आशीर्वाद (कहानी) : सुदर्शन

Aashirvad (Hindi Story) : Sudarshan

(1)

लाजवंती के यहाँ कई पुत्र पैदा हुए; मगर सब-के-सब बचपन ही में मर गए। आखिरी पुत्र हेमराज उसके जीवन का सहारा था। उसका मुंह देखकर वह पहले बच्चों की मौत का ग़म भूल जाती थी। यद्यपि हेमराज का रंग-रूप साधारण दिहाती बालकों का-सा ही था, मगर लाजवंती उसे सबसे सुंदर समझती थी। मातृ-वात्सल्य ने आँखों को धोखे में डाल दिया था। लाजवंती को उसकी इतनी चिंता थी कि दिन-रात उसे छाती से लगाए फिरती थी; मानो वह कोई दीपक हो, जिसे बुझाने के लिए हवा के तेज़ झोंके बार-बार आक्रमण कर रहे हों। वह उसे छिपा-छिपाकर रखती थी, कहीं उसे किसी की नज़र न लग जाय। गाँव के लड़के खेतों में खेलते फिरते हैं, मगर लाजवंती हेमराज को घर से बाहर न निकलने देती थी। और कभी निकल भी जाता, तो घबराकर ढूँढने लग जाती थी। गाँव की स्त्रियाँ कहतीं- “हमारे भी तो लड़के हैं, तू ज़रा सी बात में यूं पागल क्यों हो जाती है?” लाजवंती यह सुनती तो उसकी आँखों में आंसू लहराने लगते। भर्राए हुए स्वर से उत्तर देती- “क्या कहूँ? मेरा जी डर जाता है!”

इस समय उसे अपने मरे हुए पुत्र याद आ जाते थे।

मगर इतना सावधान रहने पर भी हेमराज बुरी नज़र से न बच सका। प्रातःकाल था; लाजवंती दूध दुह रही थी। इतने में हेमराज जागा और मुँह फुलाकर बोला –“माँ !”

आवाज़ में उदासी थी, लाजवंती के हाथ से बर्तन गिर गया। दौड़ती हुई हेमराज के पास पहुँची और प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरकर बोली- “क्यों हेम ! क्या है बेटा? घबराया हुआ क्यों है तू?” इस तरह क्यों बोलता है तू ? हेमराज रूक-रूककर बोला-“ सिर में दर्द होता है।बहुत दर्द होता है।” बात साधारण थी,लेकिन लाजवंती का नारी ह्रदय कांप गया। यही ऋतू थी,जब उसका पहला पुत्र मदन मरा था। वह भी इसी तरह बीमार हुआ था। लाजवंती को अपने पैरों के नीचे से धरती खिसकती-सी मालूम होने लगी। जिस तरह विद्यार्थी एक बार फेल होकर दूसरी बार परीक्षा में बैठने से घबराता है, उसी प्रकार हेमराज के सिर दर्द से लाजवंती व्याकुल हो गई। गाँव में दुर्गादास वैद्य अच्छे अनुभवी वैद्य थे। लोग उन्हें लुकमान समझते थे। सैकड़ों रोगी उनके हाथों से स्वस्थ होते थे। आसपास के गांवों में भी उनका बड़ा नाम था। लाजवंती उड़ती हुई उनके पास पहुँची। वैद्यजी बैठे हुए एक पुराना साप्ताहिक समाचारपत्र पढ़ रहे थे। लाजवंती को देखते ही उन्होंने पत्र हाथ से रख दिया और आँखों से ऐनक उतारकर बोले- “क्यों बेटी ? क्या बात है?”

लाजवंती ने चिंतित-सी होकर उत्तर दिया-“हेम बीमार है।”

वैद्यजी ने सहानुभूति के साथ पूछा –“कबसे ?”

“आज ही से। कहता है, सिर में दर्द है”

“बुखार तो नहीं है?”

