आईना (असमिया कहानी) : येशे दरजे थोंगशी
Aaina (Assamese Story in Hindi) : Yeshe Dorjee Thongchi
जल्द ही यह खबर गाँवों में जंगल की आग की तरह फैल गई। देखते-देखते मंडाला गाँव के नए स्कूल के मास्टर बाबू के यहाँ केवल नजदीक के गाँवों से ही नहीं बल्कि दूर-दराज के गाँवों से भी बूढ़े, जवान आदमी और औरतों के झुंड पहुँचने लगे। पहाड़ी क्षेत्र के पूर्वी टोलों व छोटे गाँवों में सबकी जुबान पर केवल वह अनोखी वस्तु—‘मास्टर बाबू का दर्पण’ ही चर्चा का विषय बन गई थी। गाँववालों ने इसके पहले कभी भी ऐसी वस्तु नहीं देखी थी, जिसमें आप अपने चेहरे, हाथ और शरीर के अन्य भागों को देख सकते हैं।
सबसे पहले दोर जेरीग की विधवा माँ लेदन ने इस अनोखी वस्तु को मास्टर बाबू के घर की दीवार पर देखा। दरअसल उसका लड़का दोर जेरीग बीमारी के कारण कक्षा जाने में असमर्थ था। लेदन को अपने बेटे की छुट्टी माँगने के लिए मास्टर बाबू के घर जाना था। उसने गाँव के मुखिया गाओन बुराह (गाँव-बूढ़े) को अपने साथ लिया, क्योंकि वह मास्टर बाबू की भाषा नहीं जानती थी।
जब गाओन बुराह मास्टर बाबू से बात कर रहा था, लेदन ने एक अजनबी को देखा, एक अधेड़ उम्र औरत पासवाले कमरे से उसे घूर रही थी। पहले तो लेदन ने यह सोचकर कि वह औरत मास्टर बाबू की पत्नी हो सकती है, अपनी नजर उस दिशा से फेर ली। लेकिन शीघ्र ही लेदन ने अनुभव किया कि वह औरत अधेड़ उम्र की थी और उसकी तरह एक फटा हुआ सिन्कू (लंबा गोनी) पहने हुए थी और गंदी एवं अस्त-व्यस्त थी।
लेदन ने सोचा कि वह अधेड़ औरत युवा मास्टर बाबू की पत्नी नहीं हो सकती। अगर उनकी शादी हुई भी तो उनकी पत्नी को जवान, खूबसूरत और अच्छे कपड़ों में होना चाहिए था। तब वह औरत कौन हो सकती है, जो जब भी मैं उस दिशा में देखती हूँ, तो मुझे घूरती है? हाँ, निश्चय ही वह हम में से एक है। अगर मैं उससे बात करके थोड़ी भी शिष्टता का परिचय नहीं देती हूँ, तो यह अनैतिक होगा।
लेदन ने अपना मुँह खोला, लेकिन आश्चर्य कि उस औरत ने भी अपना मुँह खोला और जब लेदन ने बिना एक शब्द बोले अपना मुँह बंद कर लिया तो उस औरत ने भी अपना मुँह बंद कर लिया। लेदन ने अपना हाथ उठाया और उस औरत ने भी वही किया। वह यह देखकर दंग रह गई कि वह औरत उसकी तरह ही ठीक वही पोशाक, चूड़ी और माला पहने हुए है और लेदन ने जो भी किया, दूसरी औरत ने भी तुरंत उसकी नकल कर ली।
मास्टर बाबू ने उसकी दशा पर ध्यान दिया और मुसकराते हुए दर्पण को दीवार से उतारकर ले आए। उन्होंने लेदन के सामने दर्पण को पकड़ लिया। महान् आश्चर्य। लेदन ने उस अजनबी औरत को अपने बिल्कुल नजदीक खड़े देखा।
आश्चर्य से उसने अपनी हथेली को मुँह पर रख लिया और अजनबी ने भी वही किया। गाओन बुराह उसकी बगल में आ गया और तुरंत बिल्कुल गाओन बुराह की तरह का एक आदमी उस अनोखी वस्तु में प्रकट हो गया। उसके बाद मास्टर बाबू ने दर्पण का पीछेवाला भाग उनकी तरफ करके घुमा दिया ओर तुरंत दोनों आदमी और औरत उसमें से गायब हो गए। उन व्यक्तियों को अचानक गायब हुआ देखकर उसके रोंगटे खड़े हो गए।
