आम के पेड़ तले (मलयालम कहानी) : तकषी शिवशंकर पिल्लै

Aam Ke Ped Tale (Malayalam Story in Hindi) : Thakazhi Sivasankara Pillai

“नहिं कोई पवनवा है पवनवा!

नहिं चण्ड पवनवा भी पवनवा!

मावेली टीले के पवनवा रे आ...आ...,

समन्दरवा रे आ...आ...आ...

झटकाके अमवा रे गिरा दे इक..."

एक झोंका आया। कलमी आम की गगनचुम्बी डालों में आम के गुच्छे झूल उठे।

उनकी उमंग बढ़ गयी। वे एक साथ गा उठे-

'पवनवा रे आ...

समन्दरवा रे आ...'

हवा और तेज चलने लगी। पत्तियों से भिड़-सटकर जाने कोई चीज नीचे गिरी। गीत यकायक रुक गया। आम के तले क्षण भर के लिए कोलाहल मच गया। नीचे गिरी चीज एक छोटी लड़की ने उठा ली। और एक भारी ठहाका। वह ओतलम का फल था, एक विषैला फल। लड़की खिसिया गयी। उसने उसे दूर फेंक दिया। सिर मटकाकर हँसता हुआ एक छोकरा प्रकट हुआ। सब ठठाकर हँस पड़े। बेचारी लड़की रो उठी।

उस शरारती लड़के का नाम था बालकृष्ण। उसने थोड़ी दूर खड़े अमरूद के एक पेड़ पर चढ़कर उसकी डाल से लटकाये गये नारियल-पत्ते के थैले से एक आम लेकर उस लड़की के आगे फेंक दिया।

एक क्षण वह हिचकती खड़ी रही। फिर जैसे ही वह झुकी, तब तक एक दूसरे ही लड़के ने उस आम को उठा लिया। और फिर एक जोरदार ठहाका।

गौरी और नारायण कंकड़-पत्थर चुनकर जूस-ताक खेल रहे थे। नाणी और गोविन्द रसोई का खेल रच रहे थे। नीलकण्ठ और राम गुठली दादा की अन्त्येष्टि का खेल कर रहे थे। सूखी डालियों की बनी पालकी में आम की एक गुठली रखकर आम के पेड़ की परिक्रमा करते हुए वे गा रहे थे-

“गुठली दादा मरि गयो रे हाय! हाय!

हो गयो रे सोरही का असनान,

(सोरही=मृत्यु के सोलहवें दिन किया जाने वाला कर्म।)

सोरही पूरने को आम दे...इक आम दे...”

ऊपर एक कौवा काँव-काँव कर गया। बच्चों का खेल रुक गया। अमरूद पर बैठे लड़के धरती पर कूद पड़े।

“वह बच्चू कौवा है।"

“नहीं, माँ कौवा है।"

“चुप रह, कौवा उड़ जाएगा।"

सब ऊपर की ओर देखते खड़े रहे।

खिसियायी-सी वह लड़की कुछ दूर हटकर खड़ी हुई थी। उसका नाम था पाप्पी। उसके चेहरे की रुखाई अब भी दूर नहीं हुई थी।

एक आम गिरा। वह बालो को मिला। आम की ढेपी नोच उसे ऊपर फेंकता हुआ वह गा उठा-

“यह ढेंपी लेकर

बदल-ढेंपी आम1

(1वह आम जो ऊपर फेंकी गयी ढेपी के बदले मिलता है। बच्चों का विश्वास है कि टेंपी ऊपर फेंकने पर अगला आम जल्दी मिल जाएगा।)

पाप्पी को दे दे!.... "

साधारणतया बच्चे 'मुझे दे दे' कहते हैं। उसे बदलकर बालो ने अपनी शरारत का प्रायश्चित्त किया। बदल-ढेंपी आम पाप्पी को मिल भी गया।

साँझ धुंधला आने पर बच्चे आम के पेड़ तले से चले गये। बालो और पाप्पी भी एक-दूसरे के हाथ में हाथ डाले घर चल दिये। बालो के दूसरे हाथ का थैला आमों से भरा हुआ था। लेकिन पाप्पी को उस दिन कोई और आम नहीं मिला था।