“मालूम तो नहीं होता। आप चलकर देख लेते तो अच्छा होता।”

वैद्यजी का मनोरथ सिद्ध हो गया। उन्होंने जल्दी से कपड़े बदले और लाजवंती के साथ हो लिए। जाकर देखा तो हेमराज बुखार से बेसुध पड़ा था। वैद्यजी ने नाड़ी देखी, माथे पर हाथ रखा और फिर कहा- “चिंता की कोई बात नहीं।दवा देता हूँ, बुखार उतर जाएगा।”

लाजवंती के डूबे हुए ह्रदय को सहारा मिल गया। उसने दुपट्टे के आँचल से अठन्नी निकाली और वैद्यजी को भेंट कर दी। वैद्यजी ने मुँह से नहीं-नहीं कहा, लेकिन हाथों ने मुंह का साथ न दिया। उन्होंने पैसे ले लिए।

(2)

कई दिन बीत गए। हेमराज का बुखार नहीं उतरा। वैद्यजी ने कई दवाइयाँ बदलीं ,परन्तु किसी ने अपना असर नहीं दिखाया। लाजवंती की चिंता बढ़ने लगी। वह रात-रात भर उसके सिरहाने बैठी रहती थी। लोग आते और धीरज दे-देकर चले जाते थे किन्तु लाजवंती का मन उनकी बातों की ओर न दौड़ता था। वह डरी-डरी रहती और अपने मन की पूरी शक्ति से हेम की सेवा में लगी रहती थी। एक दिन उसने वैद्य से पूछा- “हकीमजी , आखिर क्या बात है, जो ये बुखार उतरने का नाम नहीं लेता?” वैद्यजी ने उत्तर दिया- “मियादी बुखार है।”

लाजवंती चौंक पड़ी। उसने तड़पकर पूछा – “मियादी बुखार! क्या?”

“अपनी मियाद पूरी कर के उतरेगा।”

“पर, कब तक उतरेगा?”

“21वें दिन उतरेगा।इससे पहले नहीं उतर सकता”

“आज 11 दिन तो हो गए हैं।”

“बस 10 दिन और रह गए हैं। किसी तरह ये दिन निकाल लो। भगवान भला करेगा।”

लाजवंती का माथा ठनका ।हिचकिचाते हुए पूछा- “कोई अंदेशा तो नहीं? सच-सच बता दीजिये।”

वैद्यजी थोड़ी देर चुप रहे। इस समय वे सोच रहे थे कि उसे सच-सच बताएँ या न बताएँ । फिर बोले, “देखो, बुखार सख्त है। हानिकारक भी हो सकता है। मेरी सम्मति में हेम के पिता को बुलवा लो।”

लाजवंती सहम गई। रेत के स्थलों को मीठे जल की नदी समझकर जब हरिण पास पहुँचकर देखता है कि नदी अभी तक उतनी ही दूर है, तो जो दशा उसके मन की होती है, वही दशा इस समय लाजवंती की हुई। उसे आशा नहीं निश्चय हो गया था कि हेम एक-आध दिन में ठीक हो जाएगा। उसी तरह खेलता फिरेगा, उसी तरह नाचता फिरेगा। माँ देखेगी खुश होगी। लोग बधाइयाँ देंगे। मगर वैद्य की बात सुनकर उसका दिल बैठ गया। उसका पति रामलाल सचदेव मुलतान में नौकर था। उसने उसे पत्र लिखा, वह तीसरे दिन पहुँच गया। इलाज दुगनी सावधानी से होने लगा। यहाँ तक कि दस दिन और बीत गए। अब इक्कीसवां दिन सिर पर था। लाजवंती और रामलाल दोनों घबरा गए। हेम की देह अभी तक आग की तरह तप रही थी। सोचने लगे, क्या बुखार एकाएक उतरेगा?

