आगही (कहानी) : जिलानी बानो
Aagahi (Story in Hindi) : Jilani Bano
खिलाड़ी तेज़ी से गेंद की तरफ़ झपटा। एक मिनट के हज़ारवें हिस्से में गेंद उसके हाथ से फिसल गई।
‘‘कैसे?…कैसे?…यह सब कैसे हुआ?’’
कैमरा थम गया। तेज़ी से दौड़नेवाला खिलाड़ी जैसे हवा में उड़ता हुआ गेंद की तरफ़ बढ़ा और उसके हाथों को छूती हुई गेंद दूर जा पड़ी, एक बार…दो बार…दस बार…सितारा एक गेंद बनती…खिलाड़ी की मज़बूत गिरफ़्त से भाग निकलती, भागती…लुढ़कती…किसी पनाह की तलाश में…मगर तमाशाइयों को तो सिर्फ़ खिलाड़ी से दिलचस्पी है, बच निकलनेवाली गेंद की हैअत (हालत) पर कौन दाद है?
नहीं…नहीं…बची नहीं…खिलाड़ी के पंजे में है…और सितारा फिर दुहराती…
मैं ऑफ़िस के टाइलेट में गई। दरवाज़ा बन्द कर चुकी, तो मैंने देखा, वह अन्दर छुपा खड़ा है। मुझे अपनी तरफ…मेरी साड़ी टाइलेट के गन्दे पानी में…
ऐसा लगता है, जैसे हज़ारों-लाखों आँखें टी.वी. के स्क्रीन पर इस मंज़र को देख रही हैं। लोग बार-बार मशीन बन्द करके फिर इस मंज़र को देखना चाहते हैं। खिलाड़ी के गेंद पर झपटने का मंजन…टाइलेट के गन्दे पानी में साड़ी का पल्लू बह गया। अन्दर से चीख़ों की आवाज़ पर लोग दौड़े हुए आए…यह देखो…कलाई पर टूटी चूड़ी का घाव…उस जिन सितारा यूँ घर आई, जैसे रावण को जलाकर आई हो।
थरथर काँपती वह ख़ालिद से लिपट गई, ‘‘जानते हो, आज ऑफ़िस में क्या हुआ? आज…’’ वह हाँफ रही थी। बाल खुले। चेहरा लाल भभूका। आँखें आँसुओं से भरी!
एक सेकेंड के हज़ारवें हिस्से में उसने देखा कि उसे देखकर ख़ालिद ने जो ख़त जेब में रखा है, उस पर कनाडा की मोहर थी। जब वह ख़ालिद से लिपटी, तो रिज़वाना का मुहब्बत-भरा ख़त जैसे उन दोनों के बीच में आ गया था।
‘‘क्या हुआ?’’ ख़ालिद ने इतने इत्मीनान से पूछा, जैसे वह सितारा से बहुत दूर रिज़वाना के साथ कनाडा में बैठा हो!
‘‘ख़ालिद…ख़ालिद…’’ वह ख़ालिद की बाँहों में यूँ छुप जाना चाहती थी, जैसे लोग लाठियाँ लिये उसके सिर खड़े हों।
‘‘बताओ, तो आख़िर हुआ क्या?’’
एक्शन रि-प्ले…
‘‘वह जो ऑफ़िस में आदिल है न…’’
‘‘आदिल…? कौन आदिल?’’
‘‘है एक कुत्ता…सुअर का बच्चा…उसने आज मुझ पर…मुझे…’’
सितारा रो रही थी, हाँफ रही थी, जैसे मीलों भागी हो। आज उसने ज़िन्दगी के एक नए तजुर्बे का सफ़र किया था। मर्द का सबसे ख़ौफ़नाक रूप देखा था।
ख़ालिद ने घबराकर अपने कन्धे से उसका सिर झटक दिया। एक दहशतनाक ख़याल ने उसे लरज़ा (कँपा) दिया।
‘‘मैं ऑफ़िस के टाइलेट में गई, तो…तो…’’
‘‘अरे, तो क्या हुआ…बताती क्यों नहीं?’’ ख़ालिद चिल्लाने लगा। एक शौहर के लिए यह कितना सब्र-आज़मा लम्हा था। सितारा क्या जाने? वह तो एक लम्हे में दहकते आग के शोलों में घिर गया था, और सितारा को यूँ लग रहा था, जैसे अपने ऊपर एतिमाज (विश्वास) की जो चादर उसने ओढ़ रखी थी, वह आदिल ने आज छीन ली। अब वह सिर्फ़ एक औरत का बदन थी।
‘‘उसने अन्दर से बोलट लगा दिया और मेरे साथ बदतमीज़ी…’’
‘‘तुम्हारे साथ…क्या किया उसने?’’
