आपकी छोटी लड़की (नाटक) : ममता कालिया
Aapki Chhoti Ladki (Hindi play) : Mamta Kalia
पात्र-परिचय
१. टुनिया (तूर्णा) : परिवार की छोटी लड़की, तेरहसाल
२. पपीहा : परिवार की बड़ी लड़की, सत्रह साल
३. ममी : टुनिया और पपीहा की माता
४. पापा : टुनिया और पपीहा के पिता
५. नौकर : रामजी
६. लड़के : पपीहा के सहपाठी
७. मुक्तिदूत : एक साहित्यकार
८. आंटी : पड़ोसिन
दृश्य एक
एक मध्यवर्गीय परिवार का मकान। कॉलोनी में आसपास अनेक एक जैसे मकान। माँ चिट्ठी मोड़कर चिपकाती है और आसपास देखती है।
ममी : टुनिया, ओ टुनिया!
टुनिया दूसरे कमरे में मेज पर बैठी होमवर्क कर रही है। माँ की आवाज सुन कर बैठक में आती है।
टुनिया : क्या ममी?
ममी : जरा भाग कर यह चिट्ठी तो डाल आ।
टुनिया : (हाथ बढ़ा कर) लाओ दो।
ममी : और आते हुए पन्द्रह नंबर वालों से अपनी कटोरी भी लेती आना। अच्छा सरसों का साग भेजा मैंने! लगता है साग के साथ कटोरी भी खा गये।
बड़ी बहन पपीहा पास ही दिवान पर पैर फैलाये कानोंपर हैडफोन लगाये वॉकमैन सुन रही है और झूम रही हैं।
पपीहा : टुन्नो पहले मुझे पानी पिला दे।
टुनिया बहन को पानी का ग्लास देती है। माँ उसकी तरफ घूर कर देखती हैं।
ममी : गई नहीं तू! आज की डाक गयी तो चिट्ठी परसों निकलेगी।
टुनिया : मैं बस यों गयी और यों आई।
जाती है। माँ दूसरे कमरे में जाकर लेट जाती हैं। उनकी आँख लग जाती है। कुछ देर बाद कॉल बैल बजती है। पपीहा झुँझलाते हुए दरवाजा खोलती है।
टुनिया : ममी?
पपीहा इशारे से बताती है कि ममी सो रही हैं। टुनिया अपने कमरे की तरफ जाने लगती है।
पपीहा : ऐ टुन्नो कहाँ चली, बैठ इधर मेरे पास। देख कल मेरा हिन्दी का टैस्ट है और मुझे कुछ याद नहीं। तू ये दो चैप्टर सुना दे मुझे।
टुनिया : लाओ दीदी। कौन सा सुनाऊँ, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र?
पपीहा : नहीं वह तो मुझे याद है। मैथिलीशरण गुप्त सुना दे।
टुनिया पुस्तक से पढ़ती है।
टुनिया : ‘आपका जन्म सन् १८८६ में चिरगाँव जिला झाँसी के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ। कविता की प्रेरणा उन्हें अपने पिता से मिली।’
पपीहा : तू तो फ्रंटियर मेल की तरह चली जा रही है। धीरे-धीरे पढ़।
टुनिया : ‘गुप्तजी ने साकेत में कैकेयी की कल्मष-कालिमा को धो डाला और उपेक्षित उर्मिला को नया जीवन दिया।
पपीहा : टुन्नो बताऊँ आज लायब्रेरी में क्या हुआ। मैं बैठी पढ़ रही थी कि एक लड़का आया और उसने एक चिट मेरे पास सरका दी। उस पर लिखा था ‘हम तुमसे मुहब्बत करके सनम रोते भी रहे, हँसते भी रहे।’ पता है मैंने क्या किया। मैंने मुहब्बत शब्द काट कर नफरत लिख दिया और नीचे अपने दस्तखत कर दिये।
टुनिया : ओफ्फोह दीदी तभी तो तुम्हें पढ़ा लिखा कुछ याद नहीं होता है। सुनती तो हो नहीं।
पपीहा : ला दे मेरी किताब! जरा सा पढ़वा क्या लिया, दिमाग दिखा रही है।
घंटी बजती है।
टुनिया : दीदी तुम खोल दो जरा।
पपीहा : ना बाबा, मुझे पढ़ना है, तू उठ।
माँ झुँझलाती हुई अन्दर के कमरे से आती है। दरवाजा खोलती है।
माँ : कौन!