वैद्य ने आकर नाड़ी देखी, तो घबराकर बोले-“आज की रात बड़ी भयानक है। सावधान रहना, बुखार एकाएक उतरेगा।”

(3)

लाजवंती और रामलाल, दोनों के प्राण सूख गए। वैद्य के शब्द किसी आने वाले भय की पूर्व-सूचना थे। रामलाल दवाएँ संभालकर बेटे के सिरहाने बैठ गए। परन्तु लाजवंती के ह्रदय को कल न थी। उसने संध्या समय थाल में घी के दीपक जलाए और मंदिर की ओर चली। इस समय उसे आशा अपनी पूरी जीवन सामग्री के साथ सामने नाच करती हुई दिखाई दी। लाजवंती अनन्य भाव से मंदिर में पहुँची, और देवी के सामने गिरकर देर तक रोती रही। जब थककर उसने सिर उठाया, तो उसका मुखमंडल शांत था, जैसे तूफ़ान के बाद समुद्र शांत हो जाता है। उसको ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई दिव्यशक्ति उसके कान में कह रही है कि तूने आँसू बहाकर देवी के पाषाण-ह्रदय को पिघला दिया है। परन्तु उसने इतने ही पर संतोष न किया; मातृ-स्नेह ने भय को चरम-सीमा पर पहुंचा दिया था। लाजवंती ने देवी की आरती उतारी, फूल चढ़ाए, मंदिर की परिक्रमा की और प्रेम के बोझ से कांपते हुए स्वर से मानता मानी कि , “देवी माता! मेरा हेम बच जाय, तो मैं तीर्थ-यात्रा करूँगी।”

यह मानता मानने के बाद लाजवंती को ऐसा जान पड़ा, जैसे उसके दिल पर से किसी ने कोई बोझ हटा लिया है, जैसे उसका संकट टल गया है, जैसे उसने देवताओं को खुश कर लिया है। उसे निश्चय हो गया कि अब हेम को कोई भय नहीं है। लौटी, तो उसके पाँव भूमि पर न पड़ते थे। उसके ह्रदय-समुद्र में आनंद की तरंगे उठ रही थीं। उड़ती हुई घर पहुंची, तो उसके पति ने कहा-“लो बधाई हो, तुम्हारा परिश्रम सफल होने को है;बुखार धीरे-धीरे उतर रहा है।”

लाजवंती के मुख पर प्रसन्नता थी और नेत्रों में आशा की झलक। झूमती हुई बोली-“ अब हेम को कोई डर नहीं है। मैं तीर्थ-यात्रा की मानता मान आई हूँ।”

रामलाल ने तीर्थ-यात्रा के ख़र्च का अनुमान किया, तो ह्रदय बैठ गया; परंतु पुत्र-स्नेह ने इस चिंता को देर तक न ठहरने दिया। उसने बादलों से निकलते हुए चन्द्रमा के समान मुस्कराकर उत्तर दिया-“अच्छा किया, रूपये का क्या है, हाथ की मैल है, आता है, चला जाता है। परमेश्वर ने एक लाल दिया है, वह जीता रहे। यही हमारी दौलत है।

लाजवंती ने स्वामी को सुला दिया और आप रात-भर जागती रही। उसके ह्रदय पर ब्रह्मानंद की मस्ती छा रही थी। प्रभात हुआ , तो हेम का बुखार उतर गया था। लाजवंती के मुख-मंडल से प्रसन्नता टपक रही थी, जैसे संध्या के समय गौओं के स्तनों से दूध की बूँदें टपकने लगती हैं।

वैद्यजी ने आकर देखा, तो उनका मुख-मंडल भी चमक उठा। अभिमान से सिर उठा कर बोले-“अब कोई चिंता नहीं। तुम्हारा बच्चा बच गया है।”

लाजवंती ने हेम की देह पर हाथ फेरते हुए कहा-“क्या से क्या हो गया है।”

वैद्य ने लाजवंती की ओर देखा और रामलाल से बोले-“यह सब इसी के परिश्रम का फल है।”

लाजवंती ने उत्तर दिया,- “देवी माता की कृपा है, अथवा आपकी दवा के प्रभाव का फल है। मैंने क्या किया है, जो मेरे परिश्रम का फल है?”

