आशीर्वाद (उड़िया कहानी) : संयुक्ता महांति

Aashirwad (Oriya Story) : Sanjukta Mohanty

'गाड़ी रोकना, महेश!'

'फिर, क्या हुआ तुम्हें?'

'बड़ी चुप्पी-साधे बात कर रहे हो?'

'पहले थोड़ी-सी, घूँट भर पीने से यह सफर अच्छा नहीं लगेगा, यानी नहीं जमेगा। इसलिए हम तुझ से यह आग्रह कर रहे हैं कि तू सामने आ रहे ढाबे के पास गाड़ी रोक।' तापस ने कहा कि अगर तू यहाँ नहीं ठहरेगा तो फिर हम सब मिलकर कल रात संबलपुर पहुँचने पर तेरी जेब बिल्कुल खाली कर देंगे।

वे चार शख्स थे—अनिल, सुरेंद्र, महेश और तापस। अनिल नामी-गिरामी सीमेंट कंपनी का सि-एंड-एफ एजेंट था। वह इज्जतदार और रईस था। सुरेंद्र, महेश, तापस तीनों इसके साथ जा रहे थे। वे सब अनिल की तरह बहुत पैसेवाले न होने पर भी अमीरी में किसी से कम नहीं थे।

वे कटक से वापस घर की ओर लौट रहे थे। सीमेंट कंपनी के मैनेजर समीर महापात्र का विवाह था। विवाह का स्वागत-सत्कार खूब जम रहा था। दावत भी खूब लजीज थी। इस शादी में जो शानदार खाना मिला था, शायद सौ शादी की दावत में भी ऐसा खाना नहीं मिला होगा। फिर भी पार्टी शराबखोर तापस के लिए जँची नहीं थी। वह महापात्र बाबू के कानों पर झुककर खुसुर-फुसुर कर कहने लगा, 'सर! सबकुछ बेहतरीन है, मगर मुझे थोड़ी-सी जँची नहीं।'

महापात्र बाबू एक हल्की सी मुसकान केसाथ बोले, 'तुम यह सब जुबान पर मत लाओ। मेरी माँ पुराने खयाल की है। हमारा परिवार संस्कारी है। तुम्हें जाते वक्त जो करना है, कर लेना।' इसलिए तापस थम सा गया था। अनिल सबके सामने शरीफ बनता है। सिर्फ रुपयों को पहचानता है। वह मारवाड़ी लड़का होकर भी ओडिया दोस्तों के बीच सिर्फ ओडिया में ही बातें करता है। ओडिया परिवारवालों के साथ बातचीत करते वक्त वह तनिक भी हिंदी नहीं बोलता था। उसने समीरबाबू की पत्नी को एक सोने का सेट दिया था, जिसमें सोने का हार, कर्णफूल व अँगूठी थी। अनिल के नक्शेकदम पर सुरेंद्र ने भी सोने का सेट दिया था। महेश और तापस दोनों ने मिलकर टेप-रिकॉर्डर दिया था, जिसका मूल्य तकरीबन सात हजार रुपए से कम नहीं होगा। भेंट देने के मामले में कोई किसी से कम नहीं था।

अनिल ने बातों ही बातों में पूछा, 'महापात्र बाबू, दावत में बावरची कहाँ से लाए थे, इतना लजीज खाना मैंने कभी नहीं खाया।'

तापस ने कहा, 'बावरची कटक का है।'

'अब भी कटक के बावरची कमाल दिखाते हैं। भुवनेश्वर सिर्फ नाम की राजधानी है। वैसे तो मैंने सट्टे भी डाला है कि भुवनेश्वर के पंचतारा होटल से भी यहाँ बेहतरीन खाना है। कटक के हजार सालों के पुराने रिवाज को कोई तोड़ नहीं सकता। 'सुरेंद्र ने कहा, 'इसीलिए मैं अकसर कटक शहर को पसंद करता हूँ।'

महेश—'अच्छा सुरेंद्र, अपने लड़के की शादी में तू कटक के बावरची को ही बुलाएगा!'

'हाँ, यकीन से! इसलिए तुम सब दुआ करो कि वह सबसे पहले अच्छी तरह पढ़ाई करे। इसके बाद वह अच्छा लड़का बनकर, अच्छी लड़की को पसंद कर ले।'

'कहीं! तुम पसंद नहीं करेंगे, क्या?'