चिट्ठी कह कर डाकिया अन्दर चिट्ठी डाल देता है।
माँ : (चिढ़कर) घंटी न बजाया करो। (लड़कियों की तरफ गुस्से से देख कर) दोनों की दोनों बैठी हैं पर मजाल है जो एक भी उठ जाये। जरा खयाल नहीं कि माँ सो रही है। टुन्नो, कोलीन अभी तक नहीं आई।
टुनिया : नहीं ममी, उसका भाई रास्ते में मिला था। कह रहा था वह आज नहीं आयेगी। पिक्चर देखने गई है।
ममी : तो तूने पहले क्यों नहीं बताया। अब इस वक्त मैं बर्तन मलूँ या खाना बनाऊँ! अच्छी मुसीबत है!
टुनिया : लाओ मैं कर देती हूँ।
माँ : पपीहा तू जल्दी से सब्जी काट।
पपीहा : आँ—मेरा कल टेस्ट है।
टुनिया : रहने दो ममी, दीदी को पढ़ने दो।
ममी : बताओ, कोलीन आई नहीं है, सारा काम पड़ा है। खाने को सब हैं, काम करने को कोई नहीं। जो करूँ मैं करूँ, जहाँ मरूँ मैं मरूँ।
टुनिया : ममी मैं कर तो रही हूँ।
माँ : (खीझ कर) यह देख तेरा किया काम। सुबह अदरक लाई तू! एकदम सूखी और छूँछ वाली। अदरक तो आजकल बादाम जैसी आ रही है।
टुनिया : ममी वह सब्जी वाला बिल्कुल बात नहीं सुनता, ऊपर से डाँट देता है।
माँ : देख लिया न। काम धाम किसी से नहीं होता। बस एक मैं रह गई हूँ मरने को।
माँ रसोई में नल खोलती है। नल में पानी नहीं आ रहा है।
माँ : टुनिया, ए टुन्नो नल में एक बूँद पानी नहीं आ रहा। कैसे तो खाना बने, कैसे बने चाय!
टुनिया : ममी तुम बार बार उठा देती हो! इस तरह हो चुका होमवर्क!
माँ उसे एक छोटी बालटी पकड़ाती है।
माँ : जा जरा नीचे जाकर डॉक्टर साहब के यहाँ से एक बालटी पानी ला दे। चाय तो बने।
टुनिया : मेरा सारा होमवर्क पड़ा है ममी।
माँ : यह भी होमवर्क ही है, जल्दी जा।
टुनिया नीचे के मकान में जाकर कॉल बैल बजाती है। नौकर दरवाजा खोलता है।
टुनिया : आंटी हैं?
रामजी : नहीं!
टुनिया : रामजी, हमें एक बालटी पानी लेना है।
रामजी : ले लो जाकर।
टुनिया अन्दर रसोई में उनका नल खोल कर देखती है। पानी वहाँ भी नहीं आ रहा। इस बीच रामजी दरवाजा खुला छोड़ कर रसोई में आकर टुनिया के एकदम पास खड़ा हो गया है।
रामजी : इधर आओ, हम पानी देते हैं तुम्हें। उसकी मुद्रा देख कर टुनिया बालटी फेंक कर चीख कर बाहर भागती है। बालटी झनझना कर गिरती है टुनिया एक साँस में सीढ़ियाँ चढ़ जाती है। माँ उसे खाली हाथ देख क्रुद्ध हो जाती है।
माँ : नहीं लाई पानी। अब पीना शाम की चाय। एक छोटी सी बालटी भर लाने में इसकी कलाई मुड़ती है। इस घर में जो करूँ मैं करूँ, जहाँ मरूँ मैं मरूँ।
टुनिया बहुत विचलित है। पहले दरवाजा पकड़ कर हाँफती है, फिर माँ की तरफ देखती है। किसी तरह सिर पर हाथ रख कर संयत होने की कोशिश करती है।
टुनिया : पानी तो नीचे भी नहीं आ रहा।
माँ : तो फिर बालटी कहाँ फेंक आई? अब मैं सारे घरों में जाकर बालटी ढूढ़ूँगी? क्या जमाना आ गया है। कोई जरा सा काम नहीं करना चाहता। एक हम थे। हमारी माँ अगर इशारा भी करती तो हम सिर के बल खड़े हो जाते थे। पपीहा अन्दर के कमरे से आती है। इस बीच कपड़े बदल कर वह तरोताजा हो गई है। उसके चेहरे पर घर की गतिविधियों से कोई सरोकार नहीं है।
पपीहा : ममी मैंने पढ़ाई कर ली। जरा डांस प्रेक्टिस के लिए मैं प्रेमा के घर जा रही हूँ।
माँ : घर में नल नहीं आ रहा है।
पपीहा : (लापरवाही से) नहीं आ रहा तो आ जायेगा। टुन्नोजरा दर्जी से मेरा लँहगा ओढ़नी लाकर रखना। परसों डांस कॉम्पटीशन है कॉलेज में।
टुनिया : अच्छा। (पपीहा जाती है)
माँ : ए टुन्नो मेरा कत्थई ब्लाउज भी दर्जी को देकर आना। कहना इतना कसा बनाया है कि पूछो मत। सारा कपड़ा बरबाद कर दिया। मेरी तरफ से डाँट आना उसे और देख ब्लाउज ढीला भी करवा लाना।
नल से पानी गिरने लगता है। माँ हड़बड़ा कर रसोई में चली जाती है। कॉल बैल बजती है। टुनिया दरवाजा खोलती है। उसके पिता दफ्तर से लौटे हैं। वे ब्रीफ केस टुनिया को पकड़ाते हैं।
टुनिया : (एक विज्ञापन की नकल करते हुए) पापा पापा आए हमारे लिए क्या लाए?
