अभिनेत्री (कहानी) : आशापूर्णा देवी
Abhinetri (Bangla Story in Hindi) : Ashapurna Devi
सहन के बीचोंबीच गलीचे का
आसन बिछाकर आठ-दस कटोरियाँ और बड़ा-सा थाल सजाकर भोजन परोसा गया है। दामाद
की खातिर नहीं, समधी के लिए।
नयी
बहू के पिता विलायत से पधारे हैं। घर की मालकिन शायद बहुत लजीली हैं,
इसीलिए मेहमान की मेजबानी का भार बहू पर ही है। योग्य अधिकारी के हाथों
में यह अधिकार नहीं दिया गया, ऐसी बात नहीं। नयी बहू अभी कच्ची उमर की है
तो क्या, तीन लोगों के खाने लायक सामान एक ही आदमी को भेंट करने के लिए
जिस अध्यवसाय की जरूरत है, उसमें तो वह नहीं।
ससुराल में तो बाप-भाई
सभी अतिथि जैसे ही हैं, इसलिए पिता पर अधिक भोजन के लिए अनुपमा दबाव क्यों
न डाले?
पिता ने हँसते हुए कहा,
''देखता हूँ तुम तो पूरी गृहस्थन बन गयी हो। मेरे साथ भी रिश्तेदारी? भला
इतना कभी मैं खाता हूँ?''
नहीं!
यह बात क्या अनुपमा नहीं जानती? लेकिन जोर डालने का रिवाज जो ठहरा। इसके
अलावा सास सामने न होने पर भी किसी कोने-कतरे में जरूर खड़ी होगी और बाद
में बहू की खोट निकालेगी। इसीलिए अनुपमा ने उत्साह से कहा, ''अगर
मछली-वछली न खा सको, तो रहने दो। मिठाइयाँ और खीर तो खाओगे। यह सन्देश
इनके गाँव से मँगाया गया है। इसे छोड़ देने पर मैं बुरा मान जाऊँगी...कोई
बहाना नहीं चलेगा।''
''नहीं चलेगा, तो तुम ही
बैठी-बैठी खाओ।'' यह कहकर पिता हँसते हुए उठ गये। भोजन की बर्बादी के बारे
में उन्होंने कोई भाषण नहीं दिया।
साल
और तारीख के हिसाब से बात बहुत पहले की है। बर्बादी के डर से थोड़े भोजन का
आयोजन उन दिनों निन्दनीय था। एक आदमी को खाने के लिए बैठाकर एक ही आदमी के
लायक परोसना-भला यह कैसे हो सकता था? अगर जूठन ही न फेंकी गयी...तो आदर ही
क्या दिखाया? खाने की चीजों पर ममत्व तो मानसिक दरिद्रता ही हुई।
कल्पना-लोक में ऊँची उड़ान
भरने वाले लोगों ने भी उस समय राशन के बाजार
का दुःस्वप्न नहीं देखा था, इसलिए कौवे या बिल्ली के बारे में कुछ
सोचे-विचारे अनुपमा भी पिता के साथ उठ खड़ी हुई। थोड़ी दूर साथ-साथ चलकर
धीमे स्वर में बोली, ''मुझे ले जाने के लिए कहोगे न, बाबूजी?''
अभी
तक वह यह बात नहीं कह सकी थी, क्योंकि वह जानती थी कि भोजन के समय सबकी
नजर इसी ओर टिकी होगी। पिता ने भी उसी तरह धीमी आवाज में कहा, ''कहूँगा
कैसे नहीं? इसीलिए तो आया हूँ। यदि इस बार भी अकेला गया तो क्या तुम्हारी
माँ मुझे सही-सलामत रहने देगी? सोच रहा हूँ, कल सवेरे की गाड़ी से ही लिवा
चलूँ तुम्हें।''
आशा,
आशंका, उद्वेग और उत्कण्ठा में उलझा उसका किशोर हृदय एक क्षण की भी
प्रतीक्षा नहीं कर सकता। कल...सवेरे...मानो वह आगामी भविष्य की बात हो।
लेकिन नयी-नयी बहू...मायके जाने के बारे में बात करे वह भी...पिछले-जमाने
की बहू। मायके जाने की इच्छा करना तब बड़ा भारी अपराध माना जाता था। इसलिए
पक्की गृहिणी की तरह अनुपमा ने फुसफुसाते हुए उपदेश दिया, ''खूब
समझा-बुझाकर कहना, बाबूजी! पता ही है मेरे सुसर जी जरा क्रोधी स्वभाव के
आदमी हैं।''
''जरा?''
