आग (असमिया कहानी) : रूमी लस्कर बोरा

Aag (Assamese Story in Hindi) : Rumi Laskar Bora

पहाड़ के सीने पर आग जल रही है। फागुन के मौसम में जंगल की आग जल रही है। ‘आग' शब्द की अनुभूति की क्रिया भिन्न रूप से हो रही है। प्रेम की आग । सांप्रदायिकता की आग। जंगल की आग । पछुवा हवा का हाहाकार । झड़ते पत्तों से निकलता फागुन का संगीतात्मक छंद। धूल भरे पथ के किनारे सेमल, मदार और पलाश के वृक्षों पर खिले हुए चमकीले फूल । आह! इतने सुर्ख़ ! मानो सुप्त वासना । प्रकृति का यह विचित्र रूप मेरी आँखों में सपने भर देता है। किसके ... ? माने किसके लिए? इन बातों को ख़ुद ही सोच रही हूँ और लजाते हुए अनजाने में अपनी उँगलियाँ चटखा रही हूँ। अनुराग ? हाँ, अनुराग का प्रेम मेरे जीवन में विभिन्न रागों के ज्वार लाने के साथ ही बीच-बीच में 'विराग' लाने से भी बाज़ नहीं आया। मेरे हृदय में आग जलती है।

सांसारिक सीमाबद्धता की बात जानते हुए भी अनुराग ने अत्यंत गोपनीयता से मेरे हृदय में प्रेम का सुर्ख़ गुलाब रोप दिया था। सक्षमता - अक्षमता, परिवेश, बंधन जैसी सभी स्थितियों को देखते हुए मैंने उस गुलाब के झाड़ को बढ़ते देने के लिए उसमें खाद-पानी नहीं दिया था, लेकिन उसे उखाड़ भी नहीं पाई थी । धीरे-धीरे वह मेरे उर्वर बगीचे में गोपनीय रूप से बढ़ने लगा। इस समय उस पर चटखदार फूल खिल उठा है।

इस फूल को गले लगाकर शुरू हुआ निषिद्ध अभिसार। मौसम का प्रभाव है। मन और फागुन एक ही गति से चल रहे हैं। उड़ रहे हैं। 'फागुन ने लगाई है आग मेरे हृदय में।' कवि ने कितनी सुंदरता से यह बात कही है।

अरे, असली बात तो भूल ही गई। 'सांप्रदायिकता की आग' शीर्षक से एक निबंध लिखने बैठी हूँ। एक पत्रिका के संपादक ने माँगा है। निबंध को पूरा करना ही होगा। आज दूँगी, कल दूँगी, कहते-कहते लिखने में देर कर दी है। वैसे, इस बारे में लिखने के लिए बहुत सारी बातें हैं। आवेग हैं। तर्क हैं। नहीं है तो बस सुविवेचन । सांप्रदायिक संघर्षों ने असम की शोभा को कितना बीभत्स बना दिया है, सोचकर ही बड़ा असहाय जैसा लगता है। भिन्न-भिन्न जातियों-जनजातियों, भाषा-भाषियों से परिपूर्ण असम की भूमि पर हम असमिया लोग कितना गर्व करते हैं, इसे बताने की ज़रूरत नहीं है। भिन्न-भिन्न कलाओं, आचार-व्यवहारों, संस्कृतियों की वाहिका है यह भूमि। अनेकता में एकता की मिसाल। लेकिन इस समय किसके दोष से, किस दोष से ऐसा हो रहा है? इन कई दिनों से टीवी, समाचार देखने का मन नहीं करता ।

अख़बार पढ़ नहीं पाती हूँ। बीटीएडी (बोडोलैंड प्रादेशिक क्षेत्र ज़िला) में आग, राभा हसोंग इलाक़ों में आग । घर जल रहे हैं। मनुष्य जल रहे हैं। जल रहे हैं स्नेह और अंतरंगता। जल रहा है विश्वास | मोबाइल ने संकेत दिया कि किसी का फ़ोन आ रहा है। झुंझलाहट हुई। निबंध में पैठने की सोच ही रही थी । धत्, बात करने पर उनसे टकराकर मेरे विचारों की शृंखला दूसरी ओर मुड़ सकती है। क्षणभर के लिए रुकी। सोचने लगी कि किसी की इंपॉर्टेंट कॉल भी तो हो सकती है। स्क्रीन को चेक किया। अनसेव्ड नंबर था । छोड़ो, फ़ोन नहीं उठाया। लेकिन एक बार, दो बार, तीन बार फ़ोन न उठाने के बाद जब चौथी बार भी फ़ोन आया तो उसे रिसिव किया।

