आज के लैला मजनूँ (कहानी) : ख़्वाजा अहमद अब्बास

Aaj Ke Laila Majnu (Hindi Story) : Khwaja Ahmad Abbas

एक थी लैला, एक था मजनूँ। मगर लैला का नाम लैला नहीं था, लिली था, लिली डी सूज़ा।

वो दोनों और उनके क़बीले सहरा-ए-अरब में नहीं रहते थे। माहिम और बांद्रा के बीच में सड़क के नीचे और खारी पानी की खाड़ी के किनारे जो झोंपड़ियों की बस्ती है वहाँ रहते थे। मगर सहरा-ए-अरब की तरह इस बस्ती में भी पानी की कमी थी। डेढ़ सौ झोंपड़ियों में जो सात सौ मर्द, औरतें और बच्चे रहते थे। इन सब के लिए मीठे पानी का सिर्फ़ एक नल था और इस नल में सिर्फ़ दो घंटे सुब्ह और दो घंटे शाम को पानी आता था। एक कनस्तर या एक घड़ा पानी लेने के लिए कई कई घंटे पहले से लाईन लगानी पड़ती थी।

एक रात को मोहन झोंपड़ी में अपने बाप की खटिया के नीचे सो रहा था कि उसकी माँ ने उसे झिंझोड़ कर उठाया। “मोहन, ए मोहन जा, नल पर अपनी गागर लाईन में रख के आ, नहीं तो पानी नहीं मिलेगा।”

मोहन की उम्र उस वक़्त मुश्किल से नौ बरस की होगी और नौ बरस के बच्चे को जो दिन-भर कीचड़ मिट्टी में दौड़ता भागता रहा हो, बड़ी पक्की नींद आती है। आधी रात को उसे उठाना आसान नहीं है।

“अरे ओ मोहन। उठता है या नहीं।” माँ ने एक-बार फिर उसे झंझोड़ा…. “सोने दो ना माँ। अभी तो आधी रात हुई है। नल में पानी तो सुब्ह आठ बजे आएगा।”

“अच्छा तो सोता रह। अभी तेरा बाबा आता है वो उठाएगा तुझे।” बाबा का नाम सुनते ही मोहन हरबड़ा कर उठ बैठा। दुनिया में वो किसी से डरता था तो अपने बाप से, और ख़ासकर रात को जब वो दारू पी कर घर लौटता था।

“अच्छा अम्माँ, मैं जाता हूँ।” आँख मलता हुआ वो उठा। अँधेरे में टटोल कर गागर उठाई और झोंपड़ी से बाहर निकल गया। सारी बस्ती अँधेरे में सोई हुई थी। मगर सड़क की पीली रौशनी नल के पास ज़मीन पर रखे हुए कनस्तरों, गागरों और घड़ों पर पड़ रही थी। मोहन ने सोचा, सच-मुच मुझे बड़ी देर हो गई। यहाँ तो सब पहले ही अपने अपने बर्तनों की लाईन लगाए हैं। इस तरह तो नल में पानी आठ बजे आया तो अपना नंबर आते आते दस बज जाएँगे और उस वक़्त तक पानी आना बंद हो गया तो...

मोहन ने इधर-उधर देखा, कोई नहीं था। सिर्फ़ नल से लेकर बस्ती के पिछले कोने बल्कि सड़क तक पानी के बर्तनों की लाईन लगी हुई थी। पहले एक चमकती हुई गागर, फिर एक लाल मिट्टी का घड़ा, फिर एक पुराना ज़ंग लगा कनस्तर, फिर एक डालडा का ख़ाली टीन, फिर एक सुराही, एक बाल्टी, एक कनस्तर, एक घड़ा, दो गागरें, तीन टीन के डिब्बे, दो बालटियाँ, एक गागर..

मोहन ने एक-बार फिर इधर उधर देखकर सोचा, किसी का बर्तन हटाकर अपनी गागर आगे रख दूँ। मगर फिर उसे ख़याल आया कि बस्ती के क़ानून के मुताबिक़ ऐसा नहीं किया जा सकता। सब एक दूसरे पर भरोसा करते हैं, तब ही तो लाईन में अपना बर्तन रखकर चैन से सो जाते हैं। नहीं तो हर किसी को रात-भर पहरा देना पड़े। पानी के लिए लाईन तोड़ने पर तो मार-पीट क्या ख़ून-ख़राबे हो जाते हैं। सो अपनी गागर को सबसे पीछे लाईन में ही रखना चाहिए। मगर फिर उसे याद आया कि उसका नंबर आने से पहले नल बंद हो गया और घर में पानी न पहुँचा तो उसका बाप हड्डी-पसली तोड़ कर रख देगा।

कोई परवाह नहीं। उसने सोचा। सब सो रहे हैं, मैं चुपके से अपनी गागर आगे बढ़ा देता हूँ। वो नल की तरफ़ बढ़ा, मगर वो किसी का कनस्तर सरकाने वाला ही था कि पीछे से आवाज़ आई, “ए छाला क्या कलता है?” मोहन घबराकर मुड़ा तो क्या देखता है कि एक काली सी, दुबली सी, छोटी सी छः सात बरस की बच्ची एक मैला फटा फ़्राक पहने हाथ में अपने क़द से बड़ा बाँस का डंडा लिए खड़ी है।

“छाला बे-ईमानी करता है।” बच्ची डंडा लिए मोहन की तरफ़ बढ़ी। “चल लख अपनी गागल, लाईन में छप चे पीछे”

मोहन को उस तोतली छोकरी की बात सुनकर हँसी आ गई, “अरी जा-जा। मैं जहाँ जी चाहे अपनी गागर रखूँगा। तू कौन होती है मुझे रोकने वाली।” ये कह कर वो गागर रखने वाला ही था कि वो बोली, “तो फिल मैं छोल मचाके छप को बुलाती हूँ। छप माल-माल के तुम्हाला भलकस बना देंगे”

मोहन का हाथ रुक गया। वो जानता था अगर इस छोकरी ने सच-मुच शोर मचाया तो क्या होगा। हर झोंपड़ी से लोग लाठियाँ, डंडे, चाक़ू, छुरे, पत्थर लिए हुए निकलेंगे और कोई सवाल-ओ-जवाब किए बिना उस पर टूट पड़ेंगे। सहरा-ए-अरब की तरह इस बस्ती में भी एक चुल्लू पानी के लिए दस चुल्लू ख़ून बहाया जा सकता था। सो उसने कहा “अच्छा बाबा तू चिल्ला मत। मैं अपनी गागर लाईन में सबसे पीछे रख देता हूँ।” मगर बच्ची इतनी आसानी से पीछा छोड़ने वाली नहीं थी। वो अपना डंडा घसीटती हुई मोहन के पीछे पीछे आई ताकि वो कोई बे-ईमानी न कर सके। मोहन ने लाईन के अख़ीर में अपनी गागर ज़मीन पर रख दी और बोला “बस अब तो ठीक है?”

