आँखमिचौनी (तेलुगु कहानी) : बुच्चिबाबु
Aankhmichauni (Telugu Story) : Butchi Babu
निरुद्देश्य ही वह घटना अचानक घट गई। दुपहर के समय निद्रा से जागकर जंभाइयाँ लेते हुए उसने दीवार पर लटके आईने में अपना प्रतिबिंब देखा। उसे आश्चर्य हुआ कि प्रतिबिंब में जो बुढ़ापा दिखाई दे रहा है, वह आ कैसे गया। भाल पर पतली रेखाएँ, काले बालों के बीच सफेद केश इसके प्रमाण हैं। बताया जाता है कि अध्यापन के पेशे में लोग वृद्ध दिखाई देने लगते हैं। उसी दिन प्रातःकाल रामदास ने अपने अध्यापक-पद से त्यागपत्र दिया था। इसका कारण समाज में सुधार लाने की तीव्र आकांक्षा है। पाठशाला की व्यवस्थापिका समिति को उसने धमकी दी थी कि पाठशाला की उन्नति के लिए जो चंदा वसूल किया गया है उसे उसके स्वार्थ के लिए खर्च किया जा रहा है, अतः वह इसका भण्डाफोड़ करेगा। इसके प्रतिवाद के रूप में व्यवस्थापिका समिति ने रामदास पर यह आरोप लगाया कि वह नास्तिकता, उन्मुक्त प्रेम आदि का प्रचार करके छात्रों में अनीति फैला रहा है। इन आरोपों का खंडन करने के लिए आवश्यक प्रमाण रामदास के पास नहीं थे। उसके विचित्र विचारों तथा सिद्धांतों की काफी आलोचना भी हो चुकी थी। मुट्ठी-भर विद्यार्थियों को छोड़ उसका समर्थन करनेवाला कोई नहीं था। अतः रामदास को त्यागपत्र देना पड़ा। उसकी उम्र अड़तालीस साल की है। उफ, अब तो मैं स्कूल का मास्टर नहीं हूँ! गहरी साँस लेते रामदास ने अपने प्रतिबिंब का उपहास किया।
कमरे के एक कोने में पड़ी लकड़ी की पेटी आईने में दिखाई दी। बक्स खोलकर ध्यान से उन चीजों को उलटने-पलटने लगा। विवाह होते ही उसने अपनी नवपरिणीता कल्याणी के नाम जो पत्र लिखे थे, उनमें से कुछ पत्र मिले। एक पत्र को उठाकर पढ़ा। उन दिनों उसके भीतर जो वासना और रसिकता तरंगित थी, आज उसकी कल्पना-मात्र से रामदास का शरीर रोमांचित हो उठा। आज उसका स्मरण करना भी व्यर्थ है। कल्याणी में प्रेमोद्रेक का अभाव था। वह इस प्रकार दिखाई देती थी मानो वह अपनी शारीरिक इच्छाओं का दमन करना चाहती हो। कभी-कभी ऐसा व्यवहार करती कि वह अपनी वासनाओं को या तो गुप्त रखना चाहती है या उसके मन में वासनाएँ पैदा ही नहीं होती। अग्नि-कण पर ओस-कण के गिरने से जैसे अग्नि का ताप शांत हो जाता है, उसी प्रकार रामदास का उद्वेग भी क्रमशः ठंडा होता गया और कल्याणी की प्रवृत्ति ने रामदास के मन में शंका के बीज बोए। वर्षों का दाम्पत्य जीवन ईर्ष्या से भर गया। कल्याणी का पुत्रवती न होना रामदास की खीज का एक और कारण बना। यदि वह अपनी दुर्बलता का परिचय प्राप्त करना चाहता है तो उसे दूसरा विवाह करना होगा। दो पत्नियों के साथ गृहस्थी चलाना संभव नहीं है। उस वक्त रामदास की अवस्था बत्तीस साल की थी। उसी मुहल्ले की एक युवती से उसकी मैत्री हुई। यह बात उसने कल्याणी को बता भी दी। वह झगड़ती, लेकिन उसपर रामदास का जो अधिकार है, उसी से वह उसका मुँह बंद करने का प्रयत्न करता और मन ही मन प्रसन्न होता।
कुछ महीने और बीत गए। एक बार कल्याणी न्युमोनिया का शिकार हुई। उसे देखने आनेवाले रिश्तेदारों और मित्रों को देख रामदास जल-भुनकर रह जाता। उनमें से किसी एक के साथ कल्याणी का अनुचित संबंध रहा होगा। वह कौन होगा, यह न जान सकने के कारण वह परेशान था। कुछ ही दिनों में कल्याणी का देहांत हो गया। दूसरा विवाह करने के लिए अब वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र था। लेकिन उसने जिस युवती से प्रेम किया था उसका विवाह हो गया
और वह ससुराल चली गई थी। यह पंद्रह साल पहले की बात है। रामदास ने फिर कभी किसी से प्रेम नहीं किया। एकाकी जीवन व्यतीत करता, विषाद में एक पागल का सा अनुभव करता है। उसका कथन है कि वैवाहिक जीवन भग्न हो चुका है, अब विवाह में रस ही कहाँ!
