एबॉर्शन : प्रेम प्रकाश

Abortion : Prem Parkash

पत्नी की फूली हुई छातियाँ देखकर दिवाकर परेशान हैं। ढलती हुई उम्र की देह का ये तूफान दिवाकर की समझ में बिलकुल नहीं आ रहा है। समझ तो खुद शैलजा भी नहीं पा रही है। छातियाँ ही क्यों, शरीर के विभिन्न हिस्सों और गोपन अंगों का ये कसाव और तनाव तो वैसे भी बहुत बीते दिनों की बात हो गयी है। लेकिन कहाँ तो वे 18-20 की जवानी के दिन और कहाँ ये 42 पार का शरीर। शैलजा और दिवाकर के दांपत्य मे तीन-तीन औलादें दाखिल हुईं। इस तरह का शारीरिक तनाव तो उन्ही दिनों की बात थी। तब शायद इससे भी ज्यादा होता हो, लेकिन तब उम्र साथ थी और शरीर में ढलान का कहीं कोई एहसास नहीं था।

लेकिन ये क्या है…! और क्यों है…? सयाने हो चले बच्चों से भरे घर में कुछ आपस की बातचीत भी कितना कठिन काम होकर रह गयी है! दिवाकर हैरान, परेशान-से इशारों-इशारों में ही कुछ समझना चाहते हैं। शैलजा इंकार की मुद्रा में सिर हिलाती है। वह पति को आश्वस्त करना चाहती है- “ऐसा कुछ नहीं है जी। अब इतने सालों बाद ये सब होगा? बस पीरियड्स की अनियमितता के कारण… बस एक ही वजह है… और कुछ नहीं.. और कोई बात नहीं।”

हाँ, पीरियड्स भी तो! इधर कई सालों से यह व्यवधान है। हर महीने के दस, बीस दिन आशंकाओं में ही गुजरते हैं। यूं कभी कुछ होता नहीं, लेकिन कभी-कभी ये उद्विग्नता, ये आशंका महीने की सीमा पार भी कर जाती है। कभी-कभी तो दो-दो महीने की अनियमितता भी हो जाती है, लेकिन ऐसा उफान थोड़ी न होता है शरीर में कभी। कितनी लापरवाह है शैलजा! दिवाकर परेशान हैं- “एक जगह टिक के इलाज नहीं करती। बस दो-चार दिन दवा चलायी, ठीक है ठीक है का हल्ला शुरू!”

डॉक्टर ने भी कह ही दिया है ये कोई बहुत सीरियस मसला नहीं है। खाना-पीना ठीक रखिए, एक्सरसाइज़ कीजिये, निवृत्ति का समय नजदीक है। बहुत सारे परिवर्तन होते हैं शरीर में, ये दौर ही ऐसा है।

सबसे ज्यादा जिसे प्यार करती है, इधर अपने छोटे बेटे पर ही सबसे ज्यादा गुस्सा भी निकालने लगी है शैलजा। उसे कोई और कुछ कह के निकल जाय, मजाल है! सबसे ज्यादा प्यारा, सबसे ज्यादा करीबी, सबसे ज्यादा हिरोह है जिससे, अपने उसी बच्चे पर सबसे ज्यादा दांत किटकिटाती है शैलजा। बढ़ती उम्र के ये सब परिवर्तन जैविक हैं, बच्चे कुछ नहीं समझ पा रहे हैं। सब हलकान रहने लगे हैं। दिवाकर चिंतित हैं, यह सब कब ठीक होगा! पूरी तरह मेनोपॉज में अभी कुछ साल तो लगेंगे ही। स्वभाव की यह अस्थिरता ही नहीं, हताशा, कुंठा, उदासी, परेशानी ये सब दिखेंगे। लगातार कई सालों की अशांति है यह स्त्री जीवन की।

लेकिन इस बार तो यह कुछ ज्यादा ही खिंच गयी। तीन महीने पार हो गए। दिवाकर किसी और संभावना से डरे हुए हैं। कई बार कई तरीके से पूछ चुके वे- “कैसा लग रहा है? तुम कोई बच्ची तो नहीं हो, कुछ तो पता चलता होगा!”