“हाँ, छप ठीक है। अब तुम जाके छो जाओ।”

“पर ये जगह सड़क के पास है। कोई रास्ता चलता मेरी गागर उठाकर चलता बना तो?”

“तुम फिकल न करो। मैं जो हूँ।” और ये कह कर उसने चौकीदारों की तरह डंडे को ज़मीन पर मार कर कहा, “कोई तुम्हाली गागल को हाथ भी लगाएगा तो उछ का छल फोल दूँगी। हाँ!”

और इतनी सी बच्ची की इतनी बड़ी-बड़ी बातें सुनकर मोहन बे-इख़्तियार मुस्कुरा दिया। बस्ती के किनारे जहाँ वो खड़े थे, वहाँ सड़क पर बिजली का खंबा लगा हुआ था और उसकी रौशनी के दायरे में वो दोनों बच्चे खड़े थे। सारी दुनिया उस वक़्त सो रही थी, सिर्फ़ मुहब्बत जाग रही थी और वो दोनों... एक नौ बरस का लड़का, एक छः बरस की लड़की।

लिली और मोहन।

मोहन और लिली।

मोहन ने उस तोतली काली दुबली छोकरी की तरफ़ देखा, जो फटा फ़्राक पहने, नंगे-पाँव, अपने क़द से बड़ा डंडा लिए खड़ी थी और खम्बे की रौशनी में उसने देखा कि जिन आँखों से वो उसे टकटकी बाँधे देख रही है, वो बड़ी बड़ी और ख़ूबसूरत हैं। जैसे इस हिरन की आँखें जो उसने चिड़ियाघर में देखी थीं और जिसके जंगले पर लिखा हुआ था “अरबिस्तान की हिरन।” और लिली ने मोहन की तरफ़ देखा जो एक मैली नेकर पर अपने बाप का फटा हुआ एक बनियान पहने हुए था और उसने ख़ामोश तुतलाहट से अपने दिल में सोचा, “ये छोकला मुझे अच्छा लगता है, इछ छे मैं दोछती कलूँगी। अब मैं इछे मैं डंडा नहीं मालूँगी।”

रौशनी के दायरे में वो दोनों ऐसे खड़े थे जैसे उनके इर्द-गिर्द किसी ने क़िस्मत का ऐसा हिसार खींच दिया हो जिससे बाहर निकलना अब उनके बस में ना हो.. और फिर वक़्त रुक गया और वो दोनों वहाँ ख़ामोश खड़े एक दूसरे की तरफ़ देखते रहे। न जाने कितनी देर तक...

शायद सिर्फ़ एक मिनट।

शायद एक सौ बरस।

शायद पाँच मिनट।

शायद पाँच सौ बरस।

फ़ादर विलियम की लंबी सफ़ेद दाढ़ी हवा में ऐसे उड़ रही थी जैसे वो उड़ता हुआ कबूतर हो, और सामने बैठे हुए सब बच्चे हिसाब का सवाल करने की बजाय फ़ादर विलियम की दाढ़ी का खेल देख रहे थे जो कभी हवा के झोंके से अपने पर फैला लेती थी और कभी पॉमफ्रेट मछली की तरह गोल और सपाट हो जाती थी। उनकी कुर्सी के पास उनकी बेद की छड़ी रखी थी। जिसकी मार का मज़ा हर बच्चा चख चुका था और जिसके बारे में मशहूर था कि फ़ादर उसे रोज़ तेल में भिगोकर लाते हैं, मगर उस वक़्त किसी को मार खाने का डर नहीं था क्योंकि फ़ादर विलियम कुर्सी पर बैठे-बैठे ऊँघ रहे थे बल्कि शायद सो रहे थे। सिर्फ़ उनकी दाढ़ी जाग रही थी...

फ़ादर विलियम दर-अस्ल “फ़ादर” कहलाने के मुस्तहिक़ नहीं थे। किसी ज़माने में वो पादरी ज़रूर थे, मगर उन्हें रोमन कैथोलिक चर्च से निकाला मिला हुआ था क्योंकि उन्होंने लाट पादरी से कह दिया था कि चर्च का काम ईसा मसीह का अम्न और मुहब्बत का पैग़ाम लोगों तक पहुँचाना है। न हिंदूओं मुस्लमानों या हरिजनों को मुख़्तलिफ़ क़िस्म के लालच देकर उनको ईसाई बनाना। सो उनका पादरियों वाला लंबा चोग़ा उनसे छीन लिया गया था मगर उनकी लंबी दाढ़ी लाट पादरी भी उनसे न छीन सके थे और अब वो इस झोंपड़ियों की बस्ती में आसमान के नीचे अपना स्कूल चलाते थे। जिसमें वो बच्चे पढ़ते थे जिनको किसी सरकारी स्कूल में दाख़िला न मिला हो या जिनके माँ बाप सरकारी या ब्योपारी स्कूलों की फ़ीस न दे सकते हों। फ़ादर विलियम के स्कूल का न कोई नाम था न इस में मेज़ कुर्सियाँ, बेंच और डिस्क थे। बस एक तीन टाँग के कटहरे पर लगा ब्लैक बोर्ड था जिस पर उस वक़्त मोहन चाक से फ़ादर विलियम की उड़ती हुई सफ़ेद दाढ़ी की तस्वीर बना रहा था।

और दूर अपनी जगह पर बैठी लिली अपनी बड़ी बड़ी ख़ूबसूरत आँखों से टकटकी बाँधे ब्लैक बोर्ड की तरफ़ देख रही थी जहाँ काले तख़्ते पर धीरे धीरे फ़ादर विलियम का गोल चेहरा और उनकी हवा में बिखरी हुई सफ़ेद दाढ़ी उभर रही थी। मगर दर-अस्ल वो अपने मोहन की तरफ़ देख रही थी और अब बग़ैर तुतलाए दिल ही दिल में सोच रही थी, “मेरा मोहन कितना अच्छा है। उसने तस्वीर भी बनाई है तो कितनी अच्छी बनाई है। ऐसा लगता है फ़ादर विलियम की दाढ़ी अब उड़ी अब उड़ी!”