पिताजी हँसे फिर बोले, ''अजीब-अजीब बातें करते हैं। उनकी हवाई बातें
सुनते-सुनते तो दिमाग खराब हो जाता है! खैर...जाने भी दो। इस वार जैसे भी
हो, कह-सुनकर...।''
इन
बातों से अनुपमा का थोड़ा धीरज बँधा। उसने पिता को चुप रहने का इशारा किया।
कहीं पर शायद पैरों की आहट हुई। पिता से ले जाने का अनुरोध करने के अपराध
में पकड़े जाने पर बचने का कोई रास्ता नहीं। सास भले ही लजीली हैं लेकिन
सहनशील भी होगी, यह जरूरी नहीं।
एक-आध
घण्टे बाद उसी सहन में सतरंजी बिछायी गयी। और चार-पाँच कटोरियों से घिरी
थाली में गृहस्वामी भोजन कर रहे थे। सामने ही अनुपमा हाथ में पंखा लिये
बैठी थी। वे कोई बाहरी रिश्तेदार न थे पर मेहमाननबाजी किसी रिश्तेदार की
ही तरह हो रही थी। यह भी एक रिवाज है। लड़के की बहू सेवा-शुश्रूषा करे, यही
साध तो बड़े-बूढ़ों के मन में रहती है। और इस साध को पूरा करना जानती है
अनुपमा।
कुछ
देर भोजन करने के बाद गृहस्वामी ने सिर उठाकर, मानो यकायक कोई बात याद आ
गयी हो, कहा, ''हां, ठीक ही तो है। तुम्हारे बाबूजी ले जाना चाहते हैं
तुम्हें।''
''बाबूजी
की बात...जाने भी दीजिए,'' यह कहकर अनुपमा पंखा और जोर-जोर से झलने लगी।
दिल की तेज होती जा रही धड़कन कहीं पकड़ी न जाए, इसलिए और भी परेशानी है।
''ऐसे
कैसे चलेगा?'' ससुर ने दोहरे ढंग से अपनी बात पूरी की। ''वे तो तुम्हें ले
जाने पर तुले हुए हैं। सुना है, तुम्हें न ले जाने पर तुम्हारी माँ उनको
पर में न घुसने देगी।
''यही
तो रोना है''...दही पर चनी डालते-डालते अनुपमा ने कहा, ''माँ भी अजीब हैं।
बेटी को देखने की इच्छा होते ही रोना-पीटना शुरू कर देती हैं। भला यह भी
कोई बात हुई? बाबूजी को क्या कम परेशानी है! उस बार इसी दशहरे पर बड़ी दीदी
के आने की बात थी। शायद आयी नहीं, बस इसी बात पर खाना-पीना बन्द। दशहरे के
अवसर पर नयी साड़ी-वाड़ी पहनेंगी, सजेंगी-धजेंगी...वह सब कुछ नहीं हो पाया।
अच्छा! क्या हमेशा बुलाने पर जाना सम्भव हो पाता है? घर की सुविधा-असुविधा
भी तो देखनी होगी।''
ससुर
के चेहरे से बादल छँट गये और वहाँ केवल कौतुकपूर्ण चमक ही दिखाई दी।
''मैंने तो तुम्हारे बाबूजी को वचन दे दिया है,'' यह कहकर उन्होंने खीर की
कटोरी आगे खींच ली।
अनुपमा
के चेहरे पर भी बिजली की चमक फैली लेकिन उसने उसे बड़ी सफाई से बनावटी
बादलों से ढँक दिया। हाथ का पंखा नीचे रखा और गाल पर हाथ रखकर बोली, ''यह
क्या? वचन दे दिया? यहाँ सासु माँ की तबीयत अच्छी नहीं। दो दिन बाद ननदजी
आने वाली हैं। और इधर रसोइया भी घर जाने को कह रहा था।''
अनुपमा
मानो किसी गहरी चिन्ता के भार से दब-सी गयी, ''ऐसा कहने से क्या होगा?''
