक बैठे-बैठे रोटियां तोड़ूंगा।'' कहा और कहकर बूढ़े आदमी की प्रतिक्रिया पर दृष्टिपात भी करना ना भूला।''

हां, मेरी धारणानुसार ही प्रतिक्रिया हुई, वे प्रतिवाद करने लगे, ''क्या कहते हो? नौकरी क्या करेगा? तू तो जो भी करता है वह तो एक दफ्तर का बड़े बाबू का काम है। पहले कारोबार का हिसाब रखने के लिए और पूरा हिसाब-किताब सरकार के पास जमा रखने के लिए तनख्वाह देकर आदमी नहीं रखना पड़ता था।''

हां, मैं ही यह काम करता था। मेरा यही काम था।

मैंने अर्थशास्त्र लिया था तभी हिसाब में पारंगत था। तभी हमारे संयुक्त परिवार के कारोबार में घर के सभी लड़कों को झोंका गया था। पूरे हिसाब रक्षण का भार मुझ पर डाला गया था या मुझे उस भट्टी में झोंक कर हिसाब रक्षक को छुड़ाया गया जो तनख्वाह लिया करता था।

वह काम मैं पटुता से करता था और मुझे पसंद भी था वह काम। लेकिन जब मुझे पैसे का ताना दिया गया तभी मैंने आत्मसम्मान का कवच धारण कर डाला। कहा, ''वह फिर भी आपके नौकर की माफिक था। मैं तो वैसे नहीं रह सकता।''

अचानक ताया जी हो-हो कर हँस पड़े ''रहेगा नहीं, रहना ही पड़ेगा। तू मेरे पिता का नौकर है, हमारे पुरखों का नौकर है, यह चाकरी तू छोड़ना भी चाहे तब भी नहीं छोड़ सकेगा।''

मैंने फिर भी अपना मिजाज दिखाया, ''फिर भी बाहर कहीं नौकरी करने से अपना खर्चा तो चला ही लूंगा। फालतू खर्चा भी तो करता हूं। उसमें मेरे मन में तो शान्ति रहेगी। अब सिर्फ यही लगेगा आपके पैसों को जाया कर रहा हूं।''

ताया जी विगलित हुए और साथ में चंचल भी। बोले, ''हमारा पैसा यानि तेरा नहीं है तेरे बाप, दादा का पैसा तेरा भी है। मान, अभिमान त्याग कर किसी अन्यत्र गुलामी का ख्याल भी त्याग कर। तू हिसाब रख रहा है, निगरानी कर रहा है, इससे हम लोग निश्चिन्त हैं। एक आदमी तनख्वाह देकर रखने से ही हजार झंझट खड़े होंगे। ठीक है, तेरा जेब खर्चा और बढ़ा देंगे। नौकरी करने की जरूरत नहीं। अरे यह भी तो एक नौकरी है, हमारा इतना बड़ा भैया, मझले भैया तो दूसरा व्यवसाय करने जा रहे हैं। गांव-गांव में नलकूप लगाये जा रहे हैं। उन पम्प मशीनों का ऑर्डर हथियाना चाहते हैं। हां, कर लेंगे क्या पता। मुझे से ही परामर्श लेना है, तू ही हमारी आशा है।''

बस शासन की यही परिणति थी। मेरे प्रति इतना विश्वास था। थोड़ा विद्या के प्रति सम्मान था जिससे उनका विश्वास गहरा हो गया। मैं पैसा किताब खरीदने के लिए लेता हूं। किताबें खरीदना भी फालतू खर्चे में ही था पर उसमें कोई भी दोष ना था तभी मेरा दोष दब ढक गया।

मुझे अनुशासन में लाने की जगह वह और ज्यादा जेब खर्च बढ़ा कर चले गये।

रमेश बोला-वाह-वाह क्या मामला है? किला फतह।

यानि उस वक्त का रमेश जो मुझे टीन का छप्पर और खून कमरे में ले जाकर भी ऊंचे समाज का प्रलोभन दिखाया करता था।

उससे मैं हारना भी नहीं चाहता और कुन्डलिनी रहस्य पढ़ना भी विष पान जैसा लगता था। तभी तो रमेश को पराजित करने या उससे मुक्ति पाने के लिए कांचनगर भाग आया।

निर्मला की मौत के बाद जो आया था वह? अब पहली बार वापिस लौटा।

काफी अनुरोध, उपरोध के बावजूद भी नहीं आया। इसी बीच घर में यह बात प्रचारित हो चुकी थी कि (शायद नौकरों ने ही किया था) मैं साधु बन गया हूं।

तभी तो सबने एक विशेष अर्थ में मुझे निहारा। हालांकि मैंने गेरुआ वस्त्र पहना था। मेरे बाल छोटे-छोटे थे और दाढ़ी बढ़ी थी पर मेरे चेहरे पर जो एक शुष्कता थी मुझे उसी ने ही विशिष्टता की पदवी दे दी थी।

पहल नम्बर पर मां आई। हां, दादी, ताई नहीं स्वयं मां। यह हमारे परिवार की परम्परा के विपरीत नीति थी। क्योंकि अपने बेटे या नाती, नतिन के बारे में कौतूहल या निन्दा करना निन्दनीय था। मां उदासीन रहे और दूसरे पूछताछ करें यही तो सभ्यता या विधि के अनुरूप बात होती थी।

मां उस दिन सभ्यता का बेड़ा जाल पार करके आई। पहले यही पूछा, ''मां-बाप जिन्दा रहते मूंछें काट डालीं, मैंने हँस कर कहा, ''मां-बाप के साथ मूंछों का कैसा सम्बन्ध। मां गम्भीर मुद्रा में बोली, क्या होता है वह तो पता नहीं पर मूंछों का कैसा सम्बन्ध। मां गम्भीर मुद्रा में बोली, क्या होता है वह तो पता नहीं पर मूंछें मुड़वानी नहीं चाहिए यही पता है। मैं गम्भीर स्वर में बोला, ''मां अगर तुम लोगों को निर्विचार सोचना या मानना बन्द करो तो परिवार में सभी का भला होगा। 'करना पड़ता है' या 'करना नहीं चाहिए' यह छोड़के तुम लोग कुछ भी जानना क्यों नहीं चाहती?''

मां ने कहा, ''चाह कर भी क्या होगा?'' बोल, ''होगा क्या? ज्ञान चक्षु खुलेंगे। विधि निषद्ध की कोई आवश्यकता ही नहीं अब तो समझ आ जायेगी।'' ''मां और भी उदासीन स्वर में बोली, सीख कर भी क्या होगा?''

मैं गुस्सा हो गया, तब तो कुछ भी नहीं कहना ही श्रेयस्कर होगा। इसके बाद कहना होगा खाने से क्या होगा। सोकर क्या मिलेगा।''

मां हँस पड़ी।

वह बोलीं, ''वह सब अगर ना करूं तो तुम लोगों के परिवार का बोझा कैसे ढ़ोऊंगी?''  

यही जीवन का लक्ष्य है?

6

''मां का वक्तव्य था अन्यत्र उद्देश्य हो भी तो क्या पृथ्वी उस पर चलेगी या मानेगी?''

मैं उस दिन बड़ा ताज्जुब बन गया। मैं मां को सुखी सन्तुष्ट समझता था। क्योंकि मां को हमेशा ही गप्पबाजी के साथ-साथ मेहनत करते ही देखने में अभ्यस्त था।

हां, हमारे कुटुम्ब की यही कारीगरी थी। कई महरी, नौकर होने के अलावा दर्जनों औरतों को परिश्रम वाला कार्य सरवराह करना। मां को मैं इन दर्जनों में से कभी अलग ना कर पाया। तभी तो मां के उस सुखी-सन्तुष्ट चेहरे के प्रति मैं कृपादृष्टि ही रखता था। या घृणा करता था।

सोचता था मन-ही-मन कि मां के अन्दर क्या दिल नहीं है, जैसे निर्मला के बारे में सोचता था।

निर्मला ने तो मुझे धोखा दिया था। आज लगा कि मां से भी धोखा खाता आया था। हां, मां की हँसी भी बनावटी थी, मां सुखी नहीं है, असन्तुष्ट है। तभी तो कहा, ''परिवार के सब मुझे मानें या सबके लिए मैं महत्वपूर्ण हूं यह सोचना ही गलत है।''

मां कहने लगी, ''तब क्या अपनी तरह बनाना चाहता है। मेरी तरह?''

मां ने फिर शुरू किया, ''हां, तेरी तरह, किसी की परवाह नहीं करूंगी। किसी की तरफ नहीं देखूंगी, लोगों की बातों की परवाह न करूं, कभी किसी के मन...।

मैंने कहा, ''मैं ऐसा करता हूं क्या?''

मां हँसी। और बोली, ''करता नहीं असल में तुझसे पूछती हूं तुझे खबर किसने दी?''

मैं भी अवाक् हो गया, ''खबर। यानि कैसी खबर।?''

मां भी स्थिरता से बोल पड़ी, ''शादी का समाचार।''

शादी में सचमुच आसमान से गिर पड़ा। किसकी शादी।

''तेरी शादी।''

मेरी। मैं भी जबरन हँस पड़ा। ज्यादा जोर से हँसा। कहा, ''कैसी अद्मुत, अलौकिक, अभावनीय कल्पना किसके मस्तिष्क में आई?''

मां ने उसी प्रकार से कहा, ''जिसके दिमाग में आना चाहिए उनके ही दिमाग में आया है। कर्ताओं ने ठीक किया है, जल्दी ही तुम्हें खबर लेकर बुलवा भेजेंगे।''

कहा, ''अजीब! बिल्कुल जैसे कन्या भी ठीक है, मेरे मत का कोई भी महत्व ही नहीं है?''

मां, ''क्यों मना क्यों करेगा?''

कुछ नहीं? बिल्कुल सब जान गये हैं। ना जानने वाली कोई बात नहीं-मां ने चेहरे को दूसरी ओर घुमाकर कहा, ''गला भी शायद कांपने लगा, कहा, ''बहू को तुम प्यार तो नहीं करते थे कि उसके लिए बाकी जीवन संन्यास में ही बिता दोगे?''

मां की आखों में पानी आया तो मुझे आश्चर्य हुआ। फिर भी मैंने गले को अकम्पित तथा आंखें भी सूखी रख कर कहा, ''किसी के लिए नहीं-यह संसार मुझे अच्छा नहीं लगता।

रुक।

मां ने अचानक मुंह को सामने घुमाया तो मां की अश्रुभरी अंखियों में अग्नि की दहन ज्वाला दिखी। मां ने तिरस्कार भरे लहजे में मुझे लताड़ा। साधुपना तो तेरा छल है।

छल!

मैं भी जैसे जड़वत हो गया या बुद्धू बन गया। जिस मां की तरफ कभी सीधे देखा नहीं, कभी भी उन्हें मनुष्य की श्रेणी में नहीं रखा उन्हें अचानक जोरदार स्वर में बात करते देख मुझे बिजली का सा झटका लगा।

मां भी दृढ़ स्वर में बोली, मैं तेरी मां हूं मैं नहीं जानती अब मैं हँस सकता था। कठोर व्यंग्य की छलनी से मातृगरिमा का छेदन कर सकता था या अवहेलित दृष्टि से देखकर वहां से जा भी सकता था।

पर नहीं क्यों उसी वक्त सुबह की वह घटना मेरी नजरों में आकर ठहर गई।

किचन के पीछे उस कंडे की छोटी कोठरी के दरवाजे के सामने जिस दृश्य को देखा था पता नहीं फिर भी मुझे यही लगा शायद ऐसी किसी दृश्यावली से मेरे को सामना होना पड़ेगा।

अगर मैं तीखे व्यंग्यवाणों की बौछार करूं या अपना रौब दिखाऊं तो वह कठोर, क्रुर, भयंकर और भद्दा दृश्य किसी भी छत से झूल कर मुझे चिढ़ा देगा। तभी तो मैं बुद्धू बन गया, मां के इस नये रूप को निहारकर। मां को कहना था साधु का भेष त्यागो। शादी तो तुम्हें करनी ही है। वंश का नाम मिट्टी में मिलाकर तुम मनमानी नहीं कर सकते।

मां ने फिर से अपना चेहरा दूसरी ओर करके कहना शुरू किया, ''काफी खोज के बाद तुम्हारे लिए 'पद्यिनि' कन्या को बधुरूप में वरण किया था, तुमने उसकी महान्ता को ना समझ उसे ठुकराया, ठीक है, अब तुम्हारी पसन्द के अनुसार ही 'हस्तिनी' कन्या आ रही है उसे किसी ऐसी परिणति के लिए बाधित ना करना।''

मैं चुप कर के रह गया। कई आलतू-फालतू किताबें मैंने भी पढ़ डाली हैं, 'हस्तिनी', 'पद्यिनि' भी मैं जानता हूं पर मां भी इतना सब कुछ जानती है यह मेरी धारणा के बाहर की बात थी।

इसके अलावा-जिस मां ने कभी भी 'अपना बेटा' जैसा वाक्य कभी उच्चारण भी नहीं किया था और अपने जेठ या देवरों के बेटों से जरा भी मुझे प्राधान्य ना दे पाईं थीं, उन्होंने मुझे इतना पढ़ा रखा है यह तो जैसे मेरे लिए अद्भुत ही था।

मैं क्या हूं या मेरी चाहत क्या है इस सम्बन्ध में घर के मालिक भी अवगत थे। तभी तो उस जानकारी की वजह से मेरी परवाह ना कर कहां से 'हस्तिनी' कन्या ढूंढ लाये हैं।

मेरे अन्दर लज्जा का लेश ना था। घर सचमुच उस दिन मैं भी शर्म से जमीन में गाड़ा जा रहा था।

लगा मेरे सब आवरण खोल कर किसी ने उजाले में खड़ा कर दिया हो। कितने शर्म की बात थी। हाय लज्जा-कितना कलंकमय दृश्य था। उतनी लज्जा तो मुझे निर्मला के मृत्यु-दृश्य पर भी नहीं आई।

तय किया। मेरी बातें टेप कर रहे हैं? कुछ भी नहीं छोड़ियेगा। तय किया उनके घमण्ड का उचित जबाव, वह था-उनकी हस्तिनी योगवस्तु कन्या का अपमान कर वहां से निकलना, भाग जाना। उस कलकत्ते में नहीं बहुत दूर। पहाड़-पर्वत जहां भी दिखा देना पड़े अतीस बोस सर्वस्व त्याग कर साधु बन। सकता है।

यह दृढ़ संकल्प भी कर डाला। घर के सब लोगों के साथ मुलाकात करके ही रातोंरात भाग जाऊंगा। पिता जी मिले। उन्होंने तो शारीरिक कुशल पूछ-पाछ कर काम खत्म किया। चाचा लोगों ने सिर्फ कारोबार के बारे में बातचीत की। बड़े भाई अपने नये व्यवसाय के बारे में बताकर उल्लास का अनुभव कर रहे थे।

सिर्फ ताया जी सुत्रगम्भीर गले से बोले, ''अगले महीने की चार तारीख को तुम्हारा ब्याह का दिन है-जब आ ही गये हो तो इस बीच कलकत्ते से जाने की आवश्यकता नहीं। फिर थोड़ी देर हुक्का गडगड़ा कर बोले, ''पात्री तुम्हारी बड़ी भाभी की ममेरी बहन है। स्वास्थ्यवती, कुछ पढ़ना-लिखना जानती है। सब प्रकार तुम्हारे अनुरूप है।''

कह कर फिर से हुक्का पीने लगे। ''सर्व प्रकार मेरे अनुरूप वाक्य में क्या मेरी भर्त्सना थी, या मेरे प्रति धिक्कार, तभी मेरा दिल दहल गया, मुंह से वाक्य ना सरके। नहीं तो मैं अनायास ही कह सकता था। आप लोग तो स्वयं भी बना रहे हैं, स्वयं ही तोड़ रहे हैं। दिन तय करने से पहले मुझे एक बार भी बताना उचित ना था?'' कह ना पाया।

यद्यपि मेरी प्रकृति तो ऐसी ही थी जिसमें ऐसा कहना स्वाभाविक था।

लेकिन जो मेरी प्रकृति में था कुछ अप्रासंगिक बात कह डालना, मैंने कुछ और ही अप्रासंगिक प्रश्न किया,  ''उन्हें दूसरे विवाह में कोई ऐतराज तो नहीं है?'' कह कर ही जैसे घड़ों पानी गिर गया। पर ताया जी ने तो मखौल की हँसी नहीं छेड़ी बल्कि बड़े शान्त भाव से बोले, ''नहीं है, होता तो बात ही क्यों बढ़ाते।''

मैं कुछ पल बुद्धू की तरह खड़े होकर देखकर खिसक गया। बाद में ख्याल भी आया था सबसे बड़ी युक्ति मेरे अस्त्र रूप में थी। मैं उसी का ही प्रयोग ना कर सका। मैं ही तो इस बात पर बल दे सकता था कि अब मेरी इच्छा फिर से गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की नहीं रही, मैं दूसरे ही जीवन का वासी हो गया हूं।''

असल में यह वाला कौशल तो मैंने खो दिया था क्योंकि मेरा मन, देह सब प्रतीक्षा कर रहे थे। एक उद्दाम यौवन की जो आकर सर्वस्व अर्पित करे।

7

मैंने जब मां से प्रतिवाद का प्रहसन किया तब क्या मेरी पूरी अनुभूति में एक उन्मादपूर्ण सुर की लहर नहीं छिड़ी थी। और जब ताया जी ने गम्भीर स्वर में ऐलान किया, ''व्यस्का, स्वास्थ्यवती और पढ़ी-लिखी'', तब क्षण भर के लिए छाती पर हिम का पहाड़ जमने लगा पर उसी हिमानुभूति के अन्तराल में एक वासनामय उत्ताप की अनुभूति में खत्त में हिलौरें मारने लगी थी।

तभी तो अगले महीने की चार तारीख तक मैं रहा, और मुझे हीरा बनाकर कुछ समय पहले जिस नाटक का मंचन हुआ था उसी का पुन: अभिनय किया गया। मैंने भी नाटक के हीरो का पार्ट दक्षता से पालन करके दिखाया था।

वही मुकुट, सेहरा, जयमाला, शुभूदृष्टि, सात फेरे, सम्रदान सभार में पिछली कार्यवाहियों जैसा ही अनुष्ठान। उसी प्रकार सखियों की बोलचाल उत्तर, प्रत्युत्तर सभी पुनः-पुन: होते चले गये। केवल नायिका ही बदल गई थी।

उस परिवर्तन से क्या मैं आहत थी। आप लोग कहेंगे मुझे होना चाहिए था, इन्सान का दिल हो तो मर्मस्पर्शी होगा। पर मैं तो पहले ही बता चुका था, यह मेरी जवानबन्दी है। जिसमें कुछ भी छिपाना या उसे सुन्दर-सी चादर में लपेट कर पेश करना मेरी मानसिक अवस्था में नहीं हैं तभी तो स्पष्ट रूप से कहता हूं जैसा दुखी मुझे होना चाहिए था या सब चाहते, मैं ना हो पाया। या हो ना सका। मेरी अवरुद्ध कामना, मेरी प्रतीक्षा मुझे क्षिप्त किये दे रही थी। नये चेहरे को कल्पना के आईने में देख कर मैं उसी में डूबा था। उन रीति-नीति, समारोह में जितना उसका देख रहा था उससे और उद्दाम हुआ जा रहा था, क्योंकि प्रभा निर्मला की तरह भीरु, क्षीण किशोरी नहीं थी। बल्कि परिपूर्ण नवयौवना, सभी कलाओं में पारंगत।

इसका मतलब यह तो नहीं था कि मैंने निर्मला को जरा भी याद नहीं किया, इन नियम विधि विधानों के मध्य भी एक प्रकार का विषद, दिल पर बोझ और अपने दर्द भरे निश्वास द्वारा उसे हर पल श्रद्धांजलि अर्पित करता जा रहा था। जब हम दोनों को निर्मला की बड़ी-सी तस्वीर के सामने ले जाया गया, (तस्वीर को बड़ी-सी माला से सजाया गया था।) 'और उसे प्रणाम करने को कह, यह भी आदेश मिला कि प्रार्थना करो मैं तुम्हारे पैरों की धूल बन सकूं-उस वक्त पता नहीं नववधू के मन में किस रस का संचार हुआ होगा पर मेरा मन तो एक खालीपन के भाव से बोझिल हो गया था।

पता नहीं कब निर्मला की यह तस्वीर खींची गई थी? मुझे यह भी पता ना था की कभी उसकी कोई छवि भी थी सिवाय ब्याह के वक्त खींची गई धूमिल-सी दूल्हा-दुल्हिन की छवि के अलावा।

तभी तो निर्मला की उस तस्वीर को देख सकते में आ गया जिसे सोने के पानी वाले फ्रेम में मढ़वाया गया था। इस प्रकार का घूंघट बिना और चमकता चेहरा जो मेरी ओर ही देखे जा रहा था शायद मुझे वह उच्चलोक से अपनी महिला से कोई श्राप दे रही हो।

निर्मला का ऐसा चेहरा जिसमें जरा भी नुक्स ना था मैं अब देख पाता था। उसका प्रवेश तो मध्यरात्रि की लालटेन की रोशनी में होता था। जिसकी सिखा इतनी कम होती थी जिससे वह एक मटमैली छाया नजर आती थी।

और दिन में तब तो मुंह देखना निषेध था। अचानक बड़ों पर बहुत गुस्सा आया। मुझे जो प्राप्त होना चाहिए था उससे मुझे वंचित किया गया था-सिर्फ अर्थहीन कुछ नियमों की वजह से।

मुंह दिखाना पाप है, मुंह दिखाना दोष है और अब ससुर, जेठ, पति, आत्मीय, आनात्मीय सभी को तुम्हारे घर की बधु अपना चेहरा नहीं दिखा रही? माथे पर चेहरे पर अवगन्ठन नहीं, आँखों में जाल नहीं, पिता जी ने इस तस्वीर को अपने कमरे में लगा दिया। पिताजी के साथ संवादहीन सम्बन्ध था तब भी वह इतनी सम्मानित और प्रिय हो गई कि उसकी मृत्यु के बाद पिता ने पुत्र से सम्बन्ध-विच्छेद ही कर डाला।

उस पुत्रवधू की असमय अस्वाभाविक मृत्यु का दोषी वह अपने पुत्र को ही मानते थे।

परन्तु निर्मला की अवगुन्ठनहीन तस्वीर पिता के कक्ष में क्यों?

माता का कहना-फिर क्या तुम्हारे कमरे में रहेगी? उसकी जरूरत नहीं

है नयी बहू डरेगी, दुःखी होगी। देखते नहीं अचानक देखने से यही लगता है कोई जीवित इंसान देख रहा हो।

लेकिन कब तस्वीर खिंचाई? इस प्राचीन-पन्थी माहौल में नवीन माहौल? इसका इतिहास बाद में सुना। पता नहीं कब मेरे मझले चाचा के दामाद ने किसी कायदे के समय खींचा था। वह कैमरा चुपके से लाया था और बड़ों की अनुपस्थिति में छत के तिमंजिले पर निर्जन में हँसी-मजाक में रत कुछ युवतियों का चेहरा उस कैमरे में बन्द कर डाला। उन्हें पता ना था तभी तो उनकी आंखों में, चेहरे पर हँसी की आभा बिखरी थी। शायद उस छोकरे का लक्ष्य स्थल था स्वयं की नवपरिणीता पर उसे तो पाना मुश्किल था तभी उस समूह से ही, उस मंडली से ही निर्मला की तस्वीर को अलग से बड़ा करवाया गया।

इस परिवार की सबसे स्नेह और प्रिय पात्री वधु को दीवार पर सबकी नजरों के सामने सुगन्धित पुष्पहार पहना कर रख दिया गया।

मेरा मन डोल गया, हिंसा भी हो रही थी, गुस्सा भी आ रहा था जैसे किसी ने मेरी सम्पत्ति को दखल कर लिया हो।

प्रभा के अन्दर भी आलोड़न की सृष्टि हुई। तभी तो सुहागरात की सेज पर उसने वाचाल की तरह प्रश्न किया, ''जिसकी इतनी सुन्दर पत्नी थी उसने मेरी जैसी काली कलूटी से क्यों शादी की?''

इस बात में दम न था। निर्मला की तरह ना सही पर वह भी सुन्दर थी। अपनी प्रशंसा शायद सुनना चाहती है? मैंने हँस कर प्रश्न किया, ''क्यों तुम्हारे घर में आईना नहीं है?''