बालो और पाप्पी पड़ोसी थे। बालो के घर के ठीक पिछवाड़े में था पाप्पी का घर।

अगली विजया दशमी से दोनों लिखने-पढ़ने जाने लगे। दोनों साथ-साथ किट्ट आशान्2 की कुटी-पल्ली3 जाते और साथ-साथ घर लौटते। लिखने के ताड़पत्र पर मलने के लिए वे एक-दूसरे को भंगरैया देते। बालो मन्दिर के तालाब पर जाता और कमल तोड़कर पाप्पी को दिया करता।

(2. गुरु। 3. वह पाठशाला जहाँ बच्चे धूल में लिखकर वर्णमाला सीख लेते हैं)

पाप्पी पढ़ने में होशियार नहीं थी। उसकी अकसर पिटाई होती रहती। वह कुछ नहीं जानती, न ही कुछ समझ पाती। मगर एक बात में वह बालो को हरा देती :

“उस पार खड़ी तुंचाणी1,

(1. नारियल के पत्ते का अग्रभाग।)

इस पार खड़ी तुंचाणी,

टकरा लेती तुंचाणी-बोल, बालो, बोल!"

बालो वह पहेली बुझा नहीं पाता। वह कहता, “नारियल।"

"नहीं, नहीं। एक कटम2।" वह जीतकर तालियाँ बजा-बजा हँसने लगती। “तो तू ही बता दे!"

(2. पहेली न बुझा पाने पर होने वाला जुर्माना।)

“पलकें। अब हो गये कुल चार कटम।"

वे परस्पर मारते-पीटते। बालो पाप्पी को छीलता-खरोंचता। पाप्पी रोती हुई अँगूठा दिखाती-

“अब मैं तुझसे नहीं बोलूंगी।"

पाप्पी कुलीन परिवार की थी। वह कहती, “तुम्हारे यहाँ हम नहीं खाते!"

बालो भी एक बात पर गर्व कर सकता था, “मैं अंग्रेजी सीखूँगा।"

छह महीने की पढ़ाई के बाद पाप्पी की पढ़ाई बन्द हो गयी। उसके मामा ने बताया, “वह अब नहीं पढ़ेगी। औरत जात ज्यादा पढ़ेगी तो जवाब-तलबी करने लग जाएगी।"

बालो अगले महीने एक प्राइमरी स्कूल में भर्ती हो गया। सिलेट और किताबें लिये, छोटी धोती बाँधे वह स्कूल जाया करता। पाप्पी देखती खड़ी रहती। एक दिन उसने पूछा-

"बालो, मास्टर पीटता भी है?"

"न पढ़ता तो पीटते।"

आम फलने पर पाप्पी बालो के लिए आम चुन-चुनकर रख लेती और शाम को जब वह आता ता उसे दे देती।

पाप्पी को घर में जाने कितने काम करने पड़ते थे। चूल्हा जलाना, गोबर हटाकर गोठ साफ करना, बर्तन मलना और भी जाने क्या-क्या...उसे खेलने-कूदने को वक्त ही नहीं मिलता था।

प्राइमरी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद बालो का चार मील दूर के एक अंग्रेजी स्कूल में दाखिला हो गया। उसे कुर्ता-धोती पहने अपने बाप के साथ अम्पलप्पुषा को जाते, पाप्पी पत्थर की बुत-सी खड़ी देखती रहती।

“बालो, तू अब कब आएगा?” उसने पूछा।

“शुक्रवार को आऊँगा।"

पाप्पी बिसुर गयी। वह अम्पलप्पुषा में रहने जा रहा है! उस छोटी-सी लड़की का दिल बैठ गया। अगले शुक्रवार की शाम बालो लौट आया। पाप्पी ने उसे झोली-भर आम दिये।

उस साल दक्खिन-पछाँही बरसात भीषण थी। भारी वर्षा हुई। बड़ी बाढ़ आयी। डेढ़ महीने तक बालो नहीं आया। हर शुक्रवार पाप्पी बालो का इन्तजार करती रही, मगर वह नहीं आया।