शैलजा पहले से ही परेशान; पति को फाड़ खाने वाली नज़रों से घूरती है- “एक बार कह दिया न वैसा कुछ नहीं है। मेरी परेशानी और मत बढ़ाओ सवाल पूछ-पूछ के। इस उम्र में अब यही सब होना बाकी है? बुढ़ौती कनपटी पर चढ़ के नाच रही है, लौंडे बने फिरते हैं! अरे धत्त! जो पिछले 16 साल में नहीं हुआ, वो अब होगा! सठियाओ मत अभी। उसके लिए उम्र पड़ी है।”

दिवाकर चिड़चिड़ा उठे हैं लेकिन पत्नी के सामने से हट जाना ही ठीक लगा। जाते जाते बोले- “एक बार डॉक्टर को दिखा लेते हैं, फिर कोई बात ही नहीं।”

शैलजा ने मना कर दिया- “आप परेशान मत होइए। हो जायेगा, सब ठीक हो जाएगा। खुद ही तो कहते हैं मैं बच्ची तो नहीं! कुछ तो पता लगना चाहिए न!”

दस दिन और बीते तो दिवाकर घबरा उठे, धैर्य जाता रहा। डॉक्टर को फोन लगा दिया और पत्नी को आल्टीमेट फरमान सुनाया- “कल डॉक्टर के यहाँ चल रहे हैं बस्स। मेरा मन परेशान है। कोई और वक़्त होता तो मैं खुश ही होता लेकिन साढ़े तीन महीने का ये गैप और ये उठान अब देखा नहीं जा रहा।”

शैलजा की नज़र अपनी छतियों पर गयी। देह में तनाव का ये आलम देखकर वह खुद भी हैरान, परेशान थी। हामी भर दी- “ठीक है कर लो बात, हो जाय तुम्हारी वाली भी।”

डॉक्टर मृणालिनी ने हाथ लगाते ही कह दिया- “चार महीने का है।”

शैलजा- “ऐसा कैसे हो सकता है डॉक्टर!”

“ऐसा ही है। यकीन नहीं होता तो जा के अल्ट्रासाउंड करा लो।”

चेहरे पर उड़ती हुई हवाइयाँ लिए शैलजा डॉक्टर के चैंबर से बाहर आई और पति से बोली- “आप एक बार मिल लीजिये डॉक्टर से। क्या कह रही हैं वे मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा।”

डॉक्टर ने दिवाकर के हाथ में पर्चा थमाया- ‘USG lower abdomen’।

अगले दिन रिपोर्ट आ गयी- ’18 weeks live gestation’।

दिवाकर के पैरों के नीचे से धरती सरक रही है। डॉक्टर पूछ रही है- “अंतिम बच्चे की उम्र बताइये।”

“16 साल।”

“इसे रखना है?”

“नहीं……..sssssss”

“बताया न, बच्चा चार महीने का है। एबोर्शन रिस्की है।”

डॉक्टर ने तलब किया, शैलजा बाहर निकली- “आपको बुला रही हैं।”

चेहरे पर उतर आई हवाइयों पर मन की धूल डालते हुए दिवाकर डॉक्टर के सामने खड़े हैं।

“बच्चा चाहिए….?”

किसी स्वचालित मशीन की तरह इन्कार में सिर हिलाते हुए दिवाकर को होश नहीं है कि वे क्या कह रहे हैं। बेटा, बेटी, घर, परिवार, लोक-लाज… हे भगवान!

“पैसे जमा कीजिये, कन्सेंट साइन कीजिये, दवा लगा देती हूँ, परसो लेकर आइये।”

अबतक दिवाकर कठपुतली में और शैलजा पत्थर की मूरत में बदल चुके हैं।

घर आए तो बेटी कॉलेज से लौटी- “पापा, क्या कहा डॉक्टर ने? मम्मी को दिखाया आज?”

जुबान सिली हुई है दोनों की- “कुछ खास नहीं… यूं ही… परसो फिर बुलाया है…! समय लगेगा थोड़ा कोम्प्लीकेशन को समझने में…!”