अभी मोहन ने तस्वीर पूरी नहीं की थी कि फ़ादर विलियम जाग पड़े और सब बच्चे जो अब तक शोर मचा रहे थे या आपस में धौल-धप्पा कर रहे थे, एक दम सीधे हो कर बैठ गए और ज़ोर ज़ोर से ''सी ए टी कैट। कैट मा'नी बिल्ली करने लगे। मगर मोहन का मुँह अभी तक ब्लैक बोर्ड की तरफ़ था। वो नहीं देख सकता था कि फ़ादर विलियम के साथ साथ उनकी तेल में भीगी हुई छड़ी भी उसकी तरफ़ बढ़ रही है।

“म. म. म, मोहन!” लिली अब साढे़ सात बरस की हो चुकी थी और उसने तुतलाना बंद कर दिया था। मगर मोहन को मार पड़ेगी, इस डर से वो हकलाती हुई चिल्लाई, “म. म. म, मोहन! फ़. फ़. फ़. फ़ा. दर...!” मोहन घबराकर मुड़ा और साथ ही उसकी कमर पर छड़ी की मार पड़ी। यह देखकर सब बच्चे खिलखिला कर हँस पड़े। सब, सिवाए एक लिली के। उसका चेहरा एक दम पीला पड़ गया था और वो धीरे धीरे फ़ादर विलियम की तरफ़ बढ़ रही थी।

“हाथ बाहर निकालो मोहन!” फ़ादर विलियम ने डाँट कर कहा, और जब डर के मारे मोहन हिचकिचाया तो उन्होंने एक अजीब अंदाज़ से (जिसमें हुक्म भी था और इल्तिजा भी) कहा, “हाथ निकालो। यू फ़ूल, हाथ बाहर निकाल और कहीं मार पड़ी तो किसी हड्डी पर चोट आ जाएगी।”

सो मोहन ने हाथ आगे कर दिया। फ़ादर विलियम की छड़ी हवा में उठी और सड़ाप से मोहन के हाथ पर पड़ी। मोहन नहीं चाहता था कि लिली के सामने वो किसी कमज़ोरी या बोदेपन का इज़हार करे। छड़ी का निशान उस के हाथ पर पड़ गया। उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे हथेली पर किसी ज़हरीले साँप ने डस लिया हो। मगर उसने दाँत कचकचा लिए और उसके मुँह से उफ़ न निकली। मगर चलते चलते लिली चिल्ला पड़ी, जैसे मार उसको पड़ी हो।

“वन!”

“टू।”

“थ्री।”

“फ़ोर।”

फ़ादर की छड़ी चार बार हवा में उठी और चार बार मोहन के हाथ पर पड़ी, और हर बार मोहन अपने दर्द को पी गया और हर बाल लिली बे-इख़्तियार चिल्ला पड़ी।

“दैट विल डू।” (THAT WILL DO) फ़ादर ने छड़ी वापिस मेज़ पर रखते हुए मोहन से कहा और फिर अपनी लंबी सफ़ेद दाढ़ी पर प्यार से हाथ फेरते हुए, “अब कभी कोई मेरी दाढ़ी की तस्वीर बनाए तो याद रखे कि मेरी दाढ़ी इतनी छोटी नहीं है जैसी मोहन ने बनाई है। पूरे साढे़ तेरह इंच लंबी है।”

ये सुनकर सब बच्चे हँस पड़े। फ़ादर विलियम भी हँस पड़े। मोहन हँसकर जल्दी-जल्दी ब्लैक बोर्ड कपड़े से साफ़ करने लगा। तब फ़ादर विलियम ने लिली को देखा जो आँखें फाड़े फ़ादर को देख रही थी,

“वेल। लिली तुमको क्या चाहिए।” फ़ादर ने नरमी से पूछा।

“फ़ादर...”

“यस माई चाइल्ड!” लिली ने कोई जवाब नहीं दिया। सीधी ब्लैक बोर्ड के पास गई और मोहन से चाक छीन कर ख़ुद उसी जगह फ़ादर विलियम की तस्वीर बनाने लगी। सब हैरत से देखते रहे कि लिली को दफ़अतन न जाने क्या हो गया है। लिली की बनाई हुई तस्वीर न सिर्फ़ अच्छी नहीं थी बल्कि किसी तरह से फ़ादर विलियम की तस्वीर नहीं लगती थी। न फ़ादर विलियम इतने मोटे थे, न वो इतने लंबे थे, न उनके गले में इतना बड़ा क्रास लटका रहता था। न उनकी आँखें इतनी बड़ी और ऐसी भयानक थीं जैसी लिली ने अपनी तस्वीर में बनाई थीं। मगर दाढ़ी को लिली ने बड़ी एहतियात से बनाया और तस्वीर ख़त्म करते हुए फ़ादर विलियम की तरफ़ मुड़कर बोली, “अब आप फिट-रोल लेकर अपनी दाढ़ी को नाप लीजिए।”

इस पर सारी क्लास खिलखिलाकर हँस पड़ी और बावजूद फ़ादर विलियम के अपनी बेद से मेज़ को धड़धड़ाने के, बच्चे हँसते ही रहे। इससे ख़फ़ा हो कर फ़ादर ने लिली की तरफ़ मुड़कर पूछा “कौन हो तुम?” लिली ने कहा, “लिली।” एक छोकरा क्लास के पीछे से चिल्लाया, “लिली नहीं फ़ादर, लैला!”

