आखिरी बात : ताराशंकर बंद्योपाध्याय

Aakhiri Baat : Tarashankar Bandyopadhyay

लाट भरतपुर, परगना पूर्वी चौक, बड़ी भारी जायदाद है। पेड़ की पत्तियां डगरे की तरह, उसकी डालें सूप की तरह चौड़ी और मिट्टी तो मानो घिसे चंदन की तरह मुलायम -- शरीर पर मली जाय तो शरीर सुख से भर जाता है। फसल के बीज डालने भर की देर है-आंख झपकते ही खेत फसल से लहलहा उठते हैं । इसके अलावा भरतपुर में क्या नहीं मिलता ? "सोने की जायदाद" यह सिर्फ कोई कोरी बोली नहीं है। पहले तो लोग नदी किनारे रेत से सोने के कण खोज भी निकालते थे । सच में यहां मिट्टी के तले सोना है।

प्रजा तो सब की सब बेवकूफ है । खेती कर पेट भर लेती है। मार खाकर हंसती रहती है। कहती है, "तुम क्या हमारे पराए हो?" पहनावे के नाम पर घुटनों तक छोटी घोती, माथे पर चंदन का तिलक, गले में तुलसी की कंठी, सांवला रंग, इन्हीं सब चीजों से उनकी बेवकूफी सिद्ध हो जाती है । खेती-बाड़ी करती है। मात्र किसान जो ठहरे।

जमींदार की तरफ के लोग-बाग कहा करते हैं-किसान पहले खाता पीता था, खेती किया करता था, तम्बाकू का कश खींचता, पूजा पाठ भी कर लिया करता और सोता था। पर अब वह युग नहीं रहा। कलियुग के चारों पहर पूरे हो चुके हैं। उसी का तो फल है कि इन दिनों उसे अधपेट खाना जुटता है, बीमारी में हांफता है, किसी तरह खेती करता है, कोई-कोई भगवान को बुलाता है, कोई-कोई तो वो भी नहीं। यानि कि कोई रोता है, कोई वैठे बैठे दांत भींचता है।

इन दिनों पद्मा पार के साहू लोग भरतपुर के जमींदार हैं। पहले यहां मंगलकोट के मियां लोगों की जमींदारी थी। साहू लोग उन दिनों यहां व्यापार करने के लिए आये थे। मियां के खानदान में जब घरेलू झगड़ा लगा तब उनके एक रिश्तेदार ने साहू लोगों से कुछ उधार लिया था। जब उधार हजार गुना बढ़ता जाता है तब बचना मुश्किल हो जाता है । उस पर किसान प्रजा के जो मुखिया थे, उनमें से करीब सभी ने साहू की तरफ ही गवाही दी।

खैर, इन बातों को छोड़ दिया जाय । लेकिन एक बात है । अब तो वे लोग अपने ही गाल पर...। इस बात को भी यहीं छोड़ दिया जाय । पुरानी चीजों को निचोड़ने से कोई फायदा नहीं है । खुल कर कहने पर पोथी बढ़ती जायेगी। सीधे हाल की बात को कहना ही ठीक रहेगा-कि इन दिनों पद्मा पार के साह लोग आज भरतपुर के जमींदार थे। भरतपुर के गांव के कचहरी, कचहरी में नाएब, बड़ी कचहरी में बड़े नाएब । अपने देश पद्मा पार से लठेतों का दल लाकर साहू लोगों ने यहां पर अपना पक्का इंतजाम कर लिया था। इसके अलावा साहू खानदान के कई रिश्तेदारों ने यहां दुकानें वगैरह खोलकर अच्छा खासा व्यापार फैला रखा था। कइयों ने कल-कारखाने भी बैठा लिए थे। यहां के कुछ लोग अब कारखाने में मजदूरी करते थे। इनमें से भी कोई रोता रहता था और कोई-कोई दांतों तले होंठ दबाता था। खैर, कोई रोए या कोई दांत दबाए-दिन तो बुरे भले ही कट ही रहे थे । कभी जमींदार के कर्मचारियों के साथ पेड़ों की मिल्कियत को लेकर झगड़ा-फसाद, तो कभी जमीन पर दखल पर आपत्ति, तो कभी सिपाहियों की खुराकी- इन सबको लेकर, तो फिर कभी साहू-बनियों से नमक की कीमत, तेल की कीमत, कपड़े की कीमत पर नोकझोंक, कल कारखाने की मजदूरी को लेकर झगड़ा-फसाद, बाता-बाती, झूठझमेले के बीच दिन एक तरह से कट ही रहे थे। कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधे सींगों को हिला हिलाकर एक ही तरह से चक्कर लगा लगाकर सबों का गुजारा हो ही रहा था। तेल तो निकल ही रहा था । साहू तेल ले लेते और जो बचता, वह बैल खाते ।

