आते-जाते यायावर (कहानी) : मन्नू भंडारी
Aate-Jaate Yayavar (Hindi Story) : Mannu Bhandari
कभी सोचा भी नहीं था कि महज मज़ाक में कही हुई बात ऐसा मोड़ ले लेगी। मोड़
और इस शब्द पर मुझे खुद हँसी ही आने लगी। मेरी ज़िन्दगी में अब न कोई
उतार-चढाव आएगा, न मोड़। वह ऐसे ही रहेगी !; सीधी, सहज और सपाट। हाँ,
कभी-कभी उस सपाट ज़िंदगी में एक दरार डालकर उसके पार बसी दुनिया को देखने
के लिए ललच उठता है, पर जब-जब ऐसा किया, मन का बोझ बढ़ा ही है। फिर भी कल
जो कुछ हुआ उसमें जीना अच्छा लग रहा है। खासकर इस आश्वासन के साथ, नहीं
आश्वासन नहीं, न जाने क्यों मुझे सही शब्द नहीं सूझ रहे हैं और मैं गलत
शब्दों का ही प्रयोग करती जा रही हूँ—आमंत्रण या कहूँ कि साग्रह
मनुहार के साथ कि मैं आज भी मिलूँ।
ख़याल आया रमला सुनेगी तो हँसती हुई कहेगी, ‘‘लगा
लिया तुझे भी क्यू में ? भई, कमाल है ?’’
रात बारह बज गए थे, तो रमला ने पूछा नहीं था, एक तरह से आदेश-सा देते हुए
ही कहा था, ‘‘नरेन, मिताली को छोड़ने का जिम्मा आपका।
आप इसे
छोड़ते हुए निकल जाइए।’’
उसने कुछ ऐसे सहर्ष भाव से स्वीकृति दी मानो वह इसी बात की प्रतीक्षा कर
रहा था। टैक्सी-स्टैंड पर कई टैक्सियाँ खड़ी थीं, पर वह उधर नहीं बढ़ा। इस
आदमी से काफी दूरी रखनी है और इसकी हर बात को केवल ऊपर से निकाल देना है,
इस बात के प्रति बेहद चौकस होने के बावजूद, आधी रात को उसके साथ पैदल चलने
का ख़याल मुझे कहीं अच्छा लगा। चारों ओर निपट सन्नाटा था और सड़क के दोनों
ओर दूर तक लैंप-पोस्ट बाँहें फैला-फैलाकर रोशनी उँडेल रहे थे।
‘‘यहाँ बारह बजे ही कैसा सन्नाटा हो जाता है !
विदेशों में तो
बारह के बाद से ही असली ज़िंदगी शुरू होती है।’’ और
मुझे लगा
कि अब यह लगातार विदेश की बातों से बोर करेगा। इस देश की लड़कियों पर रौब
डालने के लिए कितना अच्छा हथियार है यह !
पर ऐसा हुआ नहीं। वह फिर अपने बारे में बताने लगा। अपने शौक, अपनी
महत्त्वाकांक्षाएं और खास कर अपनी यायावरी वृत्ति !
‘‘लगता है, मेरे भीतर एक जिप्सी बैठा है, जो मुझे
घुमाता है।
पिछले सात साल से मैं केवल घूम रहा हूँ, भटक रहा हूँ, नये-नये स्थान,
नये-नये लोग ! मुझे पता नहीं कहाँ जाकर अंत होगा, कब अंत होगा
!’’
वह जैसे बहकने लगा था। मुझे ख़याल आया, इसने बहुत पी रखी है, केवल नीट !
बल्कि जब रमला दरवाजे तक छोड़ने आई, तो कहा भी था,
‘‘आज आप
बहुत पी गए है। ठीक से छोड़ तो देंगे न मिता को ?’’