“मैं तुम्हे दूसरी सावित्री समझता हूँ। उसने मरे हुए पति को जिलाया था, तुमने पुत्र को मृत्यु के मुंह से निकाला है। तुम यदि दिन-रात एक न कर देती, तो हेम का बचना सर्वथा असंभव था। यह सब तुम्हारी मेहनतों का फल है। भगवान प्रसन्न हो गया। बच्चा बचा नहीं, दूसरी बार पैदा हुआ है।”

रामलाल के होंठों पर मुस्कराहट थी, आँखों में चमक। इसके सातवें दिन वह अपनी नौकरी पर चले गए और कहते गए कि तीर्थ-यात्रा की तैयारी करो।

(4)

तीन महीने बीत गये; लाजवंती तीर्थ-यात्रा के लिए तैयार हुई। अब उसके मुख पर फिर वही आभा थी; आँखों में फिर वही चमक, दिल में फिर वही ख़ुशी। हेम आँगन में इस प्रकार चहकता फिरता था, जैसे फूलों पर बुलबुल चहकता है। लाजवंती उसे देखती, तो फूली न समाती थी। तीर्थ-यात्रा से पहले की रात को उसके आँगन में सारा गाँव इकठ्ठा हो रहा था। झांझे और करताले बज रही थीं। ढोलक की थाप गूँज रही थी। स्त्रियाँ गाती थीं, बजाती थीं, शोर मचाती थीं। दूसरी तरफ़ कहीं पूडियां बन रही थीं, कहीं हलवा। उनकी सुगंध से दिमाग तर हुए जाते थे। लाजवंती इधर से उधर और उधर से इधर आ-जा रही थी, मानो उसके यहाँ ब्याह हो। एक ओर निचिंते साधु सुलफे के दम लगाकर गाँव की हवा को शुद्ध कर रहे थे। उनकी ओर गाँव के लोग इस तरह देखते थे, जैसे किसान तहसीलदार की ओर देखते हैं। आंखों में श्रद्धा भाव के स्थान पर भय और आतंक की मात्रा कहीं अधिक थी। लाजवंती से कोई मैदा मांगता था, कोई घी। कोई कहता था, हलवाई खांड के लिए चिल्ला रहा है। कोई पूछता था, अमचूर का बरतन कहाँ है। कोई और समय होता, तो लाजवंती घबरा जाती। पर इस समय उसके मुख पर जरा घबराहट न थी। सोचती थी, कैसा सौभाग्य है, जो यह दिन मिला। आज घबराहट कैसी?

परंतु सारा गाँव प्रसन्न हो, यह बात न थी। वहीँ स्त्रियों में बैठी हुई एक बूढ़ी स्त्री असीम दुःख में डूबी हुई थी। वह लाजवंती की पड़ोसिन हरो थी। अत्यंत दुःख के कारण उसके कंठ से आवाज न निकलती थी। नगर होता, तो वह इस उत्सव में कभी सम्मिलित न होती। मगर गाँव की बात थी; न आती, तो उँगलियाँ उठने लगतीं। आनंदमय हास-परिहास के बीच में उसका मस्तिष्क दुःख और शोक के कारण ऐसे खौल रहा था, जैसे ठंडे समुद्र में गरम जल का स्त्रोत उबल रहा हो। वह स्त्रोत बाकी समुद्र से कितना परे, कितना अलग होता है?

इसी तरह रात के चार बज गये; लोग खा-पीकर आराम करने लगे। जो बच रहा, वह ग़रीबों को बांट दिया गया। लाजवंती ने लोगों को विदा किया और चलने की तैयारी में लगी। उसने एक टीन के बक्स में ज़रूरी कपड़े रखे, एक बिस्तर तैयार किया, कंठ में लाल रंग की सूती माला पहनी, माथे पर चंदन का लेप किया। गऊ पड़ोसिन को सौंपी और उससे बार-बार कहा-“ इसका पूरा-पूरा ध्यान रखना। जा रही हूँ , मगर मेरा मन अपनी गऊ में रहेगा।” सहसा किसी के सिसकी भरने की आवाज़ सुनाई दी। लाजवंती के कान खड़े हो गये। उसने चारों तरफ़ देखा, मगर कोई दिखाई न दिया।

इस समय सारा गाँव सुख-स्वप्न में अचेत पड़ा था। यह सिसकी भरने वाला कौन है? यह सोचकर लाजवंती हैरान रह गई। वह आँगन में निकल आई और ध्यान से सुनने लगी। सिसकी की आवाज़ फिर सुनाई दी।

लाजवंती छत पर चढ़ गई, और पड़ोसिन के आँगन में झुक कर जोर से बोली-“माँ हरो!”