यह कहकर गृहस्वामी ने पानी के गिलास में दो-दो नीबू निचोड़े और हिला-हिलाकर
पीने लगे।
अनुपमा
की माँ नासमझ हो सकती हैं, लेकिन अनुपमा तो ऐसी नहीं हो सकती। वह नमकदानी
और चीनी का डिब्बा तिपाई पर सहेजती हुई उदास-से स्वर में बोली, ''इस समय
मैं यकायक मायके चली जाऊँगी तो ननदजी क्या सोचेगी? बाबूजी को यही बात आप
समझा-बुझाकर कह दीजिएगा।''
''ऐसा
नहीं होगा, बहूरानी!'' गृहस्वामी ने बायीं हाथ जमीन पर रखा और उसके सहारे
धीरे-धीरे उठते हुए कहा, ''मर्दों की बात और हाथी का दाँत। एक बार जब ही
कह दिया, तो फिर सारी दुनिया ही उलट-पलट जाए, मैं तिल भर भी इधर-उधर नहीं
हो सकता।''
तब
और क्या कर सकती है बेचारी अनुपमा। चेहरे पर फैली आभा को समेटने में थोड़ा
अधिक समय लगता है इसीलिए झटपट ससुर को खड़ाऊँ, गमछा वगैरह देने के बाद
अनुपमा ने कहा, ''अच्छी मुश्किल है! समझ में नहीं आता। यकायक अभी ले जाने
की क्या जरूरत पड़ गयी बाबूजी को, कहीं माताजी की तबीयत खराब...।"
इसके
बाद का दृश्य सहन का नहीं, कमरे का है। दिन में नहीं...रात में। तारानाथ
को छोड़कर जाते हुए 'जी किस तरह घबरा रहा है', यही बात छलछलाती आँखों से
अनुपमा बड़े विस्तार से समझा रही है। दोनों समधियों ने गुपचुप बात पक्की कर
ली है। अनुपमा बेचारी क्या करे? उसकी यों ही बेकार कहीं जाने की इच्छा न
थी। हां, कोई मौका होता, कोई बात होती तो दूसरी बात थी।
बिलकुल
नासमझ ठहरी अनुपमा की माँ, लेकिन बेहया है...ऐसा तो कह भी नहीं सकती
अनुपमा। इसलिए तारानाथ को मनाने के लिए विरह-वेदना के जितने लक्षण हैं,
उन्हें प्रकट करना पड़ रहा है।
चौथा
दृश्य भी है। वह है अनुपमा के मायके की पृष्ठभूमि पर, लेकिन उस बात को
रहने दीजिए। यह...दो युग के बाद की बात कही जाएगी, दो युग क्यों, उससे भी
अधिक।
समय
बदल गया है, लेकिन स्थान वही है। पात्र भी वही हैं, यह कहा जा सकता है।
उसी सहन में ठीक उसी भंगिमा में बैठी हैं गृहस्वामिनी अनुपमा। हाथ में
पंखा लिये। नाक-नक्श भी कुछ बदल गया है। शरीर की रंगिमा कुछ फीकी पड़ गयी
है, लेकिन बाल जो सफेद हो गये हैं, उन पर यकायक नजर नहीं पड़ती।
सामने भोजन करने के लिए
बैठे हैं वर्तमान गृहस्वामी तारानाथ।
पच्चीस
में पच्चीस जोड़ देने पर जिस बदलाव का आना जरूरी है, उससे कोई ज्यादा
परिवर्तन तारानाथ के चेहरे पर दिखाई नहीं पड़ रहा। आसन और बर्तन पिता के
समय के ही हैं। हां, भोजन का तौर-तरीका ठीक वैसा नहीं है। उस पर इस युग की
हल्की छाप है। गृहिणियों के सिर पर से आवभगत का बोझ अब हट गया है। इस समय
उन बातों की चर्चा ही होती है। उस समय 'पानी' के साथ इस जमाने की 'आग' की
तुलना करते हुए अनुपमा आये दिन हैरानी प्रकट करती रहती है। और यह इच्छा भी
प्रकट करने से नहीं चूकती कि दुनिया भर के नवाबी रोब-दाब के साथ तारानाथ
और कितने दिन निभा सकेंगे?
लड़का
तो एकदम लाट साहब का पोता हो गया है और लड़की जैसे राजकुमारी। जरा-सी चूक
होते ही मुँह की खानी पड़ती है। लड़की और लड़कों की आँख बचा यह जरूर कहा जाता
है, आजकल के लड़की-लड़कों का भरोसा नहीं।
आजकल बाजार के मोल-तोल पर
बहस नहीं हो रही। पतिदेव नाराज रहते हैं और अनुपमा चुप।
थोड़ी
देर तक खाते रहने के बाद मुँह उठाकर तारानाथ बोले, "किस बात पर इतनी देर
बाबू साहब जिरह कर रहे थे?'' कहना नहीं होगा, बाबू साहब और कोई नहीं
तारानाथ का जवान तथा बेकार बेटा था। ऐसी कडुवी जुबान और किसके लिए
इस्तेमाल में लायी जा सकती है। अपने जवान बेटे के सिवा?