पर अचानक ही भूकंप में हिलने की तरह सब कुछ एकाएक ही हिल गया । एक भयंकर कांड हो गया। साहू जमींदारों के साथ हल्दीबाड़ी के सांई जमींदारों की, जमीन की सीमा को लेकर फौजदारी का मुकदमा लग गया। बेमौके फौजदारी । न कोई बात, न चीत । कोई नोटिस नहीं, न कोई पत्री। सांइयों के लठतों ने एकाएक जंगल झाड़ी को तहस-नहस कर, लाठी, गंडासे बल्लम लेकर भरतपुर के पास ही लाट-लाट धर्मपुर पर धावा बोल दिया। कचहरी में घुसकर मार-धाड़ खून-खराबा कर अपना दखल जमा लिया । साहू दल भरतपुर की कचहरी में आया। सांइयों के आदमियों के हाल को देखकर भरतपुर के लिए चिंता की बात हो गई । लाठियों में तेल लगा-लगाकर तलवार में सान चमका कर उन्होंने तैयारी की थी। इसमें किसी को शक की गुंजाइश नहीं थी कि वे भरतपुर में घुस कर हंगामा करेंगे। चारों तरफ हल्ला मच गया। भरतपुर की कचहरी में जोर-शोर से तैयारियां होने लगीं।

किसानों का दल इस सब से चौंक उठा। दोनों के बीच इस लड़ाई में सांड के पैर के नीचे जंगली घास की तरह उनका हाल था। वे चंचल हो उठे।

बूढ़ा लाल मोहन पांडे भरतपुर के किसानों का पंडा था। छोटे-छोटे कुतरे हुए बाल । दांत सभी झड़ गये थे । आहिस्ते-आहिस्ते बात करता था। मीठा-मधुर मुस्कराता था। चिन्ता में पड़ कर बूढ़ा अपने सर पर हाथ फेरता रहा।

भरतपुर लाट के लोगों ने झुंड में आकर बूढ़े को घेर लिया।

बड़े सम्मान से बूढ़े ने हाथ जोड़े। बिना दांत की हंसी हंसकर, जिस तरह मां की गोद में बच्चा हंसता है, वैसी हंसी हंस कर बोला, "आइए पंच ।"

सब बैठ गये। फिर बोले, "एक बात है मालिक ?" बस उसी एक बात में उनका कहना खत्म हो गया । हुजूर भी सब समझ गये ।

बूढ़ा सुख में भी हंसता, दुख में भी हंसता, चिंता में भी हंसता । बूढ़ा सोचते हुए मुस्कराने लगा।

गोरपुर के किसी ने कहा, “साहू लोग हमारी जमीन की मिल्कीयत नहीं मान रहे हैं। फिर हम अपनी सुविधा क्यों छोड़ेंगे ? साहू जमींदार है, सांई भी जमींदार हैं-अगर सांई जमीन पर हमारी मिल्कियत मान लें तो हम उनकी तरफ गवाही क्यों न दें हुजूर ?"