रामदास के विचार कछ विचित्र होते हैं। उसकी दष्टि में विवाह के द्वारा देश की जनसंख्या बढ़ती है और संतान भी माता-पिता के लिए बहुत बड़ा बंधन है। पुरुष सब धोखेबाज़ हैं और नारियाँ सब पतिताएँ हैं। इस विचित्र प्रवृत्ति से बचने के लिए उसने अध्यापन व्यवसाय को अपनाया, और अपनी आंतरिकता को छिपा पाया। लेकिन ये त्रुटिपूर्ण सिद्धांत उसके उपदेशों को बल प्रदान करने लगे।
चिट्ठियों का बंडल रखकर, रामदास ने फोटोग्राफों का एलबम निकाला। वह विवाह के समय किसी के द्वारा दिया गया उपहार था। विवाह के दिन का फोटो को देखने पर उसे चिंता होने लगती है। उन दिनों वह दुबला-पतला था। उस फोटो को देख रामदास के मित्र भी आश्चर्य प्रकट करते थे। दीवार पर टाँग देने से मित्रों का ताने कसना और उसका व्यथित होना रोज हुआ करता था। इसलिए उसे पेटी में रख दिया था। रामदास का अपनी पंद्रह वर्ष की आयु में लिया गया एक और फोटो है। वह विद्यार्थी-काल का है। उसमें उसकी बड़ी बड़ी और भोली आँखें आज भी बहुत सुंदर लगती हैं। भोलेपन में पाई जानेवाली शांति को अपने मन में न देख उसे आश्चर्य हुआ। उसे प्रतीत होने लगा कि शायद उसने कोई पाप किया हो। कल्याणी ने जब न्युमोनिया से चारपाई पकड़ ली, तब वैद्य को बुला भेजने में थोड़ी देरी हो गई थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि देरी का इतना भयानक दुष्परिणाम होगा। कल्याणी ने भी तो शंका प्रकट नहीं की थी। डाक्टर ने भी कभी इस बात की आशंका नहीं प्रकट की। कल्याणी की मृत्यु हो गई। उसका जिम्मेवार खुद वही है, यह संदेह रामदास के मन से हटता भी तो कैसे? उसके विरोधियों ने कहा कि रामदास ने जान-बूझकर लापरवाही दिखाई और उसकी पत्नी की मृत्यु का कारण वही है। वह इस आरोप का प्रतिवाद न कर सका। रहरहकर उसके दिल में यह शंका घर करती गई कि उसी ने अपनी पत्नी की उपेक्षा की।
एलबम बंद करके उसने उसे किसी कपड़े से ढकने की कोशिश की, तो नाटक की पोशाक निकल आई। बचपन में उसने जो नाटक खेले थे, वे सारी घटनाएँ ताजी हो उठीं। मसलिन से बना राजा का कोट, मंत्री-वेश का साफा, मनि-वेश-धारण का गेरुआ जुब्बा, दाढ़ी-ये सब गंदे और फटे पड़े हैं। पाठशाला के वार्षिकोत्सव के समय विद्यार्थियों के द्वारा खेले जानेवाले नाटक वह देखा करता था। वह भी कभी-कभी नाटक में भाग लेता था। नारद का पात्र उसे अत्यंत प्रिय था। उसका विश्वास था कि एक अभिनेता बनने लायक सभी लक्षण उसमें विद्यमान हैं। वह एक महान एवं सफल अभिनेता बनने का स्वप्न देखा करता था। लेकिन आखिर उसका सारा जीवन ही एक अभिनय के रूप में परिणत हो गया। यह बताया नहीं जा सकता कि उस अभिनय में वह सफल हुआ या नहीं, किंतु इतना सत्य है कि वह रंगमंच पर नहीं आया। न मालूम क्यों, पत्नी के देहांत के बाद वह एक योगी बनना चाहता था। रेल में एक बार उसने योगीवृंद के साथ चर्चा की। परमात्मा के दर्शन से प्राप्त आनंद के बारे में वैराग्य की शांति, हिमालयों में तपस्या द्वारा प्राप्त होनेवाले तेज इत्यादि की चर्चा करके वह बुद्ध और रामकृष्णपरमहंस का स्मरण करके कल्पित आनंद में डूबने व उतरने लगा। स्टेशन पर गाड़ी के रुकते ही टिकट कलक्टर ने उस योगीवृंद को बिना टिकट यात्रा करने के अपराध में गाड़ी से उतार दिया। तब रामदास का दिवास्वप्न भंग हो गया।
बिना सोचे-विचारे रामदास ने वह काषाय वस्त्र धारण किया। दाढ़ी लगाई। योगदण्ड हाथ में ले, साफा बाँधा और अपने प्रतिबिंब को आईने में देखा। उसके शरीर पर वह पोशाक फब गई। आँखों में दीनता, झुर्रियों से भरी भौहें, मुकुलित होंठ, सफेद बालों की परिपक्वता उसे साक्षात योगी का स्मरण दिलाने लगी।
