आतंकित (गुजराती कहानी) : आबिद सुरती

Aatankit : Aabid Surti (Gujarati Story)

जब हमें पता चला कि हमारे पाँच मंज़िले मकान में रहते मंत्री रामप्रसाद जी के लिए सरकार सुरक्षा की व्यवस्था करने वाली है, हम प्रसन्न हुए, मगर सबसे ज़्यादा ख़ुशी मुझे ख़ुद हुई। हमारा आवास तल मंज़िल पर होने के कारण कभी कोई पियक्कड़ हमारे ओटले पर चढ़कर लेट जाता तो कभी कोई उचक्का जूते या चटाई जैसी छोटी-मोटी चीज़ें उठाकर चलता बनता था। अलबत्ता, यह कोई गंभीर समस्या न थी। चोरी की ऐसी मामूली घटनाएँ साल-भर में शायद ही होतीं, फिर भी मंत्रीजी की बदौलत हमारी गुरुकुल सोसायटी बिलकुल सुरक्षित हो जाए तो वह कौन नहीं चाहेगा?

हमारे परिवार में मुझे छोड़कर चार सदस्य हैं—एक पति तथा तीन बच्चे। एक बालक जो मेरी कोख से जन्मा है उसका नाम हमने आकाश रखा है, जबकि दूसरी दो मेरे पति की पालतू बिल्लियाँ हैं। इनमें से एक को वह ‘माँ हव्वा’ कहकर पुकारते हैं तो दूसरी को ‘माँ सीता’। अनोखे इन नामों से आपने यह मान लिया हो कि मेरे पति बुद्धिजीवी हैं तो वह भी ग़लत नहीं। वे कार्टूनिस्ट हैं, स्वभाव से बालक जैसे निर्मल भी। सारा दिन वे अपनी धुन में मस्त रहने के बावजूद सुबह-शाम बिल्लियों को दो बार दूध पिलाने का समय कभी नहीं चूकते।

माँ हव्वा सारे मुहल्ले का जायज़ा लेकर हमारी गुरुकुल सोसायटी के अहाते में दाख़िल होती है, तब वह अपनी गरदन उठाकर बुलंद आवाज़ में मेरे पति को सूचना देती है—सावधान, मैं आ गई हूँ। यह सुनकर जाने कहाँ से माँ सीता प्रकट होकर दूध पीने ओटले पर हाज़िर हो जाती है। उन दोनों को कटोरियों से साथ-साथ दूध पीते देखना भी एक अनोखा आनंद है। आपको जानकर अचरज होगा कि स्वभाव से ये दोनों बिल्लायाँ बिलकुल अलग हैं। पहली दिखने में शेर के बच्चे जैसी है, जबकि दूसरी खरगोश जैसी उजली। एक मांसाहार अधिक पसंद करती है तो दूसरी निरामिष कहा जा सकता है। शाकाहार की ओर उसे विशेष रुचि है।

हमारी सोसायटी के किरायेदार भी दो हिस्सों में बँटे हुए हैं। हम सात्त्विक आहार लेने वाले जैन हैं, तो सोसायटी के सेक्रेटरी ईसाई। चौथी मंज़िल पर पारसी तथा मारवाड़ी परिवार बसते हैं, तो पहली मंज़िल पर मुसलमान और सिंधी। इस तरह प्रजा पंचरंगी होते हुए भी हम किरायेदारों के बीच में एकता है वह देखकर किसी भी कंट्टरपंथी को ईर्ष्या हो सकती है। अब तो डाह होने के लिए आसपास की सोसायटियों के सज्जन लोगों को भी कारण मिला। हमारे मकान के नीचे चौबीसों घंटे पुलिस का पहरा जो बैठने वाला था।
‘मिस्टर डिसोज़ा !’’ बस स्टॉप पर हमारे सेक्रेटरी से मुलाक़ात होने पर मैंने जानना चाहा, ‘‘क्या अब हमें हमारे वाचमैन की आवश्यकता रहती है ?’’ कुछ पल उन्होंने मेरे प्रश्न को नज़रों से तोलकर उत्तर दिया, ‘‘अभी पहरा नहीं बैठा।’’ फिर भी मेरा सुझाव उन्हें जँच गया था, ऐसा उनके चेहरे के भाव से स्पष्ट ज़ाहिर था। शायद मन ही मन उन्होंने गिनती कर ली हो, दो चौकीदारों में से रात की ड्यूटी वाले एक को छुट्टी देकर सोसायटी की राशि में थोड़ी-सी बचत की जा सकती है। वैसे भी रात की पाली वाला बिशनसिंह ग्यारह के बाद मुख्य प्रवेश में गुदड़ी बिछा घोड़े बेचकर सो जाता था।