“साइलेंस।” क्लास को अच्छी तरह से घूर कर फ़ादर ने लिली से कहा, “तुमने भी यही हरकत की है? फिर तुम्हें भी वही सज़ा मिलेगी। निकालो, अपना हाथ बाहर।” लिली ने अपना हाथ खोल कर बढ़ा दिया।और फ़ादर विलियम, जो इस दुनिया और उस दुनिया, दोनों के सब जिस्मानी और रुहानी भेदों से वाक़िफ़ थे, ये देखकर अचंभे में रह गए कि लिली के हाथ पर चार गहरी नीली लकीरें पड़ी हुई थीं जैसे उसकी हथेली पर पहले ही से चार बार बेद की मार पड़ चुकी हो।

लिली शाम को दफ़्तर से बाहर निकली तो फ़ुट-पाथ पर खड़े हुए तीन टेडी बाईज़ (TEDDY BOYS) ने ब-यक-वक़्त सीटी बजाई। अठारह बरस की उम्र में लिली थी भी सीटी बजाने के क़ाबिल। रंगत साँवली मगर ख़ूबसूरत आँखें... क़ुदरती घुँगराले चमकीले सियाह बाल, छरेरा मगर भरा हुआ जिस्म, जो उस के चुस्त फ़्राक में और भी नुमायाँ नज़र आता था। ऊँचे फ़्राक में से निकली हुई सुडौल टाँगें। ऐसी लड़की को देखकर भला कौन सीटी नहीं बजाएगा।

लिली को टेडी बाईज़ की सीटी सुनने की आदत पड़ गई थी। दिन में कई बार उसको इस क़िस्म की सीटियाँ सुनाई देती थीं। लिली को इन लफ़ंगे छोकरों से कोई शिकायत नहीं थी। अगर उसे देखकर उनका जी सीटी बजाने को चाहता है तो शौक़ से सीटी बजाएँ। बड़ी लापरवाही से वो अपना बैग हिलाती हुई उनके पास से गुज़र जाती और उसका ये अंदाज़ देखकर वो भी सीटी बजाना भूल जाते। लेकिन आज उसका मूड ख़राब था। जैसे ही टेडी बाईज़ ने सीटी बजाई, लिली ने पलट कर देखा, फिर वो उनकी तरफ़ बढ़ी। उसकी आँखों में ग़ुस्से की आग भड़क रही थी। उसको देखते ही सीटी की आवाज़ तीनों छोकरों के होंटों पर से ग़ायब हो गई।

“क्या है?” उसने डाँट कर कहा, “शर्म नहीं आती, लोफ़र कहीं के क्यों, बुलाऊँ पुलिस को?” और पुलिस का नाम सुनते ही तीनों तंग मोहरी की पतलूनें और नुकीले जूतों की तीनों जोड़े वहाँ से भागते हुए नज़र आए।

“स्वाइन!” उन्हें भागते देखकर लिली चलाई, “सुअर कहीं के!” फिर वो बस स्टैंड की तरफ़ चल पड़ी। आज उसका मूड इतना ख़राब था कि फुट-पाथ के पत्थरों पर उसकी ऊँची एड़ी के सैंडिल की आवाज़ में भी ग़ुस्सा भरा हुआ लगता था।

“स्वाइन सुअर कहीं का” चलते-चलते दाँत भींच कर उसने इतने ज़ोर से कहा कि आगे चलने वाले एक अधेड़ उम्र के शरीफ़ आदमी ने घबराकर पीछे देखा। मगर ये गाली उसने उस बेचारे को नहीं दी थी। न ही ये गाली उसने उन टेडी ब्वॉयज़ को दी थी, जिनकी लोफ़राना हरकत को वो अब तक भला चुकी थी। उस वक़्त उसको ग़ुस्सा आ रहा था अपने दफ़्तर के मैनेजर पर, जो मोटा था और गंजा था। मगर अपने गंज को छिपाने के लिए कनपटी के लंबे बालों को गंजी खोपड़ी के ऊपर चिपकाए रखता था और जिसकी रंगत मेंढ़क के पेट की तरह पीली थी और जिसके मोटे मोटे गद्देदार हाथ हमेशा हवस के पसीने से भीगे रहते थे और जो दफ़्तर में काम करने वाली हर लड़की से फ्लर्ट करना अपना पैदाइशी हक़ समझता था।

लिली को उस दफ़्तर में काम करते हुए सिर्फ़ दो महीने हुए थे मगर इतने अर्से ही में उसने मैनेजर की बदनीयत को भाँप लिया था और इसलिए वो जहाँ तक मुम्किन होता, उस के क़रीब जाने से कतराती रहती थी। मगर उस दिन मैनेजर ने अपनी स्पैशल स्टेनोग्राफर को छुट्टी दे दी थी और लिली को उसकी जगह काम करना पड़ा था।

तीन घंटे तक लिली ने शॉर्ट हैंड की किताब पर मैनेजर के डिक्टेट कराए हुए ख़तों के ड्राफ़्ट लिखे थे। हर ख़त शुरू' होता था। “डियर सर” या “माई डियर...” से और हर बार जब उस के मुँह से “डियर” का लफ़्ज़ निकलता था, वो एक ख़ास अंदाज़ से लिली की तरफ़ देखता था, जिसका सिर्फ़ एक ही मतलब हो सकता था। मगर जिसको समझने के लिए लिली तैयार न थी और फिर शाम होते जब वो इन सब ख़तों को टाइप करके दस्तख़त कराने ले गई थी, उस बदमाश ने लिली की आँखों में आँखें डाल कर कहा था, “आज रात के शो में सिनेमा देखने के लिए चलती हो?” और फिर उसने लिली का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचना चाहा था, ताकि उसे अपनी गोद में बिठा ले और तब लिली के लिए उसके सिवा कोई रास्ता न रहा था कि मैनेजर के एक ज़न्नाटे-दार थप्पड़ रसीद करे और हाथ छुड़ा कर वहाँ से भाग आए।