उधर से पहले प्रश्न किया गया फिर उसके साथ-साथ उत्साह भरे कंठ में कल- कल की आवाज़ कर बहते हुए निर्झर की भाँति अनर्गल बातें।

'हाँ, तुम प्रतिमा हो न ? फ़ोन क्यों नहीं उठा रही थीं? बाप रे! कितनी दिक्कत से तुम्हारा फ़ोन नंबर कलेक्ट किया है। तुम मुझे भूल गईं क्या? घर पर हो ? धुबरी आई थी। यह एक लंबी कहानी है। पता चला कि आजकल तुम महानगर में रहती हो। तुम्हारे बारे में सारी जानकारियाँ इकट्ठा कर ली। सोचा तुमसे मुलाक़ात कर लूँ। तुम्हें देखे हुए न जाने कितने साल हो गए। ठीक है, पहुँचकर बात करूँगी आज तुम्हारे यहाँ ही ठहरूँगी।' फ़ोन कटने के बाद मेरे मन की अवस्था आनंद से मदमस्त छलाँग लगाकर हवा की रफ्तार से दौड़ते हुए वन के मृग शावक की तरह हो गई। इस्स! किस झुंझलाहट से फ़ोन उठाया था। ख़ुद को धिक्कारा ।

निबंध असमाप्त ही रह गया। बाद में पूरा करूँगी।

'दो दिनों से अनुराग से कोई संपर्क नहीं हो पाया है। ये दो दिन दो युगों की तरह लग रहे हैं। असह्य पीड़ा ने मेरे दैनंदिन काम-काज की गति मंथर कर दी है। मेरी यह यंत्रणा गर्म तेल में जीवित तली जाती कवई मछली की यंत्रणा जैसी है। बस अनुराग, अनुराग और अनुराग की यादें ! धत् तेरे की । इतनी सर्वग्रासी प्रतिक्रिया क्यों? सब कुछ समझती हूँ! लेकिन अबाध्य हृदय को कौन समझाए ? अनुभूति को किस प्रकार रोक रखूँ? ऐसा कौन-सा विकल्प है, जिसके सीने पर अपना सिर रखकर अनुराग की अंतर्दाही अवस्थिति को दूर कर सकूँ ?"

यह सब सोच ही रही थी कि फ़ोन आ गया था। मैं 'नॉस्टेल्जिक' हो उठी। अनुराग को भूलने के लिए शायद कोई अवलंबन मिल गया, यह सोचकर मन को सांत्वना दी। ऐसी अनुभूति की जड़ें मोथा घास के बीज की तरह मरती नहीं हैं। स्वयं को किस तरह भुलावे में रखूँ?

बाहर मेरी तत्परता बढ़ गई। मेरे शैशव और कैशोर्य पर अपना प्रेम और स्नेह उड़ेल देने वाली दीपाली बुआ आ रही हैं। आह ! न जाने कितने दिनों के बाद हमारी मुलाक़ात होगी। बुआ मेरे पिता जी की अपनी बहन नहीं हैं। गाँव का रिश्ता है। हमारे गाँव में ब्राह्मण जाति के लोग ही अधिक हैं। बुआ ब्राह्मण जाति की हैं। हम कोच, कलिता, केवट मिलाकर चार घर ही हैं। बुआ के व्यवहार में ग्रामीण जातीय अहंकार नहीं है। वैसे मैं भी जाति - पाँति को महत्त्व नहीं देती। मनुष्य तो मनुष्य है। जिसके पास सशिक्षा, सआदर्श, सद् आचरण, सहधर्मिता, उदारता, सहानुभूति है वही उच्च जाति का मनुष्य है। इस विचार को पिताजी ने छुटपन में ही मेरे मन-मस्तिष्क में बिठा दिया था। फ़ोन फिर बज उठा । 'सांप्रदायिक संघर्ष के बारे में लिखने को दिया गया निबंध पूरा हो गया क्या?' संपादक पूछ रहे थे। मैंने उत्तर दिया, 'इस समय मैं एक अभ्यागत का स्वागत करने में मानसिक रूप से व्यस्त हूँ। दो दिन बाद निबंध पूरा कर भेज दूँगी ।'