एक बार मंत्रीजी ने स्वयं उसे दो लातें जमाकर फटकारा था। उसने वहीं पाँव थामकर तुरंत क्षमा माँग ली थी, मगर उस पर डाँट का असर उस पर ज़्यादा दिन नहीं टिक सका। अब लगता था, वह ख़ुद ही नहीं टिकेगा। बिशनसिंह को इसकी भनक लग गई। वह सावधान हो गया। अपने फ़र्ज़ में चुस्ती बरतने लगा। इतना ही नहीं, हमारी पालतू बिल्लियों पर उसे स्नेह भी उमड़ आया।
‘‘साब!’’ ओटले पर दोनों बिल्लियों को दूध पिलाकर खड़े मेरे पति को प्रसन्न करने के हेतु उसने कहा, ‘‘दया-धरम तो कोई आपसे सीखे। इन लावारिस जानवरों से इतना प्रेम तो शायद भगवान भी नहीं करते होंगे।’’ उसके शब्दों के पीछे से उठती गूँज मैं सुन सकती थी वास्तव में वह यह कहना चाहता था कि साहब, मैं ग़रीब आदमी हूँ। ज़रा ख़याल रहे, कहीं नौकरी से मुझे हाथ धोना न पड़े। मेरे पति मुस्कराकर अंदर चले आए। उत्तर में जब वे मुस्कान फैलाएँ, तब जान लो कि उन्होंने कान धरे ही नहीं।
बिशनसिंह ने मेरी तरफ देखा। मैं अभी भी ओटले और बैठक के बीच चौखट पर खड़ी उसकी आँखों में झाँक रही थी। तभी मुझे उसमें एक चमक दिखाई दी। मानो उसे अब समझ में आया हो कि रोज़ाना दफ़्तर मैं जाती थी, अतः घर की ‘स्वामी’ मैं हूँ। उसे मुझे प्रसन्न करना चाहिए।
उसका तर्क़ गलत नहीं था। व्यावहारिक मामलों में मेरे पति को वहशत होती थी। अवसर शादी-ब्याह का हो या हमारी सोसायटी की वार्षिक मीटिंग का, मुझे ही निबाहना पड़ता था। कभी किसी रिश्तेदार की शवयात्रा में मैं उन्हें जबरन भेजती तो वे हमारे पुत्र आकाश की तरह मुझसे रूठ जाते। तब ऐसा लगता, जैसे बाप-बेटे की उम्र में कोई फ़र्क नहीं।
बिशनसिंह अपनी उधेड़बुन से मुक्त होकर होंठ खोले इससे पहले किसी वाहन के टायर की चिचियाहट उठी, चालक ने अचानक ब्रेक पर पाँव दबाया था। मेरे पति फिर ओटले पर दौड़े आए। हमारे सामने पुलिस की बंद गाड़ी आकर रुकी थी। उसके दो टायरों के बीच माँ हव्वा तड़फड़ा रही थी। उसका सिर कुचल गया था। मैंने साँस रोककर पति की ओर देखा। हमारे वैवाहिक जीवन के सात वर्षों में पहली बार उनके चेहरे पर विभिन्न भाव नज़र आए, जिन्हें मैं पढ़ नहीं सकी। उनमें आघात था, न आक्रोश, न ही घृणा। फिर भी वे काफ़ी कुछ कह रहे थे।

माँ हव्वा की करुण मृत्यु उनके लिए मानो हमारे बेटे के आकस्मिक अवसान के समान थी। मगर उन्होंने शोक नहीं जताया, बल्कि हँसने लगे। फिर मेरी कलाई थामकर वे मुझे भीतर ले आए और जैसे कोई हादसा हुआ ही न हो, वैसे मुझे बगल में खड़ी छो़ड़कर अपने काम में व्यस्त हो गए।
वे अपना ड्राइंगबोर्ड मेज़ के सहारे टिकाकर कुर्सी पर बैठे थे। मैं ग़ौर से उन्हें कार्टून बनाते हुए देखती रही। उन्होंने एक इलेक्ट्रिक चेयर (बिजली की कुर्सी) रेखांकित की थी, जिस पर मृत्युदंड का क़ैदी बैठने जा रहा था, मगर वह क़ैदी यह नहीं जानता था कि किसी ने उस कुर्सी पर एक कील खड़ी कर रखी है। उनके निर्दोष व्यंग्य में कड़ुवाहट घुली थी। वह कड़वाहट जीवन की थी। मौत के साथ भी वे छेड़खानी करने लगे थे। एक निर्दोष प्राणी की हत्या का यह गहरा प्रभाव था, अपनी तूलिका द्वारा वह अभिव्यक्त हो रहा था। जिन रक्षकों के दर्शन की मैंने सुंदर कल्पनाएँ की थीं, उनके आगमन ने मेरे पति के हृदय के किसी अज्ञात कोने में वार किया था। यह तो सिर्फ शुरुआत थी।