पापा : (हँसते हुए) तेरे लिए रोने वाली गुड़िया और बेबी के लिए नया दुपट्टा।
टुनिया : पापा पापा कल दीदी का टैस्ट है परसों डांस कॉम्पटीशन। हम भी उसके कॉलेज जायेंगे।
पापा : अच्छा-अच्छा! पहले मेरे लिए फर्स्ट क्लास चाय तो बना।
टुनिया जाती है। माँ पति के पास आकर बैठती है। टुनिया ट्रे में कायदे से चाय और टोस्ट लेकर आती है। माता-पिता को चाय देती है।
पापा : टुनिया जो सवाल मैंने सुबह दिये थे, कर लिए तूने?
टुनिया : (खुशी से) जी पापा, कॉपी लाऊँ?
कापी लाकर दिखाती है। लाल पेंसिल थमाती है। पापा सवाल देखते जाते हैं। और सही का निशान लगाते जाते हैं।
पापा : वेरी गुड। ये तो सब सही है। कल अगले दस कर लेना।
टुनिया : ओ यस पापा। पापा आज स्कूल में हिन्दी निबन्ध में मुझे गुड मिला।
पापा : यह तो ठीक है पर तुम्हें अपनी इंग्लिश की ओर भी ध्यान देना चाहिए। तुम्हें पता है इंग्लिश इज एन इंटरनेशनल लैंग्वेज।
टुनिया : पर हिन्दी भी तो हमारी राष्ट्रभाषा है पापा!
पापा : हाँ वह भी जरूरी है पर दिमाग की बन्द खिड़कियाँ खोलने के लिए इंग्लिश बहुत जरूरी है। अब बेबी है, कितनी फर्राटे से इंग्लिश बोलती है।
टुनिया : पापा एक दिन हमारी क्लास में आओ तो दंग रह जाओ। सच्ची, क्लास में बिलकुल भेलपुरी भाषा बोली जाती है। थोड़ी हिन्दी, थोड़ी इंगलिश, थोड़ी मराठी, थोड़ी गुजराती।
पापा : बिल्कुल गलत है यह।
टुनिया : पर पापा बात एकदम समझ में आती है।
टुनिया कॉपी लेकर अपने कमरे में जाती है। पापा कपड़े बदलते हैं, रेडियो खोलते हैं। माँ खाने की तैयारी करती है। पपीहा अन्दर आती है।
पपीहा : ममी टुनिया मेरा लँहगा लाई!
ममी : (रसोई के अन्दर से) लाई तो थी। अन्दर है।
पपीहा अन्दर जाती है। तभी पैर पटकती हुई बाहर आती है।
पपीहा : (रुँआसे स्वर में) ऊँ ऊँ ऊँ टुनिया ने मेरी ड्रैस खराब कर दी!
माँ : क्या हुआ?
पपीहा : मैं अन्दर गई तो टुन्नो की बच्ची मेरा लँहगा पहन कर शीशे के सामने खड़ी थी।
पापा : इससे ड्रैस गन्दी कैसे हो गई।
पपीहा : आँ आँ बिल्कुल गन्दी हो गई।
तब तक टुनिया कपड़े बदल कर सामने आकर खड़ी हो जाती है।
माँ : (डाँट कर) तूने इसकी ड्रेस गन्दी क्यों की?
