आगे बढ़ो : आनंद प्रकाश जैन
Aage Badho : Anand Prakash Jain
(लोकप्रिय इतिहास-कथा ‘आगे बढ़ो’ राजस्थान में धीर के एक बूढ़े राजा के बड़े बेटे हिम्मत सिंह की शौर्यगाथा है। उसे कुछ विपरीत परिस्थितियों में खाली हाथ घर से निकलना पड़ा। पर फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी। फिर मुगलों द्वारा हथियाए बेहद मजबूत बारगढ़ के किले को पाने का इरादा कर वह आगे बढ़ा तो अनेकों कंटकों को पार करता हुआ अपनी बुद्धि, सूझबूझ, साहस व पराक्रम के बल पर सतत आगे बढ़ता ही गया।)
२६जनवरी का दिन।
बच्चों की उस सेना में कुछ नहीं तो कम-से-कम १००-१५० सैनिक रहे होंगे। कोई तीन बालिश्त का, तो कोई दस बालिश्त का। सब एक-दूसरे के पीछे इस तरह मार्च करते आ रहे थे, मानो पर्वत-नदी-नाले किसी की परवाह न हो। ऊपर से हाथ हवा में उछाल-उछालकर ‘मार्चिंग सॉन्ग’ गा रहे थे—
‘आगे बढ़ो बहादुरो, आगे बढ़ो
तुम माँ के नौनिहाल हो,
तुम देश की मशाल हो,
दुश्मन के लिए काल हो,
आगे बढ़ो, आगे बढ़ो, आगे बढ़ो।’
अंत में उन्होंने हमारी ससुराल के घर में प्रवेश किया और सीधे रसोई की राह ली। फिर रसोईघर से जो स्त्रियों की चीख-चिल्लाहट, ‘अरे मरो, अरे नासपीटो’ सुनाई पड़ी, तो हम समझ गए कि हमारे लिए जो गरम-गरम मालपुए बन रहे थे, उनकी छबिया लुट गई।
कुछ ही देर में पूरी सेना हमारे सामने थी। मालूम हुआ कि लुटाई कई घरों की हुई थी और सबके-सब गले तक तर थे। चाणक्य ने एक गरम पुआ मुँह में डालते हुए हमसे कहा, ‘‘आगे बढ़ो!’’
‘‘किधर आगे बढ़ें?’’ हमने सवाल किया। मालपुआ हम भी खाना चाहते थे।
‘‘यही तो एक सवाल है, जिसका उत्तर बड़े-बड़े नेता नहीं दे सके।’’ बीरबल ने अपने हाथ के गोल-गोल मालपुए को निरखते हुए कहा, ‘‘मगर आप आगे बढ़ो और एक कहानी सुनाओ।’’
‘‘हाँ।’’ चाणक्य ने भी अपनी चुटिया हिलाई, ‘‘हमने पाँच गरम-गरम मालपुए आपके लिए रख छोड़े हैं। अगर आपने उस कहानी से हमें ‘आगे बढ़ो’ का अर्थ समझा दिया तो पाँचों आपके।’’
हमारे लिए सुरक्षित पाँचों मालपुओं के प्रति हमारे मन में काफी हद तक मोह-भावना जाग चुकी थी। आखिर हमने हिम्मत की।
‘‘सुनो बच्चो, आज हम तुम्हें एक ऐसी कहानी सुनाते हैं, जिससे तुम्हें सचमुच पता चलेगा कि जब चारों तरफ का रास्ता खुला होता है और यह पता नहीं चलता कि किधर बढ़ा जाए तो ऐसे में किस तरह आगे बढ़ा जाता है। भारत पर मुगल सत्ता के समय राजस्थान में धीर का एक छोटा सा राज्य था। इस राज्य में बूढ़े राजा के दो बेटे थे—हिम्मतसिंह और बप्पालाल। हिम्मतसिंह की माँ बूढ़े राजा की पहली पत्नी थी, वह कभी की मर चुकी थी। बप्पालाल की माँ राजा की नई रानी थी। वह हिम्मतसिंह से जलती थी। राजा के मरने पर वह हिम्मतसिंह के स्थान पर बप्पालाल को राजगद्दी पर बिठाना चाहती थी। राज्यपाल तो अभी बच्चा ही था, मगर हिम्मतसिंह भरा-पूरा नौजवान था। वह उदार, दयावान और साहसी था। उसके हजारों मित्र थे और वह सबके साथ घुल-मिलकर रहता था। इस कारण रानी षड्यंत्र करके उसे जान से नहीं मरवा पाई। इस रानी का नाम था सूजाबाई। रामायण की कैकेयी की तरह सूजाबाई ने धीर के बूढ़े राजा की ऐसी नस दबाई कि उसने हिम्मतसिंह को देश-निकाला दे दिया।’’