बूढ़े ने सर हिलाकर कहा, "नहीं पाप होगा।"

किसी ने कहा, "तो फिर आओ हम लोग भी मिल-जुलकर फौजदारी ठोंक देते हैं।"

बूढ़े ने सर हिलाया-"ऊं-हूं।"

"-क्यों डर लग रहा है क्या ?" एक छोकरा तुनक कर बोल उठा। बूढ़ा हंसा । उस हंसी के आगे छोकरा दब-सा गया। बूढ़ा हंसकर बोला"डर की कोई बात नहीं है रे । इससे पाप चढ़ेगा।"

"तो ? तो फिर क्या करने के लिए कहते हो? किसमें पाप नहीं होता, यही बताओ?"

"हूं। थोड़ा रुको भाई । मन से पूछु । मन भगवान से पूछेगा तब न ?"

रतन लाल बोला, "जो कुछ भी हो, झटपट तय कर लो मालिक । जो तुम कहोगे मैं वही करूंगा।"

बूढ़ा हंसा । रतन पर बड़ा भरोसा था बूढ़े को। छोकरा बड़ा भला था और उतना ही हिम्मती।

ठुक् ठुक करता बूढ़ा कचहरी में आ पहुंचा-"राम राम नाएब जी।"

"कौन, लाल मोहन ? आओ, आओ।"

"हां, आया सरकार।"

"कमर कस कर सब के सब जुट जाओ। सांई के बच्चों को मार-मार कर उनका भुरता बना देना पड़ेगा। कतार से उड़ा दो सब को।"

बूढ़ा हंसा । "क्या कहते हैं नाएब जी?"

"क्यों ?"

"वही तो । काटने पर तो खून बहेगा । लोग मरेंगे। पाप होगा।" बूढ़े की आंखों से पानी टपकने लगा।

बूढ़े के इस ढोंग से नाएब सर से पैर तक जल-भुन गया। फिर भी बड़े मालिक का आदमी ठहरा । इसलिए गुस्सा पी कर भद्र ढंग से बोला, "हूं। समझता है। उनका खून बहने की बात पर तुम्हारी आंखों में आंसू छलछला रहे हैं । मैं सब समझता हूं।" इतना कहकर उसने खसखसा कर कुछ लिखा। फिर बोला, "और हमारे लठतों का खून हो रहा है । वे जख्मी हो रहे हैं । खून की गंगा बह गयी है, उसका क्या होगा- ?"

बूढ़े के ओंठ थरथरा उठे। आंखों में दुगुने आंसू भर आये। बोला, "हे भगवान । जब से यह बात सुनी, तभी से तो रो रहा हं नाएब बाबू । उफ ! हाय, हाय, हाय ! उन लोगों को कितनी चोट आयी होगी, जरा सोचिए तो। यह चोट मानो मेरी ही छाती में आ लगी है।"

नाएब ने पैनी नजर से बूढ़े की तरफ देखा। सोचने लगा-यह आदमी ढोंगी और पाखंडी है या वाकई में कोई साधु ?

भेड़ के सींग से टकराने पर हीरे की धार भी टूट जाती है, उसी तरह नाएब की इस्पात सी मजबूत तीखी बुद्धि भी बूढ़े की मोटी बुद्धि के दरवाजे पर छेद नहीं कर पा रही थी। काफी देर तक उसकी तरफ देखने के बाद नाएब बोला, "तो फिर ? क्या करना चाहिए यही जरा सुनूँ ?"

"मैं यही तो आपको बताना चाहता हूं।" आंखों में आंसू लिए बूढ़े के ओंठों पर हंसी खिल आयी।

"क्या कह रहे हो?"

"कह रहा हूं, आप लोग जमीन पर हमारी मिल्कीयत को मान लीजिए। फिर सारे चौकीदारों और लठैतों को लेकर अलग हो जाइए फिर देखिए, हम लोग सांइयों को कैसे रोकते हैं।"

"रोक लोगे ? फौजदारी का क्या समझते हो तुम लोग ? खेती करते हो, पेट भरते हो । लाठी पकड़ना भी आता है ? बर्छा चलाना आता है ?"

“बूढ़ा हंस पड़ा।

"हंसता क्यों है ?"

"आपकी बात सुनकर हंस रहा हूं। लाठी-बर्छी तो हम पकड़ते ही नहीं हैं ।"

"तो फिर रोकोगे कैसे ?"