वह हँसा था, ‘‘आप तो जानती ही हैं कि कितना भी पी
लूँ, मुझ पर रंग नहीं चढ़ता।’’
‘‘काला कंबल’’ रमला ने कहा था और
हँस पड़ी थी।
बातों ने नीचे छिपे अर्थ मैं समझ रही थी, फिर भी अनजान बनी खड़ी रही पर
क्षण-भर के लिए तीव्र आकांक्षा का एक झोंका ऊपर से नीचे तक जैसे चीरता हुआ
निकल आया—एक बार मैं भी रंग चढ़ाने की कोशिश करके देखूँ, और कुछ
नहीं, केवल चैलेंज की तरह ! सचमुच अब बातें या तो चैलेंज के रूप में आती
हैं या बदली लेने की क्रूर भावना के साथ। रमना, डूबना—ये सारे
शब्द
तो जैसे एक-एक करके निरर्थक होते चले गये।
‘‘जानती हैं, यूनिवर्सिटी की इन सड़कों पर मैं कितना
घूमा हूँ
? ज़िन्दगी के कितने दिन इन पर गुज़ारे हैं ?’’ तो
उसी के
स्वर-में-स्वर मिलाकर बोली, ‘‘और जाने किन-किन के साथ
?’’
वह हँस पड़ा, ‘‘लगता है रमला ने मेरे बारे में बहुत
कुछ उलटा-सीधा बता रखा है आपको।’’
मैं हल्के से मुस्कराई। सचमुच रमला ने इतना कुछ बता रखा था उसके बारे में
कि बिना किसी विशेष परिचय के भी वह मुझे अपरिचित नहीं लग रहा था। धीरे से
बोली, ‘‘कुछ ग़लत तो नहीं बताया न
?’’
वह फिर हँस पड़ा, ‘‘कभी-कभी सोचता हूँ, आदमी अपने
भीतर कितना
कुछ समेटे होता है, वह खुद नहीं जानता और एक बँधी-बँधाई लीक पर चलकर मर
जाता है। बिना अपने को जाने, बिना अपने को समझे ! ह्वाट ए पीटी
!’’
बिना उसकी और देखे ही मैंने जान लिया कि स्वर की तरह उसके चेहरे पर भी एक
हिक़ारत-भरी दया फैल गई होगी।
पर मैं एकाएक कटु हो आई। मन हुआ कहँ, ‘लीक तोड़ना,
‘संस्कारों
से मुक्त होना’—इन सारे मुहावरों का चारा डालने के
लिए कैसी
खूबसूरती से प्रयोग किया जाता है आजकल। पर कहा केवल एक निहायत ही
पिटा-पिटाया वाक्य, ‘‘लीक तोड़कर ही आदमी क्या बहुत
कुछ पा
लेता है ?’’
मैं जानती थी, वह क्या उत्तर देगा। फिर भी उसके मुँह से सुनने का मोह हो
आया।
‘‘अच्छा, आप ऐसा नहीं मानतीं कि हम जितनी तरह की
ज़िंदगी जीते
हैं, जितने सम्पर्क और सम्बन्ध बनाते हैं, उनसे हमारे व्यक्तित्व के उतने
ही पहलू उभरकर आते हैं ? नई-नई जगह देखना, नये-नये लोगों से मिलना, उनके
निकट होना, उनको अपने निकट लाना—और खुद-ब-खुद भीतर एक नयी
दुनिया
खुलती चलती है। तब एक मुग्ध विस्मय के हाथ हम देखते हैं—अरे, यह
सब
भी हमारे भीतर था !’’