सब बच्चों ने गंभीरता के साथ गरदन हिलाई और मैंने कहानी आगे बढ़ाई, ‘‘हिम्मतसिंह का विवाह हो चुका था। उसकी पत्नी बहुत सुंदर और सुशील थी। वह उसके साथ जाने के लिए आठ-आठ आँसू रोई। किंतु राम की सीता की तरह हिम्मत सिंह उसे साथ नहीं ले गया। अपने एक हजार साथियों के साथ वह एक दिन सुबह-सुबह अपने माता-पिता को प्रणाम कर, छोटे भाई को प्यार कर किले से बाहर निकल गया। किले के फाटक उसकी पीठ पीछे बंद हो गए। अब ऊपर खुला आकाश था और चारों ओर की दिशाएँ मानो उसे चिढ़ा रही थीं, ‘बड़े बहादुर बनते थे, अब कहाँ जाओगे? किधर पग बढ़ाओगे?’ हिम्मतसिंह ने मन-ही-मन कहा, ‘नीचे धरती माता है, दिशाएँ चारों एक-सी हैं। चाहे जिधर बढ़ चलो।’ और इस तरह पग बढ़ाते हुए उसका घोड़ा उछला। अगले ही क्षण एक हजार घुड़सवारों की ‘जय एकलिंग’ से आकाश गूँजने लगा और हजार घोड़ों की टापों से धरती काँपने लगी।’’
हमने देखा कि बच्चों की आँखें चमकने लगी थीं। होठों पर खुशी की मुसकान थी और उसमें मिली हुई थी कौतूहल की अदम्य भावना।
‘‘फिर क्या हुआ, अंकल?’’ एक छोटे-से बच्चे ने सवाल किया।
‘‘फिर चलम-चल, चलम-चल, आया बार का वह मजबूत किला बारगढ़, जिसे कुछ समय पहले मुगल सेनापति आसफखाँ ने बरसों तक लाखों की फौज का घेरा डाले रखकर जीता था। किला क्या था, पत्थर का एक ऐसा बड़ा पिंजरा था, जो मानो ऊँचे आकाश में टँगा था। सुदृढ, नुकीली-लंबी कीलोंवाले जंगी फाटक, जो एक बार बंद हो जाएँ, न बाहर से किसी को अंदर आने दें, न अंदर से किसी को बाहर जाने दें। तीन ओर की दीवारों में असंख्य छेद, जिनमें कानों पर तने तीर और आग उगलने के लिए तैयार बंदूकों की नलियाँ, जो बाहर की तरफ अपने नन्हे-नन्हे मुँह निकाले ललकार रही थीं कि आओ, हमारा वार अपनी छाती पर झेलो और राम का नाम लेते स्वर्ग सिधारो।’’
‘‘ही-ही-ही-ही!’’ कुछ बच्चे हँस पड़े।
‘‘हिम्मतसिंह और उसके हजार साथियों ने आँखों के ऊपर हाथ का छज्जा बनाते हुए, चिलचिलाती धूप में ऊपर निगाहें उठाकर बारगढ़ के उस घमंडी किले को देखा। फिर हिम्मतसिंह ने धीरे से अपने पास खड़े घुड़सवार साथी से कहा, ‘वीरसिंह, यह किला हाथ लगे तो बात बने।’ वीरसिंह ने अपनी सफाचट दाढ़ी पर हाथ फेरा और बोला, ‘कोई बहुत मुश्किल तो है नहीं। हाँ, सामने की तीन ओर से बढ़ना कठिन है। मगर मैं जानता हूँ कि उसके पीछे की तरफ सुरक्षा का कोई प्रबंध नहीं होगा। क्योंकि उस तरफ लगभग हजार गज ऊँची खड़ी पहाड़ी दीवार है। रात के समय छिपकलियों की तरह अगर उस पर चढ़ा जाए तो किला बस हाथ में आया समझो।’’’
‘‘हाँ हमारे घल में बी एक चिपकली है, वो ताक लगाए दीवाल पे चिपकी लहती है।’’ तोतूराम ने उत्साह के साथ कहा, ‘‘जब कोई मक्खी-मच्छल आते ऐ, तो वह ऐछी फुलती छे झपत कल उछे मुह में दबोच लेती है...।’’