अनुपमा
ने काफी तिलमिलाकर जवाब दिया, ''अब क्यों टोक रहे हो दिल्ली जाने के बारे
मैं? दोस्त दिल्ली जा रहे हैं, तो वह क्यों न जाए? कब से दिल्ली-दिल्ली की
रट लगा रहा है!''
तारानाथ ने गुस्से में
कहा, ''अभी भी वही जिद लिये बैठा है? मैं एक बार फिर कहे देता हूँ-नहीं
जाएगा...बस।''
''मैंने
भी यही कहा था,'' अनुपमा ने पंखा रखकर हाथ हिलाते हुए कहा, ''पर वही जिद
करता रहा था। भला क्यों नहीं जाऊँगा। मेरे जाने से आपका क्या नुकसान है?
लोग-बाग क्या कहीं जाते नहीं हैं? जो जाते हैं, सब मर जाते हैं? मना करने
की कोई वजह तो...ऐसी ही बहकी-बहकी बातें।''
हां, मना करने की कोई वजह
तो होनी चाहिए!
इतनी
हिम्मत! तारानाथ की मनाही ही सबसे बड़ी वजह है। बस, इसके अलावा और भी कोई
वजह या हवाला देना होगा लड़के को। तारानाथ ने गुस्से में भरकर कहा, ''मैं
उसका ताबेदार नहीं जो कारण बताऊँ। शोहदे लड़कों के हुजूम में कोई हंगामा
खड़ा करने के लिए मैं उसे नहीं जाने दूँगा। रुपये जमा करने के लिए मैं हूँ।
बच्चू को हजामत तक का पैसा तो हाथ फैलाकर इसी बूढ़े से लेना पड़ता है। इस पर
से इतनी अकड़! सीधे मुँह बात तक नहीं की जाती, जैसे मैं कोई कीड़ा हूँ
कीड़ा।''
अनुपमा
ने भी उसी स्वर में कहा, ''केवल तुम्हीं क्यों? कौन नहीं है? दुनिया में
किसी की परवाह करते हैं वे लोग? जरूरत के समय तुम्हीं तो हाथ फैलाने को
कहते हो। यहीं तक होता, तो खैर थी। मुँह खोलकर मांगने से इज्जत चली जाएगी।
इसलिए देना ही होगा और वे लेकर मानो बहुत बड़ी कृपा करेंगे।''
''हूँ,''
तारानाथ ने गम्भीर होकर कहा, ''कहूँगा, तो तुम्हें बुरा लगेगा। लेकिन सच
बात तो यह है कि सब तुम्हारे लाड़-प्यार के चलते हुआ है।''
''लाड़-प्यार
किस बात का?'' अनुपमा से नाराज होते हुए कहा, ''तुम अपने बेटे का तेवर
नहीं जानते? गलती करता भी हो तो करे...पर एक बार भी लड़के से कुछ कहने की
हिम्मत है?''
''है
या नहीं, यह तो मैं देखूँगा।'' तारानाथ धमकी देते हुए उठ खड़े हुए। ''मैं
खूब कह सकता हूँ हजार बार...पर कह नहीं सकता केवल तुम्हारे डर से।''
अचानक
चालीस पार गयी अनुपमा के चेहरे पर वही हँसी खिल गयी, चौबीस साल की युवती
की हँसी की तरह। लेकिन जवाब उसने अपनी उम्र के अनुसार ही दिया, ''हाय! मैं
मर जाऊँ! मेरे डर से तो तुम भीगी बिल्ली बने जा रहे हो। डरना हो तो डरो
आजकल के लड़कों से। मुन्ना ही तो उस दिन कह रहा था, उसके किसी दोस्त के भाई
ने, बाप से फटकार सुनकर...। वहाँ कौन है?''
तारानाथ ने उपेक्षा भरे
स्वर में कहा, ''मेघी होगा।''
''क्या पता?'' अनुपमा ने
सन्देह भरे स्वर में कहा, ''मुझे तो लगता है मुन्ना सीढ़ी से ऊपर गया।'
''मुन्ना
कहां? यह तो बड़े बाबू हैं, साहब बनकर जा रहे हैं। हाथ में बिना
पोर्टफोलियो लटकाये बाहर नहीं निकल सकते...जैसे बड़े भारी अफसर हों।''
''हां, यह भी आजकल का
फैशन हो गया है लड़कों का। अभी तक लौटकर नहीं आया।'
''लौटकर क्यों आने लगा?''