मैनेजर का दफ़्तर एयरकंडीशनिंगड था और इसलिए इस थप्पड़ की आवाज़ किसी ने ना सुनी थी। मगर सबने ये ज़रूर देखा कि लिली जब बाहर निकली तो इसका चेहरा सुर्ख़ था और उसके होंट भिंचे हुए थे और उसकी आँखें आँसूओं से डबडबाई हुई थीं। लिली तेज़-तेज़ चलती हुई अपनी मेज़ तक गई, दराज़ खोल कर अपनी सब चीज़ें निकाल कर अपने बैग में डालीं और फिर बग़ैर किसी से कुछ कहे वो दफ़्तर से बाहर निकल गई। वो जानती थी कि अब वो इस दफ़्तर में फिर कभी क़दम नहीं रखेगी।

दफ़्तर में जितने दूसरे नौजवान क्लर्क थे, सब ही ने तो बारी बारी लिली से दोस्ती करने की कोशिश की थी मगर उसने उनमें से किसी को मुँह न लगाया था, न किसी के साथ सिनेमा गई थी, न किसी रेस्तराँ में चाय पीने की दावत क़बूल की थी और एक दिन जब किसी ने ज़्यादा इसरार किया था तो उसने कह दिया था “आई एम सौरी, मगर शाम को मुझे मोहन से मिलना होता है।”

“मोहन!” पतली मूँछों वाले टॉमस ने हैरत से पूछा था, “ये मोहन कौन है?” और लिली ने जवाब दिया था, “वो मेरा मोहन है!”

“क्या तुम्हारी इससे मंगनी हुई है?”

“हाँ, यही समझो।” लिली ने जवाब दिया था।

“कब से?”

“बारह बरस से।

“तो क्या तुम्हारी मंगनी बचपन ही में हो गई थी?”

“हाँ, यही समझो।”

“मगर मोहन, वो तो हिंदू होगा, उससे तुम्हारी शादी कैसे हो सकती है?”

लिली ने मुस्कराकर जवाब दिया था, “मुझे नहीं मा'लूम था मुहब्बत का भी कोई मज़हब होता है।” और ये कह कर वो बैग हिलाती हुई दफ़्तर से बाहर निकल गई थी। उसके जाने के बाद चुगी दाढ़ी वाले अकबर अली लेजर क्लर्क ने अपना रजिस्टर बंद करके एक ठंडी साँस भरते हुए कहा था, “अरे वाह। अपनी लिली तो लैला निकली।” और जब टॉमस ने पूछा, “लैला हू इज़ शी?” (WHO IS SHE) तो अकबर ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा था, “वो भी एक मुहब्बत की दीवानी थी, लिली की तरह।”

लोकल ट्रेन परेल के स्टेशन पर पहुँची और लिली धक्कम पेल करके थर्ड क्लास के डिब्बे की भीड़ में से बाहर निकली तो उसने मोहन को हस्ब-ए-मा'मूल क्लाक के नीचे खड़ा पाया। मोहन अब इक्कीस बरस का जवान था। वो एक मिल में मेकैनिक था और उसकी नीली शर्ट और पतलून पर पड़े तेल के धब्बे ऐ'लान कर रहे थे कि वो सीधा काम से आ रहा है।

“डार्लिंग!” लिली ने मोहन के बाज़ू में अपना हाथ डालते हुए कहा, तुम्हें बहुत इंतिज़ार करना पड़ा क्या?”

मोहन ने मुस्कराकर जवाब दिया, “सिर्फ़ आध घंटा। इतनी देर में सिर्फ़ चार ट्रेनें गई हैं। क्यों आज दफ़्तर में काम ज़्यादा था या अपने मैनेजर से ज़िक्र छेड़ रही थीं?” लिली ने जल्दी से कहा, “उस शैतान का तो नाम मत लो। जी चाहता है उसका मुँह नोच लूँ। मगर आज से तुम्हें कभी इंतिज़ार नहीं करना पड़ेगा। मैं नौकरी छोड़ आई हूँ।”

इतने में ट्रेन चली गई थी और अगली ट्रेन आने तक प्लेटफार्म पर सन्नाटा था।

टी-स्टाल के पास अपनी मुक़र्ररा बेंच पर बैठे हुए लिली और मोहन भजिया खा रहे थे और एक दूसरे की तरफ़ प्यार भरी नज़रों से देख रहे थे। भजिया ख़त्म हो गई, मगर वो एक दूसरे की तरफ़ देखते रहे। दूसरी ट्रेन आई। मुसाफ़िर डिब्बों में से उतरे, मुसाफ़िर डिब्बों में चढ़े। ट्रेन चली गई। एक-बार फिर स्टेशन पर सन्नाटा छा गया। रात हो गई। स्टेशन की रौशनियाँ जल उठीं। ट्रेनें आती रहीं। ट्रेनें जाती रहीं। मुसाफ़िर उतरते रहे, मुसाफ़िर चढ़ते रहे। लिली और मोहन उसी जगह बैठे रहे, बातें करते रहे और भजिया ख़रीद कर खाते रहे और प्यार भरी नज़रों से एक दूसरे की तरफ़ देखते रहे।

आख़िर-कार लिली ने कहा, “अच्छा तो अब देर हो गई है। मुझे जाना ही चाहिए।” मोहन ने जैसे ख़्वाब में कोई बात सुनी हो, “लिली कुछ कहा तुमने?”

“नहीं कुछ नहीं कहा।” लिली ने उसे यक़ीन दिलाया। और वो दोनों एक-बार फिर एक दूसरे में खो गए।एक के बाद एक दो ट्रेनें जुनूब को गईं। तीन ट्रेनें शुमाल को गईं, मगर वो दोनों अपनी जगह से न हिले। यहाँ तक कि चाय और भजिया की दुकान भी बंद हो गई और चाय वाला जाते-जाते उनसे कह गया, “अभी आख़िरी ट्रेन आने वाली है। इसके बाद सुब्ह तक कोई ट्रेन नहीं मिलेगी”, तब वो दोनों चौंके। दूर से ट्रेन क़रीब आने की आवाज़ धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी।

“तो कल तुम दफ़्तर नहीं जाओगी?” मोहन ने पूछा।

“नहीं, अब मैं कभी दफ़्तर नहीं जाऊँगी।”

“फिर मैं तुमसे कैसे मिला करूँगा?”