क्यों नहीं होगा। प्रभा का गला भर आया था। ''तुम्हारे घर में आने के बाद से ही दूसरे प्रकार का आईना देखती जा रही हूं पहले वाला भूल गई।''

प्रभा का बात करने का तरीका बड़ा सुन्दर लगा। वह वाकपटु थी। हँसकर कहा, इस कमरे का आईना पर दूसरी जवान बोलेगा जिसके साथ तुम्हारे पहले वाले में समानता है इसे तुम खुद ही जान जाओगी।

''क्या पता जिसकी इतनी रूपसी स्त्री को गले में फांसी डालनी पड़ी उसे कैसे विश्वास करे?'' प्रभा रूखेपन से बोली।

मैं जैसे किसी धक्के से तड़प उठा। गले में फांसी वाली कहानी अभी से नई बहू के कान में डाल दी गई है सोच कर गुस्से से शरीर कांपने लगा। फिर ख्याल आया प्रभा तो हमारी बड़ी भाभी की ममेरी बहन है।

मैंने अपने आपको संभाल कर कहा, ''सभी अपने कर्मफल से मरते हैं या जीवित रहते हैं।''

प्रभा ने खुले गले अट्टहास किया-''यह तो साधु-सन्तों जैसी बातें हैं।''

मैं इस हँसी का भागी ना बन पाया। सिर्फ यही लगा कि यह लड़की बड़ी ही तेज है। शायद हँसी की आवाज बड़ों के कानों में भी जा रही है।

मैंने उससे जब यह कहा कि बड़े अगर इतने जोर से हँसी की आवाज को सुन लें तो, उसका जबाव कुछ इस प्रकार था, ''बड़े-बूढों की वजह से हँसना बन्द करना करना होगा यह इस युग में नहीं चल सकता।''

हां, सुहागरात वाले पल में ही प्रभा ने मुझे युग के दर्शन करा दिये, मुझे आश्चर्य में डाल दिया।

फिर कुछ दिनों तक तो मैं एक नशे में मगन रहा, इस औरत को जो तांबे की धातु की तरह सख्त थी उसे जितना भी निष्पीड़ित करो वह और भी अधिक निष्पीड़ित होने का आग्रह करती। वह किसी प्रकार के यौनसंगम के लिए प्रस्तुत थी।

तब मुझे यह समझ में आने लगा मां ने किसलिए भावी वधू के बारे में बताते समय इतने कठोर लफ्जों  का इस्तेमाल किया था। क्यों ताया जी ने अधिक्कार एवं भर्तस्ना के लहजे में कहा था, ''वधू सर्व प्रकार से तुम्हारे योग्य चुनी है हमने।''

इसका मतलब था सबने मुझे अच्छी प्रकार से जान लिया था और प्रभा को भी परख लिया था।

सोचा था-''विषय बिषमोषधम्, सम समं समयति।'' या उन लोगों ने वैरागी होने वाले बेटे के लिए एक मजबूत-सी लोहे की बेड़ी ला दी थी।

जब स्वयं से पूछा तो मेरे मन ने उत्तर दिया मैंने प्रभा जैसी लड़की की कामना नहीं की थी। ऐसी लड़की मेरी रुचि के विरुद्ध थी। प्यार का एक ही रूप एक ही अर्थ जिसे पता है। यह कुरुचिहीनता थी।

इसके अतिरिक्त उसमें एक स्वाभाविक कोमलता या शालीनता का भी अभाव था। वह इस कमरे में आने के बाद अपनी समस्त सभ्यता एवं शालीनता उतार कर फेंक देती थी। उसे जैसे इन सबका अधिकार था।  

यह मेरे लिए असहनीय था। प्रभा का आचार-व्यवहार अत्यन्त स्थूल था।

वह खड़े-खड़े सुराही को मुंह में लगा कर पानी गटक डालती, आवाज करके डकार लेती, सोती भी तो थी तो, उसका नासिकागर्जन इस घर के सदस्यों के लिए परिहास की वस्तु बन गई।

8

प्रभा के विषय में व्यंग्योक्ति साक्ष्यप विपरीत और निर्मला की स्तुति। उसके प्रति श्रद्धा, सम्मान, स्नेह की बौछार होती रहती।

इस परिस्थिति में प्रभा को और भी लड़ाकू अशालीन और प्रबल बना दिया।

उसने सास-ननदों से झगड़ा, बात-बात पर मुंह पर जवान लड़ाना शुरू कर दिया।

प्रभा घर की महरियों के प्रति ऐसे कटु वाक्यों की झड़ी लगती जो इस परिवार के लिए अजीब बात थी। ऐसा कभी ना हुआ था।

मैं उसके प्रति घृणा प्रकाश करता और प्रभा भी उस घृणा को प्रेम में परिणत करने की जी-तोड़ कोशिश में लगी रहती।

उसके पास हथियार रूप में तो सिर्फ यौवनमय शरीर था जिसे वह प्रयोग करने में जुटी रहती। काजल से मुझे चिढ़ थी। प्रभा अंखियों में काजल लगाती और अपने शरीर को और भी अधिक प्रलोभित करके पेश करती जो हमारे जैसे सनातन परिवार की वधू के लिए घृणित था। मुझे भी अच्छा नहीं लगता था। एक दिन उससे यह कहा था, ''तुम इतनी सजधज कर जाती हो कोई तुम्हें देखे तो शर्म नहीं आयेगी। मैं तो लाज से पानी-पानी हो जाता हूं।''

मैंने यही सोचा था वह भी शर्मायेगी पर उल्टे ही-ही कर हँस के बोली, ''आहा-सौ चूहे खाके बिल्ली हज को चली। कहते हैं पंक्षी नहीं, मारता, धर्म में मन रमाया, तुलसी का माला गले में डाल कर वृन्दावन चला जा रहा हूं। तुम्हारी कैसी लाज तुम्हारे बारे में मुझे सब पता है। उन मोहल्लों में जाने की कहानी भी मैं जान गई हूं।''

मैं भी गुस्से से आगबबूला ओ गया। उसी आग से बोल पड़ा, ''इतना कुछ जान ही चुकी थी तो ब्याह के लिए राजी क्यों हुई?''

प्रभा ने व्यंग्य बाण छोड़ा, ''फिर सुनने में आया कि बाबू संन्यासी बन गये हैं। और बाबू को वैराग्य पथ से एक यौवनमती नारी ही वापिस ला सकती है। मैंने भी सोचा मैं ही ऐसी नारी साबित हो सकती हूं या नहीं।''

मुंह में यह वाक्य आ गये। शक्ति की परीक्षा कर क्या पाया। मुट्टी में कर सकी? लेकिन यह भी सोचा इस बात में दम नहीं है क्योंकि शुरू में तो शरीर की सुधा शान्त करने को सब लाज-शर्म के बंधनों से छिन्न-भिन्न कर छाला था।

तब इसी प्रभा ने ही चिढ़ाया था, बाबू तो संन्यासी बनने चले थे। ऐसे ही होते हैं संन्यासी?

मैं भी हँस कर बोला उठा-वैरागी भी तो किसी कारण से होना पड़ता है।  

प्रभा ने कहा था-वही तो लगता है। नहीं तो वैराग्य के लक्षण तो कहीं भी नजर नहीं आते।

मैंने कहा समझ गई। फिर उसे कुछ कहने ना देकर उसके मुंह को अपने मुंह से बन्द कर डाला।

प्रभा के कोष में यह सब उपकरण मौजूद थे तभी तो वह सब कुरेदने से तो मेरे ही दुर्बल क्षणों का हिसाब देना पड़ जायेगा।

अगर मैं उसे ज्यादा कुछ पूछूं तो वह मेरे ही कारनामों का पर्दाफाश करके मुझे लज्जा से जमीन में गाड़ कर रख देंगी क्योंकि मैं ही तो उसके वासनामय पलों का सहभागी रह चुका था।

परन्तु मेरी सहनशक्ति की सीमा जबाव दे चुकी थी। प्रभा जितना मुझे वैरागी से अनुरागी बनाने की जी जान से कोशिश में लगी थी उतना ही मैं उनसे दूर भागता था। प्रभा को मेरी जीवन-संगिनी के रूप में सोचना ही मेरे लिए एक घृणित विषयवस्तु बनती जा रही थी।

मेरे मन में परिवार के बारे में जो कल्पना थी वह ऐसी थी-जिसे शायद आप ना मानें या जो आपके विश्वास से परे हो फिर भी मैं बताऊंगा। परिवार होना चाहिए, सुन्दर, सुरुचि सम्पन्न, घर साफ-सुथरा तथा रुचि के अनुसार साज-सज्जा भी हों। जिसमें नाना प्रकार की सुख-सुविधायें मौजूद हों और जिसमें एक आधुनिक गृहणी का निवास होगा जो अपने पति के दोस्तों का आवाभगत करे, पति के साथ बाहर आ-जा सके, और शिशु पालन में आधुनिक पद्धतियों का अनुसरण करे ना कि अपने दादी, नानी के बताये रास्तों पर चले। उसमें शास्त्रीय लक्षण एक आदर्श गृहणी के हों जो पति की सहकर्मी, सखी तथा प्रिय शिष्य होती है जिसमें सोलह कलायें पूर्ण रूप से विद्यमान हों।

जो भी हो मात्रानुसार हो।

मैं भी मात्राहीनता कर बैठता। वह भी उसी संगिनी की प्ररोचना से। वह मेरी सच्चे अर्थों में सहधर्मणी ना थी, उसे मैं वह दर्जा कभी ना दे पाया। जो भी हो मेरे मन में जीवन-संगिनी की कल्पना थी जिसके हिसाब से मैं सूक्ष्म, सुकुमार, आदर्श, उज्ज्वल जीवन-संगिनी मेरी आदर्श थी।

प्रभा क्या उस पलड़े पर खरी उतर पाई?

प्रभा कामवालियों से ऊंचे स्वर में झगड़ा करती, वह अपनी जिठानियों से भी वाद-विवाद करती, और अपनी बूआ की लड़की को बुरा-भला करती रहती।

एक दिन मैंने सुना प्रभा चिल्ला-चिल्ला कर कह रही थी, ''अपनी ममेरी बहन का ऐसा सर्वनाश तुम कैसे कर सकीं? तुम्हें इस पाप की सजा मिलेगी।

हाथों, पैरों में कोढ़ और भयंकर बीमारी से तुम जमीन पर पड़ी रहोगी, कोई भी तुम्हें तीनों कुलों में से एक बूंद पानी मुंह में डालने तक नहीं आयेगा।"

सुनकर मैं तो सकते में आ गया। बड़ी भाभी जो निर्मला की ही तरह शान्त और गऊ जैसी सीधी थी (जिन्होंने निर्मला को शिक्षा दी थी)। उन्हें इस प्रकार से गाली-गलौज और श्राप दे रही थी। सिर्फ उन्हीं को ही नहीं। उनके छः-सात लड़के लड़कियां भी थे उन्हें भी वह मारे डाल रही थी।

बड़ी भाभी एक व्यंग्य की हँसी हँसके बोल रही है, "तीनों कुल में ही कोई ना रहे तू, तो रहेंगी।"

प्रभा-"अच्छा। मैं तो तुम्हारे गुणवान देवर के साथ निर्वाह कर जिन्दा रहूं तभी?"

मैं मन-ही-मन बोला-तुम टिको या ना मैं तो यहां नहीं रहूंगा। मेरे यहां की गृहवास की समाप्ति घटने जा रही है।

मैं करीब डेढ़ बरसों से यहीं था। हां, पारिवारिक कारोबार के सिलसिले में बीच-बीच में दो-चार दिनों के लिए कलकत्ता जाता था। अब यहां से पत्ता काटना है।

ताया जी को बताया-मैं कलकत्ता जा रहा हूं। वह बोले-उस दिन गये-अब फिर। '

मैंने कहा, "और जबरदस्ती करके ही कहा यहाँ तय किया है वहां पर ही रहूंगा।"

ताया जी ने भौंहें सिकोड़ी। फिर गम्भीर स्वर में बोले-"अच्छी बात है घर से एक पुरानी दासी को ले जाना, मैं मानदा की मां के जाने का बन्दोवस्त किये देता हूं।"

दासी, पुरानी दासी इस बात का अर्थ मैं ना पकड़ पाया। मेरा वैराग्य, कृच्छसाधना, स्वपाक सब परिहास के विषय बन गये हैं, फिर पुरानी बुराई की बात ही वे ज्यादा करके याद रख रहे हैं?

कलकत्ते में जाकर ही मेरा चरित्र खराब हो जायेगा तभी मुझ पर पहरा देने के वास्ते एक बूढ़ी दासी को भेज रहे हैं।

अचानक यह भी ख्याल आया था कि मेरी मां को भी तो भेजने की बात कह सकते थे। इसका मतलब था उनकी नजरों में परिवार की कीमत बेटे से ज्यादा थी। चाहे वो गलत रास्ते पर जाता है तो जाये।

मतलब 'पति पुत्र' कहकर जितनी भी बड़ाई करे, औरतों का मूल्यबोध दोनों के प्रति समान नहीं रह सकता।

मैं खिजिया गया-वह मानदा की मां क्या करेगी? उसे ले जाकर मैं क्या करूंगा? ताया जी झुंझला गये-तुम्हारे लिये नहीं नई बहू को तो जरूरत पड़ेगी।"

नई बहू है, प्रभा को उद्देश्य कर।

निर्मला मझली बहू थी, प्रभा को भी उसी पदवी पर आसीन होना चाहिए था पर किसी ने भी उसे उस आसन पर नहीं बिठाया।

हालांकि मेरे नौमें चाचा की दूसरी पतनी को सबने उनके अनुरूप सम्मान दिया है, हम उन्हें नौमी चाची कहकर बुलाते हैं।

जो भी हो नई-बहू सुनकर समझ गया ताया जी मेरे कलकत्ता वास का अर्थ पत्नी को साथ ले जाने का लगा रहे हैं।

ताया जी की आधुनिकता पर मैं हँस सकता हूं इतना तो अधिकार है-"आपकी नई बहू कहीं नहीं जा रही वह स्वस्थान में ही वास करेंगी।''

क्यों? ताया जी ने पलटकर पूछा, "यहां तुम हमेशा नहीं रह पाओगे इसका तो पक्का पता था पर वहां तुम्हारा परिवार क्यों नहीं जायेगा?"

''मेरी इच्छा नहीं है।''

ताया जी कुद्ध हो गये-पृथ्वी को सब तुम्हारी इच्छानुसार नहीं चल सकता।

9

अगर जाओ तो बहू को ले जाना ही होगा।

समझा यह था कलकत्ते में वास के विरोध, क्रोध का प्रदर्शन। फिर यह प्रश्न हर ओर से छिड़ा।

कलकत्ते में रहने का अर्थ ही था घर, पत्नी-जिसके पक्ष में कोई अपना मंतव्य जाहिर करता तो कोई उसके विपक्ष में कहता।

किसी ने कहा, "ओह इसका मतलब बीवी को लेकर शहरी बनने जा रहे हो?"

कोई कहता, "जाते हो तो जाओ पत्नी को लेकर ही जाना चाहिए।''

मां ने भी ऐसा ही कुछ कहा।

मैं बोला, "जिसके भय से देश त्यागी बनने चला था उसी कंधे पर लाद कर ले जाऊं?"

मां बोली, "जब भार लिया है तो तब ले जाना ही पड़ेगा।''

विभूति जो मेरा चचिया भाई था उसका प्रसंग छेड़ा। विभूति तो छोटी बहू को कानपुर ले कर नहीं गया।?

मां ने सार में कह डाला, "उसकी बात और है।"

क्यों, अलग क्यों?

मां थोड़ा चुप रह कर धीरे से बोलीं, "उसके प्रति किसी को कोई शक नहीं है।"

''उफ इसका मतलब मेरे प्रति शक करते हैं।"

मां चुप रहकर बोली, "अगर हो भी तो बेवजह नहीं है।"

मां इतनी स्थिरता से बात भी कर सकती हैं, यह मुझे निर्मला की मृत्युपरान्त पहली बार मालूम पड़ी थी। अब तो बीच-बीच में ही देखने को मिलता हैं। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं है मैं मां से हार मान लेता।

तब मैंने मां की तरह ही कायदे से कहना शुरू किया, "अगर कारण हो भी तो क्या तुम्हारी नई बहू उसे रोक पायेगी?"

मां ने कहा, "कोई किसी को कुछ नहीं कर सकता। फिर भी तुम्हें उसे ले जाना ही होगा। यही उचित है।"

मैं व्यंग्य की हँसी हँसा, कहा, "क्यों' मां तुम्हारे सनातन परिवार की वधु को शहर वाले मकान में ले जाना ही तो पाप-कर्म में शामिल था, अचानक संस्कारों में परिवर्तन कैसा?"

मां-"इस विश्व में हर पल ही तो परिवर्तन होता जा रहा है।"

होने दो-"यह घर अचल रहेगा। मैं अकेले ही कलकत्ता जाऊंगा।"

मां के चेहरे का रंग परिवर्तन होने लग। वह पास में आकर बड़े ही असहाय विनीत स्वर में अनुरोध करने लगी तू नहीं रहेगा तो इस आग को कौन सहेगा? मां की उत्तेजित तथा लाचार चेहरे की भाषा पढ़ने में मुझे जरा भी वक्त नहीं लगा। उस एकमात्र व्यक्ति ने ही मां प्रभा के प्रति की भावना को दिन के उजाले की तरह साफ प्रगट कर दिया। समझ गया मां भी कितनी लाचारी से इस प्रकार की बात कह पाई होगी।

लेकिन मैं भी बड़ा जिद्दी था अगर किसी को परास्त करने का मौका मिले तो उसे गंवाना नहीं चाहता था तभी तो स्वयं को स्मार्ट समझता था। उसी स्मार्ट वेष का प्रदर्शन मां के प्रति कटु वाक्य प्रयोग करके भी कर लेता था। तभी तो मां को सहानुभूति दिखाने के बदले मैंने यही कहा-"ना रहने से अब कैसे पार पा सकती हो यह तो स्वयं के हाथों से जलाई गई आग है, जिसे तुम लोगों ने ही यह कह कर जलाया था, बड़ी बहू की ममेरी बहन, हमारी देखी-सुनी है। तब तो कितनी ही बातें मैंने सुनी थीं।

मां दो, एक दिन देखने में क्या समझ आ सकता है? जानी-पहचानी लड़की। यह सब नहीं तुम लोग मुझे सजा देने के लिए एक अस्त्र लाये थे या मुझे वश में करने वाली वशीकरण-मिल गया है?

मां-मुझे जो भी कह ले, मेरा कुछ नहीं होगा पर घर में यह सारी बातें ना रहें। तू अपने साथ ही बहू को लेकर जा। उसी में ही भलाई है?

मैं हँस पड़ा-"किसका भला, मेरा, तुम लोगों का या तुम्हारी उस बहू का?"

मां धीमे से बोली-"शायद सभी का।"

''मैं इस पर विश्वास नहीं करता पर तुम अगर आदेश करो तो ले जाना ही पड़ेगा।"

मां ने थोड़ा मुस्कुरा कर कहा-ठीक ही हुक्म करती हूं। मैंने मन-ही-मन कहा ठीक है।

लेकिन ठीक को बेठीक करने का अधिकार किसी और पर भी था। उस असल अधिकारी ने ही रोड़ा अटकाया-"मैं नही जाऊंगी।"

जैसे विचारप्रार्थी बोल उठा-"मेरे लिए वकील करने की आवश्यकता नहीं, मुझे रिहाई नहीं चाहिए।"

हरेक की जबान पर यही बात थी नई बहू कलकत्ता नहीं जाना चाहती। इस घर की और जितनी बहुएं थीं, या जो नई आई हैं उनके लिए प्रभा का जाना सौभाग्य का विषय था वे ईर्षा भी कर रही थीं तभी तो कोई-कोई ईर्ष्या-वश कह उठी, "यह सब बहानेबाजी है अपना कदर बढ़ाने के लिए। कोई यह भी कहने लगी-कितनी बुद्धू है।"

कोई यह भी कहने लगी-मतलब झगड़ा हुआ है, तभी तो मझले बाबू कलकत्ता जाने की धमकी दे रहे हैं।

नहीं तो शहर में जाने का अवसर पाकर भी कोई पागल ही उसे खोयेगा। यह सारे समाचार मुझे चचेरी बहनों द्वारा मिल रहे थे।

रात में आमना-सामना हुआ।

मैंने बात नहीं छेड़ी थी। जानबूझकर ही नहीं छेड़ी थी। मैं यह दिखाना चाहता था यह एक तुच्छ घटना है जो मुझे याद नहीं है। थोड़े इत:स्तत के बाद प्रभा ने ही छेड़ा, कहा-मुझे कलकत्ता ले जाने की बात क्यों हो रही है?''

मैं अवज्ञा से कहने लगा-जिन्होंने उठाई है वही जाने।

''ओह तुम नहीं चाहते?''

कहकर प्रभा ने एक विद्रूप की हँसी छोड़ी उसने मेरा हाल जान लिया या यह समझ रही है मैंने पीछे से लाठी घुमाई है।

उसके मांसल चेहरे पर व्यंग्यात्मक मुस्कान मुझे जहर प्रतीत होने लगी।

उस जहर को मैंने स्वर में मिला कर कहा-प्रभा ने अलस व्यंग्य का त्याग कर, तेज व्यंग्य का आश्रय लेकर कहा-क्यों? तुहारी आपत्ति क्यों? अपने आश्रम में ले जाकर ही शत्रु का वध करने की अधिक सुविधा है।''

मैंने कहा-इस मनोभाव का पोषण कर तुम आंख में सुरमा लगा कर मेरा मन मोहने आती हो? ''इसके अतिरिक्त चारा क्या है? प्रभा का गुस्सा उतरा-जिनका अन्न खाना है उन्हें तुष्ट तो रखना ही है।''

मैं अवज्ञा से कह उठा-''मन कैसे मोह सकती है इस बात का ज्ञान तुम्हें है?''

प्रभा-था तो नहीं पर तुम्हारे यहां आकर सीखना पड़ा। ऋषि मुनि का मन पाना ही मेरा धर्म था।''

''तुम्हारी शिक्षा बेकार ही गई।''

प्रभा का क्रोध आंसुओं में बहने लगा।

उसे कष्ट से दबाकर वह बोली-मेरा सब कुछ बेकार गया। रूप, यौवन, विवेक, बुद्धि। गरीब की बेटी थी उसी अपराध से मैं दहूजे के पल्ले पड़ी। मैं कलकत्ता नहीं जाऊंगी। ठीक है सब जो है।

''मैं तो बच गया। सबको बता देना।''

''बताया था फिर भी सब जबरदस्ती कर रही थीं। मैंने कहा है मुझे मार डालो फिर भी नहीं जाऊंगी। किसे पता है मुझे अकेले पाकर तुम मुझे जहर ही पिला दो?''

मैंने कठोर स्वर में पूछा-तुम्हारे सन्देह की वजह।

तब वह बोली, ''अब भी कहते हो। पहले भी किसी और को भी कहा होगा।''

प्रभा अचानक निर्मला की तरह ही पलंग से उतर गई। कहा-कारण मुझे नहीं पता पर हमेशा सन्देह होता है।

''क्यों? तुम यही समझती हो कि मैंने ही निर्मला के गले में रस्सी डालकर लटका दिया?''

प्रभा थोड़ी बढ़ी-अपने हाथों से क्या सब करना पड़ता है?''

अचानक मैं डर गया। प्रभा भी क्या धीरे-धीरे दरवाजा खोलकर निकल कर-फिर किसी समय मेरे पास प्रश्नों की झड़ी लगेगी-मझले भैया नई बहू कहां है?''

मैं उस भय से तटस्थ होकर दूसरे स्वर से बोला-मैं क्या अत्याचारी लगता हूं?

कहने के बाद मैं अपने आपको धिक्कार करने लगा। प्रभा चिटकिनी नहीं खोलने जा रही थी। वह तो सुराही से पानी पीने जा रही थी।

प्रभा की साड़ी कमर से नीचे खिसक रही थी, जूड़ा वेणी में परिवर्तित होकर झूलने लगा था, इन सबका अर्थ था प्रभा जितना भी मिजाज दिखाये मगर स्वयं को शिथिल करके यहीं रहना चाहती थी। वह इस पिंजरे से उड़ना नहीं चाहती।

10

प्रभा अभ्यासवश सुराही से गिलास में पानी ना डालकर पूरी सुराई ही मुंह से लगाकर मुंह को पूरा खोल कर पूरा पानी गटक गई। फिर हॉफ कर खाट के किनारे बैठ कर बोली, ''सारे अत्याचार क्या नजर आते हैं। इसके अलावा तुम्हारे साथ रहने का फायदा क्या है? औरत होकर जनम लेकर भी मां तो बन नहीं पाऊंगी तब देर रहना ही श्रेयस्कर है। उससे लोक-लाज जो कायम रहेगा।

हां। मेरी दूसरी पत्नी ने उस दिन ऐसी अजीब बात कर डाली।

पहले तो मैं समझ ही ना पाया। जब समझा तो पूरे शरीर में विद्युत की लहर फैल गई।

मैं दबे गले से गरजा-मतलब क्या है?

वह भी टस से मस ना हुई-बिना अविचलित हुए बोली, ''अर्थ तो साफ है। इतिहास से ही पता चल जाता है। पहली पत्नी के साथ तीन बरस काटे थे वह बांझ ही मरी और मैं भी-

मैं और तेज हो गया-मरणकाल मैं तो प्रभा ने एक भद्दा भाव चेहरे पर लाकर कहा-बच्ची तो ना थी। उस उम्र में तुम्हारी ताई जी की गोद में दो बच्चे आ गये थे। ''बड़ों की बात जाने दो। मैं कठोर बोलकर बोला-फिर दोनों की बात ही कहती हूं। मेरे भी दो बरस हो गये हैं। मेरी सत्रहवीं वर्षगांठ ब्याह के पहले ही निकल चुकी थी।

उसने इतनी स्पष्टता से गन्दा इशारा किया जिससे मेरा अंग-अंग जल उठा मैं स्वयं ही दरवाजा खोलकर निकल आया।

डरिये नहीं-मैंने ना तो रस्सी की खोज की ना जहर की। अगर ऐसा होता तो कौन इस समय धर्मावतार के दरबार में खड़ा होता? किसी तरफ उंगली उठाकर विरोधी पक्ष का वकील कहता-देखिये धर्मावतार कितना भयानक इन्सान है। एक के बाद एक ब्याह किये और बीवियों को...।

हां, उस बातूनी वकील को मैंने ही बाक्चातुरी दिखाने का मौका दिया था।

उसने भी बड़े ही रसीले ढंग से कहा था-देखिये महामान्य-उसकी प्रथमा गले में फांसी लगाकर मरी, द्वितीया को भी उसने बिना किसी दोष से त्यागा था-और...।'' अगर युक्ति दिखाई जाए तो बिना किसी दोष के पर क्या सारे दोष क्या ऊपर से नजर आते हैं? मेरी पत्नी जीवन-साथी अगर मेरे मानसिक आदर्श के अनुरूप नहीं हो तो वह भी उसे त्याग करने की वजह नहीं बन सकती?