मैं बड़े तटस्थ और कुछ ऐसे चौकन्ने भाव से उसकी बात सुनती रही मानो यह सब
पहली बार सुन रही होऊँ। हालाँकि रमला यह सब मुझे बता चुकी थी।
‘‘और यदि यह सम्बन्ध ऑपोजिट-सेक्स के साथ हो, तब तो
व्यक्तित्व के रगोरेशे तक उभरकर आ जाते हैं।
और उसने एक निःसंकोच, सीधी नज़र मेरे चिहरे पर टिका दी, जिस पर अपनी बात
का समर्थन करवाने का साग्रह अनुरोध हुआ था।
हूँ, तो ये अब मुझ पर ही चालू हुए। पर लगा, आदमी दिलचस्प भी है, और औरों
से भिन्न भी सब लोग ऐसे मौकों पर बात करते हैं ‘तुम’
से। जैसे
जो हो, बस तुम ही हो, बाकी दुनिया बेकार। इसने बात दुनिया से शुरू की है,
अब शायद ‘तुम’ पर आएगा—धीरे-धीरे
सीढ़ी-दर-सीढ़ी।
नवीनता का भी तो अपना एक आकर्षण होता है। सचमुच आदमी तेज़ है और किसी को
भी फँसाने के सारे हथकंडों से लैस।
फिर भी बात करने का नाटकीय अंदाज़ मन को भाया। रह-रहकर कंधों का उचकना,
हथेलियों का हवा में फैलना-सुकुड़ना और पल-पल चेहरे की बदलती मुद्राएँ।
‘अमेरिकी लटका !’ एकाएक ही मन में उभरा। ये अदाएँ ही
तो हैं सम्पर्क-सम्बन्ध बनाने का सबसे सशक्त साधन होती होंगी।
भीतर-ही-भीतर कहीं हँसी उमड़ने लगी। रमला ने इस नाटकीय अंदाज़ की हू-ब-हू
नक़ल करते हुए ये ही सब बातें बताई थीं और फिर हँसते हुए कहा था,
‘‘बोलो, मिला दें तुम्हें नरेन से ? तुम भी उसके
व्यक्तित्व
का एक पहलू उजागर कर दो, या अपना करवा लो।’’
भीतर-ही-भीतर मन में कुछ कुलबुलाने लगा। मैंने बड़ी ही तौलती
–सी नज़र से एक बार उसे देखा।
सारी बात रमला को सुनाने के लिए एक मज़ाक बनकर रह जाती, यदि फाटक पर विदा
लेते समय वह यह नहीं कहता, ‘‘कल शाम को आप क्या कर
रही हैं ?
खाली हों तो मिलें ?’’
एक क्षण को हाँ-ना किए बिना मैं असमंजस में खड़ी रही। तभी सुना, वह हँसते
हुए कह रहा था, ‘‘आप बहुत गालियाँ दे रही होंगी मुझे।
आज आपको
भी थोड़ी-सी पिला देने का पाप कहिए या पुण्य, मुझसे हो ही गया। हमेशा याद
रखिएगा कि आपके कुछ दायरों में से एक दायरा मैंने भी
तोड़ा।’’
अंतिम बात ने एकाएक हीं जैसे मुझे कहीं बहुत भीतर, गहरे में धकेल दिया।
मैं सुन्न हो गई। ख़याल ही नहीं रहा कि उसे कुछ जवाब देना है पर वह खुद ही
बोला, ‘‘कल फ़ोन करके मैं खुद तय कर
लूँगा।’’ और
हाथ हिलाकर मुड़ गया, मैं जहाँ-की-तहाँ खड़ी रह गई।
मन की न जाने कौन-सी अदृश्य परतों के नीचे दबा एक वाक्य पूरे दृश्य को साथ
उभर आया—अपने शरीर से अलग करते हुए उसने कहा था,
‘‘आज
तुम्हें एक अँधेरे कुएँ से निकालकर खुली-फैली दुनिया में ले आया हूँ। अब
जानोगी कि जीना क्या होता है !’’