पानी उतर जाने पर बालो घर लौटा। उसके साथ एक दूसरा लड़का भी था। शनिवार को भी बालो की पाप्पी से भेंट नहीं हुई। पाप्पी को तो उसके घर जाने का मौका ही नहीं मिला। इतवार को वह बालो के यहाँ गयी। बालो और उसका साथी अंग्रेज़ी पढ़ रहे थे।

मिडिल स्कूल की चार साल की पढ़ाई पूरी कर बालो हाईस्कूल में भर्ती हो गया। अगले ओणम की छुट्टियों में वह घर आया। पाप्पी ने देखा-कुली से एक बक्स उठवाये कोई बना-ठना युवक पुरबी घर की ओर जा रहा है। चुटकी भर जीरा उधार माँगने के बहाने वह वहाँ जा पहुँची। वह बालो था। क्षण-भर के लिए पाप्पी उसे पहचान न पायी।

बालो ने चोटी कटवाकर बाल बनवा लिये थे। चेहरे पर दो-तीन मुँहासे उग आये थे। आवाज बदल गयी थी। पैरों में जूते थे और हाथ में छाता। बक्स में तरह-तरह का सामान। बालो की मुसकान भी खास किस्म की थी।

“माँ, भूख लगी है।” कहता हुआ बालो रसोई में पहुंचा। पाप्पी वहाँ खड़ी थी। वह घुटनों तक लटकने वाली छोटी धोती पहने थी।

“क्या हाल है, पाप्पी?” बालो ने पूछा। वह चुप रही।

छुट्टियाँ बीत गयीं। बालो के अम्पलप्पुषा लौट जाने का वक्त हो गया। बक्स उठवाये वह रवाना हुआ। कलमी आम तले से जाते उसे लगा कि कोई पुकार रहा है। वह रुक गया। गन्धर्व मन्दिर के सामने पाप्पी खड़ी थी। उसने पूछा-

"बालो, तुम जा रहे हो?"

"हाँ।"

वह बढ़ता चला गया। बालो के भीतर कोई कोमल भाव फुदक उठा। जाने क्या था? उस पुकार में अवर्णनीय कुछ निहित था। अनाहत जैसा।

अगली गर्मी की छुट्टियों में बालो फिर घर आया। दो-तीन दिन ही वह घर पर रहा फिर वह बहिन से मिलने के लिए उत्तरी परावूर चला गया।

बालो हाईस्कूल की अन्तिम से पहले की कक्षा में पढ़ रहा था। इस बार जब वह गर्मी की छुट्टियों में घर आया, वह सत्रह साल का हो गया था।

उस साल आम की जितनी अधिक पैदावार हुई, उतनी हाल में कभी नहीं हुई थी। शहर से लौटा बालो बनियान पहने शाम को बढ़े कलमी आम के तले टहलने जाने लगा। वहाँ वह पुराना गीत बच्चे आज भी गा रहे थे-

पवनवा रे आ!...

समन्दरवा रे आ!....

गुठली दादा के नये उत्तराधिकारी हो गये थे। उन बच्चों के साथ आज भी आम गिरने पर पाप्पी होड़ लगाती। आम के तले से कुछ दूर बालो वह सुखद दृश्य देखता खड़ा रहता। पाप्पी आज भी एक बच्ची है! आम मिलता तो वह ढेपी नोचकर ऊपर को फेंककर गाने लगती-

“ले ले यह टेंपी तू;

दे दे बदल-ढेंपी मुझको।”

एक दिन साँझ को बालो कलमी आम के तले टहल रहा था। सभी बच्चे जा चुके थे। तभी एक झोंका आया। जाने कहाँ से पाप्पी भी वहाँ प्रकट हो गयी। तभी एक आम गिरा। वह उसने उठा लिया।

“पाप्पी, वह आम मुझे दोगी? देखूँ तो!"

पाप्पी ने आम दे दिया।

“पाप्पी को बहुत सारे आम मिल जाते होंगे?"

"मैं वह सब पुरबी घर में दे आती हूँ।"

"हाँ, आज मैंने आम की खिचड़ी खायी। वह पाप्पी के आम से बनी थी!"