दवा ने असर दिखाया। अगले ही दिन दर्द शुरू हुआ और शाम होते होते ब्लीडिंग शुरू। शैलजा ने दिवाकर को बाथरूम में बुलाया और दिखाया- “साफ हो गया सब, देखिये।”

पोलिथीन में काले-काले खून के बड़े-बड़े थक्के! सहम उठे दिवाकर। सब हाथ में लिया और कहीं दूर गए, सब डिस्पोज़ कर आए। मन में एक राहत थी कि चलो जो कुछ भी था, अब ठीक है सब। कल डॉक्टर को सब बताएँगे। अगले दिन डॉक्टर ने पूरी रिपोर्ट सुनी और बेड एलॉट कर दिया। सेफ अबोर्टकिट की दवाइयाँ इन्सर्ट की और कहा- “जाकर बेड पर लेटो। अभी समय लगेगा।”

“अरे डॉ साहब, सब हो गया!” – दिवाकर हतप्रभ-से थे, “अब क्या बाकी है…?”

डॉक्टर ने पूरी बात समझाई- “सफाई करनी होगी… लेकिन बेबी के बाहर आने के बाद। खींच नहीं सकते न उसे। इंतज़ार कीजिये अभी।”

शैलजा बेड पर हैं। दिवाकर आसमान मे कलाबाजियाँ खा रहे हैं। दर्द बढ़ता जाता है। सिस्टर बता रही है- “बच्चा बड़ा हो चुका है। पूरी प्रक्रिया चलेगी। दवा आज फिर लगी है। अभी इंतज़ार कीजिये।”

स्टूल पर बैठे दिवाकर का हाथ थाम लेती है शैलजा और बुदबुदाती है- “ज्यादा मत बोलिए, आप पर गुस्सा आ रहा है। चुप नहीं रह सकते तो हट जाइए यहाँ से।”

बुदबुदाहट धीरे धीरे कमजोर पड़ रही है। शैलजा के मुंह से अस्फुट स्वर निकलते हैं- “सब पहले जैसा ही हो रहा है। कमर मे हजार बिच्छुओं का डंक है।”

दिवाकर का मुंह सूखा हुआ है। क्या हो गया ये सब…! लगातार तीन घंटों का अनथक दर्द। शैलजा के मुंह से धीमी आवाज़ निकली- “हमें होश नहीं रहेगा। आप देख लेना क्या हुआ, ये सब झूठ भी बोलती हैं पैसा ऐंठने के लिए…!”

दिवाकर बच्चों को फोन पर समझा रहे हैं- “बेटा अभी नंबर नहीं लगा है, भीड़ ज्यादा है मरीजों की। तुम लोग अपना-अपना काम करो, हम देर शाम तक घर आएंगे।”

नर्स की आवाज़- “रातभर लग सकता है सर…!”

ओहह… तब तो सब जान जाएँगे… दिवाकर सबकुछ मैनेज कर लेना चाहते हैं। शैलजा बेड पर बेचैन हो रही है। डॉक्टर आकर देख गयी है। दिवाकर को बाहर जाने को कह दिया गया है। ये औरतों का वार्ड है। दरवाजे के शीशे से नज़रें गड़ाए दिवाकर का ध्यान पत्नी की हरकतों पर है। सांस टंगी हुई है दिवाकर की। बेड पर सिर रगड़ती हुई शैलजा अचानक पाँव फैलाकर रास्ता बनाती है और अर्धमूर्छा की सी हालत में ही आधा उठ बैठती है।

डॉक्टर सिस्टर के साथ अभी-अभी बाहर निकली हैं। दिवाकर दरवाजा भड़ाक से खोलकर अंदर दाखिल हुए और सीधे पत्नी के पास पहुंचे। शैलजा उन्हें सामने बुला रही है। घबराए हुए वे पैरों की ओर आते हैं। शैलजा साड़ी उठाकर दिखा रही है- “देखिये तो क्या है।”

दिवाकर विस्फारित आँखों से एकटक देख रहे हैं। बेड, साड़ी और पेटीकोट को भिगोते हुए खून के बीच लथपथ पड़ा हुआ 5-6 इंच का वह मानव शरीर…!”