लेदन ने सोचा, निश्चय ही ये लोग इस घर में छिपे हुए दुष्ट भूत हैं, जो इस वस्तु में दिखाई देते हैं।
‘‘इसे दर्पण कहते हैं। यहाँ तुम अपना प्रतिबिंब देख सकते हो।’’ मास्टर बाबू ने गाओन बुराह को समझाया, जिसने बाद में इस बात को लेदन को समझाया।
गाँव वापस जाते हुए सभी राहगीरों को लेदन और गाओन बुराह ने उस अनोखी वस्तु के बारे में बताया, जिसे उन्होंने मास्टर बाबू के घर पर देखा था। इस दूरवर्ती पहाड़ी गाँव के आदिवासियों ने कभी भी अपने गाँव की सीमा से बाहर जाने का साहस नहीं किया था, अतः उनमें से किसी ने भी ऐसी वस्तु की कल्पना नहीं की थी, जहाँ आप अपना प्रतिबिंब साफ पानी की तरह, बल्कि और अच्छे तरीके से देख सकते हैं।
सबसे पहले बोमडिला के राजनीतिक अधिकारी बोर साहब, जो कभी नेफा के जिलाधीश थे, ने नेफा के आंतरिक क्षेत्रों के मंडाला गाँव की यात्रा की थी और पाया था कि एक विशाल जनसंख्यावाला यह गाँव एक प्राइमरी विद्यालय स्थापित करने के लिए बहुत ही उपयुक्त है।
अपने दौरे पर बोर साहब ने अपनी ओर से गाँव के प्रशासन को चलाने के लिए गाओन बुराह को गाँव का मुखिया नियुक्त किया और श्रमदान सहयोग के आधार पर उसे दो भवन का निर्माण कराने का आदेश दिया—एक स्कूल के लिए और दूसरा शिक्षक के आवास के लिए।
शीघ्र ही गाँववालों ने कंकड़ मिट्टी से पुती दीवारों और पटरी के छतोंवाले दो भवनों का निर्माण कार्य पूरा कर दिया। मैदानी क्षेत्र के एक युवा असमी मास्टर बाबू एक दिन गाँव में पहुँच गए और अभिभावकों ने हर घर से कम-से-कम एक बच्चे को विद्यालय भेजने के बोर साहब के आदेश को पूरा करते हुए अपने एक लड़के को अनिच्छापूर्वक स्कूल में डाल दिया।
स्कूल खुलने के साथ ही मास्टर साहब द्वारा स्कूल लाई जानेवाली अजीब-अजीब चीजों को गाँववालों ने देखना शुरू कर दिया, जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखी थीं। रंगीन चित्रोंवाली किताबें, मानचित्र, बच्चों के लिए चमड़े की गेंद, एक गानेवाली मशीन आदि अनोखी चीजें उन्होंने देखी, लेकिन कोई भी दर्पण कहे जानेवाली इस अनोखी वस्तु का पता नहीं लगा सका, जब तक कि लेदन ने संयोगवश इसे देख नहीं लिया।
तब से जिज्ञासु गाँववालों को वह वस्तु दिखाना मास्टर बाबू का हर रोज का कार्य हो गया था, जो उनके आँगन में रोज इकट्ठा हो जाते थे। साधारण ग्रामीणों के लिए दर्पण में प्रतिबिंब, उनकी अपनी प्रतिमूर्ति देखने का यह पहला अवसर था, जो भिन्न व्यक्तियों की भिन्न छवि अंकित करता था। उनमें से कुछ लोगों के लिए उनका चेहरा खूबसूरत और आकर्षक था तो दूसरों के लिए यह कुरूप और घृणास्पद था।