टुनिया : गन्दी कहाँ की ममी?
माँ : (और डाँट कर) चुप रह। किससे पूछ कर छुई तूने इसकी ड्रेस?
पापा : क्यों फिजूल डाँट रही हो उसे। (पपीहा से) डोन्ट बी सो फसी बेबी।
ममी : तुमने ही सिर चढ़ा रखा है टुनिया को। पूरी गँवार है यह।
पापा : (रौब से) अच्छा अच्छा जाकर खाना लगाओ।
(दृश्य समाप्त)
दृश्य दो
कॉलेज हॉल की चहल पहल। छात्रों का शोर। उद्घोषक की आवाज में उद्घोषणा।
उद्घोषक : अभी आपके सामने अन्तर्महाविद्यालय नृत्य प्रतियोगिता प्रस्तुत की गई। अब कॉलेज का वार्षिक पुरस्कार वितरण समारोह आरम्भ होता है। नृत्य प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार-पपीहा अग्रवाल।
पपीहा मंच पर जाती है। मुख्य अतिथि के हाथ से पुरस्कार लेती है। हॉल में तालियाँ बजती हैं।
उद्घोषक : इसी साल नवम्बर में हुई नाटक-प्रतियोगिता में अभिनय का सर्वश्रेष्ठ पुरस्कार-पपीहा अग्रवाल।
पपीहा फिर मंच पर जाती है। फिर पुरस्कार लेती है। इस बार पहले से ज्यादा तालियाँ। हॉल में एक जगह बैठी टुनिया उचक उचक कर दीदी को देखने की कोशिश कर रही है।
उद्घोषक : सर्वश्रेष्ठ गायन का पुरस्कार-पपीहा अग्रवाल।
धन्यवाद ज्ञापन और चहल पहल के बीच समारोह समाप्त हो जाता है।
पपीहा पुरस्कार हाथों में थामे टुनिया तक आती है। इनाम इतने ज्यादा हैं कि संभल नहीं रहे। टुनिया पकड़ती है।
टुनिया : (खुशी से) ओह दीदी ये सारे इनाम मैं पकड़ूँगी, चलो।
आस पास जाते लड़के लड़कियाँ पपीहा को बधाई देते हैं।
पपीहा : गिराना मत, चल।
टुनिया : दीदी जब तुम्हारा नाम पुकारा जा रहा था न मुझे लग रहा था दौड़ कर मैं मंच पर चढ़ जाऊँ।
पपीहा : धत् तेरे की। ये देख सामने से जो लड़के आ रहे हैं न उनमें से दो मेरी क्लास के हैं। वह तीसरा बैडमिंटन चैम्पियन है।
लड़के पास आ कर ठिठक जाते हैं। पपीहा की तरफ देखते हैं, फिर तूर्णा की तरफ। आपस में इशारा करते हैं। एक लड़का आगे बढ़ता है।
लड़का १ : मुबारक हो पपीहा। यह तुम्हारे साथ आज कौन है?
पपीहा : मेरी बहन तूर्णा।
लड़का १ : तुम्हारा मतलब बहन जैसी फ्रेंड।
पपीहा : (हँसते हुए) नहीं बाबा सौ प्रतिशत बहन है मेरी।
लड़का अन्य लड़कों की तरफ हिमाकत से देखता है। वे कन्धे उचका देते हैं।
लड़का १ : सगी बहन है तुम्हारी। तुमसे शक्ल तो नहीं मिलती!
पपीहा : (लापरवाही से) इससे क्या। मेरी सगी छोटी बहन है।
लड़के पास आकर तूर्णा (टुनिया) को ऐसे गौर से देखते हैं जैसे वह चिड़ियाघर की चीज हो। एक लड़का कहता है ‘इमपॉसिबिल’।
लड़का २ : मेरा तो घाटा हो गया। मेरी और बॉबी की शर्त लगी थी इस बात पर।
लड़का १ : मैंने ठीक कहा था न!
टुनिया : (खीझ से) दीदी चलना है तो चलो, मैं जा रही हूँ।
पपीहा साथ चलने लगती है। टुनिया दो एक इनाम उसे पकड़ा देती है। उसकी चाल में तमक है।
पपीहा : टुन्नो धीमे चल।
टुनिया : मैं तुम्हारी तरह मटक मटक कर नहीं चल सकती।
पपीहा : क्यों भड़क रही है इतना?