"उनके आने पर हम अपनी पीठ बिछा देंगे । कहेंगे, लो, मारो लाठी। छाती आगे कर देंगे। चलाओ बर्छी हम पर । हमारा खून बहेगा । मिट्टी लाल हो उठेगी। हम मरेंगे । तब उन लोगों को अक्ल आएगी। छाती दुख से टनटनाएगी। आंखों में आंसू भर आएंगे। भगवान उनमें ज्ञान जगाएगा। वे जलाकर लौट जाएंगे।"

नाएब हा-हा कर हंस पड़ा। बोला, "यही है तुम्हारी अक्ल ?"

बूढ़ा ताज्जुब में पड़ गया। वह बिल्कुल भी नहीं सहमा । उसके दंत-विहीन चेहरे पर बचकानी हंसी खिल उठी । बोला, "होता है। ऐसा ही होता है । मेरे मन ने भगवान से पूछा । भगवान सब समझ गये । आप लोगों का दिल भगवान से कुछ नहीं पूछता न । नहीं तो आप भी मेरी बात समझ सकते ।"

जैसा देवता, वैसी ही उसकी देवी। बूढ़े की बूढ़ी मानो सनके की सनकी थी। सारी बात सुनकर वह भी चिंता में पड़ गयी। बूढ़े की तरह उसे भी साहू के नाएब के लिए चिंता हो रही थी। "ए बूढ़े, यह तो बिलकुल ही सीधी सी बात है । क्या मालूम वे लोग समझते क्यों नहीं?"

"यही तो बात है बुढ़िया ।"

"अब क्या होगा? तुम क्या करोगे?"

"मैं ?" बहुत सोचकर बूढ़ा बोला । "हां बात कुछ तो बनी है।"

"क्या?"

"मैं मरूंगा।"

"मरोगे?"

"हां, मैं मरूंगा। अगर मैं मर गया तब उन लोगों के मन में दुख होगा। . भगवान उन्हें अकल देंगे । तब हमारी बात वे ठीक-ठीक समझ पाएंगे?"

बूढ़ी थोड़ी देर तक सोचती रही। सोचकर खुश हो उठी। हंसकर सिर हिलाकर बोली-“तुम ठीक कह रहे हो।"

"ठीक कह रहा हूं न?" बूढ़े ने हंसकर बुढ़िया की तरफ देखा।

"हां, तुम ऐसा ही करो । मरो । मर कर उन लोगों को समझा दो।"

बाहर से रतनलाल ने पुकारा-चाचा"

"आ बेटा आ।" बूढ़े लाल मोहन का चेहरा खुशी से भर गया।

रतन लाल हंसता हुआ आकर खड़ा हुआ। बोला, "सब लोग बाहर खड़े हैं चाचा । क्या तय हुआ? क्या करना पड़ेगा, बताओ?" रतन मानो आग की लौ की तरह झुलस रहा था।

बूढ़ा बाहर आकर हाथ जोड़कर बोला, "नमः पंचो।"

पर हंगामा उससे पहले ही हो गया। साहू बाबुओं के लठतों, सिपाहियों, सब ने आ घेरा । साहू बाबुओं का सदर-नाएब चारुशील बड़ा जबर्दस्त आदमी था। वो किसी की परवाह नहीं करता था। उसने यहां के नाएब को हुक्म दिया, "उस पागल को पकड़ कर रखो। सिर्फ उस पागल को ही नहीं, रतन लाल, टतन लाल तथा उसके तमाम चेलों-चामुडों को बिलकुल रोक कर रखो।"

बूढ़ा हंस कर बोला, "चलो।" फिर रतनलाल तथा बाकी चेलों की तरफ देखकर बोला, "चलो बेटे।"

बुढ़िया मुंह फाड़ कर हंसकर बोली, "और मैं ?"

