अधूरा इनसान (कश्मीरी कहानी) : बंसी निर्दोष

Adhura Insaan (Kashmiri Story) : Bansi Nirdosh

नुक्कड़वाला कंपाउंडर ज्यों ही बिना इंजेक्शन लगाए सिरिंज और सुई को समेटकर अपने बैग में रखने लगा, सब पर जैसे बिजली-सी गिर गई। अचानक यह क्या हुआ, कुछ देर तक कोई समझ न सका। मैं जैसे गहरी नींद से जाग पड़ा। अब मैं रूई के फाहे की तरह हलका हो चुका था। अभी तक जैसे मैं रस्सियों से बँधा था। इधर-उधर नजर दौड़ाई। कमरे में कोहराम मचा हुआ था। सभी जोर-जोर से रो रहे थे। रोने की आवाज इतनी ऊँची और मार्मिक थी कि आसपास के घोंसलों से पक्षी पंख फड़फड़ाते हुए एक-एक करके उड़ रहे थे। सुना था, मरते समय बिच्छू के हजारों डंक से शरीर में लगते हैं, पर मुझे ऐसा कुछ न लगा। काला-कलूटा यमदूत बुलाने आता है, यह भी सुना था। पर मेरे पास कोई भी न आया। बिस्तर पर मेरा शरीर निर्जीव पड़ा था और मैं वहीं उसके ऊपर हवा में तैर रहा था। मैं सबको देख रहा था, मगर मेरी ओर कोई भी नहीं देख रहा था।

मेरी बड़ी बहन कंपाउंडर का हाथ पकड़कर मिन्नतें करने लगी, “डॉक्टर साहब! यों मत जाइए। जैसे भी हो, हमारे इकलौते भाई को ठीक कर दीजिए।”

बेचारा कंपाउंडर किंकर्तव्यविमूढ़-सा सिर झुकाए खड़ा था, जैसे उसे चोरी करते पकड़ा गया हो। वह अब वहाँ से खिसक जाना चाहता था। मेरी बहन ने रोते-रोते उससे फिर कहा, “जो भी माँगोगे, दे दूँगी, पर मेरे भाई को एक बार जिंदा कर दीजिए।”

मुझे बहन की इस बात पर हँसी आ गई। अभी कल शाम की ही तो बात थी। मेरी बहन और पत्नी में तकरार हो गई थी। बात केवल सवा रुपए की थी। बहन ने अपने पैसे निकालकर अपने बच्‍चों के लिए बाजार से दूध मँगवाया था और हर एक से कहती फिर रही थी कि मुझे पीहर में भी अपना खर्चा स्वयं करना पड़ता है। यह बात मेरी पत्नी को लग गई थी और नौबत ‘तू-तू, मैं-मैं’ तक आ गई थी। मगर इस समय लगता था कि मेरी बहन वास्तव में कोई बड़ा त्याग करने को तत्पर है। इतने में माँ ने ऊँचे कंठ से ‘हाय बेटा’ पुकारकर स्वयं को मेरे बिस्तर पर गिरा दिया और इस कार्रवाई में मुझे भी अपने फिरन (चोले) में उलझा दिया। दो-तीन औरतों ने जब खींच-खाँचकर उसे ऊपर उठा लिया, तब जाकर कहीं मेरा उद्धार हुआ।

अब तक कमरा खचाखच भर गया था। मैं जान बचाता हुआ ताक में जाकर बैठ गया। यहाँ पर भी मुझे ज्यादा देर तक टिकने न दिया गया। मोहल्ले की औरतें जब एकसाथ कमरे में आईं तो उन्होंने सबसे पहले अपनी चप्पलें ताक में सँभालकर रख दीं। बचता-बचाता मैं पास में रखे काँच के एक गिलास में जा बैठा। कुछ ही समय बाद घरवालों में से कोई बेहोश हो गया। उसके मुँह पर पानी के छींटे देने के लिए गिलास को ताक में से उठाया गया। मैं एक ही छलाँग में सभी मर्द-औरतों के ऊपर से होता हुआ दरवाजे के पास रखे हुए तंबाकू के डिब्बे पर बैठ गया और वहीं से सबकुछ देखने लगा। औरतें समवेत स्वरों में रो रही थीं। कुछ विह्व‍ल होकर मेरे निर्जीव गालों के ऊपर अपने गाल रखकर मेरा माथा चूमने का प्रयास कर रही थीं। कुछ रह-रहकर मेरे सिर के बालों में हाथ फेर रही थीं। इस सबमें इतना आनंद था कि मैं खुद अपनी मौत पर आशिक हो गया। आजकल के जमाने में लोगों का इस प्रकार से इकट्ठा मिलना कहाँ होता है? कहाँ एक-दूसरे के लिए इतनी सहानुभूति देखने को मिलती है? आँसू बहाना तो दूर की बात है। इस मृत चेहरे को आज पहली बार दूसरों के चेहरे का स्पर्श तथा चुंबन कितना प्रिय लगा होगा, मैं कह नहीं सकता। अपनी माताओं को रोते देख बच्‍चों की भी हिचकियाँ बँध गई थीं। मेरे खुद के दो बच्‍चे कल तक यहीं थे—सहमे-सहमे बिल्ली के बच्‍चों जैसे। पर आज सुबह से ही वे कहीं दिख न रहे थे। शायद उनको जानबूझकर ननिहाल भेज दिया गया था। पिताजी को सवेरे से ही संदेह हो गया था कि साहबजादे को दगा देनी है। एक घंटा पहले मेरी बेहोशी में उन्होंने मेरे कान के पास आकर भर्राई आवाज में कहा था, “बेटा! मुझे दगा देकर न जाना। अपने बच्‍चों को यों अनाथ करके न चले जाना। सुन रहे हो? बुढ़ापे में यह बोझ अब मुझसे सहा नहीं जाएगा।” मैं सब सुन रहा था पर उस समय मुझमें बोलने की शक्ति न थी। इस समय मैं बिल्कुल ठीक था। शरीर की पीड़ा, दिल का दर्द व अन्य बंधन नीचे पड़े उस निर्जीव शरीर के साथ जुड़े थे और मैं इन सबसे मुक्ति पा चुका था।