पुलिस की काली गाड़ी से उतरे हुए पाँच बॉडीगार्ड हमारी गुरुकुल सोसायटी के प्रवेश में कुर्सियाँ डालकर जम गए, जिनमें दो हवलदार, दो सी.आई.डी. के आदमी तथा एक अधेड़ डिप्टी था।

इस डिप्टी का गंजा चेहरा हिंदी फ़िल्मों के विलेन का स्मरण कराता था। उसकी कनपटी के ऊपर के हिस्से में पके हुए बालों के गुच्छे थे तो नाक के नीचे पहलवानों जैसी नुकीली मुँछें थीं। वह हँसता तब चंबल का कोई डाकू हँसता हो, ऐसा भ्रम होता। बाक़ी चार के थोबड़े भी कोई ख़ास नहीं थे।

‘श्रीमती सुशीला जैन!’ मैंने अपने आप से कहा, ‘चेहरों की सुंदरता मिस इंडिया के चुनाव में देखी जाती है, पुलिस विभाग में नहीं।’

अंगरक्षकों का काम आतंकवादियों के अनपेक्षित हमले से दूसरी मंज़िल पर रहते मंत्रीजी को सुरक्षित रखना था और खाड़कू कब, किस स्थान पर, किसे उड़ा दे, यह कोई निश्चित नहीं था।

मंत्रीजी सचिवालय जाते, तब पुलिस की बुलेट-प्रूफ गाड़ी उन्हें लिवाने आती और शाम को उन्हें सकुशल छोड़ जाती। तब सिर्फ़ एक हवलदार जमुहाइयाँ लेते हुए मकान के प्रवेशद्वार पर ख़ामोश बैठा रहता।

मैं तैयार होकर दफ़्तर जाने के लिए निकली तो पति ने मुझे रोकते हुए पूछा, ‘‘वे लोग यहाँ कितने दिन रुकने वाले हैं?’’ मुझे अचरज हुआ। पुलिस का पहरा बैठे अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए थे और वह दिन गिनने लगे थे।

‘‘शायद एकाध-दो महीने।’’ दो पल सोचकर मैंने उन्हें उत्तर दिया। बंबई में हुए बम-विस्फोट की दहशत कम होने में उतना समय लगेगा ऐसा मेरा अनुमान था। ‘‘हालात सुधरने पर सरकार उन्हें वापस बुला लेगी।’’

दफ़्तर पहुँचकर अपने केबिन के एकांत में बैठने पर मुझे विचार आया, मामूली सवाल करना मेरे पति का स्वभाव न था। घर पर वह इतना कम बोलते थे कि कभी मुझे धोखा होता, जैसे मैं किसी पुरुष से नहीं, पेड़ से ब्याही होऊँ।

हममें फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है, मैं तन्हा, धीर-गम्भीर हूँ, पेड़ सदैव जीवंत है। वह लहराते पवन के झकोरों में डोलना जानता है। उसे पुरवाई में गुनगुनाना आता है। परिंदों को अपने आँचल में छिपाकर उनसे बतियाना तो कोई उससे सीखे।

मेरे पति शांतिवादी थे। उनकी शांति चेतनापूर्ण थी। उनका जीवन संपूर्ण था। उस संपन्नता में एक ईंट मैंने भी रखी है। मैं उन्हें निःस्वार्थ भाव से चाहती हूँ, इसी कारण मुझे उनकी चिंता भी रहती है।

वे सारा दिन घर पर रहते, मूड होने पर काम करते वर्ना लेटे-लेटे शास्त्रीय संगीत या ग़ज़लों का कैसेट सुनते। कभी जी में आता तो दो पल बेटे से चुहल कर लेते। वह तंग आता तो माँ सीता बिल्ली को ढूँढ़ उसे छेड़ते।

उनकी आमदनी घर-गृहस्थी चलाने के लिए काफ़ी नहीं थी। मैंने स्वयं अपनी इच्छा से एक वीडियो कंपनी में सेल्स मैनेजर की नौकरी स्वीकार कर ली थी। दिन में परिवार से मेरा कोई संबंध नहीं रहता था। यहाँ अपने काम में मैं इतनी व्यस्त हो जाती थी कि घर स्मृति से लगभग मिट जाता।

आज की बात और थी। आज के उनके प्रश्न पर संजीदगी से सोचने पर मैं इतना अनुमान लगा सकी, घर का वातावरण शायद अब पहले-से शांतिपूर्ण नहीं रहा होगा।