साहू का आदमी बोला, "हां, हां, तुम्हारे लिए भी हुक्म हुआ है।"

बुढ़िया बोली, रुको बच्चे । जरा सा सब्र कर बेटा । बूढ़े की कोपीन, अपने कपड़े और यह लौटा तो ले लूं । इस लोटे से पानी न पीऊ तो मेरी प्यास ही नहीं बुझेगी।"

बूढ़ा हंसकर सिर हिलाकर बोला, "कुछ भी हो, औरत है न । लोटे का मोह नहीं छूटता।"

साहू लोगों ने बूढ़े को रोक कर तो रखा, पर आदर से रखा। खातिरदारी में कोई कमी नहीं रखी। बूढ़ा तो आखिर वही बूढ़ा था। बंधनों के बीच भी हंसता रहा । भगवान को पुकारता और सोचता रहता। मन ही मन कहता, "भगवान, मेरे मन को कह दो मैं क्या करूं? मर जाऊँ ? मेरे मरने से ये लोग दुख पाएंगे? तुम इन्हें ज्ञान दो।"

बुढ़िया बंद कमरे के बीच ही घुर घुर कर घूमती फिरती रहती। बूढ़े के लिए खाना बनाती। बिस्तर के नाम पर कंबल को झाड़-झूड़ कर बिछाती, लौटा जगमगाकर मांजकर रखती। उसको यह सब कुछ अच्छा ही लग रहा था। बूढ़े को तो वह अपने पास ही पा रही थी। बाहर बूढ़े को हजार काम रहते । उसे क्षण भर की फुर्सत नहीं होती कि वह बूढ़ी से दो बातें भी कर सके। वह केवल भरतपुरु की बातें करता, नहीं तो लोगों की बातें करता । आज यहां तो कल वहां । हमेशा लोगों से घिरा रहता।

इसके कई दिनों के बाद ही बुढ़िया का भ्रम टूटा । बूढ़ा तो आखिर मैं वही बूढ़ा था न । लोगों की भीड़ नहीं थी। पर बूढ़े के माथे में चिंता की भीड़ कम नहीं थी। लोग बाहर से कहते, "बूढा मानो एक चट्टान है।" बूढ़ी के मन में होता, बात कोई गलत नहीं है।

वह पुकारती, "ओ बूढ़े।"

"-ॐ ।" बूढ़ा बुढ़िया की तरफ देखता। बुढ़िया को लगता, बूढ़ा उसकी तरफ नहीं देख रहा है, उसकी दृष्टि दूर पहाड़ के शिखर पर जो देव मंदिर है, उस मंदिर के शिखर पर उसकी आंखें अटकी हुई हैं।

"क्या सोच रहे हो?"

"सोच रहा हूं?" बूढ़ा हंसता ।

"हंसो मत बूढ़े । तुम्हारी यह हंसी मुझे अच्छी नहीं लगती।"

"हूं।" छोटा-सा एक "हूं" कर बूढ़ा चुप हो जाता।

भय और विस्मय से बुढ़िया अवाक हो जाती। मन ही मन बुदबुदाती, "भगवान । बूढ़े को बचाकर रखो।"

अचानक एक दिन बूढ़ा बोला, "मैं मरूंगा।"

बुढ़िया को लगा जैसे उसकी छाती ही फट जाएगी। पर इस बात को तो मुंह से बोलने का उपाय नहीं था क्योंकि बूढ़ा उस पर हंसकर कहता. "छिः।" बुढ़िया उसी शर्म से मर जाती। वह सिर्फ इतना बोली, "क्यों ? तुम मरोगे क्यों ?"

"मरूंगा । साहू लोगों ने बात फैलायी है कि लोगों से मैंने ही दंगा-फसाद और फौजदारी करने के लिए कहा था। बाहर के लोगों के साथ इन बाबुओं के चौकीदारों और लठैतों की मारपीट हो गयी। हमारे आदमियों ने भी उन लोगों को पीटा है। बहुत नुकसान पहुंचाया है । बाबू लोग कह रहे हैं, यह सब मेरे ही सिखाने पर हुआ है।"

रतनलाल बोला, "इसके लिए तो बाबू के सिपाहियों ने लोगों को बड़ी निर्ममता से पीटा है।"

बूढ़ा सिर हिलाकर हंसा । बोला, "सिर्फ यही बात नहीं है, रतन । हमारे लोगों ने जब मारा, तब भी पाप हुआ। मैं मरूंगा। मर कर भगवान से कहूंगा, भगवान उनके इस पाप को तुम माफ करना। सिर्फ हमारा पाप नहीं, उन लठैतों के पाप को भी तुम क्षमा करना । और...।"

"और क्या चाचा?"