जिन्हें अपना चेहरा खूबसूरत लगता था, वो मास्टर बाबू के यहाँ बार-बार आते थे और उनसे दर्पण देखने देने के लिए प्रार्थना करते थे। दर्पण देखनेवाले चेहरे की नकल करते और अपनी शरारत पर खूब हँसते थे। उस समय, दर्पण को पहले पकड़ने या किसी एक व्यक्ति के द्वारा ज्यादा समय लेकर दूसरों को वंचित करने पर उनमें लड़ाई हो जाती थी।
शुरू में तो जिज्ञासु गाँववालों की इन गतिविधियों से मास्टर बाबू का खूब मनोरंजन हुआ, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें परेशानी होने लगी, क्योंकि गाँववालों का उनके यहाँ आने का कोई नियत समय नहीं था। गाँववाले सुबह से शाम तक किसी भी समय आ जाते थे। आखिरकार उन्हें गाँववालों की भीड़ को नियंत्रित करने के लिए गाओन बुराह से कहना पड़ा और दर्पण देखने के लिए रविवार की दोपहर का समय नियत किया गया।
जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, वैसे-वैसे आनेवालों की संख्या भी घटती गई। गाँव से दूर देवदार के बागों के बीच स्कूल के अहाते के अंदर मास्टर बाबू अकेला अनुभव करने लगे। विशेषकर छुट्टी के दिनों में विद्यालय अहाता उजाड़ लगता था।
ऐसे ही एकाकीपन के दिनों में मास्टर बाबू ने अहाते के बाहर इंतजार करती एक लड़की को देखा। लड़की जवान और अच्छे रूपवाली थी। उसने ठोढ़ी पर गिरनेवाले बालों की आड़ में चेहरे को छिपा रखा था। जैसाकि गाँव में रहनेवाली जनजाति शेरदुकपेन की कुँआरी और अविवाहित लड़कियों के चेहरे को बाल से ढकने की परंपरा है। केवल शादी के बाद ही और वह भी एक समारोह में एक औरत के बालों को पीछे की ओर बाँधा जाता है।
लड़की अकेली थी। उसकी पीठ पर जलावन की लकड़ी ढोने के काम आनेवाली बाँस की टोकरी थी। जिसमें एक चाकू और एक कुल्हाड़ी रखी थी, जो उसके कंधे पर काटे हुए गन्ने की पट्टी (फीते) से कसकर बँधी हुई थी। मास्टर बाबू ने उसे स्कूल के अहाते की पत्थर की दीवार के बाहर पत्थर की मूर्ति की तरह खड़ी देखा था। उस लड़की के अजीब बरताव ने उनके दिमाग में उत्सुकता जगाई और उन्हें उसके पास खींच ले गई।
‘‘तुम यहाँ क्यों खड़ी हो?’’ मास्टर बाबू ने उसके पास पहुँचकर पूछा। वह लड़की वांगडान, अपनी जड़ता से विचलित हुई, लेकिन एक शब्द भी नहीं बोली। उसे पता नहीं था कि वह मास्टर बाबू से दर्पण देखने के लिए कैसे प्रार्थना करें। पहले दिन ही वांगडान को उस अनोखी वस्तु के बारे में पता चल गया था, जिसमें कोई अपना प्रतिबिंब स्पष्ट देख सकता है। उसकी मौसी लेदन ने सहानुभूति के स्वर में उसे विश्वास दिलाया था, ‘‘तुम एक समय इस संसार की सबसे खूबसूरत लड़की थी, लेकिन उस बदमाश छिंबू ने तुम्हारे चेहरे के साथ क्या कर दिया था! जाओ और मास्टर बाबू के घर के उस दर्पण में खुद को देखो, तुम्हें तुम्हारे प्रेमी (रोमियो) की निर्दयता के बारे में पता चल जाएगा।’’