''क्या पता, कुछ भूल गया
है शायद! परसों बहुत दूर निकल गया था....फिर दौड़ा-दौड़ा वापस आया। घड़ी यहीं
भूल गया था।''
''आएगा
क्यों नहीं! कलाई में घड़ी बाँधे बिना घर से निकलने पर धर्म नष्ट नहीं हो
जाएगा? घर के लिए दौड़कर कोई चीज लाने को कह दो, लाट साहब के सिर पर आसमान
टूट पडता है।'' गुस्से से भरे स्वर में ये सारी बातें कहते हुए तारानाथ
पानी में नीबू का टुकड़ा निचोड़ रहे थे। महँगे नीबू। बड़े-बड़े दो नीबू
निचोड़कर पीने के दिन अब लद गये।
पतिगामिनी
अनुपमा पतिदेवता के फतवे का कोई जवाब देने से पहले कमरे में इधर-उधर घूम
आयी और अपना शक दूर कर इस बात का उदाहरण देने को तैयारी हो गयी कि आजकल के
लड़के, लिख-पढ़ लेने पर भी मूर्ख और उजड्ड होते हैं।
उसने
बहन, बहनोई-सभी को देखा है। अन्धी ममता के नाते अपने लड़के के सिवा और कोई
बात करेगी, अनुपमा ऐसी बेवकूफ माँ नहीं है। तीन-तीन परीक्षाएँ पास कर जो
लड़का बड़े इतमीनान से बैठकबाजी करता रहता है, सिनेमा देखता रहता है और
इधर-उधर घूमता रहता है उसकी क्या कीमत है? इधर-उधर थोड़ी कोशिश कर क्या
कोई काम नहीं मिलता जिससे पिता को कुछ सुविधा होती?
बहुत-सी और बढ़ी-चढ़ी बातें
अनुपमा कहती है।
तारानाथ को भी छुट्टी के
दिन खाकर जल्दी उठ जाने की कोई जल्दी नहीं रहती।
आराम
से खा-पीकर उठने के बाद हाथ में पान का डिब्बा ले वे बाहर के कमरे में चले
जाते। छुट्टी के दिन उसी मुहल्ले के हिमांशु बाबू के साथ शतरंज की बाजी
जमा करती। उनके आने का समय हो चला था।
नौकर-चाकर
सभी के भोजन का इन्तजाम कर अनुपमा खाने को बैठी ही थी कि उसकी लड़की शीला
नीचे से दौड़ी आयी और रसोइये से बोली, ''चूल्हा सुलगा हो तो उस पर चाय का
पानी चढ़ा दो फटाफट''
चाय का पानी....दोपहर को
डेढ़ बजे।
अनुपमा ने हैरानी से
पूछा, ''इस समय चाय पियोगी?''
शीला ने झुँझलाकर कहा,
''मैं नहीं। भैया के सिर में बहुत दर्द हो रहा है। उन्हीं के लिए।''
''भैया! मुन्ना घर में ही
है?'' अनुपमा का दिल जैसे बैठ गया।
''हां,
हैं। बाहर गये थे, लौट आये हैं। उनके सिर में दर्द हो रहा है, यह बताकर सो
गये हैं। क्यों, महाराज पानी चढ़ा दिया?'' शीला की नजर में भैया ही तो हैं
जो सम्माननीय व्यक्ति हैं। दो-चार निवाले गले के नीचे उतारकर अनुपमा दौड़ती
हुई ऊपर गयी और एकदम लड़के के बिछौने पर बैठ गयी, ''क्या हुआ रे, मुन्ना?
बाहर गया, फिर लौटकर आकर सो गया। क्या तबीयत ठीक नहीं?''
कहना
न होगा कि स्नेहातुर मातृकण्ठ का कोई भी उत्तर नहीं मिला। हालत जानने के
लिए ज्योंही अनुपमा ने बदन पर हाथ रखा, त्यों ही हाथ हटाकर मुन्ना ने करवट
बदली और सो गया।
इस अपमान पर ध्यान न दे
अनुपमा ने फिर पूछा, ''कब आये तुम?''
मुन्ना चुप था।
इसलिए
इसमें कोई सन्देह नहीं रहा कि माँ-बाप उसकी जो आलोचना कर रहे थे, वह उसके
कान में पड़ चुकी थी। कुछ भी हो, अनुपमा हारकर लौट तो नहीं जाएगी। इसीलिए
उसने रुँधे स्वर में कहा, ''आज ही अपनी तबीयत खराब करनी थी। परसों ही तो
तुम लोगों को बाहर जाने की बात है?''