बूढ़ा हंसा । बोला, "तो फिर वे समझ जाएंगे कि मैं पापी नहीं हूं।"

बूढ़ा मरण-प्रण कर बैठा । उसने खाना-पीना छोड़ दिया। चुपचाप पड़ा रहता। बुढ़िया की भी सारी बातें मानों खत्म हो चुकी थीं। वह चुपचाप बैठी बैठी देखती रहती । हाय, उसका बूढ़ा कहीं खो गया था। उसकी तरफ एक बार देखने की भी फुर्सत नहीं थी। रोना तो शर्म की बात थी। बुढ़िया को रोने का भी उपाय नहीं था। दरवाजे के बाहर शोर होने लगा, "भगवान, हमारे मालिक को बचा लो।"

रतनलाल और बाकी सभी चेले उदास हो गये। बुढ़िया और नहीं सह सकी। वह बूढ़े को कुछ कहने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाती। वह भगवान को मन ही मन पुकारती । कहती, "मेरे बूढ़े को बचा लो देवता। इतने सारे लोगों की तरफ देखकर दया करो। मेरी तरफ देखो भगवान ।" बूढ़ी को लगता, भगवान का मन कम से कम बूढ़े के प्रति नरम है।

बुढ़िया को लगा, भगवान मानों हंस रहे हैं।

बूढ़ा सचमुच मरा नहीं । मरण के सारे लक्षण दिखाई पड़े। साहू बाबू लोगों ने बड़े-बड़े हकीम भिजवाए। उन्होंने भी कहा, "हमारे बस की बात नहीं है। बिना खाए आदमी जीता नहीं, जी नहीं सकता।" फिर भी बूढ़ा जी गया। गजब का बूढ़ा था। इस हालत में भी हर वक्त उसके होंठों पर बाल-सुलभ-सी हंसी बनी रहती। धीरे-धीरे मरण के सारे लक्षण मिट गये। आंखों का गंदला सा रंग साफ होकर कमल की पंखुड़ियों की तरह खिल गया। चेहरे का रंग निखर उठा । मां की गोद के बच्चे की तरह वह फिर से चमकने लगा। बूढ़ा बोला, "मैं जी गया। ईश्वर ने मेरे मन को समझ लिया । बोले, तेरा कोई पाप नहीं।"

बुढ़िया का चेहरा भी खिल उठा।

वह बोली, “बूढ़े, अब मैं मरूंगी।"

"क्यों री?"

"मेरी तबियत खराब लग रही है। और...।"

"और क्या ?" बुढ़िया कुछ बोली नहीं। सिर्फ मुस्करायी।

बुढ़िया सच में मर गयी । जरा सा बुखार हुआ, उसी में गुजर गई। मरते समय एकटक बूढ़े की तरफ देख रही थी।

बूढ़ा पत्थर का बूढ़ा था। लोग झूठ नहीं कहते थे। पर अचानक बूढ़े को लगा, 'लोगों का कहना झूठ था। झूठ था। सच नहीं था। सच कभी हो नहीं सकता था। 'बूढ़े की आंखों में आंसू थे। हां, हां, बूढ़े की आंखों में आंसू थे।

बुढ़िया ने कहा, “बूढ़े।"

बूढे की आंखें छलछला रही थीं, फिर भी उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी। बोला, "बोल बुढ़िया, क्या कहना चाहती है, बोल ।"

"मृत्यु बड़ी सुन्दर है बूढ़े। मौत बड़ी ही आनन्ददायक है।"

बूढ़ा हंसा। उसकी आंखों से आंसू टपटप कर झरने लगे। आंसू की बूंद बूढ़ी के कपोलों पर भी पड़ी। बूढ़े ने वे आंसू पोंछने चाहे । बुढ़िया बोली, "नहीं, रहने दो।"

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