ख़ालिद की आँखें खुलकर ख़ुर्दबीन जैसी बड़ी हो गई थीं और वह सितारा के चेहरे पर दिखने वाले ख़ौफ व हवास (भय व दहशत) के रंग देखने लगा।
‘‘वह मुझे अपनी तरफ़ खींचने लगा। मैं भला उसे हाथ लगाने देती! मैंने उसे बहुत मारा…लातों से…घूँसों से…फिर मेरी आवाज़ पर सब लोग इकट्ठे हो गए। अल्लाह ने मुझे बचा लिया। हमारे बॉस भी आ गए…वह इस मंज़र को याद करके फिर काँपने लगी और ख़ालिद से यू चिमट गई, जैसे अब सारे ख़तरों से दूर हो चुकी हो…
‘‘इतनी हिम्मत उस कमीने की। फाँसी पर चढा दूँगा उसे,’’ ख़ालिद ने सितारा को एक तरफ़ धकेल दिया, और चारों तरफ़ वह तलवार ढूँढ़ने लगा, जिसे उठाकर उसके आबाद-अजदाद (बाप-दादा) दुश्मन पर वार करते थे।
‘‘देखो…वह देखो…’’ सितारा ने अपनी ज़ख्मी कलाई दिखाई, जहाँ चूड़ी टूटने से एक गहरा ज़ख्म हो गया था।
मगर ख़ालिद ने वह नहीं देखा, वह तो ज़मीन पर घूर रहा था, जहाँ टाइलेट की गन्दगी से साड़ी का आँचल डूब गया था। फिर उसने जल्दी से रिज़ावाना का वह ख़त उठाकर जेब मे रखा, जो सितारा के बार-बार लिपटने से नीचे गिर पड़ा था।
‘‘ख़त्म कर डालूँगा उस उल्लू के पट्ठे को…’’ ख़ालिद का गुस्सा उसके जलते हुए दिल पर बर्फ़ की डलियाँ रख रहा था।
‘‘तुमने मुझे उसी वक़्त फ़ोन क्यों नहीं किया?’’
‘‘मुझे डर लग रहा था कि कहीं तुम उसे मार न डालो!’’
‘‘तुम क्या समझती हो! मैं उसे छोड़ दूँगा। जान से ख़त्म कर डालूँगा हरामज़ादे को,’’ वह खूँख्वार भेड़िए की तरह चिल्ला रहा था।
फिर ख़ालिद के दोस्त-रिश्तेदार आए। मुहल्ले की औरतें, उसकी सास की सहेलियाँ इकट्ठी हो गईं।
‘‘जाने दो, यार! समझदारी से काम लो। ऐसी बातों को कोर्ट तक नहीं ले जाते।’’
ख़ालिद के दोस्त यूँ दबी आवाज़ में समझा रहे थे, जैसे किसी और को नहीं सुनाना है।
‘‘आंटी! अचानक उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और…’’
‘‘हुँह…’’ उसकी सास ने गला साफ़ करने के बहाने उसे आगे कहने से रोक दिया, मगर सितारा के अन्दर तो ग़म और गुस्से का एक सैलाब उमड़ रहा था। वह तो सारी दुनिया को पुकार-पुकार कर यह बात सुनाना चाहती थी कि आज उसने कितनी बहादुरी से अपनी इज़्ज़त बचाई है। अब मसलहत (सुलह) और समझौते के कोई बाँध उसे नहीं रोक सकते। ‘‘मैं तो उस कुत्ते को मौत की सज़ा दिलवाऊँगी। भला कोई हद है। यह दो कौड़ी के मर्द क्या समझते हैं कि जब चाहें किसी औरत की इज़्ज़त पर हमला कर दो। अब उसे मालूम होगा कि मज़ाक नहीं है, मेरी इस तरह तौहीन करना!’’