''बाहर जाने की'' मुन्ना
ने जिस तरह त्यौरी चढ़ाकर देखा, उससे और जो हो उसकी मासूमियत नहीं झलकती थी।
''बाहर जानें का मतलब?
मुझे कहां जाना है?'' उसने पूछा।
अनुपमा
भी उतनी ही भोली-भाली बन गयी, एकदम खोयी-खोयी सी, मानो अभी भी उसका बचपन
नहीं बीता। उसने ऐसी बालसुलभ सरलता से कहा, ''क्यों? तुम्हीं ने तो कहा था
कि मंगलवार को हमारे साथी जाएँगे।''
''वे लोग जाएँगे, तो उससे
मेरा क्या? उनके पास ढेर सारा पैसा है, जो चाहें सो करें।''
अनुपमा
यकायक शीला की तरह खिलखिलाकर हँस पड़ी। बीस बरस पहले दूध पीते और रूठे
बच्चे को जिस तरह बातचीत कर मना लेती थी, ठीक वैसे ही भुलावा-भरे स्वर में
बोली, ''ओह! तो यह कहो, बाबू साहब नाराज हैं। किसी ने मारा है कि फटकारा
है या गाली दी है? मालूम पड़ता है उनकी ही बातें तेरे कान में पड़ी हैं।
अनुपमा केवल उनकी बात कर रही है। अपनी गलती का तिलभर निशान भी उसके चेहरे
पर नहीं था। वह यही सोच रही थी कि मुन्ना को आखिर हो क्या गया है। तू उदास
मत हो लाल...रुपये मैं दूँगी। मैं कह रही हूँ न...।''
''तुम
रुपये कहां से ले आओगी? आसमान से...जरा सुनूँ तो। तारानाथ राय के ही तो
रुपये हैं। शौक पूरा करने की मेरी कोई इच्छा नहीं। मुझे सोने दो माँ, ये
शौक...ये घूमना-फिरना सब बेकार है।''
अनुपमा
ने चुटकियों में लड़के की बात उड़ा दी।...''हां, हां, तू तो अब बड़ा बुजुर्ग
हो गया? तेरे काम-काज की उम्र तो बीत गयी न? इसीलिए बेकार का ठप्पा लगा ले
अपने ऊपर। उनकी बात पर भी कहीं गुस्सा हुआ जाता है, बेटे! उनकी बात का
कहीं कोई सिर-पैर भी है? उनकी बात कोई मानता रहे....तो न अच्छा खाए, न
अच्छा पहने, न दोस्तों से मेल-जोल रखे। शौक-मौज सबको ताक पर रख बस
तोला-माशा और केवल रुपये-पैसे का हिसाब रखे।''
''वही ठीक भी है, जब तक
उनका अन्न-जल लिखा है।''
''यह
भी कोई बात हुई? मैंने तो अब तक उनका ही अन्न खाया है। और क्या वही कर रही
हूँ जो वह चाहते हैं. कहते हैं? वह तो मुँह पर दो-चार मीठी-मीठी बातें कर
उन्हें बहलाये रखती हूँ समझे? अनाप-शनाप बककर काम बिगाड़ने से क्या लाभ?
तुम्हारे पिता ठहरे क्रोधी स्वभाव के आदमी। अगर किसी प्रकार उनके मुँह सें
ना निकल गया, तो ही कराने की ताकत किसी के बूते की बात नहीं। सिर्फ मैं ही
उन्हें समझा-बुझाकर या खुशामद कर...''
मुन्ना
यकायक उठ बैठा और उद्धत स्वर में कहने लगा, ''क्यों करती हो? यही तो
ज्यादती है। उनकी किस बात की खुशामद? पिताजी से हमेशा डरते रहने से यह
हालत हुई है। लेकिन क्यों? क्या तुम्हारी अपनी कोई औकात नहीं? अच्छा-बुरा
सोचने की ताकत नहीं? कोई बात और जिरह नहीं?''
अनुपमा के टेढ़े होठों पर
हल्की-सी मुस्कराहट खेल गयी।
बात...बहस
और तर्क अनुपमा में ये सब क्यों नहीं हैं? ये सब इतने अधिक हैं कि उनका
तेज प्रवाह समुद्र की लहरों की तरह बाप-बेटे दोनों को ही बहाकर ले जा सकता
है, लेकिन बहाकर ले जाने से तो अनुपमा का काम नहीं चलेगा। विचार और वितर्क
के हवाले देने पर तो अनुपमा का गृहस्थी चलाना मुश्किल हो जाएगा। और उसकी
अपनी औकात...।
वह
चीज भी तो आम के रस की तरह पानी में घुलकर, धूप में सूखकर बिलकुल नष्ट हो
गयी है। और खुशामद के खिलाफ तो खुद उसमें इतनी तड़प है जितनी बेटे के लिए
उसकी तड़प, लेकिन उसके साथ ही इतनी देर तक वह क्या करती रही?