टुनिया : कितने बदतमीज लड़के हैं तुम्हारी क्लास के!
पपीहा : कहाँ! कितने अच्छे तो हैं। हमेशा मेरी तारीफ करते रहते हैं।
दोनों बहनें घर में घुसती हैं। पापा ममी इनाम थामते हैं। पपीहा के सिर पर हाथ फेरते हैं।
पापा : बेबी मुझे तुम पर गर्व है। देखा कितने इनाम जीते हैं इसने।
माँ : अब तो इसकी टेबिल बिलकुल भर गई है इनामों से।
पापा : मैं एक शो-केस बनवाऊँगा इन इनामों के लिए। कुछ मिठाई विठाई मँगवा कर बँटवाओ।
माँ : (पुकारती हुई) टुनिया अरे ओ टुनिया कहाँ मर गई। जरा जल्दी से जाकर बनारसी के यहाँ से लड्डू तो ले आ।
टुनिया : (अपने कमरे से) मैं नहीं जाऊँगी। मँगा लो जिससे मँगाना हो।
माँ : (डपट कर) तू नहीं जायेगी तो कौन जाएगा। देखूँ तो क्या कर रही है?
माँ अन्दर जाती है।
माँ : अच्छा तो शीशा हाथ में लेकर मुँह देखा जा रहा है। मुँह में क्या लाल लगे हैं!
टुनिया : लाला तो किसी के भी मुँह में नहीं लगे।
माँ : चुप! सीधी तरह बाजार जा।
टुनिया : मेरे पैर दुख रहे हैं, मैं नहीं जाऊँगी।
माँ : बेबी को इनाम मिले हैं तो इसे बुरा लग रहा है। अरे खुद तो किसी लायक नहीं।
पपीहा : (दूर से) ममी तुम इधर आ जाओ। पापा ने कोलीन को भेज दिया है।
(दृश्य समाप्त)
दृश्य तीन
कैलेन्डर में इतवार की तारीख। पापा झाड़न हाथ में लिए बैठक में किताबें झाड़ रहे हैं। माँ पास ही खड़ी है। टुनिया पापा की मदद कर रही है।
पापा : (हाथ रोक कर) ऐ टुनिया जरा अखबार सीधे करो, सब बेतरतीब हो रहे हैं।
माँ : पुराने रद्दी अखबार रखने का क्या मतलब है। आप तो कूड़ा जोड़ते रहते हैं।
पापा : तुम्हें क्या पता! किसी में से मुझे कुछ पढ़ना है, किसी में कुछ!
माँ : इतनी धीमे तुम्हारी बैठक साफ होगी तो शाम हो जायेगी इसी काम में। मुझे सनीचरी जाकर सामान भी लाना है।
पापा : तो तुम जाओ। टुनिया मेरी मदद कर देगी।
माँ : टुनिया मेरे साथ बाजार जायेगी।
पापा : (चिढ़ कर) क्या तुम इतवार को सुबह कुड़ कुड़ शुरू कर देती हो। नहीं जायेगी टुनिया बाजार। जाना है तो कोलीन को लेकर जाओ। समझती नहीं हो। इतने बड़े साहित्यकार आज घर आ रहे हैं। यहाँ कौन उन्हें बैठाएगा, कौन चाय पिलाएगा।
माँ गुस्से से मुँह बना कर जाती है।
टुनिया : (चाव से) : पापा आज कौन आ रहे हैं?
पापा : मुक्तिदूतजी। बहुत बड़े कवि और साहित्यकार हैं। साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है उन्हें। बड़ा नाम है उनका। यह देखो रैक में जो उनकी किताबें लगी हैं। उन्हें यहाँ आगे लगाओ, ऊपर की तरफ।
टुनिया : अरे पापा इनकी कविताएँ तो मैंने कई बार पढ़ने की कोशिश की पर समझ में ही नहीं आईं।
पापा : कैसे आतीं, अभी छोटी जो हो। आज उनसे कहेंगे, अपनी नई कविताएँ सुनाएँ।
टुनिया : पापा आज कोलीन अच्छी फँसी। मज़ा आ गया।
पापा : कैसे?
टुनिया : सनीचरी में जब ममी के पीछे पीछे थैले लटका कर घूमना पड़ेगा तो होश आ जाएगा। धूप में लौटते हुए अगर रिक्शा एक रुपये में नहीं मिला तो ममी लेंगी नहीं। पैदल ही आना पड़ेगा।
पापा : तू ठीक से चाय बना लेगी न!