बाद में उसका चरित्र बिगड़ गया था पर उसे मैं दोष में नहीं गिनता, उसकी वजह से अगर मेरे परिवार या वंश पर कलंक लगा तो कोई उस पर आह कर उठे तो वह काफी हास्यजनक है। क्योंकि मैंने ही जिसको त्याग दिया उसके साथ मेरे वंश का कैसा सम्बन्ध है?

लेकिन यह बात क्या मैं जिद्दी एवं कठोर पिता, ताया, चाचा को समझा सका। उस कलंक की वजह से ही मेरे ताया जी को दिल का दौरा पड़ा, पिताजी निम्न रक्तचाप के मरीज हो गये। चाचाओं ने उसी शर्म से मेरे सम्पर्क विच्छेद कर लिया।

सम्बन्ध विच्छेद के बाद उस कलकत्ते वाले मकान में रहना ना सम्भव था। किस हिसाब से रहता मैंने तो सम्बन्ध विच्छेद के बाद हिसाब-रक्षक का पद भी त्याग दिया था।

इस प्रकार एक स्त्री को त्याग करके कई चीजें त्यागनी पड़ गई थीं।

ओर उस भयावह मुहूर्त में और भी कुछ कुछ त्यागने का संकल्प ले लिया-घृणा, लज्जा, भय, नीति दुर्नीती, विवेक।

मैंने संकल्प किया इन सबके विनिमय में सुख क्रय कर लूंगा।

सब कुछ हार कर भी लोग जुआ नहीं खेलते। यथासर्वस्व बिको पर पक्का दालान नहीं बनवाते? माथे के बाल बेचकर एक दुकान नहीं सजाते?

और सब-कुछ बेचकर ही काली लड़की का ब्याह अच्छे घर अच्छे वर के साथ नहीं देते? यही सारी बातें या उदाहरण इसी संसार में ही हर पल घट रही हैं।

सर्वस्व त्याग कर 'कुछ' आ हरण या संग्रह करने का दृष्टान्त मैं दृष्टव्य करा सकता हूं और कुछ भी दिखा सकता हूं।

तभी तो अपने संकल्प को मैंने स्वाभाविक माना। यह तो कोई अजीब या संसार से पृथक् नहीं। मैंने सोचा था मेरे उन अदृश्य संस्कारों से हर पथ पर बाधा मिलती है या जिससे मुझे कोई लाभ नहीं है। उन्हीं को गिरवी रखके मैं 'आनन्द' का क्रय करूंगा।

तभी तो उस आनन्द या सुख का पथ खोजते-खोजते मैं बड़ा बाजार पहुंच गया था। बड़ा बाजार नहीं जाता तो उन बड़ी-बड़ी चीजों को कैसे बेचता, कहां से खरीददार पाता?

वहां-गली या गलियों की खाक छानते-छानते मुझे एक दिन खरीददार मिला, जिसे मैंने अपने सम्पर्दां का संग्रह 'आत्मा' को बेच दिया। तभी उसके बाद अकस्मात् मेरी मर्यादा भी बढ़ गई। मैं अमीर बन गया था।

मैंने अपने दीक्षा-गुरु से अमीर होने के सारे गुर सीख डाले, तभी तो अमीर में क्रमश: बना उसके लिए कई सीढ़ियां भी चढ़नी पड़ीं। पर मैं चढ़ता ही चला गया। मेरे अमीरीपन का पता आपको भी लगेगा।

यह सोचकर आप आश्चर्य कर सकते हैं, मैं कचहरी में क्यों खड़ा हूं? यह तो देखा जाता है कि लक्ष्मी जी की जिस पर कृपा होती है उसे इस प्रांगण में खड़े नहीं होना पड़ता। यह तो मैं भी जानता हूं।

इसका कारण यह है पहले ऐसा अपराध भी नहीं हुआ-

मैं इस अरण्य रूपी संसार के उन बाघ, सिंहों, सूअर, जंगली कुत्तों से जूझता जा रहा था जो इन्सान की चमड़ी ओढ़ कर घूमते हैं।

अब मैंने जान-बूझकर ही सर्कस के खिलाड़ियों का कलेजा लेकर अपने आप को बाघ के सामने समर्पित कर दिया है। नहीं तो मैंने यौवनावस्था की सीमा पार करने के बाद भी यौवन जैसा ही शक्ति व मनोबल अटूट रखा है।

आप अगर यह सोच रहे है उम्र हो गई है तभी मैंने आत्म-समर्पण कर दिया, आप गलती कर रहे हैं।

यह सब तो बहुत बाद की बातें हैं। पहले अतीत में चलते हैं जहां मैंने अमीर बनते-बनते काफी दोस्त भी  बना डाले। मेरे सम, असम उम्र वाले दोस्तों के समूह में एक ही मित्र ने असल मित्र की भूमिका ग्रहण की थी।

उनकी बेटी के साथ मुझे स्वतंत्रता से मिलने-जुलने का अवसर दिया। जिससे उस कन्या को प्राप्त करने का स्वर्ण अवसर मुझे मिल गया था। जिसका नाम था पौली। मेरी तीसरी पत्नी। उसने मेरा नाम अतीन से अतनू कर दिया, जिसने मेरे बालों की शैली से लेकर जीवन-यात्रा की पूरी शैली में आमूल परिवर्तन ला दिया था।

मैं भी उसी रूप में ढला जा रहा था खुशी से, नम्रतापूर्वक और उत्साहपूर्वक। इसका कारण था मैं अपना सब कुछ देकर भी 'सुख' पाना चाहता था।

मैंने अपने जीवन का अतीत पीली से न ही छिपाया बल्कि सब-कुछ खोलकर ही बताया था।

उस वक्त हमारा प्यार परवान चढ़ रहा था। स्टीमर पर चढ़ कर राजगंज गया था। दोनों ही एक-दूसरे से सट कर बैठे थे, अचानक कहा, ''पौली, मैंने अपने जीवन के बारे में तुम्हें सब नहीं बताया।''

फिर मैंने अपना दो, दो इतिहास अनावृत किया। मेरा सुर अवज्ञा एवं कौतुक का मिश्रण लग रहा था। जब मैंने बताया तो प्रतिपादन से प्रश्न एवं मंतव्य तो अवश्य मिला पर मैं सारी बातें बता सका।

खत्म कर यह भी पूछा-सब तो सुना अब बोलो मुझे ग्रहण करोगी या त्यागोगी?

मैं क्या तब तक अपना सब कुछ त्याग ना पाया? मैंने क्या पाप-बोध के भय से अपनी भावी पत्नी को अतीत इतिहास बता डाला?

ना। बिल्कुल नहीं।

मुझे यह डर था बाद में उसे पता चले तो मुझे कहीं का नहीं छोड़ेगी। और वह तो पता पड़ेगा ही। मैंने रिश्तेदारों से मुंह मोड़ लिया था या उन्होंने मुझे व्यंग्य दिया था। पर ''जरूरत'' के वक्त वे दिखाई दे जाया करते।

जैसे मेरे वह सब चचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई, जमाईबाबू जो मेरे अमीर बनने के बाद ऐसे मेरे पीछे घूम रहे थे जैसे मधुमक्खी अपने छत्ते के चारों ओर चक्कर लगाती है, मैं भी उन्हें झपट्टा मार कर हटा देता।

पर वे क्या शान्त होकर बैठे थे? उनसे चाहे मैं ना डरता पर पौली के व्यक्तित्व सम्पन्न पिता के मैं थोड़ा कन्टकित रहता कारण यह था कि क्योंकि मेरे व्यवसाय की कुंजी उन्हीं के पास थी। तभी तो उसकी बेटी को मैं पूरी तौर से अपने वश में करने की हर सम्भव कोशिश में लगा रहता।

इसके अलावा झूठ नहीं बोलूंगा-पौली ही उस समय मेरे लिये-सुख की प्रतिमूर्ति थी, पौली के अन्दर ही मुझे अपने आदर्श जीवन-प्रिया का आभास मिला था। पौली स्मार्ट, बुद्धिमति तो थी साथ में बिना किसी की परवाह किये स्वयं को स्थापित करने की कला जानती और जानती थी अपने आपको आकर्षणीय बनाने की तरकीब।

जो-जो गुण पुरुष को मोहित करते हैं वे सब पौली के अन्दर मुझे दिखे।

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इसके अलावा उसमें सर्वाधिक बोध था 'मात्रा' का, कितना अभिमान करने से मधुर परिवेश की सृष्टि होती है, और अगर अभिमान की मात्रा में बढ़ोत्तरी हो तो वही कड़वा बन जाता है यह बोध उसे था। कितने आस 'आंसू' सहानुभूति के और कितने विरक्तिकर होते हैं। कितना अधिक या किस मात्रा में प्रेम-प्रदर्शन उद्दीपना की सृष्टि करता है और कब वह आतंक की वस्तु में परिणत हो जाता है, पौली इन सब विद्याओं में माहिर थी। तभी तो मैं पौली को पाने के लिए पागल हो रहा था।

हालांकि उस वक्त इतना विश्लेषण तो नहीं किया था-तब मैं यही सोचता था पौली को यह सारे गुण प्रकृति ने वरदान-स्वरूप दिये हैं। पौली में मुझे सुख का प्रकाश दिखाई बाद में दिया। जब पौली के साथ रहना शुरू किया तब उसे विश्लेषण करने का मुझे नशा-सा हो गया था।

पर एक बात मैं आज तक ना समझ पाया कि पौली क्या इसी अहंकारवश बदलती जा रही थी कि उसने एक इन्सान के जीवन में दैवी स्वरूप स्थान पा लिया है या उसके दोषों में ही मुझे गुण प्रतीत होते थे।

जब मैं पौली के साथ घूमता था तब वह आनन्द, उल्लास की प्रतिमूर्ति थी। वह किशोरी जैसी प्रतीत होती। जब उसके साथ गंगा के किनारे या शहर से बाहर गाड़ी पार्क करके घास पर बैठता तब वह स्वप्नमय सन्ध्या के आगोश में सिमटी रहस्यमयी भावुक नारी प्रतीत होती, जब उसके घर में जाता तब उसके अन्दर से स्नेहमयी रमणी बाहर आ जाती जो सेवा जतन से मन को हर लेती। जब बहुत लोग होते, उनके सामने वह स्मार्ट गर्ल, और जब निर्जन में हमें घनिष्ठ होने का अवसर मिलता, मेरे भीतर से वासना की अग्नि प्रज्वलित होती तो वह उसमें सामग्री डाल कर उसे और तेज कर देतीं तब वह बेपरवाह पूर्ण यौवना युवती थी।

तभी तो मैं उसे देखकर ही समझ गया इसी की मैं खोज में था अब तक।

हां, मैं बता रहा था स्टीमर में जब घूमने निकले थे तब मैंने उसे अतीत बताया।

कौतुक मिश्रित अवज्ञा से। पौली जिससे यह ना समझ बैठे दो-दो घटनाओं से मेरे मन पर बोझ है।

पौली ने ऐसा कुछ नहीं नहीं सोचा। जब सब बातें खत्म कर उसकी तरफ देखा और पूछा, तुम्हें बताना जरूरी था यह सब।

वह हँसी से लोटपोट हो गई।

वह बोली-इतने छोटे तो हो इतने सारे काण्ड हैं। मुझे तुम्हारी तीसरी बीवी का पद लेना होगा। हाय भगवान।

मैं भी नेत्रों में दुःख समेट कर बोला था, ''मैं जबरदस्ती तुम्हें किसी भी पद पर नहीं बिठाऊंगा। तुम चाहो तो तुम्हारे दोनों पखों से आकाश में उड़ना। जैसे अब उड़ती हो।

पौली ने मेरे ऊपर रूमाल से हमला कर और अजीब शक्ल बनाकर यही कहा-''शैतान लड़के। इच्छानुसार आकाश में विचरण का उपाय तुमने रखा है?''

मैं जड़ हो गया। मतलब?

पौली ने भौंहों पर बल डालकर झटका देकर कहा-''मानो अत्यन्त सरल है। तुम्हारे प्रेम-आवेग का परिणाम।

इससे तो मुझे डरना चाहिए था। पौली के पिता पाईन साहब ने मुझे अपनी लड़की से मिलने का अवसर दिया, मुझ पर विश्वास करके-और मैं!

उसके बदले मुझे अत्यन्त हर्ष का अहसास हुआ। कांचनगर से आने वाले दिन की पिछली रात्रि वाली घटना जब प्रभा ने मुझे भद्दा इंगित किया था। और मेरे मन में भी एक भय सन्देह ने जन्म ले लिया।

पौली की इस भंगिमा ने मुझे उस सन्देह से मुक्त कर दिया। अवैधानिक तो था पर मैं हर्षित हो उठा था, आवेग से उसका हाथ पकड़ कर कहा-सच। पौली ने मेरे शरीर को ठेल कर कहा-अहा इसमें इतने प्रसन्न होने की क्या आवश्यकता है-मैं तो परेशान-उस पल मैंने एक परिपक्व अभिनेता की भूमिका निभाई ''तुम अगर मेरे पूर्वजीवन के उस ग्लानिमय अध्याय को भूल सको। तुमको इसमें परेशान होने की क्या जरूरत है। कल ही तुम्हारे पिता को।''

पौली-नहीं जानती। जो मर्जी हो करो। हां, ज्यादा उत्साह में आकर पुरानी कहानियां मेरे पिता के सामने मत उगल डालना।

मैंने कहा-''वह क्या उचित होगा?''

पौली-''ठीक क्यों नहीं होगा? वह सब गड़बड़झाला सुनकर अगर पिता-तब मैं पौली के कहने पर उठता बैठता। उसकी बुद्धि पर पर्याप्त भरोसा था। तभी तो पौली के पिता के समक्ष गड़बड़ रहित निर्मल भाषा में उनकी कन्या को वरण करने का अधिकार मांगा।''

श्रीमान् पाइन ने अपने गाम्भीर्य के आवरण से थोड़ा निकल कर मुस्कान बिखेर कर कहा-शैतान-अन्दर ही अन्दर यह सब था। यह सब योजना बनाई जा रही थी। मैंने इसका जबाव प्रणाम करके दिया। लेकिन बाद में, ब्याह के बाद मेरे आंखों से एक भारी पर्दा हट गया, वह था मोह का पर्दा, क्योंकि पौली ने मुझे जिसे आशंका का भय दिखाया था, वह बेकार था। जब मैंने विस्मित होकर उससे पूछा तो उसने हँसी से उस बात को टाल दिया-''तुम हमेशा ही आतंकग्रस्त रहते हो तभी तो तुम्हें लाठी को सर्प कह कर डरा दिया।''

मैं जो इतना खुशी से फूला ना समा रहा था, वह खुशी पिचक कर गुब्बारे की तरह हो गई जो पहले तो फुला दिया जाता है बाद में हवा निकलने पर पिचक जाता है।

मैं इसी आशा में दिन गिन रहा था कब और गौरवमय परिचय पत्र को गौरवमय तरीके से कांचनगर ले जाकर सबको विस्मित कर दूंगा।

वहां प्रभा नामक लड़की ने दृष्टता से मेरा अपमान किया था, उसका क्रूर अभियोग एवं अपमान मैं धूलिसात कर उसका उन्नत सिर नीचा करके दिखाऊंगा।

जब पौली ने हँसते-हँसते कहा 'रज्जू को सर्प भ्रम' कर दिया तब मुझे यह इच्छा हुई कि इस नववधु के गाल पर एक चांटा रसीद कर दूं।

बाद में मुझे पता चला था रज्जू द्वारा 'सर्पभ्रम' नहीं बल्कि मिथ्या आतंक का जाल बुन कर मुझको रज्जूबद्ध कर डाला था।

इसका कारण था पौली के पिता जो बड़े व्यवसायी थे। उन्होंने पौली को अपने तरुण पार्टनर से मिलने-जुलने का अवसर देकर उसे यह भी कड़ा निर्देश दे दिया था कि वह मुझे रज्जूबद्ध कर ले।

मैं जब अपना अतीत बता रहा था तब उसे यह डर लगा कि शायद मैं उससे दूर जाना चाह रहा हूं।

तभी तो जल्दी से मुझे बांधा था तो यह बालू का कच्चा बांध तब भी उस समय तो काम कर गया था।

उधर श्रीमान पाइन भी क्या अपने भावी दामाद के दो बार शादी का वृत्तान्त सुनकर सिहर उठते-नहीं-

क्योंकि उन्होंने मेरा साक्षात्कार करने के बाद ही जब मुझे जामाता रूप में ग्रहण करने का निश्चय किया तभी एक दूत गोपनीय रूप से कांचनगर भी भेज दिया था।

वह मेरा नाड़ी लक्षण का पूरा ब्यौरा ही ले आया था।

और जब जान गये कि मैं परिवार का त्याग दिया गया पुत्र हूं तब वे पूरी तरह से निश्चिन्त हो गये थे।

यह सब मैं ब्याह के पश्चात् ही जान पाया और जानकर मेरा मोहभंग भी शुरू हो गया। आप लोगों के मन में यह जिज्ञासा हो सकती है कि पौली तो एकमात्र सन्तान थी, पाइन साहब के पास दौलत की कमी ना थी, फिर मेरे जैसे ''थर्ड हैन्ड'' के साथ अपनी कीमती बेटी को बांधने के लिए क्यों व्यस्तता दिखा रहे थे?

यह भी गूढ़ रहस्य था।

वह गूढ़ रहस्य था, बेटी से ज्यादा वे अपने व्यवसाय को महत्व देते थे-उस व्यवसाय या कारोबार को एक योग्य पात्र के हाथ में देने की योजना में थे-वह योग पात्र उन्हें मेरे रूप में मिल गया।

लेकिन दोनों को एक ही पात्र को ना सौंपते तो विरोध या टकराव होता। तभी तो अपनी बेटी को उस पात्र के सामने ला कर खड़ा कर दिया।

इसके अलावा मिस पाइन का कोई 'अतीत' नहीं है-कौन कह सकता है?

शादी के एक बरस के बाद जब पौली को सच में बच्चा हुआ तब नर्सिंग होम के डॉक्टर ने क्यों कहा था-इतना क्यों घबड़ा रही हैं? पहला बच्चा तो नहीं है। पहली बार में...।

पौली जोर से हँसी-''क्या पागल की तरह बात करते हैं। मेरी शादी को तो अभी ग्यारह महीने ही हुए हैं।''

डॉक्टर ने भौंहें सिकोड़ कर एक बार मुझे और एक बार पौली को ऊपर से नीच देखकर 'शौरी' कहा।

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पौली ने बाद में कई बार उस डॉक्टर की उस बात को याद करके मजाक किया और उसकी विलायती डिग्री की खिल्ली उड़ाई। मैं भी उस नवजात शिशु को अपनी प्रतिच्छवि समझ कर आनन्द से पागल हो गया तभी तो उस बात पर गौर नहीं किया था। फिर भी खट से उसकी हँसी कानों में बज रही थी, जब वह डॉक्टर का मजाक बना रही थी।

जाने भी दे उस बात को फिर भी पौली के साथ मेरा मतान्तर उस बच्ची को लेकर ही प्रारम्भ होने लगा।

पौली के लिए मातृत्व एक दुर्घटना मात्र था। वह उसके लिए महिमामय कुछ भी न था। उसके लिए वह अपने स्वाधीन, स्वच्छन्द जीवन यात्रा में बाधा नहीं डाल सकती थी।

बच्चे को आया के हाथ में सौंप कर निश्चिन्त हो गई। मुझे यह बुरा लगता था। मेरे मन में अतीत की सारी स्मृतियां हिलोरे लेतीं जो कांचनगर के मातृत्व से सम्बन्धित होतीं, माओं का शिशु के प्रति पूर्ण समर्पित जीवन जो उनके लिए ही जीती थीं। क्या मैं अतीन से अतनू बन कर भी कांचनगर के बोस परिवार का संस्कार अपने रक्त में बहन कर रहा था? शायद कोई इंसान जो सच में पुरुष है वह कभी अपने पूर्व संस्कार से मुक्त नहीं हो सकता। जब उम्र ढलती जाती है, खून में गर्मी कम होने लगती है-तब पूर्वजों का रक्त प्रबल जोर से ठाठें मारने लगता है।

जब मैं कहता-बच्चे को तेल लगाकर धूप में रखना चाहिए और बच्चे तो पहले मां से ही खाद्य ग्रहण करते हैं?

पौली ने अपने शैम्पू वाले छोटे बालों को झटका दिया, लिपिस्टिक लगे होंठों पर मुस्कान लाकर कहा-''तुम्हें क्या हो गया है? क्या पचास बरस पीछे वाले युग में चले गये हैं? वच्चों को तेल लगाकर धूप में-ही, बच्चों का स्तनपान-हाय लगता है किसी आदिवासी क्षेत्र के लोगों का जीवन वृत्तान्त सुन रही हूं।''

मैं स्वयं को आपे में रख लेता-''तुम इन सब बातों को हँसी में नहीं उड़ा सकतीं-इनमें भी अवश्य वैज्ञानिक अर्थ है।''

है जरूर है, पौली अपने सुनहरे छोटे बालों को लहरा कर (जिन्हें देखकर मैं मुग्ध हुआ था) हँस कर कहती- ''कमर में धागा, हाथ में लोहा, इन सबका मतलब तुम क्या निकालोगे?''

मैं शर्मा जाता और चुप हो जाता। मुझे पौली काफी आधुनिक लगती, मेरे से तो ज्यादा ही। तभी तो अपने को उससे घटिया माना करता।

श्रीमान पाइन भी तो उसी की तरफदारी करते। दादा, नाना तो हमेशा बच्चा देखकर खुश होते हैं यह तो पुरानी बात है, यह बूढ़ा तो उसकी ओर देखता तक ना था। आया अगर उसे पास लाती तो-कमरे में ले जाओ-कहता।

हां, एक बात कहना तो भूल ही गया। उस वक्त मैं काफी लम्बे समय तक ससुराल में रहा फिर मेरा मकान आमीर अली ऐविन्यू में बना। फिर सेन्ट्रल ऐविन्यू का वह चारमंजिला प्रासाद-जिसकी छत पर फुटबौल खेल सकते हैं।

पौली एक दिन चढ़कर बोली-सिर चकराता है, चक्कर खाकर छत से गिरी नहीं-पौली पौली तो।

वह तो बाद में।

पौली के साथ ही मैंने लम्बे समय तक विवाहित जीवन जीया। उसमें सब कुछ प्रबन्ध आ संभालने की अपरिसीमित क्षमता थी। किसी भी मुश्किल परिस्थितियों को या अपने दोष को वह बातों की चातुरी तथा हँसी के कौशल से सुधार लेती।

क्योंकि उसके अन्दर मानसम्मान का लेश नहीं था। सुविधा या लाभ की खातिर वह कुछ भी नहीं कर सकती थी।

पौली ने एक बार क्या पीड़ित या अनावृष्टि से पीड़ितों के लिए एक चैरिटी-शो का सुन्दर कार्यक्रम किया-जो उसकी समाज सेवा का एक अंग था। उसका खर्चा निकालने के लिए एक 'स्मारिका' भी प्रकाशित की।

उसके लिए विज्ञापन संग्रह करने के लिए पौली अकेले गाड़ी ड्राइव करके निकलती थी।

शायद अकेले जाने का यही उद्देश्य था। कोई भी उसकी गतिविधि या आवेदन पद्धति का गवाह ना रहे। पिता के बिजनेश के कारण उसके साथ कई शिल्पपतियों की जान-पहचान थी-मिस्टर पाइन का नाम सुन कर कइयों ने पहचाना-बारह-तेरह हजार रुपया उसने विज्ञापन से संग्रह किया था। पौली ने सफलता के गौरव से गौरवान्वित मुखमण्डल से कहा-देखा मेरा कमाल।

स्वीकार करना पड़ा उसकी दक्षता को। क्योंकि तब भी हमारा सम्बन्ध माधुर्य के पर्याय पर था करेले का कड़वापन उसमें नहीं आया था।

स्पष्ट शब्दों में साफ बात कह कर उसे गुस्सा नहीं दिलाना चाहता था।

मैं यह कह सकता था यह तो कमाल है तुम्हारी सुन्दर देहयष्टि का जिसे? तुम इतना आकर्षक बनाके निकलती हो उससे तो उन अमीर तोंद वाले लोगों का दिल धड़कने लगता होगा या पता नहीं वे सब हार्ट फेल करके मर गये हों?

पौली ने सज श्रृंगार की कला को अपना बांदी बना के रखा था। वह पांच-छह टुकड़े साड़ी, ब्लाउज पहन कर भी शरीर के उन अंगों को निरावरण। रख पाती, जिन्हे देखकर कोई भी फिदा हो सकता था।

मैंने एक बार यह भी कहा था-विज्ञापन संग्रह करने निकल रही हो या विज्ञापन देने जा रही हो?

इस बात से ना तो वह शर्माई ना क्रोधित हुई बल्कि चेहरे पर आत्मविश्वास की मुस्कान लाकर बोली-''ना देने से क्या कुछ पा सकते हैं। कुछ करने के लिए कुछ तो खोना ही पड़ता है। कोई वस्तु बिना मूल्य बिकती है?''

