आमि जे बनलता (कहानी) : शिवानी

Aami Je Banlata (Hindi Story) : Shivani

बचपन की कौन-सी याद गहरी नहीं होती?

बहुत पीछे छूट गये बचपन की स्मृतियां बटोरने लगती हूं, तो एक साथ न जाने कितने चेहरे, कितनी घटनाएं, कितनी नदियां समुद्र, कितने ही शहर और ग्रामों की स्मृति, मुझे पीछे खींचने लगती है। कभी जसदन के राजप्रसाद में लीलावा के साथ बनाये गुड़ियों के घरौंदे, कभी बेरावल के उद्धत जलधि-तरंगों का मत्त नर्तन, कभी राजकोट की उस तंग गली में चीनी के रंगीन पारदर्शी गिलास बेचन वाले अनोखे हंसमुख फेरी वाले की प्रतीक्षा, और कभी अल्मोड़ा गिरजे की गुरु-गम्भीर इतवारी घंटा ध्वनि!

अचानक वही टनटन सुनती, मैं अपने कल्पना-लोक में ही उड़ती शिलांग जा पहुंचती हूं। ब्रह्मपुत्र के विराट वक्षस्थल पर हिलता-डुलता स्टीमर मुझे हबीगंज ले जा रहा है। अब शायद उस विचित्र वंकिम ग्राम को, भारत-विभाजन के पश्चात पाकिस्तान अपनी ओर खिंच ले गया है। ऐसी विचित्र बस्ती मैंने फिर अपने जीवन में कभी नहीं देखी। न जाने कब, किस भूकम्पी धक्के ने उसे सदा के लिए टेढ़ा कर दिया था। हरे-हरे धान के टेढ़े खेत, पान के झुरमुटों की बनी टेढ़ी-ठिगनी झोंपड़ियां और टेढ़े खड़े ताड़ के पेड़ वह भी ऐसी मुद्रा में जैसे एक दूसरे से गुंथी खजुराहो की मूर्तियां हो। प्रकृति ने इस बस्ती को सौंदर्यदान अकृपण हस्त से ही किया था, इसमें कोई संदेह नहीं। किंतु विधाता जैसे कभी सुंदर चेहरा गढ़कर स्वयं अपने ही क्रूर आघात से, उसे एक पक्षाघाती झटके से, सदा के लिए टेढ़ा विकृत कर देता है, ऐसे ही प्रकृति ने स्वंय उस सुंदर बस्ती को श्रीहीन कर दिया था।

उसी हबीगंज में, अपनी एक सहपाठिनी के साथ उसके जमींदारी प्रसाद में दो दिन बिताकर मैं शिलांग पहुंची। कलकत्ते के विद्यासागर कालेज से हाईस्कूल की परीक्षा देकर, मैं अपनी बड़ी बहन के पास शिलांग गयी थी। वहां ‘धानखेती’ में एक बंगला लेकर मैरी बड़ी बहन बी।ए। की परीक्षा दे रही थीं। बढ़े आनंद और उल्लास के बीच ग्रीष्मावकाश की कुछ छुट्टियां वहीं बिता, हम तीनों बहने घर लौट रही थीं। आज तक न जाने कितनी यात्राएं कर चुकी हूं, किंतु उस यात्रा के आनंद का स्वाद ही भिन्न था। कभी घने वन-अरण्यों के बीच गुजरती धड़धड़ाती रेलगाड़ी ठीक ऐसे बल खाने लगती, जैसे केंचुए को किसी ने तिनके से कोंच दिया हो। पेट की बातें भी गोल-घूमने लगती और बंगाल के नागरदोले में बैठने का आनंद आ जाता। उधर वन-वनातंर को रंगती हरीतिमा स्वयं ही आकर आंखों में धूप का सुशीतल चश्मा लगा देती, और फिर निरंतर झरझरकर बरसती जलधारा। लगता किसी कच्ची छत-सा टपकता आकाश हमारे साथ-साथ चला आ रहा है।

हमारा डिब्बा अधिकांशतः बंगाली-असमिया यात्रियों से ही भरा था, इसी से गाड़ी के चलते ही, उन अपरिचित आंखों की उत्सुकता सहज प्रश्नों से हमें कोंचने लगी- ‘अजी यह कौन-सी बोली बोल रही हो तुम लोग? हाय मां, पहाड़ी हो? ओह, बोलपुर में रविठाकुर के स्कूल में पढ़ती हो, इसी से। वहां तो सुना, साहब-मेम लोग भी एकदम साफ बीरभूमी बंगला बोल लेते हैं।’