कुछ क्षण तक मन में कुछ नकारात्मक विचार प्रकट हुए। यह सच है कि बीटीएडी, राभा हसोंग इलाक़ों में हुए मृत्यु- महोत्सव से हृदय काँप उठा है, लेकिन हम अपना दैनिक काम-काज तो अच्छी तरह ही कर रहे हैं। हमने किया ही क्या है? क्या उन इलाक़ों में जाकर हम हत्याओं को रोक पाए हैं? इस हिंसा को रोक पाए हैं? बुझा पाए हैं इसकी आग? पत्रिका के संपादक का मकसद पूरा करने के उद्देश्य से हृदय के आवेग, युक्ति, क्षोभ को उजागर करते हुए एक निबंध लिखूँगी। सरकार की कड़ी आलोचना करूँगी। सांप्रदायिक भेदभाव के बीज बोनेवाले दुष्कर्मियों की जमकर भर्त्सना करूँगी। पत्रिका में यह निबंध प्रकाशित होगा। हो सकता है कि बहुत से फ़ोन आएँ-‘बहुत ही प्रासंगिक बातें लिखी हैं आपने। एकदम समय सापेक्ष। आपके साहस की प्रशंसा करनी होगी । '

क्या हम केवल अपनी सुविधा के लिए काम करते हैं? ऐसी ज्वलंत बातों, ज्वलंत घटनाओं से किसी अख़बार या पत्रिका के पृष्ठ भर जाएँगे । व्यावसायिक दृष्टिकोण से ऐसी ख़बरों के नेपथ्य में विद्यमान महत्त्व से इनकार नहीं कर सकती। मसालेदार ख़बर चाहिए। सिहरन जगानेवाले चित्र चाहिए। मैं क्या इसका व्यतिक्रम हूँ? लिखते समय अनुभूति से लबरेज अपने तीक्ष्ण क्षुर-धार शब्दों, आवेग विह्वल व्याकरण से बहुतेरे पाठकों के हृदय को विदीर्ण कर दिया। इसके लिए मुझे मेरे यथोचित लेखन की प्रशंसा का पुरस्कार मिला। लेकिन अँधेरे कमरे में बैठकर यदि मैं अपने विवेक से प्रश्न करूँ- -'कुछ भी तो नहीं देखा। बोलो, सच बोलो। क्या तुम भी सुविधावादी नहीं हो? ऐसी घटनाओं को तुमने भी किसी राजनेता, किसी आतंकवादी के नज़रिये से देखकर अपने क्षेत्र में अपना स्थान सुरक्षित कर लिया है।' आह! और नहीं। और सोच नहीं पा रही हूँ। वैसे इस तरह की कोई बात नहीं है। अंधकार में रहने पर आग की उज्ज्वलता ज्यादा महसूस होती है। धूप के प्रकाश में उसकी उज्ज्वलता म्लान हो जाती है। मेरी सोच में अटकाव का शायद यही कारण हो ।

आजकल रात के अंधकार से भय लगता है। भावना की बहती नदी को रोककर फ़ोन फिर बज उठा। घरवाले का फ़ोन था। उन्हें ख़बर दी कि दीपाली बुआ आ रही हैं। दीपाली बुआ के प्रेम-स्नेह की बात बहुत दिन पहले ही अपने घरवाले को बता दी थी। बुआ के आने की ख़बर पाकर वे भी ख़ुश हुए। दीपाली बुआ क्या खाना पसंद करेंगी? बाज़ार से क्या-क्या लाना है, घरवाले उत्सुकता से पूछने लगे। मुझे अच्छा लगा। घरवाले की सरलता और सौहार्द से हमारे घर आए अतिथि मुग्ध हो जाते हैं।

दीपाली बुआ का घर हमारे घर के बहुत ही नज़दीक है। इतना नज़दीक कि हमारे घर से उनके घर जाने के लिए बस एक बेढ़ा पार करना होता है। फ़ोन फिर बज उठा। अनुराग! अह, अनुराग ? सच है प्रेम की अनुभूति में समय का हिसाब नहीं रहता । आज भी मेरे समस्त शरीर में यह किसका जाना-पहचाना जैसा लगनेवाला अनजाना प्रवाह हो रहा है। जाड़े की ठिठुरती हुई रात में आग की आरामदायक गर्मी का आनंद उठाने की तरह ही हो उठा है अनुराग का प्रेम । फ़ोन रिसिव किया।

'मेरे हृदय में आग लगाकर तुम शांति से रहो।'

अनुराग के हृदय में आग? आश्चर्य है ! बाद में कहे गए शब्द को जीभ से दबाकर अंदर ही रख लिया। यह आनंद का समय है। अनुराग को गुस्सा दिलाना नहीं चाहती। मैंने अनुराग से दीपाली बुआ के आने की बात कही। इस पर अनुराग ने कृत्रिम मान दिखाया-‘अच्छा, तो इसी कारण यह अनुपयुक्त अवहेलना।'

‘नहीं, नहीं। तुम्हारे ऊपर मेरा तीव्र मान है।'

‘मैं क्या मान भी नहीं कर सकता?”