लेकिन यह सब तो कुछ भी
कहती नहीं अनुपमा। मुस्कराहट की हल्की-सी रेखा और भी फीकी पड़ती हुई होठों
में ही खो जाती है।
उदास स्वर मैं उसने कहा,
''क्यों नहीं? और यह सब क्या तू समझता है बेटे?
लिख-पढ़कर
पण्डित हो जाने से ही क्या यह सब समझा जा सकता है? तू मुझे और बहुत मत साल
रे। तेरे सारे दोस्त सैर करने जाएँगे और तू पड़ा रहेगा-मैं यह नहीं सह
सकती। खुद तो मैं कभी कहीं नहीं जा सकी। दुनिया में क्या-कुछ है कभी नहीं
देखा, हमेशा कैदी ही रही, लेकिन तू तो जी भरकर यह सब देख ले। इसी में मेरी
खुशी है।"
मुन्ना
माँ को फटी-फटी नजरों से देखता रहा। ऐसा लगा मानो माँ उन दो आँखों की भाषा
में न जाने कितने सालों की नाराजगी इकट्ठी हो गयी हो। एक वंचित जीवन
की,...एक बन्दी जीवन की और विवशता-भरी नाराजगी।
इसके
बाद कहानी की दिशा बदली है। हाथ में चाय लिये शीला आ गयी। मुन्ना के हाथ
जब रुपये आएँगे, तो वह माँ को किन-किन जगहों की सैर कराएगा, इस पर बातचीत
चल पड़ी। जो मुन्ना को पसन्द है, अनुपमा को वह पसन्द नहीं। उनके विचार से
कितनी तकलीफों के बाद कहीं निकलना होगा, तो फिर मंसूरी ही क्यों? पुरी और
भुवनेश्वर ठीक रहेगा। शीला का आदर्श तो भाई है, इसलिए उसने माँ की पसन्द
को खारिज कर दिया। लेकिन इतने में ही मुन्ना ने फिर विचार बदल दिया। पुरी,
भुवनेश्वर क्या ऐसी-वैसी जगहें हैं! भारत की स्थापत्य कला का बेजोड़
नमूना।...नहीं, माँ की पसन्द की तारीफ करनी चाहिए।
इसलिए
यही तय हुआ। तभी शीला के लिए 'कटकी' साड़ी खरीदी जाने लगी और
तीर्थ-क्षेत्र में बिकने वाले कांसे के बर्तन खरीदे जाने लगे। फिर दूसरी
यात्रा के बारे में छान-बीन शुरू होने लगी।
अकस्मात् जैसे दरवाजे के
पास बम फटा हो।
''पूछता हूँ, आज चाय-वाय
नहीं बनेगी?''
अनुपमा घबराकर घड़ी की ओर
देखने लगी...चार बंजकर चालीस मिनट। बड़ी मुसीबत है। ठीक चार बजे होता है
तारकनाथ का 'टी टाइम'।
समय गुजरते ही तारकनाथ के
दिल की बीमारी बढ़ जाती है।
अचानक
इस सवाल की मार से दिल की हालत कुछ भी हो, चेहरे को ठीक-ठाक रख, अनुपमा ने
सहज खेद भरे स्वर में कहा, ''हाय राम! इतनी देर हो गयी! अरी शीला, तू तो
अच्छी लड़की है। माधो की भी क्या मति-गति है? बेसुध पड़ा सो रहा होगा।''
"सच,'' स्वर में जितनी भी
सम्भव हो, उतनी कड़वाहट मिलाते हुए तारकनाथ ने कहा, ''दिहाड़ी पर रखे
नौकर-चाकरों की अक्ल ही काम देगी।''
पति की बात के जवाब में
अनुपमा की जीभ पर कोई बात आ गयी थी-बिना महीने की नौकरानी के विवेक की
बात। लेकिन उसने कहा नहीं।
''देखो न, बेटा फिर तबीयत
खराब है, कहकर सो गया है। क्या पता कहीं
बुखार-बुखार न हो जाए।''
इसके बाद का दृश्य दिन का
नहीं, रात का है। बात इस कमरे की नहीं, उस कमरे की है।
...घर
के दरवाजे से सिटकिनी लगाकर सोडा की दो टिकिया और पानी का गिलास पति के
हाथ में पकड़ाने के बाद अनुपमा पान का डिब्बा हाथ में लेकर बिछौने पर बैठ
गयी। पान लगाने के ढेर सारे सामानों से भरे डिब्बे को खोलकर पान बनाया और
बीड़ा मुँह में डाला और कहा-''छाती की तकलीफ कोई ज्यादा तो नहीं? तुम तो
वक्त से जरा इधर-उधर होते ही बिगड़ जाते हो। सुन रहे हो न...? नाराज हो?