जी हाँ, वांगडान अच्छी तरह जानती थी कि एक आदमी कितना निर्दयी हो सकता है। उसने अपने छोटे से जीवन में जितनी यातनाएँ झेली थीं, उतनी शायद इस संसार में किसी ने भी नहीं झेली होंगी। महज तीन साल पहले तक वह स्फूर्ति और उत्साह से भरी हुई एक खुशहाल युवा लड़की थी, जिसकी सभी प्रशंसा करते थे और प्रेम भी। एक निश्चित सीमा तक उसे भी अपनी सुंदरता का घमंड था और गाँव के सारे रोमियो उसका ध्यान आकर्षित करने की उम्मीद में उसके आस-पास मँडराते रहते थे। वह बहुत ही उत्सुकता से उसकी एक दृष्टि या मुसकराहट की अपेक्षा रखते थे, लेकिन उसने भी उन्हें संतुष्ट होने का अवसर नहीं दिया।
किशोरावस्था के साथ उसकी सुंदरता बसंत में पूरी तरह खिले, रोडोडेंड्रन (फूल) की तरह खिल गई। वांगडान, नदी के किनारे पत्थरों पर बैठकर पानी की बहती धाराओं में अपने काँपते, हिलते-डुलते प्रतिबिंब को देखा करती थी। वह नैतिक रूप से मजबूत लड़की थी, जो गाँव के युवकों के सारे प्रयासों को निष्फल कर देती थी।
वांगडान गाँव के युवकों में छिंबू से सबसे ज्यादा नफरत करती थी, क्योंकि वह गुंडा, दुस्साहसी ओर निर्दयी भी था। जिस दिन वांगडान अपने पहले रजस्रव के साथ औरत बनी, उसकी सहेलियों ने उसे नदी के किनारे बैठे हुए सहारा देकर सँभाला। उसके सर पर पानी छिड़का और बालों को कंघी कर इस तरह सँवारा कि खूबसूरत चेहरा बालों से ढककर और भी रहस्यमय एवं आकर्षक बन गया।
उस दिन के बाद से वह न केवल सौंदर्य के लिए सराही जाने लगी, बल्कि वह लालसा की एक वस्तु भी बन गई। उसकी मुसीबत तब और बढ़ गई जब कई घरों से उसके लिए प्रस्ताव आने लगे और वह इनकार नहीं कर सकी। उसे अपने मामा के घर से आए अपने चचेरे भाई के प्रस्ताव के लिए अपने माता-पिता को अपनी सहमति देनी पड़ी, क्योंकि परिवार की परंपरा को बरकरार रखने का दायित्व उसके ऊपर था।
जब छिंबू को इसके बारे में पता चला तो वह गुस्से में भड़क उठा और एक रात जब वह अपनी बहन के साथ चूल्हे के पास सो रही थी, तब उसने उस पर हमला कर दिया। वांगडान ने महसूस किया कि कोई भारी चीज इसके शरीर पर रेंग रही है और उसके कपड़े उतारने का प्रयास कर रही है। अचानक आतंकित होकर उसने अपनी पूरी ताकत से उसे धक्का दिया। एक क्षण के लिए जो आदमी उसके ऊपर चढ़ने की कोशिश कर रहा था, पीछे की तरफ गिर पड़ा, लेकिन तुरंत ही वह सँभल गया और वांगडान पर और अधिक बर्बरता से टूट पड़ा।
उसके निर्दयी हाथों ने उसके बालों को कसकर पकड़ लिया और उसके चेहरे को चूल्हे के दहकते अंगारों पर कुछ समय के लिए रख दिया। वांगडान बेहोश हो गई। जब उसे होश आया तो उसे अत्यधिक पीड़ा हो रही थी और उसके माता-पिता, भाई-बहन आँखों में आँसू लिये उसे घेरकर खड़े थे। वह आग से तो बच गई, लेकिन एक आँख गँवा बैठी। जले हुए मांस ने उसके चेहरे को विकृत कर दिया और वह सुंदरता, जिसके लिए वह विख्यात थी, उसका निशान भी नहीं रह गया था।