‘‘अबे चुप, ओ छिपकलीवाले!’’ बीरबल ने तोतूराम को डाँटा, ‘‘यहाँ आदमियों की बात हो रही है, छिपकलियों की नहीं।’’
मैंने कहानी आगे बढ़ाई। सभी बच्चे अपनी गरदन आगे बढ़ाकर सुनने लगे।
‘‘हिम्मत सिंह और उसके कुछ साथी किले के पीछे वाली खड़ी पहाड़ी दीवार पर चढ़ सकते थे। किंतु रात के अँधेरे में उसके बहुत से साथी अधबीच से ही गिरकर परलोक सिधार सकते थे। यह उसे मंजूर नहीं था। उसने आसपास के गाँवों में खबर-सार लाने के लिए कुछ साथी भेजे। संध्या तक वे लौट आए और उन्होंने बताया कि मुगल बादशाह गुजरात की तरफ भारी सेना लेकर गया है। इस किले का सूबेदार आसफखाँ भी अपनी अधिकतर सेना के साथ बादशाह की सेना में शामिल है। इसलिए किले में केवल हजार-दो हजार मुगल सिपाही हैं। उनमें से अधिकतर एक बड़ी शिकारी मुहिम पर गए हुए थे और उसी रात को लौटने वाले थे। यह सुनते ही हिम्मत सिंह और उसके साथियों ने आपस में सलाह-मशविरा किया और एक योजना बनाई।
‘‘संध्या समय जब किले के शिकारी सैनिक वापस लौटे और उनके लिए गढ़ के फाटक खुले तो हिम्मतसिंह और उसके हजार साथी मुगल सैनिकों के ऊपर टूट पड़े। बेचारे शिकारियों को गुमान तक नहीं था कि किले के अंदर घुसते-न-घुसते स्वयं उन्हीं का शिकार होने लगेगा। बहुत से तो वहीं कट मरे, कुछ आसपास के गाँवों की तरफ भाग खड़े हुए। संतरियों ने जब यह माजरा देखा तो उन्होंने जल्दी से किले के फाटक बंद कर दिए। मगर हिम्मतसिंह इससे हार मान जानेवाला असामी नहीं था। उसने झटपट अपने दो सौ चुने हुए साथियों को किले की दीवार के सहारे-सहारे गढ़ के तीनों तरफ फैला दिया। किले के अंदर चारों तरफ से सिमटकर मुगल सैनिक फाटक की ओर निकल आए थे, जिससे उसकी रक्षा की जा सके। उनकी इस हड़बड़ाहट का फायदा उठाकर हिम्मतसिंह के वे चुने हुए दो सौ साथी जगह-जगह से किले की प्राचीर के ऊपर जा चढ़े। जब वे सब एक जगह इकट्ठे हो गए तो उन्होंने अंदर की तरफ से किले के फाटक पर धावा बोल दिया। मुगल सैनिक फिर एक बार बेखबरी में धरे गए और फाटक एक बार फिर खुल गए। अब हिम्मतसिंह को कौन रोकनेवाला था? थोड़ी-सी मार-काट के बाद ही बारगढ़ उसके हत्थे चढ़ गया।’’
‘‘वाह-वाह, शाबाश-शाबाश!’’ के नारों से बच्चों ने सारा घर गुँजा दिया।
‘‘मगर बच्चो, कहानी यहीं खत्म नहीं होती।’’ मैंने कहा, ‘‘मुगल सेनापति जब गुजरात-विजय से वापस लौटा तो उसकी त्योरियाँ चढ़ गईं। उसने अपने बीसियों हजार सिपाही किले के ऊपर धकेल दिए। राजपूतों ने इस बीच आसपास के मुगल इलाके पर हमला करके काफी रसद-पानी जुटा लिया था। उन्होंने किले के अंदर से तीर-तलवार, बरछी-भालों, ईंट-पत्थरों और उबलते हुए तेल की वह बरसात की कि मुगलों के छक्के छूट गए। अब आसफखाँ के पास सिवा इसके कोई चारा नहीं था कि हाथियों की टक्कर से किले का मुख्य फाटक तोड़ डाले। मगर ऊपर जो ऊटपटाँग चीजों की बरसात शुरू हो जाती