मेरा अंदेशा बिलकुल सही निकला। छुट्टी के दिन मैंने स्वयं अनुभव किया। मकान के प्रवेश में बैठकर पाँचों अंगरक्षक दिन-भर ताश खेले और तंबाकू वाले पान खाकर यहाँ-वहाँ पीक उड़ाई।

हँसी-मज़ाक का यह सिलसिला मेरे लिए भी घिनौना था। हमारा आवास तल मंज़िल पर और प्रवेश के निकट होने के कारण हम उनके क़हक़हे तथा बातें स्पष्ट सुन सकते थे। उनमें से किसी एक को हर दूसरे जुमले में एक गाली बकने की आदत थी।

झरने की तरह निरंतर बहते हमारे जीवन में मैंने पहली बार बहाव को रुख़ बदलते देखा। अपने ही घर में अब मुझे मुँह खोलने से पहले सोचना पड़ता। जैसे दीवार के उस पार की बातें हम सुन सकते थे, इस पार की हमारी निजी चर्चाएँ वे लोग भी सुन सकते थे।

मैं परेशान हो उठी। किसी तरह महीना बीत गया। इस महीने के दौरान चौंका देने वाली दो घटनाएँ घटीं।

१९९२ दिसंबर में बाबरी मस्जिद ध्वस्त होने के बाद यहाँ के मुसलमान सड़कों पर उतर आए थे। सरकारी संपत्ति का सर्वनाश करते, आगज़नी करते उसे आक्रोश ने आख़िर क़ौमी दंगे का रूप अख़्तियार कर लिया था।

उसके चंद सप्ताह बाद हिंदू कट्टरपंथियों ने भय और आतंक का माहौल सुनियोजित ढंग से पैदा कर मुस्लिम समुदाय को बंबई शहर से उखाड़ फेंकने का ज़बरदस्त प्रयास किया। इसमें जानहानि के साथ मुसलमानों की करोड़ों रुपयों की मालहानि भी हुई।

इसका बैर मुसलमान कट्टरपंथियों ने एक ही दिन, एक साथ किए गए कई बम-विस्फोटों से लिया। उस दिन सारे देश में हाहाकार मच गया। हिंदू कट्टरपंथी सावधान हो गए।

मैंने सोचा, दोनों तरफ़ हिसाब बराबर हो गया। अब एकाध-दो महीनों में परिस्थिति सुधरेगी और समय के साथ घाव भी भर जाएँगे। मेरा यही तर्क ग़लत सिद्ध हुआ था।

एक के बाद एक तीन कट्टरपंथी नेताओं की निर्मम हत्या हुई थी, जिनमें से दो हिंदू थे और तीसरा मुसलमान। वैसे छिटपुट बम-विस्फोट के हादसे भी अब आम हो गए थे। हमारे मकान से पहरा उठने की मेरी आशा पर पानी फिर गया।

दूसरी घटना हमारे घर में ही हुई। हमारा बेटा आकाश जो इस साल के.जी. में पहली कक्षा में गया था, उसे दफ़्तर से आकर मैं होमवर्क कराने बैठी। उसकी याददाश्त थोड़ी कमज़ोर होने के कारण एक कविता पाँच बार कंठस्थ कराने के बावजूद वह शब्दों के उच्चारण में भूल करता था।

मेरे पति को मज़ाक सूझा। माँ सीता से खेलते हुए उन्होंने खड़िया से ज़मीन पर आकाश का कार्टून बनाया, मगर कान लगाए गधे के।

आकाश वैसे ही परेशान था, वह और भन्नाया। ग़ुस्से से आगबबूला होकर उसने अपने पापा को बहन की गाली दी। पति-पत्नी, हम दोनों भौचक्के रह गए।

मंत्रीजी के अंगरक्षक बाहर थे, मुझे लगा वे हमारे घर में मौजूद थे। धुंध की तरह हमारे आसपास लहरा रहे थे। ज़हर बनकर हमारी साँसों में घुल-मिल गए थे। हम दोनों सहमकर रह गए।

हमारा चौकीदार बिशनसिंह चूहे से फिर शेर बन गया। उस पट्ठे की क़िस्मत अच्छी थी कि दिन की पाली वाला वॉचमैन छुट्टी पर चला गया। अब बिशनसिंह दिन में काम करता और रात में चाहे तब सो जाता। इसमें भला किरायेदारों को क्या एतराज़ हो सकता था?