'आजकल के छोकरे। सबसे पहले उनकी पसंद को तस्सबुर देना पड़ेगा।'

'फिलहाल तेरे लड़के की उम्र कितनी है?'

'दस साल। अभी पाँचवीं में पढ़ रहा है।'

'तब तो और पंद्रह साल के बाद सोचेंगे।' तापस ने फिर एक बार महसूस किया कि उसका गला सूख रहा है। 'बस, और नहीं रह सकता।' महेश ने कहा, 'तुझे चाहिए कि नहीं, हमें चाहिए। तू गाड़ी कहाँ ठहराएगा!'

'ढाबा आने दो। इतनी जल्दबाजी क्यों?'

अनिल—'तू क्यों चुप होकर बैठा है?' तापस ने साथ देते हुए कहा, 'तुझे माल (शराब) नहीं चाहिए?'

महेश—'अरे, वह तो असली माल (चीज) कैसे कमाएगा, वही सोच रहा है। अरे भाई यह बात तुम्हें पता है कि नहीं, उसका एक स्वतंत्र क्रसर यूनिट है!' अनिल ने हँसकर कहा, 'दो नंबर के पैसे कमाने का नशा बड़ा ही विचित्र है। आजकल के लोग को पहचानना बहुत ही मुश्किल है!'

सुरेंद्र—अच्छा, तू दूसरों का घर उजाड़ रहा है!

अनिल—तू बेटा सिर्फ शराफत दिखा रहा है। मैं ईंट-सीमेंट का घर तोड़ रहा हूँ। तू साला, इनसानों के दिलों को तोड़ता है। उस छोकरी के साथ तेरा चक्कर क्या है? बरगडु में तेरे जो नई दुकान खुली है। वहीं जो है।

तू इज्जत देकर बात करने कर सलीका नहीं सीखा है क्या? कह दे तिथि। उसका नाम तो तुझे अच्छी तरह पता है! यानी कि तेरी नजर वहीं पर लगी है, वरना उसे लेकर तू क्यों ऐसे उछल रहा है।

तेरी तरह तो मैं कभी उसे गाड़ी में बैठाकर हीराकुड डैम की ओर नहीं चला। मैं तेरी दुकान की ओर गया था। वह बदन झुकाकर कंप्यूटर ठक-ठक कर रही थी। मुझे थोड़ा सा बदन उठाकर भी वह नहीं ताक रही है रे! पुकारने पर ताक रही थी। वह बड़ी सयानी है!

महेश—सिर्फ इतना नहीं, मैं एक बार अपने गाँव से आए हुए रिश्तेदार के साथ घंटेश्वरी देवी मैया के पास गया था। उस वक्त सुरेंद्र को देखा, वह उस लड़की का हाथ पकड़कर बहुत दूर खड़ा था। आहिस्ता-आहिस्ता उसे बाँहों में जकड़ रहा था।

तापस—और क्या देखा है, बताना? उसके बाद वह चुप, शैतानी लड़की ने पलटते हुए उसके सीने पर सिर रखा था। यह तो सिर्फ एक पलकों का मंजर था। मैं सिर्फ दूर से देख रहा था तो जान सका। हम दुकान पर जाएँ तो न पहचानी-सी ताकती है। इसके अलावा वह अंदर में पूरी तरह राधा बन रही है।

अनिल—क्या यह बात भाभी जानती है?

महेश—चालीस साल के बाद भाभी से बेटे का मन नहीं रमता होगा। इसीलिए नया-नया शिकार पकड़ रहा है।

अनिल—तू ये सब किसी के सामने जिक्र मत करना। नहीं तो वह देवदास बन जाएगा और अपने काम से जी चुराएगा।

महेश—इसलिए बेटे की दुकान पीछे पड़ी है। मैंने सोचा, क्या राज है? अब जो नशा जकड़ा हुआ है। उसे और कौन सा नशा पकड़ेगा।

अनिल—वही तो मैं कह रहा हूँ। उसने मुझे कहा कि लड़की कंप्यूटर चलाएगी। हिसाब-किताब रखेगी, इसलिए मुझे उसकी जरूरत होगी।

महेश—अगर इतने दिनों तक तुम सब किसी को नहीं पकड़ पाए, तो इसके लिए क्या सुरेंद्र को अपराधी मान लिया जाएगा!