‘‘अरे, मैंने बहुत सिर पीटा था कि गोरी-चिट्टी बीवी को नौकरी मत करवाओ, मगर दो हज़ार तनख़्वाह की लालच में आ गया मेरा बेटा! लो, अब चाटो रुपए! मुँह पर कालिम (कालिख) लग गई!"
दूसरे कमरे में उसकी सास चिल्ला रही थी।
‘‘हाँ, हाँ, लगने दो उसके मुँह पर कालिक,’’ सितारा गुस्से में यू हाँफ रही थी, जैसे खौलते तेल में पूरी नाचती है, ‘‘मैं तो उसे फाँसी के तख्ते पर चढ़वा दूँगी!’’
‘‘बैठ जाओ, भाभी! पानी पी लो,’’ उसकी ननद ने कन्धा पकड़कर बिठा दिया।
‘‘डैडी! ऑफ़िस में काम करनेवाली औरतें कहती थीं कि यह कमीना आदमी है, तो मुझे यक़ीन नहीं आता था।’’
‘‘मगर आज…वह…’’ वह अपने खुसर (ससुर) के सामने रो-रोकर कह रही थी। ‘‘बस, बस…चुप रहो,’’ उसके खुसर ने डाँटकर यूँ मुँह फेर लिया, जैसे सितारा के गन्दे पल्लू की बदबू नाक़ाबिले-बर्दाश्त हो। फिर उन्होंने सरगोशी जैसी आवाज़ में ख़ालिद से पूछा, ‘‘तुम ऑफ़िस गए थे?’’
‘‘हाँ, उसे अरेस्ट कर लिया है। ऑफ़िसवालों ने सारा केस पुलिस के हवाले कर दिया है।’’
‘‘यह ठीक नहीं हुआ,’’ उसके खुसर ने ख़ला (शून्य) में देखते हुए दुख-भरी आवाज़ में कहा।
‘‘बदक़िस्मती से ऐसी बात हो जाए, तो उसे वहीं ख़त्म कर देना चाहिए। अब सारे शहर में बदनामी होगी!’’
‘‘होने दीजिए, डैडी!’’ वह गुस्से में कुछ सोचने-समझने से क़ासिर (असमर्थ) थी।
‘‘हमारी बला से उसे चौराहे पर खड़ा करके कोड़े मारे जाएँ। उसे पता चलेगा अब कि मेरे साथ बदतमीज़ी करना आसान बात नहीं है।’’
‘‘सितारा, इतना चिल्ला क्यों रही हो?’’ पहली बार उसने उसे डाँट दिया। वह घबरा गई। चारों तरफ़ देखा। सब उससे इतनी दूर-दूर क्यों खड़े हैं? ऐसे वक़्त जब वह अपनी तौहीन के दुख में जल रही है, कोई उसे थाम क्यों नहीं लेता? उसे बार-बार यूँ लग रहा था, जैसे आदिल फिर किसी कोने से निकलकर उस पर झपटनेवाला हो।
‘‘अब्बा…अब्बा!’’ वह अपने माँ-बाप को देखकर दुख के मारे रो पड़ी।
‘‘मम्मी, आज अल्लाह ने मेरी आबरू बचा ली! आज आपकी बेटी ने कैसी बहादुरी दिखाई है। मालूम है,’’ वह मम्मी के गले लगकर कई बाँस ऊँची हो गई थी। उसकी हिम्मत की दाद तो सिर्फ मम्मी से ही मिलेगी। उसने ज़िन्दगी के हर मोड़ पर हमेशा बड़ी जुर्रत से काम लिया है…
‘‘मेरी बच्ची…’’ उसकी माँ गले लगाकर रो पड़ी, ‘‘या अल्लाह! हमने कौन सा गुनाह किया था, जिसकी यह सज़ा मिली है?’’
‘‘अरे, अम्मी, आप तो ख़ुदा का शुक्र अदा कीजिए कि मुझे कुछ नहीं हुआ। भला मैं किसी ग़ैर-मर्द को हाथ लगाने देती। अगर लोग थोड़ी देर और न आते, तो मैं दीवार से सिर टकराकर मर जाती।’’
उस ख़ौफ़नाक मंज़र को याद करके वह फिर लरज़ (काँप) उठी। आँसुओं में डूब गई।
‘‘मेरा ख़याल है, इस केस को पुलिस से वापस ले लेना चाहिए,’’ सितारा के अब्बा ने बहुत आहिस्ता से कहा।
‘‘क्यों वापस ले लें?’’ ख़ालिद बेहद ग़ुस्से में था, ‘‘अब यह मामला कोर्ट तक जाएगा, और बड़ी सख़्त सज़ा होगी उस बदमाश को। नौकरी भी जाएगी!’’