हक़ीक़त कुछ और थी। वह तनख़्वाह सोसायटी से लेता, मगर सेवा पुलिसवालों की करता। उन लोगों के लिए दिन-भर चाय-पानी का इंतज़ाम करने का ज़िम्मा उसका था। इसके बदले में वे उसे पैसा बनाने के नए टोटके सिखाते थे।

दो दिन पहले की यह बात है। आकाश स्कूल में था। पति नुक्कड़ के उद्यान में चहलक़दमी करने गए थे। मैंने वही गाली सुनी जो मैं हमारे बेटे की ज़ुबान से सुन चुकी थी। ओटले पर न जाते हुए मैंने दरवाज़े की आड़ से नज़रें फैलाईं।

प्रवेश में कुर्सी डालकर अपने साथियों के साथ ताश खेलता पहलवानों जैसी मूँछों वाला गंजा डिप्टी मकान के अहाते में घुस आए एक फेरीवाले को गाली से संबोधित कर अपने पास बुला रहा था।

शायद भय या किसी दूसरे कारण से वह फेरीवाला जहाँ का तहाँ कद्दू की तरह खड़ा रहा। उसके माथे पर प्लास्टिक और स्टील के बरतनों का एक टोकरा था। ताश के खेल में डूबे हुए पुलिसवालों की तरफ़ वह टुकुर-टुकुर देख रहा था।

गंजे डिप्टी ने एक पत्ता फेंक खेल को आगे बढ़ाते हुए उसे फिर भद्दी-सी गाली सुनाई। डरते-डरते वह प्रवेश के पास आया तो पत्ते उलटे रखकर गंजा खड़ा हो गया। पहले उसने फेरीवाले को एक चाँटा रसीद किया, फिर पूछा, ‘‘माचिस है?’’

एक हाथ से टोकरा सँभालते हुए उसने तुरंत अपनी बंडी की जेब से माचिस निकालकर गंजे की ओर बढ़ाई। उसने बीड़ी जलाकर बेहिचक माचिस अपनी जेब में डाल ली। बीड़ी के कश लेते हुए वह फिर खेल में लीन हो गया था।

थोड़ी देर इंतज़ार कर फेरीवाला चला गया।

हमारे वॉचमैन बिशनसिंह के लिए दिनोंदिन की घटती ऐसी छोटी-मोटी घटनाओं से काफ़ी कुछ सीखने को था। पहले हमारे सोसायटी में फेरीवाले बेरोकटोक आते-जाते थे। अब उन्हें एंट्री-टैक्स देना पड़ता था। यह टैक्स कभी पुलिसवाले झाड़ लेते तो कभी हमारा वॉचमैन उड़ा लेता था। मसलन रोज़ाना सवेरे केले की टोकरी लेकर आते रामरखा से हमारा वॉचमैन केले का एक गुच्छा मार लेता। एक केला ख़ुद खाता और बाक़ी के पुलिसवालों में बाँट देता था।

इसके बाद वह पानी चढ़ाने पंपरूम में जाता और डबलरोटी तथा अंडों के साथ बेकरीवाले कादर भाई दर्शन देते। उनका स्वागत पुलिसवाले करते। अब तो उन्हें माँगना भी नहीं पड़ता था। गुरुकुल सोसायटी का प्रवेशद्वार चुंगीनाका बन गया था। उसमें दाख़िल होते फेरीवाले कर देकर लिफ़्ट तक पहुँच सकते थे।

ऐसे मैले वातावरण में मेरे नाज़ुकमिज़ाज पतिदेव को घुटन हो, यह समझा जा सकता है। मगर वे मौन रहकर सब कुछ सह लेते। यह भी उनका स्वभाव था। अभावों के बारे में फ़रियाद न करना उनकी फ़ितरत थी, लेकिन सहनशीलता की भी एक सीमा होती है।

मनोवेदना की झलकियाँ अब उनकी आँखों में नज़र आने लगीं। पहले वे हर चीज़ को बालक की तरह विस्मय से देखते थे। अब जैसे बीनाई जा चुकी हो, ऐसे उनकी आँखें शून्य में गड़ी रहती थीं।

उनके चिंतन-मनन में मौत ने अरब के ऊँट की तरह एक पाँव डाला था। इन चंद हफ़्तों में वह ऊँट दुम के साथ पूरा ही घुस आया।

आज सुबह रेखांकित किए व्यंग्य-चित्र में उन्होंने फिर एक बार फाँसी के तख़्ते पर खड़े एक बंदी की तस्वीर खींची थी। पीठ के पीछे उसके दोनों हाथ हथकड़ी में बँधे थे। उन हाथों में उँगलियों के बीच एक सिगरेट फँसी थी, जैसे उसकी अंतिम इच्छा पूर्ण करने के लिए जेलर ने उसे जलाकर सिगरेट दी थी, लेकिन…

मृत्यु के मुहाने पर खड़े मनुष्य का ऐसा क्रूर व्यंग्य उनकी असहनीय परिस्थिति का परिणाम था। विशेष में हमारा आकाश जिस दिन तिलमिलाकर अपशब्द बोला था, वह जैसे अपने में सिमट गए थे।