कुछ देर तक सन्नाटा रहा। फिर एक चारपाई पर से उत्तर मिला- “कौन है?लाजवंती?”

आवाज़ में आँसू मिले हुए थे।

लाजवंती जल्दी से नीचे उतर गई और हरो के पास पहुंचकर बोली-“ माँ, क्या बात है? तू रो क्यों रही है?”

हरो सचमुच रो रही थी। परन्तु अपना दुःख लाजवंती के सामने कहते हुए उसके नारी-दर्प को बट्टा लगता था, इसलिए अपनी वास्तविक अवस्था को छिपाती हुई बोली-“कुछ बात नहीं।”

“तो रो क्यों रही हो?”

हरो के रुके हुए आंसुओं का बांध टूट गया; उसका दुखी ह्रदय सहानुभूति की एक चोट को भी सहन नहीं कर सका। वह सिसकियाँ भर-भरकर रोने लगी।

लाजवंती ने फिर पूछा –“माँ! बात क्या है, जो तू इस समय रो रही है? मैं तेरी पड़ोसिन हूँ, मुझसे न छुपा।”

हरो ने कुछ उत्तर न दिया। वह सोच रही थी कि इसे बताऊँ या न बताऊँ। प्रभात हो चला था; कुछ-कुछ प्रकाश निकल आया था। लाजवंती चलने के लिए आतुर हो रही थी। मगर हरो को क्या दुःख है, यह जाने बिना चले जाना उसके लिए कठिन था। उसने तीसरी बार फिर पूछा-“ माँ, बता दो ना, तुम्हें क्या दुःख है?”

हरो ने दुखी होकर कहा-“क्या तुम उसे दूर कर दोगी?”

“हो सका, तो दूर कर दूँगी।”

“यह असम्भव है।”

“संसार में असंभव कोई बात नहीं, भगवान सब कुछ कर सकता है।”

हरो थोड़ी देर तक चुप रही; फिर धीरे से बोली-“बेटी का दुःख खा रहा है।रात-रात भर रोती रहती हूँ। जाने यह नाव कैसे पार लगेगी।”

“यह क्यों? उसके ब्याह का खर्च तो तुम्हारे जेठ ने देना मंजूर कर लिया है।”

“ऐसे भाग होते, तो रोना काहे का था?”

लाजवंती ने अकुलाकर पूछा-“तो क्या यह झूठ है?”

“बिलकुल झूठ भी नहीं। उसने दो सौ रूपये के गहने बनवा दिए हैं; मगर मिठाई आदि का प्रबंध नहीं किया। अब चिंता यह है कि बारात आयेगी, तो उसके सामने क्या धरूँगी? बाराती मिठाई मांगेंगे, पूरियाँ मांगेंगे, हलवा मांगेंगे। यहाँ सूखे सत्तू खिलाने की भी हिम्मत नहीं। यही सोच-सोचकर सूखती जाती हूँ।”

लाजवंती ने कुछ सोचकर उत्तर दिया-“ क्या गाँव के लोग एक निर्धन ब्राह्मणी की कन्या का ब्याह नहीं कर सकते? और यह उनकी दया न होगी, धर्म होगा।”

हरो की ऑंखें भर आईं। वह इस समय निर्धन थी, परन्तु कभी उसने अच्छे दिन भी देखे थे। लाजवंती के प्रस्ताव से उसे अत्यंत दुःख हुआ, जैसे नया-नया भिखारी गालियाँ सुनकर पृथ्वी में गड़ जाता है। उसने धीरे से कहा-“ बेटी! यह अपमान न देखा जायगा।”

“परन्तु इस तरह तो गाँव भर की नाक कट जायगी।”

हरो ने बात काटकर कहा- “मैं भी तो इसे सहन नहीं कर सकूँगी। किसी के सामने हाथ फैलाना बुरा है।”

“तो क्या करोगी? कन्या कुँवारी रक्खोगी?”