‘‘ज़रा ठंडे दिल से काम लो, बेटे!’’ अब्बा ने ख़ालिद के कन्धे पर हाथ रखकर कहा, ‘‘ऐसी बातों को ज़्यादा उछालने से क्या फ़ायदा?’’
‘‘उफ़्फ़ोह! अब्बा, आप कैसी बातें कर रहे हैं। उसने मेरी इज़्ज़त पर हमला किया तो उसकी सज़ा नहीं मिलनी चाहिए उसे?’’
‘‘उसे कोई सज़ा नहीं मिलेगी, बेटी!’’ उसके अब्बा ने सिर झुकाकर जैसे ख़ुद कोई सज़ा क़बूल कर ली।
‘‘इस समाज में मर्द के लिए यह एक मज़ाक है। हज़ारों झूठे सुबूत मिल जाएँगे उसे अपनी बेहुनाही के…’’
‘‘नहीं…नहीं…’’ सितारा को यूँ लगा जैसे टाइलेट में बचाव की कोई सूरत न हो। अब दीवारों से सिर टकराना है।
डॉक्टर आया। उसने सुकून की दवा दी। उसकी माँ ने गर्म दूध पिलाकर लिटा दिया।
‘‘वह बहुत घबरा गई है। कहीं दिमाग़ पर असर न हो जाए!’’
‘‘मैं क्यों घबराऊँ?’’ जहाँ कहीं शुजाअत (बहादुरी) और ख़ुद्दारी का जिक्र होता, वह अपने आपको वहाँ खड़ा देखती।
शादी हुई, तो छोटा सा, ज़िन्दगी की तमाम आसाइशों (सुख-सुविधाओ) से ख़ाली घर उसे ज़रा अच्छा न लगा।
फिर जब ख़ालिद रिज़वाना से अपने इश्क़ की कहानी सुनाता, तो ख़ालिद की उदासी देखकर वह रो पड़ती। बेचारा! एक औरत की बेवफ़ाई से टूटा हुआ मर्द उसकी शरण में था। बात-बात पर ग़ुस्सा…शक-शुबहा… अपनी बद-क़िस्मती पर रोना…किसी बात से दिलचस्पी न लेना…सितारा को फिर से उँगली पकड़के ख़ालिद को चलना सिखाना पड़ा। ख़ालिद उसके लिए काँटों में घिरा गुलाब था। पास आओ, तो चुभ जाए! तोड़ डालो, तो मन दुखे।
फिर उसने बच्ची को गोद में लेकर टहल-टहलकर बी.ए. की स्टडी की। रिज़ल्ट आया, तो दफ़्तरों के चक्कर लगाने लगी। सास तड़पती रही कि ख़ानदान में किसी औरत ने नौकरी नहीं की थी, मगर ख़ालिद चुप रहा। घर में दो हज़ार रुपए की आमदनी बढ़ गई। चलो, दहेज़ कम लाने का दुख कुछ तो कम हुआ…नौकरी मिलते ही वह फल से बोझिल शाख़ की तरह झुकती गई। मुँह-अँधेरे घर का काम निबटाना। सास की ख़ुशामद। ख़ालिद की चीख़-पुकार को हँसकर टाल देना! शाम को घर आती, तो फलों और सब्ज़ियों से बास्कट भरी हुई।
वह ऑफ़िस का सब काम बेहद ज़िम्मेदारी से करती थी। उसका बॉस एक सख़्त मिज़ाज आदमी था, मगर सितारा के काम से वह ख़ुश था।
अब वह भूल चुकी थी कि कनाडा में बैठी रिज़वाना ख़ालिद के ख़्वाब देखती है। वह तो ख़ालिद के सारे रंगों को अपने आप में घोल चुकी थी। धीरे-धीरे उसके मन में शहद के क़तरे से टपकते थे और वह एक अनोखी मिठास में डूब गई थी। हर वक़्त गाती-गुनगुनाती। ख़ुश-रंग साड़ियाँ। सलीके से किया हुआ मेकअप और ख़ुद-इतिमादी (आत्मविश्वास) से चमकता हुआ चेहरा! सब उसे मुड़-मुड़कर देखा करते थे।
वह सारी काइनात (सृष्टि) की मालिक बन बैठी थी। फिर उसने बेबी को कलेजे से लगा लिया।
‘‘मम्मी! आज आपको किसने मारा है?’’ उसके पास लेटकर बेबी ने तश्वीश (चिन्ता) भरे लहजे में पूछा।
‘‘एक गुंडे ने मेरी…मेरे…’’
‘‘अपना हाथ दिखाओ। क्या बहुत ख़ून था!’’ बेबी तो उसकी कलाई का ज़ख़्म भरने लगी।
जला-भुना ख़ालिद कमरे में आया।
‘‘बच्ची को अपनी बिपता (विपत्ति) क्यों सुना रही हो?’’