टुनिया : बिल्कुल पापा। अच्छा पापा यह बताइए क्या इनका पैर भी बहुत बड़ा होगा।
पापा : क्या मतलब?
टुनिया : पिछली बार जो एक बड़े साहित्यकार आए थे न, उनके पैर की छाप चादर पर पड़ी थी। बाप रे इतना बड़ा पैर था, दानव जैसा!
पापा : बुद्धू, दानव नहीं, महामानव कहो। ये कवि, कलाकार कथाकार ही दुनिया को सुन्दर और जीने योग्य बनाते हैं वरना क्या रखा है इसमें!
टुनिया : पापा बैठक साफ हो गई। मैं जरा दूसरा कमरा देख लूँ।
पापा : पपीहा कहाँ है भेज उसे जरा।
टुनिया : दीदी तो कब की चली गई तत-थई-तत-थई करने।
टुनिया जाती है। बैठक के खुले दरवाजे से मुक्तिदूत अन्दर आते हैं।
मुक्तिदूत : नमस्कार अग्रवाल जी। अरे भाई मुझे आने में जरा देर हो गई। दरअसल मेरे कमरे में सूरज जरा लेट निकलता है। (उन्मुक्त हँसी)
पापा : आ हा! नमस्कार, आइए आइए।
मुक्तिदूत : भई मैं यहाँ सिगरेट पी सकता हूँ?
पापा : अवश्य! यह लीजिए एश ट्रे।
मुक्तिदूत : सिगरेट हमेशा चाय की तलब जगाती है और चाय, सिगरेट की। इन दोनों को मैं बरसों से अलग करने की कोशिश कर रहा हूँ। कम्बख्त अलग होती ही नहीं।
पापा : चाय आ रही है।
टुनिया चाय की ट्रे लेकर आती है। बड़े कायदे से हाथ जोड़ कर नमस्कार करती है, चाय ढाल कर देती है।
टुनिया : लीजिए।
मुक्तिदूत : (चाय सिप कर) बड़ी बढ़िया चाय है। किसने बनाई?
टुनिया : (खुश होकर) मैंने। (बिस्किट की प्लेट आगे करती है) लीजिए।
पापा : यह मेरी छोटी लड़की है तूर्णा। घर में इसे हम टुनिया कहते हैं। पढ़ने में तेज है, चाय बनाने में भी। बाकी इसे कुछ नहीं आता जाता। हाँ दो चार कविताएँ भी पढ़ रखी हैं इसने आपकी।
मुक्तिदूत : (उन्मुक्त हंसी से) वाह! यह लड़की बहुत तरक्की करेगी। जो अच्छी चाय बना सकता है वह दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है अग्रवाल जी। फिर यह तो मेरी पाठिका भी है।
कॉलबैल बजती है। टुनिया दरवाजा खोलती है। पड़ोस की एक महिला का प्रवेश।
आंटी : ए टुनिया ममी कहाँ हैं?
टुनिया : बाजार गई हैं।
आंटी : कौन आया है तुम्हारे यहाँ? कोई नेता वेता है क्या? हम बालकनी से देख रहे थे। कुरता पाजामा पहने कोई लम्बा चौड़ा आदमी था।
टुनिया : (कमरे की तरफ देख कर) श:ऽऽ बहुत बड़े लेखक आए हैं।
आँटी मुझे जरा रसोई में काम देखना है।
आंटी : हमने इडली का घोल बना रखा है। जरा अपना साँचा तो देना।
टुनिया : ये लो आंटी (साँचा देती है।)
पापा : (पुकार कर) टुनिया, जरा पानी लाना।
टुनिया : लाई पापा।
टुनिया पानी लेकर जाती है। पापा और मुक्तिदूत बातों में मशगूल हैं।
पापा : आप एक अच्छी साहित्यिक कृति किसे मानते हैं?
मुक्तिदूत : इस सवाल का एक जवाब निहायत स्कूली तरीके से दिया जा सकता है और एक निहायत गैर-स्कूली तरीके से। वैसे मेरा विचार है आप स्कूली जवाब से ज्यादा सन्तुष्ट होंगे।
पापा : (अकबका कर) नहीं, मैं तो मौलिकता का कायल हूँ।
मुक्तिदूत : ऐसा आप सोचते हैं पर ऐसा है नहीं। आप रुटीन में बँधे हुए लोग एक ढर्रे से सोचने के आदी हो जाते हैं। यह आपका नहीं, आपकी नौकरी का दोष है।
कॉलबैल बजती है। टुनिया दरवाजा खोलती है। पपीहा सीधे अन्दर आती है।
पपीहा : पापा वसन्त सेना नाटक में मुझे मेन रोल मिला है।
पापा : वेरी गुड बेबी, मुक्तिदूत जी यह मेरी बड़ी लड़की है, पपीहा। बड़ी अच्छी डान्सर है। गाना, अभिनय सभी चीजों में आगे रहती है। (पपीहा नमस्कार करती है)
मुक्तिदूत : वाह भई, बड़ी टैलेन्टेड है यह तो!