वे लड़के, जो उसके पीछे लगे रहते थे, अब उसमें कोई दिलचस्पी नहीं लेते थे। अब वह गाँव में सहानुभूति की वस्तु हो गई थी।
वांगडान ने कई बार मास्टर बाबू के पास जाना चाहा, लेकिन वह ऐसा करने का साहस इकट्ठा नहीं कर सकी। जब उसे पता चला कि अब लोग मास्टर बाबू के घर नहीं जाते हैं तो उसने इसे अच्छा अवसर समझा, क्योंकि वह गाँववालों की नजरों से दूर अकेले अपना प्रतिबिंब देख सकती थी।
वांगडान ने फिर से मास्टर बाबू की आवाज सुनी। बड़ी कठिनाई से उसने अपनी हथेली को अपने चेहरे के सामने उठाया, जैसाकि उसकी मौसी लेदन ने दर्पण देखने की इच्छा व्यक्त करने के लिए सिखाया था। मास्टर बाबू समझ गए और उसे अपने पीछे आने के लिए कहा। घर के अंदर पहुँचकर मास्टर बाबू ने दर्पण उसे थमा दिया। कुछ समय तक तो वह दर्पण को घूरती रही। फिर उसने धीरे-धीरे अपने बालों को चेहरे से हटाया और लंबे समय तक अपने कुरूप चेहरे को देखती रही।
मास्टर बाबू भी उसका चेहरा देखने को इच्छुक थे और बाहर छिपे बैठे थे। मास्टर बाबू ने उसके चेहरे को देखा। वे भयभीत हो गए। मानो चित्रोंवाली कहानी की किताबों में देखी हुई चुड़ैल के साक्षात् दर्शन हो गए हों! अगले ही क्षण उन्होंने लड़की को अनियंत्रित तरीके से दर्पण को छाती से लगाकर सिसकते देखा। मास्टर बाबू दरवाजे पर अवाक् (मौन) खड़े थे। उनके दिल में करुणा की लहर दौड़ गई लेकिन दर्द में सिसकती उस अनजान लड़की को कहने के लिए उन्हें शब्द नहीं मिले।
कुछ समय के बाद लड़की की सिसकियाँ कम हुईं। वह उठी, दर्पण को वापस मास्टर बाबू को दिया, अपनी टोकरी को उठाया और धीरे-धीरे जंगल की तरफ चली गई।
मास्टर बाबू बहुत देर तक अपने कमरे में खड़े उस लड़की की दुर्दशा के बारे में सोचते रहे। मास्टर बाबू समझ गए कि निश्चय ही वह एक खूबसूरत लड़की रही होगी, अन्यथा वह इतना दुखित होकर नहीं रोती। उन्होंने अपना ध्यान दूसरी चीजों में लगाना चाहा, लेकिन उनके दिमाग में बार-बार वही कुरूप चेहरा और सिसकियों की आवाजें आती रहीं। लगभग एक घंटे बाद मास्टर बाबू ने बाहर किसी को चिल्लाते हुए सुना।
वह अपने कमरे से बाहर गए और एक घबराए हुए लड़के को देखा, जो जंगल की तरफ इशारा करके कुछ बुदबुदा रहा था। लड़के ने मास्टर बाबू को इशारे से अपने पीछे आने को कहा। वे लड़के के पीछे जंगल की तरफ गए। जंगल में पहुँचकर मास्टर बाबू ने एक लड़की के शरीर को देवदार वृक्ष की शाखा से लटकते हुए देखा। यह वही लड़की वांगडान थी, जो अपने कुरूप चेहरे को दर्पण में देखने के बाद सिसकते हुए कुछ देर पहले मास्टर बाबू के घर से निकली थी।
मास्टर बाबू निस्तब्ध रह गए। वे गहरे पश्चात्ताप से भरे वहीं खड़े उस अभागी को देखते रह गए।
अनुवाद : प्रमोद कुमार तिवारी
(‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका से साभार)