थी, उससे हाथी भी आगे बढ़ते नजर नहीं आते थे। अंत में तय यह हुआ कि मुगल छावनी से लेकर किले के फाटक तक, पेड़ों की मोटी-मोटी छालों और जानवरों की सूखी खालों का एक ऐसा मजबूत छप्पर ताना जाए, जिसके नीचे से गुजरकर हाथी फाटक तक पहुँच सकें। उन्होंने आसपास के गाँवों से इकट्ठे करके कई हजार मजदूर इस काम पर लगा दिए। वे जितना छप्पर तैयार कर लेते, उसी के नीचे होकर आगे बढ़ते जाते। देखते-ही-देखते वह छप्पर एक विशाल अजदहे की तरह मुगल छावनी से बढ़ता-बढ़ता किले के फाटक तक आ पहुँचा। अब तो हिम्मतसिंह के साथियों के सिरों पर चिंता के बादल मँडराने लगे।’’
मैंने देखा कि बच्चों के माथे भी चिंता की रेखाओं से भर गए थे।
‘‘लेकिन हिम्मतसिंह ने ताल ठोंकी।’’ मैंने स्वयं अपनी जाँघ पर हाथ मारते हुए कहा। बच्चे खुश हो गए। मैंने उन्हें बताया, ‘‘बारगढ़ के किले में एक चोर दरवाजा था, जिसका पता मुगलों को भी नहीं था। रात के समय हिम्मतसिंह अपने पाँच-सौ साथियों को साथ लेकर चुपके-चुपके उस चोर दरवाजे से गढ़ के बाहर आया। अपनी युक्ति की सफलता के सपने सँजोते मुगल सैनिक अपनी छावनी में या तो आराम से पैर फैलाकर सोए पड़े थे या मौज-मजा कर रहे थे। हिम्मतसिंह ने अपने साथियों सहित अचानक उस लंबे अजदहे जैसे छप्पर में जगह-जगह आग लगा दी और मुगल सैनिकों के ऊपर पिल पड़ा। ऐसी आग धधकी, ऐसी मार-पीट मची कि मुगल छावनी दोजख की भट्ठी नजर आने लगी। उस पर तुर्रा यह कि जब तक मुगल छावनी के सारे सैनिक सजग हों, तब तक हिम्मतसिंह और उसके साथी उसी चोर दरवाजे की राह गायब हो चुके थे। छप्पर का तो नाम-निशान भी बाकी न रहा।’’
कुछ बच्चों को उछलते देखकर मैंने झट से कहा, ‘‘लेकिन याद रखो, मुगल सेनापति भी कोई मोम का पुतला नहीं था। उसने एक ओर तो छप्पर को फिर से बनवाना शुरू किया और दूसरी तरफ अपने भतीजे कासिम को सैकड़ों सैनिकों के साथ, रात के समय चुपके-चुपके, किले की पिछली खड़ी पहाड़ी दीवार पर चढ़ने और अंदर पहुँचकर फाटक खोल देने का हुक्म दिया। छप्पर का अजदहा फिर एक बार फाटक की ओर बढ़ चला। कासिम भी अपने अनेक साथियों की जान गँवाकर किले की फसील के ऊपर रात के अँधेरे में जा चढ़ा। मगर उसका दुर्भाग्य उसके साथ था। फसील पर हिम्मतसिंह स्वयं जागकर पहरा दे रहा था। अचानक कासिम के पैर से एक पत्थर लुढ़का और उसकी आवाज होते ही कासिम की गरदन पर हिम्मतसिंह की तलवार का एक भरपूर हाथ पड़ा। टूटा हुआ पत्थर और अभागे कासिम का कटा हुआ सिर दोनों एक साथ पहाड़ी की तलहटी की तरफ लुढ़क गए। उस खड़ी दीवार पर चढ़ा हुआ एक भी मुगल सैनिक जीता-जागता वापस नहीं लौटा। हाँ, कुछ ही दिनों में छप्पर का अजदहा जरूर फाटक के साथ आ लगा। मोटे फौलादी तवे माथे पर बाँधे, नशे में धुत्त हाथी छप्पर के नीचे-ही-नीचे फाटक की तरफ दौड़ पड़ा। फाटक पर ऐसी जबरदस्त टक्करें पड़ने लगीं कि उसकी चूलों से पत्थर का बुरादा सा झड़ने लगा, मानो फाटक अब टूटा, अब टूटा!’’