"जिस दिन तुम आये उस दिन मैंने डेढ़ सौ दिये थे। माँ ने बताया था कि बालो दस तारीख को आएगा।"

पाप्पी बालो को देखती खड़ी रही।

ये छुट्टियाँ भी बीत गयीं। हाईस्कूल की अन्तिम कक्षा का छात्र था बालो। वह छात्रवृत्ति पाने के इरादे से पढ़ रहा था। इस बार ओणम और बड़े दिन की छुट्टियों में वह घर नहीं आया। मैट्रिक का इम्तहान देने के बाद ही वह घर आ सका।

कलमी आम के तले साँझ को वे पहले जैसे फिर मिले। पाप्पी ने नहाकर अपने बाल खोल जूड़ी बाँध रखी थी। वह सफेद चित्तीदार धोती पहने थी। बालो ने उसे एक बार गौर से देखा। पाप्पी उस दिन पहली बार बालो के सामने जरा चौंक-सी गयी। हवा चल रही थी, मानो गन्धर्व मन्दिर की साँस हो। सर्पवनी में मर्मर फूटा। पाप्पी का सिर झुक चला। नारी के चेहरे को आकर्षक बनानेवाली लज्जा की एक झलक-एक भासमान मुस्कान-उसके चेहरे पर खिल उठी। बालो दो कदम आगे बढ़ गया। पाप्पी की बाँहें छाती पर गुणन का चिह्न बनाये हुए थीं। अठारह साल की हो गयी थी वह।

बालो ने धीरे से उसका हाथ पकड़कर थोड़ा दबा दिया। पाप्पी ने सिर उठाया। आँखें चार हो गयीं। दूसरे क्षण बालो की पकड़ ढीली हो गयी। पाप्पी भाग गयी।

अगले दिन से वह आम के तले नहीं आयी। उसने माँ पर जोर डाला कि उसे एक रौका1 सिला दे। बालो को देखते ही पाप्पी भाग खड़ी होती।

(1. स्त्रियों का एक छोटा पहनावा जो छाती पर पहना जाता है।)

बालो मैट्रिक पास हो गया। वह तिरुवनन्तपुरम् पहुँचकर इण्टर में भर्ती हो गया। उसकी दुनिया और भी बड़ी हो गयी। सुसभ्य मित्रों और नागर-नारियों से रमणीय बने उस जीवन में अतीत की स्मृतियाँ दफना दी गयीं। उस साल गर्मी की छुट्टियों में उसने मद्रास के कुछ मित्रों के साथ सारे दक्षिण की सैर की। अगले ओणम को जब वह घर आया तो चार-पाँच मित्र भी उसके साथ थे। खुले खेत में टहलने के लिए बालो जब मित्रों को साथ लेकर निकला तो उसने देखा कि चित्तीदार रौका पहने पाप्पी कलमी आम के तले खड़ी है।

चार साल बाद बालो बी. ए. की परीक्षा पास हो गया। तिरुवनन्तपुरम् के एक अवकाशप्राप्त उच्च पदाधिकारी की बेटी से उसकी शादी हो गयी। लौटे बरातियों ने बहू के सौन्दर्य की खूब प्रशंसा की।

एक दिन बालो पत्नी के साथ घर आया। पत्नी को घर पर छोड़कर वह विलायत जाने वाला था।

वह नागरिक स्त्री शाम को कलमी आम के तले हवा खाने आती। कुंकुम की आभावाले पश्चिमी आसमान के भी पार के देश में गये हुए थे उसके पति। जाते वक्त उन्होंने तरह-तरह की कसमें खायी थीं, फिर भी उसका अन्तर्मन हमेशा बेचैन रहता था। मेमों की मुसकान बड़ी ही आकर्षक होती है और वही उनको लाड़ली बनाती है-ऐसा वे कहा करते थे। लन्दन के आनन्दमय जीवन के बीच तिरुवनन्तपुरम् की एक नासमझ औरत के सामने खायी गयी कसमें क्या बिसर न जाएँगी? पढ़ी-लिखी नहीं, रसीली नहीं, पति को एक बार भी आकर्षित नहीं कर सकी। उसने सब कुछ भगवान् पर छोड़ दिया। वे ही सबके आश्रय हैं, वे उसका मामूलीपन दूर करें।