मैं एक-एक को हाथ जोड़कर समझाने-मनाने की कोशिश कर रहा था, मगर मेरी बातों की ओर कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था, जैसे मैं वहाँ पर था ही नहीं। अपनी पत्नी का जोर-जोर से छाती पीटना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था। वह भी समय था, जब बीमारी के दिनों में मैं उसे पास में बैठने को कहता। मगर वह इशारों में समझाती—‘यह सास-ससुर जो यहाँ बैठे हैं, यह बहन और जीजाजी जो आपके पास हैं, इनके सामने मैं कैसे आऊँ! ये लोग भला क्या सोचेंगे।’ इच्छा हो रही थी कि अब पूछूँ कि इन सबके सामने इस तरह चिल्लाने और छाती पीटने में अब तुम्हें शर्म क्यों नहीं आ रही है? क्या मेरी मौत से लाज के सब परदे उठ गए? वे रस्मोरिवाज और शर्मो-हया सब कहाँ गए? तूने ब्लाउज फाड़कर छाती पर जो ये घाव किए हैं, उन्हें सबको दिखाने की आखिर क्या जरूरत है? क्या यह जताने के लिए कि तुमको मुझसे कितना प्रेम था? तू भला अब इस मिट्टी के शरीर के लिए इतना शोक क्यों प्रकट कर रही है? जब पिताजी नंगे सिर उँगलियों के नाखून चबाते हुए अंदर कमरे में आए तो मेरी माँ उनको देख और भी जोर से चीख उठी, “हाय बेटा! अब यह तुम्हारा बाप पहली तारीख को किसके सामने अधिकारपूर्वक हाथ बढ़ाएगा? अब किसकी जेबों में निस्संकोच हाथ डाला करेगा? तू हमारे लिए कोई प्रबंध करता जा। हाय! इस बूढ़े बाप को तूने किस मुसीबत में डाल दिया?”

पिताजी ने मेरे मृत शरीर पर से चादर सरकाई और रुँधे कंठ से कहने लगे, “तुझे जरा भी फुरसत नहीं थी क्या? कौन से ‘दरबार’ में तुझे हाजिर होना था? अरे, तू तो ऑफिस तक मुझसे पूछकर जाया करता था। निकले ना आखिर नालायक ही।” मैं दूर बैठा सब सुन रहा था और मन-ही-मन इस बात पर हँस रहा था कि आज बहुत दिनों बाद पिताजी मुझसे सीधे मुँह बात कर रहे थे। मेरा ध्यान दूसरी ओर गया। मेरी पत्नी बेहोश हो गई थी। उसकी जीभ दाँतों तले जकड़ गई थी। आँखें स्थिर हो गई थीं तथा हाथ-पाँव सो गए थे। दो-एक मोहल्लेवालियों ने आव देखा न ताव और झट से बिस्तर से एक रजाई खींच ली और उस पर मेरी पत्नी को लिटा दिया। इस भगदड़ में मैं दो-तीन औरतों के बीच मैं दब सा गया। मेरी बहन और पिताजी मेरी पत्नी की शुश्रूषा में जुट गए। मैं उड़कर हुक्के की चिलम के ऊपर बैठ गया। थोड़ी देर बाद पिताजी दूसरे कमरे में चले गए और हुक्का भी वहीं मँगवाया गया। इस कमरे में मोहल्ले के मर्द लोग बैठे हुए थे। प्रायः सभी को मैं जानता था। मेरी ही बातें हो रही थीं। मेरे गुणों का खुलकर बखान किया जा रहा था। अधिकांश बातें मनगढ़ंत थीं। जो मैंने किया भी न था, उसे भी मेरे साथ जोड़ा जा रहा था। एक महाशय का मैंने प्रतिवाद भी किया, “भाईसाहब, क्यों झूठ बोल रहे हैं आप? हो जाती थी दुआ-सलाम कभी-कभी। मगर इतनी घनिष्ठता तो नहीं थी, जितनी आप जता रहे हैं।”