“भगवान की यही इच्छा है, तो मेरा क्या बस है? कहीं निकल जाऊँगी। न कोई देखेगा, न बात करेगा।”

लाजवंती ब्राह्मणी की करुणा-जनक अवस्था देखकर कांप गई।

उसे ऐसा मालूम हुआ, जैसे कोई कह रहा है कि अगर यह हो गया, तो ईश्वर का कोप गाँव-भर को जलाकर खाक कर देगा। लाजवंती अपने आपको भूल गई। उसका ह्रदय दुःख से पानी-पानी हो गया ! उसने जोश से कहा-“ चिंता न करो, तुम्हारा यह संकट मैं दूर कर दूँगी। तेरी बेटी का ब्याह होगा, और बारात के लोगों को मिठाई मिलेगी। तेरी बेटी तेरी ही बेटी नहीं है, मेरी भी है।”

हरो ने वह सुना, जिसकी उसे इच्छा थी, परन्तु आशा न थी। उसके नेत्रों में कृतज्ञता के आँसू छलकने लगे। लाजवंती तीर्थ-यात्रा के लिए अधीर हो रही थी। वह सोचती थी- हरद्वार, मथुरा, वृंदावन के मंदिरों को देखकर ह्रदय कली की तरह खिल जायगा। मगर जो आनंद उसे इस समय प्राप्त हुआ, वह उस कल्पित आनंद की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़-चढ़कर था। वह दौड़ती हुई अपने घर गई, और संदूक से दो सौ रूपये लाकर हरो के सामने ढेर कर दिए। यह रूपये जमा करते समय वह प्रसन्न हुई थी, पर उन्हें देते समय उससे भी अधिक प्रसन्न हुई। जो सुख त्याग में है, वह ग्रहण में कहाँ ?

(5)

लाजवंती के तीर्थ-यात्रा का विचार छोड़ देने पर सारे गाँव में आग-सी लग गई। लोग कहते थे, लाजवंती ने बहुत बुरा किया। देवी माता का क्रोध उसे नष्ट कर देगा। स्त्रियाँ कहती थीं- किस शेखी पर रात को रतजगा किया था? साठ-सत्तर रूपये खर्च हो गए, अब घर में बैठ गयी है। नहीं जाना था, तो इस दिखाव की क्या आवश्यकता थी? कोई कहती थी- देवी-देवताओं के साथ यह हंसी-मजाक अच्छी नहीं; ले-देकर एक लड़का है, उसकी खैर मनाये। जो बूढ़ी थीं, वे माला की गुरियाँ फेरते-फेरते बोलीं- कलजुग का पहरा है, जो न हो जाय, सो थोड़ा! ऐसा तो आजतक नहीं सुना था! आजतक सुनते थे, आदमी आदमी से बात करके बदल जाते हैं। अब देवताओं से बात करके भी बदलने लगे। पर असली भेद का किसी को भी पता न था। धीरे-धीरे यह बातें लाजवंती के कानों तक भी जा पहुँचीं। पहले तो उसने उनकी कुछ परवा नहीं की, एक कान से सुना, दूसरे कान से निकाल दिया। परंतु जब सब ओर यही चर्चा और यही बात सुनी, तो उसका चित्त भी डांवाडोल होने लगा। हवा ने झक्कड़ का रूप धारण कर लिया था, अब मुसाफिर घबराने लगा, अब उसका मन डोलने लगा।