वास्तव में वह उसके योग्य वेश ही है। रामदास के मन में विचार आया कि यदि इस पोशाक में बाजार में प्रवेश करके समाज को देखे, तो कैसा प्रतीत होगा! वह एक अपूर्व मानसिक अनुभव था। घड़ी ने उसकी सचाई का समर्थन करते तीन की घंटी बजाई। नौकरानी को आदेश दिया कि आज उसके फिर से आने की जरूरत नहीं। पिछवाड़े की तरफ ताला लगा, गली में पहुँचकर उसने इधर-उधर झाँका। उधर से किसी को न आतेजाते देख तेजी के साथ सड़क पर जा पहुंचा। चार कदम आगे बढकर घर की ओर इस तरह देखा मानो यही उसका अंतिम प्रवेश और त्याग है। जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाने लगा। सड़क पर चलनेवाले व्यक्तियों की तरफ निहारते हुए उसे लगा कि वह किसी उच्च शिखर से समाज का अवलोकन कर रहा हो। वे सब उसकी दृष्टि में रेंगते, पैर घसीटते चलनेवाले अभागे मानव हैं। प्रत्येक व्यक्ति मनोव्याधि के मेघों में ओझल हो गया है।
रामदास पार्क के निकट पहुँचा। कुछ बालक वहाँ खेल रहे हैं। कुछ खोमचे वाले सौदा बेच रहे हैं। दो साधु गाँजे और चरस का सेवन कर रहे हैं। उनसे बचकर जल्दीजल्दी डग भरता वह एक नाले के किनारे पर जा पहुँचा। वहाँ कुछ झोपड़ियाँ हैं। एक पेड़ के नीचे चार-पाँच औरतें टोकरियाँ बुन रही हैं। चाल तेजकर एकांत स्थान पर पहुँचा। उसे लगा कि कोई व्यक्ति उसके पीछे-पीछे चला आ रहा है। घूमकर देखा। एक नवयुवक ने उसे प्रणाम किया। उसकी आँखों से दीनता टपक रही थी।
चिंता के भार से उस युवक का चेहरा मुरझा गया था। कंधे पर से अंगोछा लेकर वह अपने नेत्र पोंछने लगा। रामदास ने पूछा :
"कौन हो बेटा? दुखी मालूम होते हो!"
“हाँ स्वामी! मुझे अपने साथ ले चलिए।"
“कहाँ ले जाऊँ?"
"जहाँ आप चाहें, आप हिमालयों में रहते हैं न?"
सोचते हुए रामदास ने कहा, “हाँ।"
"आपसे में कुछ नहीं चाहता। कहीं दूर ले चलिए, जहाँ मेरे मन को शांति मिल सके।"
"इसका कारण?"
"मैं जिंदगी से ऊब गया हूँ...।"
रामदास दया दिखाते हुए मंदहास कर उठा। "जिंदगी से ऊबने के पहले तुमने क्या यह जाना कि जिंदगी क्या होती है?"
"मैं इतना जानता हूँ, स्वामी ! परिवार के बंधनों को तोड़ घर से भाग जाने में ही प्रसन्नता और शांति है। मैं अब लौटकर उस नरक-कूप में कूदना नहीं चाहता। आपके साथ चलूँगा।"
यह सोचकर रामदास का शरीर पुलकित हो उठा कि उसे शिष्य बनाकर सारे देश का भ्रमण करने में कैसा मजा आएगा। वह जवाब सोच ही रहा था कि युवक ने रामदास की ओर अपना हाथ बढ़ाया।
"आप हिमालयों में रहनेवाले तपस्वी हैं। मेरा हाथ देखकर बताइए, भाग्य कैसा है?" रामदास चकित हो गया। अगर वह यह कहे कि हाथ देखना नहीं आता तो कैसा बुरा लगेगा। फिर संभलकर उसकी हथेली को धीरे से दबाते हुए बोला, “तुम्हारा भविष्य उज्ज्वल है।"
"नहीं, नहीं, मेरा भविष्य अंधकारमय है। सबकुछ छोड़-छाड़ कर मैं आपके साथ चलूँगा।" यह कहते हुए युवक मेंड़ पर बैठ गया और अपने दोनों हाथों से मुँह ढाँप लिया। रामदास ने वहीं बैठकर उसे सांत्वना देते हुए कहा_
"तुम अबोध हो बेटा, तुम्हारी अवस्था अभी परिवार त्यागने की नहीं है। घर लौटकर पत्नी-बच्चों के प्रेम-पात्र बनकर यथोचित सामाजिक सेवा करो वत्स ! भागकर तुम सृष्टि के अस्तित्व को चुनौती दे रहो हो!" क्या इन वाक्यों का कोई अर्थ भी है ! उसे लगा कि जीवन की व्याख्या करके सिद्धांतीकृत करने से सरल कार्य दूसरा न होगा। अनेक बार बड़ों के मुँह से इन सिद्धांतों को सुना था। कई बार पढ़कर इस निर्णय पर पहुंचा था कि यह सब धोखा है!
हाँ बेटा, यह विराग क्षणिक है। थोड़ी देर बाद पीड़ा का उपशमन होता है। यह जीवन ही एक रंगमंच है। सदा कोई न कोई मंच पर आता रहता है। तुमको अपने पात्र का अभिनय करना होगा। असंख्य महत्त्वपूर्ण कार्य करने होंगे। तुमने अनेक सुनहले सपने देखे, तुम्हारे बच्चों द्वारा वे सपने सत्य प्रमाणित होंगे। अपने जीवन में कार्यसाधन का शुभारंभ कर दोगे तो शेष कार्य की पूर्ति तुम्हारी संतान के द्वारा होगी। यह सृष्टि नित्यप्रति सिद्धि प्राप्त करती रहेगी।"
युवक ने सिर उठाकर नहर की ओर देखा; पुनः सिर अवनत करके घुटनों पर टिका दिया।
"नहीं, मेरे जीवन में प्रेम का सपना नहीं है।"
"कहो, बेटा, क्यों नहीं?"