‘हाँ, यह मान-अभिमान की अघोषित प्रतियोगिता है।' मन-ही-मन सोचा, किंतु मुँह खोलकर कुछ बोली नहीं। किसी पुरुष के मान-अभिमान पर मैं आजकल विश्वास नहीं कर पा रही हूँ। सामयिक सुख के लिए, तकरार न मोल लेने के लिए विश्वास करने का अभिनय करती हूँ। प्रेम के क्षेत्र में पुरुष की सोच और भाषा ? अन्यथा स्वभाव ? ही, ही - हँसी आती है। पत्नी के सामने विश्वस्त, आज्ञाकारी पति। घर के बाहर प्रेमिका के सामने पत्नी के प्रति विरक्त, असंतुष्ट, हताश पथिक । किसी-किसी के शब्दों में- 'घर की शांति के लिए पत्नी का आज्ञाकारी बनने के अभिनय के सिवाय और कोई चारा जो नहीं है। एकरस, विरक्तिकर, निरुत्ताप जीवन में तुम्हारा संग अपरिहार्य है। कैसे समझाऊँ तुम्हें?”

यह बौद्धिक मंतव्य है। दोनों पक्षों की रक्षा होती है। नारी की भूमिका भी तो तथैव ही है। बंसी के चारे के लोभ में गहरे पानी में रहनेवाली मछली की तरह फँस जाती है। ऐसे कथन की सत्यता मन में यों ही आ जाने के बाद हृदय में आग लग जाती है। सब कुछ जानते हुए भी, सब कुछ समझते हुए भी आग के सिंदूरी लाल रंग से आकर्षित होकर उसमें पतंगे की तरह आत्मदाह करने जैसा लगता है।

बीथिका और अनुरूपा के फ़ोन आने के बाद यह बात याद आई। इस्स! एक ही समय आगे-पीछे मन-मस्तिष्क में न जाने कितनी बातें जमा हो गई हैं। बीथिका के पास मुझसे कहने को बहुत-सी बातें हैं। मित्रों की गोपनीयता की रक्षा करने के मामले में मुझे विश्वस्त माना जाता है। इसी कारण शायद दूसरों की गोपनीय बातें पेट में रखते-रखते मेरा पेट 'डस्टबिन' में रूपांतरित हो गया है।

सोचती हूँ कि यह भी एक मनोविश्लेषणात्मक समस्या है। जीवन को, यौवन को, आनंद को, यौनता को किसने किस रूप में लिया है? यह भी हो सकता है कि पात्र- भेद के अनुसार हरेक का दर्शन अलग-अलग हो । 'डस्टबिन' के ज़रिये फ़सल उपजाने के लिए कृषक को जैविक खाद उपलब्ध होती है। मुझे भी इतने दिनों से संचित अपनी व्यक्तिगत ‘डस्टबिन' में पड़े कचरे को साफ़ करना पड़ेगा। उसके लिए काग़ज़ क़लम का ज़ोर लगेगा, जहाँ मित्रबृंद भी सुरक्षित रहेंगे और किसी को क्षति भी नहीं होगी।

फिर मोबाइल ने संकेत दिया। दीपाली बुआ। उसी समय कॉलिंग बेल भी बज उठी। मोबाइल को कान में लगाए हुए ही दरवाज़ा खोल दिया। घरवाले थे। दोनों हाथों में बाज़ार के झोले। दिन ख़त्म होकर शाम हो आई। रात्रि के आहार के लिए मछली और मांस दोनों चीज़ें लाए हैं। दीपाली बुआ के पहुँचने के बाद बहुत-सी बातें करनी होंगी। बातें ही करूँगी या काम भी करूँगी ? इसलिए रात्रि का भोजन राँधने का कुछ काम पहले से ही कर लेना उचित होगा। जैसी सोच, वैसा काम | मछली को टेंगा और मांस राँधा।

उत्साह की अतिशयता से मैं दीपाली बुआ की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगी। रसोई में बर्तनों की ठन-ठन ध्वनि के साथ-साथ मेरे मुँह से दीपाली बुआ का लोकसंगीत निकलता रहा। घरवाले भी सुनते जा रहे थे।