पूरा आकार…! पूर्ण आकृति…! एक-एक इंच के हाथ, पाँव, पेट, पीठ, सिर, धड़ सब है… सबकुछ है। बेहाल अधलेटी माँ और सनाका खा चुके, लुटे-पिटे-से खड़े पिता के बीच खून में सना, लथपथ पड़ा 4 महीने का अविकसित बच्चा… जी हाँ, बच्चा… केवल भ्रूण नहीं है यह। सन्निपात भरी सी आँखों से देखते-देखते यकबयक दो बूंद आँसू के चू पड़े हैं दिवाकर की आँखों से। शैलजा बेहोश-सी हो रही है। स्ट्रेचर, नर्सें, डॉक्टर… सब भागे आ रहे हैं। दरवाजे, खिड़कियाँ सब धड़ाधड़ खुल रहे हैं। पूरे बेड सहित शैलजा को स्ट्रेचर पर रख लिया है और स्ट्रेचर ऑपरेशन थियेटर की ओर… दाई आवाज़ लगाती है- “भइया, जरा हाथ लगाना…!”

यंत्रचालित-से दिवाकर स्ट्रेचर का हैंडिल पकड़ लेते हैं, महिलाएं स्ट्रेचर छोड़ देती हैं। करुणा, प्रायश्चित, रुदन और टूटन को एक साथ अपनी आँखों में समेटे ठगे-से दिवाकर अकेले ही स्ट्रेचर दूसरी मंजिल पर ऑपरेशन थियेटर के गेट तक ले आए हैं। यहाँ से उन्हें वापस कर दिया गया। उन्हें याद आया- ‘दवाइयाँ और सुइयां तो वही छूट गईं बेड पर ही…!’

नीचे आकर सब समेटा, पत्नी की चप्पल उठाई और ऊपर ऑपरेशन थियेटर के गेट पर आ पहुंचे।

“कैसी है शैलजा….?”, वे नर्स से पूछते हैं।

अभी समय लगेगा। बेबी आउट हो गया है। खेड़ी अभी अंदर है। खींचकर नहीं निकाल सकते न… इंतज़ार कीजिये, दवा-सुई हो रही है।

दिवाकर के हिस्से आया है बेसब्री का इंतज़ार और लगातार की बेचैन चहलकदमी।

अस्पताल में ये मुसलमान लड़की अभी-अभी आई है। पहला ही बच्चा है उसका। उसकी माँ और चाची उसके साथ हैं। वह चीख रही है। दर्द और घबराहट के मारे चिल्ला-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठा रखा है। दो अपोजिट केस एक साथ रख दिये गए हैं। थोड़ा समय बीतते-बीतते शैलजा एहसासे कमतरी से और शबनम एहसासे बेहतरी से भर उठीं हैं।

“पैंटी लाइये, पैड लाइये, साड़ी लाइये या फिर नाइटी लाइये…” – नर्सों के फरमान दिवाकर दौड़-दौड़कर पूरे कर रहे हैं।

कैसी है अब शैलजा…? वे पूछना ही चाहते हैं कि अचानक दरवाजा खोलकर नर्स पूछती है- “शैलजा के साथ कौन है?”
“मैं!”

“अंदर आइये!”

छोटी-सी ट्रे में भरे खून और पानी के बीच तैर रहा है 6 इंच का एक वजूद… और उसका सुरक्षा कवच- खेड़ी। दोनों अलग-अलग… दोनों साथ-साथ भी।

“आपकी पत्नी ठीक हैं, 2-3 घंटे बाद ले जा सकते हैं। …लेकिन पहले इसका प्रवाह करना होगा…!”

दिवाकर के होश गुम हो चुके हैं। वे केवल देख भर रहे हैं, सुन कुछ नहीं पा रहे…! लज्जा, शर्मिंदगी और घोर पश्चाताप की आग उनकी निष्प्राणप्राय आँखों को झुलसा रही है। वे पाँच सौ का एक नोट दाई को थमाकर अपराधबोध से ग्रस्त हाथ जोड़े खड़े हैं- “मेरी मदद करो, मुझे पत्नी की चिंता है।”

पाँच सौ का एक नोट एक बड़ी मुसीबत हल कर देता है। बेहोश पत्नी को संभालें या फिर अनजाने, अनचाहे ये जो कुछ हो गया है, उसका स्वागत से पहले ही अर्पण-तर्पण कर दें। पाँच सौ के इस नोट ने दिवाकर को उनकी पत्नी सौंप दी है। वे खून से भीगे पत्नी के कपड़ों से भरा पोलिथीन, उसकी चप्पल और दवाओं का पैकेट संभाले नीचे की ओर भाग रहे हैं, शैलजा स्ट्रेचर पर आ रही है। दिवाकर डरे हुए हैं… सिस्टर से पूछ रहे हैं- “ये होश में नहीं हैं क्या…?”