“याद करने से दुःख होगा महात्मन् ! मैं कह नहीं सकता...।"
"ऐसा न कहो बेटा, दूसरों के साथ दुःख बाँटने से शांति मिलेगी। मैं कोशिश करूँगा कि तुमको मानसिक शांति दिला सकूँ। जीवन के साथ समझौता हो सके, इस बात का मैं प्रयत्न करूँगा। अपना समूचा वृत्तांत सुनाओ।"
"आप तो महानुभाव हैं। मैं नहीं चाहता कि आपके निर्मल हृदय को इस तुच्छ प्रेमगाथा द्वारा व्यथित करूँ। आपके सामने मैं नीच नहीं बन सकता।"
"अपने को तुच्छ कभी मत समझो बेटा! भगवान की दृष्टि में सभी समान हैं। परमात्मा सर्वत्र हैं। तुच्छ प्रेम में भी।" रामदास ने कहा।
युवक ने नहर में छोटे-छोटे कंकड़ फेंकते हुए अपनी कहानी सुनानी प्रारंभ की, "बड़ों के द्वारा हमारा विवाह निश्चिय हुआ। कन्या को देखा, मुझे पसंद आई। उस वक्त मेरी उम्र चौबीस साल की थी और कन्या सोलह साल की थी। गर्भाधान संस्कार के होते ही मैं पढ़ने कालेज चला गया। पढ़ाई समाप्त कर आठ महीनों में वापस आया। एक पुत्र पैदा हुआ। उसे 'हरि' का नाम दिया गया। मुझे नौकरी मिली। मजे के साथ गृहस्थी चलने लगी। पाँच साल बाद एक बच्ची हुई जिसका नाम 'राधा' रखा गया। हरि हमेशा अपनी माँ के साथ रहता था। राधा मेरे पास ज्यादा हिल-मिल कर रहती थी। एक बार मेरे मित्र ने कहा कि राधा बिलकुल मेरी शक्ल की है। तब मैंने जाना कि हरि में मेरी रूपरेखाएँ नाममात्र के लिए भी नहीं हैं। मेरी क्या, हमारे कुटुंबियों में से किसी की भी नहीं हैं। मेरे मन में बड़ा संदेह पैदा हुआ कि वह मेरे द्वारा नहीं पैदा हुआ है। लोगों ने कहा भी था कि विवाह के दस महीने भी पूरे नहीं हुए, तुम पिता बन गए।"
युवक ने मौन धारण किया।
"बस यही? महीने पूरे होने के पहले भी तो बच्चा पैदा हो सकता है..." रामदास ने कह तो दिया, लेकिन अपनी भूल पर होंठ काट लिया। युवक ने फिर कहना शुरू किया,
"लेकिन शक्ल की बात को क्या कहेंगे? दिनों के बीतते-बीतते मेरा संदेह बढ़ता गया। रिश्तेदारों और मित्रों की रूपरेखाओं का अन्वेषण करने लगा। बिना प्रमाण के उसपर निन्दारोप करने का साहस मुझमें न था। विचित्र बात तो यह है कि मेरे संदेह के साथ-साथ उसका प्रेम बढ़ता गया। मैं सोचता कि मेरा संदेह भुलाने के लिए यह अभिनय कर रही है। कभी-कभी चुभनभरी बातें कहकर मैं अपना संदेह प्रकट करता, झगड़ा होता। ये सब परस्पर अनुराग सूचित करनेवाले प्रमाणों तथा शपथों से समाप्त होते... पर... पर...।"
उसकी भीगी आँखें बोझिल हो गईं। वह आगे कुछ कह न सका। थोड़ी देर बाद स्वस्थ हुआ।
"आज दुपहर को मैंने सत्य का पता लगाया" यह कहते-कहते उसने दीर्घ निश्वास लिया।
"सविस्तार बताओ, बेटा!" रामदास ने कहा।
“अब मेरा कोई संदेह नहीं। हरि का पिता लक्ष्मीपति नामक युवक है। बचपन से हम दोनों मित्र हैं। एक ही शहर में कुछ वर्ष काम भी किया। मेरे विवाह के समय हम दोनों एक ही शहर में रहते थे। कुछ समय बाद उसका तबादला हो गया। कभी-कभी वह पत्र लिखा करता था। परसों हम लोगों को देखने आया।
"हरि में उसकी रूपरेखाएँ हैं। वह दो दिन रहा। मेरी पत्नी भी हम दोनों के वार्तालाप में उत्साह दिखाती रही। मेरे लिए अपरिचित कोई आत्मीयता उन दोनों के बीच थी। संभाषण में कहीं वह भाव व्यक्त न होता था। उन दोनों की देखनेवाली दष्टियों में तथा दोनों की मिलकर मेरी तरफ देखनेवाली नज़र में भी मुझे कोई बात दिखाई दी।"
रामदास स्वभावतः ही हंस पड़ा।
"मन की चंचलता और भ्रांति का यह अटूट प्रमाण है। मित्रों के प्रति ऐसी कल्पना करते हो, बेटा!"