इतने समय तक सुरेंद्र चुप्पी बरत रहा था। जुबान पर ताला मारने के बाद बोला कि मैं उसे जबरदस्ती लाया था क्या? मेरा उद्देश्य समझने के बाद ही वह मेरे साथ गई थी।

तापस—देख महेश! तुझे कोई रोक नहीं रहा है, इसका यह मतलब नहीं है कि तू सहन नहीं कर पाएगा। तू कलकत्ते में रंगमहल की ओर क्यों गया था? तू कौन सा शरीफ है?

महेश—तू बात का बतंगड़ बना रहा है। बता कि तू कौन सा भलामानुस है? अपने माँ-बाप की तू कभी पूछताछ करता है, क्या? आज तक तू अपनी माँ को इज्जत देना नहीं सीखा।

माँ की बात आते ही वह चुभ गई। वह मन-ही-मन सोचने लगा कि छोड़ो इन आवारा, शराबी सौदागरों को। यदि उसकी माँ के प्रति कुछ कहा जाए, वह बरदाश्त नहीं कर सकता।

अब उसकी माँ घर में नहीं है? अनुज के घर गई है। वह क्या कर सकता है? उसकी पत्नी ने पूरी जिद पकड़ी हुई है कि तुम दो भाई हो सिर्फ तुम अकेले क्यों माँ की देखभाल करोगे! आखिर उसकी भी कुछ जिम्मेदारी है। अनुज को भी माँ की खातिर कुछ करना चाहिए। हर महीने के पंद्रह दिन वह रखे और बाकी पंद्रह दिन हम रखेंगे। इस उम्र में माँ कुछ भी बता नहीं सकती, बड़ी अधीर हो पड़ती है। फिर भी ओठ मौन रह जाते हैं। उसकी पत्नी बड़ी कड़वी बोलनेवाली है। इसीलिए माँ को इस उम्र में जुबान खुलकर उसे कहने में बड़ी मुश्किल होती है। माँ को उच्च रक्तचाप है। वह डर जाती है। देवी प्रतिमा सी माँ उसकी बेबस जिंदगी से बचने की याचना करती है। वह दुरुस्त रहने पर कुछ कर पाएगी। सुस्त नहीं है, जो किसी के साथ झगड़ा मोल लेगी। हर पल माँ देखती है उसकी वही कड़वी बोली और तिलमिलाती हुई सिकुड़ता बदन, पर जुबान नहीं खोल पाती। माँ को रखने पर उसकी पत्नी न जाने कितना झगड़ा मोल लेगी? वह क्या कर सकता था और वह अपनी पत्नी के पास बेबस, बेजुबान और बेजान लकड़ी बनते हुए सबकुछ बरदाश्त कर जाता था। इस वक्त उसकी मर्दानगी की ताकत न जाने कहीं दूर की बात बनकर रह जाती है। उसका अपना थोड़ा-सा वजूद जो माँ के लिए रहना चाहिए, उसे भी पत्नी दबोच लेती है। जुबान खोलने पर वह बहुत कुछ हार सकता है। माँ ने क्या सोचा होगा कि किसी दिन उसका यह बुरा हाल हो जाएगा? उसके अपनी पत्नी से कुछ कहने की कोशिश करने पर माँ उसे कुछ न कहने की हिदायत देती है! रहने दे बेटा! तू क्यों परेशान होगा, मैं रमेश के घर चली जाऊँगी। किसी भी दिन उसे रोष में नहीं देखा। शोरगुल करते नहीं देखा। जवाबतलब करते भी कभी नहीं देखा। हालात के साथ माँ अपने आपको मना रही थी। इतना कुछ होने के बावजूद वह कैसे एक नामर्द की तरह उसे कुछ न कहकर देखता रहता है।

सुरेंद्र ने इसी पल मुसकराकर कहा, देख भाई! फिलहाल हम सब कैसे लजीज दावत उड़ाकर आए हैं। कैसी हसीन रात। आकाश में कितने सितारे हैं। कैसी बेहतरीन हवा बह रही है!