तब वह पुलकित होने के साथ-साथ भीतर तक कृतज्ञा भी हो आई थी।
और बहुत दिनों बाद कहा था, ‘‘खींचकर लाना मेरा काम
था, अब इस
खुली दुनिया में चलना और अपना रास्ता तलाश करना तुम्हारा काम
हैं।’’ क्योंकि अपने साथ चलने के लिए उसने एक
लिपी-पुती,
बड़ी-सी बिंदी लगाने-वाली गुड़िया जैसी लड़की चुन ली थी। एक बार परिचय भी
करवाया था, ‘‘ये है मिताली ठाकुर, हमारे साथ पढ़ती
थीं, बहुत
ही होशियार और गज़ब की बोल्ड।’’
‘बोल्ड’ शब्द
कहते समय हल्की-सी भर्त्सना का पुट आ मिला था उसके स्वर में। पत्नी के
सामने शायद मित्र कहने का तो वह साहस तक न जुटा पाया था।
तब एक बार बड़ी ज़ोर से इच्छा हुई थी कि वह मुझे अँधेरे कुएँ से खींचकर
लाया था, तो मैं भी इसकी शराफ़त का यह खोल खींचकर उतार दूँ, जिसे यह बडी
मासूमियत के साथ अपनी पत्नी के सामने ओढ़े बैठा है।
पर मैं कुछ नहीं कर पायी थी। बस, भीतर-ही-भीतर उफनते ज़हर को चुपचाप पीती
रही थी और आँखों से उमड़ते आँसुओं को जबरन पीछे ठेलती रही थी।
तब मुझे मालूम हुआ था कि संस्कार तोड़ने के बहाने कितनी ख़ूबसूरती से वह
मुझे ही तोड़ गया है।
अब एक ये आए हैं दायरे तोड़ने। ठीक है, कल ये भी आएँ। अब मैं भी पहले की
तरह मूर्ख नहीं रह गई हूँ। और भीतर-ही-भीतर एक बड़ी ही क्रूर-सी इच्छा
कुलबुलाने लगी।
अब तक की सारी मिठास एक कड़वाहट में बदल गई।
लेटी तो नींद नहीं आ रही थी। व्यक्ति अब अलग-अलग याद नहीं रहते शायद सभी
कहते हैं, ‘मिता बहुत रिजर्व्ड है, मिता इनिशिएटिव नहीं लेती,
मिता
अपने को कहीं भी प्रोजेक्ट नहीं करती।’
तो भीतर-ही-भीतर सबको धोखा देने का, छलने का एक क्रूर संतोष मन में जगाता
है। तुम कभी जान नहीं सकते कि मिता भीतर से क्या है ? मिता ने तो सब कुछ
किया है, आज भी कर सकती है, पर बर्दाश्त होगा तुमसे ? तब तुम्हीं सबसे
पहले थू-थी करते हुए हिकारत-भरे प्रहार करोगे और अपने-अपने दड़बों में लौट
जाओगे।
नहीं, मैंने तो बहुत पहले ही तय कर लिया था कि अब मैं कुछ नहीं
करूँगी। अपने को वापस दायरे में समेट लूँगी। इस निर्णय के साथ ही मैंने वह
शहर ही नहीं छोड़ा था, अपना अतीत भी छोड़ दिया था। एक बार बाहर आकर भीतर
की ओर लौटने की यातना, भीतर से बाहर की ओर आने की यातना से कितनी ज़्यादा
है, यह भी मैंने तभी जाना था। बाहर आने में कितनी उमंग, कितना उत्साह था
और भीतर लौटने में कितनी निराशा, कितनी टूटन !
फिर भी एक अदृश्य संकल्प मेरे मन में धीरे-धीरे आकर लेने लगा।
ठीक समय पर वह आ गया। कमरा वैसा ही पड़ा है। एक बार भी मैंने उसे
सजाने-संवारने का प्रयत्न नहीं किया। मैं अपनी हर बात उसे दिखा देना चाहती
हूँ कि मैं उसे ज़रा भी महत्त्व नहीं दे रही हूँ। न उसके इस प्रकार चले
आने को कुछ विशेष समझ रही हूँ। मैंने मन हगी मन तय कर लिए है कि मैं
निहायत ही देशी ढंग से व्यवहार करूँगी और अंग्ररेजी का एक शब्द लोटते हुए
उसे कैसी तिलमिलाहट होगी, यही तो इनकी सबसे बड़ी तुरुप होती है। उस काल्पनिक तिलमिलाहट से मुझे भीतर-ही-भीतर एक संतोष मिलने लगा।
‘और जब सारी स्थिति बर्दाश्त के बाहर हो गई, तो हम लोगों ने उस संबंध को नकारकर नए सिरे से अपने-अपने व्यक्तित्व को स्वीकार किया। बताइए ज़रा, आदमी सिवाय एक औरत के पति के और कुछ रह ही नहीं जाए! यह भी कोई जिंदगी हुई भला!’