“यही नहीं, स्वामीजी ! आज सुबह लक्ष्मीपति चला गया। उसे विदा देकर मेरे घर लौटते-लौटते दुपहर हो गई। राधा सो रही थी। हरि स्कूल से लौटा न था। हाल को पार कर शयनकक्ष के किवाड़ खोल दिए। वह चौंक पड़ी। अभ्यंगन स्नान किए हुए थी। कोई चीज़ हाथ में लिए देख रही थी। मुझे देख घबराई हुई-सी झट उठकर खड़ी हो गई और हाथ के कागज़ को मसलकर मुट्ठी में बंद कर लिया।"
"क्या है वह?" मेरे प्रश्न को सुनकर वह चौंक उठी।
"कुछ नहीं !" उसके कंठ में कर्कशता थी।
"मैं जानता हूँ, वह क्या है।" मैंने कहा।
"तो मुझसे पूछते क्यों हो?"
“मैंने जो सोचा, वह सही है या नहीं, जानने के लिए!"
"क्या सोचा है, पहले कहिए तो!"
"नहीं कहूँगा।"
"नहीं कहेंगे तो मैं भी नहीं बताऊँगी कि क्या चीज़ है।" एक कदम आगे बढ़ाकर...
"उस मुट्ठी में जो है, चुपचाप दे दो।" मैंने गरजकर कहा।
"मैं नहीं दूंगी।" यह कहते वह दो कदम पीछे हटी।
"जानती हो, मैं जबर्दस्ती ले सकता हूँ।"
"ओहो..."
"मुझे परेशान मत करो, दे दो," यह कहते मैंने उसके घुटने तक सरके आँचल को पकड़ लिया।
"दूर रहिए, जाइए।" जोर से चिल्ला उठी वह।
"क्यों नहीं देती?"
"आप यह हठ क्यों करते हैं?" "चूंकि मैं सबकुछ जानता हूँ इसलिए!"
"क्या जानते हैं, आप?... यह तो पागलपन है।"
"तुम भी तो जानती हो कि मैं क्या जानता हूँ।"
"मैं कुछ नहीं जानती।" उसने कहा।
"हाँ, कहते जो हैं कि पति को अंत में ही तो मालूम होता है।" मैंने कहा।
"अहा!" परिहासपूर्वक कहती वह हँस पड़ी।
"अंत में मालूम होने पर अंत में ही विश्वास करना है।"...यह कहकर उसने अपना वार्तालाप समाप्त किया। मेरा क्रोध उबल पड़ा। मैंने उसके मुँह पर कसकर एक चपत जमा दी। उसके हाथ से उस चीज़ को लेने की कोशिश की। उसने अपनी मुट्ठी ढीली नहीं की, बल्कि खाट की पट्टी पकड़े मुझे ज़ोर से ढकेल दिया। मैं चारपाई पर गिर पड़ा। उसी आवेश में कोई चीज़ सी ढूँढने की हालत में पहुँच गया और चीनी मिट्टी की बनी फूलदानी उसपर फेंक दी। वह उसी वक्त प्रवेश करके कमरे में जा रहे हरि को जा लगी। अम्मा!' कहते वह गिर पड़ा। मैं उस ओर आगे बढ़ने को हुआ, लेकिन भीतर से चिटकनी लगा ली गई। 'जाओ, यहाँ मत आओ।' लड़के का रुदनस्वर अस्पष्ट सुनाई दिया। मुझे लगा कि मैं पहाड़ की चोटी पर से नीचे खाई में गिर गया हूँ। धीरे-धीरे चलता इधर आ पहुंचा। अब आप ही को मुझे उबारना होगा।"
आवेग से उस युवक के होंठ काँप रहे थे। उमड़नेवाला दुःख उसके हदय को विकृत बना रहा था। रामदास ने उसे सांत्वना देते हुए उसकी आँखों में तीक्ष्ण दृष्टि डाली।
"देखो बेटा, तुम कहते हो कि 'मैंने वह किया' और 'मैंने यह किया। यह 'मैं' कहाँ पर है? भूख लगने पर खाना चाहते हो, गुदगुदाने पर हँस पड़ते हो, चिकोटी काटने पर रोते हो, ऐसा कौन कार्य है, जिसे सबने न किया हो और तुमने किया हो! 'अहं' को भूल जाओ-आँसू और हास को भूल जाओगे। ...तुमने अपने 'अहं' पर विचार करके प्रेम किया और अब द्वेष कर रहे हो। इसीलिए 'अहं' से भाग रहे हो। तुम अपनी पत्नी और पुत्र से द्वेष नहीं करते हो। तुम खुद अपने से द्वेष करते हो। हरि पर नहीं, तुमने फूलदानी अपने ही ऊपर फेंकी थी। अब घायल हो दौड़ते आ गए हो"...इस संदर्भ में रामदास ने कोई श्लोक पढ़कर अपने पक्ष का समर्थन करना चाहा। लेकिन अशुद्ध बोलना उसे पसंद नहीं आया।
"मैंने उससे प्रेम करना चाहा, लेकिन एक कुलटा से में प्रेम नहीं कर सकता, स्वामीजी! नहीं..."