दीपाली बुआ हरदम बाड़ी का बेढ़ा पारकर हमारे घर 'आया करती थीं। उनके पिता गाँव-घर के नाते हमारे दादा जी लगते थे। वे भी हरदम हमारे घर रोज़ आया करते थे। कभी दोपहर को, कभी शाम को तो कभी साँझ को। हमारे घर में थोड़ी देर बैठे बिना दादा जी और दीपाली बुआ को चैन नहीं मिलता। दीपाली बुआ की माँ और उनके भाई भी ताम्बुल अमूमन हमारे घर में ही खाते। माँ दादा और अन्य लोगों के लिए चाय- बिस्कुट लातीं। दादा जी प्रतिदिन आँखें बंद कर, कान सजग कर पिता जी के मुँह से श्रीमद्भगवद्गीता का श्लोक सुनते। बीच-बीच में वे भी जो जानते उसे कहते - 'सुनो, श्रीमद्भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में कर्मयोग के संबंध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था-
‘आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा । / कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥'

अर्थात समझे कि नहीं? हम मनुष्यों की कामना, वासना, लोभ, माया की बात कही है। कहा है-‘हे अर्जुन! इस अग्नि के समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियों के नित्य वैरी इस काम के द्वारा मनुष्य का विवेक ढँका हुआ है। हमारी मनुसंहिता में भी यही बात कही गई है। '

दादा जी धाराप्रवाह बोलते जाते। बीच में दीपाली बुआ आकर उन्हें भात खाने के लिए बुला ले जातीं। गाँव के ब्राह्मण जाति के बाक़ी लोग दादा जी से असंतुष्ट रहते। लेकिन दादा जी किसी की परवाह नहीं करते। कहते कि जिसके घर में उत्तम बातें होती हैं, जहाँ सदाचार है मैं उसी के घर आऊँगा। दीपाली बुआ के पिता अर्थात दादा जी माँ की बनाई रोटी खाते थे, उनकी बनाई चाय पीते थे। हाँ, दीपाली बुआ और उनकी माँ ने कभी भी हमारे घर बनी रोटी नहीं खाई थी। वे घर में भोजन करने के बाद ही हमारे यहाँ आकर बैठती थीं। खाने के बाद दुबारा कैसे खातीं?

दीपाली बुआ की स्नेह से पगी पुकार ने हमें, विशेषकर मुझे स्वार्थी बना गया था। आवश्यकता हो या न हो, समय हो या असमय हो बाड़ी का बेढ़ा लाँघकर दीपाली बुआ के घर पहुँच जाती । दीपाली बुआ ने ही मुझे अ, आ, क, ख वर्णमाला से परिचय कराया था। ऊन से बुनना सिखाया था। रसोईघर हो या बैठक घर सभी जगह मेरा मुक्त विचरण था। हाँ, रसोई घर में मौजूद दो चूल्हों के बीच एक फुट ऊँचा बाँस का बढ़ा बनाकर उस जगह को दो हिस्सों में बाँट गया था। बेढ़े के उस पारवाले चूल्हे के पास मेरा जाना मना था। उस समय तक 'अविवाहिता' दीपाली बुआ भी उस चूल्हे को नहीं छू सकती थीं। दादा जी दीपाली बुआ की माँ को प्रायः डाँटते हुए कहते- 'बाप की बेटी, तुम अपने पेट की संतान को भी अछूत समझती हो। सीधे स्वर्ग जाओगी क्या? जीवित रहा तो मैं भी देखूँगा।'

हालाँकि दीपाली बुआ माँ द्वारा दी गई इस निषेधाज्ञा का अक्षरश: पालन करती थीं। बाड़ी में कोई फल-मूल लगने पर दीपाली बुआ मुझे उसका हिस्सा दिए बिना नहीं खातीं। सीधी-सी बात है कि हमारा एक ही घर था। केवल रसोई घर अलग था। इतनी घनिष्ठता होने पर भी हमें किसी भी दिन एक दूसरे के घर भात खाने का सुयोग नहीं मिला था।

एक दिन मैं पढ़ाई के लिए शहर आ गई। दीपाली बुआ ज़ार-ज़ार रोईं। एक दिन दीपाली बुआ का भी विवाह हो गया। मैंने परिवार की रजामंदी के बग़ैर अपने पसंद के लड़के से कोर्ट मैरिज कर लिया। बहुत दिनों तक घर के साथ मेरा संपर्क विच्छिन्न रहा। बीच-बीच में घर के साथ-साथ दीपाली बुआ की भी याद आती रही। इसी बीच कभी दादा जी का भी देहांत हो गया। बहुत बाद में सुना। ये सारी बातें याद आती हैं। जीवन के स्रोत में बहकर नीचे आने की स्थिति को स्वीकार न कर पाने के संताप से मन में 'आग' जलती है। जीवन की बहती नदी में जिस जगह भी नाव टिकती है, उसके रेतीले किनारे पर क्षणभर के लिए बैठ स्मृति की आग की सुखद गर्माहट लेती हूँ।