उसकी भेजी सारी चिट्ठियाँ आँसुओं से लिखी हुई है कसमें भूल न जाइए", वह लिखती। “मेरी आशंकाओं पर कुढ़िए मत। में एक नासमझ औरत हूँ। आपको उपदेश देने का अधिकार मुझे नहीं है। मैं हमेशा आपकी तरक्की की मनौतियाँ करती रहती हूँ।" और वह प्रियतम का लाड़-प्यार याद करती। उनकी वे भौहें, उनका वह रूप उसके अन्तर्मन में झलक जाता। वे उसके निजी हैं, पूरे के पूरे।

वह विचारों में डूबी खड़ी थी। उसकी आँखों में आँसू भर आये थे। थोड़ी दूर पाप्पी उसे कुतूहल भरी आँखों से देखती खड़ी थी। उसके गहने, धरती को छूनेवाली धोती-सब वह ध्यान से देख रही थी। वह एक देवी है-पाप्पी को लगा।

पाप्पी ने धीरे से उसके पास जाकर पूछा, “रो क्यों रही है?"

तिरुवनन्तपुरम् वाली ने पाप्पी पर एक बार उपेक्षा भरी निगाह डाली, बस।

चार साल बीत गये। बालो लौट आया। उसकी नियुक्ति उच्च न्यायालय में जज के पद पर हुई।

वह गाँव गरिमामय हो उठा। उसे एक महान जज की जन्मभूमि बनने का सौभाग्य मिला। अम्पलप्पुषा से तिरुवल्ला जाने वाली सड़क वहाँ से होकर जाती है। आज वहाँ एक अंग्रेजी मिडिल स्कूल है और हैं कयर1 के दो कारखाने।

(1. नारियल की रस्सी।)

कलमी आम के तले आज भी बच्चे इकट्ठे होते और गाया करते हैं-

“पवनवा रे आ...

समन्दरवा रे आ..."

ना मालूम इसका महाकवि कौन है। दादे-दादियाँ बीच में कभी-घटनाओं से भरी जवानी में-वे पंक्तियाँ भूल गये थे। वे भी आज उन पंक्तियों को याद करते हैं। मगर वे भी नहीं बता पाते कि उन पंक्तियों का कवि कौन है।

गन्धर्व मन्दिर ढहकर मलवा बन गया है। कलमी आम के फल हरे के फल के बराबर छोटे हो गये हैं। बच्चे एक ही वक्त एक साथ दो आम मुँह में डाल लेते हैं।

उस दिन शाम को वहाँ की सड़क पर एक कार आकर रुकी। कार से लगभग पचास साल की उम्र के एक सज्जन उतरे। उनके बाल पूरे पक चुके थे। वह बालो था।

जज महोदय के पीछे गाँव के लोग आदरपूर्वक हो लिये। उनसे कुशल-क्षेम पूछते हुए वह आम के पेड़ की ओर चल रहे थे।

उस पुराने कलमी आम के पेड़ ने एक फल देकर उनका स्वागत किया। उनके ठीक सामने गिरा था एक आम।

उसे उठाने के लिए कुछ बच्चे उस पर झपटने ही वाले थे, मगर तब तक जज महोदय ने उसे उठा लिया था। आम हाथ में लिये उन्होंने ऊपर देखा। हवा के झोंके में आम के गुच्छे झूल रहे थे।

"बालो!"

यन्त्रों के भोंपुओं की आवाजों से मुखरित लन्दन, प्रेममयी पत्नी की मीठी हँसी से उल्लसित घर, गरिमामय न्यायपीठ-घटनाओं से भरे जीवन के बीच से आनन्दपूर्ण बचपन का सन्देश जज के कानों में लहरा उठा। उन्होंने मुड़कर देखा।

झुर्रियों से भरे चमड़े में लिपटे कंकाल-सी एक आकृति उनको देख मन जुड़ा कर हँस रही थी। पोपले मुँह में एक भी दाँत नहीं। जज ने ध्यान से देखा।

बच्चे गा रहे थे-

'नहिं कोई पवनवा है पवनवा!

नहिं चण्ड पवनवा भी पवनवा!

मावेली टीले के पवनवा रे आ...आ...

समन्दरवा रे आ...आ...आ...

झटका के अमवा रे गिरा दे इक...'

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