कभी उनका व्यर्थ कौतूहल मुझे बेहद झूंझला देता, कितना अच्छा लग रहा था प्रकृति का यह पल-पल बदलता रूप। पर सहयात्रियों को प्रश्न पूछे बिना चैन कहां था! वैसे भी, उत्तर मेरी दो बहनें ही दे रही थी, मैं बड़ी अशिष्टता से बाहर ही सिर निकाले देखती जा रही थी कि इंजन ने एक लम्बी सीटी बजाकर निकट आ रहे किसी बड़े स्टेशन की पूर्वसूचना दी। वह स्टेशन निश्चय ही बड़ा था, क्योंकि रंगीन लाल-हरी बत्तियों की जगमगाहट में बार-बार मिलती, विंलग होती पटरियों का जाल विस्तृत होता, सिकुड़ता एक विराट प्लैटफार्म पर सिमट गया। गाड़ी रुकी, तो संध्या प्रगल्भ हो चुकी थी।

कभी-कभी सोचती हूं, जो आनंद आज से बीस-पच्चीस वर्ष पूर्व, रेलगाड़ी के किसी बड़े स्टेशन पर रुकने में आता था, वह अब क्यों नहीं आता? क्या हम यात्री ही बदल गए हैं, या स्टेशन की बहुरंगी भीड़? मुझे तो Aआज के इंजन की सीटी में भी वैसी टीस नहीं सुनाई देती, अब उसमें किसी तरुणी बाईजी के ताजे कठस्वर की मीठी गूंज नहीं रह गयी है। डीजल इंजन का भोंथरा गला तो अब किसी गत यौवन वारवनिता के बैठे गले-सा ही डकार उठता है।

उस दिन इंजन की बड़ी मीठी गूंज के साथ ही गाड़ी रुकी। स्टेशन का आनंद मेला मुग्ध नयनों से निहारती मैं स्वयं झकझोरे खाती चली ही थी कि वह आकर सहसा मेरे पास बैठ गयी। एकदम कृशोदरी, सुललिता पतली नाक, बहुत बड़ी आंखें और ओंठों की ऐसी विचित्र गढ़न न मैंने पहले कभी देखी थी, न शायद कभी देखूंगी। नीचे का ओंठ मोटा, ऊपर का धनुषाकार मुड़ा एकदम पतला ठीक जेसे किसी छोटे मुंह की शीशी पर भूल से बड़ा ढकना लग गया हो बराबर यही लगता कि हंसती जा रही है। वह भी ऐसी हंसी कि जितनी ही बार देखो, उतनी ही बार कलेजा हिम!

‘चलो भाई, गाड़ी तो पकड़ ही ली, अब तुम सुनाओं क्या हाल हैं, कब आयी?’ उसने ऐसी आत्मीयता से मेरा हाथ पकड़ लिया कि मैं भय से सहमकर उठने लगी।

‘अरी, बैठ भी।’ वह फिर हंसी और जोर से हाथ खींचकर मुझे ऐसे बैठा दिया कि मैं उसकी गोद ही में गिर पड़ी। ‘कैसे नखरे दिखा रही है, जैसे पहचानती ही न हो! की लो सई, आमि जे बनलता।’ (अरी सखी, यह तो मैं हूं बनलता।)

मैंने भयविह्वल दृष्टि से तीसरी सीट पर बैठी अपनी दोनों बहनों को देखा अपनी ही बचकानी जिद से तो मैं उनसे दूर उस खिड़की के लोभ से उधर जा बैठी थी। पर तब मैं क्या जानती थी कि यह खूखार सिंहनी आकर मुझे ऐसे दबोच लगी। वहीं से बड़ी बहन ने मुझे आंखों से इशारा किया- बैठ जा, देखती नहीं पागल है?