इन बातों को सोचते हुए घरवाले से एकाध बात करते हुए काम कर रही थी। मछली-मांस रँध गए हैं। कैसी हुई होंगी दीपाली बुआ? पहले की देखी हुई दीपाली बुआ की प्रतिच्छवि मन में उद्भासित हो उठी। इस समय शायद उनकी देह का भूगोल बदल गया हो। अनुराग ने फिर फ़ोन किया है। इस समय अनुराग के साथ बात नहीं कर पाऊँगी। घरवाले के सामने असुविधा महसूस होती है। घर से बाहर निकल आई। फागुन के पत्रहीन वृक्ष की मज़बूत डाल पर दो रंगीन चिड़ियाँ बैठी हुई गा रही हैं। 'पिउ पिउ, टि हु टि, पित् पित्...।' इतनी सुंदर आवाज़ । उनके शब्द समझ नहीं पा रही हूँ। किसी-किसी वृक्ष पर अभी भी हरे पत्ते हैं। किसी अकथित कारणवश जीर्ण होने के विरुद्ध युद्ध में विजयी होने के गौरव से वे हिल-डुल रहे हैं।

"तुम्हारी दीपाली बुआ आ गई हैं?”

‘नहीं।’

'मान भंग हुआ?”

‘नहीं।’

‘क्या नहीं किया, कहो ? तुम हर बात बात में कंप्लेन करती हो कि मेरे पास समय का अभाव है।' उसकी बातों में संभवतः कपटी प्रेमी की बू महसूसते हुए मैंने अपनी नाक-भौंह सिकोड़ ली। जब तक अनुराग निश्चित था कि मैं उसके प्रेम में नहीं पड़ी हूँ तब तक उसके पास समय का अभाव नहीं दिखता था । व्यस्तता के बीच भी कितनी बातें...। कैसी हो? क्या कर रही हो? मैं अमुक जगह पर हूँ, जानती हो अब क्या करूँगा? इत्यादि, इत्यादि ।

सारी बातें मुँह खोलकर कह दूँ क्या? नहीं, न कहना ही अच्छा होगा। फिर कुछ बौद्धिक युक्तिबाण। विश्वास न होते हुए भी अंत में अभिनय का आश्रय । मनुष्य का स्वभाव अधिक जान लेने से भी गड़बड़ी हो जाती है। प्रताड़णा, प्रवंचना, मिथ्याचारिता से भरा होता है। तो भी ख़ुद को प्रताड़ित करने पर भी इसी के भीतर 'शांति' खोजनी होगी। इसीलिए बहुतों की बहुत बातें सच नहीं हैं, यह जानते हुए भी उन पर विश्वास करने का अभिनय करती हूँ। इसके लिए कभी-कभी दूसरों द्वारा 'मूर्ख' के विशेषण से भी विभूषित हो जाती हूँ। बुरा नहीं लगता। सब कुछ देख सुनकर, समझ-बूझकर पकड़ में आनेवाली चतुराई को न समझने का भान करते हुए 'मूर्ख' बनकर रहना ही ज्यादा अच्छा होता है।

'तुम्हारी बात करने की इच्छा नहीं है। समझ गया हूँ। दीपाली बुआ के साथ व्यस्त रहो। मूड ठीक होने पर बता देना ।'

अह! अनुराग की बातों से चैतन्य हुई। अनुराग लाइन पर था, जबकि उससे बात करना छोड़ मैं उसके संबंध में दूसरी बातें सोच रही थी। कुछ कहने को मुँह खोली ही थी कि उसने फ़ोन डिसकनेक्ट कर दिया। अनुराग के इस आचरण पर मैं अपने सीने में धधकती आग लिए कुछ क्षण के लिए मूक हो गई। हाथ में पकड़ा हुआ फ़ोन फिर बज उठा। दीपाली बुआ ।

'हाँ जी, अगर मैं ग़लती नहीं कर रही तो तुम बालकॉनी में खड़ी हो न? मेरी राह देख रही हो न?' तब मैंने नीचे की ओर नज़र दौड़ाई। हाँ, वे ही हैं। हाथ में वैनिटी बैग, पैरों की निर्दिष्ट गति, बत्तीस दाँतों में से सोलह दाँत निकलकर मुखमंडल पर व्याप्त हँसी। हाँ, ठीक वैसी ही। पहले के मुक़ाबले थोड़ी स्थूल ज़रूर हुई हैं। चादर-मेखला पहने हुए। बायें हाथ की कलाई पर काले फ़ीते की एचएमटी की पुराने फ़ैशन वाली घड़ी। मैं धड़धड़ाते हुए नीचे उतर आई। दीपाली बुआ मुझे गले लगाकर सुबकने लगीं।