“तुम्हारे मिल की शिफ़्ट ख़त्म होने से पहले में यहाँ आ जाया करूँगी।”

“और अगर तुम्हारे डैडी ने तुम्हें उस वक़्त घर से न निकलने दिया?”

“फिर में कैसे आ सकती हूँ? तुम ही बताओ। फिर करें तो क्या करें?”

“तो फिर एक ही रास्ता है। कल ही हम शादी कर लेंगे।”

लिली के कानों में नन्ही नन्ही घंटियाँ बजने लगीं और इतने में ट्रेन आ गई और जो लिली ने धीरे से कहा वो रेल की धड़धड़ाहट में खो गया। मोहन ने लिली का बाज़ू पकड़ा, “आओ तुम्हें घर पहुँचा आऊँ।” और वो दोनों सामने वाले डिब्बे में सवार हो गए।

बांद्रा की सड़कें रात के सन्नाटे में सोई हुई... सिर्फ़ लिली और मोहन के क़दमों की आवाज़ थी और फुट-पाथ पर सोने वालों के ख़र्राटे। दूर कहीं किसी घड़ियाल ने दो बजाए। मोहन ने चलते चलते कहा, “लिली याद है माहिम वाली बस्ती में जब हम पहली बार मिले थे। उस वक़्त भी रात के दो ही बजे थे।”

“बिल्कुल याद है। तुम चोरी से अपनी गागर लाईन में आगे रख रहे थे।”

“और तुम डंडा हाथ में लिए पहरा दे रही थीं और तुतला तुतलाकर कह रही थीं... माल माल के भल कुछ बना दूँगी”

“मुझे माहिम वाली बस्ती बहुत याद आती है। वहाँ हम कितने ख़ुश थे।”

“मगर अब तो तुम बहुत अच्छी फ़्लैट में रहती हो।”

“हाँ, ये घर तो अच्छा है मगर तुम जो नहीं हो वहाँ। माहिम की बस्ती में तो हम दिन-भर साथ खेलते थे।”

“याद है जब मैंने ब्लैक बोर्ड पर फ़ादर विलियम की तस्वीर बनाई थी?”

रास्ते की रौशनी में लिली ने अपनी हथेली को देखा जहाँ हल्की नीली नीली दो लकीरें पड़ी हुई थीं और उसने कहा, “याद है।”

और फिर लिली का घर आ गया। दूसरी मंज़िल पर जिस फ़्लैट में वो अपने माँ-बाप के साथ रहती थी, वहाँ एक खिड़की में रौशनी हो रही थी। मोहन ने कहा, “लगता है तुम्हारे डैडी-मम्मी जाग रहे हैं। तुम्हें कुछ कहेंगे तो नहीं?” लिली ने जवाब दिया, “फ़िक्र न करो। वो मेरा कमरा है और इसकी लेच की, मेरे पास रहती है। अच्छा गुड नाईट, मैं कल ही डैडी से बात करके शाम को तुम्हें मिलूँगी।”

“तो फिर चार बजे परेल स्टेशन पर।”

लिली अँधेरे ज़ीने पर रास्ता टटोलती हुई ऊपर चढ़ गई और जब तक उस के क़दमों की आवाज़ आती रही, मोहन वहीं सड़क पर खड़ा रहा। लिली “लेच की” से दरवाज़ा खोल कर अपने कमरे में दाख़िल हुई, तो सबसे पहले सड़क वाली खिड़की खोली। उसने सोचा, “कितना अच्छा है मेरा मोहन। मेरी फ़िक्र में अब तक सड़क पर खड़ा है।” फिर उसने हाथ के ख़ामोश इशारे से मोहन को “बाय बाय” कहा और जब मुतमइन हो कर मोहन भी हाथ हिलाकर चल पड़ा, तब ही वो खिड़की से हटी। वो मुड़ी ही थी कि लिली के मुँह से एक हल्की सी चीख़ निकल गई। ड्रेसिंग गाउन पहने उसका बाप दरवाज़े में खड़ा था।

परेल स्टेशन पर लोकल ट्रेनें आ रही थीं। ट्रेनें जा रही थीं। “फ़ास्ट” ट्रेनें धड़धड़ करती हुई, प्लेटफार्म को हिलाती हुई गुज़र रही थीं। एक बेंच पर लिली और मोहन बैठे थे और उनके दरमियान में काग़ज़ की भजिया रखी थी, मगर आज दोनों में से एक का हाथ भी इस चटपटी मसाले-दार भजिया की तरफ़ न उठ रहा था।

“सो तुम्हारे डैडी ने इंकार कर दिया?” मोहन ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए ठंडी साँस लेकर कहा। “इंकार ही नहीं किया, मोहन।” लिली बोली। “बहुत कुछ कहा। शराब पिए हुए थे। सो गालियाँ भी दीं मुझे। तुम्हें भी बहुत बुरा-भला कहा।”

“क्या कहा? मा'लूम तो हो उनको मुझमें क्या बुराई नज़र आती है?”

लिली ने एकदम जवाब न दिया। जैसे बोलते हुए हिचकिचा रही हो। इतने में एक ट्रेन आकर ठहर गई। सारे डिब्बे खचाखच भरे हुए थे। मुसाफ़िर उतरे, मुसाफ़िर चढ़े। सब डिब्बे जूँ के तूँ भरे रहे। गाड़ी फिर चल दी। उतरने वाले मुसाफ़िर सीढ़ियाँ चढ़ते हुए पुल पर हो लिए... प्लेटफार्म फिर सुनसान हो गया। अब लिली ने धीरे से कहा, डैडी कहते हैं तुम... तुम... हिंदू हो, और बोलते हैं मैं मर जाऊँगा पर अपनी बेटी की शादी एक हिंदू के साथ न होने दूँगा।

“तुम्हारे डैडी क्रिस्चन हैं?”