पौली का यही हिसाब था-सीधा-साफ-दाम दो वस्तु लो।

लेकिन किस वस्तु का कितना मूल्य हो सकता है इस बात से वह नावाफिक थी। तभी तो विज्ञापन संग्रह अभियान में उसने अधिक मूल्य दे डाला। पौली जब बाहर निकलने लगी तो बेबी की आया ने प्रशंसा और खुशामद दोनों लहजों से पूछा-दीदी इस साड़ी का क्या दाम है?'' कितना मूल्य?

इसका मतलब उसके ऐख्तियार है या नहीं यही जानने की चेष्टा। क्योंकि वह भी कम नहीं है, अमीर घराने के बच्चे की आया, उसका मान, पैसा सबकुछ है। तनख्वाह तो जमता है। जमा करके क्या वह दीदी की तरह पतली नरम दामी साड़ी नहीं खरीद सकती?

पर उसकी कोशिश में पानी फिर गया। उसकी दीदी जी मुंह टेढ़ा करे हँसके बोलीं-खरीदोगी क्या पहनने से तुम खूब खिलेगा।''

मद्रासी आया की काली और मोटी बेढ़ंगी देहयष्टि पर उस झीनी साड़ी की कल्पना करना ही हास्यकर था।

अगर वह सुन्दर है तो उसका ढिढोरा पीटने की चेष्टा भी क्या कम हास्यप्रद नहीं।

जाने दे। जी जान लड़ाकर पौली ने उन्नीस हजार रुपये इकट्ठे किये। वह तो काफी बड़ा काम था। खर्चे का पन्द्रह हजार रख कर उसने बाकी चार हजार दुखियों को भेजे भी थे।

इस समाज-सेवा के फलस्वरूप कुछ भक्त बन गये जो उसके समाज के नशे थे। पहले पौली इस श्रेणी के लड़के,-लड़कियो के सम्पर्क में नहीं आई थी। पहले इन्हें वह नीची नजर से देखा करती थी। अब वे इस घर में आकर समादर से चाय पीते, बिस्कुट खाते और चानाचूर भी खाते। पौली उन लोगों को लेकर मग्न हो गई थी।

उधर बच्ची की दुख की सीमा नहीं थी, कहां मां, कहां बाप। उसका एकमात्र आसरा होता है उसकी आया। अब वह बड़ी हो रही थी। लोगों का साथ चाहिए था। मुझे दुख होता। मैं अपने हृदय का पितृस्नेह वाला प्यार देना चाहता पर मेरे पास वक्त कहां था?

एक दिन उससे अनुरोध किया। तो पौली मनोहरी हँसी से-मुझे ही वक्त कहां है?

वाह, तुम्हारा इतना क्या काम है? ''क्या मेरा कोई काम नहीं है, तुम क्या सोचते हो मैं पैरों पर पैर रख कर खाती हूं सोती हूं?''

''वह बात नहीं है, तुम उसकी मां हो तुम्हारी जिम्मेदारी है उसे पालने की अगर उसके बड़े होने के समय में उसका साथ ना दे सको...''

पौली ने मुंह को बिगाड़ कर कहा, अब रहने भी दो। दया करके पुराने जमाने की भावप्रवण कथामाला का जाप ना करो। तुम मेरा मत तो जानते हो, मां बनना एक दुर्घटना मात्र है मेरे लिए। कृत्रिम गौरव जो मातृत्व को मिलता है वह सिर्फ ढकोसला है-बनावट है जिससे बच्चे को मां मन लगाकर पाले।

मैंने जीवजगत के प्राणियों का वास्ता दिया। उनके समाज में शिशु पालन के लिए किसी कृत्रिम गौरव का प्रलेप नहीं है, तब भी मातृमहिला उनमें इन्सानों से किसी भी प्रकार कम नहीं पाई जाती।

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मैं और भी इस विषय की व्याख्या करना चाहता था पर पौली ने सुना ही नहीं। वह बोली-''वह जैव प्रेरणावश होता है। आहार, निद्रा की तरह, उनके लिए बच्चा बड़ा करना भी प्रकृति प्रदत्त ही है। उसे अपनी युक्ति का हथियार मत बनाओ। क्यों मैं क्या बेबी से प्यार नहीं करती? एक सुन्दर, गोल-सी प्यारी बच्ची जो मेरी अपनी है, उसको जितना प्यार करना चाहिए मैं उतना ही प्यार करती हूं। तुम्हारी तरह स्नेह भार से आक्रान्ति नहीं रह सकती।

पौली अपने कंधों को नचा कर जिस पर छ: इंच कपड़े से तैयार ब्लाउज की दो उंगली की साइज की बांहें भी थीं और छोटे बालों को लहरा कर मेरे ऊपर रूमाल से प्यार का थप्पड़ लगा कर चलती बनी।

पौली का यही गुण है-वह कभी भी परिस्थिति को बिगाड़ती नहीं थी। जब वह गुस्सा भी होती तब भी उसमें एक संयम रहता था। तभी तो उसके साथ में ज्यादा दिनों तक निभा सका। छोटे-छोटे वादानुवाद तर्क प्रदर्शन, फिर मत विरोध होते थे पर जैसे सब ठीक भी हो जाते थे। इसी तरह रात-दिन का पहिया अपनी लय से चलता रहता था। इन्हीं सबके बीच कब बेबी भी धीरे-धीरे बड़ी होती गई।

इसी समय काल में एक दिन कांचनगर से पिता का मृत्यु समाचार भी मिला। मैं ही एकमात्र पुत्र था, श्राद्धाधिकारी उसी हिसाब से मुझे बुलाया गया।

पिताजी नहीं हैं, यह मैं बार-बार रटता रहा और इसे कहते-कहते जैसे मैं इस खबर को अपने मन में बिठा रहा था। मन में विश्वास जगा रहा था-हालांकि मैं दूध पीता बच्चा ना था कि मृत्यु की खबर को अविश्वास्य मान बैठता। यह भी एक प्रकार का मेरा बचपना या खामखयालीपन कह सकते हैं।

पिता के मरने का मतलब था मां का विधवा होना-अब से जो मझली बूआ की तरह एक सफेद कपड़े का टुकड़ा लपेट कर बैठी रहेगी। सोचता जाता पर इससे ना तो मन में हताशा का उदय होता ना ही आंखों में आंसू के दो कतरे।

तब क्या मैं हृदयहीन या मेरी हृदय रूपी सम्पत्ति दिवालिया हो गई है। मुझे डर लगा। मुझे क्या सुख-दुख की तीव्रता की समझ नहीं। मैं क्या अनुभूतिशून्य बन गया।

मेरे पिता नहीं हैं। मैं इस बात का भी अफसोस नहीं करता कि आखिरी समय में उन्हें देख भी ना पाया और मां को कैसे विधवा वेश में देख सकूंगा? ज्यादा सुख की चाह रखने वाले का क्या यही परिणाम होता है?

मेरा एक चचेरा बहनोई खबर देने आया था जो यहां कहीं पास में रहता है।

उससे मैंने कहा-मैं तो अनाचारी हूं वंश का कलंक हूं। मैं कैसे श्राद्ध कर्म का दावेदार हो सकता हूं?

बहनोई हँसने लगा-पंजिका में जहां श्राद्धिकारी की क्रमानुसार तालिका रहती है वहां कहीं भी इस तथ्य की पुष्टि नहीं की गई है कि अनाचारी, चरित्रहीन पुत्र श्राद्ध नहीं कर सकता। हां, अगर वह धर्म का त्याग करे तभी इस अधिकार से वंचित किया जाता है। तुमने क्या हिन्दू धर्म का त्याग करके किसी दूसरे धर्म को ग्रहण किया है?

मैं जोर से अट्टहास कर उठा।

इसी पल पिता का मृत्यु समाचार सुना फिर जोर से हंस उठा-''दूसरा धर्म, पागल तो नहीं हुआ। असल में मैंने धर्म नामक विषय पर कभी भी सिर नहीं खपाया। हिन्दू धर्म को ना मैंने विसर्जित किया है ना ही कभी ज्यादा जोर से पालन किया। जन्मसूत्र से अगर वह धर्म मेरा है तो जरूर है, नहीं तो कब का अलग हो गया है। मैंने हिन्दू धर्म की उतनी भी परवाह नहीं की, कि मैं जोर गले से उसे त्याग करने की बात कह सकूं। ना है 'आमन्त्रण' या है 'त्याग'। बहनोई-उससे ही काम चलेगा। मैं भी कितना धर्म का झंडा फहराता फिरता हूं बेटे की बेटी शादी या वेटी का ब्याह या मां-बाप के श्राद्ध के समय धर्म की आवश्यकता पड़ती है। मुझे बताने को कहा गया था बता रहा हूं उस रात को गिने तो तीन दिन तो हो ही गये हैं, अगर जाये तो आज ही जाना चाहिए।

मतलब अगर जायें, कांचनगर जाये-

मैं आचार-आचरणहीन म्लेच्छ, जिसने कानूनी कार्यवाही से स्वयं को अतीन से अतनू बना डाला, उसी कांचनगर के विशुद्ध आचार वाले बोस परिवार में जाऊंगा? वहां मैं कैसे अपने को उस परिस्थिति में ले जाऊं जहां के लोग मुझे कैसी निगाह से देखेंगे या उनकी निगाहों में व्यंग्य, घृणा, धिक्कार और इन सबके साथ मेरे प्रति ईर्ष्या की भी दृष्टि रहेगी, क्योंकि मैंने काफी पैसा कमाया है।

इन दृष्टियों में मुझे कौन-सा ठीक लगेगा, शायद कोई भी नहीं। फिर मैं क्यों आगे बढ़कर थप्पड़ खाने जाऊं। शायद हमारे सनातनी पुरोहित यह पुण्यकर्म इस विचारहीन जो किसी खाद्य-अखाद्य का परहेज नहीं करता, पत्नी त्यागी, विवेक भ्रष्ट, लम्पट से नहीं करवाया जा सकता।

तब, तो वह थप्पड़ नहीं रहेगा चाबुक में परिवर्तित हो जायेगा।

मैंने कहा-नहीं जाऊंगा।

बहनोई स्वर में दुःख समेट कर बोले जाते तो अच्छा होता। आप अपनी मां के एकमात्र पुत्र हैं। मैं बोला मां का एकमात्र पुत्र काफी समय पूर्व मर चुका है। उसकी प्रेतात्मा को ले जाने का क्या फायदा?

विजय ने उसके जवाब में एक छिछोरेपन से भरी हँसी ही छोड़ी। और घूम-घूम कर चारों ओर देखने लगा। दादा आप काफी मजे में हैं, मकान तो जैसे महल लगता है, सजधज भी वैसी ही है, कहते हैं 'वानिज्यवर्सात लक्ष्मी' हम उस राइटर्स विल्डिंग के चेयर पर ही सारा समय घिसटते रह गये। अगर हिम्मत करके लग जाते। मैं मन-ही-मन हँसा। कोशिश से सब कुछ हासिल हो सकता है क्या, झूल कर क्या खड़े हो सकते हैं। विजय तो वहां से हिलना ही नहीं चाहता था। दीवार लगी तस्वीरों को देख रहा था।

मैं-विजय और कुछ कहना चाहते हो?

विजय चौंक कर बोला नहीं-नहीं कुछ नहीं प्रभा भाभी के बारे में आप कुछ जानते हैं?

प्रभा भाभी-जैसै मैं आसमान से गिरा।

फिर विरक्ति प्रकाश कर कहा-''उनकी क्या बात हो सकती है?''

''यानि हैं कहां-कुछ काम-धाम कर रही हैं या नहीं? मैं और भी क्रोधित हो गया-जब जिन्दा हैं तो इस पृथ्वी के किसी भाग में जरूर हैं। और काम खाना और सोना और कुछ काम वे जानती हैं या नहीं वह मैं नहीं जानता? लेकिन तुम काहे उनकी चिन्ता करते हो। तुम्हें क्या उन्होंने पैसे मांगने के लिए भेजा है या वह महीने-महीने पैसे लेने का दावा करना चाहती हैं?''

विजय भी थोड़ा हँस कर बोला-वाह क्यों? आपसे ही तो जानना चाहता था। वहां तो नहीं रहती। कब की झगडा करके मायके चली आई थी। अब सुना जाता है वहां भी नहीं है, किसी दूर के रिश्ते के मौसी के लड़के के यहां है-रहने दे, वह सब सुनी-सुनाई और बेकार की बातें हैं जो पुराने फटे कपड़े की तरह बिखर कर एक आधा टुकड़ा इधर आ जाता है तो पता चल जाता है। छोड़िये।

अब तक विजय का अस्थिर व्यवहार का अर्थ अब मैंने जाना, मेरे पूर्व पत्नी को चरित्र पतन का समाचार सुनाने की व्याकुलता। वह प्रभा की असामाजिक परिस्थिति से मुझे अवगत कराना चाहता था।

इन लोगों के प्रति में करुणामिश्रित परिहास का भाव ही वहन करता आया था, अब भी वही किया।

प्रभा के चरित्रहीन होने से मेरा कुछ आता-जाता नहीं। सभी को सुख प्राप्ति का पूर्ण अधिकार है। अगर वह चाहती तो अपने भरणपोषण का दावा कर सकती थी। पर उसने वैसा ना किया। मैं उसे पैसा देने के लिए बाध्य होता।

इसका मतलब था मुझसे वह किसी भी सम्बन्ध सूत्र में बंधे नहीं रहना चाहती। यह तो ठीक है। पर क्या सिर्फ प्रभा कौन किसी रिश्ते की डोर से बंधा रहना चाहता है?

मुझे अपने ही पिता की मृत्यु की खबर अपने किसी दूर के रिश्ते के बहनोई से सुननी पड़ी। कांचनगर से किसी ने मुझे याद नहीं किया। यहां तक मां ने भी नहीं। इसका मतलब था उन्होंने मेरा नाम अपने मन से मिटा डाला था।

फिर मैं किस सूत्र से नियम, विधि-विधान मानू-क्यों जूता खोलूं? मैं नहीं खोलता पर पैरों में जूते जैसे पैरों को काटते हैं, और टेबिल पर जब खाने बैठता हूं तो आंखों के सामने ना जाने पहले देखे गये दृश्य मंडराते रहते हैं। मिट्टी की हड़िया, लकड़ी का धूआ, माढ़ी वाला भात-सफेद थान की धोती और मुंडा सिर..."  

यह सब कौन है? कौन। पिताजी, ताया जी, चाचा? तब किसकी मौत हुई है? दादा जी की? मैं फिर कहां हूं? मैं क्या वहां नहीं हूं?

यही तो मुश्किल है मैं अपने असल वक्तव्य से फिर हट गया। मैं भावप्रवणता जाहिर कर रहा हूं। मुझे अपनी कथा भी तो एक के बाद एक सजाकर बतानी पड़ेगी? पहले क्या हो रहा था पौली के बारे में बता रहा था।

उस दिन पौली विजय के चले जाने के बाद कमरे में आई और नाक सिकोड़ कर बोली, ''वह कौन था यहां से जाने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कितना प्यार उमड़ा पड़ रहा था, दादा, दादा रट रहा था।''

14

''पीछे से छोटे-छोटे अंश ना सुनकर कमरे में आकर पूरी कथा सुन सकतीं थीं।

पौली ने नाक और भी सिकोड़ कर कहा-पीछे से सुन रही थी। उंह। कान में बातें आ रही थीं। उनका गला काफी जोर था। तुम्हारे कोई रिश्तेदार थे। क्या सोच नहीं सकती तुम्हारा ऐसा फालतू रिश्तेदार भी हो सकता है?

मैं भी गम्भीर हो गया-"वह मेरा नातेदार था ऐसी धारणा तुम्हें कैसे हुई?''  

''बातों के लहजे से। कान में आया गांव में कोई मर गया है?''

मैं तेजी से बोला-''ना।''

पौली की आंखों में आंसू आ गये, वह बोली-''गुस्सा क्यों कर रहे हो? लगा कि मर गये हैं-अब नहीं पूछूंगी।''

पौली के इस करुणामय रूप ने मुझे विगलित कर डाला, मैं अपने दृढ़ स्वरूप में ना रह पाया। तब मैं हार मान लेता हूं। एक बार यह भी सोचा, कह ही डालूं। पर अपने आप को संभाल लिया। मेरे पिता की मृत्यु हो गई है-इस दैन्य को पौली के समक्ष उजागर नहीं कर सकता।

पौली के पिता मिस्टर पाइन की तरह ऐसे व्यक्तित्व के धनी पिता रहेंगे जो स्वयं गाड़ी चलाकर रांची, हजारीबाग जाते हैं, एक बोतल शराब एक साथ गटक कर भी नहीं भटकते, बड़ा बाजार में लोग उनका नाम सुनकर ही अपने हाथों को जोड़कर प्रणाम करते हैं-और इधर मेरे पिता हैं ही नहीं।

मैं यह खबर नहीं सुना सकता। फिर और चिन्ता जिसने मेरे मन को नरम होने से बचाया-वह था मेरे पिता नहीं है, मेरा सूतक चल रहा है, मै जूता पहनता हूं, सूट पहन रहा हूं, मुर्गी खा रहा हूं-पौली यह सब देखे-मैं यह कभी नहीं होने दूंगा।

पौली ने जो भी सुना है (शायद पूरा सुना है। फिर भी मैं नहीं मानता) सुने, मैं नहीं बताऊंगा मेरा कोई नहीं मरा।

सिर्फ मैं ही मर गया हूं।

बाबा, बाबा-आजकल बेबी मुझे पुकारने लगी है। मुझे देखकर ही बुलाती, और आया की गोद से मेरी गोद में आना चाहती थी। मैं उसे बाबा बुलाना चाहता था, यह सुनकर पौली ने स्थायी रूप से अपनी नाक सिकोड़ डाली। छिः! तुम्हारी रुचि कितनी विकृत है।

हँसकर कहा-सच। यह बात मुझे हर पल अपने अस्थि मज्जे से समझ में आ रही है। पौली चौंक गई।

पौली इस प्रकार के आक्रमण के लिए प्रस्तुत नहीं थी। तभी उसे जबाव देने में देर लगी।

फिर ही-ही कर हँस पड़ी। अब तो मालूम पड़ा है। कैसा मजा दिखाया। अब तो समझ रहे हो कैसा बुद्धू बनाया-ढका-हां, मामला दोनों ओर का है-अदला-बदली तो हो आई है। हां, एक बात कहे देती हूं-बच्ची को ऐरे-गैरे के बच्चों की तरह बाबा बुलाना मत सिखना। डैडी सुन कर तुम मूर्च्छित हो जाओगे तभी बापी कहना सिखा रही हूं।

शायद पीली के निर्देशानुसार आया ने बापी सिखाया। बेबी मुझे देख कर आनन्द-उल्लास से बापी-बापी कह कर चिल्ला उठती। पर मैं उसे नहीं ले पाता। जब भी आगे बढ़कर हाथ बढ़ाता कहां से पौली आकर तेजी से अपना गुस्सा दिखा देती, गोद में लेने की क्या जरूरत है? गोद में लेने की आदत बुरी होती है, बच्चे बिगड़ जाते हैं। आया उसे लेकर कमरे में जाओ।'

आया भी तुरन्त चली जाती।

मैं,''मुझे तब नहीं सूझता क्या करूं?''

मैं उस वक्त कैसा दिखता था। पर कभी यह जरूर कहता-''तुम्हारी बेटी के बिगड़ने का चान्स नहीं है, तुम उसे ठीक संभाल लोगी।''

पौली ने बालों को लहरा कर गले के सुर में झंकार पैदा किया-''अगर तुम दुश्मनी करो तो मुश्किल है बेटी को सभ्यता सिखाना चाहिए कि नहीं।''

शुरू-शुरू में मैं पहले यही विश्वास करता था। अपनी बेटी को वह शायद एक अवास्तव कल्पना के ढांचे में रख कर पालना चाहती है?

इससे ज्यादा मैं नहीं सोच सकता था। मैं इसी चिन्ता में मशगूल रहा करता था।

लेकिन बाद में पौली के वर्तमान आक्रोश की वजह का गढ़ सत्य पता चला-वह था पौली को आया को मेरे पास आना बरदाश्त नहीं पौली को जलन थी। हालांकि बूढ़ी आया रखने से फैशन का हनन होता था।

तरुणी आया जो आधुनिक साज पोशाक और स्मार्ट होगी यही आधुनिकता थी। उसके लिए अगर क्लर्क की जितनी तनख्वाह देनी पड़ी तो भी देकर रखना पडता है।

आया को अच्छा खाना, पकड़ा, साबून सब देना पड़ेगा। यही नियम था। पौली यह सारी जरूरतें पूरी करती थी, सिर्फ मुझी को आंखों की कड़ी निगरानी में रखती थी।

हालांकि उसके पास पहरा देन का वक्त भी नहीं था। हमेशा ही व्यस्त थी।

कहां वह जाती थी, कहां उसका कितना काम रहता था यह बात पीली और उसके चेलो को ही पता रहता था। उसे घर में पाना दुष्कर था। वह शायद रात गहराने तक बाहर रहती थी। एक दिन उसे पकड़ा-

''पर गृहस्थी सब उजाड़ कर तुम ऐसा कौन-सा काम करती हो?''

वह हँसी से लोट-पोट हो गई-वह क्या है? रसोइया खाना बनाता है, नौकर-महरी हैं वे सब अपना-अपना काम करते हैं, बेबी की देखभाल आया करती है-''मैं अपना काम बन्द करके गृहस्थी के किस पुर्जे पर तेल लगाऊंगी?''

हँसा-सबका तो सब है-मेरा कौन कहां है? पौली के साथ बात करने की इच्छा जगी थी तभी तो ऐसी रसभरी बात कही।''

पीली अचानक कड़वे गले से जहर उगलने लगी-''क्यों है क्यों नहीं? सुन्दर तरुणी, है-बच्चे को लेने के बहाने उसे भी खींच कर अपने आलिंगन में बांध सकते हो।''

मेरा ना जाने कहां से पागलपन का दौरा पड़ा, मैंने सब कुछ भुलकर पीली के गाल पर कस कर एक तमाचा जड़ दिया।

सिर्फ एक सैकिंड उससे ज्यादा समय नहीं हुआ, एक प्रलय घट गया। चांटा जड़ते ही पौली का जरी का सुन्दर नागरा का एक जोड़ा मेरे गाल पर आ पड़ा। नागरे का जोड़ा मैं कुछ दिन पहले दिल्ली से खरीद कर लाया था, पौली उसे पहन कर कालीन पर चलेगी यही सोचा था। पौली ने ऐसे गरजना शुरू कर दिया जैसे किसी सर्पिनी के पूंछ पर पैर पड़ने से वह हिसहिसा कर अपना आक्रोश जताती है-''चांटा मेरे गालों पर-जे.एन.पाइन की बेटी के गाल पर चांटा, तुमने सोच क्या रखा है। मेरे पिता के कारण इतना ऊपर चढ़के अपने आपको क्या समझने लगे हो? तुम्हारी दुष्टता पर मुझे घृणा होती है। नौकरानी से प्रेम करोगे, और मुझे नीति उपदेश देने आते हो-उसे मैं विदा करके ही छोड़ूंगी''-यह कहकर वह चली गई। हां, आग की तरह जलती-जलती ही।

तब मैं यह ना सोच पाया था पौली ऐसा काण्ड कर सकती है। पौली हमेशा एक संयमित व्यवहार का प्रदर्शन करती आई थी। थोड़ा बहुत ड्रिंक करती थी, उसके पिता ने ही बचपन से प्यार से अपने साथ पिला कर उसमें यह मद्यपान की आदत डाल दी थी।

आजकल यह आदत जोर पकड़ने लगी थी। मना करने से फल नहीं निकलता था। इसीलिए मैंने छोड़ दिया था। लगता था मद्यपान की मात्रा धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी।

उसने जो खतरनाक काम किया उसे पागल या मद्यम के अलावा कोई और नहीं कर सकता। अन्दर से पौली अपने पिता से मिले उपहार को जो एक चाबुक था जिससे कुत्तों को काबू में लाया जाता है; लाकर उस आया की पीठ पर बरसाने लगी।

भयानक चीख, भयानक गर्जन, कई लोगों की एकसाथ बातचीत, बेबी का रुदन सब मिलाकर वह घर नरक का डेरा लगने लगा। मैं अन्दर जाकर उस दृश्य को देख कर स्तम्भित हो गया।

उस दृश्य के आमने-सामने मुझे होना पड़ा था जो मेरी धारणा से परे थी। पर चले भी आना पड़ा बिना किसी शब्द का प्रयोग करे। पौली का स्वरग्राम उच्च-उच्चतर चला गया-साहब के साथ इश्क-मैं घर में नहीं रहती तो जो मर्जी आये वही करेगी। कुत्तों से कटवाऊंगी-उसका स्वर जो पानीय पान के कारण मदमत्त हो रहा था।

मैं उस रोती हुई बच्ची को उठाकर उस महल के समान घर से निकल आया और उस बड़ी-सी राजाओं जैसी गाड़ी पर चढ़ कर काफी देर घूमता रहा।

उसका रोना थामने के लिए चॉकलेट, गुड़िया-लेकिन बेबी ने भी अपना अविराम क्रन्दन सुर नहीं भुलाया। वह लगातार रटती रही-आया को मार रहे हैं-आया को मार पड़ रही है।

उसके जीवन की एकमात्र प्यार, आश्रय सभी आया ही थी। उसके भीतर का आवेग उथल रहा था-आया मर जायेगी।

15

अजीब बात है, दो बरस के शिशु को भी मरने की बात का पता है। उसे पता है ज्यादा मारने से इंसान मर सकता है।

मेरी बेबी को लेकर कलकत्ता छोड़ कर कहीं बाहर चले जाने की इच्छा हो रही थी। लेकिन बेबी के रुदन ने ही मुझे घर वापिस लौटने पर मजबूर कर दिया।

अगर वह ना रोती तो क्या में सच में कहीं चला जाता? जा सकता था? शौखीन बड़ा बाजार में वाणिज्य, बैंक का खाता। तीन-तीन महलों जैसे घर छोड़कर चला जाता? बेबी ने मेरा मुंह रख लिया। मान बचा लिया।

मैंने सोचा या सोचने का बहाना किया कि बेबी रो रही थी तभी लौटना पड़ा नहीं तो मैं कहीं भी चला जाता। उसी घर में दुबारा प्रवेश किया जहां से अपनी बीवी का जूता खाकर चला आया था। जिस घर में नौकर-चाकरों के सामने मेरी बीवी शराब पीकर चिल्ला रही थी-साहब के साथ इश्क लड़ायेगी-बामन होकर चांद पर चढ़ने का शौक। तेरी चाबुक से चमड़ी उधेड़ दूंगी। और उस साहब को गले पर धक्का मारकर बाहर निकाल दूंगी।''

था तो मद्यपान से गले का स्वर अटका-अटका, पर उच्चारण तो साफ थे। और मद्यप स्त्री भी क्या ऐसी गौरवमयी है?