बीरबल ऐसे में क्या करता, यही सोचने में मग्न था, जबकि चाणक्य के नेत्रों से तो मानो अंगार बरस रहे थे। चुटिया स्थिर थी। बच्चे एकटक मेरी ओर देख रहे थे।
‘‘एक बहुत बड़ा वजनी पत्थर राजपूतों ने ठीक फाटक के ऊपर रख छोड़ा था। जब फाटक टूटने को हुआ तो उन्होंने उसे ही ऊपर से लुढ़का दिया। वह ठीक हाथी के कंधे पर आकर पड़ा। उसका महावत मारा गया और अचानक मुसीबत से घबराकर हाथी छप्पर के मुहाने का बहुत सा हिस्सा अपने साथ लिये-दिए, अपने पीछे चिल्लाते सैनिकों को रौंदता हुआ वापस भाग चला।
‘‘मगर।’’ मैंने कहा, ‘‘आसफ खाँ एक अडि़यल सेनापति था। हाथोहाथ छप्पर की मरम्मत की गई, पत्थर हटाया गया और दूसरा हाथी फाटक पर टक्करें मारने लगा। दूसरा बड़ा पत्थर इतनी जल्दी फाटक पर चढ़ाया नहीं जा सकता था। हाथी का महावत निश्चिंत था कि अब कोई रुकावट बाकी नहीं रह गई है। मगर उसे हिम्मतसिंह की हिम्मत का पता नहीं था। अचानक फाटक के ऊपर से एक रस्सी लहराती हुई नीचे आई। उस रस्सी का सिरा हिम्मत सिंह की कमर के साथ बँधा हुआ था। छप्पर के मुहाने पर वह ऊपर से भूत की तरह नमूदार हुआ। उसने इतनी फुरती से तलवार चलाई कि न सिर्फ महावत का सिर धड़ से अलग हुआ, बल्कि उसकी अपनी रस्सी भी कट गई। लेकिन उसे इसका पता तक न चला।
‘‘वह तो हाथी के सिर के ऊपर बैठा, एक बहुत बड़ा कीला उसके माथे पर रखकर उसे साथ लाए एक हथौड़े से ठोंक रहा था। कीला मस्तक के अंदर घुसते ही हाथी इतनी जोर से चिंघाड़ा और उसने अपना सिर इतनी जोर से हिलाया कि हाथी के साथ-साथ हिम्मतसिंह भी भूमि पर आ रहा। सैंकड़ों मुगल सैनिक उसे निस्सहाय देखकर उसकी तरफ झपटे। मगर उसी समय उसे अपने सिर के ऊपर वही कटी हुई रस्सी झूलती दिखाई दी। उसने तुरंत रस्सी कसकर पकड़ ली और मुगल सैनिकों के देखते-ही-देखते रस्सी से लटका हिम्मतसिंह का शरीर ऊपर उठता चला गया। कुछ ही पलों में वह दरवाजे की बुर्जी पर अपने साथियों के साथ जा मिला।’’
अब तो चाणक्य और बीरबल ने तालियाँ बजानी शुरू कीं तो सब बच्चों में होड़ लग गई। बहुत देर तक कहानी उसी घपले में खोई रही। जब गड़गड़ाहट कुछ कम हुई तो चाणक्य कहानी आगे बढ़ाने के लिए हुँकारा, ‘‘हूँ?’’
‘‘हूँ क्या? सब समस्याएँ हल हो गईं। समस्याओं का हल है, ‘आगे बढ़ो’ रास्ता अपने आप साफ होता चला जाएगा। हिम्मत चाहिए।’’ मैंने कहा।
‘‘लेकिन मात किसे हुई?’’ बीरबल ने पूछा। उसे हर बार अंत में शतरंज याद आ जाती थी।
‘‘मात तो मुगलों को ही मिली, लेकिन अगले ही दिन हिम्मतसिंह को चुपचाप अपने साथियों के साथ किला छोड़ देना पड़ा, चोर दरवाजे से।’’
‘‘क्यों?’’ एक कोरस में आवाजें उठीं।
‘‘क्योंकि धीरगढ़ से हिम्मतसिंह की पत्नी का संदेश आया था। हिम्मतसिंह के पिता के प्राण संकट में थे। हिम्मतसिंह जिस समय मारा-मारा वहाँ पहुँचा, नई कैकेयी सूजाबाई पुत्रशोक में अपने ‘दशरथ’ को मरते न देखकर उसे विष देने की तैयारी कर रही थी। हिम्मतसिंह ने गुप्त स्थान से प्रकट होकर उसका सारा भांडा फोड़ कर दिया और इस तरह पिता-पुत्र का फिर ऐसा मिलन हुआ, जैसा...’’
‘‘जैसा सबका हो।’’ बीरबल चिल्लाया और गपागप मेरे पाँचों मालपुए खा गया। उसके साथ-साथ बच्चों ने ऐसा आसमान सिर पर उठाया, मानो इस बार भी बीरबल ने ही मैदान मारा हो, मगर तुम लोग तो जानते ही हो, सब बच्चे एक से होते हैं!
(साभार : 'साहित्य अमृत' पत्रिका)