अब इसी को सुनाना है। उसे तो ज़रूर बताना है कि हर-हर क़दम पर कितने आदिल उसका रास्ता रोकेंगे, मगर यह बात उसने ख़ालिद से नहीं कही। सारा दिन ऑफ़िस और पुलिस-स्टेशन के चक्करों में गुज़र गया।
ख़ालिद बिस्तर पर आया, तो सितारा उससे चिमट गई, जैसे वह सारे ख़तरों और दुखों से बचना चाहती हो। ख़ालिद ने उसकी बाँहों को हटाकर कहा, ‘‘ऑफ़िस में जब औरतें कहती थीं कि वह कमीना आदमी है, तो तुम्हें क्यों नहीं यक़ीन आया?’’ ख़ालिद ने उसकी फैली हुई बाँहें हटाईं। सितारा को समझ में न आया कि वह अपने हाथों को अब कहाँ रखे।
‘‘बड़ी शराफ़त से मिलता था न वह…कई बार मेरा ओवर-टाइम दिया मेरे प्रोमोशन की फ़ाइल तैयार कर दो…’’
‘‘अच्छा…?’’ ख़ालिद ने चिल्लाकर कहा, ‘‘तो यह सिलसिला कब से चल रहा था?’’
‘‘सिलसिला…? कौन सा सिलसिला?’’ उसने घबराकर पूछा।
एक्शन-रिप्ले…
‘‘बचाओ…बचाओ…’’ टाइलेट के गन्दे पानी में साड़ी का पल्लू…एक शैतान उस पर फिर झपट पड़ा। यह सिलसिला दोबारा शुरू हुआ। आज सुबह उसने ख़ालिद की जेब में रिज़वाना का ख़त देखकर पूछा था, तो ख़ालिद ने हँसकर ख़त छुपाते हुए कहा, ‘‘कनाड़ा में दो-तीन ख़त आ चुके हैं, अब हमारी याद ने बेक़रार कर दिया है मोहतरमा को!’’
वह चुप हो गई। और क्या पूछती? ख़ालिद ने उससे कह दिया था कि ‘मैं जैसा हूँ, तुम्हें मालूम है। मैं कोई बात नहीं छुपाऊँगा।’’
‘‘मैं भी कोई बात नहीं छुपाऊँगी!’’
‘‘तुम्हारी तवज्जो (ध्यान) ने उसका हौसला बढ़ाया होगा। पता नहीं, वह पुलिस को क्या बयान देगा?’’ ख़ालिद तकिए पर सिर पटकने लगा।
सितारा को यूँ लगा, जैसे घुप अँधियारी में पागल कुत्तों ने उसे घेर लिया है। फिर वह एक ऊँचे बाँस पर जा खड़ी हुई। सारी ख़लक़त उसे ताज्जुब से देख रही थी–अनोखे करतब दिखानेवाली औरत को।
अब ख़ालिद करवट बदलकर सो गया था।
जैसे कमरे में दूसरा कोई वजूद ही न हो। प्यार देने की जज़ा (प्रत्युपकार) और न देने की सज़ा में बिल्कुल भगवान जैसा था उसका पतिदेव! ख़ुश हो, तो भरा बादल! रूठ जाए, तो प्यासी नदी से कोई सरोकार ही न था। उसका बदन ही तो एक ग़र्ज़ था ख़ालिद के लिए। वह अपने बदन के सिवा और कुछ न थी।
‘‘तुम सितारा हो?’’ कहनेवाला आदिल था। दो कौड़ी का आदमी, मगर वह एक मर्द है। एक मर्द जो ख़ुद्दारी के पहाड़ पर खड़ी औरत पर एक नज़र डालकर टाइलेट के गन्दे पानी में डुबो सकता है। एक मर्द, जो ख़ालिद की तरह मुँह फेरकर सो जाए, तो दुनिया अँधेर हो जाती है। कोई उसका गला दबा रहा है। सारे घर पर कैसा सन्नाटा छा रहा है। आज सबकी गर्दनें झुक गई हैं।
‘‘तुम्हारा शौहर बड़ा अच्छा आदमी है,’’ ऑफ़िस में उसकी साथी क्लर्क नरगिस ने कहा।
‘‘अगर मेरे साथ ऐसी बात होती, तो मेरा मियाँ तो तलाक़ ही दे देता बड़ी ऊँची नाकवाला है वह!’’