वह अपनी अमेरिकी पत्नी से अलग होने की बात बता रहा था। पर किसी बहुत ही आत्मीय या नाजुक के टूटने की हलकी-से-हलकी व्यथा भी उसके चेहरे पर नहीं थी। तोड़ना क्या इतना आसान भी हो सकता है! अतीत के संबंध से क्या सचमुच आदमी इस तरह मुक्त हो सकता है? पर जो जुड़ता ही नहीं, उसके लिए टूटने की अहमियत ही क्या होती होगी भला?
फिर भी अतीत की किसी भी छाया या व्यथा से इसका यों मुक्त होना मुझे अच्छा लग रहा है। ‘खाली स्लेट पर ही तो रंग अच्छा चढ़ता है’ एकाएक मन में उभरा और जैसे मैं भीतर-ही-भीतर अपने एक-एक कदम के लिए सतर्क और चौकन्नी हो गई।
वह लगातार कुछ-न-कुछ बोले जा रहा था और मैं विस्मित-सी यह सोच रही थी-आदमी इस तरह उँडेल पाए, तो मन का कितना बोझ छँट जाए! कितना हलका हो जाए! इसका मुझसे परिचय ही कितना है भला? फिर भी कैसे विश्वास में लेकर सबकुछ बताए जा रहा है, मानो मैं कोई बहुत ही घनिष्ठ होऊँ, इसकी अंतरंग।
अनायास इस शब्द का यों मन में आ जाना मुझे अच्छा लगा, क्या इसके मन में भी इस समय मुझे लेकर कोई ऐसा ही भाव नहीं होगा? बस, यही अनुकूल अवसर है, मुझे चूकना नहीं चाहिए। स्वर को बहुत ही मुलायम बनाकर मैंने पूछा, ‘अच्छा, एक बात बताइए! लगातार यों घूम-घूमकर, भटक-भटककर आप थक नहीं जाते?’
उसने एक भेदती-सी नज़र से मुझे देखा, जैसे इस प्रश्न के पीछे का मकसद जानना चाहता हो। मैं भीतर तक सिहर उठी, मानो चोरी करती हुई पकड़ी गई होऊँ। पर नहीं, उसका ध्यान शायद उधर था ही नहीं। वह बड़े ही सहज स्वर में बोला, ‘सचमुच कभी-कभी थक जाता हूँ। लगता है, जैसे अपने से ही हार रहा हूँ। यहाँ से वहाँ, वहाँ से कहीं और, कहीं और…निरुद्देश्य और निरर्थक। और तब मन करता है कि इस भटकन को समाप्त कर दूं। किसी एक के साथ, एक जगह बैठकर जिंदगी जिऊँ, सुरक्षित और बँधी हुई।’
और उसने बड़े हारे-थके भाव से सिर कुर्सी की पीठ पर टिका दिया, मानो सचमुच वह घूम-घूमकर, भटक-भटककर एकदम निढाल हो गया हो। छत की ओर एकटक देखते हुए होंठों को गोल बनाकर वह धीरे-धीरे धुएँ के छल्ले उड़ाने लगा। रेशमी धुएँ के वृत्त बड़े हो-होकर उसके ही चारों ओर फैलते-लिपटते चले गए। धुएँ के उस झीने-से आवरण के पीछे उसका चेहरा मुझे बड़ा कातर और दयनीय-सा लगने लगा। कुछ इतना ज्यादा कि मुझे तरस-सा आने लगा। कहीं ये अनेक-अनेक संबंध बनने-बिगड़ने के क़िस्से मनगढ़ंत तो नहीं हैं? आजकल इन सबका बखान करना भी तो आधुनिक फैशन में से एक है। किसी भी लड़की के लिए अनेक प्रेम-प्रसंगों में लिप्त आदमी आजकल ज़्यादा आकर्षण का कारण होता है। एक जीता-जागता और ललकारता हुआ चैलेंज।
‘पर छह महीने भी एक जगह बैठ लूँ तो दम घुटने लगता है। भीतर का जिप्सी कोड़े मार-मारकर मुझे ढकेलने लगता है और फिर यात्रा शुरू…’