“हाँ!”

“चर्च जाते हैं?”

“पहले कभी-कभार संडे को चले जाते थे। अब तो उन्हें शराब पीने से फ़ुर्सत ही कब मिलती है जो वो चर्च जाने का सोचें।”

“और जब फ़ुर्सत मिलती है तब क्या करते हैं?”

“तुम तो जानते ही हो मोहन। मैं तुम्हें बता चुकी हूँ।” लिली ने आवाज़ को धीमी करते हुए इधर उधर देखकर जवाब दिया, “डैडी दारू का धंदा करते हैं।”

इतने में दूसरी तरफ़ की ट्रेन आ गई। ये इतनी भरी हुई नहीं थी। थर्ड क्लास के डिब्बों से पंद्रह बीस मुसाफ़िर उतरे। फ़रस्ट क्लास से एक भी नहीं उतरा। ट्रेन चल दी। प्लेटफार्म फिर सुनसान हो गया।

“और क्या कहते हैं तुम्हारे डैडी?” मोहन ने एक एक लफ़्ज़ को चबाकर कहा।

“क्या करोगे सुनकर मोहन? तुम्हारे बारे में बुरी बुरी बातें जो वो कहते हैं, उनको दोहराना मुझे अच्छा थोड़ा ही लगता है।”

“फिर भी मैं जानना चाहता हूँ, वो क्या कहते हैं, क्या सोचते हैं मेरे बारे में…? मेरे हिंदू होने के अ'लावा और भी कोई ए'तिराज़ है उनको?”

“है।” लिली ने जवाब दिया।

“क्या है?”

“वो कहते हैं तुम एक लेबर हो, मिल में मज़दूर हो, तुम्हारे कपड़ों से पसीने और तेल के धब्बों की बू आती है उन्हें?”

“तो वो दिन भूल गए हैं जब हम और वो दोनों घराने माहिम वाली बस्ती की झोंपड़ियों में रहते थे?”

“अब वो इस बस्ती की बात सुनना नहीं चाहते मोहन, वो उन झोंपड़ियों को भूल जाना चाहते हैं। वो मेरे बाप हैं, मैं उनसे बहस नहीं कर सकती। तुम बताओ तुम्हारे बाबा ने क्या कहा? वो तो हमें आशीर्वाद देंगे न?”

मोहन जवाब सोच ही रहा था कि एक तीसरी ट्रेन आगई। ये पहली ट्रेन से भी ज़्यादा खचाखच भरी हुई थी। जो अंदर थे वो बाहर निकलने की कोशिश कर रहे थे और जो बाहर थे वो अंदर घुसने के लिए ज़ोर लगा रहे थे। नतीजा ये हुआ कि कई मिनट ट्रेन को ठहरना पड़ा। फिर भी जब ट्रेन चली तो कई मुसाफ़िर जो उतरना चाहते थे, वो अंदर ही रह गए और कई जो उस में चढ़ना चाहते थे वो प्लेटफार्म पर खड़े रह गए। उनमें से एक उधेड़ उम्र का आदमी जो मैला पाजामा और धुली हुई क़मीस पहने हुए था, उस बेंच पर आकर बैठ गया जहाँ मोहन और लिली बैठे हुए थे। वो बेंच के दूसरे किनारे पर बैठा हुआ था। मगर मुँह फाड़े हुए उन दोनों को इतने त'अज्जुब और ग़ौर से देख रहा था जैसे अजीब जानवरों का जोड़ा उसने इससे पहले कभी न देखा हो।

मोहन ने इस आदमी की तरफ़ कन-अँखियों से देखते हुए धीरे से कहा, “ये न जाने कौन है जो हमें यूँ घूर घूर कर देख रहा है। बाबा का जानने वाला न हो?”

“तो फिर क्या कहा तुम्हारे बाबा ने?” लिली ने अपना सवाल फिर दुहराया। मोहन को, जो अब तक इस सवाल से कतरा रहा था, जवाब देना ही पड़ा,''वो... वो... भी इस शादी के ख़िलाफ़ हैं, लिली।

“वो क्या वज्ह बताते हैं?”

“कहते हैं, हिंदू हो कर मैं क्रिस्चियन लड़की से कैसे शादी कर सकता हूँ?”

“क्यों, क्रिस्चियन लड़कियों में उन्हें क्या बुराई दिखाई देती है?”

“वो कहते हैं... क्रिस्चियन छोकरियाँ बड़ी ख़राब होती हैं। हर मर्द से आँखें लड़ाती हैं।” लिली के साँवले चेहरे पर सुर्ख़ी की एक लहर दौड़ गई, “क्या तुम भी यही समझते हो?”

“नहीं नहीं, लिली ये बात नहीं है। भला मैं ऐसा कैसा सोच सकता हूँ। मगर बाबा को कौन समझाए। तुम्हारे डैडी को भी बुरा-भला कहते हैं। कहते हैं वो दारू का धंदा करता है।”

“और तुम्हारे बाबा क्या धंदा करते हैं?”

मोहन ने हिचकिचा कर जवाब दिया, “सट्टे का।”

लिली कुछ कहने वाली थी मगर इतनी देर में दूसरी ट्रेन आ गई और प्लेटफार्म पर फिर गहमा-गहमी शुरू' हो गई मगर वो आदमी जो उनकी बेंच के दूसरे किनारे पर बैठा था, वहीं बैठा रहा और उसी तरह उनको घूरता रहा बल्कि उनको देख देखकर मुस्कुराता रहा। गाड़ी गई तो लिली ने कहा, “अब क्या होगा मोहन?” मोहन ने कहा, “कुछ समझ में नहीं आता, मैं तो आज इसी फ़िक्र में मिल में काम करने भी नहीं गया। अगर तुम्हारे डैडी ने तुम्हारी शादी किसी और से कर दी तो मैं जान दे दूँगा।” लिली बोली, “तुम क्या समझते हो, मैं ज़िंदा रहूँगी? डैडी ने ज़बरदस्ती की तो मैं ज़हर खा लूँगी... मोहन तुम मुझे थोड़ा सा ज़हर ला दो।”