उनका मस्तिष्क कई धागों की गुत्थी के समान था, जिसके एकाध-दो छोर अभी उनके अपने हाथ में थे। मसलन निरंतर मानसिक कष्ट भुगतने के बावजूद वे सुबह-शाम माँ सीता को दूध पिलाने का समय बराबर याद रखते थे।

एक दिन मैंने उन्हें ओटले पर पालथी मार बिल्ली के साथ बातें करते हुए देखा, ‘‘माँ सीता!’’ वह कह रहे थे, ‘‘आपको माँ हव्वा की कमी नहीं महसूस होती? मुझे तो लगता है, जैसे किसी ने मेरे कलेजे का टुकड़ा काट लिया हो।’’

बिल्ली अपनी जीभ बाहर निकालकर कटोरी से चप्-चप् दूध पी रही थी। थोड़े अंतर पर चहलक़दमी करते स्टेनगनधारी एक सी.आई.ड़ी. का ध्यान उसकी ओर आकर्षित था। धीरे-धीरे डग भरता हुआ वह हमारे ओटले के पास आया, तब मेरे पति की आँखें उस पर ठहरीं।

मानो उन्होंने प्रेत देखा हो, ऐसे माँ सीता को उठा वे हड़बड़ाकर भीतर दौड़ आए, फिर पलंग के नीचे दुबककर चिल्लाने लगे, ‘‘बंद कर दो, किवाड़ बंद कर दो। हत्यारा फिर आ पहुँचा है।’’

उनकी ऐसी मनोदशा देखकर मैं स्तब्ध रह गई। जो पेड़ लहराते पवन के झोंकों में डोलना जानता था, मूढ़ हो गया था। पुरवाई में गुनगुनाना वह भूल गया था। अब उसकी शाखें भी सूनी पड़ गई थीं।

इस करुण स्थिति को दूर करने का कोई उपाय खोजना आवश्यक था। कम से कम मैं अपनी सोसायटी के सेक्रेटरी के आगे मन खोलकर अपनी परेशानी रख सकती थी।

रात में मैं सोचती हुई डबलबेड पर लेटी थी कि हमारे दरवाज़े की घंटी बजी। मैं शयनकक्ष को पार कर बैठक में आई और दरवाज़ा खोला। गंजा डिप्टी सिर्फ़ बनियान और पतलून में मुस्कराता हुआ मेरे सामने खड़ा था।

रीढ़ को चाटती हुई शीत का अनुभव करते हुए मैं सहसा दो क़दम पीछे हट गई। उसने अपने कठोर चेहरे को संभवतः मृदु बनाकर गुज़ारिश की, ‘‘सिस्टर थोड़ी बर्फ़ मिलेगी?’’

ना कहने का मुझमें साहस न था। रसोईघर तक जाते हुए मुझे सहज ख़याल आया, रात कुछ इतनी गरम नहीं थी कि ठंडा पानी पीने की इच्छा हो। मैंने फ्रिज़ से ट्रे निकालकर बर्फ़ के चौखंडे एक पोलिथीन बैग में उँडेले और वह बैग उसे थमा दिया।

पुलिसवालों के चेहरे इतने कठोर क्यों होते होंगे? एक पुराने प्रश्न ने फिर करवट ली। उत्तर की खोज में ग़ोते लगाती मैं अभी भी चौखट पर खड़ी थी।

क्या जन्म से ही वे ऐसे क्रूर होंगे? या फिर पुलिसदल में भरती होने के बाद, समय के साथ उनके चेहरों की रेखाएँ परिवर्तन अपनाती होंगी?

दूसरा तर्क मुझे कुछ उचित लगा। यह निर्विवाद सत्य है कि मनुष्यों के चेहरे उनके व्यावसायिक वातावरण के अनुकूल निश्चित साँचे में ढल जाते हैं। कोई अध्यात्म के मार्ग पर आगे बढ़ता है तो उसकी तेजोमय मुखमुद्रा उसकी पहचान बन जाती है। उसी तरह किसी कसाई को भी आप उसके चेहरे द्वारा जान सकते हैं। दर्पण से चेहरे की तुलना आदिकाल से होती रही है।

मैं वापस भीतर जाऊँ इससे पहले मेरी हैरत के बीच हमारी सोसायटी के सेक्रेटरी डिसोज़ा स्वयं आकर मेरे सामने खड़े थे। तुरंत मैंने इशारे से उन्हें अंदर बुला लिया। मेरे पति शयनकक्ष में लेटे थे। अतः मैंने मिस्टर डिसोज़ा को बैठक के एक सोफ़े पर बिठाकर उनके आगे अपनी समस्या रखी। उसमें तीन मुद्दे थे–