लाजवंती सोचती थी- मैंने बुरा क्या किया? एक गरीब ब्राह्मणी की बेटी के विवाह में सहायता देना क्या देवी को पसंद नहीं? और मैंने तीर्थ-यात्रा का विचार छोड़ नहीं दिया, केवल कुछ काल के लिए स्थगित किया है। इस पर देवी-देवता गुस्से क्यों होने लगे? मगर दूसरा विचार उठता कि मैंने सचमुच भूल की। देवी-देवताओं की भेंट किसी आदमी को देना अपराध नहीं, तो और क्या है? यह विचार आते ही उसका कलेजा काँप जाता और हेम के विषय में भयानक संशय उत्पन्न होने लग जाते। संसार बुराइयों पर पछताता है; लाजवंती भलाई पर पछता रही थी। दिन का चैन उड़ गया, रात की नींद हराम हो गई ! उसे वहम हो गया कि अब हेम की कुशल नहीं। उसे खेलता देखती, तो उसके ह्रदय पर कटारियाँ चल जाती थीं। बुरे-बुरे विचार आते थे। जी डरता था, हिम्मत कांपती थी।

इसी तरह कई दिन बीत गए। गाँव में चहल-पहल दिखाई देने लगी। हलवाई की दूकान पर मिठाइयाँ तैयार होने लगीं। गाँव की कुँवारी कन्याओं के हाथों में मेहंदी रची हुई थी। रात के बारह-बारह बजे तक हरो की छत पर ढोलक बजती रहती और स्त्रियों के दिहाती गीतों से सारा गाँव गूंजता रहता। एक वह दिन था, जब लाजवंती प्रसन्न थी और हरो दुखी थी। आज हरो के यहाँ चहल-पहल थी, मगर लाजवंती के यहाँ उदासी बरस रही थी। समय के फेर ने कायापलट कर दी थी।

रात का समय था; मंदिर में घंटे बज रहे थे। लाजवंती ने पूजा का थाल उठाया, और पूजा के लिए चली। मगर दरवाजे पर पहुंचकर पाँव रुक गए। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानो देवी की मूर्ति उसे दंड देने के लिए नेत्र लाल किये खड़ी है। लाजवंती का कलेजा धड़कने लगा। वह डरकर दरवाजे पर बैठ गई, और रोने लगी। जिस प्रकार दुर्बल विद्यार्थी को परीक्षा के कमरे में जाने का साहस नहीं होता। पाँव आगे रखता है, दिल पीछे रह जाता है।

सहसा उसे ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे कोई प्रार्थना कर रहा है। लाजवंती का रोम-रोम कान बन गया। उसे निश्चय हो गया कि इस प्रार्थना का अवश्य ही उसके साथ संबंध है, और वह गलती पर न थी। कोई कह रहा था- “देवी माता ! उसे सदा सुहागिन बनाओ। उसके बेटे को चिरंजीव रखो ! उसने एक असहाय ब्राह्मणी का मान रखा है, तुम उसको इसका फल दो ! उसके बेटे और पति का बाल भी बांका न हो ! यह एक बूढ़ी ब्राह्मणी की प्रार्थना है, इसे सुनो और स्वीकार करो। जिस तरह उसने मेरा कलेजा ठंडा किया है, उसी तरह उसका भी कलेजा ठंडा रक्खो।”

यह ब्राह्मणी हरो थी। लाजवंती के रोम-रोम में हर्ष की लहर दौड़ गई। उसके सारे संदेह धुएँ के बादलों की तरह तितर-बितर हो गए। वह रोते हुए आगे बढ़ी, और बूढ़ी ब्राह्मणी के पैरों से लिपट गई।

रात को स्वप्न में वह फिर देवी सम्मुख थी। एकाएक देवी की मूर्ति ने अपने सिंहासन से नीचे उतर कर लाजवंती को गले से लगा लिया, और कहा- “तूने एक गरीब की सेवा की है, गोया मेरी सेवा की है। मैं तुझसे ख़ुश हूँ, तेरे काम से ख़ुश हूँ। लोग तीर्थ-यात्रा करते हैं, तूने महातीर्थ-यात्रा की है। सेवा तीर्थ-यात्रा से बढ़कर है।”

लाजवंती की आँख खुल गई। इस समय उसे ऐसी प्रसन्नता प्राप्त हुई, जैसी आज तक कभी न हुई थी। आज उसने पूजा का रहस्य पा लिया था।


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