भीतर आने के साथ-साथ दीपाली बुआ ने पूछा कि बाथरूम किधर है। बाथरूम से हाथ-पैर धोने के बाद ड्राइंग रूम में आ बैठीं ।

मैंने चाय, लुची-भाजी, पायस लाकर दीपाली बुआ के सामने रख दिया । लुची पायस खाने के बाद दीपाली बुआ बोलीं- 'अब जाकर शांति मिली। समझी न? धुबरी वाली बसों से आना-जाना बड़ा मुश्किल हो गया है। धुबरी भी अब अच्छी जगह नहीं रही। सीबीटीडी की घटना के बाद चारों ओर बस शिविर - ही - शिविर दिखते हैं। चारों ओर गंदगी फैली रहती है। लगता है कि लोग नहाते-धोते भी नहीं हैं। तेज़ दुर्गंध से मुझे उबकाई होने को आती है। ऐसा लग रहा था जैसे उस भीड़ में मेरी पूरी देह अपवित्र हो गई हो। छोड़ो इन बातों को।' दीपाली बुआ धाराप्रवाह बोलती रहीं। मुझे अपने पास बैठाकर लड़कपन की मेरी शरारतों की बात घरवाले के सामने कहती हुई रोमांचित हो उठीं। नॉस्टैल्जिया से होने वाला रोमांच और बहुत दिनों के विच्छेद के बाद मिले बालोचित अपनत्व के आधिक्य से अनुराग के प्रति मन में जमा क्षोभ तुरंत काफ़ूर हो गया। दीपाली बुआ मेरा लिखा पढ़ती हैं। यह जानकर मैं उनसे कुछ सुनने को उत्सुक हो उठी। अपने कान खड़े किए। क्या - क्या पढ़ा है? किस लिखे हुए ने हृदय को छुआ है? शायद इसके बाद बताएँ।

बाद में उन्होंने कुछ कहा नहीं। मैंने भी नहीं पूछा । मन दुविधा में पड़ गया । लेखकों के सामने अगर कोई पाठक यह कहे कि 'आपका लिखा पढ़कर अच्छा लगा' शायद यह सुनते ही लेखक स्थान-काल-पात्र को भूलकर पाठक से पूछता है कि उसने क्या पढ़ा है और इसके बाद ख़ुद ही कहना शुरू कर देता है कि उसके किस लेख की बहुत प्रशंसा हुई है। कितने फ़ोन, एस. एम. एस. आए हैं, यदि उसकी अमुक किता नहीं पढ़ी हो तो अमुक जगह मिलेगी। पढ़कर बताइएगा। उस किताब में एक अलग तरह का दर्शन है, अलग कहानी है और अलग तरह का चरित्र-चित्रण किया गया है।

यह सब ख़ुद कहकर वह पाठक के लिए विरक्तिजनक हो जाता है अथवा आज की शब्दावली में कहें तो 'बोरिंग' बन जाता है।

सौभाग्य से अपने लिखे हुए के बारे में प्रशंसा सुनकर मुझे ख़राब लगने का प्रश्न ही नहीं उठता। यदि ख़राब लगे भी तो मैं इस मामले में सावधानी बरतती हूँ । कारण, इस तरह की बातों को दो संवाददाताओं और दो सचेत पाठकों से मैं जान जाती हूँ, अतः किसी की प्रशंसा करने पर भी मैं निर्लिप्त रहने को बाध्य हूँ।

शायद दीपाली बुआ को थकान लगी है। उनकी आँखों और चेहरे पर अवसाद के लक्षण दिख रहे हैं, फिर भी बात कर रही हैं। घरवाले ने मुझे रात की रसोई बनाने का काम जल्दी ही कर लेने का इशारा किया। सोच रही थी कि कल दीपाली बुआ को यहीं रखूँगी। आज जल्दी खा-पीकर सो जाएँ। रसोई घर में घुसकर चावल, दाल धोया। सब्जियाँ काटीं। बस ! आग पर बैठाने की देर है। मछली और मांस तो पकाकर रखा ही है।

'क्या कर रही हो?” दीपाली बुआ भी रसोई घर में घुस आईं।

'भात राँध रही हूँ। जल्दी खाकर सो जाइए। कल रहना होगा। बहुत सारी बातें करेंगे।'

‘क्या राँधोगी?”