कितनी हर्षित लग रही है न! तुम ऐसी बातों से गप्पें मार रहे हो या झगड़ा मोल रहे हो, मैं समझ नहीं सकता। देखो, आगे ढाबा आ रहा है। वहीं से कुछ लोगे क्या?

वाह! देवदास वाह! महेश हो-हो कर हँस पड़ा। अब भी तापस गुमशुम बैठा है। माँ का जिक्र आने पर तापस कुछ कहना पसंद नहीं करता। इसलिए तापस ने अब भी कुछ नहीं बताया।

ढाबा आने पर चारों कुछ घूँट पीने के लिए पहुँच गए। वे सब राजकीय अंदाज में चल रहे थे।

सबको ढाबे में कुछ मन मुताबिक पीना मिल गया था। सुरेंद्र ज्यादा नहीं पी सकता था। उसने सिर्फ लवों पर छूकर गले को तर कर लिया। वे सब पीने में दिलचस्पी ले रहे थे। अब तक अनुगुल नहीं आया था। और चार घंटे के बाद वे संबलपुर में पहुँचेंगे। आखिर पीने के बाद आधे घंटे में गाड़ी पर वापस लौट रहे थे। शायद रात की गहराई बढ़ रही थी। इसलिए कोई कुछ बात नहीं कर रहा था और सबका नशा थम सा गया था। शायद इसी वजह से सबको झपकियाँ भी आने लगी थीं।

सुरेंद्र का एस.एम.एस. साइलेंट में था, सहसा मोबाइल में रोशनी आने पर देखा कि तिथि का एस.एम.एस. आया था?

'तुम अब कहाँ हो? मुझे बेचैनी हो रही है।'

'तुम्हें नींद आ रही है क्या?'

'कैसे आएगी। अकसर तुम्हारा चुलबुला मन किसी के पास उड़ रहा है। तुम निश्चल रहोगे तो मुझे नींद आएगी।'

'हाँ! तुम्हारा मन किसी के पास है या और कुछ। मेरा मन सिर्फ तुम्हारे पास।'

सुरेंद्र के सीने में इस वसंत रात की मलय बयार लग रही थी। शबनम टपक रही थी। फरवरी महीने में वन से शाल फूलों की खुशबू फैल रही थी।

ओह! तिथि। मेरी शुरुआती जिंदगी में तुम क्यों नहीं आईं। काश! मैं तुम्हें अपनी पत्नी बनाकर ला सकता तो कितनी हसीन होती।

मेरे पत्नी होने से आज तुम ऐसा प्यार-भरा एस.एम.एस. नहीं लिख रहे होते। अगर तुम लिखे भी होते तो तब तुम्हारा अल्फाज ही बदल जाता कि फिलहाल बेटा नटखट हुआ है क्या? वह सोया है या नहीं? आज ट्यूशन गया था क्या, वगैरह-वगैरह?

एस.एम.एस. देखकर सुरेंद्र मन-ही-मन स्मित हास्य ले रहा था।

तुम पक्का गृहिणी की तरह लिख रही हो? रहने दो ये सब दुनियादारी की बातें, प्यार भरी बातें करो, कुछ पल मन को बदलने दो। ओह तिथि! आई लव यू। मैं सिर्फ वही सोच रहा हूँ कि कैसे रात बीतने पर तुम्हारे पास पहुँच जाऊँगा।

अचानक इसी वक्त गाड़ी डगमगाने लगी। वह तापस के ऊपर गिर पड़ा। तापस को बगल में धक्का लगते ही वह महेश पर चिढऩे लगा।

'अरे भाई! ठीक से गाड़ी चलाओ! हमें मारना है क्या?'

अनिल टहलने पर भी गहरी नींद में डूबा हुआ था। इस बात को लेकर सुरेंद्र डर गया था कि शराबी क्या कुछ कर जाएगा तो आखिर क्या होगा? उसने सोचा कि पहले किसी शहर में गाड़ी रोकने के लिए कहूँगा और होटल बुक करके एक रात सोने पर कल सवेरे हम सब जल्द रवाना हो जाएँगे।

यही सोचकर उसने महेश को पीछे से अनुगुल में गाड़ी रोकने के लिए कहा। 'तू और गाड़ी चला नहीं पाएगा। हमें कल सुबह जाना है। तू जैसा चला रहा है, मुझे डर लग रहा है।'