रामदास मंदहास कर उठा।
"पगले!...तुमने उससे प्यार नहीं किया। उसकी कामना की। उम्र के ढलने के साथ कामुकता कम होती जाती है। वास्तव में वासनाहीन प्रेम ही सच्चा प्रेम है।"
“...जब आनंद नहीं है, तब वह प्रेम किसलिए, स्वामी?"
"तुम आनंद की खोज नहीं कर रहे हो, बेटा ! इंद्रियों के नए-नए अनुभव कर रहे हो। अवस्था के साथ शारीरिक सुख भी घटते जाते हैं। हृदय विशुद्ध प्रेम से भर जाता है। तुम गृहस्थी त्यागने को तैयार हो?"
"जी हाँ।"
"अच्छा, तो अब तुम ज़रा अपने हृदय में झाँककर देखते रहो। ईर्ष्या और द्वेष हैं न?"
“जी हाँ महात्मन् ! अब मुझे ज्ञात हो रहा है। मन में विकलता हो रही है।" ।
"तुम अपने बारे में मत सोचो। अपनी पत्नी और संतान की चिंता करो। उन्हें प्रेम और अनुराग से भर दो। उनको सुख पहुँचाओ तो तुम भी सुखी होगे। वेद इसी रहस्य की घोषणा कर रहे हैं।"
"यह मेरे लिए कैसे संभव होगा?"
"क्यों नहीं? तुमने स्वयं यह नहीं देखा कि तुम्हारी पत्नी की मुट्ठी में क्या था। वह साधारण कागज़ हो सकता है। कभी तुम्हारा ही लिखा हुआ प्रेम-पत्र हो सकता है। पुरानी चिट्ठियाँ हदय को आनंद देती हैं। उस चिट्ठी को वह पढ़ती होगी।"
"तो उसने मुझे क्यों नहीं दिखाई?"
"देखो बेटा! तुम्हारी ही भाँति उसमें भी अहं है। तुमने अपने अहं का प्रदर्शन किया। उसने भी अपना अहं प्रकट किया। तुम्हारी मूर्खता और ज़बरदस्ती ने उसमें भी मूर्खता और जबरदस्ती पैदा की। वह रहस्यपूर्ण स्वार्थों का संघर्ष था। तुम उसके पास जाओ। अपनी मूर्खता पर पश्चाताप प्रकट करके उससे क्षमा माँगो। उसके हृदय के द्वार खुल जाएंगे। विश्व-भर को आप्लावित करनेवाली प्रेमवृष्टि तुम पर बरसा देगी।"
"महात्मन् ! एक और व्यक्ति द्वारा उत्पन्न बच्चे को मैं कैसे प्यार कर सकता हूँ?"
"हम सब भगवान के बच्चे हैं। तुमको उससे प्यार करना होगा।"
"मुझसे यह संभव नहीं है।"
"तुम इसे संभव बना सकते हो। परिस्थितियों के वशीभूत हो अज्ञान में उसने अपचार किया होगा। उसके अतीत के जीवन को क्षमा कर दो। अच्छे मार्ग पर चलने के लिए एक और अवसर प्रदान करो। जन्म से लेकर मृत्यु-पर्यंत उत्तम बना रहनेवाला व्यक्ति हममें कोई नहीं है। अज्ञानवश, यौवन की चपलता के कारण हम गलत कदम बढ़ाते हैं। भूल करते हैं। जब-तब औंधे मुँह गिर जाते हैं। झाड़-पोंछकर उठते हुए पुनः जीवन-यात्रा चालू करते हैं। मेरी आँखों में झाँको ! तुम कहते हो कि उसने अपराध किया है, तुम अपने आप से प्रश्न करो-क्या तुमने कभी ऐसा अपराध नहीं किया...?"
"लेकिन मैं पुरुष हूँ...."
"वह नारी है-मातृत्व के द्वारा पूर्णता पाने का भार उसपर है।"
"गुरुदेव, यदि आपका कहना सत्य है, तो नीति के लिए कहीं स्थान न होगा।"
“यही पागलपन है बेटा! व्यभिचार ही एक दुर्नीति नहीं है। झूठ, फरेब, धोखा, अन्याय, घूसखोरी, भ्रष्टाचार, ईर्ष्या, द्वेष, युद्ध, इत्यादि इस संसार में अनेक बातें हैं। ये सब अनाचार हैं। पर इनसे द्वेष करके तुम समाज से भागते नहीं हो।...इन अनाचारों द्वारा जो धनी बने हुए हैं, उनको आदर्श बताकर समाज उनकी प्रशंसा कर रहा है। परिहास और व्यंग्य के रूप में मृत्यु के साथ समाप्त होनेवाले इस क्षणिक जीवन में यह भी कोई अपराध है? अनंत विश्व में, अनवरत होनेवाले सृष्टि-समर में, प्रेम में असावधानी से आँखें मूंदना क्या बहुत बड़ा पाप है?...मैं एक व्यक्ति को जानता हूँ..."