गाड़ी पूरे वेग से भाग रही थी और मेरा हाथ, उसी पगली की वज्र-मुष्टिका में बंद था। उसके दुबले-पतले हाथ क्या लौह-दंड से कुछ कम थे? लग रहा था, थोड़ी ही देर में मेरी उंगलियों को मसलकर हलुआ बना देगी। पास ही बैठे एक वृद्ध सज्जन को, शायद मेरा सफेद चेहरा देखकर दया आ गया। झपटकर उन्होंने कहा- ‘क्यों परेशान कर रही है उसे! छोड़ उसका हाथ… जाओ मां, अपनी बहनों के पास जाकर बैठो।’

‘अच्छा बूढ़े, मौत आयी है क्या तेरी…?’ अपने हाथ की पोटली नीचे पटकर वह जंगली बिल्ली-सी उछली और छत पर लगी खूंटी पर चमगादड़-सी लटक गयी। फिर तो कुछ पलों को, मैं ही नहीं पूरे डिब्बे के यात्री सहमकर जहां के तहां चिपके रह गये। लगता था, सचमुच कोई कामरूप की मायाविनी डाकिनी हमारे डिब्बे में घुस पड़ी है। वह एक बार फिर उछली और डिब्बे में इधर-उधर लगी खूंटियों पर झूलती हुई, शाखामृगी की तरह घूमने लगी। किसी प्राचीन मंदिर की भित्तियों पर अंकित त्रिकोणधारी यक्षिणी

की मूर्ति-सी बनलता ने फिर सबको सहमा दिया। खूंटी पकड़ते ही वह गोल-गोल घूमने लगती और उसके घूमने में भी तेजी से चक्कर काट रहे लट्टू की ही सनसनाहट आ जाती।

तभी हम कांपते यात्रियों ने बजरबट्टू सी घूम रही उस रहस्यमयी की, काठ के लट्टू से एक और समानता पकड़ ली। उसकी एक टांग लकड़ी की थी। सूत के डोरे से बांधकर, कौशलपूर्ण तीव्रता से छोड़ा गया लकड़ी का रंगीन लट्टू जैसे सर करता अपनी पतली नोक पर नाचने लगता है, वैसे ही खूंटी पकड़ गोल-गोल चक्कर खाती वह अपनी लकड़ी की टांग को तेजी से नचाती, कलेजा दहला देने वाला अट्टहास करती हुई चीख उठती- ‘ओई लो, आमि जे बनलता।’

गोल-गोल घूमकर स्थिर होते ही, उसने अपनी उसी लकड़ी की टांग का शब्दवेधी बाण मारा था, उस वृद्ध सज्जन की पीठ पर। उस अचानक आ पड़े पद-प्रहार से बेचारे तिलमिला उठे थे।

‘ले बूढ़े और मुंह लेगेगा? जानता है मैं कौन हूँ? बनलता सुंदरी! अरे, चार-चार छोकरों ने आत्महत्या की है बनलता के लिए।’

‘ओह कहां से घुस आयी डिब्बे में यह, पगली! घेरून तो मोशाई!’ हमारे एक हृष्ट-पुष्ट सहयात्री महा-उत्तेजित होकर बनलता को पकड़ने बाहें समेटते उठ खड़े हो गये। पर बेंचारे एक कदम बढ़े भी नहीं थे कि बनलता की लकड़ी की टांग ब्रह्मास्त्र बनकर उन्हें धराशायी कर गयी। फिर तो दुबली-पतली, साक्षात रणचंडी बनी बनलता, फटाफट पद-प्रहार करती, उन्मुक्त तांडव-सा कर उठी। हम तीनों बहनों को छोड़, प्रत्येक यात्री उसके काष्ठपद-प्रहार का प्रसाद पा चुका था।

अब परम तृप्ति से वह मुस्कराती, लटकती खतरे की चेन के नीचे खड़ी होकर गाने लगी। कोई चेन खींचने का दुःसाहस करता भी तो कैसे? सहसा संगीत ने उसके क्रोध को साध लिया। गाना भी ऐसा-वैसा नहीं-सधे गले का एकदम पक्का गाना। मीठी ठुमरी के साथ, रेलागाड़ी जैसे दीपचंदी का ठेका लगाता चली जा रही थीः

गोरी तोरे नैन बिन काजर कजरारे।

गाने की प्रत्येक चटपटी पंक्ति के दोने के साथ वह किसी कुशल चाट वाले की भांति मिर्च-मसाले की चुटकियां छोवती जा रही थी, कभी अपने चंचल कटाक्ष से, और कभी नुकीले चिबुक पर धरी तर्जनी से। सहसा वंकिम ग्रीवा के एक सधे झटके के साथ एकाएक ‘फ्यूज’ हो गये बिजली के बल्ब की भांति पल-भर को मुंदी उस आम की फांक-सी बड़ी आंख ने उसके पेशे का परिचय दे दिया।