“ज़हर मैं कहाँ से लाऊँगा। ज़हर पर तो कंट्रोल है। डाक्टर के चिट्ठी दिए बिना ज़हर मिल ही नहीं सकता।”

थोड़ी देर वो चुप-चाप बैठे रहे और उनके बीच में भजिया इसी तरह पड़ी रही। फिर न जाने कैसे पहले लिली की और फिर मोहन की निगाह रेल की पटरी पर जम गई। फ़ौलाद की काली पटरी जो रेल के पहियों की रगड़ से चमक रही थी। शायद दूर से रेल चली आ रही थी। पटरी में से एक अजीब ज़ूँ-ज़ूँ की धीमी धीमी आवाज़ आ रही थी... जैसे सितारे के तार को किसी ने छेड़ दिया हो और अब उसकी झंकार की गूँज रह गई हो। जैसे कितनी ही शहद की मक्खियाँ भिनभिना रही हों। जैसे वो पटड़ियाँ कितनी अजीब अंजानी ज़बान में उनसे कुछ कह रही हों।

उनकी निगाहें रेल की पटरी पर जमी हुई थीं कि एक दम धड़-धड़ करती हुई ट्रेन आ गई। उनके सामने की पटरी पर से ट्रेन के कितने ही भारी हैबत-नाक पहिए धड़-धड़ाते हुए गुज़र गए। फिर वो ट्रेन भी चली गई, मगर वो पटरी पहले की तरह चमकती रही, गुनगुनाती रही, उनसे कुछ कहती रही। और फिर एक साथ उन दोनों की समझ में आ गया कि रेल की पटरी उनसे क्या कह रही है।

लिली ने मोहन की तरफ़ देखा।

मोहन ने लिली की तरफ़।

और दोनों की निगाहों में एक ही सवाल था और एक ही जवाब। इस ज़िंदगी से मौत बेहतर है और मौत वहाँ उनके सामने, वहाँ उस रेल की पटरी की तलवार जैसी धार पर उनका इंतिज़ार कर रही थी। अब क़रीब आने वाली रेल की आवाज़ से रेल की पटरियाँ झनझना उठीं। वो दोनों खड़े हो गए। एक लम्हे के लिए उन्होंने एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल कर ख़ामोशी से इक़रार-ए-मोहब्बत किया। फिर लिली का नर्म हाथ मोहन के सख़्त खुरदुरे और मर्दाना हाथ में आ गया। अब ट्रेन उनकी तरफ़ धड़धड़ाती हुई आ रही थी।

एक लम्हा, और फिर वो दोनों रेल की पटरी पर कूद जाएँगे। इस ट्रेन के भारी पहिए उनकी मुश्किल आसान कर देंगे। मौत की गोद में उनको हमेशा के लिए एक दूसरे के साथ सुला देंगे। उनकी मुहब्बत को अमर कर देंगे।

“ए।”

एक आवाज़ ने उनको चौंका दिया और उसी लम्हे में ट्रेन आ गई और डिब्बे उनके पास से गुज़रने लगे। लिली और मोहन ने मुड़कर देखा तो ये वही उधेड़ उम्र का मेला पाजामा, फटी क़मीस वाला आदमी था... जो मुस्कुरा कर भजिया आफ़त की पुड़िया की तरफ़ इशारा कर रहा था।

“अपनी भजिया तो साथ लेते जाओ।” उसने चिल्ला कर कहा।

भजिया चटपटी मसाले-दार भजिया न जाने क्यों भजिया का नाम सुनकर उन दोनों के मुँह में पानी आ गया।

भजिया! चटपटी मसाले-दार भजिया।

और अगर वो मर गए होते तो भजिया कैसे खाते?

ठंडा मीठा फ़ालूदा कैसे पीते?

चाँदनी-रात में जूहू के किनारे नर्म-नर्म रेत का लम्स अपने गालों पर कैसे महसूस करते?

मालाबार हिल पर जाकर हेगिंग गार्डन में खुले हुए फूलों का नज़ारा कैसे करते?

वो भजिया नहीं थी, वो ज़िंदगी थी जो अपनी तमाम रंगीनियों के साथ चटपटे मसाले की ख़ुशबू के साथ उनको वापिस बुला रही थी।

उतरने वाले मुसाफ़िर चढ़ने वाले मुसाफ़िरों से दस्त-ओ-गरीबाँ थे... कान पड़ी आवाज़ नहीं सुनाई देती थी।

मोहन ने लिली के कान में चलाकर कहा, “चलो, सिवल मैरिज कर लींलें क्यों मंज़ूर है?”

तो लिली ने मोहन के कान में चलाकर कहा, “हाँ हाँ मंज़ूर है।”

“तो चलो, चर्चगेट चलें।” और ये कह कर मोहन ने लिली का हाथ पकड़ा और डिब्बे में घुसने वाली भीड़ पर पिल पड़ा। किसी न किसी तरह वो भीड़ के रेले के साथ अंदर घुस ही गए।

ट्रेन चली गई… मगर वो आदमी बेंच पर उसी जगह बैठा रहा… वो भजिया उसी तरह पड़ी रही… फिर वो आदमी आहिस्ता से अपनी जगह से उठा और भजिया आफ़त की पुड़िया उठा कर खाने लगा… तब चाय वाले ने अपनी दुकान से आवाज़ दी, “क्यों चले गए वो दोनों?”

“हाँ चले गए।”

“रोज़ मुझसे भजिया लेकर खाते हैं।” चाय वाले ने कहा।

“मगर अब वो तुम्हारी भजिया खाने नहीं आएँगे। अब वो अपने लिए ख़ुद चटपटी मसाले-दार भजिया बनाया करेंगे।”

“क्या तुम उनको जानते हो? कौन हैं ये दोनों?”

और वो जो खटाई की चटनी में डुबो-डुबोकर और मज़ा ले-ले कर भुजिया खा रहा था। बोला, “लैला मजनूँ।”

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