पिताजी को इस झूठ-सच से कोई मतलब न था। वे औरों की सुन कम तथा अपनी बोल ज्यादा रहे थे। वे पाई-पाई का हिसाब बता रहे थे कि मेरी बीमारी पर कितना खर्च हुआ, क्या-क्या दवाइयाँ आईं, कौन-कौन से इलाज किए गए आदि। जानेवाले को तो दगा देकर जाना था, दोष किसे दें।

हर नए आनेवाले का मैं उत्साह से अभिवादन करने के लिए खड़ा हो जाता, कुशलक्षेम पूछता, मगर मेरी ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देखता था। इतनी उपेक्षा देखकर मैंने सोचा, अब यहाँ से चल देना ही उचित है। मैं एक बार फिर पासवाले कमरे में गया, ताकि अपने शरीर के आखिरी बार दर्शन कर सकूँ। किवाड़ भीतर से बंद थे। मैं एक ही छलाँग में किवाड़ के एक छेद से अंदर घुस गया। मेरी मौसी और एक मोहल्ले की औरत को छोड़ शेष सभी औरतें नीचे चली गई थीं। मेरी मौसी उस मोहल्लेवाली की सहायता से मेरी लाश की जेबों की तलाशी ले रही थी। जब कोट की अंदरवाली जेब से मौसी को सौ रुपए मिले तो वह कहने लगी, “बहना, इसके ऊपर किसी का कोई अहसान नहीं है। यह देख, बेचारे ने कफन तक के पैसे पहले से ही बचाकर रख छोड़े हैं। तू इसके बाप की बातों पर न जाना कि उसने इसके इलाज पर पाँच सौ रुपए खर्च किए। भरी जवानी तो इस बेचारे की गई, किसी का क्या गया?”

अन्य जेबों की तलाशी लेने पर उसे घड़ी, रुमाल, कुछ परचियाँ आदि मिलीं। नीचे आकर मौसी ने ये सारी चीजें मेरी माँ के हवाले कर दीं। माँ ने सिसकियाँ भरते हुए पूछा, “और कुछ तो नहीं था, जेबों में?”

इस प्रश्न के उत्तर में ज्यादा रुचि न लेकर मैं बाहर आँगन में आ गया। आँगन में थोड़ी सी जगह को लीपा गया था। पंडितजी मिट्टी के बरतन, तिल, कपूर, मधु, घी, सूखी मछलियाँ, दीप आदि सामान करीने से रख रहे थे। कफन भी मँगवाया जा चुका था। कुछ औरतें चूल्हे पर पानी गरम कर रही थीं। थोड़ी देर बाद मेरे साथी लोग मेरी मृत देह को चादर में लपटेकर नीचे गलियारे में ले आए। उन सबका दम फूल गया था, ऐसा मुझे स्पष्ट दिख रहा था। शव को देखकर औरतों का रोना-धोना वापस शुरू हो गया। अब शव के करीब आने की कोई भी हिम्मत न कर रहा था। दरवाजे के एक कपाट पर मेरी देह को रखा गया और उसे गरम पानी से नहलाया गया।

शवयात्रा प्रारंभ हुई। मेरा बड़ा लड़का, जिसे ननिहाल से बुलाया जा चुका था, अरथी के आगे-आगे था। वह मिट्टी के एक बरतन में से कुश द्वारा पानी निकालकर मार्ग पर छींटे देता हुआ आगे बढ़ रहा था। आस-पड़ोस के बच्‍चे और औरतें खिड़कियों से छिप-छिपकर मेरी अरथी का यह जुलूस देख रहे थे। सभी लोग अरथी के पीछे-पीछे हो लिये। मैं आँगन में एक बड़े पत्थर पर बैठा अकेला सोचने लगा—शादी और मातम में कोई खास फर्क तो नहीं है। वही भीड़-भड़क्का, वही जोश-खरोश, वही रस्मोरिवाज...तभी मेरी नजर पिताजी पर पड़ी। वे शवयात्रा में शायद इसलिए सम्मिलित नहीं हुए थे, क्योंकि पीछे घर की व्यवस्था देखनेवाला कोई न था। बहुत बेचैन लग रहे थे। कभी कमरे के अंदर और कभी बाहर आ-जा रहे थे। महीने का अंत होने को आया था और घर में खाने-पीने की चीजें समाप्ति पर थीं। दूर-पास के लगभग सभी रिश्तेदार इकट्ठे हो चुके थे। ज्यादा नहीं तो कम-से-कम दो-एक दिन उनके लिए भोजन आदि की व्यवस्था तो करनी थी। पिताजी इसी उधेड़बुन में थे।