आवाज सुनकर शैलजा पथराई-सी आँखें खोलती है। रात के नौ बज गए हैं। शैलजा की चेतना लौट आई है पर आँखें अभी ठीक से खुल नहीं पा रही हैं, शरीर शिथिल है। दिवाकर ने ब्लाउज़ और पेटीकोट में लेटी बेसुध-सी पत्नी की देह पर हरी साड़ी डाल दी है और नर्स के कहने पर चाय लेने आए हैं। चाय की एक घूंट अंदर जाते ही शैलजा को ज़ोर की मिचली आई और तीन दिन से बिना कुछ खाये पिये शरीर ने उल्टियाँ करनी शुरू कर दी हैं। पूरे उपचार के बाद डॉक्टर ने शैलजा को देर रात 11 बजे डिस्चार्ज किया।

घर आए आज तीसरा दिन है। आस-पड़ोस और बच्चों… सबसे सबकुछ छुपा लिया दोनों ने मिलकर। दवा चल रही है। आराम मिल रहा है। शैलजा का स्वास्थ्य सुधर रहा है लेकिन मन अभी ऑपरेशन थियेटर में घायल ही पड़ा है। बच्चों के कान बचाकर शैलजा पूछ रही है- “आपने देखा था….?”

दिवाकर ने पत्नी को तड़पकर देखा। आँसू वहाँ कोरों में अटके पड़े हैं- “भूल जाओ अब सब… कुछ भी याद मत करो… कुछ मत सोचो…. कुछ मत पूछो।”

दिवाकर पत्नी से आँखें चुरा रहे हैं। दोनों ही दोनों को संभालना चाहते हैं। खाना, पीना, दवा, दूध, फल… इन सारे शब्दों का शोर मचाते हैं दिवाकर और शैलजा सूनी-सूनी आँखों से ये सारा शोर खा रही है। बच्चे बहुत खुश हैं कि मम्मी कई महीने से बीमार थी और अब ठीक है।

अस्पताल के बाद का चौथा दिन। आधी रात का समय…. शैलजा दिवाकर को जगाना चाहती है। पत्नी की आवाज़ कानों में पड़ रही है। दिवाकर की नींद खुल गयी है। वे शैलजा को ध्यान से देख रहे हैं। पत्नी की आँखें आंसुओं से डबडब हो रही हैं- “यहाँ आइये, मेरे साथ लेटिए।”

एक नज़र सोये हुए बच्चों के ऊपर डालकर दिवाकर ने बत्तियाँ बुझा दी हैं और पत्नी की बगल में आ लेटे हैं। शैलजा ने टेबल लैंप की रोशनी जलाकर छातियाँ खोल दी हैं, “ये देखिये…”

दिवाकर के हाथ खुद ब खुद उधर सरक आए- “उफ़्फ़… इतनी तनी हुई…!”

एकदम गरम, जलती हुई-सी, एक झुर्री तक नहीं… कि जैसे बर्र ने काट लिया हो… और चेहरा सूज जाये…!

“….दर्द हो रहा है”, शैलजा की आवाज़ पर चौंकते हैं दिवाकर।

शरीर का यह हिस्सा तप रहा है। दिवाकर बेचैन हो रहे हैं- “बुखार क्यों है इतना…?

शैलजा ने फफककर रो दिया है। आँसू पीते होंठों से ….किसी तरह चार शब्द निकले हैं, “बुखार नहीं, दूध है…!”

“दू………..ध….??……अरे……! ये तो……!!! वो तो…..!!!! दूध….? हाँ लेकिन, दवा तो….!!!! दबाओ… अपने हाथ से निकालो न…!” – दिवाकर के अस्फुट स्वर…!