वृद्ध सज्जन ने घृणा से मुंह फरेकर पच्च से वहीं थूक दिया। लम्बी-सी लपेट साड़ी को अब वह घुटनों तक उठाती वहीं पर ठुमक रही थी। नाचते-नाचते वह धीरे-धीरे मेरी दोनों बहनों की ओर बढ़ी, और धप्प-से उन्हें खिसकाती, बीच में बैठ गयी।

अब आरम्भ हुआ उसका धाराप्रवाह अंग्रेज़ी भाषण। क्षण-भर पूर्व जिसके अश्लील कटाक्ष मदालस हंसी और पल-भर को मुंदी आंख का घिनौना आमंत्रण यात्रियों के संस्कारी चित्त को घृणा से भर गया था, वे ही यात्री उसकी शुद्ध अंग्रेज़ी सुनकर आंखें फाड़-फाड़कर प्रशंसा से उसे देखने लगे थे। देश तब भाषा भी सुनने वालों को अपने वशीकरण मंत्र से बांध लेती थी।

‘अरे!’ वह कह रही थी- ‘चौबीस परगना के दौरे पर गया था उस बार कूपर साहब, सात जिलों का हाकिम, ऊंचा अगला गोरा चिट, आंखें ऐसी नीली-हरी जैसे तूतिया! मुझसे बोला- बौनी, इस बार दौरे पर तू भी चलेगी मेरे साथ, मचान पर बैठकर तेरा गाना सुना जायेगा। शेर का शिकार भला तेरे बिना कैसा? मुझे ‘बौनी’ कहता था मुंहझौंसा! कहता था बौनी, तेरी संगमरमर की मूर्ति बनवाकर अपने बाप-दादों के कासल में लगाऊंगा। मूर्ति तो नहीं ले गया, टांग ज़रूर ले गया मेरी।’ एक बार फिर बनलता की भयावह हंसी सबको सहमा गयी।

‘उसी के साथ शेर के शिकार को गयी थी। कहता था, ऐसा शिकार संसार के किसी शिकारी ने आज तक नहीं किया होगा। एक ही गोली से दो शिकार करूंगा आज-उधर आदमखोर शेर, इधर आदमखोर शेरनी। खूब हंसा था मुंहजला! सेर दहाड़ा, उसने गोली चलायी। एक ही में तड़पकर शेर गिरा और कपूर साहब ने खुशी से उछलकर मुझे बाहों में भरा, चरमराकर मचान टूटा। साहब तो डाल पकड़कर लटक गया, पर मैं गिरी धमाक-से। गैंग्रीन हुआ, टांग कटी। होश में आयी तो देखा, टांग ही नहीं फिरंगी प्रेमी भी चला गया है मेरा। लंगड़ी शेरनी अब आदमखोर नहीं रह गयी है। भाई… अब तो बस गाना गाती है वह … ’ अपनी लकड़ी की टांग पर पतली उंगलियों से ठेका देती वह उन दिनों का अत्यंत लोकप्रिय गीता गा-गाकर झूमने लगीः

‘तूमी जे गियाछो बकुल बिछान पथे।’

लकड़ी की टांग पर ताल देती लम्बी उंगलियां उन बड़ी मदालस अमानवीय आंखों की शुधातुरा सिंहनी की-सी दृष्टि, और हवा में उड़ रहे घने काले केश! गीत की दूसरी पंक्ति बार-बार दुहराती वह न जाने क्यों मेरी ही ओर देखकर ऐसे मुस्करा रही थी, जैसे प्रश्न पूछ रही हो- ‘आमि शे की हाय फेले जावा माला?’ (हाय, मैं क्या फेंकी गयी माला ही हूं?)

इतने वर्ष बीत गये हैं, न जाने कितनी रेलगाड़ीयों में चढ़ी हूं, कितनों से उतरी हूं, किंतु असम के गहन अरण्य को चीरती उस रेलगाड़ी में बैठकर गाती उस रहस्यमयी स्वरलय-नटिनी के उस टीस-भरे गीत की प्रश्न-ढ़ुखर पंक्ति आज भी मेरे जीवन की सबसे गहरी याद बनकर रह गयी है। कभी-कभी लगता है, वह लकड़ी की टांग पर ताल देती, गा-गाकर मुझसे अब भी पूछ रही है- ‘आमि शे की हाय फेले जावा माला?’

(मार्च 1971)

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