शाम तक श्मशान से सभी लोगबाग लौट आए। सभी के चेहरों से असीम थकान टपक रही थी। वे अब आराम करना चाहते थे, ऐसा साफ लग रहा था। मैंने अपनी ओर से अपनी उपस्थिति का भान कराने के लिए खूब प्रयत्न किए, पर मेरी ओर किसी ने भी ध्यान न दिया। इसी बीच मुख्य-द्वार बंद कर दिया गया और मैं बाहर आँगन में रह गया। आधी रात गए तक मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अब इस घर में मेरी जरूरत किसी को भी नहीं रही। बार-बार यही खयाल आने लगा कि मुझे अपने शरीर के साथ जाकर यह देख लेना चाहिए था कि आखिर मेरी मंजिल क्या है? धिक्कार है मुझ पर, जो मरकर भी इस संसार की झूठी ममता से मुक्त न हुआ। मैं अपने शरीर की स्थिति को देखने के लिए श्मशान घाट की ओर चल दिया।

श्मशान घाट पर एक चिता जल रही थी और उसके पास ही मुझ जैसी एक रूह दहकते अंगारे की तरह तैर रही थी। मरने के बाद मुझे पहली बार अपने जैसा कोई साथी मिला, जो मेरी बातें समझ सका और मैं उसकी। मैंने पूछा—

“भाई, तुम कौन हो?”

“जो तुम हो। मेरी चिता यह रही। मगर तुम्हारी कहाँ है?”

“मालूम नहीं, यहीं कहीं जली होगी,” मैंने कहा।

“क्या कहा, तुम्हें मालूम नहीं?”

“मैं घर में ही रह गया था।” मैंने झेंपते हुए उत्तर दिया।

“बड़े नासमझ हो। क्या तुम्हारा इरादा जिन्न/भूत बनने का है? क्या तुम्हें नहीं मालूम कि जिन इनसानों की ममता में तुम बँधे हो, उनके ऊपर अब तुम्हारा साया तक नहीं पड़ना चाहिए? उधर देखो, सिर से पैर तक काली चादर से ढका, वह जो इधर आ रहा है, उसे जानते हो?”

“नहीं, मैंने पहले उसे कभी नहीं देखा है।” मैंने उत्तर दिया।

“वह एक तांत्रिक है। उसे तुम्हारी जैसी किसी आवारा रूह की तलाश है। वह उसे वश में करके गुलाम बनाएगा। फिर इस रूह को उसकी प्रत्येक आज्ञा का पालन करना होगा। वह कहेगा, पीतल का सोना बनाओ, उसे बनाकर देना होगा। वह देश-देश में फिरने को कहेगा, उसे वैसा ही करना होगा।”

“नहीं-नहीं, मैं उसके हाथ में नहीं पड़ूँगा। मैं भाग जाऊँगा।” मेरी नजर उस तांत्रिक पर थी, जो इस समय पास की जलती चिता पर अपने चाकू की धार को गरम-लाल कर रहा था।

“भागकर कहाँ जाओगे?”

“इनसानों के पास। इतनी बड़ी दुनिया में क्या मुझे कहीं पर भी जगह नहीं मिलेगी?” मैं एक ही श्वास में कह गया।

वह जोर-जोर से हँसने लगा।

“वे तुम्हें अपने पास फटकने भी न देंगे। बिना शरीर के रूह भूत कहलाती है और बिना रूह के शरीर का कोई मूल्य नहीं है। क्या तुम चाहते हो कि तुम्हें भी कोई तांत्रिक वश में करके गरम-गरम चाकू लगाकर तुमसे काम कराए।” तांत्रिक गरम-लाल चाकू से जमीन पर कुछ रेखाएँ खींच रहा था। मुझे लगा, जैसे कोई अदृश्य शक्ति मुझे उसकी ओर खींच रही है। मैं वहाँ से भागा—

“नहीं-नहीं, मुझे भूत नहीं बनना है।”

मगर दूसरे ही क्षण मुझे ध्यान आया, “मैं तो अधूरा रह गया हूँ, नामुकम्मल। मुझे अब पूरा कौन करेगा? कौन करेगा?” तांत्रिक अभी भी रेखाएँ खींच रहा था।

(अनुवाद : डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)

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