पपीहा अखबार लेकर चली जाती है।
पापा : हाँ जनाब, इस मामले में मैं बड़ा लकी हूँ।
मुक्तिदूत : क्यों वह माधव मिश्रा आपके पड़ोस में अभी भी रहते हैं?
पापा : जी हाँ। आजकल बड़े उदास हैं। उनकी पत्नी का पिछले महीने देहान्त हो गया।
मुक्तिदूत : अरे! भई मैं उनसे मिलना चाहता था पर मकान भूल रहा हूँ। कई साल पहले आया था उनके यहाँ।
पापा : ये टुनिया बता देगी आपको। टुनिया बेटे, जरा माधवजी के घर तक चली जाओ मुक्तिदूतजी के साथ।
टुनिया : जी पापा।
मुक्तिदूत : भई, लेकिन लौट कर हम एक चाय और पिएँगे।
पापा : जरूर, जरूर, बल्कि खाना भी आप यहीं खाइएगा।
(दृश्य समाप्त)
दृश्य चार
मुक्तिदूत और टुनिया साथ चल रहे हैं। मुक्तिदूत कुछ तेज चल रहे हैं। टुनिया बार बार लपक कर साथ होने की कोशिश करती है। मुक्तिदूत अपनी चाल धीमी कर देते हैं।
मुक्तिदूत : ज्यादा दूर तो नहीं है मकान?
टुनिया : जी नहीं। उस चौराहे पर चौथा मकान है।
मुक्तिदूत : वह तुम्हारी बड़ी बहन थी न!
टुनिया : जी।
मुक्तिदूत : तुम दोनों की शक्ल बहुत मिलती है।
टुनिया : पर सब तो कहते हैं कि वह मुझसे ज़रा नहीं मिलती।
मुक्तिदूत : बिलकुल मिलती है। फैमिली रिजैम्बलैंस बहुत हैं तुम दोनों में। तुम्हें पता है तूर्णा भगवान के पास एक बेहतरीन प्रिन्टिंग प्रेस है। जैसे किताबें छपती हैं, सब एक सी। इसी तरह भगवान के छापेखाने में हर खानदान के नाक-नक्स प्रिन्ट होते हैं। तभी तो जानकार लोग कहा करते हैं वाह बबुआ तेरी नाक तो बिलकुल दादी पर गई है, तेरी तो बुआ जैसी है। ईश्वर एक बढ़िया प्रिन्टर है।
टुनिया : आप भगवान को मानते हैं?
मुक्तिदूत : क्यों तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि मैं भगवान को नहीं मानता!
टुनिया : पापा कहते हैं मॉडर्न लेखक भगवान को नहीं मानते।
मुक्तिदूत : यह तो पापा कहते हैं, तुम क्या कहती हो?
टुनिया : मुझे भी ऐसा लगता है।
मुक्तिदूत : नहीं तूर्णा रानी। पापा के चश्मे से नहीं आपनी आँखों से देखने की आदत डालो। क्या जीवन में कभी भगवान से विश्वास खत्म हो सकता है! हम लाख कहें हमें विश्वास नहीं पर कोई मुसीबत पड़े तो सबसे पहले भगवान याद आता है। है न!
टुनिया हँसती है। मुक्तिदूत भी हँसते हैं।
टुनिया : यह है माधव अंकल का घर। मैं चलती हूँ नमस्ते।
मुक्तिदूत : मैं थोड़ी देर में आता हूँ।
टुनिया जाती है।
(दृश्य समाप्त)
दृश्य पाँच
टुनिया अपने घर की कॉलबेल बजाती है। माँ दरवाजा खोलती है।
माँ : कहाँ से आ रही है मटरगश्ती करके?