एक, माँ-बहन की गालियाँ बोलने की पुलिसवालों की आदत। दो, हमारे दरवाज़े के सामने उनका चहलक़दमी करना। तीन, रात में देर तक शोर-शराबा।

मैंने यह भी बताया कि इन सारी हरकतों का गहरा प्रभाव मेरे पति के दिमाग़ पर हो रहा है। हमारा बेटा अब गालियाँ बोलना सीख गया है। हमारे घर की प्राइवेसी भी अब नहीं रही।

उन्होंने कहा कि सोसायटी के अन्य किरायेदारों ने भी इस विषय में उन्हें सजग किया है। इतना ही नहीं, तीसरी मंज़िल पर रहती मिस ख़ुरशीद इरानी ने अपनी शंका व्यक्त करते हुए उन्हें चेताया कि ये बॉडीगार्ड कभी भी उसकी इज़्ज़त पर हाथ डाल सकते हैं।

फ़िल्मों में हेयरड्रेसर होने के कारण मिस ख़ुरशीद का घर लौटने का समय निश्चित नहीं था। वैसे वह कुलीन युवती थी, मगर लड़की चाहे कितनी ही सीधी, सुसंस्कृत क्यों न हो, वह फ़िल्म लाइन से जुड़ी हो तो समाज उसे तिरस्कार से देखता है।

मिस ख़ुरशीद को देर रात में अकेली आती देख ये पुलिसवाले लार टपकाते हों तो आश्चर्य की बात नहीं, वर्ना वह ऐसी गंभीर चिंता नहीं जताती।

मैं सिहर गई। मिस ख़ुरशीद के मसले की तुलना में मुझे अपनी परेशानी साधारण-सी लगी। मैंने मिस्टर डिसोज़ा से पूछा, ‘‘फिर आपने कोई रास्ता निकाला?’’

अपने साथ लाई हुई फ़ाइल में से उन्होंने टाइप किया हुआ एक काग़ज़ निकालकर मेरे सामने बढ़ाया, ‘‘इसे पढ़ने से आपको ख़याल आ जाएगा।’’

मैं उसे सरसरी निगाह देख गई। सभी किरायेदारों की ओर से उन्होंने मंत्रीजी के नाम एक आवेदन-पत्र तैयार किया था। उसमें कुछ नए पॉइंट भी शामिल किए गए थे–

१. पुलिसवाले रात में कभी-कभी शराबख़ोरी करते हैं।

२. अपनी वर्दी तथा शस्त्रों का तकिया बनाकर वे सिर्फ़ अंडरवियर में आधी रात के बाद प्रवेश में सोते हैं।

३. प्रातःकाल उन्हीं अंडरवियर में दाँत माँजते हुए वे अहाते में टहलते हैं। इस पत्र की एक प्रति कमिश्नर के नाम भेजी जाने वाली थी।

थोड़ी देर पहले गंजा डिप्टी बर्फ़ माँगने हमारे दर्वाज़े पर आया था, उसका कारण अब मेरी समझ में आया। आज उनका नशाख़ोरी का कार्यक्रम था।

मुझे सोच में खोई हुई देख मिस्टर डिसोज़ा ने याद दिलाया, ‘‘इस पत्र में नीचे आपको भी दस्तख़त करने हैं।’’

‘‘ऑफ़कोर्स।’’ उनसे कलम लेकर हस्ताक्षर करते हुए मैंने कहा, ‘‘क्या आपको नहीं लगता कि यह ऑफ़िसियल लेटर मंत्रीजी के नाम भेजने से पहले हमें ख़ुद चलकर उन्हें मित्रभाव से सूचित करना चाहिए? आख़िर वे भी तो इस सोसायटी के सदस्य हैं?’’

‘‘मैं उनसे इतवार को मिला था।’’

अधीर होकर मैं बीच में बोल उठी, ‘‘उन्होंने क्या कहा?’’

‘‘यही कि सरकार की ओर से उन्हें बॉडीगार्ड मिले हैं, फ़रिश्ते नहीं!’’ मिस्टर डिसोज़ा बोले, ‘‘दूसरे यह कि इन बहादुर सिपाहियों ने देश की ख़ातिर अपनी जान दाँव पर लगाई है। कौन कह सकता है, कल का सूरज वे देख भी सकेंगे या नहीं? अंत उन्होंने साफ़-साफ़ बता दिया कि थोड़ी-बहुत अड़चने सभी किरायेदारों को भुगतनी होंगी।’’

‘‘मिसेज़ जैन!’’ थोड़ा रुककर उन्होंने जोड़ा, ‘‘शायद आप नहीं जानती होंगी, हमारे मंत्रीजी का नाम हिटलिस्ट में नहीं है।’’

इस बार मेरे हैरत की सीमा न रही। उनके प्राण को भय नहीं हो, तब इस सुरक्षा-बंदोबस्त का क्या अर्थ?