उस घर की चौखट को पार कर अन्दर आना पड़ा। सभी अतनू बोस, घोष, शर्मा सभी को आना पड़ता है। नहीं तो जायेगा कहां? इस पृथ्वी पर सात फेरों के बंधन से बंधा इंसान कर भी क्या सकता है?

अन्दर आकर लगा यह घर तो अद्भुत शान्त था जैसे किसी मृत पुरी में आन पहुंचा था। धीरे-धीरे बच्ची को लेकर घुसा, दो तल्ले पर चढ़ा, इस बीच में गेट पर दरबान और दो तल्ले की सीढ़ी के सामने वाले दरबान ने मुझे सलाम भी ठोंका। मैं चढ़ गया।

ना पौली थी, ना आया थी, पुराना नौकर वासु भी नहीं था। इधर-उधर दो-एक दासियां दिखाई दे रहीं थीं। उनमें से एक को बुलाकर कहा-''शायद इसका खाने का टाइम हो रहा है। देखो तो क्या खायेगी?''

वह ना जाने क्या कह कर भागकर गई और एक गिलास गरम दूध लेकर चली आई। दूध पीकर पीकर बेबी मेरे पास ही सो गई।

पौली के गले की आवाज काफी रात गये सुनाई दी। हँसी तो, आनन्द से, कौतुक से भरपूर-''केस करेगी मेरे नाम पर-केस। भाग कर थाने में गई मार का दाग दिखाने। ही-ही-ही। कैसे अपना चक्कर चलाया। रुपया। जिससे ईश्वर को शैतान बनाया जा सकता है। यह तो एक सूद्र आया का आदमी था। पांच सौ रुपये के नोट उसकी ओर फेंक दिये, कहा-साहब के साथ लटपट करती थी तभी मैंने मारा है-थाने में रपट लिखाने गई है। अब बोलो वह बीवी की तरफदारी कर उसके साथ लड़ाई में भाग लेगा या अपनी ही बीवी को ठीक करने में लड़ जायेगा? वह आदमी मेरे पैरों पर गिर पड़ा। हां, नोट अपनी जेब में डाल लिये थे। यह बात तो अच्छी थी कि वासू उसका घर पहचानता था नहीं तो मुश्किल हो जाती। पौली किसी को इतनी बहादुरी का वृत्तान्त सुना रही थी-हंस-हँस कर।

झांक कर देखने की इच्छा ना थी। पर धीरे-धीरे पता लग गया कि पौली के अनुरागी चेला का सरदार स्मरजित-जो पौली के कहने पर जीता था, मरता था। उसी को अपनी वीरता दिखा रही थी-जो अपने आदमी से भी मार खायेगी। आजकल उसकी हिम्मत भी बढ़ गई। बेवी मेरे से ज्यादा उसको प्यार करती थी। तभी घमण्ड से उसके पैर जमीन पर नहीं पड़ते थे। मैंने एक दिन बेबी को खिलाना चाहा तो उसने मेरा हाथ पकड़ कहा-''आप से नहीं होगा। आप उसके खाने के बारे में क्या जानते हैं-''

हुआ तो अधिक बढ़ने का नतीजा! समझ आ रहा था तब भी पीली के ऊपर से नशे की खुमारी नहीं हटी थी। तभी इतना बोल रही थी।

अजीब बात थी। पीली किस कदर बदल रही थी? कुछ मतलबी छोकरों के साथ मिलकर अपना मतिभ्रष्ट कर रही थी।

उधर इस समिति के बीच-बीच में समारोह करने के अलावा और कुछ भी शायद किया होगा?

आप लोग शायद यह सोच रहे होंगे कि उसी दिन से पौली से मेरा सम्बन्ध विच्छेद हो गया-नहीं, जी नहीं। यह तो काचनगर का बेपरवाह छोकरा अतीन बोस न था जिसके पास यानी कौड़ी भी नहीं थी। जो एक कपड़े में गृहत्याग कर सकता था या पत्नी से सम्बन्ध-विच्छेद कर सकता।

यह तो अतनू बोस अमीरी का विशेषण जिसके साथ है। जिसका व्यवसाय अपनी पत्नी के पिता के साथ साझेदारी का था।

उस रात को स्मरजित कहां गया या गया कि नहीं मुझे नहीं मालूम पर बीच रात में जब बेबी आया-आया करके रो रही थी-तब पौली खट कर आकर बेटी को खींच कर ले गई।

तभी सुना चुप-चुप एक बार भी गले से आवाज निकाला तो खून कर डालूंगी। देखा था आया को कैसे मारा था?

आश्चर्य मेरे जीजान की कोशिश से जो नहीं हो पाया वह उस धमकी से सम्भव हो पाया-बेबी शान्त! शायद खुशामद के रास्ते सारी चीखों को बन्द करने का तरीका ही गलत है।

अगले दिन मि. पाइन अचानक आये। यह कोई नई बात नहीं थी वे अक्सर अपने बेटी-दामाद के घर में दो-चार मिनट के लिए आते थे।

उस दिन काफी देर तक रहे। पहले मुझे ही बुलाया और कहने लगे-पौली रात-दिन कुछ आवारा छोकरों के साथ घूमती है। उसकी मौसी बता रहीं थीं जो उसके साथ गाड़ी में घूमते हैं वे बिल्कुल सड़क छाप लड़के हैं। यह हो कैसे रहा है?'' मैंने भी हाथ उलट कर कहा कैसे जानूंगा बताइये।

कैसे जानूंगा मतलब! पाइन साहब दबे स्वर से धमकी देते हुए बोले-''तुम्हारा क्या पत्नी के प्रति कोई दायित्व ही नहीं है?''

''होने से क्या होगा। पौली क्या वैसी लड़की है कहने से ही सुन लेगी?''

''रुको यह कोई बात ना हुई। जैसे भी हो इसे समझाना ही पड़ेगा। मैं तो सोचता था तुम अपने दो बार वाले अनुभव को काम में लगाओगे। पौली बार में जाकर शराब पीती है, तुम्हारे साथ किसी पार्टी में नहीं जाती, उन मतलबी आवारा छोकरों के साथ घूमती है। यह सब ठीक नहीं हो रहा है।''

मैं इसका जबाव देने ही वाला था कि पौली दौड़कर अपने बाप के ऊपर आकर गला पकड़ कर झूलती हुई कहने लगी-''बापी तुम बड़े शौतान होते जा रहे हो। इस घर में आकर मेरे साथ पहले बात ना कर उस बाहरी बेकार के आदमी के साथ बातें कर रहे हो।''

पौली के गले से बनावटी नखरे वाला शहद निकल रहा था।

उनका असर पाइन साहब के गले में भी पड़ा। पाइन साहब का कुछ समय पूर्व वाला निरक्ति पूर्ण गाम्भार्य कहां चला गया-उसकी जगह ले ली पितृस्नेह वाले चेहरे ने जिससे प्यार, आनन्द और बढ़ावे का झरना बह रहा था।

''क्यों नहीं बोलूं तुम कहां रहती हो पता नहीं?''

बापी-तुम मुझे तुम कहकर बुला रहे हो। तुम मुझ पर खफा हो? जल्दी से तू कहो नहीं तो अभी रो पड़ूंगी।''

पाइन साहब ने हँस कर उसके सिर को सहलाकर कहा-तू-तू। मैं लेकिन खफा हूं। तुम आजकल कुछ फालतू लड़कों के साथ मिलती हो-''सभा, समिति करती हो।''

-बापी बुरे नहीं-''वे तो बड़े ही अच्छे लड़के हैं। वे सब भारी नरम, दयालु जहां भी दुःख-तकलीफ है उसी ओर अपनी दया-दृष्टि ले जाते हैं। पहले मैं क्या जानती थी इस पृथ्वी पर इतना दारिद्रय है। इतनी दुःख-तकलीफ भी हो सकती है? अब हम लोग मेदिनीपुर के पीड़ितों के लिए एक गीतिनाट्य करने वाले हैं।''

दुखियों के लिए गीतिनाट्य।

पाइन साहब ने अपने नेत्र विस्फारित कर लिए-गीतिनाट्य माने?

आह कितनी मुश्किल है-डान्स-ड्रामा नहीं जानते?''

ओह डान्स-ड्रामा-नाच-नाटक-उन दुखियों को क्या उनका दुःख नाच-गाने दिखाकर भुलाना चाहती है?

''बापी-ओ बापी। तुम कितने अच्छे पर चालू हो।''

उस तेज-तर्रार व्यक्तित्व सम्पन्न रोबदाब वाले पाइन साहब का गला पकड़ कर झूलते-झूलते वह बोली-हम एक चैरिटी शो करेंगे। सरकार से ऐंमूजमेंट टैक्स पास करा लेंगे। जितना खर्चा लगेगा वह रखके हम बाकी वहीं भेज देंगे। दो-तीन बार तो किया। तुम्हें क्या कुछ भी देखने का या सुनने का समय नहीं रहता है। एक बार दिल्ली चले गये, एक बार बम्बई से आने को कहकर भी नहीं आये, अब तुम्हें रहना भी पड़ेगा और ज्यादा पैसा भी देना होगा।''

पाइन साहब ने कंठलग्ना बेटी को हटा कर थोड़ी अवज्ञा के लहजे में यही कहा-जा जा यह सब क्या भले घर के लोगों का काम है? इसे कहते हैं-

तुझे यह सब कौन सिखा रहा है?

बापी तुम कितने निष्ठुर हो। इनको कितना कष्ट है?

16

बापी सयंमित स्वर से बोले-जानता हूं और यह भी पता है तुम्हारे नाच-नाटक से कुछ भी नहीं होगा। वे जिस कष्ट में हैं उसी में ही रहेंगे। मैं व्यवसायी हूं भाग्य पर विश्वास करता हूं। जिसके भाग्य में साड़ी, गहना, गाड़ी-कोठी भोग करना है तो वे इन सबका भोग करेगा। जिनके भाग्य में दुःख सहना लिखा है वे दुःख सहेंगे भी। तुम बेकार में बुद्धू लोफरों के साथ क्यों घूम कर अपना समय बर्बाद करोगी। इन आवारा छोकरों के पास ना काम है, ना माल तभी इस बहाने कुछ पैसा आमदनी कर लेते हैं। समझी। उसका साथ छोड़ो और बाहर घूमना भी बन्द करो।

पौली की आंखों से अग्निशिखा दहकने लगी। पौली फोंस कर उठी-''बाहर घूमना बन्द करके और क्या करूं? घर में ही कौन-सा सुख है?''

क्या आश्चर्य की बात है? घर में ही तो सुख है। तू अपने लिए ही सुख है, सुन्दर-सी बेबी है तेरी। जब तू छोटी-सी बेबी थी तब तेरी मां चली गई, तू ही मेरा सुख थी। ''वह तो है-पर तुम्हारा बिजनेस वही तो असल सुख था। मेरे पास है?''

पाइन साहब ने प्यार से एक हल्का चांटा रसीद कर बेटी को प्यार से कहा-''तेरे पास पति है।''

पौली ने अपने छोटे सुनहरे बालों को लहरा कर मुंह टेढ़ा कर कहा ''वह तो वर नहीं है बर्बर है। पता है उसने मुझे कल गाल पर थप्पड़ मारा।''

'थप्पड़-पाइन साहब ने प्रश्न भरी नजरों से देखा। हां, उस भाषा को मैं स्पष्ट रूप से पढ़ रहा था। लेकिन वह तो एक सैकंड का भी सौंवा भाग था। बातों की दिशा में उलट-फेर ना हुआ।

बिल्कुल गाल पर ही थप्पड़ क्या कहती है। हे अतनू! यह क्या कह रही है? तू क्यों हारी? एक घूंसा जमा देती या उंगलियों से माथे पर मारती।

पौली ने भौंहें ऊपर उठाईं-हार। तुम्हारी बेटी हार मान सकती है। उसके पास जरीदार नागरा नहीं था?''

'जरीदार नागरा' शब्द का प्रयोग करके पौली ने उस घटना को दाम्पत्य कलह वाले रंगीन रंग में डुबो कर रंगीन धागों से बुन दिया।

पौली का वही कौशल फिर काम कर गया। या खुद अभी भी बेदाग है-

लेकिन सोचने का वक्त ही ना मिला। पौली के पिता का अट्ठहास-तब तो जैसे को तैसा-बल्कि थोड़ा ज्यादा ही-क्या अतनू-काफी देर तक पाइन साहब हँसते रहे।

तब चांटा और चप्पल का मामला खारिज हो गया। दिन के पहिये अपने हिसाब से चलते गये।

बेबी की उम्र और उसकी मां की मनमर्जी बढ़ती चली गई। क्रमश: चरम सीमा-जो था स्वेच्छाचारिता का प्रतीक-मैं उसके चेलों से नफरत करता था यह समझने के बाद पौली ने उनको अपने माथे का ताल बना लिया। अगर मजलिस रात तक जमी रहती तो उनके लिये पूरी बनाने का आदेश दिया जाता। और बारिश आ जाये तो खिचड़ी, आमलेट बनाने का हुक्म-और बारिश ना रुके तो बिस्तर बिछाने का भी निर्देश मिलता। मुझे सब सुनना पड़ता।

मेरे साथ बात बन्द थी यह भी नहीं कहा जा सकता। 'बातचीत' बन्द में अभिमान का पुट रहता है वो उसे भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी।

मेरे कमरे या हम लोगों के कमरे में वह सोने नहीं आती थी ऐसी भी बात नहीं थी। जब आती तब बात करने की तबियत नहीं होती।

सो जाता था क्या? सोने के काबिल मन की हालत नहीं थी, क्योंकि नींद आती है जब मन शान्त हो, किसी प्रकार का तनाव ना हो। लेकिन मैं जो लगा रहता इस बात का पता भी मैं नहीं लगने देता था क्योंकि तब तो मैं लालची या निर्लज्ज की तरह उसकी आस लगाये बैठा रहता, यही वह सोचती। और तब उसे और भी घमण्ड होता।

तभी मुझे नींद का बहाना करके पड़े रहना पड़ता था, जब मैं सो कर उठता तब पौली घोड़े बेच कर सो रही होती।

और बेबी-उसका तो मां-बाप के कक्ष में प्रवेश वर्जित था, वह पास वाले कमरे में एक बूढ़ी दासी के साथ सोती थी।

वह आया नहीं थी सिर्फ दासी थी। वह वासू की बूआ थी। उससे क्या आता जाता है, और थोड़े दिनों के बाद ही तो बेबी को बोर्डिंग स्कूल भेजा जायेगा। सीट बुक करवा दिया गया है-सिर्फ वहां तीन साल पहले लेने का नियम नहीं है तभी अभी नहीं भेजा जा रहा।

इस व्यवस्था के विरुद्ध मेरा प्रतिवाद निष्फल गया। पौली का कहना था-जो समझते नहीं उसे लेकर विवाद काहे करते हो, बेबी के बारे में मैं ही सोचूंगी।-बेबी के ऊपर मेरा भी कुछ अधिकार है, इसे क्या तुम गिनती में नहीं लातीं?'' वह तीखी हँसी हँसी-''बुद्धू की तरह बात मत करो-बाकी सब देशों का उदाहरण लो जो काफी सभ्य हैं।

मैंने कहा, ''सभ्यता का दूसरा नाम फिर स्नेहहीनता रखना चाहिए।'' बोर्डिं का नाम जबसे बेबी ने सुना है तुम नहीं देखतीं वह कितनी भयभीत है। तुम्हारे डर से वह रोती नहीं है।

''जब पढ़ाने बैठो तब भी बेबी डर जाती है, तब उसे पढ़ाना भी बन्द कर देना चाहिए। सेन्टीमेंट मुझे फूटी आंखों से नहीं सुहाता और तुम उसी को जकड़ कर बैठे हो। पता नहीं क्यों तुम कांचनगर से अपनी बीवी को छोड़ यहां आये मुझे समझ नहीं आता। वही तुम्हारे लिए उपयुक्त थी-आधुनिक बनने की लालसा है पर आधुनिकता को दिलोजान से ग्रहण भी नहीं कर पाते या करने की क्षमता नहीं। ऐसे लोगों से मैं घृणा  करती हूं-समझे, पूरी तरह से घृणा।''

मैं हँसने लगा।

जो अतनूबोस बाह्य जगत के कृपाप्रार्थियों के सामने व्यंग्यात्मक एवं तुच्छ करने वाली हँसी हँसता है-उसी लहजे में बोला-अच्छी बात है अब मुझे नये सिरे से लिखना नहीं पड़ा, तुम्हारी लेखनी के नीचे ही हस्ताक्षर किये देता हूं। घृणा! आधुनिकता के बहाने जो लोग चाहे मर्जी करने का बहाना खोजते हैं और अपनी जिम्मेदारी से हाथ धोते हैं-यही नहीं सीमाहीन स्वतंत्रता का प्रयोग करने का क्योंकि वैधानिक प्रमाण-पड़ा पा जाते हैं-''उनके प्रति तो मैं अनुरूप घृणा कैसी होना चाहिए मुझे समझ नहीं आता।''

वह बोली-तुम्हारे साथ तर्कवितर्क में भाग लेने की मेरी मर्जी नहीं है।

मैंने निश्चय कर लिया है बेबी को अगली जनवरी से बोर्डिंग में भेज दूंगी।''

जनवरी आने में कुछ महीनों की अभी देरी थी। मैंने भी पक्का इरादा कर डाला कैसे भी हो मैं उसे जाने ना दूंगा चाहे जो भी करना पड़े।

आप लोग हँस रहे हैं?

सोच रहे हैं क्या अतनू बोस, अपने ही घर में अपने ही परिवार पर तुम्हारा इतना भी अधिकार नहीं है?

यह कह सकते हैं। मैं भी सोचता अपना जोर दिखाऊंगा, कहूंगा मेरे घर में मेरा ही हुक्म चलेगा। बेबी यहीं रहेगी।

लेकिन बात यह है-मैं तो दिन भर घर में रहता नहीं। बेबी की उसके मां के अत्याचार से कौन रक्षा करेगा?

मैं कमजोर पड़ गया था वह इसी-लड़की की वजह से ही। मेरे पीछे उस पर अत्याचार ना हो मैं इसी भय से आतंकित रहता। होता भी तो था।

पौली उसे सौतन की बेटी की तरह देखती वह उसे खटकती-क्योंकि पौली की यही धारणा थी उस बच्ची की वजह से ही उस को मेरा प्यार-दुलार नहीं मिल पा रहा। उसी की वजह से ही मैंने पहले वाले प्रेम से विगलित हट कर अपने अन्दर कठोरता पैदा कर ली। हर पल मेरे लहजे में एक शिकायत से भरा हुआ वाक्य रहता।

शायद यही मेरी गलती थी। अगर मैं बेबी की तरफ से उदासीन रहता तो शायद वह अपने मार्तत्व कर्त्तव्य से ना हटती।

लेकिन मैं उदासीन ना रह पाया। क्योंकि पौली शुरू से ही आधुनिकता वरण करने का साधन यज्ञ कर रही थी। जिस आधुनिकता की भाषा स्नेह को दुर्बलता, ममता को भावप्रवणता और मां बनना एक दुर्घटना बताता है।

मां बनने से पहले पौली की आधुनिक्ता मेरी भी थी, आकर्षणीय भी थी। पर बेबी के आने के बाद से मेरे लिए उसकी उग्र आधुनिकता बरदाश्त के बाहर थी।

मैंने क्या चाहा था?

प्रभा के स्थूल बन्धन, निर्मला के शिथिल बन्धन से मुक्ति पाकर, मैंने भी तो इस रंगीन रोशनी से जगमगाते जगत की तरफ ही हाथ बढ़ाया था। इस जीवन का सौदा, मैंने बड़े बाजार की खाक छानी थी। और इस जिन्दगी में पाइन साहब की बेटी पौली ने ही मुझे अपने हाथों से सिखा-पढ़ा कर प्रवेश कराया था।

पौली मेरे लिए सुख की प्रतिमूर्ति थी। अब वही असहनीय हो गयी थी।

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कुमारी पौली जब मेरे साथ स्वच्छन्दता से घूमती उसमें मुझे कुछ भी बुराई नजर नहीं आती पर अब जब विवाहिता पौली पांच लड़कों के साथ घूमती है तो मेरे अन्दर आग क्यों धधकने लगती है?

बेबी के जन्म समय नर्सिंग होम के उस डॉक्टर के छोटे-से प्रश्न ने क्या घृणा का बीज रोप दिया था? डॉक्टर के झुके गम्भीर मुख से मुझे क्या शौरी शब्द हर पल सुनाई देता है?

काफी वक्त तब मैं बिना नजरें हटाये बेबी को देखता रहता; लेकिन उस चेहरे पर मेरे चेहरे की छाप थी। जो भी देखता वही यह कहता, बेबी की तस्वीर भी यही बताती थी।

तभी तो बेबी मुझे असाधारण तौर पर अपनी लगती। तभी तो सोचता था बेबी को कैसे गृह से निर्वासित होने से बचाऊं। जिस दिन उसे भेजा जायेगा उस दिन क्या मैं उसे लेकर भाग जाऊ? उसे क्या चुपके-चुपके कांचनगर में अपनी मां के पास रख आऊं? मेरी मां बेबी की दादी भी तो है।

अपनी दादी। जैसे हम दादी के पास अचार की मांग करते, उनके भंडारे से आमपापड़ चोरी कर भागते, शाम को हम सारे बच्चे मिल कर उनसे कहानी सुनते।

वैसा ही एक दादी बेबी की भी मौजूद है। लेकिन बेबी का पिता? वह क्या बेबी की दादी को मां कहकर पुकार पायेगा? अगर मां कह कर ना बुलाकर एक चिट्ठी लिखकर चला आये। तब भी तो बेबी को घर से निकालना ही पड़ेगा। इस कलकत्ते वाले घर में जहां बेबी को देखता हूं। उस घर को ही छोड़ना पड़ जायेगा-

वास्तव-अवास्तव अनेकों प्रकार की कल्पनायें मेरे मन में आती जा रही थीं। किसी को भी पूरी तौर से कार्य में नहीं जा पा रहा था। यह मैं जानता था तीन बरस की छोटी बेटी को मैं बोर्डिंग नहीं जाने दूंगा।

ना-मैंने बेबी को बोर्डिंग नहीं जाने दिया। बेबी को एकसी जगह रख अया जहां उस पर किसी भी चीज का खतरा ना था। वहां उसे किसी विपत्ति की आशंका ना थी और जहां उसकी मां उस पर उत्पीड़न नहीं कर सकती थी। बेबी की मां भी तो-।

क्या-बेबी के बारे में और जनने की इच्छा रखते हैं? क्यों-उसे नहीं जानने से आपको कुछ समझ नहीं आयेगा?

फिर तो वहीं चलें जब बेबी को ज्वर आया था। सुबह मैं बेबी का काफी तेज बुखार देखा गया था। डॉक्टर को फोन करके अपने काम पर चला गया था। पूरा दिन मन भारी रहा था। शाम को घर लौटा तो देखा ड्राईंगरूम में काफी शोर-शराबा था-गाने का रियाज चल रहा था।

मेरा पूरा ब्रह्मांड क्रोध से जल उठा। मैं रुढ़ स्वर से बोला-''डॉक्टर आया था?''

पौली अपने भक्तों के समक्ष पति की इस रूढ़ता से अपमानित महसूस कर रही थी-तभी वह भी लापरवाही से बोली-''आयेगा क्यों नहीं? बुखार कितना है?''