टुनिया : मैं मुक्तिदूत जी को माधव अंकल के घर छोड़ने गई थी।
माँ : (डाँट कर) तो फ्राक बदल कर नहीं जाया जाता। सारी कोलॉनी में लड़कियाँ परी जैसी लगती हैं। यह नहीं कि सुबह उठ कर नहा धोकर तैयार हो जाये।
टुनिया : ममी ये जो पहनी हुई है, यह भी तो फ्राक ही हैं। अच्छा तुम क्या सब्जी लाई हो? मुक्तिबोध जी के लिए खाना बनाना है फटाफट।
माँ : (गुस्से से) यह लो और सुनो। मैं अभी धूप में मरते-मरते लौटी हूँ, अब चूल्हे के सामने फुकूँ। ऐसा था तो तेरे पापा ने किसी हलवाइन से शादी क्यों नहीं कर ली!
टुनिया : ममी तुम क्यों बिगड़ रही हो। मैं सब कर लूँगी। आलू-टमाटर की सब्जी बना चुकी हूँ। फुल्के बना लूँगी। सलाद काट लूँगी। बस खाना तैयार। तुम आराम करो।
माँ बड़बड़ाती हुई चली जाती है। टुनिया डाइनिंग टेबल पर ‘प्लेट प्याली ग्लास लगाती है। मुक्तिदूत जी वापस आते हैं।
पापा : आइये, इधर विराजिए आराम से।
मुक्तिदूत : बड़ी जल्द इंतजाम हो गया खाने का। लगता है आप घर में भी अफसरी झाड़ते हैं।
पापा : आजकल तो ऑफिस में भी अफसरी नहीं चलती साहब! श्रीमतीजी का तो हरदम पारा गरम रहता है। यह सब टुनिया ने किया है।
मुक्तिदूत : आपकी लड़की की आवाज़ बहुत अच्छी है। ऐसी आवाज़ कम ही मिलती है सुनने को।
पापा : अरे आये दिन उसे इनाम मिलते रहते हैं, कभी गाने में, कभी ड्रामे में। क्या बताएँ वह कहीं गई हुई है नहीं तो आपको उसका गाना सुनवाते।
मुक्तिदूत : कौन? यह तूर्णा गाना गाती है?
पापा : अजी नहीं। यह तो बुद्धू है, कुछ नहीं आता इसे। वह मेरी बड़ी बेटी पपीहा।
मुक्तिदूत : नहीं अग्रवाल जी, मैं इसकी बात कर रहा था, आपकी छोटी लड़की की। इसकी आवाज में एक संस्कार है।
टुनिया इस वक्त फुल्का लेकर कमरे में आई है। मुक्तिदूत की बात सुन कर उसके चेहरे पर खुशी और संकोच की चमक आती है। वह सिर झुका कर उनकी प्लेट में फुल्का डालती है।
पापा : (ठस्स आत्म प्रशंसा के लहजे में) हमारे घर में सभी की आवाज सुन्दर है। मेरे पिताजी जब रामायण का पाठ करते थे तो दुनिया इकट्ठी हो जाती थी सुनने।
टुनिया : (धीमे से) सब्जी और लीजिए।
मुक्तिदूत : लाओ बेटे। बड़ा आनन्द आ गया आज। आप सुन रहे हैं न। इस बच्ची की आवाज पूरी संस्कृति का दस्तावेज़ मालूम देती है। बहुत स्वच्छ, मधुर, संस्कारवान आवाज है यह। इसमें बहुत सम्भावनाएँ हैं। साहित्य में उत्तराधिकार जैसी कोई चीज नहीं होती वरना मैं कहता आपकी छोटी लड़की मेरी वारिस होने का हक रखती है।
टुनिया संकोच से अन्दर जाती है। उसके कानों में मुक्तिदूत की आवाज ‘आपकी छोटी लड़की’ गूँजने लगती है। कुछ पल वह रसोई में, प्लेट हाथ में लिए, चित्रलिखित सी खड़ी रहती है। फिर जैसे जाग कर वह सौंफ इलायची की तश्तरी लेकर बाहर आती है। मुक्तिदूत चलने की तैयारी में हैं। टुनिया सौंफ की तश्तरी आगे करती है।
मुक्तिदूत : चलते-चलते एक बात पूछना चाहता हूँ तूर्णा। तुम जीवन में क्या बनना चाहोगी?
पापा : (बीच में) मैं तो इसे डाक्टर बनाना चाहता हूँ साहब।
मुक्तिदूत : बताओ बेटे!
टुनिया : मैं वही बनना चाहती हूँ जो आप हैं।
मुक्तिदूत : बहुत खूब! तुम जरूर बनोगी तूर्णा!
।।समाप्त।।