‘कभी आप आगे के बारे में सोचते हैं, जैसे दस साल बाद की बात! जब न इस तरह घूमना संभव होगा, और न कोई दो बात करने-पूछनेवाला रह जाएगा। शायद तब किसी के पास इतना समय भी नहीं होगा कि एक मिनट आपके लिए थम ही जाए।’
मैं उसे आतंकित कर देना चाहती हूँ। वह जान ले कि ऐसे जिंदगी का एक पहलू यह भी है।
‘कभी-कभी ख़याल ज़रूर आता है, पर आगे के बारे में मैं ज़्यादा सोच नहीं पाता।’
‘क्यों, क्या बूढ़े हो गए? आगे से मुँह मोड़कर पीछे देखना तो बूढ़ों का काम है।’ वह खिलखिलाकर हँसने लगा। मुझे हर बार ऐसा लगता है, मानो मेरी सारी सतर्कता के बावजूद वह मेरे भीतर उठने-बैठनेवाले हर भाव को पढ़ रहा है। मुझे अजीब-सी बेचैनी होने लगी।
‘नहीं, मैं पीछे भी नहीं देखता। केवल सामने देखता हूँ और शायद वह यूथ की निशानी है।’ वार खाली जाने की झल्लाहट, ज़रूर मेरे मुँह पर आ गई होगी।
मैं चाहूँ तो भी यह भटकन समाप्त नहीं होगी। आखिर उसने शाप भी तो बड़े सच्चे मन से दिया था।
मेरी आँखों में प्रश्नवाचक भाव तैर आया तो फिर एक और प्रेम-प्रसंग खुल पड़ा।
यूनिवर्सिटी की सड़कें, हॉस्टल के बंधन, यह सारा माहौल उस प्रसंग के साथ भी जुड़े हुए थे। अमेरिकी पत्नी की अपेक्षा इस प्रसंग में प्रेम की ऊष्मा भी ज्यादा थी और टूटने की व्यथा भी। एकाएक मुझे लगा, यह मुझसे मिलने नहीं आया है, मेरे माध्यम से अपने अतीत के उस टुकड़े को दोहराने आया है। मेरा अहं बुरी तरह तिलमिला गया। मुझसे कोई भी मिले, यह मुझे मंजूर है… पर यों मात्र माध्यम की तरह!
‘उसका रोकना, उसका शाप, आज भी सब-कुछ याद है।’ भावुकता की ये बातें करते समय उसकी सारी चुस्ती, सारी स्मार्टनेस जैसे गल गई और वह बड़ा दयनीय और और बड़ा साधारण-सा लगने लगा।
‘अब वह कहाँ है?’ कुछ रुखाई से मैंने पूछा।
‘उसने शादी कर ली। खूब प्रसन्न है। मुझे बुलाकर अपना सुख, अपना वैभव और अपनी प्रसन्नता दिखा भी दी।’
‘और आपकी पत्नी?’
‘संबंध टूटने के साल-भर बाद तक तो उससे संपर्क रहा था। उन दिनों वह अपने किसी अफेयर में व्यस्त थी। हो सकता है, अब तक उसने शादी भी कर ली हो या किसी नए अफेयर में व्यस्त हो गई हो।’
मेरी तिलमिलाहट एक क्रूर आनंद में बदल गई। लगा, जैसे मेरे भी सारे बदले इन औरतों ने चुका दिए।
तो सब ओर से हारे-पिटे ये यहाँ आए हैं मेरे दायरे तोड़ने। और मेरा मन इसके भीतर का सब-कुछ जान लेने को अकुलाने लगा। यह सिर्फ एक नाटक है या कि इसके पीछे एक हारे हुए मन की कहीं टिक बैठने की आकांक्षा। पर कहीं से भी तो यह हारा-पिटा नहीं लगता। क्या टूटे संबंध इसे कहीं से भी नहीं तोड़ते? क्या मन की टूटन से यों असंपृक्त रहा जा सकता है?