''डरो नहीं-एक सौ पांच डिग्री नहीं है।'' मेरे माथे पर खून सवार हो गया। मैंने कठोर लहजे में पूछा-''यह सब हो क्या रहा है?'' पौली सोफे से उठ गई।

पौली के वक्ष से शिफौन की पतली साड़ी का आंचल सरक गया जिसे उसने अवमानना से अलग हटा दिया। पौली के ब्लाउज के वी आकार वाले गले के बीच से हीरा-पन्ना लौकेट जल रहा था, उसी के साथ पौली की आंखें भी जलने लगीं।

उसके चेहरे पर जो हँसी फैली थी वह थी विद्युत रेखा। उसके चेहरे की हँसी में विद्रूप-विद्युत झलक रहा था। वह मुझे परिहास करने लगी-''देख ही तो रहे तो गाने की प्रैक्टिस चल रही है, सुनना चाहो तो बैठो।''

मेरे माथे की अग्निशिखा गले में भी प्रवाहित होने लगी-मैंने जोर से कहा-''शटअप।''

हां, पाइन साहब की बेटी को मैंने शटअप कहा फिर उसके चेलों को निकल जाने को भी कहा।-''हरामजादे सूअर-अगर इस घर की चौखट को लांघा तो चाबुक से मार-मार कर पीठ की चमड़ी उधेड़ दूंगा।''

वे लोग ऐसे दुम दबाकर भागे जैसे पागल कुत्ता लाठी खाकर भागता है, अपनी देवी की ओर एक बार देखा तक नहीं।

देवी ने मेरी ओर देखा। अपने छोटे-से आंचल को कमर में खोंस कर हांफते हुए बोली-सोचा क्या है तुमने?

मैंने उस सुन्दर चेहरे की तरफ देखकर जिसके चारों ओर बाल ऐसे लग रहे थे जैसे सांप के फन हों-''जो सोचा है अब तुम्हें दिखाऊंगा।''

वह बोली-''ठीक है।'' वह चिल्लाई नहीं सिर्फ कहा, ''ठीक है, तुम्हें भी दिखा रही हूं।''

कह कर सीढ़ी से ऊपर चली गई। मैं भी उसके पीछे तीर के वेग से चढ़ गया।

मैंने उसके चेहरे पर एक भयंकर निश्चय की रेखा देखी। मुझे डर लगा, लगा पौली भी निर्मला की तरह हो जायेगी।

मैं उसके पीछे गया, अगर वह बरामदे से कूदे-मैं कैसे उसे बुलाऊं लेकिन मेरा स्वर ना निकला, मैं जितना जल्दी...

लेकिन मैं पौली के हल्के, छरहरे बदन के साथ कैसे ताल रखूंगा? इसीलिए मैं पीछे रह गया।

तभी तो मैंने देखा-पौली निर्मला के पथ पर नहीं गई। पौली बरामदे से नहीं कूदी, जाकर क्या देखता हूं-पौली ने ज्वर से आक्रान्त सोई बेटी को हिलाकर दबे स्वर से कहा-''उठ-उठ कहती हूं।''

मैं आशंकित होकर आया था, पौली कहीं निर्मला-पौली उस बच्ची को-मैंने उसका हाथ पकड़ा-''क्या हो रहा है?''

उसने जबाव नहीं दिया-एक झटके से मेरा हाथ हटाकर और जोर से झटका दिया-''उठ-उठ चल इस घर से।''

फिर मुझे कुछ नहीं मालूम।

सिर्फ एक भयभीत शिशुकंठ को आर्त्तनाद-फिर किसी चीज के गिरने की आवाज-''फिर सब शान्त। उसे खींच कर खड़ा कर दिया गया था पर उसके घुटने कमजोर थे सो वह गिर पड़ी। बेचारी का शरीर ज्वर से तप रहा था। ऐसी हालत में उसे खड़ा करना...।

अगले दिन मैं बेबी को सुरक्षित जगह पर रख आया जहां से कोई उसे खींच कर उठा नहीं सकता, कोई उसे उत्पीड़ित नहीं करेगा और ना ही बोर्डिंग स्कूल भेजने की कोशिश करेगा।

''उसके कुछ दिनों के बाद पाइन साहब की प्यारी बेटी पौली भी मर गई। हां, एक दुर्घटना से, आकस्मिक इलेक्ट्रिक तार से...।''

पेपर में जिसका शीर्षक था-'तहिताहत'। यह तो सिर्फ एक घटना थी, दुर्घटना थी जो अखबार के विशिष्ट परिच्छेद पर प्रकाशित होनी जरूरी थी। प्रख्यात धनी श्री जे.एन.पाइन की एकमात्र कन्या, विख्यात धनी श्री अतनू बोस की पत्नी श्रीमती पौली की अकस्मात् 'तहिताहत' द्वारा मृत्यु-यह एक विशिष्ट समाचार नहीं था?

ना जाने कैसे एक साधारण बड़े स्विच के तार से वह विपदा घटी। उसका विशद विवरण भी अखबार में दिया गया था।

मैं शौक से इस प्रकार विह्वल था कि जिसने भी मुझसे प्रश्न किया मैं उचित जबाव ना दे पाया, उन्होंने नौकरों से ही सब सुना। वे यानि अखबार वाले पुलिस के लोग।

आपके धर्माधिकारण के अनुचर-वे आये कहीं कोई अधर्म घटा या नहीं यह देखना भी तो उनके कर्त्तव्य में शामिल है। वे आये, जिरह किया फिर स्वाभावि़क घटना बता कर रिपोर्ट भी पेश की।

पौली बोस के संग विवाहित जीवन की यही यवनिका खींची गई। यह छह बरसों का काल था। सबसे लम्बा पाइन साहेब-वे कुछ दिनों के लिए किसी जरूरी काम से लिवरपुल गये थे। उनके पास जब समाचार पहुंचा तब वे लौटे। उनका स्थायी पता मालूम न था तभी ट्रंककॉल ना किया जा सका।

जब वे लौटे तो तब क्या छानबीन करते? टूटा हो। पाइन साहब की एकमात्र कन्या की मृत्यु अतनू बोस की भी तो-साथ में पत्नी थी। मुझे कौन इस बात पर धमकी देगा कि इलेक्ट्रिक लाइन में गड़बड़ थी तो देखा क्यों नहीं?

पाइन साहब भी दामाद को मन में शान्ति लाने का उपदेश देकर चले गये।

अतनू बोस का महल पौली बोस के बड़े-बड़े चित्रों से भर गया। दीवार, टेबिल, सेल्फ, अल्मारी सभी उच्च स्थलों पर उसकी तस्वीरें लगा दीं गईं। उसमें सारी अदायें कैद थीं।

निर्मला बोस की तरह तो उसको फोटो का अकाल ना था। असंख्य तस्वीरें-लेटी, बैठी हुई, खड़ी हुई, आधी लेटी, आधी बैठी खड़ी कितनी ही मुद्राओं में तस्वीरें थीं।

यह सब अतनू बोस को चारों ओर से घेरे हुए थी। दिन-रात वह अकेले कमरे में इन्हीं के साथ रहता। समझ ही रहे हैं कि अतनू बोस कितने मजबूत दिल वाले थे। हां, जी हां, उनका कलेजा पत्थर का था, नहीं तो पौली बोस का परिच्छेद खत्म कर कोई योरोप भ्रमण के लिए निकल सकता है?

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तब लोगों के पास पैसा होता तो घूमने में कुछ भी परेशानी ना थी। आजकल की तरह इतने कायदे-कानून नहीं बने थे।

अतनू बोस भी गये। पासपोर्ट मिलने में देरी नहीं हुई। डेढ़ बरसों तक योरोप के मशहूर स्थलों पर घूमा।

पौली बोस की अदम्य वासना थी 'कैन्टीमेंट' टूर करने की पर वह ना जा पाई। उसकी तस्वीरें भी कलकत्ते में ही पड़ी रह गईं।

सिर्फ बेबी बोस एक छोटी छवि बन कर सर्वत्र घूमी। आकाश में उड़ी, पाताल में भी गई, पानी में विचरी, पहाड़ पर भी चढ़ी।

डेढ़ बरस बाद अतनू बोस तरोताजा होकर वापिस लौटा। मैं ही तो अतनू बोस हूं। मैं ही तो बोलता जा रहा हूं आप लोग टेप कर रहे हैं। मैंने ही यह सब किया था। धर्मावतार के दरबार में इन सबका न्याय होगा।

दूसरी तरफ का वकील कहेगा, देखिये धर्मावतार यह इंसान कितने गर्हित किस्म का है। इसका चरित्र कितना भयंकर है जिसने एक के बाद एक पत्नियों को...।

वाह इतनी सारी बीवियां सुनकर परेशान हो रहे है। पहले ही तो कहा था मैं आप लोगों को पांच पत्नियों के बारे में बताऊंगा फिर जूरी विचार करेगी मैं किस कदर पत्थर दिल हूं।

भ्रमणोपरान्त मैंने उन विशाल घरों से अपना डेरा शहरतली की तरफ नये छोटे फ्लैट में जमाया। छोटा-सा घर जैसे तस्वीरों को देखते हैं, सामने बगीचा, आस-पास पड़ौसी भी नहीं थे।

ना ही पुराने नौकर थे ना ही पुराना असबाब। नये जीवन की साधना में लग गया।

यहां आकर मैंने तय किया। एक बार और अग्निपरीक्षा में कूदा जाय। पुराने ख्याल त्याग कर नये ख्याल...।

इसी इरादे से एक 'बारासात' की लड़की से शादी की जो लड़की नहीं महिला ही कह सकते हैं। पर जिस घर से उसे लाया वहां महिला शब्द का प्रयोग होता है या नहीं पता नहीं।

उस लड़की ने कुछ पढ़ाई-लिखाई की थी। शायद खुद रोजगार करने की तागीद ने उसे पढ़ने पर मजबूर किया था। उनके घर में दुर्भिक्ष का जोर था।

उम्र शायद तीस से चालीस के भीतर। एक तरह का चेहरा होता है जिससे उम्र का पता नहीं लगता। बाईस भी हो सकता है, बयालीस भी। जो भी हो मेरा इससे क्या लेना-देना।

मेरे बड़ा बाजार के दफ्तर को छोकरा था उसकी ममेरी बहन थी। वह छोकरा एक दिन अपनी बहन के संघर्ष की कथा सुना रहा था। फ्री में स्कूल में पढ़ कर मैट्रिक पास कर प्राइवेट पढ़ कर उसने बारहवीं भी' पास कर डाला। साथ में एक फोटो भी था पात्र पक्ष को दिखाने के लिए नाम था माधवी घोष। मैंने परिहास कर कहा-''देखूं कैसी लड़की है-तुम्हारी ममेरी बहन...।''

उस छोकरे ने कृतार्थ हो फोटो दे दिया। कहा दीदी यानि थोड़ी बड़ी, बड़ी गरीब है। सोचा होगा शायद गरीब का कन्यादान बनाकर कुछ पैसे ऐंठ लेगा। पैसे के ऐंठने का ही उसने सोचा था...।

मैंने देख कर ही उसे लौटा दिया और कहा-''बिल्कुल ही बदसूरत-पर चौथे पति का इतना ना-नुक्स निकालना शोभा नहीं पाता-चाहे उसके बैंक में पैसा रहे या कलकत्ते में पांच-पांच घर हों तो भी...।''

वह छोकरा मेरी ओर आंखें फाड़ कर देखता रह गया-''क्या कह रहे हैं सर?''

''क्या कह रहा हूं मगज में आता नहीं-तुम सब पूरे-के-पूरे कोरे हो-क्या कुछ भी समझते नहीं-तुम लोगों को बात समझाने के लिए कुदाली से खोद-खोद कर बात को दिमाग में डालना पड़ेगा।''

तब भी वह लड़का अजीब-सी निगाह से पूछता रहा-''सर क्या कह रहे हैं? सच, मैं समझ नहीं पा रहा।''

अच्छा समझ नहीं रहे। मैं हँसने लगा-''तब तो मात्रा करके ही पढ़ाना पड़ेगा। सुनो तीन बरस पहले मेरी पत्नी एक विद्युत दुर्घटना से मर गई थी। सुना भी होगा। जो भी हो अब मैंने तय किया है एक बार और गृहस्थी करके देख ही लिया जाये। पैसे वाले बूढ़े के साथ बुद्धिमती लड़कियां जानबूझ कर शादी करना चाहती हैं। उन सब देशों में यही देख कर आया हूं। विदेशों में लड़का हो या लड़की शादी की कोई उम्र नहीं होती। जो भी हो-तुम्हारी ममेरी बहन का नाम माधवी है। आशा है कि काफी बुद्धिमान भी है-बूढ़ा समझ कर ब्याह के लिए ना करके अपना भविष्य खराब नहीं करेगी। तुम्हीं मध्यस्थता का भार लो। हां, तुम्हारे मामा अगर बूढ़े दामाद की ख्वाहिश रखें तभी।''

कुछ पल वह लड़का मुंह खोल कर मुझे देखता रह गया फिर अचानक मेरे पैरों पर गिरकर बोला-''सर क्या बताऊं आप बड़े हैं, आपको तो कुछ नहीं कह सकता अगर मजाक नहीं कर रहे तो-बताता हूं मामा क्यों पूरा कुनबा आपके पैरों तले पड़ा रहेगा-पर सर शायद आप मजाक कर रहे हैं?''

मैंने गुस्से का भान किया। गुस्से का अभिनय करते हुए कहा-बेकार में तुम्हारे मामा की जवान बेटी की शादी की बात पर मजाक क्यों करूंगा-गरीब घर की एक समझदार, व्यस्का लड़की से ब्याह करके मैं अब शान्तिपूर्वक रहना चाहता हूं।

क्या आप लोग भी सोच रहे हैं एक गरीब घर की काली-कलूटी लड़की को लेकरे मैं क्या करूंगा?

तब बताता हूं कान में चुपचाप, सुनिये, खूबसूरत से तो कई बार शादी करके देख लिया अब जरा जबान बदलने की इच्छा हो रही थी।

ज्यादा उम्र की गरीब घर की बड़ी ही साधारण-सी लड़की से ब्याह का सोच कर मुझे जोश आने लगा। माधवी के साथ ब्याह कर लिया। पौली के साथ कचहरी में रजिस्ट्री कर शादी की थी। यहां फिर से वही पहले वाला-पुरोहित, नाई-हां, सिर पर सेहरा करने को किसी ने जोर नहीं दिया। हाथ में सरौंता किसी ने पकड़ा दिया।

शुभदृष्टि के समय नाई ने रीति के अनुसार छन्द बांधा-अच्छे, बुरे लोग हट जाओ, अगर ना गये तो मेरी तरह-एक मुट्ठी चावल महीने खाना पड़ेगा।

मैं झूठ नहीं बोलूंगा मुझे यह सब समारोह अच्छा लग रहा था, जैसे कांचनगर के प्रांगड में फिर से आ गया-तब शादी का ऐसा ही रूप देखा था।

मैंने अपने दूसरे जीवन में जितनी भी शादियां देखी थीं-वे सब बिल्कुल अलग थीं-अनुष्ठान का अर्थ था उपहार ग्रहण। रोशनी से जगमगाता भवन, या सजा शामियाना, उसमें लम्बे-लम्बे टेबिल, कांटा-छुरी-चम्मच की आवाज, वर्दी पहने वैरे, तरुणियां मेनका, रंभा, उर्वशी जैसी सजी-धजी होतीं। अगर उनमें से कुछ प्रौढ़ भी हों तो साज पोशाक से युवती नजर आती थीं। और फूल के गुलदस्तों के भार से बोझिल दूल्हा-दुल्हिन। जो एक-एक बार उठ कर नम्रता की मुद्रा में दोनों हाथ बढ़ाकर उपहार ग्रहण में लगे रहते।

इसी प्रकार की शादियां देखने का मैं आदी हो चुका था। भूल ही गया था और भी एक तरह का ब्याह-अनुष्ठान आज तक चालू है। अभी भी बनारसी साड़ी पहने बहू-बेटियां माथे पर सूप, टोकरी, घड़ा लेकर दूल्हा-दुल्हिन को घेर लेते हैं-अभी भी शादी की समाप्ति पर छोटे-छोटे कुल्हड़ द्वारा बचपने का खेल खेला जाता है।

सप्तपदी भी तो होती है।

माधवी नाम बड़ा मधुर था। चेहरा भी खराब ना था पर विषन्न और क्लान्त था। शुभदृष्टि के वक्त भी वही क्लिष्टता, विषनन्ता देखकर मुझे जरा हताशा हुई थी। तस्वीर देख सोचा था शायद गरीबी, मेहनत, चिन्ता और अनजाने भविष्य से भयभीत है या परेशान है। पर अतनू बोस के साथ अपना भविष्य जोड़ वह खूब विदा हो जायेंगे। उसके नीरस चेहरे पर रस बरसेगा, बुझी आंखों में दिखाई देगी उज्ज्वलता। सुखी गृह में ही तो रूप का वास होता है।

दुखी लड़की सुखी गृह में जायेगी, उसके सुख से मैं भी सुखी हो पाऊंगा। पर शुभदृष्टि के समय भी इतनी दुखी? अतनू बोस के साथ भाग्य का सिंहद्वार खुल जाने पर भी? बूढ़ा दूल्हा शायद अच्छा नहीं लगा। खुद भी तो बच्ची नहीं है। उस लड़के की दीदी है तो कम-से-कम तीस-बत्तीस की तो होगी ही। उस समय कौड़ी के खेल के समय उसके हाथ की शिरायें साफ नजर आ रही थीं। उम्र ना होने पर ऐसी नजर नहीं आती।

इसके पहले भी तो यह खेल छोटे-छोटे नरम फूलों जैसे हाथ और भारी-भारी नरम मोम की तरह मुट्ठी जिनमें शिरायें दिखती ही ना थीं-इसका मतलब उनकी आयु बहुत कम थी।

अच्छा तो मैं किस उम्र के कगार पर खड़ा हूं। जीवन में कितने ही प्रकार के इतिहास रचे, लेकिन मैं अपने आप को कहां बूढ़ा मान पाता हूं?

माधवी की शिरायें तो दिखती थीं पर जब सुहाग रात के वक्त जब उसके हाथ की उंगली में अंगूठी पहनाने लगा तो पसीने से गीला नरम और ठंडा जैसै पत्थर की तरह लगा तब मुझे अच्छा लगा। एक प्रकार की रूमानी भावना से दिल भर गया।

बेबी की तस्वीर को एक चन्दन की लकड़ी के डिब्बे में रखा था, वह वहीं रही। पौली बोस की कोई भी तस्वीर इस घर में नहीं थी।

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यह घर था माधवी बोस का। चित्र के माफिक इस घर के परिवेश में जहां बनावटीपन का नामोनिशान भी ना था। वह भी साधारण जीवन जीयेगी और अतनू बोस को भी इसी रस से सराबोर कर देगी।

सुहागरात को मैंने माधवी से पूछा-''तुम्हें खाना बनाना आता है?'' वह भी आश्चर्य से देखती रह गई। सोचा होगा क्यों भावी पत्नी की कोई खोज-खबर ही नहीं ली? या यह भी सोच सकती है इस वक्त खाना बनाने की बात क्यों?-या यह भी सोच सकती है कितनी अजीब बात है-यह आदमी क्या इतना बूढ़ा हो गया है कि सुहागरात को और कुछ इसे कहना आया नहीं? देखने से तो इतना बूढ़ा नहीं लगता।

पता नहीं जो भी सोचा हो पर आश्चर्य में तो पड़ ही गई होगी। फिर संक्षेप में बोली-जानती हूं।

उसे छोटे से उत्तर से ही मुझ में उत्साह का उफान आ गया-बांगला खाना, जैसे-केले का झोल, नील बैगन की सब्जी आदि बनाना जानती है कि नहीं। इसका मतलब था मेरी स्मृति पर अभी भी कांचनगर के इन शब्दों की झंकार बज उठी। वह सब कुछ जानती थी। तब अंग्रेजी खाद्यानों की तालिका दी-''तब वह, बोली नहीं, जानती क्यों कि वह सब बनाने की जरूरत ही नहीं थी।''

मैं उसकी सरलता पर मोहित हो गया। उसने मिथ्या अहंकार दिखाने के लिए यह नहीं कहा कि जानती हूं यह जानकर मुझे खुशी हुई।

तब मैं हँस कर बोला-''तुम शायद सोच रही होगी माजरा क्या है, इस आदमी ने क्या खाना बनाने वाली नौकरानी से शादी की है। है या नहीं?''

माधवी ने भी मुस्कुराकर कहा-''शायद अपने घर के सदस्य के हाथ का बना खाना पसन्द करते हैं?

उसकी बुद्धि का नमूना देखकर मैं और भी मोहित हो गया।

उसने आप कहा वह भी मुझे अच्छा ही लगा। ठीक है धीरे-धीरे हिम्मत खुलनी चाहिए। उस घर की लड़की ने अगर शुरू से ही तुम कहना शुरू किया होता तो मुझे अच्छा नहीं लगता।

तभी तो उसके आप कहने पर आपत्ति नहीं की। हां, पसन्द करता हूं यह सोचना गलत होगा। कहना चाहिए इच्छा जागी थी। क्योंकि घर के किसी सदस्य के हाथ का बना खाना खाये ना जाने युग बीत गये-शायद प्रागैतिहासिक युग...।

मेरी नयी जीवनयात्रा की शुरूआत माधवीकुंज से हुई। में जिस प्रकार के जीवन की कामना करता आया था उसी शैली में अपना जीवन स्तर ले आया। उसमें वर्तमान युग के साथ तायाजी के युग का सार मिला दिया।

माधवी अपने हाथों से देशी खाना बनाती। वह सुस्वाद खाद्य अपने हाथ से परोस कर बड़े से चांदी के थाल में लेकर आती। हां, जमीन पर आसन बिछाकर खाने का शौक पूरा ना कर मेज पर ही खाता था।

अपने वर्तमान जीवन का नाम माधवीकुंज दिया पर उसमें माधवी रजनी का सपना साकार होता दिखाई ना देता। चन्द की लकड़ी के बक्से में जो चित्र था वह मेरे सपनों को घेरे रहता और मेरे कामना-वासना को छोटे हाथों के तमाचे से हटाता।

दूसरी ओर माधवी। रात का सपना भी तो माधवी के अन्दर भी ना था। वह तो एक गृहस्थी पाकर ही धन्य हो गई थी।

मेरा भी यही हाल था।

हम लोग ऐसे रहते जैसे दीर्घ काल से विवाहित पति-पत्नी वास कर रहे हों। जहां हमारा दिन वाला भाग ही महत्वपूर्ण था, रात्रि गौण।

रात क्या बिल्कुल नहीं थी। दाम्पत्य जीवन का एक कर्त्तव्य भी तो है। उसका पालन बिना किसी आवेग या आस्वाद से किया जाता। माधवी भी इससे अधिक नहीं चाहती। उसके प्रति मैं कृतज्ञ था, वह प्रभा की तरह नहीं थी यही अच्छी बात थी।

सुबह ना जाने कब उठ जाती पता नहीं। कभी पता ना चलता। मैं अपने हिसाब से उठता। मुंह धोता, दाढ़ी बनाता, पेपर पढ़ता।

पेपर अपने शौकीन सोफे पर नहीं बल्कि बगीचे के किनारे मोल बरामदे में बेंत की कुर्सी पर बैठकर। माधवी तब शायद स्नान करती। फूल तोड़ती, तुलसी को पानी देती, लक्ष्मी जी की पूजा करती। फिर मेरा नाश्ता लेकर आती। माधवी सफेद साड़ी के अलावा और किसी रंग की साड़ी नहीं पहनती थी। उसका कहना था काफी समय तक टीचर थी, उसी पोशाक की आदत पड़ गई है।

मुझे ये भी बुरा नहीं लगता था।

मेरी मां, ताई जी भी ऐसी ही थोड़ी रंगीन किनारी वाली साड़ी पहना करतीं थीं।

फिर रंग तो बहुत देखे-रंग की चकाचौंध, रंग से खुमारी-रंग से दहन-अब रंग में मेरी रुचि नहीं है।

यही शुचि, शुभ्र कितना पवित्र है। नाश्ता हाथ में लिये सफेद मूरत मुझे भाती। प्यार से पास वाली कुर्सी की ओर इशारा कर उसे बैठने को कहता। माधवी कभी-कभी बैठती। माधवी उस प्यार की भाषा को नहीं समझती। वह घर गृहस्थी के काम करने के लिए व्याकुल रहती। शायद बैठती थी तो मन उसका काम में लगा रहता। मेरे साथ बात करने में उसका मन ना रहता।

अजीब बात है। इसने तो पढ़ाई भी की थी, और स्कूल में अध्यापन भी किया। पर कभी उसको पेपर के पन्ने उलटते भी नहीं देखा। किताब तो दूर की बात थी।

गृहस्थी में जैसे उसे एक प्रकार का मोह लग गया था या नशा हो गया था। सुबह की सुनहरी धूप में बगीचे के बरामदे में बैठ कर पति के साथ प्यार भरी बातें करने से ज्यादा उसे छत पर मंगोड़ी देना अधिक भाता। शाम को गाड़ी से घूमने के बदले उसे अगले दिन की सब्जी काट कर रखने में अधिक आनन्द मिलता था।

मेरे पास बैठकर उसे जम्हाई आती, उधर नौकर महरी के साथ वह घण्टों गप-शप करती।

यह सब मैं पसन्द नहीं करता। जानने के बाद वह डर कर बोली-अब नहीं करूंगी। अगर वह यह जवाब देती कि बात करती हूं तो क्या यह लोग क्या इंसान नहीं हैं, तब मुझे ज्यादा खुशी मिलती।

''पर वह तो डर से यही कहती ठीक है अब ऐसा नहीं होगा।''

मैंने उसके भयभीत वाले रूप में निर्मला की परछाई खोजने की चेष्टा की तो मुझे निराशा हाथ लगी। मैंने इस गृहस्थी के प्रति समर्पित औरत के भीतर निर्मला का आविष्कार किया पर-ना यह तो वैसी ना थी। निर्मला सेवा-परायणा, विनीत, आज्ञाकारिणी थी। पर उसका मन हीनता से परे था। उसके भीतर लोभ ना था। वह प्यार की प्यासी नहीं थी बल्कि अपने प्यार से सबको पूर्ण कर सकती थी।