सितारा सिर झुकाए सफ़ेद काग़ज़ पर स्याह लकीरें खींचती रही।
‘‘ऐसी बातें हो जाएँ, तो पति के कान में क्यों डालो,’’ टाइपिस्ट मेरी ने हँसकर कहा।
‘‘मेरा ख़याल है, तुम्हें आदिल बेचारे को एक चांस देना चहिए था!’’
‘‘सुना है, आदिल की बीवी लोगों से कहती फिर रही है कि यह सिलसिला न जाने कब से चल रहा था। उस दिन किसी ने रँगे हाथों दोनों को देख लिया, तो बेचारे आदिल फँस गए!’’
‘‘अब केस अदालत में जानेवाला है। क्यों न हम केस वापस ले लें!’’
रात के खाने की मेज़ पर सब आए, तो ख़ालिद के अब्बा ने आहिस्ता से कहा।
‘‘मैं उसे फाँसी के तख़्ते पर चढ़ाऊँगी। उसे मुआफ़ नहीं करूँगी। उसने मुझसे हर चीज़ छीन ली है। मेरे पास कुछ नहीं रहा’’, वह मेज़ से सिर टकरा-टकराकर चिल्लाने लगी। उसका चेहरा ख़ून में डूब गया। सब घबरा गए। उसके देवर ने ज़बर्दस्ती रोका।
उसे पलंग पर लिटा दिया, मगर ख़ालिद नहीं उठा। वह दोनों हाथों में सिर थामे अभी तक मेज़ पर झुका बैठा था।
सारे घर में सन्नाटा छा गया।
रात को ख़ालिद बिस्तर पर आया, तो उसने सितारा के ज़ख्मी चेहरे पर हाथ रखा, ‘‘यह आज तुम्हें क्या हो गया था? तुमने तो मुझसे कहा था कि आदिल ने सिर्फ़ तुम्हारा हाथ पकड़ा था, मगर आज सबके सामने कह रही थी कि उसने तुम्हारी हर चीज़ छीन ली…’’
हमेशा की तरह उस वक़्त ख़ालिद के सवालों पर न वह काँपी, न घबराई, गूँगे-बहरों की तरह छत को ताके जा रही थी।
एक्शन-रिप्ले…
अचानक उस पर वह लम्हा फिर नाज़िल (प्रकट) हुआ, जो उसे ज़हर ही ज़हर पिला देता था, मगर अब सारे वजूद में एक मिठास घोल रहा था।
वह ख़ौफ़नाक लम्हा, जब आदिल के सख़्त हाथ में उसकी कलाई थी और उसकी साड़ी का आँचल टाइलेट के गन्दे पानी में, वह लम्हा एक चमकती सच्चाई की तरह उस पर नाज़िल हुआ और जैसे किसी कोहे-तूर से टकराकर उस पर दुनिया के सारे असरार (रहस्य) खोल गया।
वह अन्धी-बावली की तरह उठी। रिवायतों के बन्द किवाड़ खोले और आदिल के घर की तरफ दौड़ने लगी।
आदिल ने उसे देखकर ख़ौफ़ के मारे काँपने लगा।
‘‘आप…यहाँ?’’
‘‘हाँ…मैं आपका शुक्रिया अदा करने आई हूँ कि आपकी बदौलत मैं सारी दुनिया को जान सकी…’’