तुम्हें लेकर तो अब भारी मुश्किल है। अभी भी बच्चों की तरह नाराज होना,
रूठ जाना अच्छा लगता है? बेटा भी वैसा ही हुआ है। बाप की और कोई खूबी हो न
हो, गुस्सा तो वही सोलहों आने है। उस समय मैंने तुमसे कहा नहीं था कि
मुन्ना की तबीयत खराब है। तबीयत नहीं बिगड़ी, तेवर बिगड़ा है। दोस्त जा रहे
हैं न, इसीलिए दिमाग खराब है तनाराज होकर मैंने भी जाने को कह दिया है।-मन
की चाह दवा रखने से तो आखिर में बीमार हो ही जाएगा। सुधीर, श्यामल सभी जा
रहे हैं, तो वह भी चला जाए एक बार। दिल्ली जाने से क्या कोई सींग निकल
आएँगे, भला मैं भी देखूँ।...हां, अगर एक नौकरी का जुगाड़ बैठा सके तब
कहूँगा कि लायक और बुद्धिमान है। श्यामल के मामा शायद वहीं कोई बड़े अफसर
हैं। अरे हां...तुम लोगों के सुबोध वाबू की बदली दिल्ली हो गयी है न?''
''हो
भी गयी तो क्या?'' तारकनाथ के स्वर में खीज थी तो भी हँसते हुए
कहा-''तुम्हारे लड़के के वहाँ पहुँचते ही एक कुर्सी आगे बढ़ा देगा?''
''जाओ
भी!'' हँसने लगी अनुपमा। वही दस साल पहले वाली हँसी। हँसकर तकिये का सहारा
लेती हुई बोली-''तुम्हें तो हमेशा मजाक ही सूझती है। हटो भी जरा आराम से
सोऊँ।...लो, सोचा था मसहरी लगा दूँगी...चलो हटो...लगा दूँ।''
''अब
छोड़ो भी,'' तकिये पर कोहनी रखे अनुपमा का सिर हाथ से सहलाते हुए तारकनाथ
बोले, ''जाने भी दो...अब तो पड़ गया। लेकिन आज अचानक अपने फर्ज का खयाल
कैसें हो गया?''
''नहीं,
तुम्हारी तबीयत आज ठीक नहीं है,'' यह कहती हुई अनुपमा उठकर बैठ गयी। तब तक
तारकनाथ खड़े हो चुके थे। मूँछों के बीच से मुस्कराते हुए बोले, ''अच्छा,
बड़ी पति-भक्ति जतायी जा रही है! इन सत्ताईस वर्षों में कितने दिन मसहरी
लगायी गयी है!''
बीमार तारकनाथ को जल्दी
नींद नहीं आती।
दिन-भर के काम और तमाशे
से थकी अनुपमा क्षण-भर में सो गयी।...शायद अभिनय में एकदम खरी ठीक उतरी
थी, इसलिए।
अभिनय?
नहीं तो क्या? बड़ा ही
मँजा हुआ अभिनय। इतना सहज कि वह अभिनय जान ही नहीं पड़ता। यह समझना असम्भव
है कि कौन-सा असली है कौन कौन बनावटी।
लेकिन
अकेली अनुपमा ही क्यों? नारी मात्र ही क्या अभिनेत्री नहीं है? अभिनय की
क्षमता ही तो उसके जीवन का मूल धन है। जन्म से ही प्राप्त इस पूँजी से
उसका सारा काम-काज होता है।
शायद
ये सारी बातें गलत हों? उसका कोई भी अभिनय नहीं। नारी प्रकृति में सदा से
ही पास-पास रहती आयी हैं दो अलग-अलग इकाइयाँ-जननी और प्रिया। इस मामले में
वह स्वयं सम्पूर्ण है।
ममतामयी नारी अपनी इन दो
अलग-अलग भूमिकाओं की ओट में बड़े जतन से उस चिरशिशु पुरुष को सहारा और
सहयोग देती आयी है।
(अनुवाद : रणजीत कुमार साहा)