तब मैंने निर्मला को समझा नहीं। माधवीकुंज में सुख-शान्ति की सीमा भी अधिक ना थी। मेरे भाग्य में माधवीकुंज में सुख-शान्ति से रहने का सपना फलीफूत ना हो पाया। धीरे-धीरे मुझे माधवी का असल रूप नजर आने लगा था। वैसे तो उसका परिचय अध्यापिका के रूप में मिला था पर मुझे लग रहा था मैंने एक कंजूस दासी मार्का बूढ़ी से ब्याह किया है। माधवी नामक लड़की को फूलों जैसा सुन्दर होना चाहिए। यह तो कंजूस, लाज-लज्जा-विहीन औरत, जो रोजमर्रा के खर्चों से एक-एक पैसा बचाकर मुझसे छुपा कर बैंक में नया खाता खोल कर जमा करने लगी थी।

आप कभी सोच सकते हैं अतनू बोस की ब्याहता जो उसकी पूरी सम्पत्ति की हकदार है, उसको क्या आवश्यकता थी मुझसे छुपाकर बैंक में खाता खोलकर पैसा जमा करने की। इसका मतलब था अमीरी उसे रास नहीं आ रही थी।

हालांकि उसे पीली के हाथ खर्च और उसके घर खर्च के बारे में अन्दाजा ही नहीं था। और अगर जाने भी तब भी उसे विश्वास के धरातल पर रख कर सोचना उसके लिए असम्भव है।

उसने जो पैसा जमाया था (उसकी असावधानी से भेद खुला) जानकर मैं एक तीखी हँसी हँसा। और सोचा एकदिन उसे अपन बैंक का पास बुक और घर के किराये के चेकों का हिसाब उसे दिखाऊं-पर मुझे इतना सब करने की इच्छा ही नहीं हुई। उसकी कोशिश और पद्धति जिस प्रकार जाहिर होती गई कि वह पैसा बचा रही है, यह एक अजीब बात थी। क्योंकि मैं एक तो ज्यादा वक्त घर में रहता ही नहीं था दूसरा मैं इन सबसे उदासीन रहता था।

जब मेरी नजरों में यह सब आया तो मैं ना केवल विस्मित बल्कि जड़वत हो गया था।

माधवी व्यय संकुचन में किसी प्रकार का संकोच नहीं करती थी। उसे व्यय संकुचन परियोजना का कर्यान्वत सर्वप्रथम दो नौकरों को निकाल कर किया। एक को नहीं निकाला क्योंकि वह मेरा खास था। उस पर अपनी उस्तादी ना दिखा पाई। दो दासियों का खाना भी बन्द करवा दिया। (हां, इस घर में पांच दास-दासी थे। जितना भी साधारण जीवन जीऊं पर यह मुझे आवश्यक लगे थे।)

20

चूंकि ये दासियां मालिक की लापरवाही का अवसर लेकर दोनों टाइम खाना खाती थीं इसीलिए उनकी तनख्वाह में कटौती कर दी।

सिर्फ यही नहीं।

शहर से दूर गाय पालने का शौक लगा था। माधवी दो गायों के दूध से आधा दूध छिपाकर पड़ौसियों को बेच देती थी। गायों के गोबर से अपने हाथों से चुपके-चुपके रसोई की पिछली दीवर पर पर कंडों से माधवी चूल्हा जलाती थी। गैस, स्टोव, हीटर सब उठा कर।

एक दिन मुझे धूआ नजर आया तो मैंने पूछा घर में कही धूआ हो रहा है? पता चला था यह धूआ कंडे कोयले जलाने का था। माधवी ने प्रश्न के उत्तर में यही कहा था-गैस, विद्युत से मुझे डर लगता है।

मैंने विश्वास भी कर लिया था। मुझे यह भी लगा कि शायद माधवी को पौली की मृत्यु के इतिहास का पता लग गया है। सिर्फ मैंने अधिक कुख नहीं कहा था। सिर्फ कहा-इन सबसे भय पाना तो शर्म की बात है। सीख लो।

माधवी ने उसे सीखने से ज्यादा जरूरी समझा था कंडे थापने की विधि या कला सीखना। या वह अपने बारासात वाले मैके से ही सीख कर आई थी।

इस प्रकार माधवी ने इस घर को भी धीरे-धीरे अपने मैं जैसा ही बना लिया। जब वह नौकर से बाजार का पाई पैसा का हिसाब लेती, हर पल भंडारे की चाबी को सम्हालने के लिए आतुर, इस डर से व्याकुल कहीं नौकर-चाकर चावल, दाल चोरी ना कर लें, मछली मंगा कर उसे तराजू से तौल कर माप जोख भी करती कि कहीं नौकर ने पैसे तो नहीं मारे तब मुझे लगता यह उसी अतनू बोस का ही घर है। जिस घर में नौकरों के गांव के रिश्तेदार आकर महीनों रह जाते और उनका खाना-पीना सब यहीं मुफ्त में चलता। कोई पूछने वाला ही ना था। किसी को पता ही नहीं लगता था। निचली मंजिल पर किसी नये चेहरे को देख कर लगता कि शायद वह नया आया है। तब कोई नौकर हँसी से चेहरा खिला कर बताता, ''साहब यह मेरा भतीजा है कलकत्ता कभी नहीं देखा तभी देखने आया है।''

बस! हो गया इसके बाद किसी को क्या पड़ी थी कि अपने को उस बारे में परेशान करता।

इधर अतनू बोस के परिवार में नौकर ने नाश्ते में कितनी रोटियां ज्यादा खा लीं इसका भी हिसाब किया जाता, इस बात पर नौकर से बहस भी छिड़ जाती।

चोरी-चोरी माधवी हर वक्त चोरी के डर से आतंकित रहती।

कहीं उसकी गृहस्थी से कुछ छिन ना जाये। उसे यह पता भी न चल पाया पहरेदारी करते-करते भी उसके लोहे की सन्दूक की चाभी, लक्ष्मी की पिटारी का मोहर कब छिन गया।

क्योंकि यह घर छोटा-सा चित्र जैसे सुन्दर था। यहां खबर इस कोने से दूसरे कोने में अनायास ही पहुंचती। हवा ही उसे पहुंचा देती।

अमीर लोग काहे को जरूरत से ज्यादा बड़ा मकान बनवाते हैं इसकी वजह मुझे अब पता लगी। जिससे एक जगह की खबर दूसरे स्थान में ना जा सके। मैंने तो छोटी-सी तस्वीर की तरह घर...।

घर का क्या दोष? माधवी का आदर्श अगर उसका मैंका ना होता? उसे किसने महरी को हटा कर मसाला पीसने को कहा था? कौन कहता था कि नौकर को निकाल कर खुद पोंछा लगाओ?

माधवी को काहे यह बात समझ नही आती थी कि इससे अतनू बोस की आत्मा को कष्ट पहुचता था। क्यों नहीं समझती थी इससे उसका प्रयोजन घटता जा रहा था। उसकी अवधि कम होने लगी थी।

एकदिन मैंने क्रोध भी दर्शाया था, ''नौकरों को क्यों हटाया?''

इतने लोग काम करेंगे तो मैं दिन भर क्या करूंगी।

हां, माधवी क्या करे?

आराम को उपभोग करने की शक्ति हरेक के पास नहीं रहती। उसमें भी नहीं थी। उपभोग शब्द का अर्थ उसके अभिज्ञान में अलग तरह का था या उसका अपना अलग कोश था।

उसे अपने संकीर्ण परिधि में आनन्द मिलता। वह नीचता, गन्दगी, बेशरमी में खुशी थी।

माधवी के बारासात के मैके वाले इस घर में आते ऐसी बात भी नहीं थी। माधवी उनसे भी कंजूसी करती। वह उन्हें पसंद ना करती। अगर वे कभी आते तो वह उन्हें भगाने के लिए तत्पर हो उठती। वह उनसे डरती, अगर वे अपना डेरा यही जमा लें। इस डर से उन्हें बैठने तक देती।

इस दीनहीन प्रकृति की कंजूस, अभद्र औरत से अतनू क्या हासिल करेगा? फिर भी वह उसे सहे जा रहा था उसे अब भी आशा थी माधवी से कभी इस घर में एक स्वर्गीय वस्तु का आगमन होगा।

अतनू बोस उस स्वर्गीय गुलाब की आशा में गोबर के खाद की गन्दगी को भी बरदाश्त कर रहे थे। अतनू बोस का वह सपना भी चूरमार होकर टूट गया।

एक दिन वह अमानवीय घटना घटी। मैं, अतनू बोस गाड़ी में इधर-उधर घूमते-घामते जशोर रोड़ के किस कोने में पहुंचे थे पता नहीं। एक औरत को नल के पास देखा। वह दो मोटे-ताजे लड़कों के साथ बैठी थी। उसे महिला कहना भी उचित होगा क्योंकि उसके चेहरे पर तेज था ऐश्वर्य था।

वह ऐश्वर्यवर्ती मुझे जानी पहचानी लगी। कौन? मैं कुछ सोचे बिना गाड़ी से उतर गया मैंने छोटे लड़के से जिसकी उम्र छह या सात बरस होगी सीधा प्रश्न किया-''बेटा यह तुम्हारी मां है?'' उसने गर्दन झटका कर हां कहा।

थोड़ी देर बाद ही गाड़ी में चढ़ बैठा। सन्देहहीन होकर ही आया था। प्रभा ने मुझे आप कहकर सम्बोधित किया था।

फिर भी मैं समझ गया कि उसका व्यंग्य बाण से भेद करने की आदत बरकार थी। कहा-खबर मिलती है अमीर बन गए हैं, साहब बन गए हैं। हिन्दू धर्म को भी नहीं मानते, पिता के श्राद्ध में भी नहीं गये-अपना नाम भी बदल डाला है।

फिर हँस कर पूछा-लड़के, लड़कियां कितनी हैं? लगा प्रभा ने पुराने फरिहास का प्रसंग छेड़ दिया हो प्रभा अपने विजयगौरव की पताका फहरा कर हारे हुए को चिढ़ा रही हो।

और वहां खड़े नहीं रह पाया। गाड़ी में चढ़ कर उनके चेहरों पर धूल उड़ा कर चला आया। काहे नहीं उड़ाता? नहीं तो क्या कमीज की जेब से पर्स के भीतर से बेबी बोस का छोटा-सा चित्र उसे दिखाता? हां जिस चित्र को वह कभी भी चन्दन के बक्से से निकाल कर अपने कमीज के पॉकेट में रखता। उस पॉकेट का स्थान उसका वक्षस्थल था।

हां, अतनू बोस केवल धूल उड़ाकर ही क्यों चला आया। वह तो अगर चाहता तो गाड़ी दुर्घटना भी कर सकता था। मोटे-मोटे आठ-दस बरस के लड़कों का खून कर सकता था। जितने भी तन्दुरुस्त हों पर गाड़ी की तेज गति के सामने कुछ भी नहीं।

जिस गाड़ी के चार चक्के हैं और वे काफी वजनदार भी हैं, भुलक्कड़ अतनू बोस सिर्फ माथे में तीखा सा दर्द लेकर भाग आया-जिस दर्द की वजह थी बातों का दशन। जैसे किसी जहरीले कीड़े ने काटा हो। वह था-बच्चे कितने? कितने लड़के, कितनी लड़कियां?

सिर्फ एक साधारण-सा प्रश्न? उसने तो कोई बात चोट पहुंचाने के लिए नहीं कही थी। तब क्या वही व्यंग्यबाण सत्य है? बेबी बोस का क्या मुझसे कोई नाता ही नहीं?

माधवी बोस भी एक दिन मुझे प्रभा की तरह प्रश्न वाणों से जर्जरित कर देगी-''तीन-तीन शादियां मेरे साथ ब्याह से पहले भी की थीं और दो बरस मेरे साथ भी बिता दिये...?''

उसी दिन उसे जबर्दस्ती डॉक्टर के पास ले गया। वह जाना नहीं चाहती थी। माधवी कह रही थी-''रात को खाना बनाना है, अंडे की करी बनाने के लिए अंडे उबाल रखे हैं।''

कहां, भाड़ में जाए अंडे।

चूल्हा बुझ जायेगा।

भाड़ में जाय। पर मुझे तो कोई बीमारी नहीं है। बेकार में डॉक्टर के पास क्यों जाऊं?

तुम्हें नहीं मुझको तो है। डॉक्टर ने मुझे उबार लिया।

डॉक्टर ने बताया बेबी की शक्ल मेरे से अलग नहीं है।

पर माधवी बोस नाम की दुबली काली लड़की जिसकी उम्र का अन्दाजा लगाना मुश्किल था-उसके बारे में डॉक्टर ने बताया-उसमें मां होने की शक्ति नहीं। कभी नहीं थी। प्रकृति उसके प्रति अनुदार, जो किसी भी लड़की का अधिकार है उससे वंचित करके पृथ्वी पर भेज दिया।

फिर माधवी बोस को इस पृथ्वी पर रहने की क्या जरूरत है। सिर्फ गाय के दूध को बचा कर बेचने के लिए या किचन की दीवार पर कंडे थोपने को। या नौकर ने कितनी रोटियां खाईं। उसका हिसाब लगाने; और रात को भीगे-भीगे हल्दी से सने हाथों और एक गन्द सी, अस्त-व्यस्त साड़ी डाल कर अतनू बोस के साफ सुथरे बिस्तरे पर एक कोने में सिमट कर रोने के लिए अब अतनू बोस भी गहरी नींद में रहता। ना माधवी बोस किसी को दोष मत देना, तुम्हारी विधात ने ही तुम्हें मारा।

21

अचानक हैजा होने का तो बहाना था। अतनू बोस को शाबासी देनी होगी। किसी भी बात से ना टूटने की करामात-उसे तो पुरस्कार प्राप्त होना चाहिए।

अतनू के कुछ हितैषी मित्र भी थे। बड़े बाजार के सूत्र से प्राप्त। जिनके यहां वह शादी-ब्याह पर उपहार लेकर जाया करता था साथ में पौली बोस भी। उन लोगों ने अतनू बोस की चौथी शादी को आखिरी ही समझा था, वे भी उसे दयादृष्टि से देखने लग गए। शायद पीछे कानाफूसी करते भी होंगे-''पौली की जगह पर यह काली, बांस सी मास्टरनी...।''

पर वे भी उसके शोक पर सहानुभूति दर्शाने आए। कहा-क्या करोगे? लगता है गृहस्थ-सुख तुम्हारे नसीब में ही नहीं।

अतनू बोस उनके सहानुभूति का जवाब ऐसे देता, चाय पीयोगे।

वे सब उससे पूछते अचानक कैसे ऐसी बीमारी हुई?

तब अतनू कहता-सिग्रेट मंगवाऊं।

तब वे आखिरी वार करते वनवाला के साथ वनवास का शौक तो पूरा करा अब लोगों के साथ रहो।

अतनू हां, इस घर को मैंने अपनी आखिरी पत्नी के पिता यानि अपने ससुर को दान में दे दिया। वह बड़ा गरीब है, मुझे उसने बूढ़ा जानकर भी अपना दामाद बनाया था।

उस घर को बल के रूप में प्रयोग कर क्या अपनी विवेक की ताड़ना से परिताप पाना चाहता था?

दोस्तों को इस बात से खुशी नहीं हुई, इतना सुन्दर बगीचों से घिरा मकान अपनी मृत पत्नी के बाप को दिया यह कहां का इंसाफ है? इतना प्रेम तो ना था। शायद इसी को अमीरी का शौक का नाम दिया गया है।

अतनू बोस दुबारा अपने राज प्रासाद में वापिस लौट आये।

जैसे किसी बुरे सपने से उसकी नींद खुल गई। उसे माधवी कुंज की जीवन धरा को याद करने से ही लाज आती और साथ में स्वयं पर गुस्सा भी आता।

अपने पुराने जीवन में लौटकर उसकी जान में जान आई।

लेकिन मैं फिर से उसी गलती को दोहरा कर क्यों पछता रहा हूं।

अतनू बोस कौन? मैं ही तो हूं जो अपनी चौथी बीवी का काम तमाम करके एक भयंकर बीमारी का शिकार हो गया था।

पाचन प्रणाली के जटिलतम भागों में जटिलता। एक बड़े आप्रेशन के लिए नर्सिंग होम में कुछ दिन रहना पड़ गया। फिर तो में बुढ़ापे की तरफ बढ़ चला, शरीर में चुस्ती-फुर्ती ना रही।

चिकित्सक मंडली ने सलाह दी कि मुझे रोगी की तरह खाना-पीना हर बात में परहेज करके रहना पड़ेगा। वह भी जितने दिनों तक मेरी आयु बाकी है।

जिन कीटाणुओं से माधवी को हैजा हो गया था। वे ही क्या असावधानी वश माधवी बोस के पति की पाचन नलियों में भी प्रवेश कर गये? या माधवी जब अपनी मृत्यु मलिन आंखों से उसे स्तब्ध होकर देख रही थी तब उसी दृष्टिपथ से उसने मृत्यु का जहर भेज दिया? पता नहीं जैसे भी हुआ पर व्याधि तो खतरनाक किस्म की ही लगी थी।

फिर भी मैं बिना मरे ही नर्सिंग होम से वापिस भी लौटा और यह भी महसूस होने लगा कि माधवी मेरी आखिरी बीवी नहीं थी।

अब शायद आप लोगों का धैर्य जबाव दे गया है। सोच रहे होंगे यह आदमी और कितनी देर अपनी जबान चलाता रहेगा?

सुनना तो आप लोगों को पड़ेगा ही। खून के केस का मुकदमा-जूरी गणों को सुनना ही पड़ेगा एक आध खून नहीं दो जोड़े खून करके पकड़ा गया आसामी। जो पांच कत्ल का नायक भी कहलाया जा सकता है। अगर उसमें कांचनगर के मझले बाबू के एकमात्र सन्तान अतीन्द्र नारायण को भी उस खून में शामिल करें।

अतनू बोस ने उसे भी तो इस संसार से मिटा डाला।

विश्वास करिये महोदय इन हत्याओं से मैं विचलित नहीं हुआ। क्यों होता भला। मैंने तो कभी अन्याय नहीं किया था। मेरा दोष तो यही था ना मैं सुख पाना चाहता था। किसी दूसरे का सुख छीन कर नहीं मैं स्वयं ही सुख को प्राप्त करना चाहता था। अपनी चेष्टा से उस सुख को गहरा करना ही मेरी तपस्या थी।

मेरी इस चेष्टा से अगर कोई हस्तक्षेप करे या किसी की वजह से मुझे आशा भंग की तकलीफ सहनी पड़ जाये तो, उसको मैं अपने रास्ते से ना हटाऊं; वह तो मेरे सुख की हत्या करना चाहता है।

सारी जिन्दगी मैं इतना परिश्रम कर बिना किसी पूंजी के इतना अमीर बना, पर जरा भी सुख-सन्तुष्ट जीवन का दावा भी नहीं कर सकता था?

मेरी बीवियां कोई-गले में फांसी लगाये, कोई कुलत्यागिनि बने, कोई स्वतंत्रता के नाम पर गलत रास्ता अपनाये और कोई कंडे थापती रहे?

फिर भी मैं भाग्य का खिलौना बन कर टुकुर-टुकुर देखता रह जाऊं? मैं क्या मर्द नहीं हूं?

मेरी इस बीमारी ने मुझे तोड़ कर रख दिया। मेरा स्वास्थ्य, गठीला बदन सब चले गये।

मेरी सेवा करने को नर्सिंग होम से छोटी लड़की जो नर्स थीं, मेरे साथ मेरे घर में भी सेवा करने के लिए आई।

वह मेरी तस्वीरों को जो कुछ साल पहले खींची गई थी अब दीवार पर थीं-उन्हें देखकर वह मुग्ध होती दिखाई दी।

वह आश्चर्यचकित हो प्रश्न करती-आपका स्वास्थ्य इतना अच्छा था?

वही नर्स ही मेरी आखिरी-बनी। जो मुझसे तीस-बत्तीस बरस छोटी थी।

आप लोग क्या जमीन से धूल एकत्रित कर मुट्ठी में रख रहे हैं-मेरे ऊपर फेंकने के लिए? उससे क्या आता-जाता है?

मैंने तो उससे विवाह के लिए जोर नहीं दिया था। उसका नाम कावेरी था। उसी ने ही कहा था आप लोगों को विश्वास नहीं आ रहा?

कुछ अविश्वास घटनायें भी इसी संसार में घट जाती हैं। अविश्वास्य है तभी तो इस धरा पर रंग-रंग-रूप भी जिन्दा है। मैंने अपने लाउडन-स्ट्रीट के घर में ही एक पुस्तकालय बनाया था।

जब पौली थी तब उसने किताबें चुनने में मेरी मदद भी की थी।

कावेरी पुस्तकालय के द्वार पर खड़ी होकर ही स्तम्भित हो गई थी। पूछा-आपके पास इतनी किताबें हैं?

उस वक्त मुझे रात-दिन परिचर्या की उतनी आवश्यकता नहीं थी।

वह समय-काल सावधानी से रहने का था-मेरे पास पैसा था तभी पचहत्तर रुपये रोजाना देकर एक रात-दिन के लिए नर्स रख ली थी। उसका काम कम-अवकाश की अधिकता थी। वह मुझे खिलाती और घुमाती रहती।

पूछा-तुम किताबें पढ़ना चाहती हो?

उसकी आंखों में चमक पैदा हो गई। वह बोली-किताब मिले तो मैं और कुछ नहीं मांगूगी।

सच।

सच कहती हूं मुझे अस्पताल में काम करना जरा भी अच्छा नहीं लगता। क्या करूं मां, बाप, भाई, बहन कोई भी नहीं है। पढ़ने-लिखने की सुविधा भी नहीं मिली।

किसी प्रकार इस काम में लग गई। पर मुझे अच्छा नहीं लगता। हर वक्त रोगियों की तकलीफें, मौत-यह सब मैं नहीं देख सकती।

मैंने कहा-''सेवा करना भी तो महान काम है। उसने अपनी नीली आंखों में प्रसन्नता की हँसी की रोशनी भर कर कहा-ओह सभी तो महान काम करने नहीं आते। मुझे वह काम अच्छा नहीं लगता।''

मुझे उसकी सरल स्वीकारोक्ति पर तरस आ गया। मेरे साथ उसका उम्र का इतना व्यवधान और नर्सिंग करते करते ये लोग इतनी स्वछन्द हो जाती हैं कि इन्हें मेरे बिस्तेरे पर बैठने या सोफा के हैन्डल पर बैठकर बात करने में विधा नहीं होती थी।

बात करते-करते मेरे बालों में हाथ फेरती, मेरे हाथ को दबाती रहती।

मैं भी उस सुख को उपभोग करते-करते पूछता फिर तुम्हें क्या अच्छा लगता है सुनूं?

कावेरी हँस-हँस कर खुशी के लहजे में कहती-सुनेंगे। हमेशा के लिए कोई अमीर मुझे पाले, मैं अपनी मर्जी से खाऊं, घूमूं, किताबें पढ़ूं? पाले? इस नई भाषा ने मुझे आकृष्ट किया। मैंने कहा क्या मतलब?

अगर पाले नहीं तो मुझे क्यों इतनी सुविधायें काहे को देगा?

मैं भी बोल उठा-यह तुम्हारी मर्जी है या मजाक कर रही हो?

कावेरी ने अपनी आंखें बड़ी-बड़ी करके कहा, हाय मजाक क्यों होगा। सच कह रही हूं यही मेरे जीवन की ख्वाहिश है-मैं बिना किसी चिन्ता के खा-पी रही हूं-किताबें पढ़ रही हूं-अगर किसी अमीर ने मुझ पर तरस खाकर गोद लिया कि मेरे बाप-मां नहीं हैं-।

22

मैं भी हँसते-हँसते बोला-अगर मैं गोद लूं। मुझे भी तो लोग अमीर ही समझते हैं।

'आप।'

कावेरी की आंखों के सामने तो स्वर्गलोक के दरवाजे खुल गये या उसके हाथों अलादीन का प्रदीप लग गया हो। तभी वह खुशी से झूम उठी। आप लेंगे। अरे वाह!

फिर थोड़ी बुझ गई-मैं तो ईसाई हूं।

मैं हँसने लगा-तो क्या इतने दिनों तक तुम्हारे हाथ से खाता रहा और तुमने मुझे जीवनदान दिया। तुम्हें ही ईसाई कर कर छोटा करूंगा। मैं ही तुम्हें गोद ले लेता हूं।

वह तब भी संदेह से भर कर बोली-आप मजाक कर रहे हैं?

जरा भी नहीं। देखस ही तो रही हो मुझे नुक्सान नहीं फायदा-ही-फायदा है। हमेशा तुम्हारी सेवा मिलेगी, मुझे मजूरी भी नहीं देनी होगी। हां, या नहीं?

मेरी हास्य रस से उसके सरल चेहरे पर जो सेविका के शुभ्र कपड़े से घिरा था एक चमक पैदा हो गई। उसकी नीली आंखें शीशे की तरह जगमगाने लगीं-मुझे भी मजा आ रहा था।

मर्जी के प्रश्न पर वह खुशी के मारे चीख उठी-क्यों? पैसा तो मुझे फ्लैट, खाना, कपड़ा इन सबके लिए चाहिए था। मुझे रहने दें, खाना दें, कपड़ा दें। मुझे पैसे की जरूरत क्यों होगी? मैं भी कम नहीं था उसने प्रश्न किया।

वह तो ठीक है पर मैं तो गोद लेकर हमेशा के लिए निश्चिन्त होने के दिलासे में रहूं और बाद में तुम्हें कोई आकर मांगे?