'तू रुक! मैं ड्राइविंग में माहिर हूँ। मैं पक्का तुझे तेरे मुकाम तक पहुँचा सकता हूँ। सुबह जाकर माशूक के पास सोते रहना।'

'महेश, तुझे बात करने की तमीज नहीं है।'

'अभी तू मुझे तमीज मत सिखा।'

इसी पल पहले से ही ट्रक उनके गाड़ी पर धक्का लगाया। महेश जल्द ही स्टेयरिंग घुमाने लगा। आखिर, पलक झपकते ही गाड़ी घूमती हुई अँधेरे में किसी खेत में गिर पड़ी। पलकों का वही मंजर। उसका सीना धक-धक करने से पहले गाड़ी उलट गई थी। सुरेंद्र अँधेरे में जमीन पर गिर पड़ा था। उसके पैर में जोर से चोट लगी थी। वे तीनों और गाड़ी कहाँ थी, उसे यह भी घने अँधेरे में नहीं दिखाई दे रहा था।

वहीं से ओह! सूक्ष्म क्षयशील आर्तनाद आ रहा था। उसे यकीन हो रहा था कि वे सब जिंदा हैं। उसकी कमर में मोबाइल बँधा हुआ था। देखा कि सही-सलामत है। सबसे पहले उसने समीर बाबू को फोन किया।

सर! हमारा एक्सिडेंट हो गया है। हमारी गाड़ी खाई में गिर गई है। मैं जमीन पर छिटककर गिर पड़ा हूँ। वे सब गाड़ी के अंदर ही हैं। पर मुझे यह कौन सी जगह है, पता नहीं चल रहा है। मैं किसी भी तरह घसीटते हुए रास्ते के बगल में आ गया हूँ और हाथ दिखाने पर कोई गाड़ी नहीं रोकता है। क्या करूँ सर! कुछ नहीं सोच पा रहा हूँ।

वे सब समीर बाबू की शादी की दावत खाकर वापस लौट रहे थे और यह हादसा हो गया था। समीर यह खबर सुनते ही घबराने लगा। उसकी बाँहों में नई दुलहन थी। उसे बाँहों से धकेलकर दरवाजा खोला और नीचे की ओर दौड़ आया। शादी के माहौल में घर में कोई सोया नहीं था। वह यकायक काँपने लगा और माँ को आवाज लगाई—

'माँ! माँ! अनिल बाबू!'

'क्या हुआ?'

'उनका एक्सिडेंट हो गया है।'

'मैंने उन्हें कहा था कि यहीं आज रात रुक जाओ, फिर भी बात नहीं माने।'

'अब क्या हो सकता है? अनुगुल से पहले यह कौन सी जगह घने अँधेरे में पता नहीं चलता। सुरेंद्र रास्ते में खड़ा है। किसी से कुछ मदद मिलने की उम्मीद में है। रात के सन्नाटे में गाड़ी कोई भी नहीं रोकता है। ऐसी मुसीबत में इनसान ही इनसान के मददगार नहीं बनते।'

'तुम घबराओ मत, सबकुछ भगवान के भरोसे छोड़ दो। देखो, कुछ नहीं होगा।'

उनको तुरंत सहायता करने के लिए समीर ने अनुगुल के डीलर राय बाबू के साथ बात की। उन्हें जितना जल्द हो सके अनुगुल के हस्पताल में भरती करने के लिए हिदायत भी दी।

समीर की ऐसी हालत को उसकी नई दुलहन देख रही थी। वह रात के बाद सुबह होते ही अनुगुल जाकर उनसे मुलाकात करेंगे। जो बंदोबस्त होना चाहिए, वही करने के लिए वह समझा रहा था। वैसे तो अनिल बाबू के पास पैसों की कमी नहीं थी। एक अच्छे दोस्त होने के नाते सुरेंद्र को समझाने की पूरी कोशिश की थी।