‘इस बार जाऊँगा तो ज़रूर मिलूँगा उससे। अब मिलना शायद अच्छा ही लगेगा।’
‘आप वापस कब जाएँगे?’ स्वर में आई उत्सुकता को भरसक दबाते हुए मैंने कुछ ऐसी लापरवाही से पूछा, मानो इसके उत्तर से मेरा कोई संबंध ही न हो।
‘परसों यहाँ से कलकत्ते जाऊँगा और वहाँ से फिर पंद्रह को मास्को के लिए उड़ना है।’
एक क्षण को मैं जैसे हवा में लटक आई। लगा, थोड़ी देर पहले जो दयनीयता और कातरता उसके चेहरे पर उभर आई थी, वह मेरे चेहरे पर पुत गई है और वह बैठा वैसे ही हँस रहा है, सहज, मुक्त और निर्द्वंद्व। लगा, मैं फिर छली गई हूँ, अपनी सारी सावधानी के बावजूद। एकाएक मन सुलगने लगा। तब ये यहाँ करने क्या आया है? किस्से सुनासुनाकर मन हलका करने के लिए मैं ही मिली थी इसे? घनिष्ठता क्या, बिना परिचय के भी जो किसी को अपना सब-कुछ बता सकता है, उसके लिए तो माध्यम कोई भी हो सकता था।
वह फिर चहकने लगा था। नई-नई जगह, नए-नए अनुभवों को पाने का कौतुहल-भरा उत्साह उसके चेहरे पर थिरक रहा था।
पर उसके बाद उसकी बातें, उसकी उपस्थिति, बात करने का उसका नाटकीय अंदाज़, सब-कुछ मेरे लिए निरर्थक हो उठा। स्वादहीन और बेमतलब! बल्कि उसका होना-भर मुझे भारी लगने लगा। मन हुआ, उठकर बुरी तरह झिड़क दूँ। पर किस बात पर? आखिर उसने किया क्या है, यही समझ नहीं आ रहा था।
‘तुम हर संबंध में भविष्य की संभावना खोजती हो, इसीलिए वर्तमान को भी नहीं भोग पातीं।’ एक बार मृणाल दी के पति ने कहा था, तो लड़ने-लड़ने को मन हो आया था। जब भी मैं वहाँ जाती हूँ, तो बड़े दुलार से मेरे हाथ अपनी दोनों हथेलियों में लेकर सहलाएँगे, बाँह दबाएँगे, ज़रा-सा इशारा करूँ, तो मृणाल दी से छिपकर कॉफी पिलाने भी ले जाएंगे। कई बार ऐसा संकेत कर चुके हैं। कुछ और ढील दूँ तो और भी आगे बढ़ सकते हैं, पर उसी सीमा तक, जहाँ किसी चीज़ का रिस्क न लेना पड़े। उनका सब-कुछ सहज और सुरक्षित रहे। वे जानते हैं कि उन्हें सिर्फ पाना ही है, जो भी मिल जाए, खोना तो कुछ है नहीं। और मैं भी जानती हूँ कि मुझे पाना कुछ नहीं है। आधुनिकता के नाम पर कैसी-कैसी सूडरी ये लोग झाड़ते हैं!
‘मैं पत्र लिखूॅगा तो जवाब देंगी न?’