क्यों-और कोई क्यों?

कावेरी भी उत्तेजित थी-आपके पास इतनी किताबें हैं, इतना सुन्दर घर है, आप भी इतने अच्छे हैं, आपके पास से चली क्यों जाऊंगी?

वाह वह क्या कोई बता सकता है? तुम्हारा अगर प्रेमी तुम्हें ब्याह कर मुझसे दूर ले गया?

अभी नहीं। मैं ब्याह करूंगी ही नहीं। वह अस्थिरता से इधर-उधर टहलने लगी।

और अचानक मेरे बिल्कुल करीब आकर मेरे हाथ पर अपना हाथ रखकर धीमे से बोली, ''इससे तो यही अच्छा है आप मुझसे शादी कर लीजिये फिर तो किसी और के मुझे यहां से ले जाने का सवाल ही नहीं रहेगा।''

क्या विश्वास नहीं हो रहा? सोचते होंगे मैं मनगढन्त किस्सा सुना रहा हूं।

नहीं मैं बनावट में विश्वास नहीं करता। जो सच है वही बयान कर रहा हूं।

मैंने कहा-इस रोगी वृद्ध से अपने को बांध कर अपना जीवन काहे को बर्बाद करोगी?

उससे क्या? मुझे तो नर्सिंग आती है। अपनी सेवा से आपको पहले सा बना दूंगी। पर उस उम्र को तो काट-छांट नहीं सकता।

वह भी हँसी-उम्र का हिसाब मेरे लिए नई बात नहीं है। मेरे पिता से मां बीस बरस छोटी थीं, मां को तो इसका दुख ना था। मां पिताजी को प्यार करतीं थीं।

मुझे उसके सरल स्वभाव ने मोह लिया।

मैं सोचने लगा कावेरी जैसी लड़की मेरी जीवन-संगिनी बनेगी यह क्या कम लोभनीय प्रस्ताव था?

बीमारी दूर हो चुकी थी पर कमजोरी थी उसी हालत में मेरी शादी कावेरी के साथ हो गई।

मेरे दोस्तों ने पीछे से छि:-छि: किया पर प्रकाश में आकर यही कहा-अच्छा ही किया। स्वास्थ्य इतना बिगड़ गया है कि तुम्हारे पास दिन-रात एक प्रशिक्षित सेविका हर वक्त मौजूद रहनी जरूरी थी। यह तो अच्छा है। कमरे में रात को यह रहेंगी पर कोई निन्दा भी नहीं कर पायेगा। यह कहकर हँसते-हँसते वे चलते बने।

फिर भी कावेरी के पास उपहारों के ढेर लग गये। नर्स की पोशाक से दुल्हन के वेश में वह बड़ी सुन्दर लग रही थी। शादी के बाद भी परिस्थिति अपरिवर्तनीय ही रही। सिर्फ कावेरी ने नर्स की ड्रेस तथा रूमाल छोड़ कर स्वयं को नये-नये रंग में सजाती। रात को पास वाले कमरे में ना जाकर वह मेरे कमरे में एक छोटी खाट पर सोने लगी। आजकल मेरे मित्र भी अक्सर आते। कहते-लगता है पोती के साथ संसार सजा रहे हो। कावेरी हँसी से लोटपोट होती।

मुझे हँसी नहीं आती थी। मैं डॉक्टर से अनुमति लेकर शाम को गाड़ी लेकर घूमने निकल पड़ता जिससे मित्रों का आना बन्द कर सकूं।

हालांकि ड्राइवर ही गाड़ी चलाता। कावेरी को पास में बिठाकर उसे उद्दाम वेग से गाड़ी चलाकर दिखाना अब सपने में ही शामिल था। हां, घूमने का भी परिमिट कोटा था।

अगर डॉक्टर का निर्देश ना भी पालन करता पर नर्स के निर्देश के समक्ष हारना पड़ जाता। नर्स ड्राइवर को आदेश देती अब नहीं चलो।

यहीं पर कावेरी-माधवी में जमीन-आसमान का फर्क था। कावेरी को जिस पल अधिकार प्राप्ति हुई उसने उसी क्षण से अपनी महिमा से उस पर दखल कर लिया।

रजिस्ट्रार के यहां साक्षी वाले ब्याह में शायद इस अधिकार की अधिक प्रबलता रहती है शालिग्राम, अग्निदेवता एक ही पक्ष के साक्षी या सहायक होते हैं।

कावेरी काफी खुश थी। वह जो चाहती थी उसे वह मिला। वह निश्चिंत थी।

मैं उसकी अद्भुत सोच पर आश्चर्य करता। उस उम्र की लड़की अपने पति की उम्र से बेखबर रह सकती यह मेरी समझ से बाहर की बात थी। वह मेरे पास बैठती, नहलाती, खिलाती, दवाई खिलाती और यह सब प्यार के इजहार सहित ही करती। सोने से पहले शुभरात्रि कहते वक्त मेरे अंगों पर हाथ फेरकर प्यार भी करती? पर उसके बाद ही बड़ी निश्चिन्ता से सो जाती।

कभी ना तो उसमें किसी प्रकार की उत्तेजना का आभास हुआ ना ही यह लगा कि वह मेरे जैसा पति पाकर पछता रही है।

शादी वाले दिन दोस्तों के मृदुर्गुजन कोने में बज रहे थे। और भई-यह सब बड़ी चालू होती हैं, दो दिन बाद ही रोगी बूढ़ा मर-खप जायेगा। तब इस विशाल सम्पत्ति कि मालकिन बन कुछ भी कर सकेगी।

इस परिस्थिति में ऐसी बातें मन में आना ही उचित था। दूसरों के साथ ऐसा हुआ तो हम भी ऐसा सोचते। उत्तराधिकारी हीन वित्तशाली बूढ़ा-हालांकि अभी मरने की आयु ना होते हुए भी रोग से आक्रान्त, ऐसे पात्र तो बुद्धिमति लड़कियों के लिए आकर्षणीय हो ही सकते हैं। इसमें सन्देह की गुंजाइस ही नहीं थी।

पर कावेरी भिन्न प्रकार की थी। वह सच में ही सेविका साबित हुई। ऊपरी तौर पर वह चाहे कहती थी मुझे नर्सिंग अच्छा नहीं लगता पर विधाता ने उसे ऐसे गुणों से विभूषित करके भेजा था जिससे वह कल्याणी सेविका की आदर्श उदाहरण प्रतीत होती।

मेरे लिए वह नर्स, पोती, पत्नी तीनों की एक मिश्रित समन्वित रूप लेकर आई थी।

अगर मैं रात को देर तक बात करना चाहता तो वह हँस के प्यार करके कहती-ना अब सो जाओ। कहकर खुद ही सो जाती।

अगर मैं रोज एक ही प्रकार का रोगी वाला पथ्य लेने से इंकार करता तो वह हुक्म करती-खबरदार, याद रखना मैं एक दायित्वपूर्ण नर्स हूं।

नहीं वह शादी के बाद मुझे आप कहकर सम्बोधित नहीं करती थी।

विचित्र-मधुर रिश्ता हम दोनों के बीच बन गया था। उसने ही इस रिश्ते को बनाया था।

पर मैं उस मधुर से सन्तुष्ट ना था। मेरा स्वास्थ्य अच्छा होने लगा तो मेरे भीतर से उस स्वर्गीय गुलाब की इच्छा भी प्रबलतम हो गई।

मैं लगातार अपनी उम्र का हिसाब लगाता। कहां-इतने कांड कर इतने इतिहास रच कर भी मेरी उम्र बावन बरस से जरा भी अधिक ना हो पाई थी। मेरा बना क्यों सफल नहीं होगा? बेबी बोस की तरह फूल। जिसे मैं इच्छानुसार बड़ा करूंगा, जो धमकी से मुरझायेगी नहीं, किसी के धक्के की चोट से मर भी नहीं जायेगी।

और कावेरी जैसी लड़की की कोख से-मेरा दिल दिन-रात उस सौभाग्यवान शिशु की कल्पना से आच्छादित रहता। मैं जी-जान लड़ा कर सुस्वास्थ्य का अधिकारी बनना चहता।

कावेरी से मुझे शर्म आयेगी। क्यों वह क्या मेरी ब्याहता नहीं है?

उसने जानते-बूझते ही अपने से तीस-बत्तीस साल बड़े आदमी से ब्याह किया है।

जानबूझ कर किया है तो पत्नी के सारे कर्त्तव्यों का उसे पालन करना ही चाहिए। शर्म कैसी? विदेशों में तो ऐसी शादियां होती हैं। तरुणी के साथ साठ, सत्तर, अस्सी बरस के बूढ़ों का ब्याह।

23

मैंने मन मजबूत कर डाला। मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की। शुभरात्रि के समय कावेरी का हाथ पकड़ कर कहा-तुम उस बिस्तरे पर नहीं जाओगी।

वह परेशान होकर बोली-पागलपन कर रहे हो? मैंने पकड़ मजबूत की।

मैं जैसे दिखाना चाहता था मैं कमजोर, बीमार बूढ़ा नहीं रहा।

कावेरी भी मजबूत हो गई। नहीं, तुम अभी पूरी तरह से स्वस्थ नहीं हो। डॉक्टर से पूछना पड़ेगा।

भाड़ में जाये अनुमति। मैं स्त्री-पुत्र-कन्या से भरा जगमगाता घर देखना चाहता हूं।

कावेरी भी शान्त लहजे में बोली-चाहना। अगर भाग्य में रहे तो होगा।

लेकिन मैं कहती हूं अभी तुम्हारा हृदय कमजोर है। तुमको अभी भी नियम पालन करना पड़ेगा।

कावेरी हाथ छुड़ा कर चली गई। उसी पल मुझे अनेकों व्यंग्यात्मक हँसी की आवाजें सुनाईं दीं।

निर्मल की शान्त तीखी हँसी।

पौली-तीखी तलवार की धार जैसी।

प्रभा-भरे मोटे गले से जोर से।

माधवी-टूटे स्वर से।

कहना चाहती थी कैसा अब तो परास्त हुए। शक्ति का अहंकार, उम्र का घमण्ड, पैसे का नशा। उस हँसी की गूंज पूरे कमरे में झमझम कर फैलती गई और मुझ पर दोषारोपण करती रही। मेरे दिमाग में सब कुछ उलझ गया। उन हँसी की आवाजों को पकड़ने गया-पकड़ा दबा दिया-फिर बन्द...।

आप लोग क्या कहते हैं? मैंने दो हाथों से नर्स कावेरी का गला दबाया था। फिर साथ जमीन पर गिर पड़ा था। यानि बेहोश हो गया था।

श्मशान से आने वाली हँसी की आवाजों ने मुझे बेहोश कर डाला। तभी तो मैंने कावेरी नामक उस मीठी-सी लड़की का गला दबाया-फिर भी उन हंसी-आवाजों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। वह हँसी की झंकार तो मुझे गिरते देखकर ही बन्द हो गई।

अब आप लोगों ने मुझे हिरासत में रख दिया क्योंकि मैं जमानत पर रिहाई नहीं मांगता। जाऊंगा भी कहां यहां से छूट कर? उसी घर में? अगर वही हँसी मुझे आकर छेड़े तो? उससे तो यही जेल ही ठीक है जहां मुझको कोई नहीं जानता। लेकिन मेरा मामला इतने दिनों तक लटका क्यों पड़ा है? मेरा न्याय जल्दी क्यों नहीं हो रहा? विचार क्यों थोड़ा जल्दी नहीं किया जा सकता?

'इन्डियन क्रिश्चियन एसोसिएशन' की तरह से मेरे विरुद्ध एक काफी काबिल वकील खड़ा हुआ था। जो परिहास युक्त लहजे में कह रहा था-देखिये धर्मावतार यह आसामी कितने महान चरित्र का इंसान है-जो बाइस साल की उम्र में अपने गांव में ब्याह कर चुका था-और वही महान गुणवाला पति था जिसने अपनी किशोरी पत्नी को (जिसे बालिका कहना उचित होगा) असहाय नारी को गले में फांसी डालकर मरने पर मजबूर कर दिया।

फिर यह महाप्राण व्यक्ति तपस्वी बन बैठे। श्रीमान तपस्वी का जामा डाल कर कृच्छ साधना में लग गये। हालांकि यही इंसान अपनी पत्नी के जीवन काल में अपने महान चरित्र का आदर्श प्रतिमान स्थापित कर चुके थे। लोगों को दिखावा किया ब्रह्मचर्य का। और जीवन का कैसे कम से कम प्रयोजन से रहा जाता है इसका निदर्शन बन गये।

फिर महान या बड़े लोग जो करते हैं अपना भेष बदल लेते हैं। उन्होंने भी तपस्वी का मुखौटा उखाड़ डाला। फिर एक सुन्दर, व्यस्का, स्वास्थ्यवती स्त्री का पाणिग्रहण किया।

पर उनका बड़प्पन इतना प्रभावशाली था कि वह पत्नी भी गृहत्याग करने को विवश थी। वह महिला बुद्धि की मालकिन थीं तभी उन्होंने प्राणत्याग का रास्ता ना चुन कर गृहत्याग कर पलायन किया।

हमारे यह महानपुरुष-उन्होंने भी धनी होने की खातिर घर छोड़ा। देख ही, रहे हैं धनी बने भी हैं नीति, दुर्नीति सब विसर्जित कर चोरी के रास्ते से भाग्यदेवी को अपने कब्जे में कर ही लिया।

पर शैतान कभी स्वर्ग में जाकर भी शान्त रहता है? श्रीमान जे.एन.पाइन की तरह विख्यात धनी व्यवसायी की एकमात्र कन्या का साथ पाकर गौरवशाली हो गये, उनकी तृतिय पत्नी पौली बोस जो अब संसार में नहीं है गुणों की खान थीं।

इस श्रेष्ठतम व्यक्तित्व सम्पन्न इंसान ने उसकी भी हत्या कर दी-विद्युत का आघात देकर।

इसकी शैतानी की कोई सीमा नहीं उसने ऐसा जाल बुना कि सन्देह की गुंजाइस ही नहीं छोड़ी और होने से भी क्या? पैसे से सब सम्भव है। पैसा जिसके हाथ में है सारी दुनिया उसकी मुट्ठी में है। पैसे से तो ईश्वर से झूठ कहलवाया जा सकता है-इंसान कहां की चीज है। मुझे देख रहे हैं-अगर आसामी पैसा दिखाकर मुझे अपना वकील बनाये तो मैं भी उल्टी दलीलें पेश करना शुरू कर दूंगा।

याद है-उस वक्त अदालत में सब हँसने लगे। फिर उन्होंने फिर से भाषण शुरू किया-पत्नी, यानि तृतीया की आकस्मिक दुर्घटना के बाद इसने क्या किया। विदेश प्रस्थान कर गये। मतलब वे भाग गये। अगर उनके ससुर पाइन साहब अपनी बेटी की अचानक मौत का बदला लेने की कोशिश करे-इस डर से कुछ समय समुद्र पार कर भागे। और काफी समय वहीं रह आये।

मैं भी उस वकील की कथा मोहित होकर सुन रहा था और सोच कर ताज्जुब कर रहा था कि इसने मेरे बारे में इतनी बातें कैसे जान लीं? और यह भी सोच रहा था मैं ही क्या शैतान, धन्धेबाज व्यक्ति हूं जैसा यह वकील बयान कर रहा है। मैं किसी भी दलील का खण्डन नहीं कर सकता। वकील बोलता चला जा रहा था। विलायत से वापिस लौट कर इस महापुरुष ने एक दूसरा ही रूप धरा। उन्होंने अपना प्रासादोत्तम घर छोड़ कर दमदम की तरह एक विश्रामकुंज की स्थापना की और सीधे-सादे जीवन का चरमोत्कर्ष दिखा दिया। और श्रीमान हँसियेगा मत। वहां इन्होंने एक बार और ब्याह रचाया। इस समय एकबार और अदालत में हँसी की लहर बह गई।

वकील धूआंधार बोलते रहे-गरीब घर की काली सीधी लड़की जो कभी भी अपना सिर ऊंचा ना कर पाये। मनोविज्ञान समझते हैं एक कहानी है-एक आदमी रोज रात को ब्याह रचाता और अगले दिन सुबह उसको मार डालता। इसी को जन्मजात खूनी कहते हैं।

हमारा आसामी भी इन खूनियों में एक है। पत्नी चुनने में उदासीनाता की वजह परिणाम तो जाना-बूझा ही है। उद्देश्य तो स्त्री सहवास ना था बल्कि स्त्री हत्या था-लेकिन यह अपराधी उस कहानी के नायक से और भी ज्यादा खतरनाक निकला। वह तो एक रात में ही स्त्री की हत्या करके सन्तोष कर लेता, पर कई बरस पत्नी संग भोग कर उस पत्नी को चुपचाप इस दुनिया से हटा देता। कोई भी प्रमाण कभी कोई ना पा सका। यानि इतना धूर्त कहीं कोई चिह्न बिना छोड़े हत्या करता।

गरीब लड़की अपने पति की गृहस्थी के लिए जी-जान से पति का मनोरंजन करने में लग गई, उस पर इस अपराधी को जरा भी दया नहीं आई, बिना वजह अचानक उसकी मौत विषय प्रयोग से सम्पत्र कर डाला।

मैं भी उसकी कथा सुनते-सुनते मोहाछन्न हो गया। मैं विमूढ़ हो सोचता रहा यह क्या अर्न्तयामी है जो मेरे बारे में सब जानता है, जितना मैं भी अपने बारे में नहीं जानता। वे मुझे स्वयं से अधिक जानते हैं।

वे अपना धूआंधार भाषण जारी करते हुए बोलते चले गये-जो भी हो आसामी के शरीर में खून-मसंय है। तभी उस हत्याकांड के पश्चात वह खतरनाक व्यक्ति के चंगुल में फंस गया।

आप सब सुनिये-उसी बीमारी के कारण एक और असहाय नारी की मृत्यु-पथ प्रशस्त्र हुआ। कुछ महीने नर्सिंग होम में रहने के बाद घर लौटे तो साथ में एक खुबसूरत-तरुणी नर्स को भी लेते आये। उसे सेवा के लिए रख दिया।

यहां भी पैसा ही जीत गया। पैसा है तो क्यों नहीं रोज पचास रुपये देकर नर्स रखे? और अपनी पुरानी मोहिनी शक्ति का प्रयोग कर इस कमजोर शरीर के साथ इस ईसाई लड़की का पाणिग्रहण किया। और मित्रों को भी आमन्त्रित किया। उस शादी में बेशर्मी की तो सीमा ही नहीं थी।

मैंने जैसे कोई कहानी सुनी; और एक अवास्त कल्पना मेरे अन्दर आई-पृथ्वी के एक ओर जब सूर्य का उजाला और दूसरी ओर अंधेरा। या जब एक तरफ की पृथ्वी सोती है तो दूसरी ओर जागती है।

पता नहीं यह कल्पना इस वक्त क्यों? इस मामले का इस भौगोलिक तथ्य से तो कोई सम्बन्ध नहीं।

मैं अनमना हो गया, तब तक वकील साहब ने अपनी तूलिका से एक ओर का चित्र रंग-रोगन से पूर्ण कर डाला।

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फिर तो परिकल्पना उन्होंने भी करनी चालू कर दी।

इस तरुणी स्त्री की जितनी उम्र थी उतनी तो अतनू बोस की अगर समय पर बेटी जन्म लेती तो उसकी उतनी ही उम्र होती। उस पुत्री समान पत्नी के सेवा स्वरूप उनको जीवन दान मिला-उसी की हत्या? इस महाशय की लीला अपरम्पार है।

अब इन्होंने कौशल का सहारा ही नहीं लिया कारण बीमारी ने उन्हें उसके लायक ही नहीं रखा था। तभी गला दबाकर खत्म करके शान्त हुए। अब कहें महामान्य जूरी, इस पापी आसामी को चरमतम सजा मिलनी चाहिए या नहीं?

मेरी राय में तो इस पापी को चार-बार फांसी देनी चाहिए।

वकील चुप हो गये।

हँसी की फौवारा छूट गया-फिर धिक्कार-यह जैसे रूपकथा की तरह एक जानवर की कहानी है। नहीं तो इस युग-आधुनिक युग में एक आदमी पांच बार शादी कर सकता है? और बिना किसी प्रमाण रखे हत्या करता जाता है।

वह भी मस्तिष्क सुस्त तथा ठीक रख कर स्वच्छन्द मति से।

फिर भी मुझे इस बात पर आश्चर्य हो रहा था किसी ने बेबी का प्रसंग नहीं उठाया। शायद भूल गये, जानते ही ना थे या जरूरत नहीं समझी।

यही ईश्वर की मेरे ऊपर अपार करुणा थी।

बेबी के प्रसंग के छिड़ने की आशंका ने मुझे भयभीत करके रखा हुआ था। मैं हर पल इसी बात से गले में जैसे कुछ फांस जैसा अटका महसूस कर रहा था। अगर बेबी की बात कोर्ट में छिड़ जाती तो मैं स्थिर ही नहीं रह सकता था। मेरा फैसला हो गया।

मेरा फैसला तो साफ-उजला जैसा देवी दुर्गा के मुख का रंग या यों भी कह सकते हैं दुर्गा देवी का रंग जैसा होता है वैसा ही मेरा फैसला भी हुआ-एक ही तरह में विचार। जूरी इसके बाद अपना फैसला सुनायेगी तभी मेरी जबानबन्दी ली जा रही है-मैं अतनू बोस बोलता चला जा रहा हूं आप टेप कर रहे हैं। आधुनिक विज्ञान की वजह से यह सम्भव हो पाया।

सुविधायें विज्ञान ने और भी दी हैं। हत्या और हत्या को गोपनीय बनाने की भूल करके मैंने कावेरी नाम की बुद्धू लड़की को मारते वक्त मादिम, अकृत्रिम गुहायुग वाला नुस्खा अपना कर अपना मामला मिट्टी में मिला दिया।

नहीं तो किसी आधुनिक अस्त्र का सहारा लेना-यंत्र, दवाई तो शायद मुझे धर्माधिकरण के दरबार में हाजिर ना देना पड़ता। मैंने अपने बचाव का समर्थन नहीं किया। फिर भी एक अजीब बात हुई थी। पाइन साहब ने मुझे जमानत देकर बचाने की चेष्टा की थी। उन्होंने वकील भी नियुक्त किया था। और उन्होंने मेरे पास चुपके से कहा था-पता नहीं इनका अभियोग सत्य है या नहीं पर यह जान कर मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा कि तुमने पौली का खून किया था-मेरी एकमात्र पुत्री, मां भी जिसकी मर चुकी थी-उसी का मुझे बीच-बीच में खून करने की ख्वाहिश होती थी।

उसका स्वभाव अपनी मां जैसा ही था। वह हँसते-हँसते एक इंसान को मृत्यु से अधिक तकलीफ दे सकती थी। यौवनकाल में ही पाइन साहब ने अपनी पत्नी को खोया था। पता नहीं उस पत्नी को क्या हुआ होगा? कभी यह चिन्ता आई ही नहीं-अब बीच-बीच में करता हूं।

और सोचता हूं पाइन साहब की जिन्दगी कितनी शान्ति से, बिना किसी तनाव के बीत रही है। शायद उन्होंने सुख का साथी-पत्नी, बच्चों से घिरा परिवार चाहा था। मैंने एक सुखी संसार की कामना की थी-जैसा संसार हमारे पिता, दादा, ताया कर चुके थे।

आश्चर्य की बात तो यह है कांचनगर की हर चीज मुझे बुरी लगती थी। विरक्तिकर प्रतीत होती थी-पर जब अब इतिहास के पन्ने उलट रहा हंस तो मुझे पता लगा है कि मेरे आदर्श मानस पटल पर उसी संसार की कल्पना थी।

और स्त्री को आदर्श निर्मला-निर्मला-जिसने मेरी जिन्दगी की शुरुआत ही गले में फांसी देकर की जिससे मेरे बाकी जीवन के गले में वह फांस बन कर अटकती रही।

जब आप लोग नहीं रहते मैं अकेला हो जाता हूं तब निर्मला की तस्वीर जिस पर फूलों की माला रहती है-इतने सारे चेहरों को लांघ कर सामने आ जाती है।

विश्वास कीजिए मेरी आखिरी बीबी, छोटी-सी बच्ची सुन्दर लड़की उसे मैंने सच में प्यार किया था। उसे मारने की मेरी जरा भी इच्छा नहीं थी, मैं सिर्फ उन हास-परिहासों को पकड़ने की चेष्टा में था। मेरे वकील मुझे पागल बनाने की कोशिश में हैं। जिससे प्राणदण्ड से रिहाई मिल सकती है।

विश्वास कीजिए मैं पागल नहीं हूं। अगर अपने अनुसार या मन जैसा चाहे वैसा जीवन जीना या ऐसे जीवन की चाह रखना एक भारी पागलपन है तो मैं पागल ही हूं। मेरा और कोई वक्तव्य नहीं है। मैंने जो चाहा वैसा नहीं हुआ। मैं पागल हो गया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर भी तो ऐसा कुछ कहते थे- जहां चाही या जो चाहा वह भूल करके चाहा - जो मिला उसे नहीं चाहा। उनकी इस युक्ति को तो पूरे संसार ने सराहा, उनकी स्तुति की। और मुझे...।

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