मेरे चेहरे पर खुली किताब की तरह पढ़ते हुए मिस्टर डिसोज़ा ने स्पष्टता की, ‘‘दरअसल उनके जूनियर को पुलिस प्रोटेक्शन मिला था, उन्हें नहीं। अतः उनका सिर नीचा हो गया।’’

रात देर तक मैं इस बारे में सोचती रही। बाहर से ठिठोली की आवाज़ें उठती रहीं। क़हक़हे गूँजते रहे। मेरे पति ने जैसे कोई डरावना स्वप्न देखा हो, ऐसे वे चौंककर बैठे हो गए। मैंने उनका सिर अपनी गोद में लेकर उन्हें वापस सुला दिया।

उनकी दिनचर्या अँधेरे में शुरू होती थी। वे सबसे पहले जगकर बाहर से अख़बार की प्रति तथा दूध की बोतल लेते, दूध गर्म करने से पहले वे माँ सीता के लिए कटोरी भर दूध अलग रख देते, फिर चाय की पतीली चूल्हे पर चढ़ाकर ओटले पर दूध की कटोरी रखते और चाय तैयार होने पर मुझे जगाते थे।

उनकी ड्यूटी पूर्ण होती और मेरी कसरत शुरू। मैं चाय पीकर आकाश को जगाती, उसे नाश्ता देकर फटाफट तैयार करती। स्कूल-बस ठीक आठ बजे आती। आज इस दैनिक क्रम में कुछ तबदीली हुई थी।

मैं अपने आप उठ बैठी थी। एक लंबी जमुहाई लेकर आलस को दूर करते हुए मैंने शयनकक्ष की अलार्म-घड़ी देखी। सात बज गए थे। सहज ही मन में खलबली हुई–ऐसा कैसे हुआ? रोज़ सुबह छह बजे मेरे केश में अपनी उँगलियाँ पिरोकर मुझे नींद से उठाने वाले मेरे पति क्या आज अपना कर्म चूक गए होंगे?

मैं रसोईघर में आई तो गैस के चूल्हे पर चाय जलकर तले में जा बैठी थी। दूसरे चूल्हे पर दूध की स्थिति उससे भी अधिक दयनीय थी। दूध उबलकर किचन-प्लेटफॉर्म पर फैल गया था। जो थोड़ा-बहुत बचा था, चाय की तरह अब भी बुदबुदा रहा था।

तुरंत दोनों चूल्हे बंद करते हुए मेरी छाती में हौल-सा पड़ा–मेरे पति कहाँ हैं? मैं तेज़ी से क़दम बढ़ाती हुई ओटले पर आई और मेरा दिल दहल गया।

मेरे पति ओटले पर गुमसुम बैठे थे। उनके सामने दूध की भरी हुई कटोरी थी। गोद में माँ सीता का निश्चेष्ट शरीर था। उसकी मृत्यु सिर पर नज़र आते हुए ज़ख़्म के कारण हुई थी।

क्या किसी ने उसे पत्थर मारा होगा? रात में शराब पीकर किसी पुलिस वाले ने उस पर डंडे से प्रहार किया होगा? यह मुमकिन था। वे पीते वक़्त नमकीन की दो-तीन प्लेटें साथ रखते थे। शायद हमारी माँ सीता ने एकाध प्लेट में मुँह मारकर उसे जूठा कर दिया हो और किसी ने गुस्से में आकर डंडा चला दिया हो।

सुबह तड़के मुझे पति के पास उदास खड़ी देख गंजा डिप्टी दातुन करते हुए बनियान तथा नीली धारियों वाली चड्ढी में मेरे सामने आकर मुझे टुकुर-टुकुर देखने लगा। मैंने दीदे दिखाए। वह अपनी पहलवानों जैसी मूँछों में थोड़ा हँसा और कुछ भी कहे बिना दाँत माँजते हुए फिर अहाते में टहलने लगा।

उसे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं थी। रात में बिल्ली द्वारा मुँहमारी हुई प्लेट किसी ने हमारे ओटले के नीचे ही उलट दी थी। मेरा जी चाहा मैं चीख़ूँ, अपनी चीत्कार द्वारा दबा हुआ आक्रोश प्रकट करूँ।

मैंने जीवन में पहली बार विवशता महसूस की, मगर मेरे पति की त्रासदी मुझसे महान थी। माँ हव्वा तथा माँ सीता, आतंकवाद ने उनकी दो संतानों का भोग लिया था।

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