‘नहीं, हमें नहीं आता पत्र-वत्र लिखना,’ खीज-भरे स्वर में मैंने कहा। एक ये ही तो रह गए हैं पत्र लिखने के लिए! इस आदमी के लिए व्यक्तियों और संबंधों का महत्त्व ही क्या है, सिवाय इसके कि एक किस्सा सुनाने को मिल जाए उसमें से। अब विदेश में किसी औरत के साथ शराब पीते हुए या कौन जाने किसी की बगल में लेटे-लेटे सुनाएँगे, ‘हिंदुस्तान की लड़कियाँ यहाँ की तरह नहीं होतीं। न जाने कितने संस्कारों में बँधी, दायरों में घिरीं।’ उस समय भी मेरा नाम इसकी जीभ पर भले ही हो, मैं इसके दिमाग में कहीं नहीं होऊँगी। बस, कुछ-न-कुछ निरंतर बोलते जाने की हविस से ही वह बोलता चला जाएगा।
‘अच्छा, पत्र लिखना नहीं आता, तो ख़ाली काग़ज़ ही भेज दीजिए। मैं उसी से सब समझ लूँगा।’
जाते-जाते कैसे लटके बघार रहा है! फिल्मी डायलॉग! अब सचमुच मेरा धैर्य जवाब देने लगा था और मन हो रहा था, मैं सामने बैठे इस आदमी को फटकार दूँ।
तभी चपरासी ने आकर जैसे मेरा उद्धार कर दिया। मैंने बताया, ‘आठ बजे के बाद यहाँ पुरुष कमरे में नहीं रह सकते।’
‘प्राध्यापिकाओं के लिए भी इतने बंधन!’ और वह हँसने लगा, तो मैं भीतर-ही-भीतर बुरी तरह कुढ़ गई।
‘हाँ, और नहीं तो क्या, यह अमेरिका नहीं है।’ मन-ही-मन कहा-‘अमेरिका की दुम कहीं कहा!’
मैं एक क्षण को भी यह नहीं बताना चाहती थी कि परसों ही उसके जाने की बात सुनकर में विचलित हो गई हूँ या कि उसे लेकर…
बड़े सहज क़दमों में मैं उसके साथ नीचे फाटक तक गई।
‘यहाँ कोई खाली टैक्सी नहीं मिलेगी।’ मेरा इतना कह देने के बावजूद वह टैक्सी की प्रतीक्षा का बहाना लेकर खड़ा बातें करने लगा।
‘मान लीजिए, कभी एक दिन आपके दरवाज़े पर खट-खट हो! आप खोलें और देखें कि मैं खड़ा हूँ, तो कैसा लगेगा?’
खाक धूल लगेगा! क्यों अब भी नाटक किए जा रहे हो? क्या मतलब है इन सब बातों का? कहने को मैं भी कह दूँ-‘दरवाज़ा खुले और आप देखें कि कोई और चेहरा झांककर बता रहा है कि मिताली तो शादी करके चली गई, तो आपको कैसा लगेगा?’ फिर ख़याल आया, इसे लगना ही क्या है? उसी के साथ बैठ जाएगा और मेरा किस्सा ऐसी आत्मीयता के साथ बताएगा, जैसे वह कोई इसकी अंतरंग हो।
पर मैंने कुछ भी नहीं कहा। बस, गुमसुम खड़ी रही।
‘लगता है, टैक्सी तो यहाँ मिलेगी नहीं, मुझे मेन रोड तक जाना होगा।’
उसने कंधे उचकाए। फिर बड़ी अदा के हाथ जोड़कर होंठों पर ढेर सारी मुस्कान और चेहरे पर आत्मीयता पोतकर कहा, ‘इस आते-जाते यायावर का नमस्कार!’
मैं चाहकर भी मुस्करा न पाई। बस, यंत्रवत् हाथ जोड़ दिए।
वह मुड़ गया। जैसे सहज और सधे कदमों से वह चल रहा था, उससे लगा, न इन दो दिनों का सब-कुछ झाड़-पोंछकर वह इस फाटक पर ही छोड़ गया है और बेहद हलका होकर जा रहा है। हलका और निर्द्वंद्व। सच पूछे तो इन दो दिनों में आखिर हुआ ही क्या है! पर मैं हूँ कि इस न कुछ हुए को भी अब न जाने कितने दिनों तक गुनती-बुनती रहूँगी। फिर एकाएक रमला पर खीज आने लगी। पता नहीं किस-किससे मिला देती है। उसके घर कोई भी आए, मुझे ज़रूर बुलाएगी। बड़ी गार्जियन बनी फिरती है।
निरंतर दूर होती हुई उसकी आकृति धुँधली हुई, थरथराई और फिर लुढ़क गई।