रामदास कुछ कहने जा रहा था, लेकिन अपनी भूल पहचानकर हठात् रुक गया। “कहिए गुरुजी! लगता है, आपको जीवन का अगाध अनुभव है।"
"नहीं बेटा, मुझे कोई बड़ा अनुभव नहीं है। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि प्रेम क्या है-समस्त विश्व गंभीर, एवं सृष्टि शाश्वत रहती है, उसी के कारण।"
रामदास के नेत्र सजल हो चमक रहे थे। परिहास में प्रवेश करके, उस व्यक्ति को उठाकर आगे चलने के लिए तैयार किया।
"मेरे साथ चलो, बेटा!"
"कहाँ, गुरुजी?"
“वैद्य के पास। उसको साथ ले अपने घर जाओ और बच्चे की चिकित्सा..." दोनों मौन चलने लगे।
"क्षमा, जीवन के साथ समझौता, प्रेम, विश्वास-ये सब अर्थहीन शब्द नहीं हैं बेटा!" इतने में वे दोनों किनारे पर बसी झोंपड़ियों के निकट पहुंचे।
“गरीबी, बीमारी, द्वेष-इन सबसे बढ़कर प्रेम का अभाव-ये जीवन के अनर्थ हैं बेटा! इनको हटाना ही मानव-जीवन का परमार्थ है। तुम्हारे प्रेम के लिए उत्सुक अपनी पत्नी और बच्चों के पास जाओ। उनकी सेवा करो। वही परमात्मा का दर्शन है...।"
दोनों पार्क के पास पहुंचे। युवक के नेत्र उत्साह के साथ बार-बार मुकुलित होने लगे।
"आप महान् हैं, गुरुदेव ! अब मुझे ज्ञात हो रहा है। मेरा मन शीतल हो गया है। ईर्ष्या और द्वेष मेरे मन में नहीं है...मैं घर जाऊँगा। वैद्य को अपने साथ लेता जाऊँगा। ...बेचारा हरि घायल हो...परेशान होगा। ...यह बेचारी... कितना... स्वामीजी, में आपको क्या दे सकता हूँ?"
“मैंने कुछ किया ही नहीं, बेटा ! दूसरों के लिए जियो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा।" जल्दी डग भरते वह युवक पार्क के पीछे की ओर चला गया।
रामदास अपने-आप हँस पड़ा। जो कुछ हुआ उसे हास्यास्पद प्रतीत हुआ। वह सोचा करता था कि दर्शन और वेदांत झूठे हैं, मानव दगाबाज है। आत्मिक चिंतन और भगवान पर कभी उसका विश्वास जमा नहीं था। विश्वासविहीन अपनी बातों पर विश्वास करके अपने जीवन-विधान को बदलने के लिए तैयार होने वाला एक व्यक्ति आज उसे दिखाई दिया। मानव कैसे भोले-भाले हैं!...कुछ गंभीर ध्वनित होनेवाले वचनों तथा शून्य भावों के वशीभूत हो धोखा खा जाते हैं। अपनी भाषा और भावों पर वही उद्विग्न हो उठा। उसके भाल पर पसीने की बूंदें चमकने लगी। साफा निकालकर उसकी एक परत खींचकर उससे अपना मुँह पोंछ लिया। सूर्य अस्ताचल की यात्रा करने लगा। परछाइयाँ लंबी होती गई। वृक्षों की डालियों तथा पश्चिमी आकाश पर संध्या की अरुणिमा ने मानो लाल शाल ओढ़ा दी। दो साधु अपने झोले बाँधकर, मजे से बात करते नहर की ओर जा रहे हैं। लगा कि उनमें से एक घूमकर रामदास की ओर देख रहा है। झट रामदास ने साफा सिर पर लगा लिया और पार्क के दूसरी तरफ चला गया। नल के पास मुँह धोकर पानी पी लिया, और भिखारियों के बीच से गुजरते हुए पार्क में पहुंचा। एक कोने में लकड़ी की बेंच पर घुटने सिकोड़कर, आँखें मूंदकर बैठ गया। कुछ, मिनट बीत गए। बच्चों की किलकारियाँ उसके कानों में प्रतिध्वनित हो उठी।
थोड़ी देर बाद बच्चे खेल में निमग्न हो गए। उनका दौड़ना, उछल-कूद करना, भोली हँसी, सहज प्रसन्नता ने रामदास को आकर्षित किया। वह उनकी ओर देखता बैठा रहा। आकाश की अरुणिमा पिघल गई और घने नीले रंग के मेघ फैलने लगे। फैक्टरी की कूक सुनाई दी। कबूतर वृक्षों पर फुदकने लगे।
रामदास ने गिनकर देखा। छ: बच्चे आँखमिचौनी खेल रहे हैं। पाँच-छ: साल की एक बच्ची चोर है, उसकी आँखों पर पट्टी बँधी हुई है। बाकी पाँच बच्चे इधर-उधर बचते, दौड़ते, पौधों के पीछे और बेंचों के नीचे छिप रहे हैं। वह लड़की अपने हाथ फैलाए ढूँढ़ती घूमती हुई रामदास के पास आई। वह उठने ही वाला था कि उसकी भुजा पकड़ ली। “लो, चोर पकड़ा गया...मिल गया।...वाह चोर-यहाँ पर हो?" चिल्लाती हुई लड़की ने अपनी पट्टी खोल दी। बाकी बच्चों ने हँसते हुए उसको चारों तरफ से घेर लिया। “यही चोर है..." लड़की ने कहा। बाकी बच्चे रामदास को इधर-उधर खींचने लगे। वह मन ही मन यह सोचकर डरता रहा कि कहीं उसकी नकली मूंछ और दाढ़ी न निकल आए। खड़े होकर सँभाल लिया। वह बच्ची लजाकर मुस्कुराते वहाँ से भाग गई। बाकी बच्चे भी उसके पीछे भाग गए।