'मछली और मांस पकाकर रख दिया है। अभी भात, दाल बनाउँगी।'

दीपाली बुआ का चेहरा देखकर लगा कि वे कुछ कहना चाहता है। बाद में उन्होंने झिझकते हुए कह ही दिया- 'अरे, बेकार कष्ट किया खाना बनाने में। मैं मुर्गी का मांस नहीं खाती।'

‘जानती हूँ। इसीलिए तो बकरे का मांस पकाया है।'

दीपाली बुआ कुछ गंभीर दिख पड़ीं।

कहूँ या न कहूँ के असमंजस के बाद बोलीं- 'तुम जाओ तो। न हो तो भात, दाल, सब्जी मैं ही पका दूँ। जमाई को अपने हाथ का पकाया खाना खिलाऊँ।'

मैंने छूटते ही कहा-'आज तो अमावस्या, पूर्णिमा, एकादशी अथवा वृहस्पतिवार, मंगलवार, शनिवार नहीं है। किसका व्रत रखा है ?”

दीपाली बुआ किंचित मुस्कुराती हुई बोलीं- 'असल बात यह है कि मैं ख़ुद का पकाया खाती हूँ। तुम छोटी थीं, इसलिए तुम नहीं जानती थीं। मैं कल नहीं रह पाऊँगी। तुम्हारे फूफा जी भी जहाँ-तहाँ का और इस उसके हाथ का पकाया भोजन नहीं करते हैं। क्या करोगी? मैं तो ऐसे ही चली आई। तुम्हारे घर एक रात गुज़ारी, यही बहुत है ।'

सामान्य भद्रता दिखाते हुए किसी तरह चेहरे पर हँसी लाते हुए मैं बोली- 'तो राँधिए। आपको जैसा अच्छा लगे ।'

रसोई घर से निकल आई। पल भर के लिए ऐसा लगा, जैसे पूरा शरीर ठंडा पड़ गया हो। घरवाले ने पूछा- 'बुआ को रसोई घर में लगा दिया। क्यों?”

'क्या करोगे? शायद यह उनका अभ्यास बन गया है। खाना बनाए बिना नहीं रह सकतीं। तुम्हें खिलाने का शौक़ी चर्राया है।' इन बातों को सहजता से स्वीकार करने की चेष्टा करने पर भी मैं उसमें विफल रही। उस समय झट से याद हो आया कि इसके पहले दीपाली बुआ को खाने के प्लेट में लुची-भाजी, पायस दिया था, उसमें से उन्होंने भाजी की कटोरी निकालकर अलग रख दी थी और हँसते-हँसते कहा था- 'लुची के साथ भाजी खाने की बजाय पायस खाना ही उन्हें अच्छा लगता है।'

किसी मसृण पथ पर पैदल चलते हुए दिखाई न पड़नेवाले पत्थर से अचानक ठोकर खाकर लहू-लुहान होकर मिली यंत्रणा की तरह का परिवेश बन गया। पहली बार दीपाली बुआ के प्रति मेरी श्रद्धा ख़त्म हो गई। ऐसा लगा, जैसे ज़ोरों की प्यास लगने पर जो पानी मैं पीने जा रही थी, उसमें हठात् नाली का कोई कीड़ा पड़ गया हो और मैं प्यास से छटपटा रही हूँ।

कौन कहता है कि समय बदल गया है? दीपाली बुआ ख़ुशी ख़ुशी विदा लेकर अपने घर गईं। उनके चले जाने से मुझे विच्छेद की वेदना का तनिक भी अनुभव नहीं हुआ। हृदय के किसी अनजाने कोने में विषमता की मंद-मंद आग जल रही है।

फिर फ़ोन बज उठा। ‘आर्टिकल पूरा हो गया?”

'हाँ, हाँ, आज ही पूरा कर दूँगी। थोड़ा-सा बाक़ी रह गया था । '

जाति की विषमता। मन ही मन दुहराया। मोबाइल ने फिर संकेत दिया। अनुराग का मैसेज आया है ।

'तुमने आग बनकर जलाया है
मेरा हृदय,
थोड़ा-सा प्यार
किंचित सहानुभूति
कहाँ पाऊँ?
चप्पा-चप्पा छान मारा है
तुम्हारे हृदय का आलय । '

आह! यह मैसेज नहीं है। प्रीति की अनुभूति का निर्जन अरण्य जलानेवाले शब्दों का ज्वलंत स्फुलिंग है यह ।

(हिंदी अनुवाद : विजय कुमार यादव)

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