अनुगुल के सीमेंट एजेंट से पूछते हुए इसी रात में ही पहुँच चुका था। किसी को रुकने की उम्मीद में सुरेंद्र वैसे ही हाथ हिलाता रहा था। अनुगुल के सीमेंट एजेंट बचाओ कार्य करने के बाद उनको अनुगुल अस्पताल में भरती कराया। रात के बाद सुबह होते ही उन्हें बुर्ला मेडिकल कॉलेज ले जाएँगे। सभी बुरी तरह जख्मी हुए थे। सिर्फ सुरेंद्र ही जीते जी सही सलामत है। सुरेंद्र को पैरों में चोट आई थी। ताज्जुब की बात है कि सुरेंद्र का दिल इसी वक्त वहीं देवी रूपेण माँ के पैरों में झुक गया। आँखें मूँदते ही उसे समीर बाबू की माँ की चितवन सामने आ जाती है, जो वापस लौटते वक्त रिसेपशन हॉल में बैठी हुई थीं। वह व्यक्तित्व भरा, स्नेहमयी माँ का रूप देखने पर उसका अंतर्मन श्रद्धा-भक्ति से स्वत: प्रवृत्त उमड़ पड़ा था। उसे वैसा कुछ महसूस हुआ था। पैर छूकर अशेषभक्ति से उसने प्रणाम किया था। बेखौफ दोनों हथेली सुरेंद्र के सिर को थमाई थीं और सहलाती हुई उसी पल उन्होंने कहा था कि 'बेटा! हमारे घर फिर आते रहोगे। अभी तुम न जाने से हो नहीं सकता है क्या? आज रात के लिए यहाँ रुक जाओ न।'

शायद उसके सिर पर उसी हाथ का आशीर्वाद था। इसलिए उन्हीं हाथों ने धर्म के मूर्तिमान् बनकर उसे सुरक्षा दी। इसी भावावेश में सुरेंद्र की आँखें सजल हो उठी थीं।

समीर विचलित होकर सुबह हस्पताल पहुँच गए थे। सुरेंद्र समीर को आलिंगन करते हुए जोर से रो पड़ा। सर...सर...कहते हुए उसका गला रुँध गया था। उसने जीवन बचने के आनंद से और जीवन के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन करते हुए समीर के पैर छूकर माथे से लगाया था। उसका प्राण नव उन्मेष के साथ लौटते हुए भरसक प्रफुल्लित हो रहा था।

यह क्या सुरेंद्र बाबू! मेरे पैर मत पकड़ो। मैं आपसे उम्र में छोटा हूँ।

ऐसी बात मत कीजिए। आप ही सर्वश्रेष्ठ हैं। आने से पहले मैंने आपकी माताजी के पैर छूकर प्रणाम किया था। समीर बाबू, आपकी माँ सिर्फ हाड़-मांस का पुतला नहीं हैं। एक वृद्धा, सिकुड़ी चमड़ीवाली, पके केश धारिणी, सदा जराग्रस्त होकर भी बेकार नहीं हैं। हमारे जीवन के हर मोड़ पर माँ सिर्फ माँ ही है, जननी है। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादप गरीयसी। उसकी बेखौफ पनाह, दुआ, आँचल और वजूद बहुत विशाल है। चाहे जो भी वक्त हो, जो भी जगह हो, वह तुम्हें सुरक्षा देकर रख सकती हैं। इसलिए माँ सिर्फ जिंदा रहने के लिए दो भाइयों का हिसाब-किताब नहीं है। माँ कितने दिन किसके साथ रहेगी, किसने कितना खर्च किया! आज मुझे अहसास हो गया है कि माँ का प्यार क्या है? कल उन सबको संबलपुर या बुर्ला शिफ्ट करते हुए मैं निश्चित ही आपके घर माँ के पद धूल लेने के लिए जरूर जाऊँगा, जिनके आशीर्वाद ने आज मुझे इतने बड़े हादसे से उबारा और बचाया है।'

समीर की आखों में भी आँसू भर आए। तापस बड़ी-बड़ी आँखों से देखता दुनिया की बातों को सुन रहा था। सुरेंद्र को उसकी ओर देखते ही उसने अपनी आँखें नीचे कर लीं और उसने स्पष्ट देखा कि किसी एक दिल की तड़पन में उसके बदन की मांसपेशियाँ कितनी सिकुड़ रही हैं।

सुरेंद्र ने महसूस किया कि तापस को फिलहाल उसकी माँ की बातें शायद बहुत ही याद आ रही हैं।

(अनुवाद : राजेश कुमार साहु)

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