रामदास पार्क के फाटक के पास पहुँचा। दर एक तांगा आ खड़ा हआ। उसमें से वही युवक और एक लड़का उतरकर उसी की ओर बढ़े चले आ रहे हैं।
"स्वामीजी! मैंने सोचा था, आप यहीं रहेंगे। देखिए, तांगे में मेरी पत्नी और राधा बैठी हैं। पार्क की तरफ सैर करने निकले। वह आपके दर्शन कर आशीर्वाद पाना चाहती है। यही हरि है। छोटा-सा घाव हो गया है। वैद्य ने पट्टी बाँध दी है, स्वामीजी! आपके कथनानुसार ही हुआ है।...वह चिट्ठी नहीं पढ़ रही थी, मैं जब वहाँ पहुँचा था, उस वक्त वह हमारे विवाह के समय का फोटो देखकर उन मधुर स्मृतियों में खोई हुई थी। मैं पराए की तरह उस जगत् में पहुँचा...मैं मूर्ख हूँ स्वामीजी! ...मैंने सारी बातें बताकर उससे क्षमा माँग ली है। आप महान् हैं। क्षण-भर ठहरिएगा। मैं उनको यहीं ले आता हूँ।" यह कहते हुए वह युवक तांगे के पास चला गया। रामदास ने देखा कि उस युवक की पत्नी और पुत्री तांगे से उतर रही हैं। धीरे-धीरे चलते उसके निकट आ रही हैं। उनकी ओर एक दृष्टि दौड़ाकर, रामदास झट घूम पड़ा और चलने लगा। उनके पहुँचने तक रामदास वहाँ न था। उनको वहीं छोड़ युवक स्वामीजी को पुकारता हुआ उसके पीछे चलता गया।
"स्वामीजी...जा रहे हैं...उनको आशीर्वाद न देंगे?" रामदास ने युवक के नेत्रों में देखा। "ईश्वर ही तुम लोगों को आशीष देंगे। मुझे जाना है।"
"कहाँ जाएँगे, स्वामीजी?"
"घर..."
“घर? आपने कहा था कि कोई अपना घर नहीं है!"
"हाँ, बेटा! ईश्वर ही मेरा घर है।" रामदास जल्दी-जल्दी चलने लगा। लौटकर देखा, वह युवक पार्क से चला जा रहा है। हरि को देखते ही रामदास को मालूम हो गया कि वही 'चोर' है। अपने विद्यार्थी जीवन का फोटो उसी दिन दोपहर को देखा था। हरि उस फोटो के बच्चे जैसा है। पार्क में बच्चों ने 'चोर मिल गया, चोर पकड़ा गया' जो कहा था, वे शब्द रामदास के कानों में गूंजने लगे। उसे लगा कि बच्चों का मधुर हास उसके मूंदे हदय के कपाटों को खटखटा रहा है। कपाट खुल गए।-वेदांत सब परिहास है। मनुष्य दगाबाज है...यही वह सोचता था...वह भी दगाबाज है। उसका जीवन ही प्रच्छन्न व्यंग्य है। कल्याणी से प्रेम करके क्या वह उसे क्षमा कर सका! स्कूल का अनाचार प्रकट करने की धमकी दी। यह किसलिए? पाठशाला की व्यवस्थापिका समिति पर द्वेष के कारण ही था ! उसका किसपर विश्वास है? क्या उसे अपने ऊपर विश्वास है? कल्याणी जब खाट पकड़े हुई थी, उस वक्त वैद्य को तुरंत क्यों बुला नहीं भेजा, उसके मर जाने पर दूसरा विवाह करने के विचार से ही तो! वह भी विवाह के पूर्व बच्चे को धारण करनेवाली युवती के साथ विवाह करने के कारण ही तो किया था!
रामदास अपनी गली में पहुंचा। उसके कदम दुर्बल प्रतीत होने लगे। उसकी ठठरी थरथराने लगी। नेत्र सजल हो गए। आकाश में चंद्रमा पर झीने पर्दे की भाँति सफेद मेघ फैला था-नक्षत्रों की ओर देखा। उसके मन में प्रकाश की रेखा खिंच गई। गली में लोगों का आनाजाना बंद था। अट्टालिकाओं के झरोखों में से विद्युतदीपों की कांति सड़क पर पड़ रही थी। घर पहुंचा। वही उसका घर है, जिसमें वह आज तक छिपा था। वह हमेशा छिपा रहता घर में। स्कूल में या दाढ़ियों के पीछे। अब पकड़ा गया है। अब छिप नहीं सकता है।
हठात् रामदास पैदल चलकर सड़क पर पहुँचा। पार्क, झोंपड़ियों को पार करके नहर की बाँध पर चलने लगा। नकली दाढ़ी और मूंछे निकालकर नहर में फेंक दीं। और भी चलने लगा। और भी दूर कुहरे से भरे, धुंधले दिखाई देनेवाले उस हरे पर्वत की ओर चलता गया।