उधर आधी रात के आलम में सोयी हुई बस्ती सन्नाटा बुन रही है और इधर एक अपरिचित-से समय में शैलजा ने अपना सिर दिवाकर के सीने में दे मारा है, “तुम्ही दबा दो, मुझसे नहीं हो रहा..।”

किसी बिना आए ही चले गए हकदार के हिस्से का जलता हुआ दूध माँ की छातियों में ताप और दर्द दोनों बनकर उतर आया है। चार दिन पहले का घायल शरीर दिवाकर की बाँहों में है… और वे पत्नी की ब्लाउज़ उतार रहे हैं। पेटीकोट पहने लेटी हुई पत्नी की खुली हुई छातियाँ बीस-पच्चीस साल पहले रोमांच रचती थीं, आज अवसाद गढ़ रही हैं। शैलजा की छातियों पर दिवाकर के हाथ हैं, पर उन्हे कुछ समझ मे नहीं आ रहा कि करें क्या…! जब कुछ समझ में नहीं आया तो उन्होंने पत्नी को अपने सामने कर सीने में भींच लिया है। तनी हुई छातियाँ जब पति के सीने से टकराती हैं तो इस दबाव में देर तक पिसकर गरम-गरम दूध उगलने लगती हैं। टप…टप…टप…टप… शैलजा और दिवाकर के बिस्तर पर दूध रिस रहा है। दिवाकर की बनियान भीग उठी है…! लगभग आधे घंटे का दबाव…! लगभग गिलास भर दूध से नहा से उठे हैं दोनों… और अब तनाव के साथ-साथ ताप भी बहुत कुछ घट गया है। शैलजा दिवाकर की बनियान उतारकर निहार रही है, सूंघ रही है… बनियान का दूध निचोड़ रही है…! ढेर सारे आँसू, ढेर सारा दूध और ढेर सारा खून अपनी देह से उलीचकर एक पुरानी माँ, अपनी नयी खाली हुई जगह को देखती है… और पति का हाथ अपने उदर पर रखकर पूछती है- “मुझे भूलती नहीं उसकी शक्ल… ये उसकी जगह खाली हो गयी है… यहाँ आपकी जरूरत है…! आपने देखा था न उसे….??”

दिवाकर की जीभ पर पत्थर लटके हैं… भूल जाओ उसे, ऐसा कैसे कह दें…! ये जो दूध-दूध हुए दो शरीर लिथड़े पड़े हैं, ये सब क्या भूलने के उपाय हैं! भूल जाने से क्या हो जाएगा…! भुलाया तो इनसे भी नहीं जा रहा…! दिवाकर के अंदर से आवाज़ आयी है… बात तो करनी पड़ेगी…

“हाँ, देखा था।”

“कैसा था…?” तड़पती हुई माँ की डहकती हुई आवाज़ पगलाए हुए पिता के कान बेधती है।

“बाल देखे उसके…? आप ही जैसे थे…!”

अब तड़पने की बारी दिवाकर की-

“तुमने देखा था…?”

“हाँ, मैंने देखा था… आपको भी तो कहा था देखने को…।“

पत्नी की आँखें हथेलियों से ढांपकर फफक पड़े हैं दिवाकर, बिस्तर हिचकियों से हिलने लगा है।

समय कैसा भी हो, गुजर जाता है… पर अपने निशान छोड़ जाता है। दिन, रात और घंटों, मिनटों में बीतता समय हफ्तों में ढल गया। सन्नाटे भरे कई दिन और दूध भीगी कई रातें बीत गईं। उसके हिस्से का दूध बिस्तरों में निथरता रहा और माँ की हूक गले में…! पत्नी की फूली हुई छातियाँ अब सामान्य हो रही हैं। दिवाकर का बोझ उतरने लगा है… लेकिन शैलजा के दूध का न्याय नहीं हुआ अभी… और दूध का न्याय न हो तो सारी दुनिया का बोझ भले उतर जाय, माँ के सीने का बोझ नहीं उतरता। लेकिन माँ का बोझ उतारे कौन! कौन! कौन! आखिर कौन…!

“मम्मी दूध दो न…!” – एक दोपहर सूखी आँखों ख़यालों मे गुम माँ, बेटी की आवाज सुन सन्न रह गयी…!

”दू………ध……!!?” शैलजा बौराई सी एकटक बेटी को देख रही है। ये तो कभी दूध नहीं मांगती… दूध तो इसे पसंद ही नहीं…फिर….?

शैलजा आँख फाड़े गिलास में गटागट दूध पीती बेटी को अपलक देख रही है…!

प्रकृति अलबेली….! पता नहीं क्यों… शैलजा आजतक नहीं समझ पायी… जब दूध माँ के वजूद का सवाल बन गया था, उन दिनों बेटी रोज ही दूध क्यों मांगने लगी थी?!